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سُورَةُ المُدَّثِّرِ

74. अल-मुद्दस्सिर

(मक्का में उतरी, आयतें 56)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-मुद्दस्सिर' (ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले) को इस सूरा का नाम दिया गया है। यह भी केवल नाम है, विषय-वस्तु की दृष्टि से वार्ताओं का शीर्षक नहीं।

उतरने का समय

इसकी पहली सात आयतें मक्का मुअज़्ज़मा के बिलकुल आरम्भिक काल में अवतरित हुई हैं। पहली वह्य' (प्रकाशना) जो नबी (सल्ल०) पर अवतरित हुई वह "पढ़ो (ऐ नबी), अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया” से लेकर “जिसे वह न जानता था” (सूरा-96 अल-अलक़) तक है। इस पहली वह्य के बाद कुछ समय तक नबी (सल्ल०) पर कोई वह्य अवतरित नहीं हुई। [इस] फ़तरतुल वह्य (वह्य के बन्द रहने की अवधि) का उल्लेख करते हुए [अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वयं कहा है कि] “एक दिन मैं रास्ते से गुज़र रहा था। अचानक मैंने आसमान से एक आवाज़ सुनी। सिर उठाया तो वही फ़रिश्ता जो हिरा की गुफा में मेरे पास आया था, आकाश और धरती के मध्य एक कुर्सी पर बैठा हुआ है । मैं यह देखकर अत्यन्त भयभीत हो गया और घर पहुँचकर मैंने कहा, 'मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ।' अतएव घरवालों ने मुझपर लिहाफ़ (या कम्बल) ओढ़ा दिया। उस समय अल्लाह ने वह्य अवतरित की, 'ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले...।' फिर निरन्तर मुझपर वह्य अवतरित होनी प्रारम्भ हो गई" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुस्नदे-अहमद, इब्ने-जरीर)। सूरा का शेष भाग आयत 8 से अन्त तक उस समय अवतरित हुआ जब इस्लाम का खुल्लम-खुल्ला प्रचार हो जाने के पश्चात् मक्का में पहली बार हज का अवसर आया।

विषय और वार्ता

पहली वह्य (प्रकाशना) में जो सूरा-96 (अलक़) की आरम्भिक 5 आयतों पर आधारित थी, आप (सल्ल०) को यह नहीं बताया गया था कि आप (सल्ल०) किस महान् कार्य पर नियुक्त हुए हैं और आगे क्या कुछ आप (सल्ल०) को करना है, बल्कि केवल एक प्रारम्भिक परिचय कराकर आप (सल्ल.) को कुछ समय के लिए छोड़ दिया गया था ताकि आपके मन पर जो बड़ा बोझ इस पहले अनुभव से पड़ा है उसका प्रभाव दूर हो जाए और आप मानसिक रूप से आगे वह्य प्राप्त करने और नुबूवत के कर्तव्यों के सम्भालने के लिए तैयार हो जाएँ। इस अन्तराल के पश्चात् जब पुन: वह्य के अवतरण का सिलसिला शुरू हुआ तो इस सूरा की आरम्भिक 7 आयतें अवतरित की गई और इनमें पहली बार आप (सल्ल०) को यह आदेश दिया गया कि आप उठें और ईश्वर के पैदा किए हुए लोगों को उस नीति के परिणाम से डराएँ जिसपर वे चल रहे हैं और इस दुनिया में ईश्वर की महानता की उद्घोषणा करें। इसके साथ आप (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि अब जो कार्य आप (सल्ल०) को करना है उसे यह अपेक्षित है कि आप (सल्ल०) का जीवन हर दृष्टि से [अत्यन्त पवित्र, पूर्ण निष्ठा और पूर्ण धैर्य और ईश्वरीय निर्णय पर राज़ी रहने का नमूना हो।] इस ईश्वरीय आदेश के अनुपालन स्वरूप जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस्लाम का प्रचार आरम्भ किया तो मक्का में खलबली मच गई और विरोधों का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। कुछ महीने इसी दशा में व्यतीत हुए थे कि हज का समय आ गया। क़ुरैश के सरदारों ने [इस भय से कि कहीं बाहर से आनेवाले हाजी इस्लाम के प्रचार से प्रभावित न हो जाएँ] एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें यह निश्चय किया कि हाजियों के आते ही उनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के विरुद्ध प्रोपगंडा शुरू कर दिया जाए। इसपर सहमति के पश्चात् वलीद-बिन-मुग़ीरा ने उपस्थित लोगों से कहा कि यदि आप लोगों ने मुहम्मद (सल्ल०) के सम्बन्ध में विभिन्न बातें लोगों से कहीं तो हम सबका विश्वास जाता रहेगा। इसलिए कोई एक बात निर्धारित कर लीजिए जिसे सब एकमत होकर कहें। [इसपर किसी ने आप (सल्ल०) को काहिन, किसी ने दीवाना और उन्मादी, किसी ने कवि और किसी ने जादूगर कहने का प्रस्ताव रखा। लेकिन वलीद इनमें से हर प्रस्ताव को रद्द करता गया। फिर उस] ने कहा कि इन बातों में से जो बात भी तुम करोगे, लोग उसे अनुचित आरोप समझेंगे। अल्लाह की क़सम! उस वाणी में बड़ा माधुर्य है; उसकी जड़ बड़ी गहरी और उसकी डालियाँ फलदार हैं। [अन्त में अबू जहल के आग्रह पर वह स्वयं] सोचकर बोला, "सर्वाधिक अनुकूल बात जो कही जा सकती है वह यह कि तुम अरब के लोगों से कहो कि यह व्यक्ति जादूगर है, यह ऐसी वाणी प्रस्तुत कर रहा है जो आदमी को उसके बाप, भाई, पत्नी, बच्चों और सारे परिवार से जुदा कर देती है।" वलीद की इस बात को सबने स्वीकार कर लिया। [और हज के अवसर पर इसके अनुसार भरपूर प्रोपगंडा किया गया।] किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि कुरैश ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का नाम स्वयं ही सम्पूर्ण अरब में प्रसिद्ध कर दिया, (सीरत इब्ने-हिशाम, प्रथम भाग, पृ० 288-289) । यही घटना है जिसकी इस सूरा के दूसरे भाग में समीक्षा की गई है। इसकी वार्ताओं का क्रम यह है—

आयत 8 से 10 तक सत्य का इनकार करनेवालों को [उनके बुरे परिणाम से] सावधान किया गया है। आयत 11 से 26 तक वलीद-बिन-मुग़ीरा का नाम लिए बिना यह बताया गया है कि अल्लाह ने इस व्यक्ति को क्या कुछ सुख-सामग्रियाँ प्रदान की थीं और उनका प्रत्युत्तर उसने सत्य के विरोध के रूप में दिया है। अपनी इस करतूत के पश्चात् भी यह व्यक्ति चाहता है कि इसे इनाम दिया जाए, जबकि अब यह इनाम का नहीं बल्कि नरक का भागी हो चुका है। इसके बाद आयत 27 से 48 तक नरक की भयावहताओं का उल्लेख किया गया है और यह बताया गया है कि किस नैतिक आधार और चरित्र के लोग उसके भागी हैं। फिर आयत 49 से 53 में इस्लाम-विरोधियों के रोष की अस्ल जड़ बता दी गई है कि वे चूँकि परलोक से निर्भय हैं इसलिए वे कुरआन से भागते हैं और ईमान के लिए तरह-तरह की अनुचित शर्ते पेश करते हैं । अन्त में साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि ख़ुदा को किसी के ईमान की कोई आवश्यकता नहीं पड़ गई है कि वह उसकी शर्ते पूरी करता फिरे। क़ुरआन सामान्य जन के लिए एक उपदेश है जो सबके समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया है। अब जिसका जी चाहे उसको स्वीकार कर ले।

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سُورَةُ المُدَّثِّرِ
74. अल-मुद्दस्सिर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمُدَّثِّرُ
(1) ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले1!
1. [जैसा कि] सूरा के परिचय में इन आयतों के उतरने की पृष्ठभूमि बयान [करते हुए बताया जा चुका है। नबी (सल्ल०) यकायक जिबरील (अलैहि०) को आसमान व ज़मीन के दर्मियान एक कुर्सी पर बैठे देखकर भयभीत हो गए थे और इसी दशा में घर पहुँचकर आप (सल्ल०) ने अपने घरवालों से फ़रमाया था कि मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ। इसलिए अल्लाह ने आप (सल्ल०) को "ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले" कहकर सम्बोधित किया। इस सूक्ष्म सम्बोधन-शैली से अपने आप यह अर्थ निकलता है कि ऐ मेरे प्यारे बन्दे! तुम ओढ़-लपेटकर लेट कहाँ गए, तुमपर तो एक महान कार्य का भार डाला गया है जिसे अंजाम देने के लिए तुम्हें पूरे हौसले के साथ उठ खड़ा होना चाहिए।
قُمۡ فَأَنذِرۡ ۝ 1
(2) उठो और सावधान करो2।
2. मतलब यह है कि ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले, उठो और तुम्हारे आस-पास अल्लाह के जो बन्दे ग़फ़लत की नींद में पड़े हुए हैं उनको चौंकाकर [आख़िरत की पूछ-गछ के बारे में अच्छी तरह] सावधान कर दो।
وَرَبَّكَ فَكَبِّرۡ ۝ 2
(3) और अपने रब की बड़ाई का एलान करो3
3. यह एक नबी का सबसे पहला कार्य है जिसे इस दुनिया में उसे करना होता है। उसका पहला काम ही यह है कि जाहिल (अज्ञानी) इंसान यहाँ जिन-जिन की बड़ाई मान रहे हैं, उन सबको नकार दे और हाँके-पुकारे दुनिया भर में यह एलान कर दे कि इस जगत् में बड़ाई एक खुदा के सिवा और किसी की नहीं है। यही कारण है कि इस्लाम में 'अल्लाहु अकबर' (अल्लाह ही बड़ा है) के कलिमे को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। अज़ान का आरंभ ही 'अल्लाहु अकबर' (अल्लाह ही बड़ा है) के एलान से होता है। नमाज़ में भी मुसलमान तक्बीर [अल्लाहु अकबर] के शब्द कहकर दाखिल होता है और बार-बार 'अल्लाहु अकबर' कहकर उठता और बैठता है। "उठो और सावधान करो" के बाद तुरन्त ही यह कहना कि "अपने रब की बड़ाई का एलान करो" अपने भीतर यह अर्थ भी रखता है कि जो बड़ी-बड़ी हौलनाक शक्तियाँ इस काम में तुम्हें बाधक दिखाई पड़ती हैं उनकी तनिक परवाह न करो और साफ़-साफ़ कह दो कि मेरा रब इन सबसे ज़्यादा बड़ा है। यह बड़े से बड़ा प्रोत्साहन है जो अल्लाह का काम शुरू करनेवाले किसी व्यक्ति का किया जा सकता है।
وَثِيَابَكَ فَطَهِّرۡ ۝ 3
(4) और अपने कपड़े पाक (स्वच्छ) रखो।4
4. ये बड़े व्यापक शब्द हैं जिनके अर्थों में बड़ी व्यापकता है। इनका एक मतलब यह है कि अपने लिबास (वस्त्र) को गन्दगी से पाक रखो, क्योंकि शरीर और लिबास की पवित्रता और आत्मा की पवित्रता दोनों एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हैं। एक पवित्र आत्मा गन्दे शरीर और अपवित्र लिबास में नहीं रह सकती। दूसरा अर्थ इन शब्दों का यह है कि अपना लिबास साफ़-सुथरा रखो। संसार-त्याग संबंधी घटनाओं ने दुनिया में धार्मिकता का मानदंड यह ठहरा रखा था कि आदमी जितना अधिक मैला-कुचैला हो, उतना ही अधिक वह मुक़द्दस (पावन) होता है, हालाँकि इंसानी स्वभाव मैल कुचैल से घृणा करता है। इसी कारण अल्लाह के रास्ते की ओर बुलानेवाले के लिए यह बात ज़रूरी क़रार दी गई कि उसकी ज़ाहिरी हालत भी पवित्र और स्वच्छ होनी चाहिए। तीसरा अर्थ इस कथन का यह है कि अपने लिबास को नैतिक अवगुणों से पाक रखो, तुम्हारा लिबास सुथरा और पवित्र तो ज़रूर हो, मगर उसमें गर्व और घमंड, दिखावा और प्रदर्शन, ठाठ-बाट और शान व शौकत का लेशमात्र तक न होना चाहिए। चौथा अर्थ इसका यह है कि अपना दामन पाक रखो। [अख़्लाक़ की पाकीज़गी और हर प्रकार की बुराइयों से बचने को अपनी पहचान बनाए रहो।]
وَٱلرُّجۡزَ فَٱهۡجُرۡ ۝ 4
(5) और गंदगी से दूर रहो।5
5. गंदगी से मुराद हर प्रकार की गन्दगी है, भले ही वह धारणाओं और विचारों की हो या चरित्र व व्यवहार की या शरीर व लिबास और रहन-सहन की।
وَلَا تَمۡنُن تَسۡتَكۡثِرُ ۝ 5
(6) और उपकार न करो अधिक प्राप्त करने के लिए6।
6. मूल अरबी शब्द हैं 'वला तम्नुन तस्तक्सिर'। इनके अर्थ में बड़ी व्यापकता है। इनका एक मतलब यह है कि जिसपर भी उपकार करो नि:स्वार्थ भाव से [और केवल अल्लाह के लिए] करो। दूसरा मतलब यह है कि नुबूवत (पैग़म्बरी) का जो काम तुम कर रहे हो, यह यद्यपि अपनी जगह एक बहुत बड़ा उपकार है कि तुम्हारी वजह से ख़ुदा के बन्दों को सीधा मार्ग मिल रहा है, मगर उसका कोई एहसान लोगों पर न जताओ और उसका कोई लाभ अपने लिए प्राप्त न करो। तीसरा मतलब यह है कि कभी यह विचार तुम्हारे मन में न आए कि नुबूवत का यह दायित्व पूरा करके तुम अपने रब पर कोई एहसान कर रहे हो।
وَلِرَبِّكَ فَٱصۡبِرۡ ۝ 6
(7) और अपने रब के लिए सब्र करो।7
7. अर्थात् जो काम तुम्हारे सुपुर्द किया जा रहा है, बड़े जान-जोखिम का काम है। मगर जो कुछ भी इस राह में सामने आए, अपने रब के लिए उसपर सब्र करना और अपनी ज़िम्मेदारी को पूरे जमाव और स्थिर स्वभाव (धैर्य) के साथ अंजाम देना।
فَإِذَا نُقِرَ فِي ٱلنَّاقُورِ ۝ 7
(8) अच्छा, जब सूर (नरसिंहा) में फूंक मारी जाएगी,
فَذَٰلِكَ يَوۡمَئِذٖ يَوۡمٌ عَسِيرٌ ۝ 8
(9) वह दिन बड़ा ही कठिन दिन होगा8,
8. जैसा कि हम सूरा के परिचय में बयान कर आए हैं, इस सूरा का यह हिस्सा आरंभिक आयतों के कुछ महीने बाद उस समय उतरा था जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ओर से एलानिया इस्लाम का प्रचार शुरू हो जाने के बाद पहली बार हज का ज़माना आया और क़ुरैश के सरदारों ने एक कान्फ्रेंस करके तय किया कि बाहर से आनेवाले हाजियों को क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) से बदगुमान करने के लिए प्रोपगंडे का एक जोरदार अभियान चलाया जाए। इन आयतों में इस्लाम-विरोधियों की इसी कार्रवाई पर टिप्पणी की गई है, और इस समीक्षा का आरंभ इन शब्दों से किया गया है जिनका मतलब यह है कि अच्छा, ये हरकतें जो तुम करना चाहते हो, कर लो, दुनिया में इनसे कोई उद्देश्य प्राप्त करने की बात तुमने कर भी ली तो उस दिन अपने बुरे अंजाम से कैसे बच निकलोगे जब सूर (नरसिंहा) में फूंक मारी जाएगी और क्रियामत आएगी। (सूर की व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 47; सूरा-14 इबराहीम, टिप्पणी 57: सूरा-20 ता हा, टिप्पणी 78; सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 1; सूरा-36 या-सीन, टिप्पणी 46-47; सूरा 39 अज-जुमर, टिप्पणी 793 सूरा-50 काफ़, टिप्पणी 52)
عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ غَيۡرُ يَسِيرٖ ۝ 9
(10) इंकार करनेवालों के लिए हल्का न होगा9।
9. इस कथन से अपने आप यह नतीजा निकलता है कि वह दिन ईमानवालों के लिए हलका होगा और उसकी सस्ती केवल सत्य का ईकार करनेवालों के लिए खास होगी।
ذَرۡنِي وَمَنۡ خَلَقۡتُ وَحِيدٗا ۝ 10
(11) छोड़ दो मुझे और उस व्यक्ति10 को जिसे मैंने अकेला पैदा किया11,
9. इस कथन से अपने आप यह नतीजा निकलता है कि वह दिन ईमानवालों के लिए हलका होगा और उसकी सस्ती केवल सत्य का ईकार करनेवालों के लिए खास होगी।
10. मतलब यह है कि ऐ नबी! इस्लाम विरोधियों की इस कान्फ्रेंस में जिस व्यक्ति (वलीद-बिन-मुग़ीरह) ने तुम्हें बदनाम करने के लिए यह मशविरा दिया है कि तमाम अरब से आनेवाले हाजियों में तुम्हें जादूगर और कुरआन को जादू मशहूर किया जाए, उसका मामला तुम मुझपर छोड़ दो, उससे निमटना अब मेरा काम है। तुम्हें इसकी चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।
وَجَعَلۡتُ لَهُۥ مَالٗا مَّمۡدُودٗا ۝ 11
(12) बहुत-सा माल उसको दिया।
وَبَنِينَ شُهُودٗا ۝ 12
(13) उसके साथ हाज़िर रहनेवाले बेटे दिए12,
12. वलीद-बिन-मुग़ीरह के दस-बारह लड़के थे जिनमें से हज़रत ख़ालिद-बिन-वलीद इतिहास में सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। इन बेटों के लिए 'शुहूद' का शब्द इस्तेमाल किया गया है जिसके कई अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि उनको कहीं अपनी रोज़ी के लिए दौड़-धूप और सफ़र करने की ज़रूरत नहीं होती, उनके घर खाने को इतना मौजूद है कि हर समय बाप के पास मौजूद और उसकी सहायता के लिए हाज़िर रहते हैं। दूसरा यह कि उसके सब बेटे नामवर और बाअसर हैं, महफ़िलों और मज्लिसों में उसके साथ शरीक होते हैं। तीसरा यह कि वे इस दर्जे के लोग हैं कि मामलों में उनकी गवाही क़ुबूल की जाती है।
وَمَهَّدتُّ لَهُۥ تَمۡهِيدٗا ۝ 13
(14) और उसके लिए रियासत की राह हमवार की,
ثُمَّ يَطۡمَعُ أَنۡ أَزِيدَ ۝ 14
(15) फिर वह लालच रखता है कि मैं उसे और अधिक दूं।13
13. इसका एक मतलब तो यह है कि इसपर भी इसका लोभ समाप्त नहीं हुआ। इतना कुछ पाने के बाद भी वह बस इसी चिन्ता में लगा हुआ है कि उसे दुनिया भर की नेमतें प्रदान कर दी जाएँ। दूसरा मतलब हसन बसरी (रह०) और कुछ दूसरे बुजुर्गों ने यह बयान किया है कि वह कहा करता था कि अगर वास्तव में मुहम्मद (सल्ल०) का यह बयान सच्चा है कि मरने के बाद कोई दूसरी जिंदगी है और इसमें कोई जन्नत भी होगी तो वह जन्नत मेरे ही लिए बनाई गई है।
كَلَّآۖ إِنَّهُۥ كَانَ لِأٓيَٰتِنَا عَنِيدٗا ۝ 15
(16) कदापि नहीं, वह हमारी आयतों के प्रति द्वेष रखता है।
سَأُرۡهِقُهُۥ صَعُودًا ۝ 16
(17) मैं तो उसे बहुत जल्द एक कठिन चढ़ाई चढ़वाऊँगा।
إِنَّهُۥ فَكَّرَ وَقَدَّرَ ۝ 17
(18) उसने सोचा और कुछ बात बनाने की कोशिश की,
فَقُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ ۝ 18
(19-20) तो अल्लाह की मार उसपर, कैसी बात बनाने की कोशिश की। हाँ, अल्लाह की मार उसपर, कैसी बात बनाने की कोशिश की।
ثُمَّ قُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ ۝ 19
0
ثُمَّ نَظَرَ ۝ 20
(21) फिर (लोगों की ओर) देखा,
ثُمَّ عَبَسَ وَبَسَرَ ۝ 21
(22) फिर माथा सुकेड़ा और मुँह बनाया,
ثُمَّ أَدۡبَرَ وَٱسۡتَكۡبَرَ ۝ 22
(23) फिर पलटा और घमंड में पड़ गया!
فَقَالَ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ يُؤۡثَرُ ۝ 23
(24) अन्तत: बोला कि यह कुछ नहीं है, मगर एक जादू जो पहले से चला आ रहा है,
إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا قَوۡلُ ٱلۡبَشَرِ ۝ 24
(25) यह तो एक इंसानी कलाम (वाणी) है14।
14. यह उस घटना का उल्लेख है जो मक्का के इस्लाम विरोधियों के उपर्युक्त कान्फ्रेंस में घटी थी। इसका जो विवरण हम सूरा के परिचय में बयान कर चुके हैं, उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह व्यक्ति दिल में क़ुरआन का ईश्वरीय वाणी होना स्वीकार कर चुका था, लेकिन अपनी क़ौम में सिर्फ़ अपनी प्रतिष्ठा और सत्ता बाक़ी रखने के लिए ईमान लाने पर तैयार न था। इस अवसर पर जिस तरह वह अपनी अन्तरात्मा से लड़ा है और जिस सख्त मानसिक संघर्ष में काफ़ी देर ग्रस्त रहकर अन्ततः उसने [नबी (सल्ल०) के विरुद्ध] एक आरोप गढ़ा है उसका पूरा चित्र यहाँ खींच दिया गया है।
سَأُصۡلِيهِ سَقَرَ ۝ 25
(26) बहुत जल्द मैं उसे दोज़ख़ में झोंक दूंगा
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا سَقَرُ ۝ 26
(27) और तुम क्या जानो कि क्या है वह दोज़ख़?
لَا تُبۡقِي وَلَا تَذَرُ ۝ 27
(28) न बाक़ी रखें, न छोड़े।15
15. अर्थात् जो व्यक्ति भी उसमें डाला जाएगा उसे वह जलाकर राख कर देगी, मगर मरकर भी उसका पीछा न छूटेगा, बल्कि वह फिर जिंदा किया जाएगा और फिर जलाया जाएगा। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि वह अज़ाब के हक़दारों में से किसी को बाक़ी न रहने देगी जो उसकी पकड़ में आए बिना रह जाए और जो भी उसकी पकड़ में आएगा उसे अज़ाब दिए बिना न छोड़ेगी।
لَوَّاحَةٞ لِّلۡبَشَرِ ۝ 28
(29) खाल झुलस देनेवाली16,
16. यह कहने के बाद कि वह शरीर में से कुछ जलाए बिना न छोड़ेगी, खाल झुलस देने के अज़ाब को ख़ास तौर से अलग इसलिए बयान किया गया है कि आदमी के व्यक्तित्व को नुमायाँ करनेवाली चीज़ वास्तव में उसके चेहरे और शरीर की खाल ही होती है जिसकी कुरूपता उसे सबसे अधिक खलती है।
عَلَيۡهَا تِسۡعَةَ عَشَرَ ۝ 29
(30) उन्नीस कार्यकर्ता उसपर नियुक्त हैं-
وَمَا جَعَلۡنَآ أَصۡحَٰبَ ٱلنَّارِ إِلَّا مَلَٰٓئِكَةٗۖ وَمَا جَعَلۡنَا عِدَّتَهُمۡ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيَسۡتَيۡقِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَيَزۡدَادَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِيمَٰنٗا وَلَا يَرۡتَابَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَلِيَقُولَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡكَٰفِرُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَمَا يَعۡلَمُ جُنُودَ رَبِّكَ إِلَّا هُوَۚ وَمَا هِيَ إِلَّا ذِكۡرَىٰ لِلۡبَشَرِ ۝ 30
(31) हमने 17 दोज़ख़ के ये कार्यकर्ता फ़रिश्ते बनाए हैं18 और उनकी संख्या को इंकार करनेवालों के लिए आज़माइश बना दिया है,19 ताकि अहले-किताब को विश्वास हो जाए20 और ईमान लानेवालों का ईमान बढ़े,21 और अहले-किताब और ईमान लानेवाले किसी सन्देह में न रहें21अ और दिल के बीमार22 और इंकार करनेवाले यह कहें कि भला अल्लाह का इस विचित्र बात से क्या मतलब हो सकता है।23 इस तरह अल्लाह जिसे चाहता है, गुमराह कर देता है और जिसे चाहता है, मार्ग दिखा देता है।24 और तेरे रब की सेनाओं को ख़ुद उसके सिवा कोई नहीं जानता।25 -और उस दोज़ख़ का उल्लेख इसके सिवा किसी उद्देश्य के लिए नहीं किया गया है कि लोगों को इससे नसीहत हो।26
17. यहाँ से लेकर "तेरे रब के लश्करों (टुकड़ियों) को खुद उसके सिवा कोई नहीं जानता" तक का पूरा वाक्य सन्दर्भ से हटकर एक सन्निविष्ट वाक्य है जो व्याख्यान के बीच में वार्ता-क्रम को तोड़कर उन आपत्तिकर्ताओं के उत्तर में कहा गया है जिन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुख से यह सुनकर कि दोज़ख़ के कार्यकर्ताओं की संख्या केवल 19 होगी, इसका मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया था। उनको यह बात अजीब मालूम हुई कि एक ओर तो हमसे यह कहा जा रहा है कि आदम के समय से लेकर क़ियामत तक दुनिया में जितने लोगों ने भी कुफ़्र (इंकार) और बड़े गुनाह किए हैं वे दोज़ख़ में डाले जाएँगे और दूसरी ओर हमें यह ख़बर दी जा रही है कि इतनी बड़ी दोज़ख़ में इतने असंख्य इंसानों को अज़ाब देने के लिए सिर्फ़ 19 कार्यकर्ता नियुक्त होंगे।
18. अर्थात् उनकी शक्तियों को मानव-शक्ति जैसी समझना तुम्हारी मूर्खता है। वे आदमी नहीं, फ़रिश्ते होंगे और तुम अन्दाज़ा नहीं कर सकते कि अल्लाह तआला ने कैसी-कैसी ज़बरदस्त ताक़तों के फ़रिश्ते पैदा किए हैं।
21अ. चूँकि अहले-किताब और ईमानवाले फ़रिश्तों की असाधारण शक्तियों को जानते हैं इसलिए उन्हें इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि 19 फ़रिश्ते दोज़ख़ का प्रबन्ध करने के लिए काफ़ी हैं।
22. यहाँ दिल की बीमारी से मुराद सन्देह की बीमारी है। मक्का ही में नहीं, दुनिया भर में पहले भी और आज भी कम लोग ऐसे थे और हैं जो निश्चित रूप से ख़ुदा, आख़िरत, वय, रिसालत, जन्नत और दोज़ख़ आदि का इंकार करते हों । बड़ी संख्या हर काल में उन्हीं लोगों की रही है जो इन चीज़ों के बारे में सन्देह में पड़े रहे हैं। यही सन्देह अधिकतर लोगों को कुफ़्र के स्थान पर खींच ले गया है, वरना ऐसे मूर्ख दुनिया में कभी ज़्यादा नहीं रहे जिन्होंने पूर्ण रूप से इन तथ्यों का इंकार कर दिया हो, क्योंकि ऐसे इंकार के लिए कदापि कोई आधार मौजूद नहीं है।
23. अर्थात् जिस वाणी में ऐसी बुद्धि व समझ से परे की बात कही गई है वह भला अल्लाह की वाणी कैसे हो सकती है।
24. अर्थात् इस तरह अल्लाह अपनी वाणी और आदेशों में समय-समय पर ऐसी बातें इर्शाद फ़रमा देता है जो लोगों के लिए आज़माइश का ज़रोआ बन जाती हैं। एक ही बात होती है जिससे एक सत्यप्रिय और सुशील व्यक्ति सीधी राह [पा लेता है और एक टेढ़ी समझवाला और हठधर्मी व्यक्ति सीधे रास्ते से और दूर हो जाता है। पहला व्यक्ति चूँकि स्वयं सत्यप्रिय होता है, इसलिए अल्लाह [अपने नियमों के अनुसार] उसे सन्मार्ग प्रदान कर देता है और दूसरा व्यक्ति चूँकि स्वयं सीधा रास्ता नहीं चाहता इसलिए अल्लाह उसे गुमराही ही के रास्तों पर धकेल देता है। (अल्लाह के हिदायत देने और गुमराह करने के बारे में [व्याख्या के लिए देखिए] सूरा-2 अल-बक़रा, टिप्पणी 10, 16, 19, 20; सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 172; सूरा-6 अल-अनआम, टिप्पणी 17, 28, 90; सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 13; सूरा-18 अल-कह्फ़, टिप्पणी 54; सूरा-28 अल-क़सस, टिप्पणी 71)
25. अर्थात् अल्लाह ने अपनी इस सृष्टि में कैसी-कैसी और कितनी रचनाएँ पैदा कर रखी हैं और उनको क्या-क्या ताक़तें उसने प्रदान की हैं और उनसे क्या क्या काम वह ले रहा है, इन बातों को अल्लाह के सिवा कोई भी नहीं जानता। इंसान अपनी सीमित दृष्टि से अपने आस-पास की छोटी-सी दुनिया को देखकर अगर इस भ्रम में पड़ जाए कि ख़ुदा की खुदाई में बस वही कुछ है जो उसे अपनी इन्द्रियों या अपने यंत्रों की सहायता से महसूस होता है, तो यह उसकी खुली नासमझी है।
26. अर्थात् लोग अपने आपको उसका अधिकारी बनाने और उसके अज़ाब का मज़ा चखने से पहले होश में आ जाएँ और अपने आपको उससे बचाने की चिंता करें।
كَلَّا وَٱلۡقَمَرِ ۝ 31
(32) कदापि नहीं27, क़सम है चाँद की,
27. अर्थात् यह कोई हवाई बात नहीं है जिसका इस तरह मज़ाक़ उड़ाया जाए।
وَٱلَّيۡلِ إِذۡ أَدۡبَرَ ۝ 32
(33) और रात की जबकि वह पलटती है,
وَٱلصُّبۡحِ إِذَآ أَسۡفَرَ ۝ 33
(34) और सुबह की जबकि वह रौशन होती है,
إِنَّهَا لَإِحۡدَى ٱلۡكُبَرِ ۝ 34
(35) यह दोज़ख़ भी बड़ी चीज़ों में से एक है28,
28. अर्थात् जिस तरह चाँद और रात और दिन अल्लाह की सामर्थ्य की भव्य निशानियाँ हैं, उसी तरह दोज़ख़ भी प्रकृति की भव्य निशानियों में से एक चीज़ है। अगर चाँद का अस्तित्व असंभव न था, अगर रात और दिन का इस नियमितता के साथ आना असंभव न था तो दोज़ख़ का अस्तित्व आख़िर क्यों तुम्हारे विचार में असंभव हो गया? इन चीज़ों को चूँकि तुम रात-दिन देख रहे हो इसलिए तुम्हें इनपर कोई आश्चर्य नहीं होता, वरना अपनी ज़ात में ये भी अल्लाह की सामर्थ्य के अत्यन्त आश्चर्यजनक चमत्कार हैं जो अगर तुम्हारे देखने में न आए होते तो तुम जैसे लोग [उनका] वर्णन सुनकर भी उसी तरह ठठू मारते जिस तरह दोज़ख़ का ज़िक्र सुनकर ठठू मार रहे हो।
نَذِيرٗا لِّلۡبَشَرِ ۝ 35
(36) इंसानों के लिए डरावा,
لِمَن شَآءَ مِنكُمۡ أَن يَتَقَدَّمَ أَوۡ يَتَأَخَّرَ ۝ 36
(37) तुममें से हर उस आदमी के लिए डरावा जो आगे बढ़ना चाहे या पीछे रह जाना चाहे।29
29. मतलब यह है कि इस चीज़ से लोगों को डरा दिया गया है। अब जिसका जी चाहे उससे डरकर भलाई के रास्ते पर आगे बढ़े और जिसका जी चाहे पीछे हट जाए।
كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡ رَهِينَةٌ ۝ 37
(38) हर आदमी अपनी कमाई के बदले रेहन है30,
30. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-52 तूर, टिप्पणी 16
إِلَّآ أَصۡحَٰبَ ٱلۡيَمِينِ ۝ 38
(39) दाएँ बाजूवालों के सिवा31,
31. दूसरे शब्दों में बाएँ बाजूवाले तो अपनी कमाई के बदले में पकड़ लिए जाएँगे, लेकिन दाएँ बाजूवाले अपना रेहन छुड़ा लेंगे। (दाएँ बाजू और बाएँ बाजू की व्याख्या के लिए देखिए, सूरा 56 वाक़िआ, टिप्पणी 5-6)
فِي جَنَّٰتٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 39
(40-41) जो जन्नतों में होंगे, वे अपराधियों से पूछेगे32,
32. अर्थात् जन्नत में बैठे-बैठे वे दोज़ख के लोगों से बात करेंगे और यह प्रश्न करेंगे। इससे पहले कई जगहों पर क़ुरआन मजीद में यह बात गुज़र चुकी है कि जन्नतवाले और दोज़ख़वाले एक-दूसरे से हज़ारों-लाखों मील दूर होने के बावजूद, जब चाहेंगे, एक-दूसरे को किसी यंत्र और मशीन की सहायता के बिना देख सकेंगे और एक-दूसरे से सीधे-सीधे बातें कर सकेंगे। उदाहरण के रूप में देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 44-50, टिप्पणी 35%; सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, आयत 50-57, टिप्पणी 32
عَنِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 40
0
مَا سَلَكَكُمۡ فِي سَقَرَ ۝ 41
(42) "तुम्हें क्या चीज़ दोज़ख़ में ले गई?"
قَالُواْ لَمۡ نَكُ مِنَ ٱلۡمُصَلِّينَ ۝ 42
(43) वे कहेंगे, "हम नमाज़ पढ़नेवालों में से न थे33,
33. [यह एक स्पष्ट वास्तविकता है] कि नमाज़ कोई आदमी उस समय तक पढ़ ही नहीं सकता जब तक वह ईमान न लाया हो। इसलिए नमाज़ियों में से होना आपसे आप ईमान लानेवालों में से होना क़रार पा जाता है, लेकिन नमाज़ियों में से न होने को दोज़ख़ में जाने का कारण बताकर यह बात साफ़ कर दी गई कि ईमान लाकर भी आदमी दोज़ख़ से नहीं बच सकता अगर वह नमाज़ का छोड़नेवाला हो।
وَلَمۡ نَكُ نُطۡعِمُ ٱلۡمِسۡكِينَ ۝ 43
(44) और मुहताज को खाना नहीं खिलाते थे34,
34. इससे मालूम होता है कि किसी इंसान को भूख में ग्रस्त देखना और सामर्थ्य रखने के बावजूद उसको खाना न खिलाना इस्लाम की निगाह में कितना बड़ा गुनाह है कि आदमी के दोज़ख़ी होने के कारणों में खास तौर से इसका उल्लेख किया गया है।
وَكُنَّا نَخُوضُ مَعَ ٱلۡخَآئِضِينَ ۝ 44
(45) और सत्य के विरुद्ध बातें बनानेवालों के साथ मिलकर हम भी बातें बनाने लगते थे,
وَكُنَّا نُكَذِّبُ بِيَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 45
(46) और बदला दिए जाने के दिन को झूठ क़रार देते थे,
حَتَّىٰٓ أَتَىٰنَا ٱلۡيَقِينُ ۝ 46
(47) यहाँ तक कि हमें उस विश्वसनीय चीज़ से मामला आ पड़ा।’’35
35. अर्थात् मरते दम तक हम इस नीति पर जमे रहें, यहाँ तक कि वह निश्चित वस्तु हमारे सामने आ गई जिससे हम ग़ाफ़िल थे। निश्चित वस्तु से मुराद मौत भी है और आख़िरत भी।
فَمَا تَنفَعُهُمۡ شَفَٰعَةُ ٱلشَّٰفِعِينَ ۝ 47
(48) उस वक़्त सिफ़ारिश करनेवालों की कोई सिफ़ारिश उनके किसी काम न आएगी।36
36. अर्थात् ऐसे लोग जिन्होंने मरते दम तक यह नीति अपनाए रखी हो उनके पक्ष में अगर कोई सिफ़ारिश करनेवाला सिफारिश करे भी तो उसे माफ़ी नहीं मिल सकती। सिफ़ारिश के मसले [की व्याख्या के लिए नीचे की आयतें और उनका स्पष्टीकरण] देखिए सूरा-2 अल-बकरा, आयत 255; सूरा-6 अल-अनआम, आयत 94; सूरा-7 अल-आराफ, आयत 53; सूरा-10 यूनुस, आयत 3-18; सूरा-19 मरयम, आयत 87; सूरा-20 ता-हा, आयत 109; सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 28; सूरा-34 सबा, आयत 233; सूरा-39 अज़-जुमर, आयत 43-44; सूरा-40 अल मोमिन, आयत 18; सूरा-44 अद-दुखान, आयत 86; सूरा-53 अन-नज्म, आयत 26; सूरा-78 अन-नबा, आयत 37-38
فَمَا لَهُمۡ عَنِ ٱلتَّذۡكِرَةِ مُعۡرِضِينَ ۝ 48
(49) आख़िर इन लोगों को क्या हो गया है कि ये इस उपदेश से मुँह मोड़ रहे हैं,
كَأَنَّهُمۡ حُمُرٞ مُّسۡتَنفِرَةٞ ۝ 49
(50-51) मानो ये जंगली गधे हैं जो शेर से डरकर भाग पड़े हैं।37
37. यह एक अरबी मुहावरा है। जंगली गधों की यह विशेषता होती है कि ख़तरा भाँपते ही वे इतने बद-हवास होकर भागते हैं कि कोई दूसरा जानवर इस तरह नहीं भागता। इसलिए अरबवाले असामान्य रूप से बदहवास होकर भागनेवालों को उन 'जंगली गधों' से उपमा देते हैं जो शेर की गंध या शिकारियों की आहट पाते ही भाग खड़े हों।
فَرَّتۡ مِن قَسۡوَرَةِۭ ۝ 50
0
بَلۡ يُرِيدُ كُلُّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ أَن يُؤۡتَىٰ صُحُفٗا مُّنَشَّرَةٗ ۝ 51
(52) बल्कि इनमें से तो हर एक यह चाहता है कि उसके नाम खुले पत्र भेजे जाएँ।38
38. अर्थात् ये चाहते हैं कि अल्लाह ने अगर वास्तव में मुहम्मद (सल्ल०) को नबी नियुक्त किया है तो वह मक्का के एक-एक सरदार और एक-एक चौधरी के नाम एक पत्र लिखकर भेजे कि मुहम्मद हमारे नबी हैं, तुम इनका अनुपालन स्वीकार करो। और ये पत्र ऐसे हों जिन्हें देखकर इन्हें विश्वास हो जाए कि अल्लाह ही ने ये लिखकर भेजे हैं।
كَلَّاۖ بَل لَّا يَخَافُونَ ٱلۡأٓخِرَةَ ۝ 52
(53) कदापि नहीं, असल बात यह है कि ये आख़िरत का भय नहीं रखते39।
39. अर्थात् इनके ईमान न लाने की असल वजह यह नहीं है कि इनकी ये मांग पूरी नहीं की जाती, बल्कि असल वजह यह है कि ये आखिरत से निर्भय है। इन्हें यह फ़िक्र नहीं है कि इस दुनिया की जिंदगी के बाद कोई और जिंदगी भी है जिसमें उनको अपने कर्मों का हिसाब देना होगा। इसी चीज़ ने इनको दुनिया में निश्चित और ग़ैर-ज़िम्मेदार बना दिया है। और इसी वजह से ये सत्य और असत्य के प्रश्न ही को सिरे से निरर्थक समझते हैं।
كَلَّآ إِنَّهُۥ تَذۡكِرَةٞ ۝ 53
(54) कदापि नहीं40, यह तो एक उपदेश है,
40. अर्थात् उनकी ऐसी कोई माँग कदापि पूरी न की जाएगी।
فَمَن شَآءَ ذَكَرَهُۥ ۝ 54
(55) अब जिसका जी चाहे इससे शिक्षा प्राप्त कर ले।
وَمَا يَذۡكُرُونَ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ هُوَ أَهۡلُ ٱلتَّقۡوَىٰ وَأَهۡلُ ٱلۡمَغۡفِرَةِ ۝ 55
(56) और ये कोई शिक्षा प्राप्त न करेंगे सिवाय इसके कि अल्लाह ही ऐसा चाहे।41 वह इसका हक़दार है कि उसका डर रखा जाए42 और वह इस योग्य है कि (डरनेवालों को) क्षमा कर दे।43
41. अर्थात् किसी आदमी का शिक्षा प्राप्त करना सरासर उसी के अपने चाहने ही पर निर्भर नहीं है, बल्कि उसे शिक्षा उसी समय मिलती है जब कि अल्लाह भी यही चाहता हो कि वह उसे शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य प्रदान करे।
42. अर्थात् तुम्हें अल्लाह की नाराज़ी से बचने का जो उपदेश दिया जा रहा है वह इसलिए नहीं है कि अल्लाह को इसकी ज़रूरत है और अगर तुम ऐसा न करो तो उससे अल्लाह की कोई हानि होती है, बल्कि यह उपदेश इस कारण दिया जा रहा है कि अल्लाह का यह हक है कि उसके बन्दे उसकी प्रसन्नता चाहें और उसकी मर्जी के विरुद्ध न चलें।