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سُورَةُ الفَتۡحِ

48. अल-फ़त्‌ह

(मदीना में उतरी, आयतें 29)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के वाक्यांश ‘इन्ना फ़तह्‌ना ल-क फ़तहम-मुबीना' (हमने तुमको स्पष्ट विजय प्रदान कर दी) से लिया गया है। यह केवल इस सूरा का नाम ही नहीं है, बल्कि विषय की दृष्टि से भी इसका शीर्षक है, क्योंकि इसमें उस महान विजय पर वार्ता की गई है जो हुदैबिया के समझौते के रूप में अल्लाह ने नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को प्रदान की थी।

उतरने का समय

उल्लेखों (हदीस के बहुत-से कथनों) में इसपर मतैक्य है कि यह ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० में उस समय उतरी थी, जब आप (सल्ल०), मक्का के इस्लाम-विरोधियों से हुदैबिया के समझौते के बाद, मदीना मुनव्वरा की ओर वापस जा रहे थे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

 जिन घटनाओं के सिलसिले में यह सूरा उतरी, उनकी शुरुआत इस तरह होती है कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वप्न में देखा कि आप (सल्ल०) अपने साथियों के साथ मक्का मुअज़्ज़मा गए हैं और वहाँ उमरा किया है। पैग़म्बर का सपना, विदित है कि मात्र सपना और ख़याल नहीं हो सकता था, वह कई प्रकार की प्रकाशनाओं में से एक प्रकाशना है। इसलिए वास्तव में यह [सपना] अल्लाह की ओर से एक संकेत था, जिसका अनुसरण करना नबी (सल्ल०) के लिए ज़रूरी था। [अतः आप (सल्ल०) ने] बे-झिझक अपना सपना सहाबा किराम (रज़ि०) को सुनाकर यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। 1400 सहाबी नबी (सल्ल०) के साथ इस अत्यन्त ख़तरनाक सफ़र पर जाने के लिए तैयार हो गए। ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० के आरंभ में यह मुबारक क़ाफ़िला [उमरा के लिए] मदीना से रवाना हुआ। क़ुरैश के लोगों को नबी (सल्ल०) के इस आगमन ने बड़ी उलझन में डाल दिया। ज़ी-क़ादा का महीना उन प्रतिष्ठित महीनों में से था जो सैकड़ों साल से अरब में हज और ज़ियारत (दर्शन) के लिए मुह्तरम (आदर करने योग्य) समझे जाते थे। इस महीने में जो क़ाफ़िला एहराम बाँधकर हज या उमरे के लिए जा रहा हो, उसे रोकने का किसी को अधिकार प्राप्त न था। क़ुरैश के लोग इस उलझन में पड़ गए कि अगर हम मदीना के इस क़ाफ़िले पर हमला करके इसे मक्का मुअज़्ज़मा में प्रवेश करने से रोकते हैं तो पूरे देश में इसपर शोर मच जाएगा, लेकिन अगर हम मुहम्मद (सल्ल०) को इतने बड़े क़ाफ़िले के साथ सकुशल अपने नगर में प्रवेश करने देते हैं, तो पूरे देश में हमारी हवा उखड़ जाएगी और लोग कहेंगे कि हम मुहम्मद से भयभीत हो गए। अन्तत: बड़े सोच-विचार के बाद उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात ही उनपर प्रभावी रहा और उन्होंने अपनी नाक की ख़ातिर यह फ़ैसला किया कि किसी क़ीमत पर भी इस क़ाफ़िले को अपने शहर में दाख़िल नहीं होने देना है। जब आप (सल्ल०) उसफ़ान के स्थान पर पहुंँचे तो [आप (सल्ल०) के मुख़बिर ने] आकर आप (सल्ल०) को ख़बर दी कि क़ुरैश के लोग पूरी तैयारी के साथ ज़ी-तुवा के स्थान पर पहुंँच गए हैं और ख़ालिद-बिन-वलीद को उन्होंने दो सौ सवारों के साथ कुराउल-ग़मीम की ओर भेज दिया है ताकि वे आप (सल्ल०) का रास्ता रोकें। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह ख़बर पाते ही तुरन्त रास्ता बदल दिया और एक बड़े ही दुर्गम रास्ते से बड़ी कठिनाइयों के साथ हुदैबिया के स्थान पर पहुंँच गए, जो ठीक हरम की सीमा पर पड़ता था। [अब कुरैश ने आप (सल्ल०) के पास दूत भेजकर इस बात की कोशिश की कि आप (सल्ल०) मक्का में प्रवेश करने के इरादे से बाज़ आ जाएँ, मगर वे अपने इस दूतीय प्रयास में विफल रहे।] अन्तत: नबी (सल्ल०) ने स्वयं अपनी ओर से हज़रत उसमान (रज़ि०) को दूत बनाकर मक्का भेजा और उनके ज़रिये से क़ुरैश के सरदारों को यह सन्देश दिया कि हम युद्ध के लिए नहीं, बल्कि ज़ियारत (दर्शन) के लिए हदी (क़ुर्बानी) के जानवर साथ लेकर आए हैं। तवाफ़ (काबा की परिक्रमा) और क़ुर्बानी करके वापस चले जाएंँगे। किन्तु वे लोग न माने और हज़रत उसमान (रज़ि०) को मक्का ही में रोक लिया। इस बीच यह ख़बर उड़ गई कि हज़रत उसमान (रज़ि०) क़त्ल कर दिए गए हैं और उनके वापस न आने से मुसलमानों को विश्वास हो गया कि यह ख़बर सच्ची है। अब और अधिक सहन करने का कोई अवसर नहीं था। अतएव अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने सभी साथियों को एकत्र किया और उनसे इस बात पर बैअत ली (अर्थात् प्रतिज्ञाबद्ध किया) कि अब यहाँ से हम मरते दम तक पीछे न हटेंगे। यही वह बैअत है जो ‘बैअते-रिज़वान' के नाम से इस्लामी इतिहास में प्रसिद्ध है। बाद में मालूम हुआ कि हज़रत उसमान (रज़ि०) के क़त्ल की ख़बर ग़लत थी। हज़रत उसमान (रज़ि०) स्वयं भी वापस आ गए और क़ुरैश की ओर से सुहैल-बिन-अम्र के नेतृत्त्व में एक प्रतिनिधि मंडल भी समझौते की बात-चीत करने के लिए नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गया। लम्बी बातचीत के बाद जिन शर्तों पर संधिपत्र लिखा गया, वे ये थीं—

(1) दस साल तक दोनों पक्षों के बीच युद्ध बन्द रहेगा और एक-दूसरे के विरुद्ध ख़ुफ़िया या खुल्लम-खुल्ला कोई कार्रवाई न की जाएगी।

(2) इस बीच क़ुरैश का जो आदमी अपने वली (अभिभावक) की अनुमति के बिना भागकर मुहम्मद के पास जाएगा, उसे आप (सल्ल०) वापस कर देंगे और आप (सल्ल०) के साथियों में से जो आदमी क़ुरैश के पास चला जाएगा, उसे वे वापस न करेंगे।

(3) अरब के क़बीलों में से जो क़बीला भी दोनों फ़रीक़ों में से किसी एक के साथ प्रतिज्ञाबद्ध होकर इस समझौते में शामिल होना चाहेगा, उसे इसका अधिकार प्राप्त होगा।

(4) मुहम्मद (सल्ल०) इस साल वापस जाएँगे और अगले साल वे उमरे के लिए आकर तीन दिन मक्का में ठहर सकते हैं, बशर्ते कि परतलों (यानी पट्टों) में सिर्फ़ एक-एक तलवार लेकर आएँ और युद्ध का कोई सामान साथ न लाएँ। इन तीन दिनों में मक्कावाले उनके लिए शहर ख़ाली कर देंगे, (ताकि किसी टकराव की नौबत न आए,) मगर वापस जाते हुए उन्हें यहाँ के किसी आदमी को अपने साथ ले जाने का अधिकार प्राप्त न होगा। जिस समय इस संधि की शर्ते तय हो रही थीं, मुसलमानों की पूरी सेना बहुत बेचैन थी। कोई आदमी भी उन निहित उद्देश्यों को नहीं समझ रहा था, जिन्हें दृष्टि में रखकर नबी (सल्ल०) ये शर्ते स्वीकार कर रहे थे। क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी इसे अपनी सफलता समझ रहे थे और मुसलमान इसपर बेचैन थे कि हम आख़िर दबकर ये अपमानजनक शर्तें क्यों स्वीकार कर लें। ठीक उस समय जब समझौता-नामा लिखा जा रहा था, सुहैल-बिन-अम्र के अपने (बेटे) अबू-जन्दल, जो मुसलमान हो चुके थे और मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने उनको क़ैद कर रखा था, किसी न किसी तरह भागकर नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गए। उनके पाँवों में बेड़ियाँ थीं और शरीर पर मार के निशान थे। उन्होंने नबी (सल्ल०) से फ़रियाद की कि मुझे इस अनुचित क़ैद से मुक्ति दिलाई जाए। सहाबा किराम (रज़ि०) के लिए यह हालत देखकर अपने को नियंत्रित रखना कठिन हो गया, मगर सुहैल-बिन-अम्र ने कहा कि समझौता-नामा चाहे पूरा लिखा न गया हो, शर्ते तो हमारे और आपके बीच तय हो चुकी हैं, इसलिए इस लड़के को हमारे हवाले किया जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसका तर्क मान लिया और अबू-जन्दल ज़ालिमों के हवाले कर दिए गए। [इस घटना ने मुसलमानों को और अधिक बेचैन और दुखी कर दिया।] समझौते से निवृत्त होकर नबी (सल्ल०) ने सहाबा से कहा कि अब यहीं क़ुर्बानी करके सर मुंडा लो और एहराम समाप्त कर दो, मगर कोई अपनी जगह से न हिला। नबी (सल्ल०) ने तीन बार हुक्म दिया, मगर सहाबा पर उस समय दुख और शोक और दिल के टूट जाने का एहसास ऐसा छा गया था कि वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। [फिर जब उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) के मश्‍वरे के अनुसार नबी (सल्ल०) ने स्वयं आगे बढ़कर अपना ऊँट ज़िब्ह किया और सिर मुंडा लिया, तब] आप (सल्ल०) को देखकर लोगों ने भी क़ुर्बानियाँ कर ली, सिर मुंडा लिए या बाल कटवा लिए और एहराम से निकल आए। इसके बाद जब यह क़ाफ़िला हुदैबिया के समझौते को अपनी पराजय और अपना अपमान समझता हुआ मदीना की ओर वापस जा रहा था, उस समय ज़जनान के स्थान पर (या कुछ लोगों के अनुसार कुराउल-ग़मीम के स्थान पर) यह सूरा उतरी। इसमें मुसलमानों को बताया गया कि यह समझौता जिसे वे पराजय समझ रहे हैं, वास्तव में महान विजय है। इसके उतरने के बाद नबी (सल्ल.) ने मुसलमानों को जमा किया और फ़रमाया, "आज मुहम्मद पर वह चीज़ उतरी है, जो मेरे लिए दुनिया और दुनिया की सब चीज़ों से अधिक मूल्यवान है।" फिर यह सूरा आप (सल्ल०) ने पढ़कर सुनाई और विशेष रूप से हज़रत उमर (रज़ि०) को बुलाकर इसे सुनाया, क्योंकि वे सबसे अधिक दुखी थे। यद्यपि ईमानवाले तो अल्लाह का यह कथन सुनकर हो सन्तुष्ट हो गए थे, मगर कुछ अधिक समय न बीता था कि इस सुलह के फ़ायदे एक-एक करके सामने आते गए, यहाँ तक कि किसी को भी इस बात में सन्देह न रहा कि वास्तव में यह समझौता एक शानदार विजय थी।

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سُورَةُ الفَتۡحِ
48. अल-फ़त्ह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
إِنَّا فَتَحۡنَا لَكَ فَتۡحٗا مُّبِينٗا
(1-2) ऐ नबी! हमने तुमको खुली विजय प्रदान कर दी1 ताकि अल्लाह तुम्हारी अगली-पिछली हर कोताही को माफ़ कर दें2 और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दें3 और तुम्हें सीधा रास्ता दिखाए4
1. हुदैबिया के समझौते के बाद जब विजय की यह खुशखबरी दी गई तो लोग हैरान थे कि आख़िर इस समझौते को विजय कैसे कहा जा सकता है। हज़रत उमर (रजि०) ने यह आयत सुनकर पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल । क्या यह विजय है?" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "हाँ," (इब्ने-जरीर)। मदीना पहुंचकर एक और साहब ने अपने साथियों से कहा, "यह कैसी विजय है ? हम बैतुल्लाह (काबा) जाने से रोक दिए गए, हमारे कुर्बानी के ऊँट भी आगे न जा सके, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हुदैबिया ही में रुक जाना पड़ा और इस समझौते के कारण हमारे दो पीड़ित भाइयों (अबू जन्दल और अबू बसीर) को अत्याचारियों के सुपुर्द कर दिया गया। नबी (सल्ल०) तक यह बात पहुंची तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "बड़ी ग़लत बात कही गई है यह। हक़ीक़त में तो यह बहुत बड़ी विजय है। तुम मुशरिकों के ठौक घर पर पहुंच गए और उन्होंने अगले साल उमरा करने का निवेदन करके तुम्हें वापस जाने पर तैयार किया। उन्होंने तुमसे खुद युद्ध बन्द कर देने और समझौता कर लेने की इच्छा व्यक्त की, हालाँकि उनके दिलों में तुम्हारे लिए, जैसा कुछ बैर है वह मालूम है। अल्लाह ने तुमको उनपर वर्चस्व प्रदान कर दिया है। कुछ अधिक समय न बीता था कि इस समझौते का 'विजय' होना बिलकुल स्पष्ट होता चला गया और हर विशिष्ट और सामान्य जनों पर यह बात पूरी तरह खुल गई कि वास्तव में इस्लाम की जीत की शुरुआत हुदैबिया के समझौते ही से हुई थी।
2. जिस अवसर पर यह वाक्य प्रयुक्त हुआ है, उसे दृष्टि में रखा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि यहाँ जिन कोताहियों को माफ़ करने का उल्लेख है, उनसे तात्पर्य वे कमियाँ हैं जो इस्लाम की सफलता और वर्चस्व के लिए काम करते हुए उस कोशिश और जिद्दोजुहद में रह गई थीं जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नेतृत्त्व में पिछले 19 साल से मुसलमान कर रहे थे। ये कमियाँ किसी इंसान के ज्ञान में नहीं हैं, बल्कि मानव-बुद्धि तो उस जिद्दोजुहद में कोई कमी तलाश करने में पूर्णत: विवश है। मगर अल्लाह की दृष्टि में ‘कमाल’ (पूर्णता) की जो सर्वोत्‍तम कसौटी है, उसकी दृष्टि से उसमें कुछ ऐसी कमियाँ थीं, जिनके कारण मुसलमानों को इतनी जल्दी अरब के मुशरिकों पर निर्णायक विजय प्राप्त न हो सकती थी। अल्लाह के कथन का अभिप्राय यह है कि इन कमियों के साथ अगर तुम प्रयास करते रहते तो अरब पर तुम्हारा प्रभुत्व स्थापित होने में अभी एक लंबी मुद्दत चाहिए थी, मगर हमने इन सारी कमजोरियों और कोताहियों को अनदेखा करके सिर्फ़ अपनी कृपा से उनकी पूर्ति कर दी और हुदैबिया के स्थान पर तुम्हारे लिए उस विजय और सफलता का द्वार खोल दिया, जो नियमानुसार तुम्हारी अपनी कोशिशों से प्राप्त न हो सकती थी। यहाँ यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि किसी उद्देश्य के लिए एक जमाअत जो कोशिश कर रही हो, उसकी कमियों के लिए उस जमाअत के प्रमुख को ही सम्बोधित किया जाता है। इसका मतलब यह नहीं होता कि वे कमियाँ प्रमुख की निजी कमियाँ हैं। वास्तव में वह उस प्रयास की कमियाँ होती है जो पूरी जमाअत सामूहिक रूप से कर रही होती है, मगर सम्बोधन प्रमुख से किया जाता है कि आपके काम में ये कमज़ोरियाँ हैं। फिर भी चूँकि सम्बोधन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से है और फ़रमाया यह गया है कि अल्लाह ने आपकी प्रत्येक अगली-पिछली कोताही को माफ़ कर दिया, इसलिए इन सामान्य शब्दों से यह विषय भी निकल आया कि अल्लाह के यहाँ उसके रसूल की तमाम कमज़ोरियाँ (जो आप सल्ल० के उच्च पद की दृष्टि से कमज़ोरियाँ थीं) माफ़ कर दी गई। इसी कारण जब सहाबा किराम नबी (सल्ल०) को इबादत में असाधारण कष्ट सहन करते हुए देखते थे तो निवेदन करते थे कि आपके तो सब अगले पिछले कुसूर माफ़ हो चुके हैं, फिर आप अपनी जान पर इतनी सख़्ती क्यों उठाते हैं ? और आप (सल्ल०) जवाब में फ़रमाते थे, “क्या मैं एक शुक्रगुज़ार बन्दा न बनूँ!'' (अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद)
لِّيَغۡفِرَ لَكَ ٱللَّهُ مَا تَقَدَّمَ مِن ذَنۢبِكَ وَمَا تَأَخَّرَ وَيُتِمَّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكَ وَيَهۡدِيَكَ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 1
0
وَيَنصُرَكَ ٱللَّهُ نَصۡرًا عَزِيزًا ۝ 2
(3) और तुमको बड़ी सहायता प्रदान करे।5
5. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि 'तुमको अद्वितीय सहायता प्रदान करे।' मूल अरबी शब्द 'नसरन अज़ीज़ा' प्रयुक्त हुआ है। 'अज़ीज़' का अर्थ प्रभुत्वशाली के भी हैं और अनुपम और दुर्लभ के भी। पहले अर्थ की दृष्टि से इस वाक्य का मतलब यह है कि इस समझौते के द्वारा अल्लाह ने आप की ऐसी मदद को है जिससे आपके दुश्मन बेबस हो जाएँगे, और दूसरे अर्थ की दृष्टि से इसका मतलब यह है कि कभी-कभार ही किसी की सहायता का ऐसा विचित्र तरीका अपनाया गया है कि प्रत्यक्ष में जो चीज लोगों को केवल एक समझौता और वह भी दबकर किया हुआ समझौता दिखाई पड़ता है, वही एक निर्णायक विजय बन जानेवाला है।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ ٱلسَّكِينَةَ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لِيَزۡدَادُوٓاْ إِيمَٰنٗا مَّعَ إِيمَٰنِهِمۡۗ وَلِلَّهِ جُنُودُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 3
(4) वही है जिसने ईमानवालों के दिलों में सकीनत (शान्ति) उतारी6 ताकि अपने ईमान के साथ वे एक ईमान और बढ़ा लें।7 ज़मीन और आसमानों की सब सेनाएँ अल्लाह के अधिकार में हैं और वह सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।8
6. 'सकीनत' से तात्पर्य शान्ति और मन का सन्तोष है। मतलब यह है कि हुदैबिया के समझौते के मौक़े पर जितनी उत्तेजनापूर्ण परिस्थितियाँ सामने आईं, उन सबमें मुसलमानों का धैर्य से काम लेना और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नेतृत्त्व पर पूरा भरोसा करते हुए उनसे सकुशल गुजर जाना अल्लाह की कृपा का परिणाम था, वरना उस समय एक ज़रा-सी ग़लती भी सारा मामला ख़राब कर देती।
7. अर्थात् एक ईमान तो वह था जो इस अभियान से पहले उनको प्राप्त था, और उसपर और अधिक ईमान उन्हें इस कारण प्राप्त हुआ कि इस अभियान के सिलसिले में जितनी जबरदस्त आजमाइशें पेश आती चली गई, उनमें से हर एक में वह निष्ठा, परहेज़गारी और आज्ञापालन की नीति पर जमे रहे। यह आयत भी उन तमाम आयतों में से एक है, जिनसे मालूम होता है कि ईमान कोई जड़ और स्थिर स्थिति नहीं है, बल्कि इसमें उन्नति भी होती है और अवनति भी। इस्लाम कबूल करने के बाद से मरते दम तक ईमानवाले को जिंदगी में क़दम-कदम पर ऐसी आज़माइशों का सामना करना पड़ता है, जिनमें उसके लिए यह प्रश्‍न निर्णय चाहता है कि क्या यह अल्लाह के दीन की पैरवी में अपनी जान, माल, भावनाएँ, इच्‍छाएँ, समय, आराम और हितों की क़ुर्बानी देने के लिए तैयार है, या नहीं। ऐसी हर आजमाइश के मौक़े पर अगर वह क़ुर्बानी का रास्ता अपना ले, तो उसके ईमान को उन्नति और विकास प्राप्त होता है और अगर मुंह मोड़ जाए तो उसका ईमान ठिठुरकर रह जाता है, यहाँ तक कि एक समय ऐसा भी आ जाता है जब ईमान को प्रारम्भिक पूँजी भी ख़तरे में पड़ जाती है, जिसे लिए हुए उसने इस्लाम को सीमा में प्रवेश किया था और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, टीका सूरा-8 अल-अनफ़ाल, टिप्पणी 2; सूरा-33 अल-अहज़ाब, टिप्पणी 38)
لِّيُدۡخِلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَيُكَفِّرَ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عِندَ ٱللَّهِ فَوۡزًا عَظِيمٗا ۝ 4
(5) (उसने यह काम इसलिए किया है) ताकि ईमानवाले मर्दो और ईमानवाली औरतों9 को हमेशा रहने के लिए ऐसी जन्नतों में दाख़िल करे जिसके नीचे नहरें बह रही होंगी और उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर दे10 - अल्लाह के नज़दीक यह बड़ी सफलता है
9. मगर उसने कुछ जानकर और तत्त्वदर्शिता ही के कारण यह ज़िम्मेदारी ईमानवालों पर डाली है कि वे शत्रुओं के मुक़ाबले में जिद्दोजुहद और संघर्ष करके अल्लाह के दीन का बोलबाला करें। इसी से उनके लिए पदों की उन्नति और आख़िरत की सफलताओं का दरवाज़ा खुलता है, जैसा कि आगे की आयत बता रही है। क़ुरआन मजीद में आम तौर से ईमानवालों के प्रतिदान का उल्लेख सामूहिक रूप से किया जाता है, मर्दो और औरतों को बदला मिलने की अलग-अलग व्याख्या नहीं की जाती, लेकिन यहाँ चूंकि इकट्ठे उल्लेख करने पर यह भ्रम पैदा हो सकता था कि शायद यह बदला सिर्फ़ मर्दो के लिए हो, इसलिए अल्लाह ने ईमानवाली औरतों के बारे में अलग से स्पष्ट कर दिया कि वे भी इस बदले में ईमानवाले मर्दो के साथ बराबर की शरीक हैं। इसका कारण स्पष्ट है कि जिन ख़ुदापरस्त औरतों ने अपने पतियों, बेटों, भाइयों और बापों को इस ख़तरनाक सफर पर जाने से रोकने और रोने-पीटने से उनके हौसले पस्त करने के बजाय उनकी हिम्मत बढ़ाई, जिन्होंने उनके पीछे उनके घर, उनके माल, उनकी आबरू और उनके बच्चों की रक्षक बनकर उन्हें इस ओर से निश्चिन्त कर दिया, जिन्होंने इस आशंका से भी कोई वावेला न मचाया कि चौदह सौ सहाबियों के एक साथ चले जाने के बाद कहीं आस-पास के इस्लाम-विरोधी और कपटाचारी शहर पर न चढ़ आएँ, वे यक़ीनन घर बैठने के बावजूद भी जिहाद के प्रतिदान में अपने मर्दो के साथ बराबर की शरीक होनी ही चाहिए थीं।
10. अर्थात् इंसानी कमजोरियों के कारण जो कुछ भी ग़लतियाँ उनसे हो गई हों, उन्हें माफ़ कर दे और जन्नत में दाख़िल करने से पहले उन ग़लतियों के हर प्रभाव से उनको मुक्त कर दे और जन्नत में वे इस तरह दाख़िल हों कि कोई दाग़ उनके दामन पर न हो, जिसके कारण वे वहाँ शर्मिन्दा हों।
وَيُعَذِّبَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡمُشۡرِكِينَ وَٱلۡمُشۡرِكَٰتِ ٱلظَّآنِّينَ بِٱللَّهِ ظَنَّ ٱلسَّوۡءِۚ عَلَيۡهِمۡ دَآئِرَةُ ٱلسَّوۡءِۖ وَغَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَلَعَنَهُمۡ وَأَعَدَّ لَهُمۡ جَهَنَّمَۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرٗا ۝ 5
(6) और उन मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) मर्दों और औरतों और मुशरिक मर्दो और औरतों को सज़ा दे जो अल्लाह के बारे में बुरे गुमान रखते हैं।11बुराई के फेर में वे स्वयं ही आ गए,12 अल्लाह का प्रकोप उनपर हुआ और उसने उनपर लानत की और उनके लिए जहन्नम तैयार कर दिया, जो बहुत ही बुरा ठिकाना है।
11. मदीना के आस-पास के मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का तो इस अवसर पर यह गुमान था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आपके साथी इस सफ़र से जीवित वापिस न आ सकेंगे। रहे मक्का के मुशरिक और उनके जैसे इस्लाम-विरोधी, तो वे इस ख़याल में थे कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों को उमरे से रोककर वे मानो आप (सल्ल०) को पराजित करने में सफल हो गए हैं। इन दोनों गिरोहों ने यह जो कुछ भी सोचा था, उसकी तह में वास्तव में अल्लाह के बारे में यह बदगुमानी काम कर रही थी कि वह अपने नबी की मदद न करेगा और सत्य तथा असत्य के इस संघर्ष में असत्य को सत्य का बोल नोचा करने की खुली छूट दे देगा।
12. यानी जिस बुरे अंजाम से वे बचना चाहते थे और जिससे बचने के लिए उन्होंने ये तदबीरें की थीं, उसी के फेर में वे आ गए और उनकी वही तदबीरें उस अंजाम को क़रीब लाने की वजह बन गईं।
وَلِلَّهِ جُنُودُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمًا ۝ 6
(7) आसमानों और ज़मीन को सेनाएँ अल्लाह ही के कब्जे में हैं, और वह प्रभुत्त्वशाली और तत्त्वदर्शी है।13
13. यहाँ इस विषय को एक दूसरे उद्देश्य के लिए दोहराया गया है। आयत 4 में इसका उल्लेख इस उद्देश्य के लिए किया गया था कि अल्लाह ने इस्लाम-विरोधियों के मुक़ाबले में लड़ने का काम अपनी पराप्राकृतिक सेनाओं से लेने के बजाय ईमानवालों से इसलिए लिया है कि वह उनको अपने अनुग्रह प्रदान करना चाहता है। और यहाँ इस विषय को दोबारा इसलिए बयान किया गया है कि अल्लाह जिसको सजा देना चाहे, उसका सिर कुचलने के लिए वह अपनी अनगिनत सेनाओं में से जिसको चाहे इस्तेमाल कर सकता है, किसी में यह शक्ति नहीं है कि अपने उपायों से उसकी सजा को टाल सके।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ شَٰهِدٗا وَمُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 7
(8) ऐ नबी! हमने तुमको गवाही देनेवाला,14 ख़ुश ख़बरी देनेवाला और सचेत करनेवाला15 जलो बनाकर भेजा है,
14. [मूल अरबी में शब्द 'शाहिद' प्रयुक्त हुआ है, (इस्लामी विद्वान)] शाह वलीयुल्लाह साहब ने 'शाहिद' का अनुवाद 'सत्य को व्यक्त करनेवाला' किया है और दूसरे अनुवादक इसका अनुवाद गवाही देनेवाला' करते हैं। शहादत' शब्द में ये दोनों अर्थ पाए जाते हैं। (व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-33 अल-अहजाब, टिप्पणी 82)
15. व्याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-33 अल-अहजाब, टिप्पणी 83
لِّتُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَتُعَزِّرُوهُ وَتُوَقِّرُوهُۚ وَتُسَبِّحُوهُ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلًا ۝ 8
(9) ताकि ऐ लोगो! तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसका (अर्थात् रसूल का) साथ दो, उसका आदर-सम्मान करो और सुबह व शाम अल्लाह की तसबीह (महिमागान) करते रहो।16
16. कुछ टीकाकारों ने 'तुअजिरूहु' और 'तूवकिक्करूहु' में आए सर्वनामों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के लिए और 'तुसब्बिा' में प्रयुक्त सर्वनाम को अल्लाह के लिए बताया है, लेकिन एक ही वार्ताक्रम में आए सर्वनामों को दो हस्तियों से अलग-अलग जोड्ना, जबकि उसके लिए कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है, सही नहीं मालूम होता। इसी लिए टीकाकारों के एक दूसरे गिरोह ने तमाम सर्वनामों से मुराद अल्लाह ही को लिया है और उनके नज़दीक इस पूरे वाक्य का अर्थ यह है कि 'तुम अल्लाह का साथ दो, उसका मान-सम्मान करो और सुबह व शाम उसका महिमागान करते रहो। सुबह व शाम महिमागान करने से तात्पर्य हर समय महिमागान करते रहना है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُبَايِعُونَكَ إِنَّمَا يُبَايِعُونَ ٱللَّهَ يَدُ ٱللَّهِ فَوۡقَ أَيۡدِيهِمۡۚ فَمَن نَّكَثَ فَإِنَّمَا يَنكُثُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِمَا عَٰهَدَ عَلَيۡهُ ٱللَّهَ فَسَيُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 9
(10) ऐ नबी ! जो लोग तुमसे बैअ्त कर रहे थे,17 वे वास्तव में अल्लाह से बैअ्त कर रहे थे। उनके हाथ पर अल्लाह का हाथ था।18 अब जो इस प्रतिज्ञा (अहद) को भंग करेगा, उसके प्रतिज्ञा भंग करने का वबाल उसके अपने ही ऊपर होगा, और जो उस प्रतिज्ञा को पूरा करेगा, जो उसने अल्लाह से की है,19 अल्लाह बहुत जल्द उसको बड़ा बदला प्रदान करेगा।
17. संकेत है उस बैअ्त की ओर जो मक्का मुअज्जमा में हज़रत उसमान (रजि०) के शहीद हो जाने की ख़बर सुनकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सहाबा किराम से हुदैबिया के स्थान पर ली थी। यह बैअ्त इस बात पर ली गई थी कि हज़रत उसमान (रजि०) के शहीद किए जाने का मामला अगर सही साबित हुआ तो वे सब यहीं और इसी वक़्त क़ुरैश से निमट लेंगे, चाहे नतीजे में वे सब कट ही क्यों न मरें। इस अवसर पर चूँकि यह बात अभी यक़ीनी नहीं थी कि हज़रत उसमान (रजि०) वास्तव में शहीद हो चुके हैं या जिंदा हैं, इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनकी ओर से स्वयं अपना एक हाथ दूसरे हाथ पर रखकर बैअ्त फ़रमाई और इस तरह उनको यह महान श्रेय प्राप्त हुआ कि आप (सल्ल०) ने अपने शुभ हाथ को उनके हाथ का स्थानापन्न बनाकर उन्हें इस बैअ्त में शरीक फ़रमाया। नबी (सल्ल०) का उनकी ओर से ख़ुद बैअ्त करना अनिवार्यतः यह अर्थ रखता है कि नबी (सल्ल०) को उनपर पूरी तरह यह भरोसा था कि अगर वे मौजूद होते तो यक़ीनन बैअ्त करते।
18. अर्थात् जिस हाथ पर लोग उस समय बैअ्त कर रहे थे, वह किसी व्यक्ति का हाथ नहीं, बल्कि अल्लाह के प्रतिनिधि का हाथ था और यह बैअ्त रसूल के माध्यम से वास्तव में अल्लाह के साथ हो रही थी।
سَيَقُولُ لَكَ ٱلۡمُخَلَّفُونَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ شَغَلَتۡنَآ أَمۡوَٰلُنَا وَأَهۡلُونَا فَٱسۡتَغۡفِرۡ لَنَاۚ يَقُولُونَ بِأَلۡسِنَتِهِم مَّا لَيۡسَ فِي قُلُوبِهِمۡۚ قُلۡ فَمَن يَمۡلِكُ لَكُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔا إِنۡ أَرَادَ بِكُمۡ ضَرًّا أَوۡ أَرَادَ بِكُمۡ نَفۡعَۢاۚ بَلۡ كَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرَۢا ۝ 10
(11) ऐ नबी! अरब बद्दुओं20 में से जो लोग पीछे छोड़ दिए गए थे, अब वे आकर ज़रूर तुमसे कहेंगे कि "हमें अपने मालों और बीवी-बच्चों की चिन्ता ने व्यस्त कर रखा था, आप हमारे लिए माफ़ी की दुआ करें।" ये लोग अपनी ज़बानों से वे बातें कहते हैं जो उनके दिलों में नहीं होतीं।21 इनसे कहना, “अच्छा, यही बात है तो कौन तुम्हारे मामले में अल्लाह के फ़ैसले को रोक देने का कुछ भी अधिकार रखता है अगर वह तुम्हें कोई नुक़सान पहुँचाना चाहे या फ़ायदा प्रदान करना चाहे? तुम्हारे कर्मों की तो अल्लाह ही ख़बर रखता है।22
20. यह मदीना के आसपास के उन लोगों का उल्लेख है जिन्हें उमरे की तैयारी शुरू करते वक़्त अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने साथ चलने की दावत दी थी, मगर वे ईमान का दावा रखने के बावजूद सिर्फ़ इसलिए अपने घरों से न निकले थे कि उन्हें अपनी जान प्यारी थी। वे समझ रहे थे कि इस अवसर पर क़ुरैश के ठीक घर में उमरे के लिए जाना मौत के मुँह में जाना है। रिवायतों से मालूम होता है कि यह असलम, मुज़ैना, जुहैना, ग़िफ़ार, अशजअ, दील आदि क़बीलों के लोग थे।
21. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि तुम्हारे मदीना पहुँचने के बाद ये लोग अपने न निकलने के लिए जो बहाने अब पेश करेंगे, वह केवल एक झूठा बहाना होगा, वरना उनके दिल जानते हैं कि वे वास्तव में क्यों बैठ रहे थे। दूसरे यह कि उनका अल्लाह के रसूल से माफ़ी की दुआ की विनती करना केवल ज़बानी जमा ख़र्च होगा। वास्तव में वे न अपनी इस हरकत पर शर्मिन्दा हैं, न उन्हें यह एहसास है कि उन्होंने रसूल (सल्ल०) का साथ न देकर कोई पाप किया है और न उन उनके दिल में माफ़ किए जाने की कोई तलब है। अपने नज़दीक तो वे यह समझते हैं कि उन्होंने इस ख़तरनाक सफ़र पर न जाकर बड़ी बुद्धिमानी दिखाई है। अगर उन्हें वास्तव में अल्लाह और उसकी माफ़ी की कोई परवाह होती, तो वे घर बैठे ही क्यों रहते।
بَلۡ ظَنَنتُمۡ أَن لَّن يَنقَلِبَ ٱلرَّسُولُ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ إِلَىٰٓ أَهۡلِيهِمۡ أَبَدٗا وَزُيِّنَ ذَٰلِكَ فِي قُلُوبِكُمۡ وَظَنَنتُمۡ ظَنَّ ٱلسَّوۡءِ وَكُنتُمۡ قَوۡمَۢا بُورٗا ۝ 11
(12) (मगर सत्य बात वह नहीं है जो तुम कह रहे हो) बल्कि तुमने यूँ समझा कि रसूल और ईमानवाले अपने घरवालों में कदापि पलटकर न आ सकेंगे और यह विचार तुम्हारे दिलों को बहुत भला लगा23 और तुमने बहुत बुरे गुमान किए, और तुम बड़े ही दुरात्मा24 हो।
23. अर्थात् तुम इस बात पर बहुत प्रसन्न हुए कि रसूल और उसका साथ देनेवाले ईमानवाले जिस ख़तरे के मुँह में जा रहे हैं, उससे तुमने अपने आपको बचा लिया, और तुम्हें इस बात पर भी प्रसन्न होते हुए कोई शर्म न आई कि रसूल और ईमानवाले एक ऐसे अभियान पर जा रहे हैं, जिससे वे बचकर न आएँगे।
24. मूल अरबी शब्द हैं 'कुन्तुम क़ौमम बूरा' । बूर बहुवचन है बाइर का और बाइर के दो अर्थ हैं- एक दुष्कर्मी, बिगड़ा हुआ आदमी जो किसी भले काम के योग्य न हो, जिसकी नीयत में फ़साद (बिगाड़) हो। दूसरा हलाक व तबाह होनेवाला, बुरे अंजामवाला, तबाही के रास्ते पर जानेवाला।
وَمَن لَّمۡ يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ فَإِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ سَعِيرٗا ۝ 12
(13) अल्लाह और उसके रसूल पर जो लोग ईमान न रखते हों, ऐसे इंकार करनेवालों के लिए हमने भड़कती हुई आग तैयार कर रखी है।25
25. यहाँ अल्लाह ऐसे लोगों को स्पष्ट शब्दों में इंकार करनेवाला (काफ़िर) और ईमान से ख़ाली क़रार देता है जो अल्लाह और उसके दीन के मामले में निष्ठावान न हों और परीक्षा की घड़ी आने पर दीन के लिए अपनी जान व माल और अपने हितों को ख़तरे में डालने से जी चुरा जाएँ। लेकिन यह ध्यान में रहे कि यह वह 'कुफ़्र' (इंकार) नहीं है जिसकी बुनियाद पर दुनिया में किसी आदमी या गिरोह को इस्लाम से ख़ारिज क़रार दे दिया जाए, बल्कि वह कुफ़्र (इंकार) है जिसके कारण आख़िरत में वह ग़ैर-मोमिन (ईमान से खाली) क़रार पाएगा। इसका प्रमाण यह है कि इस आयत के उतरने के बाद भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उन लोगों को, जिनके बारे में यह आयत उतरी थी, इस्लाम से ख़ारिज क़रार नहीं दिया और न उनसे वह मामला किया जो इंकारियों से किया जाता है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 13
(14) आसमानों और ज़मीन की बादशाही का मालिक अल्लाह ही है, जिसे चाहे माफ़ करे और जिसे चाहे सज़ा दे और वह माफ़ करनेवाला और दयावान है।26
26. ऊपर की सख़्त चेतावनी के बाद अल्लाह के क्षमाशील और दयावान होने का उल्लेख अपने अन्दर शिक्षा का एक सूक्ष्म पहलू रखता है। इसका अर्थ यह है कि अगर अब भी अपनी अनिष्ठापूर्ण नीति को छोड़कर तुम लोग निष्ठा-मार्ग पर आ जाओ तो अल्लाह को तुम माफ़ करनेवाला और दयावान पाओगे। वह तुम्हारी पिछली कोताहियों को माफ़ कर देगा और आगे तुम्हारे साथ वह मामला करेगा जिसके तुम अपनी निष्ठा के आधार पर हक़दार होगे।
سَيَقُولُ ٱلۡمُخَلَّفُونَ إِذَا ٱنطَلَقۡتُمۡ إِلَىٰ مَغَانِمَ لِتَأۡخُذُوهَا ذَرُونَا نَتَّبِعۡكُمۡۖ يُرِيدُونَ أَن يُبَدِّلُواْ كَلَٰمَ ٱللَّهِۚ قُل لَّن تَتَّبِعُونَا كَذَٰلِكُمۡ قَالَ ٱللَّهُ مِن قَبۡلُۖ فَسَيَقُولُونَ بَلۡ تَحۡسُدُونَنَاۚ بَلۡ كَانُواْ لَا يَفۡقَهُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 14
(15) जब तुम ग़नीमत का माल हासिल करने के लिए जाने लगोगे तो ये पीछे छोड़े जानेवाले लोग तुमसे ज़रूर कहेंगे कि हमें भी अपने साथ चलने दो।27 ये चाहते हैं कि अल्लाह के फ़रमान को बदल दें।28 इनसे साफ़ कह देना कि "तुम कदापि हमारे साथ नहीं चल सकते, अल्लाह पहले ही यह फ़रमा चुका है।’’29 ये कहेंगे कि "नहीं, बल्कि तुम लोग हमसे ईर्ष्या कर रहे हो।" (हालाँकि बात ईर्ष्या की नहीं है) बल्कि ये लोग सही बात को कम ही समझते हैं।
27. अर्थात् बहुत जल्द वह समय आनेवाला है जब यही लोग, जो आज ख़तरे की मुहिम पर तुम्हारे साथ जाने से जी चुरा गए थे, तुम्हें एक ऐसी मुहिम पर जाते देखेंगे जिसमें उनको आसान जीत और बहुत-से ग़नीमत के माल के प्राप्त होने की संभावना दिखाई देगी और उस समय ये स्वयं दौड़े आएँगे कि हमें भी अपने साथ ले चलो। यह वक़्त हुदैबिया के समझौते के तीन महीने बाद ही आ गया जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ख़ैबर पर चढ़ाई की और बड़ी आसानी के साथ उसे जीत लिया। उस समय हर आदमी को यह बात साफ़ नज़र आ रही थी कि कुरैश से समझौता हो जाने के बाद अब ख़ैबर ही के नहीं, बल्कि तैमा, फ़दक, वादियुलकुरा और उत्तरी हिजाज़ के दूसरे यहूदी भी मुसलमानों की ताक़त का मुक़ाबला न कर सकेंगे और ये सारी बस्तियाँ पके फल की तरह इस्लामी राज्य की गोद में आ गिरेंगी। इसलिए अल्लाह ने अपने रसूल (सल्ल०) को इन आयतों में पेशगी सूचना दे दी कि मदीना के आस-पास के ये अवसरवादी लोग इन आसान विजयों को प्राप्त होते देखकर उनमें हिस्सा बटा लेने के लिए आ खड़े होंगे, मगर तुम उन्हें साफ़ जवाब दे देना कि इनमें हिस्सा लेने का अवसर तुम्हें कदापि न दिया जाएगा, बल्कि यह उन लोगों का हक़ है जो ख़तरों के मुक़ाबले में सरफ़रोशी के लिए आगे बढ़े थे।
28. 'अल्लाह के फ़रमान' से तात्पर्य यह फ़रमान है कि ख़ैबर के अभियान पर नबी (सल्ल०) के साथ जाने की सिर्फ़ उन्हीं लोगों को इजाजत दी जाएगी जो हुदैबिया के अभियान पर आप (सल्ल०) के साथ गए थे और बैअते-रिजवान' में शरीक हुए थे। अल्लाह ने ख़ैबर के गनीमत के माल उन्हीं के लिए ख़ास कर दिए थे, जैसा कि आगे आयत 18 में स्पष्ट रूप से फ़रमाया गया है।
قُل لِّلۡمُخَلَّفِينَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ سَتُدۡعَوۡنَ إِلَىٰ قَوۡمٍ أُوْلِي بَأۡسٖ شَدِيدٖ تُقَٰتِلُونَهُمۡ أَوۡ يُسۡلِمُونَۖ فَإِن تُطِيعُواْ يُؤۡتِكُمُ ٱللَّهُ أَجۡرًا حَسَنٗاۖ وَإِن تَتَوَلَّوۡاْ كَمَا تَوَلَّيۡتُم مِّن قَبۡلُ يُعَذِّبۡكُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 15
(16) इन पीछे छोड़े जानेवाले अरब बदुओं से कहना कि “बहुत जल्द तुम्हें ऐसे लोगों से लड़ने के लिए बुलाया जाएगा जो बड़े बलशाली हैं। तुमको उनसे युद्ध करना होगा या वे आज्ञाकारी हो जाएँगे।30 उस समय अगर तुमने जिहाद के आदेश का पालन किया, तो अल्लाह तुम्हें अच्छा बदला देगा और अगर तुम फिर उसी तरह मुँह मोड़ गए, जिस तरह पहले मोड़ चुके हो, तो अल्लाह तुमको दर्दनाक सज़ा देगा।
30. मूल अरबी शब्द हैं 'अव युसलिमून'। इसके दो अर्थ हो सकते हैं और दोनों ही अभीष्ट हैं । एक, यह कि वे इस्लाम ग्रहण कर लें। दूसरे, यह कि वे इस्लामी राज्य की अधीनता स्वीकार कर लें।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞۗ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَمَن يَتَوَلَّ يُعَذِّبۡهُ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 16
(17) हाँ, अगर अंधा और लंगड़ा और बीमार जिहाद के लिए न आए तो कोई हरज नहीं।31 जो कोई अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करेगा, अल्लाह उसे उन जन्नतों में प्रवेश कराएगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, और जो मुंह फेरेगा, उसे वह दर्दनाक अज़ाब देगा।"
31. अर्थात् जिस आदमी के लिए जिहाद में शरीक होने में वास्तव में कोई सही मजबूरी बाधक हो, उसपर तो कोई पकड़ नहीं, मगर हट्टे-कट्टे लोग अगर बहाने बनाकर बैठ रहें तो उनको अल्लाह और उसके दीन (धर्म) के मामले में निष्ठावान नहीं माना जा सकता और उन्हें यह अवसर नहीं दिया जा सकता कि गि मुस्लिम समाज में शामिल होने के फ़ायदे तो समेटते रहें, मगर जब इस्लाम के लिए क़ुर्बानियाँ देने का समय आए तो अपनी जान व माल की ख़ैर मनाएँ। यहाँ यह बात जान लेनी चाहिए कि शरीअत में जिन लोगों को जिहाद में शरीक होने से मुक्त रखा गया है, वे दो प्रकार के लोग हैं- एक, वे जो शारीरिक रूप से युद्ध के योग्य न हों, जैसे, कमसिन बच्चे, औरतें, मजनून (पागल), अँधे, ऐसे बीमार जो सामरिक सेवाएँ न कर सकते हों और ऐसे विकलांग लोग जो हाथ या पाँव बेकार होने की वजह से युद्ध में हिस्सा न ले सकें। दूसरे, वे लोग जिनके लिए कुछ और उचित कारणों से जिहाद में शरीक होना कठिन हो, जैसे, ग़ुलाम (दास) या वे लोग जो युद्ध के लिए तो तैयार हों, मगर उनके पास लड़ाई के हथियार और दूसरे ज़रूरी संसाधन उपलब्ध न हो सकें, या ऐसे क़र्ज़दार जिन्हें जल्दी से जल्दी अपना क़र्ज़ अदा करना हो और क़र्ज़ देनेवाला उन्हें मुहलत न दे रहा हो, या ऐसे लोग जिनके माँ-बाप या उनमें से कोई एक ज़िंदा हो और वह इसका मुहताज हो कि सन्तान उसकी देखभाल करे। इस सिलसिले में यह स्पष्ट कर देना भी ज़रूरी है कि माँ-बाप अगर मुसलमान हों तो सन्तान को उनकी इजाज़त के बिना जिहाद पर न जाना चाहिए, लेकिन अगर वे 'ग़ैर-मुस्लिम' हों तो उनके रोकने से किसी आदमी का रुक जाना जाइज़ (वैध) नहीं है।
۞لَّقَدۡ رَضِيَ ٱللَّهُ عَنِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذۡ يُبَايِعُونَكَ تَحۡتَ ٱلشَّجَرَةِ فَعَلِمَ مَا فِي قُلُوبِهِمۡ فَأَنزَلَ ٱلسَّكِينَةَ عَلَيۡهِمۡ وَأَثَٰبَهُمۡ فَتۡحٗا قَرِيبٗا ۝ 17
(18) अल्लाह ईमानवालों से प्रसन्न हो गया, जब वे पेड़ के नीचे तुमसे बैअत कर रहे थे।32 उनके दिलों का हाल उसको मालूम था, इसलिए उसने उनपर सकीनत (शान्ति) उतारी,33 उनको इनाम में निकटवर्ती विजय प्रदान की,
32. यहाँ फिर उसी बैअत' का उल्लेख है जो हुदैबिया के स्थान पर सहाबा किराम (रज़ि०) से ली गई थी। इस बैअत को बैअते-रिज़वान' कहा जाता है, क्योंकि अल्लाह ने इस आयत में यह ख़ुशख़बरी सुनाई है कि वह उन लोगों से प्रसन्न हो गया जिन्होंने इस ख़तरनाक मौक़े पर जान की बाज़ी लगा देने में तनिक भर भी झिझक न दिखाई और रसूल (सल्ल०) के हाथ पर सरफ़रोशी की बैअ्त करके अपने सच्चे ईमानवाला होने का स्पष्ट प्रमाण दे दिया। अल्लाह के प्रसन्न होने का प्रमाण मिल जाने के बाद अगर कोई आदमी इन हज़रात से नाराज़ हो, या इनको ताने दे तो उसका झगड़ा उनसे नहीं, बल्कि अल्लाह से है। इसपर जो लोग यह कहते हैं कि जिस समय अल्लाह ने इन हज़रात को प्रसन्नता का यह प्रमाण प्रदान किया था, उस समय तो ये निष्ठावान थे, मगर बाद में ये अल्लाह और रसूल के बेवफ़ा हो गए, वे शायद अल्लाह से यह बदगुमानी रखते हैं कि उसे यह आयत उतारते समय उनके भविष्य की जानकारी न थी, इसलिए सिर्फ़ उस समय की हालत देखकर उसने यह परवाना उन्हें दे दिया और शायद इसी बेख़बरी के आधार पर उसे अपनी पवित्र किताब में भी दर्ज कर दिया, ताकि बाद में भी, जब ये लोग बेवफ़ा (कृतघ्न) हो जाएँ, उनके बारे में दुनिया यह आयत पढ़ती रहे और उस ख़ुदा के परोक्ष के ज्ञान की दाद देती रहे, जिसने ख़ुदा की पनाह इन बेवफ़ाओं को प्रसन्नता का यह परवाना प्रदान किया था। जिस पेड़ के नीचे यह बैअ्त हुई थी उसके बारे में हज़रत नाफे मौला इब्ने-उमर (रजि०) को यह रिवायत आम तौर पर मशहूर हो गई है कि लोग उसके पास जा-जाकर नमाजें पढ़ने लगे थे। हज़रत उमर (रजि०) को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने लोगों को डाँटा और उस पेड़ को कटवा दिया (तबकात इब्ने-सअ्द, भाग-2, पृ० 100)। लेकिन बहुत-सी रिवायतें इसके विपरीत भी हैं [जो कहती हैं कि बाद में लोग भूल गए कि वह कौन-सा पेड़ था।]
33. यहाँ सकीनत' से मुराद मन की वह स्थिति है जिसके कारण एक आदमी किसी महान उद्देश्य के लिए ठंडे दिल से पूरे सुकून और इत्मीनान के साथ अपने आपको ख़तरे के मुँह में झोंक देता है और किसी डर या घबराहट के बिना फ़ैसला कर लेता है कि यह काम बहरहाल करने का है, चाहे नतीजा कुछ भी हो।
وَمَغَانِمَ كَثِيرَةٗ يَأۡخُذُونَهَاۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 18
(19) और बहुत-सा ग़नीमत का माल उन्हें दे दिया, जिसे वे (बहुत जल्द) प्राप्त करेंगे।34 अल्लाह प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
34. यह संकेत है ख़ैबर की विजय और उसमें मिलनेवाले ग़नीमत के माल की ओर। और यह आयत इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह ने यह इनाम सिर्फ उन लोगों के लिए खास कर दिया था जो 'बैअते-रिजवान' में शरीक थे। उनके सिवा किसी को उस विजय और उन ग़नीमतों में शरीक होने का अधिकार नहीं था। इसी कारण जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) सफ़र 07 हिजरी में खैबर पर चढ़ाई के लिए निकले तो आप (सल्ल०) ने सिर्फ़ उन्हीं को अपने साथ लिया। इसमें सन्देह नहीं कि बाद में नबी (सल्ल०) ने हबश से वापस आनेवाले मुहाजिरों और कुछ दौसी और अशअरी सहाबियों को भी ख़ैबर के माल में से कुछ हिस्सा दिया, मगर वह या तो ख़ुम्स में से था या बैश्ते-रिज़वान में शामिल होनेवालों की रज़ामंदी से दिया गया। किसी को हक़ के तौर पर इस माल में हिस्सेदार नहीं बनाया गया।
وَعَدَكُمُ ٱللَّهُ مَغَانِمَ كَثِيرَةٗ تَأۡخُذُونَهَا فَعَجَّلَ لَكُمۡ هَٰذِهِۦ وَكَفَّ أَيۡدِيَ ٱلنَّاسِ عَنكُمۡ وَلِتَكُونَ ءَايَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ وَيَهۡدِيَكُمۡ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 19
(20) अल्लाह तुमसे बहुत-से ग़नीमत के मालों का वादा करता है जिन्हें तुम प्राप्त करोगे।35 तात्कालिक रूप में तो यह विजय उसने तुम्हें प्रदान कर दी36 और लोगों के हाथ तुम्हारे विरुद्ध उठने से रोक दिए,37 ताकि यह ईमानवालों के लिए एक निशानी (प्रतीक) बन जाए38 और अल्लाह सीधे रास्ते की ओर तुम्हें हिदायत दे,39
35. इससे अभिप्राय वे दूसरी विजय हैं जो ख़ैबर के बाद मुसलमानों को बराबर प्राप्त होती चली गईं।
36. इससे अभिप्राय है हुदैबिया का समझौता जिसको सूरा के शुरू में फ़तहे-मुबीन अर्थात् स्पष्ट विजय कहा गया है।
وَأُخۡرَىٰ لَمۡ تَقۡدِرُواْ عَلَيۡهَا قَدۡ أَحَاطَ ٱللَّهُ بِهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٗا ۝ 20
(21) इसके अलावा दूसरी और गनीमतों का भी वह तुमसे वादा करता है, जिनपर तुम अभी काबू नहीं पा सके हो और अल्लाह ने उनको घेर रखा है।40 अल्लाह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है।
40. अधिक सम्भावना इसकी है कि यह संकेत मक्का की विजय की ओर है। यही राय क़तादा की है और इसी को इब्ने-जरीर ने प्राथमिकता दी है। अल्लाह के इस कथन का मतलब यह मालूम होता है कि अभी तो मक्का तुम्हारे क़ाबू में नहीं आया है, मगर अल्लाह ने उसे घेरे में ले लिया है और हुदैबिया की इस विजय के नतीजे में वह भी तुम्हारे क़ब्ज़े में आ जाएगा।
وَلَوۡ قَٰتَلَكُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوَلَّوُاْ ٱلۡأَدۡبَٰرَ ثُمَّ لَا يَجِدُونَ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 21
(22) ये काफ़िर (इंकारी) लोग अगर इस समय तुमसे लड़ गए होते तो निश्चित रूप से पीठ फेर जाते और कोई संरक्षक और सहायक न पाते।41
41. अर्थात् हुदैबिया में युद्ध को अल्लाह ने इसलिए नहीं रोका कि वहाँ तुम्हारे पराजित हो जाने की संभावना थी, बल्कि इसका कारण कुछ दूसरा था जिसका उल्लेख आगे की आयतों में किया जा रहा है। अगर वह कारण बाधक न बनता, और अल्लाह उस स्थान पर युद्ध हो जाने देता, तो निश्चित रूप से इस्लाम-विरोधियों ही की हार होती और मक्का मुअज्जमा पर उसी समय विजय प्राप्त हो जाती।
سُنَّةَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلُۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّةِ ٱللَّهِ تَبۡدِيلٗا ۝ 22
(23) यह अल्लाह की रीति (सुन्नत) है जो पहले से चली आ रही है42, और तुम अल्लाह की रीति में कोई परिवर्तन न पाओगे।
42. इस जगह अल्लाह की रीति (सुन्नत) से तात्पर्य यह है कि जो इस्लाम-विरोधी अल्लाह के रसूल से युद्ध करते हैं, अल्लाह उनको अपमानित व रुसवा करता है और अपने रसूल की सहायता करता है।
وَهُوَ ٱلَّذِي كَفَّ أَيۡدِيَهُمۡ عَنكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ عَنۡهُم بِبَطۡنِ مَكَّةَ مِنۢ بَعۡدِ أَنۡ أَظۡفَرَكُمۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرًا ۝ 23
(24) वही है जिसने मक्का की घाटी में उनके हाथ तुमसे और तुम्हारे हाथ उनसे रोक दिए, हालाँकि वह उनपर तुम्हें वर्चस्व प्रदान कर चुका था, और जो कुछ तुम कर रहे थे, अल्लाह उसे देख रहा था।
هُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّوكُمۡ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَٱلۡهَدۡيَ مَعۡكُوفًا أَن يَبۡلُغَ مَحِلَّهُۥۚ وَلَوۡلَا رِجَالٞ مُّؤۡمِنُونَ وَنِسَآءٞ مُّؤۡمِنَٰتٞ لَّمۡ تَعۡلَمُوهُمۡ أَن تَطَـُٔوهُمۡ فَتُصِيبَكُم مِّنۡهُم مَّعَرَّةُۢ بِغَيۡرِ عِلۡمٖۖ لِّيُدۡخِلَ ٱللَّهُ فِي رَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۚ لَوۡ تَزَيَّلُواْ لَعَذَّبۡنَا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابًا أَلِيمًا ۝ 24
(25) वही लोग तो हैं जिन्होंने इंकार किया और तुमको मस्जिदे-हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद, काबा) से रोका और कुर्बानी के ऊँटों को उनकी कुर्बानी की जगह न पहुँचने दिया।43 अगर (मक्का में) ऐसे ईमानवाले मर्द और औरतें मौजूद न होतीं जिन्हें तुम नहीं जानते, और यह आशंका न होती कि अनजाने में तुम उन्‍हें कुचल दोगे और इससे तुम दोषी ठहरोगे (तो लड़ाई न रोकी जाती। रोकी वह इसलिए गई) ताकि अल्लाह अपनी रहमत में जिसको चाहे दाखिल कर ले । वे ईमानवाले अलग हो गए होते तो (मक्कावालों में से) जो इंकारी थे, उनको हम ज़रूर कठोर सज़ा देते।44
43. अर्थात् जिस निष्ठा और निस्स्वार्थ भाव के साथ तुम लोग सच्चे दीन के लिए सर-धड़ की बाज़ी लगा देने पर तैयार हो गए थे और जिस तरह बिना आनाकानी के रसूल का आज्ञापालन कर रहे थे, अल्लाह उसे भी देख रहा था, और यह भी देख रहा था कि इस्लाम-विरोधी पूरी तरह ज़्यादती कर रहे हैं। इस स्थिति का तक़ाज़ा तो यह था कि वहीं और उसी समय तुम्हारे हाथों से उनको कुचल दिया जाता, लेकिन इसके बावजूद एक निहित उद्देश्य था जिसके कारण अल्लाह ने तुम्हारे हाथ उनसे और उनके हाथ तुमसे रोक दिए।
44. यह था वह निहित उद्देश्य जिसकी वजह से अल्लाह ने हुदैबिया में युद्ध न होने दिया। इस निहित उद्देश्य के दो पहलू हैं। एक, यह कि मक्का मुअज्जमा में उस समय बहुत-से मुसलमान मर्द और औरतें ऐसे मौजूद थे जिन्होंने या तो अपना ईमान छिपा रखा था, या जिनका ईमान मालूम था मगर वे अपनी बेबसी के कारण हिजरत न कर सकते थे और ज़ुल्म और अत्याचार के शिकार हो रहे थे। ऐसी स्थिति में अगर युद्ध होता और मुसलमान शत्रुओं को रगेदते हुए मक्का मुअज्जमा में दाखिल होते तो दुश्मनों के साथ-साथ ये मुसलमान भी अनजाने में मुसलमानों के हाथों मारे जाते, जिससे मुसलमानों को अपनी जगह भी रंज और दुख होता और अरब के मुशरिकों को भी यह कहने का मौका मिल जाता कि ये लोग तो लड़ाई में स्वयं अपने ही धर्म-भाइयों को भी मारने से नहीं चूकते। इसलिए अल्लाह ने इन बेबस मुसलमानों पर दया करके और सहाबा किराम (रज़ि०) को दुख और बदनामी से बचाने के लिए इस अवसर पर युद्ध को टाल दिया। दूसरा पहलू इस निहित उद्देश्य का यह था कि अल्लाह कुरैश को एक खूनी युद्ध में पराजित करा के मक्का पर विजय दिलाना नहीं चाहता था, बल्कि उसके सामने यह था कि दो साल के अन्दर उनको हर ओर से घेरकर इस तरह बेबस कर दे कि वे किसी विरोध के बिना अधीनता स्वीकार कर लें, और फिर पूरे का पूरा क़बीला इस्लाम स्वीकार करके अल्लाह के अनुग्रह में दाख़िल हो जाए, जैसा कि मक्का की विजय के अवसर पर हुआ।
إِذۡ جَعَلَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡحَمِيَّةَ حَمِيَّةَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ فَأَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَعَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَأَلۡزَمَهُمۡ كَلِمَةَ ٱلتَّقۡوَىٰ وَكَانُوٓاْ أَحَقَّ بِهَا وَأَهۡلَهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 25
(26) (यही कारण है कि) जब इन इंकारियों ने अपने दिलों में अज्ञान का तास्सुब (पक्षपात)45 बिठा लिया तो अल्लाह ने अपने रसूल और ईमानवालों पर सकीनत (शान्ति) उतारी46 और ईमानवालों को परहेज़गारी (तक़वा) की बात का पाबंद रखा कि वही उसके अधिक हक़दार और उसके योग्य थे। अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।
45. अज्ञानतापूर्ण पूर्वाग्रह और पक्षपात से तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति केवल अपनी नाक के लिए या अपनी बात के पक्ष में जान-बूझकर एक अनुचित काम करे। मक्का के इस्लाम-विरोधी स्वयं जानते और मानते थे कि हर व्यक्ति को हज और उमरे के लिए अल्लाह के घर की ज़ियारत (दर्शन) का अधिकार प्राप्त है और किसी को इस धार्मिक कार्य से रोकने का अधिकार नहीं है। यह अरब का प्राचीनतम सर्वमान्य नियम था, लेकिन अपने आपको पूर्णत: असत्य पर और मुसलमानों को बिलकुल सत्य पर जानने के बावजूद उन्होंने सिर्फ़ अपनी नाक के लिए मुसलमानों को उमरे से रोका। स्वयं मुशरिकों में से जो सत्यप्रिय थे वे भी यह कह रहे थे कि जो लोग एहराम बाँधकर क़ुर्बानी के ऊँट साथ लिए हुए उमरा करने आए हैं उनको रोकना एक अनुचित बात है, मगर क़ुरैश के सरदार सिर्फ इस विचार से विरोध पर अड़े रहे कि अगर मुहम्मद (सल्ल०) इतने बड़े गिरोह के साथ मक्का में दाखिल हो गए तो तमाम अरब में हमारी नाक कट जाएगी। यही उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात था।
46. यहाँ 'सकीनत' से तात्पर्य है सब्र (धैर्य) और वक़ार (गरिमा), जिसके साथ नबी (सल्ल०) और मुसलमानों ने क़ुरैश के इस्लाम विरोधियों के इस अज्ञानतापूर्ण पक्षपात का मुक़ाबला किया, वे उनकी इस हठधर्मी और स्पष्ट अन्याय पर उत्तेजित होकर आपे से बाहर न हुए और उनके जवाब में कोई बात उन्होंने ऐसी न की जिससे सत्य का अतिक्रमण होता और सच्चाई के विरुद्ध होती, या जिससे मामला कुशलतापूर्वक सुलझने के बजाय और अधिक बिगड़ जाता।
لَّقَدۡ صَدَقَ ٱللَّهُ رَسُولَهُ ٱلرُّءۡيَا بِٱلۡحَقِّۖ لَتَدۡخُلُنَّ ٱلۡمَسۡجِدَ ٱلۡحَرَامَ إِن شَآءَ ٱللَّهُ ءَامِنِينَ مُحَلِّقِينَ رُءُوسَكُمۡ وَمُقَصِّرِينَ لَا تَخَافُونَۖ فَعَلِمَ مَا لَمۡ تَعۡلَمُواْ فَجَعَلَ مِن دُونِ ذَٰلِكَ فَتۡحٗا قَرِيبًا ۝ 26
(27) वास्तव में अल्लाह ने अपने रसूल को सच्चा सपना दिखाया था, जो ठीक-ठीक सत्य के अनुसार था।47 अगर अल्लाह ने चाहा तो तुम48 ज़रूर मस्जिदे-हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद) में पूरी शान्ति के साथ प्रवेश करोगे,49 अपने सर मुंडवाओगे और बाल कटवाओगे।50 और तुम्हें कोई भय न होगा। वह उस बात को जानता था, जिसे तुम न जानते थे। इसलिए वह सपना पूरा होने से पहले उसने यह निकटवर्ती विजय तुमको प्रदान कर दी।
47. यह उस प्रश्न का उत्तर है जो बार-बार मुसलमानों के दिलों में खटक रहा था। वे कहते थे कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वप्न तो देखा था कि आप (सल्ल०) मस्जिदे-हराम (काबा) में दाखिल हुए और अल्लाह के घर का तवाफ़ (परिक्रमा) किया है। फिर यह क्या हुआ कि हम उमरा किए बग़ैर वापस जा रहे हैं। इसके उत्तर में यद्यपि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमा दिया था कि सपने में इसी साल उमरा होने की बात तो नहीं थी, मगर इसके बावजूद अभी तक कुछ न कुछ बेचैनी दिलों में बाक़ी थी। इसलिए अल्लाह ने स्वयं यह स्पष्ट कर दिया कि वह स्वप्न हमने दिखाया था और वह बिलकुल सच्चा था और वह यक़ीनन पूरा होकर रहेगा।
48. यहाँ अल्लाह ने स्वयं अपने वादे के साथ 'अगर अल्लाह ने चाहा' के शब्द जो प्रयुक्त किए हैं, उसपर एक आपत्तिकर्ता यह प्रश्न कर सकता है कि जब यह वादा अल्लाह स्वयं ही कर रहा है तो इसके लिए अल्लाह के चाहने की शर्त लगाने का क्या मतलब? इसका उत्तर यह है कि यहाँ ये शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुए हैं कि अगर अल्लाह न चाहेगा तो अपना यह वादा पूरा न करेगा, बल्कि वास्तव में इनका संबंध उस पृष्ठभूमि से है जिसमें यह वादा किया गया है। मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने जिस दंभ के कारण मुसलमानों को उमरे से रोकने का यह सारा खेल खेला था, वह यह था कि जिसको हम उमरा करने देना चाहेंगे, वह उमरा कर सकेगा और जब हम उसे करने देंगे, उसी समय वह कर सकेगा। इसपर अल्लाह ने फ़रमाया है कि यह उनके चाहने पर नहीं, बल्कि हमारे चाहने पर निर्भर है। इस साल उमरे का न हो सकना इसलिए नहीं हुआ कि मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने यह चाहा था कि वह न हो, बल्कि यह इसलिए हुआ कि हमने उसको न होने देना चाहा था। और आगे यह उमरा अगर हम चाहेंगे तो होगा, चाहे विरोधी चाहें या न चाहें। इसके साथ इन शब्दों में यह अर्थ भी छिपा हुआ है कि मुसलमान भी जो उमरा करेंगे तो अपने ज़ोर से नहीं करेंगे, बल्कि इस वजह से करेंगे कि हमारी इच्छा यह होगी कि वे उमरा करें। वरना हमारी इच्छा अगर इसके विपरीत हो तो उनका यह बलबूता नहीं है कि खुद उमरा कर डालें।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدٗا ۝ 27
(28) वह अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और सत्य धार के साथ भेजा है ताकि उसको पूरे के पूरे दीन पर ग़ालिब (प्रभुत्व प्रदान) कर दे, और इस सच्चाई पर अल्लाह की गवाही काफ़ी है।51
51. यहाँ यह बात कहने का कारण यह है कि दुनिया में जब संधि पत्र लिखा जाने लगा था, उस समय मक्‍का के इस्‍लाम-विरोधियों ने नबी (सल्‍ल०) के मुबारक नाम के साथ रसूलुल्‍लाह (अल्‍लाह के रसूल) के शब्दों के लिखने पर आपत्ति की थी और उनके आग्रह पर नबी (सल्ल०) ने स्वयं संधि पत्र में से ये शब्द मिटा दिए थे। इसपर अल्लाह फरमा रहा है कि हमारे रसूल का रसूल होना तो एक हकीकत है जिसमें किसी के मानने या न मानने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसको अगर कुछ लोग नहीं मानते तो न मानें, इसके सत्य होने पर केवल हमारी गवाही काफी है। उनके इंकार कर देने से यह वास्तविकता बदल नहीं जाएगी, बल्कि उनके न मानने के बावजूद उस हिदायत और उस सत्य धर्म को पूरे के पूरे दीन (धर्म) पर प्रभुत्व प्राप्त होकर रहेगा जिसे लेकर यह रसूल हमारी ओर से आया है, चाहे ये इंकारी उसे रोकने के लिए कितना ही जोर मारकर देख लें। 'पूरे के पूरे दीन' से तात्पर्य मानव जीवन की वे समस्त व्यवस्थाएँ हैं जो 'दीन' की हैसियत रखती हैं। इसकी सविस्तार व्याख्या हम इससे पहले सूरा-39 अज-जुमर, टिणणी 3 और टीका सूरा 42 शूरा, टिप्पणी 20 में कर चुके हैं। यहाँ जो बात अल्लाह ने स्पष्ट शब्दों में फ़रमाई है, वह यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाकर भेजे जाने का उद्देश्य सिर्फ इस दीन का प्रचार न था, बल्कि उसे दीन की हैसियत रखनेवाली तमाम जीवन-व्यवस्थाओं पर ग़ालिब कर देना था।
مُّحَمَّدٞ رَّسُولُ ٱللَّهِۚ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ أَشِدَّآءُ عَلَى ٱلۡكُفَّارِ رُحَمَآءُ بَيۡنَهُمۡۖ تَرَىٰهُمۡ رُكَّعٗا سُجَّدٗا يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٗاۖ سِيمَاهُمۡ فِي وُجُوهِهِم مِّنۡ أَثَرِ ٱلسُّجُودِۚ ذَٰلِكَ مَثَلُهُمۡ فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِۚ وَمَثَلُهُمۡ فِي ٱلۡإِنجِيلِ كَزَرۡعٍ أَخۡرَجَ شَطۡـَٔهُۥ فَـَٔازَرَهُۥ فَٱسۡتَغۡلَظَ فَٱسۡتَوَىٰ عَلَىٰ سُوقِهِۦ يُعۡجِبُ ٱلزُّرَّاعَ لِيَغِيظَ بِهِمُ ٱلۡكُفَّارَۗ وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِنۡهُم مَّغۡفِرَةٗ وَأَجۡرًا عَظِيمَۢا ۝ 28
(29) मुहम्मद अल्लाह के रसूल है, और जो लोग उनके साथ हैं ये कुफ़्फ़ार (ईकारियों) पर कठोर52 और आपस में दया है। तुम जब देखोगे, उन्हें रुकूअ व सज्‍दों और अल्लाह की मेहरबानी और उसकी प्रसन्नता की तलब में व्यस्त पाओगे। सज्दों के प्रभाव उनके चेहरों पर मौजूद हैं जिनसे वे अलग पहचाने जाते हैं।54 यह है उनकी विशेषता तौरात में।55 और इंजील में उनकी मिसाल यूँ दी गई है56 कि मानो एक खेती है जिसने पहले कोंपल निकाली, फिर उसको ताक़त दी, फिर वह गदराई, फिर अपने तने पर खड़ी हो गई। खेती करनेवालों को वह ख़ुश करती है, ताकि कुफ़्फ़ार (इंकारी) उनके फलने-फूलने पर जलें। इस गिरोह के लोग जो ईमान लाए हैं और जिन्होंने भले कर्म किए हैं, अल्लाह ने उनसे माफ़ी और बड़े बदले का वायदा फ़रमाया है।57
52. मूल अरबी शब्द है 'अशिद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार'। अरबी में 'शद्' का इस्तेमाल दबाना या राम करना या अपने मतलब पर लाने में कठिनाई के आने के अर्थ में होता है। 'कुफ़्फ़ार' (इस्लाम विरोधियों) पर मुहम्मद (सल्ल०) के साथियों के कठोर होने का मतलब यह नहीं है कि वे इस्लाम विरोधियों के साथ दुर्व्यवहार और निष्ठुरता से पेश आते हैं, बल्कि इसका अर्थ यह है कि वे अपने ईमान के पक्का होने, नियमों की दृढ़ता, आचरण की शक्ति और ईमानी सूझ-बूहा और विवेक के कारण इस्लाम विरोधियों के मुक़ाबले में पत्थर की चट्टान का हुक्म रखते हैं। वे मोम की नाक नहीं है कि उन्हें इस्लाम विरोधी जिधर चाहें मोड़ दें। वे नर्म चारा नहीं है कि दुश्मन उन्हें आसानी के साथ चबा जाएँ। उन्हें किसी भय से दबाया नहीं जा सकता, उन्हें किसी लालच और प्रलोभन से खरीदा नहीं जा सकता। 'इस्लाम-विरोधियों में यह शक्ति नहीं है कि उन्हें उस महान उद्देश्य से हटा दें जिसके लिए वे सर धड़ की बाजी लगाकर मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देने के लिए उठे हैं।
53. अर्थात् उनकी कठोरता और सख़्ती जो कुछ भी है दीन के दुश्मनों के लिए है, ईमानवालों के लिए नहीं है। ईमानवालों के मुक़ाबले में वे नर्म हैं, दयालु हैं, सहानुभूति रखनेवाले हैं, हमदर्द व दुख-दर्द बाँटनेवाले हैं, नियमों और उद्देश्यों के एकत्व ने उनके अंदर एक-दूसरे के लिए प्रेम और एकरूपता और अनुकूलता पैदा कर दी है।
57. एक गिरोह इस आयत का अनुवाद यह करता है कि "इनमें से जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किए, अल्लाह ने उनसे मरिफ़रत और बड़े बदले का वादा फ़रमाया है।" इस तरह ये लोग सहाबा पर तान का रास्ता निकालते हैं और दावा करते हैं कि इस आयत की दृष्टि से सहाबा में से बहुत-से लोग मोमिन और नेक न थे। लेकिन यह टीका इसी सूरा की आयत 4-5, 18 और 26 के ख़िलाफ़ पड़ती है और ख़ुद इस आयत के शुरू के वाक्यों से भी मेल नहीं रखती।