(21) इब्लीस को उनपर कोई प्रभुत्व प्राप्त न था, मगर जो कुछ हुआ, वह इसलिए हुआ कि हम यह देखना चाहते थे कि कौन आख़िरत का माननेवाला है और कौन उसकी ओर से सन्देह में पड़ा हुआ है।36 तेरा रब हर चीज़ पर निगरानी करनेवाला है।37
36. अर्थात् इब्लीस को अल्लाह ने जो कुछ भी शक्ति दी थी, वह केवल इस सीमा तक थी कि वह उन्हें बहकाए और ऐसे तमाम लोगों को अपने पीछे लगा ले जो स्वयं उसकी पैरवी करना चाहें और बहकाने के ये मौक़े इब्लीस को इसलिए दिए गए ताकि आख़िरत के माननेवालों और उसके आने में सन्देह रखनेवालों का अन्तर स्पष्ट हो जाए। दूसरे शब्दों में अल्लाह का यह इर्शाद इस सच्चाई को स्पष्ट करता है कि आख़िरत के अक़ीदे के सिवा कोई दूसरी चीज़ ऐसी नहीं है जो इस दुनिया में इंसान को सीधे रास्ते पर क़ायम रखने की ज़मानत देनेवाली हो सकती हो।
37. सबा क़ौम के इतिहास की ओर ये जो संकेत कुरआन मजीद में दिए गए हैं, उनको समझने के लिए ज़रूरी है कि वे जानकारियाँ भी हमारी निगाह में रहें जो इस क़ौम के बारे में दूसरे ऐतिहासिक साधनों से प्राप्त हुई हैं।
इतिहास के अनुसार 'सबा' दक्षिणी अरब की एक बहुत बड़ी क़ौम का नाम है जो कुछ बड़े-बड़े क़बीलों पर सम्मिलित थी। सवा अरब के एक आदमी का नाम था, जिसकी नस्ल से अरब में निम्नलिखित क़बीले पैदा हुए-किंदा, हिमयर, अज्द, अशअरीयीन, मज़हिज, अन्मार (जिसकी दो शाखाएं हैं ख़शअम और बजीला), आमिला, जुज़ाम, लख़न और ग़स्सान। (अहमद और तिर्मिज़ी आदि) बहुत प्राचीन समय से दुनिया में अरब की इस क़ौम की शुहरत थी। सन् 2500 ई० पू० में उवर के पुरालेख इसका उल्लेख साबूम के नाम से करते हैं। इसका वहम अरब का दक्षिणी पश्चिमी कोना था जो आज यमन के नाम से प्रसिद्ध इसके उत्थान का समय 1100 वर्ष ई० पू० से आरंभ होता है। हजरत दाऊद और हजरत सुलैमान (अलैहिस्सलाम) के समय में एक धनवान कौम की हैसियत से यह पूरी दुनिया में प्रसिद्ध थी। शुरू में यह सूरज की पुजारी एक कौम थी। फिर जब इसकी रानी हजरत सुलेमान (965-926 ई० पू०) के हाथ पर ईमान ले आई तो अन्दाजा यह है कि इसके अधिकतर लोग मुसलमान हो गए थे, लेकिन बाद में न जाने कब इसके अन्दर शिर्क व बुतपरस्ती का फिर जोर हो गया।
इसके इतिहास के महत्त्वपूर्ण काल ये हैं-
(1) सन् 650 ई०पू० से पहले का काल- उस जमाने में सबा के बादशाहों की उपाधि मुकरिब सबा थी। अनुमान यही है कि यह शब्द 'मुकरिब' (नज़दीकी) का समानार्थी था और इसका अर्थ यह था कि ये बादशाह इंसानों और ख़ुदाओं के दर्मियान अपने आपको वास्ता ठहराते थे। उस समय में उसकी राजधानी सरवाह थी जिसके खंडहर आज भी मारिव से पश्चिम की ओर एक दिन की राह पर पाए जाते हैं और खरबिया के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी काल में मारिव के मशहूर बाँध की बुनियाद रखी गई।
(2) 650 ई० पू० से 115 ई० पू० तक का काल- इस दौर में सबा के बादशाहों ने मुकरिव की उपाधि छोड़कर मलिक (बादशाह) की उपाधि अपना ली और सरवाह को छोड़कर मारिब को अपनी राजधानी बनाया और उसे असाधारण रूप से तरक्की दी।
(3) 115 ई० पू० से 300 ई० तक का काल- उस समय में सबा सल्तनत पर हिमयर क़बीले का गलवा हो गया था जो सबा क़ौम ही का एक कवीला था और तादाद में दूसरे तमाम कबीलों से बढ़ा हुआ था। इस काल में मारिख को उजाड़कर रैदान को राजधानी बनाया गया जो हिमयर क़बीले का केन्द्र था। बाद में यह शहर जफ़ार के नाम से मशहूर हुआ। उसी जमाने में सल्तनत के एक हिस्से की हैसियत से पहली बार शब्द यमनत और यमनात का इस्तेमाल होना शुरू हुआ और धीरे-धीरे यमन उस पूरे क्षेत्र का नाम पड़ गया, जो अरब के दक्षिणी-पश्चिमी कोने पर असौर से अदन तक और बाबुल मंदब से हज़रेमौत तक स्थित है। यही काल है जिसमें सबाइयों का पतन शुरू हुआ।
(4) सन् 300 ई० के बाद से इस्लाम के आरंभ तक का काल- यह सबा कौम के विनाश का दौर है। इस बीच उनके यहाँ बरावर गृहयुद्ध होते रहे। बाहरी कौमों का हस्तक्षेप शुरू हुआ, व्यापार नष्ट हुआ, खेती ने दम तोड़ा और अन्तत: आजादी तक समाप्त हो गई, फिर आजादी तो बहाल हो गई मगर मारिब के प्रसिद्ध बाँध में दरारें पड़नी शुरू हुई, यहाँ तक कि अन्ततः सन् 450 ई० या 451 ई० में बाँध के टूटने से वह भीषण बाढ़ आई जिसका उल्लेख ऊपर क़ुरआन मजीद की आयतों में किया गया है। सबा कौम की उन्नति वास्तव में दो बुनियादों पर कायम थी। एक खेती, दूसरे व्यापार । खेती को उन्होंने सिंचाई की एक बेहतरीन व्यवस्था के जरिये से उन्नति दी थी। सिंचाई की इस व्यवस्था का पानी का सबसे बड़ा भंडार वह तालाब था जो शहर मारिव के करीब बलक पहाड़ के बीच की घाटी पर बाँध बाँधकर तैयार किया गया था। मगर जब अल्लाह की कृपा-दृष्टि उनसे फिर गई, तो पांचवीं सदी ईसवी के बीच में यह विशाल बाँध टूट गया और उससे निकलनेवाली बाढ़ रास्ते में बांध पर बाँध तोड़ती चली गई, यहाँ तक कि देश की सिंचाई की व्यवस्था नष्ट होकर रह गई. फिर कोई उसे बहाल न कर सका व्यापार के लिए उस कौम को अल्लाह ने सबसे अच्छा भौगोलिक स्थान प्रदान किया था, जिससे उसने ख़ूब फ़ायदा उठाया। एक हजार वर्ष से अधिक अवधि तक यही क़ौम पूरब और पश्चिम के बीच व्यापार का माध्यम बनी रही। इस शानदार व्यापार के दो रास्ते थे, एक समुद्री और दूसरा ज़मीनी । अमौनी मार्ग पर, जैसा कि कुरआन में कहा गया है, यमन से शाम (सीरिया) की सीमाओं तक सवाइयों की नई आबादियाँ एक क्रम से स्थित थीं और रात-दिन उनके व्यापारिक कारवाँ यहाँ से गुजरते रहते थे। पहली सदी ईसवी के लगभग समय में इस व्यापार में गिरावट आनी शुरू हुई। मध्य-पूर्व में जब यूनानियों और फिर रूमियों के शक्तिशाली राज्य स्थापित हुए तो [उन्होंने सवाइयों के समुद्री व्यापार पर कब्जा कर लेने की कोशिशें कीं, यूनानी तो अपने उद्देश्य में असफल रहे, मगर रूमी सफल हो गए।] समुद्री व्यापार हाथ से निकल जाने के बाद सिर्फ़ जमीनी व्यापार सवाइयों के पास रह गया था, मगर बहुत-सी वजहें थीं, जिन्होंने धीरे-धीरे उसकी कमर भी तोड़ दी। पहले निस्तियों ने पटेरा से अल-ऊला तक ऊपरी हिजाज़ और जार्डन के तमाम नई आबादियों से सबाइयों को निकाल बाहर किया, फिर 106 ई० में रूमियों ने निब्ती शासन को समाप्त कर दिया और हिजाज़ की सीमा तक शाम व जार्डन के तमाम इलाक़े उनके मज़बूत हाथों में चले गए। इसके बाद हबश और रूम की संयुक्त कोशिश यह रही कि सबाइयों के आपसी संघर्ष से फ़ायदा उठाकर उनके व्यापार को बिल्कुल नष्ट कर दिया जाए। इस कारण हबशी बार-बार यमन में हस्तक्षेप करते रहे, यहाँ तक कि अन्ततः उन्होंने पूरे देश पर कब्जा कर लिया। इस तरह अल्लाह के प्रकोप ने इस क़ौम को अत्यन्त ऊँचाई से गिराकर उस गढ़े में फेंक दिया जहाँ से फिर कोई अल्लाह के प्रकोप में ग्रस्त क़ौम कभी सर नहीं निकाल सकी है। एक समय था कि उसकी दौलत की कहानियाँ सुन-सुनकर यूनान और रोमवालों के मुँह में पानी भर आता था। स्ट्राबो लिखता है कि ये लोग सोने और चाँदी के बरतन इस्तेमाल करते हैं और उनके मकानों की छतों, दीवारों और दरवाज़ों तक में हाथी दाँत, सोने-चाँदी और जवाहरात का काम बना हुआ होता है। प्लेनी कहता है कि रूम और फ़ारस का धन उनकी ओर बहा चला जा रहा है। ये इस समय दुनिया की सबसे अधिक धनी क़ौम है और उनका हरा-भरा देश बागों, खेतों और मवेशियों से भरा हुआ है। आरटी मीडोरस कहता है कि ये लोग ऐश में मस्त हो रहे हैं और जलाने की लकड़ी के बजाय दारचीनी, संदल और दूसरी ख़ुश्बूदार लकड़ियाँ जलाते हैं। इन्होंने इतिहास में पहली बार सनआ की ऊँची पहाड़ी जगह पर वह गगन चुंबी इमारत (Sky Scraper) बनाई जो क़ने-गुमदान के नाम से सदियों तक मशहूर रही है। अरब इतिहासकारों का बयान है कि इसकी 20 मंज़िलें थीं और हर मंज़िल 36 फिट ऊँची थी। यह सब कुछ बस उसी समय तक रहा जब तक अल्लाह की कृपा उनके साथ रही। अन्ततः जब उन्होंने नेमत की नाशुक्री की हद कर दी तो सर्वशक्तिमान रब की कृपा-दृष्टि सदा के लिए उनसे फिर गई और उनका नामो-निशान तक बाक़ी न रहा।