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سُورَةُ مَرۡيَمَ

19. मरयम

(मक्का में उतरी-आयतें 98)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम आयत “वज़कुर फ़िल किताबि मर-य-म" से लिया गया है।

उतरने का समय

इस सूरा के उतरने का समय हबशा की हिजरत से पहले का है। विश्वसनीय रिवायतों से मालूम होता है कि मुसलमान मुहाजिर जब नज्जाशी के दरबार में बुलाए गए थे, उस समय हजरत जाफ़र (रज़ि०) ने यही सूरा भरे दरबार में तिलावत की (पढ़ी) थी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यह सूरा उस युग में उतरी थी जब क़ुरैश के सरदार मज़ाक उड़ाने, उपहास करने, लोभ देने, डराने और झूठे आरोपों का प्रचार करके इस्लामी आन्दोलन को दबाने में विफल होकर ज़ुल्मो-सितम, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार इस्तेमाल करने लगे थे। हर क़बीले के लोगों ने अपने-अपने क़बीले के नव-मुस्लिमों को तंग किया और तरह-तरह से सताकर उन्हें इस्लाम छोड़ने पर मजबूर करने की कोशिश की। इस सिलसिले में मुख्य रूप से ग़रीब लोग और वे गुलाम और दास जो क़ुरैशवालों के अधीन बनकर रहते थे, बुरी तरह पीसे गए। ये परिस्थितियाँ जब असहनीय हो गईं तो रजब, 45 आमुल-फ़ील (सन् 05 नब्वी) में नबी (सल्ल०) की अनुमति के साथ अधिकतर मुसलमान मक्का से हबशा हिजरत कर गए। पहले ग्यारह मर्दो और चार औरतों ने हबशा की राह ली। क़ुरैश के लोगों ने समुद्र-तट तक उनका पीछा किया, मगर सौभाग्य से शुऐबा के बन्दरगाह पर उनको ठीक समय पर हबशा के लिए नाव मिल गई और वे गिरफ़्तार होने से बच गए। फिर कुछ महीने के अन्दर कुछ लोगों ने हिजरत की, यहाँ तक कि 53 मर्द, 11 औरतें और 7 ग़ैर-क़ुरैशी मुसलमान हबशा में जमा हो गए और मक्का में नबी (सल्ल०) के साथ सिर्फ़ 40 आदमी रह गए थे।

इस हिजरत से मक्का के घर-घर में कोहराम मच गया, क्योंकि क़ुरैश के छोटे और बड़े परिवारों में से कोई ऐसा न था जिसके युवक इन मुहाजिरों में शामिल न हों। इसी लिए कोई घर न था जो इस घटना से प्रभावित न हुआ हो। कुछ लोग इसकी वजह से इस्लाम विरोध में पहले से अधिक कठोर हो गए और कुछ के दिलों पर इसका प्रभाव ऐसा हुआ कि अन्त में वे मुसलमान होकर रहे । चुनांँचे हज़रत उमर (रज़ि०) के इस्लाम-विरोध पर पहली चोट इसी घटना से लगी थी।

इस हिजरत के बाद क़ुरैश के सरदार सिर जोड़कर बैठे और उन्होंने तय किया कि अब्दुल्लाह-बिन-अबी-रबीआ (अबू जह्‍ल के माँ जाए भाई) और अम्र-बिन-आस को बहुत-से बहुमूल्य उपहार के साथ हबशा भेजा जाए और ये लोग किसी न किसी तरह नज्जाशी को इस बात पर तैयार करें कि वह मुहाजिरों को मक्का वापस भेज दे। चुनांँचे क़ुरैश के ये दोनों राजनयिक (दूत) मुसलमानों का पीछा करते हुए हबशा पहुँचे। पहले उन्होंने नज्जाशी के दरबारियों में ख़ूब उपहार बाँटकर [सबको अपने मिशन के समर्थन पर] राज़ी कर लिया, फिर नज्जाशी से मिले और उसको मूल्यवान भेंट देने के बाद उन मुहाजिरों की वापसी का निवेदन किया, जिसका उसके दरबारियों ने भरपूर समर्थन किया । मगर नज्जाशी ने बिगड़कर कहा कि “इस तरह तो मैं उन्हें हवाले नहीं करूँगा। जिन लोगों ने दूसरे देश को छोड़कर मेरे देश पर विश्वास किया और यहाँ शरण लेने के लिए आए, उनसे मैं विश्वासघात नहीं कर सकता। पहले मैं उन्हें बुलाकर जाँच करूँगा कि ये लोग उनके बारे में जो कुछ कहते हैं, उसकी वास्तविकता क्या है।” चुनांँचे नज्जाशी ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथियों को अपने दरबार में बुला भेजा। नज्जाशी का सन्देश पाकर सब मुहाजिर जमा हुए और उन्होंने आपसी मश्‍वरे से एक साथ होकर फ़ैसला किया कि नबी (सल्ल०) ने हमें जो शिक्षा दी है, हम तो वही बिना कुछ घटाए-बढ़ाए सामने रख देंगे, भले ही नज्जाशी हमें रखे या निकाल दे। वे दरबार में पहुँचे तो नज्जाशी के सवाल करने पर हज़रत जाफ़र-बिन-अबी तालिब (रज़ि०) ने तत्काल एक भाषण देते हुए अरब की अज्ञानता के हालात, मुहम्मद (सल्ल०) का नबी बनाए जाने, इस्लाम की शिक्षाओं और मुसलमानों पर क़ुरैश के अत्याचारों को खोल-खोलकर बयान किया। नज्जाशी ने यह भाषण सुनकर कहा कि तनिक मुझे वह कलाम (वाणी) सुनाओ जो तुम कहते हो कि अल्लाह की ओर से तुम्हारे नबी पर उतरा है। हज़रत जाफ़र (रज़ि०) ने जवाब में सूरा मरयम का वह आरंभिक भाग सुनाया जो हज़रत यह्‍या और हज़रत ईसा (अलैहि०) से संबंधित है। नज्जाशी उसको सुनता रहा और रोता रहा, यहाँ तक कि उसकी दाढ़ी भीग गई। जब हज़रत जाफ़र (रजि०) ने तिलवात ख़त्म की तो उसने कहा, “निश्चय ही यह कलाम और जो कुछ ईसा लाए थे, दोनों एक ही स्रोत से निकले हैं। अल्लाह की क़सम! मैं तुम्हें उन लोगों के हवाले नहीं करूँगा"।

दूसरे दिन अम्र-बिन-आस ने नजाशी से कहा कि "तनिक इन लोगों को बुलाकर यह तो पूछिए कि मरयम के बेटे ईसा के बारे में उनका अक़ीदा (विश्वास) क्या है? ये लोग उनके बारे में एक बड़ी [भयानक] बात कहते हैं ।” नज्जाशी ने फिर मुहाजिरों को बुला भेजा और जब अम्र-बिन-आस द्वारा किया गया प्रश्न उनके सामने दोहराया तो जाफ़र-बिन-अबी तालिब (रज़ि०) ने उठकर बे-झिझक कहा कि “वे अल्लाह के बन्दे और उसके रसूल हैं और उसकी ओर से एक रूह और एक कलिमा हैं जिसे अल्लाह ने कुँवारी मरयम पर डाला।" नज्जाशी ने सुनकर एक तिनका धरती से उठाया और कहा, “अल्लाह की क़सम ! जो कुछ तुमने कहा ईसा उससे इस तिनके के बराबर भी ज़्यादा नहीं थे।" इसके बाद नज्जाशी ने क़ुरैश के भेजे हुए तमाम उपहार यह कहकर वापस कर दिए कि मैं घूस नहीं लेता और मुहाजिरों से कहा तुम बिल्कुल निश्चिन्त होकर रहो।

विषय और वार्ताएँ

इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर जब हम इस सूरा को देखते हैं तो उसमें पहली बात उभरकर हमारे सामने यह आती है कि यद्यपि मुसलमान एक उत्पीड़ित शरणार्थी गिरोह के रूप में अपना वतन छोड़कर दूसरे देश में जा रहे थे, मगर इस दशा में भी अल्लाह ने उनको दीन के मामले में तनिक भर भी लचक दिखाने की शिक्षा न दी, बल्कि चलते वक़्त राह में काम आनेवाले सामान के रूप में यह सूरा उनके साथ की ताकि ईसाइयों के देश में ईसा (अलैहि०) की बिल्कुल सही हैसियत प्रस्तुत करें और उनका अल्लाह का बेटा होने से साफ़ साफ़ इंकार कर दें।

आयत 1 से लेकर 40 तक हज़रत यहया और ईसा का क़िस्सा सुनाने के बाद फिर इससे आगे की आयतों में समय के हालात को देखते हुए हज़रत इबाहीम (अलैहि०) का किस्सा सुनाया गया है, क्योंकि ऐसे ही हालात में वे भी अपने बाप और परिवार और देशवालों के अत्याचारों से तंग आकर वतन से निकल खड़े हुए थे। इससे एक ओर मक्का के विधर्मियों को यह शिक्षा दी गई है कि आज हिजरत करनेवाले मुसलमान इबाहीम (अलैहि०) की पोजीशन में हैं और तुम लोग उन ज़ालिमों की स्थिति में हो जिन्होंने उनको घर से निकाला था। दूसरी ओर मुहाजिरों को यह शुभ-सूचना दी गई है कि जिस तरह इब्राहीम (अलैहि०) वतन से निकलकर नष्ट न हुए, बल्कि और अधिक उच्च पद पर आसीन हो गए, ऐसा ही भला अंजाम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

इसके बाद नबियों का उल्लेख किया गया है, जिसमें यह बताना अभिप्रेत है कि तमाम नबी वही दीन लेकर आए थे जो मुहम्मद (सल्ल०) लाए हैं। मगर नबियों के गुज़र जाने के बाद उनकी उम्मतें बिगड़ती रही है और आज अलग-अलग उम्मतों (समुदायो) में जो गुमराहियाँ पाई जा रही हैं, ये उसी बिगाड़ का फल हैं।

आयत 67 से अन्त तक मक्का के इस्लाम-शत्रुओं की पथभ्रष्टता की कड़ी आलोचना की गई है और कलाम (वाणी) समाप्त करते हुए ईमानवालों को शुभ-सूचना सुनाई गई है कि सत्य के शत्रुओं की सारी कोशिशों के बावजूद अन्तत: तुम लोकप्रिय बनकर रहोगे।

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سُورَةُ مَرۡيَمَ
19. मरयम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
كٓهيعٓصٓ
(1) काफ़-हा-या-ऐन-साद,
ذِكۡرُ رَحۡمَتِ رَبِّكَ عَبۡدَهُۥ زَكَرِيَّآ ۝ 1
(2-3) वर्णन है1 उस रहमत का जो तेरे रब ने अपने बन्दे जकरीया2 पर की थी, जबकि उसने अपने रब को चुपके चुपके पुकारा।
1. तुलना के लिए सूरा-3 आले इमरान, आयत-31-41 दृष्टि में रहे, जिसमें यह क़िस्सा दूसरे शब्दों में बयान हो चुका है।
2. यह हज़रत ज़करीया, जिनका वर्णन यहाँ हो रहा है, हज़रत हारून के परिवार से थे । इनकी स्थिति ठीक-ठीक समझने के लिए ज़रूरी है कि बनी इसराईल के पुरोहितवाद (Priesthood) को अच्छी तरह समझ लिया जाए। फलस्तीन पर कब्ज़ा करने के बाद बनी इसराईल ने देश का प्रबन्ध इस तरह किया था कि हज़रत याक़ूब की सन्तान के 12 क़बीलों में तो सारा देश बाँट दिया गया और तेरहवाँ क़बीला (यानी लावी बिन याक़ूब का घराना) धार्मिक सेवाओं के लिए मुख्य कर दिया गया। फिर बनी लावी में से भी असल वह परिवार जो मदिस में ख़ुदाबन्द के आगे बखूर जलाने की खिदमत' और 'सबसे पाक चीज़ों को मुक़द्दस का बनाने का काम करता था, हज़रत हारून का परिवार था। बाकी दूसरे बनी लावी मक्दिस के भीतर नहीं जा सकते थे, बल्कि ख़ुदावन्द के घर की ख़िदमत के समय सेहनों और कोठरियों में काम करते थे, सब्त (शनिवार) के दिन और ईदों के मौक़ों पर सोख्ननी क़ुर्बानियाँ चढ़ाते थे, और मक्दिस की निगरानी में बनी हारून का हाथ बटाते थे। 'बनी हारून' के चौबीस परिवार थे जो बारी-बारी से मक्दिस की सेवा के लिए हाज़िर होते थे। उन्हीं का परिवारों में से एक अबयाह का परिवार था जिसके सरदार हज़रत ज़करीया थे। अपने परिवार की बारी के दिनों में यही मदिस में जाते और ख़ुदावन्द के हुजूर बख़ूर जलाने की सेवा पूरी करते थे। (विस्तार के लिए देखिए बाइबल की किताब, इतिहास, पहला भाग,अध्याय 23-24)
إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥ نِدَآءً خَفِيّٗا ۝ 2
0
قَالَ رَبِّ إِنِّي وَهَنَ ٱلۡعَظۡمُ مِنِّي وَٱشۡتَعَلَ ٱلرَّأۡسُ شَيۡبٗا وَلَمۡ أَكُنۢ بِدُعَآئِكَ رَبِّ شَقِيّٗا ۝ 3
(4) उसने निवेदन किया, “ऐ पालनहार ! मेरी हड्डियाँ तक घुल गई हैं और सर बुढ़ापे से भड़क उठा है। ऐ पालनहार ! मैं कभी तुझसे दुआ माँगकर असफल नहीं रहा।
وَإِنِّي خِفۡتُ ٱلۡمَوَٰلِيَ مِن وَرَآءِي وَكَانَتِ ٱمۡرَأَتِي عَاقِرٗا فَهَبۡ لِي مِن لَّدُنكَ وَلِيّٗا ۝ 4
(5) मुझे अपने पोछे अपने भाई-बंदों को बुराइयों का डर है,3 और मेरी पत्नी बांझ है।
3. अर्थ यह है कि अबयाह के परिवार में मेरे बाद कोई ऐसा नज़र नहीं आता जो धार्मिक और नैतिक हैसियत से इस पद के योग्य हो जिसे मैं संभाले हुए हूँ। आगे जो नस्ल उठती नज़र आ रही है उसके लक्षण बिगड़े हुए हैं।
يَرِثُنِي وَيَرِثُ مِنۡ ءَالِ يَعۡقُوبَۖ وَٱجۡعَلۡهُ رَبِّ رَضِيّٗا ۝ 5
(6) तू मुझे अपनी विशेष कृपा से एक उत्तराधिकारी प्रदान कर दे, जो मेरा वारिस भी हो और आले याकूब के घराने की मोरास भी पाए।4 और ऐ पालनहार ! उसको एक पसंदीदा इंसान बना।"
4. अर्थात् मुझे केवल अपने निज ही का वारिस नहीं चाहिए, बल्कि याकूब के घराने की भलाइयों का वारिस चाहिए।
يَٰزَكَرِيَّآ إِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلَٰمٍ ٱسۡمُهُۥ يَحۡيَىٰ لَمۡ نَجۡعَل لَّهُۥ مِن قَبۡلُ سَمِيّٗا ۝ 6
(7) (उत्तर दिया गया) “ऐ जकरीया ! हम तुझे एक लड़के को शुभ-सूचना देते हैं जिसका नाम यहया होगा। हमने इस नाम का कोई आदमी इससे पहले पैदा नहीं किया।"5
5. लूका को इंजील में शब्द ये हैं : “तेरे कुंबे में किसी का यह नाम नहीं। (1:61)
قَالَ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَٰمٞ وَكَانَتِ ٱمۡرَأَتِي عَاقِرٗا وَقَدۡ بَلَغۡتُ مِنَ ٱلۡكِبَرِ عِتِيّٗا ۝ 7
(8) निवेदन किया, “पालनहार ! भला मेरे यहाँ कैसे बेटा होगा जबकि मेरी पत्नी बांझ है और मैं बूढ़ा होकर सूख चुका हूँ?"
قَالَ كَذَٰلِكَ قَالَ رَبُّكَ هُوَ عَلَيَّ هَيِّنٞ وَقَدۡ خَلَقۡتُكَ مِن قَبۡلُ وَلَمۡ تَكُ شَيۡـٔٗا ۝ 8
(9) उत्तर मिला, "ऐसा ही होगा। तेरा रब फ़रमाता है कि यह तो मेरे लिए छोटी-सी बात है। आखिर इससे पहले मैं तुझे पैदा कर चुका हूँ जब कि तू कोई चीज़ न था।‘’6
6. अर्थात् तेरे बूढ़े होने और तेरी पत्नी के बाँझ होने के बावजूद तेरे यहाँ लड़का पैदा होगा, हज़रत ज़करीया के इस प्रश्न और फ़रिश्ते के उत्तर को दृष्टि में रखिए, क्योंकि आगे चलकर हज़रत मरयम के किस्से में फिर यही विषय आ रहा है और इसका जो अर्थ यहाँ है,वही वहाँ भी होना चाहिए।
قَالَ رَبِّ ٱجۡعَل لِّيٓ ءَايَةٗۖ قَالَ ءَايَتُكَ أَلَّا تُكَلِّمَ ٱلنَّاسَ ثَلَٰثَ لَيَالٖ سَوِيّٗا ۝ 9
(10) ज़करीया ने कहा, “पालनहार ! मेरे लिए कोई निशानी निश्चित कर दे।" फ़रमाया, “तेरे लिए निशानी यह है कि तू लगातार तीन दिन लोगों से बात न कर सके।"
فَخَرَجَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنَ ٱلۡمِحۡرَابِ فَأَوۡحَىٰٓ إِلَيۡهِمۡ أَن سَبِّحُواْ بُكۡرَةٗ وَعَشِيّٗا ۝ 10
(11) चुनांचे वह मेहराब से7 निकलकर अपनी क़ौम के सामने आया और उसने इशारे से उनको आदेश दिया कि सुबह व शाम तस्बीह करो।8
7. मेहराब की व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-3 आले इमरान, टिप्पणी 36
8. इस घटना का जो विवरण लूका की इंजील में बयान हुआ है, उसके महत्वपूर्ण अंश हम यहाँ नक़ल कर देते हैं ताकि लोगों के सामने क़ुरआन की रिवायतों के साथ मसीही रिवायत भी रहे । बीच में ब्रैकेट (कोष्टक) के वाक्य हमारे अपने हैं- "यहूदियों के बादशाह हीरोदेस के ज़माने में अबियाह के दल में जकरियाह नामक एक याजक था और उसकी बीवी हारून के वंश की थी और उसका नाम इलीशिबा (Elizabeth) था और उनके औलाद न थी क्योंकि इलीशिबा बांझ थी और वे दोनों बूढ़े थे। ......ऐसा हुआ कि कहानत के चलन के अनुसार उसके नाम का क़ुरआ निकला कि ख़ुदावन्द के मकिदस में जाकर ख़ुश्बू जलाए। और लोगों को सारी जमाअत ख़ुश्बू जलाते वक़्त बाहर दुआ कर रही थी कि ख़ुदावन्द का फ़रिश्ता ख़ुश्बू के मज़बह की दाहिनी ओर खड़ा हुआ उसको दिखाई दिया। और जकरियाह उसको देखकर घबराया और उसपर दहशत गई। मगर फ़रिश्ते ने उससे कहा,ऐ जकरियाह ! ख़ौफ़ न कर, क्योंकि तेरी दुआ सुन ली गई । (हज़रत ज़करीया अलैहिस्सलाम की दुआ का ज़िक्र बाइबल में कहीं नहीं है) और तेरे लिए तेरी बीवी इलीशिबा के बेटा होगा । तू उसका नाम यूहन्ना (यानी यहया) रखना ...... वह ख़ुदावन्द के हुजूर में बुजूर्ग होगा (सूरा 3 आले इमरान में इसके लिए शब्द 'सय्यिदन' इस्तेमाल हुआ है) और हरगिज़ न मय (एक प्रकार की शराब) और न कोई अन्य शराब पिएगा। (तकिय्या) और अपनी माँ के पेट ही से रूहुलकुदस से भर जाएगा । (व आतैनाहुल हुक-म सबिय्या) और बहुत-से बनी इसराईल को ख़ुदावन्द की ओर जो उनका ख़ुदा है, फेरेगा।.... " "ज़करियाह ने फ़रिश्ते से कहा, मैं इस बात को किस तरह जानूं ? क्योंकि मैं बूढ़ा हूँ और मेरी बीवी वृद्धा है। फ़रिश्ते ने उससे कहा : मैं जिबील हूँ. ...देख जिस दिन तक ये बातें वाके न हो लें तू चुप रहेगा और बोल न सकेगा इसलिए कि तूने मेरी बातों का, जो अपने वक़्त पर पूरी होंगी, यक़ीन न किया । (यह बयान क़ुरआन से अलग है) और लोग जकरियाह को राह देखते और ताज्जुब करते थे कि उसे मतिदस में क्यों देर लगी। जब वह बाहर आया तो उनसे बोल न सका। वे समझ गए कि उसने मदिस में कोई दर्शन पाया है। वह उनसे इशारे से बात करता रहा क्योंकि वह गूंगा हो रहा ।" (लूका,अध्याय 1, आयत 5-22)
يَٰيَحۡيَىٰ خُذِ ٱلۡكِتَٰبَ بِقُوَّةٖۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡحُكۡمَ صَبِيّٗا ۝ 11
(12) "ऐ यहया ! अल्लाह की किताब को मजबूती से थाम ले।"9 हमने उसे बचपन ही में ‘हुक्म’10 दे दिया
9. बीच में यह विवेचना छोड़ दी गई है कि अल्लाह के इस फ़रमान के मुताबिक़ हज़रत यहया पैदा हुए और ज़वानी की उम्र को पहुँचे। अब यह बताया जा रहा है कि वह मिशन क्या था जो नुबूवत के पद पर बिठाते समय उनके सुपुर्द किया गया था। अर्थात् यह कि वे तौरात पर मज़बूती के साथ क़ायम हों और बनी इसराईल को उसपर क़ायम करने की कोशिश करें।
10. हुक्‍म’ अर्थात् फैसाले की ताक़त, इज्जिताहाद (सही नतीजा निकलने) की ताक़त, दीन की गहरी समझ मामलो में सही राय बनाने की क्षमता और अल्लाह की ओर से मामलों में फ़ैसला देने का अधिकार।
وَحَنَانٗا مِّن لَّدُنَّا وَزَكَوٰةٗۖ وَكَانَ تَقِيّٗا ۝ 12
(13) और अपनी ओर से उसको नम्रता11 और पवित्रता प्रदान को और वह बड़ा संयमी
11. मूल में शब्द “हनान “प्रयुक्त हुआ है जो करीब -करीब ममता का समानार्थी है। अर्थात् एक माँ को जो अत्यन्त प्रेम आपनी समान पर होता है. वह प्रेम हजरत यहया के दिल में अल्लाह के बन्दों के लिए पैदा किया गया था।
وَبَرَّۢا بِوَٰلِدَيۡهِ وَلَمۡ يَكُن جَبَّارًا عَصِيّٗا ۝ 13
(14) और अपने माँ-बाप के हको का पहचाननेवाला या वह उदंड न था और न अवज्ञाकारी।
وَسَلَٰمٌ عَلَيۡهِ يَوۡمَ وُلِدَ وَيَوۡمَ يَمُوتُ وَيَوۡمَ يُبۡعَثُ حَيّٗا ۝ 14
(15) सलाम उसपर जिस दिन कि वह पैदा हुआ और जिस दिन वह मरे और जिस दिन वह ज़िन्दा करके उठाया जाए।12
12. हजरत यहया के जो हालात विभिन इन्जिलो में बिख़रे हुए हैं, उन्हें जमा करके हम यहाँ उनको पवित्र जीवनी को रूरूपरेखा प्रस्तुत करते है जिसमें सूरा-3 आले इमरान और इस सूरा के संक्षिप्त संकेतों को स्पष्‍ट किया जा सकेगा। लूक़ा के बयान के अनुसार हज़रत यहया हज़रत ईसा से छ: महीने बड़े थे। लगभग 30 साल की उम्र में नुबूवत के पद पर व्यावहारिक रूप से आसीन हुए और युहन्ना को रिवायत के अनुसार उन्होंने जार्डन के पूर्वी इलाके में अल्लाह को ओर बुलाने का काम शुरू किया। वे कहते थे- "मैं निर्जन स्थान में एक पुकारनेवाले को आवाज़ हूँ कि तुम खुदावन्द को राह को सीधा करो।' (युहन्ना 1: 23) मरकुस का बयान है कि वे लोगों से गुनाहों को तौबा कराते थे और तौबा करनेवालों को बपतिस्मा देते दे. अर्थात् टोना के बाद नहलाते थे, ताकि आत्मा और शरीर दोनों पाक हो जाएं। यहूदिया और यरूश्लम के अधिकतर लोग उनके श्रद्धालु हो गए थे और उनके पास जाकर बपतिस्मा लेते थे। (मरकुस 1:45) इसी आधार पर उनका नाम युहन्ना बपतिस्मा देनेवाला (John the Baptist) प्रसिद्ध हो गया था। सामान्य रूप से बनी इसराईल उनकी नुबूबत स्वीकार कर चुके थे (मत्तो 21:26)। मसीह (अलैहि०) का कथन था कि 'जो औरतों से पैदा हुए हैं, उनमें युहन्ना बपतिस्मा देनेवाले से बड़ा कोई नहीं हुआ। (मत्ती 11: 11) वह ऊँट के बालों को पोशाक पहने और चमड़े का पटका कमर से बांधे रहते थे और उनका भोजन टिड्डियाँ और जंगली शहद था (मत्ती 3:4)। इस फकोराना जीवन के साथ वे मुनादी करते फिरते थे कि तौबा करो, क्योंकि आसमान को बादशाहो करीब आ गई है (मत्ती 3:2)। अर्थात् मसौह (अलैहि०) को नुबूवत को शुरुआत होनेवाली है। इसी आधार पर उनको सामान्य रूप से हज़रत मसीह का 'अरहास' (पुष्टि करनेवाले) कहा जाता है, और यही बात उनके बारे में कुरआन में कही गई है कि- 'मुसद्दिक़म बिकलिमतिम मिनल्लाहि (आले इमरान-4)। वे लोगों को रोज़े और नमाज़ पर उभारते थे (मत्ती 9 : 14, लूक़ा 5:33, लूका 11 : 1)। वे लोगों से कहते थे कि जिसके पास दो कुरते हों, वे उसको जिसके पास न हो, बाँट दे और जिसके पास खाना हो, वह भी ऐसा ही करें (लूका 3:10) । बनी इसराईल के बिगड़े हुए उलमा फरेसी और सदूको उनके पास बपतिस्मा लेने तो डॉटकर फरमाया, "ऐ साँप के बच्चो । तुमको किसने जता दिया कि आनेवाले गजब (प्रकोप) से भागो? ..... अपने दिलों में यह कहने का ख़्याल न करो कि अब्राहम हमारा बाप है अब पेड़ों की जड़ों पर कुल्हाड़ा रखा हुआ है, अत: जो पेड़ अच्छा फल नहीं लाता, वह काटा और आग में डाला जाता है।" (पती 3:7-10) उनके ज़माने में यहूदी शासक हीरो डायटी पास, जिसके राज्य में वे हक की दावत की ख़िदमत अंजाम देते थे, सिर से पैर तक रूमी सभ्यता में जूला हुआ था और उसकी वजह से सारे देश में भ्रष्टाचार फैल रहा था। उसने स्वयं अपने भाई फ्लिप को बीवी हीरोदयास को अपने घर में डाल रखा था। हज़रत यहया ने इसपर होरोद को मलामत की और उसके दुराचरण के विरुद्ध आवाज उठाई। इस अपराध में हीरोद ने उनको गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। और अन्ततः उसी बदकार औरत के कहने पर उसकी नाचनेवाली बेटी ने जब उस भाग्यहीन से हज़रत यहया का सर माँगा। तो उसने कैद खाने से उनका सर कटवा कर मँगवाया और एक थाल में रखवाकर उस नाचनेवाली को भेंट कर दिया। (मत्ती 14 : 3-12, मरकुस 6:17-29, लूक़ा 3:19-20)
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَرۡيَمَ إِذِ ٱنتَبَذَتۡ مِنۡ أَهۡلِهَا مَكَانٗا شَرۡقِيّٗا ۝ 15
(16-17) और ऐ नबी । इस किताब में पाया का हाल जमा करो13, जबकि सन अपने लोगों से अलग होकर पूर्वी ओर कोना पकड़े बैठी थी14 और परदा डालकर उससे लिप बैठी थी। इस हालत में हमने उसके पास अपनी रूह (अर्थात पारिश्ते) को भेजा और वह उसके सामने एक, पूरे इंसान के रूप में प्रकट हो गया ।
13. तुलना के लिए देखिए सूरा-3 आले इमरान, टिप्पणी 42 और 55, सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी 190-191।
14. सूरा-3 आले इमरान में दूसरी बातों के साथ यह भी बताया जा चुका है कि हज़रत मरयम बैतुल-मक़्द‍िस को एक मेहराब में एकान्तवासी हो गई थीं। अब यहाँ यह बताया जा रहा है कि वह मेहराब जिसमें हज़रत मरयम एकान्तवासी थीं, बैतुल-मक्दिस के पूर्वी हिस्से में स्थित थी और उन्होंने एकान्तवासियों के आम तरीक़े के अनुसार एक परदा लटकाकर अपने आपको देखनेवालों की निगाहों से सुरक्षित कर लिया था। जिन लोगों ने सिर्फ़ बाइबल से समानता के लिए पूर्वी जगह से तात्पर्य नासरा लिया है उन्होंने गलती की है, क्योंकि नासरा यरूश्लम के उत्तर में है, न कि पूरब में।
فَٱتَّخَذَتۡ مِن دُونِهِمۡ حِجَابٗا فَأَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهَا رُوحَنَا فَتَمَثَّلَ لَهَا بَشَرٗا سَوِيّٗا ۝ 16
0
قَالَتۡ إِنِّيٓ أَعُوذُ بِٱلرَّحۡمَٰنِ مِنكَ إِن كُنتَ تَقِيّٗا ۝ 17
(18) परयम यकायक बोल उठी कि "अगर तू अल्लाह से डरनेवाला कोई आदमी है तो मैं तुहासे दयावान अल्लाह की शरण माँगती हूँ।"
قَالَ إِنَّمَآ أَنَا۠ رَسُولُ رَبِّكِ لِأَهَبَ لَكِ غُلَٰمٗا زَكِيّٗا ۝ 18
(19) उसने कहा, "मैं तो तेरे रब का भेजा हुआ हूँ और इसलिए भेजा गया कि तुझे एक पवित्र लड़का हूँ।"
قَالَتۡ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَٰمٞ وَلَمۡ يَمۡسَسۡنِي بَشَرٞ وَلَمۡ أَكُ بَغِيّٗا ۝ 19
(20) मरयम ने कहा, "मेरे यहाँ कैसे लड़का होगा, जबकि मुझे किसी मनुष्य ने छुआ तक नहीं है और मैं कोई बदकार औरत नहीं हूँ।"
قَالَ كَذَٰلِكِ قَالَ رَبُّكِ هُوَ عَلَيَّ هَيِّنٞۖ وَلِنَجۡعَلَهُۥٓ ءَايَةٗ لِّلنَّاسِ وَرَحۡمَةٗ مِّنَّاۚ وَكَانَ أَمۡرٗا مَّقۡضِيّٗا ۝ 20
(21) रिश्ते ने कहा, "ऐसा ही होगा, तेरा रब फ़रमाता है कि ऐसा करना मेरे लिए बहुत आसान है और हम यह इसलिए करेंगे कि उस लड़के को लोगों के लिए एक निशानी बनाएँ15 और अपनी ओर से एक रहमत, और यह काम होकर रहना है।"
15. हज़रत मरयम के चौंकने पर फ़रिश्ते का यह कहना कि "ऐसा ही होगा” कदापि इस अर्थ में नहीं हो सकता कि मनुष्य तुझको छूएगा और उससे तेरे यहाँ लड़का पैदा होगा, बल्कि इसका खुला अर्थ यही कि हो यहाँ लड़का होगा, बावजूद इसके कि तुझे किसी मनुष्य ने नहीं छुआ है। अगर इन्हीं शब्दों में जात जकरीया (अलैहि०) का हैरत में पड़ने का उल्लेख हो चुका है। और वहाँ भी फ़रिश्ते ने यही जवाब दिया है। स्पष्ट है कि जो अर्थ इस जवाब का वहाँ है, वही यहाँ भी है। इसी तरह सूरा-51 अज-जारियात, आयत 28-30 में जब फ़रिश्ता हज़रत इबाहीम (अलैहि०) को बेटे की शुभ-सूचना देता है और हज़ात सारा बहती हैं कि मुझ बूढी बाँझ के यहाँ बेटा कैसे होगा, तो फ़रिश्ता उनको जवाब देता है कि ऐसा ही होगा। स्पष्ट है इससे तात्पर्य बुढ़ापे और बाँझपन के बावजूद उनके यहाँ औलाद होना है। इसके अलावा अगर ऐसा ही होगा" का अर्थ यह ले लिया जाए कि मनुष्य तुझे छुएगा और तेरे यहाँ उसी तरह लड़का होगा जैसे दुनिया भर की औरतों के यहाँ हुआ करता है, तो फिर बाद के दोनों वाक्य बिल्कुल निरर्थक हो जाते हैं। इस स्थिति में यह कहने की क्या जरूरत रह जाती है कि "तेरा रब कहता है कि ऐसा करना मेरे लिए बहुत आसान है और यह कि हम इस लड़के को एक निशानी बनाना चाहते हैं।" निशानी का शब्द यहाँ साट रूप से मोजज़े के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और इस अर्थ के लिए यह वाक्य भी दलील बनता है कि "या करना मेरे लिए बहुत आसान है।" इसलिए इस कथन का अर्थ अलावा इसके और कुछ नहीं है कि हम इस बच्चे की जात ही को एक जिंदा मोजजे की हैसियत से बनी इसराईल के सामने पेश करना चाहते हैं। बाद के विवरण इस बात की स्वयं व्याख्या कर रहे हैं कि हज़रत ईसा (अलैहि०) की जात को किस तरह मोजड़ा बनाकर पेश किया गया।
۞فَحَمَلَتۡهُ فَٱنتَبَذَتۡ بِهِۦ مَكَانٗا قَصِيّٗا ۝ 21
(22) मरयम को उस बच्चे का गर्भ रह गया और उस गर्भ को लिए हुए एक दूर की जगह पर चली गई।16
16. दूर की जगह से तात्पर्य 'बैतुल्लहम' है। हज़रत मरयम का अपने एकान्तवास से निकलकर वहाँ जाना एक स्वाभाविक कार्य था। बनी इसराईल के सबसे पवित्र घराने में बनी हारून की लड़की और फिर वह जी बैतुल-मक्दिस में अल्लाह की इबादत के लिए एकाग्र होकर बैठी थी, यकायक गर्भवती हो गई। इस हालत में अगर वह अपने एकान्तवास की जगह पर बैठी रहती और उसका गर्भ लोगों पर प्रकट हो जाता तो परिवारवाले ही नहीं, कौम के दूसरे लोग भी उनका जीना मुश्किल कर देते। इसलिए बेचारी इस कड़ी परीक्षा में पड़ जाने के बाद चुपचाप अपने एकान्तवास का कमरा छोड़कर निकल खड़ी हुई ताकि जब तक अल्लाह की मर्जी पूरी हो, कौम की लानत-मलामत और सामान्य बदनामी से तो बची रहें। यह घटना तो अपने आप में इस बात की बहुत बड़ी दलील है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) बाप के बिना पैदा हुए थे। अगर वह शादीशुदा होती और शौहर ही से उनके यहाँ बच्चा पैदा हो रहा होता तो कोई वजह न थी कि मायका और ससुराल, सबको छोड़-छाड़कर वे प्रसव के लिए अकेले एक दूर की जगह पर चली जातीं।
فَأَجَآءَهَا ٱلۡمَخَاضُ إِلَىٰ جِذۡعِ ٱلنَّخۡلَةِ قَالَتۡ يَٰلَيۡتَنِي مِتُّ قَبۡلَ هَٰذَا وَكُنتُ نَسۡيٗا مَّنسِيّٗا ۝ 22
(23) फिर प्रसव पीड़ा ने उसे एक खजूर के पेड़ के नीचे पहुँचा दिया। वह बहने लगी, "काश ! मैं इससे पहले ही मर जाती और मेरा नाम-निशान न रहता।‘’17
17. इन शब्दों से उन परेशानी का अनुमान लगाया जा सकता है जिसमें हज़रत मरयम उस वक़्त पड़ी हुई थीं। इस वाणी के प्रसंग पर विचार किया जाए तो मालूम होता है कि हज़रत मरयम को ज़बान से ये शब्द प्रसव-पीड़ा को वजह से नहीं निकले थे, बल्कि यह चिन्ता उनको खाए जा रही थी कि अल्लाह ने जिस ख़तरनाक आज़माइश में उन्हें डाला है, उससे किसी तरह सकुशल निकल आएँ। गर्भ को तो अब तक किसी न किसी तरह छिपा लिया, अब इस बच्चे को कहाँ ले जाएँ जो बाप के बिना पैदा हुआ है। इसी कारण वह गर्भ के समय में अकेली एक दूर की जगह पर चली गई थौं हालाँकि उनकी माँ और परिवार के लोग व्तन में मौजूद थे।
فَنَادَىٰهَا مِن تَحۡتِهَآ أَلَّا تَحۡزَنِي قَدۡ جَعَلَ رَبُّكِ تَحۡتَكِ سَرِيّٗا ۝ 23
(24-25) फ़रिश्ते ने पायंती से उसको पुकारकर कहा, “ग़म न कर । तेरे रब ने तेरे नीचे एक स्रोत जारी कर दिया है और तू तनिक इस पेड़ के तने को हिला, तेरे ऊपर तरो-ताज़ा खजूरें टपक पड़ेंगी।
وَهُزِّيٓ إِلَيۡكِ بِجِذۡعِ ٱلنَّخۡلَةِ تُسَٰقِطۡ عَلَيۡكِ رُطَبٗا جَنِيّٗا ۝ 24
0
فَكُلِي وَٱشۡرَبِي وَقَرِّي عَيۡنٗاۖ فَإِمَّا تَرَيِنَّ مِنَ ٱلۡبَشَرِ أَحَدٗا فَقُولِيٓ إِنِّي نَذَرۡتُ لِلرَّحۡمَٰنِ صَوۡمٗا فَلَنۡ أُكَلِّمَ ٱلۡيَوۡمَ إِنسِيّٗا ۝ 25
(26) अत: तू खा और पी और अपनी आँखें ठंडी कर। फिर अगर कोई आदमी तुझे नज़र आए तो उससे कह दे कि मैंने रहमान (अल्लाह) के लिए रोज़े की नन मानी है, इसलिए आज मैं किसी से न बोलूँगी।‘’18
18. अर्थ यह है कि बच्चे के मामले में तुझे कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं। उसके जन्म पर जिस किसी को आपत्ति हो, उसका जवाब अब हमारे ज़िम्मे है । (स्पष्ट रहे कि बनी इसराईल में चुप का रोज़ा रखने का तरीका था) ये शब्द भी स्पष्ट बता रहे हैं कि हज़रत मरयम को असल परेशानी क्या थी। साथ ही यह बात भी विचार करने की है कि शादीशुदा लड़की के यहाँ पहलौटी का बच्चा अगर दुनिया के जाने-पहचाने तरीक़े पर पैदा हो तो आख़िर उसे चुप का रोज़ा रखने की क्या आवश्यकता हो सकती है?
فَأَتَتۡ بِهِۦ قَوۡمَهَا تَحۡمِلُهُۥۖ قَالُواْ يَٰمَرۡيَمُ لَقَدۡ جِئۡتِ شَيۡـٔٗا فَرِيّٗا ۝ 26
(27) फिर वह उस बच्चे को लिए हुए अपनी क़ौम में आई। लोग कहने लगे, "ऐ मरयम ! यह तो तूने बड़ा पाप कर डाला ।
يَٰٓأُخۡتَ هَٰرُونَ مَا كَانَ أَبُوكِ ٱمۡرَأَ سَوۡءٖ وَمَا كَانَتۡ أُمُّكِ بَغِيّٗا ۝ 27
(28) ऐ हारून की बहन ।19 न तेरा बाप कोई बुरा आदमी था, और न तेरी माँ ही कोई बदकार औरत थी।"19अ
19. इन शब्दों के दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि उन्हें प्रत्यक्ष अर्थ में लिया जाए और यह समझा जाए कि हज़रत मरयम का कोई भाई हारून नाम का हो। दूसरे यह कि अरबी मुहावरे के अनुसार 'हारून की बहन' का अर्थ हारून के परिवार की लड़की' ली जाए क्योंकि अरबी में यह एक जानी-पहचानी शैली है। जैसे मुजर कबीले के आदमी को 'ऐ मुज़र के भाई' और हमदान कबीले के आदमी को 'ऐ हमदान के भाई' कहकर पुकारते हैं। पहले अर्थ के पक्ष में प्राथमिकता का तर्क यह है कि कुछ रिवायतों में स्वयं नबी (सल्ल०) से यही अर्थ नकल किए गए हैं और दूसरे अर्थ के समर्थन में तर्क यह है कि परिस्थिति इस बात का तकाज़ा करती है। क्योंकि इस घटन्ग से कौम में जो बेचैनी पैदा हो गई थी, उस कारण प्रत्यक्ष में यह नहीं मालूम होता कि हारून नामी एक गुमनाम आदमी की कुंवारी बहन गोद में बच्चा लिए हुए आई थी, बल्कि जिस चीज़ ने लोगों को एक भीड़ को हज़रत एयम के चारों ओर जमा कर दिया था, वह यही हो सकती थी कि बनी इसराईल के पवित्रतम घराने, हारून के घराने की एक लड़की इस हालत में पाई गई। यद्यपि एक मरफूअ हदीस (यानी वह हदीस जो नबी सल्ल० से सम्बंध हो) की मौजूदगी में कोई दूसरा अर्थ सिद्धांत रूप से ध्यान देने योग्य नहीं हो सकता, लेकिन हदीस-ग्रन्थ मुस्लिम, नसई, तिर्मिज़ी आदि में यह हदीस जिन शब्दों में नक़ल हुई है उससे यह अर्थ नहीं निकलता कि इन शब्दों का अर्थ अनिवार्य रूप से 'हारून की बहन' ही है। मुग़ीरह बिन शोबा (रजि०) की रिवायत में जो कुछ बयान हुआ है, वह यह है कि नजरान के ईसाइयों ने हज़रत मुगीरह (रजि०) के सामने यह आपत्ति रखी कि कुरआन में हज़रत मरयम को हारून की बहन कहा गया है, हालांकि हज़रत हारून उनसे सैंकड़ों वर्ष पहले गुज़र चुके थे। हज़रत मुग़ीरह (रजि०) उनकी आपत्ति का उत्तर न दे सके और उन्होंने आकर नबी (सल्ल०) के सामने यह किस्सा दोहराया। इसपर हुजूर (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “तुमने यह उत्तर क्यों न दिया कि बनी इसराईल अपने नाम नबियों और भले लोगों के नाम पर रखते थे।" नबी (सल्ल०) के इस कथन से केवल यह बात निकलती है कि निरुत्तर होने के बजाय यह उत्तर देकर आपत्ति समाप्त की जा सकती थी।
19अ. जो लोग हज़रत ईसा (अलैहि०) की मोजज़ों भरी (चामत्कारिक) पैदाइश (जन्म) के इंकारी हैं वे आख़िर इस बात का क्या यथोचित कारण बता सकते हैं कि हज़रत मरयम का बच्चा लिए हुए आने पर क़ौम क्यों चढ़ आई और उनपर व्यंग्य और निंदा की बौछार उसने क्यों की?
فَأَشَارَتۡ إِلَيۡهِۖ قَالُواْ كَيۡفَ نُكَلِّمُ مَن كَانَ فِي ٱلۡمَهۡدِ صَبِيّٗا ۝ 28
(29) परयम ने बच्चे की ओर इशारा कर दिया लोगों ने कहा, "हम इससे क्या बात करें जो पालने में पड़ा हुआ एक बच्चा है?20
20. क़ुरआन के अर्थों में बिगाड़ पैदा करनेवालों ने इस आयत का यह अर्थ लिया है कि हम इससे क्या बात करें जो कल का बच्चा है।" अर्थात् उनके नज़दीक यह बात-चीत हज़रत ईसा की जवानी के समय में हुई और बनी इसराईल के बड़े-बूढ़ों ने कहा कि भला उस लड़के से क्या बात करें जो कल हमारे सामने पालने में पड़ा हुआ था। मगर जो आदमी संदर्भ व प्रसंग को सामने रखकर इसपर विचार करेगा, वह महसूस कर लेगा कि यह सिर्फ़ एक बेकार की बात है जो मोजज़े से बचने के लिए की गई है। और कुछ नहीं तो ज़ालिमों ने यही सोचा होता कि जिस बात पर आपत्ति करने के लिए वे लोग आए थे, वह तो बच्चे के जन्म के समय पेश आई थी, न कि उसके जवान होने के समय । इसके अलावा सूरा-3 आले इमरान की आयत 46 और सूरा-5 माइदा की आयत 110 दोनों इस बात को पूरी तरह स्पष्ट करती हैं कि हज़रत ईसा ने यह कलाम जवानी में नहीं, बल्कि पालने में एक नवजात शिशु की हैसियत ही से किया था।
قَالَ إِنِّي عَبۡدُ ٱللَّهِ ءَاتَىٰنِيَ ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلَنِي نَبِيّٗا ۝ 29
(30-31) बच्चा बोल उठा, “मैं अल्लाह का बन्दा हूँ। 20अ उसने मुझे किताब दी और नबी बनाया और बरकतवाला किया जहाँ भी मैं रहूँ। और नमाज़ और ज़कात की पाबन्दी का हुक्म दिया जब तक मैं जिंदा रहूँ
20अ. यह थी वह निशानी जिसका उल्लेख इससे पहले आयत 21 में गुज़रा है । नवजात शिशु ने पालने में पड़े हुए बोलना शुरू कर दिया जिससे सबपर स्पष्ट हो गया कि वह किसी गुनाह का नतीजा नहीं है, बल्कि एक मोजज़ा है जो अल्लाह ने दिखाया है।
وَجَعَلَنِي مُبَارَكًا أَيۡنَ مَا كُنتُ وَأَوۡصَٰنِي بِٱلصَّلَوٰةِ وَٱلزَّكَوٰةِ مَا دُمۡتُ حَيّٗا ۝ 30
0
وَبَرَّۢا بِوَٰلِدَتِي وَلَمۡ يَجۡعَلۡنِي جَبَّارٗا شَقِيّٗا ۝ 31
(32) और अपनी माँ का हक़ अदा करनेवाला बनाया, 20ब और मुझको उदंड और अभागा नहीं बनाया ।
20ब. यह नहीं फरमाया कि माँ-बाप का हक़ अदा करनेवाला । केवल माँ का हक़ अदा करनेवाला फ़रमाया है। यह भी इस बात की दलील है कि हज़रत ईसा का बाप कोई न था और उसका एक खुला प्रमाण यह है कि क़ुरआन में हर जगह उनको ईसा इब्ने मरयम कहा गया है।
وَٱلسَّلَٰمُ عَلَيَّ يَوۡمَ وُلِدتُّ وَيَوۡمَ أَمُوتُ وَيَوۡمَ أُبۡعَثُ حَيّٗا ۝ 32
(33) सलाम है मुझपर जबकि मैं पैदा हुआ और जबकि मैं मरूं और जबकि जिंदा करके उठाया जाऊँ।‘’21
21. यह है वह 'निशानी' जो हज़रत ईसा (अलैहि०) की ज़ात में बनी इसराईल के सामने पेश की गई। अल्लाह बनो इसराईल को उनके लगातार दुराचारों पर शिक्षाप्रद सज़ा देने से पहले उनपर युक्तिपूर्ण करना चाहता था। इसके लिए उसने यह उपाय खोजा कि बनी हारून की एक ऐसी नेक और दोनदार लड़की को जो बैतुल-मक्दिस में एकान्तवासी और हज़रत ज़करीया की प्रशिक्षण में थी, कुंवारेपन की हालत में गर्भवती कर दिया, ताकि जब वह बच्चा लिए हुए आए तो सारी क़ौम में हलचल पैदा हो जाए और लोगों का ध्यान एक साथ उनपर आकृष्ट हो जाए। फिर इस उपाय के नतीजे में जब एक भीड़ हज़रत मरयम पर टूट पड़ी तो अल्लाह ने उस नये बच्चे से कलाम कराया, ताकि जब यही बच्चा बड़ा होकर नुबूवत के पद पर आसीन हो तो क़ौम में हजारों आदमी इस बात की गवाही देनेवाले मौजूद रहे कि उसके व्यक्तित्व में वे अल्लाह का एक स्तब्ध कर देनेवाला मोजज़ा देख चुके हैं। यही कारण है कि जब जवान होकर हज़रत ईसा ने नुब्बत का काम शुरू किया और इस कौम ने न सिर्फ उनका इंकार किया, बल्कि उनकी जान की दुश्मन हो गई और उनकी माँ पर ज़िना का आरोप लगाने से भी न चुकी तो अल्लाह ने उसको ऐसी सजा दी जो किसी क़ौम को नहीं दी गई। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा 3 आले इमरान, टिप्पणी 44,53, मूग-4 अन-निसा, टिप्पणी 212-213, सूरा- 21 अल अंबिया, टिप्पणी 88,89,90, सूरा-23 अल मोमिनून, टिप्पणी 43)
ذَٰلِكَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَۖ قَوۡلَ ٱلۡحَقِّ ٱلَّذِي فِيهِ يَمۡتَرُونَ ۝ 33
(34) यह है मरयम का बेटा ईसा और यह है उसके बारे में सच्ची बात जिसमें लोग सन्देह कर रहे हैं।
مَا كَانَ لِلَّهِ أَن يَتَّخِذَ مِن وَلَدٖۖ سُبۡحَٰنَهُۥٓۚ إِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 34
(35) अल्लाह का यह काम नहीं कि वह किसी को बेटा बनाए। वह पाक जात (पवित्र सत्ता) है। वह जब किसी बात का फैसला करता है तो कहता है कि हो जा और बसवन हो जाती है।22
22. यहाँ तक जो बात ईसाइयों के सामने स्पष्ट की गई है वह यह है कि हजरत ईसा (अलैहि०) के बारे में अल्लाह का बेटा होने का जो विश्वास उन्होंने अपना रखा है, वह झूठ है। जिस तरह एक मोजजे से हज़रत ईसा के जन्म ने उनको अल्लाह का बेटा नहीं बना दिया उसी तरह एक दूसरे मोजजे से हजरत ईसा (अलैहि०) का जन्म भी इस बात का प्रमाण नहीं है कि मआजल्लाह (अल्लाह की पनाह) इन्हें अल्लाह का बेटा करार दे दिया जाए। ईसाइयों की अपनी रिवायतों में भी यह बात मौजूद है कि हज़रत यहया और हज़रत ईसा, दोनों एक तरह के मोजजे से पैदा हुए थे। चुनांचे लूका की इंजील में क़ुरआन ही की तरह इन दोनों मोजजों का उल्लेख एक वर्णन-क्रम में किया गया है, लेकिन यह ईसाइयों की अतिशयोक्ति है कि वे एक मोजज़े से पैदा होनेवाले को अल्लाह का बन्दा कहते हैं और दूसरे मोजजे से पैदा होनेवाले को अल्लाह का बेटा बना बैठे हैं।
وَإِنَّ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 35
(36) (और ईसा ने कहा था कि) "अल्लाह मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी, अत: तुम उसी की बन्दगी करो, यही सीधी राह है।"23
23. यहाँ ईसाइयों को बताया गया है कि हज़रत ईसा की दावत भी वही थी जो तमाम दूसरे नबी (अलैहि०) लेकर आए थे। उन्होंने इसके सिवा कुछ नहीं सिखाया था कि केवल एक ख़ुदा की बन्दगी की जाए। अब यह जो तुमने उनको बन्दे के बजाय ख़ुदा बना लिया है और उन्हें इबादत में अल्लाह के साथ शरीक कर रहे हो, यह तुम्हारी अपनी गढ़ी हुई चीज़ है। तुम्हारे पेशवा की यह शिक्षा कदापि नहीं थी। (अधिक विवेचन के लिए देखिए सूरा-3 आले इमरान, टिप्पणी 68, सूरा-5 माइदा, टिप्पणी 100-101,130, सूरा-43 अज़-ज़ुख़रुफ़, टिप्पणी 57-58)
فَٱخۡتَلَفَ ٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَيۡنِهِمۡۖ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن مَّشۡهَدِ يَوۡمٍ عَظِيمٍ ۝ 36
(37) मगर फिर अलग-अलग गिरोह 24 आपस में मतभेद करने लगे, सो जिन लोगों ने इंकार किया उनके लिए वह वक़्त बड़ी तबाही का होगा जबकि वह एक बड़ा दिन देखेंगे ।
24. अर्थात् ईसाइयों के गिरोह।
أَسۡمِعۡ بِهِمۡ وَأَبۡصِرۡ يَوۡمَ يَأۡتُونَنَا لَٰكِنِ ٱلظَّٰلِمُونَ ٱلۡيَوۡمَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 37
(38) जब वे हमारे सामने हाज़िर होंगे, उस दिन तो उनके कान भी ख़़ूब सुन रहे होंगे और उनकी आँखें भी ख़ूब देखती होंगी, मगर आज ये ज़ालिम खुली गुमराही में पड़े हुए है,
وَأَنذِرۡهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡحَسۡرَةِ إِذۡ قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ وَهُمۡ فِي غَفۡلَةٖ وَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 38
(39) ऐ नबी ! इस हालत में, जबकि ये लोग गाफ़िल हैं और ईमान नहीं ला रहे हैं, इन्हें उस दिन से डरा दो जबकि फैसला कर दिया जाएगा और पछतावे के सिवा कोई उपाय न होगा।
إِنَّا نَحۡنُ نَرِثُ ٱلۡأَرۡضَ وَمَنۡ عَلَيۡهَا وَإِلَيۡنَا يُرۡجَعُونَ ۝ 39
(40) अन्तत: हम ही ज़मीन और उसकी सारी चीज़ों के वारिस होंगे और सब हमारी ही ओर पलटाए जाएँगे।25
25. यहाँ वह भाषण समाप्त होता है जो ईसाइयों को सुनाने के लिए उतारा गया था। इस भाषण की बड़ाई का सही अन्दाज़ा उसी समय हो सकता है जबकि आदमी उसको पढ़ते समय वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि निगाह में रखे जो हमने इस सूरा की भूमिका में बयान किया है। यह भाषण उस अवसर पर उतरा था जबकि मक्का के पीड़ित मुसलमान एक ईसाई राज्य में पनाह लेने के लिए जा रहे थे और इस उद्देश्य के लिए उतारा गया था कि जब वहाँ मसीह के बारे में इस्लामी अक़ीदों का सवाल छिड़े तो यह 'सरकारी बयान' ईसाइयों को सुना दिया जाए। इससे बढ़कर और क्या प्रमाण इस बात का हो सकता है कि इस्लाम ने मुसलमानों को किसी हाल में भी हक़ और सच्चाई के मामले में लचक दिखाना नहीं सिखाया है। फिर वे सच्चे मुसलमान जो हबश की ओर हिजरत कर गए थे, उनकी ईमानी शक्ति भी आश्चर्यजनक है कि उन्होंने ठीक शाही दरबार में ऐसे नाज़ुक मौके पर उठकर यह भाषण सुना दिया जबकि नज्जाशी के तमाम दरबारी रिश्वत खाकर उन्हें उनके दुश्मनों के सुपुर्द कर देने पर तुल गए थे। उस समय इस बात का पूरा ख़तरा था कि मसीहियत के बुनियादी अक़ीदों पर इस्लाम की यह बे-लाग समीक्षा सुनकर नज्जाशी भी बिगड जाएगा और उन पीड़ित मुसलमानों को क़ुरैश के कसाइयों के हवाले कर देगा, मगर इसके बावजूद उन्होंने सत्य का कलिमा प्रस्तुत करने में कण भर भी झिझक न दिखाई।
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ إِبۡرَٰهِيمَۚ إِنَّهُۥ كَانَ صِدِّيقٗا نَّبِيًّا ۝ 40
(41) और उस किताब में इब्राहीम का क़िस्सा बयान करो,26 बेशक वह एक सच्चा इंसान और एक नबी था।
26. यहाँ से सम्बोधन की दिशा मक्कावालों की ओर फिर रही है जिन्होंने अपने नौजवान बेटों, भाइयों और दूसरे रिश्तेदारों को उसी तरह ईशपरायणता के अपराध में घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था जिस तरह हज़रत इबाहीम (अलैहि०) को उनके बाप और भाई-बन्दों ने देश से निकाल दिया था। इस उद्देश्य के लिए दूसरे नबियों को छोड़कर मुख्य रूप से हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के किस्से का चुनाव इसलिए किया गया कि क़ुरैश के लोग उनको अपना पेशवा मानते थे और उन्हीं की सन्तान होने पर अरब में गर्व किया करते थे।
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ يَٰٓأَبَتِ لِمَ تَعۡبُدُ مَا لَا يَسۡمَعُ وَلَا يُبۡصِرُ وَلَا يُغۡنِي عَنكَ شَيۡـٔٗا ۝ 41
(42) (इन्हें तनिक उस म़ौके की याद दिलाओ) जबकि उसने अपने बाप से कहा कि "अब्बा जान ! आप क्यों उन चीज़ों की इबादत करते हैं जो न सुनती हैं न देखती हैं, और न आपका कोई काम बना सकती है?
يَٰٓأَبَتِ إِنِّي قَدۡ جَآءَنِي مِنَ ٱلۡعِلۡمِ مَا لَمۡ يَأۡتِكَ فَٱتَّبِعۡنِيٓ أَهۡدِكَ صِرَٰطٗا سَوِيّٗا ۝ 42
(43) अब्बा जान ! मेरे पास एक ऐसा ज्ञान आया है जो आपके पास नहीं आया। आप मेरे पीछे चलें, मैं आपको सीधा रास्ता बताऊँगा ।
يَٰٓأَبَتِ لَا تَعۡبُدِ ٱلشَّيۡطَٰنَۖ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ كَانَ لِلرَّحۡمَٰنِ عَصِيّٗا ۝ 43
(44) अब्बा जान ! आप शैतान की बन्दगी न करें।27 शैतान तो रहमान का नाफ़रमान (अवज्ञाकारी) है।
27. मूल आबी शब्द है 'ला तअबुदिश-शैतान' अर्थात् 'शैतान की इबादत (उपासना) न करें। यद्यपि हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) के बाप और कौम के दूसरे लोग उपासना बुतों की करते थे, लेकिन चूँकि आज्ञापालन वे शैतान का कर रहे थे, इसलिए हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) ने उनके इस शैतान के आज्ञापालन को भी शैतान की इबादत करार दिया। इससे मालूम हुआ कि इबादत केवल पूजा-अर्चना ही का नाम नहीं, बल्कि आज्ञापालन का नाम भी है। साथ ही इससे वह भी मालूम हुआ कि अगर कोई आदमी किसी को धिक्कारते हुए भी ठसकी बन्दगी बजा लाए तो वह उसकी इबादत का मुजरिम है, क्योंकि शैतान बहरहाल किसी ज़माने में भी लोगों का 'उपास्य' (जाने पहचाने अर्थों में) नहीं रहा है, बल्कि उसके नाम पर हर समय में लोग धिक्कारते ही रहे हैं । (देखिए व्याख्या के लिए सूरा-18 अल-कहफ़, टिप्पणी 49 : 50)
يَٰٓأَبَتِ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يَمَسَّكَ عَذَابٞ مِّنَ ٱلرَّحۡمَٰنِ فَتَكُونَ لِلشَّيۡطَٰنِ وَلِيّٗا ۝ 44
(45) अब्बा जान ! मुझे डर है कि कहीं आप रहमान के अज़ाब में मुब्तला न हो जाएँ और शैतान के साथी बनकर रहें।"
قَالَ أَرَاغِبٌ أَنتَ عَنۡ ءَالِهَتِي يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُۖ لَئِن لَّمۡ تَنتَهِ لَأَرۡجُمَنَّكَۖ وَٱهۡجُرۡنِي مَلِيّٗا ۝ 45
(46) बाप ने कहा, “इब्राहीम ! क्या तू मेरे उपास्यों से फिर गया गया है? अगर तू बाज़ न आया तो मैं तूझे संगसार (पत्थर मार-मारकर हलाक) कर दूंगा ।
قَالَ سَلَٰمٌ عَلَيۡكَۖ سَأَسۡتَغۡفِرُ لَكَ رَبِّيٓۖ إِنَّهُۥ كَانَ بِي حَفِيّٗا ۝ 46
(47) बस तू हमेशा के लिए मुझसे अलग हो जा।" इबाहीम ने कहा, “सलाम है आपको, मैं अपने रब से दुआ करूँगा कि आपको क्षमा कर दे। 27अ मेरा रब मुझपर बड़ा ही मेहरबान है ।
27अ. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-9 अत-तौबा,टिप्पणी 112 ।
وَأَعۡتَزِلُكُمۡ وَمَا تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَأَدۡعُواْ رَبِّي عَسَىٰٓ أَلَّآ أَكُونَ بِدُعَآءِ رَبِّي شَقِيّٗا ۝ 47
(48) मैं आप लोगों को भी छोड़ता हूँ और उन हस्तियों को भी जिन्हें आप लोग अल्लाह को छोड़कर पुकारा करते हैं। मैं तो अपने रब को ही पुकारूँगा। आशा है मैं अपने रब को पुकारकर नामुराद न रहूँगा।”
فَلَمَّا ٱعۡتَزَلَهُمۡ وَمَا يَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَۖ وَكُلّٗا جَعَلۡنَا نَبِيّٗا ۝ 48
(49-50) अत जब वह उन लोगों से और अल्लाह के अलावा उनके उपास्यों से अलग हो गया तो हमने उसको इसहाक़ और याक़ूब जैसी सन्तान दी और हर एक को नबी बनाया और उनको अपनी रहमत दी और उनको सच्ची ख्याति प्रदान की।28
28. ये सान्तवना के शब्द है उन मुहाजिरों के लिए जो घरों से निकलने पर मजबूर हुए थे । उनको बताया जा रहा है कि जिस तरह इब्राहीम (अलैहि०) अपने परिवार से कटकर नष्ट न हुए, बल्कि उल्टे सफलता के शिखर को छू कर रहे, उसी तरह तुम भी नष्ट न होगे, बल्कि वह सम्मान पाओगे जिसे अज्ञानता में पड़े हुए क़ुरैश के काफ़िर सोच भी नहीं सकते।
وَوَهَبۡنَا لَهُم مِّن رَّحۡمَتِنَا وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ لِسَانَ صِدۡقٍ عَلِيّٗا ۝ 49
0
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مُوسَىٰٓۚ إِنَّهُۥ كَانَ مُخۡلَصٗا وَكَانَ رَسُولٗا نَّبِيّٗا ۝ 50
(51) और उल्लेख करो इस किताब में पूसा का। वह एक चुना हुआ 29 आदमी था और रसूल-नबी 30 था।
29. मूल अरबी में शब्द 'मुख़्लस' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ मालिस (विशिष्ट) किया हुआ है। अर्थ यह है कि हजरत मूसा एक ऐसे आदमी थे जिनको अल्लाह ने विशेष रूप से अपना बना लिया था।
30. ‘रसूल' का अर्थ है 'भेजा हुआ'। कुरआन में यह शब्द तो उन फ़रिश्तों के लिए प्रयुक्त हुआ है जो अल्लाह की ओर से किसी विशेष कार्य के लिए भेजे जाते हैं या फिर उन ईसानों को इस नाम से याद किया गया है जिन्हें अल्लाह ने अपने बन्दों को ओर अपना सन्देश पहुँचाने के लिए लगाया। नबी के अर्थ में भाषा विशेषज्ञों में मतभेद है। कुछ इसको ' नबा से बना हुआ कहते हैं जिसका अर्थ ख़बर है, और इस मूल की दृष्टि से नबी का अर्थ 'ख़बर देनेवाला' है, कुछ के निकट यह नबू से निकला है, अर्थात ऊँचाई और बुलन्दी और इस अर्थ की दष्टि से नबी का अर्थ है 'उच्च और महान पदवाला । जोहरी ने क़सई से एक तीसरा कथन भी नकल किया है और वह यह है कि यह शब्द मूल में नवई है जिसका अर्थ तरीक़ा और रास्ता है और नबियों को नबी इसलिए कहा गया है कि वे अल्लाह की ओर जाने का रास्ता हैं। अतः किसी आदमी को रसूल नबी कहने का अर्थ या तो 'ऊँचे पदोंवाला या पैगम्बर' 'अल्लाह की ओर से खबर देनेवाला पैगम्बर' या 'फिर वह पैग़म्बर जो अल्लाह का रास्ता बतानेवाला है। क़ुरआन मजीद में ये दोनों शब्द सामान्यतः समानार्थी प्रयुक्त हुए हैं । चुनांचे हम देखते हैं कि एक ही व्यक्तित्व को कहाँ केवल रसूल कहा गया है और कही केवल नबी और कहीं मूल और नबी एक साथ । लेकिन कुछ जगहों पर रसूल और नबी के शब्द इस तरह भी प्रयुक्त हुए हैं जिससे व्यक्त होता है कि इन दोनों में पद का या काम का या काम के स्वरूप को देखते हुए कोई पारिभाषिक अन्तर है। जैसे सूरा 22 हज, आयत 53 में फरमाया गया है, "हमने नहीं भेजा तुमसे पहले कोई रसूल और न कोई नबी, मगर ......।" ये शब्द स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं कि रसूल और नबी दो अलग-अलग पारिभाषिक शब्द है जिनके बीच अर्थ का कोई अन्तर अवश्य है। इसी आधार पर टीकाकारों में यह वार्ता चल पड़ी है कि इस अन्तर का स्वरूप क्या है। लेकिन सत्य तो यह है कि निश्चित प्रमाणों के साथ कोई भी नबी और रमूल की अलग-अलग हैसियतों को निश्चित नहीं कर सका है। अधिक से अधिक जो बात विश्वास से कही जा सकती है, वह यह है कि रसूल का शब्द नबी की तुलना में मुख्य है, अर्थात् हर रसूल नबी भी होता है मगर हर नबी रसूल नहीं होता। या दूसरे शब्दों में नबियों में से रसूल शब्द उन महान हस्तियों के लिए बोला गया है जिनको सामान्य नबियों के मुकाबले में अधिक महत्त्वपूर्ण पद सुपुर्द किया गया था। इसी का समर्थन इस हदीस से भी होता है जो इमाम अहमद ने हज़रत अबू उमामा (रजि०) से और हाकिम ने हजरत अबू जर (रजि०) से नक़ल की है कि नबी (सल्ल०) से रसूलों की तादाद पूछी गई तो आपने 313 या 315 बताई और नबियों की तादाद पूछी गई तो आपने एक लाख चौबीस हजार बताई। यद्यपि इस हदीस की सनदें ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं,मगर कई सनदों से एक बात का नकल होना उसकी कमजोरी को बड़ी हद तक दूर कर देता है।
وَنَٰدَيۡنَٰهُ مِن جَانِبِ ٱلطُّورِ ٱلۡأَيۡمَنِ وَقَرَّبۡنَٰهُ نَجِيّٗا ۝ 51
(52) हमो उसको तूर की दाहिनी ओर से पुकार31 और रहस्य की बातों सामीप्य प्रदान किया।32
31. तूर पहाड़ की दाहिनी ओर से तात्पर्य उसका पूर्वी छोर है। चूँकि हज़रत मूसा (अलैहि०) मदयन से मिस्र जाते हुए उस रास्ते से गुज़र रहे थे जो तूर पहाड़ के दक्षिण से जाता है और दक्षिण की ओर से अगर कोई आदमी तूर को देखे तो उसकी दाहिनी ओर पूरब और बाई ओर पश्चिम होगा, इसलिए हज़रत मूसा (अलैहि०) के ताल्तुक़ से तूर के पूर्वी छोर को 'दाहिनी ओर' फ़रमाया गया। वरना स्पष्ट है कि अपने आप पहाड़ की कोई दाई या बाई दिशा नहीं होती।
32. 'व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 अन-निसा, टिप्पणी- 206।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥ مِن رَّحۡمَتِنَآ أَخَاهُ هَٰرُونَ نَبِيّٗا ۝ 52
(53) और अपनी कृपा से उसके भाई हारून को नबी बनाकर उसे (सहायक रूप में) दिया।
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ إِسۡمَٰعِيلَۚ إِنَّهُۥ كَانَ صَادِقَ ٱلۡوَعۡدِ وَكَانَ رَسُولٗا نَّبِيّٗا ۝ 53
(54) और इस किताब में इसमाईल का उल्लेख करो। वह वादे का सच्चा और रसूल-नबी था।
وَكَانَ يَأۡمُرُ أَهۡلَهُۥ بِٱلصَّلَوٰةِ وَٱلزَّكَوٰةِ وَكَانَ عِندَ رَبِّهِۦ مَرۡضِيّٗا ۝ 54
(55) वह अपने घरवालों को नमाज़ और ज़कात का हुक्म देता था और अपने रब के नज़दीक एक पसन्दीदा इंसान था।
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ إِدۡرِيسَۚ إِنَّهُۥ كَانَ صِدِّيقٗا نَّبِيّٗا ۝ 55
(56) और इस किताब में इदरीस का उल्लेख33 करो। वह एक सच्चा इंसान और एक नबी था
33. हज़रत इदरीस (अलैहि०) के बारे में मतभेद है। कुछ के निकट वह बनी इसराईल में से कोई नबी थे मगर अधिकतर लोग इस ओर गए हैं कि हज़रत नूह (अलैहि०) से भी पहले गुज़रे हैं । नबी (सल्ल०) से कोई सही हदीस हमें ऐसी नहीं मिली जिससे उनके व्यक्तित्व के निर्धारण में कोई सहायता मिलती हो। अलबत्ता क़ुरआन का एक संकेत इसका समर्थन करता है कि वह हज़रत नूह (अलैहि०) से पहले के हैं, क्योंकि बादवाली आयत में यह फ़रमाया गया कि ये नबी (जिनका उल्लेख ऊपर गुज़रा है) आदम की औलाद, नूह की औलाद, इब्राहीम की औलाद और इसराईल की औलाद से हैं। स्पष्ट है कि हज़रत यहया, ईसा और मूसा (अलैहि.) तो बनी इसराईल में से हैं, हज़रत इस्माईल, हज़रत इसहाक़ और हज़रत याक़ूब इबाहीम (अलैहि०) की सन्तान में से हैं और हज़रत इब्राहीम नूह (अलैहि०) की सन्तान में से हैं, इसके बाद केवल हज़रत इदरीस (अलैहि०) ही रह जाते हैं जिनके बारे में यह समझा जा सकता है कि आदम की सन्तान से हैं। टीकाकारों का सामान्य विचार यह है कि बाइबल में जिन बुजुर्ग का नाम हनोक (Enoch) बताया गया है कि वहौ हज़रत इदरीस हैं। इनके बारे में बाइबल का बयान यह है- “और हनोक 65 वर्ष का था जब उससे मतूशेलह पैदा हुआ और मतूशेलह के जन्म के बाद हनोक 300 वर्ष तक ख़ुदा के साथ-साथ चलता रहा और वह गायब हो गया, क्योंकि ख़ुदा ने उसे उठा लिया (उत्पत्ति, अध्याय 5, आयत 21-24)। तलमूद की इसराईली रिवायतों में उनके हालात अधिक विस्तार से बताए गए हैं। उनका सार यह है कि हज़रत नूह से पहले जब आदम की संतान में बिगाड़ की शुरुआत हुई तो अल्लाह के फ़रिश्ते ने हनोक को, जो लोगों से अलग-थलग संन्यासी जीवन बीता रहे थे, पुकारा कि “ऐ हनोक । उठो, अकेलेपन के जीवन से निकलो और ज़मीन के रहनेवालों में चल-फिरकर उनकों वह रास्ता बताओ जिनपर उनको चलना चाहिए और वे तरीक़े बताओ जिनपर उन्हें व्यवहार करना चाहिए। यह आदेश पाकर वे निकले और उन्होंने जगह-जगह लोगों को जमा करके उपदेश व नसीहत की और ईसानी नस्ल ने उनका अनुपालन करके अल्लाह की बन्दगी अपना ली। हनोक 353 वर्ष तक इंसानी नस्ल पर शासन करते रहे। उनका शासन न्याय और सत्यवादिता का शासन था। उनके समय में धरती पर अल्लाह की रहमतें बरसती रहीं। (The Talmud Selection, PP. 18-21)
وَرَفَعۡنَٰهُ مَكَانًا عَلِيًّا ۝ 56
(57) और उसे हमने उच्च स्थान पर उठाया था।34
34. इसका सीधा-सादा अर्थ तो यह है कि अल्लाह ने हजरत इदरीस (अलैहि०) को उच्च पद दिया था, लेकिन इसराईली रिवायतों से हस्तान्तरित होकर यह बात हमारे यहाँ भी प्रसिद्ध हो गई कि अल्लाह ने हज़रत इदरीस (अलैहि०) को आसमान पर उठा लिया। बाइबल में तो इतना ही है कि वे गायब हो गए, क्योंकि 'अल्लाह ने उनको उठा लिया' मगर तलमूद में उसका एक लंबा किस्सा बयान हुआ जिसका अन्त इस पर होता है कि "हनोक एक बगोले में आग के रथ और घोड़ों सहित आसमान पर चढ़ गए।"
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مِن ذُرِّيَّةِ ءَادَمَ وَمِمَّنۡ حَمَلۡنَا مَعَ نُوحٖ وَمِن ذُرِّيَّةِ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡرَٰٓءِيلَ وَمِمَّنۡ هَدَيۡنَا وَٱجۡتَبَيۡنَآۚ إِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُ ٱلرَّحۡمَٰنِ خَرُّواْۤ سُجَّدٗاۤ وَبُكِيّٗا۩ ۝ 57
(58) ये वे पैग़म्बर हैं जिनपर अल्लाह ने इनाम फ़रमाया आदम की सन्तान में से, और उन लोगों की नस्ल से जिन्हें हमने नूह के साथ नाव पर सवार किया था, और इब्राहीम की नस्ल से और इसराईल की नस्ल से। और ये उन लोगों में से थे जिनको हमने सीधा रास्ता दिखाया और जिन्हें चुन लिया। उनका हाल यह था कि जब रहमान की आयते उनको सुनाई जाती तो रोते हुए सज्दे में गिर जाते थे।
۞فَخَلَفَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ خَلۡفٌ أَضَاعُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَٱتَّبَعُواْ ٱلشَّهَوَٰتِۖ فَسَوۡفَ يَلۡقَوۡنَ غَيًّا ۝ 58
(59) फिर उनके बाद वे बुरे लोग उनके उत्तराधिकारी हुए जिन्होंने नमाज़ को जाया (नष्ट) किया 35और मनोकामनाओं के पीछे चले36, अत: करीब है कि गुमराही के परिणाम का सामना उन्हें करना पड़े,
35. अर्थात् नमाज़ पढ़नी छोड़ दी या नमाज़ मे सफ़लत और बे परवाई बरतने लगे। यह हर उम्मत के पतन और गिरावट का सर्वप्रथम क़दम है। नमाज वह सर्वप्रथम सम्पर्क है जो मोमिन का जिंदा और अमली ताल्लुक़ अल्लाह के साथ रात व दिन जोड़े रखता है और उसे ईश्वरवादिता के केन्द्र और धुरी से बिछड़ने नहीं देता। यह बन्धन टूटते ही आदमी अल्लाह से दूर, और दूर होता चला जाता है, यहाँ तक कि व्यावहारिक संबंध से गुज़रकर उसका काल्पनिक संबंध भी अल्लाह के साथ बाक़ी नहीं रहता। इसी लिए अल्लाह ने यहाँ यह बात एक मूल सिद्धान्त के रूप में कही है कि पिछले तमाम नबियो की उम्मतों का बिगाड़ नमाज़ नष्ट करने से शुरू हुआ है।
36. यह अल्लाह से ताल्लुक की कमी और उसके न होने का अनिवार्य फल है। नमाज़ के नष्ट होने से दिल अल्लाह की मदद से गाफिल रहने लगे, तो ज्यों-ज्यों यह ग़फ़लत बढ़ती गई, मनोकामनाओं की दासता में भी बढ़ोत्तरी होती चली गई, यहाँ तक कि उनके चरित्र और मामलों का हर भाग अल्लाह के आदेशों के बजाय अपने मनमाने तरीक़ों का पाबन्द होकर रहा।
إِلَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ وَلَا يُظۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا ۝ 59
(60) अलबत्ता जो तौबा कर लें और ईमान ले आएँ और अच्छे काम करें, वे जन्नत में दाख़िल होंगे और उनका कण भर भी हक़ न मारा जाएगा।
جَنَّٰتِ عَدۡنٍ ٱلَّتِي وَعَدَ ٱلرَّحۡمَٰنُ عِبَادَهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ إِنَّهُۥ كَانَ وَعۡدُهُۥ مَأۡتِيّٗا ۝ 60
(61) उनके लिए हमेशा रहनेवाली जन्नतें हैं जिनका रहमान ने अपने बन्दों से परोक्ष वादा कर रखा है37 और निश्चय ही यह वादा पूरा होकर रहना है ।
37. अर्थात् जिसका वादा रहमान ने इस हालत में किया है कि वे जन्नतें उनकी नज़रों से ओझल हैं।
لَّا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوًا إِلَّا سَلَٰمٗاۖ وَلَهُمۡ رِزۡقُهُمۡ فِيهَا بُكۡرَةٗ وَعَشِيّٗا ۝ 61
(62) वहाँ वे कोई बेहूदा बात न सुनेंगे, जो कुछ सुनेंगे ठीक ही सुनेंगे38 और उनकी रोजी उन्हें बराबर सुबह व शाम मिलती रहेगी।
38. मूल अरबी शब्द 'सलाम' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है 'दोष और कमज़ोरी से मुक्त'। जन्नत में जो नेमतें इंसान को मिलेंगी, उनमें से एक बड़ी नेमत यह होगी कि वहाँ कोई बेहूदा और निरर्थक और गन्दी बात सुनने में न आएगी। वहाँ का पूरा समाज एक सुथरा और संजीदा और पवित्र समाज होगा, जिसका हर आदमी सज्जन होगा। वहाँ के रहनेवालों को पीठ-पीछे की बुराइयों और गालियों और गन्दे गानों और दूसरी बुरी आवाज़ों को सुनने से पूरी निजात मिल जाएगी। वहाँ आदमी जो कुछ भी सुनेगा भली और यथोचित और सही बातें ही सुनेगा। इस नेमत का मूल्य वही आदमी समझ सकता है जो इस दुनिया में वास्तव में एक पवित्र और सुथरा स्वभाव और रुचि रखता हो, क्योंकि वही यह महसूस कर सकता है कि इंसान के लिए एक ऐसी गन्दी सोसाइटी में रहना कितनी बड़ी विपत्ति है जहाँ किसी समय भी उसके कान झूठ, ग़ीबत, बिगाड़, उपद्रव,दुष्टता, गन्दगी और वासनामय बातों से बचे हुए न हों।
تِلۡكَ ٱلۡجَنَّةُ ٱلَّتِي نُورِثُ مِنۡ عِبَادِنَا مَن كَانَ تَقِيّٗا ۝ 62
(63) यह है वह जन्नत जिसका वारिस हम अपने बन्दों में से उसको बनाएँगे जो परहेज़गार (संयमी) रहा है।
وَمَا نَتَنَزَّلُ إِلَّا بِأَمۡرِ رَبِّكَۖ لَهُۥ مَا بَيۡنَ أَيۡدِينَا وَمَا خَلۡفَنَا وَمَا بَيۡنَ ذَٰلِكَۚ وَمَا كَانَ رَبُّكَ نَسِيّٗا ۝ 63
(64) ऐ नबी ! हम तुम्हारे रब के आदेश के बिना नहीं उतरा करते।39 जो कुछ हमारे आगे है और जो कुछ पीछे है और जो कुछ उसके बीच है, हर चीज़ का स्वामी वही है, और तुम्हारा रब भूलनेवाला नहीं है।
39. यह पूरा पैराग्राफ़ सन्दर्भ से हटकर इस वर्णन क्रम को समाप्त करके दूसरे वर्णन-क्रम के शुरू करने से पहले आ गया है। यह शैली बता रही है कि यह सूरा बड़ी देर के बाद ऐसे समय में उतरी है जबकि नबी (सल्ल०) और आपके सहाबा बड़े संकट भरे हालात से गुजर रहे हैं। नबी (सल्ल०) को और आपके सहाबियों को हर समय वह्य का इन्तिज़ार है, ताकि उससे रहनुमाई भी मिले और तसल्ली भी हो। ज्यों-ज्यों वय आने में देर हो रही है, बेचैनी बढ़ती जाती है। ऐसी स्थिति में जिब्रील फ़रिश्तों के झुरमुट में तश्रीफ़ लाते हैं। पहले वह फ़रमान सुनाते हैं जो समय की आवश्यकता की दृष्टि से तुरन्त चाहिए था, फिर आगे बढ़ने से पहले अल्लाह के इशारे से ये कुछ बातें अपनी ओर से कहते हैं, जिनमें इतनी देर तक अपने हाज़िर न होने की मजबूरी भी है, अल्लाह की ओर से तसल्ली की बात भी और साथ-साथ सब्र व धैर्य का आदेश भी।
رَّبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا فَٱعۡبُدۡهُ وَٱصۡطَبِرۡ لِعِبَٰدَتِهِۦۚ هَلۡ تَعۡلَمُ لَهُۥ سَمِيّٗا ۝ 64
(65) वह रब है आसमानों का और जमीन का और उन सारी चीज़ों का जो आसमानों व ज़मीन के बीच में हैं, अत: तुम उसकी बन्दगी करो और उसी की बन्दगी पर जमे रहो।40 क्या है कोई हस्ती तुम्हारी जानकारी में उसके बराबर की?41
40. यह सिर्फ़ वाणी की आन्तरिक गवाही ही नहीं है, बल्कि बहुत-सी रिवायतें भी इसकी पुष्टि करती हैं जिन्हें इब्ने जरीर, इब्ने कसीर और रूहुल मआनी के लेखक आदि ने भी इस आयत की टीका में नक़ल किया है। अर्थात् उसकी बन्दगी के रास्ते पर मज़बूती के साथ चलो और इस राह में जो कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ भी आएँ, उनका धैर्य के साथ मुकाबला करो। आगर उसकी ओर से याद करने, मदद देने और तसल्ली में कुछ देर लग जाया करे तो उसपर घबराओ नहीं । एक आज्ञापालक बन्दे की तरह हर हाल में उसकी इच्छा पर राज़ी रहो और पूरे संकल्प के साथ वह सेवा करते चले जाओ जो एक बन्दे और रसूल की हैसियत से तुम्हारे सुपुर्द की गई है।
41. मूल शब्द 'समी' प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ 'हम-नाम' है । तात्पर्य यह है कि अल्लाह तो इलाह है, क्या कोई दूसरा इलाह भी तुम्हारी जानकारी में है ? अगर नहीं है और तुम जानते हो कि नहीं है तो फिर तुम्हारे लिए उसके सिवा और रास्ता ही कौन-सा है कि उसकी बन्दगी करो और उसके आदेश के दास बनकर रहो।
وَيَقُولُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَءِذَا مَا مِتُّ لَسَوۡفَ أُخۡرَجُ حَيًّا ۝ 65
(66) इंसान कहता है, क्या सच में जब मैं मर चुकूँगा तो फिर जिन्दा करके निकाल लाया जाऊँगा?
أَوَلَا يَذۡكُرُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقۡنَٰهُ مِن قَبۡلُ وَلَمۡ يَكُ شَيۡـٔٗا ۝ 66
(67) क्या इंसान को याद नहीं आता कि हम पहले उसको पैदा कर चुके हैं, जबकि वह कुछ भी न था?
فَوَرَبِّكَ لَنَحۡشُرَنَّهُمۡ وَٱلشَّيَٰطِينَ ثُمَّ لَنُحۡضِرَنَّهُمۡ حَوۡلَ جَهَنَّمَ جِثِيّٗا ۝ 67
(68) तेरे रब की क़सम ! हम ज़रूर इन सबको और उनके साथ शैतानों को भी42 घेर लाएँगे, फिर जहन्नम के गिर्द (पास) लाकर उन्हें घुटनों के बल गिरा देंगे।
42. अर्थात् उन शैतानों को जिनके ये चेले बने हुए हैं और जिनके सिखाए-पढ़ाए में आकर उन्होंने यह समझ लिया है कि ज़िंदगी जो कुछ भी है, बस यही दुनिया की जिंदगी है, इसके बाद कोई दूसरी ज़िदंगी नहीं जहाँ हमें अल्लाह के सामने हाज़िर होना और अपने कर्मों का हिसाब देना होगा।
ثُمَّ لَنَنزِعَنَّ مِن كُلِّ شِيعَةٍ أَيُّهُمۡ أَشَدُّ عَلَى ٱلرَّحۡمَٰنِ عِتِيّٗا ۝ 68
(69) फिर हर गिरोह में से हर उस आदमी को छाँट लेंगे जो रहमान के मुक़ाबले में अधिक उदंड बना हुआ था।43
43. अर्थात विद्रोही गिरोह का लीडर।
ثُمَّ لَنَحۡنُ أَعۡلَمُ بِٱلَّذِينَ هُمۡ أَوۡلَىٰ بِهَا صِلِيّٗا ۝ 69
(70) फिर यह हम जानते हैं कि उनमें से कौन सबसे बढ़कर जहन्नम में झोंके जाने का हक़दार है,
وَإِن مِّنكُمۡ إِلَّا وَارِدُهَاۚ كَانَ عَلَىٰ رَبِّكَ حَتۡمٗا مَّقۡضِيّٗا ۝ 70
(71) तुममें से कोई ऐसा नहीं है जिसे जहन्नम पर पहुँचना न हो।44 यह तो एक तयशुदा बात है जिसे पूरा करना तेरे रब के जिम्मे है।
44. वारिद होने का अर्थ कुछ रिवायतों में दाख़िल होने के बयान किए गए हैं, मगर इनमें से किसी की सनद भी नबी (सल्ल०) तक भरोसेमंद ज़रियों से नहीं पहुँचती और फिर यह बात क़ुरआन मजीद और उन बहुत-सी सही हदीसों के भी खिलाफ़ है जिनमें भले ईमानवालों को दोज़ख में जाने का पूर्णतः निषेध किया गया है। इसके अलावा शब्दकोश में भी 'वारिद होने' में दाख़िल होना' शामिल नहीं है। इसलिए इसका सही अर्थ यही है कि जहन्नम पर गुज़र तो सबका होगा, मगर जैसा कि बादवाली आयत बता रही है कि परहेज़गार लोग उससे बचा लिए जाएंगे और ज़ालिम उसमें झोंक दिए जाएँगे।
ثُمَّ نُنَجِّي ٱلَّذِينَ ٱتَّقَواْ وَّنَذَرُ ٱلظَّٰلِمِينَ فِيهَا جِثِيّٗا ۝ 71
(72) फिर हम उन लोगों को बचा लेंगे जो (दुनिया में) तक़वावाले (अल्लाह का डर रखनेवाले) थे और ज़ालिमों को उसी में गिरा हुआ छोड़ देंगे।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَيُّ ٱلۡفَرِيقَيۡنِ خَيۡرٞ مَّقَامٗا وَأَحۡسَنُ نَدِيّٗا ۝ 72
(73) इन लोगों को जब हमारी खुली-खुली आयतें सुनाई जाती हैं तो इंकार करनेवाले ईमान लानेवालों से कहते हैं, “बताओ, हम दोनों गिरोहों में से कौन बेहतर हालत में है और किसकी मज्लिसें ज्यादा शानदार हैं?"45
45. मक्का के विधर्मियों का तर्क यह था कि देख लो, दुनिया में कौन अल्लाह की मेहरबानी और उसको नेमतों से नवाज़ा जा रहा है? किसके घर ज्यादा शानदार है? किसका जीवन स्तर अधिक ऊँचा किसकी महफ़िलें ज्यादा ठाठ से जमती हैं ? अगर ये सब कुछ हमें मिला हुआ है और तुम इससे महरूम हो तो स्वयं सोच लो कि आखिर यह कैसे सम्भव था कि हम असत्य पर होते और यू मजे उड़ाते और तुम सत्य पर होते और इस प्रकार पिसे हुए और टूटे हुए, रहते ? (और अधिक व्याख्या के लिए देखिार, सूरा-18 अल-कह्फ़, टिप्पणी 37, 38)
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّن قَرۡنٍ هُمۡ أَحۡسَنُ أَثَٰثٗا وَرِءۡيٗا ۝ 73
(74) हालाँकि इनसे पहले हम कितनी ही ऐसी क़ौमों को हलाक कर चुके हैं जो इनसे ज़्यादा सरो-सामान रखती थीं और प्रकट शानो-शौकत में इनसे बढ़ी हुई थीं।
قُلۡ مَن كَانَ فِي ٱلضَّلَٰلَةِ فَلۡيَمۡدُدۡ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ مَدًّاۚ حَتَّىٰٓ إِذَا رَأَوۡاْ مَا يُوعَدُونَ إِمَّا ٱلۡعَذَابَ وَإِمَّا ٱلسَّاعَةَ فَسَيَعۡلَمُونَ مَنۡ هُوَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضۡعَفُ جُندٗا ۝ 74
(75) इनसे कहो, आदमी गुमराही में पड़ा होता है उसे रहमान ढील दिया करता है, यहाँ तक कि जब ऐसे लोग वह चीज़ देख लेते है जिसका उनसे वादा किया गया है,- चाहे वह अल्लाह का अज़ाब हो या क्रियामत की घड़ी-तब उन्हें मालूम हो जाता है कि किसका हाल ख़राब है और किसका जत्था कमज़ोर।
وَيَزِيدُ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ٱهۡتَدَوۡاْ هُدٗىۗ وَٱلۡبَٰقِيَٰتُ ٱلصَّٰلِحَٰتُ خَيۡرٌ عِندَ رَبِّكَ ثَوَابٗا وَخَيۡرٞ مَّرَدًّا ۝ 75
(76) इसके विपरीत जो लोग सीधा रास्ता अपनाते हैं, अल्लाह उनकी सीधा रास्ता चलने के सिलसिले में तरक्की देता है46, और बाकी रह जानेवाली किया ही हर रख के नज़दीक बदले और अंजाम के एतिवार से बेहतर है।
46. अर्थात् हर परीक्षा के समय अल्लाह उनको सही फ़ैसला करने और सही रास्ता अपनाने का सौभाग्य देता है, उनको बुराइयों और गलतियों से बचाता है और उसकी हिदायत व रहनुमाई से वे बराबर सीधे रास्ते पर बढ़ते चले जाते हैं।
أَفَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي كَفَرَ بِـَٔايَٰتِنَا وَقَالَ لَأُوتَيَنَّ مَالٗا وَوَلَدًا ۝ 76
(77) फिर तूने देखा उस आदमी को जो हमारी आयता को मानने से इंकार करता है और कहता है कि मुझे तो माल और औलाद दी जाती ही रहेगी ?47
47. अर्थात वह कहता है कि तुम मुझे चाहे कितना ही गुमराह व बदकार कहते रहो और अल्लाह के अजाब के डरावे दिया करो, में तो आज भी तुमसे अधिक समृद्ध हूँ और आगे भी मुझपर नेमतों की बारिश होती रहेगी। मेरी दौलत देखो, मेरा रोब देखो, मेरा राज्य देखो,मो नामवर बेटों को देखो,मेरी जिंदगी में आख़िर तुम्हें कहाँ ये निशानियाँ नज़र आती हैं कि मैं अल्लाह की राजन का शिकार हो गया हूँ?-ये मक्का में किसी एक व्यक्ति के विचार न थे, बल्कि मक्का के विधर्मियों में हर शेख और सरदार इसी भ्रम में पड़ा हुआ था।
أَطَّلَعَ ٱلۡغَيۡبَ أَمِ ٱتَّخَذَ عِندَ ٱلرَّحۡمَٰنِ عَهۡدٗا ۝ 77
(78) क्या उसे रौब (अनदेखी बात) का पता चल गया है या उसने रहमान से कोई वादा ले रखा है?-
كَلَّاۚ سَنَكۡتُبُ مَا يَقُولُ وَنَمُدُّ لَهُۥ مِنَ ٱلۡعَذَابِ مَدّٗا ۝ 78
(79) कदापि नहीं, जो कुछ यह बकता है उसे हम लिख लेंगे48 और इसके लिए सजा में और ज़्यादा बढ़ौत्तरी करेंगे।
48. अर्थात् उसके अपराधों के रिकार्ड में उसकी यह अहंकारपूर्ण वाणी भी शामिल कर ली जाएगी और उसका स्वाद उसे चखना पड़ेगा।
وَنَرِثُهُۥ مَا يَقُولُ وَيَأۡتِينَا فَرۡدٗا ۝ 79
(80) जिस सरो-सामान और लाव-लश्कर का यह उल्लेख कर रहा है, वह सब हमारे पास रह जाएगा और यह अकेला हमारे सामने हाज़िर होगा।
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ ءَالِهَةٗ لِّيَكُونُواْ لَهُمۡ عِزّٗا ۝ 80
(81) इन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर अपने कुछ ख़ुदा बना रखे हैं कि वे इनके लिए सहारा होंगे।49
49. मूल अरबी शब्द 'इज्ज़ा' प्रयुक्त हुआ है, अर्थात् वे उनके लिए इज़्ज़त का कारण हों। मगर इज़्जत से तात्पर्य अरबी भाषा में किसी आदमी का ऐसा ताकतवर और ज़बरदस्त होना है कि उसपर कोई हाथ न डाल सके, और एक आदमी का दूसरे आदमी के लिए इज़्ज़त की वजह बनना यह अर्थ रखता है कि वह उसकी हिमायत पर हो जिसके कारण से उसका कोई विरोधी उसकी ओर आँख उठाकर न देख सके।
كَلَّاۚ سَيَكۡفُرُونَ بِعِبَادَتِهِمۡ وَيَكُونُونَ عَلَيۡهِمۡ ضِدًّا ۝ 81
(82) कोई सहारा न होगा, वे सब उनकी उपासना का इंकार करेंगे50 और उलटे उनके विरोधी बन जाएँगे।
50. अर्थात् वे कहेंगे कि न हमने कभी इनसे कहा था कि हमारी उपासना करो और न हमें यह ख़बर थी कि ये मूर्ख लोग हमारी उपासना कर रहे हैं।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّآ أَرۡسَلۡنَا ٱلشَّيَٰطِينَ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ تَؤُزُّهُمۡ أَزّٗا ۝ 82
(83) क्या तुम देखते नहीं हो कि हमने इन सत्य के इकारियों पर शैतान छोड़ रखे हैं, जो इन्हें ख़ूब-ख़ूब (सत्य के विरोध पर) उकसा रहे हैं?
فَلَا تَعۡجَلۡ عَلَيۡهِمۡۖ إِنَّمَا نَعُدُّ لَهُمۡ عَدّٗا ۝ 83
(84) अच्छा, तो अब इनपर अज़ाब आने के लिए परेशान न हो। हम इनके दिन गिन रहे हैं।51
51. अर्थ यह है कि इनकी ज़्यादतियों पर तुम बे-सब न हो, इनकी शामत करीब आ लगी है। पैमाना भरा चाहता है । अल्लाह की दी हुई मोहलत के कुछ दिन बाक़ी हैं, इन्हें पूरा हो लेने दो।
يَوۡمَ نَحۡشُرُ ٱلۡمُتَّقِينَ إِلَى ٱلرَّحۡمَٰنِ وَفۡدٗا ۝ 84
(85) वह दिन आनेवाला है जब (अल्लाह से) डरनेवालों को हम मेहमानों की तरह रहमान के हुजूर पेश करेंगे,
وَنَسُوقُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ إِلَىٰ جَهَنَّمَ وِرۡدٗا ۝ 85
(86) और अपराधियों को प्यासे जानवरों की तरह जहन्नम की ओर हाँक ले जाएँगे,
لَّا يَمۡلِكُونَ ٱلشَّفَٰعَةَ إِلَّا مَنِ ٱتَّخَذَ عِندَ ٱلرَّحۡمَٰنِ عَهۡدٗا ۝ 86
(87) उस समय लोग कोई सिफ़ारिश लाने पर समर्थ न होंगे, अलावा उसके जिसने रहमान के यहाँ से परवाना प्राप्त कर लिया हो।52
52. अर्थात् सिफ़ारिश उसी के पक्ष में होगी जिसने परवाना प्राप्त किया हो, और वही सिफ़ारिश कर सकेगा जिसे परवाना मिला हो। आयत के शब्द ऐसे हैं जो दोनों पहलुओं पर बराबर-बराबर रौशनी डालते हैं। यह बात कि सिफ़ारिश सिर्फ़ उसी के पक्ष में हो सकेगी जिसने रहमान से परवाना हासिल कर लिया हो, इसका अर्थ यह है कि जिसने दुनिया में ईमान लाकर और अल्लाह से कुछ ताल्लुक जोड़कर अपने आपको अल्लाह की क्षमा और माफ़ी का हक़दार बना लिया हो। और यह बात कि सिफ़ारिश वही कर सकेगा जिसको परवाना मिला हो, इसका अर्थ यह है कि लोगों ने जिन-जिन को अपना शफ़ाअत करानेवाला और सिफ़ारिशी समझ लिया है, वे सिफ़ारिशें करने का अधिकार न रखते होंगे, बल्कि अल्लाह स्वयं जिसको इजाज़त देगा, वही शफ़ाअत के लिए ज़बान खोल सकेगा।
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَلَدٗا ۝ 87
(88) वे कहते हैं कि रहमान ने किसी को बेटा बनाया है
لَّقَدۡ جِئۡتُمۡ شَيۡـًٔا إِدّٗا ۝ 88
(89) बड़ी बेहूदा बात है जो तुम लोग गढ़ लाए हो।
تَكَادُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ يَتَفَطَّرۡنَ مِنۡهُ وَتَنشَقُّ ٱلۡأَرۡضُ وَتَخِرُّ ٱلۡجِبَالُ هَدًّا ۝ 89
(90-91) क़रीब है कि आसमान फट पड़े, ज़मीन फट जाए और पहाड़ गिर जाएँ इस बात पर कि लोगों ने रहमान के लिए सन्तान होने का दावा किया।
أَن دَعَوۡاْ لِلرَّحۡمَٰنِ وَلَدٗا ۝ 90
0
وَمَا يَنۢبَغِي لِلرَّحۡمَٰنِ أَن يَتَّخِذَ وَلَدًا ۝ 91
(92) रहमान की यह शान नहीं है कि वह किसी को बेटा बनाए।
إِن كُلُّ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ إِلَّآ ءَاتِي ٱلرَّحۡمَٰنِ عَبۡدٗا ۝ 92
(93) ज़मीन और आसमानों के अन्दर जो भी हैं सब उसके सामने बन्दों की हैसियत से पेश होनेवाले हैं।
لَّقَدۡ أَحۡصَىٰهُمۡ وَعَدَّهُمۡ عَدّٗا ۝ 93
(94) सबपर वह छाया हुआ है और उसने उनको गिन रखा है।
وَكُلُّهُمۡ ءَاتِيهِ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَرۡدًا ۝ 94
(95) सब क़ियामत के दिन अलग-अलग उसके सामने हाज़िर होंगे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَيَجۡعَلُ لَهُمُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وُدّٗا ۝ 95
(96) निश्चिय ही जो लोग ईमान ले आए हैं और भले कर्म कर रहे हैं, बहुत जल्द रहमान उनके लिए दिलों में मुहब्बत पैदा कर देगा।53
53. अर्थात् आज मक्का की गलियों में वे रुसवा किए जा रहे हैं, मगर यह हालत ज़्यादा दिनों तक रहनेवाली नहीं है। करीब है वह समय जबकि अपने भले और अच्छे चरित्र की वजह से वे दुनिया के चहेते होकर रहेंगे। मन उनकी ओर खिंचेंगे, दुनिया उनके आगे पलकें बिछाएगी। अवज्ञा, धमंड, अपनी बड़ाई, झूठ और धोखा-देही के बल पर जो सरदारी और नेतृत्व चलता हो, वह गरदनों को चाहे झुवा ले, दिलों को जीत नहीं सकती। इसके विपरीत जो लोग सच्चाई, दयानतदारी, इख्लास और अच्छे चरित्र के साथ सीधे रास्ते की ओर बुलाएँ, उनसे शुरू में चाहे दुनिया कितनी ही घबराए, अन्ततः वे दिलों को मोह लेते हैं और बे-ईमान लोगों का झूठ अधिक देर तक उनका रास्ता रोके नहीं रह सकता।
فَإِنَّمَا يَسَّرۡنَٰهُ بِلِسَانِكَ لِتُبَشِّرَ بِهِ ٱلۡمُتَّقِينَ وَتُنذِرَ بِهِۦ قَوۡمٗا لُّدّٗا ۝ 96
(97) अत: ऐ नबी ! इस वाणी को हमने आसान करके तुम्हारी भाषा में इसलिए उतारा है कि तुम परहेज़गारों को शुभ-सूचना दे दो और हठधर्म लोगों को डरा दो।
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّن قَرۡنٍ هَلۡ تُحِسُّ مِنۡهُم مِّنۡ أَحَدٍ أَوۡ تَسۡمَعُ لَهُمۡ رِكۡزَۢا ۝ 97
(98) इनसे पहले हम कितनी ही क़ौमों को नष्ट कर चुके हैं, फिर आज कहीं तुम उनका निशान पाते हो या उनकी भनक भी कहीं सुनाई देती हैं?