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سُورَةُ العَنكَبُوتِ

29. अल-अन‌्कबूत 

(मवका में उतरी-आयातें 69)

परिचय

नाम

आयत 41 में आए शब्द 'जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर दूसरे संरक्षक बना लिए है उनकी मिसाल मकड़ी (अन‌्कबूत) जैसी है' से लिया गया है। अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अन‌्कबूत' आया है।

उतरने का समय

आयत 56 से 60 तक साफ़ मालूम होता है कि यह सूरा हबशा की हिजरत से कुछ पहले उतरी थी। शेष विषयों की आन्तरिक गवाही भी इसी की पुष्टि करती है, क्योंकि पृष्ठभूमि में उसी समय के हालात झलकते नज़र आते हैं।

विषय और वार्ताएँ

सूरा को पढ़ते हुए महसूस होता है कि इसके उतरने का समय मक्का मुअज़्ज़मा में मुसलमानों पर बड़ी मुसीबतों और परेशानियों का समय था। [उस समय] अल्लाह ने यह सूरा एक ओर सच्चे ईमानवाले लोगों में संकल्प, हौसला और धैर्य पैदा करने के लिए और दूसरी ओर कमज़ोर ईमानवाले लोगों को शर्म दिलाने के लिए उतारी। इसके साथ मक्का के विधर्मियों को भी इसमें (सत्य-विरोध के अंजाम के बारे में) कठोर धमकी दी गई है। इस सिलसिले में उन सवालों का जवाब भी दिया गया है जिनका कुछ मुस्लिम नौजवानों को उस समय सामना करना पड़ रहा था। जैसे उनके माँ-बाप उनपर ज़ोर डालते थे कि हमारे दीन पर क़ायम रहो। जिस क़ुरआन पर तुम ईमान लाए हो, उसमें भी तो यही लिखा है कि माँ-बाप का हक़ सबसे ज़्यादा है, तो जो कुछ हम कहते हैं उसे मानो, वरना स्वयं अपने ही ईमान के विरुद्ध काम करोगे। इसका उत्तर आयत 8 में दिया गया है। इसी तरह कुछ नव-मुस्लिमों से उनके क़बीले के लोग कहते थे कि अज़ाब-सवाब हमारी गर्दन पर, तुम हमारा कहना मानो और इस आदमी से अलग हो जाओ। [अल्लाह के यहाँ इसके उत्तरदायी हम होंगे।] इसका जवाब आयत 12-13 में दिया गया है। जो क़िस्से इस सूरा में बयान किए गए हैं उनमें भी अधिकतर यही पहलू उभरा हुआ है कि पिछले नबियों को देखो, कैसी-कैसी सख़्तियाँ उनपर गुज़रीं और कितनी-कितनी मुद्दत वे सताए गए। फिर अन्तत: अल्लाह की ओर से उनकी मदद हुई, इसलिए घबराओ नहीं, अल्लाह की मदद ज़रूर आएगी, मगर आज़माइश का एक दौर गुज़रना बहुत ज़रूरी है। फिर मुसलमानों को निर्देश दिया गया कि अगर ज़ुल्मो-सितम तुम्हारे लिए असह्य हो जाए, तो ईमान छोड़ने के बजाय घर-बार छोड़कर निकल जाओ। अल्लाह की ज़मीन बहुत बड़ी है। जहाँ अल्लाह की बन्दगी कर सको, वहाँ चले जाओ। इन सब बातों के साथ विधर्मियों को समझाने का पहलू भी छूटने नहीं पाया है, बल्कि तौहीद और आख़िरत दोनों सच्चाइयों को प्रमाणों के साथ उनके मन में बिठाने की कोशिश की गई है।

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سُورَةُ العَنكَبُوتِ
29. अल-अन्कबूत
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़० लाम० मीम० ।
أَحَسِبَ ٱلنَّاسُ أَن يُتۡرَكُوٓاْ أَن يَقُولُوٓاْ ءَامَنَّا وَهُمۡ لَا يُفۡتَنُونَ ۝ 1
(2) क्या लोगों ने यह समझ रखा है कि वे बस इतना कहने पर छोड़ दिए जाएँगे कि “हम ईमान लाए" और उनको आज़माया न जाएगा?1
1. जिन परिस्थितियों में यह बात कही गयी है, वे ये थी कि मक्का मुअज्जमा में जो आदमी भी इस्लाम अपनाता था उसपर आफ़तों, मुसीबतों और ज़ुल्मों का एक तूफ़ान टूट पड़ता था। [इस स्थिति] ने मक्का में एक बड़े भय और आतंक का वातावरण पैदा कर दिया था जिसकी वजह से बहुत-से लोग तो नबी (सल्ल०) की सच्चाई को मान लेने के बावजूद ईमान लाते हुए डरते थे। और कुछ लोग ईमान लाने के बाद जब दर्दनाक पीड़ाओं से दो-चार होते तो हतोत्साहित होकर शत्रुओं के आगे घुटने टेक देते थे। इन परिस्थितियों ने यद्यपि सहाबा के संकल्प और दृढ़ता में कोई अस्थिरता न पैदा की थी, लेकिन मानव-प्रकृति के तकाज़े से प्रायः उनपर भी एक सख्त बेचैनी को हालत पैदा हो जाती थी। बेचैन की इस स्थिति को ठंडी सहनशीलता और धैर्य में परिवर्तित करने के लिए अल्लाह ईमानवालों को समझाता है कि हमारे जो वादे दुनिया और आखिरत की सफलताओं के लिए हैं, कोई आदमी मात्र ईमान का मौखिक दावा करके इनका अधिकारी नहीं बन सकता, बल्कि हर दावेदार को अनिवार्य रूप से आज़माइशों की भट्ठी से गुज़रना होगा, ताकि वह अपने दावे की सच्चाई का प्रमाण दे । [और व्याख्या के लिए देखिए सूरा-2 बक़रा, आयत 214, सूरा-3 आले इमरान, आयत 142 और 179, सूरा-9 तौबा, आयत 16, सूरा-47 मुहम्मद, आयत 31 टिप्पणी सहित]
وَلَقَدۡ فَتَنَّا ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ فَلَيَعۡلَمَنَّ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ صَدَقُواْ وَلَيَعۡلَمَنَّ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 2
(3) हालाँकि हम उन सब लोगों की आज़माइश कर चुके हैं जो इनसे पहले गुज़रे हैं।2 अल्लाह को तो ज़रूर यह देखना है3 कि सच्चे कौन हैं और झूठे कौन ।
2. अर्थात् इतिहास में हमेशा यही हुआ है कि जिसने भी ईमान का दावा किया है उसे आज़माइशों की भट्ठी में डालकर अवश्य ही तपाया गया है, और जब दूसरों को परीक्षा के बिना कुछ नहीं दिया गया तो तुम्हारी क्या विशेषता है कि तुम्हें सिर्फ ज़बानी दावे पर दे दिया जाए।
3. मूल शब्द "फ़-ल-यअ-ल मन्नल्लाहु " है जिनका शाब्दिक अर्थ है "ज़रूर है अल्लाह यह मालूम करें" इस पर एक आदमी यह सवाल कर सकता है कि अल्लाह को तो सच्चे की सच्चाई और झूठे का झूठ स्वयं ही मालूम है, परीक्षा लेकर के उसे मालूम करने की क्या ज़रूरत है? इसका जवाब यह है कि जब तक एक आदमी के भीतर किसी चीज़ की केवल क्षमता और योग्यता ही होती है, व्यावहारिक रूप से वह प्रकट नहीं हो जाता, उस समय तक न्याय की दृष्टि से न तो वह किसी इनाम का अधिकारी हो सकता है, न सज़ा का । [इसलिए] अल्लाह के यहाँ न्याय इस ज्ञान के आधार पर नहीं होता कि फलाँ आदमी चोरी का रुझान रखता है और चोरी करेगा या करनेवाला है, बल्कि इस ज्ञान के आधार पर होता है कि उस आदमी ने चोरी कर डाली है। इसी तरह बख्रिशश और पुरस्कार भी उसके यहाँ इस ज्ञान के आधार पर नहीं दिए जाते कि फला आदमी उच्च श्रेणी का मोमिन और मुजाहिद बन सकता है या बनेगा, बल्कि इस ज्ञान के आधार पर दिए जाते हैं कि फला आदमी ने अपने कर्म से साबित कर दिया है कि अपने ईमान में सच्चा है और अल्लाह की राह में जान लड़ाकर दिखा दिया है। इसी लिए हमने आयत के इन शब्दों का अनुवाद "अल्लाह को तो ज़रूर यह देखना है" किया है।
أَمۡ حَسِبَ ٱلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ أَن يَسۡبِقُونَاۚ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 3
(4) और क्या वे लोग जो बुरी हरकतें कर रहे हैं4, यह समझे बैठे हैं कि वे हमसे बाज़ी ले जाएँगे?5 बड़ा ग़लत हुक्म है जो वे लगा रहे हैं।
4. यहाँ मुख्य रूप से वार्ता क़ुरैश के उन ज़ालिम सरदारों से की जा रही है जो इस्लाम क़ुबूल करनेवालों को पीड़ा देने में उस वक़्त बहुत आगे-आगे थे और इस्लाम की दावत को क्षति पहुँचाने के लिए बुरे से बुरे हथकंडे प्रयोग कर रहे थे, जैसे वलीद बिन मुग़ीरह, अबू जहल, उत्बा, शैबा, उकबा बिन अबी मुऐत और हंजला बिन वाइल आदि।
5. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि जो कुछ हम करना चाहते हैं, (अर्थात् अपने रसूल की मिशन की सफलता) वह तो न हो सके और जो कुछ ये चाहते हैं (अर्थात् हमारे रसूल को नीचा दिखाना) वह हो जाए। दूसरा यह कि हम इमकी ज़्यादतियों पर इन्हें पकड़ना चाहते हों और ये भागकर हमारी पकड़ से दूर निकल जाएं।
مَن كَانَ يَرۡجُواْ لِقَآءَ ٱللَّهِ فَإِنَّ أَجَلَ ٱللَّهِ لَأٓتٖۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 4
(5) जो कोई अल्लाह से मिलने की आशा रखता हो, (उसे मालूम होना चाहिए कि) अल्लाह का निर्धारित समय आने ही वाला है6 और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।7
6. अर्थात् जो आदमी आख़िरत की जिंदगी को मानता हो न हो वह तो निश्चिन्त होकर जो कुछ चाहे करता रहे, लेकिन जो लोग यह आशा रखते हैं कि एक समय हमें अपने प्रभु के सामने हाज़िर होना है, उन्हें इस भ्रम में न रहना चाहिए कि मौत का समय कुछ बहुत दूर है। उनको तो यह समझना चाहिए कि वह बस क़रीब ही आ लगा है और कर्म की मोहलत समाप्त हुआ ही चाहती है। इसलिए जो कुछ भी वे अपने अंजाम की भलाई के लिए कर सकते हों, कर लें।
7. अर्थात् उनको इस भ्रम में भी न रहना चाहिए कि उनका मामला किसी ख़बर न रखनेवाली चीज़ से है। जिस अल्लाह के सामने उन्हें जवाबदेही के लिए हाज़िर होना है, वह बे-खबर नहीं है, बल्कि सुननेवाला और जाननेवाला प्रभु है। उनकी कोई बात भी उससे छिपी हुई नहीं है।
وَمَن جَٰهَدَ فَإِنَّمَا يُجَٰهِدُ لِنَفۡسِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَغَنِيٌّ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 5
(6) जो आदमी भी 'मुजाहिदा'(अथक परिश्रम) करेगा, अपने ही भले के लिए करेगा।8 अल्लाह निश्चय ही जहानवालों से निस्पृह है।9
8. मूल शब्द “मुजाहदा" प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ यानी किसी विरोधी शक्ति के मुकाबले में संघर्ष और अथक परिश्रम करना है, और जब किसी विशेष विरोधी शक्ति की निशानदेही न की जाए, बल्कि सिर्फ़ 'मुजाहदा' का शब्द इस्तेमाल किया जाए तो इसका अर्थ यह है कि यह एक सर्वव्यापी और चहुंमुखी संघर्ष है। मोमिन को इस दुनिया में जो संघर्ष करना है उसकी शक्ल यही कुछ है। उसे शैतान से भी लड़ना है, अपने मन से भी लड़ना है। [सत्य के इंकारी सारे इंसानों से भी संघर्ष करना है] और उस शासन से भी कि संघर्ष करना है जो अल्लाह के आज्ञापालन से स्वतंत्र होकर अपना फ़रमान चलाए । यह मुजाहदा एक दिन दो दिन का नहीं, उम्र भर का है, और किसी एक मैदान में नहीं, जिंदगी के हर पहलू में हर मोर्चे पर है।
9. अर्थात् अल्लाह इस 'मुजाहदे की माँग तुमसे इसलिए नहीं कर रहा है कि अपना प्रभुत्व स्थापित करने और स्थापित रखने के लिए उसे तुम्हारी किसी सहायता की ज़रूरत है और तुम्हारी इस लड़ाई के बिना उसका न चलेगा, बल्कि वह इसलिए तुम्हें इस संघर्ष में पड़ने की हिदायत करता है कि यह तुम्हारे अपनी नैतिक और आध्यात्मिक विकास का साधन है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَنُكَفِّرَنَّ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَنَجۡزِيَنَّهُمۡ أَحۡسَنَ ٱلَّذِي كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 6
(7) और जो लोग ईमान लाएँगे और भले कर्म करेंगे, उनकी बुराइयाँ हम उनसे दूर कर देंगे और उन्हें उनके उत्तम कर्मों का बदला देंगे।10
10. ईमान से तात्पर्य उन तमाम चीजों को सच्चे दिल से मानना है जिने मानने की दावत अल्लाह के रसूल और उसकी किताब ने दी है, और भले कर्म से तात्पर्य अल्लाह और उसके रसूल की हिदायत के मुताबिक अमल करना है, दिल व दिमाग़ |से भी, ज़बान से भी और अपने अंग-प्रत्यंग से भी। इस ईमान और भले कर्म के दो परिणाम बताए गए हैं-एक यह कि आदमी की बुराइयाँ उससे दूर कर दी जाएंगी। दूसरा यह कि उसे उसके उत्तम कमों की, और उसके कर्मों से बेहतर बदला दिया जाएगा। बुराइयाँ दूर करने से तात्पर्य कई चीज़े हैं एक यह कि ईमान लाने से पहले [के सब गुनाह] माफ़ हो जाएंगे। दूसरे यह कि [मोमिन से जो इंसानी कमज़ोरियाँ हो जाती हैं] उनसे दरगुज़र किया जाएगा। तीसरे यह कि [इसके नतीजे में] आदमी के मन का सुधार आपसे आप होगा और उसकी बहुत-सी कमज़ोरियाँ दूर हो जाएंगी। ईमान और भले कर्म के बदले के बारे में जो बात कही गई है, वह है-ल नजज़ियन्नहुम अह-स-नल्लज़ी कानू यअमलून । इसके अर्थ हैं- एक यह कि आदमी के भले कर्मों में से जो कर्म सबसे ज़्यादा अच्छे होंगे उनको ध्यान में रखकर उसके लिए जज़ा (पुरस्कार) तय की जाएगी। दूसरे यह कि आदमी अपने कर्म की दृष्टि से जितने बदले का अधिकारी होगा, उससे ज़्यादा अच्छी जज़ा (बदला) उसे दी जाएगी। यह बात दूसरी जगहों पर भी कुरआन में फ़रमाई गई है। [मिसाल के तौर पर देखिए-सूरा-16 अल-अनआम (आयत 160), सूरा-28 कसस (आयत 84) और सूरा-14 निसा (आयत 40)
وَوَصَّيۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ بِوَٰلِدَيۡهِ حُسۡنٗاۖ وَإِن جَٰهَدَاكَ لِتُشۡرِكَ بِي مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٞ فَلَا تُطِعۡهُمَآۚ إِلَيَّ مَرۡجِعُكُمۡ فَأُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 7
(8) हमने इंसान को हिदायत की है कि अपने माँ बाप के साथ भला व्यवहार करे, लेकिन अगर वे तुझपर जोर डालें कि तू मेरे साथ किसी ऐसे (माबूद) के शरीक ठहराए जिसे तू (मेरे शरीक की हैसियत से) नहीं जानता तो उनका पालन न कर।11 मेरी ही ओर तुम सबको पलटकर आना है, फिर मैं तुमको बता दूंगा कि तुम क्या करते रहे हो12
11. मुस्लिम और तिर्मिज़ी आदि की रिवायत है कि यह आयत हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास (रजि०) के बारे में उतरी है। वह 18-19 साल के थे जब उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया। उनकी माँ को जब मालूम हुआ कि बेटा मुसलमान हो गया है तो उसने कहा कि जब तक तू मुहम्मद का इंकार न करेगा, मैं न खाऊँगी, न पिऊँगी, न साए में बैठूगी। माँ का हक़ अदा करना तो अल्लाह का हुक्म है। तू मेरी बात न मानेगा तो अल्लाह को भी अवज्ञा करेगा। हज़रत साद इसपर बहुत परेशान हुए और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सेवा में हाज़िर होकर पूरी बात बताई। इसपर यह आयत उतरी। सम्भव है कि ऐसी ही परिस्थितियों में ग्रस्त अन्य नौजवान भी हुए हों जो मक्का मुअज़्ज़मा के आरंभिक काल में मुसलमान हुए थे। आयत का मंशा यह है कि माँ-बाप के हक़ अपनी जगह पर, मगर उनको यह हक़ नहीं है कि अल्लाह के रास्ते से औलाद को रोकें। [इसलिए| माँ-बाप भी अगर इंसान को शिर्क पर मजबूर करें तो उनकी बात स्वीकार न करनी चाहिए, कहाँ यह कि किसी और के कहने पर आदमी ऐसा करे।
12. अर्थात् यह दुनिया की रिश्तेदारियाँ और उनके हक़ तो बस इसी दुनिया की हद तक हैं। अन्ततः माँ-बाप को भी और औलाद को भी अपने पैदा करनेवाले के पास पलटकर जाना है और वहाँ हर एक की पूछ-ताछ उसकी निजी ज़िम्मेदारी के आधार पर होनी है। अगर माँ बाप ने औलाद को गुमराह किया है तो वे पकड़े जाएंगे आर औलाद ने माँ-बाप के लिए गुमराही क़बूल की है, तो उसे सज़ा मिलेगी।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَنُدۡخِلَنَّهُمۡ فِي ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 8
(9) और जो लोग ईमान लाए होंगे और जिन्होंने भले कर्म किए होंगे, उनको हम ज़रूर अच्छे लोगों में दाख़िल करेंगे।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَقُولُ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ فَإِذَآ أُوذِيَ فِي ٱللَّهِ جَعَلَ فِتۡنَةَ ٱلنَّاسِ كَعَذَابِ ٱللَّهِۖ وَلَئِن جَآءَ نَصۡرٞ مِّن رَّبِّكَ لَيَقُولُنَّ إِنَّا كُنَّا مَعَكُمۡۚ أَوَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِأَعۡلَمَ بِمَا فِي صُدُورِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 9
(10) लोगों में से कोई ऐसा है जो कहता है कि हम ईमान लाए अल्लाह पर13, मगर जब वह अल्लाह के मामले में सताया गया तो उसने लोगों की डाली हुई आजमाइश को अल्लाह के अज़ाब को तरह समझ लिया।14 अब अगर तेरे रब की ओर से विजय व सहायता आ गई तो यही आदमी कहेगा कि “हम तो तुम्हारे साथ15 थे।" क्या दुनियावालों के दिलों का हाल अल्लाह को अच्छी तरह मालूम नहीं है?
13. यद्यपि कहनेवाला एक व्यक्ति है, मगर "मैं ईमान लाया" कहने के बजाए कह रहा है “हम ईमान लाए”। इमाम राज़ी ने इसमें एक सूक्ष्म बात की निशानदेही की है। वे कहते हैं कि मुनाफ़िक़ अपने आपको हमेशा ईमानवालों में गिनाने की कोशिश करता है और अपने ईमान का उल्लेख इस तरह करता है कि मानो वह भी वैसा ही मोमिन है जैसे दूसरे हैं।
14. अर्थात् जिस तरह अल्लाह के अज़ाब से डरकर कुफ्र और गुनाह के काम से बाज़ आना चाहिए, यह आदमी बन्दों को दी हुई पोड़ाओं से डरकर ईमान और नेकी से बाज़ आ गया।
وَلَيَعۡلَمَنَّ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَيَعۡلَمَنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ ۝ 10
(11) और अल्लाह को तो ज़रूर यह देखना ही है कि ईमान लानेवाले कौन है और मुनाफ़िक कौन?16
16. अर्थात् अल्लाह आज़माइश के मौके इसी लिए बार-बार लाता है ताकि ईमानवालों के ईमान और मुनाफ़िकों के कपट का हाल खुल जाए । यही बात सूरा-3 आले इमरान (आयत 179) में भी फ़रमाई गई है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّبِعُواْ سَبِيلَنَا وَلۡنَحۡمِلۡ خَطَٰيَٰكُمۡ وَمَا هُم بِحَٰمِلِينَ مِنۡ خَطَٰيَٰهُم مِّن شَيۡءٍۖ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 11
(12) ये इनकार करनेवाले लोग ईमान लानेवालों से कहते हैं कि “तुम हमारे तरीके की पैरवी करो और तुम्हारी ग़लतियों को हम अपने ऊपर ले लेंगे,17 हालाँकि उनकी ग़लतियों में से कुछ भी वे अपने ऊपर लेनेवाले नहीं हैं,18 वे बिल्कुल झूठ कहते हैं।
17. उनके इस कथन का अर्थ यह था कि एक तो मौत के बाद की जिंदगी और मौत के बाद इकट्ठा किए जाने, और हिसाब-किताब तथा बदला दिए जाने की ये बातें सब ढकोसला हैं, लेकिन अगर मान लीजिए कोई दूसरी जिंदगी है और उसमें कोई पूछ-गच्छ भी होनी है, तो हम ज़िम्मा लेते हैं कि अल्लाह के सामने हम सारा अज़ाब-सबाब अपनी गरदन पर ले लेंगे। तुम हमारे कहने से इस नये दीन को छोड़ दो और अपने बाप-दादा के दीन की ओर वापस आ जाओ।
18. अर्थात् एक तो यही सम्भव नहीं है कि कोई आदमी अल्लाह के यहाँ किसी दूसरे की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ले, लेकिन अगर मान लीजिए ऐसा हो भी तो जिस समय कुफ़ व शिर्क का अंजाम एक धधकती हुई जहन्नम के रूप में सामने आएगा, उस समय कौन [यह कहने का साहस करेगा कि हुजूर ! मेरे कहने से जिस आदमी ने ईमान को छोड़कर विधर्म का रास्ता अपनाया था, आप उसे क्षमा करके जन्नत में भेज दें और मैं जहन्नम में अपने कुफ्र के साथ उसके कुफ़ की सज़ा भी भुगतने के लिए तैयार हूँ।
وَلَيَحۡمِلُنَّ أَثۡقَالَهُمۡ وَأَثۡقَالٗا مَّعَ أَثۡقَالِهِمۡۖ وَلَيُسۡـَٔلُنَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَمَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 12
(13) हाँ, ज़रूर वे अपने बोझ भी उठाएँगे और अपने बोझों के साथ दूसरे बहुत-से बोझ भी।19 और क़ियामत के दिन निश्चय ही उनसे इन मिथ्यारोपणों की पूछ-ताछ होगी, जो वे लगाते रहे हैं।20
19. अर्थात् वे अल्लाह के यहाँ यद्यपि दूसरों का बोझ तो न उठाएँगे, लेकिन दोहरा बोझ उठाने से बचेंगे भी नहीं । एक बोझ स्वयं गुमराह होने का और दूसरा बोझ दूसरों को गुमराह करने या गुमराही पर मजबूर करने का। क़ुरआन मजीद में एक दूसरी जगह पर इस नियम को इन शब्दों में बयान किया गया है, ताकि वे क़ियामत के दिन अपने बोझ भी पूरे-पूरे उठाएँ और उन लोगों के बोझों का भी एक हिस्सा उठाएँ, जिनको वे ज्ञान के बिना गुमराह करते हैं। (सूरा-16 अन-नहल, आयत 25)
20. "मिथ्यारोपणों" से तात्पर्य वे झूठी बातें हैं जो विधर्मियों के इस कथन में छिपी हुई थीं कि "तुम हमारे तरीक़े की पैरवी करो, और तुम्हारी ग़लतियों को हम अपने ऊपर ले लेंगे।" वास्तव में वे लोग दो काल्पनिक बातों के आधार पर यह बात कहते थे- एक यह कि जिस अनेकश्वरवादी धर्म को वे पैरवी कर रहे हैं, वह सत्यपूर्ण है और मुहम्मद (सल्ल०) का एकेश्वरवादी धर्म ग़लत है। दूसरी बात यह थी कि मरने के बाद हिसाब-किताब के लिए नहीं उठाया जाना है। ये काल्पनिक बातें अपने मन में रखने के बाद वे एक मुसलमान से कहते थे कि अच्छा अगर तुम्हारे नज़दीक कुफ़्र करना एक ग़लती ही है और मरने के बाद कोई हिसाब-किताब भी होना है, जिसमें इस ग़लती पर तुमसे पूछ-गच्छ होगी, तो चलो तुम्हारी इस ख़ता को हम अपने सर लेते हैं, तुम हमारी ज़िम्मेदारी पर मुहम्मद (सल्ल०) के दीन को छोड़कर बाप-दादा के दीन में वापस आ जाओ। इस मामले में फिर आगे दो झूठी बातें शामिल थीं- एक उनका यह विचार कि जो आदमी किसी के कहने पर अपराध करे उसकी पूरी ज़िम्मेदारी वह आदमी उठा ले सकता है। दूसरा उनका यह झूठा वादा कि कियामत के दिन वे उनकी ज़िम्मेदारी वास्तव में उठा लेंगे, क्योंकि जब क़ियामत वास्तव में स्थापित हो जाएगी और उनकी आशाओं के विपरीत जहन्नम उनकी आँखों के सामने होगी, उस समय वे कदापि इसके लिए तैयार न होंगे कि अपने कुत की सज़ा भुगतने के साथ उन लोगों के गुनाह का बोझ पूरे का पूरा अपने ऊपर ले लें जिन्हें वे दुनिया में बहकाकर गुमराह करते थे।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَلَبِثَ فِيهِمۡ أَلۡفَ سَنَةٍ إِلَّا خَمۡسِينَ عَامٗا فَأَخَذَهُمُ ٱلطُّوفَانُ وَهُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 13
(14) हमने नूह को उसकी क़ौम की ओर भेजा21 और पचास कम एक हजार वर्ष उनके बीच रहा।22 अन्ततः उन लोगो को तूफ़ान ने आ घेरा इस हाल में कि वे ज़ालिम थे।23
21. तुलना के लिए देखिए सूरा-3 आले इमरान, आयतें 33-34, सूरा-4 अन-निसा 163, सूरा-6 अल-अनआम 84, सूरा-7 अल-आराफ 59-64, सूरा-10 यूनुस 71-73, सूरा-11 हूद 25-48, सूरा-21 अल-अंबिया 76-77, सूरा-23 अल-मोमिनून 23-30, सूरा-25 अल-फुरकान 37, सूरा-26 अश-शुअरा 105-123, सूरा-27 अस-साफ्फात 75-82, सूरा-54 अल कमर 9-15, सूरा-69 अल-हाक्का 11-12, सूरा-71 नूह मुकम्मल।
22. इसका यह अर्थ नहीं है कि हज़रत नूह की उम्र साढ़े नौ सौ साल थी, बल्कि इसका अर्थ यह है कि पैग़म्बरी के पद पर आसीन होने के बाद से तूफ़ान तक पूरे साढ़े नौ सौ वर्ष हज़रत नूह उस ज़ालिम और गुमराह क़ौम को सुधार के लिए प्रयास करते रहे और इतनी लम्बी अवधि तक उनकी ज़्यादतियों को सहन करने पर भी उन्होंने हिम्मत न हारी। यही चीज़ यहाँ बतानी अभीष्ट है। ईमानवालों को बताया जा रहा है कि तुमको तो अभी पांच-सात वर्ष ही अत्याचार सहते गुज़रे हैं। तनिक हमारे इस बन्दे के धैर्य और जमाव और संकल्प और दृढ़ता को देखो जिसने निरंतर साढ़े नौ सदियों तक इन कठिनाइयों का मुक़ाबला किया।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَأَصۡحَٰبَ ٱلسَّفِينَةِ وَجَعَلۡنَٰهَآ ءَايَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 14
(15) फिर नूह को और कश्तीवालों को24 हमने बचा लिया और उसे दुनियावालों के लिए एक शिक्षाप्रद निशानी बनाकर रख दिया।25
24. अर्थात् उन लोगों को जो हज़रत नूह (अलैहि०) पर ईमान लाए थे और जिन्हें कश्ती में सवार होने की अल्लाह ने इजाजत दी थी। सूरा-11 हूद (आयत 40) में इसकी व्याख्या है।
25. इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि नूह की क़ौम पर अज़ाब की इस घटना को बादवालों के लिए शिक्षाप्रद निशानी बना दिया गया। लेकिन यहाँ और सूरा-54 अल-क़मर (आयतें 13-15) में यह बात जिस तरीक़े से बयान फ़रमाई गई है। उससे यही मालूम होता है कि वह शिक्षाप्रद निशानी ख़ुद वह नाव थी जो पहाड़ की चोटी पर सदियों मौजूद रही और बाद की नस्लों को ख़बर देती रही कि इस धरती में कभी ऐसा तूफ़ान आया था जिसकी वजह से यह नाव पहाड़ पर जा टिकी है।
وَإِبۡرَٰهِيمَ إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱتَّقُوهُۖ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 15
(16) और इब्राहीम को भेजा,26 जबकि उसने अपनी क़ौम से कहा, "अल्लाह की बन्दगी करो और उससे डरो।27 यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम जानो ।
26. तुलना के लिए देखो सूरा-2 अल-बकरा, आयत 1-141,258-260, सूरा-3 आले इमरान आयत 65-68, सूरा-6 अल-अनआम आयत 74-30, सूरा-11 हूद आयत 69-76, सूरा-15 इब्राहीम आयत 51-60, सूरा-15 अल-हिज्र आयत 35-41, सूरा-19 मरयम आयत 41-50, सूरा-21 अल-अंबिया आयत 51-73, सूरा-26, अश-शुअरा आयत 69-87,सूरा-37, अस-साफ़्फात आयत 83-113, सूरा-43 अज़-जुख़रुफ़ आयत 26-29, सूरा-51 अज़-जारियात आयत 24-34।
27. अर्थात् उसके साथ शिर्क और उसकी नाफरमानी करने से डरो।
إِنَّمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡثَٰنٗا وَتَخۡلُقُونَ إِفۡكًاۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَمۡلِكُونَ لَكُمۡ رِزۡقٗا فَٱبۡتَغُواْ عِندَ ٱللَّهِ ٱلرِّزۡقَ وَٱعۡبُدُوهُ وَٱشۡكُرُواْ لَهُۥٓۖ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 16
(17) तुम अल्लाह को छोड़कर जिन्हें पूज रहे हो, वे तो सिर्फ़ बुत हैं और तुम एक झूठ गढ़ रहे हो।28 वास्तव में अल्लाह के सिवा जिनको तुम पूजा करते हो, वे तुम्हें कोई रोज़ी भी देने का अधिकार नहीं रखते। अल्लाह से रोज़ी माँगो और उसी की बन्दगी करो और उसका शुक्र अदा करो, उसी की ओर तुम पलटाए जानेवाले हो।29
28. अर्थात् तुम यह बुत नहीं गढ़ रहे हो, बल्कि एक झूठ गढ़ रहे हो। इन बुतों का अस्तित्व ख़ुद एक झूठ है और [इनके बारे में तुम्हारे जो अक़ीदे हैं, वे सब] झूठी बातें हैं जो तुम लोगों ने अपने मन से गढ़ ली हैं।
29. इन कुछ वाक्यो में हज़रत इबाहीम ने बुतपरस्ती के विरूद तमाम उचित तर्क समेटकर रख दिए हैं। किसी को उपास्य बनाने के लिए अवश्य हो कोई उचित कारण होना चाहिए। एक उचित कारण यह हो सकता है कि वह अपनी ज़ात में उपास्य होने का कोई अधिकार रखता हो। दूसरा कारण यह हो सकता है कि वह आदमी का पैदा करनेवाला हो। तीसरा कारण यह हो सकता है कि वह आदमी की परवरिश का सामान करता हो। चौथा कारण यह हो सकता है कि आदमी का भविष्य उसकी मेहरबानियों से जुड़ा हो । हज़रत इब्राहीम ने फ़रमाया कि इन चारों कारणों में से कोई कारण भी बुतपरस्ती के पक्ष में नहीं है, बल्कि हर एक विशुद्ध खुदापरस्ती का तकाज़ा करती है। ये सिर्फ़ बुत हैं" कहकर उन्होंने पहले कारण को ख़त्म कर दिया। फिर यह कहकर कि, “तुम इनको पैदा करनेवाले हो" दूसरा कारण भी खत्म कर दिया। इसके बाद तीसरा कारण यह कहकर कर समाप्त किया कि वे तुम्हें किसी भी किस्म की कुछ भी रोज़ी नहीं दे सकते। और आखिरी बात यह कहा फरमायो कि तुम्हें पलटना तो अल्लाह को ओर है, न कि इन बुतों की ओर, इसलिए तुम्हारा अंजाम और तुम्हारी आक़बत संवारना या बिगाड़ना भी इनके अधिकार में नहीं, सिर्फ़ अल्लाह के इख़्त‍ियार में है।
وَإِن تُكَذِّبُواْ فَقَدۡ كَذَّبَ أُمَمٞ مِّن قَبۡلِكُمۡۖ وَمَا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 17
(18) और अगर तुम झुठलाते हो तो तुमसे पहले बहुत-सी कौमें झुठला चुकी हैं,30 और रसूल पर साफ़-साफ़ पैशाम पहुँचा देने के सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
30. अर्थात् अगर तुम तौहीद को मेरी दावत को और इस खबर को कि तुम्हें अपने रब की ओर पलटना और अपने कर्मों का हिसाब देना है झुठलाते हो, तो यह कोई नयी बात नहीं है। इतिहास में इसे पहले भी बहुत-से नबी (जैसे नूह, हूद, सालेह अलैहिमुस्सलाम वगैरह) यही शिक्षा लेकर आ चुके हैं और उनकी क़ौमों ने भी उनको इसी तरह झुठलाया है। अब तुम स्वयं देख लो कि उन्होंने झुठलाकर इन नबियों का कुछ बिगाड़ा या अपना अंजाम ख़राब किया।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ كَيۡفَ يُبۡدِئُ ٱللَّهُ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥٓۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 18
(19) क्या31 इन लोगों ने कभी देखा ही नहीं है कि किस तरह अल्लाह पैदाइश की शुरूआत करता है, फिर उसको दोहराता है? निश्चय ही यह (दोहराना तो) अल्लाह के लिए सबसे आसान है।32
31. यहाँ से "उनके लिए दर्दनाक सज़ा है" तक संदर्भ से हटकर बीच में आया हुआ एक वाक्य है, जो हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के किस्से का क्रम तोड़कर अल्लाह ने मक्का के विधर्मियों को सम्बोधित करके इर्शाद फ़रमाया है। इस बीच में आए वार्ता की अनुकूलता यह है कि मक्का के कुफ़्फ़ार (विधर्मी), जिन्हें शिक्षा देने के लिए यह किस्सा सुनाया जा रहा है, दो बुनियादी गुमराहियों में पड़े हुए थे। एक शिर्क व बुतपरस्ती, दूसरे आख़िरत का इंकार। इनमें से पहली गुमराही का रह हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के उस भाषण में आ चुका है जो ऊपर नक़ल किया गया है। अब दूसरी गुमराही के रह में ये कुछ वाक्य अल्लाह अपनी ओर से इर्शाद फ़रमा रहा है, ताकि दोनों का खंडन एक ही वार्ता क्रम में हो जाए।
32. अर्थात् एक ओर अनगिनत चीजें अनस्तित्व से अस्तित्त्व में आती हैं और दूसरी ओर हर प्रकार के लोगों के मिटने के साथ फिर वैसे ही लोग अस्तित्व में आते चले जाते हैं। मुश्कि इस बात को मानते थे कि यह सब कुछ उस गुण का परिणाम है जो अल्लाह के पैदा करने और ईजाद करने से संबंधित है इसलिए उनको अपनी मानो हुई बात पर यह तर्क दिया गया है कि जो अल्लाह तुम्हारे नज़दीक चीज़ों को अनस्तित्व से अस्तित्व में ले आता है और [इनके मिट जाने के बाद] फिर वैसी ही चोजें बार-बार वुजूद में लाता चला जाता है, उसके बारे में आख़िर तुमने यह क्यों समझ रखा है कि तुम्हारे मर जाने के बाद वह फिर तुम्हें दोबारा जिंदा करके उठा खड़ा नहीं कर सकता। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-27 नम्ल, टिप्पणी 80)
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ بَدَأَ ٱلۡخَلۡقَۚ ثُمَّ ٱللَّهُ يُنشِئُ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأٓخِرَةَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 19
(20) इनसे कहो कि ज़मीन में चलो-फिरो और देखो कि उसने किस तरह ख़ल्क़ की शुरुआत की है, फिर अल्लाह दोबारा भी ज़िंदगी बख़्शेगा। निश्चय ही अल्लाह हर चीज़ का सामर्थ्य रखता हैं,33
33. अर्थात् जब अल्लाह की कारीगरी से पहली बार पैदा किए जाने को तुम देख रहे हो तो तुम्हें समझना चाहिए कि उसी अल्लाह की कारीगरी से दूसरी बार भी पैदाइश होगी। ऐसा करना उसके सामर्थ्य से बाहर नहीं है और न हो सकता है।
يُعَذِّبُ مَن يَشَآءُ وَيَرۡحَمُ مَن يَشَآءُۖ وَإِلَيۡهِ تُقۡلَبُونَ ۝ 20
(21) जिसे चाहे सज़ा दे और जिस पर चाहे दया करे। उसी की ओर तुम फेरे जानेवाले हो।
وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِۖ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 21
(22) तुम न जमीन में विवश करनेवाले हो, न आसमान में,34 और अल्लाह से बचानेवाला कोई अभिभावक और सहायक तुम्हारे लिए नहीं है।35
34. अर्थात् तुम किसी ऐसी जगह भागकर नहीं जा सकते जहाँ अल्लाह की पकड़ से बच निकलो, भले ही तुम ज़मीन की तहों में कहीं उतर जाओ या आसमान की ऊँचाइयों में पहुँच जाओ। यही बात सूरा-55 रहमान (आयत 33) में जिन्नों और इंसानों को सम्बोधित करते हुए चुनौती के अन्दाज़ में फ़रमाई गयी है।
35. अर्थात् न तुम्हारा अपना जोर इतना है कि ख़ुदाई की पकड़ से बच जाओ, और न तुम्हारा कोई वली व अभिभावक या सहायक ऐसा ज़ोरआवर है कि अल्लाह के मुक़ाबले में तुम्हें पनाह दे सके और उसकी पकड़ से तुम्हें बचा ले।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَلِقَآئِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ يَئِسُواْ مِن رَّحۡمَتِي وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 22
(23) जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों का और उससे मुलाक़ात का इंकार किया है, वे मेरी रहमत से निराश हो चुके है36 और उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
36. अर्थात् उनका कोई हिस्सा मेरी रहमत में नहीं है। उनके लिए कोई गुंजाइश इस बात की नहीं है कि वे मेरी रहमत में से हिस्सा पाने की आशा रख सकें। स्पष्ट बात है कि जब उन्होंने अल्लाह की आयतों को मानने से इंकार किया तो स्वत: उन वादों से फायदा उठाने के हक़ से भी उन्होंने हाथ खींच लिए जो अल्लाह ने ईमान लानेवालों से किए हैं। फिर जब उन्होंने आखिरत का इंकार किया, और यह माना ही नहीं कि उन्हें कभी अपने अल्लाह के सामने पेश होना है तो इसका अर्थ यह है कि उन्होंने अल्लाह की बख़्श‍िश व क्षमा के साथ उम्मीद का कोई रिश्ता सिरे से जोड़ा ही नहीं है। ऐसी हालत में कोई कारण नहीं कि वे अल्लाह की रहमत में से कोई हिस्सा पाने के उम्मीदवार हो सकें।
فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُواْ ٱقۡتُلُوهُ أَوۡ حَرِّقُوهُ فَأَنجَىٰهُ ٱللَّهُ مِنَ ٱلنَّارِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 23
(24) फिर 37 इबाहीम की क़ौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि उन्होंने कहा, “क़त्ल कर दो इसे या जला डालो इसको।"38 अन्तत: अल्लाह ने उसे आग से बचा लिया,39 निश्चय ही इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लानेवाले हैं।40
37. यहाँ से फिर वार्ता क्रम हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के क़िस्से की ओर मुड़ता है।
38. अर्थात् हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के उचित तर्कों का कोई जवाब उनके पास न था। उनका जवाब अगर था तो यह कि काट दो उस ज़बान को जो हक़ बात कहती है और जीने न दो उस आदमी को जो हमारी ग़लती हमें बताता है और हमें उससे बाज़ आने के लिए कहता है ।
وَقَالَ إِنَّمَا ٱتَّخَذۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡثَٰنٗا مَّوَدَّةَ بَيۡنِكُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ ثُمَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكۡفُرُ بَعۡضُكُم بِبَعۡضٖ وَيَلۡعَنُ بَعۡضُكُم بَعۡضٗا وَمَأۡوَىٰكُمُ ٱلنَّارُ وَمَا لَكُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 24
(25) और उसने कहा41, "तुमने दुनिया की ज़िंदगी में तो अल्लाह को छोड़कर बुतों को अपने बीच मुहब्बत का ज़रीया बना लिया है42, मगर क़ियामत के दिन तुम एक दूसरे का इंकार और एक-दूसरे पर लानत करोगे43 और आग तुम्हारा ठिकाना होगी और कोई तुम्हारा सहायक न होगा।"
41. वार्ता-क्रम से अभिलक्षित होता है कि यह बात आग से सकुशल निकल आने के बाद हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) ने लोगों से कही होगी।
42. अर्थात् तुमने ख़ुदापरस्ती के बजाय बुतपरस्ती के आधार पर अपनी सामूहिक जीवन का निर्माण कर लिया है, जो सांसारिक जीवन के हद तक तुम्हें एक क़ौमी सूत्र में बाँध सकती है, इसलिए कि यहाँ किसी अक़ीदे पर भी लोग जमा हो सकते हैं, भले ही सत्य हो या असत्य । और हर सहमति और एकत्र होने, चाहे वह कैसे ही ग़लत अक़ीदे पर हो, आपसी दोस्तियों, रिश्तेदारियों, बिरादरियों और दूसरे तमाम धार्मिक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताल्लुकात के क़ायम होने का साधन बन सकता है ।
۞فَـَٔامَنَ لَهُۥ لُوطٞۘ وَقَالَ إِنِّي مُهَاجِرٌ إِلَىٰ رَبِّيٓۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 25
(26) उस समय लूत ने उसको माना।44 और इबाहीम ने कहा, "मैं अपने रब की ओर हिजरत करता हूँ,45 वह ज़बरदस्त है और तत्त्वदशी है।"46
44. वार्ता-क्रम से स्पष्ट होता है कि जब हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) आग से निकल आए और उन्होंने ऊपर के वाक्य कहे, उस समय सारे ममे में सिर्फ एक हज़रत लूत (अलैहि०) थे, जिन्होंने आगे बढ़कर उनको मानने और उनको पैरवी अपनाने का एलान किया। यहां एक आदमी सवाल कर सकता है कि क्या इस घटना से पहले हज़रत लूत (अलैहि०) विधर्मों और बहुदेववादो थे और आग से हज़रत इबाहीम (अलैहि०) को सलामती के साथ निकल आने का मोजज़ा देखने के बाद उन्हें ईमान की नेमत मिलो? अगर यह बात है तो नुबूवत के पद पर कोई ऐसा आदमी भी नियुक्त हो सकता है जो पहले मुशिक रह चुका हो? इसका जवाब यह है कि कुरआन ने यहाँ “फ़-आ-म-न लहू लूत के शब्द प्रयोग किए हैं जिनसे यह अनिवार्य नहीं है कि इससे पहले हज़रत लूत जगत स्वामी को न मानते हों या उसके साथ दूसरे उपास्यों को शरीक करते हो बल्कि उनसे सिर्फ़ यह प्रकट होता है कि इस घटना के बाद उन्होंने हज़रत इबाहोम (अलैहि०) की रिसालत की पुष्टि की और उनकी पैरवी अपना लो । व्याकरण के अनुसार शब्द अरबी 'ईमान' के साथ जब समुच्चय-बोधक अक्षर 'लाम' आता है तब इसका अर्थ किसी आदमी की बात मानने और उसका पालन करने के होते हैं। सम्भव है हज़रत लूत उस समय एक नव उम्र लड़के ही हों और अपने होश में उनको पहली बार उस मौके पर ही अपने चचा की इस शिक्षा को जानने और उनको रिसालत से आगाह होने का मौक़ा मिला हो।
45. अर्थात् अपने रब के लिए देश छोड़कर निकलता हूँ। अब जहाँ मेरा रब ले जाएगा, वहाँ चला जाऊंगा।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَجَعَلۡنَا فِي ذُرِّيَّتِهِ ٱلنُّبُوَّةَ وَٱلۡكِتَٰبَ وَءَاتَيۡنَٰهُ أَجۡرَهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَإِنَّهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ لَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 26
(27) और हमने उसे इसहाक और याक़ूब (जैसी सन्तान) दी47 और उसकी नस्ल में नुबूवत और किताब रख दी48 और उसे दुनिया में उसका बदला दिया और आखिरत में वह निश्चित रूप से भले लोगों में से होगा।49
47. हज़रत इसहाक बेटे (अलैहि०) थे और हज़रत याकूब (अलैहि०) पोते। यहाँ हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के दूसरे बेटों का उल्लेख इसलिए नहीं किया गया है कि इबाहीम (अलैहि०) की औलाद को मदयानी शाखा में सिर्फ हज़रत शुऐब (अलैहि०) भेजे गए और इस्माईली शाखा में प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल०)। इसके विपरीत नुबूवत और किताब की नेमत हज़रत ईसा (अलैहि०) तक लगातार उसी शाखा को मिलती गई जो हज़रत इसहाक (अलैहि०) से चली थी।
48. इसमें वे तमाम नबी आ गए जो इबाहीमी नस्ल की तमाम शाखाओं में भेजे गए हैं।
وَلُوطًا إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ إِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلۡفَٰحِشَةَ مَا سَبَقَكُم بِهَا مِنۡ أَحَدٖ مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 27
(28) और हमने लूत को भेजा50 जबकि उसने अपनी क़ौम से कहा, "तुम तो वह अश्लील काम करते हो जो तुमसे पहले दुनियावालों में से किसी ने नहीं किया है ।
50. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 80-84, सूरा-11 हूद, आयत 69-83, सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 51-77, सूरा-21 अल-अंबिया, आयत 7-10, सूरा-26 अश-शुअरा, आयत 160-175, सूरा-27 अन-नम्ल, आयत 54-58,सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, आयत 133-138,सूरा-54 अल-क़मर, आयत 33-39,
أَئِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلرِّجَالَ وَتَقۡطَعُونَ ٱلسَّبِيلَ وَتَأۡتُونَ فِي نَادِيكُمُ ٱلۡمُنكَرَۖ فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُواْ ٱئۡتِنَا بِعَذَابِ ٱللَّهِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 28
(29) क्या तुम्हारा हाल यह है कि मदों के पास जाते हो51 और बटमारी करते हो और अपनी सभाओं में बुरे काम करते हो?"52 फिर कोई जवाब उसकी क़ौम के पास इसके सिवा न था कि उन्होंने कहा, "ले आ अल्लाह का अज़ाब, अगर तू सच्चा है।"
51. अर्थात् उनसे अपनी वासना पूरी करते हो।
52. अर्थात् यह अश्लील काम छिपकर भी नहीं करते, बल्कि ख़ुल्लम-ख़ुल्ला अपनी सभाओं में एक-दूसरे के सामने ऐसा करते हो। यही बात सूरा-27 नम्ल में फ़रमाई गई है, "क्या तुम ऐसे बिगड़ गए हो कि देखनेवाली आँखों के सामने अश्लील कर्म करते हो।"
قَالَ رَبِّ ٱنصُرۡنِي عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 29
(30) लूत ने कहा, "ऐ मेरे रब ! इन बिगाड़ पैदा करनेवालों के मुक़ाबले में मेरी मदद फ़रमा।"
وَلَمَّا جَآءَتۡ رُسُلُنَآ إِبۡرَٰهِيمَ بِٱلۡبُشۡرَىٰ قَالُوٓاْ إِنَّا مُهۡلِكُوٓاْ أَهۡلِ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةِۖ إِنَّ أَهۡلَهَا كَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 30
(31) और जब हमारे भेजे हुए (फ़रिश्ते) इबाहीम के पास शुभ-सूचना लेकर पहुंचे53 तो उन्होंने उससे कहा, "हम इस बस्ती के लोगों को नष्ट करनेवाले हैं।54 इसके लोग बड़े ज़ालिम हो चुके हैं।”
53. सूरा हूद और सूरा हिन मे इसका विवरण यह आया है कि जो फ़रिश्ते लूत की क़ौम पर अज़ाब लाने के लिए भेजे गए थे वे पहले हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के पास हाज़िर हुए और उन्होंने आपको हज़रत इसहाक (अलैहि०) की और उनके बाद हज़रत याक़ूब (अलैहि०) की पैदाइश की शुभ-सूचना दी, फिर यह बताया कि हमें लूत की क़ौम को नष्ट करने के लिए भेजा गया है।
54. "इस बस्ती" का संकेत लूत की क़ौम के क्षेत्र की ओर है। हज़रत इब्राहीम उस समय फ़लस्तीन के शहर हबरून (वर्तमान अल-ख़लील) में रहते थे। इस शहर के दक्षिण-पूर्व में कुछ मील के फ़ासले पर मृत सागर का वह क्षेत्र स्थित है जहाँ लूत की क़ौम आबाद थी और अब जिस पर समुद्र का पानी फैला हुआ है। यह क्षेत्र निचले हिस्सा में स्थित है और हबरून को ऊँची पहाड़ियों पर से साफ़ नज़र आता है। इसी लिए फ़रिश्तों ने उसकी ओर संकेत करके हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) से अर्ज़ किया कि "हम इस बस्ती को नष्ट करनेवाले हैं।” (देखिए सूरा-26 शुअरा, टिप्पणी 114)
قَالَ إِنَّ فِيهَا لُوطٗاۚ قَالُواْ نَحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَن فِيهَاۖ لَنُنَجِّيَنَّهُۥ وَأَهۡلَهُۥٓ إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 31
(32) इब्राहीम ने कहा, “वहाँ तो लूत मौजूद है।"55 उन्होंने कहा, “हम खूब जानते हैं कि वहाँ कौन-कौन हैं। हम उसे और, उसकी बीवी के सिवा, उसके बाकी सब घरवालों को बचा लेंगे।"56 उसकी बीवी पीछे रह जानेवालों में से थी।
55. सूरा-11 हूद में इस क़िस्से का आरंभिक हिस्से यह बयान किया गया है कि सबसे पहले तो हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) फ़रिश्तों को इंसानी शक्ल में देखकर ही घबरा गए, क्योंकि इस रूप में फ़रिश्तों का आना किसी ख़तरनाक मुहिम की शुरुआत हुआ करती है। फिर जब उन्होंने आपको शुभ-सूचना दी और आपकी घबराहट दूर हो गई और आपको मालूम हुआ कि यह मुहिम लूत की क़ौम की ओर जा रही है तो आप उस क़ौम के लिए बड़े आग्रह के साथ दया का निवेदन करने लगे, मगर यह निवेदन क़बूल न हुआ और फ़रमाया गया कि इस मामले में अब कुछ न कहो, तुम्हारे रब का फैसला हो चुका है और यह अज़ाब अब टलनेवाला नहीं है। इस जवाब से जब हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) को यह आशा बाक़ी न रही कि लूत की क़ौम की मोहलत में कोई बढ़ोत्तरी हो सकेगी तब उन्हें हज़रत लूत (अलैहि०) की चिन्ता हुई और उन्होंने वह बात कही जो यहाँ नक़ल की गई है कि "वहाँ तो लूत मौजूद है।” अर्थात् यह अज़ाब अगर लूत की उपस्थिति में आया तो वह और उनके घरवाले उससे कैसे बचे रहेंगे?
56. इस औरत के बारे में सूरा-66 तहरीम, आयत 10 में बताया गया है कि यह हज़रत लूत (अलैहि०) की वफ़ादार न थी। अधिक गुमान यही है कि हज़रत लूत (अलैहि०) जब हिजरत के बाद जार्डन के क्षेत्र में आकर आबाद हुए होंगे तो उन्होंने उसी क़ौम में शादी कर ली होगी, लेकिन उनकी संगति में एक उम्र गुज़ार देने के बाद भी यह औरत ईमान न लाई और उसकी हमदर्दियाँ और दिलचस्पियां अपनी क़ौम ही से जुड़ी रहीं । इसलिए पैग़म्बर की बीवी होना उसके लिए कुछ भी लाभप्रद न हो सका।
وَلَمَّآ أَن جَآءَتۡ رُسُلُنَا لُوطٗا سِيٓءَ بِهِمۡ وَضَاقَ بِهِمۡ ذَرۡعٗاۖ وَقَالُواْ لَا تَخَفۡ وَلَا تَحۡزَنۡ إِنَّا مُنَجُّوكَ وَأَهۡلَكَ إِلَّا ٱمۡرَأَتَكَ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 32
(33) फिर जब हमारे भेजे हुए लूत के पास पहुंचे तो उसके आने पर वह बड़ा परेशान और दिल तंग हुआ।57 उन्होंने कहा, "न डरो और न रंज करो।58 हम तुम्हें और तुम्हारे घरवालों को बचा लेंगे, सिवा तुम्हारी बीवी के जो पीछे रह जानेवालों में से है।
57. इस परेशानी और दिलतंगी का कारण यह था कि फ़रिश्ते बहुत सुन्दर नव उम्र लड़कों के रूप में आए थे। हज़रत लूत (अलैहि०) अपनी क़ौम के आचरण को जानते थे, इसलिए उनके आते ही वह परेशान हो गए कि मैं अपने इन मेहमानों को [इस दुष्चरित्र क़ौम से किस तरह बचा सकूँगा। इसके बाद का किस्सा यहाँ नहीं बयान किया गया है। इसका विवरण सूरा-11 सूरा-15 हूद, अल-हिज्र सूरा-54 अल-क़मर में आया है कि इन लड़कों के आने की ख़बर सुनकर शहर के बहुत-से लोगों ने हज़रत लूत (अलैहि०) के मकान पर धावा बोल दिया और आग्रह करने लगे कि वे अपने मेहमानों को कुकर्म के लिए उनके हवाले कर दें।
58. अर्थात् हमारे मामले में न इस बात से डरो कि ये लोग हमारा कुछ बिगाड़ सकेंगे और न इस बात के लिए चिन्तित हो कि हमें इनसे कैसे बचाया जाए। यही अवसर था कि जब फ़रिश्तों ने लूत (अलैहि०) पर यह भेद खोला कि वे इंसान नहीं, बल्कि फ़रिश्ते हैं जिन्हें इस क़ौम पर अज़ाब लाने के लिए भेजा गया है। सूरा-11 हूद में इसे और स्पष्ट किया गया है कि जब लोग हज़रत लूत (अलैहि०) के घर में घुसे चले आ रहे थे और आप परेशान होकर चौंख उठे थे कि, “काश, मेरे पास तुम्हें ठीक कर देने की ताक़त होती या किसी ज़ोरावर का समर्थन मैं पा सकता।” उस समय फ़रिश्तों ने कहा, “ऐ लूत ! हम तुम्हारे रब के भेजे हुए फ़रिश्ते हैं। ये तुम तक कदापि नहीं पहुँच सकते।"
إِنَّا مُنزِلُونَ عَلَىٰٓ أَهۡلِ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةِ رِجۡزٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 33
(34) हम इस बस्ती के लोगों पर आसमान से अज़ाब उतारनेवाले हैं, उस अवज्ञा के कारण जो ये करते रहे हैं।"
وَلَقَد تَّرَكۡنَا مِنۡهَآ ءَايَةَۢ بَيِّنَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 34
(35) और हमने उस बस्ती की एक खुली निशानी छोड़ दी है 59 उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते हैं। 60
59. इस खुलो निशानी से तात्पर्य है मृत सागर जिसे 'बहरे लूत' (लूत सागर) भी कहा जाता है। क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर मक्का के विधर्मियों को सम्बोधित करते हुए फ़रमाया गया है कि इस ज़ालिम क़ौम पर उसके करतूतों के कारण जो अज़ाब आया था, उसकी एक निशानी आज भी राजमार्ग पर मौजूद है जिसे तुम शाम (सीरिया) की ओर अपनी कारोबारी यात्राओं में जाते हुए रात व दिन देखते हो । वर्तमान में यह बात करीब-करीब पूरे विश्वास के साथ मानी जा रही है कि मृत सागर का दक्षिण भाग एक भयानक भूकम्प के कारण ज़मीन में धंस जाने की बदौलत अस्तित्त्व में आया है और इसी धंसे हुए हिस्से में क़ौमे लूत का केन्द्रीय नगर सुदूम (Scodom) स्थित था। इस हिस्से में पानी के नीचे कुछ डूबी हुई बस्तियों के निशान भी पाए जाते हैं। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-26 शअरा, टिप्पणी 114)
60. लूत की क़ौम के कुकर्म (पुरुष समलैंगिक संभोग) की शरीअत में ठहराई गई सज़ा के लिए देखिए, सूरा-7 अल-आराफ़, टिप्पणी 68 ।
وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبٗا فَقَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱرۡجُواْ ٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 35
(36) और मदयन की ओर हमने उनके भाई शुऐब को भेजा। 61 उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो और आखिरत के दिन के उम्मीदवार रहो 62 और ज़मीन में फ़सादी बनकर ज्यादतियाँ न करते फिरो।"
61. तुलना के लिए देखिए सूरा-7 अल-आराफ़ आयत 83 से 93, सूरा-11 हूदा 85 से 93, आयत 84 से 95 सूरा-26 अश-शुअरा 10 ।
62. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि आख़िरत के आने की उम्मीद रखो, यह न समझो कि जो कुछ है, बस यही दुनिया की ज़िंदगी है और कोई दूसरी ज़िंदगी नहीं है जिसमें तुम्हें अपने कर्मों का हिसाब देना और पुरस्कार या सज़ा पानी हो। दूसरा अर्थ यह है कि वह काम करो जिससे तुम आख़िरत में अंजाम बेहतर होने की आशा कर सको।
فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دَارِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 36
(37) मगर उन्होंने उसे झुठला दिया।63 अन्तत: एक प्रचण्ड भूकम्प ने उन्हें आ लिया और वे अपने घरों में64 पड़े के पड़े रह गए।
63. अर्थात् इस बात को न माना कि हज़रत शुऐब अल्लाह के रसूल हैं और यह शिक्षा जो वे दे रहे हैं, यह अल्लाह की ओर से है और इसको न मानने का नतीजा उन्हें अल्लाह के अज़ाब के रूप में भुगतना होगा।
64. घर से तात्पर्य वह पूरा क्षेत्र है जिसमें यह क़ौम रहती थी। स्पष्ट है कि जब एक पूरी क़ौम का उल्लेख हो रहा है तो उसका घर उसका देश ही हो सकता है।
وَعَادٗا وَثَمُودَاْ وَقَد تَّبَيَّنَ لَكُم مِّن مَّسَٰكِنِهِمۡۖ وَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَصَدَّهُمۡ عَنِ ٱلسَّبِيلِ وَكَانُواْ مُسۡتَبۡصِرِينَ ۝ 37
(38) और आद व समूद को हमने नष्ट किया। तुम वे जगह देख चुके हो जहाँ वे रहते थे।65 उनके कर्मों को शैतान ने उनके लिए ख़ुशनुमा बना दिया और उन्हें सीधे रास्ते से हटा दिया, हालाँकि वे सूझ-बूझ रखते थे।66
65. अरब के जिन क्षेत्रों में ये दोनों कौमें आबाद थीं उन्हें अरब का बच्चा-बच्चा जानता था। दक्षिण अरब का पूरा क्षेत्र जो अब अहकाफ़, यमन और हज़र-मौत के नाम से प्रसिद्ध है, प्राचीन समय में आद का निवास स्थान था और अरबवाले इसको जानते थे। हिजाज़ के उत्तरी भाग में राबेअ से अक़बा तक और मदीना व ख़ैबर से तैमा और तबूक तक का सारा क्षेत्र आज भी समूद की निशानियों से भरा हुआ है और क़ुरआन के उतरने के समय में ये निशानियाँ आज की हालत से कुछ अधिक ही स्पष्ट होंगी।
66. अर्थात् अज्ञानी और नासमझ न थे। अपने-अपने समय के बड़े विकसित लोग थे और अपनी दुनिया के मामलों को अंजाम देने में पूरी होशियारी और अक्लमंदी का सबूत देते थे। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि शैतान उनकी आँखों पर पट्टी बांधकर और उनकी बुद्धि छीन करके उन्हें अपने रास्ते पर खींच ले गया। नहीं, उन्होंने खूब सोच-समझकर आँखों देखते शैतान के पेश किए हुए उस रास्ते को अपनाया जिसमें उन्हें बड़े मज़े और लाभ नज़र आते थे, और नबियों के पेश किए हुए उस रास्ते को छोड़ दिया जो उन्हें सूखा, बद-मज़ा और नैतिक पाबन्दियों की वजह से कष्टप्रद दिखाई पड़ता था।
وَقَٰرُونَ وَفِرۡعَوۡنَ وَهَٰمَٰنَۖ وَلَقَدۡ جَآءَهُم مُّوسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا كَانُواْ سَٰبِقِينَ ۝ 38
(39) और कारून व फ़िरऔन और हामान को हमने नष्ट किया। मूसा उनके पास खुली निशानियाँ लेकर आया, मगर उन्होंने ज़मीन में अपनी बड़ाई का घमंड किया, हालांकि वे आगे निकल जानेवाले न थे।67
67. अर्थात् भागकर अल्लाह की पकड़ से बच निकलने वाले न थे। अल्लाह के उपायों को विफल कर देने की शक्ति न रखते थे।
فَكُلًّا أَخَذۡنَا بِذَنۢبِهِۦۖ فَمِنۡهُم مَّنۡ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِ حَاصِبٗا وَمِنۡهُم مَّنۡ أَخَذَتۡهُ ٱلصَّيۡحَةُ وَمِنۡهُم مَّنۡ خَسَفۡنَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ وَمِنۡهُم مَّنۡ أَغۡرَقۡنَاۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 39
(40) अन्तत: हर एक को हमने उसके गुनाह में पकड़ा, फिर इनमें से किसी पर हमने पथराव करनेवाली हवा भेजी68 और किसी को एक जबरदस्त धमाके ने आ लिया69 और किसी को हमने ज़मीन में धँसा दिया70 और किसी को डुबो दिया।71 अल्लाह उनपर जुल्म करनेवाला न था, मगर वे खुद ही अपने ऊपर जुल्म कर रहे थे।72
68. अर्थात् आद जिनपर लगातार सात रात और आठ दिन तक तेज़ हवा का तूफ़ान बरपा रहा । (सूरा-69 अल-हाक़्क़ा, आयत 7)
69. अर्थात् समूद।
مَثَلُ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡلِيَآءَ كَمَثَلِ ٱلۡعَنكَبُوتِ ٱتَّخَذَتۡ بَيۡتٗاۖ وَإِنَّ أَوۡهَنَ ٱلۡبُيُوتِ لَبَيۡتُ ٱلۡعَنكَبُوتِۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 40
(41) जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर दूसरे संरक्षक बना लिए हैं, उनकी मिसाल मकड़ी जैसी है जो अपना एक घर बनाती है और सब घरों से ज़्यादा कमज़ोर घर मकड़ी का घर ही होता है। काश, ये लोग ज्ञान रखते ।73
73. ऊपर जितनी क़ौमों का उल्लेख किया गया है वे सब शिर्क में लिप्त थीं और अपने उपास्यों के बारे में उनका विश्वास यह था कि ये हमारे समर्थक, मददगार और सर-परस्त (Guardians) हैं, हमारी क़िस्मतें बनाने और बिगाड़ने को शक्ति रखते हैं। इनकी पूजा-पाठ करके और इन्हें नह व नियाज़ देकर जब हम इनकी सरपरस्ती प्राप्त कर लेंगे तो ये हमारे काम बनाएंगे और हमको हर तरह की आफतों से बचाए रखेंगे, लेकिन जैसा कि ऊपर की ऐतिहासिक घटनाओं में दिखाया गया है, उनके ये तमाम अक़ीदे और अंधविश्वास उस वक्त बिल्कुल निराधार सिद्ध हुए हैं जब अल्लाह की ओर से उनके विनाश का फ़ैसला कर दिया गया। इन घटनाओं को बयान करने के बाद अब अल्लाह मुश्किों को सचेत कर रहा है कि ष्टि के सच्चे स्वामी और शासक को छोड़कर बिल्कुल विवश बन्दों और काल्पनिक उपास्यों के भरोसे पर आशाओ का जो घरौंदा तुमने बना रखा है, उसकी सच्चाई मकड़ी के जाले से ज्यादा कुछ नहीं है। जिस तरह मकड़ी का जाला एक उंगली की चोट भी नहीं सह सकता, उसी तरह तुम्हारी आशाओं का यह घरौंदा भो अल्लाह के उपाय से पहला टकराव होते ही टुकड़े-टुकड़े होकर रह जाएगा।
إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 41
(42) ये लोग अल्लाह को छोड़कर जिस चीज़ को भी पुकारते हैं, अल्लाह उसे ख़ूब जानता है और वही ज़बरदस्त और तत्त्वदर्शी है।74
74. अर्थात् अल्लाह को इन सब चीज़ों को वास्तविकता खूब मालूम है। जिन्हें ये लोग उपास्य बना बैठे हैं और सहायता के लिए पुकारते हैं, उनके वश में कुछ भी नहीं है। ताकत का मालिक सिर्फ अल्लाह ही है और उसी को उपाय और तत्त्वदर्शिता इस सृष्टि की व्यवस्था चला रही है। एक दूसरा अनुवाद इस आयत का यह भी हो सकता है- “अल्लाह खूब जानता है कि उसे छोड़कर जिन्हें ये लोग पुकारते हैं, वे कुछ भी नहीं हैं (अर्थात् अवास्तविक है) और ज़बरदस्त और तत्त्वदर्शी बस वही है।"
وَتِلۡكَ ٱلۡأَمۡثَٰلُ نَضۡرِبُهَا لِلنَّاسِۖ وَمَا يَعۡقِلُهَآ إِلَّا ٱلۡعَٰلِمُونَ ۝ 42
(43) ये मिसाले हम लोगों को समझाने के लिए देते हैं, मगर उनको वहीं लोग समझते हैं जो ज्ञान रखनेवाले है।
خَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 43
(44) अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन को सत्य पर पैदा किया है,75 वास्तव में इसमें एक निशानी है ईमानवालों के लिए।76
75. अर्थात् सृष्टि की यह व्यवस्था सत्य पर स्थापित है, न कि असत्य पर। इस व्यवस्था पर जो आदमी भी खुले मन से विचार करेगा, उसपर यह बात खुल जाएगी कि यह ज़मीन व आसमान अंधविश्वासों और कल्पनाओं पर नहीं, बल्कि सत्य और सच्चाई पर खड़े हैं। यहाँ तो केवल वही चीज़ सफल हो सकती है और स्थिर रह सकती है जो सत्य और सच्चाई के अनुसार हो। सच्चाई के खिलाफ़ अटकलों और कल्पनाओं पर जो इमारत भी खड़ी की जाएगी वह अन्ततः वास्तविकता से टकराकर चूर-चूर हो जाएगी।
76. अर्थात् ज़मीन व आसमान की संरचना में तौहीद की सत्यता और शिर्क और नास्तिकता के असत्यता पर एक साफ़ गवाही मौजूद है, मगर इस गवाही को सिर्फ़ वही लोग पाते हैं जो नबियों की प्रस्तुत की हुई शिक्षाओं को मानते हैं। उनका इंकार कर देनेवालों को सब कुछ देखने पर भी कुछ दिखाई नहीं देता।
ٱتۡلُ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَۖ إِنَّ ٱلصَّلَوٰةَ تَنۡهَىٰ عَنِ ٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِۗ وَلَذِكۡرُ ٱللَّهِ أَكۡبَرُۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تَصۡنَعُونَ ۝ 44
(45) (ऐ नबी !) तिलावत करो उस किताब की जो तुम्हारी ओर वह्य के ज़रिये से भेज़ी गई है और नमाज़ क़ायम करो77, निश्चय ही नमाज़ बेहयाई और बुरे कामों से रोकती है78 और अल्लाह का ज़िक्र इससे भी ज्यादा बड़ी चीज़ है।79 अल्लाह जानता है जो कुछ तुम लोग करते हो।
77. संबोधन प्रत्यक्ष में नबी (सल्ल०) से है, मगर वास्तव में संबोधन सभी ईमानवालों से है। उस समय जिन अति हतोत्साह करनेवाली परेशानियों का उनको सामना करना पड़ रहा था, उनका मुक़ाबला करने के लिए पिछली आयतों में धैर्य, जमाव और अल्लाह पर भरोसा करने की लगातार शिक्षा देने के बाद अब उन्हें व्यावहारिक उपाय यह बताया जा रहा है कि कुरआन का पाठ करें और नमाज कायम करें, क्योंकि यही दो चीजें ऐसी हैं जो एक मोमिन को असत्य के तूफ़ानों के मुकाबले में [सफल बना सकती हैं।] लेकिन क़ुरआन के पाठ और नमाज़ से यह शक्ति इंसान को उसी समय प्राप्त हो सकती है जबकि वह क़ुरआन के सिर्फ़ शब्दों के पढ़ने को काफ़ी न समझे, बल्कि उसकी शिक्षा को ठीक-ठीक समझकर अपनी आत्मा में समाहित करता चला जाए और उसकी नमाज़ सिर्फ शरीर की हरकतों तक सीमित न रहे, बल्कि उसके दिल हृदय का जाप (वज़ीफा) और उसके चरित्र व आचरण की प्ररेक शक्ति बन जाए।
78. यह नमाज़ की बहुत-सी विशेषताओं में से एक महत्वपूर्ण विशेषता है जिसे परिस्थिति को अनुकूलता से यहाँ स्पष्ट करके प्रस्तुत किया गया है। स्पष्ट है कि नैतिक बुराइयों से पाक होना अपने भीतर केवल इतना ही लाभ नहीं रखता कि यह अपने आपमें उन लोगों के लिए दुनिया और आखिरत में लाभप्रद है जिन्हें यह पावनता प्राप्त हो, बल्कि उसका अनिवार्य लाभ यह भी है कि इसको उन सब लोगों पर बड़ी श्रेष्ठता मिल जाती है जो तरह-तरह की नैतिक बुराइयों में ग्रस्त हों और अज्ञानता को उस अपवित्र व्यवस्था को जो उन बुराइयों को पालती पोसती है, बाक़ी रखने के लिए इन पवित्र इंसानों के मुक़ाबले में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हों। अश्लील एवं बुरे काम जिन बुराइयों को कहते हैं, उन्हें इंसान की प्रकृति बुरा जानती है और सदा से हर कौम और हर समाज के लोग, भले ही वे व्यवहारतः कैसे ही बिगड़े हुए हों, सैद्धान्तिक रूप से उन्हें बुरा ही समझते रहे हैं। कुरआन के उतरने के समय अरब का समाज भी इस सामान्य नियम का अपवाद न था। इस दशा में इस बिगड़े हुए समाज के भीतर किसी ऐसे आन्दोलन का उठना जिससे जुड़ते ही स्वयं उसी समाज के लोग नैतिक रूप से बदल जाएँ और अपने चरित्र व आचरण में अपने समय के लोगों से खुले तौर पर उच्च हो जाएँ, निश्चित रूप से अपना प्रभाव डाले बिना न रह सकता था। यही कारण है कि क़ुरआन ने इस अवसर पर मुसलमानों को भौतिक साधन और शक्तियाँ जुटाने के बजाय नमाज़ क़ायम करने की नसीहत की, ताकि ये मुट्ठी भर इंसान नैतिकता की वह शक्ति अपने भीतर पैदा कर लें जो लोगों के दिल जीत ले और तीर व तलवार के बिना दुश्मनों को हरा दे । नमाज़ को यह विशेषता जो इस आयत में बयान की गई है, उसके दो पहलू हैं। एक इसकी अनिवार्य विशेषता है अर्थात् यह कि वह अश्लील और बुरे कामों से रोकती है और दूसरा इसकी अभीष्ट विशेषता है, अर्थात् इसका पढ़नेवाला सच में अश्लील और बुरे काम से रुक जाए। जहाँ तक रोकने का ताल्लुक है, नमाज़ अनिवार्य रूप से यह काम करती है। जो आदमी भी नमाज़ की शक्ल पर तनिक भी विचार करेगा, वह मानेगा कि इंसान को बुराइयों से रोकने के लिए जितने ब्रेक भी लगाने सम्भव हैं, उनमें सबसे ज़्यादा प्रभावी नमाज़ ही हो सकती है। अब रहा यह सवाल कि आदमी नमाज़ की पाबन्दो अपनाने के बाद व्यावहारिक रूप से भी बुराइयों से रुकता है या नहीं, तो यह बात उस आदमी पर निर्भर करती है जो मन के सुधार की यह दीक्षा ले रहा है। वह उससे लाभ उठाने की नीयत रखता हो और इसकी कोशिश करे तो नमाज़ के सुधारात्मक प्रभाव उसपर पड़ेंगे ही, वरना नहीं। जो आदमी नमाज़ पढ़ता तो है मगर न उससे फायदा उठाने की नीयत रखता है, न इसकी कोशिश करता है। उसके बारे में तो यह कहना ज़्यादा सही है कि वह वास्तव में नमाज़ नहीं पढ़ता। चुनांचे इमरान बिन हुसैन की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, जिसे उसकी नमाज़ ने अश्लील और बुरे कामों से न रोका, उसकी नमाज़ नहीं है।" (इब्ने अबी हातिम) इब्ने अब्बास हुजूर (सल्ल०) का यह इर्शाद नक़ल करते हैं- "जिसकी नमाज़ ने उसे अश्लील और बुरे कामों से न रोका, उसको उसकी नमाज़ ने अल्लाह से और अधिक दूर कर दिया।" (इब्ने अबी हातिम, तबरानी)
۞وَلَا تُجَٰدِلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ إِلَّا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡۖ وَقُولُوٓاْ ءَامَنَّا بِٱلَّذِيٓ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَأُنزِلَ إِلَيۡكُمۡ وَإِلَٰهُنَا وَإِلَٰهُكُمۡ وَٰحِدٞ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 45
(46) और अहले किताब (किताबवालों)80 से बहस न करो, मगर अच्छे ढंग से81-अलावा उन लोगों के जो उनमें से ज़ालिम हों82, और उनसे कहो कि "हम ईमान लाए हैं उस चीज पर भी जो हमारी ओर भेजी गई है और उस चीज़ पर भी जो तुम्हारी ओर भेजी गई थी, हमारा ख़ुदा और तुम्हारा खुदा एक ही है और हम उसी के मुस्लिम (आज्ञाकारी) है।"83
80. स्पष्ट रहे कि आगे चलकर इसी सूरा में हिजरत की नसीहत की जा रही है। उस समय हब्शा ही एक ऐसी शरण-स्थली थी जहाँ मुसलमान हिजरत करके जा सकते थे और हब्शा पर उस ज़माने में ईसाइयों का ग़लबा था। इसलिए इन आयतों में मुसलमानों को हिदायत दी जा रही है कि अहले किताब (किताबवालों) से जब मामला पेश आए तो उनसे दीन के मामले में बहस-मुबाहसे का क्या ढंग अपनाएँ।
81. अर्थात् वार्ता बुद्धिसंगत तर्कों के साथ सभ्य एवं शालीन भाषा में और समझाने-बुझाने की स्प्रिट के साथ होनी चाहिए, ताकि जिस आदमी से वार्ता की जा रही हो उसके विचारों का सुधार हो सके । प्रचारक को चिंता इस बात की होनी चाहिए कि वह जिससे वार्ता कर रहा है उसके दिल का द्वार खोलकर सत्य बात उसमें उतार दे और उसे सीधे रास्ते पर लाए। इस्लाम के प्रचारक को किसी पहलवान की तरह नहीं लड़ना चाहिए जिसका उद्देश्य अपने प्रतिद्वन्द्वी को नीचा दिखाना होता है, बल्कि उसको एक हकीम की तरह उपचार करना चाहिए, जो रोगी का इलाज करते हुए हर समय इस बात को ध्यान में रखता है कि उसकी अपनी किसी गलती से रोगी का रोग और अधिक बढ़ न जाए और इस बात की पूरी कोशिश करता है कि कम से कम पीड़ा के साथ रोगी रोग-मुक्त हो जाए। यह हिदायत इस जगह पर मौके को देखते हुए अहले किताब के साथ वार्ता करने के मामले में दी गई है,मगर यह अहले किताब के लिए खास नहीं है, बल्कि दीन की तबलीरा (प्रचार) के बारे में एक आम हिदायत है जो कुरआन मजीद में जगह-जगह दी गई है। [मिसाल के तौर पर देखिए] सूरा-16 नल (आयत 125) सूरा-41 हा० मीम० अस-सज्दा (आयत 30), सूरा-23 अल-मोमिनून (आयत 96) और सूरा-7 अल-आराफ (आयत 199-200)
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَۚ فَٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۖ وَمِنۡ هَٰٓؤُلَآءِ مَن يُؤۡمِنُ بِهِۦۚ وَمَا يَجۡحَدُ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَّا ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 46
(47) (ऐ नबी ) हमने इसी तरह तुम्हारी ओर किताब उतारी है।84 इसलिए वे लोग जिनको हमने पहले किताब दी थी, ये इसपर ईमान लाते हैं।85 और इन लोगों में से भी बहुत-से इसपर ईमान ला रहे हैं।86 और हमारी आयतों का इंकार सिर्फ़ विधर्मी ही करते हैं।87
84. इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक यह कि जिस तरह पहले नबियों पर हमने किताबें उतारी थीं, उसी तरह अब यह किताब तुमपर उतारी है। दूसरा यह कि हमने इसी शिक्षा के साथ यह किताब उतारी है कि हमारी पिछली किताबों का इंकार करके नहीं, बल्कि इन सबको स्वीकार करते हुए इसे माना जाए।
85. प्रसंग व संदर्भ स्वयं बता रहा है कि इससे तात्पर्य तमाम अहले किताब नहीं हैं, बल्कि वे अहले किताब हैं जिनको आसमानी किताबों का सही ज्ञान और समझ मिली थी और जो सही अर्थों में अहले किताब थे।
وَمَا كُنتَ تَتۡلُواْ مِن قَبۡلِهِۦ مِن كِتَٰبٖ وَلَا تَخُطُّهُۥ بِيَمِينِكَۖ إِذٗا لَّٱرۡتَابَ ٱلۡمُبۡطِلُونَ ۝ 47
(48) (ऐ नबी !) तुम इससे पहले कोई किताब नहीं पढ़ते थे और न अपने हाथ से लिखते थे, अगर ऐसा होता तो असत्यवादी लोग शंका में पड़ सकते थे।88
88. यह नबी (सल्ल०) की नुबूवत के प्रमाण में वही दलील है जो इससे पहले सूरा-10 यूनुस और सूरा-28 कसस में आ चुकी है । (देखिए टीका सूरा-10. यूनुस, टिप्पणी 21 और टीका सूरा सूरा-28 क़सस टिप्पणी 64 और 109) इस आयत में दलील की बुनियाद यह है कि नबी (सल्ल०) अनपढ़ थे। आपके वतन के और रिश्ते-बिरादरी के लोग इस बात को खूब अच्छी तरह जानते थे कि आपने उम्र भर न कभी कोई किताब पढ़ी, न कभी कलम हाथ में लिया। इस सच्चाई को पेश करके अल्लाह फरमाता है कि यह इस बात का खुला हुआ प्रमाण है कि आसमानी किताबों की शिक्षाएँ, पिछले नबियों के हालात,धर्मों और दीनों के अक़ीदे, प्राचीन क़ौमों का इतिहास और रहन सहन, सभ्यता चरित्र और सामाजिकता के महत्त्वपूर्ण विषयों पर जिस विस्तृत और गहरे ज्ञान को इस अनपढ़ की ज़बान से प्रकट किया जा रहा है, यह उसको वह्य के सिवा किसी दूसरे ज़रिए से प्राप्त नहीं हो सकता था। अगर इसको पढ़ना-लिखना आता और लोगों ने कभी इसे किताबें पढ़ते और अध्ययन और खोज करते देखा होता तो असत्य-वादियों के लिए यह शक करने की कुछ बुनियाद हो भी सकती थी कि यह इल्म वह्य से नहीं बल्कि सीख-सिखाकर प्राप्त किया गया है, लेकिन उसकी निरक्षरता ने तो ऐसे किसी सन्देह के लिए नाममात्र की भी कोई बुनियाद शेष नहीं छोड़ी है।
بَلۡ هُوَ ءَايَٰتُۢ بَيِّنَٰتٞ فِي صُدُورِ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَۚ وَمَا يَجۡحَدُ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَّا ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 48
(49) वास्तव में ये रौशन निशानियाँ हैं उन लोगों के दिलों में जिन्हें ज्ञान दिया गया है।89 और हमारी आयतों का इंकार नहीं करते, मगर वे जो ज़ालिम है।
89. अर्थात् एक अनपढ़ का कुरआन जैसी किताब पेश करना और यकायक उन असाधारण विशेषताओं का प्रदर्शन करना जिनके लिए किसी पिछली तैयारी की निशानियाँ कभी किसी को देखने को न मिली, यही सूझ-बूझ रखनेवालों की निगाह में उसकी पैग़म्बरी को सिद्ध करनेवाली सबसे रौशन निशानियां हैं। दुनिया की ऐतिहासिक हस्तियों में से जिसके हालात का भी जाइजा लिया जाए, आदी उसके अपने वातावरण में उन कारणों का पता चला सकता है जो उसके व्यक्तित्व बनाने और उससे प्रकट होनेवाली विशेषताओं के लिए उसको तैयार करने में लगे हुए थे। लेकिन मुहम्मद (सल्ल०) का व्यक्तित्व जिन आश्चर्यजनक विशेषताओं को प्रकट कर रही थी, उनका कोई उदगम आपके वातावरण में नहीं खोजा जा सकता। यही सच्चाई है जिसकी बुनियाद पर यहाँ फ़रमाया गया है कि मुहम्मद (सल्ल०) की जान एक निशानी नहीं, बल्कि बहुत-सी रौशन निशानियों का योग है। जो लोग ज्ञान रखनेवाले हैं वे इन निशानियों को देखकर अपने दिलों में कायल हो गए हैं कि यह शान एक पैगम्बर ही की हो सकती है।
وَقَالُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَٰتٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قُلۡ إِنَّمَا ٱلۡأٓيَٰتُ عِندَ ٱللَّهِ وَإِنَّمَآ أَنَا۠ نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 49
(50) ये लोग कहते है कि "क्यों न उतारी गई इस आदमी पर निशानियाँ90 इसके रब की ओर से?" कहो, "निशानियाँ तो अल्लाह के पास हैं और मैं केवल ख़बरदार करनेवाला हूँ खोल-खोलकर ।
90. अर्थान् मोजज़े जिन्हें देखकर विश्वास हो जाए कि वास्तव में मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के नबी हैं।
أَوَلَمۡ يَكۡفِهِمۡ أَنَّآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ يُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَرَحۡمَةٗ وَذِكۡرَىٰ لِقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 50
(51) और क्या इन लोगों के लिए यह (निशानी) काफ़ी नहीं है कि हमने तुम पर किताब उतारी जो इन्हें पढ़कर सुनाई जाती है?91 वास्तव में इसमें रहमत है और नसीहत उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।92
91. अर्थात् अनपढ़ होने के बावजूद तुमपर कुरआन जैसी किताब का उतरना क्या यह अपने आप में इतना बड़ा मोजज़ा नहीं है कि तुम्हारी रिसालत पर यकीन लाने के लिए यह काफ़ी हो? इसके बाद भी किसी और मोजज़े की ज़रूरत बाकी रह जाती है? दूसरे मोजज़े तो जिन्होंने देखे, उनके लिए वे मोजज़े थे, मगर यह मोजज़ा तो हर वक़्त तुम्हारे सामने है। तुम्हें आए दिन पढ़कर सुनाया जाता है। तुम हर समय उसे देख सकते हो। क़ुरआन मजीद के इस बयान और तर्क के बाद उन लोगों का साहस आश्चर्यजनक है जो नबी (सल्ल०) को पढ़ा-लिखा सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। हालांकि यहाँ क़ुरआन स्पष्ट शब्दों में नबी (सल्ल०) को अनपढ़ होने को आपकी नुबूवत के हक में एक सशक्त प्रमाण के रूप में पेश कर रहा है। जिन रिवायतों का सहारा लेकर यह दावा किया जाता है कि नबी (सल्ल०) लिखे-पढ़े थे.या बाद में आपने लिखना-पढ़ना सीख लिया था, वे एक तो पहली ही दृष्टि में रद्द कर देने योग्य हैं, क्योंकि क़ुरआन के विरुद्ध कोई रिवायत भी स्वीकार्य नहीं हो सकती। फिर वे अपने आपमें भी इतनी कमज़ोर है कि उनको किसी तर्क का आधार नहीं बनाया जा सकता। इनमें से बुख़ारी की एक रिवायत यह है कि हदैबिया का समझौता जब लिखा जा रहा था तो मक्का के विधर्मियों के प्रतिनिधि ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नाम के साथ अल्लाह के रसूल लिखे जाने पर आपत्ति की। इसपर नबी (सल्ल०) ने कातिब (लिखनेवाले अर्थात् हज़रत अली, रजि०) को हुक्म दिया कि अच्छा "अल्लाह के रसूल " का शब्द काटकर मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिख दो। हज़रत अली रजि०) ने शब्द "अल्लाह के रसूल" काटने से इंकार कर दिया। इसपर नबी (सल्ल०) ने उनके हाथ से लेकर वे शब्द स्वयं काट दिए और मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिख दिया। लेकिन यह रिवायत बरा बिन आज़िब से बुखारी में चार जगह और मुस्लिम में दो जगह आई है और हर जगह शब्द अलग-अलग हैं । रिवायतों का यह अलग-अलग होना साफ़ बता रहा है कि बीच के रिवायत करनेवालों ने हज़रत बरा बिन आज़िब (रजि०) के शब्द ज्यों के त्यों नकल नहीं किए हैं, इसलिए उनमें से किसी एक की नक़ल पर भी ऐसा पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता कि निश्चित रूप से यह कहा जा सके कि नबी (सल्ल०) ने “मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह" के शब्द अपने मुबारक हाथ ही से लिखे थे। हो सकता है कि सही परिस्थिति यह हो कि जब हज़रत अली (रजि०) ने 'रसूलुल्लाह' का शब्द मिटाने से इंकार कर दिया तो आपने उसकी जगह उनसे पूछकर यह शब्द अपने हाथ से मिटा दिया हो और फिर उनसे या किसी दूसरे कातिब (लिखनेवाले) से इब्ने अब्दुल्लाह के शब्द लिखवा दिए हों। दूसरी रिवायतों से मालूम होता है कि इस अवसर पर समझौतापत्र दो 'कातिब' लिख रहे थे । एक हज़रत अली (रज़ि०) और दूसरे मुहम्मद बिन मुस्लमा (फतहुल बारी, भाग 5, पृ0 217)। इसलिए यह बात असम्भव नहीं है कि जो काम एक कातिब ने न किया था, वह दूसरे कातिब से लिया गया हो। फिर भी अगर स्वयं यही हो कि नबी (सल्ल०) ने अपना नाम अपने ही मुबारक हाथ से लिखा हो तो ऐसी मिसालें दुनिया में बहुत पाई जाती हैं कि अनपढ़ लोग केवल अपना नाम लिखना सीख लेते हैं, बाकी कोई चीज़ न पढ़ सकते हैं, न लिख सकते हैं। दूसरी रिवायत जिसके आधार पर नबी (सल्ल०) के पढ़े-लिखे होने का दावा किया गया है मुजाहिद से इब्ने अबी शैबा और उमर बिन शैबा ने नकल की है। उसके शब्द ये हैं कि "अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपनी वफ़ात से पहले लिखना-पढ़ना सीख चुके थे।" लेकिन यह सनद की दृष्टि से यह बहुत कमज़ोर रिवायत है जैसा कि हाफ़िज़ इब्ने कसीर फ़रमाते हैं, “कमज़ोर है, इसकी कोई असल नहीं है।" स्पष्ट है ऐसी कमज़ोर रिवायतों के आधार पर कोई ऐसी बात नहीं मानी जा सकती जो प्रचलित और प्रसिद्ध घटनाओं का खंडन करती हो।
92. अर्थात् निस्सन्देह इस किताब का उतरना अल्लाह को बहुत बड़ी मेहरबानी है और यह बन्दों के लिए बड़ी नसीहत वाली है, मगर इसका लाभ केवल वहीं लोग उठा सकते हैं जो इसपर ईमान लाएँ।
قُلۡ كَفَىٰ بِٱللَّهِ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡ شَهِيدٗاۖ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱلۡبَٰطِلِ وَكَفَرُواْ بِٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 51
(52) (ऐ नबी !) कहो कि मेरे और तुम्हारे बीच अल्लाह गवाही के लिए काफ़ी है। वह आसमानों और जमीन में सब कुछ जानता है। जो लोग असत्य को मानते हैं और अल्लाह का इंकार करते है, वही घाटे में रहनेवाले हैं।"
وَيَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلۡعَذَابِ وَلَوۡلَآ أَجَلٞ مُّسَمّٗى لَّجَآءَهُمُ ٱلۡعَذَابُۚ وَلَيَأۡتِيَنَّهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 52
(53) ये लोग तुमसे अज़ाब जल्दी लाने की माँग करते हैं।93 अगर एक समय निश्चित न कर दिया गया होता तो इनपर अज़ाब आ चुका होता। और निश्चय ही वह (अपने समय पर) आकर रहेगा, अचानक इस हाल में कि उन्हें ख़बर भी न होगी।
93. अर्थात् बार-बार चुनौती के रूप में मांग कर रहे हैं कि अगर तुम रसूल हो और हम सच में सत्य को झुठला रहे हैं, तो हमपर वह अज़ाब क्यों नहीं ले आते जिसके डरावे तुम हमें दिया करते हो।
يَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلۡعَذَابِ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةُۢ بِٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 53
(54) ये तुमसे अज़ाब जल्दी लाने की माँग करते हैं, हालांकि जहन्नम इन अधर्मियों को घेरे में ले चुकी है
يَوۡمَ يَغۡشَىٰهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِن فَوۡقِهِمۡ وَمِن تَحۡتِ أَرۡجُلِهِمۡ وَيَقُولُ ذُوقُواْ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 54
(55) (और इन्हें पता चलेगा) उस दिन जबकि अज़ाब इन्हें ऊपर से भी ढाँक लेगा और पाँव के नीचे से भी और कहेगा कि अब चखो मज़ा उन करतूतों का जो तुम करते थे।"
يَٰعِبَادِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ أَرۡضِي وَٰسِعَةٞ فَإِيَّٰيَ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 55
(56) ऐ मेरे बन्दो जो ईमान लाए हो, मेरी ज़मीन विशाल है, अत: तुम मेरी ही बन्दगी बजा लाओं94 ।
94. यह संकेत है हिजरत की ओर। अर्थ यह है कि आगर मक्का में अल्लाह की बन्दगी करनी कठिन हो रही है तो देश छोड़कर निकल जाओ। अल्लाह की ज़मीन तंग नहीं है। जहाँ भी तुम अल्लाह के बन्दे बनकर रह सकते हो, वहाँ चले जाओ। तुमको कौम व देश की नहीं, बल्कि अपने अल्लाह की बन्दगी करनी चाहिए। यह आयत इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट है कि एक सच्चा अल्लाह का बन्दा क़ौम व देश से मुहब्बत करनेवाला तो हो सकता है, मगर क़ौम-परस्त और वतनपरस्त नहीं हो सकता। उसके लिए अल्लाह की बन्दगी हर चीज़ से प्यारी है जिसपर दुनिया की हर चीज़ को वह न्योछावर कर देगा, मगर उसे दुनिया की किसी चीज़ पर भी न्योछावर न करेगा।
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۖ ثُمَّ إِلَيۡنَا تُرۡجَعُونَ ۝ 56
(57) हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है, फिर तुम सब हमारी ओर ही पलटा कर लाए जाओगे।95
95. अर्थात् जान को चिन्ता न करो। यह तो कभी न कभी जानी ही है। हमेशा रहने के लिए तो कोई भी दुनिया में नहीं आया है । इसलिए तुम्हारे लिए चिन्ता करने की यह बात नहीं है कि इस दुनिया में जान कैसे बचाई जाए, बल्कि वास्तविक चिन्ता का मसला यह है कि ईमान कैसे बचाया जाए और खुदापरस्ती के तक़ाज़े किस तरह पूरे किए जाएँ । अन्ततः तुम्हें पलट कर हमारी ही ओर आना है। अगर दुनिया में जान बचाने के लिए ईमान खोकर आए, तो इसका नतीजा कुछ और होगा और ईमान बचाने के लिए जान खो आए तो इसका अंजाम कुछ दूसरा होगा।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَنُبَوِّئَنَّهُم مِّنَ ٱلۡجَنَّةِ غُرَفٗا تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ نِعۡمَ أَجۡرُ ٱلۡعَٰمِلِينَ ۝ 57
(58) जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने भले कर्म किए हैं उनको हम जन्नत की ऊँची-ऊँची इमारतों में रखेंगे, जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, वहाँ वे सदा रहेंगे। क्या ही अच्छा बदला है कर्म करनेवालों के लिए96
96. अर्थात् आगर ईमान और नेकी के रास्ते पर चलकर मान लो तुम दुनिया की सारी नेमतों से महरूम भी रह गए तो विश्वास करो कि इसकी पूर्ति बहरहाल होगी और केवल पूर्ति ही न होगी, बल्कि बेहतरीन बदला भी मिलेगा।
ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 58
(59) उन लोगों के लिए जिन्होंने सब किया है97 और जो अपने रब पर भरोसा करते हैं।98
97. अर्थात् जो हर तरह की मुश्किलों, मुसीबतों, हानियों और पीड़ाओं के मुकाबले में ईमान पर जमे रहे हैं।
98. अर्थात् जो दुनिया के साधनों से नज़रें हटाकर सिर्फ़ अपने रब के भरोसे पर ईमान के लिए हर ख़तरा सहने और हर शक्ति से टकरा जाने के लिए तैयार हो गए, और समय आया तो घर-बार छोड़कर निकल खड़े हुए जिन्होंने अपने रब पर यह भरोसा किया कि ईमान और नेकी पर कायम रहने का बदला उसके यहाँ कभी नष्ट न होगा।
وَكَأَيِّن مِّن دَآبَّةٖ لَّا تَحۡمِلُ رِزۡقَهَا ٱللَّهُ يَرۡزُقُهَا وَإِيَّاكُمۡۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 59
(60) कितने ही जानवर है जो अपनी रोज़ी उठाए नहीं फिरते, अल्लाह उनको रोजी देता है और तुम्हें रोज़ी देनेवाला भी वही है। वह सब कुछ सुनता और जानता है।99
99. अर्थात् हिजरत करने में तुम्हें जान की चिन्ता की तरह रोज़गार की चिन्ता से भी परेशान न होना चाहिए। आख़िर ये अनगिनत पशु-पक्षी और जल के प्राणी जो तुम्हारी आँखों के सामने हवा और जल-थल में फिर रहे हैं, उनमें से कौन अपनी रोज़ी उठाए फिरता है? अल्लाह ही तो इन सबको पाल रहा है। इसलिए तुम यह सोच-सोचकर हिम्मत न हारो कि अगर ईमान के लिए घर-बार छोड़कर निकल गए तो खाएँगे कहाँ से। अल्लाह जहाँ से अपने अनगिनत प्राणियों को रोज़ी दे रहा है, तुम्हें भी देगा। ठीक यही बात है जो हज़रत मसीह अलैहिस्सलाम ने अपने हवारियों (क़रीबी साथियों) से फ़रमाई थी। उन्होंने फ़रमाया, कोई आदमी दो मालिकों की सेवा नहीं कर सकता। तुम ख़ुदा और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते । इसलिए मैं कहता हूँ कि अपनी जान की चिन्ता न करना कि हम क्या खाएंगे या क्या पिएँगे और न अपने शरीर की कि क्या पहनेंगे, क्या जान भोजन से और शरीर पहनावे से बढ़कर नहीं ? हवा के परिंदों को देखो कि न बोते हैं, न काटते हैं, न कोठियों में जमा करते हैं, फिर भी तुम्हारा आसमानी बाप उनको खिलाता है। क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते ?... और कपड़ों के लिए क्यो चिंता करते हो? जंगली सोसन के पेड़ों को ध्यान से देखो कि वे किस तरह बढ़ते हैं। वे न मेहनत करते हैं, न कातते हैं, फिर भी मैं तुमसे कहता हूँ कि सुलैमान भी, बावजूद अपनी सारी शानो-शौकत के उनमें से किसी की तरह वस्त्रधारी न था।... इसलिए चिन्ता में न पड़ो कि हम क्या खाएँगे या क्या पिएँगे या क्या पहनेंगे... तुम्हारा आसमानी बाप जानता है कि तुम इन सब चीज़ों के मुहताज हो। तुम पहले उसकी बादशाही और उसकी सच्चाई को खोजो। ये सब चीजें भी तुम्हें मिल जाएँगी,” (मत्ती, अध्याय 6, आयतें 24-33)। कुरआन और इंजील के इन बातों को पृष्ठभूमि एक ही है। सत्य के आह्वान की राह में एक मरहला ऐसा आ जाता है जिसमें एक सत्यवादी आदमी के लिए इसके सिवा रास्ता नहीं रहता कि कारण जगत् के तमाम सहारों से हटकर सिर्फ़ अल्लाह के भरोसे पर जान जोखिमों की बाज़ी लगा दे। [वास्तव में केवल यही लोग होते हैं जिन] की क़ुर्बानियाँ अन्ततः वह समय लाती हैं जब ईश्वर का बोलवाला होता है और उसके मुक़ाबले में सारी वाणियाँ पराभूत होकर रह जाती हैं।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 60
(61) अगर तुम100 इन लोगों से पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है, और चाँद और सूरज को किसने वशीभूत कर रखा है तो अवश्य कहेंगे कि अल्लाह ने। फिर ये किधर से धोखा खा रहे हैं?
100. यहाँ से फिर वार्ता का रूख मक्का के विधर्मियों की ओर मुड़ता है।
ٱللَّهُ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ وَيَقۡدِرُ لَهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 61
(62) अल्लाह ही है जो अपने बन्दों में से जिसकी चाहता है रोज़ी क़ुशादा कर देता है और जिसकी चाहता है तंग कर देता है। निश्चय ही अल्लाह हर चीज़ का जाननेवाला है।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّن نَّزَّلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِ مَوۡتِهَا لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۚ قُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 62
(63) और अगर तुम इनसे पूछो कि किसने आसमान से पानी बरसाया और उसके जरिये से मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को जिला उठाया तो वे ज़रूर कहेंगे, अल्लाह ने। कहो “प्रशंसा अल्लाह के लिए है।"101 मगर इनमें से अधिकतर लोग समझते नहीं हैं।
101. इस जगह पर अल- हम्दु लिल्लाह" (शुक्र है अल्लाह का) का शब्द दो अर्थ दे रहा है। एक यह कि जब ये सारे काम अल्लाह के हैं तो फिर हम्द (प्रशंसा) का अधिकारी भी सिर्फ वही है, दूसरों को प्रशंसा का हक कहाँ से पहुंच गया है ? दूसरे यह कि अल्लाह का शुक्र है, इस बात को तुम स्वयं भी मानते हो।
وَمَا هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا لَهۡوٞ وَلَعِبٞۚ وَإِنَّ ٱلدَّارَ ٱلۡأٓخِرَةَ لَهِيَ ٱلۡحَيَوَانُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 63
(64) और यह दुनिया की ज़िंदगी कुछ नहीं है मगर एक खेल और मन का बहलावा।102 असल ज़िंदगी का घर तो आख़िरत का घर है, काश, ये लोग जानते।103
102. अर्थात् इसकी वास्तविकता बस इतनी ही है जैसे बच्चे थोड़ी देर के लिए खेल-कूद लें और फिर अपने घर को चल दें। यहाँ जो बादशाह बन गया है वह वास्तव में बादशाह नहीं बन गया है, बल्कि सिर्फ़ बादशाही का नाटक कर रहा है। एक समय आता है जब उसका यह खेल ख़त्म हो जाता है और इसी बे-सर व सामानी के साथ वह राजसिंहासन से विदा होता है जिसके साथ वह इस दुनिया में आया था। इसी तरह जिंदगी का कोई रूप भी यहाँ स्थायी और शाश्वत नहीं है। जो जिस हाल में भी है, अस्थायी रूप में के लिए है। कुछ दिनों की इस ज़िन्दगी की सफलताओं पर जो लोग मर-मिटते हैं और इन्हीं सीमित मुद्दत के लिए ज़मीर (अन्तरात्मा) व ईमान की बाज़ी लगाकर कुछ सुख-सुविधा का सामान और कुछ भोग-विलास के ठाठ जुटा लेते हैं, उनकी ये सारी हरकतें मन के बहलावे से अधिक कुछ नहीं हैं। इन खिलौनों से अगर वे दस-बीस या साठ-सत्तर साल दिल बहला लें और फिर मौत के दरवाज़े से खाली हाथ गुज़रकर उस दुनिया में पहुंचे जहाँ की हमेशा वाली ज़िंदगी में उनका यही खेल निरर्थक सिद्ध हो जाए, तो आख़िर इस बच्चे जैसी तसल्ली का लाभ क्या है?
103. अर्थात् अगर ये लोग इस सच्चाई को जानते कि दुनिया का वर्तमान जीवन केवल एक मोहलत की परीक्षा है और इंसान के लिए असल ज़िंदगी, जो हमेशा-हमेशा बाक़ी रहने वाली आखिरत की जिंदगी है, तो वह यहाँ इम्तिहान की मोहलत को इस खेल-तमाशे में विनष्ट करने के बजाय उसका एक-एक क्षण उन कामों में इस्तेमाल करते जो उस हमेशा वाली जिंदगी में बेहतर नतीजे पैदा करने वाले हों।
فَإِذَا رَكِبُواْ فِي ٱلۡفُلۡكِ دَعَوُاْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ فَلَمَّا نَجَّىٰهُمۡ إِلَى ٱلۡبَرِّ إِذَا هُمۡ يُشۡرِكُونَ ۝ 64
(65) जब ये लोग नाव पर सवार होते हैं तो अपने दीन को अल्लाह के लिए विशुद्ध करके उससे दुआ माँगते हैं, फिर जब वह इन्हें बचाकर ख़ुश्की पर ले आता है तो यकायक ये शिर्क करने लगते हैं,
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ وَلِيَتَمَتَّعُواْۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 65
(66) ताकि अल्लाह की दी हुई निजात पर उसकी नेमतों की नाशुक्री करें और (सांसारिक जीवन के) मज़े लूटें।104 अच्छा, बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा।
104. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6 अल-अनआम टिप्पणी 29 और 41, सूरा-10 यूनुस, टिप्पणी 29 और 31, सूरा-17 बनी इसराईल, टिप्पणी 84 ।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا جَعَلۡنَا حَرَمًا ءَامِنٗا وَيُتَخَطَّفُ ٱلنَّاسُ مِنۡ حَوۡلِهِمۡۚ أَفَبِٱلۡبَٰطِلِ يُؤۡمِنُونَ وَبِنِعۡمَةِ ٱللَّهِ يَكۡفُرُونَ ۝ 66
(67) क्या ये देखते नहीं हैं कि हमने एक शान्तिमय 'हरम' (प्रतिष्ठित स्थान) बना दिया है, हालांकि इनके आस-पास के लोग उचक लिए जाते हैं?105 क्या फिर भी ये लोग असत्य को मानते है और अल्लाह की नेमत की नाशुक्री करते हैं ?
105. अर्थात् क्या इनके शहर मक्का को जिसके दामन में इन्हें पूर्ण रूप से अम्न (शान्ति) मिला हुआ है, किसी लात या हुबल ने हरम (प्रतिष्ठित) बनाया है ? क्या किसी देवी या देवता की यह शक्ति थी कि ढाई हज़ार साल से अरब की अत्यन्त अशान्ति के वातावरण में इस जगह को तमाम फ़िलों और फ़सादों से बचाए रखता? उसकी मर्यादा को बाक़ी रखनेवाले हम न थे तो और कौन था?
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِٱلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُۥٓۚ أَلَيۡسَ فِي جَهَنَّمَ مَثۡوٗى لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 67
(68) उस आदमी से बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ बांधे या सत्य को झुठलाए जबकि वह उसके सामने आ चुका हो?106 क्या ऐसे विधर्मियों का ठिकाना जहन्नम ही नहीं है ?
106. अर्थात् नबी (सल्ल०) ने रिसालत का दावा किया है और तुमने उसे झुठला दिया है। अब मामला दो हाल से खाली नहीं, अगर नबी ने अल्लाह का नाम लेकर झूठा दावा किया है, तो उससे बड़ा ज़ालिम कोई नहीं । और अगर तुमने सच्चे नबी को झुठलाया है तो फिर तुमसे बड़ा ज़ालिम कोई नहीं ।
وَٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ فِينَا لَنَهۡدِيَنَّهُمۡ سُبُلَنَاۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَمَعَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 68
(69) जो लोग हमारे लिए अथक प्रयास करेंगे उन्हें हम अपने रास्ते दिखाएँगे,107 और निश्चय ही अल्लाह अच्छे काम करनेवालों ही के साथ है
107. 'मुजाहदा' की व्याख्या इसी सूरा अनकबूत टिप्पणी 8 में गुज़र चुकी है। वहाँ यह फ़रमाया गया था कि जो आदमी मुजाहदा (अथक प्रयास) करेगा, वह अपनी ही भलाई के लिए करेगा, (आयत 6) यहाँ यह भरोसा दिलाया जा रहा है कि जो लोग अल्लाह की राह में निष्ठा के साथ दुनिया भर से संघर्ष का खतरा मोल ले लेते हैं, उन्हें अल्लाह उनके हाल पर नहीं छोड़ देता, बल्कि वह उनको सहारा देता और मार्ग दिखाता है और अपनी ओर आने की राहें उनके लिए खोल देता है। वह क़दम-कदम पर उन्हें बताता है कि हमारी प्रसन्नता तुम किस तरह प्राप्त कर सकते हो । हर-हर मोड़ पर उन्हें रौशनी दिखाता है कि सीधा रास्ता किधर है और ग़लत रास्ते कौन-से हैं। जितनी अच्छी नीयत और भलाई को तलब उनमें होती है, उतनी ही अल्लाह की मदद और तौफ़ीक़ और हिदायत भी उनके साथ रहती है।