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سُورَةُ البَلَدِ

90. अल-बलद

(मक्का में उतरी, आयतें 20)

परिचय

नाम

पहली ही आयत ला ‘उक़सिमु बिहाज़ल ब-लदि' (नहीं, मैं क़सम खाता हूँ इस शहर अर्थात् मक्का की) के शब्द 'अल-बलद' को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इसका विषय और वर्णनशैली मक्का के आरम्भिक काल की सूरतों जैसी है, मगर एक संकेत इसमें ऐसा मौजूद है जो पता देता है कि इसके उतरने का समय वह था जब मक्का के विधर्मी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दुश्मनी पर तुल गए थे और आपके विरुद्ध हर जुल्म और ज़्यादती को उन्होंने अपने लिए वैध कर लिया था।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय दुनिया में इंसान की, और इंसान के लिए दुनिया की सही हैसियत समझाना और यह बताना है कि अल्लाह ने इंसान के लिए सौभाग्य और दुर्भाग्य के दोनों रास्ते खोलकर रख दिए हैं। उनको देखने और उनपर चलने के साधन भी उसे जुटा दिए हैं। और अब यह इंसान की अपनी मेहनत और कोशिश पर है कि वह सौभाग्य की राह चलकर अच्छे अंजाम को पहुँचता है या दुर्भाग्य का रास्ता अपनाकर बुरा अंजाम भोगता है। सबसे पहले शहर मक्का और उसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर आनेवाली मुसीबतें और आदम की पूरी संतान की हालत को इस तथ्य पर गवाह की हैसियत से पेश किया गया है कि यह दुनिया इंसान के लिए विश्रामालय नहीं है, बल्कि यहाँ इसका जन्म ही परिश्रम की हालत में हुआ है। इस विषय को अगर सूरा-53 नज्म की आयत 39 "इंसान के लिए कुछ नहीं, लेकिन वह जिसके लिए उसने कोशिश की" के साथ मिलाकर देखा जाए तो बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि दुनिया के इस कारख़ाने में इंसान का भविष्य उसकी कोशिश और मेहनत पर निर्भर करता है। इसके बाद इंसान का यह भ्रम दूर किया गया है कि ऊपर कोई सर्वोच्च सत्ता नहीं है जो उसके काम की निगरानी करनेवाली और उसकी पकड़ करनेवाली हो। फिर बताया गया है कि दुनिया में इंसान ने मान-सम्मान और महानता के कैसे ग़लत मानदंड बनाकर रखे हैं। जो आदमी अपनी बड़ाई की नुमाइश के लिए ढेरों माल लुटाता है, लोग उसकी ख़ूब प्रशंसा करते हैं, हालाँकि जो हस्ती उसके काम की निगरानी कर रही है वह यह देखती है कि उसने यह माल किन तरीक़ों से प्राप्त किया और किन रास्तों में किस नीयत और किन उद्देश्यों के लिए ख़र्च किया। इसके बाद अल्लाह फ़रमाता है कि हमने इंसान को ज्ञान के साधन और सोचने-समझने की क्षमताएँ देकर उसके सामने भलाई और बुराई के दोनों रास्ते खोलकर रख दिए हैं। एक रास्ता वह है जो नैतिक पतन की ओर जाता है, और उसपर जाने के लिए कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता, बल्कि मन को बड़ा स्वाद मिलता है। दूसरा रास्ता नैतिक ऊँचाइयों की ओर जाता है जो एक दुर्गम घाटी की तरह है। उसपर चलने के लिए आदमी को अपनी इंद्रियों को मजबूर करना पड़ता है। फिर अल्लाह ने बताया है कि वह घाटी क्या है जिससे गुज़रकर आदमी ऊँचाइयों की ओर जा सकता है। इस रास्ते पर चलनेवालों का अंजाम यह है कि आदमी अल्लाह की दयालुताओं का पात्र हो, और इसके विपरीत दूसरा रास्ता अपनानेवालों का अंजाम जहन्नम (नरक) की आग है जिससे निकलने के सारे दरवाज़े बन्द है |

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سُورَةُ البَلَدِ
90. अल-बलद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
لَآ أُقۡسِمُ بِهَٰذَا ٱلۡبَلَدِ
(1) नहीं,1 मैं क़सम खाता हूँ इस शहर की2,
1. अर्थात् वास्तविकता वह नहीं है जो तुम समझे बैठे हो, बल्कि मैं फ़लाँ-फ़लाँ चीज़ों की क़सम खाता हूँ कि सच्ची बात यह है। अब रहा यह प्रश्न कि वह बात क्या थी जिसके खंडन में यह वाणी उतरी, तो उसपर बाद का विषय ख़ुद प्रमाण बन रहा है। मक्का के इस्लाम-विरोधी यह कहते थे कि हम जिंदगी के जिस ढंग पर चल रहे हैं, उसमें कोई दोष नहीं है। दुनिया की जिंदगी बस यही कुछ है कि खाओ, पियो, मजे उड़ाओ और जब समय आए तो मर जाओ। मुहम्मद (सल्ल०) ख़ामख़ाह जिंदगी गुज़ारने के हमारे इस तरीक़े को ग़लत ठहरा रहे हैं और हमें डरा रहे हैं कि इसपर कभी हमसे पूछ-ताछ होगी और हमें इनाम व सजा का सामना करना पड़ेगा।
2. अर्थात् मक्का शहर की। इस जगह यह बात स्पष्ट करने की कोई जरूरत न थी कि इस शहर की क़सम क्यों खाई जा रही है। मक्कावासी अपने शहर [की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से, उसकी धार्मिक महत्वता से और उसको श्रेष्ठता एवं पवित्रता से अच्छी तरह परिचित थे] कि किस तरह एक सुनसान बंजर घाटी में पहाड़ों के बीच हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने [ख़ुदा के हुक्म से दीनी ज़रूरत के तहत] अपनी बीवी और एक दूध पीते बच्चे को यहाँ लाकर बेसहारा छोड़ा, किस तरह यहाँ एक घर बनाकर ऐसी दशा में हज के लिए लोगों को पुकारा जबकि दूर-दूर तक कोई उस पुकार का सुननेवाला न था, और फिर किस तरह यह शहर आख़िरकार पूरे अरब का केन्द्र बना, और ऐसा पवित्र स्थान बन गया कि सैकड़ों सालों तक अरब की इस संविधानरहित धरती में इसके सिवा अमन व शान्ति का कोई स्थान न था।
وَأَنتَ حِلُّۢ بِهَٰذَا ٱلۡبَلَدِ ۝ 1
(2) और हाल यह है कि (ऐ नबी!) इस शहर तुमको हलाल (वैध) कर लिया गया है3,
3. अर्थात् जिस शहर में जंगल के जानवरों तक को सुरक्षा प्राप्त है और पेड़ों तक को काटना अरबवालों के नज़दीक हराम है, वहाँ तुमपर ज़ुल्म को हलाल कर लिया गया है।
وَوَالِدٖ وَمَا وَلَدَ ۝ 2
(3) और क़सम खाता हूँ बाप की और उस सन्तान की जो उससे पैदा हुई4,
4. चूँकि यहाँ केवल बाप और उससे पैदा होनेवाली सन्तान के शब्द प्रयुक्त किए गए है और आगे इंसान का उल्लेख किया गया है, इसलिए बाप से तात्पर्य आदम (अलैहिस्सलाम) हो हो सकते हैं और उनसे पैदा होनेवाली सन्तान से तात्पर्य तमाम इंसान हैं।
لَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ فِي كَبَدٍ ۝ 3
(4) वास्तव में हमने इंसान को मशक्क़त में पैदा किया है।5
5. यह है वह बात जिसपर वे क़समें खाई गई हैं जो ऊपर बयान हुई हैं। इंसान को मशक़त में पैदा किए जाने का अर्थ यह है कि यह दुनिया इंसान के लिए मज़े करने और चैन की बाँसुरी बजाने की जगह नहीं, बल्कि मेहनत और मशक्कत और सज्जियाँ झेलने की जगह है, और कोई इंसान भी इस हालत से गुज़रे बिना नहीं रह सकता। यह मक्का शहर गवाह है कि अल्लाह के किसी बन्दै ने अपनी जान खपाई थी तब यह बसा और अरब का केन्द्र बना। इस शहर मक्का में मुहम्मद (सल्ल०) की हालत गवाह है कि वह एक उद्देश्य के लिए तरह-तरह की मुसीबतें सहन कर रहे हैं, और हर इंसान की ज़िंदगी माँ के पेट में गर्भ से लेकर मौत के अन्तिम साँस तक इस बात पर गवाह है कि उसको क़दम-क़दम पर कष्ट, मशक़्क़त, मेहनत, ख़तरे और मुसीबतों के मरहलों से गुज़रना पड़ता है।
أَيَحۡسَبُ أَن لَّن يَقۡدِرَ عَلَيۡهِ أَحَدٞ ۝ 4
(5) क्या उसने यह समझ रखा है कि उसपर कोई क़ाबू न पा सकेगा?6
6. अर्थात् क्या यह इंसान, जो इन परिस्थितियों में घिरा हुआ है, इस घमंड में है कि वह दुनिया में जो कुछ चाहे करे, कोई उच्च सत्ता उसको पकड़ने और उसका सर नीचा कर देनेवाली नहीं है? हालाँकि आख़िरत से पहले स्वयं इस दुनिया में भी हर क्षण वह देख रहा है कि उसके भाग्य पर किसी और का शासन है जिसके फैसलों के आगे उसके सारे उपाय धरे के धरे रह जाते हैं।
يَقُولُ أَهۡلَكۡتُ مَالٗا لُّبَدًا ۝ 5
(6) कहता है कि मैंने ढेरों माल उड़ा दिया।7
7. ये शब्द स्पष्ट करते हैं कि कहनेवाले को अपनी मालदारी पर कितना अभिमान था कि जो ढेर-सा माल उसने ख़र्च किया वह उसकी कुल दौलत के मुक़ाबले में इतना मामूली था कि उसे लुटा देने या उड़ा देने की उसे कोई परवाह न थी। और यह माल उड़ा देना था किस मद में? किसी वास्तविक भलाई के काम में नहीं, जैसा कि आगे की आयतों से अपने आप मालूम होता है, बल्कि अपनी मालदारी का प्रदर्शन करने और अपने गर्व और बड़ाई को प्रकट करने में।
أَيَحۡسَبُ أَن لَّمۡ يَرَهُۥٓ أَحَدٌ ۝ 6
(7) क्या वह समझता है कि किसी ने उसको नहीं देखा?8
8. अर्थात् क्या यह घमंड करनेवाला यह नहीं समझता कि ऊपर कोई अल्लाह भी है जो देख रहा है कि किन साधनों से उसने यह धन प्राप्त किया, किन कामों में उसे खपाया और किस नीयत, किस उद्देश्य के लिए पर उसने ये सारे कर्म किए?
أَلَمۡ نَجۡعَل لَّهُۥ عَيۡنَيۡنِ ۝ 7
(8, 9) क्या हमने उसे दो आँखें और एक ज़बान और दो होंठ नहीं दिए?9
9. मतलब यह है कि क्या हमने उसे ज्ञान और बुद्धि के साधन नहीं दिए? दो आँखों से तात्पर्य गाय-भैंस की आँखें नहीं, बल्कि वे इंसानी आँखें हैं जिन्हें खोलकर आदमी देखे तो उसे हर ओर वे निशान नज़र आएँ जो सच्चाई का पता देते हैं और सही व ग़लत का अन्तर समझाते हैं। ज़बान और होठों से तात्पर्य सिर्फ़ बोलने के यंत्र नहीं हैं, बल्कि नफ़्से-नातिक़ा (बोलनेवाला मन) है जो इन यन्त्रों के पीछे सोचने-समझने का काम करता है और फिर उनसे अपनी अन्तरात्मा को व्यक्त करने का काम लेता है।
وَلِسَانٗا وَشَفَتَيۡنِ ۝ 8
0
وَهَدَيۡنَٰهُ ٱلنَّجۡدَيۡنِ ۝ 9
(10) और दोनों (भलाई और बुराई के) स्पष्ट रास्ते उसे (नहीं) दिखा दिए?10
10. अर्थात् हमने केवल बुद्धि व चिंतन की शक्तियाँ देकर उसे छोड़ नहीं दिया कि अपना रास्ता स्वयं खोजे, बल्कि उसकी रहनुमाई भी की और उसके सामने भलाई और बुराई, नेकी और बदी के दोनों रास्ते स्पष्ट करके रख दिए, ताकि वे ख़ूब सोच-समझकर इनमें से जिसको चाहे अपनी ज़िम्मेदारी पर अपनाए। (व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-76 अद-दहर, टिप्पणी 3-5)
فَلَا ٱقۡتَحَمَ ٱلۡعَقَبَةَ ۝ 10
(11) मगर उसने दुर्गम घाटी से गुज़रने का साहस न किया।11
11. मूल अरबी शब्द हैं 'फ़-लक त-ह-मल अ-क़-ब'। 'इक़ त-ह-म' शब्द का अर्थ है अपने आपको किसी सख़्त और मेहनतवाले काम में डालना। और 'अ-क-ब' उस दुर्गम रास्ते को कहते हैं जो ऊँचाई पर जाने के लिए पहाड़ों में गुज़रता है। अतएव आयत का अर्थ यह है कि दो रास्ते जो हमने उसे दिखाए उनमें से एक ऊँचाई की ओर जाता है, मगर वह मेहनतवाला है जिस तक पहुँचना कठिन है। और दूसरा आसान रास्ता है जो खड्डों में उतरता है। अब यह आदमी जिसको हमने दोनों रास्ते दिखा दिए थे, उसने उनमें से पस्ती (पतन) की ओर जानेवाले रास्ते को अपना लिया और उस मेहनत और मशक्कतवाले रास्ते को छोड़ दिया जो बुलन्दी की ओर जानेवाला है।
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا ٱلۡعَقَبَةُ ۝ 11
(12) और तुम क्या जानो कि क्या है वह दुर्गम घाटी?
فَكُّ رَقَبَةٍ ۝ 12
(13) किसी गरदन को दासता से छुड़ाना
أَوۡ إِطۡعَٰمٞ فِي يَوۡمٖ ذِي مَسۡغَبَةٖ ۝ 13
(14, 15, 16) या फ़ाने के दिन किसी क़रीबी यतीम या ख़ाकनशीन (धूल-धूसरित) मुहताज को खाना खिलाना।12
12. ऊपर चूँकि उसकी फ़िज़ूल-ख़र्चियों (अपव्ययता) का उल्लेख किया गया है, जो अपनी बड़ाई के प्रदर्शन और लोगों पर अपना गर्व प्रकट करने के लिए करता है, इसलिए अब उसके मुक़ाबले में बताया गया है कि वह कौन-सा ख़र्च और माल का कौन-सा इस्तेमाल है जो नैतिक गिरावटों में गिराने के बजाय आदमी को ऊँचाइयों की ओर ले जाता है। वह ख़र्च यह है कि आदमी किसी गुलाम को ख़ुद आज़ाद करे या उसकी माली मदद करे ताकि वह अपना फ़िदया अदा करके रिहाई हासिल कर ले, या किसी ग़रीब की गरदन क़र्ज़ के जाल से निकाले या कोई साधनहीन आदमी अगर किसी जुर्माने के बोझ से लद गया हो तो उसकी जान उससे छुड़ाए। इसी तरह वह ख़र्च यह है कि आदमी भूख की हालत में किसी क़रीबी यतीम (यानी रिश्तेदार या पड़ोसी यतीम) और किसी ऐसे लाचार मुहताज को खाना खिलाए जिसे ग़रीबी और भूख की सख़्ती ने धूल में मिला दिया हो, और जिसकी मदद करनेवाला कोई न हो। इन आयतों में नेकी के जिन कामों का उल्लेख किया गया है उनकी बड़ी अहमियत अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने कथनों में बयान फ़रमाई है। जैसे, गरदन छुड़ाने के बारे में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि जिस आदमी ने एक मोमिन ग़ुलाम को आज़ाद किया, अल्लाह उस गुलाम के हर अंग के बदले में आज़ाद करनेवाले आदमी के हर अंग को दोज़ख़ की आग से बचा लेगा। मिस्कीनों (मोहताजों) की मदद के बारे में हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) की हदीस यह है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "विधवा और मिस्कीन की मदद के लिए दौड़-धूप करनेवाला ऐसा है जैसे अल्लाह के रास्ते में जिहाद के लिए दौड़-धूप करनेवाला। (और हज़रत अबू हुरैरा रजि० कहते हैं कि) मुझे यह ख़्याल होता है कि नबी (सल्ल०) ने यह भी फ़रमाया था कि वह ऐसा है जैसे वह आदमी जो नमाज़ में खड़ा रहे और आराम न ले और वह जो लगातार रोज़े रखे और कभी रोज़ा न छोड़े।" (बुख़ारी व मुस्लिम) यतीमों के बारे में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, "मैं और वह आदमी, जो किसी रिश्तेदार या गैर-रिश्तेदार यतीम की सरपरस्ती करे, जन्नत में इस तरह होंगे।" यह फ़रमाकर आपने शहादत की उँगली और बीच की उँगली को उठाकर दिखाया और दोनों उँगलियों के दर्मियान थोड़ी-सी दूरी रखी। (बुख़ारी)
يَتِيمٗا ذَا مَقۡرَبَةٍ ۝ 14
0
أَوۡ مِسۡكِينٗا ذَا مَتۡرَبَةٖ ۝ 15
0
ثُمَّ كَانَ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَتَوَاصَوۡاْ بِٱلصَّبۡرِ وَتَوَاصَوۡاْ بِٱلۡمَرۡحَمَةِ ۝ 16
(17) फिर (इसके साथ यह कि) आदमी उन लोगों में शामिल हो जो ईमान लाए13 और जिन्होंने एक-दूसरे को सब्र और (सृष्टि पर ) दया की ताकीद की।14
13. अर्थात् इन गुणों के साथ यह ज़रूरी है कि आदमी ईमानवाला हो, क्योंकि ईमान के बिना न कोई कर्म भला कर्म है और न अल्लाह के यहाँ वह स्वीकार्य हो सकता है। कुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर इसे स्पष्ट किया गया है कि उसी नेकी की क़द्रो-क़ीमत है और वही नेकी नजात का सबब बनती है जो ईमान के साथ हो, जैसे सूरा-4 अन-निसा, (आयत 124); सूरा-16 अन-नल, (आयत 97); सूरा-40 अल-मोमिन, (आयत 40)। इस जगह पर यह महत्त्वपूर्ण बात भी दृष्टि से न छिपी रहनी चाहिए कि आयत में यह नहीं फ़रमाया गया है कि 'फिर वह ईमान लाया', बल्कि यह फ़रमाया गया है कि 'फिर वह उन लोगों में सम्मिलित हुआ जो ईमान लाए।' इसका अर्थ यह है कि मात्र एक व्यक्ति की हैसियत से अपनी जगह ईमान लाकर रह जाना अभीष्ट नहीं है, बल्कि अभीष्ट यह है कि हर ईमान लानेवाला उन लोगों के साथ मिल जाए जो ईमान लाए हैं, ताकि इस तरह ईमानवालों की एक जमाअत बने, एक ईमानवाला समाज अस्तित्त्व में आए और सामूहिक रूप से उन भलाइयों को क़ायम किया जाए जिनका क़ायम करना, और उन बुराइयों को मिटाया जाए जिनका मिटाना, ईमान का तक़ाज़ा है।
14. ये मोमिन समाज की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं जिनको इन दो छोटे वाक्यों में बयान कर दिया गया है। पहली विशेषता यह है कि उसके लोग एक-दूसरे को सब्र की तलक़ीन करें और दूसरी यह कि वे एक-दूसरे को दया और रहम करने की नसीहत करें । जहाँ तक सब्र का ताल्लुक़ है, हम इससे पहले बार-बार इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं कि कुरआन मजीद जिस व्यापक अर्थ में इस शब्द को प्रयोग करता है उसकी दृष्टि से ईमानवाले की पूरी जिंदगी सब्र की जिंदगी है, और ईमान के रास्ते पर क़दम रखते ही आदमी के सब्र की परीक्षा शुरू हो जाती है। उसे बराबर अपने नफ़्स (मन) और उसकी इच्छाओं से लेकर अपने बाल-बच्चों, अपने परिवार, अपने समाज, अपने देश व क़ौम और दुनिया भर के जिन्न और इंसान रूपी शैतानों की रुकावटों का सामना करना पड़ता रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के रास्ते में हिजरत और जिहाद की नौबत भी आ जाती है। इन सब परिस्थितियों में सब ही की विशेषता आदमी के क़दमों को जमाए रख सकती है। अब यह स्पष्ट बात है कि एक-एक मोमिन अकेले-अकेले इस कठिन परीक्षा में पड़ जाए तो मुश्किल ही से सफल हो सकेगा। इसके विपरीत अगर एक मोमिन समाज ऐसा मौजूद हो जिसका हर व्यक्ति स्वयं भी सब्र करनेवाला हो और जिसके सारे लोग एक-दूसरे को सन की इस व्यापक परीक्षा में सहारा भी दे रहे हों, तो सफलताएँ उस समाज के क़दम चूमेंगी। रही दया, तो ईमानवालों के समाज की विशेषता यही है कि वह एक पत्थर-दिल, निर्दयी और ज़ालिम समाज नहीं होता, बल्कि मानवता के लिए दया करनेवाला, प्रेम-भाव रखनेवाला और आपस में एक-दूसरे का हितैषी और एक-दूसरे का दुख बाँटनेवाला समाज होता है। व्यक्ति की हैसियत से भी एक मोमिन अल्लाह के दया-भाव का प्रतीक होता है और जमाअत की हैसियत से भी ईमानवालों का गिरोह अल्लाह के उस रसूल का प्रतिनिधि है जिसकी प्रशंसा में फ़रमाया गया है, "मैंने आपको पूरी दुनिया के लिए रहमत ही बनाकर भेजा है" (सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 107)। प्यारे नबी (सल्ल०) ने सबसे बढ़कर जिस उच्च नैतिक गुण को अपनी उम्मत (मुस्लिम समुदाय) में पैदा करने और परवान चढ़ाने की कोशिश की है, वह यही दया का गुण है। उदाहरण के रूप में नबी (सल्ल०) के निम्नलिखित कथन देखिए- "अल्लाह उस आदमी पर दया नहीं करता जो इंसानों पर दया नहीं करता।" (बुख़ारी व मुस्लिम) "दया करनेवालों पर दयावान दया करता है। ज़मीनवालों पर दया करो, आसमानवाला तुमपर दया करेगा।" (अबू दाऊद, तिर्मिज़ी) "अभागे आदमी के दिल से दया छीन ली जाती है।" (मुस्नद अहमद, तिर्मिज़ी) इन कथनों से मालूम हो जाता है कि भले कर्म करनेवालों को ईमान लाने के बाद ईमान लानेवालों के गिरोह में शामिल होने की जो हिदायत क़ुरआन मजीद की इस आयत में दी गई है उससे किस प्रकार का समाज बनाना अभीष्‍ट है।
أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ ۝ 17
(18) ये लोग हैं दाएँ बाजूवाले।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِنَا هُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ ۝ 18
(19) और जिन्होंने हमारी आयतों को मानने से इंकार किया, वे वाएँ बाजूवाले हैं।15
15. दाएँ बाज़ू और बाएँ बाज़ू की व्‍याख्‍या के लिए देखें सूरा-56 अल-वाक़िआ, आयत 8, 9, 27, 41, टिप्‍पणियाँ 5-6 सहित।
عَلَيۡهِمۡ نَارٞ مُّؤۡصَدَةُۢ ۝ 19
(20) उनपर आग छाई हुई होगी।16
16. अर्थात आग इस प्रकार उनको हर ओर से घेरे हुए होगी कि उससे निकलने का कोई रास्‍ता न होगा।