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سُورَةُ النُّورِ

24. अन-नूर

(मदीना में उतरी-आयतें 64)

परिचय

नाम

आयत 35 'अल्लाहु नूरुस्समावाति वल अरज़ि' (अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है) से लिया गया है।

उतरने का समय

इसपर सभी सहमत हैं कि यह सूरा बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के बाद उतरी है, लेकिन इस बारे में मतभेद है कि क्या यह लड़ाई सन् 05 हि० में अहज़ाब की लड़ाई से पहले हुई थी या सन् 15 हि० में अहज़ाब की लड़ाई के बाद। वास्तविक घटना क्या है, इसकी जाँच शरीअत के उस निहित हित [को समझने के लिए भी ज़रूरी है जो परदे के आदेशों में पाया जाता है, क्योंकि ये] आदेश क़ुरआन की दो ही सूरतों में आए हैं, एक यह सूरा-24, दूसरी सूरा-33 अहज़ाब, जो अहज़ाब को लड़ाई के अवसर पर उतरी है और इसमें सभी सहमत हैं। इस उद्देश्य से जब हम संबंधित रिवायतों की छानबीन करते हैं तो सही बात यही मालूम होती है कि यह सूरा सन् 06 हि० के उत्तरार्द्ध में सूरा अहज़ाब के कई महीने बाद उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिन परिस्थतियों में यह सूरा उतरी है, वे संक्षेप में ये हैं-

बद्र की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के बाद अरब में इस्लामी आंदोलन का जो उत्थान शुरू हुआ था, वह ख़न्दक (खाई) की लड़ाई तक पहुँचते-पहुँचते इस हद तक पहुंँच चुका था कि मुशरिक (बहुदेववादी) यहूदी, मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और इन्तिज़ार करनेवाले, सभी यह महसूस करने लगे थे कि इस नई उभरती ताकत को मात्र हथियार और सेनाओं के बल पर पराजित नहीं किया जा सकता। [इसलिए अब उन्होंने एक नया उपाय सोचा और अपनी इस्लाम दुश्मन] गतिविधियों का रुख़ जंगी कार्रवाइयों से हटाकर नीचतापूर्ण हमलों और आन्तिरिक षड्‍यंत्रों की ओर फेर दिया। यह नया उपाय पहली बार ज़ी-क़ादा 05 हि० में सामने आया, जब कि नबी (सल्ल0) ने अरब से लेपालक की अज्ञानतापूर्ण रीति का अन्त करने के लिए ख़ुद अपने मुँह बोले बेटे (ज़ैद-बिन-हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु) की तलाक़शुदा बीवी (जैनब-बिन्ते-जहश रज़ि०) से निकाह किया। इस अवसर पर मदीना के मुनाफ़िक़ दुष्प्रचार का भारी तूफ़ान लेकर उठ खड़े हुए और बाहर से यहूदियों और मुशरिकों ने भी उनकी आवाज़ से आवाज़ मिलाकर आरोप गढ़ने शुरू कर दिए। इन बेशर्म झूठ गढ़नेवालों ने नबी (सल्ल०) पर निकृष्ट झूठे नैतिक आरोप लगाए ।

दूसरा आक्रमण बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर किया गया। [जब एक मुहाजिर और एक अंसारी के मामूली से झगड़े को मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने एक बड़ा भारी फ़ितना बना देना चाहा। इस घटना का विवरण आगे सूरा-63 अल-मुनाफ़िकून के परिचय में आ रहा है। यह आक्रमण] पहले से भी अधिक भयानक था।

वह घटना अभी ताज़ा ही थी कि उसी सफ़र में उसने एक और भयानक फ़ितना उठा दिया। यह हज़रत आइशा (रज़ि०) को आरोपित करने का फ़ितना था। इस घटना को स्वयं उन्हीं के मुख से सुनिए, वे फ़रमाती हैं कि-

"बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर मैं नबी (सल्ल०) के साथ थी।। वापसी पर, जब हम मदीना के क़रीब थे, एक मंज़िल (पड़ाव) पर रात के समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने पड़ाव किया और अभी रात का कुछ हिस्सा बाक़ी था कि कूच की तैयारियांँ शुरू हो गई। मैं उठकर अपनी ज़रूरत पूरी करने निकली और जब पलटने लगी तो पड़ाव के क़रीब पहुँचकर मुझे लगा कि मेरे गले का हार टूटकर कहीं गिर पड़ा है। मैं उसे खोजने में लग गई और इतने में क़ाफ़िला रवाना हो गया।

क़ायदा यह था कि मैं कूच के समय अपने हौदे में बैठ जाती थी और चार आदमी उसे उठाकर ऊँट पर रख देते थे। हम औरतें उस वक़्त खाने-पीने की चीज़ों की कमी की वजह से बहुत हलकी-फुलकी थीं। मेरा हौदा उठाते समय लोगों को यह महसूस ही नहीं हुआ कि मैं उसमें नहीं हूँ। वे बेख़बरी में ख़ाली हौदा ऊँट पर रखकर रवाना हो गए।

मैं जब हार लेकर पलटी तो वहाँ कोई न था। आख़िर अपनी चादर ओढ़कर वही लेट गई और दिल में सोच लिया कि आगे जाकर जब ये लोग मुझे न पाएँगे तो स्वयं ही ढूँढते हुए आ जाएँगे। इसी हालत में मुझको नींद आ गई। सुबह के वक़्त सफ़वान-बिन-मुअत्तल सुलमी (रज़ि०) उस जगह से गुज़रे जहाँ मैं सो रही थी और मुझे देखते ही पहचान लिया, क्योंकि परदे का आदेश आने से पहले वे मुझे कई बार देख चुके थे। (यह साहब बद्री सहाबियों में से थे । इनको सुबह देर तक सोने की आदत थी, इसलिए ये भी फ़ौजी पड़ाव पर कहीं पड़े सोते रह गए थे और अब उठकर मदीना जा रहे थे।)

मुझे देखकर उन्होंने ऊँट रोक लिया और सहसा उनके मुख से निकला, "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन (निस्सन्देह हम अल्लाह के हैं और उसी की ओर हमें पलटना है।) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पत्नी यहीं रह गईं।" इस आवाज़ से मेरी आँख खुल गई और मैंने उठकर तुरन्त अपने मुँह पर चादर डाल ली। उन्होंने मुझसे कोई बात न की, लाकर अपना ऊँट मेरे पास बिठा दिया और अलग हटकर खड़े हो गए। मैं ऊँट पर सवार हो गई और वे नकेल पकड़कर रवाना हो गए। दोपहर के क़रीब हमने सेना को पा लिया, जबकि वह अभी एक जगह जाकर ठहरी ही थी और लश्करवालों को अभी यह पता न चला था कि मैं पीछे छूट गई हूँ। इसपर लांछन लगानेवालों ने लांछन लगा दिए और उनमें सब से आगे-आगे अब्दुल्लाह-बिन-उबई था।

“मगर मैं इससे बे-ख़बर थी कि मुझपर क्या बातें बन रही हैं। मदीना पहुँचकर मैं बीमार हो गई और एक माह के क़रीब पलंग पर पड़ी रही। शहर में इस लांछन की ख़बरें उड़ रही थीं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के कानों तक भी बात पहुँच चुकी थी, मगर मुझे कुछ पता न था। अलबत्ता जो चीज़ मुझे खटकती थी, वह यह कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का वह ध्यान मेरी ओर न था जो बीमारी के ज़माने हुआ करता था। आख़िर आप (सल्ल०) से इजाज़त लेकर मैं अपनी माँ के घर चली गई, ताकि वे मेरी देखभाल अच्छी तरह कर सकें ।

“एक दिन रात के समय ज़रूरत पूरी करने के लिए मैं मदीने के बाहर गई। उस वक़्त तक हमारे घरों में शौचालय न थे और हम लोग जंगल ही जाया करते थे। मेरे साथ मिस्तह-बिन-उसासा को माँ भी थीं। [उनकी ज़बानी मालूम हुआ कि] लांछन लगानेवाले झूठे लोग मेरे बारे में क्या बातें उड़ा रहे हैं? यह दास्तान सुनकर मेरा ख़ून सूख गया। वह ज़रूरत भी मैं भूल गई जिसके लिए आई थी। सीधे घर गई और रात रो-रोकर काटी।"

आगे चलकर हज़रत आइशा (रजि०) फ़रमाती हैं कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्त०) ने ख़ुतबे (अभिभाषण) में फ़रमाया, “मुसलमानो ! कौन है जो उस व्यक्ति के हमलों से मेरी इज़्ज़त बचाए जिसने मेरे घरवालो पर आरोप रखकर मुझे बहुत ज़्यादा दुख पहुँचाया है। अल्लाह की क़सम ! मैंने न तो अपनी बीवी ही में कोई बुराई देखी है और न उस व्यक्ति में जिसके साथ तोहमत लगाई जाती है। वह तो कभी मेरी अनुपस्थति में मेरे घर आया भी नहीं।"

इस पर उसैद-बिन-हुज़ैर (रजि०) औस के सरदार (कुछ रिवायतों में साद-बिन-मुआज़ रज़ि०) ने उठकर कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल ! अगर वह हमारे क़बीले का आदमी है तो हम उसकी गरदन मार दें और अगर हमारे भाई खज़रजियों में से है तो आप हुक्म दें, हम उसे पूरा करने के लिए हाज़िर हैं।"

यह सुनते ही साद बिन उबादा, खज़रज के सरदार उठ खड़े हुए और कहने लगे, “झूठ कहते हो, तुम हरगिज़ उसे नहीं मार सकते।" उसैद-बिन-हुजैर (रज़ि०) ने जवाब में कहा, “तुम मुनाफ़िक़ हो, इसलिए मुनाफ़िक़ों का पक्ष लेते हो।" इस पर मस्जिदे-नबवी में एक हंगामा खड़ा हो गया, हालाँकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मिम्बर पर तशरीफ़ रखते थे। क़रीब था कि औस और खज़रज मस्जिद ही में लड़ पड़ते, मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको ठंडा किया और फिर मिम्बर पर से उतर आए।

इन विवेचनों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने यह शोशा छोड़कर एक ही समय में कई शिकार करने की कोशिश की।

एक ओर उसने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) की इज़्ज़त पर हमला किया। दूसरी ओर उसने इस्लामी आन्दोलन की श्रेष्ठतम नैतिक प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाने की कोशिश की। तीसरी ओर उसने यह एक ऐसी चिंगारी फेंकी थी कि अगर इस्लाम अपने अनुपालकों के जीवन की काया न पलट चुका होता तो मुहाजिरीन, अंसार और ख़ुद अंसार के भी दोनों क़बीले (औस और खज़रज) आपस में लड़ मरते।

विषय और वार्ताएँ

ये थीं वे परिस्थितियाँ, जिनमें पहले हमले के मौक़े पर सूरा-33 (अहज़ाब) की आयतें 28 से लेकर 73 तक उतरीं और दूसरे हमले के मौक़े पर यह सूरा नूर उतरी। इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर इन दोनों सूरतों का क्रमवार अध्ययन किया जाए तो वह हिकमत (तत्वदर्शिता) अच्छी तरह समझ में आ जाती है जो उनके आदेशों में निहित है। मुनाफ़िक़ मुसलमानों को उस मैदान में परास्त करना चाहते थे, जो उनकी श्रेष्ठता का असल क्षेत्र था। अल्लाह ने बजाय इसके कि मुसलमानों को जवाबी हमले करने पर उकसाता, पूरा ध्यान उनपर यह शिक्षा देने पर लगाया कि तुम्हारे मुक़ाबले के नैतिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ अवरोध मौजूद हैं उनको हटाओ और उस मोर्चे को और अधिक मज़बूत करो। [ज़ैनब (रज़ि०) के निकाह के मौके पर] जब मुनाफ़िक़ो और काफ़िरों (दुश्मनों) ने तूफ़ान उठाया था, उस वक़्त सामाजिक सुधार के संबंध में वे आदेश दिए गए थे जिनका उल्लेख सूरा-33 अहज़ाब में किया गया है। फिर जब लांछन की घटना से मदीना के समाज में एक हलचल पैदा हुई तो यह सूरा नूर नैतिकता, सामाजिकता और क़ानून के ऐसे आदेशों के साथ उतारी गई जिनका उद्देश्य यह था कि एक तो मुस्लिम समाज को बुराइयों के पैदा होने और उनके फैलाव से सुरक्षित रखा जाए और अगर वे पैदा ही हो जाएँ तो उनकी भरपूर रोकथाम की जाए।

इन आदेशों और निर्देशों को उसी क्रम के साथ ध्यान से पढ़िए जिसके साथ वे इस सूरा में उतरे हैं, तो अन्दाज़ा होगा कि क़ुरआन ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर पर मानव-जीवन के सुधार और निर्माण के लिए किस तरह क़ानूनी, नैतिक और सामाजिक उपायों को एक साथ प्रस्तावित करता है। इन आदेशों और निर्देशों के साथ-साथ मुनाफ़िक़ों और ईमानवालों की वे खुली-खुली निशानियाँ भी बयान कर दी गईं जिनसे हर मुसलमान यह जान सके कि समाज में निष्ठावान ईमानवाले कौन लोग और मुनाफ़िक़ कौन हैं ? दूसरी ओर मुसलमानों के सामूहिक अनुशासन को और कस दिया गया। इस पूरी वार्ता में प्रमुख चीज़ देखने की यह है कि पूरी सूरा नूर उस कटुता से ख़ाली है जो अश्लील और घृणित हमलों के जवाब में पैदा हुआ करती है। इतनी अधिक उत्तेजनापूर्ण परिस्थितियों में कैसे ठंडे तरीक़े से क़ानून बनाए जा रहे हैं, सुधारवादी आदेश दिए जा रहे हैं, सूझ-बूझ भरे निरदेश दिए जा रहे हैं और शिक्षा और उपदेश देने का हक़ अदा किया जा रहा है। इससे केवल यही शिक्षा नहीं मिलती कि हमें फ़ितनों के मुक़ाबले में तीव्र से तीव्र उत्तेजना के अवसरों पर भी किस तरह ठंडे चिन्तन, विशाल हृदयता और विवेक से काम लेना चाहिए, बल्कि इससे इस बात का प्रमाण भी मिलता है कि यह कलाम (वाणी) मुहम्मद (सल्ल०) का अपना गढ़ा हुआ नहीं है, किसी ऐसी हस्ती ही का उतारा हुआ है जो बहुत उच्च स्थान से मानवीय परिस्थतियों और दशाओं को देख रही है और अपने आप में उन परिस्थतियों और दशाओं से अप्रभावित होकर विशुद्ध निर्देश और मार्गदर्शन के पद का हक़ अदा कर रही है। अगर यह हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी लिखी होती तो आपकी अति उच्चता और श्रेष्ठता के बावजूद उसमें उस स्वाभाविक कटुता का कुछ न कुछ प्रभाव तो ज़रूर पाया जाता जो स्वयं अपनी प्रतिष्ठा पर निकृष्ट हमलों को सुनकर एक सज्जन पुरुष की भावनाओं में अनिवार्य रूप से पैदा हो जाया करती है।

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سُورَةُ النُّورِ
24. अन-नूर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
سُورَةٌ أَنزَلۡنَٰهَا وَفَرَضۡنَٰهَا وَأَنزَلۡنَا فِيهَآ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ لَّعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ
(1) यह एक सूरा है जिसको हमने उतारा है, और इसे हमने अनिवार्य किया है, और इसमें हमने साफ़-साफ़ आदेश उतारे हैं1, शायद कि तुम शिक्षा लो।
1. इन सब वाक्यों में 'हमने' पर ज़ोर है, अर्थात् इसका उतारनेवाला कोई और नहीं, बल्कि 'हम' हैं, इसलिए इसे किसी शक्तिहीन उपदेशक की वार्ता की तरह एक हल्को चीज़ न समझ बैठना । दूसरे वाक्य में बताया गया है कि जो बातें इस सूरा में कही गई हैं वे 'सिफ़ारिशें' नहीं हैं कि आपका जी चाहे तो मानें, वरना जो कुछ चाहें करते रहें, बल्कि निश्चित आदेश हैं जिनका पालन अनिवार्य है। अगर ईमानवाले हो तो उनका पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है। तीसरे वाक्य में बताया गया है कि जो आदेश इस सूरा में दिए जा रहे हैं उनमें किसी प्रकार की अस्पष्टता नहीं हैं। स्पष्ट और खुले आदेश हैं जिनके बारे में तुम यह बहाना नहीं कर सकते कि अमुक बात हमारी समझ ही में नहीं आई थी, तो हम उस पर कैसे चलते। बस यह इस पवित्र आदेश की भूमिका (Preamble) है जिसके बाद आदेश शुरू हो जाते हैं। इस भूमिका को वर्णन-शैली स्वयं बता रही है कि सूरा नूर के आदेशों को अल्लाह कितना महत्त्व देकर पेश फरमा रहा है। किसी दूसरी आदेशात्मक सूरा की भूमिका इतनी ज़ोरदार नहीं है।
ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِي فَٱجۡلِدُواْ كُلَّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا مِاْئَةَ جَلۡدَةٖۖ وَلَا تَأۡخُذۡكُم بِهِمَا رَأۡفَةٞ فِي دِينِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۖ وَلۡيَشۡهَدۡ عَذَابَهُمَا طَآئِفَةٞ مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 1
(2) व्यभिचारिणी औरत और व्यभिचारी मर्द दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो2 और उनपर तरस खाने का जज़्बा अल्लाह के दीन के मामले में तुम्हारे अन्दर पैदा न हो अगर तुम अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो।3 और उनको सज़ा देते वक़्त ईमानवालों का एक गिरोह मौजूद रहे।4
2. इस प्रकरण के बहुत से कानूनी, नैतिक और ऐतिहासिक पहलू व्याख्या योग्य हैं जिन [का पूरा विवरण मालूम किए बिना] वर्तमान युग में एक आदमी के लिए इस ईश-विधान का समझना कठिन है। इसलिए नीचे हम इसके विभिन्न पहलुओं पर क्रमशः रौशनी डालेंगे: i. ज़िना (व्यभिचार) का नैतिक दृष्टि से बुरा होना या धार्मिक रूप से पाप होना या सामाजिक दृष्टि से दोषपूर्ण और आपत्तिजनक होना एक ऐसी चीज़ है जिसपर प्राचीनतम समयों से आज तक तमाम मानव-समाज एकमत रहे हैं। यही वजह है कि हर ज़माने में मानव-समाजों ने विवाह की रीति के साथ-साथ व्यभिचार की रोक-थाम की भी किसी न किसी रूप में ज़रूर कोशिश की है,अलबत्ता इस कोशिश की शक्लों में विभिन्न कानूनों और नैतिक व सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्थाओं में अन्तर रहा है। ii. ज़िना की दृष्टि में व्यभिचार के अवैध होने पर सहमत होने के बाद मतभेद जिस मामले में हुआ है वह उसके अपराध, अर्थात कानून की दृष्टि में दण्ड का भागी होने का मामला है और यही वह स्थान है जहाँ से इस्लाम और दूसरे धर्मों और कानूनों का मतभेद शुरू होता है। मानव-स्वभाव से करीब जो समाज रहे हैं, उन्होंने हमेशा व्यभिचार को एक अपराध ही समझा है और इसके लिए कड़ी सज़ाएँ रखी हैं, लेकिन जैसे-जैसे मानव-समाजों को सभ्यता दूषित करती गई है, रवैया नर्म होता चला गया है। इस मामले में सबसे पहली ढील, जो आम तौर से बढ़ती गई, यह थी कि कुमारीगमन (Fornication) और विवाहित स्त्री-पुरुष परगमन (Adultry) में अन्तर करके पहले कार्य को एक साधारण-सी ग़लती और बादवाले कार्य को दंडनीय अपराध करार दिया गया। मात्र ज़िना की सज़ा प्राचीन मिस्र, बाबिल और आशूर (असीरिया) के क़ानून में बहुत हल्की थी। इसी कानून को यूनान और रूम ने अपनाया और इसी से अन्ततः यहूदी भी प्रभावित हो गए। बाइबिल में यह सिर्फ एक ऐसा अपराध है जिससे मर्द पर मात्र माली जुर्माना ज़रूरी होता है (देखिए किताब निर्गमन, अध्याय 22 आयत 16-17)। हिन्दू मत का भी लगभग यही हाल है, (देखिए मनुस्मृति अध्याय 8, श्लोक 365-366) । वास्तव में इन सब कानूनों में परस्त्री गमन ही असल और बड़ा अपराध था अर्थात् यह कि कोई व्यक्ति (भले ही वह विवाहित हो या अविवाहित) किसी ऐसी स्त्री से संभोग करे जो दूसरे व्यक्ति की पत्नी हो। इस कर्म के अपराध होने की बुनियाद यह न थी कि एक मर्द और औरत ज़िना कर बैठे, बल्कि यह थी कि उन दोनों ने मिलकर एक व्यक्ति को इस ख़तरे में डाल दिया है कि उसे किसी ऐसे बच्चे को पालना पड़े जो उसका नहीं है। मानो ज़िना नहीं, बल्कि वंश के गड-मड हो जाने का ख़तरा और एक के बच्चे का दूसरे के खर्च पर पलना और उसका वारिस होना वास्तविक अपराध-आधार था जिसकी वजह से औरत और मर्द दोनों अपराधी समझे जाते। ईसाइयों के यहाँ व्यभिचार अगर अविवाहित मर्द, अविवाहिता औरत से करे तो यह पाप तो है, मगर दंडनीय अपराध नहीं है। और अगर इस काम का कोई एक फ़रीक विवाहित हो तो यह अपराध है, मगर इसको अपराध बनानेवाली चीज़ वास्तव में वचनभंगता है न कि मात्र व्यभिचार। फिर इस अपराध की कोई सज़ा इसके सिधा नहीं है कि जिना करनेवाले मर्द की पत्नी अपने पति के ख़िलाफ़ बेवफ़ाई का दावा करके अलगाव की डिग्री हासिल कर ले और व्यभिचारिणी औरत का शौहर एक ओर अपनी पत्नी पर दावा करके अलगाव की डिग्री ले और दूसरी ओर उस व्यक्ति से भी जुर्माना लेने का हक़दार हो जिसने उसकी पत्नी को ख़राब किया। वर्तमान युग के पश्चिमी कानून जिनका पालन अब स्वयं मुसलमानों के भी अधिकतर देश कर रहे हैं, उन्हीं विचारों पर आधारित हैं। उनके नज़दीक व्यभिचार दोष या दुराचार या पाप जो कुछ भी हो, अपराध बहरहाल नहीं है। इसे अगर कोई चीज़ अपराध बना सकती है तो वह 'जब' (ज़ोर-ज़बरदस्ती) है, जबकि दूसरे फ़ीक़ की मर्जी के खिलाफ़ ज़बरदस्ती उससे संभोग किया जाए। iii. इस्लामी क़ानून इन तमाम धारणाओं के विपरीत व्यभिचार को स्वयं में एक दंडनीय अपराध करार देता है और विवाहित होकर व्यभिचार करना उसके नज़दीक अपराध की तीव्रता को और अधिक बढ़ा देता है, न इस कारण कि अपराधी ने किसी से किए हुए 'वचन' को भंग किया या किसी दूसरे के बिस्तर पर हाथ डाला, बल्कि इस आधार पर कि उसके लिए अपनी इच्छाओं को पूरा करने का एक वैध साधन मौजूद था और फिर भी उसने अवैध साधन का उपयोग किया। इस्लामी कानून व्यभिचार को इस दृष्टिकोण से देखता है कि यह वह कर्म है जिसकी अगर आज़ादी हो जाए तो एक ओर मानव-जाति की और दूसरी ओर मानव-संस्कृति की जड़ कट जाए। iv. इस्लाम मानव-समाज को व्यभिचार के खतरे से बचाने के लिए सिर्फ कानूनी सज़ा के हथियार पर निर्भर नहीं करता, बल्कि इसके लिए बड़े पैमाने पर सुधारपूर्ण और रोक-थाम के उपायों को अपनाता है, और यह क़ानूनी सज़ा उसने मात्र एक अन्तिम उपाय के रूप में सुनिश्चित किया है। [इस क़ानूनी सज़ा के निश्चित करने से पहले औरतों और मर्दो के मेल-मिलापवाला रहन-सहन बन्द किया गया, बनी-सँवरी औरतों का बाहर निकलना बन्द किया गया और उन साधनों और कारणों का द्वार बन्द कर दिया गया जो व्यभिचार के अवसर और उसकी सुविधाएँ जुटाते हैं। v. व्यभिचार को दंडनीय अपराध तो सन् 03 हित में ही करार दे दिया गया था, मगर उस वक़्त यह एक कानूनी अपराध न था, बल्कि उसकी हैसियत एक 'सामाजिक' या 'पारिवारिक' अपराध जैसी थी, जिसपर परिवारवालों ही को अपने तौर पर दंड दे लेने का अधिकार था। (देखिए सूरा-4 निसा, आयत 15-16) इसके बाद यह आदेश उतरा और उसने पिछले आदेश को निरस्त कर के व्यभिचार को एक क़ानूनी अपराध, सरकार के हस्तक्षेप योग्य (Cognizable Offence) करार दे दिया। vi. इस आयत में व्यभिचार जो सज़ा मुकर्रर की गई, वह वास्तव में 'मात्र व्यभिचार' की सज़ा है, शादी-शुदा होने के बाद व्यभिचार का अपराध करने की सज़ा नहीं है, जो इस्लामी कानून की दृष्टि में कठोरतम अपराध है। यह बात खुद कुरआन ही के एक इशारे से मालूम होती है कि वह यहाँ उस व्यभिचार की सज़ा बयान कर रहा है जिसके दोनों फरीक़ अविवाहित हों। (व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 46) vii. यह बात कि शादी-शुदा होने के बाद व्यभिचार की सज़ा क्या है, कुरआन मजीद नहीं बताता, बल्कि इसका ज्ञान हमें हदीस से प्राप्त होता है। अधिकांश विश्वसनीय रिवायतों से साबित है कि नबी (सल्ल०) ने न सिर्फ़ कथन के रूप में इसकी सज़ा रज़म (पत्थर मार-मारकर खत्म कर देना) बयान फ़रमाई है, बल्कि व्यावहारिक रूप से आपने कई मुक़द्दमों में यही सज़ा लागू भी की है। vii. ज़िना को क़ानूनी परिभाषा में इस्लामी धर्मशास्त्रियों के बीच मतभेद है । इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) के मतानुयायी इसकी परिभाषा यह करते हैं कि “एक मर्द का किसी ऐसी औरत से आगे से संभोग करना, जो न तो उसके निकाह में हो और न उसकी बांदी हो और न इस मामले में सन्देह का कोई उचित कारण हो कि उसने बीवी या बांदी समझते हुए उससे संभोग किया है। इसके विपरीत इमाम शाफ़ई के मतानुयायी इसको परिभाषा यूँ बयान करते हैं, "गुप्तांग का ऐसे गुप्तांग में दाखिल करना जो शरीअत की दृष्टि से अवैध हो, मगर स्वभावतः जिसकी ओर आकर्षित हुआ जा सकता हो", और इमाम मालिक के मतानुयायियों के नज़दीक इसकी परिभाषा यह है कि “शरई हक़ या इसी जैसे किसी हक़ के बिना आगे या पीछे के गुप्तांगों में मर्द या औरत से संभोग करना।” इन दोनों परिभाषाओं के अनुसार क़ौमे लूत का अमल अर्थात् किसी पुरुष का किसी पुरुष के साथ लैंगिक संबंध भी ज़िना में समझा जा सकता है, लेकिन सही बात [वही है जो इमाम अबू हनीफ़ा के मतवालों ने कही है।] ix. क़ानून की दृष्टि से किसी व्यभिचार को दंडनीय ठहराने के लिए सिर्फ़ शिश्न को प्रविष्ट कर देना काफ़ी है, पूरा अंग दाख़िल करना या पूर्ण संभोग करना इसके लिए ज़रूरी नहीं है। इसके विपरीत अगर शिश्न दाख़िल न हो |बल्कि इससे निम्न प्रकार की अश्लीलता में कोई जोड़ा लिप्त पाया जाए, तो इस] के लिए सिर्फ़ सजा है । यह सजा अगर कोड़े के रूप में हो तो दस कोड़ों से अधिक नहीं लगाए जा सकते। x. किसी व्यक्ति (मर्द या औरत) को अपराधी ठहरा देने के लिए सिर्फ यह बात काफ़ी नहीं है कि उससे जिना का कर्म हो गया है, बल्कि इसके लिए अपराधी में कुछ शर्ते पाई जानी चाहिए। ये शर्ते अविवाहित के व्यभिचार के मामले में और हैं, और एहसान (विवाहित होने के बाद की जिना के मामलों में और। अविवाहित के जिना के मामले में शर्त यह है कि अपराधी पागल न हो और बालिग़ हो। अगर किसी पागल या किसी बच्चे से यह दुष्कर्म हो जाए, तो वह व्यभिचार के दण्ड-विधान में नहीं आएगा। और विवाहित स्त्री पुरुष के व्यभिचार के लिए बुद्धिवाला और बालिग होने के अलावा कुछ और शर्ते भी हैं- पहली पारी यह है कि अपराधी स्वतंत्र हो (अर्थात गुलाम या दास न हो)। दूसरी शर्त यह है कि अपराधी विधिवत रूप से विवाहित हो, तीसरी शर्त यह है कि उसका मात्र निकाह (विवाह) ही न हुआ हो, बल्कि विवाह के बाद स्पष्ट रूप से संभोग कर चुका हो। चौथी शर्त यह है कि अपराधी मुसलमान हो। इसमें मुस्लिम विद्वानों के बीच मतभेद है। इमाम शफई (रह०), इमाम अबू यूसुफ (रह.) और इमाम अहमद (रह.) इसको नहीं मानते। उनके नज़दीक इस्लामी राज्य का कोई विवाहित गैर-मुस्लिम भी अगर व्यभिचार करेगा तो रज्म किया जाएगा, लेकिन इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और हमाम मालिक (रह०) इस बात पर सहमत हैं कि विवाहित स्त्री-पुरुष के द्वारा व्यभिचार करने की सजा रज्म सिर्फ मुसलमान के लिए है। xi. व्यभिचार करनेवाले को अपराधी ठहरा देने के लिए यह भी जरूरी है कि उसने अपनी स्वतंत्र इच्छा से यह कर्म किया हो। जोर-जबरदस्ती से अगर किसी व्यक्ति को इस कर्म के करने पर विवश किया गया हो तो वह न अपराधी है,न सजा का पात्र । xii. इस बात पर मुस्लिम समुदाय के तमाम धर्मशास्त्री सहमत हैं कि इस विचाराधीन आयत में 'इनको कोड़े मारो' में सम्बोधन जन साधारण की ओर नहीं है, बल्कि इस्लामी राज्य के अधिकारी और क़ाज़ी (जज) है। xiii. इस्लामी कानून जिना की सज़ा को राज्य के कानून का एक हिस्सा करार देता है, इसलिए राज्य की सभी जनता पर यह आदेश लागू होगा, भले ही वह मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम। xiv. इस्लामी क़ानून यह अनिवार्य नहीं समझता कि कोई व्यक्ति अपने अपराध को स्वयं स्वीकार करे या जो लोग किसी व्यक्ति के व्यभिचार के अपराध से सूचित हों, वे ज़रूर ही उसकी ख़बर अधिकारियों तक पहुँचाएँ, अलबत्ता जब अधिकारियों को इसकी सूचना हो जाए तो फिर इस अपराध के लिए क्षमा की कोई गुंजाइश नहीं है। xv. इस्लामी कानून में यह अपराध समझौता कराने योग्य नहीं है, न सतीत्त्व का मुआवज़ा या आर्थिक ज़ुर्मानों की शक्ल में दिया दिलाया जा सकता है। xvi, इस्लामी राज्य किसी व्यक्ति के खिलाफ़ जिना के जुर्म में कोई कार्रवाई न करेगा जब तक कि उसके जुर्म का प्रमाण न मिल जाए। xvii. व्यभिचार के अपराध का पहला संभव प्रमाण यह है कि शहादत (गवाही) उस पर क़ायम हो। इसके बारे में क़ानून के महत्त्वपूर्ण अंश ये हैं : (क) ज़िना के लिए कम से कम चार चश्मदीद गवाह होने चाहिएँ। गवाही के बिना क़ाज़ी (जज) मात्र अपने जान के आधार पर फैसला नहीं कर सकता, भले ही वह अपनी आँखों से अपराध होते हुए देख चुका हो, (ख) गवाह ऐसे लोग होने चाहिएँ जो गवाही के इस्लामी क़ानून के अनुसार भरोसेमंद हों। (ग) गवाहों को इस बात की गवाही देनी चाहिए कि उन्होंने अपराधी मर्द और औरत को ठीक संभोग करने की स्थिति में देखा है। (घ) गवाहों को इस मामले में सहमत होना चाहिए कि उन्होंने कब, कहां, किसको, किससे व्यभिचार करते देखा है। इन बुनियादी बातों में मतभेद उनकी गवाही को अमान्य कर देता है। गवाही की ये शर्ते स्वयं बता रही हैं कि इस्लामी कानून का मंशा यह नहीं है कि टकटकियाँ लगी हों और रोज़ लोगों की पीठों पर कोड़े बरसते रहें बल्कि वे ऐसी स्थिति ही में यह कड़ी सज़ा देता है जबकि तमाम सुधारों और रोक-थाम के उपायों के बावजूद इस्लामी समाज में कोई जोड़ा इतना निर्लज्ज हो कि चार-चार आदमी उसको अपराध करते देख लें। xviii. इस बारे में मतभेद है कि क्या मात्र गर्भ का पाया जाना, जबकि औरत का कोई पति या बांदी का कोई स्वामी मालूम न हो, व्यभिचार के सबूत के लिए परिस्थितिजन्य प्रमाण के तौर पर पर्याप्त है या नहीं? हज़रत उमर (रजि०) का मत यह है कि यह गवाही के लिए काफ़ी है और इसी को इमाम मालिक के मतानुयायी ने अपनाया है, मगर आम तौर पर धर्मशात्री [गर्भ को परिस्थितिजन्य प्रमाण के रूप में काफ़ी नहीं समझते। xix. इस बात में भी मतभेद है कि अगर व्यभिचार के गवाहों में मतभेद हो जाए या और किसी वजह से उनकी गवाहियों से अपराध सिद्ध न हो, तो क्या उलटे गवाह झूठे आरोप की सज़ा पाएंगे? धर्मशास्त्रियों का एक गिरोह कहता है कि इस स्थिति में वे झूठे समझे जाएंगे और उन्हें अस्सी कोड़ों की सज़ा दी जाएगी। दूसरा गिरोह कहता है कि उनको सज़ा नहीं दी जाएगी, क्योंकि वे गवाह की हैसियत से आए हैं, न कि मुद्दई की हैसियत से। और अगर इस तरह गवाहों को सज़ा दी जाए तो फिर व्यभिचार की गवाही मिलने का दरवाज़ा ही बन्द हो जाएगा। XX. गवाही के सिवा दूसरी चीज़ जिससे व्यभिचार का अपराध सिद्ध हो सकता है वह अपराधी की अपनी स्वीकारोक्ति है यह स्वीकारोक्ति स्पष्ट और खुले शब्दों में व्यभिचार करने के बारे में होनी चाहिए और अदालत को पूरी तरह यह इत्मीनान कर लेना चाहिए कि अपराधी किसी बाहरी दबाव के बिना स्वत: होश व हवास की हालत में यह स्वीकार कर रहा है। xxi. [ज़िना के मुक़द्दमों की नज़ीरों से] यह साबित होता है कि स्वीकार करनेवाले अपराधी से यह नहीं पूछा जाएगा कि उसने किससे व्यभिचार किया, क्योंकि इस तरह एक के बजाय दो को सज़ा देनी पड़ेगी और शरीअत लोगों को सजाएँ देने के लिए बेचैन नहीं है। अलबत्ता अगर अपराधी स्वयं यह बताए कि इस कार्य का दूसरा फरीक़ फ़ला है तो उससे पूछा जाएगा। अगर वह भी स्वीकार करे तो उसे भी सज़ा दी जाएगी, लेकिन अगर वह इंकार कर दे तो सिर्फ़ स्वीकार करनेवाला अपराधी ही सज़ा का पात्र होगा। xxii. अपराध के सबूत के बाद व्यभिचारी मर्द और औरत को क्या सज़ा दी जाए, इस मसले में धर्मशास्त्रियों के दर्मियान मतभेद हो गया है। विभिन्न धर्मशास्त्रियों के मत इस बारे में निम्न है- विवाहित मर्द-औरत के लिए ज़िना की सज़ा : इमाम अहमद, दाऊद, ज़ाहिरी और इस्हाक बिन राहवैह के नज़दीक सौ कोड़े लगाना और इसके बाद संगसार करना है। शेष तमाम धर्मशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि उनकी सज़ा सिर्फ संगसारी है । रज्म और कोड़े की सज़ा को जमा नहीं किया जाएगा। अविवाहित की सज़ा : इमाम शाफ़ई और इमाम अहमद आदि के नज़दीक सौ कोड़े और एक साल का देश निकाला, मर्द और औरत दोनों के लिए। इमाम मालिक और इमाम औज़ाई के नज़दीक मर्द के लिए सौ कोड़े और एक साल का देश निकाला और औरत के लिए केवल सौ कोड़े। इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और उनके शिष्य कहते हैं कि इस स्थिति में व्यभिचार की सज़ा मर्द और औरत दोनों के लिए सिर्फ़ सौ कोड़े हैं। इसपर किसी और सज़ा, जैसे क़ैद या देश-निकाले की वृद्धि हद (अर्थात् अल्लाह द्वारा निश्चित दण्ड) नहीं, बल्कि ताज़ीर (जज की ओर से परिस्थितीय दण्ड) है । जज अगर यह देखे कि अपराधी बदचलन है या अपराधी मर्द और औरत दोनों के ताल्लुक़ात बहुत गहरे हैं, तो ज़रूरत के मुताबिक़ वह उन्हें नगर-निकाला भी दे सकता है और कैद भी कर सकता है (हद और ताज़ीर में अन्तर यह है कि हद एक निश्चित सज़ा है जो अपराध के सबूत को शर्ते पूरी होने के बाद अनिवार्य रूप से दी जाएगी और ताज़ीर उस सज़ा को कहते हैं जो कानून से मात्रा और स्थिति की दृष्टि में बिल्कुल निश्चित न कर दी गई हो, बल्कि जिसमें आदलत मुक़द्दमे की स्थिति को दृष्टि से कमी-बेशी कर सकती है।) इन विभिन्न मतों (मस्लकों) में से हर एक ने भिन्न-भिन्न हदीसों का सहारा लिया है, लेकिन इन तमाम हदीसों पर सामूहिक दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और उनके साथियों का मस्लक ही सही है। xxiii, कोड़ा मारने की स्थिति के बारे में पहला संकेत स्वयं क़ुरआन के शब्द 'फ़ज्लिदू' में मिलता है। 'जल्द' शब्द 'जिल्द' (खाल) से लिया गया। इसके यही अर्थ तमाम भाषाविदों और टीकाकारों ने लिए हैं कि 'मार' ऐसी होनी चाहिए जिसका प्रभाव खाल तक रहे, मांस तक न पहुँचे । 'मार' के लिए चाहे कोड़ा इस्तेमाल किया जाए या बेत, दोनों दशाओं में वह औसत दर्जे का होना चाहिए, न बहुत मोटा और कठोर और न बहुत पतला और नर्म। 'मार' भी औसत दर्जे की होनी चाहिए [पूरी ताक़त से हाथ को तानकर न मारना चाहिए]। तमाम धर्मशास्त्री इसपर सहमत हैं कि 'मार' घाव पैदा करनेवाली नहीं होनी चाहिए। मर्द को खड़ा करके मारना चाहिए और औरत को बिठाकर। तेज़ सर्दी और तेज़ गर्मी के वक़्त मारना निषिद्ध है। जाड़े में गर्म वक़्त और गर्मी में ठण्डे वक्त मारने का हुक्म है । बाँधकर मारने की भी अनुमति नहीं है, अलावा इसके कि अपराधी भागने की कोशिश करे। मार का काम उजडु जल्लादों से नहीं लेना चाहिए, बल्कि ज्ञानी व विवेकी पुरुषों से यह सेवा लेनी चाहिए, जो जानते हों कि शरीअत का तकाज़ा पूरा करने के लिए किस तरह मारना उचित है? गर्भवती महिला को कोड़े की सज़ा देनी हो तो बच्चा जनने के बाद नापाकी का समय बीत जाने तक इन्तिज़ार करना होगा और रज्म करना हो तो जब तक उसके बच्चे का दूध जान छूट जाए, सज़ा नहीं दी जा सकती। अगर जिना गवाहियों से साबित हो तो मार का आरंभ गवाह करेंगे और अगर स्वीकार करने के कारण सज़ा दी जा रही हो तो काज़ी (जज) स्वयं आरंभ करेगा ताकि गवाह अपनी गवाही को और जज अपने फैसलों को खेल न समझ बैठे ! xxiv. रज्म की सज़ा में जब अपराधी मर जाए तो फिर उससे पूरी तरह मुसलमानों का-सा मामला किया जाएगा। उसका कफ़न-दफ़न किया जाएगा, उसकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाएगी, उसको आदर के साथ मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़न किया जाएगा, उसके हक़ में मरिफ़रत को दुआ की जाएगी और किसी के लिए जाइज़ न होगा कि उसका उल्लेख बुराई के साथ करे। xxv. मुहर्रमात अर्थात् वे औरतें जिनसे निकाह करना अवैध है, उनसे ज़िना के बारे में शरीअत का क़ानून (सूरा-4 निसा) टिप्णी 33 में और पुरुष का पुरुष से लैंगिक संबंध के बारे में शरई फैसला सूरा-7 (आराफ़) टिप्पणी 68 में बयान किया जा चुका है।
3. प्रथम बात जो इस आयत में ध्यान देने की है वह यह है कि यहाँ फौजदारी कानून को 'अल्लाह का दीन (ईश्वरीय धर्म) कहा जा रहा है। मालूम हुआ कि सिर्फ नमाज़ और रोज़ा और हज व ज़कात ही दीन नहीं है, राज्य का क़ानून भी दीन है। दूसरी चीज़ जो इसमें ध्यान देने की है, वह अल्लाह की यह चेतावनी है कि ज़ानी और ज़ानिया (व्यभिचारी और व्यभिचारिणी) पर मेरी निश्चित सज़ा लागू करने में अपराधी के लिए दया और प्रेम की भावना तुम्हारा हाथ न पकड़े। कुछ टीकाकारों ने इस आयत का अर्थ यह लिया है कि अपराधी को अपराध सिद्ध होने के बाद छोड़ न दिया जाए और न सज़ा में कमी की जाए, बल्कि पूरे सौ कोड़े मारे जाएँ और कुछ ने यह अर्थ लिया है कि हलको मार न मारी जाए जिसकी कोई पीड़ा ही अपराधी महसूस न करे। आयत के शब्द दोनों अर्थों पर हावी हैं और इसके अतिरिक्त यह अभिप्रेत भी है कि व्यभिचारी को वही सज़ा दी जाए जो अल्लाह ने निश्चित की है, उसे किसी और सज़ा से न बदल दिया जाए। कोड़े के बजाए कोई और सज़ा देना, अगर दया और प्रेम-भाव के कारण हो, तो पाप है और अगर इस विचार के आधार पर हो कि कोड़ों की सज़ा एक पाशविक सज़ा है तो यह बिल्कुल ही कुफ़्र है।
ٱلزَّانِي لَا يَنكِحُ إِلَّا زَانِيَةً أَوۡ مُشۡرِكَةٗ وَٱلزَّانِيَةُ لَا يَنكِحُهَآ إِلَّا زَانٍ أَوۡ مُشۡرِكٞۚ وَحُرِّمَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 2
(3) व्यभिचारी निकाह न करे मगर व्यभिचारिणी के साथ या मुश्रिक (औरत) के साथ, और व्यभिचारिणी के साथ निकाह न करे मगर व्यभिचारी या मुश्रिक । और यह हराम कर दिया गया है ईमानवालों पर।5
5. अर्थात् ऐसे व्यभिचारी के (विवाह के लिए जिसने अपने पाप से तौबा न की हो यदि योग्य है तो व्यभिचारिणी ही योग्य है या, फिर शिर्क करनेवाली। किसी नेक ईमानवाली के लिए वह योग्य नहीं है, और हराम है ईमानवालों के लिए कि वे जानते-बूझते अपनी लड़कियाँ ऐसे दुराचारियों को दें। इसी तरह व्यभिचारिणी (जिसने तौबा न की हो) औरतों के लिए अगर योग्य है तो उन्हीं जैसे व्यभिचारी, या फिर मुश्कि। किसी नेक ईमानवाले के लिए वे योग्य नहीं हैं और हराम है ईमानवालों के लिए कि जिन औरतों की बदचलनी का हाल उन्हें मालूम हो, उनसे वे जानबूझ कर निकाह करें। यह आदेश केवल उन्हीं मदों और औरतों पर लागू होता है जो अपनी बुरी रीति पर क़ायम हों । जो लोग तौबा करके अपने को सुधार लें, उनपर यह लागू नहीं होता। क्योंकि तौबा और सुधार के बाद 'जानी' होने का दुर्गण उनके साथ लगा नहीं रहता। व्यभिचारी के साथ निकाह के हराम होने का अर्थ इमाम अहमद बिन हबल ने यह लिया है कि सिरे से निकाह ही नहीं होता, लेकिन सही यह है कि इससे तात्पर्य सिर्फ़ रोकना है, न यह कि इस निषेधात्मक आदेश के विरुद्ध अगर कोई निकाह करे तो वह क़ानूनन निकाह ही न हो और इस निकाह के बावजूद दोनों फ़रीक़ व्यभिचारी समझे जाएँ। इसी तरह इस आयत से यह नतीजा भी नहीं निकलता कि व्यभिचारी मुस्लिम का निकाह मुश्रिक औरत से और मुस्लिम व्यभिचारिणी का निकाह मुश्कि मर्द से सही है । आयत का उद्देश्य वास्तव में यह बताना है कि व्यभिचार ऐसा घिनौना कर्म है कि जो व्यक्ति मुसलमान होते हुए ऐसा करे, वह इस योग्य नहीं रहता कि मुस्लिम समाज के पाक और भले लोगों से उसका रिश्ता हो । उसे या तो अपने ही जैसे व्यभिचारियों में जाना चाहिए, या फिर उन मुशिकों में जो सिरे से अल्लाह के आदेशों में विश्वास ही नहीं रखते।
وَٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ثُمَّ لَمۡ يَأۡتُواْ بِأَرۡبَعَةِ شُهَدَآءَ فَٱجۡلِدُوهُمۡ ثَمَٰنِينَ جَلۡدَةٗ وَلَا تَقۡبَلُواْ لَهُمۡ شَهَٰدَةً أَبَدٗاۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 3
(4) और जो लोग पाक दामन औरतों पर तोहमत लगाएँ 5अ, फिर चार गवाह लेकर न आएँ, उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी स्वीकार न करो, और वे स्वयं ही गुनाहगार हैं,
5अ. अर्थात् व्यभिचारी की तोहमत । और यही आदेश पाकदामन मर्दो पर भी व्यभिचार को तोहमत लगाने का है। शरीअत की परिभाषा में इस तोहमत लगाने को कज़फ़' कहा जाता है।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 4
(5) सिवाय उन लोगों के जो इस हरकत के बाद तौबा कर लें और सुधार कर लें कि अल्लाह ज़रूर (उनके पक्ष मे) क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।6
6. इस आदेश का मंशा यह है कि समाज में लोगों को आशनाइयों और अवैध संबंधों के चर्चे कतई तौर पर बन्द कर दिए जाएँ, क्योंकि इससे अनगणित बुराइयाँ फैलती हैं और उनमें सबसे बड़ी बुराई यह है कि इस तरह गैर-महसूस तरीक़े पर एक सामान्य वासनापूर्ण वातावरण बनता चला जाता है। शरीअत इस चीज़ की रोकथाम पहले ही क़दम पर कर देना चाहती है। एक ओर वह आदेश देती है कि अगर कोई व्यभिचार करे और गवाहियों से उसका अपराध सिद्ध हो जाए, तो उसको वह इंतिहाई सज़ा दो जो किसी और अपराध पर नहीं दी जाती और दूसरी ओर वह निर्णय करती है कि जो व्यक्ति किसी पर व्यभिचार का आरोप लगाए वह या तो गवाहियों से अपना आरोप सिद्ध करे वरना उसपर अस्सी कोड़े बरसा दो, ताकि आगे कभी वह अपने मुख से ऐसी बात बिना सबूत कहने का साहस न करे। मान लीजिए अगर आरोप लगानेवाले ने किसी को अपनी आँखों से भी बदकारी करते देख लिया हो तब भी उसे ख़ामोश रहना चाहिए और दूसरों तक उसे न पहुँचाना चाहिए, ताकि गन्दगी जहाँ है वहीं पड़ी रहे, आगे न फैल सके। अलबत्ता अगर उसके पास गवाह मौजूद हैं तो समाज में बेहूदा चर्चे करने के बजाय मामला अधिकारियों के पास ले जाए और अदालत में अपराधी पर अपराध साबित करके उसे सज़ा दिलवा दे। जो व्यक्ति ऐसी गवाही पेश न कर सके, जो उसे 'कज़फ़' के अपराध से मुक्त कर सकती हो, उसके लिए कुरआन ने तीन आदेश दिए हैं- एक यह कि उसे अस्सी कोड़े लगाए जाएँ, पति दूसरे यह कि उसकी गवाही कभी स्वीकार न की जाए, तीसरे यह कि वह झूठा है । इसके बाद कुरआन कहता है, "सिवाय उन लोगों के जो इसके बाद तौबा करें और सुधार करें कि अल्लाह क्षमा करनेवाला और दयावान है।” यहाँ सवाल पैदा होता है कि इस वाक्य में तौबा और सुधार से जिस क्षमा' का उल्लेख किया गया है, उसका ताल्लुक़ उन तीनों आदेशों में से किसके साथ है। धर्मशास्त्रियों में इसपर सहमति है कि पहले आदेश से इसका ताल्लुक नहीं है, अर्थात् तौबा से 'क़ज़फ़' की सज़ा ख़त्म न होगी और अपराधी को कोड़े की सज़ा बहरहाल दी जाएगी। धर्मशास्त्री इस पर भी सहमत हैं कि इस क्षमा का ताल्लुक़ अन्तिम आदेश से है, अर्थात् तौबा और सुधार के बाद अपराधी 'फ़ासिक' न रहेगा और अल्लाह उसे क्षमा कर देगा। अब रह जाता है बीच का आदेश, अर्थात् यह कि "कज़फ़ करनेवाले की गवाही कभी स्वीकार न की जाए।" धर्मशास्त्रियों के बीच इसके बारे में मतभेद है। इमाम अबू हनीफ़ा के अनुयायी यह मानते हैं कि इस वाक्य का ताल्लुक केवल अन्तिम आदेश से है, अर्थात् जो व्यक्ति तौबा और सुधार कर लेगा वह अल्लाह और लोगों के नज़दीक 'फ़ासिक' (झूठा) न रहेगा, लेकिन पहले दोनों हुक्म इसके बाद भी बाक़ी रहेंगे। अर्थात् अपराधी पर हद (सज़ा) भी जारी की जाएगी और सदा के लिए उसकी गवाही भी अमान्य कर दी जाएगी। इमाम शाफ़ई (रह०) और इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक 'सिवा उनके जो तौबा करें----' का ताल्लुक़ पहले आदेश से तो नहीं है, मगर आखिरी दोनों आदेशों से है। अर्थात् तौबा के बाद क़ज़फ़ की सज़ा भोगे हुए अपराधी की गवाही भी स्वीकार की जाएगी और वह फ़ासिक भी न समझा जाएगा। इस मामले में इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) के अनुयायियों की राय अधिक वज़नी है। व्यक्ति की तौबा का हाल अल्लाह के सिवा कोई नहीं जान सकता। हमारे सामने जो व्यक्ति तौबा करेगा, हम उसे इस सीमा तक तो रिआयत दे सकते हैं कि उसे 'फ़ासिक' के नाम से याद न करें, लेकिन इस हद तक रिआयत नहीं दे सकते कि जिसकी ज़बान का भरोसा एक बार जाता रहा है, उसपर फिर केवल इसलिए भरोसा करने लगे कि वह हमारे सामने तौबा कर रहा है। इसके अलावा स्वयं क़ुरआन की वर्णन-शैली भी यही बता रही है कि 'सिवा उनके जो तौबा करें' का ताल्लुक़ सिर्फ़ यही लोग फ़ासिक' से है। इसलिए कि आयत में पहली दो बातें आदेश के शब्दों में कही गई हैं : "उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी स्वीकार न करो।" और तीसरी बात ख़बर के शब्दों में कही गई है : “वे स्वयं ही फ़ासिक है।" इस तीसरी बात के बाद तुरन्त यह कहना कि 'सिवाए उन लोगों के जो तौबा कर लें' स्वयं बता देता है कि यह अपवाद अन्तिम खबर के रूप में, से ताल्लुक़ रखता है, न कि पहले दो आदेशवाले वाक्यों से। सवाल किया जा सकता है कि “सिवाय उनके जो तौबा करें” का अपवाद आख़िर पहले आदेश से संबंध क्यों न मान लिया जाए? 'क़ज़फ़' आख़िर एक प्रकार का अनादर ही तो है। एक व्यक्ति इसके बाद अपनी गलती मान ले, जिसे आरोपित किया गया है उससे क्षमा माँग ले और आगे के लिए इस हरकत से तौबा कर ले तो आख़िर उसे क्यों न छोड़ दिया जाए, जबकि अल्लाह स्वयं आदेश देने के बाद फ़रमा रहा है, "सिवाय उनके जो तौबा करें--- तो बेशक अल्लाह क्षमा करनेवाला और दयावान है।" यह तो एक विचित्र बात होगी कि अल्लाह क्षमा कर दे और बन्दे क्षमा न करें। इसका उत्तर यह है कि तौबा वास्तव में 'तौबा' शब्द कह देने का नाम नहीं है, बल्कि शर्मिदगी का दिल से एहसास होना और सुधार का प्रण और भलाई की ओर पलटने का नाम है, और इस चीज़ का हाल अल्लाह के सिवा किसी को मालूम नहीं हो सकता। इसी लिए तौबा से दुनिया की सज़ाएँ माफ़ नहीं होतीं, बल्कि केवल आख़िरत को सज़ा माफ़ होती है और इसलिए अल्लाह ने यह नहीं फरमाया है कि अगर वह तौबा कर लें तो तुम उन्हें छोड़ दो, बल्कि यह फ़रमाया है कि जो लोग तौबा कर लेंगे, मैं उनके हक़ में क्षमाशील और दयावान हूँ। अगर तौबा से दुनिया की सज़ाएँ भी माफ़ होने लगें तो आख़िर वह कौन-सा अपराधी है जो सज़ा से बचने के लिए तौबा न कर लेगा?
وَٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ أَزۡوَٰجَهُمۡ وَلَمۡ يَكُن لَّهُمۡ شُهَدَآءُ إِلَّآ أَنفُسُهُمۡ فَشَهَٰدَةُ أَحَدِهِمۡ أَرۡبَعُ شَهَٰدَٰتِۭ بِٱللَّهِ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 5
(6) और जो लोग अपनी बीवियों पर आरोप लगाएं 6अ और उनके पास खुद उनके अपने सिवा दूसरे कोई गवाह न हों, तो उनमें से एक व्यक्ति की गवाही (यह है कि वह) चार बार अल्लाह की क़सम ख़ाकर गवाही दे कि वह (अपने आरोप में) सच्चा है
6अ. अर्थात् व्यभिचार का आरोप लगाएँ।
وَٱلۡخَٰمِسَةُ أَنَّ لَعۡنَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 6
(7) और पाँचवीं बार कहे कि उसपर अल्लाह कि फिटकार हो अगर वह (अपने आरोप में) झूठा हो।
وَيَدۡرَؤُاْ عَنۡهَا ٱلۡعَذَابَ أَن تَشۡهَدَ أَرۡبَعَ شَهَٰدَٰتِۭ بِٱللَّهِ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 7
(8) और औरत से सज़ा इस तरह टल सकती है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खाकर गवाही दे कि यह व्यक्ति (अपने आरोप में) झूठा है,
وَٱلۡخَٰمِسَةَ أَنَّ غَضَبَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَآ إِن كَانَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 8
(9) और पाँचवीं बार कहे कि उस बन्दी पर अल्लाह का प्रकोप हो अगर वह (अपने आरोप में) सच्चा हो।7
7. ये आयतें पिछली आयतों के कुछ मुद्दत बाद उतरी हैं। क़ज़फ़ की सज़ा का आदेश जब आया तो लोगों में यह सवाल पैदा हो गया कि पराए मर्द और औरत की बदचलनी देखकर तो आदमी सब्र कर सकता है। गवाह मौजूद न हों तो ज़बान पर ताला चढ़ा ले और मामले को नज़रंदाज़ कर दे, लेकिन अगर वह ख़ुद अपनी बीवी की बदचलनी देख ले तो क्या करे? क़त्ल कर दे तो उलटा दंडित हो, गवाह ढूँढने जाए तो उनके आने तक अपराधी कब ठहरा रहेगा, सब करे तो आखिर कैसे करे? फिर कुछ ऐसे मुक़द्दमे व्यावहारिक रूप से सामने आ गए जिनमें पतियों ने अपनी आँखों से यह मामला देखा और नबी (सल्ल०) के पास उसकी शिकायत ले गए। इस पर यह आयत उतरी । (बुख़ारी, अहमद, अबू दाऊद) इसमें मामला हल करने का जो तरीका बताया गया है, उसे शरीअत की परिभाषा में 'लिआन' कहा जाता है। यह आदेश आ जाने के बाद नबी (सल्ल.) ने जिन मुकदमों का फैसला फ़रमाया, उनके सविस्तार विवरण हदीस की किताबों में उल्लिखित हैं और वही 'लिआन' के विस्तृत क़ानून और कार्रवाई के नियमों का स्रोत हैं । [नियम की महत्वपूर्ण धाराएँ ये हैं : 1.लिआन घर बैठे आपस ही में नहीं हो सकता, इसके लिए अदालत में जाना ज़रूरी है। 2. लिआन की माँग का अधिकार सिर्फ़ मर्द ही के लिए नहीं है, बल्कि औरत भी अदालत में इसकी माँग कर सकती है, जबकि शौहर उसपर बदकारी का आरोप लगाए या उसके बच्चे का वंश मानने से इंकार करे। अगर आरोप लगाने के बाद शौहर क़सम खाने से बचे तो इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) और उनके साथी कहते हैं कि उसे कैद कर दिया जाएगा और जब तक वह लिआन न करे या अपने आरोप को झूठा होना न मान ले, उसे न छोड़ा जाएगा और झूठ मान लेने की स्थिति में उसे 'क़ज़फ़' का दंड दिया जाएगा। इसके विपरीत इमाम मालिक, शाफ़ई, हसन बिन सालेह और लैस बिन साद को राय यह है कि लिआन से पहलू बचाना, ख़ुद ही झूठ को स्वीकार करना है। इसलिए क़ज़फ़ का दंड अनिवार्य हो जाता है। अगर शौहर के म उपर्युक्त क़सम खा चुकने के बाद औरत लिआन से बचे तो हनफ़ियों की राय यह है कि उसे कैद कर दिया जाए और उस वक़्त तक न छोड़ा जाए जब तक वह लिआन न करे या फिर व्यभिचार को स्वीकार न कर ले । दूसरी ओर उपर्युक्त इमाम कहते हैं कि इस स्थिति में उसे रज्म कर दिया जाएगा। लिआन हो चुकने के बाद) औरत और मर्द दोनों किसी सज़ा के हक़दार नहीं रहते । मर्द बच्चे के वंश का इंकारी हो तो बच्चा सिर्फ़ माँ का करार पाएगा, न बाप से निस्बत होगी, न उससे मीरास पाएगा। माँ उसकी वारिस होगी और वह माँ का वारिस होगा। औरत को व्यभिचारिणी और उसके बच्चे को 'हरामी' बच्चा कहने का किसी को या अधिकार न होगा। लिआन के बाद औरत और मर्द के अलगाव के बारे में इमाम शाफ़ई (रह०) कहते हैं कि जिस समय मर्द लिआन से फ़ारिश हो जाए, उसी समय अलगाव आप से आप हो जाता है चाहे औरत जवाबी लिआन करे या न करे। इमाम मलिक (रह.) कहते हैं कि मर्द और औरत लिआन से फारिग़ हों तब जुदाई होती है और इमाम अबू हनीफ़ा कहते हैं कि लिआन से अलगाव आप ही आप नहीं हो जाता, बल्कि अदालत के अलगाव कराने से होता है। [लिआन से जो पति-पत्नी अलग हुए हों, उनके बारे में] इमाम मालिक, अबू यूसुफ़, शाफ़ई और अहमद बिन हंबल कहते हैं कि वे फिर हमेशा के लिए एक-दूसरे पर हराम हो जाते हैं। दोबारा वे आपस में निकाह करना भी चाहें तो किसी हाल में नहीं कर सकते । इसके विपरीत अबू हनीफ़ा और मुहम्मद (रह०) की राय यह है कि अगर पति अपना झूठ मान ले और उसपर क़ज़फ़ की सज़ा जारी हो जाए, तो फिर उन दोनों के बीच दोबारा निकाह हो सकता है।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ تَوَّابٌ حَكِيمٌ ۝ 9
(10) तुम लोगों पर अल्लाह की कृपा और उसकी मेहरबानी न होती और यह बात न होती कि अल्लाह बड़ा तवज्जोह फ़रमानेवाला और तत्वदर्शी है तो (बीवियों पर आरोप का मामला तुम्हें बड़ी पेचीदगी में डाल देता) ।
إِنَّ ٱلَّذِينَ جَآءُو بِٱلۡإِفۡكِ عُصۡبَةٞ مِّنكُمۡۚ لَا تَحۡسَبُوهُ شَرّٗا لَّكُمۖ بَلۡ هُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۚ لِكُلِّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُم مَّا ٱكۡتَسَبَ مِنَ ٱلۡإِثۡمِۚ وَٱلَّذِي تَوَلَّىٰ كِبۡرَهُۥ مِنۡهُمۡ لَهُۥ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 10
(11) जो लोग यह बोहतान गढ़ लाए हैं8 , वे तुम्हारे ही अन्दर का एक टोला हैं।9 इस घटना को अपने हक़ में बुराई न समझो, बल्कि यह भी तुम्हारे लिए भलाई ही है।10 जिसने इसमें जितना हिस्सा लिया, उसने उतना ही गुनाह समेटा और जिस आदमी ने उसकी ज़िम्मेदारी का बड़ा हिस्सा अपने सर लिया11, उसके लिए तो बड़ा अज़ाब है।
8. यहाँ से आयत 26 तक उस मामले पर वार्ता हुई है जो इतिहास में 'इफ्क' (झूठ) की घटना के नाम से मशहूर है और जो इस सूरा के उतरने का मूल कारण था। इसको इफ्क (झूठ) के शब्द से परिभाषित करना स्वयं अल्लाह की ओर से उस आरोप का पूर्ण खंडन है । इफ्क का अर्थ है बात को उलट देना, सच्चाई के खिलाफ़ कुछ से कुछ बना देना। इसी अर्थ की दृष्टि से यह शब्द कतई झूठ और मनगढन्त के अर्थ में बोला जाता है और अगर किसी आरोप के लिए बोला जाए तो इसके मानी सरासर बोहतान के हैं। [हज़रत आइशा (रजि०) फ़रमाती है कि जिस समय ये आयतें उतरीं, उस समय] नबी (सल्ल०) बेहद ख़ुश थे। आपने हँसते हुए पहली बात जो फ़रमाई वह यह थी कि 'मुबारक हो आइशा ! अल्लाह ने तुम्हें निर्दोष घोषित कर दिया है और इसके बाद नबी (सल्ल.) ने दस आयतें सुनाई (अर्थात् आयत 11 से 21 तक)। मेरी माँ ने कहा कि उठो और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का शुक्रिया अदा करो। मैंने कहा, "मैं न इनका शुक्रिया अदा करूंगी, न आप दोनों का, बल्कि अल्लाह का शुक्र अदा करती हूँ जिसने मुझे निर्दोष ठहराया।"
9. रिवायतों में केवल कुछ आदमियों के नाम मिलते हैं जो ये अफवाहें फैला रहे थे। अब्दुल्लाह बिन उबई, ज़ैद बिन रफ़ाया (जो शायद रफ़ाया बिन ज़ैद यहूदी मुनाफ़िक का बेटा था) मिस्तह बिन उसासा, हस्सान विन सावित आर हम्ना विन्त जहश, इनमें से पहले दो मुनाफ़िक़ थे और बाक़ी तीन मोमिन (ईमानवाले) थे जो ग़लती और कमज़ोरी से इस फ़ित्ने में पड़ गए थे।
لَّوۡلَآ إِذۡ سَمِعۡتُمُوهُ ظَنَّ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ بِأَنفُسِهِمۡ خَيۡرٗا وَقَالُواْ هَٰذَآ إِفۡكٞ مُّبِينٞ ۝ 11
(12) जिस समय तुम लोगों ने उसे सुना था, उसी वक्त क्यों न मोमिन भदों और मोमिन औरतों ने अपने आपसे नेक गुमान किया12 और क्यों न कह दिया कि यह खुला बोहतान है?13
12. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि अपने लोगों या अपनी मिल्लत (समुदाय) और अपने समाज के लोगों से अच्छा गुमान क्यों न किया। आयत के शब्दों में दोनों अर्थ मौजूद हैं और इस बहुअर्थी बाक्य के प्रयोग में एक सूक्ष्म बात है, जिसे ख़ूब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। जो वस्तु-स्थिति हज़रत आइशा (रज़ि) और सफ़वान बिन मुअत्तल के साथ पेश आई थी, वह यही तो थी कि काफिले की एक महिला (इससे हटकर कि वे रसूल सल्ल० की बीवी थीं) संयोग से पीछे रह गई थीं और काफिले ही का एक आदमी जो स्वयं संयोग से पीछे रह गया था, उन्हें देखकर अपने ऊंट पर बिठा लाया। अब अगर कोई आदमी यह कहता है कि मआज़ल्लाह ! ये दोनों तनहा एक-दूसरे को पाकर गुनाह में पड़ गए तो उसका यह कहना अपने प्रत्यक्ष शब्दों के पीछे दो और बातें कहता है। एक यह कि कहनेवाला (चाहे वह मर्द हो या औरत) अगर स्वयं उस जगह होता तो कभी गुनाह किए बिना न रहता। दूसरे यह कि जिस समाज से वह ताल्लुक रखता है, उसकी नैतिक स्थिति के बारे में उसका गुमान यह है कि यहाँ कोई औरत भी ऐसी नहीं है और न कोई मर्द ऐसा है जिसे इस तरह का कोई मौका पेश आ जाए और वह गुनाह से बाज़ रह जाए। यह तो उस स्थिति में है जबकि मामला केवल एक मर्द और एक औरत का हो और मान लीजिए अगर वह मर्द और औरत दोनों एक ही जगह के रहनेवाले हों और औरत जो संयोग से काफ़िले से बिछड़ गई थी, उस मर्द के किसी मित्र या रिश्तेदार, पड़ोसी या जानकार की बीवी, बहन, या बेटी हो तो मामला और भी अधिक विकट हो जाता है। इसका अर्थ फिर यह हो जाता है कि कहनेवाला स्वयं अपने आप के बारे में भी और अपने समाज के बारे में भी ऐसा ही घोर घिनौना विचार रखता है, जिसे सज्जनता से दूर का भी सम्बन्ध नहीं । इसी लिए अल्लाह फ़रमा रहा है कि मुस्लिम समाज के जिन लोगों ने यह बात ज़बान से निकाली या इसे कम से कम सन्देह करने योग्य विचार किया, उन्होंने स्वयं अपने निज के बारे में भी बहुत बुरा विचार क़ायम किया और अपने समाज के लोगों को भी बड़े नीच चरित्रवाला समझा।
13. अर्थात् यह बात तो विचारणीय तक न थी। इसे तो सुनते ही हर मुसलमान को सरासर झूठ और बोहतान कह देना चाहिए था। सभव है कोई व्यक्ति यहाँ पर यह सवाल करे कि जब यह बात थी तो स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रजि०) ने क्यों न पहले दिन ही उसे झुठला दिया और क्यों उन्होंने उसे इतना महत्त्व दिया? इसका उत्तर यह है कि शौहर और बाप की पोजीशन आम आदमियों से बिल्कुल अलग होती है । यद्यपि एक शौहर से बढ़कर कोई अपनी बीवी को नहीं जान सकता और एक सच्चरित्र और नेक बीवी के बारे में कोई सही दिमाग़वाला शौहर लोगों के बोहतानों पर वास्तव में बद-गुमान नहीं हो सकता, लेकिन अगर उसकी बीवी पर आरोप लगा दिया जाए तो वह इस मुश्किल में पड़ जाता है कि उसे बोहतान कहकर रद्द कर भी दे तो कहनेवालों की ज़बानें न रुकेंगी, बल्कि वे इसपर एक और रहा यह चढ़ाएँगे कि बीवी ने मियाँ साहब की बुद्धि पर कैसा परदा डाल रखा है। सब कुछ कर रही है और मियां यह समझते हैं कि मेरी बीवी बड़ी पाक दामन है। ऐसी ही मुश्किल माँ-बाप को पेश आती है। वे गरीब अपनी बेटी की इज़्ज़त पर खुले झूठे आरोप के खंडन में अगर ज़बान खोले भी तो बेटी की स्थिति साफ़ नहीं होती। कहनेवाले यही कहेंगे कि माँ-बाप हैं, अपनी बेटी का सर्मथन न करेंगे तो और क्या करेंगे। यही चीज़ थी जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू बक्र और उम्मे रूमान (रजि०) को भीतर ही भीतर ग़म से घुलाए दे रही थी। वरना वास्तव में कोई सन्देह उनको न था। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने तो खुत्बे ही में साफ़ फ़रमा दिया था कि मैंने न अपनी बीवी में कोई बुराई देखी है और न उस आदमी में जिसके बारे में आरोप लगाया जा रहा है।
لَّوۡلَا جَآءُو عَلَيۡهِ بِأَرۡبَعَةِ شُهَدَآءَۚ فَإِذۡ لَمۡ يَأۡتُواْ بِٱلشُّهَدَآءِ فَأُوْلَٰٓئِكَ عِندَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ ۝ 12
(13) वे लोग (अपने आरोप के प्रमाण में) चार गवाह क्यों न लाए? अब जब कि वे गवाह नहीं लाए हैं, अल्लाह के नज़दीक वही झूठे हैं।14
14. 'अल्लाह के नज़दीक' अर्थात् अल्लाह के क़ानून में या अल्लाह के क़ानून के अनुसार। वरना स्पष्ट है कि अल्लाह के ज्ञान में तो आरोप अपने आप में झूठा था। इसका झूठ होना इस बात पर आश्रित न था कि ये लोग गवाह नहीं लाए हैं। इस जगह किसी आदमी को यह भ्रम न हो कि यहाँ आरोप के गलत होने का प्रमाण और आधार केवल गवाही की अनुपस्थिति को ठहराया जा रहा है और मुसलमानों से कहा जा रहा है कि तुम भी सिर्फ़ इस कारण उसको खुला बोहतान करार दो कि आरोप लगानेवाले चार गवाह नहीं लाए हैं। यह भ्रम उस स्थिति को दृष्टि में न रखने से पैदा होती है जो वास्तव में वहाँ पेश आई थी। आरोप लगानेवालों ने आरोप इस कारण नहीं लगाया था कि उन्होंने या उनमें से किसी आदमी ने मआज़ल्लाह (अल्लाह की पनाह) अपनी आँखों से वह बात देखी थी जो वे ज़बान से निकाल रहे थे, बल्कि केवल इस आधार पर इतना बड़ा आरोप गढ़ डाला था कि संयोग से हज़रत आइशा (रजि०) क़ाफ़िले से पीछे रह गई थीं और हज़रत सफ़वान (रजि०) बाद में उनको अपने ऊँट पर सवार करके क़ाफ़िले में ले आए थे। कोई बुद्धिवाला आदमी भी इस अवसर पर यह नहीं सोच था कि आइशा (रजि०) का इस तरह पीछे रह जाना मआज़ल्लाह किसी साँठ-गाँठ का परिणाम था। साँठ-गाँठ करनेवाले इस तरीक़े से तो साँठ-गाँठ नहीं किया करते कि सेनापति की बीवी चुपके से क़ाफ़िले के पीछे एक आदमी के साथ रह जाए और फिर वही आदमी उसको अपने ऊँट पर बिठाकर दिन-दहाड़े, ठीक दोपहर के वक़्त, लिए हुए एलानिया फ़ौज के पड़ाव पर पहुँचे। यह स्थिति स्वयं ही इन दोनों के निरपराध होने का प्रमाण बन रही है। इस स्थिति में अगर आरोप लगाया जा सकता था तो सिर्फ इस बुनियाद पर ही लगाया जा सकता था कि कहनेवालों ने अपनी आँखों से कोई मामला देखा हो, वरना परिस्थितियाँ जिन पर ज़ालिमों ने आरोप की बुनियाद रखी थी, किसी सन्देह को गुंजाइश न रखती थीं।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ لَمَسَّكُمۡ فِي مَآ أَفَضۡتُمۡ فِيهِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 13
(14) अगर तुम लोगों पर दुनिया और आखिरत में अल्लाह की मेहरबानी और दया व कृपा न होती तो जिन बातों में तुम पड़ गए थे, उनके बदले में बड़ा अज़ाब तुम्हें आ लेता।
إِذۡ تَلَقَّوۡنَهُۥ بِأَلۡسِنَتِكُمۡ وَتَقُولُونَ بِأَفۡوَاهِكُم مَّا لَيۡسَ لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞ وَتَحۡسَبُونَهُۥ هَيِّنٗا وَهُوَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمٞ ۝ 14
(15) (तनिक विचार तो करो, उस समय तुम कैसी भारी ग़लती कर रहे थे) जबकि तुम्हारी एक ज़बान से दूसरी ज़बान इस झूठ को लेती चली जा रही थी और तुम अपने मुँह से वह कुछ कहे जा रहे थे जिसके बारे में तुम्हें कोई ज्ञान न था। तुम इसे एक मामूली बात समझ रहे थे, हालाँकि अल्लाह के नज़दीक यह बड़ी बात थी।
وَلَوۡلَآ إِذۡ سَمِعۡتُمُوهُ قُلۡتُم مَّا يَكُونُ لَنَآ أَن نَّتَكَلَّمَ بِهَٰذَا سُبۡحَٰنَكَ هَٰذَا بُهۡتَٰنٌ عَظِيمٞ ۝ 15
(16) क्यों न इसे सुनते ही तुमने कहा कि “हमें ऐसी बात ज़बान से निकालना शोभा नहीं देती। सुबहानल्लाह ! यह तो एक बड़ा बोहतान है।"
يَعِظُكُمُ ٱللَّهُ أَن تَعُودُواْ لِمِثۡلِهِۦٓ أَبَدًا إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 16
(17) अल्लाह तुमको नसीहत करता है कि आगे कभी ऐसी हरकत न करना, अगर तुम मोमिन हो।
وَيُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۚ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 17
(18) अल्लाह तम्हें साफ़-साफ़ हिदायतें देता है और वह ज्ञानवाला और तत्त्वदर्शी है।15
15. इन आयतों से और मुख्य रूप से अल्लाह के इस आदेश से कि 'मोमिन मर्दो और औरतों ने अपने गिरोह के लोगों से अच्छा गुमान क्यों न किया' यह मूल नियम सामने आता है कि मुस्लिम-समाज में तमाम मामलों को बुनियाद अच्छे गुमान पर होनी चाहिए और बुरा गुमान केवल उस हालत में किया जाना चाहिए जब कि उसके लिए कोई प्रामाणिक एवं अपेक्षित आधार हो । नियम यह है कि हर आदमी निर्दोष है जब तक कि उसके अपराधी होने या उस पर अपराध का सन्देह करने के लिए कोई उचित कारण मौजूद न हो और हर आदमी अपनी बात में सच्चा है जब तक कि इस बात का प्रमाण न हो कि वह भरोसे के लायक नहीं है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُحِبُّونَ أَن تَشِيعَ ٱلۡفَٰحِشَةُ فِي ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 18
(19) जो लोग चाहते हैं कि ईमानवालों के गिरोह में निर्लज्जता फैले, वे दुनिया और आख़िरत में दर्दनाक सजा के अधिकारी हैं।16 अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।17
16. प्रसंग व सन्दर्भ को देखते हुए आयत का सीधा अर्थ तो यह है कि जो लोग इस तरह के आरोपों को गढ़कर और उनका प्रचार करके मुस्लिम समाज में दुष्चरित्रता फैलाने और मुस्लिम समुदाय के चरित्र पर धब्बा लगाने की कोशिशें कर रहे हैं, वे सज़ा के अधिकारी हैं । लेकिन आयत के शब्द अश्लीलता फैलाने की तमाम शक्लों पर व्याप्त हैं। इन शब्दों का प्रयोग व्यवहारतः बदकारी के अड्डे स्थापित करने पर भी होता है और दुष्चरित्रता उभारनेवाले और उसके लिए भावनाओं को भड़कानेवाले किस्सों, शेअरों, गानों, चित्रों और खेल-तमाशों पर भी। साथ ही, वे क्लब और होटल और दूसरी संस्थाएँ भी उनके अंतर्गत आ जाते हैं, जिनमें औरतों-मों के एक साथ मिलकर नाचने और मनोरंजन करने का इन्तिज़ाम किया जाता है। क़ुरआन साफ़ कह रहा है कि ये सब लोग अपराधी हैं। सिर्फ आख़िरत ही में नहीं, दुनिया में भी उनको सज़ा मिलनी चाहिए । इसलिए एक इस्लामी राज्य का कर्त्तव्य है कि अश्लीलता फैलाने के इन साधनों और कारकों की रोक-थाम करे। उसके दण्ड-विधान में उन तमाम कर्मों को जिनपर हस्तक्षेप करने का पुलिस को पूर्ण अधिकार प्राप्त होना चाहिए जिनको कुरआन यहाँ जनता के विरुद्ध अपराध करार दे रहा है और यह फ़ैसला कर रहा है कि उनके करनेवाले सज़ा के हक़दार हैं।
17. अर्थात् तुम लोग नहीं जानते कि इस तरह की एक-एक हरकत के प्रभाव समाज में कहां-कहां तक पहुँचते हैं, कितने लोगों को प्रभावित करते हैं और सामूहिक रूप से उनकी कितनी हानि सामाजिक जीवन को सहन करनी पड़ती है। इस चीज़ को अल्लाह ही खूब जानता है। इसलिए अल्लाह पर भरोसा करो और जिन बुराइयों की वह निशानदेही कर रहा है उन्हें अपनी पूरी शक्ति के साथ मिटाने और दबाने की कोशिश करो। ये छोटी-छोटी बातें नहीं हैं जिनके साथ उदारता दिखाई जाए। वास्तव में ये बड़ी बातें हैं जिनके करनेवालों को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 19
(20) अगर अल्लाह की मेहरबानी और उसकी दया व कृपा तुमपर न होती और यह बात न होती कि अल्लाह बड़ा करुणामय और दयावान है (तो यह चीज़ जो अभी तुम्हारे भीतर फैलाई गई थी, बहुत ही बुरे परिणाम दिखा देती।)
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ وَمَن يَتَّبِعۡ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِ فَإِنَّهُۥ يَأۡمُرُ بِٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِۚ وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ مَا زَكَىٰ مِنكُم مِّنۡ أَحَدٍ أَبَدٗا وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُزَكِّي مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 20
(21) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, शैतान के पद-चिहों पर न चलो, उसका पालन कोई करेगा तो वह तो उसे निर्लज्जता और बुराई ही के हुक्म देगा, अगर अल्लाह की मेहरबानी और उसकी दया व कृपा तुमपर न होती तो तुममे से कोई आदमी पाक न हो सकता18, मगर अल्लाह ही जिसे चाहता है, पाक कर देता है, और अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।19
18. अर्थात् शैतान तो तुम्हें बुराई को गन्दगियों में लिप्त करने के लिए इस तरह तुला बैठा है कि अगर अल्लाह अपनी मेहरबानी और कृपा से तुमको भले-बुरे का अन्तर न समझाए और तुमको सुधार की शिक्षा और उसका सौभाग्य प्रदान न करे तो तुममे से कोई आदमी भी अपने बल-बुते पर पाक न हो सके।
19. अर्थात् अल्लाह की यह इच्छा कि वह किसे पावनता प्रदान करे, अंधाधुंध नहीं है, बल्कि ज्ञान के आधार पर है। अल्लाह जानता है कि किसमें भलाई की तलब मौजूद है और कौन बुराई के प्रति आसक्त है। इसी प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर अल्लाह फ़ैसला करता है कि किसे पवित्रता प्रदान करे और किसे न प्रदान करे।
وَلَا يَأۡتَلِ أُوْلُواْ ٱلۡفَضۡلِ مِنكُمۡ وَٱلسَّعَةِ أَن يُؤۡتُوٓاْ أُوْلِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينَ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ وَلۡيَعۡفُواْ وَلۡيَصۡفَحُوٓاْۗ أَلَا تُحِبُّونَ أَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 21
(22) तुममें से जो लोग वैभवमान और सामर्थ्यवान हैं, वे इन बात की क़सम न खा बैठे कि अपने रिश्तेदारों, मिस्कीनों और अल्लाह के रास्ते के मुहाजिर लोगों की मदद न करेंगे, उन्हें क्षमा कर देना चाहिए और दरगुजर करना चाहिए। क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हें क्षमा करे? और अल्लाह की विशेषता यह है कि वह क्षमा करनेवाला और दयावान है।20
20. यह आयत इस मामले में उतरी है कि आरोप लगानेवालों में जो कुछ सीधे-सादे मुसलमान शामिल हो गए थे, इनमें से एक हज़रत अबू बक़्र (रजि०) के क़रीबी रिश्तेदार मिस्तह बिन असासा (रजि०) भी थे, जिनपर हज़रत अबू बक़्र (रजि०) सदा उपकार करते रहे थे। इस पीड़ा-दायक घटना के बाद हज़रत अबू बक्र (रजि०) ने क़सम खा ली कि अब उनके साथ कोई सद्व्यवहार न करेंगे, क्योंकि उन्होंने न रिश्तेदारी का कोई ख्याल किया और न उन उपकारों ही की कोई लाज रखी थी जो वे सारी उम्र उनपर और उनके परिवार पर करते रहे थे। अल्लाह ने इस बात को पसन्द न फ़रमाया और यह आयत उतरी और इसके सुनते ही हज़रत अबू बक़्र (रजि०) ने तुरन्त ही कहा, “अल्लाह की क़सम ! ज़रूर हम चाहते हैं कि ऐ हमारे रब ! तू हमारी ख़ताएं माफ़ फ़रमाए । चुनांचे आपने फिर मिस्तह की सहायता शुरू कर दी और पहले से अधिक उनपर उपकार करने लगे। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) की रिवायत है कि यह क़सम हज़रत अबू बक़्र के अलावा कुछ और सहाबा ने भी खा ली थी कि जिन-जिन लोगों ने इस बोहतान में हिस्सा लिया है, उनकी वे कोई सहायता न करेंगे। इस आयत के उतरने के बाद इन सबने अपने वचन से रुजू कर लिया। इस तरह वह कटुता तत्काल दूर हो गई जो इस फ़ित्ने ने फैला दी थी। यहाँ एक सवाल पैदा होता है कि अगर कोई आदमी किसी बात की कसम खा ले, फिर बाद में उसे मालूम हो कि उसमें भलाई नहीं है और वह उससे रुजू करके वह बात अपना ले जिसमें भलाई है तो क्या उसे कसम तोड़ने का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा करना चाहिए या नहीं। फुक़हा (धर्मशास्त्रियों) का एक गिरोह कहता है कि भलाई को अपना लेना ही क़सम का कफ़्फ़ारा है, इसके सिवा किसी और कफ़्फ़ारे की ज़रूरत नहीं। ये लोग इस आयत से [और कुछ हदीसों से] तर्क जुटाते हैं, दूसरा गिरोह कहता है कि क़सम तोड़ने के लिए अल्लाह क़ुरआन मजीद में एक स्पष्ट और खुला आदेश उतार चुका है । (सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 225, सूरा-5 अल-माइदा, आयत 89) जिसे इस आयत ने न तो निरस्त ही किया है और न स्पष्ट शब्दों में उसके भीतर कोई संशोधन ही किया है, इसलिए वह आदेश अपनी जगह बाकी है। चुनांचे (एक हदीस से यह बात स्पष्ट हो गई है कि| "जिसने किसी बात की क़सम खा ली हो, फिर उसे मालूम हो कि दूसरी बात उससे बेहतर है, तो उसे चाहिए कि वही बात करे जो बेहतर है और अपनी क़सम का कफ्फारा अदा करे।"
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡغَٰفِلَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ لُعِنُواْ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 22
(23) जो लोग पाक दामन, बेख़बर21 मोमिन औरतों पर तोहमतें लगाते हैं, उनपर दुनिया और आख़िरत में लानत की गई और उनके लिए बड़ा अज़ाब है।
21. मूल अरबी शब्द 'ग़ाफ़िलात' प्रयुक्त हुआ है, जिससे तात्पर्य हैं वे सीधी-साधी शरीफ़ औरतें जो छल-कपट नहीं जानतीं, जिनके दिल पाक हैं, जिन्हें कुछ खबर नहीं कि बदचलनी क्या होती है। हदीस में आता है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया : पाकदामन औरतों पर तोहमत लगाना उन सात बड़े गुनाहों में से है जो विनाशकारी हैं।
يَوۡمَ تَشۡهَدُ عَلَيۡهِمۡ أَلۡسِنَتُهُمۡ وَأَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 23
(24) वे उस दिन को भूल न जाएँ जबकि उनकी अपनी ज़बाने और उनके अपने हाथ-पाँव उनके करतूतों की गवाही देंगे। 21अ
21अ. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-36 (यासीन),टिप्पणी 55, सूरा-41 (हा. मीम. अस्सज्दा) टिप्पणी 25।
يَوۡمَئِذٖ يُوَفِّيهِمُ ٱللَّهُ دِينَهُمُ ٱلۡحَقَّ وَيَعۡلَمُونَ أَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ ٱلۡمُبِينُ ۝ 24
(25) उस दिन अल्लाह वह बदला उन्हें भरपूर दे देगा जिसके वे हक़दार हैं और उन्हें मालूम हो जाएगा कि अल्लाह ही सत्य है, सच को सच कर दिखानेवाला।
ٱلۡخَبِيثَٰتُ لِلۡخَبِيثِينَ وَٱلۡخَبِيثُونَ لِلۡخَبِيثَٰتِۖ وَٱلطَّيِّبَٰتُ لِلطَّيِّبِينَ وَٱلطَّيِّبُونَ لِلطَّيِّبَٰتِۚ أُوْلَٰٓئِكَ مُبَرَّءُونَ مِمَّا يَقُولُونَۖ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 25
(26) नापाक औरतें नापाक मर्दो के लिए हैं और नापाक मर्द नापाक औरतों के लिए। पाक औरतें पाक मदों के लिए हैं और पाक मर्द पाक औरतों के लिए। उनका दामन पाक है उन बातों से जो बनानेवाले बनाते हैं,22 उनके लिए क्षमा है और सम्मानित रोज़ी।
22. इस आयत में एक सैद्धान्तिक बात समझाई गई है कि नापाकों का जोड़ नापाकी ही से लगता है और पाकीज़ा लोग पाक लोगों ही से स्वाभाविक लगाव रखते हैं। एक बदकार आदमी सिर्फ़ एक ही बुराई नहीं किया करता है कि और तो सब हैसियतों से वह बिल्कुल ठीक हो मगर बस एक बुराई में फँसा हो । उसके तौर-तरीक़े, आदतें, ख़स्लते, हर चीज़ में बहुत-सी बुराइयाँ होती है जो उसको एक बड़ी बुराई को सहारा देती और पालती रहती हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सच्चाई है जिसका तुम हर समय मानवीय जीवनों में अवलोकन करते रहते हो। अब किस तरह तुम्हारी समझ में यह बात आती है कि एक पाक इंसान जिसको सारी जिंदगी को तुम जानते हो, किसी ऐसी औरत से निबाह करे और वर्षों बड़ी मुहब्बत के साथ निबाह किए चला जाता रहे जो व्यभिचारिणी हो। यह बात यहाँ इसलिए समझाई जा रही है कि आगे अगर किसी पर कोई आरोप लगाया जाए तो अधों की तरह उसे बस सुनते ही न मान लिया करें, बल्कि आँखें खोलकर देखें कि किसपर आरोप लगाया जा रहा है, क्या आरोप लगाया जा रहा है और वे किसी तरह वहाँ चस्पा भी होता है या नहीं ? बात लगी हुई हो तो आदमी एक सीमा तक उसे मान सकता है, या कम से कम सम्भव और प्रत्याशित समझ सकता है। मगर एक अनोखी बात जिसकी सच्चाई का समर्थन करनेवाली निशानियाँ कहीं न पाई जाती हो, सिर्फ़ इसलिए कैसे मान लिया जाए कि किसी मूर्ख या नापाक ने उसे मुँह से निकाल दिया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ بُيُوتِكُمۡ حَتَّىٰ تَسۡتَأۡنِسُواْ وَتُسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَهۡلِهَاۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 26
(27) ऐ लोगो23 जो ईमान लाए हो, अपने घरों के सिवा दूसरे घरों में दाखिल न हुआ करो जब तक कि घरवालों को स्वीकृति न ले लो24 और घरवालो पर सलाम न भेज लो, यह तरीक़ा तुम्हारे लिए बेहतर है। आशा है कि तुम उसका ध्यान रखोगे25
23. सूरा के आरंभ में जो आदेश दिए गए थे, वे इसलिए थे कि समाज में बुराई जाहिर हो जाए तो उसकी रोक-थाम कैसे की जाए। अब वे आदेश दिए जा रहे हैं जिनका उद्देश्य यह है कि समाज में सिरे से बुराइयों की पैदाइश ही को रोक दिया जाए और रहन-सहन के तौर-तरीके का सुधार करके उन कारणों की रोक-थाम कर दी जाए जिनसे इस तरह को ख़राबियाँ सामने आती हैं। इन आदेशों का अध्ययन करने से पहले दो बातें अच्छी तरह मन में बिठा लेनी चाहिए- एक यह कि इफ़्क (झूठ) की घटना की समीक्षा करने के तुरन्त बाद यह आदेश देना स्पष्ट रूप से इस बात की निशानदेही करता है कि अल्लाह की जाँच में रसूल (सल्ल.) की बीवी जैसी श्रेष्ठ व्यक्तित्व पर एक खुले बोहतान का इस तरह समाज के भीतर प्रवेश पा जाना वास्तव में वासनामय माहौल को मौजूदगी का नतीजा था और इस वासनामय माहौल को बदल देने के लिए अल्लाह की तत्त्वदर्शिता में इन आदेशों से अधिक सही व उचित और प्रभावपूर्ण कोई दूसरा उपाय न था, वरना वह इसके सिवा कुछ दूसरे आदेश देता। दूसरी बात जो इस मौके पर समझ लेनी चाहिए वह यह है कि अल्लाह को शरीअत किसी बुराई को केवल हराम कर देने या उसे अपराध बताकर उसकी सज़ा मुकर्रर कर देने पर बस नहीं करती, बल्कि वह उन कारणों का भी अन्त कर देने की चिन्ता करती है जो किसी आदमी को उस बुराई का शिकार होने पर उकसाते हो या इसके लिए अवसर जुटाते हों, या उस पर विवश कर देते हों, साथ ही शरीअत अपराध के साथ अपराध के कारणों, अपराध पर उभारने वाले कारकों और अपराध के साधनों पर भी पाबंदियाँ लगाती है ताकि आदमी को मूल अपराध की ठीक सीमा पर पहुंचने से पहले काफी दूरी ही पर रोक दिया जाए।
24. मूल में शब्द 'हत्ता-तस्तानिसू' प्रयुक्त हुआ है 'इसतोनास' की उत्पत्ति 'उन्स' से हुई है जो उर्दू भाषा में भी उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसमें अरबी भाषा में प्रयुक्त होता है । इस घातु से क्रिया “इसतीनास" का शब्द जब बोलेंगे तो उसका अर्थ होगा उन्स (लगाव) मालूम करना या अपने से मानूस करना। अतः आयत का सही अर्थ यह है कि लोगों के घरों में न दाखिल हो जब तक कि उनको परिचित (मानूस) न कर लो या उनका उन्स न मालूम कर लो। अर्थात् यह न मालूम कर लो कि तुम्हारा आना घरवाले को नागवार तो नहीं है, वह पसन्द करता है कि तुम उसके घर में दाख़िल हो।
فَإِن لَّمۡ تَجِدُواْ فِيهَآ أَحَدٗا فَلَا تَدۡخُلُوهَا حَتَّىٰ يُؤۡذَنَ لَكُمۡۖ وَإِن قِيلَ لَكُمُ ٱرۡجِعُواْ فَٱرۡجِعُواْۖ هُوَ أَزۡكَىٰ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 27
(28) फिर अगर वहाँ किसी को न पाओ तो दाखिल न हो जब तक कि तुमको अनुमति न दे दी जाए।26 और अगर तुमसे कहा जाए कि वापस चले जाओ तो वापस हो जामो, यह तुम्हारे लिए अधिक पाक साफ़ तरीक़ा है27, और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे ख़ूब जानता है।
26. अर्थात् किसी के ख़ाली घर में दाख़िल हो जाना वैध नहीं है अलावा इसके कि घरवाले ने आदमी को स्वयं इस बात की अनुमति दी हो। जैसे उसने आपसे कह दिया हो कि अगर मैं मौजूद न हूँ तो आप मेरे कमरे में बैठ जाइएगा या वह किसी और जगह पर हो और आपकी खबर मिलने पर वह कहला भेजे कि आप तशरीफ़ रखिए, मैं अभी आता हूँ।
27. अर्थात् इसपर बुरा न मानना चाहिए। एक आदमी को अधिकार है कि वह किसी से न मिलना चाहे तो इंकार कर दे या कोई व्यस्तता मिलने में रोक बन रही हो तो विवशता प्रकट करे। 'इर्जिअू’ (वापस जाओ) के आदेश का फुकहा (धर्मशास्त्रियों) ने यह अर्थ लिया है कि इस रूप में दरवाजे के सामने डटकर खड़े हो जाने की इजाजत नहीं है, बल्कि आदमी को वहां से हट जाना चाहिए ।
لَّيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ مَسۡكُونَةٖ فِيهَا مَتَٰعٞ لَّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا تَكۡتُمُونَ ۝ 28
(29) अलबत्‍ता तुम्हारे लिए इसमें कोई दोष नहीं है कि ऐसे घरों में दाख़िल हो जाओ जो किसी के रहने की जगह न हो और जिनमें तुम्हारे लाभ (या काम) की कोई चीज हो28, तुम जो कुछ प्रकट करते हो और जो कुछ छिपाते हो, सबकी अल्लाह को ख़बर है।
28. इससे तात्पर्य । होटल, सराए, मेहमानख़ाने, दुकाने, मुसाफिरख़ाने आदि जहाँ लोगों के लिए दाख़िले की आम इजाज़त हो।
قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِمۡ وَيَحۡفَظُواْ فُرُوجَهُمۡۚ ذَٰلِكَ أَزۡكَىٰ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا يَصۡنَعُونَ ۝ 29
(30) ऐ नबी । मोमिन मर्दो से कहो कि अपनी नजरें बचाकर रखें 29 और अपने गुप्तांगो की रक्षा करें,30 यह उनके लिए अधिक पवित्र तरीक़ा है। जो कुछ वे करते हैं अल्लाह को उसकी ख़बर रहती है।
29. मूल अरबी में शब्द है 'यग़ुज़्ज़ू मिन अब्सारिहिम' । 'गज' का अर्थ है किसी चीज़ को कम करना, पटाना और पस्त करना। 'गज्जि बसर' का अनुवाद सामान्य रूप से नीची निगाह करना या रखना किया जाता है, लेकिन वास्तव में इस आदेश का अर्थ हर वक्त नीचे ही देखते रहना नहीं है, बल्कि पूरी तरह निगाह भरकर न देखना और निगाहों को देखने के लिए बिल्कुल आजाद न छोड़ देना है। यह अर्थ 'नजर बचाने' से ठीक अदा होता है। अर्थात् जिस चीज़ को देखना उचित न हो उससे नज़र हटा ली जाए, इससे हटकर कि आदमी निगाह नीची करे, या किसी और तरफ़ उसे बचा ले जाए। 'मिन अन्सारिहिम' का अर्थ यहाँ हुक्म तमाम नज़रों के बचाने के नहीं है, बल्कि कुछ नज़रों को बचाने का है। दूसरे शब्दों में अल्लाह का मंशा यह नहीं है कि किसी चीज़ को भी निगाह भरकर न देखा जाए, बल्कि वह सिर्फ़ एक विशेष दायरे में निगाह पर यह पाबन्दी लगाना चाहता है। अब यह बात प्रसंग व संदर्भ के देखने से मालूम होती है कि यह पाबन्दी जिस चीज़ पर लगाई गई है वह है मदों का औरतों को देखना या दूसरे लोगों के गुप्तांग पर निगाह डालना, या अश्लील दृश्यों पर निगाह जमाना। अल्लाह की किताब के इस आदेश की जो व्याख्या नबी (सल्ल०) ने की है, उसका विवरण नीचे दिया जा रहा है- (i) आदमी के लिए यह बात वैध नहीं है कि वह अपनी बीवी या अपनी महरम औरतों के सिवा किसी दूसरी औरत को निगाह भरकर देखे। एक बार अचानक नज़र पड़ जाए तो वह माफ है, लेकिन यह माफ़ नहीं है कि आदमी ने पहली नज़र में जहाँ कोई आकर्षण महसूस किया हो, वहाँ फिर नज़र दौड़ाए। नबी (सल्ल०) ने इस तरह के तांक-झांक को आँख की बदकारी का नाम दिया है । (बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद) (ii) इससे किसी को यह भ्रम न हो कि औरतों को खुले मुंह फिरने की खुली छूट थी तभी तो निगाह नीची रखने का आदेश दिया गया, वरना अगर चेहरे का परदा लागू किया जा चुका होता तो फिर नज़र बचाने या न बचाने का क्या प्रश्न । यह तर्क बौद्धिक दृष्टि से भी गलत है और वास्तविकता की दृष्टि से भी। बौद्धिक दृष्टि से यह इसलिए ग़लत है कि चेहरे का परदा आम तौर पर प्रचलित हो जाने के बावजूद ऐसे अवसर सामने आ सकते हैं जब कि अचानक किसी मर्द और औरत का आमना सामना हो जाए, और मुसलमान औरतों में परदा प्रचलित होने के बावजूद बहरहाल गैर-मुस्लिम औरतें तो वे परदा ही रहेंगी, इसलिए सिर्फ़ नज़रें नीची रखने का आदेश इस बात की दलील नहीं बन सकता कि आवश्यक रूप से औरतें खुले मुँह फिरें और वास्तविकता की दृष्टि से यह इसलिए ग़लत है कि सूरा-33 अहजाब में परदे के आदेशों के उतरने के बाद जो परदा मुस्लिम समाज में प्रचलित किया गया था, उसमें चेहरे का परदा शामिल था और नबी (सल्ल०) के मुबारक जमाने में इसका प्रचलित होना बहुत-सी हदीसों से सिद्ध होता है। उदाहरण के तौर पर इफ्क की घटना के बारे में हज़रत आइशा (रजि०) का बयान देखिए जो भूमिका में गुज़र चुका है, उसमें वह फ़रमाती हैं कि “वह (अर्थात् सफ़वान बिन मुअत्तल (रजि०) मुझे देखते ही पहचान गया, क्योंकि परदे के आदेश से पहले वह मुझे देख चुका था। मुझे पहचानकर जब उसने 'इला लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन' पढ़ा तो उसकी आवाज़ से मेरी आँख खुल गई और मैंने अपनी चादर से मुँह ढाँप लिया।" (बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद, इब्ने जरीर, सीरत इब्ने हिशाम) (iii) नज़रें नीची रखने के इस आदेश का अपवाद केवल वे शक्लें हैं जिनमें किसी औरत को देखने की कोई वास्तविक ज़रूरत हो । जैसे, कोई व्यक्ति किसी औरत से निकाह करना चाहता हो। इस उद्देश्य के लिए [रसूल सल्ल० के इर्शाद के अनुसार] औरत को देख लेने की न सिर्फ इजाज़त है, बल्कि ऐसा करना कम से कम पसन्दीदा तो अवश्य है, (अहमद, तिर्मिज़ी, नसई, इब्ने माजा, दारमी)। इसी से फ़ुक़हा ने यह नियम लिया है कि ज़रूरत पड़ने पर देखने की दूसरी शक्लें भी जाइज़ हैं, जैसे अपराधों की जाँच के सिलसिले में किसी संदिग्ध औरत को देखना, या अदालत में गवाही के मौक़े पर क़ाज़ी का किसी गवाह औरत को देखना या इलाज के लिए डॉक्टर का रोगी औरत को देखना आदि। (iv) आँखें नीची रखने के आदेश का तात्पर्य यह भी है कि आदमी किसी औरत और मर्द के गुप्तांगों पर निगाह न डाले।
30. गुप्तांगों की रक्षा से तात्पर्य सिर्फ़ अवैध कामतृप्ति से बचना ही नहीं है, बल्कि अपने गुप्तांगों को दूसरे के सामने खोलने से भी बचना है। मर्द के लिए गुप्तांगों की सीमाएं नबी (सल्ल०) ने नाफ (नाभि) से घुटने तक निश्चित की हैं। (दारकुली, बैहक़ी)। तंहाई में भी नंगा रहने से मना किया गया है। चुनांचे प्यारे नबी (सल्ल०) का इर्शाद है, "खबरदार, कभी नंगे न रहो, क्योंकि तुम्हारे साथ वे हैं जो कभी तुमसे अलग नहीं होते (अर्थात् भलाई और रहमत के फ़रिश्ते) सिवाय उस वक़्त के जब तुम ज़रूरत पूरी करते हो या अपनी बीवियों के पास जाते हो, इसलिए इनसे शर्म करो और इनके आदर को ध्यान में रखो।" (तिर्मिज़ी)
وَقُل لِّلۡمُؤۡمِنَٰتِ يَغۡضُضۡنَ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِنَّ وَيَحۡفَظۡنَ فُرُوجَهُنَّ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّۖ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ أَوۡ ءَابَآئِهِنَّ أَوۡ ءَابَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآئِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ أَخَوَٰتِهِنَّ أَوۡ نِسَآئِهِنَّ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّ أَوِ ٱلتَّٰبِعِينَ غَيۡرِ أُوْلِي ٱلۡإِرۡبَةِ مِنَ ٱلرِّجَالِ أَوِ ٱلطِّفۡلِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يَظۡهَرُواْ عَلَىٰ عَوۡرَٰتِ ٱلنِّسَآءِۖ وَلَا يَضۡرِبۡنَ بِأَرۡجُلِهِنَّ لِيُعۡلَمَ مَا يُخۡفِينَ مِن زِينَتِهِنَّۚ وَتُوبُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ جَمِيعًا أَيُّهَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 30
(31) और ऐ नबी ! मोमिन औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें31 और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें।32 और अपना33 बनाव-सिंगार न दिखाएँ34 अलावा उसके जो अपने आप प्रकट हो जाए35, और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें36, वे अपना बनाव-सिंगार न जाहिर करें मगर इन लोगों के सामने37 पति, बाप, पतियों के बाप38, अपने बेटे, पतियों के बेटे39, भाई40, भाइयों के बेटे41, बहनों के बेटे42, अपने मेल-जोल की औरतें43, अपनी लौंडी44, दास, वे अधीन मर्द जो किसी और तरह का प्रयोजन (गरज़) न रखते हों45, और वे बच्चे जो औरतों की छिपी बातों से अभी परिचित न हुए हो46 वे अपने पाँव ज़मीन पर मारती हुई न चला करें कि अपनी जो ज़ीनत उन्होंने छिपा रखी हो, उसे लोग जान जाएँ।47 ऐ ईमानवालो ! तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो48, आशा है कि सफलता पाओगे।49
31. औरतों के लिए भी नज़र नीची रखने के आदेश वही हैं जो मर्दो के लिए हैं, अर्थात् उन्हें जान-बूझकर पराए मर्दो को न देखना चाहिए, निगाह पड़ जाए तो हटा लेनी चाहिए, और दूसरों के गुप्तांगों को देखने से बचना चाहिए। लेकिन मर्द के औरत को देखने के मुकाबले में औरत के मर्द को देखने के मामले में आदेश थोड़े-से अलग हैं। इस सिलसिले में उल्लिखित विभिन्न) हदीसों को जमा करने से मालूम होता है कि औरतों के मर्दो को देखने के मामले में इतनी सरजी नहीं है जितनी मर्दो के औरतों को देखने के मामले में है। एक सभा में आमने-सामने बैठकर देखने से मना किया गया है। रास्ता चलते हुए या दूर से कोई जायज़ क़िस्म का खेल-तमाशा देखते हुए मर्दो पर निगाह पड़ने से नहीं मना किया गया है, और कोई वास्तविक ज़रूरत पेश आ जाए तो एक घर में रहते हुए भी देखने में दोष नहीं है।
32. अर्थात् अवैध रूप से कामतृप्ति से भी बचें और अपने गुप्तांगों को दूसरों के सामने खोलने से भी। इस मामले में औरतों के लिए भी वही आदेश हैं जो मर्दो के लिए हैं, लेकिन औरत के छिपाने वाले अंगों की सीमाएं मर्दो से अलग हैं, साथ ही औरतों के छिपानेवाले अंग मर्दो के लिए अलग हैं और औरतों के लिए अलग। मर्दो के लिए औरत का सतर (छुपाने योग्य अंग) हाथ और मुंह के सिवा उसका पूरा जिस्म है, जिसे शौहर के सिवा किसी दूसरे मर्द, यहाँ तक कि बाप और भाई के सामने भी न खुलना चाहिए और औरत को ऐसा बारीक या चुस्त वस्त्र भी न पहनना चाहिए जिससे बदन अन्दर से झलके या की बनावट नज़र आए। हज़रत आइशा (रजि०) की रिवायत है कि उनकी बहन हज़रत अस्मा बिन्त अबू बक़्र अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सामने आई और वह बारीक कपड़े पहने हुए थी। नबी (सल्ल०) ने तुरन्त मुंह फेर लिया और फ़रमाया, “अस्मा । जब औरत बालिग़ हो जाए तो जायज़ नहीं है कि मुंह और हाथ के सिवा उसके शरीर का कोई हिस्सा नज़र आए।" (अबू दाऊद)। और औरत के लिए औरत के सतर की सीमाएँ वही हैं जो मर्द के लिए मर्द के सतर की हैं। अर्थात् नाफ़ और घुटने के बीच का हिस्सा। इसका यह अर्थ नहीं है कि औरतों के सामने औरत अर्ध नग्न रहे, बल्कि अर्थ केवल यह है कि नाफ़ और घुटने के बीच का हिस्सा ढाँकना फर्ज है और दूसरे हिस्सों का ढाँकना फर्ज नहीं है।
36. मानता काल में औरतें दोपट्टों के प्रति लापरवाह रहा रहती थीं। इस आयत के उतरने के बाद मुसलमान औरतों में दोपट्टों को राइज किया गया, जिसका उद्देश्य यह नहीं था कि आजकल की लड़कियों की तरह बस उसे बल देकर गले का हार बना दिया जाए, बल्कि यह था कि उसे ओढ़कर सर, कमर, सीना सब अच्छी तरह डॉक लिए जाएँ। हजरत आइशा (रजि०) फरमाती हैं कि जब सूरा नूर उतरी तो अल्लाह के रसूल (सल्ल.) से उसे सुनकर लोग अपने घरों की ओर पलटे और जाकर उन्होंने अपनी बीवियों, बेटियों, बहनों को उसकी आयतें सुनाई। औरतों ने बारीक कपड़े छोड़कर अपने मोटे-मोटे कपड़े, छाँटे और उनके कपडे बनाए, (हने कसीर, भाग 3.40 284, अबू दाऊद, किताबुल्लिबास)। यह बात कि दोपट्टा बारीक कपड़े का न होना चाहिए, इन आदेशों के स्वभाव और उद्देश्य पर विचार करने से स्वयं ही आदमी की समझ में आ जाती है। फिर साहिबे शरीअत नबी (सल्ल०) ने स्वयं भी इसे स्पष्ट कर दिया है । (देखिए, अबू दाऊद, किताबुल्लबास में देहया कलबी रजि० की रिवायत)
37. अर्थात् जिस क्षेत्र में एक औरत अपनी पूरी जीनत के साथ आज़ादी से रह सकती है वह इन लोगों पर सम्मिलित है। इस क्षेत्र से बाहर जो लोग भी हैं, चाहे वे रिश्तेदार हों या पराए, बहरहाल एक औरत के लिए जायज़ नहीं है कि वह इनके सामने बनाव-सिंगार के साथ आए।
38. बाप के अर्थ में केवल बाप ही नहीं, बल्कि दादा-परदादा और नाना-परनाना भी शामिल हैं, इसलिए एक औरत अपनी ददिहाल और ननिहाल और अपने पति के ददिहाल और ननिहाल के इन सब बुजुर्गों के सामने उसी तरह आ सकती है जिस तरह अपने बाप और ससुर के सामने आ सकती है।
39. बेटों में पोते-परपोते, नाती-परनाती सब सम्मिलित हैं और इस मामले में सगे-सौतेले का कोई अन्तर नहीं है। अपने सौतेले बच्चों की औलाद के सामने औरत उसी तरह आज़ादी के साथ ज़ीनत ज़ाहिर कर सकती है, जिस तरह स्वयं अपनी औलाद और औलाद की औलाद के सामने कर सकती है।
40. 'भाइयों' में सगे और सौतेले और माँ-जाए भाई सब सम्मिलित हैं।
41. भाई-बहनों से तात्पर्य तीनों प्रकार के भाई-बहन हैं और उनके बेटों, पोतों और नातियों, सब उनको औलाद के अन्तर्गत आते हैं।
42. यहाँ चूँकि रिश्तेदारों का क्षेत्र समाप्त हो रहा है और आगे गैर-रिश्तेदार लोगों का उल्लेख है, इसलिए आगे बढ़ने से पहले तीन मामलों को अच्छी तरह समझ लीजिए, क्योंकि इनके न समझने से कई उलझनें पैदा होती है- पहला मामला यह है कि कुछ लोग ज़ीनत ज़ाहिर करने की आज़ादी को सिर्फ उन रिश्तेदारों तक सीमित समझते हैं जिनका नाम यहाँ लिया गया है, बाकी सब लोगों को यहाँ तक कि सगे चचा और सगे माँमू तक को उन रिश्तेदारों में गिनते हैं जिनसे परदा किया जाना चाहिए और तर्क यह देते हैं कि इनका नाम क़ुरआन में नहीं लिया गया है लेकिन यह बात सही नहीं है। सगे चचा और माँमू तो दूर की बात, नबी (सल्ल०) ने तो दूध के चचा और माँमू से भी परदा करने की हज़रत आइशा (रजि०) को इजाज़त न दी। (सिहाहे सित्ता और मुस्नद अहमद) इससे मालूम हुआ कि नबी (सल्ल०) ने स्वयं इस आयत से यह नियम लिया है कि जिन-जिन रिश्तेदारों से एक औरत का निकाह हराम है, वे सब इसी आयत के हुक्म में दाखिल हैं। जैसे चचा, माँमू, दामाद और दूध के शरीक रिश्तेदार। दूसरा मामला यह है कि जिन रिश्तेदारों से हमेशा के लिए हराम होने का रिश्ता न हो (अर्थात् जिनसे एक कुँवारी या विधवा औरत का निकाह जाइज़ हो) वे न तो महरम रिश्तेदारों के हुक्म में हैं कि औरतें बे-तकल्लुफ़ उनके सामने अपनी ज़ीनत के साथ आएँ और न बिल्कुल परायों के हुक्म में कि औरतें उनसे वैसा ही मुकम्मल परदा करें जैसा परायों से किया जाता है। इन दोनों सीमाओं के बीच ठीक-ठीक क्या रवैया होना चाहिए यह शरीअत में तय नहीं किया गया है, क्योंकि यह चीज़ तय नहीं हो सकती। इसकी सीमाएँ अलग-अलग रिश्तेदारों के मामले में उनके रिश्ते, उनकी उम्र, औरत की उम्र, ख़ानदानी ताल्लुक़ात और संपर्क और दोनों फरीक़ के हालात (जैसे मकान का मिला होना या अलग-अलग मकानों में रहना) की दृष्टि से अवश्य अलग-अलग होंगे और होने चाहिएं। इस मामले में नबी (सल्ल०) का अपना तरीक़ा जो कुछ था उससे हमको यही मार्गदर्शन मिलता है। बहुत-सी हदोसों से साबित है कि हज़रत अस्मा बिन्त अबू बक्र, जो नबी (सल्ल०) की साली थीं, आपके सामने होती थीं और अन्तिम समय तक आपके और उनके बीच कम से कम चेहरे और हाथों की हद तक कोई परदा न था (देखिए अबू दाऊद, किताबुल हज्ज, बाबुल महरम, युअद्दिबु गुलामह)। इसी तरह हज़रत उम्मे हानी, जो अबू तालिब की साहबज़ादी और नबी (सल्ल०) की चचेरी बहन थीं, अन्तिम समय तक हुजूर (सल्ल०) के सामने होती रहीं और कम से कम मुँह और चेहरे का परदा उन्होंने आपसे कभी नहीं किया। (देखिए अबू दाऊद, किताबुस्सौम, बाबुन-फ़न्नीयति फ़िसौमि वरुख्सतु फोहि)। दूसरी ओर हम देखते हैं कि हज़रत फ़ज़्ल बिन अब्बास और अब्दुल मुत्तलिब बिन रबीआ [जिनकी अभी शादियां नहीं हुई थीं, ये दोनों हज़रत जैनब (रजि०) के मकान पर हुजूर (सल्ल०) की सेवा में हाज़िर होते हैं । हज़रत जैनब (रजि०) फ़ज़ल को सगी फुफेरी बहन हैं और अब्दुल मुत्तलिब बिन रबीआ के बाप से भी उनका वही रिश्ता है जो फ़ज़्ल से है। लेकिन वह इन दोनों के सामने नहीं होती और हुजूर (सल्ल०) की उपस्थिति में उनके साथ पर्दे के पीछे से बात करती हैं, (अबू दाऊद, किताबुल ख़िराज)। इन दोनों प्रकार की घटनाओं को मिलाकर देखा जाए तो मामले की शक्ल वही कुछ समझ में आती है जो ऊपर हम बयान कर आए हैं। तीसरा मामला यह है कि जहाँ रिश्ते में शुब्हा पड़ जाए वहाँ महरम रिश्तेदार से भी सावधानी के तौर परदा करना चाहिए।
43. मूल शब्द 'निसाइहिन-न' प्रयुक्त हुआ है जिसका शाब्दिक अनुवाद है उनकी औरतें'। उससे तात्पर्य किन औरतों से है, इस संबंध में फुकहा और टीकाकारों के विभिन्न कथन पाए जाते हैं। एक गिरोह कहता है कि इससे तात्पर्य सिर्फ़ मुसलमान औरतें हैं। गैर-मुस्लिम औरतें चाहे वे जिम्मी हों या किसी और प्रकार की, उनसे मुसलमान औरतों को उसी तरह परदा करना चाहिए जिस तरह मर्दो से किया जाता है। दूसरा गिरोह कहता है कि इससे तात्पर्य तमाम औरतें हैं। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि अगर सच में अल्लाह का मंशा भी यही था तो फिर 'उनकी औरतें' कहने का क्या अर्थ? इस शक्ल में तो केवल 'औरतें' कहना चाहिए था। तीसरी राय यह है और यही बुद्धिसंगत भी है और कुरआन के शब्दों से अधिक निकट भी कि इससे वास्तव में उनके मेल-जोल की औरतें, उनकी जानी-बूझी औरतें, उनसे ताल्लुकात रखनेवाली औरतें और उनके काम-काज में हिस्सा लेनेवाली औरतें अभिप्रेत हैं, चाहे वे मुस्लिम हों या गैर-मुस्लिम। और अभीष्ट उन औरतों को इस दायरे से निकालना है जो या तो अजनबी हों कि उनके चरित्र और आचरण का हाल मालूम न हो, या जिनके प्रत्यक्ष हालात संदिग्ध हों और उनपर भरोसा न किया जा सके। इस राय का समर्थन उन सही हदीसों से भी मालूम होता है जिनमें नबी (सल्ल.) की पाक बीवियों के पास ज़िम्मी औरतों की हाज़िरो का उल्लेख हुआ है। इस मामले में असल चीज़ जिसका ध्यान रखा जाएगा वह धार्मिक मतभेद नहीं, बल्कि नैतिक हालत है।
وَأَنكِحُواْ ٱلۡأَيَٰمَىٰ مِنكُمۡ وَٱلصَّٰلِحِينَ مِنۡ عِبَادِكُمۡ وَإِمَآئِكُمۡۚ إِن يَكُونُواْ فُقَرَآءَ يُغۡنِهِمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 31
(32) तुममें से जो लोग बिन ब्याहे हों50 और तुम्हारे लौंडी-गुलामों में से जो भले हो51 उनके निकाह कर दो:52 अगर वे ग़रीब हों तो अल्लाह अपनी मेहरबानी से उन्हें धनी कर देगा53, अल्लाह बड़ा समाईवाला और जाननेवाला है।
50. मूल अरबी शब्द अयामा प्रयुक्त हुआ है। 'अयामा' बहुवचन है अय्यिम का और ' अयामा ' हर उस मर्द को कहते हैं जिसकी कोई पत्नी न हो और हर उस औरत को कहते हैं जिसका कोई पति न हो। इसी लिए हमने इसका अनुवाद 'बिन ब्याहा' किया है।
51. अर्थात् जिनका रवैया तुम्हारे साथ भी अच्छा हो और जिनमें तुम यह क्षमता भी पाओ कि वे दाम्पत्य जीवन निबाह लेंगे। स्वामी के साथ जिस दास या लौंडी का रवैया ठीक न हो और जिसके स्वभाव को देखते हुए यह आशा भी न हो कि विवाह होने के बाद अपने जीवन साथी के साथ उसका निबाह हो सकेगा, उसका निकाह कर देने की ज़िम्मेदारी स्वामी पर नहीं डाली गई है, क्योंकि इस स्थिति में वे एक दूसरे व्यक्ति के जीवन को खराब करने का कारण बन जाएगा।
وَلۡيَسۡتَعۡفِفِ ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ نِكَاحًا حَتَّىٰ يُغۡنِيَهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱلَّذِينَ يَبۡتَغُونَ ٱلۡكِتَٰبَ مِمَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ فَكَاتِبُوهُمۡ إِنۡ عَلِمۡتُمۡ فِيهِمۡ خَيۡرٗاۖ وَءَاتُوهُم مِّن مَّالِ ٱللَّهِ ٱلَّذِيٓ ءَاتَىٰكُمۡۚ وَلَا تُكۡرِهُواْ فَتَيَٰتِكُمۡ عَلَى ٱلۡبِغَآءِ إِنۡ أَرَدۡنَ تَحَصُّنٗا لِّتَبۡتَغُواْ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَمَن يُكۡرِههُّنَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ مِنۢ بَعۡدِ إِكۡرَٰهِهِنَّ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 32
(33) और जो निकाह का मौक़ा न पाएँ उन्हें चाहिए कि पाकदामनी अपनाएं, यहाँ तक कि अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनको सम्पन्न कर दे।54 और जिन लोगों पर तुम्हें स्वामित्व का अधिकार प्राप्त हो उनमें से जो मुकातबत (लिखा-पढ़ी) को दर्ख़ास्त करें55, उनसे मुकातबत56 कर लो, अगर तुम्हें मालूम हो कि उनके अन्दर भलाई है57, और उनको उस माल में से दो जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है।58 और अपनी लौडियों को अपनी दुनिया के लाभों के लिए वेश्यावृत्ति पर विवश न करो, जबकि वे स्वयं पाकदामन रहना चाहती हों59। और जो कोई उनको विवश करे तो इस ज़बरदस्ती के बाद अल्लाह उनके लिए क्षमा फ़रमानेवाला और दया करनेवाला है।
54. इन आयतों की सबसे अच्छी व्याख्या वे हदीसे हैं जो इस सिलसिले में नबी (सल्ल०) से उल्लिखित हैं। हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फरमाया, “नौजवानो ! तुममें से जो आदमी विवाह कर सकता हो उसे कर लेना चाहिए, क्योंकि यह निगाह को बदनज़री से बचाने और आदमी की पाक दामनी कायम रखने का बड़ा साधन है, जो सामर्थ्य न रखता हो वह रोज़े रखे, क्योंकि रोज़े आदमी की तबीयत का जोश ठंडा कर देते हैं । (बुख़ारी व मुस्लिम) हज़रत अबू हुरैरह (रजि०) रिवायत करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फरमाया, तीन आदमी हैं जिनकी सहायता अल्लाह के ज़िम्मे है- एक वह आदमी जो पाक दामन रहने के लिए निकाह करे, दूसरे वह मुकातिब (वह दास जो लिखा-पड़ी करके वचन के अनुसार दासता से मुक्त होना चाहे), जो किताबत (लिखा-पढ़ी) का माल अदा करने की नीयत रखे, तीसरे वह आदमी जो अल्लाह की राह में जिहाद के लिए निकले।" (तिर्मिज़ी,नसई, इब्ने माजा, अहमद और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 (निसा), आयत 25)
55. 'मुकातबत' के शाब्दिक अर्थ तो हैं लिखा-पढ़ी', मगर परिभाषा में यह शब्द इस अर्थ में बोला जाता है कि कोई दास या दासी अपनी मुक्ति के लिए अपने स्वामी को एक मुआवज़ा अदा करने की पेशकश करे और जब स्वामी उसे स्वीकार कर ले तो दोनों के बीच शर्तों की लिखा-पढ़ी हो जाए। इस्लाम में दासों की मुक्ति के लिए जो शक्लें रखी गई हैं, यह उनमें से एक है।
59. इसका अर्थ यह नहीं है कि अगर लौडियाँ स्वयं न पाकदामन रहना चाहती हों तो उनको वेश्यावृत्ति पर विवश किया जा सकता है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि अगर लौंडी स्वयं अपनी इच्छा से बदकारी कर बैठे तो वह अपने अपराध की ख़ुद ज़िम्मेदार है, क़ानून उसके अपराध पर उसी को पकड़ेगा, लेकिन आगर उसका स्वामी ज़बरदस्ती उससे यह पेशा कराए, तो ज़िम्मेदारी स्वामी की है और वही पकड़ा जाएगा। रहा 'दुनिया के लाभों के लिए का वाक्य तो वास्तव में यह आदेश सिद्ध करने के लिए शर्त और क़ैद के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है कि अगर मालिक उसकी कमाई नहीं खा रहा हो तो लौंडी को वेश्यावृत्ति पर विवश करने में वह अपराधी न हो, बल्कि इससे अभीष्ट उस कमाई को भी हराम के आदेश में शामिल करना है जो इस अवैध ज़बरदस्ती के ज़रिये प्राप्त की गई हो। इस आदेश का पूर्ण उद्देश्य अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि उन परिस्थितियों को भी दृष्टि में रखा जाए जिनमें यह उतरा है। उस समय अरब में वेश्यावृत्ति के दो रूप प्रचलित थे। एक घरेलू पेशा, दूसरे बाकायदा चकला। घरेलू पेशा करनेवाली अधिकतर आज़ाद की हुई लौंडियाँ होती थीं जिनका कोई संरक्षक न होता या ऐसी आज़ाद औरतें होती थीं जिनको सहारा देनेबाला कोई परिवार या कबीला न होता। दूसरा रूप अर्थात् खुली वेश्यावृत्ति, पूर्ण रूप से लौंडियों के ज़रिये से होती थी। इसके दो तरीक़े थे- एक यह कि लोग अपनी जवान लौडियों पर एक भारी रकम लगा देते थे कि हर महीने इतना कमा कर हमें दिया करें और वे बेचारियाँ बदकारी कराकर यह मांग पूरी करती थीं। दूसरा तरीक़ा यह था कि लोग अपनी जवान-जवान सुन्दर लौंडियों को कोठों पर बिठा देते थे और उनके दरवाज़ों पर झंडे लगा देते थे जिन्हें देखकर दूर ही से मालूम हो जाता था कि जरूरतमंद आदमी' कहाँ अपनी ज़रूरत पूरी कर सकता है। ये औरतें 'कलीकियात' कहलाती थीं और इनके घर 'मवावीर के नाम से मशहूर थे । बड़े-बड़े रईसों ने इस तरह के 'चकले' खोल रखे थे। [मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह बिन उबई की ऐसी ही एक लौंडी] जिसका नाम मुआज़ा था, मुसलमान हो गई और उसने तौबा करनी चाही। इब्ने उबई ने उस पर सख्ती की। उसने जाकर हज़रत अबू बक्र (रजि०) से शिकायत की। उन्होंने मामला नबी (सल्ल०) तक पहुंचाया और नबी (सल्ल०) ने आदेश दे दिया कि लौंडी उस ज़ालिम के कब्जे से निकाल ली जाए । (इब्ने जरीर, भाग 18, पृ० 55-58, 103-104, अल-इस्तीआबे इब्ने अब्दुल बर, भाग 2, पृ० 762, इब्ने कसीर, भाग 3 पृ० 288-289) यही समय था जब अल्लाह के पास से यह आयत उतरी। इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखा जाए तो साफ़ मालूम हो जाता है कि मूल उद्देश्य सिर्फ लौडियों को ज़िना (व्यभिचार) के अपराध पर मजबूर करने से रोकना नहीं है, बल्कि इस्लामी राज्य की सीमाओं में वेश्यावृत्ति (Prostitution) के कारोबार को बिल्कुल क़ानून-विरुद्ध करार दे देना है और साथ-साथ उन औरतों के लिए माफ़ी का एलान भी है जो इस कारोबार में बलात् इस्तेमाल की गई हों। अल्लाह की ओर से यह फरमान आ जाने के बाद नबी (सल्ल०) ने एलान फ़रमा दिया कि “इस्लाम में वेश्यावृत्ति के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।" (अबू दाऊद) दूसरा हुक्म जो नबी (सल्ल०) ने दिया वह यह था कि व्यभिचार के जरिये से प्राप्त होनेवाली आमदनी हराम, नापाक और पूर्णत: निषिद्ध है । (बुख़ारी, मुस्लिम) तीसरा आदेश नबी (सल्ल०) ने यह दिया कि लौंडी से वैध रूप से केवल हाथ-पाँव को सेवा ली जा सकती है और स्वामी कोई ऐसी रक़म उसपर लागू या उसे वुसूल नहीं कर सकता जिसके बारे में वह न जानता हो कि यह रकम वह कहां से और क्या करके लाती है (अबू दाऊद, किताबुल इजारा)। इस तरह नबी (सल्ल०) ने कुरआन की इस आयत के मंशा के अनुसार वेश्यावृत्ति की उन तमाम शक्लों को धार्मिक दृष्टि से नाजाइज़ और क़ानून की दृष्टि से निषिद्ध कर दिया जो उस वक़्त अरब में प्रचलित थीं।
وَلَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ ءَايَٰتٖ مُّبَيِّنَٰتٖ وَمَثَلٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۡ وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 33
(34) हमने साफ़ साफ़ हिदायत देनेवाली आयतें तुम्हारे पास भेज दी हैं और उन क़ौमों के शिक्षाप्रद उदाहरण भी हम तुम्हारे सामने पेश कर चुके हैं जो तुमसे पहले हो गुज़री हैं और वे नसीहतें हमने कर दी हैं जो डरनेवालों के लिए होती हैं।60
60. इस आयत का सम्बन्ध उस पूरे वार्ता क्रम से है जो मूरा के आरंभ से यहाँ तक चला आ रहा है। स्पष्ट आदेश देनेवाली आयतों से तात्पर्य वे आयतें हैं जिनमें | उपरोक्त नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आदेश दिए गए हैं। इन आदेशों और निर्देशों के बाद कहा जा रहा है कि अल्लाह से डरकर सीधी राह अपनानेवालों को जिस तरह शिक्षा दी जाती है, वह तो हमने दे दी है, अब अगर तुम इस शिक्षा के विरुद्ध चलोगे तो इस का स्पष्ट अर्थ यह है कि तुम उन कौमों का-सा अंजाम देखना चाहते हो जिनके शिक्षाप्रद उदाहरण स्वयं इसी कुरआन में हम तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर चुके हैं।
۞ٱللَّهُ نُورُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ مَثَلُ نُورِهِۦ كَمِشۡكَوٰةٖ فِيهَا مِصۡبَاحٌۖ ٱلۡمِصۡبَاحُ فِي زُجَاجَةٍۖ ٱلزُّجَاجَةُ كَأَنَّهَا كَوۡكَبٞ دُرِّيّٞ يُوقَدُ مِن شَجَرَةٖ مُّبَٰرَكَةٖ زَيۡتُونَةٖ لَّا شَرۡقِيَّةٖ وَلَا غَرۡبِيَّةٖ يَكَادُ زَيۡتُهَا يُضِيٓءُ وَلَوۡ لَمۡ تَمۡسَسۡهُ نَارٞۚ نُّورٌ عَلَىٰ نُورٖۚ يَهۡدِي ٱللَّهُ لِنُورِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَيَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَٰلَ لِلنَّاسِۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 34
(35) अल्लाह,61 आसमानों और जमीन का नूर है62 । (सृष्टि में) उसके नूर की मिसाल ऐसी है जैसे एक ताक में चिराग़ रखा हुआ हो, चिराग़ एक फ़ानूस में हो, फ़ानूस का हाल यह हो कि जैसे मोती की तरह चमकता हुआ तारा, और वह चिराग़ ज़ैतून के एक ऐसे मुबारक63 पेड़ के तेल से रौशन किया जाता हो जो न पूर्वी हो, न पश्चिमी64, जिसका तेल आप ही आप भड़क पड़ता हो, चाहे आग उसको न लगे। (इस तरह) रौशनी पर रौशनी (बढ़ने के सभी साधन इकट्ठा हो गए हो) ।65 अल्लाह अपने नूर की ओर जिसकी चाहता है रहनुमाई फ़रमाता है66। वह लोगों को मिसालों से बात समझाता है, वह हर चीज़ को अच्छी तरह जानता है।67
61. यहाँ से बात मुनाफ़िक़ो (कपटाचारियों) के बारे में शुरू होती है जो इस्लामी समाज में फ़िलों पर फ़िले उठाए चले जा रहे थे। ये लोग |प्रत्यक्ष रूप से। मुसलमानों में शामिल थे, लेकिन वास्तव में उनकी दुनियापरस्ती ने उनकी आँखें अंधी कर रखी थीं और ईमान के दावे के बावजूद वे उस नूर से बिल्कुल अनजान थे जो कुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के कारण दुनिया में फैल रहा था। इस मौक़े पर उनको सम्बोधित किए बिना उनके बारे में जो कुछ कहा जा रहा है उससे अभिप्रेत तीन मामले हैं- एक यह कि उनको पाया जाए। दूसरे यह कि ईमान और निफाक (कपटाचार) का अन्तर स्पष्ट रूप से खोलकर बयान कर दिया जाए। तीसरे यह कि मुनाफ़िकों को स्पष्ट चेतावनी दी जाए कि अल्लाह के जो वादे ईमानवालों के लिए हैं, वे सिर्फ़ उन्हीं लोगों को पहुँचते हैं जो सच्चे दिल से ईमान लाएँ और फिर उस ईमान के तक़ाज़े पूरे करें।
62. आसमानों और जमीन का शब्द कुरआन मजीद में सामान्यतः 'सृष्टि' (कायनात) के अर्थ में प्रयोग होता है। इसलिए दूसरे शब्दों में आयत का अनुवाद यह भी हो सकता है कि अल्लाह सम्पूर्ण सृष्टि का नूर है । नूर से तात्पर्य यह चीज है जिसकी वजह से चीजें प्रकट होती हैं, अर्थात् जो आप से आप प्रकट हो और दूसरी चीजों को प्रकट करे। इंसान के मन में नूर और रौशनी का वास्तविक अर्थ यही है। अल्लाह के लिए शब्द 'नूर' का प्रयोग इसी मूल अर्थ की दृष्टि से किया गया है, न इस अर्थ में कि 'मआजल्लाह' (अल्लाह की पनाह) वह कोई किरण है जो एक लाख 86 हजार मील प्रति सेकंड की रफ्तार से चलती है और हमारी आँख के परदे पर पड़कर दिमाग के चक्षु केन्द्र को प्रभावित करती है। रौशनी की यह विशेष स्थिति उस अर्थ की वास्तविकता में शामिल नहीं है जिसके लिए मानव-मस्तिष्क ने यह शब्द गढ़ा है, बल्कि इसे हम उन रोशनियों के लिए इस्तेमाल करते हैं जो इस भौतिक जगत के अन्दर हमारे अनुभव में आते हैं। अल्लाह के लिए इंसानी भाषा के जितने शब्द भी बोले जाते हैं,वह अपने मूल अर्थ की दृष्टि से बोले जाते हैं, न कि उनके भौतिक स्वरूपों की दृष्टि से । मिसाल के तौर पर हम उसके लिए देखने का शब्द बोलते हैं। इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह इंसानों और हैवानों की तरह आँख नामी एक अंग के जरिये से देखता है। इसी तरह 'नूर' के बारे में भी यह विचार करना केवल एक संकीर्ण विचार है कि इसका अर्थ केवल किरण के रूप ही में पाया जाता है जो किसी चमकनेवाले ग्रह से निकलकर आँख के परदे पर पड़ा हो । अल्लाह के लिए यह शब्द इस सीमित अर्थ में नहीं है, बल्कि व्यापक अर्थ में है, अर्थात् इस सृष्टि में वही एक वास्तविक "प्रकटन-कारण” है, बाक़ी यहाँ अंधेरे के सिवा कुछ नहीं है। दूसरी रौशनी देनेवाली चीजें भी उसकी प्रदान की रौशनी से रौशन और रौशनगर है, वरना उनके पास अपना कुछ नहीं, जिससे वे यह करिश्मा दिखा सकें । नूर का शब्द ज्ञान के लिए भी प्रयुक्त होता है और उसके विपरीत अज्ञानता को अंधकार से परिभाषित किया जाता है। अल्लाह तआला इस अर्थ में भी सृष्टि का नूर है कि यहाँ वास्तविकताओं का ज्ञान और संमार्ग का ज्ञान अगर मिल सकता है तो उसी से मिल सकता है, उससे अनुग्रही हुए बिना अज्ञानता का अंधकार और नतीजे में गुमराही और पथभ्रष्टता के सिवा और कुछ सुभव नहीं है।
66. अर्थात् यद्यपि अल्लाह का यह नूर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशमान कर रहा है, मगर उसकी अनुभूति हर एक को प्राप्त नहीं होती। उसकी अनुभूति और उसके यश से लाभान्वित होने का सौभाग्य अल्लाह ही जिसको चाहता है प्रदान करता है, वरना जिस तरह अंधे के लिए दिन और रात बराबर हैं, उसी तरह अविवेकी एवं चेतनाहीन इंसान के लिए बिजली और सूरज और चाँद और तारों की रौशनी तो रौशनी है, मगर अल्लाह का नूर उसको सुझाई नहीं देता।
67. इसके दो अर्थ हैं- एक यह कि वह जानता है कि किस तथ्य को किस मिसाल से अति उत्तम ढंग से समझाया जा सकता है। दूसरे यह कि वह जानता है कि कौन इस नेमत का हक़दार है और कौन नहीं है। इसका हक़दार केवल वही है जिसे अल्लाह जानता है कि वह उसका इच्छुक और सच्चा इच्छुक है।
فِي بُيُوتٍ أَذِنَ ٱللَّهُ أَن تُرۡفَعَ وَيُذۡكَرَ فِيهَا ٱسۡمُهُۥ يُسَبِّحُ لَهُۥ فِيهَا بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ ۝ 35
(36-37) (उसके नूर की ओर रहनुमाई पानेवाले) उन घरों में पाए जाते हैं जिन्हें ऊँचा करने का, और जिनमें अपने नाम की याद का अल्लाह ने हुक्म दिया है। 68 उनमें ऐसे लोग सुबह व शाम उसका गुणगान करते है जिन्‍हें व्यापार और क्रय-विक्रय अल्लाह की याद से और नमाज़ क़ायम करने और ज़कात से ग़ाफ़िल नहीं कर देता। वे उस दिन से डरते रहते हैं जिसमें दिल उलटने और दीदे पथरा जाने की नौबत आ जाएगी।
رِجَالٞ لَّا تُلۡهِيهِمۡ تِجَٰرَةٞ وَلَا بَيۡعٌ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَإِقَامِ ٱلصَّلَوٰةِ وَإِيتَآءِ ٱلزَّكَوٰةِ يَخَافُونَ يَوۡمٗا تَتَقَلَّبُ فِيهِ ٱلۡقُلُوبُ وَٱلۡأَبۡصَٰرُ ۝ 36
0
لِيَجۡزِيَهُمُ ٱللَّهُ أَحۡسَنَ مَا عَمِلُواْ وَيَزِيدَهُم مِّن فَضۡلِهِۦۗ وَٱللَّهُ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 37
(38) (और वे यह सब कुछ इसलिए करते है) ताकि अल्लाह उनके अच्छे से अच्छे कर्म का बदला उनको दे और ज़्यादा अपनी कृपा प्रदान करे । अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब देता है। 69
69. यहाँ अब विशेषताओं की व्याख्या कर दी गई है जो अल्लाह के विशुद्ध नूर की अनुभूति करने और उसके यश से लाभ उठाने के लिए अनिवार्य है। अल्लाह सत्य की नेमत यह देख कर देता है कि आदमी के दिल में उसको मुहब्बत और उससे दिलचस्पी और उसका डर और उसके इनाम की तलब और उसके प्रकोप से बचने की इच्छा मौजूद है। वह दुनिया-परस्ती में गुम नहीं है, बल्कि सारी व्यस्तताओं के बावजूद उसके दिल में अपने अल्लाह की याद बसी रहती है, वह पस्तियों में पड़ा नहीं रहना चाहता, बल्कि उस उच्चता को व्यावाहारिक रूप से अपनाता है जिसकी ओर उसका मालिक मार्गदर्शन करे, वह कुछ दिनों इसी ज़िंदगी के लाभों का तलबगार नहीं है, बल्कि उसकी दृष्टि आखिरत के शाश्वत जीवन पर जमी होती है। यही कुछ देखकर निर्णय किया जाता है कि आदमी को अल्लाह के नूर से लाभान्वित होने का सौभाग्य प्रदान किया जाए। फिर जब अल्लाह देने पर आता है तो उसकी देन के लिए कोई सीमा नहीं है।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَعۡمَٰلُهُمۡ كَسَرَابِۭ بِقِيعَةٖ يَحۡسَبُهُ ٱلظَّمۡـَٔانُ مَآءً حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَهُۥ لَمۡ يَجِدۡهُ شَيۡـٔٗا وَوَجَدَ ٱللَّهَ عِندَهُۥ فَوَفَّىٰهُ حِسَابَهُۥۗ وَٱللَّهُ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 38
(39) (इसके विपरीत) जिन्होंने इंकार किया 70, उनके कर्मों की मिसाल ऐसी है जैसे बे-पानी के रेगिस्तान में सराब (मरीचिका) कि प्यासा उसको पानी समझे हुए था, मगर जब वहाँ पहुँचा तो कुछ न पाया, बल्कि वहाँ उसने अल्लाह को मौजूद पाया जिसने उसका पूरा-पूरा हिसाब चुका दिया, और अल्लाह को हिसाब लेते देर नहीं लगती।71
70. अर्थात् सत्य को उस शिक्षा को सच्चे दिल से अपनाने से इन्कार कर दिया जो अल्लाह की ओर से उसके पैराम्बरों ने दी है और जो उस समय अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। ऊपर की आयतें स्वयं बता रही हैं कि अल्लाह का नूर पानेवालों से तात्पर्य सच्चे और सदाचारी मोमिन हैं। इसलिए अब उनके मुकाबले में उन लोगों की हालत बताई जा रही है जो इस नूर को पाने के वास्तविक और एक गात्र साधन, अर्थात् रसूल ही को मानने और उसकी पैरवी करने से इंकार कर दें, चाहे दिल से इंकार करें और केवल जबान से स्वीकार करते हों या दिल और ज़बान दोनों ही से इंकारी हों।
71. इस मिसाल में उन लोगों का हाल बयान हुआ है जो कुफ्र (इंकार) और निफाक़ के बावजूद प्रत्यक्षा में कुछ भले कर्म भी करते हों और कुल मिलाकर आखिरत को भी मानते हों और इस ग़लत ख्याल में पड़े हों कि सच्चे ईमान, ईमानवालों की विशेषताओं और रसूल (सल्ल०) की इताअत और पैरवी के बिना उनके ये कर्म आख़िरत में उनके लिए कुछ लाभप्रद होंगे। मिसाल के रूप में उनको बताया जा रहा है कि तुम्हारे इन कों को वास्तविकता सराब (मरीचिका) से अधिक नहीं है। रेगिस्तान में चमकती हुई रेत को दूर से देखकर जिस तरह प्यासा यह समझता है कि पानी का एक तालाब मौजें मार रहा है और मुँह उठाए उसकी ओर दौड़ता चला जाता है, उसी तरह तुम इन कर्मों के झूठे भरोसे पर मौत की मंज़िल का सफर तय करते चले जा रहे हो। मगर जिस तरह सराब (मरीचिका) की ओर दौड़नेवाला जब उस जगह पहुँचता है जहाँ उसे तालाब नज़र आ रहा था तो कुछ नहीं पाता, उसी तरह जब तुम मौत को मंज़िल में दाख़िल हो जाओगे, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि यहाँ कोई ऐसी चीज़ मौजूद नहीं है जिसका तुम कोई लाभ उठा सको, बल्कि इसके विपरीत अल्लाह तुम्हारे कुफ़ व निफ़ाक़ का और उन दुष्कर्मों का, जो तुम इन दिखावटी नेकियों के साथ कर रहे थे, हिसाब लेने और पूरा-पूरा बदला देने के लिए मौजूद है।
أَوۡ كَظُلُمَٰتٖ فِي بَحۡرٖ لُّجِّيّٖ يَغۡشَىٰهُ مَوۡجٞ مِّن فَوۡقِهِۦ مَوۡجٞ مِّن فَوۡقِهِۦ سَحَابٞۚ ظُلُمَٰتُۢ بَعۡضُهَا فَوۡقَ بَعۡضٍ إِذَآ أَخۡرَجَ يَدَهُۥ لَمۡ يَكَدۡ يَرَىٰهَاۗ وَمَن لَّمۡ يَجۡعَلِ ٱللَّهُ لَهُۥ نُورٗا فَمَا لَهُۥ مِن نُّورٍ ۝ 39
(40) या फिर उसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक गहरे समुद्र में अंधेरा कि ऊपर एक मौज छाई हुई है, उसपर एक और मौज और उसके ऊपर बादल, अंधेरे पर अंधेरा छाया हुआ है। आदमी अपना हाथ निकाले तो उसे भी न देखने पाए।72 जिसे अल्लाह नूर न प्रदान करे, उसके लिए फिर कोई नूर नहीं।73
72. इस मिसाल में तमाम कुफ़ करनेवालों और मुनाफ़िकों की हालत बयान की गई है जिनमें नुमाइशी नेकियाँ करनेवाले भी शामिल हैं। इन सबके बारे में बताया जा रहा है कि वे अपनी पूरी जिंदगी पूर्णत: अज्ञानता की हालत में बसर कर रहे हैं, चाहे वे दुनिया की परिभाषाओं में अल्लामा-ए-दहर (समय के महान विद्वान) और ज्ञान-विज्ञान के गुरुओं के गुरु ही क्यों न हों। उनकी मिसाल उस आदमी की-सी है जो किसी ऐसी जगह फँसा हो जहाँ पूर्ण अंधेरा हो, रौशनी की एक किरण तक न पहुँच सकती हो।
73. यहाँ पहुँचकर वह वास्तविक उद्देश्य स्पष्ट कर दिया गया है जिसकी भूमिका 'अल्लाहु नुरूस्समावाति वल अर्जि' अर्थात् 'अल्लाह ज़मीन और आसमनों का नूर है', के विषय से आरंभ की गई थी। जब सृष्टि में कोई नूर वास्तव में अल्लाह के सिवा कोई नूर नहीं है और तमाम वास्तविकताओं का प्रकटीकरण उसी नूर के कारण हो रहा है, तो जो आदमी अल्लाह से नूर न पाए वह अगर पूर्ण अंधकार में ग्रस्‍त न होगा तो और क्या होगा। कहीं और तो रौशनी मौजूद ही नहीं है कि उससे एक किरण भी वह पा सके।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱلطَّيۡرُ صَٰٓفَّٰتٖۖ كُلّٞ قَدۡ عَلِمَ صَلَاتَهُۥ وَتَسۡبِيحَهُۥۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 40
(41) क्या 74 तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह की तस्वीह (गुणगान) कर रहे हैं वे सब जो आसमानों और जमीन में हैं और वे पक्षी जो पंख फैलाए उड़ रहे हैं? हर एक अपनी नमाज और तस्बीह का तरीका जानता है, और ये सब जो कुछ करते हैं अल्लाह उसकी खबर रखता है
74. ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि अल्लाह सम्पूर्ण सृष्टि का नूर है, मगर इस नूर की अनुभूति का सौभाग्य सिर्फ़ नेक ईमानवालों ही को प्राप्त होता है, बाकी सब लोग इस पूर्ण और व्यापक नूर के अच्छादित होते हुए भी अंधों की तरह अंधकार में भटकते रहते हैं। अब इस नूर की ओर रहनुमाई करनेवाले अनगिनत चिह्नों में से सिर्फ़ कुछ को नमूने के तौर पर पेश किया जा रहा है कि दिल को आंखें खोलकर कोई इन्हें देखे तो हर समय हर ओर अल्लाह को काम करते देख सकता है। मगर जो दिल के अंधे हैं वे अपने सर के दीदे फाड़-फाड़कर भी देखते हैं तो उन्हें बॉयलोजी (जीव-विज्ञान) और जूलोजी (जन्तु-विज्ञान) और नाना प्रकार की दूसरी लोजियाँ (विज्ञान) तो अच्छी-खासी काम करतो दीख पड़ती हैं, मगर अल्लाह कहाँ काम करता दिखाई नहीं देता।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 41
(42) आसमानों और जमीन की बादशाही अल्लाह ही के लिए है और उसी की ओर सबको पलटना है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُزۡجِي سَحَابٗا ثُمَّ يُؤَلِّفُ بَيۡنَهُۥ ثُمَّ يَجۡعَلُهُۥ رُكَامٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦ وَيُنَزِّلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن جِبَالٖ فِيهَا مِنۢ بَرَدٖ فَيُصِيبُ بِهِۦ مَن يَشَآءُ وَيَصۡرِفُهُۥ عَن مَّن يَشَآءُۖ يَكَادُ سَنَا بَرۡقِهِۦ يَذۡهَبُ بِٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 42
(43) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह बादल को धीरे-धीरे चलाता है, फिर उसके टुकड़ों को आपस में जोड़ता है, फिर उसे समेटकर एक बोझल बादल बना देता है, फिर तुम देखते हो कि उसके खोल में से बारिश की बूंदें टपकती चली आती हैं और वह आसमान से, उन पहाड़ों की बदौलत, जो उसमें ऊँचे उठे हुए है 75, ओले बरसाता है, फिर जिसे चाहता है उनका नुकसान पहुँचाता है और जिसे चाहता हैं उनसे बचा लेता है। उसकी बिजली की चमक निगाहों को चकाचौंध किए देती है।
75. इससे तात्पर्य सर्दी से जमे हुए बादल भी हो सकते हैं जिन्हें सांकेतिक रूप में 'आसमान के पहाड़ कहा गया हो और ज़मीन के पहाड़ भी हो सकते हैं जो आसमान में बुलंद हैं, जिनकी चोटियों पर जमी हुई बर्फ़ के असर से कभी-कभी हवा इतनी ठंडी हो जाती है कि बादल जमने लगते हैं और ओलों के रूप में वर्षा होने लगती है।
يُقَلِّبُ ٱللَّهُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 43
(44) रात और दिन का उलट-फेर वही कर रहा है। इसमें एक शिक्षा है आँखोंवालों के लिए।
وَٱللَّهُ خَلَقَ كُلَّ دَآبَّةٖ مِّن مَّآءٖۖ فَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰ بَطۡنِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰ رِجۡلَيۡنِ وَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰٓ أَرۡبَعٖۚ يَخۡلُقُ ٱللَّهُ مَا يَشَآءُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 44
(45) और अल्लाह ने हर जानदार एक तरह के पानी से पैदा किया, कोई पेट के बल चल रहा है तो कोई दो टाँगों पर और कोई चार टाँगों पर । जो कुछ वह चाहता है पैदा करता है, वह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है।
لَّقَدۡ أَنزَلۡنَآ ءَايَٰتٖ مُّبَيِّنَٰتٖۚ وَٱللَّهُ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 45
(46) हमने स्पष्ट रूप से सत्य बतानेवाली आयतें उतार दी हैं। आगे सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन अल्लाह ही जिसे चाहता है देता है।
وَيَقُولُونَ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَبِٱلرَّسُولِ وَأَطَعۡنَا ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٞ مِّنۡهُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۚ وَمَآ أُوْلَٰٓئِكَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 46
(47) ये लोग कहते हैं कि हम ईमान लाए अल्लाह और रसूल पर और हमने आज्ञापालन स्वीकार किया, मगर इसके बाद इनमें से एक गिरोह (आज्ञापालन से) मुँह मोड़ जाता है। ऐसे लोग कदापि मोमिन (ईमानवाले) नहीं है।76
76. अर्थात् आज्ञापालन से मुँह मोड़ना उनके ईमान के दावे का खुद खंडन कर देता है और इस हरकत से यह बात खुल जाती है कि उन्होंने झूठ कहा, जब कहा कि हम ईमान लाए और हमने आज्ञापालन स्वीकार किया।
وَإِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 47
(48) जब उनको बुलाया जाता है अल्लाह और रसूल की ओर, ताकि रसूल उनके आपस के मुक़द्दमे का फैसला करें77 तो उनमें से एक फ़रीक कतरा जाता है।78
77. ये शब्द साफ़ बताते हैं कि रसूल का फैसला अल्लाह का फैसला है और उसका आदेश अल्लाह का आदेश है। रसूल की ओर बुलाया जाना सिर्फ रसूल ही की ओर बुलाया जाना नहीं, बल्कि अल्लाह और रसूल दोनों की ओर बुलाया जाना है। साथ ही इस आयत और ऊपरवाली आयत से यह बात बिना किसी सन्देह के बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन के बिना ईमान का दावा निरर्थक है और अल्लाह और रसूल के आज्ञापालन का कोई अर्थ इसके सिवा नहीं है कि मुसलमान व्यक्ति के रूप में और क़ौम के रूप में उस क़ानून के आगे झुक जाएँ जो अल्लाह और उसके रसूल ने उनको दिया है। (तुलना के लिए देखिए सूरा-4 निसा, आयत 59-61, टिप्पणी सहित 89-92)
78. स्पष्ट रहे कि यह मामला केवल नबी (सल्ल०) की ज़िंदगी ही के लिए न था, बल्कि आपके बाद जो भी इस्लामी राज्य में न्याधीश के पद पर हो और अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत के अनुसार फ़ैसले करे, उसकी अदालत का सम्मन वास्तव में अल्लाह और रसूल (सल्ल०) की अदालत का सम्मन है और उससे मुँह मोड़नेवाला वास्तव में उससे नहीं बल्कि अल्लाह और उसके रसूल से मुँह मोड़नेवाला है। इस विषय को यह व्याख्या स्वयं नबी (सल्ल०) से एक मुर्सल हदीस में उल्लिखित है जिसे हसन बसरी (रह०) ने रिवायत की है कि “जो आदमी मुसलमानों की अदालत के अधिकारियों में से किसी अधिकारी की ओर बुलाया जाए और वह हाज़िर न हो तो वह ज़ालिम है, उसका कोई अधिकार नहीं है," (अहकामुल कुरआन जस्सास, भाग 3, पृ० 405)। दूसरे शब्दों में, ऐसा आदमी सज़ा का भी हक़दार है और साथ ही इसका भी हक़दार है कि उसे असत्य पर होना समझकर उसके खिलाफ़ एकतरफ़ा फ़ैसला दे दिया जाए।
وَإِن يَكُن لَّهُمُ ٱلۡحَقُّ يَأۡتُوٓاْ إِلَيۡهِ مُذۡعِنِينَ ۝ 48
(49) अलबत्ता अगर हक़ उनके पक्ष में हो, तो रसूल के पास बड़े आज्ञापालन करनेवाले बनकर आ जाते हैं।79
79. यह आयत इस वास्तविकता को साफ़-साफ़ खोलकर बयान कर रही है कि जो आदमी शरीअत की लाभप्रद बातों को खुशी-खुशी लपककर ले ले, मगर जो कुछ अल्लाह की शरीअत में उसके स्वार्थो और इच्छाओं के विरुद्ध हो उसे रद्द कर दे और उसके मुक़ाबले में दुनिया के दूसरे कानूनों को प्राथमिकता दे, वह मोमिन नहीं बल्कि मुनाफ़िक़ है, उसके ईमान का दावा झूठा है, क्योंकि वह ईमान अल्लाह और रसूल पर नहीं, अपने स्वार्थों और इच्छाओं पर रखता है। इस रवैये के साथ अल्लाह की शरीअत के किसी हिस्से को अगर वह मान भी रहा है तो अल्लाह की दृष्टि में इस तरह के मानने का कोई मूल्य और महत्त्व नहीं।
أَفِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ أَمِ ٱرۡتَابُوٓاْ أَمۡ يَخَافُونَ أَن يَحِيفَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَرَسُولُهُۥۚ بَلۡ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 49
(50) क्या इनके दिलों को (निफ़ाक़ का) रोग लगा हुआ है? या ये सन्देह में पड़े हुए हैं ? या उनको यह डर है कि अल्लाह और उसका रसूल उनपर ज़ुल्म करेगा? वास्तविक बात यह है कि ज़ालिम तो ये लोग ख़ुद हैं ?80
80. अर्थात इस कार्य-प्रणाली के तीन ही कारण हो सकते हैं- एक यह कि आदमी सिरे से ईमान ही न लाया हो और कपटपूर्ण तरीके से मात्र धोखा देने और मुस्लिम समाज में शामिल होने का नाजायज़ फ़ायदा उठाने के लिए मुसलमान हो गया हो। दूसरा यह कि ईमान ले आने के बाद भी उसे इस मामले में अभी तक सन्देह हो कि रसूल अल्लाह का रसूल है या नहीं और कुरआन अल्लाह की किताब है या नहीं और आखिरत वास्तव में आनेवाली है भी या केवल एक गढ़ी हुई कहानी है, बल्कि अल्लाह भी वास्तव में मौजूद है या यह भी एक कल्पना है जो किसी कारण गढ़ ली गई है। तीसरा यह कि वह अल्लाह को अल्लाह और रसूल को रसूल मानकर भी उनसे जुल्म का अंदेशा रखता हो और यह समझता हो कि अल्लाह की किताब ने फला हुक्म देकर तो हमें मुसीबत में डाल दिया और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का अमुक कथन या अमुक तरीक़ा तो हमारे लिए अति हानिकारक है। इन तीनों शक्लों में से जो शक्ल भी हो, ऐसे लोगों के ज़ालिम होने में कोई सन्देह नहीं। इस तरह के विचार रखकर जो आदमी मुसलमानों में शामिल होता है, ईमान का दावा करता है और मुस्लिम समाज का एक सदस्य बनकर नाना प्रकार के नाजाइज़ फायदे उस समाज से प्राप्त करता है, वह बहुत बड़ा, दगाबाज़, विश्वासघाती और जालसाज़ है। वह अपने आपपर भी जुल्म करता है और अपने आपको रात-दिन के झूठ से दुगुर्गों का साकार रूप बनाता चला जाता है और उन मुसलमानों पर भी ज़ुल्म करता है जो ज़ाहिरी तौर पर उसके मुसलमान होने पर भरोसा करके उसे अपने समुदाय का एक अंग मान लेते हैं और फिर उसके साथ तरह-तरह के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और नैतिक संबंध स्थापित कर लेते हैं।
إِنَّمَا كَانَ قَوۡلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ أَن يَقُولُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 50
(51) ईमान लानेवालों का काम तो यह है कि जब वे अल्लाह और रसूल की ओर बुलाए जाएँ, ताकि रसूल उनके मुक़द्दमे का फैसला करे, तो वे कहे कि हमने सुना और आज्ञापालन किया ।
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَخۡشَ ٱللَّهَ وَيَتَّقۡهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 51
(52) ऐसे ही लोग सफलता पानेवाले हैं, और सफल बही हैं, जो अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करें और अल्लाह से डरे और उसको अवज्ञा से बचें।
۞وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِنۡ أَمَرۡتَهُمۡ لَيَخۡرُجُنَّۖ قُل لَّا تُقۡسِمُواْۖ طَاعَةٞ مَّعۡرُوفَةٌۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 52
(53) ये (मुनाफ़िक) अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी कस्में खाकर कहते हैं कि "आप हुक्म दें तो हम घरों से निकल खड़े हों।" इनसे कहो, “कस्में न खाओ, तुम्हारी आज्ञापालन का हाल मालूम हैं81, तुम्हारी करतूतों से अल्लाह बे-ख़बर नहीं है।‘’82
81. दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि ईमानवालों से जो आज्ञापालन अभीष्ट है वह ऐसा आज्ञापालन है जो अपने में प्रत्यक्ष और स्पष्ट हो, और हर संदेह से परे हो न कि ऐसा आज्ञापालन जिसका विश्वास दिलाने के लिए कस्में खाने की ज़रूरत पड़े और फिर भी विश्वास न पैदा हो सके जो लोग वास्तव में आज्ञाकारी होते हैं उनका रवैया किसी से छिपा हुआ नहीं होता। हर आदमी उनके आचरण को देखकर महसूस कर लेता है कि ये आज्ञाकारी लोग हैं। इनके बारे में किसी सन्देह की गुंजाइश ही नहीं होती कि इसे दूर करने के लिए क़समें खाने की ज़रूरत पेश आए।
82. अर्थात् ये धोखेबाज़ियाँ सृष्टि के मुकाबले में तो शायद चल भी जाएँ, मगर अल्लाह के मुक़ाबले में कैसे चल सकती हैं जो खुले और छिपे सब हालात, बल्कि दिलों के छिपे इरादे और विचारों तक से बाख़बर है।
قُلۡ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡهِ مَا حُمِّلَ وَعَلَيۡكُم مَّا حُمِّلۡتُمۡۖ وَإِن تُطِيعُوهُ تَهۡتَدُواْۚ وَمَا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 53
(54) कहो, "अल्लाह के आदेश का पालन करो और रसूल के आज्ञापालक बनकर रहो, लेकिन अगर तुम मुंह फेरते हो तो खूब समझ लो कि रसूल पर जिस कर्त्तव्य का बोझ रखा गया है उसका ज़िम्मेदार वह है और तुमपर जिस कर्तव्य का बोझ डाला गया है उसके ज़िम्मेदार तुम । उसका आज्ञापालन करोगे तो स्वयं ही हिदायत पाओगे, वरना रसूल की ज़िम्मेदारी इससे अधिक कुछ नहीं है कि साफ़-साफ़ आदेश पहुँचा दे।"
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَيَسۡتَخۡلِفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ كَمَا ٱسۡتَخۡلَفَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمۡ دِينَهُمُ ٱلَّذِي ٱرۡتَضَىٰ لَهُمۡ وَلَيُبَدِّلَنَّهُم مِّنۢ بَعۡدِ خَوۡفِهِمۡ أَمۡنٗاۚ يَعۡبُدُونَنِي لَا يُشۡرِكُونَ بِي شَيۡـٔٗاۚ وَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 54
(55) अल्लाह ने वादा फ़रमाया है तुममें से उन लोगों के साथ जो ईमान लाएँ और नेक अमल करें कि वह उनको उसी तरह जमीन में ख़लीफ़ा बनाएगा जिस तरह उनसे पहले गुज़रे हुए लोगों को बना चुका है। उनके लिए उनके उस दीन को मज़बूत बुनियादों पर क़ायम कर देगा जिसे अल्लाह ने उनके लिए पसन्द किया है और उनकी (वर्तमान) भय की हालत को निश्चिन्तता से में बदल देगा। अत: वे मेरी बन्दगी करें और मेरे साथ किसी को शरीक न करें।83 और जो इसके बाद कुफ़्र करे84, तो ऐसे ही लोग फ़ासिक़ हैं ।
83. इस कथन का अभीष्ट मुनाफ़िकों को सचेत करना है कि अल्लाह ने मुसलमानों को खिलाफ़त देने का जो वादा किया है, वह उन मुसलमानों से किया है जो ईमान के सच्चे हों, चरित्र और आचरण की दृष्टि से नेक हों, अल्लाह के पसन्दीदा दीन की पैरवी करनेवाले हों और हर तरह के शिर्क से पाक होकर अल्लाह की विशुद्ध बन्दगी व गुलामी के पाबन्द हों। इन गुणों से खाली और मात्र ज़बान से ईमान के दावेदार लोग न इस वादे के योग्य हैं और न यह उनसे कहा ही गया है। अत: वे इसमें हिस्सेदार होने की आशा न रखें। कुछ लोग खिलाफ़त को केवल हुकूमत और शासनाधिकार और प्रभुत्व व सत्ता के अर्थ में लेते हैं, फिर इस आयत से यह नतीजा निकालते हैं कि जिसको भी दुनिया में सत्ता प्राप्त है उसे खिलाफ़त प्राप्त है और वह मोमिन और सदाचारी और अल्लाह के पसन्दीदा दीन का अनुयायी और सत्य की बन्दगी पर अमल करनेवाला और शिर्क से बचनेवाला है, और इसपर और ज़्यादा सितम यह ढाते हैं कि अपने इस ग़लत नतीजे को ठीक बिठाने के लिए ईमान, सदाचार, सत्य-धर्म, ईश-उपासना और शिर्क, हर चीज़ का अर्थ बदलकर वह कुछ बना डालते हैं जो उनके इस विचारधारा के अनुसार हो। यह क़ुरआन के अर्थों में सबसे बुरा बिगाड़ है, जो यहूदी व ईसाई के बिगाड़ों से भी बाज़ी ले गया है। क़ुरआन वास्तव में ख़िलाफ़त और 'इस्तिख्लाफ' (ख़लीफ़ा बनाया जाने) को तीन विभिन्न अर्थों में इस्तेमाल करता है और हर जगह प्रसंग और संदर्भ को देखने से पता चल जाता है कि कहाँ किस अर्थ में यह शब्द बोला गया है- इसका एक अर्थ है,"अल्लाह के दिए हुए अधिकारों का धारक होना।" इस अर्थ में आदम की पूरी औलाद ज़मीन में ख़लीफ़ा है। दूसरा अर्थ है "अल्लाह की संप्रभुता को मानते हुए उसके शरई हुक्म (न कि केवल प्राकृतिक हुक्म) के तहत ख़िलाफ़त के अधिकारों के इस्तेमाल करना'। इस अर्थ में केवल सदाचारी ईमानवाला ही ख़लीफ़ा क़रार पाता है। तीसरा अर्थ है 'एक दौर की सत्ताधारी क़ौम के बाद दूसरी क़ौम का उसकी जगह लेना।' पहले दोनों अर्थों के अनुसार ख़िलाफ़त 'नियावत' (प्रतिनिधित्व) के अर्थ में है और अन्तिम अर्थ ख़िलाफ़त 'जानशीनी' (उत्तराधिकार) के अर्थ में लिया गया है। और इस शब्द के ये दोनों अर्थ अरबी भाषा में प्रचलित हैं। अब जो आदमी भी यहाँ इस सन्दर्भ में 'इस्तिख्लाफ़ की आयत' को पढ़ेगा, वह एक क्षण के लिए भी इस मामले में सन्देह नहीं कर सकता कि इस जगह 'खिलाफ़त' का शब्द उस हुकूमत के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो अल्लाह के शरई हुक्म के अनुसार (न कि केवल प्राकृतिक नियमों के अनुसार) उसकी नियाबत (प्रतिनिधित्व) का ठीक-ठाक हक़ अदा करनेवाला हो । इसी लिए विधर्मी तो दूर की बात, इस्लाम का दावा करनेवाले मुनाफ़िक़ों तक को इस वादे में शरीक करने से इंकार किया जा रहा है । इसी लिए फ़रमाया जा रहा है कि इसके हक़दार सिर्फ़ ईमान और अच्छे कर्मों के गुणों से विभूषित लोग हैं। इसी लिए ख़िलाफ़त के क़ायम होने का परिणाम यह बताया जा रहा है कि अल्लाह का पसन्द किया हुआ दीन अर्थात इस्लाम मज़बूत बुनियादों पर क़ायम हो जाएगा और इसी लिए इस इनाम को प्रदान करने की शर्त यह बताई जा रही है कि ख़ालिस अल्लाह की बन्दगी पर कायम रहो जिसमें शिर्क को तनिक भर भी मिलावट न होने पाए। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-21 अंबिया, टिप्पणी 19)। इस जगह एक और बात भी उल्लेखनीय है। यह वादा बाद के मुसलमानों को तो अप्रत्यक्ष रूप से पहुँचता है। प्रत्यक्ष रूप से उसका संबोधन उन लोगों से था जो नबी (सल्ल०) के समय में मौजूद थे। वादा जब किया गया था उस समय वास्‍तव में मुसलमानों पर भय कि स्थिति बनी हुई थी और इस्लाम धर्म ने अभी हिजाज़ की धरती में भी मज़बूत जड़ नहीं पकड़ी थी। इसके कुछ साल बाद भय की यह हालत न सिर्फ शान्ति में बदल गई, बल्कि इस्लाम अरब से निकलकर एशिया और अफ्रीका के बड़े हिस्से पर छा गया और इसकी जड़ें अपनी जन्मभूमि ही में नहीं, पूरी दुनिया पर जम गयी। यह इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि अल्लाह ने अपना वायदा अबू बक्र सिद्दीक़ (रजि०), उमर फ़ारूक़ (रजि०) और उस्मान ग़नी (रजि०) के समय में पूरा कर दिया। इसके बाद कोई न्यायप्रिय व्यक्ति बड़ी कठिनाई ही से इस बात में सन्देह कर सकता है कि इन तीनों हज़रात की ख़िलाफ़त की ख़ुद क़ुरआन पुष्टि करता है और इनके सदाचारी ईमानवाले होने की गवाही अल्लाह स्वयं दे रहा है। इसमें अगर किसी को सन्देह हो तो नहजुल बलाग़ा में सय्यिदना अली कर्मल्लाहु वजहू का वह भाषण पढ़ ले जो उन्होंने हज़रत उमर को ईरानियों के मुक़ाबले पर स्वयं जाने के इरादे से बाज़ रखने के लिए किया था इसमें वे फ़रमाते हैं, "इस काम की उन्नति व अवनति, आधिक्य व अल्पता पर आश्रित नहीं है। यह तो अल्लाह का धर्म है जिसको उसने उन्नति प्रदान की और अल्लाह का शुक्र है जिसका उसने समर्थन व सहायता की, यहाँ तक कि यह उन्नति करके इस मंज़िल तक पहुँच गया। हमसे तो अल्लाह स्वयं फ़रमा चुका है, "अल्लाह ने वादा किया है उन लोगों को जो ईमान लाए हैं और जिन्होंने भले कर्म किए हैं कि उन्हें जमीन में ज़रूर खलीफा बनाएगा ...।" अल्लाह इस वादे को पूरा करके रहेगा और अपनी फौज की मदद ज़रूर करेगा। इस्लाम में कय्यिम' प्रमुख (अधिकारी) का स्थान वही है जो मोतियों के हार में रिश्ते (धागा) का स्थान है। रिश्ता टूटते ही मोती बिखर जाते हैं और सिलसिला टूट जाता है और बिखर जाने के बाद फिर जमा होना कठिन हो जाता । इसमें सन्देह नहीं कि अरव तादाद में थोड़े हैं, मगर इस्लाम ने उनको ज्यादा और संगठन ने उनको सशक्त बना दिया है। आप यहाँ कुत्व बनकर जमे बैठे रहें और अरब की चक्की को अपने गिर्द घुमाते रहे और यहीं से बैठे-बैठे लड़ाई की आग भड़काते रहें। वरना आप अगर एक बार यहाँ से हट गए तो हर ओर से अरब की व्यवस्था टूटना शुरू हो जाएगी और नौबत यह आ जाएगी कि आपको सामने के दुश्मनों के मुकाबले में पीछे के ख़तरों की अधिक चिंता होगी और उधर ईरानी आप ही के ऊपर नज़रें जमा देंगे कि यह अरब की जड़ है। इसे काट दो तो बेड़ा पार है । इसलिए वे सारा ज़ोर आपको समाप्त कर देने पर लगा देंगे। रही वह बात जो आपने फ़रमाई है कि इस वक़्त अजम (गैर-अरब) वाले बड़ी भारी संख्या में उमड़ आए हैं, तो इसका उत्तर यह है कि इससे पहले भी हम जो उनसे लड़ते रहे हैं तो कुछ संख्या की अधिकता के बल पर नहीं लड़ते रहे हैं, बल्कि अल्लाह के समर्थन और उसकी सहायता ही ने आज तक हमें कामयाब कराया है।" देखनेवाला स्वयं ही देख सकता है कि भाषण में जनाबे अमीर (अली रजि०) किसपर इस्तिनाफ़ की आयत को चरितार्थ कर रहे हैं।
84. कुफ़्र से तात्पर्य यहाँ नेमतों की नाशुक्री भी हो सकती है और सत्य का इंकार भी। पहला अर्थ उन लोगों पर चरितार्थ होगा जो ख़िलाफ़त की नेमत पाने के बाद सत्य के मार्ग से हट जाएँ और दूसरा अर्थ उन लोगों पर चरितार्थ होगा जो मुनाफ़िक़ होंगे, जो अल्लाह का यह वादा सुन लेने के बाद भी अपनी मुनाफ़िक़ाना (कपट पूर्ण) रविश न छोड़ें।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 55
(56) नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और रसूल का आज्ञापालन करो, आशा है कि तुमपर दया की जाएगी।
لَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ وَلَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 56
(57) जो लोग कुफ़्र कर रहे हैं, उनके बारे में इस श्रम में न रहो कि वे ज़मीन में अल्लाह को आजिज़ (विवश) कर देंगे। उनका ठिकाना जहन्नम है, और वह बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِيَسۡتَـٔۡذِنكُمُ ٱلَّذِينَ مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ وَٱلَّذِينَ لَمۡ يَبۡلُغُواْ ٱلۡحُلُمَ مِنكُمۡ ثَلَٰثَ مَرَّٰتٖۚ مِّن قَبۡلِ صَلَوٰةِ ٱلۡفَجۡرِ وَحِينَ تَضَعُونَ ثِيَابَكُم مِّنَ ٱلظَّهِيرَةِ وَمِنۢ بَعۡدِ صَلَوٰةِ ٱلۡعِشَآءِۚ ثَلَٰثُ عَوۡرَٰتٖ لَّكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ وَلَا عَلَيۡهِمۡ جُنَاحُۢ بَعۡدَهُنَّۚ طَوَّٰفُونَ عَلَيۡكُم بَعۡضُكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 57
(58) ऐ लोगो85 जो ईमान लाए हो, आवश्यक है कि तुम्हारे लौंडी-ग़ुलाम86 और तुम्हारे वे बच्चे जो अभी सूझ-बूझ को नहीं पहुँचे हैं 87 तीन समयों में अनुमति लेकर तुम्हारे पास आया करें : सुबह की नमाज़ से पहले और दोपहर को जबकि तुम कपड़े उतारकर रख देते हो, और इशा की नमाज़ के बाद। ये तीन समय तुम्हारे लिए परदे के समय हैं।88 इनके बाद वे बिना इजाज़त आएँ तो न तुमपर कोई गुनाह है, न उनपर89, तुम्हें एक-दूसरे के पास बार-बार आना ही होता है।90 इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपने कथनों को खोल-खोलकर स्पष्ट करता है, और वह जाननेवाला और तत्त्वदर्शी है ।
85. यहाँ से फिर सामाजिक जीवन से संबंधित आदेशों का क्रम आरंभ होता है। असंभव नहीं कि सूरा नूर का यह भाग ऊपर के भाषण के कुछ समय बाद उतरा हो।
86. अधिकांश टीकाकारों और फुक्हा (धर्मशास्त्रियों) के नज़दीक इससे तात्पर्य लौंडियाँ और गुलाम (दास-दासी) दोनों हैं, क्योंकि आयत में "जो शब्द प्रयोग किया गया है वह लौंडी और गुलाम दोनों के लिए प्रयुक्त होता है, मगर इब्ने उमर और मुजाहिद इस आयत में अरबी शब्द 'मम्लूकों' से तात्पर्य सिर्फ़ ग़ुलाम लेते हैं और लौडियों को इससे अलग करते हैं, हालाँकि आगे जिस आदेश का उल्लेख हुआ है उसको देखते हुए इसे विशिष्ट करने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। एकान्त के समयों में जिस तरह स्वयं अपने बच्चों का अचानक आ जाना उचित नहीं, उसी तरह सेविका का भी आ जाना अनुचित है।
90. यह वजह है उस आम अनुमति की जो उल्लिखित तीन अवधियों के सिवा दूसरी तमाम अवधियों में बच्चों और गुलामों को बिना इजाज़त आने के लिए दी गई है। इससे उसूले फ़िक्ह के इस मसले पर रौशनी पड़ती कि शरीअत के आदेश सोद्देश्य हैं और हर हुक्म की कोई न कोई वजह ज़रूर है, चाहे वह बयान की गई हो या न की गई हो।
وَإِذَا بَلَغَ ٱلۡأَطۡفَٰلُ مِنكُمُ ٱلۡحُلُمَ فَلۡيَسۡتَـٔۡذِنُواْ كَمَا ٱسۡتَـٔۡذَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 58
(59) और जब तुम्हारे बच्चे सूझ-बूझ की सीमा को पहुँच जाएँ91 तो चाहिए कि उसी तरह इजाज़त लेकर आया करें जिस तरह उनके बड़े इजाज़त लेते रहे हैं। इस तरह अल्लाह अपनी आयतें तुम्हारे सामने खोलता है, और वह जाननेवाला और तत्त्वदर्शी है।
91. अर्थात् बालिग़ हो जाएँ, जैसा कि ऊपर टिप्पणी न० 87 में बताया जा चुका है, लड़कों के मामले में एहतलाम (स्वप्नदोष) और लड़कियों के मामले में माहवारी के दिनों की शुरुआत वयस्क होने को पहचान है। लेकिन जो लड़के और लड़कियाँ किसी वजह से देर तक इन शारीरिक परिवर्तनों से खाली रह जाएँ। उनके मामले में फुहा के बीच मतभेद है। इमाम शाफई, इमाम अबू यूसुफ, इमाम मुहम्मद और इमाम अहमद के नज़दीक इस शक्ल में 15 वर्ष के लड़के और लड़को को वयस्क समझा जाएगा और इमाम अबू हनीफ़ा (रह०) का भी एक कथन इसके समर्थन में है। लेकिन इमाम अबू हनीफ़ा का प्रसिद्ध कथन यह है कि इस शक्ल में 17 वर्ष की लड़की और 18 वर्ष के लड़के को वयस्क समझा जाएगा।
وَٱلۡقَوَٰعِدُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا يَرۡجُونَ نِكَاحٗا فَلَيۡسَ عَلَيۡهِنَّ جُنَاحٌ أَن يَضَعۡنَ ثِيَابَهُنَّ غَيۡرَ مُتَبَرِّجَٰتِۭ بِزِينَةٖۖ وَأَن يَسۡتَعۡفِفۡنَ خَيۡرٞ لَّهُنَّۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 59
(60) और जो औरतें जवानी से गुज़री बैठी हों,92 निकाह की उम्मीदवार न हों, वे अगर अपनी चादरें उतारकर रख दें93 तो उनपर कोई गुनाह नहीं, बशर्ते कि जीनत की नुमाइश करनेवाली न हों94, फिर भी वे भी हयादारी ही बरतें तो उनके हक में अच्छा है, और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
92. मूल में अरबी शब्द 'कवाइदू मिनन्निसाइ के शब्द प्रयुक्त हुए हैं, अर्थात् औरतों में से जो बैठ चुकी हों या बैठी हुई औरतें। इससे तात्पर्य है औरत का उस उम्र को पहुँच जाना जिसमें वह सन्तान पैदा करने के योग्य न रहे, उसकी अपनी इच्छाएँ भी मर चुकी हों और उसको देखकर मदों में भी कोई काम-भावना न पैदा हो सकती हो। इसी अर्थ की ओर बाद का वाक्य संकेत कर रहा है।
93. मूल अरबी शब्द है 'य-जअ न सिया-ब-हुन-न' (अपने कपड़े उतार दें)। मगर स्पष्ट है कि इससे तात्पर्य सारे कपड़े उतारकर नग्न हो जाना तो नहीं हो सकता। इसी लिए तमाम फुकहा और टीकाकारों ने एकमत होकर सर्वसम्मति से इससे तात्पर्य वे चादरें ली हैं जिनसे जीनत छिपाने का हुक्म सूरा-33 (अहजाब) की आयत 59 (अर्थात् अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें) में दिया गया था।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞ وَلَا عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَن تَأۡكُلُواْ مِنۢ بُيُوتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ ءَابَآئِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أُمَّهَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ إِخۡوَٰنِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخَوَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَعۡمَٰمِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ عَمَّٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخۡوَٰلِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ خَٰلَٰتِكُمۡ أَوۡ مَا مَلَكۡتُم مَّفَاتِحَهُۥٓ أَوۡ صَدِيقِكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَأۡكُلُواْ جَمِيعًا أَوۡ أَشۡتَاتٗاۚ فَإِذَا دَخَلۡتُم بُيُوتٗا فَسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ تَحِيَّةٗ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُبَٰرَكَةٗ طَيِّبَةٗۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 60
(61) कोई दोष नहीं अगर कोई अंधा, या लंगड़ा, या रोगी (किसी के घर से खा ले) और न तुम्हारे ऊपर इसमें कोई दोष है कि अपने घरों से खाओ या अपने बाप-दादा के घरों से, या अपनी माँ-नानी के घरों से, या अपने भाइयों के घरों से, या अपनी बहनों के घरों से, या अपने चचाओं के घरों से, या अपनी फूफियों के घरों से, या अपने मामुओं के घरों से, या अपनी खालाओं के घरों से, था उन घरों से जिनकी कुजियाँ तुम्हारी सुपुर्दगी में हो, या अपने दोस्तों के घरों से।95 इसमें भी कोई दोष नही कि तुम लोग मिलकर खाओ या अलग-अलग96, अलबत्ता जब घरों में दाख़िल हुआ करो तो अपने लोगों को सलाम किया करो, अच्छी दुआ, अल्लाह की ओर से निश्चित की हुई, बड़ी बरकतवाली और पाक । इसी तरह अल्लाह तुम्हारे सामने आयते बयान करता है, उम्मीद है कि तुम सूझ-बूझ से काम लोगे।
95. इस आयत को समझने के लिए तीन बातों को समझ लेना आवश्यक है- एक यह कि आयत के दो भाग हैं। पहला भाग बीमार, लंगड़े, अंधे और इसी तरह के अपंग विवश लोगों के बारे में है और दूसरा आम लोगों के बारे में। दूसरे यह कि कुरआन की नैतिक शिक्षाओं की वजह से हराम व हलाल और जाइज़ व नाजाइज़ का अन्तर करने के मामले में ईमानवालों की चेतना शक्ति बड़ी नाजुक हो गई थी। इल्ने अब्बास (रजि०) के कथन के अनुसार अल्लाह ने जब उनको हुक्म दिया कि 'एक-दूसरे के माल नाजाइज़ तरीक़ों से न खाओ' तो लोग एक-दूसरे के यहाँ खाना खाने में भी बड़ी सावधानी बरतने लगे थे, यहाँ तक कि बिल्कुल कानूनी शर्तों के अनुसार घरवालों की दावत व इजाजत जब तक न हो, वे समझते थे कि किसी रिश्तेदार या दोस्त के यहाँ खाना भी नाजाइज़ है। तीसरे यह कि इसमें अपने घरों से खाने का जो उल्लेख है, वह इजाजत देने के लिए नहीं बल्कि मन में यह बिठाने के लिए है कि अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के यहाँ खाना भी ऐसा ही है जैसे अपने यहाँ खाना। इन तीन बातों को समझ लेने के बाद आयत का यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ तक विवश व्यक्ति का ताल्लुक है, वह अपनी भूख दूर करने के लिए हर घर और हर जगह से खा सकता है, उसकी विवशता अपने आप में सारे समाज पर उसका अधिकार क़ायम कर देती है। इसलिए जहाँ से भी उसको खाने के लिए मिले, वह उसके लिए जाइज़ है। रहे आम आदमी, तो उनके लिए उनके अपने घर और उन लोगों के घर जिनका उल्लेख किया गया है, बराबर हैं। इनमें से किसी के यहाँ खाने के लिए घरवालों की विधिवत अनुमति | जरूरी नहीं है।। आदमी अगर इनमें से किसी के यहाँ जाए और घर का मालिक मौजूद न हो और उसके बीवी-बच्चे खाने को कुछ पेश करें तो वह नि:संकोच भाव से खाया जा सकता है। दोस्तों के बारे में यह बात ध्यान में रहे कि उनसे तात्पर्य अंतरंग और घनिष्ठ मित्र हैं।
96. प्राचीन काल के अरबवासियों में कुछ कबीलों की संस्कृति यह थी कि हर एक अलग-अलग खाना लेकर बैठे और खाए । ने मिलकर एक ही जगह खाना बुरा समझते थे। इसके विपरीत कुछ क़बीले अकेले खाने को बुरा जानते थे, यहाँ तक कि भूखे रह जाते थे अगर कोई साथ खानेवाला न हो। यह आयत इसी तरह की पाबन्दियों को खत्म करने के लिए है।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَإِذَا كَانُواْ مَعَهُۥ عَلَىٰٓ أَمۡرٖ جَامِعٖ لَّمۡ يَذۡهَبُواْ حَتَّىٰ يَسۡتَـٔۡذِنُوهُۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَسۡتَـٔۡذِنُونَكَ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ فَإِذَا ٱسۡتَـٔۡذَنُوكَ لِبَعۡضِ شَأۡنِهِمۡ فَأۡذَن لِّمَن شِئۡتَ مِنۡهُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمُ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 61
(62) मोमिन97 तो वास्तव में वही है जो अल्लाह और उसके रसूल को दिल से मानें और जब किसी सामूहिक काम के मौके पर रसूल के साथ हो तो उससे इजाजत लिए बिना न जाएँ।98 ऐ नबी ! जो लोग तुमसे इजाजत मांगते हैं वही अल्लाह और रसूल के माननेवाले हैं, अत: जब वे अपने किसी काम से इजाजत माँगें99 तो जिसे तुम चाहो इजाज़त दे दिया करो100 और ऐसे लोगों के हक़ में अल्ताह से मरिफ़रत (क्षमा) की दुआ किया करो।101 अल्लाह निश्चिय ही क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।
97. ये अन्तिम आदेश हैं जो मुसलमानों को जमाअत का अनुशासन पहले से अधिक कस देने के लिए दिए जा रहे हैं।
98. यही आदेश नबी (सल्ल०) के बाद आपके जानशीनों और इस्लामी जमाअत की व्यवस्था के अमीरों (अधिकारियों) का भी है। जब किसी सामूहिक उद्देश्य के लिए मुसलमानों को इकट्ठा किया जाए, इससे हटकर कि लड़ाई का मौका हो या अमन की हालत का, बहरहाल उनके लिए यह जाइज़ नहीं है कि अमीर की इजाजत के बिना बापस चले जाएँ या बिखर जाएँ।
لَّا تَجۡعَلُواْ دُعَآءَ ٱلرَّسُولِ بَيۡنَكُمۡ كَدُعَآءِ بَعۡضِكُم بَعۡضٗاۚ قَدۡ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ يَتَسَلَّلُونَ مِنكُمۡ لِوَاذٗاۚ فَلۡيَحۡذَرِ ٱلَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنۡ أَمۡرِهِۦٓ أَن تُصِيبَهُمۡ فِتۡنَةٌ أَوۡ يُصِيبَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 62
(63) मुसलमानो ! अपने बीच रसूल के बुलाने को आपस में एक-दूसरे का-सा बुलाना न समझ102 बैठो। अल्लाह उन लोगों को ख़ूब जानता है जो तुममें ऐसे हैं कि एक दूसरे की आड़ लेते हुए चुपके से सटक जाते हैं।103 रसूल के आदेश के विरुद्ध चलनेवालों को डरना चाहिए कि वे किसी फ़ितने में गिरफ्तार न हो जाएँ104 या उनपर दर्दनाक अज़ाब न आ जाए।
102. मूल अरबी शब्द 'दुआ' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ 'बुलाना' भी है और दुआ करना और पुकारना भी'। और 'दुआ-असूल' का अर्थ रसूल का बुलाना या दुआ करना भी हो सकता है और रसूल को पुकारना भी। इन अलग-अलग अर्थों की दृष्टि से आयत के तीन अर्थ हो सकते हैं-और तीनों ही सही और बुद्धिसंगत है- 1. एक यह कि "रसूल के बुलाने को आम आदमियों में से किसी के बुलाने की तरह न समझो" । अर्थात् रसूल का बुलावा असाधारण महत्त्व रखता है। दूसरा कोई बुलाए और तुम जवाब न दो तो तुम्हें आज़ादी है, लेकिन रसूल बुलाए और तुम न जाओ, या मन में तनिक भर भी तंगी महसूस करो तो ईमान का ख़तरा है। 2. दूसरे यह कि "रसूल की दुआ को आम आदमियों की-सी दुआ न समझो” । वह तुमसे खुश होकर दुआ दें तो तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई नेमत नहीं, और नाराज़ होकर बद-दुआ दे दें तो तुम्हारा इससे बढ़कर कोई दुर्भाग्य नहीं। 3. तीसरे यह कि रसूल को पुकारना' आम आदमियों के एक-दूसरे को पुकारने की तरह न होना चाहिए। अर्थात् तुम आम आदमियों को जिस तरह उनके नाम लेकर ऊँची आवाज़ से पुकाते हो उस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को न पुकारा करो। इस मामले में उनका बहुत ज़्यादा अदब किया जाना चाहिए। क्योंकि ज़रा-सी बे-अदबी भी अल्लाह के यहाँ पकड़ से न बच सकेगी। ये तीनों अर्थ यद्यपि अर्थ की दृष्टि से सही हैं, लेकिन बाद के विषय से पहला अर्थ ही अनुकूलता रखता है।
103. यह मुनाफ़िकों को एक और निशानी बताई गई है कि इस्लाम को सामूहिक सेवाओं के लिए जब बुलाया जाता है तो वे आ तो जाते हैं, क्योंकि मुसलमानों में किसी न किसी कारण शामिल रहना चाहते हैं, लेकिन यह हाज़िरी उनको अत्यन्त अप्रिय होती है और किसी न किसी तरह छिप-छिपाकर निकल भागते हैं।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قَدۡ يَعۡلَمُ مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ وَيَوۡمَ يُرۡجَعُونَ إِلَيۡهِ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 63
(64) ख़बरदार रहो, आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है, अल्लाह का है । तुम जिस रवैये पर भी हो, अल्लाह उसको जानता है। जिस दिन लोग उसकी ओर पलटाए जाएँगे, वह उन्हें बता देगा कि वह क्या कुछ करके आए हैं, वह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।