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سُورَةُ الأَحۡزَابِ

33. अल-अहज़ाब

(मदीना में उतरी, आयतें 73)

 

परिचय

नाम

आयत 20 के वाक्य “यहसबूनल अहज़ा-ब लम यज़-हबू” [ये समझ रहे हैं कि आक्रमणकारी गिरोह (अल-अहज़ाब) अभी गए नहीं हैं से लिया गया है।

उतरने का समय

[यह सूरा मदीना में उतरी है। इस सूरा के विषय का संबंध तीन महत्त्वपूर्ण घटनाओं से है-

एक, अहज़ाब का युद्ध, जो शव्वाल सन् 05 हिजरी में हुआ,

दूसरा, बनी-क़ुरैज़ा का युद्ध जो ज़ी-कादा सन् 05 हिजरी में हुआ,

तीसरा, हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) का निकाह जो इसी साल ज़ी-क़ादा में हुआ।

इन ऐतिहासिक घटनाओं से सूरा के उतरने का समय सही-सही निश्चित हो जाता है, [और यही घटनाएँ इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी हैं।]

सामाजिक सुधार

उहुद और अहज़ाब के युद्ध के बीच के दो वर्ष का समय यद्यपि ऐसे हंगामों का था जिनके कारण नबी (सल्ल०) और आपके साथियों (रज़ि०) को एक दिन के लिए भी सुख-शान्ति प्राप्त न हुई। लेकिन इस पूरी अवधि में नए मुस्लिम समाज का निर्माण और ज़िन्दगी के हर पहलू में सुधार का काम बराबर चलता रहा। यही समय था जिसमें मुसलमानों के निकाह और तलाक़ के क़ानून लगभग पूरे हो गए। विरासत का क़ानून बना, शराब और जुए को हराम किया गया, [परदे के आदेश आने शुरू हुए] और अर्थव्यवस्था तथा सामाजिकता और समाज के दूसरे बहुत-से पहलुओं में नए क़ानून लागू किए गए।

विषय और वार्ता

यह पूरी सूरा एक व्याख्यान नहीं है जो एक ही समय में उतरा हो, बल्कि यह अनेक आदेश, फ़रमान और व्याख्यानों पर सम्मिलित है। इसके निम्नलिखित अंश स्पष्ट रूप से अलग-अलग दिखाई देते हैं-

  • आयत नम्बर 1 से 8 तक का भाग अहज़ाब अभियान से कुछ पहले का अवतरित मालूम होता है। इसके अवतरण के समय हज़रत ज़ैद (रज़ि०), हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) को तलाक़ दे चुके थे। नबी (सल्ल०) इस ज़रूरत को महसूस कर रहे थे कि मुँह बोले बेटे के विषय में अज्ञानकाल की धारणाओं [को मिटाने के लिए हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से स्वयं निकाह कर लें] लेकिन सेक साथ ही इस कारण बहुत संकोच में थे कि यदि [मैंने ऐसा] किया तो इस्लाम के विरुद्ध हँगामा उठाने के लिए मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) और यहूद और बहुदेववादियों को एक भारी शोशा हाथ आ जाएगा।
  • आयत 9 से लेकर 27 तक में अहज़ाब और बनी-क़ुरैज़ा के अभियान की समीक्षा की गई है। यह इस बात का स्पष्ट लक्षण है कि ये आयतें इन अभियानों के पश्चात् अवतरित हुईं हैं।
  • आयत 28 के आरंभ से आयत 35 तक का अभिभाषण दो विषयों पर आधारित है। पहले भाग में नबी (सल्ल.) की पत्नियों को जो उस तंगी और निर्धनता के समय में अधीर हो रही थीं, अल्लाह ने नोटिस दिया है कि संसार और उसकी सजावट और अल्लाह के रसूल और परलोक में से किसी को चुन लो। दूसरे भाग में सामाजिक सुधार [के पहले क़दम के रूप में] आपकी धर्म-पत्नियों को आदेश दिया गया है कि अज्ञानकाल की सज-धज से बचें, प्रतिष्ठापूर्वक अपने घरों में बैठें और अन्य पुरुषों के साथ बातचीत में बहुत सतर्कता से काम लें। ये परदे के आदेशों का आरंभ था।
  • आयत 36 से 48 तक का विषय हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के साथ नबी (सल्ल०) के विवाह से सम्बन्ध रखता है। इसमें उन सभी आक्षेपों का उत्तर दिया गया है, जो विधर्मियों की ओर से किए जा रहे थे।
  • आयत 49 में तलाक़ के क़ानून की एक धारा वर्णित हुई है। यह एक अकेली आयत है जो सम्भवतः इन्हीं घटनाओं के सिलसिले में किसी अवसर पर अवतरित हुई थी।
  • आयत 50 से 52 तक में नबी (सल्ल०) के लिए विवाह का विशिष्ट विधान प्रस्तुत किया गया है।
  • आयत 53 से 55 तक में सामाजिक सुधार का दूसरा क़दम उठाया गया है। यह निम्नलिखित आदेशों पर आधारित है : नबी (सल्ल०) के घरों में पराए पुरुषों के आने-जाने पर प्रतिबंध, मिलने-जुलने और भोज-निमंत्रण का नियम, नबी (सल्ल०) की पत्नियों के विषय में यह आदेश कि वे मुसलमानों के लिए माँ की तरह हराम (प्रतिष्ठित) हैं।
  • आयत 56 और 57 में उन निराधार कानाफूसियों पर सख़्त चेतावनी दी गई है जो नबी (सल्ल०) के विवाह और पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में की जा रही थीं।
  • आयत 59 में सामाजिक सुधार का तीसरा क़दम उठाया गया है। इसमें समस्त मुस्लिम स्त्रियों को यह आदेश दिया गया है कि जब घरों से बाहर निकलें तो चादरों से अपने आपको ढाँककर और घूँघट काढ़कर निकलें—इसके पश्चात् सूरा के अन्त तक अफ़वाह उड़ाने के उस अभियान (Whispering Campaign) पर बड़ी भर्त्सना की गई है, जो मुनाफ़िक़ों और मूर्खों और नीच प्रकृति के लोगों ने उस समय छेड़ रखा था।

 

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سُورَةُ الأَحۡزَابِ
33. अल-अहजाब
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ ٱتَّقِ ٱللَّهَ وَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا
(1) ऐ नबी!1 अल्लाह से डरो और कुफ़्फ़ार (इनकारियों) और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का कहना न मानो, वास्तव में सब कुछ जाननेवाला और तत्त्वदर्शी तो अल्लाह ही है।2
1. ये आयतें उस समय उतरी थीं, जब हज़रत जैद (रज़ि०) हज़रत जैनब (रजि०) को तलाक दे चुके थे। उस समय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ख़ुद भी यह महसूस फ़रमाते थे और अल्लाह का इशारा भी यही था कि मुँहबोले रिश्तों के मामले में अज्ञानकाल की रस्मों और अंधविश्वासों पर चोट करने का यह ठीक मौक़ा है। अब आपको खुद आगे बढ़कर अपने मुँहबोले बेटे जैद (रज़ि०) की तलाक़शुदा बीवी से निकाह कर लेना चाहिए, ताकि यह रस्म पूर्ण-रूपेण टूट जाए, लेकिन जिस कारण नबी (सल्ल०) इस मामले में क़दम उठाते हुए झिझक रहे थे, वह यह डर था कि इससे विधर्मियों और मुनाफ़िकों को आपके विरुद्ध प्रोपगंडा करने के लिए एक ज़बरदस्त हथियार मिल जाएगा, जिससे इस्लाम को क्षति पहुंचेगी।
2. कहने का उद्देश्य यह है कि हमारे दीन का हित किस चीज़ में है और किस में नहीं है, इसको हम ज़्यादा जानते हैं। हमको मालूम है कि किस वक्त क्या काम करना चाहिए और कौन-सा काम मस्लहत के ख़िलाफ़ है, इसलिए तुम वह कार्य-नीति न अपनाओ जो विधर्मियों और मुनाफ़िक़ों की मर्जी के मुताबिक़ हो, बल्कि वह काम करो जो हमारी मर्जी के मुताबिक़ हो। जिस हस्ती से डरना चाहिए वह हमारी हस्ती है, न कि विधर्मियों और मुनाफ़िक़ों को।
وَٱتَّبِعۡ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 1
(2) पैरवी करो उस बात की जिसका इशारा तुम्हारे रब की ओर से तुम्हें किया जा रहा है। अल्लाह हर उस बात की ख़बर रखता है जो तुम लोग करते हो।3
3. इस वाक्य में संबोधन नबी (सल्ल०) से भी है, और मुसलमानों से भी और इस्लाम-विरोधियों से भी। अर्थ यह है कि [अल्लाह के इस आदेश के सिलसिले में जिसका भी जो तरीक़ा रहेगा] उससे अल्लाह बे-ख़बर न रहेगा, इसलिए घबराने की कोई बात नहीं है। हर एक अपने कर्मों की दृष्टि से जिस इनाम या सजा का हक़दार होगा वह उसे मिलकर रहेगी।
وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا ۝ 2
(3) अल्लाह पर भरोसा करो, अल्लाह ही वकील होने के लिए काफ़ी है।4
4. इस वाक्य में नबी (सल्ल०) को निर्देश दिया जा रहा है कि जिस फ़र्ज़ को अदा करना तुम्हारे जिम्मे किया गया है, उसे अल्लाह के भरोसे पर पूरा करो और पूरी दुनिया भी अगर विरोधी हो, तो उसकी परवाह न करो। अल्लाह इसके लिए बिल्कुल काफ़ी है कि बन्दा अपने मामले उसके सुपुर्द कर दे, वह मार्गदर्शन के लिए भी काफ़ी है और सहायता के लिए भी और वही इस बात की जमानत (गारंटी) ले रहा है कि उसके मार्गदर्शन में काम करनेवाला व्यक्ति कभी बुरे नतीजों का शिकार न हो।
مَّا جَعَلَ ٱللَّهُ لِرَجُلٖ مِّن قَلۡبَيۡنِ فِي جَوۡفِهِۦۚ وَمَا جَعَلَ أَزۡوَٰجَكُمُ ٱلَّٰٓـِٔي تُظَٰهِرُونَ مِنۡهُنَّ أُمَّهَٰتِكُمۡۚ وَمَا جَعَلَ أَدۡعِيَآءَكُمۡ أَبۡنَآءَكُمۡۚ ذَٰلِكُمۡ قَوۡلُكُم بِأَفۡوَٰهِكُمۡۖ وَٱللَّهُ يَقُولُ ٱلۡحَقَّ وَهُوَ يَهۡدِي ٱلسَّبِيلَ ۝ 3
(4) अल्लाह ने किसी व्यक्ति के धड़ में दो दिल नहीं रखे,5 न उसने तुम लोगों की उन पत्नियों को, जिनसे तुम ज़िहार करते हो, तुम्हारी माँ बना दिया है,6 और न उसने तुम्हारे मुँह बोले बेटों को तुम्हारा सगा बेटा बनाया है।7 ये तो वे बातें है जो तुम लोग अपने मुँह से निकाल देते हो, मगर अल्लाह वह बात कहता है जो सत्य पर आधारित है और वही सही तरीक़े की ओर मार्गदर्शन करता है।
5. अर्थात् एक आदमी एक ही समय में मोमिन (ईमानवाला) और मुनाफ़िक़, सच्चा और झूठा नहीं हो सकता। उसके सीने में दो दिल नहीं हैं कि एक दिल में सच्चाई और निष्ठा हो और दूसरे में अल्लाह से निडरता। इसलिए एक समय में आदमी की एक ही हैसियत हो सकती है, या तो वह मोमिन होगा, या मुनाफ़िक़ या तो वह काफिर होगा या मुस्लिम।
6. 'ज़िहार' अरब का एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है। प्राचीनकाल में अरब के लोग पत्नी से लड़ते हुए कभी यह कह बैठते थे कि "तेरी पीठ मेरे लिए मेरी माँ की पीठ जैसी है" और यह बात जिस किसी के मुँह से निकल जाती थी, तो यह समझा जाता था कि अब यह औरत उसपर हराम हो गई है। इसके बारे में अल्लाह फ़रमाता है कि पत्नी को माँ कहने या माँ की उपमा दे देने से वह माँ नहीं बन जाती।
ٱدۡعُوهُمۡ لِأٓبَآئِهِمۡ هُوَ أَقۡسَطُ عِندَ ٱللَّهِۚ فَإِن لَّمۡ تَعۡلَمُوٓاْ ءَابَآءَهُمۡ فَإِخۡوَٰنُكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَمَوَٰلِيكُمۡۚ وَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٞ فِيمَآ أَخۡطَأۡتُم بِهِۦ وَلَٰكِن مَّا تَعَمَّدَتۡ قُلُوبُكُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمًا ۝ 4
(5) मुँह बोले बेटों को उनके बापों के ताल्लुक से पुकारो, यह अल्लाह के नज़दीक अधिक न्याय-संगत बात है।8 और अगर तुम्हें मालूम न हो कि उनके बाप कौन हैं तो वे तुम्हारे दीनी भाई और साथी हैं।9 अनजाने में जो बात तुम कहो, उसके लिए तुम्हारी कोई पकड़ नहीं है, लेकिन उस बात पर अवश्य ही पकड़ है जिसका तुम दिल से इरादा करो।10 अल्लाह क्षमा करनेवाला और दयावान है।11
8. इस आदेश के पालन में सबसे पहले जो सुधार किया गया था, वह यह था कि नबी (सल्ल०) के मुंह बोले बेटे हज़रत जैद (रजि०) को जैद बिन मुहम्मद कहने के बजाय उनके सगे बाप के ताल्लुक से जैद बिन हारिसा कहना शुरू कर दिया गया। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, तिर्मिज़ी) 8. इस आदेश के पालन में सबसे पहले जो सुधार किया गया था, वह यह था कि नबी (सल्ल०) के मुंह बोले बेटे हज़रत जैद (रजि०) को जैद बिन मुहम्मद कहने के बजाय उनके सगे बाप के ताल्लुक से जैद बिन हारिसा कहना शुरू कर दिया गया। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, तिर्मिज़ी) साथ ही इस आयत के उतरने के बाद यह बात हराम करार दे दी गई कि कोई व्यक्ति अपने सगे बाप के सिवा किसी और से अपना वंश जोड़े। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अबू दाऊद)
9. अर्थात् इस शक्ल में भी यह सही न होगा कि किसी व्यक्ति से खामखाह उसका वंश मिलाया जाए।
ٱلنَّبِيُّ أَوۡلَىٰ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَأَزۡوَٰجُهُۥٓ أُمَّهَٰتُهُمۡۗ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ إِلَّآ أَن تَفۡعَلُوٓاْ إِلَىٰٓ أَوۡلِيَآئِكُم مَّعۡرُوفٗاۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَسۡطُورٗا ۝ 5
(6) निस्संदेह नबी को तो ईमानवालों के लिए उनके अपने खुद की अपेक्षा प्राथमिकता प्राप्त है।12 और नबी की बीवियाँ उनकी माएँ हैं।13 मगर अल्लाह की किताब के अनुसार आम मोमिन और मुहाजिर की अपेक्षा रिश्तेदार एक-दूसरे के ज्यादा हकदार हैं । अलबत्ता अपने साथियों के साथ तुम कोई भलाई (करना चाहो तो) कर सकते हो।14 यह आदेश अल्लाह की किताब में लिखा है।
12. अर्थात् नबी (सल्ल०) का मुसलमानों से और मुसलमानों का नबी (सल्ल०) से जो ताल्लुक़ है, वह तो तमाम दूसरे इंसानी सम्बन्धों से उच्च प्रकार का है। नबी (सल्ल०) मुसलमानों के लिए उनके माँ-बाप से भी बढ़कर कृपालु व दयालु और उनके अपने आप से भी बढ़कर हितैषी हैं। और जब मामला यह है तो नबी (सल्ल) का भी मुसलमानों पर यह अधिकार है कि वे आपको अपने माँ-बाप और औलाद और अपनी जान से बढ़कर प्रिय रखें। इसी विषय को नबी (सल्ल०) ने इस तरह बयान फ़रमाया है कि "तुममें से कोई व्यक्ति ईमानवाला नहीं हो सकता, जब तक मैं उसको उसके माँ-बाप और औलाद से और तमाम इंसानों से बढ़कर प्रिय न हूँ।" (हदीस : बुखारी-मुस्लिम)
13. उसी विशेषता के आधार पर जिसका उल्लेख ऊपर हुआ, नबी (सल्ल०) की एक विशेषता यह भी है कि आप की बीवियाँ उसी तरह उनके लिए हराम हैं जिस तरह उनकी सगी माएँ हराम है। इस सिलसिले में यह भी जान लेना चाहिए कि नबी (सल्ल०) की बीवियाँ केवल इस अर्थ में गोगिनों की माएँ हैं कि उनका मान सम्मान मुसलमानों पर अनिवार्य है और उनके साथ किसी मुसलमान का निकाह नहीं हो सकता था, शेष दूसरे मामलों में वे माँ की तरह नहीं हैं।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مِيثَٰقَهُمۡ وَمِنكَ وَمِن نُّوحٖ وَإِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَۖ وَأَخَذۡنَا مِنۡهُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا ۝ 6
(7) और (ऐ नबी!) याद रखो उस वचन और प्रतिज्ञा को जो हमने सब पैगम्बरों से ली है, तुमसे भी और नूह और इबराहीम और मूसा और मरयम के बेटे ईसा से भी, सबसे हम पक्का वचन ले चुके हैं,15
15. इस आयत में अल्लाह नबी (सल्ल०) को यह बात याद दिलाता है कि तमाम नबियों की तरह आपसे भी अल्लाह एक पक्का वचन ले चुका है, जिसकी आपको सख्ती के साथ पाबन्दी करनी चाहिए। इस वचन से कौन-सा वचन मुराद है? ऊपर से जो वार्ता-क्रम चला आ रहा है, उसपर विचार करने से साफ़ मालूम हो जाता है कि इससे तात्पर्य यह वचन है कि पैगम्बर अल्लाह के हर आदेश का स्वयं पालन करेगा और दूसरों से कराएगा। अल्लाह की बातों को बिना कमी-बेशी के पहुँचाएगा और उन्हें अमली तौर पर लागू करने की कोशिशों में कोई कमी न करेगा। कुरआन मजीद में इस वचन का उल्लेख अनेक स्थानों पर किया गया है, जैसे सूरा-2 बक़रा, आयत 83, सूरा-3 आले इमरान, आयत 187, सूरा-5 अल-माइदा, आयत 7, पूरा । अल-आराफ़, आयत 169-171, सूरा-42 अश-शूरा, आयत 13। इस वचन को इस संदर्भ में अल्लाह जिस कारण से याद दिला रहा है, वह यह है कि नबी (सल्ल०) दुश्मनों के द्वारा मजाक उड़ाए जाने के अंदश से मुँह बोले रिश्तों के मामले में अज्ञानता की रस्म को तोड़ते हुए निझक रहे थे। इसी कारण अल्‍लाह नबी (सल्ल०) से फ़रमा रहा है कि तुम हमारे नियुक्त किए हुए पैगम्बर हो, तमाम पैगम्बरी की तरह तुमसे भी हमने यह पक्का वचन लिया है कि जो कुछ भी हुक्म हम देंगे, उसकी बुद पूरा करोगे और दूसरों की उसकी पैरवी का हुक्म दोगे। इसलिए तुम किसी की लानत और मलामत की परवाह न करो और जी सेवा हम तुमसे लेना चाहते हैं, उसे बेझिझक अंजाम दो।
لِّيَسۡـَٔلَ ٱلصَّٰدِقِينَ عَن صِدۡقِهِمۡۚ وَأَعَدَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 7
(8) ताकि सच्चे लोगों से (उनका रब) उनकी सच्चाई के बारे में सवाल करे16 और काफ़िरों के लिए तो उसने दर्दनाक आजाब जुटा ही रखा है।17
16. अर्थात् अल्लाह सिर्फ वचन लेकर ही नहीं रह गया है, बल्कि इस वचन के बारे में वह सवाल करनेवाला है कि इसकी कहाँ तक पाबन्दी की गई, फिर जिन लोगों ने सच्चाई के साथ अल्लाह को दिए वचन को पूरा किया होगा, वही वचन के सच्चे क़रार पाएँगे।
17. यहाँ तक की आयतों के विषय को पूरी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि उसकी इसी सूरा की आयतें 36-41 के साथ मिलाकर पढ़ा जाए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ جَآءَتۡكُمۡ جُنُودٞ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِيحٗا وَجُنُودٗا لَّمۡ تَرَوۡهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرًا ۝ 8
(9) ऐ लोगो18 जो ईमान लाए हो| याद करी अल्लाह के उपकार को जी (अभी-अभी) उसने तुमपर किया है,
18. यहाँ से आयत 27 तक में अहजाब की लड़ाई और बनू क़ुरैज़ा की लड़ाई का उल्लेख किया गया है। इनको पढ़ते समय इन दोनों लड़ाइयों का विवरण निगाह में रहना चाहिए।
إِذۡ جَآءُوكُم مِّن فَوۡقِكُمۡ وَمِنۡ أَسۡفَلَ مِنكُمۡ وَإِذۡ زَاغَتِ ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَبَلَغَتِ ٱلۡقُلُوبُ ٱلۡحَنَاجِرَ وَتَظُنُّونَ بِٱللَّهِ ٱلظُّنُونَا۠ ۝ 9
(10-11) जब फौज तुमपर चढ़ आई तो हमने उनपर एक साल आँधी भेज दी और ऐसी फ़ौजें भेजी जो तुमको नज़र न आती थीं।19 अल्लाह वह सब कुछ देख रहा था जो तुम लोग उस बात कर रहे थे। जब दुश्मन कार को और वीचे से तुमपर चढ़ आए,20 जब भय के मारे आँखें पथरा गई, कलेजे मुंह को आ गए और तुम लोग अल्लाह के बारे में तरह-तरह के गुमार करने लगे, उस समय इंधान लानेवाले खूब आजमाए गए और बुरी तरह हिला मारे गए।21
19. यह आँधी उसी वक़्त नहीं आ गई थी जब कि दुश्मनों की सेना मदीना पर चढ़कर आई थी, बल्कि उस वक़्त आई थी जब कि घेराव को लगभग एक माह बीत चुका था। दिखाई न पड़नेवाली फौजों से तात्पर्य वे छिपी ताकतें हैं जो ईसानी मामलों में अल्लाह के इशारों पर काम करती रहती है और ईसानों को उनकी ख़बर तक नहीं होती। ये ताकते चौक अल्लाह के परिश्तों की माताती गं काम करती है, इसलिए फ़ौजों से तात्पर्य फरिश्ते भी लिए जा सकते है, पापि यहाँ फरिश्तों की फौज भेजने की बात नहीं कही गई।
20. इसका एक अर्थ तो यह हो सकता है कि हर ओर से चर आए और दूसरा अर्थ का भी हो सकता है कि नन्द और बर से घड़कर आनेवाले ऊपर से आए और पक्का जमा की और से आनेवाले नीचे से आए।
هُنَالِكَ ٱبۡتُلِيَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَزُلۡزِلُواْ زِلۡزَالٗا شَدِيدٗا ۝ 10
0
وَإِذۡ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ مَّا وَعَدَنَا ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥٓ إِلَّا غُرُورٗا ۝ 11
(12) याद करो वह समय जब मुनाफ़िक़ और वे सब लोग जिनके दिलों में रोग था, साफ़-साफ़ कह रहे थे कि अल्लाह और उसके रसूल ने जो वादे हमसे किए थे,22 वे फ़रेब के सिवा कुछ नहीं थे।
22. अर्थात् इस मामले के वादे कि ईमानबालों को अल्लाह का समर्थन व सहायता प्राप्त होगी और अन्‍तत: ग़लबा (प्रभुत्व) इन्हीं को दिया जाएगा।
وَإِذۡ قَالَت طَّآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ يَٰٓأَهۡلَ يَثۡرِبَ لَا مُقَامَ لَكُمۡ فَٱرۡجِعُواْۚ وَيَسۡتَـٔۡذِنُ فَرِيقٞ مِّنۡهُمُ ٱلنَّبِيَّ يَقُولُونَ إِنَّ بُيُوتَنَا عَوۡرَةٞ وَمَا هِيَ بِعَوۡرَةٍۖ إِن يُرِيدُونَ إِلَّا فِرَارٗا ۝ 12
(13) जब उनमें से एक गिरोह ने कहा कि "ऐ यसरिब के लोगो। तुम्हारे लिए अब ठहरने का कोई मौक़ा नहीं है, पलट चलो।’’23 जब उनका एक फ़रीक़ यह कहकर नबी (सल्‍ल०) से रूख्‍़सत तलब कर रहा था कि ‘हमारे घर ख़तरे में हैं’,24 "हालांकि वे ख़तरे में न थे,25 वास्तव में वे (युद्ध के मोर्चे से) भागना चाहते थे।
23. इस वाक्य के दो अर्थ हैं। प्रत्यक्ष अर्थ यह है कि दाल के सामने दुश्मनों के मुकाबले पर हमले का कोई मौक़ा नहीं है, शहर की ओर पलट चलो। और अंतरनिहित अर्थ यह है कि इस्लाम पर ठहरने का कोई मौक़ा नहीं है, अब अपने पैतृक धर्म की और पलट जाना चाहिए, ताकि सारे अरब की दुश्मनी मोल लेकर हमने जिस ख़तरे में अपने आपको डाल दिया है उससे बच जाएं।
24. अर्थात् जब वम् क़ुरैज़ा भी आक्रमणकारियों के साथ मिल गए तो उन मुनाफ़िक़ों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की फ़ौज से निकल भागने के लिए एक अच्छा बहाना हाथ आ गया और उन्होंने यह कहकर छुट्टी मांगनी शुरू की कि अब तो हमारे घर हो ख़तरे में पड़ गए हैं, इसलिए हमें जाकर अपने बाल-बच्चों की सुरक्षा का अवसर दिया जाए।
وَلَوۡ دُخِلَتۡ عَلَيۡهِم مِّنۡ أَقۡطَارِهَا ثُمَّ سُئِلُواْ ٱلۡفِتۡنَةَ لَأٓتَوۡهَا وَمَا تَلَبَّثُواْ بِهَآ إِلَّا يَسِيرٗا ۝ 13
(14) अगर शहर के चारों ओर से दुश्मन घुस आए होते और उस वक़्त उन्हें फ़िल्ले की ओर बुलाया जाता,26 तो ये उसमें जा पड़ते और मुश्किल ही से उन्हें फ़िल्ले में शरीक होने में कोई संकोच होता।
26. अर्थात् अगर शहर में दाख़िल होकर विजयी इस्लाम-विरोधी इन मुनाफ़िकों को बुलाते कि आओ हमारे साथ मिलकर मुसलमानों को खत्म कर दो।
وَلَقَدۡ كَانُواْ عَٰهَدُواْ ٱللَّهَ مِن قَبۡلُ لَا يُوَلُّونَ ٱلۡأَدۡبَٰرَۚ وَكَانَ عَهۡدُ ٱللَّهِ مَسۡـُٔولٗا ۝ 14
(15) इन लोगों ने इससे पहले अल्लाह को वचन दिया था कि ये पीठ न फेरेंगे, और अल्लाह को दिए हुए वचन की पूछ-ताछ तो होनी ही थी।27
27. अर्थात् उहुद की लड़ाई के मौक़े पर जो कमज़ोरी उन्होंने दिखाई थी, उसके बाद शर्मिन्दगी और पश्चाताप प्रकट करके उन लोगों ने अल्लाह से प्रण किया था कि अब अगर आज़माइश का कोई मौक़ा पेश आया, तो हम अपनी इस ग़लती को क्षतिपूर्ति कर देंगे, लेकिन अल्लाह को केवल बातों से धोखा नहीं दिया जा सकता। जो कोई व्यक्ति भी उससे कोई प्रण करता है, उसके सामने कोई न कोई आजमाइश का मौक़ा वह ज़रूर ले आता है, ताकि उसका झूठ-सच खुल जाए। इसलिए वह उहुद की लड़ाई के दो ही साल बाद इससे भी बड़ा ख़तरा सामने ले आया और उसने जाँच कर देख लिया कि लोगों ने कैसा कुछ सच्चा प्रण उससे किया था।
قُل لَّن يَنفَعَكُمُ ٱلۡفِرَارُ إِن فَرَرۡتُم مِّنَ ٱلۡمَوۡتِ أَوِ ٱلۡقَتۡلِ وَإِذٗا لَّا تُمَتَّعُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 15
(16) ऐ नबी! उनसे कहो, अगर तुम मौत या क़त्ल से भागो तो यह भागना तुम्हारे लिए कुछ भी लाभदायक न होगा। इसके बाद जिंदगी के मज़े लूटने का थोड़ा ही मौक़ा तुम्हें मिल सकेगा।28
28. अर्थात् इस भागने से कुछ तुम्हारी उम्र बढ़ नहीं जाएगी। इसका फल बहरहाल यह नहीं निकलेगा कि तुम क़ियामत तक जियो और धरती की दौलत हासिल कर लो। भाग कर जियोगे भी तो अधिक से अधिक कुछ साल ही जियोगे और उतना ही कुछ दुनिया की जिंदगी का मज़ा उठा सकोगे जितना तुम्हारे भाग्य में है।
قُلۡ مَن ذَا ٱلَّذِي يَعۡصِمُكُم مِّنَ ٱللَّهِ إِنۡ أَرَادَ بِكُمۡ سُوٓءًا أَوۡ أَرَادَ بِكُمۡ رَحۡمَةٗۚ وَلَا يَجِدُونَ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 16
(17) इनसे कहो, कौन है जो तुम्हें अल्लाह से बचा सकता हो अगर वह तुम्हें तुमसान पहुँचाना चाहे? और कौन उसकी रहमत (दयालुता) को रोक सकता है, अगर वह तुम पर कृपा करना चाहे। अल्लाह के मुकाबले में तो ये लोग कोई सार्थक व सहायक नहीं पा सकते हैं।
۞قَدۡ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ ٱلۡمُعَوِّقِينَ مِنكُمۡ وَٱلۡقَآئِلِينَ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ هَلُمَّ إِلَيۡنَاۖ وَلَا يَأۡتُونَ ٱلۡبَأۡسَ إِلَّا قَلِيلًا ۝ 17
(18) अल्लाह तुममें से उन लोगों को वर जानता है जो (लड़ाई के काम में रुकावरे डालनेवाले हैं, जो अपने भाइयों से कहते हैं कि आओ हमारी ओर,29 जो युद्ध में हिस्सा लेते भी हैं तो बस नाम गिनाने को,
29. अर्थात् छोड़ो इस पैगम्बर का साथ। कहाँ दीन व ईमान और हम सच्चाई के चक्कर में पड़े हो? अपने आपको खतरों और मुसीबतों में डालने के बजाय, वही आराम और चैन से रहने की नीति अपनाओ जो हमने अपना रखी है।
أَشِحَّةً عَلَيۡكُمۡۖ فَإِذَا جَآءَ ٱلۡخَوۡفُ رَأَيۡتَهُمۡ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ تَدُورُ أَعۡيُنُهُمۡ كَٱلَّذِي يُغۡشَىٰ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡمَوۡتِۖ فَإِذَا ذَهَبَ ٱلۡخَوۡفُ سَلَقُوكُم بِأَلۡسِنَةٍ حِدَادٍ أَشِحَّةً عَلَى ٱلۡخَيۡرِۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَمۡ يُؤۡمِنُواْ فَأَحۡبَطَ ٱللَّهُ أَعۡمَٰلَهُمۡۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا ۝ 18
(19) जो तुम्हारा साथ देने में बड़े कंजूस हैं।30 खतरे का वक्त आ जाए तो इस तरह दीदे फिरा-फिराकर तुम्हारी और देखते हैं जैसे किसी मरनेवाले पर बेहोशी छा रही हो, मगर जब ख़तरा गुजर जाता है तो यही लोग फ़ायदों के लोभी बनकर कैची की तरह बलती हुई ज़बान लिए तुम्हारे स्वागत को आ जाते हैं।31 ये लोग हरगिज ईमान नहीं लाए, इसी लिए अल्लाह ने इनके सारे कर्म नष्ट कर दिए।32 और ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान है।33
30. अर्थात् अपने परिश्रम, अपने समय, अपने चिन्तन, अपने माल, तात्पर्य यह है कि कोई चीज भी वे इस राह में लगाने के लिए सहर्ष तैयार नहीं है, जिसमें सच्चे इमानवाले अपना सब कुछ झकि दे रहे हैं। जान खपाना और तो बर्दाश्त करना तो बड़ी बात है, वे किसी काम में भी खुले दिल से ईमानवालों का साथ नहीं देना चाहते।
31. शब्दकोष की दृष्टि से इस आयत के दो अर्थ है। एक यह कि लड़ाई से जब तुम सफल होकर पलटते हो तो ये बड़ी गर्मजोशी से तुम्हारा स्वागत करते हैं और बातें बना-बनाकर यह धौस जमाने की कोशिश करते है कि हम भी बड़े ईमानवाले है और हमने भी इस काम को आगे बढ़ाने में हिस्सा लिया, इसलिए हम भी गनीमत के माल के हकदार है। दूसरा अर्थ यह है कि अगर विजय मिलती है तो गनीमत के माल के बँटवारे के मौक़े पर ये लोग ज़बान की बड़ी तेज़ी दिखाते हैं और बढ़-बढ़कर माँगे करते हैं कि लाओ हमारा हिस्सा, हमने भी सेवाकार्य किया है, सब कुछ तुम्हीं लोग न लूट ले जाओगे।
يَحۡسَبُونَ ٱلۡأَحۡزَابَ لَمۡ يَذۡهَبُواْۖ وَإِن يَأۡتِ ٱلۡأَحۡزَابُ يَوَدُّواْ لَوۡ أَنَّهُم بَادُونَ فِي ٱلۡأَعۡرَابِ يَسۡـَٔلُونَ عَنۡ أَنۢبَآئِكُمۡۖ وَلَوۡ كَانُواْ فِيكُم مَّا قَٰتَلُوٓاْ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 19
(20) ये समझ रहे हैं कि हमलावर गिरोह अभी गए नहीं है, और अगर वे फिर हमलावर हो जाएँ तो उनका जी चाहता है कि उस अवसर पर ये कहाँ रेगिस्तान में बहुओं के बीच जा बैठे और वहीं से तुम्हारे हालात पूछते रहें। फिर भी अगर ये तुम्हारे बीच रहे भी तो लड़ाई में कम ही हिस्सा लेंगे।
لَّقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِي رَسُولِ ٱللَّهِ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَ وَذَكَرَ ٱللَّهَ كَثِيرٗا ۝ 20
(21) वास्तव में तुम लोगों के लिए अल्लाह के रसूल में एक सर्वश्रेष्ठ नमूना34 था, हर उस व्यक्ति के लिए जो अल्लाह और आख़िरत के दिन का उम्मीदवार हो और अल्लाह को ज़्यादा याद करे।35
34. दुसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि 'बेहतरीन नमूना' है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आचरण को इस जगह नमूने के रूप में पेश करने का उद्देश्य उन लोगों को सबक़ देना था जिन्होंने अहजाब की लड़ाई के मौक़े पर अपने हितों और अपने आराम और चैन को प्राथमिकता दी थी। उनसे कहा जा रहा है कि तुम ईमान व इस्लाम और रसूल के आज्ञापालन के दावेदार थे, तुमको देखना चाहिए था कि जिस रसूल के अनुयायियों में तुम शामिल हुए हो, उसका इस मौके पर क्या आचरण था। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का हाल तो यह था कि हर मशक्कत, जिसकी आपने दूसरों से मांग की, उसे सहन करने में आप ख़ुद सबके साथ शरीक थे, बल्कि दूसरों से बढ़कर ही आपने हिस्सा लिया। यह तो प्रसंग की दृष्टि से इस आयत का अर्थ है, मगर इसके शब्द सामान्य हैं और इसके मकसद को सिर्फ इस अर्थ तक सीमित रखने का कोई कारण नहीं है। अल्लाह ने यह नहीं फ़रमाया है कि सिर्फ इसी दृष्टि से उसके रसूल की जिंदगी मुसलमानों के लिए नमूना है, बल्कि उसे पूर्ण रूप से नमूना क़रार दिया गया है। इसलिए इस आयत का तकाज़ा यह है कि मुसलमान हर मामले में नबी (सल्ल०) की जिंदगी को अपने लिए नमूने की जिंदगी समझें और उसके अनुसार अपने चरित्र और आचरण को ढालें।
35. अर्थात् अल्लाह से ग़ाफ़िल आदमी के लिए तो यह ज़िंदगी नमूना नहीं है, मगर उस व्यक्ति के लिए अवश्य ही नमूना है जो अल्लाह को ज़्यादा से ज्यादा याद करने और याद रखनेवाला हो। इसी तरह यह जिंदगी उस व्यक्ति के लिए तो नमूना नहीं है जो अल्लाह से कोई आशा और आखिरत के आने की कोई उम्मीद न रखता हो, मगर उस व्यक्ति के लिए अवश्य ही नमूना है जो अल्लाह की कृपा और उसकी मेहरबानियों का उम्मीदवार हो और जिसे यह भी ख्याल हो कि कोई आख़िरत आनेवाली है।
وَلَمَّا رَءَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلۡأَحۡزَابَ قَالُواْ هَٰذَا مَا وَعَدَنَا ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَصَدَقَ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥۚ وَمَا زَادَهُمۡ إِلَّآ إِيمَٰنٗا وَتَسۡلِيمٗا ۝ 21
(22) और सच्चे ईमानवालों (का हाल उस वक़्त यह था कि)36 जब उन्होंने हमलावर फ़ौजों को देखा तो पुकार उठे कि “यह वही चीज़ है जिसका अल्लाह और उसके रसूल ने हमसे वादा किया था, अल्लाह और उसके रसूल की बात बिल्कुल सच्ची थी।’’37 इस घटना ने उनके ईमान और उनके समर्पण को और अधिक बढ़ा दिया।38
36. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नमूने की ओर तवज्जोह दिलाने के बाद अब अल्लाह सहाबा किराम के आचरण को नमूने के तौर पर पेश फ़रमाता है ताकि ईमान के झूठे दावेदारों और सच्चे दिल से रसूल की पैरवी करनेवालों का आचरण एक-दूसरे के मुकाबले में पूरी तरह स्पष्ट कर दिया जाए।
37. 'आयत 12 में बताया गया था कि जो लोग मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और दिल के रोगी थे, उन्होंने दस-बारह हज़ार की फ़ौज को सामने से और बनी कुरैज़ा को पीछे से हमलावर होते देखा तो पुकार-पुकार कर कहने लगे कि "सारे वादे जो अल्लाह और उसके रसूल ने हमसे किए थे मात्र झूठ और धोखा निकले।" अब बताया जा रहा है कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) के वादों का एक अर्थ तो वह था जो उन झूठे ईमान के दावेदारों ने समझा था। दूसरा अर्थ वह है जो इन सच्चे ईमानवाले मुसलमानों ने समझा। ख़तरों को आते देखकर, अल्लाह के वादे तो उनको भी याद आए, मगर ये वादे नहीं कि ईमान लाते ही उँगली हिलाए बग़ैर तुम दुनिया के शासक हो जाओगे और फ़रिश्ते आकर तुम्हारी ताजपोशी की रस्म अदा करेंगे, बल्कि ये बादे की कड़ी परीक्षाओं से तुमको गुज़रना होगा, मुसीबतों के पहाड़ तुमपर टूट पड़ेंगे, भारी से भारी कुरबानियाँ तुम्हें देनी होंगी, तब कहीं जाकर अल्लाह की कृपाएँ तुमपर होंगी और तुम्हें लोक-परलोक की सफलताएँ प्रदान की जाएँगी, जिनका वादा अल्लाह ने अपने ईमानवाले बन्दों से किया है। (देखिए सूरा-2 बक़रा, आयत 214; सूरा-29 अनकबूत, आयत 2-3)
مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ رِجَالٞ صَدَقُواْ مَا عَٰهَدُواْ ٱللَّهَ عَلَيۡهِۖ فَمِنۡهُم مَّن قَضَىٰ نَحۡبَهُۥ وَمِنۡهُم مَّن يَنتَظِرُۖ وَمَا بَدَّلُواْ تَبۡدِيلٗا ۝ 22
(23) ईमान लानेवालों में ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्होंने अल्लाह से किए हुए वचन को पूरा कर दिखाया। उनमें से कोई अपनी नज़्र (मन्नत) पूरी कर चुका और कोई वक़्त आने का इन्तिज़ार कर रहा है।39 उन्होंने अपने रवैये में कोई तब्दीली नहीं की।
39. अर्थात् कोई अल्लाह की राह में जान दे चुका है और कोई इसके लिए तैयार है कि वक्त आए तो उसके दीन की ख़ातिर अपने खून का नज़राना पेश कर दे।
لِّيَجۡزِيَ ٱللَّهُ ٱلصَّٰدِقِينَ بِصِدۡقِهِمۡ وَيُعَذِّبَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ إِن شَآءَ أَوۡ يَتُوبَ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 23
(24) (यह सब कुछ इसलिए हुआ) ताकि अल्लाह सच्चों को उनकी सच्चाई का इनाम है और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) को चाहे तो सजा दे और चाहे तो उनकी तौबा कबूल कर ले। बेशक अल्लाह क्षमा करनेवाला और दयावान है।
وَرَدَّ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِغَيۡظِهِمۡ لَمۡ يَنَالُواْ خَيۡرٗاۚ وَكَفَى ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلۡقِتَالَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ قَوِيًّا عَزِيزٗا ۝ 24
(25) अल्लाह ने विरोधियों का मुँह फेर दिया, वे कोई लाभ प्राप्त किए बिना अपने दिल की जलन लिए यूँ ही पलट गए, और ईमानवालों की ओर से अल्लाह ही लड़ने के लिए काफी हो गया। अल्लाह बड़ी शक्तिवाला और जबरदस्त है।
وَأَنزَلَ ٱلَّذِينَ ظَٰهَرُوهُم مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن صَيَاصِيهِمۡ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَ فَرِيقٗا تَقۡتُلُونَ وَتَأۡسِرُونَ فَرِيقٗا ۝ 25
(26) फिर अहले किताब में से जिन लोगों ने इन हमलावरों का साथ दिया था,40 अल्लाह उनकी गदियों से उन्हें उतार लाया और उनके दिली व उसने ऐसा रोब डाल दिया कि आज उनमें से एक गिरोह को तुम कल कर रहे हो और दूसरे गिरोह की क़ैद कर रहे हो।
40. अर्थात् बनू क़ुरैज़ा के यहूदी।
وَأَوۡرَثَكُمۡ أَرۡضَهُمۡ وَدِيَٰرَهُمۡ وَأَمۡوَٰلَهُمۡ وَأَرۡضٗا لَّمۡ تَطَـُٔوهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٗا ۝ 26
(27) उसने तुमको उनकी ज़मीन और उनके घरों और उनके मालों का वारिस बना दिया और वह इलाका तुम्हें दिया जिसे तुमने कभी पामाल (पद दलित) न किया था। अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّأَزۡوَٰجِكَ إِن كُنتُنَّ تُرِدۡنَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتَهَا فَتَعَالَيۡنَ أُمَتِّعۡكُنَّ وَأُسَرِّحۡكُنَّ سَرَاحٗا جَمِيلٗا ۝ 27
(28) ऐ नबी!41 अपनी बीवियों से कहो, अगर तुम दुनिया और उसकी जीनत चाहती हो तो आओ, मैं तुम्हें कुछ दे दिलाकर भले तरीके से विदा कर दूँ
41. यहाँ से 35 नं० तक की आयतें अहजाब की लड़ाई और बनू क़ुरैज़ा के समीप समय में उतरी थीं। सहीह मुस्लिम में हजरत जाबिर बिन अब्दुल्लाह उस समय की इस घटना का उल्लेख करते है कि एक दिन हज़रत अबू बक्र (रजि०) और हजरत उमर (रजि०) हुजूर (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित हुए और देखा कि आपकी बीवियाँ आपके आस पास बैठी हैं और आप चुप हैं। आपने हजरत उमर (रज़ि०) को सम्बोधित करके फ़रमाया, "ये मेरे आस-पास बैठी हैं, जैसा कि तुम देख रहे हो। ये मुझसे ख़र्च के लिए रुपए मांग रही है।" इस पर दोनों ने अपनी अपनी बेटियों को डॉटा और उनसे कहा कि तुम अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को तंग करती हो और वह चीज मांगती हो, जो आपके पास नहीं है। इस घटना से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) उस समय कैसी आर्थिक कठिनाइयों के शिकार थे और कुफ़्र और इस्लाम के घोर संघर्ष के समय में खर्च के लिए परेशान आप (सल्ल०) की बीवियों के तक़ाजे आप पर क्या प्रभाव डाल रहे थे।
وَإِن كُنتُنَّ تُرِدۡنَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَٱلدَّارَ ٱلۡأٓخِرَةَ فَإِنَّ ٱللَّهَ أَعَدَّ لِلۡمُحۡسِنَٰتِ مِنكُنَّ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 28
(29) और अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल और आखिरत के घर की तलब रखती हो तो जान लो कि तुममें से जो उत्तम कर्म करनेवाले हैं, अल्लाह ने उनके लिए बड़ा बदला जुटा रखा है।42
42. इस आयत के उतरने के समय नबी (सल्ल०) के निकाह में चार बीवियाँ थीं, हज़रत सौदा (रजि०), हजरत आइशा (रजि०), हजरत हफसा (रजि०) और हज़रत उम्मे-सलमा (रजि०) । जब यह आयत उत्तरी तो आपने सबसे पहले हजरत आइशा (रजि०) से बात की और कहा, "मैं तुमसे एक बात कहता हूँ, जवाब देने में जल्दी न करना, अपने माँ-बाप की राय ले लो, फिर फैसला करो।" फिर नबी (सल्ल०) ने उनको बताया कि अल्लाह की ओर से यह आदेश आया है, और यह आयत उनको सुना दी। उन्होंने कहा, "क्या इस मामले को अपने माँ-बाप से पूछूँ? मैं तो अल्लाह और उसके रसूल और आख़िरत के घर को चाहती हूँ।" इसके बाद नबी (सल्ल०) बाकी बीवियों में से एक-एक के यहाँ गए और हर एक से यही बात फ़रमाई और हर एक ने वही उत्तर दिया जो हजरत आइशा (रजि०) ने दिया था। (हदीस : मुस्नद अहमद, मुस्लिम, नसई) परिभाषा में इसको 'तखईर' कहते हैं अर्थात् बीवी को इस बात का अधिकार देना कि वह पति के साथ रहने या उससे अलग होने के बारे में किसी एक चीज़ का खुद फैसला कर ले। यह 'सखईर' नबी (सल्ल०) पर अनिवार्य थी, क्योंकि अल्लाह ने इसका आदेश नबी (सल्ल०) को दे दिया था। अगर आपकी बीवियों में से कोई एक भी अलग होना चाहती तो आप से आप अलग न हो जाती, बल्कि नबी (सल्ल०) के अलग करने से होतों, जैसा कि आयत के शब्द "आओ मैं तुम्हें कुछ दे-दिलाकर भले तरीक़े से विदा कर," से स्पष्ट होता है। लेकिन नबी (सल्ल०) के लिए यह अनिवार्य था कि इस स्थिति में उनको अलग कर देते, क्योंकि नबी (सल्ल.) की हैसियत से आपका यह पद न था कि अपना वादा पूरा न फ़रमाते । दूसरी ओर आयत का मंशा यह भी मालूम होता है कि जिन बीवियों ने अल्लाह, उसके रसूल और आख़िरत के घर को पसन्द कर लिया, उन्हें तलाक देने का अधिकार हुजूर (सल्ल०) के लिए बाक़ी न रहा। क्योंकि तखईर' के दो पहलू ही थे। एक यह कि दुनिया को अपनाती हो तो तुम्हें अलग कर दिया जाए। दूसरे यह कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल0) और आखिरत के घर को अपनाती हो तो तुम्हें अलग न किया जाए। अब स्पष्ट है कि इनमें से जो पहलू भी कोई बीवी अपनातीं, उनके पक्ष में दूसरा पहलू आप से आप निषिद्ध हो जाता था।
يَٰنِسَآءَ ٱلنَّبِيِّ مَن يَأۡتِ مِنكُنَّ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖ يُضَٰعَفۡ لَهَا ٱلۡعَذَابُ ضِعۡفَيۡنِۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا ۝ 29
(30) नबी की बीवियो! तुममें से जो किसी खुली बेहयाई का काम करेगी, उसे दोहरा अज़ाब दिया जाएगा,43 अल्लाह के लिए यह बहुत आसान काम है।44
43. इसका यह अर्थ नहीं है कि आपकी बीवियों से 'मआज़ल्लाह' (अल्लाह की पनाह) किसी गन्दी हरकत की आशंका थी, बल्कि इससे उनको यह एहसास दिलाना अभीष्ट था कि इस्लामी समाज में उनका पद जितना ऊँचा है, उसी दृष्टि से उनका दायित्व भी बहुत भारी है, इसलिए उनका नैतिक आचरण अत्यन्त पवित्र होना चाहिए।
44. अर्थात् तुम इस भुलावे में न रहना कि नबी की बीवियाँ होना तुम्हें अल्लाह की पकड़ से बचा सकता है या तुम्हारे पद कुछ इतने उच्च हैं कि उनकी वजह से तुम्हें पकड़ने में अल्लाह को किसी कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।
۞وَمَن يَقۡنُتۡ مِنكُنَّ لِلَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَتَعۡمَلۡ صَٰلِحٗا نُّؤۡتِهَآ أَجۡرَهَا مَرَّتَيۡنِ وَأَعۡتَدۡنَا لَهَا رِزۡقٗا كَرِيمٗا ۝ 30
(31) और तुममें से जो अल्‍लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करेगी और भले काम करेगी, उसको हम दोहरा इनाम देंगे45 और हमने उसके लिए आदरपूर्ण रोजी जुटा रखी है।
45. गुनाह पर दोहरे अज़ाब और नेकी पर दोहरे इनाम की वजह यह है कि जिन लोगों को अल्लाह इंसानी समाज में किसी उच्च पद पर आसीन करता है, वे आम तौर से लोगों के रहनुमा (नेता) बन जाते हैं और अल्लाह के बन्दों की बड़ी तादाद भलाई और बुराई में उन्हीं की पैरवी करती है। इसलिए जब वे बुरे काम करते हैं तो अपने बिगाड़ के साथ दूसरों के बिगाड़ की भी सज़ा पाते हैं और जब वे सत्कर्म करते हैं तो उन्हें अपनी नेकी के साथ इस बात का भी बदला मिलता है कि उन्होंने दूसरों को भलाई की राह दिखाई।
يَٰنِسَآءَ ٱلنَّبِيِّ لَسۡتُنَّ كَأَحَدٖ مِّنَ ٱلنِّسَآءِ إِنِ ٱتَّقَيۡتُنَّۚ فَلَا تَخۡضَعۡنَ بِٱلۡقَوۡلِ فَيَطۡمَعَ ٱلَّذِي فِي قَلۡبِهِۦ مَرَضٞ وَقُلۡنَ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا ۝ 31
(32) नबी की बीवियो! तुम सामान्य औरतों की तरह नहीं हो।46 अगर तुम अल्लाह से डरनेवाली हो तो दबी जबान से बात न किया करो कि दिल की खराबी में ग्रस्त कोई आदमी लालच में पड़ जाए, बल्कि साफ़-सीधी बात करो।47
46. यहाँ से अन्तिम पैराग्राफ़ तक की आयतें वे हैं जिनसे इस्लाम में परदे के आदेशों का आरंभ हुआ है। इन आयतों में सम्बोधन नबी (सल्ल०) की बीवियों से है, मगर उद्देश्य तमाम मुसलमान घरों में इन सुधारों को लागू करना है। नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों को सम्बोधित करने का उद्देश्य यह है कि जब नबी (सल्ल०) के घर से जिंदगी के इस पाकीज़ा तरीक़े की शुरुआत होगी, तो बाक़ी सारे मुसलमान घरानों की औरतें, स्वत: उसपर चलेंगी, क्योंकि यही घर उनके लिए नमूने की हैसियत रखता था। कुछ लोग केवल इस आधार पर कि इन आयतों का सम्बोधन नबी (सल्ल.) की पाक बीवियों से है, यह दावा कर बैठते हैं कि ये आदेश उन्हीं के लिए खास हैं, लेकिन आगे इन आयतों में जो कुछ फ़रमाया गया है, उसे पढ़कर देख लीजिए। कौन-सी बात ऐसी है जो नबी (सल्ल०) की बीवियों के लिए खास हो और बाक़ी मुसलमान औरतों के लिए जरूरी न हो? क्या अल्लाह का मंशा यही हो सकता था कि सिम नबी (सल्ल०) की पाक बीवियाँ ही गंदगी से पाक हो और वही अल्लाह और रसूल का आजापतन करें, और वही नमाजें पढ़ें और जकात दें? अगर यह मंशा नहीं हो सकता तो फिर घरों में चैन से बैठने और अज्ञानता के दिखावे से बचने और पराए मर्दो के साथ दबी ज़बान से बात न करने का आदेश उनके लिए कैसे ख़ास हो सकता है और बाकी मुसलमान औरतें इससे अलग कैसे हो सकती हैं? क्या कोई उचित प्रमाण ऐसा है जिसके आधार पर एक ही वार्ता-क्रम के समष्टि आदेशों में से कुछ को आम और कुछ को ख़ास बना दिया जाए? रहा यह वाक्य कि "तुम आम औरतों की तरह नहीं हो" तो इससे भी यह अर्थ नहीं निकलता कि आम औरतों को तो बन ठनकर निकलना चाहिए और परायों में खूब लगावट की बात करनी चाहिएँ, अलबत्ता तुम ऐसा रवैया न अपनाओ। बल्कि इसके विपरीत यह वर्णनशैली कुछ इस तरह की है जैसे एक सज्जन पुरुष अपने बच्चे से कहता है कि "तुम बाजारी बच्चों की तरह नहीं हो, तुम्हें गाली न बकनी चाहिए।" इससे कोई बुद्धिमान आदमी भी कहनेवाले का यह अर्थ नहीं निकालेगा कि वह सिर्फ़ अपने बच्चे के लिए गालियाँ बकने को बुरा समझता है, दूसरे बच्चों में यह ऐब मौजूद रहे तो इसपर कोई आपत्ति नहीं है।
47. अर्थात् जरूरत पड़ने पर किसी मर्द से बात करने में हरज नहीं है, लेकन ऐसे मौकों पर औरत का स्वर और बात करने की शैली ऐसी होनी चाहिए जिससे बात करनेवाले मर्द के दिल में कभी यह विचार तक न आ सके कि इस औरत से कोई और उम्मीद भी कायम की जा सकती है? उसके स्वर में कोई लोच न हो, उसकी बातों में कोई लगावट न हो, उसकी आवाज़ में कोई मिठास घुली हुई न हो।
وَقَرۡنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجۡنَ تَبَرُّجَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ ٱلۡأُولَىٰۖ وَأَقِمۡنَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتِينَ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِعۡنَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُذۡهِبَ عَنكُمُ ٱلرِّجۡسَ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِ وَيُطَهِّرَكُمۡ تَطۡهِيرٗا ۝ 32
(33) अपने घरों में टिककर रही,48 अज्ञानताकाल की-सी सज-धज न दिखाती फिरो,49 नमाज़ क़ायम करो, जकात दो, अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करो। अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम नबी के घरवालों से गंदगी को दूर करे और तुम्हें पूरी तरह पाक कर दे।50
48. मूल शब्द 'कर-न' प्रयुक्त हुआ है। कुछ भाषाविदों ने इसको 'करार' से लिया गया बताया है और कुछ ने 'वक़ार' से। अगर इसको क़रार से लिया जाए तो अर्थ होगा क़रार पकड़ी', 'टिक रहो'। और अगर वक़ार से लिया जाए तो अर्थ होगा 'सुकून से रहो', 'चैन से बैठो'। दोनों रूपों में आयत का मंशा यह है कि औरत का वास्तविक कार्य-क्षेत्र उसका घर है। उसको उसी क्षेत्र में रहकर सन्तोषपूर्वक अपनी जिम्मेदारियां पूरी करनी चाहिएँ और घर से बाहर केवल ज़रूरत पड़ने पर ही निकलना चाहिए। क़ुरआन मजीद के इस साफ़ और स्पष्ट आदेश की मौजूदगी में इस बात की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रहती कि मुसलमान औरतें कौंसिलों और पार्लियामेंटों की मेंबर बनें, घर के बाहर की सामाजिक गतिविधियों में भागती फिरें, सरकारी दफ़्तरों में मर्दो के साथ काम करें, कॉलेजों में लड़कों के साथ शिक्षा पाएँ, मरदाना अस्पतालों में नर्सिंग की सेवा में लगें। हवाई जहाज़ों और रेल-कारों में 'मुसाफ़िर नवाज़ी' (मुसाफ़िरों की सेवा) के लिए इस्तेमाल की जाएँ।
49. इस आयत में दो महत्त्वपूर्ण शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनका समझना आयत का मंशा समझने के लिए ज़रूरी है। एक 'तबर्रुज', दूसरे 'जाहिलियते-ऊला' (इस्लाम से पहले जाहिलियत)। तबर्रुज का अर्थ अरबी भाषा में 'नुमायाँ होने', उभरने और खुलकर सामने आने के हैं। औरत के लिए जब शब्द तबर्रुज इस्तेमाल किया जाए तो उसके तीन अर्थ होंगे- एक, यह कि वह अपने चेहरे और शरीर का सौन्दर्य लोगों को दिखाए, दूसरे, यह कि वह अपने पहनावे और ज़ेवर की शान दूसरों के सामने नुमायाँ करे, तीसरे, यह कि वह अपनी चाल-ढाल और चटक-मटक से अपने आपको प्रदर्शित करे। यही व्याख्या इस शब्द की भाषाशास्त्रियों ने और विद्वान टीकाकारों ने की है। 'जाहिलियत' का शब्द क़ुरआन मजीद में इस जगह के अलावा तीन जगह और इस्तेमाल हुआ है- एक सूरा-3 आले-इमरान की आयत 154 में, जहाँ अल्लाह की राह में लड़ने से जी चुरानेवालों के बारे में फ़रमाया गया है कि वे "अल्लाह के बारे में सत्य के विरुद्ध जाहिलियत के से गुमान रखते हैं।" दूसरे सूरा-5 अल-माइदा, आयत 50 में, जहाँ अल्लाह के कानून के बजाय किसी और क़ानून के अनुसार अपने मुक़द्दमों का फ़ैसला करानेवाले के बारे में फ़रमाया गया, "क्या वे जाहिलियत का फ़ैसला चाहते हैं?" तीसरे सूरा-48 अल-फतह आयत 26 में, जहाँ मक्का के इस्लाम-विरोधियों के इस काम को 'हमीयते जाहिलियत' (अज्ञानता के प्रति पक्षपात) के शब्द से व्यक्त किया गया है कि उन्होंने सिर्फ़ दुराग्रह की बुनियाद पर मुसलमानों को उमरा न करने दिया। हदीस में आता है कि एक बार हज़रत अबू दर्दा ने किसी आदमी से झगड़ा करते हुए उसको माँ की गाली दे दी। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सुना तो फ़रमाया, "तुममें अभी तक जाहिलियत मौजूद है।" एक और हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "तीन काम जाहिलियत के हैं- दूसरों के नसब (वंश) पर ताना देना, सितारों की गति से फ़ाल लेना और मुर्दो पर नौहा करना (यानी उनके गुणों का बखान कर-करके रोना)।" इन तमाम इस्तेमालों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 'जाहिलियत' से तात्पर्य इस्लाम की परिभाषा में हर वह तौर-तरीका है जो इस्लामी संस्कृति व सभ्यता और इस्लामी चरित्र व आचरण और इस्लामी मनोवृत्ति के विरुद्ध हो। और 'जाहिलियते ऊला' का अर्थ वे बुराइयाँ हैं जिनमें इस्लाम से पहले अरब के लोग और दुनिया भर के दूसरे लोग गिरफ़्तार थे। इस व्याख्या से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अल्लाह जिस आचरण से औरतों को रोकना चाहता है, वह उनका अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करते हुए घरों से बाहर निकलना है। वह उनको हिदायत फ़रमाता है कि अपने घरों में टिककर रहो, क्योंकि तुम्हारा वास्तविक काम घर में है, न कि उससे बाहर। लेकिन अगर बाहर निकलने की ज़रूरत पेश आए तो उस शान के साथ न निकलो जिसके साथ 'जाहिलियत' के पिछले दौर में औरतें निकला करती थीं।
وَٱذۡكُرۡنَ مَا يُتۡلَىٰ فِي بُيُوتِكُنَّ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ وَٱلۡحِكۡمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ لَطِيفًا خَبِيرًا ۝ 33
(34) याद रखो अल्लाह की आयतों और हिकमत की उन बातों को जो तुम्हारे घरों में सुनाई जाती हैं।51 बेशक अल्लाह सूक्ष्मदर्शी52 और ख़बर रखनेवाला है।
51. मूल शब्द 'वज़-कुर-न' प्रयुक्त हुआ है, जिसके दो अर्थ हैं, 'याद रखो' और 'बयान करो'। पहले अर्थ की दृष्टि से अर्थ यह है कि ऐ नबी की बीवियो ! तुम कभी इस बात को न भुलाना कि तुम्हारा घर वह है जहाँ से दुनिया भर को अल्लाह की आयतों और तत्त्वदर्शिता और समझ-बूझ की शिक्षा दी जाती है, इसलिए तुम्हारा दायित्त्व बड़ा भारी है। दूसरे अर्थ की दृष्टि से अर्थ यह है कि नबी की बीवियो ! जो कुछ तुम सुनो और देखो, उसे लोगों के सामने बयान करती रहो, क्योंकि रसूल के साथ हर वक़्त रहने से बहुत-सी हिदायतें तुम्हारे ज्ञान में ऐसी आएँगी जो तुम्हारे सिवा किसी और ज़रिये से लोगों को मालूम न हो सकेंगी। इस आयत में दो चीज़ों का उल्लेख हुआ है। एक अल्लाह की आयतें, दूसरे तत्त्वदर्शिता। अल्लाह की आयतों से तात्पर्य तो अल्लाह की किताब की आयतें ही हैं, मगर 'हिक्मत' का शब्द व्यापक है, जिसमें वे तमाम विवेक और सूझ-बूझ की बातें आ जाती हैं, जो नबी (सल्ल०) लोगों को सिखाते थे। यह शब्द अल्लाह की किताब की शिक्षा के लिए भी इस्तेमाल हो सकता है, लेकिन सिर्फ़ इन्हीं के साथ इसको ख़ास कर देने का कोई तर्क नहीं है। क़ुरआन की आयतें सुनाने के अलावा जिस तत्त्वदर्शिता और विवेक की शिक्षा नबी (सल्ल०) अपने पवित्र आचरण से और अपने कथन से देते थे, वह भी अनिवार्य रूप से इसमें शामिल है।
52. अल्लाह सूक्ष्मदर्शी है, अर्थात् छिपी से छिपी बातों तक को वह जान जाता है। उससे कोई चीज़ छिपी नहीं रह सकती।
إِنَّ ٱلۡمُسۡلِمِينَ وَٱلۡمُسۡلِمَٰتِ وَٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ وَٱلۡقَٰنِتِينَ وَٱلۡقَٰنِتَٰتِ وَٱلصَّٰدِقِينَ وَٱلصَّٰدِقَٰتِ وَٱلصَّٰبِرِينَ وَٱلصَّٰبِرَٰتِ وَٱلۡخَٰشِعِينَ وَٱلۡخَٰشِعَٰتِ وَٱلۡمُتَصَدِّقِينَ وَٱلۡمُتَصَدِّقَٰتِ وَٱلصَّٰٓئِمِينَ وَٱلصَّٰٓئِمَٰتِ وَٱلۡحَٰفِظِينَ فُرُوجَهُمۡ وَٱلۡحَٰفِظَٰتِ وَٱلذَّٰكِرِينَ ٱللَّهَ كَثِيرٗا وَٱلذَّٰكِرَٰتِ أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُم مَّغۡفِرَةٗ وَأَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 34
(35) निश्चित रूप से53 जो मर्द और जो औरतें मुस्लिम हैं,54 मोमिन हैं,55 आज्ञाकारी हैं,56 सत्यवादी हैं,57 धैर्य रखनेवाले हैं,58 अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं,59 सदक़ा देनेवाले हैं,60 रोज़ा रखानेवाले हैं,61 अपने गुप्तांगों की रक्षा करनेवाले हैं62 और अल्लाह को बहुत अधिक याद करनेवाले हैं63, अल्लाह ने उनके लिए क्षमा और बड़ा बदला तैयार कर रखा है।64
53. पिछले पैराग्राफ़ के फ़ौरन बाद ही इस विषय का उल्लेख करके एक सूक्ष्म संकेत इस बात की ओर कर दिया है कि ऊपर नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों को जो हिदायतें दी गई हैं, वे उनके लिए खास नहीं हैं, बल्कि मुस्लिम समाज को आम तौर से अपने आचरण में सुधार इन्हीं हिदायतों के अनुसार करना चाहिए।
54. अर्थात् जिन्होंने इस्लाम को अपने लिए जीवन-व्यवस्था के रूप में अपना लिया है और यह तय कर लिया है कि अब वे उसी का पालन करते हुए जीवन बिताएँगे। दूसरे शब्दों में, जिनके अंदर इस्लाम की दी हुई चिन्तन-प्रणाली और जीवन बिताने के तौर-तरीके के विरुद्ध किसी प्रकार की रुकावट बाक़ी नहीं रही है, बल्कि वे उसका पालन और पैरवी का रास्ता अपना चुके हैं।
58. अर्थात् अल्लाह व रसूल के बताए हुए सीधे रास्ते पर चलने और अल्लाह के दीन को स्थापित करने में जो मुश्किलें और मुसीबतें भी सामने आएँ, जो ख़तरे भी सामने हों, जो तकलीफें भी उठानी पड़ें और जिन हानियों से भी दोचार होना पड़े, उनका पूरे जमाव के साथ मुक़ाबला करते हैं। कोई डर, लालच और मनेच्छाओं का कोई तक़ाज़ा उनको सीधे रास्ते से हटा देने में सफल नहीं होता।
59. अर्थात् वे घमंड, अहं और अभिमान से खाली हैं। वे इस वास्तविकता को अच्छी तरह जानते और समझते हैं कि हम बन्दे (दास) हैं और बन्दगी (दासता) से उच्च हमारी कोई हैसियत नहीं है। इसलिए उनके मन और शरीर दोनों ही अल्लाह के आगे झुके रहते हैं। उनपर अल्लाह का डर छाया रहता है। उनसे कभी वह रवैया नहीं सामने आता जो अपनी बड़ाई के घमंड में मुब्तला और अल्लाह से निडर लोगों से प्रकट हुआ करता है। वार्ता क्रम को सामने रखा जाए, तो मालूम होता है कि यहाँ इस ख़ुदातरसी के आम रवैये के साथ मुख्य रूप से 'झुकने' से तात्पर्य नमाज़ है, क्योंकि उसके बाद ही सदके और रोज़े का उल्लेख किया गया है।
60. इससे तात्पर्य सिर्फ़ फ़र्ज़ ज़कात अदा करना ही नहीं है, बल्कि आम खैरात (दान-पुण्य) भी इसमें शामिल है। तात्पर्य यह है कि वे अल्लाह की राह में खुले दिल से अपने माल ख़र्च करते हैं।
61. इसमें फ़र्ज़ और नफ़ल दोनों प्रकार के रोज़े शामिल हैं।
62. इसमें दो अर्थ सम्मिलित हैं- एक, यह कि वे जिना (व्यभिचार) से बचते हैं। दूसरा, यह कि वे निर्लज्जता और नग्नता से दूर रहते हैं।
63. अल्लाह को अधिक से अधिक याद करने का अर्थ यह है कि आदमी की ज़बान पर हर समय जिंदगी के हर मामले में किसी न किसी तरह अल्लाह का नाम आता रहे। यह स्थिति उस वक़्त तक पैदा नहीं होती, जब तक आदमी के दिल में अल्लाह का विचार बसकर न रह गया हो। यह चीज़ वास्तव में इस्लामी जिंदगी की जान है। दूसरी जितनी भी इबादतें हैं, इनके लिए बहरहाल कोई वक़्त होता है, जब वे अदा की जाती हैं और उन्हें अदा कर चुकने के बाद आदमी फ़ारिश हो जाता है। लेकिन यह वह इबादत है, जो हर समय चलती रहती है और यही इंसान की जिंदगी का स्थाई रिश्ता अल्लाह और उसकी बन्दगी के साथ जोड़े रखती है। स्वयं इबादतों और तमाम दीनी कामों में भी जान इसी चीज़ से पड़ती है कि आदमी का दिल सिर्फ़ इन विशेष कार्यों के वक़्त ही नहीं, बल्कि हर वक्त अल्लाह की ओर झुका हुआ और उनकी ज़बान निरंतर उसकी याद से तर रहे।
64. इस आयत में यह बता दिया गया है कि अल्लाह के यहाँ असल महत्त्व व मूल्य किन ख़ूबियों का है। ये इस्लाम की मौलिक मान्यताएँ (Basic Values) हैं, जिन्हें एक वाक्य में समेट दिया गया है। इन मान्यताओं की दृष्टि से मर्द और औरत के बीच कोई अन्तर नहीं है। कर्म की दृष्टि से तो बेशक दोनों जातियों का कार्य-क्षेत्र अलग है। मर्दो को जिंदगी के कुछ क्षेत्रों में काम करना है और औरतों को कुछ और क्षेत्रों में, लेकिन अगर ये ख़ूबियाँ दोनों में बराबर मौजूद हों तो अल्लाह के यहाँ दोनों का दर्जा बराबर और दोनों का बदला बराबर होगा। इस दृष्टि से उनके दों और बदले में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा कि एक ने चूल्हा-चक्की संभाला और दूसरे ने ख़िलाफ़त की मस्नद (राजगद्दी) पर बैठकर शरीअत के आदेश जारी किए। एक ने घर में बच्चे पाले और दूसरे ने लड़ाई के मैदान में जाकर अल्लाह और उसके दीन के लिए जान लड़ाई।
وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٖ وَلَا مُؤۡمِنَةٍ إِذَا قَضَى ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥٓ أَمۡرًا أَن يَكُونَ لَهُمُ ٱلۡخِيَرَةُ مِنۡ أَمۡرِهِمۡۗ وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلٗا مُّبِينٗا ۝ 35
(36) किसी मोमिन65 मर्द और किसी मोमिन औरत को यह हक़ नहीं है कि जब अल्लाह और उसका रसूल किसी मामले का फैसला कर दे, तो फिर उसे अपने उस मामले में स्वयं फ़ैसला करने का अधिकार प्राप्त रहे, और जो कोई अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा करे, तो वह खुली गुमराही में पड़ गया।66
65. यहाँ से वे आयतें शुरू होती हैं जो हज़रत जैनब (रजि०) से नबी (सल्ल.) के निकाह के सिलसिले में उतरी थीं।
66. इब्ने-अब्बास (रजि०) आदि कहते हैं कि यह आयत उस समय उतरी थी, जब नबी (सल्ल०) ने हज़रत जैद (रजि०) के लिए हज़रत जैनब (रज़ि०) के साथ निकाह का पैग़ाम दिया था और हज़रत ज़ैनब (रजि०) और उनके रिश्तेदारों ने उसे नामंजूर कर दिया था। इन लोगों को यह बात सख़्त नापसन्द थी कि इतने ऊंचे धराने की लड़की का पैग़ाम आप अपने आज़ाद किए हुए गुलाम के लिए दे रहे हैं। इसपर यह आयत उतरी और इसे सुनते ही हज़रत जैनब (रजि०) और उनके सब परिवारवालों ने बगैर किसी संकोच के आपका आदेश मान लिया।
وَإِذۡ تَقُولُ لِلَّذِيٓ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ وَأَنۡعَمۡتَ عَلَيۡهِ أَمۡسِكۡ عَلَيۡكَ زَوۡجَكَ وَٱتَّقِ ٱللَّهَ وَتُخۡفِي فِي نَفۡسِكَ مَا ٱللَّهُ مُبۡدِيهِ وَتَخۡشَى ٱلنَّاسَ وَٱللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخۡشَىٰهُۖ فَلَمَّا قَضَىٰ زَيۡدٞ مِّنۡهَا وَطَرٗا زَوَّجۡنَٰكَهَا لِكَيۡ لَا يَكُونَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ حَرَجٞ فِيٓ أَزۡوَٰجِ أَدۡعِيَآئِهِمۡ إِذَا قَضَوۡاْ مِنۡهُنَّ وَطَرٗاۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ مَفۡعُولٗا ۝ 36
(37) ऐ नबी67! याद करो वह अवसर जब तुम उस आदमी से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने और तुमने उपकार किया था68 कि “अपनी बीवी को न छोड़ और अल्लाह से डर,’’69 उस वक्त तुम अपने दिल में वह बात छिपाए हुए थे जिसे अल्लाह खोलना चाहता था। तुम लोगों से डर रहे थे, हालाँकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि तुम उससे डरो।70 फिर जब जैद उससे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुका71, तो हमने उस (तलाक़ शुदा महिला) का तुमसे निकाह कर दिया72, ताकि ईमानवालों पर अपने मुँह बोले बेटों की बीवियों के मामले में कोई तंगी न रहे, जबकि वे उनसे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुके हों।73 और अल्लाह का आदेश तो व्यवहार में आना ही चाहिए था।
67. यहाँ से आयत 48 तक का विषय उस समय उतरा, जब हज़रत जैनब (रजि०) से नबी (सल्ल०) निकाह कर चुके थे और उसपर मुनाफ़िकों, यहूदियों और मुशरिकों ने नबी (सल्ल०) के विरुद्ध प्रोपगंडे का एक भारी तूफान खड़ा कर रखा था। अल्लाह के इन फ़रमान का असल उद्देश्य मुसलमानों को [दीन के दुश्मनों को विरोधपूर्ण] मुहिम के प्रभाव से बचाना और उनके फैलाए हुए सन्देहों और भ्रमों से सुरक्षित रखना था।
68. इससे मुराद है हज़रत ज़ैद बिन हारिसा (रजि०), जैसा कि आगे स्पष्ट रूप से बयान कर दिया गया है। उनपर अल्लाह का उपकार क्या था और नबी (सल्ल०) का उपकार क्या? इसको समझने के लिए ज़रूरी है कि संक्षेप में यहाँ उनका क़िस्सा बयान कर दिया जाए। यह वास्तव में कल्ब नामक क़बीले के एक व्यक्ति हारिसा बिन शराहील के बेटे थे। आठ साल के थे कि बनी कैन बिन जस्र के लोगों के [एक हमले में दास बना लिए गए।] उन्होंने ताइफ़ के क़रीब उकाज़ के मेले में ले जाकर उनको बेच दिया। खरीदनेवाले हज़रत ख़दीजा (रजि०) के भतीजे हकीम बिन हिज़ाम थे। इन्होंने मक्का लाकर अपनी फूफी साहिबा की सेवा में उन्हें भेंट कर दिया। नबी (सल्ल.) से हज़रत ख़दीजा (रजि०) का जब निकाह हुआ, तो नबी (सल्ल०) ने उनके यहाँ ज़ैद को देखा और उनकी आदतें और तौर-तरीक़े आपको इतने पसंद आए कि आपने उन्हें हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) से माँग लिया। उस समय हज़रत ज़ैद (रजि०) की उम्र 15 साल थी। कुछ समय बाद उनके बाप और चचा को पता चला कि हमारा बच्चा मक्के में है। वे उन्हें खोजते हुए नबी (सल्ल०) तक पहुँचे और अर्ज़ किया कि आप जो माल चाहें हम देने के लिए तैयार हैं, आप हमारा बच्चा हमें दे दें। [मगर हज़रत जैद (रजि०) नबी (सल्ल०) का साथ छोड़कर जाने पर स्वयं किसी तरह तैयार न हुए।] नबी (सल्ल०) ने उसी समय ज़ैद (रजि०) को आज़ाद कर दिया और हरम में जाकर क़ुरैश को आम सभा में एलान फ़रमाया कि आप सब लोग गवाह रहें, आज से जैद मेरा बेटा है, यह मुझसे विरासत पाएगा और मैं इससे। इसी वजह से लोग उनको 'मुहम्मद का बेटा जैद' कहने लगे। हिजरत के बाद सन 04 हि० में नबी (सल्ल०) ने अपनी फुफेरी बहन हज़रत जैनब (रजि०) से उनका निकाह कर दिया, अपनी ओर से उनका मह अदा किया और घर बसाने के लिए उनको ज़रूरी सामान भी दिया। यही परिस्थितियाँ हैं जिनकी ओर अल्लाह इन शब्दों में संकेत कर रहा है कि “जिसपर अल्लाह ने और तुमने उपकार किया था।"
72. ये शब्द इस बारे में स्पष्ट हैं कि नबी (सल्ल०) ने यह निकाह स्वयं अपनी इच्छा के कारण नहीं, बल्कि अल्लाह के आदेश से किया था।
73. ये शब्द इस बात की व्याख्या करते हैं कि अल्लाह ने यह काम नबी (सल्ल०) से एक ऐसी ज़रूरत और मस्लहत के लिए कराया था, जो इस तदबीर के सिवा किसी दूसरे ज़रिये से पूरी न हो सकती थी। अरब में मुँह बोले रिश्तों के बारे में जो ग़लत रस्में प्रचलित थीं, उनको तोड़ने की कोई शक्ल इसके सिवा न थी कि अल्लाह का रसूल स्वयं आगे बढ़कर उनको तोड़ डाले।
مَّا كَانَ عَلَى ٱلنَّبِيِّ مِنۡ حَرَجٖ فِيمَا فَرَضَ ٱللَّهُ لَهُۥۖ سُنَّةَ ٱللَّهِ فِي ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلُۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ قَدَرٗا مَّقۡدُورًا ۝ 37
(38) नबी पर किसी ऐसे काम में कोई रुकावट नहीं है जो अल्लाह ने उसके लिए निश्चित कर दिया हो।74 यही अल्लाह की सुन्नत (नीति) उन सब नबियों के मामले में रही है जो पहले गुज़र चुके हैं, और अल्लाह का आदेश एक निश्चित तयशुदा फ़ैसला होता है।75
74. इन शब्दों से यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि दूसरे मुसलमानों के लिए तो इस तरह का निकाह मात्र वैध (जाइज़) है, मगर नबी (सल्ल०) के लिए यह एक फ़र्ज़ था, जो अल्लाह ने आपके ज़िम्मे किया था।
75. अर्थात् नबियों के लिए हमेशा से यह नियम निश्चित रहा है कि अल्लाह की ओर से जो आदेश भी आए, उसे व्यवहार में लाना उनके लिए बिल्कुल अनिवार्य है, जिससे कोई छुटकारा उनके लिए नहीं है।
ٱلَّذِينَ يُبَلِّغُونَ رِسَٰلَٰتِ ٱللَّهِ وَيَخۡشَوۡنَهُۥ وَلَا يَخۡشَوۡنَ أَحَدًا إِلَّا ٱللَّهَۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبٗا ۝ 38
(39) (यह अल्लाह को सुन्नत है उन लोगों के लिए) जो अल्लाह के पैग़ाम पहुँचाते हैं और उसी से डरते हैं और एक अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते और हिसाब-किताब के लिए बस अल्लाह ही काफ़ी है।76
76. मूल शब्द हैं 'कफ़ा बिल्लाहि हसीबा'। इसके दो अर्थ हैं- एक यह कि हर डर और ख़तरे के मुक़ाबले में अल्लाह काफ़ी है। दूसरे यह कि हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है, उसके सिवा किसी और की पूछ-गच्छ से डरने की कोई जरूरत नहीं।
مَّا كَانَ مُحَمَّدٌ أَبَآ أَحَدٖ مِّن رِّجَالِكُمۡ وَلَٰكِن رَّسُولَ ٱللَّهِ وَخَاتَمَ ٱلنَّبِيِّـۧنَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 39
(40) (लोगो!) मुहम्मद तुम्हारे मर्दो में से किसी के बाप नहीं हैं, मगर वे अल्लाह के रसूल और आख़िरी नबी हैं, और अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखनेवाला है।77
77. इस एक वाक्य में उन तमाम आपत्तियों की जड़ काट दी गई है, जो विरोधी नबी (सल्ल०) के इस निकाह पर कर रहे थे। उनकी प्रथम आपत्ति यह थी कि आपने अपनी बहू से निकाह किया है। इसके उत्तर में फ़रमाया गया है कि "मुहम्मद तुम्हारे मर्दो में से किसी के बाप नहीं हैं।" अर्थात् जिस आदमी की तलाक़ दी हुई औरत से निकाह किया गया है, वह बेटा था ही कब कि उसकी तलाक़ दी हुई बीवी से निकाह हराम होता? दूसरी आपत्ति यह थी कि अगर मुँह बोला बेटा सगा बेटा नहीं है, तब भी उसकी छोड़ी हुई औरत से निकाह कर लेना कुछ ज़रूरी तो न था। उसके उत्तर में फ़रमाया गया, "मगर वे अल्लाह के रसूल हैं।" अर्थात् रसूल होने की हैसियत से उनका यह दायित्त्व था कि जिस हलाल चीज़ को तुम्हारी रस्मों ने ख़ाहमख़ाह हराम कर रखा है, उसके बारे में तमाम दुराग्रहों को ख़त्म कर दें और उसके हलाल होने के मामले में किसी सन्देह और आशंका की गुंजाइश बाक़ी न रहने दें। फिर और ज़्यादा ताक़ीद के लिए फ़रमाया, "और वे आखिरी नबी (ख़ातमुन्नबीवीन) हैं," अर्थात् उनके बाद कोई रसूल तो दरकिनार, कोई नवी तक आनेवाला नहीं है कि अगर क़ानून और समाज का कोई सुधार उनके ज़माने में लागू होने से रह जाए, तो बाद का आनेवाला नबी यह कसर पूरी कर दे, इसलिए यह और भी अनिवार्य हो गया था कि अज्ञानता की इस रस्म का अन्त वे ख़ुद ही करके जाएँ। इसके बाद और अधिक ज़ोर देते हुए फ़रमाया गया है कि "अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखनेवाला है।" यानी अल्लाह को मालूम है कि इस समय मुहम्मद (सल्ल०) के हाथों अज्ञानता की इस रस्म को समाप्त करा देना क्यों ज़रूरी था और ऐसा न करने में क्या दोष था? वह जानता है कि अब उसकी ओर से कोई नबी आनेवाला नहीं है, इसलिए अगर अपने आख़िरी
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ ذِكۡرٗا كَثِيرٗا ۝ 40
(41) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह को ज्यादा याद करो
وَسَبِّحُوهُ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلًا ۝ 41
(42) और सुबह व शाम उसकी तस्बीह (गुणगान) करते रहो।78
78. इसका उद्देश्य मुसलमानों को यह उपदेश देना है कि जब दुश्मनों की ओर से अल्लाह के रसूल पर तानों और मलामतों की बौछार हो रही हो तो ऐसी हालत में ईमानवालों का काम यह है कि आम दिनों से बढ़कर इस ज़माने में मुख्य रूप से अल्लाह को और अधिक याद करें। सुबह व शाम तस्बीह करने से तात्पर्य हमेशा करते रहना है।
هُوَ ٱلَّذِي يُصَلِّي عَلَيۡكُمۡ وَمَلَٰٓئِكَتُهُۥ لِيُخۡرِجَكُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۚ وَكَانَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ رَحِيمٗا ۝ 42
(43) वही है जो तुमपर रहमत फ़रमाता है और उसके फरिश्ते तुम्हारे लिए रहमत की दुआ करते हैं, ताकि वह तुम्हें अंधेरों से रौशनी में निकाल लाए। वह ईमानवालों पर बहुत मेहरबान है।79
79. इसका उद्देश्य मुसलमानों को यह एहसास दिलाना है कि कुफ़्फ़ार (इस्लाम-विरोधी) और मुनाफ़िकों की सारी जलन और कुदन उस रहमत ही की वजह से है जो अल्लाह के रसूल की बदौलत तुम्हारे ऊपर हुई है। उसी के ज़रिये से तुम्हें ईमान की दौलत ( और नैतिक श्रेष्ठता] प्राप्त हुई है। इस हालत में कोई ऐसा रवैया न अपना बैठना, जिससे तुम अल्लाह की उस रहमत से महरूम हो जाओ। 'सलात' का शब्द जब 'अला' लगकर अल्लाह की ओर से बन्दों के हक़ में इस्तेमाल होता है, तो इसके अर्थ रहमत, मेहरबानी और मुहब्बत के होते हैं और जब फ़रिश्तों की ओर से इंसानों के हक़ में इस्तेमाल होता है, तो इसके अर्थ रहमत की दुआ होते हैं।
تَحِيَّتُهُمۡ يَوۡمَ يَلۡقَوۡنَهُۥ سَلَٰمٞۚ وَأَعَدَّ لَهُمۡ أَجۡرٗا كَرِيمٗا ۝ 43
(44) जिस दिन वे उससे मिलेंगे, उनका स्वागत सलाम से होगा80 और उनके लिए अल्लाह ने बड़ा आदरपूर्ण बदला तैयार कर रखा है।
80. मूल शब्द हैं 'तहिय्यतुहुम यौ म यल कौनहू सलाम', 'उनका तहिय्या (स्वागत) उससे मुलाक़ात के दिन सलाम से होगा।' इसके तीन अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि अल्लाह स्वयं 'अस्सलामु अलैकुम' के साथ उनका स्वागत करेगा, जैसा कि सूरा-36 यासीन में फ़रमाया, 'सलामुन कौलम मिर्रब्बिर्रहीम०' अर्थात् दयावान रब की ओर से उनको सलाम कहा गया है (आयत 58)। दूसरे यह कि फ़रिश्ते उनको सलाम करेंगे, जैसे सूरा-16 नहल (आयत 32) में कहा गया है। तीसरे यह कि वे स्वयं आपस में एक दूसरे को सलाम करेंगे, जैसे सूरा-10 यूनुस (आयत 10) में फ़रमाया गया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ شَٰهِدٗا وَمُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 44
(45) ऐ नबी!81 हमने तुम्हें भेजा है गवाह बनाकर,82 शुभ-सूचना देनेवाला और डरानेवाला बनाकर,83
81. वार्ता का उद्देश्य यह है कि आप (सल्ल०) को हमने ये कुछ उच्च पद प्रदान किए हैं, आपका व्यक्तित्त्व इससे बहुत बुलंद है कि ये विरोधी अपने झूठे आरोपों के तूफ़ान उठाकर आपका कुछ बिगाड़ सकें, इसलिए आप न उनकी शरारतों से दुखी हों और न उनके प्रोपगंडे को तनिक भी कोई महत्त्व दें, अपने पद के उत्तरदायित्वों को पूरा किए जाएँ और उन्हें जो कुछ उनका जी चाहे, बकने दें।
82. नबी को गवाह' बनाने का अर्थ अपने भीतर बड़ी व्यापकता रखता है, जिसमें तीन प्रकार की गवाहियाँ सम्मिलित हैं- एक मौखिक गवाही, अर्थात् यह कि अल्लाह का दीन जिन तथ्यों और नियमों पर आधारित है, नबी उनके सच्चा होने पर गवाह बनकर खड़ा हो और दुनिया से साफ़-साफ़ कह दे कि वही सत्य हैं और उनके खिलाफ़ जो कुछ है असत्य है। दूसरी व्यावहारिक गवाही, अर्थात् यह कि नबी अपनी पूरी जिंदगी में उस पंथ का व्यावहारिक प्रदर्शन करे, जिसे दुनिया के सामने पेश करने के लिए वह उठा है। उसकी ज़ात (व्यक्तित्व) उसकी शिक्षा का ऐसा साक्षात नमूना हो जिसे देखकर हर आदमी मालूम करे कि जिस दीन की ओर वह दुनिया को बुला रहा है, वह किस मेयार का इंसान बनाना चाहता है, क्या आचरण उसमें पैदा करना चाहता है और कैसी जीवन-व्यवस्था उससे बरपा कराना चाहता है। तीसरी आख़िरत (परलोक) की गवाही, अर्थात् आख़िरत में नबी इस बात की गवाही दे कि जो पैग़ाम उसके सुपुर्द किया गया था, वह उसने बिना कुछ घटाए-बढ़ाए लोगों तक पहुँचा दिया, और उनके सामने अपनी कथनी और करनी से सत्य स्पष्ट कर देने में उसने कोई कोताही नहीं की। इसी गवाही पर यह फैसला किया जाएगा कि माननेवाले किस इनाम के और न माननेवाले किस सज़ा के अधिकारी हैं।
وَدَاعِيًا إِلَى ٱللَّهِ بِإِذۡنِهِۦ وَسِرَاجٗا مُّنِيرٗا ۝ 45
(46) अल्लाह की इजाज़त से उसकी ओर दावत देनेवाला84 बनाकर और रौशन चिराग़ बनाकर
84. यहाँ भी एक सामान्य प्रचारक के प्रचार और नबी के प्रचार के बीच वहीं अंतर है, जिसकी ओर ऊपर संकेत किया गया है।
وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ بِأَنَّ لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ فَضۡلٗا كَبِيرٗا ۝ 46
(47) शुभ-सूचना दे दो उन लोगों को जो (तुमपर) ईमान लाए हैं कि उनके लिए अल्लाह की ओर से बड़ा अनुग्रह है।
وَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَدَعۡ أَذَىٰهُمۡ وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا ۝ 47
(48) और कदापि न दबो इंकारियों और कपटाचारियों से, कोई परवाह न करो उनकी पीड़ा पहुँचाने की 84अ और भरोसा कर लो अल्लाह पर । अल्लाह ही इसके लिए काफ़ी है कि आदमी अपने मामले उसके सुपुर्द कर दे।
84अ. [अर्थात् उन आलोचनाओं की जो ये लोग इस निकाह पर कर रहे हैं।]
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نَكَحۡتُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ ثُمَّ طَلَّقۡتُمُوهُنَّ مِن قَبۡلِ أَن تَمَسُّوهُنَّ فَمَا لَكُمۡ عَلَيۡهِنَّ مِنۡ عِدَّةٖ تَعۡتَدُّونَهَاۖ فَمَتِّعُوهُنَّ وَسَرِّحُوهُنَّ سَرَاحٗا جَمِيلٗا ۝ 48
(49) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब तुम मोमिन औरतों से निकाह करो और फिर उन्हें हाथ लगाने से पहले तलाक दे दो,85 तो तुम्हारी ओर से उनपर कोई इद्दत अनिवार्य नहीं है, जिसके पूरे होने की तुम माँग कर सको। इसलिए उन्हें कुछ माल दो और भले तरीक़े से विदा कर दो।86
85. इस वाक्य में यह बात खुलकर कह दी गई है कि यहाँ शब्द निकाह को सिर्फ़ 'अक़्द' के अर्थ में लिया गया है। भाषाविदों में इसपर बहुत कुछ मतभेद हुआ है कि अरबी भाषा में निकाह का मूल अर्थ क्या है ? जहाँ तक क़ुरआन और सुन्नत का ताल्लुक़ है, उनमें निकाह एक पारिभाषिक शब्द है, जिससे तात्पर्य मात्र 'अक्द' (निकाह) है या फिर निकाह के बाद का संभोग।
86. यह एक अकेली आयत है जो शायद उसी ज़माने में तलाक़ का कोई मसला पैदा हो जाने पर उतरी थी, इसलिए पिछले वार्ता-क्रम और बाद के वार्ता-क्रम के बीच इसको रख दिया गया। इस आयत से जो क़ानूनी हुक्म निकलते हैं, उनका सार यह है- (1) आयत में यद्यपि 'मोमिन औरतों' का शब्द इस्तेमाल किया गया है, लेकिन उम्मत के तमाम उलमा इसपर सहमत हैं कि अर्थ की दृष्टि से यही हुक्म अहले-किताब की औरतों के बारे में भी है। (2) 'हाथ लगाने' या 'छूने' का शब्द यहाँ सांकेतिक रूप से 'सहवास' के लिए प्रयुक्त हुआ है। [आलिमों के नज़दीक सावधानी की दृष्टि से ऐसा एकान्तवास जिसमें संभोग हो जाने की संभावना हो, वह भी संभोग के हुक्म (अर्थ) में दाख़िल होगा।] (3) एकान्तवास से पहले की तलाक़ की स्थिति में इद्दत ख़त्म हो जाने के अर्थ ये हैं कि इस स्थिति में मर्द का रुजूअ करने का हक़ बाक़ी नहीं रहता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِنَّآ أَحۡلَلۡنَا لَكَ أَزۡوَٰجَكَ ٱلَّٰتِيٓ ءَاتَيۡتَ أُجُورَهُنَّ وَمَا مَلَكَتۡ يَمِينُكَ مِمَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَيۡكَ وَبَنَاتِ عَمِّكَ وَبَنَاتِ عَمَّٰتِكَ وَبَنَاتِ خَالِكَ وَبَنَاتِ خَٰلَٰتِكَ ٱلَّٰتِي هَاجَرۡنَ مَعَكَ وَٱمۡرَأَةٗ مُّؤۡمِنَةً إِن وَهَبَتۡ نَفۡسَهَا لِلنَّبِيِّ إِنۡ أَرَادَ ٱلنَّبِيُّ أَن يَسۡتَنكِحَهَا خَالِصَةٗ لَّكَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۗ قَدۡ عَلِمۡنَا مَا فَرَضۡنَا عَلَيۡهِمۡ فِيٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ لِكَيۡلَا يَكُونَ عَلَيۡكَ حَرَجٞۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 49
(50) ऐ नबी! हमने तुम्हारे लिए हलाल कर दीं तुम्हारी वे बीवियाँ जिनके मह तुमने अदा किए है87 और वे औरतें जो अल्लाह की दी हुई लौडियों में से तुम्हारी मिल्कियत में आएँ, और तुम्हारी वे चचेरी और फुफेरी और ममेरी और खलेरी बहनें, जिन्होंने तुम्हारे साथ हिजरत की है, और वह मोमिन औरत, जिसने अपने आप को नबी के लिए हिबा किया हो, अगर नबी उसे निकाह में लेना चाहे।88 यह छूट मुख्य रूप से तुम्हारे लिए है, दूसरे मोमिनों के लिए नहीं है।89 हमको मालूम है कि आम मोमिनों पर उनकी बीवियों और लौंडियों के बारे में हमने क्या हदें (सीमाएँ) निश्चित की हैं। (तुम्हें इन हदों से हमने इसलिए अलग किया है) ताकि तुम्हारे ऊपर कोई तंगी न रहे90, और अल्लाह माफ़ करनेवाला और दयावान है।
87. यह वास्तव में उत्तर है उन लोगों को आपत्ति का, जो कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) दूसरे लोगों के लिए तो एक समय में चार से अधिक बीवियों के रखने पर रोक लगाते हैं, मगर स्वयं उन्होंने यह पांचों बीवी कैसे कर ली? स्पष्ट रहे कि हजरत जैनब (रज़ि०) से निकाह के वक्त नबी (सल्ल०) के घर में चार बीवियां, हजरत आइश (रज़ि०), हजरत सौदा (रजि०), हजरत हफ़सा (रजि०) और हजरत उम्मे-सलमा (रज़ि०) पहले से मौजूद थीं। उत्तर का अर्थ यह है कि सामान्य मुसलमानों के लिए चार को क़ैद लगानेवाले भी हम ही हैं और अपने नबी को इस क़ैद से अलग करनेवाले भी हम ख़ुद है। अगर वह क़ैद लगाने के हम अधिकारी थे, तो आख़िर इसका अपवाद पैदा करने के हम अधिकारी क्यों नहीं हैं ? इस उत्तर के बारे में यह बात फिर ध्यान में रहनी चाहिए कि इससे अभिप्रेत कुफ़्फ़ार और मुनाफ़िक़ों को सन्तुष्ट करना नहीं था, बल्कि उन मुसलमानों को सन्तुष्ट करना था कि जिनके दिलों में इस्लाम के विरोधी ग़लत विचार डालने की कोशिश कर रहे थे।
88. पाँचवीं बीवी को नबी (सल्ल०) के लिए हलाल करने के अलावा अल्लाह ने इस आयत में नबी (सल्ल०) को कुछ और प्रकार की औरतों से भी निकाह की इजाज़त दे दी- (1) वे औरतें जो अल्लाह की दी हुई लौंडियों में से आपकी मिल्कियत में आईं। (2) आपकी चचेरी, ममेरी, फुफेरी और ख़लेरी बहनों में से वे औरतें जिन्होंने हिजरत में आपका साथ दिया हो, अर्थात् इस्लाम के लिए अल्लाह के रास्ते में हिजरत कर चुकी हों। नबी (सल्ल०) को अधिकार दिया गया कि इन रिश्तेदार मुहाजिर औरतों में से भी आप जिससे चाहें निकाह कर सकते हैं। (3) वह मोमिन औरत जो अपने आपको नबी (सल्ल०) के लिए हिबा करे, अर्थात् बिना मह लिए अपने फ़रमाएँ। आपको नबी (सल्ल०) के निकाह में देने के लिए तैयार हो और नबी (सल्ल०) उसे अपनाना पसन्द फ़रमाएँ।
۞تُرۡجِي مَن تَشَآءُ مِنۡهُنَّ وَتُـٔۡوِيٓ إِلَيۡكَ مَن تَشَآءُۖ وَمَنِ ٱبۡتَغَيۡتَ مِمَّنۡ عَزَلۡتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكَۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن تَقَرَّ أَعۡيُنُهُنَّ وَلَا يَحۡزَنَّ وَيَرۡضَيۡنَ بِمَآ ءَاتَيۡتَهُنَّ كُلُّهُنَّۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا فِي قُلُوبِكُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَلِيمٗا ۝ 50
(51) तुमको अधिकार दिया जाता है कि अपनी बीवियों में से जिसको चाहो, अपने से अलग रखो, जिसे चाहो अपने साथ रखो और जिसे चाहो अलग रखने के बाद अपने पास बुला लो। इस मामले में तुमपर कोई दोष नहीं है। इस तरह अधिक आशा की जाती है कि उनकी आँखें ठंडी रहेंगी और वे रंजीदा न होंगी और जो कुछ भी तुम उनको दोगे, उसपर वे सब राजी रहेंगी।91 अल्लाह जानता है जो कुछ तुम लोगों के दिलों में है, और अल्लाह जाननेवाला और सहनशील हैं।92
91. इस आयत से अभिप्रेत नबी (सल्ल०) को घरेलू जीवन की उलझनों से नजात दिलाना था, ताकि आप पूरे सुकून के साथ अपना काम कर सकें। जब अल्लाह ने स्पष्ट शब्दों में नबी (सल्ल०) को पूरे अधिकार दे दिए कि पाक बीवियों में से जिसके साथ जो बर्ताव चाहें करें, तो इस बात की कोई संभावना नहीं रही कि ये ईमानवाली औरतें आपको किसी तरह परेशान करतीं या आपस में मुक़ाबले और दुश्मनी के झगड़े पैदा करके आपके लिए उलझनें पैदा करतीं। लेकिन अल्लाह से यह अधिकार पा लेने के बाद भी नबी (सल्ल०) ने तमाम बीवियों के बीच पूरा-पूरा न्याय किया, किसी को किसी पर प्राथमिकता न दी। इस जगह किसी के दिल में यह सन्देह नहीं रहना चाहिए कि अल्लाह ने, मआजल्लाह, इस आयत में अपने नबी के साथ कोई अनुचित रियायत की थी और पाक बीवियों के साथ हक़ मारने जैसा मामला फ़रमाया था। वास्तव में जिन उच्च हितों के लिए नबी (सल्ल०) को बीवियों की तादाद के मामले में आम क़ायदों से अलग रखा गया था, उन्हीं हितों का तकाज़ा यह भी था कि आपको घरेलू जिंदगी का भी सुकून पहुँचाया जाए। और उन कारणों को दूर किया जाए, जो आपके लिए उलझनें पैदा कर सकते हों। पाक बीवियों के लिए यह एक बहुत बड़ा सौभाग्य था कि उन्हें नबी करीम (सल्ल०) जैसी सबसे बुजुर्ग हस्ती की बीवी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और उसकी बदौलत उनको यह मौक़ा मिला कि दावत और सुधार के महान कामों में आपकी सहयोगिनी बनें। इस उद्देश्य के लिए जिस तरह नबी (सल्ल०) असाधारण त्याग और बलिदान से काम ले रहे थे और तमाम सहाबा किराम अपनी ताक़त भर क़ुर्बानियाँ कर रहे थे, उसी तरह पाक बीवियों का भी यह दायित्त्व था कि त्याग से काम लें। इसलिए अल्लाह के इस फैसले को रसूल (सल्ल०) की तमाम बीवियों ने ख़ुशी के साथ स्वीकार कर लिया।
92. यह पाक बीवियों के लिए इस बात की चेतावनी है कि अल्लाह का यह हुक्म आ जाने के बाद अगर वे दिल में भी मलाल महसूस करेंगी, तो पकड़ से न बच सकेंगी। इसी तरह दूसरे लोगों के लिए भी इसमें यह चेतावनी है कि नबी (सल्ल०) की घरेलू जिंदगी के बारे में किसी प्रकार का भ्रम भी अगर उन्होंने अपने मन में रखा तो अल्लाह से उनकी यह चोरी छिपी न रह जाएगी। इसके साथ अल्लाह के सहनशील होने के गुण का उल्लेख कर दिया गया है ताकि आदमी को यह मालूम हो जाए कि जिसके दिल में कभी ऐसा कोई विचार आया हो, वह अगर उसे निकाल दे तो अल्लाह के यहाँ क्षमा की आशा है।
لَّا يَحِلُّ لَكَ ٱلنِّسَآءُ مِنۢ بَعۡدُ وَلَآ أَن تَبَدَّلَ بِهِنَّ مِنۡ أَزۡوَٰجٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَكَ حُسۡنُهُنَّ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ يَمِينُكَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ رَّقِيبٗا ۝ 51
(52) इसके बाद तुम्हारे लिए दूसरी औरतें हलाल नहीं हैं, और न इसकी इजाज़त है कि उनकी जगह और बीवियाँ ले आओ, चाहे उनका सौन्दर्य तुम्हें कितना ही पसन्द हो93, अलबत्ता लौडियों की तुम्हें इजाज़त है94। अल्लाह हर चीज़ पर निगराँ है।
93. इस कथन के दो अर्थ हैं- एक यह कि जो औरतें ऊपर आयत नं0 50 में नबी (सल्ल०) के लिए हलाल की गई हैं, उनके सिवा दूसरी कोई औरत अब आपके लिए हलाल नहीं है। दूसरी यह कि जब आपकी पाक बीवियाँ इस बात के लिए राज़ी हो गई हैं कि तंगी और परेशानी में आप (सल्ल०) का साथ दें और आख़िरत के लिए दुनिया को तज दें, और इसपर भी प्रसन्न हैं कि आप जो बर्ताव भी उनके साथ चाहें करें, तो अब आपके लिए यह हलाल नहीं है कि इनमें से किसी को तलाक़ देकर उसकी जगह कोई और बीवी ले आएँ।
94. यह आयत इस बात को स्पष्ट कर रही है कि निकाह की हुई बीवियों के अलावा लौडियों से भी फ़ायदा उठाने की इजाज़त है और उनके लिए तादाद की कोई कैद नहीं है। इसी विषय की व्याख्या सूरा-4 निसा, आयत 3, सूरा-23 मोमिनून, आयत 6 और सूरा-70 मआरिज, आयत 30 में भी की गई है। इन सभी आयतों में लौंडियों को निकाह में ली गई बीवियों की अपेक्षा एक अलग वर्ग की हैसियत से बयान किया गया है और फिर उनके साथ शौहर-बीवी के ताल्लुक़ को जाइज़ क़रार दिया गया है। साथ ही सूरा-4 निसा की आयत 3 निकाह में ली गई बीवियों के लिए चार की सीमा निश्चित करती है, मगर न इस जगह अल्लाह ने लौडियों के लिए संख्या निश्चित की है और न दूसरी संबंधित आयतों में ऐसी किसी सीमा की ओर इशारा फ़रमाया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि अल्लाह की शरीअत यह गुंजाइश मालदार लोगों को बे-हिसाब लौंडियाँ ख़रीद-ख़रीद कर ऐयाशी करने के लिए देती है। वास्तव में यह तो एक अनुचित लाभ है, जो काम-वासना के पुजारी लोगों ने क़ानून से उठाया है। कानून अपने आप में इंसानों की आसानी के लिए बनाया गया था, इसलिए नहीं बनाया गया था कि लोग उससे यह फ़ायदा उठाएँ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتَ ٱلنَّبِيِّ إِلَّآ أَن يُؤۡذَنَ لَكُمۡ إِلَىٰ طَعَامٍ غَيۡرَ نَٰظِرِينَ إِنَىٰهُ وَلَٰكِنۡ إِذَا دُعِيتُمۡ فَٱدۡخُلُواْ فَإِذَا طَعِمۡتُمۡ فَٱنتَشِرُواْ وَلَا مُسۡتَـٔۡنِسِينَ لِحَدِيثٍۚ إِنَّ ذَٰلِكُمۡ كَانَ يُؤۡذِي ٱلنَّبِيَّ فَيَسۡتَحۡيِۦ مِنكُمۡۖ وَٱللَّهُ لَا يَسۡتَحۡيِۦ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ وَإِذَا سَأَلۡتُمُوهُنَّ مَتَٰعٗا فَسۡـَٔلُوهُنَّ مِن وَرَآءِ حِجَابٖۚ ذَٰلِكُمۡ أَطۡهَرُ لِقُلُوبِكُمۡ وَقُلُوبِهِنَّۚ وَمَا كَانَ لَكُمۡ أَن تُؤۡذُواْ رَسُولَ ٱللَّهِ وَلَآ أَن تَنكِحُوٓاْ أَزۡوَٰجَهُۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦٓ أَبَدًاۚ إِنَّ ذَٰلِكُمۡ كَانَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمًا ۝ 52
(53) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! नबी के घरों में बिना इजाज़त न चले आया करो 95, न खाने का वक़्त ताकते रहो। हाँ, अगर तुम्हें खाने पर बुलाया जाए तो ज़रूर आओ 96, मगर जब खाना खा लो तो बिखर जाओ, बातें करने में न लगे रहो 97। तुम्हारी ये हरकतें नबी को कष्ट देती हैं, मगर वह शर्म की वजह से कुछ नहीं कहते और अल्लाह सत्य बात कहने में नहीं शर्माता। नबी की बीवियों से अगर तुम्हें कुछ माँगना हो तो परदे के पीछे से माँगा करो। यह तुम्हारे और इनके दिलों की पवित्रता के लिए अधिक उचित तरीक़ा है।98 तुम्हारे लिए यह कदापि जाइज़ नहीं कि अल्लाह के रसूल को कष्ट दो 99 और न यह जाइज़ है कि उनके बाद उनकी बीवियों से निकाह करो 100। यह अल्लाह के नज़दीक बहुत बड़ा गुनाह है।
95. यह उस सामान्य आदेश की भूमिका है, जो लगभग एक साल बाद सूरा-24 नूर की आयत 27 में दिया गया है। पुराने समय में अरब के लोग बेझिझक एक-दूसरे के घरों में चले जाते थे। यह अज्ञानतापूर्ण तरीक़ा बहुत-सी ख़राबियों का कारण था। इसलिए पहले नबी (सल्ल०) के घरों में यह नियम तय किया गया कि कोई आदमी, चाहे वह क़रीबी दोस्त या दूर परे का रिश्तेदार ही क्यों न हो, आपके घरों में इजाज़त के बिना दाख़िल न हो। फिर सूरा-24 नूर में इस नियम को तमाम मुसलमानों के घरों में लागू करने का आम हुक्म दे दिया गया।
96. यह इस सिलसिले का दूसरा आदेश है। इसका अर्थ यह है कि किसी आदमी के घर खाने के लिए उस समय जाना चाहिए जबकि घरवाला खाने को दावत दे। यह हुक्म सिर्फ नबी (सल्ल०) के घर के लिए मुख्य न था, बल्कि इस नमूने के घर में ये नियम इसी लिए लागू किए गए थे कि वे मुसलमानों के यहाँ सामान्य आचार-व्यवहार के नियम बन जाएँ।
100. यह व्याख्या है उस कथन की जो सूरा के शुरू में गुजर चुका है कि नबी (सल्ल.) की बीवियाँ ईमानवालों की माँएँ हैं।
إِن تُبۡدُواْ شَيۡـًٔا أَوۡ تُخۡفُوهُ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 53
(54) तुम चाहे कोई बात प्रकर करो या छिपाओ, अल्लाह को हर बात का ज्ञान है।101
101. अर्थात् नबी (सल्ल०) के विरुद्ध दिल में भी कोई आदमी कोई बुरा विचार रखेगा या आपकी बीवियों के मुताल्लिक किसी की नीयत में भी कोई बुराई छिपी होगी, तो अल्लाह से वह छिपी न रहेगी, और वह इसपर सज़ा पाएगा।
لَّا جُنَاحَ عَلَيۡهِنَّ فِيٓ ءَابَآئِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآئِهِنَّ وَلَآ إِخۡوَٰنِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآءِ إِخۡوَٰنِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآءِ أَخَوَٰتِهِنَّ وَلَا نِسَآئِهِنَّ وَلَا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّۗ وَٱتَّقِينَ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدًا ۝ 54
(55) नबी की बीवियों के लिए इसमें कोई दोष नहीं है कि उनके बाप, उनके बेट, उनके भाई, उनके भतीजे, उनके भांजे,102 उनके मेल-जोल की औरतें103 और उनके अधिकृत (दास)104 घरों में आएँ। (ऐ औरतो!) तुम्हें अल्लाह कि अवज्ञा से बचना चाहिए। अल्लाह हर चीज पर निगाह रखता है।105
102. व्याख्या के लिए देखिए टिप्पणी सूरा-24 नूर, टिप्पणी नं0 38-421 इस सिलसिले में अल्लामा आलूसी की यह व्याख्या भी उल्लेखनीय है कि "भाइयों, भतीजों और भाँजों के हुक्म में वे सब रिश्तेदार आ जाते हैं जो एक औरत के लिए हराम हो, चाहे वे वंशीय हाँ या दूध शरीक। इस सूची में चचा और मामूँ का इसलिए उल्लेख नहीं किया गया कि ये औरत के लिए माँ-बाप जैसे हैं, या फिर उनका उल्लेख इसलिए नहीं किया है कि भाँजों और भतीजों का जिक्र आ जाने के बाद उनके जिक्र की जरूरत नहीं है, क्योंकि भाँजे और भतीजे से परदा न होने की जो वजह है, वही चचा और माँमू से परदा न होने की वजह भी है।" (रूहुल मआनी)
103. व्‍याख्या के लिए देखिए टीका सूरा-24 नूर, टिप्पणी 43
إِنَّ ٱللَّهَ وَمَلَٰٓئِكَتَهُۥ يُصَلُّونَ عَلَى ٱلنَّبِيِّۚ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ صَلُّواْ عَلَيۡهِ وَسَلِّمُواْ تَسۡلِيمًا ۝ 55
(56) अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी पर दुरुद भेजते हैं।106 ऐ लोगी जी ईमान लाए हो। तुम भी उनपर दुरूद व सलाम भेजो।107
106. अल्लाह की ओर से अपने नबी पर 'सलात' का अर्थ यह है कि वह आपपर अत्यन्त दयालु है, आपकी प्रशंसा करता है, आपके काम में बरकत देता है, आपका नाम ऊँचा करता है और आपपर अपनी रहमतों की वर्षा करता है, फ़रिश्तों की ओर से आपपर सलात का अर्थ यह है कि वे आपसे अत्यन्त प्रेम करते हैं और आपके हक में अल्लाह से दुआ करते हैं कि वह आपको अधिक से अधिक उच्च पद प्रदान करे, आपके दीन को सरबुलन्द करे और आपको प्रशंसनीय स्थान पर पहुँचाए । संदर्भ को देखने से साफ़ महसूस होता है कि यह आयत उतारकर अल्लाह ने दुनिया को यह बताया है कि कुफ्फार और मुशरिक और मुनाफिक़ मेरे नबी को बदनाम करने और नीचा दिखाने की जितनी चाहें कोशिश कर देखें, अन्तत; वे मुँह की खाएँगे, इसलिए कि मैं उसपर मेहरबान हूँ और सम्पूर्ण सृष्टि का प्रबन्ध व संचालन जिन फ़रिश्तों के द्वारा चल रहा है, वे सब उसका समर्थन करनेवाले और प्रशंसक हैं।
107. दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ यह है कि ऐ लोगो ! जिनको मुहम्मद रसूलल्लाह की बदौलत सीधा रास्ता मिला है, तुम उनकी क़द्र पहचानो और उनके महान उपकार का हक़ अदा करो। उनके उपकारों के मुक़ाबले में तुम्हारी कृतज्ञता का ज़रूरी तक़ाज़ा यह है कि जितना द्वेष वे इस साक्षात भलाई के विरुद्ध रखते हैं, उतना, बल्कि उससे अधिक प्रेम तुम उससे रखो। जितना वे उसका बुरा चाहनेवाले हैं, उतना ही, बल्कि उससे अधिक तुम उसका भला चाहनेवाले बनो और उसके हक में वही दुआ करो, जो अल्लाह के फ़रिश्ते रात और दिन उसके लिए कर रहे हैं। इस आयत में मुसलमानों को दो चीज़ों का आदेश दिया गया है- एक 'सल्लू अलैहि', दूसरे 'सल्लिमू तस्लीमा'। 'सल्लू अलैहि' का अर्थ यह है कि तुम उनके अनुरक्त हो जाओ, उनकी प्रशंसा करो और उनके लिए दुआ करो। 'सल्लिमू तस्लीमा' कहने का एक अर्थ यह है कि तुम उनके हक़ में पूरी 'सलामती' की दुआ करो। और दूसरा अर्थ यह है कि तुम पूरी तरह दिलो-जान से उनका साथ दो। यह आदेश जब उतरा तो बहुत-से सहाबा (रजि०) ने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से अर्ज किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! सलाम का तरीक़ा तो आप हमें बता चुके हैं (अर्थात् नमाज़ में 'अस्सलामु अलै-क अय्युहन्नबीयु व रहमतुल्लाहि व ब-र-कातुहू' और मुलाक़ात के वक़्त अस्सलामु अलै-क या रसूलल्लाह! कहना) मगर आपपर 'सलात' भेजने का तरीका क्या है? इसके जवाब में नबी (सल्ल०) ने बहुत-से लोगों को अलग-अलग मौक़ों पर जो दुरूद सिखाए हैं, [उन्हें हदीस की किताबों से मालूम कर लिया जा सकता है, ये तमाम दुरूद शब्दों में अंतर के बावजूद एक ही अर्थ रखते हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَأَعَدَّ لَهُمۡ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 56
(57) जो लोग अल्लाह और उसके रसूल को पीड़ा देते हैं, उनपर दुनिया और आख़िरत में अल्लाह ने लानत की है और उनके लिए रुसवा करनेवाला अज़ाब जुटा रखा है।108
108. अल्लाह को पीड़ा देने से तात्पर्य दो चीजें हैं- एक यह कि उसकी अवज्ञा की जाए। उसके मुकाबले में कुफ्र और शिर्क और नास्तिकतापूर्ण का रवैया अपनाया जाए और उसके हराम को हलाल कर लिया जाए। दूसरे यह कि उसके रसूल को पीड़ा दी जाए, क्योंकि जिस तरह रसूल का आज्ञापालन अल्लाह का आज्ञापालन है, उसी तरह रसूल को ताने व मलामत करना ख़ुदा को ताने देना व मलामत करना है, रसूल की मुख़ालफ़त, ख़ुदा की मुखालफ़त है और रसूल की नाफ़रमानी, ख़ुदा की नाफ़रमानी है।
وَٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ بِغَيۡرِ مَا ٱكۡتَسَبُواْ فَقَدِ ٱحۡتَمَلُواْ بُهۡتَٰنٗا وَإِثۡمٗا مُّبِينٗا ۝ 57
(58) और जो लोग ईमानवाले मर्दो और ईमानवाली औरतों को बिना कुसूर के दुख पहुँचाते हैं, उन्होंने एक बड़े बुहतान"109 और खुले गुनाह का वबाल अपने सर ले लिया है।
109. यह आयत बोहतान (लांछन) की परिभाषा निश्चित कर देती है, अर्थात् जो दोष आदमी में न हो या जो अपराध आदमी ने न किया हो, वह उससे जोड़ देना। नबी (सल्ल०) ने भी इसकी व्याख्या की है। अबू दाऊद और तिर्मिजी की रिवायत है कि नबी (सल्ल.) से पूछा गया, "ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई करना) क्या है ?" फ़रमाया, "तेरा अपने भाई का उल्लेख इस तरह करना जो उसे नागवार हो।" अर्ज किया गया और अगर मेरे भाई में वह दोष मौजूद हो ? फ़रमाया, "अगर उसमें वह दोष मौजूद है, जो तूने बयान किया है, तो तूने उसकी ग़ीबत की और अगर वह उसमें नहीं है तो तूने उसपर बोहतान (लांछन) लगाया।" यह काम एक नैतिक बुराई ही नहीं है जिसकी सज़ा आख़िरत में मिलनेवाली हो, बल्कि इस आयत का तकाज़ा यह है कि इस्लामी राज्य के कानून में भी झूठे आरोप लगाने को दंडनीय अपराध घोषित किया जाए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّأَزۡوَٰجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَآءِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ يُدۡنِينَ عَلَيۡهِنَّ مِن جَلَٰبِيبِهِنَّۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يُعۡرَفۡنَ فَلَا يُؤۡذَيۡنَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 58
(59) ऐ नबी । अपनी बीवियों और बेटियों और ईमानवालों की औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें।10 यह अधिक उचित तरीक़ा है, ताकि वे पहचान ली जाएँ और न सताई जाएँ।111 अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है।112
110. मूल अरबी शब्द हैं 'युद-नी-न अलैहिन-न मिन जलाबीबिहिन-न'। 'जिलबाब' अरबी भाषा में बड़ी चादर को कहते हैं और 'इदना' का वास्तविक अर्थ क़रीब करने और लपेट लेने के हैं। मगर जब इसके साथ 'अला' लग जाता है तो उसमें 'इरखा' अर्थात् ऊपर से लटका लेने का अर्थ पैदा हो जाता है। आज के समय के कुछ अनुवादक और टीकाकारों ने पश्चिमी रंग-ढंग से प्रभावित होकर इस शब्द का अनुवाद केवल 'लपेट लेना' करते हैं, ताकि किसी तरह चेहरा छिपाने के आदेश से बच निकला जाए, लेकिन अल्लाह का अभिप्राय अगर वही होता, जो ये लोग बयान करना चाहते हैं, तो वह 'युद-नी-न इलैहिन-न' फ़रमाता। जो आदमी भी अरबी भाषा जानता हो, वह कभी यह नहीं मान सकता कि 'युदनी-न अलैहिन-न' का अर्थ केवल लपेट लेना' हो सकता है। इसके अतिरिक्त 'मिन जलाबीबिहिन-न' के शब्द ऐसा अर्थ लेने में और अधिक बाधक हैं। स्पष्ट है कि यहाँ 'मिन' 'कुछ' के लिए है अर्थात् चादर का कुछ हिस्सा। और यह भी स्पष्ट है कि लपेटी जाएगी तो पूरी चादर लपेटी जाएगी, न कि इसका केवल एक हिस्सा। इसलिए आयत का स्पष्ट अर्थ यह है कि औरतें अपनी चादरें अच्छी तरह ओढ़-लपेटकर उनका एक हिस्सा, या उनका पल्लू अपने ऊपर से लटका लिया करें, जिसे प्रचलन में 'घूघट डालना' कहते हैं। यही अर्थ रसूल (सल्ल०) के सबसे क़रीबी समय के महान टीकाकार बयान करते हैं और सहाबा व ताबिईन के बाद जितने बड़े-बड़े टीकाकार इस्लामी इतिहास में हुए हैं, उन्होंने भी एक मत होकर इस आयत का यही अर्थ बयान किया है। साथ ही एक और विषय जो इस आयत से निकलता है वह यह है कि इससे नबी (सल्ल०) की कई बेटियाँ साबित होती हैं, क्योंकि अल्लाह फ़रमाता है, 'ऐ नबी! अपनी बीवियों और बेटियों से कहो।' ये शब्द उन लोगों के कथन का पूर्ण खंडन कर देते हैं जो अल्लाह से निडर होकर बेझिझक यह दावा करते हैं कि नबी (सल्ल०) की सिर्फ़ एक बेटी हज़रत फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) थीं और बाक़ी साहबज़ादियाँ नबी (सल्ल०) की अपनी सगी बेटियाँ न थीं, बल्कि सौतेली थीं।
111. 'पहचान ली जाएँ' से तात्पर्य यह है कि उनको इस सादा और हयादार लिबास में देखकर हर देखनेवाला जान ले कि वे शरीफ़ और पाकदामन औरतें हैं, आवारा और खिलाड़ी नहीं हैं कि कोई दुराचारी इनसान उनसे अपने मन में इच्छा पूरी करने की आशा कर सके। 'न सताई जाएँ' से तात्पर्य यह है कि उनसे छेड़-छाड़न की जाए, उनके पीछे न पड़ा जाए।
۞لَّئِن لَّمۡ يَنتَهِ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡمُرۡجِفُونَ فِي ٱلۡمَدِينَةِ لَنُغۡرِيَنَّكَ بِهِمۡ ثُمَّ لَا يُجَاوِرُونَكَ فِيهَآ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 59
(60) अगर मुनाफ़िक़ और वे लोग जिनके दिलों में ख़राबी है113 और वे जो मदीने में उत्तेजक अफ़वाहें फैलानेवाले हैं,114 अपनी हरकतों से बाज़ न आए तो हम उनके विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए तुम्हें उठा खड़ा करेंगे, फिर वे इस शहर में मुश्किल ही से तुम्हारे साथ रह सकेंगे।
113. 'दिल की ख़राबी' से तात्पर्य यहाँ दो प्रकार की ख़राबियाँ हैं। एक यह कि आदमी अपने आपको मुसलमानों में गिनाने के बावजूद इस्लाम और मुसलमानों का बुरा चाहनेवाला हो। दूसरे यह कि आदमी बदनीयती, आवारगी और अपराधी मनोवृत्ति का शिकार हो और उसके नापाक रुझान उसकी हरकतों और गतिविधियों से फूटे पड़ते हों।
114. इससे तात्पर्य वे लोग हैं जो मुसलमानों में घबराहट फैलाने और उनके मनोबल तोड़ने के लिए आए दिन मदीना में इस तरह की ख़बरें उड़ाया करते थे कि फ़लाँ जगह मुसलमानों को बड़ा नुकसान पहुँचा है और फ़लाँ जगह मुसलमानों के विरुद्ध बड़ी ताक़त जमा हो रही है और बहुत जल्द मदीना पर अचानक हमला होनेवाला है। इसके साथ उनका एक काम यह भी था कि वे नबी (सल्ल०) के ख़ानदान और बाइज्जत मुसलमानों के घरेलू जीवन के बारे में तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ते और फैलाते थे, ताकि इससे आम लोगों में भ्रान्तियाँ जन्म लें और मुसलमानों के नैतिक प्रभाव को क्षति पहुँचे।
مَّلۡعُونِينَۖ أَيۡنَمَا ثُقِفُوٓاْ أُخِذُواْ وَقُتِّلُواْ تَقۡتِيلٗا ۝ 60
(61) उनपर हर ओर से लानत की बौछार होगी, जहाँ कहीं पाए जाएँगे, पकड़े जाएँगे और बुरी तरह मारे जाएँगे।
سُنَّةَ ٱللَّهِ فِي ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلُۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّةِ ٱللَّهِ تَبۡدِيلٗا ۝ 61
(62) यह अल्लाह की रीति है जो ऐसे लोगों के मामले में पहले से चली आ रही है और तुम अल्लाह की रीति में कोई तब्दीली न पाओगे |115
115. अर्थात् यह अल्लाह की शरीअत का एक स्थाई विधान है कि एक इस्लामी समाज और राज्य में इस तरह केफ़सादियों को कभी फलने-फूलने का मौका नहीं दिया जाता। जब भी किसी समाज और राज्य की व्यवस्था ईश-विधान पर स्थापित होगी, उसमें ऐसे लोगों को पहले सावधान कर दिया जाएगा, ताकि वे अपना रवैया बदल दें और फिर जब वे बाज़ न आएँगै तो सख्ती के साथ उनको उखाड़ फेंका जाएगा।
يَسۡـَٔلُكَ ٱلنَّاسُ عَنِ ٱلسَّاعَةِۖ قُلۡ إِنَّمَا عِلۡمُهَا عِندَ ٱللَّهِۚ وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّ ٱلسَّاعَةَ تَكُونُ قَرِيبًا ۝ 62
(63) लोग तुमसे पूछते हैं कि क़ियामत की घड़ी कब आएगी।116 कहो, उसका ज्ञान तो अल्लाह ही को है । तुम्हें क्या ख़बर शायद कि वह क़रीब ही आ लगी हो!
116. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यह सवाल आम तौर से कुफ़्फ़ार और मुनाफ़िक़ किया करते थे और इससे उनका उद्देश्य जानकारी हासिल करना न था, बल्कि वे दिल्लगी और मज़ाक़ के तौर पर यह बात पूछा करते थे। वास्तव में उनको आख़िरत के आने का यक़ीन न था। क़ियामत के आने को वे सिर्फ़ एक ख़ाली-खुली धमकी समझते थे। वे क़ियामत के आने की तारीख़ इसलिए नहीं मालूम करते थे कि उसके आने से पहले वे अपने मामलों को ठीक कर लेने का इरादा रखते हैं, बल्कि उनका असल मक़सद यह होता था ऐ मुहम्मद ! हमने तुम्हें नीचा दिखाने के लिए यह कुछ किया है और आज तक तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सके हो, अब तनिक हमें बताओ तो सही कि आख़िर वह क़ियामत कब आएगी, जब हमारी ख़बर ली जाएगी।
إِنَّ ٱللَّهَ لَعَنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَأَعَدَّ لَهُمۡ سَعِيرًا ۝ 63
(64-65) बहरहाल यह एक निश्चित बात है कि अल्लाह ने विधर्मियों पर लानत की है और उनके लिए भड़कती हुई आग तैयार कर दी है, जिसमें वे सदैव रहेंगे, कोई समर्थक और सहायक न पा सकेंगे।
خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ لَّا يَجِدُونَ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 64
0
يَوۡمَ تُقَلَّبُ وُجُوهُهُمۡ فِي ٱلنَّارِ يَقُولُونَ يَٰلَيۡتَنَآ أَطَعۡنَا ٱللَّهَ وَأَطَعۡنَا ٱلرَّسُولَا۠ ۝ 65
(66) जिस दिन उनके चेहरे आग पर उलट-पलट किए जाएँगे, उस समय वे कहेंगे कि "काश, हमने अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन किया होता।"
وَقَالُواْ رَبَّنَآ إِنَّآ أَطَعۡنَا سَادَتَنَا وَكُبَرَآءَنَا فَأَضَلُّونَا ٱلسَّبِيلَا۠ ۝ 66
(67) और कहेंगे, "ऐ हमारे रब! हमने अपने सरदारों और अपने बड़ों का आज्ञापालन किया और उन्होंने हमें सीधे रास्ते से भटका दिया।
رَبَّنَآ ءَاتِهِمۡ ضِعۡفَيۡنِ مِنَ ٱلۡعَذَابِ وَٱلۡعَنۡهُمۡ لَعۡنٗا كَبِيرٗا ۝ 67
(68) ऐ रब! इनको दोहरा अज़ाब दे और इन पर सख़्त लानत कर।’’117
117. यह विषय क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान हुआ है। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी जगहें देखिए- सूरा-7 आराफ़, आयत 187; सूरा-79 अन-नाज़ियात, आयत 42-46; सूरा-34 सबा, आयत 3-5; सूरा-67 अल-मुल्क, आयत 24-27; सूरा-83 अल-मुतफिफफ़ीन, आयत 10-17; सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 2-33; सूरा-25 अल-फ़ुरक़ान, आयत 27-29%; सूरा-41 हा-मीम अस-सज्दा, आयत 26-29
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ ءَاذَوۡاْ مُوسَىٰ فَبَرَّأَهُ ٱللَّهُ مِمَّا قَالُواْۚ وَكَانَ عِندَ ٱللَّهِ وَجِيهٗا ۝ 68
(69) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो,118 उन लोगों की तरह न बन जाओ जिन्होंने मूसा को तक़लीफ़ें दी थीं, फिर अल्लाह ने उनकी बनाई हुई बातों से उसको मुक्त किया और वह अल्लाह के नज़दीक सम्माननीय था।119
118. यह बात ध्यान में रहे कि कुरआन मजीद में 'ऐ लोगो जो ईमान लाए हो' के शब्दों से कहीं तो सच्चे ईमानवालों को सम्बोधित किया गया है और कहीं मुसलमानों की जमाअत सामूहिक रूप से सम्बोधित है जिसमें मोमिन, मुनाफ़िक़ और कमज़ोर ईमानवाले सभी शामिल हैं और कहीं संबोधन सिर्फ़ मुनाफ़िकों ही से है। मुनाफ़िक़ कमज़ोर ईमानवालों को 'ऐ ईमानवालो!' कहकर जब सम्बोधित किया जाता है तो उससे अभिप्राय उनको शर्म दिलाना होता है कि तुम लोग दावा तो ईमान लाने का करते हो और हरकतें तुम्हारी ये कुछ हैं। प्रसंग तथा संदर्भ पर विचार करने से हर जगह आसानी से मालूम हो जाता है कि किस जगह 'ऐ ईमानवालो से तात्पर्य कौन लोग हैं। यहाँ वार्ता-क्रम साफ़ बता रहा है कि सम्बोधित आम मुसलमान हैं।
119. दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ यह है कि ''ऐ मुसलमानो ! तुम यहूदियों की-सी हरकतें न करो। तुम्हारा रवैया अपने नबी के साथ वह न होना चाहिए जो बनी इसराईल का रवैया मूसा (अलैहि०) के साथ था।" बनी इसराईल स्वयं मानते हैं कि हज़रत मूसा (अलैहि०) उनके सबसे बड़े उपकारी थे। जो कुछ भी यह क़ौम बनी उन्हीं की वजह से बनी, वरना मिस्र में इसका अंजाम हिन्दुस्तान के शूद्रों से भी बुरा होता, लेकिन अपने इस महान उपकारी के साथ उस क्रीम का जो व्यवहार था, उसका अनुमान लगाने के लिए बाइबल की नीचे लिखी जगहों पर केवल एक दृष्टि डाल लेना ही काफ़ी है- किताब निर्गमन, 5:20,21, 14 : 11-12, 16 : 2-3, 17 : 3-4, गिनती, 11:1-15, 14 : 1-10, 16: मुकम्मल, 20:1-5 क़ुरआन मजीद बनी इसराईल को इसी अकृतज्ञता की ओर संकेत करके मुसलमानों को सावधान कर रहा है कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ यह रवैया अपनाने से बचो, वरना फिर उसी अंजाम के लिए तैयार हो जाओ जो यहूदी देख चुके हैं और देख रहे हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَقُولُواْ قَوۡلٗا سَدِيدٗا ۝ 69
(70) ऐ ईमानवालो! अल्लाह से डरो और ठीक बात किया करो।
يُصۡلِحۡ لَكُمۡ أَعۡمَٰلَكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡ ذُنُوبَكُمۡۗ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَقَدۡ فَازَ فَوۡزًا عَظِيمًا ۝ 70
(71) अल्लाह तुम्हारे कार्य ठीक कर देगा और तुम्हारी ग़लतियों को क्षमा कर देगा। जो आदमी अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करे उसने बड़ी सफलता प्राप्त की।
إِنَّا عَرَضۡنَا ٱلۡأَمَانَةَ عَلَى ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱلۡجِبَالِ فَأَبَيۡنَ أَن يَحۡمِلۡنَهَا وَأَشۡفَقۡنَ مِنۡهَا وَحَمَلَهَا ٱلۡإِنسَٰنُۖ إِنَّهُۥ كَانَ ظَلُومٗا جَهُولٗا ۝ 71
(72) हमने इस अमानत को आसमानों और ज़मीन और पहाड़ों के सामने पेश किया, तो वे उसे उठाने के लिए तैयार न हुए और उससे डर गए, मगर इंसान ने उसे उठा लिया। बेशक वह बड़ा ज़ालिम और जाहिल है।120
120. इस जगह 'अमानत' से तात्पर्य वही 'खिलाफ़त' है, जो क़ुरआन मजीद के अनुसार इंसान को ज़मीन में दी गई है। [खिलाफ़त के बारे में व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 अल-बकरा, टिप्पणी 38] यह अमानत कितनी महत्त्वपूर्ण और भारी है, इसे बताने के लिए अल्लाह ने बताया है कि आसमान व ज़मीन अपनी सारी विस्तीर्णता के बावजूद और पहाड़ अपनी जबरदस्त लम्बाई-चौड़ाई और मज़बूती के बावजूद उसके उठाने की शक्ति और साहस न रखते थे, मगर कमज़ोर बुनियादवाले इंसान ने अपनी ज़रा-सी जान पर यह भारी बोझ उठा लिया है। जमीन व आसमान के सामने अमानत के इस बोझ का पेश किया जाना और उनका उसे उठाने से इंकार करना और डर जाना हो सकता है कि शाब्दिक अर्थ में हो, और यह भी हो सकता है कि यह बात लाक्षणिक भाषा में कही गई हो। अल्लाह का अपनी सृष्टि के साथ जो ताल्लुक़ है उसे न हम जान सकते हैं, न समझ सकते हैं। ज़मीन और सूरज और चाँद और पहाड़ जिस तरह हमारे लिए गूंगे, बहरे और बे-जान हैं, जरूरी नहीं है कि अल्लाह के लिए भी वैसे ही हों। इसी लिए यह बिल्कुल संभव है कि वास्तव में अल्लाह ने उनके सामने यह भारी बोझ पेश किया हो और वे उसे देखकर काँप उठे हों और उसके उठाने का साहस न किया हो। इसी तरह यह भी बिल्कुल संभव है कि हमारे वर्तमान जीवन से पहले पूरी मानव-जाति को अल्लाह ने किसी और प्रकार का अस्तित्त्व देकर अपने सामने हाज़िर किया हो और उसने इन अधिकारों को सँभालने पर स्वयं तत्परता दिखाई हो। इस बात को असंभव बताने के लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। अलबत्ता यह बात भी उतनी ही संभव है कि अल्लाह ने यह बात सिर्फ़ उदाहरण के रूप में कही हो कि और मामले के असाधारण महत्त्व का आभास कराने के लिए इस तरह का चित्र प्रस्तुत किया गया हो कि मानो एक ओर ज़मीन और आसमान और हिमालय जैसे पहाड़ खड़े हैं और दूसरी ओर 5-6 फिट का इंसान खड़ा हुआ है। अल्लाह ['सबके सामने यह सवाल रखता है कि बताओ, तुममें से कौन मेरी इस अमानत के उठाने और मेरी ख़िलाफ़त की परीक्षा-स्थली में उतरने को तैयार है? यह बात सुनकर] एक से एक बढ़कर भारी-भरकम डील-डौल्वाली सृष्टि घुटने टेककर निवेदन करती चली जाती है कि उसे इस कड़ी परीक्षा में साफ़ रखा जाए। अन्ततः यह हड्डियों का ढाँचा उठाता है और कहता है कि ऐ मेरे रब! मैं यह परीक्षा देने के लिए तैयार हूँ। इस परीक्षा को पास करके तेरे राज्‍य का सबसे ऊँचा पद प्राप्‍त कर लेने की जो आशा है, उसके कारण मैं इन सब ख़तरों को झेल जाऊँगा जो इस आज़ादी और स्वतंत्रता में छिपे हुए हैं। यह चित्र अपनी कल्पना की आँखों के सामने लाकर ही एक आदमी अच्छी तरह अनुमान लगा सकता है कि वह सृष्टि में किस नाज़ुक जगह पर खड़ा हुआ है। अब जो आदमी इस परीक्षा-स्थल में निश्चित बनकर रहता है और कोई एहसास नहीं रखता कि वह कितनी बड़ी ज़िम्‍मेदारी का बोझ उठाए हुए है, इसी को अल्‍लाह इस आयत में 'जलूम व जहूल' (ज़ालिम और जाहिल) क़रार दे रहा है। वह जहूल (मूर्ख) है क्‍योंकि अमानत के इस बोझ को उठाकर भी अपना दायित्‍त्‍व नहीं समझता और वह मज़लूम है, क्‍योंकि ख़ियानत करके अपने ऊपर आप ज़ुल्‍म करता है।
لِّيُعَذِّبَ ٱللَّهُ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡمُشۡرِكِينَ وَٱلۡمُشۡرِكَٰتِ وَيَتُوبَ ٱللَّهُ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمَۢا ۝ 72
(73) (अमानत के इस बोझ को उठाने का ज़रूरी नतीजा यह है) ताकि अल्लाह मुनाफ़िक मर्दो और औरतों और मुशरिक मर्दो और औरतों को सज़ा दे और ईमानवाले मदों और ईमानवाली औरतों की तौबा क़बूल करे। अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।