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سُورَةُ إِبۡرَاهِيمَ

14. इबराहीम

(मक्का में उतरी-आयतें 52)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम इसकी आयत 35 के वाक्य “याद करो वह समय जब इबराहीम ने दुआ की थी कि पालनहार ! इस नगर (मक्का) को शांति का नगर बना” से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह नहीं है कि इस सूरा में हज़रत इबराहीम की आत्मकथा बयान हुई है, बल्कि यह भी अधिकतर सूरतों के नामों की तरह प्रतीक के रूप में है, अर्थात् वह सूरा जिसमें इबराहीम (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

सामान्य वर्णनशैली मक्का के अन्तिम काल की सूरतों की-सी है। सूरा-13 (रअ़द) से क़रीब ज़माने ही की उतरी सूरा मालूम होती है। मुख्य रूप से आयत 13 के शब्द 'व क़ालल्लज़ी-न क-फ़-रू लिरुसुलिहिम ल-नुख़रिजन्नकुम मिन अरज़िना अव ल-त-ऊदुन-न फ़ी मिल्लतिना अर्थात् "इंकार करनेवालों ने अपने रसूलों से कहा कि या तो तुम्हें हमारी मिल्लत (पंथ) में वापस आना होगा वरना हम तुम्हें अपने देश से निकाल देंगे” का स्पष्ट संकेत इस ओर है कि उस समय मक्का में मुसलमानों पर अत्याचार अपनी चरम सीमा को पहुँच चुका था और मक्कावाले पिछली काफ़िर क़ौमों की तरह अपने यहाँ के ईमानवालों को शहर से निकाल देने पर तुल गए थे। इसी आधार पर उन्हें वह धमकी सुनाई गई जो उन्हीं के जैसे रवैये पर चलनेवाली पिछली क़ौमों को दी गई थी कि “हम ज़ालिमों को हलाक करके रहेंगे” और ईमानवालों को वही तसल्ली दी गई जो उनके अगलों को दी जाती रही है कि “हम इन ज़ालिमों को समाप्त करने के बाद तुम ही को इस भू-भाग पर आबाद करेंगे।"

इसी तरह अन्तिम आयतों के तेवर भी यही बताते हैं कि यह सूरा मक्का के अन्तिम युग से संबंध रखती है।

केन्द्रीय विषय और उद्देश्य

जो लोग नबी (सल्ल०) की रिसालत (रसूल होने) को मानने से इंकार कर रहे थे और आप (सल्ल०) के सन्देश को विफल करने के लिए हर प्रकार की बुरी से बुरी चालें चल रहे थे, उन्हें समझाया-बुझाया गया और चेतावनी दी गई, लेकिन समझाने-बुझाने की अपेक्षा इस सूरा में चेतावनी, निन्दा और डाँट-फटकार का अंदाज़ ज़्यादा तेज़ है। इसका कारण यह है कि समझाने-बुझाने का हक़ इससे पहले की सूरतों में अच्छी तरह अदा किया जा चुका था और इसके बाद भी क़ुरैश के कुफ़्फ़ार (अवज्ञाकारियों) की हठधर्मी, शत्रुता, विरोध, दुष्टता और अत्याचार दिन-पर-दिन अधिक ही होता चला जा रहा था।

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سُورَةُ إِبۡرَاهِيمَ
14. इबराहीम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
الٓرۚ كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ إِلَيۡكَ لِتُخۡرِجَ ٱلنَّاسَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِ رَبِّهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَمِيدِ
(1) अलिफ़ लाम-रा। ऐ नबी। यह एक किताब है जिसको हमने तुम्हारी और उतारा है ताकि तुम लोगों को अंधेरों से निकालकर रोशनी में लाओ, उनके रख की मेहरबानी से, उस प्रभु के रास्ते पर1 जो जबरदस्त और अपनी ज़ात में आप प्रशंसनीय है।2
1. अर्थात् अंधेरों से निकालकर रोशनी में लाने का अर्थ शैतानी रास्तों से हटाकर अल्लाह के रास्ते पर लाना है। दूसरे शब्दों में हर वह आदमी जो अल्लाह की राह पर नहीं है, वह वास्तव में अज्ञानता के अंधरों में भटक रहा है, चाहे वह अपने आपको कितना ही रोशन ख्याल समझ रहा हो और अपने दावे में कितना ही ज्ञान-प्रकाश से जगमगा रहा हो, इसके विपरीत जिसने अल्लाह का रास्ता पा लिया वह ज्ञान की रोशनी में आ गया, भले ही वह एक अनपढ़ देहाती ही क्यों न हो। फिर यह जो फ़रमाया कि तुम इनको अपने रब की इजाजत या उसकी मेहरबानी से अल्लाह के रास्ते पर लाओ, तो इसमें वास्तव में इस वास्तविकता की ओर संकेत है कि कोई प्रचारक, चाहे वह नबी ही क्यों न हो, सीधा रास्ता पेश कर देने से अधिक कुछ नहीं कर सकता। किसी को इस रास्ते पर ले आना उसके बस में नहीं है। यह सब अल्लाह की मेहरबानी और उसकी इजाज़त पर निर्भर है। अल्लाह किसी को तौफ़ीक़ दे तो वह हिदायत पा सकता है, वरना पैग़म्बर जैसा पूर्ण प्रचारक अपना पूरा जोर लगाकर भी उसको हिदायत नहीं दे सकता । रही अल्लाह की तौफ़ीक़, तो उसका क़ानून बिल्कुल अलग है जिसे क़ुरआन में विभिन्न स्थानों पर स्पष्ट रूप से बयान कर दिया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि अल्लाह की ओर से हिदायत की तौफ़ीक़ उसी को मिलती है जो स्वयं हिदायत की तलब रखता हो, आग्रह, हठधर्मी और पक्षपात से पाक हो, अपने मन का बन्दा और अपनी इच्छाओं का दास न हो, खुली आँखों से देखे, खुले कानों से सुने, साफ़ दिमाग़ से सोचे-समझे और सही बातों को बेलाग तरीक़े से माने।
2. मूल में अरबी शब्द 'हमीद' प्रयुक्त हुआ है। हमीद शब्द यद्यपि महमूद ही का समानार्थी है मगर दोनों शब्दों में एक सूक्ष्म अन्तर है। महमूद किसी व्यक्ति को उसी समय कहेंगे जबकि उसकी प्रशंसा की गई हो या की जाती हो, मगर हमीद आप से आप प्रशंसा का अधिकारी है, चाहे उसकी कोई प्रशंसा करे या न करे। इस शब्द का पूरा अर्थ 'गुणोंवाला', 'प्रशंसनीय', 'प्रशंसा का अधिकारी' जैसे शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं हो सकता, इसी लिए हमने इसका अनुवाद 'अपनी ज़ात में आप प्रशंसनीय किया है।'
ٱللَّهِ ٱلَّذِي لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَوَيۡلٞ لِّلۡكَٰفِرِينَ مِنۡ عَذَابٖ شَدِيدٍ ۝ 1
(2) और ज़मीन व आसमानों में पाई जानेवाली सभी चीजों का मालिक है। और कठोर विनाशकारी सज़ा है सत्य ग्रहण करने से इंकार करनेवालों के लिए
ٱلَّذِينَ يَسۡتَحِبُّونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا عَلَى ٱلۡأٓخِرَةِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَيَبۡغُونَهَا عِوَجًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ضَلَٰلِۭ بَعِيدٖ ۝ 2
(3) जो दुनिया की ज़िन्दगी को आखिरत पर प्राथमिकता देते हैं 3, जो अल्लाह के रास्ते से लोगों को रोक रहे हैं और चाहते हैं कि यह रास्ता (उनकी इच्छाओं के अनुसार) टेढ़ा हो जाए।4 ये लोग गुमराही में बहुत दूर निकल गए हैं।
3. या दूसरे शब्दों में जिन्हें सारी चिन्ता बस दुनिया की है, आख़िरत की परवाह नहीं है। जो दुनिया के फ़ायदों, स्वादों और आरामों के लिए आख़िरत की हानि तो मोल ले सकते हैं, मगर आख़िरत की कोई क्षति, कोई कष्ट और कोई संकट, बल्कि किसी स्वाद से वंचित होने तक को सहन नहीं कर सकते । जिन्होंने दुनिया और आखि़रत दोनों की तुलना करके ठंडे दिल से दुनिया को पसन्द कर लिया है और आख़िरत के बारे में फ़ैसला कर चुके हैं कि जहाँ-जहाँ उसका स्वार्थ दुनिया के हित से टकराएगा, वहाँ उसे क़ुरबान करते चले जाएँगे।
4. अर्थात् वे अल्लाह की मर्जी के अधीन होकर रहना नहीं चाहते, बल्कि यह चाहते हैं कि अल्लाह का दीन उनकी मर्जी के अधीन होकर रहे । उनके हर विचार, हर दृष्टिकोण और हर अटकल व गुमान को अपने विश्वासों में दाख़िल करें और किसी ऐसे विश्वास को अपनी चिन्तन-व्यवस्था में न रहने दे जो उनकी खोपड़ी में न समाता हो, उनकी हर रस्म, हर आदत और हर स्वभाव को वैघ समझ ले और किसी ऐसे तरीक़े की पैरवी की उनसे माँग न करे जो उन्हें पसन्द न हो। वह इनका हाथ बँधा दास हो कि जिधर-जिधर ये अपने मन के शैतान की पैरवी में मुड़ें, उधर वह भी मुड़ जाए और कहीं न तो वह उन्हें टोके और न किसी जगह पर उन्हें अपने रास्ते की ओर मोड़ने की कोशिश करे। वे अल्लाह की बात केवल उसी रूप में मान सकते हैं जबकि वह इस तरह का दीन उनके लिए भेजे।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا بِلِسَانِ قَوۡمِهِۦ لِيُبَيِّنَ لَهُمۡۖ فَيُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 3
(4) हमने अपना सन्देश देने के लिए जब कभी कोई रसूल भेजा है, उसने अपनी क़ौम ही की भाषा में सन्देश दिया है ताकि वह उन्हें अच्छी तरह खोलकर बात समझाए5, फिर अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखाता है,6 वह प्रभुत्त्वशाली और तत्त्वदशी है।7
5. इसके दो अर्थ हैं- एक यह कि अल्लाह ने जो नबी जिस क़ौम में भेजा, उसपर उसी कौम की भाषा में अपनी वाणी उतारी, ताकि वह क़ौम उसे अच्छी तरह समझे और उसे यह बहाना पेश करने का मौक़ा न मिल सके कि आपकी भेजी हुई शिक्षा तो हमारी समझ ही में न आती थी, फिर हम उसपर ईमान कैसे लाते । दूसरा अर्थ यह है कि अल्लाह ने सिर्फ़ मोजज़ा (चमत्कार) दिखाने के लिए कभी यह नहीं किया कि रसूल तो भेजे हिन्दुस्तान में और वाणी सुनाए चीनी या जापानी भाषा में। इस तरह के करिश्मे दिखाने और लोगों की चमत्कार-प्रियता को मनोवृत्ति को तृप्त करने की अपेक्षा अल्लाह की दृष्टि में शिक्षा व उपदेश और समझाने-बुझाने और स्पष्टीकरण का महत्त्व अधिक रहा है, जिसके लिए अनिवार्य था कि एक क़ौम को उसी भाषा में सन्देश पहुँचाया जाए जिसे वह समझती हो।
6. अर्थात् बाजवूद इसके कि पैग़म्बर प्रचार-प्रसार और समझाने-बुझाने का सारा काम उसी भाषा में करता है जिसे सारी क़ौम समझती है, फिर भी सबको मार्गदर्शन नहीं नसीब होता, क्योंकि किसी वाणी और संदेश के केवल आम लोगों की समझ में आनेवाला होने से यह अनिवार्य नहीं हो जाता कि सब सुननेवाले उसे मान जाएँ । मार्गदर्शन और पथभ्रष्टता की डोर बहरहाल अल्लाह के हाथ में है। वही जिसे चाहता है, अपनी इस वाणी के ज़रिये से रास्ता दिखाता है, और जिसके लिए चाहता है उसी वाणी को उल्टी गुमराही का कारण बना देता है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ أَنۡ أَخۡرِجۡ قَوۡمَكَ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ وَذَكِّرۡهُم بِأَيَّىٰمِ ٱللَّهِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٖ ۝ 4
(5) हम इससे पहले मूसा को भी अपनी निशानियों के साथ भेज चुके हैं। उसे भी हमने आदेश दिया था कि अपनी क़ौम को अंधेरों से निकालकर रौशनी में ला और उन्हें ईश्वरीय इतिहास 8 की शिक्षाप्रद घटनाओं को सुनाकर उपदेश दे। इन घटनाओं में बड़ी निशानियाँ हैं 9 हर उस व्यक्ति के लिए जो सब्र (धैर्य) और शुक्र करनेवाला हो।10
8. मूल अरबी में 'अय्याम' शब्द प्रयुक्त हुआ है जो अरबी की परिभाषिक शब्दावली में यादगार ऐतिहासिक घटनाओं के लिए बोला जाता है। अय्यामिल्लाह (ईश्वरीय इतिहास) से तात्पर्य मानव-इतिहास के वे महत्त्वपूर्ण अध्याय हैं जिनमें अल्लाह (ईश्वर) ने बीते समय की क़ौमों और बड़े-बड़े व्यक्तियों को उनके कर्मों के अनुसार इनआम या सज़ा दी है।
9. अर्थात् इन ऐतिहासिक घटनाओं में ऐसी निशानियाँ मौजूद हैं जिनसे एक आदमी ख़ुदा के एक होने की धारणाओं के सत्य होने का प्रमाण भी पा सकता है और इस वास्तविकता की भी अनगिनत गवाहियाँ पा सकता है कि 'बदला दिया जाने का क़ानून' एक विश्वव्यापी क़ानून है और वह पूर्ण रूप से सत्य और असत्य के बौद्धिक और नैतिक अन्तर पर स्थित है, और उसके तक़ाज़े पूरे करने के लिए एक दूसरी दुनिया अर्थात् आख़िरत की दुनिया अनिवार्य है। साथ ही इन घटनाओं में वे निशानियाँ भी मौजूद हैं जिनसे एक आदमी असत्य विश्वासों और सिद्धान्तों पर ज़िन्दगी की इमारत उठाने के बुरे नतीजे मालूम कर सकता है और उनसे शिक्षा ग्रहण कर सकता है।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ أَنجَىٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ وَيُذَبِّحُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ ۝ 5
(6) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, "अल्लाह के उस उपकार को याद रखो जो उसने तुमपर किया है, उसने तुम्हें फ़िरऔन वालों से छुड़ाया जो तुमको घोर कष्ट पहुँचाते थे, तुम्हारे लड़को को क़त्ल कर डालते थे और तुम्हारी लड़कियों को जिंदा बचा रखते थे। इसमें तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी बड़ी परीक्षा थी।
وَإِذۡ تَأَذَّنَ رَبُّكُمۡ لَئِن شَكَرۡتُمۡ لَأَزِيدَنَّكُمۡۖ وَلَئِن كَفَرۡتُمۡ إِنَّ عَذَابِي لَشَدِيدٞ ۝ 6
(7) और याद रखो तुम्हारे रब ने ख़बरदार कर दिया था कि अगर कृतज्ञ 11 बनोगे तो मैं तुम्हें और अधिक प्रदान करूँगा और अगर नेमत की नाशुक्री करोगे तो मेरी सज़ा बहुत कठोर है।"12
11. अर्थात् अगर हमारी नेमतों का हक़ पहचानकर उनका सही इस्तेमाल करोगे और हमारे आदेशों के मुक़ाबले में उदंडता न करोगे और अंहकार न दिखाओगे और हमारा उपकार मानकर हमारे आज्ञापालक बने रहोगे।
12. इस विषय का व्याख्यान बाइबल की पुस्तक व्यवस्था विवरण में सविस्तार उद्भत किया गया है। इस व्याख्यान में हज़रत मूसा (अलैहि०) अपने देहान्त से कुछ दिन पहले बनी इसराईल को उनके इतिहास की सारी महत्त्वपूर्ण घटनाओं को याद दिलाते हैं, फिर तौरात के उन तमाम आदेशों को दोहराते हैं जो अल्लाह ने उनके द्वारा बनी इसराईल को भेजे थे। फिर एक लम्बा भाषण देते हैं जिसमें बताते हैं कि अगर उन्होंने अपने रब का आज्ञापालन किया तो उन्हें कैसे-कैसे पुरस्कार प्रदान किए जाएंगे और अगर अवज्ञा का रवैया अपनाया तो उसको कैसी कठोर सज़ा दी जाएगी। यह भाषण पुस्तक व्यवस्था विवरण के अध्यायों 4,6, 8, 10, 11 और 28-30 में फैला हुआ है और इसकी कुछ-कुछ जगहें अत्यंत प्रभावकारी और शिक्षाप्रद हैं। उदाहरण के रूप में उसके कुछ वाक्य हम यहाँ नक़ल करते हैं जिनसे पूरे भाषण का अनुमान लगाया जा सकता है। ‘’ऐ इसराईल ! सुन, प्रभु हमारा परमेश्वर है,प्रभु, एक ही है। तू अपने प्रभु परमेश्वर से अपने सारे मन और सारी चेतना और सारी शक्ति के साथ प्रेम रखना। ये आज्ञाएँ जो मैं आज तुझे सुनाता हूँ, वे तेरे मन में बनी रहें। तू उन्हें अपनी सन्तान को समझाकर सिखाया करना और घर में बैठे और मार्ग पर चलते और लेटते और उठते उनकी चर्चा किया करना।' (बाइबल म. वि.6:4-7) यदि तू अपने प्रभु परमेश्वर की सब आज्ञाएँ, जो आज तुझे सुनाता हूँ, चौकसी से पूरी करने को चित्त लगाकर उनको सूने, तो वह तुझे पृथ्वी की सब जातियों में श्रेष्ठ करेगा। फिर अपने प्रभु परमेश्वर को सुनने के कारण ये सब आशीर्वाद तुझ पर पूरे होंगे। धन्य हो तू नगर में, धन्य हो तू खेत में, धन्य - तेरे शत्रु जो तुझ पर चढ़ाई करेंगे वे तुझसे हार जाएँगे;. (बाइबल व्य० वि० 28:1-13) ‘’परन्तु यदि तू अपने प्रभु परमश्वर की बात न सुने और उसकी सारी आज्ञाओं और विधियों के पालने में जो मैं आज सुनाता हूँ चौकसी नहीं करेगा, तो ये सब शाप (धिक्कार) तुझपर आ पड़ेंगे। शापित (धिक्कारा हुआ) हो तू नगर में, शापित हो तू खेत में ..... फिर जिस काम में तू हाथ लगाए उसमें प्रभु तब तक तुझको शाप देता और भयातुर करता और धमकी देता रहेगा .... महामारी तुझमें फैलकर लगी रहेगी तेरे सिर के ऊपर आकाश पीतल का, और तेरे पाँव के तले की भूमि लोहे की हो जाएगी। .... प्रभु तुझको शत्रुओं से हरवाएगा। तू एक मार्ग से उसका सामना करने को जाएगा, परन्तु सात मार्ग से होकर उसके सामने से भाग जाएगा। .... तू स्त्री से ब्याह की बात लगाएगा परन्तु दूसरा पुरुष उसको भ्रष्ट (अर्थात् संभोग) करेगा। घर तू बनाएगा, परन्तु उसमें बसने न पाएगा। दाख (अंगूर, मुनक्का आदि) की बारी तू लगाएगा, परन्तु उसके फल खाने न पाएगा। तेरा बैल तेरी आँखों के सामने मारा जाएगा, ....... भूखा, प्यासा, नंगा और सब प्रदार्थों से वंचित होकर अपने उन शत्रुओं की सेवा करनी पड़ेगी जिन्हें प्रभु तेरे विरुद्ध भेजेगा। जब तक तू नष्ट न हो जाए, तब तक वे तेरी गर्दन उस छोर तक के सब देशों के लोगों में तितर-बितर करेगा।" (बाइबल व्य० वि० 28 : 15-64)
وَقَالَ مُوسَىٰٓ إِن تَكۡفُرُوٓاْ أَنتُمۡ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا فَإِنَّ ٱللَّهَ لَغَنِيٌّ حَمِيدٌ ۝ 7
(8) और मूसा ने कहा कि “अगर तुम इंकार करो और धरती के सारे रहनेवाले भी इंकारी हो जाएं तो अल्लाह निस्पृह और अपनी ज़ात में आप महमूद (प्रशंसनीय) है।‘’13
13. इस जगह हज़रत मूसा (अलैहि०) और उनकी क़ौम के मामले की ओर यह थोड़ा-सा संकेत करने का अभिप्राय मक्कावालों को यह बताना है कि अल्लाह जब किसी क़ौम पर उपकार करता है और उत्तर में वह क़ौम नमकहरामी और उदंडता दिखाती है तो फिर ऐसी कौम को वह शिक्षाप्रद अंजाम देखना पड़ता है जो तुम्हारी आँखों के सामने बनी इसराईल देख रहे हैं। अब क्या तुम भी अल्लाह की नेमत और उसके उपकार का उत्तर नेमत के प्रति कृतघ्नता की नीति अपनाकर यही अंजाम देखना चाहते हो? यहाँ यह बात भी स्पष्ट रहे कि अल्लाह अपनी जिस नेमत का आदर करने की यहाँ क़ुरैश से माँग कर रहा है वह मुख्य रूप से उसकी यह नेमत है कि उसने मुहम्मद (सल्ल०) को उनके बीच पैदा किया और आपके ज़रिये से उनके पास वह महान शिक्षा भेजी जिसके बारे में नबी (सल्ल०) बार-बार क़ुरैश से फ़रमाया करते थे कि “मेरी एक बात मान लो, अरब और अजम (ग़ैर-अरब) सब तुम्हारे अधीन हो जाएंगे।”
أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ نَبَؤُاْ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لَا يَعۡلَمُهُمۡ إِلَّا ٱللَّهُۚ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَرَدُّوٓاْ أَيۡدِيَهُمۡ فِيٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَقَالُوٓاْ إِنَّا كَفَرۡنَا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ وَإِنَّا لَفِي شَكّٖ مِّمَّا تَدۡعُونَنَآ إِلَيۡهِ مُرِيبٖ ۝ 8
(9) क्या तुम्हें 14 उन क़ौमों के हालात नहीं पहुँचे जो तुमसे पहले गुज़र चुकी हैं ? नूह की क़ौम, आद, समूद और उनके बाद आनेवाली बहुत-सी क़ौमें जिनकी गिनती अल्लाह ही को मालूम है? उनके रसूल जब उनके पास साफ़-साफ़ बातें और खुली-खुली निशानियाँ लिए हुए आए तो उन्होंने अपने मुँह में हाथ दबा लिए 15 और कहा कि "जिस सन्देश के साथ तुम भेजे गए हो, हम उसको नहीं मानते और जिस चीज़ की ओर तुम हमें बुलाते हो, उसकी ओर से हम अत्यंत दुविधाजनक सन्देह में पड़े हुए हैं।‘’16
14. हज़रत मूसा (अलैहि०) का भाषण ऊपर समाप्त हो गया। अब सीधे तौर पर मक्का के इंकारियों से सम्बोधन शुरू होता है।
15. इन शब्दों के अर्थ में टीकाकारों के बीच बहुत कुछ मतभेद पाया गया है और विभिन्न लोगों ने भिन्न-भिन्न अर्थ बताए हैं। हमारे नज़दीक इनका करीबो अर्थ वह है जिसे व्यक्त करने के लिए हम उर्दू में कहते हैं, कानों पर हाथ रखे या दाँतों में उँगली दबाई, इसलिए कि बाद का वाक्य स्पष्ट रूप से इंकार और आश्चर्य, दोनों विषयों पर सम्मलित है और कुछ इसमें गुस्से का अन्दाज़ा भी है।
۞قَالَتۡ رُسُلُهُمۡ أَفِي ٱللَّهِ شَكّٞ فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يَدۡعُوكُمۡ لِيَغۡفِرَ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمۡ وَيُؤَخِّرَكُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ قَالُوٓاْ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا تُرِيدُونَ أَن تَصُدُّونَا عَمَّا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا فَأۡتُونَا بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 9
(10) उनके रसूलों ने कहा, "क्या अल्लाह के बारे में सन्देह है जो आसमानों और ज़मीन का पैदा करनेवाला है?17 वह तुम्हें बुला रहा है ताकि तुम्हारे क़ुसूर माफ़ करे और तुम्हें एक निर्धारित अवधि तक मोहलत दे।‘’18 उन्होंने उत्तर दिया, “तुम कुछ नहीं हो मगर वैसे ही इंसान जैसे हम है।19 तुम हमें उन हस्तियों की बन्दगी से रोकना चाहते हो जिनकी बन्दगी बाप-दादा से होती चली आ रही है। अच्छा तो लाओ कोई खुला प्रमाण-प्रत्र ।‘’20
17. रसूलों ने यह बात इसलिए कही कि हर काल के मुशरिक ख़ुदा की हस्ती को मानते थे और यह भी स्वीकार करते थे कि ज़मीन और आसमानों का पैदा करनेवाला वही है। इसी आधार पर रसूलों ने फ़रमाया कि आख़िर तुम्हें सन्देह किस चीज़ में है ? हम जिस चीज़ की ओर तुम्हें दावत देते हैं, वह इसके सिवा और क्या है कि आसमानों और जमीन का पैदा करनेवाला अल्लाह तुम्हारी बन्दगी का वास्तविक हक़दार है। फिर क्या अल्लाह के बारे में तुमको सन्देह है?
18. निर्धारित अवधि से तात्पर्य लोगों की मौत का समय भी हो सकता है और क़ियामत भी। जहाँ तक क़ौमों का ताल्लुक़ है, उनके उठने और गिरने के लिए अल्लाह के यहाँ अवधि उनके गुणों की शर्त के साथ निर्धारित होती है। एक अच्छी कौम अगर अपने अन्दर बिगाड़ पैदा कर ले तो उसकी कार्य-अवधि घटा दी जाती है और उसे नष्ट कर दिया जाता है। और एक बिगड़ी हुई क़ौम अगर अपनी बुरे गुणों को अच्छे गुणों से बदल ले तो उसकी कार्य-अवधि बढ़ा दी जाती है, यहाँ तक कि वह क़ियामत तक भी लम्बी हो सकती है। इसी विषय की ओर सूरा-13, रसद की आयत 11 संकेत करती है कि अल्लाह किसी क़ौम के हाल को उस समय तक नहीं बदलता जब तक कि वह अपने गुणों को न बदल दे।
قَالَتۡ لَهُمۡ رُسُلُهُمۡ إِن نَّحۡنُ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَمُنُّ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ وَمَا كَانَ لَنَآ أَن نَّأۡتِيَكُم بِسُلۡطَٰنٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 10
(11) उनके रसूलों ने उनसे कहा, “सच में हम कुछ नहीं हैं मगर तुम ही जैसे इंसान, लेकिन अल्लाह अपने बन्दों में से जिसे चाहता है, कृपापात्र बनता है21 और यह हमारे अधिकार में नहीं है कि तुम्हें कोई प्रमाण-पत्र ला दें। प्रमाण-पत्र तो अल्लाह ही के आदेश से आ सकता है और अल्लाह ही पर ईमानवालों को भरोसा करना चाहिए।
وَمَا لَنَآ أَلَّا نَتَوَكَّلَ عَلَى ٱللَّهِ وَقَدۡ هَدَىٰنَا سُبُلَنَاۚ وَلَنَصۡبِرَنَّ عَلَىٰ مَآ ءَاذَيۡتُمُونَاۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُتَوَكِّلُونَ ۝ 11
(12) और हम क्यों न अल्लाह पर भरोसा करें, जबकि हमारी ज़िन्दगी की राहों में उसने हमारी रहनुमाई की है? जो पीड़ाएँ तुम लोग हमें दे रहे हो उनपर हम सब करेंगे, और भरोसा करनेवालों का भरोसा अल्लाह ही पर होना चाहिए।‘’
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِرُسُلِهِمۡ لَنُخۡرِجَنَّكُم مِّنۡ أَرۡضِنَآ أَوۡ لَتَعُودُنَّ فِي مِلَّتِنَاۖ فَأَوۡحَىٰٓ إِلَيۡهِمۡ رَبُّهُمۡ لَنُهۡلِكَنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 12
(13-14) अन्तत: इंकारियों ने अपने रसूलों से कह दिया कि “या तो तुम्हें हमारी मिल्लत (पंच) में वापस आना होगा22 वरना हम तुम्हें अपने देश से निकाल देंगे। तब उनके रब ने उनपर वह्य भेजी कि "हम इन ज़ालिमों को नष्ट कर देंगे और उनके बाद तुम्हें धरती में आबाद करेंगे।23 यह इनाम है उसका जो मेरे सामने जवाबदेही का डर रखता हो और मेरी धमकी से डरता हो।"
22. इसका यह अर्थ नहीं है कि नबी नुबूवत के पद पर आसीन होने से पहले अपनी गुमराह क़ौमों को मिल्लत (पंच) में शामिल हुआ करते थे, बल्कि इसका अर्थ यह है कि नुबूवत से पहले कि वह एक तरह मौन जीवन जिया करते थे, किसी दीन का प्रचार और किसी प्रचलित धर्म का खंडन नहीं करते थे, इसलिए उनकी क़ौम यह समझती थी कि वे हमारी मिल्लत ही में हैं और नुबूवत का काम शुरू कर देने के बाद उनपर यह आरोप लगाया जाता था कि वे बाप-दादा की मिल्लत से निकल गए हैं। हालाँकि वह नुबूबत से पहले भी कभी मुशरिकों की मिल्लत में शामिल न हुए थे कि उससे निकलने का आरोप उनपर लग सकता।
23. अर्थात् घबराओं नहीं, ये कहते हैं कि तुम इस देश में नहीं रह सकते, मगर हम कहते हैं कि अब ये इस धू-भाग में न रहने पाएंगे। अब तो जो तुम्हें मानेगा, वहीं यहाँ रहेगा।
وَلَنُسۡكِنَنَّكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَافَ مَقَامِي وَخَافَ وَعِيدِ ۝ 13
0
وَٱسۡتَفۡتَحُواْ وَخَابَ كُلُّ جَبَّارٍ عَنِيدٖ ۝ 14
(15) उन्होंने फैसला चाहा था (तो यूँ उनका फैसला हुआ) और हर सरकश सत्य के वैरी ने मुँह की खाई,24
24. ध्यान रहे कि यहाँ ऐतिहासिक वर्णन के रूप में वास्तव में मक्का के इंकारियों को उन बातों का उत्तर दिया जा रहा है जो वे नबी (सल्ल०) से किया करते थे। प्रत्यक्ष में उल्लेख पिछले नबियों और उनकी क़ौमों की घटनाओं का है मगर फिट हो रहा है वह उन परिस्थितियों पर जो इस सूरा के उतरने के समय में पेश आ रही थीं। इस जगह पर मक्का के विरोधियों को, बल्कि अरब के मुशरिकों को भानो स्पष्ट शब्दों में सचेत कर दिया गया कि तुम्हारा भविष्य अब उस रवैये पर निर्भर है जो मुहम्मदी दावत के मुक़ाबले में तुम अपनाओगे। अगर इसे स्वीकार कर लोगे तो अरब भू-भाग में रह सकोगे और अगर इसे रद कर दोगे तो यहाँ से तुम्हारा नाम व निशान तक मिटा दिया जाएगा। चुनांचे इस बात को ऐतिहासिक घटनाओं ने एक स्वसिद्ध सच्चाई बना दिया। इस भविष्यवाणी पर पूरे पन्द्रह वर्ष भी न गुज़रे थे कि अरब भू-भाग में एक मुशरिक भी बाक़ी न रहा।
مِّن وَرَآئِهِۦ جَهَنَّمُ وَيُسۡقَىٰ مِن مَّآءٖ صَدِيدٖ ۝ 15
(16-17) फिर उसके बाद आगे उसके लिए जहन्नम है। वहाँ उसे कचलहू का-सा पानी पीने को दिया जाएगा जिसे वह ज़बरदस्ती गले से उतारने की कोशिश करेगा और मुश्किल ही से उतार सकेगा। मौत हर ओर से उसपर छाई रहेगी, परन्तु वह मरने न पाएगा और आगे एक कठोर अज़ाब उसकी जान का लागू रहेगा।
يَتَجَرَّعُهُۥ وَلَا يَكَادُ يُسِيغُهُۥ وَيَأۡتِيهِ ٱلۡمَوۡتُ مِن كُلِّ مَكَانٖ وَمَا هُوَ بِمَيِّتٖۖ وَمِن وَرَآئِهِۦ عَذَابٌ غَلِيظٞ ۝ 16
0
مَّثَلُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡۖ أَعۡمَٰلُهُمۡ كَرَمَادٍ ٱشۡتَدَّتۡ بِهِ ٱلرِّيحُ فِي يَوۡمٍ عَاصِفٖۖ لَّا يَقۡدِرُونَ مِمَّا كَسَبُواْ عَلَىٰ شَيۡءٖۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلضَّلَٰلُ ٱلۡبَعِيدُ ۝ 17
(18) जिन लोगों ने अपने रब से कुफ़ (इंकार) किया है उनके कामों की मिसाल उस राख की-सी है जिसे एक तूफानी दिन की आँधी ने उड़ा दिया हो। वे अपने किए का कुछ भी फल न पा सकेंगे।25 यही परले दर्जे की गुमराही है।
25. अर्थात् जिन लोगों ने अपने रब के साथ नमकहरामी, बेवफ़ाई, मनमानी और अवज्ञा व उदंडता की रीति अपनाई और आज्ञापालन व बन्दगी का वह तरीका अपनाने से इंकार कर दिया जिसकी दावत नबी (अलैहि.) लेकर आए हैं, उनकी ज़िन्दगी का पूरा कारनामा और ज़िन्दगी भर के कर्मों की सारी पूँजी अन्ततः ऐसी निरर्थक और बेकार सिद्ध होगी जैसे एक राख का ढेर था जो इकट्ठा हो-होकर लम्बे समय में बड़ा भारी टीला-सा बन गया था, मगर सिर्फ एक ही दिन की आँधी ने उसको ऐसा उड़ाया कि उसका एक-एक कण बिखरकर रह गया। नज़र को धोखा देनेवाली उनकी सभ्यता, उनकी शानदार संस्कृति, अचम्भे में डालनेवाले उनके उद्योग, उनकी ज़बरदस्त हुकूकतें, उनकी आलीशान यूनिवर्सिटियाँ, उनके कला और विज्ञान और उनके प्रभावशाली और प्रभावहीन साहित्य के अपार भंडार, यहाँ तक कि उनकी इबादतें और उनकी ऊपरी नेकियाँ और उनके बड़े-बड़े धर्मार्थ और जन-हित के कारनामे भी जिनपर वे दुनिया में घमंड करते हैं, सब के सब अन्तत: राख का एक ढेर ही सिद्ध होंगे जिसे क़ियामत के दिन की आँधी बिल्कुल साफ़ कर देगी और आख़िरत में उसका एक कण भी उनके पास इस योग्य न रहेगा कि उसे अल्लाह की तराज़ू में रखकर कुछ भी वज़न पा सकें।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۚ إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ وَيَأۡتِ بِخَلۡقٖ جَدِيدٖ ۝ 18
(19) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन की पैदाइश को सत्य पर स्थापित किया है ?26 वह चाहे तो तुम लोगों को ले जाए और एक नई सृष्टि तुम्हारी जगह ले आए।
26. यह तर्क है उस दावे का जो ऊपर किया गया था। अर्थ यह है कि इस बात को सुनकर तुम्हें आश्चर्य क्यों होता है ? क्या तुम देखते नहीं हो कि यह ज़मीन व आसमान का पैदा करने का शानदार कारख़ाना सत्य पर स्थापित हुआ है न कि असत्य पर? यहाँ जो चीज़ वास्तविकता पर आधारित न हो, बल्कि केवल एक निराधार अनुमान और गुमान पर जिसकी नींव रख दी गई हो, उसे कोई दृढ़ता नहीं प्राप्त हो सकती। उसके लिए स्थिरता की कोई संभावना नहीं है। उसके भरोसे पर काम करनेवाला कभी अपने भरोसे में सफल नहीं हो सकता। जो आदमी पानी पर निशान बनाए और रेत पर महल बनाए, वह अगर यह आशा रखता है कि उसका निशान बाक़ी रहेगा और उसका महल खड़ा रहेगा, तो उसकी यह आशा कभी पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि पानी की यह वास्तविकता नहीं है कि वह निशान क़बूल करे और रेत को यह वास्तविकता नहीं है। कि वह इमारतों के लिए मज़बूत नींव बन सके । इसलिए सच्चाई और वास्तविकता को नज़रअंदाज़ करके जो आदमी झूठी आशाओं पर अपने कर्म की नींव रखे उसे विफल होना ही चाहिए। यह बात अगर तुम्हारी समझ में आती है तो फिर यह सुनकर तुम्हें आश्चर्य क्यों होता है कि अल्लाह की इस सृष्टि में जो आदमी अपने आपको अल्लाह की बन्दगी और आज्ञापालन से आज़ाद समझकर के काम करेगा या अल्लाह के सिवा किसी और की ख़ुदाई (प्रभुता) मानकर (जिसको वास्तव में ख़ुदाई नहीं है) ज़िन्दगी बसर करेगा, उसकी ज़िन्दगी का पूरा किया-धरा बर्बाद हो जाएगा? जब सच्चाई यह नहीं है कि इंसान यहाँ स्वावलम्बी हो या अल्लाह के सिवा किसी और का बन्दा हो, तो इस झूठ पर, वास्तविकता के विरुद्ध इस कल्पना पर अपनी सोच और कार्य की पूरी व्यवस्था की बुनियाद रखनेवाला इंसान तुम्हारी राय में पानी पर निशान खींचनेवाले मूर्ख का-सा अंजाम न देखेगा तो उसके लिए और किस अंजाम की तुम आशा रखते हो?
وَمَا ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ بِعَزِيزٖ ۝ 19
(20) ऐसा करना उसपर कुछ भी कठिन नहीं है।27
27. दावे का तर्क देने के बाद तुरन्त ही यह वाक्य उपदेश के रूप में कहा गया है और साथ-साथ उसमें एक सन्देह को भी दूर किया गया है जो ऊपर की दो टूक बात सुनकर आदमी के दिल में पैदा हो सकता है। एक आदमी पूछ सकता है कि अगर बात वही है जो इन आयतों में फरमाई गई है तो यहाँ हर असत्यवादी और दुराचारी मिट क्यों नहीं जाता? इसका उत्तर यह है कि मूर्ख ! क्या तू समझता है कि उसे मिटा देना अल्लाह के लिए कुछ कठिन है? या अल्लाह से उसका कोई रिश्ता है कि उसकी दुष्टता के बाद भी अल्लाह ने केवल रिश्तेदारी की बुनियाद पर उसे विवश होकर छूट दे रखी हो? अगर यह बात नहीं है और तू स्वयं जानता है कि नहीं है, तो फिर तुझे समझना चाहिए कि एक असत्यवादी और झूठी क़ौम हर समय इस ख़तरे में पड़ी हुई है कि उसे हटा दिया जाए और किसी दूसरी क़ौम को उसकी जगह काम करने का अवसर दे दिया जाए। इस ख़तरे के व्यावहारिक रूप से सामने आने में अगर देर लग रही है तो इस मोहलत के एक-एक क्षण को ग़नीमत जान [और अपने रवैये को जल्द से जल्द ठीक कर ले।]
وَبَرَزُواْ لِلَّهِ جَمِيعٗا فَقَالَ ٱلضُّعَفَٰٓؤُاْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا كُنَّا لَكُمۡ تَبَعٗا فَهَلۡ أَنتُم مُّغۡنُونَ عَنَّا مِنۡ عَذَابِ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۚ قَالُواْ لَوۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُ لَهَدَيۡنَٰكُمۡۖ سَوَآءٌ عَلَيۡنَآ أَجَزِعۡنَآ أَمۡ صَبَرۡنَا مَا لَنَا مِن مَّحِيصٖ ۝ 20
(21) और ये लोग जब इकट्ठे अल्लाह के सामने बेनक़ाब28 होंगे तो उस समय इनमें से जो दुनिया में कमज़ोर थे, वे उन लोगों से जो बड़े बने हुए थे, कहेंगे, “दुनिया में हम तुम्हारे आधीन थे, अब क्या तुम अल्लाह के अज़ाब से हमें बचाने के लिए भी कुछ कर सकते हो?" वे उत्तर देंगे, "अगर अल्लाह ने हमें छुटकारे की कोई राह दिखाई होती तो हम अवश्य तुम्हें दिखा देते। अब तो बराबर है, चाहे हम रोएँ-पीटें या सब्र करें, बहरहाल हमारे बचने की कोई शक्ल नहीं ।‘’29
28. वास्तविकता की दृष्टि से तो बन्दे हर समय अपने रब के सामने बे-नक़ाब हैं, मगर आख़िरत की पेशी के दिन जब वे सब के सब अल्लाह की अदालत में हाज़िर होंगे तो उन्हें स्वयं ही मालूम होगा कि उस हाकिमों के हाकिम और बदले के दिन के मालिक के सामने बिलकुल बेनक़ाब हैं, हमारा कोई काम, बल्कि कोई विचार और दिल के कोनों में छिपा हुआ कोई इरादा तक उससे छिपा हुआ नहीं है।
29. यह चेतावनी है उन सब लोगों के लिए जो दुनिया में आँखें बन्द करके दूसरों के पीछे चलते हैं या अपनी कमज़ोरी को दलील बनाकर बलवान ज़ालिमों का आज्ञापालन करते हैं। उनको बताया जा रहा है कि आज जो तुम्हारे लोडर, पेशवा, अधिकारी और हाकिम बने हुए हैं, कल इनमें से कोई भी तुम्हें अल्लाह के अज़ाब से ज़रा भी न बचा सकेगा, इसलिए आज ही सोच लो कि तुम जिसके पीछे चल रहे हो या जिसका आदेश मान रहे हो. वह स्वयं कहाँ जा रहा है और तुम्हें कहां पहुँचाकर छोड़ेगा।
وَقَالَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لَمَّا قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ إِنَّ ٱللَّهَ وَعَدَكُمۡ وَعۡدَ ٱلۡحَقِّ وَوَعَدتُّكُمۡ فَأَخۡلَفۡتُكُمۡۖ وَمَا كَانَ لِيَ عَلَيۡكُم مِّن سُلۡطَٰنٍ إِلَّآ أَن دَعَوۡتُكُمۡ فَٱسۡتَجَبۡتُمۡ لِيۖ فَلَا تَلُومُونِي وَلُومُوٓاْ أَنفُسَكُمۖ مَّآ أَنَا۠ بِمُصۡرِخِكُمۡ وَمَآ أَنتُم بِمُصۡرِخِيَّ إِنِّي كَفَرۡتُ بِمَآ أَشۡرَكۡتُمُونِ مِن قَبۡلُۗ إِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 21
(22) और जब फैसला चुका दिया जाएगा तो शैतान कहेगा, “सच तो यह है कि अल्लाह ने जो वादे तुमसे किए थे, वे सब सच्चे थे और मैने जितने वादे किए, उनमें से कोई भी पूरा न किया।30 मेरा तुमपर कोई ज़ोर तो था नहीं, मैंने इसके सिवाय कुछ नहीं किया कि अपने रास्ते की और तुम्हें बुलाया और तुमने मेरो दावत को स्वीकार किया।31 अब मेरो निन्दा न करो, अपने आप हो को निन्दा करो। यहाँ न मैं तुम्हारी फ़रियाद सुन सकता हूँ और न तुम मेरी। इससे पहले जो तुमने मुझे ख़ुदाई (प्रभुता) में साझीदार बना रखा था,32 मैं उसकी ज़िम्मेदारी से अलग हूँ। ऐसे ज़ालिमों के लिए तो दर्दनाक सजा निश्चित है।'
30. अर्थात् तुम्हारे तमाम गिले-शिकवे इस हद तक तो बिल्कुल सही हैं कि अल्लाह सच्चा था और मैं झूठा या। इस वास्तविकता से मुझे कदापि इंकार नहीं है। अल्लाह के वादे और उसको चेतावनियाँ तुम देख ही रहे हो कि उनमें से हर बात ज्यों को त्यों सच्ची निकलो, और मैं स्वयं मानता हूं कि जो भरोसे मैंने तुम्हें दिलाए, जिन फायदों के लालच तुम्हें दिए, जिन खुशनुमा आशाओं के जाल में तुम्हें फांसा, और सबसे बढ़कर यह विश्वास जो तुम्हें दिलाया कि एक तो आखिरत-बाखिरत कुछ भी नहीं है. सब मात्र ढकोसला है, और अगर हुई भी तो अमुक बुजुर्ग को मदद से तुम साफ बच निकलोगे, बस उनकी सेवा में भेंट व चढ़ावे की रिश्वतें पेश करते रहो और फिर जो चाहे करते फिरो, निजात का जिम्मा उनका। ये सारी बातें जो मैं तुमसे कहता रहा और अपने एजेंटों के ज़रिये से कहलवाता रहा, यह सब मात्र धोखा था।
31. अर्थात् अगर आप लोग यह सिद्ध कर सकते हों कि आप स्वयं सीधे रास्ते पर चलना चाहते थे और मैंने ज़बरदस्तो आपका हाथ पकड़कर आपको गलत रास्ते पर खोच लिया, तो अवश्य उसे सामने ले आइए। जो चोर की सज़ा, सो मेरो । लेकिन आप स्वयं मानेगे कि सच्चाई यह नहीं है। मैंने इससे अधिक कुछ नहीं किया कि सत्य के संदेश के मुकाबले में असत्य का अपना संदेश आपके सामने रख दिया। सच्चाई के मुक़ाबले में झूठ की ओर आपको बुलाया, नेको के मुक़ाबले में बदौ को ओर आपको पुकारा । मानने और न मानने के तमाम अधिकार आप ही लोगों को प्राप्त थे। मेरे पास आपको मजबूर करने को कोई ताक़त न थी। अब अपने इस आह्वान का ज़िम्मेदार तो निस्सन्देह मैं स्वयं हूं और इसको सजा पो पा रहा हूँ, मगर आप जो इसपर लपके, इसकी ज़िम्मेदारी आप मुझपर कहाँ डालने चले हैं। अपने ग़लत चुनाव और अपने अधिकार के ग़लत इस्तेमाल का दायित्व तो आपको स्वयं हो उठाना चाहिए।
وَأُدۡخِلَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا بِإِذۡنِ رَبِّهِمۡۖ تَحِيَّتُهُمۡ فِيهَا سَلَٰمٌ ۝ 22
(23) इसके विपरीत जो लोग दुनिया में ईमान लाए हैं और जिन्होंने भले कार्य किए हैं, वे ऐसे बाग़ों में दाख़िल किए जाएँगे जिनके नीचे नहरें बहतो होंगी। वहाँ वे अपने रब के आदेश से सदैव रहेंगे और वहाँ उनका स्वागत 'सलामती की मुबारकबाद' से होगा।33
33. 'तहीयः' शब्द का अर्थ है उम्र के लम्बे होने की दुआ, मगर पारिभाषिक रूप में अरबी में स्वागत के शब्द के रूप में बोला जाता है। जो लोग आमना-सामना होने पर सबसे पहले एक-दूसरे से कहते हैं-'तहीयतुहुम' का अर्थ यह भी हो सकता है कि इनके बीच आपस में एक-दूसरे के स्वागत का तरीका यह होगा, और यह अर्थ भी हो सकता है कि उनका इस तरह स्वागत होगा। साथ ही 'सलामुन' में सलामती की दुआ भी शामिल है और सलामती की बधाई भी। हमने प्रसंग को देखते हुए वह अर्थ लिया है जो अनुवाद में लिखा हुआ है।
أَلَمۡ تَرَ كَيۡفَ ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا كَلِمَةٗ طَيِّبَةٗ كَشَجَرَةٖ طَيِّبَةٍ أَصۡلُهَا ثَابِتٞ وَفَرۡعُهَا فِي ٱلسَّمَآءِ ۝ 23
(24-25) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह ने 'कलिमा तैयबा’34 को किस चीज़ से मिसाल दी है? इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक अच्छी ज़ात का पेड़ जिसको जड़ भूमि में गहरी जमी हुई है और शाखाएँ आसमान तक पहुँची हुई है।35 हर क्षण वह अपने रब के आदेश से अपने फल दे रहा है।36 ये मिसालें अल्लाह इसलिए देता है कि लोग उनसे शिक्षा प्राप्त करें।
34. मूल में 'कलिमा तैयिबा' शब्द प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है- 'पवित्र बात', मगर इससे तात्पर्य है वह 'सच्ची बात' और 'सत्य-धारणा' जो पूर्णत: वास्तविकता और सत्य पर आधारित हो। यह 'बात' और 'धारणा' क़ुरआन मजीद के अनुसार अनिवार्य रूप से वही हो सकती है जिसमें एकेश्वरवाद का इक़रार, नबियों और आसमानी किताबों का इकरार और आख़िरत का इक़रार हो, क्योंकि क़ुरआन इन्हीं बातों को बुनियादी सच्चाइयों की हैसियत से प्रस्तुत करता है।
35. दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि ज़मीन से लेकर आसमान तक चूँकि सृष्टि की पूरी व्यवस्था उसी सच्चाई पर आधारित है जिसका इकरार एक ईमानवाला अपने 'कलिमा तैयिबा' में करता है, इसलिए किसी कोने में भी प्राकृतिक क़ानून इससे नहीं टकराता, किसी चीज़ का मूल और प्रवृत्ति उससे इंकार नहीं करती, कहीं कोई हक़ीक़त और सच्चाई उससे नहीं टकराती। इसी लिए ज़मीन और उसकी पूरी व्यवस्था सहयोग करती है और आसमान और उसका पूरा जगत् उसका स्वागत करता है।
تُؤۡتِيٓ أُكُلَهَا كُلَّ حِينِۭ بِإِذۡنِ رَبِّهَاۗ وَيَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَالَ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 24
0
وَمَثَلُ كَلِمَةٍ خَبِيثَةٖ كَشَجَرَةٍ خَبِيثَةٍ ٱجۡتُثَّتۡ مِن فَوۡقِ ٱلۡأَرۡضِ مَا لَهَا مِن قَرَارٖ ۝ 25
(26) और 'कलिमा ख़बीसा’37 की मिसाल एक बदजात पेड़ की-सी है जो धरती की सतह से उखाड़ फेंका जाता है, उसके लिए कोई स्थायित्व नहीं है।38
37. यह शब्द 'कलिमा-तैयिबा' का विलोम है जिसे यद्यपि हर असत्य और ग़लत बात के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, मगर यहाँ इससे तात्पर्य हर वह असत्य धारणा है जिसपर इंसान अपनी जीवन-व्यवस्था की नींव रखे। चाहे वह नास्तिकता हो, अनीश्वरवाद हो, बहुदेववाद हो, मूर्तिपूजा हो या कोई और ऐसा विचार जो नबियों के माध्यम से न आया हो।
38. दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि असत्य धारणा चूँकि वास्तविकता के विरुद्ध है, इसलिए प्रकृति का नियम कहीं भी उससे मेल नहीं खाता । सृष्टि का हर कण उसको झुठलाता है। ज़मीन व आसमान की हर चीज़ उसका खंडन करती है। जमीन में उसका बीज बोने की कोशिश की जाए तो हर समय वह उसे उगलने के लिए तैयार रहती है। आसमान की ओर उसकी शाखाएँ बढ़ना चाहें तो वह उन्हें नीचे धकेलता है। इंसान को अगर परीक्षा के लिए चुनाव की स्वतंत्रता और कार्य की मोहलत न दी गई होती तो यह 'अशुभ' पेड़ कहीं लगने ही न पाता। मगर चूँकि अल्लाह ने इनसानों को अपने रुझान के अनुसार काम करने का अवसर दिया है, इसलिए जो नासमझ लोग प्रकृति के नियम से लड़-भिड़कर ये पेड़ लगाने की कोशिश करते हैं, उनके ज़ोर मारने से ज़मीन उसे थोड़ी-बहुत जगह दे देती है, हवा और पानी से कुछ न कुछ भोजन भी इसे मिल जाता है और वातावरण भी इसकी शाखाओं को फैलने के लिए अनचाहे मन से कुछ अवसर देने पर तैयार हो जाता है, लेकिन जब तक यह पेड़ क़ायम रहता है, कडुवे, कसैले, विषैले फल देता रहता है और परिस्थितियों के बदलते ही घटनाओं का एक झटका उसे जड़ से उखाड़ फेंकता है। 'कलिमा तैयिबा' और 'ख़बीसा कलिमे' के इस अन्तर को हर वह व्यक्ति आसानी से समझ सकता है जो दुनिया के धार्मिक, नैतिक, वैचारिक और सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करे, वह देखेगा कि इतिहास के आरंभ से आज तक कलिमा तैयिबा तो एक ही रहा है, मगर 'ख़बीसा कलिमे' अनगिनत पैदा हो चुके हैं। कलिमा तैयिबा कभी जड़ से न उखाड़ा जा सका, मगर ख़बीसा कलिमे की सूची हज़ारों मुरदा कलिमों के नामों से भरी पड़ी हैं, यहाँ तक कि उनमें से बहुतों का हाल यह है कि आज इतिहास के पन्नों के सिवा कहीं उनका नाम व निशान तक नहीं पाया जाता। अपने समय में जिन कलिमों का बड़ा जोर-शोर रहा है, आज उनका उल्लेख किया जाए तो लोग चकित रह जाएँ कि कभी इंसान ऐसी-ऐसी मूर्खताओं को भी मानता रहा है। फिर कलिमा तैयिबा को जब, जहाँ, जिस आदमी या जिस क़ौम ने भी सही अर्थों में अपनाया, उसकी सुगन्ध से उसका वातावरण महक उठा और उसकी बरकतों से सिर्फ उसी आदमी या कौम ने लाभ नहीं उठाया, बल्कि उसके आस-पास की दुनिया भी उनसे मालामाल हो गई। मगर किसी कलिमा ख़बीसा ने जहाँ जिस व्यक्तिगत या सामूहिक जीवन में भी जड़ पकड़ी, उसकी सड़ांध से पूरा वातावरण दूषित हो गया और उसके काँटों की चुभन से न उसका माननेवाला शांति से रहा, न कोई ऐसा आदमी जिसको उसका सामना करना पड़ा हो। इस सिलसिले में यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि यहाँ मिसाल देकर उसी विषय को समझाया गया है जो ऊपर की आयत 18 में यूँ बयान हुआ था कि अपने रब का इंकार करनेवालों के कर्मों की मिसाल उस राख की-सी है जिससे एक तूफ़ानी दिन की आँधी ने उड़ा दिया हो।' और यही विषय इससे पहले सूरा-13, रअद आयत 17 में एक दूसरी शैली में बाढ़ और पिघलाई हुई धातुओं की मिसाल देकर बयान हो चुका है।
يُثَبِّتُ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱلۡقَوۡلِ ٱلثَّابِتِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِۖ وَيُضِلُّ ٱللَّهُ ٱلظَّٰلِمِينَۚ وَيَفۡعَلُ ٱللَّهُ مَا يَشَآءُ ۝ 26
(27) ईमान लानेवालों को अल्लाह एक पक्की बात के आधार पर दुनिया और आख़िरत दोनों में दृढ़ता प्रदान करता है,39 और ज़ालिमों को अल्लाह भटका देता है।40 अल्लाह को अधिकार है जो चाहे करे।
39. अर्थात् दुनिया में उनको इस कलिमा को वजह से एक सुदृढ़ दृष्टिकोण, एक मज़बूत चिन्तन-व्यवस्था और एक सर्वव्यापी, सिद्धान्त मिलता है जो हर गिरह को खोलने और हर गुत्थी को सुलझाने के लिए मास्टर चाबी की हैसियत रखता है। आचरण की दृढ़ता और चरित्र की पावनता प्राप्त होती है जिसे समय की गर्दिशें डगमगा नहीं सकतीं। ज़िन्दगी के ऐसे ठोस नियम मिलते हैं जो एक ओर उनके दिल को सुकून और दिमाग़ को इत्मीनान प्रदान करते हैं और दूसरी ओर उन्हें यत्न और कर्म की राहों में भटकने, ठोकरें खाने और रंग बदलते रहने का शिकार होने से बचाते हैं। फिर जब वे मौत की सीमा पार करके आख़िरत की दुनिया की सीमाओं में क़दम रखते हैं तो वहाँ किसी प्रकार की हैरानी और परेशानी उन्हें नहीं होती, क्योंकि वहाँ सब कुछ उनकी आशाओं के ठीक अनुसार होता है । वे उस दुनिया में इस तरह प्रवेश करते हैं मानो उसकी राह व रस्म को पहले ही जानते थे। वहाँ कोई मरहला ऐसा सामने नहीं आता जिसकी उन्हें पहले खबर न दे दी गई हो और जिसके लिए उन्होंने समय से पहले तैयारो न कर रखी हो। इसलिए वहाँ हर मंजिल से वे पूरी जमाव के साथ गुज़रते हैं । उनका हाल वहाँ उस काफ़िर (इंकार करनेवाले) से बिल्कुल अलग होता है जिसे मरते ही अपनी आशाओं के बिल्कुल विपरीत एक दूसरी ही परिस्थिति का अचानक सामना करना पड़ता है।
40. अर्थात् जो ज़ालिम कलिमा तैयिबा को छोड़कर किसी कलिमा ख़बीसा का पालन करते हैं, अल्लाह उनके मन को दूषित और उनकी कोशिशों को नाकाम कर देता है। वे किसी पहलू से भी चिन्तन और व्यवहार को सही राह नहीं पा सकते। उनका कोई तीर भी निशाने पर नहीं बैठता।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ بَدَّلُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ كُفۡرٗا وَأَحَلُّواْ قَوۡمَهُمۡ دَارَ ٱلۡبَوَارِ ۝ 27
(28) तुमने देखा उन लोगों को जिन्होंने अल्लाह की नेमत पाई और उसे नाशुक्री से बदल डाला और (अपने साथ) अपनी क़ौम को भी विनाश के घर में झोंक दिया
جَهَنَّمَ يَصۡلَوۡنَهَاۖ وَبِئۡسَ ٱلۡقَرَارُ ۝ 28
(29) अर्थात् जहन्नम, जिसमें वे झुलसे जाएँगे और वह सबसे बुरा ठिकाना है
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ أَندَادٗا لِّيُضِلُّواْ عَن سَبِيلِهِۦۗ قُلۡ تَمَتَّعُواْ فَإِنَّ مَصِيرَكُمۡ إِلَى ٱلنَّارِ ۝ 29
(30) और अल्लाह के कुछ प्रतिद्वन्द्वी ठहरा लिए ताकि वे उन्हें अल्लाह के रास्ते से भटका दें। इनसे कहो: अच्छा मज़े कर लो, अन्तत: तुम्हें पलटकर जाना दोज़ख ही में है।
قُل لِّعِبَادِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُنفِقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا بَيۡعٞ فِيهِ وَلَا خِلَٰلٌ ۝ 30
(31) ऐ नबी ! मेरे जो बन्दे ईमान लाए हैं उनसे कह दो कि नमाज स्थापित करें और जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से खुले और छिपे (भलाई के रास्ते में) ख़र्च करें41 इससे पहले कि वह दिन आए जिसमें न खरीदना-वेचना होगा और न दोस्ती हो सकेगी।42
41. अर्थ यह है कि ईमानवालों की रीति कुफ़्फ़ार (अवज्ञाकारियों) की रीति से अलग होनी चाहिए। वे तो कृतघ्न हैं। इन्हें कृतज्ञ होना चाहिए और इस कृतज्ञता का व्यावहारिक रूप यह है कि नमाज स्थापित को और अल्लाह की राह में अपने माल ख़र्च करें।
42. अर्थात् न तो वहाँ कुछ दे-दिलाकर ही निजात ख़रीदी जा सकेगी और न किसी की दोस्ती काम आएगी कि वह तुम्हें अल्लाह की पकड़ से बचा ले।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجَ بِهِۦ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ رِزۡقٗا لَّكُمۡۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلۡفُلۡكَ لِتَجۡرِيَ فِي ٱلۡبَحۡرِ بِأَمۡرِهِۦۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلۡأَنۡهَٰرَ ۝ 31
(32) अल्लाह वही तो है43 जिसने जमीन और आसमानों को पैदा किया और आसमान से पानी बरसाया, फिर उसके जरिये से तुम्हें रोज़ी पहुँचाने के लिए तरह-तरह के फल पैदा किए, जिसने नाव को तुम्हारे लिए सधाया कि समुद्र में उसके आदेश से चले, और नदियों को तुम्हारे लिए सधाया,
43. अर्थात् वह अल्लाह जिसकी नेमत के प्रति नाशुक्री की जा रही है, जिसकी बन्दगी और आज्ञापालन से मुँह मोड़ा जा रहा है, जिसके साथ जबरदस्ती के साझीदार ठहराए जा रहे हैं, वह वही तो है जिसके ये और ये उपकार हैं।
وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ دَآئِبَيۡنِۖ وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ ۝ 32
(33) जिसने सूरज और चाँद को तुम्हारे लिए सधाया कि लगातार चले जा रहे हैं और रात और दिन को तुम्हारे लिए सधाया44,
44. 'तुम्हारे लिए सधाया' को आम तौर पर लोग गलती से 'तुम्हारे अधीन कर दिया' के अर्थ में ले लेते हैं और फिर इस विषय की आयतों से अनोखे अनोखे अर्थ निकालने लगते हैं, यहाँ तक कि कुछ लोग तो यहाँ तक समझ बैठे कि इन आयतों के अनुसार आसमानों और जमीन का अधीन बनाना ईसान का मूल अभिप्राय है, हालाँकि इंसान के लिए इन चीज़ों के सचाने का अर्थ इसके सिवा कुछ नहीं है कि अल्लाह ने उनको ऐसे क़ानूनों का पाबन्द बना रखा है जिनकी बदौलत वे इंसान के लिए लाभप्रद हो गई हैं। नाव अगर प्रकृति के कुछ विशेष क़ानूनों की पाबन्द न होती तो इंसान कभी समुद्री यात्रा न कर सकता। नदियाँ अगर विशेष कानूनों में जकड़ी हुए न होतीं तो कभी उनसे नहरें न निकाली जा सकतीं । सूरज और चाँद और दिन व रात अगर विधानों में कसे हुए न होते तो यहाँ जीवन ही संभव न होता,न ही एक फलती-फूलती मानव-संस्कृति अस्तित्व में आ सकती।
وَءَاتَىٰكُم مِّن كُلِّ مَا سَأَلۡتُمُوهُۚ وَإِن تَعُدُّواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ لَا تُحۡصُوهَآۗ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَظَلُومٞ كَفَّارٞ ۝ 33
(34) जिसने वह सब कुछ तुम्हें दिया जो तुमने माँगा।45 अगर तुम अल्लाह की नेमतों को गिनना चाहो तो नहीं गिन सकते। सच तो यह है कि इंसान बड़ा ही अन्यायो और कृतघ्न है।
45. अर्थात् तुम्हारे स्वभाव की हर मांग पूरी की, तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए जो कुछ चाहिए था, जुटाया। तुम्हें ज़िन्दा रखने और तुम्हारे विकास के लिए जिन-जिन साधनों की ज़रूरत थी, सब जुटा दिए ।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِيمُ رَبِّ ٱجۡعَلۡ هَٰذَا ٱلۡبَلَدَ ءَامِنٗا وَٱجۡنُبۡنِي وَبَنِيَّ أَن نَّعۡبُدَ ٱلۡأَصۡنَامَ ۝ 34
(35) याद करो वह समय जब इबराहीम ने दुआ की थी कि 46 "पालनहार ! इस 47 नगर (अर्थात् मक्का) को शान्ति का नगर बना और मुझे और मेरी सन्तान को मूर्तिपूजा से बचा।
46. सामान्य उपकारों का उल्लेख करने के बाद उन विशेष उपकारों का उल्लेख किया जा रहा है जो अल्लाह ने कुरैश पर किए थे, और उसके साथ यह भी बताया जा रहा है कि तुम्हारे बाप इबराहीम ने यहाँ लाकर किन तमन्नाओं के साथ तुम्हें बसाया था, उसकी दुआओं के उत्तर में कैसे कैसे उपकार हमने तुमपर किए और अब तुम अपने बाप की तमन्नाओं और अपने रब के उपकारों का उत्तर किन गुमराहियों और दुष्कार्यों से दे रहे हो।
47. अर्थात् मक्का।
رَبِّ إِنَّهُنَّ أَضۡلَلۡنَ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِۖ فَمَن تَبِعَنِي فَإِنَّهُۥ مِنِّيۖ وَمَنۡ عَصَانِي فَإِنَّكَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 35
(36) पालनहार ! इन मूर्तियों ने बहुतों को गुमराही में डाला है 48, (संभव है कि मेरी सन्तान को भी ये गुमराह कर दें, इसलिए उनमें से) जो मेरे तरीके पर चले, वह मेरा है और जो मेरे विरुद्ध तरीक़ा अपनाए तो निश्चय ही तू क्षमाशील और दयावान है।49
48. अर्थात् ख़ुदा की बंदगी से फेरकर अपनी ओर प्रलोभित किया है। यह लाक्षणिक वाणी है। मूर्तियाँ चूँकि बहुतों की पथभ्रष्टता का कारण बनी हैं, इसलिए पथभ्रष्ट करने के कार्य को उनसे जोड़ दिया गया है।
49. यह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की अत्यधिक नम्रता और मानव जाति के प्रति उनका ज़बरदस्त प्रेम है कि वह किसी हाल में भी इंसान को अल्लाह के अज़ाब में गिरफ्तार होते नहीं देख सकते, बल्कि अन्तिम समय तक क्षमा कर देने की विनती करते रहते हैं। -रोज़ी के मामले में तो उन्होंने यहाँ तक कह देने में संकोच न किया कि -और उसके वासियों को फलों की रोजी प्रदान कर,उनको जो ईमान लाए अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर -(अल बक़रा, आयत 126) -लेकिन जहाँ आख़िरत की पकड़ का प्रश्न आया, वहाँ उनकी ज़बान से यह न निकला कि जो मेरे तरीके के विरुद्ध चले उसे सज़ा दे डालियो, बल्कि कहा तो यह कहा कि उनके मामले में क्या कहूँ, तू क्षमा करनेवाला और दयावान है और यह कुछ अपनी ही सन्तान के साथ उस साक्षात दया व प्रेम व्यक्ति की विशेष रीति नहीं है, बल्कि जब फ़रिश्ते लूत की क़ौम जैसी कुकर्मी क़ौम को नष्ट करने जा रहे थे, उस समय भी अल्लाह बड़े प्रेम भरे अंदाज़ में फ़रमाता है कि 'इबराहीम हमसे झगड़ने लगा।' (सूरा-11, हूद, आयत 74) यही हाल हज़रत ईसा (अलैहि०) का है कि जब अल्लाह उनके रू-ब-रू ईसाइयों को गुमराही सिद्ध कर देता है तो वे अर्ज करते हैं कि 'अगर हुजूर उनको सज़ा दें तो ये आपके बन्दे हैं और अगर क्षमा कर दें तो आप प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी हैं।' (सूरा-5, अल-माइदा, आयत 118)
رَّبَّنَآ إِنِّيٓ أَسۡكَنتُ مِن ذُرِّيَّتِي بِوَادٍ غَيۡرِ ذِي زَرۡعٍ عِندَ بَيۡتِكَ ٱلۡمُحَرَّمِ رَبَّنَا لِيُقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ فَٱجۡعَلۡ أَفۡـِٔدَةٗ مِّنَ ٱلنَّاسِ تَهۡوِيٓ إِلَيۡهِمۡ وَٱرۡزُقۡهُم مِّنَ ٱلثَّمَرَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَشۡكُرُونَ ۝ 36
(37) पालनहार ! मैने एक निर्जल और ऊसर घाटी में अपनी सन्तान के एक भाग को तेरे मोहरतम घर के पास ला बसाया है।पालनहार ! यह मैंने इसलिए किया है कि ये लोग यहाँ नमाज़ कायम करें, इसलिए तू लोगों के दिलों को उनका अभिलाषी बना और उन्हें खाने को फल दे 50, शायद कि ये कृतज्ञ बनें।
50. यह उसी दुआ की बरकत है कि पहले सारा अरब मक्का की ओर हज और उमरे के लिए खिंचकर आता था और अब दुनिया भर के लोग खिंच-खिंचकर वहाँ जाते हैं। फिर यह भी उसी दुआ की बरकत है कि हर समय में हर तरह के फल, अनाज और रोज़ी के दूसरे सामान वहाँ पहुँचते रहते हैं, हालाँकि इस निर्जन और बंजर घाटी में जानवरों के लिए चारा तक पैदा नहीं होता।
رَبَّنَآ إِنَّكَ تَعۡلَمُ مَا نُخۡفِي وَمَا نُعۡلِنُۗ وَمَا يَخۡفَىٰ عَلَى ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ ۝ 37
(38) पालनहार ! तू जानता है जो कुछ हम छिपाते हैं और जो कुछ प्रकट करते हैं।51-और 52 निश्चय ही अल्लाह से कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, न ज़मीन में, न आसमानों में
51. अर्थात् ऐ अल्लाह ! जो कुछ मैं ज़बान से कह रहा हूँ वह भी तू सुन रहा है और जो भावनाएँ मेरे मन में छिपी हुई हैं उनको भी तू जानता है।
52. यह संदर्भ से हटकर बीच में आ गई एक बात है जो अल्लाह ने हज़रत इबराहीम (अलैहि.) के कथन की पुष्टि में कहा है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي وَهَبَ لِي عَلَى ٱلۡكِبَرِ إِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَۚ إِنَّ رَبِّي لَسَمِيعُ ٱلدُّعَآءِ ۝ 38
(39) 'शुक्र है उस अल्लाह का जिसने मुझे इस बुढ़ापे में इसमाईल और इसहाक़ जैसे बेटे दिए, सच तो यह है कि मेरा रब ज़रूर दुआ सुनता है।
رَبِّ ٱجۡعَلۡنِي مُقِيمَ ٱلصَّلَوٰةِ وَمِن ذُرِّيَّتِيۚ رَبَّنَا وَتَقَبَّلۡ دُعَآءِ ۝ 39
(40) ऐ मेरे पालनहार ! मुझे नमाज़ कायम करनेवाला बना और मेरी सन्तान से भी (ऐसे लोग उठा, जो ये काम करें)। पालनहार ! मेरी दुआ स्वीकार कर ।
رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لِي وَلِوَٰلِدَيَّ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ يَوۡمَ يَقُومُ ٱلۡحِسَابُ ۝ 40
(41) पालनहार ! मुझे और मेरे माँ-बाप को और सब ईमान लानेवालों को उस दिन क्षमा कर दीजियो जबकि हिसाब क़ायम होगा।‘’53
53. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने क्षमा करने की इस दुआ में अपने बाप को उस वादे की बुनियाद पर शरीक कर लिया था जो उन्होंने वतन से निकलते समय किया था कि 'मैं अपने पालनहार से क्षमा की प्रार्थना करूँगा' (सूरा-19, मरयम, आयत 47) मगर बाद में जब उन्हें अनुभव हुआ कि वह तो अल्लाह का शत्रु था तो उन्होंने उससे साफ़ अपने को बरी कर लिया। (सूरा-9, अत-तौबा, आयत 114)
وَلَا تَحۡسَبَنَّ ٱللَّهَ غَٰفِلًا عَمَّا يَعۡمَلُ ٱلظَّٰلِمُونَۚ إِنَّمَا يُؤَخِّرُهُمۡ لِيَوۡمٖ تَشۡخَصُ فِيهِ ٱلۡأَبۡصَٰرُ ۝ 41
(42) अब ये ज़ालिम लोग जो कुछ कर रहे हैं, अल्लाह को तुम इससे ग़ाफ़िल न समझो। अल्लाह तो उन्हें टाल रहा है, उस दिन के लिए जब हाल यह होगा कि आँखें फटी की फटी रह गई हैं।
مُهۡطِعِينَ مُقۡنِعِي رُءُوسِهِمۡ لَا يَرۡتَدُّ إِلَيۡهِمۡ طَرۡفُهُمۡۖ وَأَفۡـِٔدَتُهُمۡ هَوَآءٞ ۝ 42
(43) सर उठाए भागे चले जा रहे हैं, नज़रें ऊपर जमी हैं 54 और दिल उड़े जाते हैं।
54. अर्थात् कियामत का जो दहला देनेवाला दृश्य उनके सामने होगा उसको इस तरह टकटकी लगाए देख रहे होंगे मानो उनके दीदे पथरा गए हैं, न पलक झपकेगी, न नज़र हटेगी।
وَأَنذِرِ ٱلنَّاسَ يَوۡمَ يَأۡتِيهِمُ ٱلۡعَذَابُ فَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ رَبَّنَآ أَخِّرۡنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖ نُّجِبۡ دَعۡوَتَكَ وَنَتَّبِعِ ٱلرُّسُلَۗ أَوَلَمۡ تَكُونُوٓاْ أَقۡسَمۡتُم مِّن قَبۡلُ مَا لَكُم مِّن زَوَالٖ ۝ 43
(44) ऐ नबी ! उस दिन से तुम उन्हें डराओ जबकि अज़ाब इन्हें आ लेगा। उस समय ये ज़ालिम कहेंगे कि “ऐ हमारे रब ! हमें थोड़ी-सी मोहलत और दे दे, हम तेरी दावत (संदेश) को क़बूल करेंगे और रसूलों की पैरवी करेंगे।" (मगर उन्हें साफ़ जवाब दिया जाएगा कि) "क्या तुम वही लोग नहीं हो जो इससे पहले क़समें खा-खाकर कहते थे कि हमारा तो कभी पतन होना ही नहीं है ?
وَسَكَنتُمۡ فِي مَسَٰكِنِ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَتَبَيَّنَ لَكُمۡ كَيۡفَ فَعَلۡنَا بِهِمۡ وَضَرَبۡنَا لَكُمُ ٱلۡأَمۡثَالَ ۝ 44
(45) हालाँकि तुम उन क़ौमों की बस्तियों में रह-बस चुके थे जिन्होंने अपने ऊपर आप जुल्म किया था और देख चुके थे कि हमने उनसे क्या सुलूक किया और उनकी मिसाले दे-देकर हम तुम्हें समझा भी चुके थे।
وَقَدۡ مَكَرُواْ مَكۡرَهُمۡ وَعِندَ ٱللَّهِ مَكۡرُهُمۡ وَإِن كَانَ مَكۡرُهُمۡ لِتَزُولَ مِنۡهُ ٱلۡجِبَالُ ۝ 45
(46) उन्होंने अपनी सारी ही चालें चल देखीं, मगर उनकी हर चाल का तोड़ अल्लाह के पास था, यद्यपि उनकी चालें ऐसी गजब की थी कि पहाड़ उनसे टल जाएँ।55
55. अर्थात् तुम यह भी देख चुके थे कि तुम्हारी पहले की क़ौमों ने ख़ुदाई (ईश्वरीय) क़ानूनों के विरुद्ध चलने के नतीजों में बचने और नबियों की दावत को विफल करने के लिए कैसी-कैसी ज़बरदस्त चालें चली और यह भी देख चुके थे कि अल्लाह की एक ही चाल से वे किस तरह मात खा गए। मगर फिर भी तुम सत्य के विरुद्ध चालबाजियाँ करने से बाज़ न आए और यही समझते रहे कि तुम्हारी चालें अवश्य सफल होंगी।
فَلَا تَحۡسَبَنَّ ٱللَّهَ مُخۡلِفَ وَعۡدِهِۦ رُسُلَهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٖ ۝ 46
(47) अत: ऐ नबी ! तुम कदापि यह विचार न करो कि अल्लाह कभी अपने रसूलों से किए हुए वादों के विरुद्ध करेगा।56 अल्लाह अपार शक्तिवाला है और बदला लेनेवाला है ।
56. इस वाक्य में सम्बोधन प्रत्यक्ष में नबी (सल्ल०) की ओर है, मगर वास्तव में सुनाना आपके विरोधियों को है। उन्हें यह बताया जा रहा है कि अल्लाह ने पहले भी अपने रसूलों से जो वादे किए थे, वे पूरे किए और उनके विरोधियों को नीचा दिखाया और अब भी जो वादा वह अपने रसूल मुहम्मद (सल्ल०) से कर रहा है, उसे भी पूरा करेगा और उन लोगों को तहस-नहस कर देगा जो उसका विरोध कर रहे हैं।
يَوۡمَ تُبَدَّلُ ٱلۡأَرۡضُ غَيۡرَ ٱلۡأَرۡضِ وَٱلسَّمَٰوَٰتُۖ وَبَرَزُواْ لِلَّهِ ٱلۡوَٰحِدِ ٱلۡقَهَّارِ ۝ 47
(48) डराओ इन्हें उस दिन से जबकि जमीन और आसमान बदलकर कुछ से कुछ कर दिए जाएँगे57 और सब के सब एक अकेले प्रभुत्वशाली अल्लाह के सामने बेनकाब हाज़िर हो जाएँगे।
57. इस आयत से और क़ुरआन के दूसरे संकेतों से मालूम होता है कि क़ियामत में ज़मीन व आसमान बिल्कुल नहीं मिट जाएँगे बल्कि केवल प्रकृति की वर्तमान व्यवस्था को उलट-पुलट दिया जाएगा। उसके बाद पहले सूर के फूंके जाने और दूसरे सूर के फूंके जाने के बीच एक विशेष अवधि में, जिसे अल्लाह ही जानता है, जमीन और आसमानों का वर्तमान रूप बदल दिया जाएगा और एक दूसरी प्रकृति-व्यवस्था, प्रकृति के दूसरे विधानों के साथ बना दी जाएगी। वही आख़िरत होगी। फिर दूसरे सूर के फूंके जाने के साथ ही तमाम वे इंसान जो आदम की पैदाइश से लेकर क़ियामत तक पैदा हुए थे, नये सिरे से ज़िन्दा किए जाएँगे और अल्लाह के हुजूर पेश होंगे। इसी का नाम क़ुरआन की भाषा में 'हश्र है जिसका अर्थ समेटना और इकट्ठा करना है। क़ुरआन के संकेतों और हदीस की व्याख्याओं से यह सिद्ध है कि 'हब' इसी धरती पर बरपा होगा, यहीं अदालत क़ायम होगी, यहीं मीज़ान (तराज़ू) लगाई जाएगी और धरती का झगड़ा धरती ही पर चुकाया जाएगा। साथ ही यह भी क़ुरआन व हदीस से सिद्ध है कि हमारी वह दूसरी ज़िन्दगी जिसमें ये मामले पेश आएँगे सिर्फ़ आध्यात्मिक नहीं होगी, बल्कि ठीक उसी तरह शरीर व आत्मा के साथ हम ज़िन्दा किए जाएँगे जिस तरह आज जिन्दा हैं और हर आदमी ठीक उसी व्यक्तित्व के साथ वहाँ मौजूद होगा जिसे लिए हुए वह दुनिया से विदा हुआ था।
وَتَرَى ٱلۡمُجۡرِمِينَ يَوۡمَئِذٖ مُّقَرَّنِينَ فِي ٱلۡأَصۡفَادِ ۝ 48
(49) उस दिन तुम अपराधियों को देखोगे कि ज़ंजीरों में हाथ-पाँव जकड़े हुए होंगे,
سَرَابِيلُهُم مِّن قَطِرَانٖ وَتَغۡشَىٰ وُجُوهَهُمُ ٱلنَّارُ ۝ 49
(50) तारकोल58 के कपड़े पहने हुए होंगे और आग के शोले उनके चेहरों पर छाए जा रहे होंगे ।
58. कुछ अनुवादकों और टीकाकारों ने कतिरान का अर्थ गंधक और कुछ ने पिघला हुआ ताबा बताया है, मगर वास्तव में अरबी भाषा में क़तिरान का शब्द डामर और तारकोल के लिए इस्तेमाल होता है।
لِيَجۡزِيَ ٱللَّهُ كُلَّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 50
(51) यह इसलिए होगा कि अल्लाह हर प्राणी को उसके किए का बदला देगा। अल्लाह को हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
هَٰذَا بَلَٰغٞ لِّلنَّاسِ وَلِيُنذَرُواْ بِهِۦ وَلِيَعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ وَلِيَذَّكَّرَ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 51
(52) यह एक सन्देश है सब इंसानों के लिए, और यह भेजा गया है इसलिए कि उनको इसके ज़रिये से ख़बरदार कर दिया जाए और वे जान लें कि वास्तव में अल्लाह बस एक ही है और जो बुद्धि रखते हैं वे होश में आ जाएँ।