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سُورَةُ المَعَارِجِ

70. अल-मआरिज

(मक्का में उतरी, आयतें 44)

परिचय

नाम

तीसरी आयत के शब्द 'ज़िल-मआरिज' (उत्थान की सीढ़ियों का मालिक) से उद्धृत है।

उतरने का समय

इसकी विषय-वस्तुएँ इसकी साक्षी हैं कि इसका अवतरण भी लगभग उन्हीं परिस्थितियों में हुआ है जिनमें सूरा-69 (अल-हाक़्क़ा) अवतरित हुई थी।

विषय और वार्ता

इसमें उन इस्लाम-विरोधियों (इनकार करनेवालों) को चेतावनी दी गई है और उन्हें उपदेश दिया गया है जो क़ियामत और आख़िरत (प्रलय एवं परलोक) की ख़बरों का मज़ाक़ उड़ाते थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को चुनौती देते थे कि यदि तुम सच्चे हो तो वह क़ियामत ले आओ जिससे तुम हमें डराते हो। इस सूरा का सम्पूर्ण अभिभाषण इस चुनौती के जवाब में है। आरम्भ में कहा गया है कि माँगनेवाला यातना माँगता है। वह यातना इनकार करनेवालों पर अवश्य ही घटित होकर रहेगी। किन्तु वह अपने समय पर घटित होगी। अत: इनके मज़ाक़ उड़ाने पर धैर्य से काम लो। ये उसे दूर देख रहे हैं और हम उसे निकट देख रहे हैं। फिर बताया गया है कि क़ियामत, जिसके शीघ्र आने की माँग ये लोग हँसी और खेल समझकर कर रहे हैं, कैसी कष्टदायक वस्तु है और जब वह आएगी तो इन अपराधियों की कैसी बुरी गत होगी। इसके बाद लोगों को अवगत कराया गया है कि उस दिन इंसानों के भाग्य का निर्णय सर्वथा उनकी धारणा और नैतिक स्वभाव और कर्म के आधार पर किया जाएगा। जिन लोगों ने संसार में सत्य की ओर से मुँह मोड़ा है वे नरक के भागी होंगे और जो यहाँ ईश्वरीय यातना से डरे हैं, परलोक को माना है [अच्छे कर्म और अच्छे नैतिक स्वभाव से अपने आपको सुसज्जित कर रखा है,] उनका जन्नत (स्वर्ग) में प्रतिष्ठित स्थान होगा। अन्त में मक्का के उन इस्लाम-विरोधियों को, जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को देखकर आपका मज़ाक़ उड़ाने के लिए चारों ओर से टूटे पड़ते थे, सावधान किया गया है कि यदि तुम न मानोगे तो सर्वोच्च ईश्वर तुम्हारे स्थान पर दूसरे लोगों को ले आएगा और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को नसीहत की गई है कि इनके मज़ाक़ की परवाह न करें। ये लोग यदि क़ियामत का अपमान देखने का हठ कर रहे हैं तो इन्हें इनके अपने अशिष्ट कार्यों में व्यस्त रहने दें, अपना बुरा परिणाम ये स्वयं देख लेंगे।

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سُورَةُ المَعَارِجِ
70. अल-मआरिज
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
سَأَلَ سَآئِلُۢ بِعَذَابٖ وَاقِعٖ
(1) माँगनेवाले ने अजाब (यातना) माँगा है1, (वह अजाब) जो ज़रूर घटित होनेवाला है,
1. मूल अरबी शब्द है 'स-अ-ल साइलुन'। कुछ टीकाकारों ने यहाँ माँगने' को पूछने के अर्थ में लिया है, लेकिन अधिकांश टीकाकारों ने इस जगह सवाल को माँगने और मुतालबा करने के अर्थ में लिया है । नसई [आदि] ने रिवायत की है कि नब बिन हारिस ने कहा था, "ऐ ख़ुदा। अगर यह वास्तव में तेरी ही ओर से सत्य है तो हमपर आसमान से पत्थर बरसा दे या हमपर दर्दनाक अजाब ले आ।" इसके अलावा बहुत-सी जगहों पर क़ुरआन मजीद में मक्का के इस्लाम विरोधियों की इस चुनौती का उल्लेख किया गया है कि जिस अज़ाब से तुम हमें डराते हो, वह ले क्यों नहीं आते ? उदाहरण के रूप में नीचे की जगहों को देखिए- सूरा- 10 यूनुस, आयत 46-48, सूरा 21 अल अंखिया, आयत 36 47; सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 67-72; सूरा-34 सवा, आयत 26-30; मूग 36 या सीन, आयत 45-52; सूरा-67 अल-मुल्क, आयत 24-27
لِّلۡكَٰفِرِينَ لَيۡسَ لَهُۥ دَافِعٞ ۝ 1
(2) इंकारियों के लिए है, कोई उसे टालनेवाला नहीं,
مِّنَ ٱللَّهِ ذِي ٱلۡمَعَارِجِ ۝ 2
(3) उस अल्लाह की ओर से है जो उत्थान की सीढ़ियों का मालिक है2।
2. मूल अरबी में शब्द 'जिल मआरिज' प्रयुक्त हुआ है। मआरिज 'मिअरज' का बहुवचन है जिसका अर्थ जीना या मौली या ऐसी चीज है जिसके जरीए से ऊपर चढ़ा जाए। अल्लाह को मआरिजवाला कहने का अर्थ यह है कि उसकी जात अत्यन उच्च और श्रेष्ठ है और उसके पास पहुँचने के लिए फ़रिश्तों को निरन्तर बुलन्द्रियों से गुजरना होता है, जैसा कि बादवाली आयत में फ़रमाया गया है।
تَعۡرُجُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَٱلرُّوحُ إِلَيۡهِ فِي يَوۡمٖ كَانَ مِقۡدَارُهُۥ خَمۡسِينَ أَلۡفَ سَنَةٖ ۝ 3
(4) फ़रिश्ते और रूह3 उसके पास चढ़कर जाते हैं4, एक ऐसे दिन में जिसकी माप पचास हज़ार साल है।5
3. रूह से तात्‍पर्य जिबरील (अलैहि०) है और रिश्तों से अलग उनका उल्लेख उनकी महानता के कारण किया गया है। सूरा 20 शुभग, आयत 191 194 और सूरा 2 बक़रा, आयत 971 को मिलाकर पढ़ने से मालूम हो जाता है कि तात्यय जिबरील (अलैहि०) ही हैं।
4. यह विषय अस्‍पष्‍ट और उपलक्षित बातों में से है जिसका अर्थ निश्चित रूप से बताया नहीं किया जा सकता। हम न फ़रिश्तों की वास्तविकता को जानते हैं, न उनके चढ़ने की स्थिति को समझ सकते हैं, न यह बात हमारी बुद्धि की पकड़ में आ सकती है कि वे सीढ़ियाँ कैसी हैं जिन पर फ़रिश्ते चढ़ते हैं और अल्लाह के बारे में भी यह कल्पना नहीं की जा सकती कि वह किसी विशेष स्थान पर रहता है, क्योंकि उसकी जात समय और स्थान की सीमाओं से परे है।
فَٱصۡبِرۡ صَبۡرٗا جَمِيلًا ۝ 4
(5) अत: ऐ नबी! धैर्य रखो, शिष्ट धैर्य6।
6. अर्थात् ऐसा धैर्य जो एक विशालहृदय व्यक्ति के योग्य है।
إِنَّهُمۡ يَرَوۡنَهُۥ بَعِيدٗا ۝ 5
(6) ये लोग उसे दूर समझते हैं
وَنَرَىٰهُ قَرِيبٗا ۝ 6
(7) और हम उसे क़रीब देख रहे हैं।7
7. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि ये लोग उसे सम्भावना से परे समझते हैं और हमारे नजदीक वह बहुत जल्द घटित होनेवाली है। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है ये लोग कियामत को बड़ी दूर को चीज समझते है और हमारी दृष्टि में वह इतनी ज्यादा करीव है मानो कल पेश आनेवाली है।
يَوۡمَ تَكُونُ ٱلسَّمَآءُ كَٱلۡمُهۡلِ ۝ 7
(8) (यह अज़ाब उस दिन होगा) जिस दिन8 आसमान पिघली हुई चाँदी की तरह हो जाएगा9
8. टीकाकारों में से एक गरोह ने इस वाक्य का ताल्लुक एक ऐसे दिन में जिसकी माप पचास हजार साल है' से माना है और वे कहते है कि पचार हजार साल की अवधि जिस दिन की बताई गई है उससे मुराद क़ियामत का दिन है।
9. अर्थात बार-बार रंग बदलेगा।
وَتَكُونُ ٱلۡجِبَالُ كَٱلۡعِهۡنِ ۝ 8
(9) और पहाड़ रंग-बिरंग के धुनके हुए ऊन जैसे हो जाएँगे10
10. चूँकि पहाड़ों के रंग अलग-अलग हैं, इसलिए जब वे अपनी जगह से उखड़कर और भारहीन होकर उड़ने लगेंगे तो ऐसे मालूम होंगे जैसे रंग-बिरंग का धुनका हुआ ऊन उड़ रहा हो।
وَلَا يَسۡـَٔلُ حَمِيمٌ حَمِيمٗا ۝ 9
(10) और कोई घनिष्ट मित्र अपने घनिष्ट मित्र को न पूछेगा,
يُبَصَّرُونَهُمۡۚ يَوَدُّ ٱلۡمُجۡرِمُ لَوۡ يَفۡتَدِي مِنۡ عَذَابِ يَوۡمِئِذِۭ بِبَنِيهِ ۝ 10
(11) हालाँकि वे एक-दूसरे को दिखाए जाएँगे11। अपराधी चाहेगा उस दिन के अज़ाब से बचने के लिए अपनी सन्तान को,
11. अर्थात् हर एक आँखों से देख रहा होगा कि दूसरे पर क्या बन रही है और फिर वह उसे न पूछेगा, क्योंकि उसे अपनी ही पड़ी होगी।
وَصَٰحِبَتِهِۦ وَأَخِيهِ ۝ 11
(12) अपनी बीवी को, अपने भाई को,
وَفَصِيلَتِهِ ٱلَّتِي تُـٔۡوِيهِ ۝ 12
(13) अपने करीबी खानदान को जो उसे पनाह देनेवाला था
وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا ثُمَّ يُنجِيهِ ۝ 13
(14) और धरती के सब लोगों को फ़िदया (बदले के रूप) में दे दे और यह उपाय उसे मुक्ति दिला दे।
كَلَّآۖ إِنَّهَا لَظَىٰ ۝ 14
(15) कदापि नहीं, वह तो भड़कती हुई आग की लपट होगी
نَزَّاعَةٗ لِّلشَّوَىٰ ۝ 15
(16) जो मांस और त्वचा को बाट जाएगी,
تَدۡعُواْ مَنۡ أَدۡبَرَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 16
(17) पुकार-पुकारकर अपनी ओर बुलाएगी हर उस व्यक्ति को जिसने सत्य से मुँह मोड़ा और पीठ फेरी
وَجَمَعَ فَأَوۡعَىٰٓ ۝ 17
(18) और माल जमा किया और सैंत-सैंतकर रख।12
12. यहाँ भी सूरा-69 अल-हाका, आयत 33-34 की तरह आखिरत में आदमी के बुरे अंजाम के दो कारण बयान किए गए हैं। एक सत्य से विमुखता और ईमान लाने से इंकार। दूसरे दुनियापरस्ती और कंजूसी, जिसके कारण आदमी माल जमा करता है और उसे किसी भलाई के काम में खर्च नहीं करता।
۞إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ خُلِقَ هَلُوعًا ۝ 18
(19) इंसान थुडदिला पैदा किया गया है13,
13. जिस बात की हम अपनी भाषा में यू कहते है कि" यह बात इंसान के स्वभाव में है" या "यह इंसान की स्वाभाविक कमजोरी ", इसी को अल्लाह इस तरह बयान फरमाता है कि "इंसान ऐसा पैदा किया गया है।" इस जगह यह बात दृष्टि में रहनी चाहिए कि कुरआन मजीद में बहुत-से अवसरों पर मानव-जाति की आम नैतिक कमजोरियों का उल्लेख करने के बाद ईमान लानेवाले और सीधा रास्ता अपनानेवाले लोगों को इसका अपवाद नाराणा गया है और यही विषय आगे की आयतों में भी आ रहा है। इससे यह भारतविकता अपने आप मष्ट हो जाती है कि अमजात कमारियाँ ऐसी नहीं हैं जिन्हें दूर न किया जा सके बल्कि इंसान अगर खुदा के भेजे हुए सन्मार्ग को अपना कर अपने मन के सुधार के लिए व्यावहारिक रूप से कोशिश करे तो इनको दूर कर सकता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिर, सूर-2 अल-बिया टिप्पणी 47; सूरा-39 अज-जुमर, टिप्पणी 23, 28; सूरा-42 अश-शूरा, टिमणी 75)
إِذَا مَسَّهُ ٱلشَّرُّ جَزُوعٗا ۝ 19
(20) जब उसपर मुसीबत आती है तो घबरा उठता है
وَإِذَا مَسَّهُ ٱلۡخَيۡرُ مَنُوعًا ۝ 20
(27) और जब उसे सुख-सम्पन्नता प्राप्त होती है तो कंजूसी करने लगता है,
إِلَّا ٱلۡمُصَلِّينَ ۝ 21
(22) मगर वे लोग (इस दोष से बचे हुए हैं) जो नमाज पढ्नेवाले हैं14,
14. किसी व्यक्ति का नमाज पढ़ना अनिवार्य रूप से यह अर्थ रखता है कि वह ईमान भी रखता है और अब इस ईमान के अनुसार कर्म भी करने की कोशिश कर रहा है।
ٱلَّذِينَ هُمۡ عَلَىٰ صَلَاتِهِمۡ دَآئِمُونَ ۝ 22
(23) जो अपनी नमाज की सदा पाबन्दी करते हैं15,
15. अर्थात् किसी प्रकार की सुस्ती और आरामतलबी या व्यस्तता या दिलचस्पी उनकी नमाज को पाबन्दी रुकावट नहीं होती। जो अपनी नमाज को सदा पाबन्दी करते हैं के एक और अर्थ हजरत उकया कि आमिर ने यह बताए हैं कि वे पूर्ण एकाग्रता और विनम्रता के साथ नमाज अदा करते हैं। अरबो मुहावरे ठहरे हुए पानी को 'माए-दाइम' कहा जाता है, इसी से यह अर्थ लिया गया है।
وَٱلَّذِينَ فِيٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ حَقّٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 23
(24-25) जिनके मालों में मांगनेवालों और महरूम (पाने से रह जानेवाले) लोगों का एक निश्चित हक़ है16,
16. कुछ लोगों [का विचार] है कि निश्चित हक़ से मुराद फर्ज़ ज़कात है, क्योंकि उसी में मात्रा और दरदो पी निश्चित कर दी गई है। लेकिन यह अर्थ इस कारण स्वीकार्य नहीं किया जा सकता है कि इस पर सभी विद्वान महमत है कि सूरा मआरिज मक्का में अवतरित हुई है और जकात एक विशेष मात्रा दर के साथ मदीना में हुई है। इसलिए निश्चित हक का सही अर्थ यह है कि उन्होंने ख़ुद अपने मा में मांगनेवाले और महरूम का एक हिस्सा तय कर रखा है जिसे वे उनका हक समझकर अदा करो चही अर्थ हजरत अब्दुल्लाह बिन अब्बाका (रजि०), हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर मुजाहिद (रब के साथी और इबराहीम नखई (रह०) ने बयान किया है। माँगनेवालों से मुराद पेशेवर भिखारी नहीं, बल्कि वह जरूरतमंद आदमी है जो किसी से मदद मांगे ऐसा आदमी है जो बेरोजगार हो या रोजी कमाने की कोशिश करता हो मगर उसकी ज़कात न पूरी होगी हाँ यह किसी दुर्घटना या मुसीबत का शिकार होकर मुहताज हो गया हो या रोज़ी कमाने योग्‍य ही न हो। (और अधिक व्‍याख्‍या के लिए देखिए, टीका सूरा-51 अज-जारियात, टिप्पणी 17)
لِّلسَّآئِلِ وَٱلۡمَحۡرُومِ ۝ 24
0
وَٱلَّذِينَ يُصَدِّقُونَ بِيَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 25
(26) जो बदला पाने के दिन को सच मानते हैं17,
17. अर्थात दुनिया में अपने आपको ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह नहीं समझते, बल्कि इस बात में विश्‍वास रखते है कि एक दिन उसे अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर होकर अपने कर्मों का हिसाब देना होगा।
وَٱلَّذِينَ هُم مِّنۡ عَذَابِ رَبِّهِم مُّشۡفِقُونَ ۝ 26
(27) जो अपने रब से अज़ाब से डरते हैं18,
18. दूसरे शब्दों में वह अपनी हद तक आचरण और कमों में नेक रवैया अपनाने के बावजूद खुदा से डरते रहते हैं और यह डर उनको लगा रहता है कि कहीं खुदा की अदालत में हमारी कोताहियाँ हमारी नेकियों से बढ़कर न निकलें और हम सज़ा के अधिकारी न क़रार पा जाएँ। (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 54; सूरा-51 अज़-जारियात, टिप्पणी 19)
إِنَّ عَذَابَ رَبِّهِمۡ غَيۡرُ مَأۡمُونٖ ۝ 27
(28) क्योंकि उनके रब का अज़ाब ऐसी चीज़ नहीं है जिससे कोई निर्भय हो,
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِفُرُوجِهِمۡ حَٰفِظُونَ ۝ 28
(29) जो अपने गुप्तांगों की रक्षा करते हैं19
19. गुप्तांगों की रक्षा से मुराद व्यभिचार (जिना) से बचना भी है और बेशर्मी और नग्नता से बचना भी। (व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 6; सूरा-24 अन-नूर, टिप्पणी 30, 32; सूरा-33 अल अहजाब, टिप्पणी 62)
إِلَّا عَلَىٰٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَإِنَّهُمۡ غَيۡرُ مَلُومِينَ ۝ 29
(30) -सिवाय अपनी बीवियों या अपनी बांदियों के जिनसे सुरक्षित न रखने में उनपर कोई मलामत नहीं।
فَمَنِ ٱبۡتَغَىٰ وَرَآءَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡعَادُونَ ۝ 30
(31) अलबत्ता जो इसके अलावा कुछ और चाहें, वही सीमाओं का उल्लंघन करनेवाले हैं20
20. व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 7
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِأَمَٰنَٰتِهِمۡ وَعَهۡدِهِمۡ رَٰعُونَ ۝ 31
(32) -जो अपनी अमानतों की हिफ़ाज़त करते और अपने वादों का ध्यान रखते हैं21,
21. अमानतों से मुराद वे अमानते भी हैं जो अल्लाह ने बन्दों के सुपुर्द को हैं और वे अमानतें भी जो इनसान किसी दूसरे इनसान पर भरोसा करके उसके हवाले करता है। इसी तरह वादों से मुराद वे वादे भी हैं जो बन्दा अपने ख़ुदा से करता है और वे वादे भी जो बन्दे एक-दूसरे से करते हैं । इन दोनों प्रकार की अमानतों और दोनों प्रकार के वादों और अनुबंधों का लिहाज और प्रतिपालन एक मोमिन के आचरण के अनिवार्य गुणों में से है।
وَٱلَّذِينَ هُم بِشَهَٰدَٰتِهِمۡ قَآئِمُونَ ۝ 32
(33) जो अपनी गवाहियों में सच्चाई पर जमे रहते हैं22,
22. अर्थात् न गवाही छिपाते हैं, न इसमें कोई कमी-बेशी करते हैं।
وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَلَىٰ صَلَاتِهِمۡ يُحَافِظُونَ ۝ 33
(34) और जो अपनी नमाज़ की रक्षा करते हैं।23
23. इससे नमाज़ के महत्त्व का अनुमान होता है। जिस उच्च चरित्र व आचरण के लोग ख़ुदा की जन्नत के हक़दार ठहराए गए हैं, उनके गुणों का उल्लेख नमाज़ ही से आरंभ और उसी पर समाप्त किया गया है। नमाज़ी होना उनका पहला गुण है। नमाज़ का सदा पाबन्द रहना उनका दूसरा गुण और नमाज़ की रक्षा करना उनका अन्तिम गुण। [(अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-23 मोमिनून, टिप्पणी 9)]
أُوْلَٰٓئِكَ فِي جَنَّٰتٖ مُّكۡرَمُونَ ۝ 34
(35) ये लोग इज़्ज़त के साथ जन्नत के बागों में रहेंगे।
فَمَالِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ قِبَلَكَ مُهۡطِعِينَ ۝ 35
(36, 37) अतः ऐ नबी! क्या बात है कि ये इंकार करनेवाले दाएँ और बाएँ से गरोह के गरोह तुम्हारी ओर दौड़े चले आ रहे हैं?24
24. यह उन लोगों का उल्लेख है जो नबी (सल्ल०) के सन्देश का प्रचार और क़ुरआन के पाठ की आवाज़ सुनकर मज़ाक उड़ाने और चोटें कसने के लिए चारों ओर से दौड़ पड़ते थे।
عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَعَنِ ٱلشِّمَالِ عِزِينَ ۝ 36
0
أَيَطۡمَعُ كُلُّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ أَن يُدۡخَلَ جَنَّةَ نَعِيمٖ ۝ 37
(38) क्या इनमें से हर एक यह लालच रखता है कि वह नेमत भरी जन्नतों में दाख़िल कर दिया जाएगा?25
25. अर्थ यह है कि ख़ुदा की जन्नत तो उन लोगों के लिए है जिनके गुण अभी-अभी बयान किए गए हैं। अब क्या ये लोग जो सत्य बात सुनना गवारा नहीं करते और सत्य की आवाज़ को दबा देने के लिए यूँ दौड़े चले आ रहे हैं, जन्नत के उम्मीदवार हो सकते हैं? क्या ख़ुदा ने अपनी जन्नत ऐसे ही लोगों के लिए बनाई है? इस जगह पर सूरा-68 अल-कलम की आयतें 34-41 भी दृष्टि में रहनी चाहिए जिनमें मक्का के इस्लाम-विरोधियों को उनकी इस बात का जवाब दिया गया है कि आखिरत अगर हुई भी तो वहाँ वे उसी तरह मज़े करेंगे जिस तरह दुनिया में कर रहे हैं और मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लानेवाले उसी तरह परेशान हाल रहेंगे जिस तरह आज दुनिया में हैं।
كَلَّآۖ إِنَّا خَلَقۡنَٰهُم مِّمَّا يَعۡلَمُونَ ۝ 38
(39) कदापि नहीं, हमने जिस चीज़ से इनको पैदा किया है उसे ये स्वयं जानते हैं।26
26. इस जगह पर इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं। पिछले विषय के साथ इसका ताल्लुक़ माना जाए तो अर्थ यह होगा कि जिस तत्त्व से ये लोग बने हैं उसके हिसाब से तो सब इनसान बराबर हैं। अगर वह तत्त्व ही इनसान के जन्नत में जाने का कारण हो तो भला व बुरा, अत्याचारी और न्याय करनेवाले, अपराधी और बे-गुनाह सभी को जन्नत में जाना चाहिए, लेकिन सामान्य बुद्धि ही यह निर्णय करने के लिए काफ़ी है कि जन्नत की पात्रता इनसान के रचना-तत्त्व के आधार पर नहीं, बल्कि केवल उसके गुणों की दृष्टि से पैदा हो सकती है। और अगर इस वाक्य को बाद के विषय की भूमिका समझी जाए तो इसका अर्थ यह है कि ये लोग अपने आपको हमारे अज़ाब से सुरक्षित समझ रहे हैं और जो आदमी इन्हें हमारी पकड़ से डराता है उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं, हालाँकि हम उनको दुनिया में भी जब चाहें अज़ाब दे सकते हैं और मौत के बाद दोबारा जिंदा करके भी जब चाहें उठा सकते हैं। ये स्वयं जानते हैं कि वीर्य को एक तुच्छ-सी बूंद से इनकी पैदाइश का आरंभ करके हमने इनको चलता-फिरता इनसान बनाया है। अगर अपनी इस पैदाइश पर ये विचार करते तो इन्हें कभी यह भ्रम न होता कि अब ये हमारी पकड़ से बाहर हो गए हैं, या हम इन्हें दोबारा पैदा करने पर समर्थ नहीं।
فَلَآ أُقۡسِمُ بِرَبِّ ٱلۡمَشَٰرِقِ وَٱلۡمَغَٰرِبِ إِنَّا لَقَٰدِرُونَ ۝ 39
(40) अत: नहीं27, मैं क़सम खाता हूँ पूर्वो और पश्चिमों के मालिक की28, हमें इसकी सामर्थ्य प्राप्त है
27. अर्थात् बात वह नहीं है जो उन्होंने समझ रखी है।
28. यहाँ अल्लाह ने स्वयं अपनी ज़ात की क़सम खाई है। पूर्वो और पश्चिमों का शब्द इस कारण से प्रयुक्त किया गया है कि साल के दौरान में सूरज हर दिन एक नए कोण से उगता है और नए कोण पर डूबता है। इसके अलावा जमीन के विभिन्न भागों पर सूरज विभिन्न समयों में बराबर उगता और डूबता चला जाता है। इन पहलुओं से पूरब और पश्चिम एक नहीं हैं, बल्कि बहुत-से हैं। एक दूसरे पहलू से उत्तर और दक्षिण के मुक़ाबले में एक दिशा पूरब है और दूसरी दिशा पश्चिम । इस कारण सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 28 और सूरा-73 मुजम्मिल, आयत 9 में 'पूरब और पश्चिम के रब' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। एक और पहलू से धरती के दो पूरब और दो पश्चिम हैं, क्योंकि जब पृथ्वी के एक आधे भाग में सूरज डूबता है तो दूसरे में उगता है। इस कारण सूरा-55 अर-रहमान, आयत 17 में दो पूर्वो और दो पश्चिमों का रब' के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-55 अर-रहमान, टिप्पणी 17)
عَلَىٰٓ أَن نُّبَدِّلَ خَيۡرٗا مِّنۡهُمۡ وَمَا نَحۡنُ بِمَسۡبُوقِينَ ۝ 40
(41) कि इनकी जगह इनसे बेहतर लोग ले आएँ और कोई हमसे बाज़ी ले जानेवाला नहीं है।29
29. यह है वह बात जिसपर अल्लाह ने अपने पूर्वो और पश्चिमों का रव' होने की क़सम खाई है। इसका अर्थ यह है कि हम चूंकि पूर्वी और पश्चिमों के मालिक हैं, इसलिए पूरी पृथ्वी हमारे कब्जे में है और हमारी पकड़ से बच निकलना तुम्हारे बस में नहीं है। हम जब चाहें तुम्हें नष्ट कर सकते हैं और तुम्हारी जगह किमी दूसरी कौम को उठा सकते हैं जो तुमसे बेहतर हो।
فَذَرۡهُمۡ يَخُوضُواْ وَيَلۡعَبُواْ حَتَّىٰ يُلَٰقُواْ يَوۡمَهُمُ ٱلَّذِي يُوعَدُونَ ۝ 41
(42) अत: इन्हें अपनी व्यर्थ बातों और अपने खेल में पड़ा रहने दो, यहाँ तक कि ये अपने उस दिन को पहुँच जाएँ जिसका इनसे वादा किया जा रहा है,
يَوۡمَ يَخۡرُجُونَ مِنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ سِرَاعٗا كَأَنَّهُمۡ إِلَىٰ نُصُبٖ يُوفِضُونَ ۝ 42
(43) जब ये अपनी क़ब्रों से निकलकर इस तरह दौड़े जा रहे होंगे जैसे अपने बुतों के स्थानों की ओर दौड़ रहे हों30,
30. मूल अरबी शब्द हैं 'इला नुसुबिंय यूफ़िजून' । 'नुसुब' के अर्थ में टीकाकारों के मध्य मतभेद है। इनमें से कुछ ने इससे मुराद 'बुत' लिए हैं और कुछ अन्य टीकाकारों ने इससे मुराद वे निशान लिए हैं जो दौड़ का मुक़ाबला करनेवालों के लिए लगाए जाते हैं।
خَٰشِعَةً أَبۡصَٰرُهُمۡ تَرۡهَقُهُمۡ ذِلَّةٞۚ ذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمُ ٱلَّذِي كَانُواْ يُوعَدُونَ ۝ 43
(44) इनको विगाहें शुकी हुई होगी, अपमान इनपर छा रहा होगा। यह दिन है जिसका इनसे वादा किया जा रहा है।