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سُورَةُ سَبَإٍ

 34. सबा

(मक्का में उतरी, आयतें 54)

 

परिचय

नाम

आयत 15 के वाक्यांश 'ल-क़द का-न लि स-ब-इन फ़ी मस्कनिहिम आय:'(सबा के लिए उनके अपने निवास स्थान ही में एक निशानी मौजूद थी) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि वह सूरा जिसमें सबा का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

इसके उतरने का ठीक समय किसी विश्वस्त उल्लेख से मालूम नहीं होता। अलबत्ता वर्णनशैली से ऐसा लगता है कि या तो वह मक्का का मध्यकाल है या आरंभिक काल और अगर मध्यकाल है तो शायद उसका आरंभिक समय है, जबकि ज़ुल्म और अत्याचारों में उग्रता न आई थी।

विषय और वार्ता

इस सूरा में विधर्मियों के उन आक्षेपों का उत्तर दिया गया है जो वे नबी (सल्ल०) की 'तौहीद' (एकेश्वरवाद)और आख़िरत' (परलोकवाद) की दावत पर और ख़ुद आपकी पैग़म्बरी पर अधिकतर व्यंग्य एवं उपहास और अश्लील आरोपों के रूप में पेश करते थे। उन आक्षेपों का उत्तर कहीं तो उनको नक़ल करके दिया गया है और कहीं व्याख्यान से स्वयं यह स्पष्ट हो जाता है कि यह किस आक्षेप का उत्तर है। उत्तर अधिकतर स्थानों पर समझाने-बुझाने, याद दिलाने और तर्क देकर मन में उतारने की शैली में हैं, लेकिन कहीं-कहीं विधर्मियों को उनकी हठधर्मी के बुरे अंजाम से डराया भी गया है। इसी सिलसिले में हज़रत दाऊद (अलैहि०), हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और सबा क़ौम के वृत्तान्त इस उद्देश्य के लिए बयान किए गए हैं कि तुम्हारे सामने इतिहास की ये दोनों मिसालें मौजूद हैं । इन दोनों मिसालों को सामने रखकर स्वयं राय क़ायम कर लो कि तौहीद और आख़िरत के विश्वास और नेमत के प्रति कृतज्ञता-प्रदर्शन से जो जीवन बनता है, वह ज़्यादा बेहतर है या वह जीवन जो कुफ्र और शिर्क और आख़िरत के इंकार और दुनियापरस्ती की बुनियाद पर निर्मित है।

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سُورَةُ سَبَإٍ
34. सबा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلۡأٓخِرَةِۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ
(1) 'हम्द' (प्रशंसा) उस अल्लाह के लिए है जो आसमानों और ज़मीन की हर चीज़ का मालिक है1 और आख़िरत में भी उसी के लिए हम्द है।2 वह तत्वदर्शी और ख़बर रखनेवाला है।3
1. "हम्द" का शब्द अरबी भाषा में प्रशंसा और कृतज्ञता दोनों के लिए प्रयुक्त होता है, और यहाँ दोनों अर्थ पाए जाते हैं। जब अल्लाह सम्पूर्ण सृष्टि और उसकी हर चीज़ का मालिक है तो अनिवार्य रूप से इस सृष्टि में सौन्दर्य व कुशलता और तत्त्वदर्शिता व सामर्थ्य और कौशल व कारीगरी की जो शान भी नज़र आती है, उसकी प्रशंसा का अधिकारी वही है। और इस सृष्टि में रहनेवाला जिस चीज़ से भी कोई लाभ या आनन्द या लज्जत प्राप्त कर रहा है, उसपर अल्लाह ही का शुक्र उसे अदा करना चाहिए।
2. अर्थात् जिस तरह इस दुनिया की सारी नेमतें उसी की प्रदान की हुई हैं, उसी तरह आख़िरत में भी जो कुछ किसी को मिलेगा, उसी के ख़ज़ानों से और उसी के प्रदान करने से मिलेगा, इसलिए वहाँ भी वही प्रशंसा का अधिकारी भी है और कृतज्ञता का अधिकारी भी।
يَعۡلَمُ مَا يَلِجُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا يَخۡرُجُ مِنۡهَا وَمَا يَنزِلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا يَعۡرُجُ فِيهَاۚ وَهُوَ ٱلرَّحِيمُ ٱلۡغَفُورُ ۝ 1
(2) जो कुछ ज़मीन में जाता है और जो कुछ उससे निकलता है और जो कुछ आसमान से उतरता है और जो कुछ उसमें चढ़ता है, हर चीज़ को वह जानता है, वह दयावान और क्षमाशील है।4
4. अर्थात् ऐसा नहीं है कि उसके राज्य में अगर कोई आदमी या गिरोह उसके विरुद्ध विद्रोह करने के बावजूद पकड़ा नहीं जा रहा है तो उसका कारण यह है कि यह दुनिया अँधेर-नगरी और अल्लाह इसका चौपट राजा है, बल्कि इसका कारण यह है कि अल्लाह दयावान है और क्षमा से काम लेना उसकी आदत है। पापी और दोषी को अपराध करते ही पकड़ लेना, उसकी रोज़ी बन्द कर देना, उसके शरीर को अपंग कर देना, उसको आनन-फानन नष्ट कर देना, सब कुछ उसके सामर्थ्य में है, मगर वह ऐसा करता नहीं है, यह उसकी दया-भावना का तकाज़ा है कि सर्वशक्तिमान होने के बावजूद वह अवज्ञाकारी बंदों को ढील देता है, संभलने की मुहलत देता है, और जब भी वे बाज़ आ जाएँ, क्षमा कर देता है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَا تَأۡتِينَا ٱلسَّاعَةُۖ قُلۡ بَلَىٰ وَرَبِّي لَتَأۡتِيَنَّكُمۡ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِۖ لَا يَعۡزُبُ عَنۡهُ مِثۡقَالُ ذَرَّةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَآ أَصۡغَرُ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡبَرُ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 2
(3) इंकार करनेवाले कहते हैं, क्या बात है कि 'क़ियामत' हम पर नहीं आ रही है।5 कहो, "क़सम है मेरे परोक्ष के ज्ञाता पालनहार की, वह तुमपर आकर रहेगी।6 उससे कण भर कोई चीज़ न आसमानों में छिपी हुई है, न ज़मीन में, न कण से बड़ी और न उससे छोटी, सब कुछ एक स्पष्ट चिट्ठे में अंकित है।''7
5. यह बात वे व्यंग्य और उपहास के रूप में इठला-इठलाकर कहते थे। उनका मतलब यह था कि बहुत दिनों से यह पैग़म्बर साहब कियामत के आने की खबर सुना रहे हैं, मगर कुछ खबर नहीं कि वह आते-आते कहाँ रह गई। हमने इतना कुछ उन्हें झुठलाया, इतनी गुस्ताखियाँ की, उनका मज़ाक तक उड़ाया मगर, वह क़ियामत है कि किसी तरह नहीं आ चुकती।
6. पालनहार की कसम खाते हुए उसे 'परोक्ष ज्ञाता' बताने से स्वयं ही इस बात की ओर संकेत हो गया कि क़ियामत का आना तो निश्चित है, मगर इसके आने का समय परोक्ष-ज्ञाता ईश्वर के सिवा किसी को मालूम नहीं। यही विषय क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीकों से बयान हुआ है। विस्तार के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 187; सूरा-20 ता-हा, आयत 15; सूरा-31 लुक़मान, आयत 34; सूरा-33 अल-अहज़ाब, आयत 63; सूरा-67 अल मुल्क, आयत 25-26 और सूरा-79 अन-नाज़िआत, आयत 42-44
لِّيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 3
(4) और यह क़ियामत इसलिए आएगी कि बदला (जज़ा) दे अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए हैं और भले कर्म करते रहे हैं, उनके लिए क्षमा है और सम्मानपूर्ण रोज़ी
وَٱلَّذِينَ سَعَوۡ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مِّن رِّجۡزٍ أَلِيمٞ ۝ 4
(5) और जिन लोगों ने हमारी आयतों को नीचा दिखाने के लिए जोर लगाया है, उनके लिए सबसे बुरे क़िस्म का दर्दनाक अजाब है।8
8. ऊपर आख़िरत की संभावना का प्रमाण था और यह उसके अनिवार्य रूप से आने का प्रमाण है। अर्थ यह है कि ऐसा समय जरूर आना ही चाहिए. जब जालिमों को उनके जुल्म का और भलों को उनकी भलाई का बदला दिया जाए। बुद्धि यह चाहती है और न्याय यह तकाजा करता है कि जो भलाई करे, उसे इनाम मिले और जो बुरे कार्य करे, वह सजा पाए। अब अगर तुम देखते हो कि दुनिया के वर्तमान जीवन में न हर बुरे को उसकी बुराई का और नहर भले को उसकी भलाई का पूरा-पूरा बदला मिलता है, बल्कि कभी-कभी बुराई और नेको के उलटे नतीजे भी निकल आते हैं, तो तुम्हें मानना चाहिए कि बुद्धि और न्याय का यह अनिवार्य तकाजा किसी समय जरूर पूरा होना चाहिए। क़ियामत और आख़िरत उसी समय का नाम है, उसका आना नहीं, बल्कि न आना बुद्धि के विरुद्ध और न्याय से परे है। इस सिलसिले में एक और पहलू भी ऊपर की आयतों से स्पष्ट होता है। इनमें बताया गया है कि ईमान और भले कर्म का नतीजा क्षमा और बाइज्जत रोजी है। और जो लोग अल्लाह के दीन को नीचा दिखाने के लिए शत्रुतापूर्ण प्रयास करें, उनके लिए सबसे बुरे किस्म का अजाब है। इससे अपने आप यह स्पष्ट हो गया कि जो आदमी सच्चे मन से ईमान लाएगा, उसके कर्म में अगर कुछ दोष भी हो तो वह बाइज्जत रोजी भले ही न पाए, मगर क्षमादान से वंचित न रहेगा। और जो आदमी इंकारी तो हो मगर सत्य-धर्म के मुकाबले में बैर-भाव और विरोध की रोति भी न अपनाए, वह आजाब से तो न बचेगा, मगर बहुत बुरा अज़ाब उसके लिए नहीं है।
وَيَرَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ هُوَ ٱلۡحَقَّ وَيَهۡدِيٓ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَمِيدِ ۝ 5
(6) ऐ नबी ! ज्ञान रखनेवाले ख़ूब जानते हैं कि जो कुछ तुम्हारे पालनहार की ओर से तुमपर उतारा गया है, वह सर्वथा सत्य है और प्रभुत्वशाली और तमाम प्रशंसाओं वाले ख़ुदा का रास्ता दिखाता है।9
9. अर्थात् वे शत्रु तुम्हारे प्रस्तुत किए हुए सत्य को असत्य सिद्ध करने के लिए चाहे कितना ही ज़ोर लगाएँ, उनकी ये चालें सफल नहीं हो सकती, क्योंकि इन बातों से वे अज्ञानियों ही को धोखा दे सकते हैं। ज्ञान रखनेवाले लोग उनके धोखे में नहीं आते।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ هَلۡ نَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ يُنَبِّئُكُمۡ إِذَا مُزِّقۡتُمۡ كُلَّ مُمَزَّقٍ إِنَّكُمۡ لَفِي خَلۡقٖ جَدِيدٍ ۝ 6
(7) इंकार करनवाले लोगों से कहते हैं, “हम बताएँ तुम्हें ऐसा आदमी जो ख़बर देता है कि जब तुम्हारे देह का कण-कण बिखर चुका होगा, उस समय तुम नए सिरे से पैदा कर दिए जाओगे?
أَفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَم بِهِۦ جِنَّةُۢۗ بَلِ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ فِي ٱلۡعَذَابِ وَٱلضَّلَٰلِ ٱلۡبَعِيدِ ۝ 7
(8) न जाने यह आदमी अल्लाह के नाम से झूठ गढ़ता है या इसे उन्माद (जुनून) हो गया है।"10 नहीं, बल्कि जो लोग आख़िरत को नहीं मानते वे अज़ाब में पड़नेवाले हैं और वही बुरी तरह बहके हुए हैं।11
10. क़ुरैश के सरदार इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) को झूठा मानना आम लोगों के लिए बहुत कठिन है, क्योंकि सारी क़ौम आपको सच्चा जानती है और कभी सारी उम्र किसी ने आपकी जबान से कोई झूठी बात न सुनी थी। इसलिए वे लोगों के सामने अपना आरोप इस रूप में पेश करते थे कि यह आदमी जब मौत के बाद की ज़िंदगी जैसी अनहोनी बात ज़बान से निकालता है तो अनिवार्य रूप से इसका मामला दो हाल से खाली नहीं हो सकता, या तो (अल्लाह की पनाह !) यह आदमी जान-बूझकर एक झूठी बात कह रहा है या फिर यह मजनून (उन्मादी) है। लेकिन यह मजनूनवाली बात भी उतनी ही बे-सिर पैर की थी, जितनी झूठवाली बात थी। इसलिए कि कोई अक्ल का अंधा ही एक अत्यन्त बुद्धिमान और सूझ-बूझवाले आदमी को मजनून मान सकता था, वरना आँखों देखते कोई आदमी जीती मक्खी कैसे निगल लेता। यही कारण है कि अल्लाह ने इस अनर्गल बात के उत्तर में कोई दलील देने की ज़रूरत महसूस नहीं फ़रमाई और वार्ता सिर्फ़ उनके इस अचंभे पर की जो जिंदगी बाद मौत के होने पर वे व्यक्त करते थे।
11. यह उनकी बात का पहला उत्तर है। इसका अर्थ यह है कि मूखों! बुद्धि तो तुम्हारी मारी गई है कि जो आदमी सही स्थिति की तुम्हें सूचना दे रहा है, उसकी बात नहीं मानते और सरपट उस रास्ते पर चले जा रहे हो जो सीधा जहन्नम की ओर जाता है, और उलटा उस आदमी को मजनून कहते हो जो तुम्हें बचाने की चिंता कर रहा है।
أَفَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَىٰ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِن نَّشَأۡ نَخۡسِفۡ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضَ أَوۡ نُسۡقِطۡ عَلَيۡهِمۡ كِسَفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّكُلِّ عَبۡدٖ مُّنِيبٖ ۝ 8
(9) क्या इन्होंने कभी उस आसमान और ज़मीन को नहीं देखा, जो इन्हें आगे और पीछे से घेरे हुए है ? हम चाहें तो इन्हें ज़मीन में धंसा दें या आसमान के कुछ टुकड़े इनपर गिरा दें।12 वास्तव में इसमें एक निशानी है हर उस बन्दे के लिए जो अल्लाह की ओर पलटनेवाला हो।13
12. यह उनकी बात का दूसरा उत्तर है। इस उत्तर को समझने के लिए यह वास्तविकता दृष्टि में रहनी चाहिए कि कुरैश के इस्लाम विरोधी जिन कारणों से मौत के बाद की जिंदगी का इंकार करते थे, उनमें तीन चीज़ें सबसे ज़्यादा नुमायाँ हुई थीं। एक यह कि वे अल्लाह की पकड़ और पूछ-गछ को नहीं मानना चाहते थे। दूसरे यह कि वे क़ियामत के आने और फिर से एक नई सृष्टि बनने को कल्पना से परे समझते थे। तीसरे यह कि इंसान का मरने के बाद दोबारा ज़िस्म व जान के साथ जी उठना उनके नज़दीक बिल्कुल असंभव था। ऊपर का जवाब इन तीनों पहलुओं पर व्याप्त है। जिसका विवरण यह है- (1) इस सृष्टि की हर चीज़ इस बात का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है कि उसे एक सर्वशक्तिमान सत्ता ने अत्यन्त तत्त्वदर्शिता के साथ बनाया है। ऐसी एक तत्त्वदर्शितापूर्ण व्यवस्था में यह सोचना कि यहाँ किसी को बुद्धि, विवेक और अधिकार देने के बाद उसे गैर-ज़िम्मेदार और अनुत्तरदायी छोड़ा जा सकता है, सर्वथा व्यर्थ की बात है। (2) इस व्यवस्था को जो आदमी भी खुली आँखों से देखेगा उसे मालूम हो जाएगा कि क़ियामत का आना कुछ भी कठिन नहीं है। ज़मीन व आसमान जिन बन्धनों पर स्थापित हैं, उनमें तनिक भर भी उलट-फेर हो जाए तो क्षण भर में क़ियामत बरपा हो सकती है, और यही व्यवस्था इस बात पर भी गवाह है कि जिसने आज यह दुनिया बना रखी है, वह एक दूसरी दुनिया फिर बना सकता है। (3) तुमने आख़िर आसमान और ज़मीन के पैदा करनेवाले को क्या समझ रखा है कि मरे हुए इंसानों को दोबारा पैदा किए जाने को उसकी शक्ति से बाहर समझ रहे हो। जो लोग मरते हैं, उनके देह कण-कण होकर, चाहे कितने ही बिखर जाएँ, रहते तो इसी जमीन व आसमान की सीमाओं में ही हैं। फिर जिस अल्लाह के ये ज़मीन व आसमान हैं, उसके लिए क्या मुश्किल है कि मिट्टी और पानी और हवा में जो चीज़ जहाँ भी है, उसे वहाँ से निकाल लाए। तुम्हारे शरीर में अब जो कुछ मौजूद है, वह भी तो उसी का जमा किया हुआ है और उसी मिट्टी, हवा और पानी में से निकाल कर लाया गया है। इन अंशों का जुटाया जाना अगर आज संभव है, तो कल क्यों असंभव हो जाएगा। इन तीन प्रमाणों के साथ इस वार्ता में यह चेतावनी भी छिपी हुई है कि तुम हर ओर से ख़ुदा की खुदाई में घिरे हुए हो। अल्लाह के मुक़ाबले में तुम कोई पनाहगाह नहीं पा सकते और अल्लाह के सामर्थ्य का हाल यह है कि जब वह चाहे तुम्हारे क़दमों के नीचे या सर के ऊपर से जो बला चाहे, तुमपर उतार सकता है।
13. अर्थात् जो आदमी सच्चे दिल के साथ अपने ख़ुदा से सीधा रास्ता चाहता हो, वह तो आसमान व ज़मीन की इस व्यवस्था को देखकर बड़ी शिक्षा ले सकता है, लेकिन जिसका दिल अल्लाह से फिरा हुआ हो वह संसार में सबकुछ देखेगा मगर वास्तविकता की ओर संकेत करनेवाली कोई निशानी उसे सुझाई न देगी।
۞وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ مِنَّا فَضۡلٗاۖ يَٰجِبَالُ أَوِّبِي مَعَهُۥ وَٱلطَّيۡرَۖ وَأَلَنَّا لَهُ ٱلۡحَدِيدَ ۝ 9
(10-11) हमने दाऊद को अपने यहाँ से बड़ा उदार अनुदान प्रदान किया था।14 (हमने आदेश दिया कि) ऐ पहाड़ो! उसके साथ समरूपता स्थापित करो, (और यही आदेश हमने) परिंदों (पक्षियों) को दिया।15 हमने लोहे को उसके लिए नर्म कर दिया इस हिदायत के साथ कि कवचें बना और उनके कुंडलों (हलकों) को ठीक अन्दाज़े16 पर रख । (ऐ दाऊद के लोगो!) भले कर्म करो। जो कुछ तुम करते हो, उसको मैं देख रहा हूँ।
14. संकेत है उन अनगिनत कृपाओं की ओर जो अल्लाह ने हज़रत दाऊद पर की थीं (व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-2 बक़रा, टिप्पणी 273)।
15. यह विषय इससे पहले सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 79 में आ चुका है और वहाँ हम इसकी व्याख्या भी कर चुके हैं। (देखिए टिप्पणी 71)
أَنِ ٱعۡمَلۡ سَٰبِغَٰتٖ وَقَدِّرۡ فِي ٱلسَّرۡدِۖ وَٱعۡمَلُواْ صَٰلِحًاۖ إِنِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 10
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وَلِسُلَيۡمَٰنَ ٱلرِّيحَ غُدُوُّهَا شَهۡرٞ وَرَوَاحُهَا شَهۡرٞۖ وَأَسَلۡنَا لَهُۥ عَيۡنَ ٱلۡقِطۡرِۖ وَمِنَ ٱلۡجِنِّ مَن يَعۡمَلُ بَيۡنَ يَدَيۡهِ بِإِذۡنِ رَبِّهِۦۖ وَمَن يَزِغۡ مِنۡهُمۡ عَنۡ أَمۡرِنَا نُذِقۡهُ مِنۡ عَذَابِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 11
(12) और सुलैमान के लिए हमने हवा को वशीभूत कर दिया, सुबह के वक्त उसका चलना एक महीने की राह तक और शाम के वक़्त उसका चलना एक महीने की राह तक।17 हमने उसके लिए पिघले हुए ताँबे का स्रोत बहा दिया18 और ऐसे जिन्न उसके अधीन कर दिए जो अपने पालनहार के आदेश से उसके आगे काम करते थे।19 उनमें से जो हमारे आदेश की अवज्ञा करता उसको हम भड़कती हुई आग का मज़ा चखाते।
17. यह विषय भी सूरा-21 अंबिया, आयत 81 में आ चुका है और उसकी व्याख्या वहाँ की जा चुकी है। (देखिए टिप्पणी 74)
18. कुछ प्राचीन टीकाकारों ने इसका अर्थ यह लिया है कि ज़मीन से एक स्रोत हजरत सुलैमान (अलैहि०) के लिए फूट निकला था, जिसमें से पानी के बजाय पिघला हुआ ताँबा बहता था, लेकिन आयत का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के समय में ताँबे को पिघलाने और उससे तरह-तरह की चीज़ें बनाने का काम इतने बड़े पैमाने पर किया गया कि मानो वहाँ ताँबे के चश्मे बह रहे थे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-21 अंबिया, टिप्पणी 74)
يَعۡمَلُونَ لَهُۥ مَا يَشَآءُ مِن مَّحَٰرِيبَ وَتَمَٰثِيلَ وَجِفَانٖ كَٱلۡجَوَابِ وَقُدُورٖ رَّاسِيَٰتٍۚ ٱعۡمَلُوٓاْ ءَالَ دَاوُۥدَ شُكۡرٗاۚ وَقَلِيلٞ مِّنۡ عِبَادِيَ ٱلشَّكُورُ ۝ 12
(13) वे उसके लिए बनाते थे, जो कुछ वह चाहता, ऊँची हमारतें, तस्वीरें20 बड़े-बड़े हौज़ जैसे लगन और अपनी जगह से न हटनेवाली भारी देगें।21 बाइन के लोगो! अगल करो कृतज्ञता के तरीक़े पर22, मेरे बन्दों में कम ही शुक्रगुज़ार हैं।
20. मूल अरबी शब्द 'तमासील' प्रयुक्त हुआ है जो तिम्साल का बहुवचन है।'तिम्साल' अरबी भाषा में हर उस चीज़ को कहते हैं जो किसी प्राकृतिक वस्तु जैसी बनाई जाए, भले ही वह कोई इंसान हो या हैवान, कोई पेड़ हो या फूल या नदी या कोई दूसरी बेजान चीज़। (देखिए 'लिसानुल-अरब' और 'तफ़्सीर कश्शाफ़') इस कारण कुरआन मजीन के इस बयान से यह जरूरी नहीं होता कि हजरत सुलैमान (अलैहि०) के लिए जो तमासील' बनाई जाती थी, वे जर ही मानों या जानवरों की तस्वीर या उनकी प्रतिमाएँ ही होंगी, हो सकता है कि ' पत्तियों और प्राकृतिक दृश्य और अलग अलग प्रकार के बेल-बूटे हों, जिनसे मजरत सुलेमान (अमि०) ने अपनी इमारतों को राजाया हो। म का कारण कुछ टीकाकारों के नज़दीक की बयान में किसान गुमाल ( अहि०) ने नबियों और रिश्तों की तस्वीरें बनवाई थीं। ये बातें इन लोगों में बनी इसराईल की रिवायतों से ले ली और फिर उनका अर्थ यह बताया कि पिछली शरीअतों में इस प्रकार की तस्वीर बनाना मना न था, लेकिन इन रिवायतों को बिना जांच परख के नकल करते हुए इन बुजी की यह ध्यान न रहा कि हजरत सुलैमान (अलैहि०) जिस मूसवी शरीअत के माननेवाले थे, उसमें भी ईसानी और हैवानी तस्वीरों और प्रतिमाएँ उसी तरह हराम थीं, जिस तरह पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल०) की लाई हुई शरीअत में हराम हैं। तोरात को देखिए, तो इसमें बार बार स्पष्ट शब्दों में यह आदेश मिलता है कि इंसानी और हैवानी तस्वीर और प्रतिमाएँ बिलकुल हराम हैं। जैसे, "तू अपने लिए कोई तराशी हुई मूर्ति नबनाना, न किसी चीज़ की शक्ल बनाना जो ऊपर आसमान में या नीचे जमीन पर या ज़मीन के नीचे पानी है।" (निर्गमन, अध्याय 20, आयत 4) इस तरह के खुले और स्पष्ट आदेशों के बाद यह बात कैसे मानी जा सकती है कि हजरत सुलैमान (अलैहि०) ने नबियों और रिश्तों की तस्वीरें या उनकी प्रतिमाओं के बनाने का काम जिलों से लिया होगा। वर्तमान युग के कुछ लोगों ने, जो पश्चिमवालों की पैरवी में तस्वीर बनाने और मूर्ति तराशने को हलाल करना चाहते हैं, कुरआन मजीद की इस आयत को अपने लिए दलील उहरा लिया। वे कहते हैं कि जब एक पैगम्बा ने यह काम किया है तो उसे अनिवार्य रूप से हलाल ही होना चाहिए। पश्चिा की इन पैरवी करनेवालों का यह तर्क दो कारणों से ग़लत है- एक यह कि शब्द ' तमासील' जो कुरआन मजीद में प्रयुक्त हुआ है केवल इंसानी और हैवानी तस्वीरों के अर्थ में नहीं है, बल्कि बेजान चीज़ों की तस्वीरें भी इसमें शामिल हैं। इसलिए मात्र इस शब्द के आधार पर यह हुक्म नहीं लगाया जा सकता कि क़ुरआन की दृष्टि से इंसानी और हैवानी तस्वीरें हलाल हैं। दूसरे यह कि बड़ी तादाद में मौजूद और सनद की दृष्टि से मजबूत और निरंतर रिवायत की जानेवाली हदीसों से यह सिद्ध होता है कि नबी (सल्ल०) ने जानदार चीजों की तस्वीरें बनाने और रखने को क़तई हराम कर दिया है। मिसाल के तौर पर देखिए हज़रत आइशा (रजि०) की हदीस (बुख़ारी, किताबुस्सलात), अबू हुजफ़ा की हदीस (बुख़ारी, किताबुल बुयूअ), अबू जरआ की हदीस (बुख़ारी, किताबुल लिबास), अली (रजि०) की हदीस (मुस्लिम, किताबुल जनाइज) आदि]
21. इससे मालूम होता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के यहाँ बहुत बड़े स्तर पर मेहमाननवाजी होती थी। बड़े बड़े हौज़ जैसे लगन इसलिए बनाए गए थे कि उनमें लोगों के लिए खाना निकालकर रखा जाए और भारी देग इसलिए बनवाई गई थीं कि उनमें एक ही वास्त में हज़ारों आदमियों का खाना पक सके।
فَلَمَّا قَضَيۡنَا عَلَيۡهِ ٱلۡمَوۡتَ مَا دَلَّهُمۡ عَلَىٰ مَوۡتِهِۦٓ إِلَّا دَآبَّةُ ٱلۡأَرۡضِ تَأۡكُلُ مِنسَأَتَهُۥۖ فَلَمَّا خَرَّ تَبَيَّنَتِ ٱلۡجِنُّ أَن لَّوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ٱلۡغَيۡبَ مَا لَبِثُواْ فِي ٱلۡعَذَابِ ٱلۡمُهِينِ ۝ 13
(14) फिर जब सुलैमान पर हमने पौत का फ़ैसला लागू किया तो जिन्नों को उसकी मौत का पता देनेवाली कोई चीज़ उस धुन के सिवा में थी जो उसकी लाठी को खा रहा था। इस तरह जब सुलैमान गिर पड़ा, यो जिन्नों पर यह बात खुल गई23 कि अगर वे गैब के जाननेवाले होते तो इस अपमान के अज़ाब में गस्त मरहते।24
23. इस वाक्य का दूसरा अगुवाय यह भी हो सकता है कि जिन्नों का हाल खुल गया या प्रकट हो गया। पहली स्थिति में अर्थ यह होगा कि स्वयं जिन्नों को पता चल गया कि ग़ैब (परोक्ष) जानने के बारे में उनका दावा गया है। दूसरी स्थिति में अर्थ यह होगा कि आम लोग जो जिन्नों को ग़ैब जाननेवाला समझते थे, उनपर यह भेद खुल गया कि वे ग़ैब का कोई ज्ञान नहीं रखते।
24. क़ुरआन में बहुत सी जगहों पर अल्लाह मे यह बताया है कि अरब के मुशरिक जिन्नों को अल्लाह का शरीक क़रार उन्हें अल्लाह की औलाद समझते थे और उनसे पनाह माँगा करते थे। इसी तरह उनका एक विश्वास यह भी था कि वे जिन्नों को गैब का जाननेवाला समझते थे और गैब की बातें जानने के लिए उनकी ओर रूजूअ किया करते थे। अल्लाह यहाँ इसी विश्वास के खंडन के लिए यह घटना सुना रहा है। (और अधिक व्याख्या के लिए आगे टिप्पणी 63 भी देखिए।)
لَقَدۡ كَانَ لِسَبَإٖ فِي مَسۡكَنِهِمۡ ءَايَةٞۖ جَنَّتَانِ عَن يَمِينٖ وَشِمَالٖۖ كُلُواْ مِن رِّزۡقِ رَبِّكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لَهُۥۚ بَلۡدَةٞ طَيِّبَةٞ وَرَبٌّ غَفُورٞ ۝ 14
(15) सबा 25 के लिए उनके अपने घर ही में एक निशानी मौजूद थीं 26, दो बाग दाएँ और बाएँ 27, खाओ अपने रब की दी हुई रोज़ी और कृतज्ञता दिखाओ उसके प्रति, देश है उत्तम और पवित्र और पालनहार है क्षमाशील।
25. वार्ता-क्रम को समझने के लिए शुरू की आयतों के विषय को दृष्टि में रखना ज़रूरी है, [जिसमें अरब के कुफ़्फ़ार के आख़िरत के इंकार करने के अक़ीदे का उल्लेख करके उसके जवाब में कुछ बुद्धिसंगत तर्क दिए गए हैं।] इसके बाद आयत 10 से 21 तक में हज़रत दाऊद व सुलैमान (अलैहि०) का क़िस्सा और फिर सबा का क़िस्सा एक ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में बयान किया गया है जिसका उद्देश्य इस वास्तविकता को मन में बिताना है कि धरती पर स्वयं मानव-जाति की खुद अपनी कहानी इस बात की गवाही दे रही है कि कर्मों के अनुसार फल मिलने का कानून एक सर्वथा सत्य है। इंसान अपने इतिहास को ध्यान से देखे तो उसे मालूम हो सकता है कि यह दुनिया कोई अंधेर नगरी नहीं है, जिसका सारा कारखाना अँधा धुँध चल रहा हो, बल्कि उसपर एक सुननेवाला और देखनेवाला ख़ुदा शासन कर रहा है, जो शुक्र की राह अपनानेवालों के साथ एक मामला करता है और नेमतों के प्रति नाशुक्री और अकृतज्ञता की राह चलनेवालों के साथ बिल्कुल एक दूसरा मामला फ़रमाता है। कोई शिक्षा लेना चाहे तो उसी इतिहास से यह शिक्षा ले सकता है कि जिस ख़ुदा के शासन का यह स्वभाव है, उसकी ख़ुदाई में नेकी और बदी का अंजाम कभी एक जैसा नहीं हो सकता। उस ख़ुदा के अद्ल व इंसाफ़ का लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि एक समय ऐसा आए, जब नेकी का पूरा इनाम और बदी का पूरा बदला दिया जाए।
26. अर्थात् इस बात की निशानी कि जो कुछ उनकी मिला हुआ है, वह किसी की देन है, न कि उनका अपना पैदा किया हुआ। और इस बात की निशानी कि उनकी बन्दगी और इबादत और शुक्र और तारीफ़ का अधिकारी वह ख़ुदा है, जिसने उनको ये नेमतें दी हैं, न कि वह जिनका कोई हिव्या इन नापती के प्रदान करने में नहीं है।
فَأَعۡرَضُواْ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ سَيۡلَ ٱلۡعَرِمِ وَبَدَّلۡنَٰهُم بِجَنَّتَيۡهِمۡ جَنَّتَيۡنِ ذَوَاتَيۡ أُكُلٍ خَمۡطٖ وَأَثۡلٖ وَشَيۡءٖ مِّن سِدۡرٖ قَلِيلٖ ۝ 15
(16) मगर वे मुँह मोड़ गए ।28 अन्ततः हमने उनपर बाँध तोड़ बाढ़ भेज दी29 और उनके पिछले दो बाग़ों की जगह दो और बाग़ उन्हें दिए, जिनमें कड़ुवे-कसैले फल और झाऊ के पेड़ थे और कुछ थोड़ी-सी बेरियाँ।30
28. अर्थात् बन्दगी और कृतज्ञता दिखाने के बजाय उन्होंने नाफरमानी और नमकहरामी की रीति अपना ली।
29. मूल अरबी शब्द 'सैलल अरिम' प्रयुक्त किया गया है। अरिम दक्खिनी अरब की भाषा के शब्द अरमन से लिया गया है, जिसका अर्थ है ' बाँध' । यमन के खंडहरों में जो पुराने पुरालेख वर्तमान जमाने में मिले हैं, उनमें यह शब्द इस अर्थ में बहुत अधिक प्रयुक्त हुआ है, जैसे 542 ई० या 543 ई० का एक पुरालेख जो यमन के हब्शी गवर्नर अबरहा ने सद्दे-मआरिब की मरम्मत कराने के बाद लगवाया था, उसमें वह इस शब्द को बार-बार बाँध के अर्थ में इस्तेमाल करता है, इसलिए मैलल अरिम से तात्पर्य यह बाढ़ है जो किसी बाँध के टूटने से आए।
ذَٰلِكَ جَزَيۡنَٰهُم بِمَا كَفَرُواْۖ وَهَلۡ نُجَٰزِيٓ إِلَّا ٱلۡكَفُورَ ۝ 16
(17) यह था उनके इंकार का बदला जो हमने उनको दिया, और नाशुक्रे (कृतघ्न) इंसान के सिवा ऐसा बदला हम और किसी की नहीं देते।
وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُمۡ وَبَيۡنَ ٱلۡقُرَى ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَا قُرٗى ظَٰهِرَةٗ وَقَدَّرۡنَا فِيهَا ٱلسَّيۡرَۖ سِيرُواْ فِيهَا لَيَالِيَ وَأَيَّامًا ءَامِنِينَ ۝ 17
(18) और हम उनके और उन बस्तियों के बीच, जिनको हमने बरकत दे रखी थी, नुमायाँ बस्तियाँ बसा दी थीं और उनमें सफ़र की दूरियाँ एक अन्दाज़े पर रख दी थीं।31 चलो-फिरो इन रास्तों में रात-दिन पूरे अम्‍न के साथ।
31. 'बरकतवाली बस्तियों' से तात्पर्य शाम (सीरिया) व फिलिस्तीन का इलाका है, जिसे क़ुरआन मजीद में आम तौर से इसी नाम से याद किया गया है। (उदाहरण के रूप में देखिए, सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 187; सूरा-17 बनी इस्राईल, आयत ।। सूरा-21 अल-अंचिया, आयत 71, 81) 'नुमायाँ बस्तियों' से तात्पर्य ऐसी बस्तियाँ हैं जो राजमार्ग पर स्थित हों, कोनों में छिपी हुई न हों, और यह मतलब भी हो सकता है कि वे वस्तियों परस्पर मिली हुई थीं। एक आबादी की निशानियाँ ख़त्म होने के बाद दूसरी यस्तो को निशानी नजर आने लगती थी। 'सफ़र की दूरियों को एक अन्दाजे' पर रखने से तात्पर्य यह है कि यमन से शाम (सीरिया) तक का पूरा सफ़र लगातार आयाद इलाके में तय होता था, जिसकी हर मंजिल से दूसरी मंजिल तक की दूरी मालूम और तय थी।
فَقَالُواْ رَبَّنَا بَٰعِدۡ بَيۡنَ أَسۡفَارِنَا وَظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَحَادِيثَ وَمَزَّقۡنَٰهُمۡ كُلَّ مُمَزَّقٍۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٖ ۝ 18
(19) मगर उन्होंने कहा, "ऐ हमारे रब! हमारे सफ़र की दूरियाँ लंबी कर दे।''32 उन्होंने अपने ऊपर आप ज़ुल्म किया। अन्ततः हमने उन्हें कहानी मात्र बनाकर रख दिया और उन्हें बिल्कुल तितर-बितर कर डाला।33 निश्चय ही इसमें निशानियाँ हैं हर उस आदमी के लिए जो बझा सन्न करनेवाला और शुक्र बजा लानेवाला हो।34
32. ज़रूरी नहीं है कि उन्होंने ज़बान ही से यह दुआ की हो। कभी-कभी आदमी काम ऐसा करता है जिससे मालूम होता है कि मानो वह जबाने-हाल से यह कहता है कि ऐ अल्लाह यह नेमत जो तूने मुझे दी है, मैं इसके योग्य नहीं हूँ। आयत के शब्दों से यह बात भी स्पष्ट होती है कि वह कौम अपनी आबादी की अधिकता को अपने लिए मुसीबत समझ रही थी और यह चाहती थी कि आबादी इतनी घट जाए कि सफ़र को मंजिलें दूर-दूर हो जाएँ।
33. अर्थात् सबा की क़ौम ऐसी बिखरी और छिन्न-भिन्न हुई कि उसका यह बिखराव कहावत बन गया। जब सेमत के छिनने का दौर शुरू हुआ तो सबा के विभिन्न क़बीले अपना वतन छोड़कर अरब के अलग-अलग इलाकों में चले गए।
وَلَقَدۡ صَدَّقَ عَلَيۡهِمۡ إِبۡلِيسُ ظَنَّهُۥ فَٱتَّبَعُوهُ إِلَّا فَرِيقٗا مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 19
(20) उनके मामले में इब्लीस ने अपना गुमान सही पाया और उन्होंने उसी की पैरवी की, अलावा एक थोड़े से गिरोह के जो ईमानवाला था35
35. इतिहास से यह बात मालूम होती है कि प्राचीन काल से सबा क़ौम में एक तत्त्व ऐसा मौजूद था जो दूसरे उपास्यों को मानने के बजाय एक ख़ुदा को मानता था। वर्तमान काल की पुरातत्त्व खोजों के संबंध में यमन के खंडहरों से जो शिलालेख मिले हैं, उनमें से कुछ इस छोटे से तत्त्व की निशानदेही करते हैं । सन् 650 ई० पू० के लगभग समय के कुछ पुरालेख बताते हैं कि सबा राज्य की कई जगहों पर ऐसी इबादतगाहें (पूजा-स्थल) बनी हुई थीं जो जू-समवी या जू-समावी (अर्थात् आसमानों का रब) की इबादत के लिए मुख्य थीं। कुछ जगहों पर इस उपास्य का नाम मलिकन जू-समवी (वह बादशाह जो आसमानों का मालिक है) लिखा गया है। यह तत्त्व निरन्तर सदियों तक यमन में मौजूद रहा। चुनांचे 378 ई० के एक पुरालेख में (इलाहुन जू-समवी अर्थात् आसमानवाला उपास्य) के नाम से एक इबादतगाह के निर्माण का उल्लेख मिलता है, फिर 465 ई० के एक पुरालेख में ये शब्द पाए जाते हैं- "उस ख़ुदा की सहायता और समर्थन से जो आसमानों और ज़मीन का मालिक है।" उसी समय के एक और पुरालेख में जिसकी तारीख 458 ई० है उसी ख़ुदा के लिए 'रहमान' का शब्द भी इस्तेमाल किया गया है। अस्ल शब्द हैं बरदा रहमान (अर्थात् रहमान की मदद से)।
وَمَا كَانَ لَهُۥ عَلَيۡهِم مِّن سُلۡطَٰنٍ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يُؤۡمِنُ بِٱلۡأٓخِرَةِ مِمَّنۡ هُوَ مِنۡهَا فِي شَكّٖۗ وَرَبُّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَفِيظٞ ۝ 20
(21) इब्लीस को उनपर कोई प्रभुत्व प्राप्त न था, मगर जो कुछ हुआ, वह इसलिए हुआ कि हम यह देखना चाहते थे कि कौन आख़िरत का माननेवाला है और कौन उसकी ओर से सन्देह में पड़ा हुआ है।36 तेरा रब हर चीज़ पर निगरानी करनेवाला है।37
36. अर्थात् इब्लीस को अल्लाह ने जो कुछ भी शक्ति दी थी, वह केवल इस सीमा तक थी कि वह उन्हें बहकाए और ऐसे तमाम लोगों को अपने पीछे लगा ले जो स्वयं उसकी पैरवी करना चाहें और बहकाने के ये मौक़े इब्लीस को इसलिए दिए गए ताकि आख़िरत के माननेवालों और उसके आने में सन्देह रखनेवालों का अन्तर स्पष्ट हो जाए। दूसरे शब्दों में अल्लाह का यह इर्शाद इस सच्चाई को स्पष्ट करता है कि आख़िरत के अक़ीदे के सिवा कोई दूसरी चीज़ ऐसी नहीं है जो इस दुनिया में इंसान को सीधे रास्ते पर क़ायम रखने की ज़मानत देनेवाली हो सकती हो।
37. सबा क़ौम के इतिहास की ओर ये जो संकेत कुरआन मजीद में दिए गए हैं, उनको समझने के लिए ज़रूरी है कि वे जानकारियाँ भी हमारी निगाह में रहें जो इस क़ौम के बारे में दूसरे ऐतिहासिक साधनों से प्राप्त हुई हैं। इतिहास के अनुसार 'सबा' दक्षिणी अरब की एक बहुत बड़ी क़ौम का नाम है जो कुछ बड़े-बड़े क़बीलों पर सम्मिलित थी। सवा अरब के एक आदमी का नाम था, जिसकी नस्ल से अरब में निम्नलिखित क़बीले पैदा हुए-किंदा, हिमयर, अज्द, अशअरीयीन, मज़हिज, अन्मार (जिसकी दो शाखाएं हैं ख़शअम और बजीला), आमिला, जुज़ाम, लख़न और ग़स्सान। (अहमद और तिर्मिज़ी आदि) बहुत प्राचीन समय से दुनिया में अरब की इस क़ौम की शुहरत थी। सन् 2500 ई० पू० में उवर के पुरालेख इसका उल्लेख साबूम के नाम से करते हैं। इसका वहम अरब का दक्षिणी पश्चिमी कोना था जो आज यमन के नाम से प्रसिद्ध इसके उत्थान का समय 1100 वर्ष ई० पू० से आरंभ होता है। हजरत दाऊद और हजरत सुलैमान (अलैहिस्सलाम) के समय में एक धनवान कौम की हैसियत से यह पूरी दुनिया में प्रसिद्ध थी। शुरू में यह सूरज की पुजारी एक कौम थी। फिर जब इसकी रानी हजरत सुलेमान (965-926 ई० पू०) के हाथ पर ईमान ले आई तो अन्दाजा यह है कि इसके अधिकतर लोग मुसलमान हो गए थे, लेकिन बाद में न जाने कब इसके अन्दर शिर्क व बुतपरस्ती का फिर जोर हो गया। इसके इतिहास के महत्त्वपूर्ण काल ये हैं- (1) सन् 650 ई०पू० से पहले का काल- उस जमाने में सबा के बादशाहों की उपाधि मुकरिब सबा थी। अनुमान यही है कि यह शब्द 'मुकरिब' (नज़दीकी) का समानार्थी था और इसका अर्थ यह था कि ये बादशाह इंसानों और ख़ुदाओं के दर्मियान अपने आपको वास्ता ठहराते थे। उस समय में उसकी राजधानी सरवाह थी जिसके खंडहर आज भी मारिव से पश्चिम की ओर एक दिन की राह पर पाए जाते हैं और खरबिया के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी काल में मारिव के मशहूर बाँध की बुनियाद रखी गई। (2) 650 ई० पू० से 115 ई० पू० तक का काल- इस दौर में सबा के बादशाहों ने मुकरिव की उपाधि छोड़कर मलिक (बादशाह) की उपाधि अपना ली और सरवाह को छोड़कर मारिब को अपनी राजधानी बनाया और उसे असाधारण रूप से तरक्की दी। (3) 115 ई० पू० से 300 ई० तक का काल- उस समय में सबा सल्तनत पर हिमयर क़बीले का गलवा हो गया था जो सबा क़ौम ही का एक कवीला था और तादाद में दूसरे तमाम कबीलों से बढ़ा हुआ था। इस काल में मारिख को उजाड़कर रैदान को राजधानी बनाया गया जो हिमयर क़बीले का केन्द्र था। बाद में यह शहर जफ़ार के नाम से मशहूर हुआ। उसी जमाने में सल्तनत के एक हिस्से की हैसियत से पहली बार शब्द यमनत और यमनात का इस्तेमाल होना शुरू हुआ और धीरे-धीरे यमन उस पूरे क्षेत्र का नाम पड़ गया, जो अरब के दक्षिणी-पश्चिमी कोने पर असौर से अदन तक और बाबुल मंदब से हज़रेमौत तक स्थित है। यही काल है जिसमें सबाइयों का पतन शुरू हुआ। (4) सन् 300 ई० के बाद से इस्लाम के आरंभ तक का काल- यह सबा कौम के विनाश का दौर है। इस बीच उनके यहाँ बरावर गृहयुद्ध होते रहे। बाहरी कौमों का हस्तक्षेप शुरू हुआ, व्यापार नष्ट हुआ, खेती ने दम तोड़ा और अन्तत: आजादी तक समाप्त हो गई, फिर आजादी तो बहाल हो गई मगर मारिब के प्रसिद्ध बाँध में दरारें पड़नी शुरू हुई, यहाँ तक कि अन्ततः सन् 450 ई० या 451 ई० में बाँध के टूटने से वह भीषण बाढ़ आई जिसका उल्लेख ऊपर क़ुरआन मजीद की आयतों में किया गया है। सबा कौम की उन्नति वास्तव में दो बुनियादों पर कायम थी। एक खेती, दूसरे व्यापार । खेती को उन्होंने सिंचाई की एक बेहतरीन व्यवस्था के जरिये से उन्नति दी थी। सिंचाई की इस व्यवस्था का पानी का सबसे बड़ा भंडार वह तालाब था जो शहर मारिव के करीब बलक पहाड़ के बीच की घाटी पर बाँध बाँधकर तैयार किया गया था। मगर जब अल्लाह की कृपा-दृष्टि उनसे फिर गई, तो पांचवीं सदी ईसवी के बीच में यह विशाल बाँध टूट गया और उससे निकलनेवाली बाढ़ रास्ते में बांध पर बाँध तोड़ती चली गई, यहाँ तक कि देश की सिंचाई की व्यवस्था नष्ट होकर रह गई. फिर कोई उसे बहाल न कर सका व्यापार के लिए उस कौम को अल्लाह ने सबसे अच्छा भौगोलिक स्थान प्रदान किया था, जिससे उसने ख़ूब फ़ायदा उठाया। एक हजार वर्ष से अधिक अवधि तक यही क़ौम पूरब और पश्चिम के बीच व्यापार का माध्यम बनी रही। इस शानदार व्यापार के दो रास्ते थे, एक समुद्री और दूसरा ज़मीनी । अमौनी मार्ग पर, जैसा कि कुरआन में कहा गया है, यमन से शाम (सीरिया) की सीमाओं तक सवाइयों की नई आबादियाँ एक क्रम से स्थित थीं और रात-दिन उनके व्यापारिक कारवाँ यहाँ से गुजरते रहते थे। पहली सदी ईसवी के लगभग समय में इस व्यापार में गिरावट आनी शुरू हुई। मध्य-पूर्व में जब यूनानियों और फिर रूमियों के शक्तिशाली राज्य स्थापित हुए तो [उन्होंने सवाइयों के समुद्री व्यापार पर कब्जा कर लेने की कोशिशें कीं, यूनानी तो अपने उद्देश्य में असफल रहे, मगर रूमी सफल हो गए।] समुद्री व्यापार हाथ से निकल जाने के बाद सिर्फ़ जमीनी व्यापार सवाइयों के पास रह गया था, मगर बहुत-सी वजहें थीं, जिन्होंने धीरे-धीरे उसकी कमर भी तोड़ दी। पहले निस्तियों ने पटेरा से अल-ऊला तक ऊपरी हिजाज़ और जार्डन के तमाम नई आबादियों से सबाइयों को निकाल बाहर किया, फिर 106 ई० में रूमियों ने निब्ती शासन को समाप्त कर दिया और हिजाज़ की सीमा तक शाम व जार्डन के तमाम इलाक़े उनके मज़बूत हाथों में चले गए। इसके बाद हबश और रूम की संयुक्त कोशिश यह रही कि सबाइयों के आपसी संघर्ष से फ़ायदा उठाकर उनके व्यापार को बिल्कुल नष्ट कर दिया जाए। इस कारण हबशी बार-बार यमन में हस्तक्षेप करते रहे, यहाँ तक कि अन्ततः उन्होंने पूरे देश पर कब्जा कर लिया। इस तरह अल्लाह के प्रकोप ने इस क़ौम को अत्यन्त ऊँचाई से गिराकर उस गढ़े में फेंक दिया जहाँ से फिर कोई अल्लाह के प्रकोप में ग्रस्त क़ौम कभी सर नहीं निकाल सकी है। एक समय था कि उसकी दौलत की कहानियाँ सुन-सुनकर यूनान और रोमवालों के मुँह में पानी भर आता था। स्ट्राबो लिखता है कि ये लोग सोने और चाँदी के बरतन इस्तेमाल करते हैं और उनके मकानों की छतों, दीवारों और दरवाज़ों तक में हाथी दाँत, सोने-चाँदी और जवाहरात का काम बना हुआ होता है। प्लेनी कहता है कि रूम और फ़ारस का धन उनकी ओर बहा चला जा रहा है। ये इस समय दुनिया की सबसे अधिक धनी क़ौम है और उनका हरा-भरा देश बागों, खेतों और मवेशियों से भरा हुआ है। आरटी मीडोरस कहता है कि ये लोग ऐश में मस्त हो रहे हैं और जलाने की लकड़ी के बजाय दारचीनी, संदल और दूसरी ख़ुश्बूदार लकड़ियाँ जलाते हैं। इन्होंने इतिहास में पहली बार सनआ की ऊँची पहाड़ी जगह पर वह गगन चुंबी इमारत (Sky Scraper) बनाई जो क़ने-गुमदान के नाम से सदियों तक मशहूर रही है। अरब इतिहासकारों का बयान है कि इसकी 20 मंज़िलें थीं और हर मंज़िल 36 फिट ऊँची थी। यह सब कुछ बस उसी समय तक रहा जब तक अल्लाह की कृपा उनके साथ रही। अन्ततः जब उन्होंने नेमत की नाशुक्री की हद कर दी तो सर्वशक्तिमान रब की कृपा-दृष्टि सदा के लिए उनसे फिर गई और उनका नामो-निशान तक बाक़ी न रहा।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَمۡلِكُونَ مِثۡقَالَ ذَرَّةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا لَهُمۡ فِيهِمَا مِن شِرۡكٖ وَمَا لَهُۥ مِنۡهُم مِّن ظَهِيرٖ ۝ 21
(22) (ऐ नबी!38 इन मुशरिकों से) कहो कि “पुकारकर देखो अपने उन उपास्यों को जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा अपना उपास्य समझे बैठे हो39, वे न आसमानों में कण बराबर किसी चीज़ के मालिक हैं, न ज़मीन में। वे आसमान और ज़मीन की मिल्कियत में शरीक भी नहीं हैं। उनमें से कोई अल्लाह का मददगार भी नहीं है।
38. आरंभ से आयत 21 तक की आयतों में आख़िरत के बारे में मुशरिकों की ग़लत धारणाओं पर वार्ता के गई थी। अब व्याख्यान की दिशा शिर्क के खंडन की ओर फिर रही है।
39. अर्थात् अल्लाह तो यूँ व्यक्तियों और क़ौमों और सल्तनतों के भाग्य बनाता और बिगाड़ता है, जैसा कि अभी तुम दाऊद और सुलैमान (अलैहि०) और सबा की क़ौम के वर्णन में सुन चुके हो। अब तनिक अपने इन बनावटी उपास्यों को पुकारकर देख लो, क्या उनमें भी यह शक्ति है कि किसी की उन्नति को पतन से या पतन को उन्नति से बदल सकें?
وَلَا تَنفَعُ ٱلشَّفَٰعَةُ عِندَهُۥٓ إِلَّا لِمَنۡ أَذِنَ لَهُۥۚ حَتَّىٰٓ إِذَا فُزِّعَ عَن قُلُوبِهِمۡ قَالُواْ مَاذَا قَالَ رَبُّكُمۡۖ قَالُواْ ٱلۡحَقَّۖ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 22
(23) और अल्लाह के सामने कोई सिफ़ारिश भी किसी के लिए लाभप्रद नहीं हो सकती सिवाय उस आदमी के जिसके लिए अल्लाह ने सिफ़ारिश की इजाज़त दी हो 40, यहाँ तक कि जब लोगों के दिलों से घबराहट दूर होगी, तो वे (सिफ़ारिश करनेवालों से) पूछेगे कि तुम्हारे रब ने क्या जवाब दिया? वे कहेंगे, "ठीक जवाब मिला है और वह महान और उच्चतर है।''41
40. अर्थात् किसी का स्वयं मालिक होना या मिल्कियत में शरीक होना या अल्लाह का मददगार होना तो दूर की बात, सम्पूर्ण सृष्टि में कोई ऐसी हस्ती तक नहीं पाई जाती जो अल्लाह के सामने किसी के पक्ष में अपने आप सिफारिश कर सके। (शफाअत अर्थात् सिफारिश के इस्लामी अकीदे और शफाअत का शिकिया अक्रौदे के अंतर को समझने के लिए देखिए, सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 5-24; सूरा-11 हूद, टिप्पणी 84-106; सूरा-16 अन-नहल, टिप्पणी 64; सूरा-20 ता-हा, टिप्पणी 85; सूरा-21 अल-अंबिया, टिप्पणी 27 सूरा-22 अल-हज, टिप्पणी 125)
41. यहाँ उस समय का चित्रण किया गया है जब क्रियामत के दिन कोई सिफारिश करनेवाला किसी के हक़ में सिफारिश की इजाजत तलब करेगा। इस चित्रण में यह स्थिति हमारे सामने आती है कि कब इजाज़त की दरख़ास्त भेजने के बाद सिफ़ारिश करनेवाले और जिसकी सिफ़ारिश की जाए, दोनों बड़ी बेचैनी के साथ डरते और काँपते हुए जवाब के इंतिज़ार में खड़े हैं, अन्तत: जब ऊपर से इजाज़त आ जाती है, तो जिसकी सिफ़ारिश होनी है आगे बढ़कर सिफ़ारिश करनेवाले से पूछता है, "क्या जवाब आया?" सिफ़ारिश करनेवाला जवाब देता है कि "ठीक है, इजाज़त मिल गई है।" इस बयान से जो बात मन में बिठानी है, वह यह है कि मूखों ! जिस बड़े दरबार की शान यह है, उसके बारे में तुम किस भ्रम में पड़े हुए हो कि वहाँ कोई अपने ज़ोर से तुमको बख्‍़शवा लेगा।
۞قُلۡ مَن يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قُلِ ٱللَّهُۖ وَإِنَّآ أَوۡ إِيَّاكُمۡ لَعَلَىٰ هُدًى أَوۡ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 23
(24) (ऐ नबी!) इनसे पूछो, “कौन तुमको आसमानों और जमीन से रोजी देता है।" कही, "अल्लाह।''42 अब अनिवार्य रूप से हममें और तुममें से कोई एक ही सन्मार्ग पर है या खुली गुमराही में पड़ा हुआ है।43
42. सम्बोधन मुशरिकों से था जो सिर्फ यही नहीं कि अल्लाह की हस्ती के ईकारी न थे, बल्कि यह भी जानते और मानते थे कि रोज़ी की कुंजियाँ उसी के हाथ में हैं, मगर इसके बावजूद वे दूसरों को ख़ुदा (ईश्वरत्व) मैं शरीक ठहराते थे। अब जो उनके सामने यह प्रश्न पेश किया गया कि बताओ कौन तुम्हें आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता है, तो वे परेशानी में पड़ गए। अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लेते हैं तो स्वयं अपने और अपनी ही कौम के विश्वास के विरुद्ध बात कहते हैं, और अगर मान लेते हैं कि अल्लाह ही रोजी देनेवाला है तो तुरन्त दूसरा प्रश्न यह सामने आ जाता है कि फिर ये दूसरे किस रोग की दवा है, जिन्हें तुमने खुदा बना रखा है। इस दोहरी परेशानी में पड़कर वे स्तब्ध रह जाते हैं। पूछनेवाला जब देखता है कि ये लोग कुछ नहीं बोलते, तो वह स्वयं अपने प्रश्न का उत्तर देता है कि 'अल्लाह!'
43. अर्थात् हमारे और तुम्हारे बीच यह अन्तर तो खुल गया कि हम उसी को उपास्य मानते हैं जो रोज़ी देनेवाला है और तुम उनको उपास्य बना रहे हो, जो रोजी देनेवाले नहीं है। अब यह किसी तरह संभव नहीं है कि हम और तुम दोनों एक ही समय में सीधे रास्ते पर हों। इस स्पष्ट अन्तर के साथ तो हममें से एक ही सीधे रास्ते पर हो सकता है और दूसरा अनिवार्य रूप से गुमराह ठहरता है। इसके बाद यह सोचना तुम्हारा अपना काम है कि प्रमाण किसके सन्मार्ग पर होने का निर्णय कर रहा है और कौन इसके अनुसार पथभ्रष्ट है।
قُل لَّا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّآ أَجۡرَمۡنَا وَلَا نُسۡـَٔلُ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 24
(25) इनसे कहो, "जो अपराध हमने किया हो उसकी कोई पूछ-ताछ तुमसे न होगी और जो कुछ तुम कर रहे हो, उसकी कोई जवाब तलबी हमसे न की जाएगी।''44
44. इस बात से उनको यह एहसास दिलाया गया कि सन्मार्ग और पथभ्रष्टता के इस मामले का ठीक-ठीक फैसला करना हममें से हर एक के अपने हित का तकाज़ा है। मान लो कि हम पथभ्रष्ट हैं, तो अपनी इस पथभ्रष्टता की सज़ा हम ही भुगतेंगे, तुमपर इसकी कोई पकड़ न होगी। इसलिए यह हमारे हित का तक़ाज़ा है कि किसी अवधारणा को अपनाने से पहले खूब सोच लें कि कहीं हम ग़लत राह पर तो नहीं जा रहे हैं। इसी तरह तुमको भी स्वयं अपने ही भले के लिए एक अवधारणा पर जमने से पहले अच्छी तरह सोच लेना चाहिए कि कहीं तुम किसी ग़लत सिद्धान्त पर तो अपने जीवन की सारी पूँजी नहीं लगा रहे हो।
قُلۡ يَجۡمَعُ بَيۡنَنَا رَبُّنَا ثُمَّ يَفۡتَحُ بَيۡنَنَا بِٱلۡحَقِّ وَهُوَ ٱلۡفَتَّاحُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 25
(26) कही, "हमारा पालनहार हमको जमा करेगा, फिर हमारे बीच ठीक-ठीक फ़ैसला कर देगा। वह ऐसा ज़बरदस्त हाकिम है जो सब कुछ जानता है।''45
45. यह इस मामले पर विचार करने के लिए अन्तिम और सबसे बड़ा प्रेरक है जिसकी ओर सुननेवालों का ध्यान आकृष्ट कराया गया है। बात इसी हद पर समाप्त नहीं हो जाती कि इस जिंदगी में हमारे और तुम्हारे बीच सत्य और असत्य का अन्तर है और हममें से कोई एक ही सत्य पर है, बल्कि उसके आगे सच्ची बात तो यह भी है कि हमें और तुम्हें, दोनों ही को अपने रब के सामने हाज़िर होना है, और रब वह है जो सत्य को भी जानता है और हम दोनों गिरोहों के हालात की भी पूरी तरह ख़बर रखता है। वहाँ जाकर न सिर्फ़ इस बात का फ़ैसला होगा कि हममें और तुममें से सत्य पर कौन था और असत्य पर कौन, बल्कि इस मुक़दमे का फ़ैसला भी हो जाएगा कि हमने तुमपर सत्य स्पष्ट करने के लिए क्या कुछ किया और तुमने असत्यवादिता के ज़िद में आकर हमारा विरोध किस-किस तरह किया।
قُلۡ أَرُونِيَ ٱلَّذِينَ أَلۡحَقۡتُم بِهِۦ شُرَكَآءَۖ كَلَّاۚ بَلۡ هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 26
(27) इनसे कहो, "तनिक मुझे दिखाओ तो सही, वे कौन-सी हस्तियाँ हैं, जिन्हें तुमने इसके साथ शरीक कर रखा है।''46 कदापि नहीं, प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी तो बस वह अल्लाह ही है।
46. अर्थात् इससे पहले कि तुम इन उपास्यों के भरोसे पर इतना बड़ा खतरा मोल लो, तनिक मुझे यही बता दो कि इनमें से कौन इतना शक्तिशाली है कि अल्लाह की अदालत में वह तुम्हारा समर्थक बनकर उठ सकता हो और तुम्हें उसको पकड़ से बचा सकता हो।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا كَآفَّةٗ لِّلنَّاسِ بَشِيرٗا وَنَذِيرٗا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 27
(28) और (ऐ नबी!) हमने तुमको तमाम ही इंसानों के लिए शुभ-सूचना देनेवाला और डरानेवाला बनाकर भेजा है, मगर अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।47
47. अर्थात् तुम केवल इसी शहर या इसी देश या इसी समय के लोगों के लिए नहीं, बल्कि तमाम दुनिया के इंसानों के लिए और सदा के लिए नबी बनाकर भेजे गए हो, मगर ये तुम्हारे समकालीन देशवासी तुम्हारा मूल्य और महत्व नहीं समझते और उनको पता नहीं है कि कितनी महान हस्ती को उनके पास नबी बनाकर भेजा गया है। यह बात कि नबी (सल्ल०) केवल अपने देश या अपने समय के लिए नहीं, बल्कि क़ियामत तक पूरी मानव-जाति के लिए रसूल बनाकर भेजे गए हैं, क़ुरआन मजीद में कई स्थानों पर कही गई है, जैसे- "और मेरी ओर यह कुरआन वह्य किया गया है ताकि इसके ज़रिये से मैं तुम्हें सचेत करूँ और हर उस आदमी को जिसे यह पहुँचे?" (सूरा-6 अल-अनआम, आयत 19) "ऐ नबी! कह दो कि ऐ इंसानो ! मैं तुम सबकी ओर अल्लाह का रसूल हूँ।" (सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 158) ''और ऐ नबी, हमने नहीं भेजा तुमको मगर तमाम दुनियावालों के लिए रहमत के तौर पर।" (सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 107) "बड़ी बरकतवाला है वह जिसने अपने बन्दे पर 'फुरक़ान' (कसौटी) उतारा, ताकि वह तमाम दुनियावालों को सचेत करनेवाला हो।" (सूरा-25 अल-फुरक़ान, आयत 1) यही विषय नबी (सल्ल०) ने स्वयं भी बहुत-सी हदीसों में अलग-अलग तरीकों से बयान फ़रमाया है, जैसे- "मैं काले और गोरे सबकी ओर भेजा गया हूँ।" (मुस्नद अहमद, हज़रत अबू मूसा अशअरी की रिवायत) "मैं सामान्यत: तमाम इंसानों की ओर भेजा गया हूँ, हालांकि मुझसे पहले जो नबी भी गुजरा है, वह अपनी क़ौम की ओर भेजा जाता था।" (मुस्नद अहमद, हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस (रज़ि०) की रिवायत) "पहले हर नबी ख़ास अपनी क़ौम की ओर भेजा जाता था, और मैं तमाम इंसानों के लिए भेजा गया हूँ।" (बुख़ारी व मुस्लिम, जाबिर बिन अब्दुल्लाह (रज़ि०) की हदीस) "मेरा भेजा जाना और क्रियामत इस तरह हैं, यह फ़रमाते हुए नबी (सल्ल०) ने अपनी दो उँगलियाँ उठाई।'' (बुख़ारी व मुस्लिम) मतलब यह था कि जिस तरह दो उँगलियों के बीच कोई तीसरी उँगली रुकावट नहीं है, उसी तरह मेरे और क़ियामत के दर्मियान भी कोई पैग़म्बर नहीं है। मेरे बाद बस क़ियामत ही है और क़ियामत तक मैं ही नबी रहनेवाला हूँ।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 28
(29) ये लोग तुमसे कहते हैं कि वह (क़ियामत का) वादा कब पूरा होगा, अगर तुम सच्चे हो?48
48. अर्थात् जिस समय के बारे में अभी तुमने कहा है कि हमारा रब हमको जमा करेगा और हमारे बीच ठोक-ठीक फ़ैसला कर देगा' वह समय आख़िर कब आएगा? एक मुद्दत से हमारा और तुम्हारा मुकदमा चल रहा है। अब इसका फ़ैसला क्यों नहीं कर डाला जाता?
قُل لَّكُم مِّيعَادُ يَوۡمٖ لَّا تَسۡتَـٔۡخِرُونَ عَنۡهُ سَاعَةٗ وَلَا تَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 29
(30) कहो, "तुम्हारे लिए एक ऐसे दिन का समय निश्चित है, जिसके आने में न एक घड़ी भर की देर तुम कर सकते हो और न एक घड़ी भर पहले उसे ला सकते हो।49
49. दूसरे शब्दों में, इस उत्तर का अर्थ यह है कि अल्लाह के फैसले तुम्हारी इच्छाओं के अधीन नहीं हैं कि किसी काम के लिए जो समय तुम तय करो, उसी समय पर वह उस काम को करने का पाबन्द हो। अपने मामलों को वह अपनी ही मर्जी के मुताबिक़ अंजाम देता है, तुम इसे क्या समझ सकते हो कि अल्लाह की स्कीम में इंसानों को कब तक इस दुनिया में काम करने का मौका मिलना है। कितने लोगों और कितनी क़ौमों की किस-किस तरह आज़माइश होनी है और कौन-सा समय इसके लिए उचित है कि इस दफ़्तर को लपेट दिया जाए और तमाम अगलों और पिछलों को हिसाब-किताब के लिए तलब कर लिया जाए। इस काम का जो समय अल्लाह ही की स्कीम में निश्चित है, उसी समय पर यह काम होगा। न तुम्हारे तकाज़ों से वह समय एक सिकेंड पहले आएगा और न तुम्हारी प्रार्थनाओं से वह एक सेकेंड के लिए टल सकेगा।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن نُّؤۡمِنَ بِهَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ وَلَا بِٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِۗ وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلظَّٰلِمُونَ مَوۡقُوفُونَ عِندَ رَبِّهِمۡ يَرۡجِعُ بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٍ ٱلۡقَوۡلَ يَقُولُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ لَوۡلَآ أَنتُمۡ لَكُنَّا مُؤۡمِنِينَ ۝ 30
(31) ये इनकार करनेवाले कहते हैं कि, "हम कदापि इस क़ुरआन को न मानेंगे और न इससे पहले आई हुई किसी किताब को मानेंगे।50 काश, तुम देखो इनका हाल उस वक़्त जब ये ज़ालिम अपने रब के सामने खड़े होंगे। उस समय ये एक-दूसरे पर आरोप लगाएँगे। जो लोग दुनिया में दबाकर रखे गए थे, वे बड़े बननेवालों से कहेंगे कि, “अगर तुम न होते तो हम ईमानवाले होते।"51
50. तात्पर्य है अरब के इस्लाम-विरोधी जो किसी आसमानी किताब को नहीं मानते थे।
51. अर्थात् सामान्य लोग, आज दुनिया में अपने लीडरों, सरदारों, पीरों और हाकिमों के पीछे आँखें बंद किए चले जा रहे हैं। जब अपनी आँखों से देख लेंगे कि वास्तविकता क्या थी और उनके ये पेशवा उन्हें यह क्या बता रहे थे और जब उन्हें यह पता चल जाएगा कि इन रहनुमाओं की पैरवी उन्हें किस अंजाम से दोचार करनेवाली है, तो ये अपने इन बुजुर्गों पर पलट पड़ेंगे और चीख-चीखकर कहेंगे कि भाग्यहीनो! तुमने हमें पथभ्रष्ट किया, तुम हमारी सारी मुसीबतों के ज़िम्मेदार हो, तुम हमें न बहकाते तो हम अल्लाह के रसूलों की बात मान लेते।
قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُوٓاْ أَنَحۡنُ صَدَدۡنَٰكُمۡ عَنِ ٱلۡهُدَىٰ بَعۡدَ إِذۡ جَآءَكُمۖ بَلۡ كُنتُم مُّجۡرِمِينَ ۝ 31
(32) वे बड़े बननेवाले इन दबे हुए लोगों को जवाब देंगे, “क्या हमने तुम्हें उस सीधे मार्गदर्शन से रोका था जो तुम्हारे पास आया था? नहीं, बल्कि तुम स्वयं अपराधी थे।''52
52. अर्थात् वे कहेंगे कि हमारे पास कोई ऐसी ताक़त न थी जिससे हम कुछ आदमी तुम करोड़ों इंसानों को जबरदस्ती अपनी पैरवी पर मजबूर कर देते। अगर तुम ईमान लाना चाहते हो, तो हमारी सरदारियों और पेशवाइयों और हुकूमतों का तख्ता उलट सकते थे। हमारी फ़ौज तो तुम ही थे। हमारी दौलत और ताक़त का स्रोत तो तुम्हारे ही हाथ में था। अब क्यों नहीं मानते कि वास्तव में तुम स्वयं उस रास्ते पर न चलना चाहते थे जो रसूलों ने तुम्हारे सामने पेश किया था। तुम अपने स्वार्थ और अपनी इच्छा के दास थे और तुम्हारे मन की यह माँग रसूलों की बताई हुई परहेज़गारी की राह के बजाय हमारे यहाँ पूरी होती थी। इस तरह हमारे और तुम्हारे बीच बराबर के लेन-देन का सौदा हुआ था। अब तुम कहाँ यह ढोंग रचाने चले हो कि मानो तुम बड़े मासूम लोग थे और हमने जबरदस्ती तुम्हें बिगाड़ दिया।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ بَلۡ مَكۡرُ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ إِذۡ تَأۡمُرُونَنَآ أَن نَّكۡفُرَ بِٱللَّهِ وَنَجۡعَلَ لَهُۥٓ أَندَادٗاۚ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّدَامَةَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَۚ وَجَعَلۡنَا ٱلۡأَغۡلَٰلَ فِيٓ أَعۡنَاقِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ هَلۡ يُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 32
(33) वे दबे हुए लोग उन बड़े बननेवालों से कहेंगे, “नहीं, बल्कि रात और दिन की मक्कारी थी, जब तुम हमसे कहते थे कि हम अल्लाह का इंकार करें और दूसरों को उसके बराबर का ठहराएँ।''53 अन्तत: जब ये लोग अज़ाब देखेंगे, तो अपने दिलों में पछताएँगे और हम इन इंकारियों के गलों में तौक़ (पट्टा) डाल देंगे। क्या लोगों को इसके सिवा और कोई बदला दिया जा सकता है कि जैसे कर्म उनके थे, वैसा ही वे बदला पाएँ?
53. दूसरे शब्दों में, इन अवाम का जवाब यह होगा कि तुम इस ज़िम्मेदारी में हमको बराबर का शरीक कहाँ ठहराए दे रहे हो। कुछ यह भी याद है कि तुमने अपनी चालबाजियों, फ़रेबकारियों और झूठे प्रचारों से क्या जादू बांध रखा था और रात-दिन अल्लाह के बन्दों को फाँसने के लिए कैसे-कैसे जतन तुम किया करते थे। मामला सिर्फ इतना ही तो नहीं है कि तुमने हमारे सामाने दुनिया पेश की और हम उसपर रीझ गए। सही बात यह भी तो है कि तुम रात-दिन की मक्कारियों से हमको मूर्ख बनाते थे और तुममें से हर शिकारी हर दिन एक नया जाल बुनकर तरह-तरह के उपायों से अल्लाह के बंदों को उसमें फाँसता था। क़ुरआन मजीद मैं नेताओं और पैरवी करनेवालों के इस झगड़े का उल्लेख अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से आया है। विस्तार के लिए देखें-सूरा-7 आराफ़, आयत 38-39; सूरा-14 इबराहीम, आयत 21; मूग-28 अल-क्रसस, आयत 63; सूरा-33 अल-अहजाब, आयत 66-68; सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 47-48; सूरा-41 हामीम० अस-सन्दा, आयत 29
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّذِيرٍ إِلَّا قَالَ مُتۡرَفُوهَآ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 33
(34) कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने किसी आबादी में एक ख़बरदार करनेवाला भेजा हो और उस बस्ती के खाते-पीते लोगों ने यह न कहा हो कि “जो सन्देश तुम लेकर आए हो, उसको हम नहीं मानते।"54
54. यह बात कुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर बयान की गई है कि नबियों की दावत का मुक़ाबला सबसे पहले और सबसे आगे बढ़कर उन बुशहाल वर्गों ने किया है, जो धन-दौलत, शान-शौकत और प्रभाव और शक्ति के मालिक थे। उदाहरण के रूप में नीचे की जगहों को देखिए- सूरा-6 अल-अनआम, आयत 123, सूरा-7 अल-आराक, आयत 60,66,75, 87, 90; सूरा-11 हूद, आयत 27; सूरा-17 बनी इसाईल, आयत 16; सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 24, 33 से 38, 46, 47; सूरा-43 अज़-जुख़रुफ़, आयत 23
وَقَالُواْ نَحۡنُ أَكۡثَرُ أَمۡوَٰلٗا وَأَوۡلَٰدٗا وَمَا نَحۡنُ بِمُعَذَّبِينَ ۝ 34
(35) उन्होंने सदैव यही कहा कि, "हम तुमसे अधिक धन-सन्तान रखते हैं और हम कदापि सजा पानेवाले नहीं हैं।"55
55. उनका तर्क यह था कि हम तुमसे अधिक अल्लाह के प्यारे और पसंदीदा लोग हैं, जभी तो उसने हमको उन नेमतों से मालामाल किया है, जिनसे तुम वंचित हो या कम से कम हमसे कमतर हो। अगर अल्लाह हमये राजी न होता, तो यह सरो-सामान और यह धन और शानो-शौकत हमें क्यों देता? अब यह बात हम कैसे मान लें कि अल्लाह यहाँ तो हमपर नेमतों की वर्षा कर रहा है और आख़िरत में जाकर हमें अज़ाब देशा। अजाय होना है तो उनपर होना है जो यहाँ उसकी कृपाओं से वंचित हैं। क़ुरआन मजीद में दुनियापरस्तों के इस भ्रम का भी जगह-जगह उल्लेख करके इसका खंडन किया गया है। उदाहरण के रूप में नीचे की जगहें देखिए पूरा 2 अल बाकरा, आपत 126, 2121 सूरा 9 अत-तौबा, आयत 55, 69; सूरा-11 हूद, आयत 3, 27; सूरा-13 अर-रअ़द, आयत 26; सूरा-18 अल-कहफ़, आयत 34-43; सूरा 19 मरयम, आयत 73-77; सूरा-20 ता-हा, आयत 131; सूरा-23 अल-मोमिनून, आयत 55-61; सूरा-26 अश-शुअ़रा, आयत 111; सूरा-28 अल-क़सस, आयत 76-83; सूरा-30 अर-रूम, आयत 9; सूरा-74 अल-मुद्दसिर, आयत 11-26; सूरा 89 अल-फ़ज्र, आयत 15-20
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 35
(36) ऐ नबी! इनसे कहो, "मेरा रब जिसे चाहता है कुशादा रोजी देता है, और जिसे चाहता है नपी-तुली देता है, मगर अधिकतर लोग इसकी वास्तविकता को नहीं जानते।''56
56. अर्थात संसार रोज़ी विभाजन का प्रबन्ध जिस हिकमत और मस्लहत पर आधारित है, उसको ये लोग नहीं समझाते और इस भर्म में पड़ जाते हैं कि जिसे अल्लाह कुशाबा रोजी दे रहा है, वह उसका प्रिय है और जिसे संगी के साथ दे रहा है, यह उसके प्रकोप का शिकार है, हालाँकि अगर कोई आदमी तनिक आँखें खोलकर देखें तो उसे नज़र आ सकता है कि कभी कभी बड़े दुष्ट और घिनौने चरित्र के लोग बड़े ख़ुशहाल होते हैं और बहुत से गले और सज्जन पुरुष, जिनके अच्छे चरित्र को हर आदमी मानता है, तंगदस्ती में सरण पाए जाते हैं। अब आखिर कौन बुद्धिमान व्यक्ति यह कह सकता है कि अल्लाह को ये पवित्र चरित्र के लोग नापसंद हैं और दुष्ट और घिनौने चरित्र के लोग ही उसे भले लगते हैं।
وَمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُم بِٱلَّتِي تُقَرِّبُكُمۡ عِندَنَا زُلۡفَىٰٓ إِلَّا مَنۡ ءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ جَزَآءُ ٱلضِّعۡفِ بِمَا عَمِلُواْ وَهُمۡ فِي ٱلۡغُرُفَٰتِ ءَامِنُونَ ۝ 36
(37) यह तुम्हारा धन और तुम्हारी सन्तान नहीं है, जो तुम्हें हमसे क़रीब करती हो, हा, मगर जो ईमान लाए और गले कर्म करे।57 यही लोग हैं, जिनके लिए उनके कर्म का दोहरा बदला है और ये कैसी ची इमारतों में इत्मीनान से रहेंगे।58
57. इसके दो अर्थ हो सकते हैं और दोनों ही सही हैं- एक यह कि आगाह से करीब करनेवाली चीज धन और सन्तान नहीं है, बल्कि ईमान और भले कर्म हैं। इसी यह कि धन और सन्तान केवल उस भले ईमानवाले इंसान के लिए ही ख़ुदा के क़रीब होने का ज़रिया बन सकते हैं जो अपने माल को अल्लाह की राह में ख़र्च करे और अपनी सन्तान को अच्छी शिक्षा-दीक्षा से अल्‍लाह को पहचाननेवाला और सच्‍चरित्र बनाने की कोशिश करे।
58. इसमें एक सूक्ष्म संकेत इस बात की और भी है कि उनकी यह नेमत हमेशा हमेशा के लिए होगी और इस बदले का सिलसिला कभी समाप्त होनेवाला न होगा, क्योंकि जिस ऐश के कभी समाप्त हो जाने का ख़तरा हो, उससे इंसान पूरी तरह सन्तुष्ट होकर आनन्दित नहीं हो सकता। इस स्थिति में यह धड़का लगा रहता है कि न जाने कब यह सब कुछ छिन जाए।
وَٱلَّذِينَ يَسۡعَوۡنَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ٱلۡعَذَابِ مُحۡضَرُونَ ۝ 37
(38 ) रहे वे लोग जो हमारी आयतों को नीचा दिखाने के लिए दौड़-भूप करते हैं, तो वे अजाब में गस्त होंगे।
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ وَيَقۡدِرُ لَهُۥۚ وَمَآ أَنفَقۡتُم مِّن شَيۡءٖ فَهُوَ يُخۡلِفُهُۥۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 38
(39) ऐ नबी । इनसे कहो, "मेरा रख अपने बन्दों में से जिसे चाहता है, खुली रोजी देता है और जिस चाहता है, नपी-तुली देता है।59 जो कुछ तुम ख़र्च कर देते हो, उसकी जगह वही तुमको और देता है। वह सब रोज़ी देनेवालों से बेहतर रोज़ी देनेवाला है।"60
59. इस विषय को बार-बार बयान करने का अभिप्राय इस बात पर बल देना है कि रोजी की कमी-बेशी अल्लाह की मर्ज़ी से ताल्लुक़ रखती है न कि उसकी प्रसन्नता से अल्लाह की मर्ज़ी के तहत अच्छे और बाहर तरह के इंसानों को रोज़ी मिल रही है। अल्लाह को माननेवाले भी रोजी पा रहे हैं और उसके इनकार करनेवाले भी। नती रोजी की शादगी और बहुतायत इस बात की दलील है कि आदमी ख़ुदा का पसन्दीदा बन्दा है और न उसकी तंगी इस बात की निशानी है कि आदमी उसके प्रकोप का शिकार है। उसकी मर्ज़ी और मशीयत के तहत एक ज़ालिम और बे-ईमान आदमी फलता-फूलता है, हालाँकि ज़ुल्म और बे-ईमानी अल्लाह की पसन्द नहीं है और इसके विपरीत उसकी मालहत ही के तहत एक सच्चा और ईमानदार आदमी नुक़सान उठाता और तकलीफ़ सहता है, हालांकि ये ख़ूबियाँ अल्लाह को पसन्द हैं। इसलिए वह आदमी अत्यन्त अटका हुआ है जो भौतिक लाभों और फायदों को भलाई और बुराई की कसौटी समझता है। वास्‍तविक चीज़ अल्लाह की प्रसन्नता है और वह उन नैतिक गुणों से प्राप्त होती है जो अल्लाह को प्रिय हैं। इन गुणों के साथ अगर किसी को दुनिया की नेमतें मिली हुई हों, तो यह निस्सन्देह अल्लाह की कृपा है जिसपर उसका शुक्र अदा करना चाहिए, लेकिन अगर एक आदमी नैतिक गुणों की दृष्टि से अल्लाह का द्रोही और अवज्ञाकारी बन्दा हो और उसके साथ दुनिया की नेमतों से नवाजा जा रहा हो, तो इसका अर्थ यह है कि वह कड़ी पूछ-ताछ और बहुत बुरे अजाब के लिए तैयार हो रहा है।
60. 'रोज़ी देनेवाला', 'बनानेवाला', 'ईजाद करनेवाला', 'देनेवाला' और ऐसे ही दूसरे बहुत-से गुण ऐसे हैं जो वास्तव में तो अल्लाह ही के गुण हैं, मगर लाक्षणिक रूप से बन्दों से भी संबद्ध हो जाते हैं, जैसे हम एक आदमी के बारे में कहते है कि उसने का आदमी के रोजगार की व्यवस्था कर दी, या उसने यह तोहफ़ा दिया, उसने का बीज बनाई या ईजाद की, इसी दृष्टि से अल्लाह ने अपने लिए 'खैरूर्राज़िक़ीन' (सबसे बेहतर रोज़ी देनेवाला) का शब्द प्रयुक्त किया है, अर्थात् जिन-जिनके बारे में तुम गुमान रखते हो कि वे रोज़ी देनेवाले हैं, उन सबसे बेहतर रोज़ी देनेवाला अल्लाह है।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ يَقُولُ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ أَهَٰٓؤُلَآءِ إِيَّاكُمۡ كَانُواْ يَعۡبُدُونَ ۝ 39
(40) और जिस दिन वह तमाम इंसानों को जमा करेगा, फिर फ़रिश्तों से पूछेगा, "क्या ये लोग तुम्हारी ही इबादत किया करते थे?''61
61. पुराने समय से आज तक हर समय के मुशरिकीन (बहुदेववादी) फ़रिश्तों को देवी और देवता क़रार देकर उनके बुत बनाते और उनकी पूजा करते रहे हैं। कोई वर्षा का देवता है, तो कोई बिजली का और कोई हवा का। कोई धन की देवी है तो कोई ज्ञान की और कोई मौत और विनाश की। उसी के बारे में अल्लाह फ़रमा रहा है कि क्रियामत के दिन इन फ़रिश्तों से पूछा जाएगा कि क्या तुम ही इन लोगों के उपास्य बने हुए थे? इस सवाल का मतलब सिर्फ़ परिस्थिति का पता लगाना नहीं है, बल्कि इसमें यह अर्थ भी छिपा है कि क्‍या तुम उनको इस इबादत से प्रसन्न थे? क्या तुमने यह कहा था कि लोगो ! हम तुम्हारे उपास्य हैं, तुम हमारी पूजा किया करो? या तुमने यह चाहा था कि ये लोग तुम्हारी पूजा करें? क़ियामत में यह सवाल सिर्फ़ फ़रिश्तों ही से नहीं, बल्कि तमाम उन हस्तियों से किया जाएगा, जिनकी दुनिया में पूजा की गई है। चुनांचे क़ुरआन में कहा गया है, "जिस दिन अल्लाह इन लोगों को और उन हस्तियों को जिनकी ये अल्लाह के सिवा पूजा करते हैं, जमा करेगा, फिर पूछेगा कि क्या तुमने मेरे इन बन्दों को पथभ्रष्ट किया था या ये स्वयं सीधे रास्ते से भटक गए थे?" (सूरा-25, अल-फ़ुरक़ान, आयत 17)
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ أَنتَ وَلِيُّنَا مِن دُونِهِمۖ بَلۡ كَانُواْ يَعۡبُدُونَ ٱلۡجِنَّۖ أَكۡثَرُهُم بِهِم مُّؤۡمِنُونَ ۝ 40
(41) तो वे जवाब देंगे कि “पाक है आपकी ज़ात! हमारा ताल्लुक़ तो आपसे है, न कि इन लोगों से।62 वास्तव में ये हमारी नहीं, बल्कि जिन्नों की इबादत करते थे, इनमें से अधिकतर इन्हीं पर ईमान लाए हुए थे।"63
62. अर्थात् वे जबाब देंगे कि हुजूर की ज़ात इससे पाक और इससे उच्च है कि कोई दूसरा ख़ुदाई और उपासना में आपका शरीक हो। हमारा इन लोगों से कोई ताल्लुक़ नहीं। हम इनसे और इनके कार्मों की जवाबदेही से मुक्त हैं। हम तो हुज़ूर के बन्दे हैं।
63. इस वाक्य में जिन्न से तात्पर्य शैतान जिन्न हैं। फ़रिश्तों के इस उत्तर का अर्थ यह है कि देखने में तो ये हमारे नाम ले-लेकर और अपनी कल्पनाओं के अनुसार हमारी शक्लें बनाकर मानो हमारी इबादत करते थे, लेकिन वास्तव में ये हमारी नहीं, बल्कि शैतानों की बन्दगी कर रहे थे, क्योंकि शैतानों ही ने इनको यह रास्ता दिखाया था कि अल्लाह को छोड़कर दूसरों को अपनी ज़रूरत पूरी करनेवाला समझो और उनके आगे नज व नियाज़ पेश किया करो। यह आयत स्पष्ट रूप से उन लोगों के विचारों की ग़लती स्पष्ट कर देती है जो 'जिन' को पहाड़ी इलाकों के रहनेवालों या देहातों और रेगिस्तानों में रहनेवालों के अर्थ में लेते हैं। क्या कोई बुद्धिमान व्यक्ति इस आयत को पढ़कर यह सोच सकता है कि लोग पहाड़ी और रेगिस्तानी और देहाती आदमियों की इबादत किया करते थे और इन्हीं पर ईमान लाए हुए थे। इस आयत से इबादत के भी एक दूसरे अर्थ पर रौशनी पड़ती है। इससे मालूम होता है कि इबादत सिर्फ़ पूजा-पाठ ही का नाम नहीं है, बल्कि किसी के आदेश पर चलना और उसका बिना आना-कानी आज्ञापालन करना भी इबादत ही है। यहाँ तक कि अगर आदमी किसी पर लानत भेजता हो (जैसा कि शैतान पर भेजता है) और फिर भी पालन उसी के तरीके का किए जा रहा हो, तब भी वह उसकी इबादत करनेवाला है। इसकी दूसरी मिसालों के लिए देखिए, सूरा-4, अन-निसा, टिप्पणी 145; सूरा-5, अल-माइदा, टिप्पणी 91; सूरा-9, अत-तौबा, टिप्पणी 29, 31; सूरा-19 मरयम, टिप्पणी 27; सूरा-28 अल-क़सस, टिप्पणी 86, 88
فَٱلۡيَوۡمَ لَا يَمۡلِكُ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٖ نَّفۡعٗا وَلَا ضَرّٗا وَنَقُولُ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلنَّارِ ٱلَّتِي كُنتُم بِهَا تُكَذِّبُونَ ۝ 41
(42) (उस समय हम कहेंगे कि) आज तुममें से कोई न किसी को फ़ायदा पहुंचा सकता है, न नुकसान । और ज़ालिमों से हम कह देंगे कि अब चखो जहन्नम के इस अज़ाब का मज़ा, जिसे तुम झुठलाया करते थे।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالُواْ مَا هَٰذَآ إِلَّا رَجُلٞ يُرِيدُ أَن يَصُدَّكُمۡ عَمَّا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُكُمۡ وَقَالُواْ مَا هَٰذَآ إِلَّآ إِفۡكٞ مُّفۡتَرٗىۚ وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 42
(43) इन लोगों को जब हमारी साफ़-साफ़ आयतें सुनाई जाती हैं, तो ये कहते हैं कि “यह आदमी तो बस यह चाहता है कि तुमको उन उपास्यों से विमुख कर दे जिनकी बन्दगी तुम्हारे बाप- दादा करते आए हैं।" और कहते हैं कि "यह (क़ुरआन) मात्र एक झूठ है गढ़ा हुआ।" इन इंकारियों के सामने जब सत्य आया तो इन्होंने कह दिया कि "यह तो खुला जादू है।"
وَمَآ ءَاتَيۡنَٰهُم مِّن كُتُبٖ يَدۡرُسُونَهَاۖ وَمَآ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمۡ قَبۡلَكَ مِن نَّذِيرٖ ۝ 43
(44) हालाँकि न हमने इन लोगों को पहले कोई किताब दी थी कि ये इसे पढ़ते हों और न तुमसे पहले इनकी ओर कोई सावधान करनेवाला भेजा था।64
64. अर्थात् इससे पहले न कोई किताब अल्लाह की ओर से ऐसी आई है और न कोई रसूल ऐसा आया है, जिसने आकर उनको यह शिक्षा दी हो कि यह अल्लाह के सिवा दूसरों की बन्दगी और पूजा किया करें। इसलिए ये लोग किसी ज्ञान के आधार पर नहीं, बल्कि पूर्णतः अज्ञानता के आधार पर क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के एकेश्वरवादी संदेश का इंकार कर रहे हैं। इसके लिए इनके पास कोई प्रमाण नहीं है।
وَكَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَمَا بَلَغُواْ مِعۡشَارَ مَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ فَكَذَّبُواْ رُسُلِيۖ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 44
(45) इनसे पहले गुज़रे हुए लोग झुठला चुके हैं। जो कुछ हमने उनको दिया था उसके दसवें हिस्से को भी ये नहीं पहुँचे हैं, मगर जब उन्होंने मेरे रसूलों को झुठलाया तो देख लो कि मेरी सज़ा कैसी कठोर थी।65
65. अर्थात् मक्का के लोग तो उस ताक़त और शानो-शौकत और उस ख़ुशहाली के दसवें हिस्से को भी नहीं पहुँचे हैं जो उन क़ौमों को प्राप्त थी। मगर देख लो कि जब उन्होंने इन वास्तविकताओं को मानने से इंकार किया है जो नबियों ने उनके सामने पेश की थी और असत्य (झूठ) पर अपनी जीवन-व्यवस्था की नींव रखी तो अन्ततः वे किस तरह नष्ट हुईं और उनकी शक्ति और धन-दौलत उनके किसी काम न आ सकी।
۞قُلۡ إِنَّمَآ أَعِظُكُم بِوَٰحِدَةٍۖ أَن تَقُومُواْ لِلَّهِ مَثۡنَىٰ وَفُرَٰدَىٰ ثُمَّ تَتَفَكَّرُواْۚ مَا بِصَاحِبِكُم مِّن جِنَّةٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا نَذِيرٞ لَّكُم بَيۡنَ يَدَيۡ عَذَابٖ شَدِيدٖ ۝ 45
(46) ऐ नबी! इनसे कहो कि “मैं तुम्हें बस एक बात की नसीहत करता हूँ। अल्लाह के लिए तुम अकेले-अकेले और यो हो विश्वकर अपना दिमाग़ लड़ाओ और सोचो, तुम्हारे साहब65अ में आख़िर कौन सी चाल है जो जुनून की हो?66 वह तो एक सख़्त अज़ाब के आने से पहले तुमको सचेत करनेवाला है।’’67
65अ मुराद है अरसह के रसूल (सल्‍ल०)। आपके लिए उनके 'साहब' का शब्द इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि आप उनके लिए अपमान वे थे, बल्कि उन्हीं के शहर के रहनेवाले और उन्हीं के क़बीले के थे।
66. अर्थात् स्वार्थों, इच्छाओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सिर्फ़ अल्लाह के लिए विचार करी। हर आदमी अलग-अलग भी नेक-नीयती से सोचे और दो-दो, चार-चार आदमी सर जोड़कर भी बेलाग तरीक़े से एक-दूसरे के साथ वार्ता करके मालूम करें कि आख़िर वह क्या बात है जिसकी वजह से आज तुम उस आदमी को मजनून ठहरा रहे हो, जिसे कल तक तुम अपने बीच बहुत सूझ-बूझवाला व्यक्ति समझते थे। आख़िर नुबूवत से थोड़ी ही मुद्दत पहले ही की तो घटना थी कि काबा के निर्माण के बाद हजरे-अस्वद (काला पत्‍थर) लगाने के मसले पर जब क़ुरैश के क़बीले आपस में लड़ पड़े थे, तो तुम ही लोगों ने एक होकर मुहम्मद (सल्ल०) को हकम (मध्यस्थ) माना था और उन्होंने ऐसे तरीक़े से इस झगड़े को चुकाया था जिसपर तुम सब सन्तुष्ट हो गए थे। जिस व्यक्ति की समझ सूझ का यह तजुर्बा तुम्हारी सारी क़ौम को हो चुका है, अब क्या बात ऐसी हो गई कि तुम उसे 'मजनून' करने लगे? हठधर्मी और ज़िद की बात तो दूसरी है, मगर क्या सच में तुम अपने दिलों में भी वही कुछ समझते हो जो अपनी ज़बानों से कहते हो?
قُلۡ مَا سَأَلۡتُكُم مِّنۡ أَجۡرٖ فَهُوَ لَكُمۡۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٞ ۝ 46
(47) इनसे कहो, "अगर मैंने तुमसे कोई बदला माँगा है तो वह तुम ही को मुबारक रहे।68 मेरा बदला तो अल्लाह के ज़िम्मे है और वह हर चीज़ पर गवाह है।’’69
68. मूल अरबी शब्द हैं, 'मा स-अलतकुम मिल अज-रिन फतु व लकुम'। इसका एक अर्थ तो वह है जो हमने अनुवाद में बयान किया है और दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि तुम्हारी भलाई के सिवा मैं कुछ और नहीं चाहता। मेरा बदला बस यही है कि तुम सही हो जाओ। इस विषय को दूसरी जगह क़ुरआन मजीद में धयान किया गया है, "ऐनची। इनसे कहो, मैं इस काम पर तुमसे कोई बदला इसके सिवा नहीं मांगता कि जिसका जो चाहे, वह अपने रब का रास्ता अपना ले।" (सूरा-25 अल-फ़ुरक़ान, आयत 57)
69. अर्थात् आरोप लगानेवाले जो कुछ चाहें, आरोप लगाते रहे, मगर अल्लाह सब कुछ जानता है। वह गवाह है कि मैं एक निःस्वार्थ व्यक्ति हूँ। यह काम अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए नहीं कर रहा हूँ।
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَقۡذِفُ بِٱلۡحَقِّ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 47
(48) इनसे कहो, "मेरा रब (मुझपर) सत्य का प्रकाशन करता है70 और वह तमाम छिपे तथ्यों का जाननेवाला है।"
70. मूल अरबी शब्द हैं, 'यकिज़फु बिलहक्की'। इसका एक अर्थ यह है कि वह्य के ज़रिये से वह सत्य ज्ञान मेरे मन में डाल देता है और दूसरा अर्थ यह है कि वह सत्य को ग़ालिब कर रहा है, असत्य के सर पर सत्य की चोट लगा रहा है।
قُلۡ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَمَا يُبۡدِئُ ٱلۡبَٰطِلُ وَمَا يُعِيدُ ۝ 48
(49) कहो, "सत्य आ गया है और अब असत्य के लिए कुछ नहीं हो "
قُلۡ إِن ضَلَلۡتُ فَإِنَّمَآ أَضِلُّ عَلَىٰ نَفۡسِيۖ وَإِنِ ٱهۡتَدَيۡتُ فَبِمَا يُوحِيٓ إِلَيَّ رَبِّيٓۚ إِنَّهُۥ سَمِيعٞ قَرِيبٞ ۝ 49
(50) कहो, "अगर मैं पथभ्रष्ट हो गया हूँ, तो मेरी पथभ्रष्टता का वबाल मुझपर है, और अगर मैं सन्मार्ग पर हूँ तो उस वह्य की वजह से हूँ जो मेरा रब मेरे ऊपर अवतरित करता है। ह सब कुछ सुनता और क़रीब ही है।’’71
71. अर्थात् अगर मैं पथभ्रष्ट हो गया हूँ, जैसा कि तुम मुझपर आरोप लगा रहे हो, और मेरा यह नुबूवत का दावा और मेरी यह तौहीद की दावत इसी पथभ्रष्टता का नतीजा है, जैसा कि तुम गुमान कर रहे हो, तो मेरी पथभ्रष्टता का वबाल मुझपर ही पड़ेगा, इसकी ज़िम्मेदारी में तुम न पकड़े जाओगे। लेकिन अगर मैं सीधे रास्ते पर हूँ जैसा कि वास्तव में हूँ तो इसकी वजह यह है कि मुझपर मेरे रब की ओर से वह्य आती है जिसके ज़रिये से मुझे सीधे रास्ते का ज्ञान प्राप्त हो गया है। मेरा रब क़रीब ही मौजूद है और सब कुछ सुन रहा है। उसे मालूम है कि मैं गुमराह हूँ या उसकी ओर से हिदायत पाया हुआ।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ فَزِعُواْ فَلَا فَوۡتَ وَأُخِذُواْ مِن مَّكَانٖ قَرِيبٖ ۝ 50
(51) काश, तुम देखो इन्हें उस वक़्त जब ये लोग घबराए फिर रहे होंगे और कहीं बचकर जा सकेंगे, बल्कि क़रीब ही से पकड़ लिए जाएँगे।72
72. अर्थात् क़ियामत के दिन हर अपराधी इस तरह पकड़ा जाएगा कि मानो पकड़नेवाला क़रीब ही कहीं छिपा खड़ा था, तनिक उसने भागने की कोशिश की और तुरन्त ही धर लिया गया।
وَقَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِهِۦ وَأَنَّىٰ لَهُمُ ٱلتَّنَاوُشُ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ ۝ 51
(52) उस समय ये कहेंगे कि हम उसपर ईमान ले आए,73 हालांकि अब दूर निकली हुई चीज़ कहाँ हाथ आ सकती है।74
73. तात्पर्य यह है कि उस शिक्षा पर ईमान ले आए जो रसूल (सल्ल.) ने दुनिया में पेश की थीं।
74. अर्थात् ईमान लाने की जगह तो दुनिया थी और वहाँ से ये अब बहुत दूर निकल आए हैं। आख़िरत की दुनिया में पहुँच जाने के बाद अब तौबा व ईमान का मौक़ा कहाँ मिल सकता है।
وَقَدۡ كَفَرُواْ بِهِۦ مِن قَبۡلُۖ وَيَقۡذِفُونَ بِٱلۡغَيۡبِ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ ۝ 52
(53) इससे पहले ये कुफ़्र कर चुके थे और बग़ैर छान-बीन के दूर-दूर की कौड़ियाँ लाया करते थे।75
75. अर्थात् रसूल और रसूल की शिक्षाएँ और ईमानवालों पर तरह-तरह के आरोप लगाते, आवाज़ें कसते और व्यंग्य करते थे। कभी कहते यह आदमी जादूगर है, कभी कहते यह मजनून (उन्मादी) है, कभी तौहीद का मज़ाक उड़ाते और कभी आख़िरत की धारणा पर बातें छाँटते। कभी ये कहानियाँ गढ़ते कि रसूल को कोई और सिखाता-पढ़ाता है और कभी ईमान लानेवालों के बारे में कहते, ये सिर्फ़ अपनी नादानी की वजह से रसूल के पीछे लग गए हैं।
وَحِيلَ بَيۡنَهُمۡ وَبَيۡنَ مَا يَشۡتَهُونَ كَمَا فُعِلَ بِأَشۡيَاعِهِم مِّن قَبۡلُۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ فِي شَكّٖ مُّرِيبِۭ ۝ 53
(54) उस समय जिस चीज की ये कामना कर रहे होंगे उससे वंचित कर दिए जाएँगे, जिस तरह इनसे पहले के सहधर्मी वंचित हो चुके होंगे। ये बड़े गुमराह करनेवाले सन्देह में पड़े हुए थे।76
76. वास्तव में शिर्क और दहरियत (नास्तिकता) और आख़िरत के इंकार के अक़ीदों को कोई आदमी भी विश्वास के आधार पर नहीं अपनाता और नहीं अपना सकता, इसलिए कि विश्वास सिर्फ़ ज्ञान से प्राप्त होता है और किसी व्यक्ति को भी यह ज्ञान प्राप्त नहीं है कि अल्लाह नहीं है या बहुत-से ख़ुदा हैं, या ख़ुदाई के अधिकारों में बहुत-सी हस्तियों को दख़ल हासिल है या आख़िरत नहीं होनी चाहिए। अतः जिसने भी दुनिया में ये अक़ीदे अपनाए हैं, उसने सिर्फ़ अटकल और अनुमान पर एक इमारत खड़ी कर ली है जिसकी अस्ल बुनियाद सन्देह के सिवा और कुछ नहीं है और यह सन्देह उन्हें अत्यन्त पथभ्रष्टता की ओर ले गया है।