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سُورَةُ الكَهۡفِ

  1. अल-कह्फ़

(मक्‍का में उतरी-आयतें 110)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम इसकी नवीं आयत 'अम हसिब-त अन-न असहाब-कह्फ़' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह है कि वह सूरा जिसमें कह्फ़ का शब्द आया है।

उतरने का समय

यहाँ से उन सूरतों का आरंभ होता है जो मक्की जीवन के तीसरे काल में उतरी हैं। यह काल लगभग 5 नबवी के आरंभ से शुरू होकर क़रीब-क़रीब 10 नबवी तक चलता है। इस युग में क़ुरैश ने नबी (सल्ल०) और आपकी 'तहरीक' (आन्दोलन) और जमाअत को दबाने के लिए उपहास, हँसी, आपत्तियों, आरोप, धमकी, लालच और विरोधीृ-दुष्प्रचार से आगे बढ़कर अन्याय-अत्याचार, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार पूरी कठोरता के साथ प्रयोग में लाए गए।

सूरा कह्फ़ के विषय पर विचार करने से अन्दाज़ा होता है कि यह तीसरे काल के आरंभ में उतरी होगी, जबकि अन्याय एवं अत्याचार और अवरोध ने तेज़ी तो अपना ली थी, मगर अभी हबशा की हिजरत नहीं हुई थी। उस समय जो मुसलमान सताए जा रहे थे उनको कह्फ़वालों का क़िस्सा सुनाया गया, ताकि उनमें साहस पैदा हो और उन्हें मालूम हो कि ईमानवाले अपना ईमान बचाने के लिए इससे पहले क्या कुछ कर चुके है।

विषय और वार्ताएँ

यह सूरा मक्का के मुशरिकों के तीन प्रश्नों के उत्तर में उतरी है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए अहले-किताब के मश्‍वरे से आपके सामने पेश किए थे-1. असहाबे-कह्फ़ (ग़ारवाले) कौन थे? 2. ख़िज़्र के क़िस्से की वास्तविकता क्या है ? और 3 ज़ुल-क़रनैन का क्या क़िस्सा है ? ये तीनों क़िस्से यहूदियों और ईसाइयों के इतिहास से सम्बन्धित थे। हिजाज़ में इनकी कोई चर्चा न थी, मगर अल्लाह ने सिर्फ़ यही नहीं कि अपने नबी की ज़बान से इनके प्रश्नों का पूरा उत्तर दिया, बल्कि उनके अपने पूछे हुए तीनों क़िस्सों को पूरी तरह से उस परिस्थिति पर घटित करके दिखा दिया जो उस समय मक्का में कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम के बीच पायी जा रही थी।

  1. असहाबे-कह्फ़ (ग़ारवालों) के बारे में बताया कि वे उसी तौहीद(एकेश्वरवाद) को अपनाए हुए थे, जिसकी दावत यह क़ुरआन पेश कर रहा है और उनका हाल मक्का के मुट्ठी भर पीड़ित मुसलमानों के हाल से और उनकी क़ौम का रवैया कुरैश के विधर्मियों के रवैये से कुछ अलग न था। फिर इसी क़िस्से से ईमानवालों को यह शिक्षा दी गई कि अगर विधर्मियों का ग़लबा (प्रभुत्त्व) बहुत ज़्यादा हो और एक ईमानवाले व्यक्ति को ज़ालिम समाज में साँस लेने तक की मोहलत न दी जा रही हो, तब भी उसको असत्य के आगे सिर न झुकाना चाहिए |चाहे इसके लिए उसे घर-बार, बाल-बच्चे सब कुछ छोड़ देना पड़े।
  2. कह्फ़वालों के किस्से से रास्ता निकालकर उस अन्याय एवं अत्याचार पर और अनादर एवं अपमानजनक व्यवहार पर वार्ता शुरू कर दी गई जो मक्का के सरदार मुसलमानों के साथ कर रहे थे। इस सिलसिले में एक ओर नबी (सल्ल०) को आदेश दिया गया कि न इन अत्याचारियों से कोई समझौता करो और न अपने निर्धन साथियों के मुक़ाबले में इन बड़े-बड़े लोगों को कोई महत्त्व दो। दूसरी ओर उन सरदारों को उपदेश दिया गया कि अपने कुछ दिनों की ज़िन्दगी के ऐश पर न फूलो, बल्कि उन भलाइयों की तलब करनेवाले बनो जो सदा-सर्वदा रहनेवाली और स्थायी हैं।
  3. इसी के वर्णन-क्रम में ख़िज़्र और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा कुछ इस ढंग से सुनाया गया है कि उसमें विधर्मियों के सवालों का जवाब भी था और ईमानवालों के लिए तसल्ली का सामान भी। इस क़िस्से में वास्तव में जो शिक्षा दी गई है, वह यह है कि अल्लाह की मशीयत (ईश्वरेच्छा) का कारख़ाना जिन मस्लहतों (निहितार्थों) पर चल रहा है, वे चूँकि तुम्हारी नज़र से छिपी हुई हैं, इसलिए तुम बात-बात पर हैरान होते हो कि यह क्यों हुआ? यह क्या हो गया? हालाँकि अगर परदा उठा दिया जाए तो तुम्हें स्वयं मालूम हो जाए कि यहाँ जो कुछ हो रहा है, ठीक हो रहा है।
  4. इसके बाद ज़ुल-क़रनैन का क़िस्सा बयान होता है और इसमें पूछनेवालों को यह शिक्षा दी जाती है कि तुम तो इतनी मामूली-मामूली-सी सरदारियों पर फूल रहे हो, हालाँकि ज़ुल-क़रनैन इतना बड़ा शासक और ऐसा पराक्रमी विजेता और इतने श्रेष्ठ और प्रचार साधनों का स्वामी होकर भी अपनी वास्तविकता को न भूला था और अपने पैदा करनेवाले के आगे हमेशा सिर झुकाए रखता था।

अन्त में फिर उन्हीं बातों को दोहरा दिया गया है जो आरंभ में आई हैं, अर्थात् यह कि तौहीद और आख़िरत पूर्णत: सत्य हैं और तुम्हारी अपनी भलाई इसी में है कि इन्हें मानो ।

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سُورَةُ الكَهۡفِ
18. अल-कह्फ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ عَلَىٰ عَبۡدِهِ ٱلۡكِتَٰبَ وَلَمۡ يَجۡعَل لَّهُۥ عِوَجَاۜ
(1) प्रशंसा अल्लाह के लिए है जिसने अपने बन्दे पर यह किताब उतारी और उसमें कोई टेढ़ न रखी।1
1. अर्थात् न इसमें कोई ऐंच-पेंच की बात है जो समझ में न आ सके और न कोई बात सत्य और सच्चाई के सीधे रास्ते से हटी हुई है जिसे मानने में किसी सत्यवादी व्यक्ति को संकोच हो।
قَيِّمٗا لِّيُنذِرَ بَأۡسٗا شَدِيدٗا مِّن لَّدُنۡهُ وَيُبَشِّرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ أَجۡرًا حَسَنٗا ۝ 1
(2) ठीक-ठीक सीधी बात कहनेवाली किताब, ताकि वह लोगों को अल्लाह के सख्त अज़ाब से ख़बरदार कर दे और ईमान लाकर भले कार्य करनेवालों को शुभ-सूचना दे दे कि उनके लिए अच्छा बदला है,
مَّٰكِثِينَ فِيهِ أَبَدٗا ۝ 2
(3) जिसमें वे सदैव रहेंगे,
وَيُنذِرَ ٱلَّذِينَ قَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗا ۝ 3
(4) और उन लोगों को डरा दे जो कहते हैं कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है।2
2. अर्थात् जो अल्लाह की औलाद ठहराते हैं। इसमें ईसाई भी सम्मिलित हैं और यहूदी भी और अरब के मुश्कि भी।
مَّا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٖ وَلَا لِأٓبَآئِهِمۡۚ كَبُرَتۡ كَلِمَةٗ تَخۡرُجُ مِنۡ أَفۡوَٰهِهِمۡۚ إِن يَقُولُونَ إِلَّا كَذِبٗا ۝ 4
(5) इस बात का न उन्हें कोई ज्ञान है और न उनके बाप-दादा को था।3 बड़ी बात है जो उनके मुँह से निकलती हैं, वे सिर्फ़ झूठ बकते हैं।
3. अर्थात उनका यह कथन कि अमुक अल्लाह का बेटा है या अमुक को अल्लाह ने बेटा बना लिया है, कुछ इस कारण नहीं है कि उनको अल्लाह के यहाँ सन्तान होने या अल्लाह के किसी को बेटा बनाने का ज्ञान है, बल्कि केवल अपनी अति-श्रद्धा के अतिशयता में वे एक मनमाना हुक्म लगा बैठे हैं और उनको कुछ एहसास नहीं है कि वे कैसी भारी गुमराही की बात कह रहे हैं और कितनी बड़ी गुस्ताखी और तोहमत है जो सर्व जगत् के पालनहार अल्लाह पर लगाए जा रहे हैं।
فَلَعَلَّكَ بَٰخِعٞ نَّفۡسَكَ عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِمۡ إِن لَّمۡ يُؤۡمِنُواْ بِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَسَفًا ۝ 5
(6) अच्छा, तो ऐ नबी ! शायद तुम इनके पीछे ग़म के मारे अपनी जान खो देने वाले हो अगर ये इस शिक्षा पर ईमान न लाए।4
4. यह संकेत है उस स्थिति की ओर जिसमें उस समय नबी (सल्ल०) ग्रस्त थे। इससे साफ़ मालूम होता है कि आपको रंज उन कष्टों का न था जो आपको और आपके साथियों को दिया जा रहा था, बल्कि जो चीज़ आपको भीतर ही भोतर खाए जा रही थी वह यह थी कि आप अपनी क़ौम को गुमराही और नैतिक पतन से निकालना चाहते थे और वह किसी तरह निकलने पर तैयार नहीं होती थी। आपको विश्वास था कि इस पथभ्रष्टता का अनिवार्य फल विनाश और अल्लाह का अज़ाब है। आप उनको इससे बचने के लिए अपने दिन और रातें एक किए दे रहे थे, मगर उन्हें आग्रह था कि वे अल्लाह के अज़ाब के शिकार होकर ही रहेंगे। अपनी इस मनोदशा को नबी (सल्ल०) स्वयं एक हदीस में इस तरह बयान करते हैं कि, मेरी और तुम लोगों की मिसाल उस आदमी की-सी है जिसने आग जलाई रौशनी के लिए, मगर परवाने हैं कि उसपर टूट पड़ते हैं जब भी जल जाने के लिए। वह कोशिश करता है कि ये किसी आग से बचें,मगर परवाने उसकी एक नहीं चलने देते। ऐसी ही स्थिति मेरी है कि मैं तुम्हें दामन पकड़-पकड़कर खींच रहा हूँ और तुम हो कि आग में गिरे पड़ते हो।" (बुख़ारी व मुस्लिम, तुलना के लिए देखिए सूरा-26 शुअरा, आयत-3) इस आयत में ज़ाहिरी तौर पर तो बात इतनी ही फ़रमाई गई है कि शायद तुम अपनी जान उनके पीछे खो दोगे, मगर उसी में एक सूक्ष्म ढंग से आपको तसल्ली भी दे दी गई कि उनके ईमान न लाने का दायित्त्व तुमपर नहीं हैं, इसलिए तुम क्यों अपने आपको रंज व ग़म में घुलाए देते हो? तुम्हारा काम केवल शुभ-सूचना और डरावा है। लोगों को ईमानवाला बना देना तुम्हारा काम नहीं है, इसलिए तुम बस प्रचार की अपनी ज़िम्मेदारी अदा किए जाओ। जो मान ले उसे शुभ-सूचना दे दो। जो न माने उसे बुरे अंजाम से सचेत कर दो।
إِنَّا جَعَلۡنَا مَا عَلَى ٱلۡأَرۡضِ زِينَةٗ لَّهَا لِنَبۡلُوَهُمۡ أَيُّهُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗا ۝ 6
(7) सच तो यह कि ये जो कुछ सरो-सामान भी धरती पर है, उसे हमने धरती की शोभा बनाया है, ताकि इन लोगों को आज़माएँ कि इनमें कौन बेहतर कर्म करनेवाला है।
وَإِنَّا لَجَٰعِلُونَ مَا عَلَيۡهَا صَعِيدٗا جُرُزًا ۝ 7
(8) अन्तत: इस सबको हम एक चटियल मैदान बना देनेवाले है।5
5. पहली आयात का सम्बोधन नबी (सल्ल०) से था और इन दोनों आयतों का सम्बोधन विधर्मियों से किया गया है। नबी (सल्ल०) को तसल्ली के कुछ शब्द कह देने के बाद अब आपके इंकारियों को सम्बोधित किए बिना यह सुनाया जा रहा है कि यह सरे सामान जो धरती के ऊपर तुम देखते हो और जिसको मन-मोहकताओं पर तुम आसक्त हो रहे हो, यह एक क्षणिक शोभा है जो केवल तुम्हें आज़माइश (परीक्षा) में डालने के लिए उपलब्ध की गई है। तुम इस भ्रम में पड़े हुए हो कि यह सब कुछ हमने तुम्हारे सुख-वैभव के लिए जुटाया है, इसलिए तुम जिंदगी के मज़े लूटने के सिवा और किसी उद्देश्य की ओर ध्यान नहीं देते, और इसी लिए तुम किसी समझानेवाले की बात पर कान भी नहीं धरते । मगर सच तो यह है कि यह सुख-वैभव की सामग्री नहीं, बल्कि परीक्षा-साधन हैं जिनके बीच तुमको रखकर यह देखा जा रहा है कि तुममें से कौन अपनी वास्तविकता को भुला करके दुनियाँ की मन मोहकताओं में गुम हो जाता है और कौन अपने असल मक़ाम (रब की बन्दगी) को याद रखकर सही रवैये पर स्थिर रहता है। जिस दिन यह परीक्षा समाप्त हो जाएगी, उसी दिन ऐश की यह चादर उलट दी जाएगी और यह ज़मीन एक चटयल मैदान के सिवा कुछ न रहेगी।
أَمۡ حَسِبۡتَ أَنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡكَهۡفِ وَٱلرَّقِيمِ كَانُواْ مِنۡ ءَايَٰتِنَا عَجَبًا ۝ 8
(9) क्या तुम समझते हो कि गुफा6 और शिलालेख7 वाले हमारी कोई बड़ी अद्भुत निशानियों में से थे?8
6. अरबी भाषा में 'कहफ़' लम्बी-चौड़ी गुफा को कहते हैं और 'गार का शब्द तंग खोह के लिए प्रयुक्त होता है, मगर उर्दू-हिन्दी में ग़ार और कह्फ़ समानार्थी हैं।
7. अरबी शब्द अर-रक़ीम के अर्थ में मतभेद है। कुछ सहाबा व ताबईन से नक़ल किया गया है कि यह उस बस्ती का नाम है जहाँ यह घटना घटी थी और वह ऐला (अर्थात अक़बा) और फ़िलस्तीन के बीच में स्थित थी। और कुछ पुराने टीकाकार कहते हैं कि इससे तात्पर्य वह कतबा (शिलालेख) है जो उस गुफा पर कह्फ़ वालों की यादगार में लगाया गया था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी टीका तर्जुमानुल क़ुरआन' में पहले अर्थ को प्राथमिकता दी है और यह विचार व्यक्त किया है कि यह वही स्थान है जिसे बाइबल की किताब यशूअ (अध्याय 18, आयत 27) में 'रक़म' या 'राक़िम' कहा गया है, फिर वे इसे निबतियों के प्रसिद्ध ऐतिहासिक केन्द्र पीट्रा का प्राचीन नाम बताते हैं। लेकिन उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि किताब यशूअ में ' रक़म ' या 'राकिम' का उल्लेख बनी बिन यमीन को मीरास के सिलसिले में आया है और स्वयं इसी किताब के बयान के अनुसार इस क़बीले की मीरास का क्षेत्र जार्डन नदी और लूत सागर के पश्चिम में स्थित था जिसमें पोट्रा के होने की कोई सम्भावना नहीं । पीट्रा के खंडहर जिस क्षेत्र में पाए गए हैं उसके और बनी बिन यमीन के मीरास के बीच तो यहूदाह और अदूमिया का पूरा क्षेत्र रोक बना हुआ था। इसी आधार पर वर्तमान युग के पुरातत्त्व विशेषज्ञों ने यह बात मानने में बड़ा संकोच दिखाया है कि पीटा और राकिम एक चीज़ हैं (देखिए इंसाइक्लोपेडिया बिटानिका, 1946, भाग 17, पृ० 658) । हमारे नज़दीक सही बात यही मालूम होती है कि रक़ीम से तात्पर्य कतबा (शिलालेख) है।
إِذۡ أَوَى ٱلۡفِتۡيَةُ إِلَى ٱلۡكَهۡفِ فَقَالُواْ رَبَّنَآ ءَاتِنَا مِن لَّدُنكَ رَحۡمَةٗ وَهَيِّئۡ لَنَا مِنۡ أَمۡرِنَا رَشَدٗا ۝ 9
(10) जब उन कुछ नव-जवानों ने गुफा में पनाह ली और उन्होंने कहा कि “ऐ पालनहार ! हमें अपनी विशेष कृपा प्रदान कर और हमारा मामला ठीक कर दे,”
فَضَرَبۡنَا عَلَىٰٓ ءَاذَانِهِمۡ فِي ٱلۡكَهۡفِ سِنِينَ عَدَدٗا ۝ 10
(11) तो हमने उन्हें उसी गुफा में थपककर वर्षों के लिए गहरी नींद सुला दिया
ثُمَّ بَعَثۡنَٰهُمۡ لِنَعۡلَمَ أَيُّ ٱلۡحِزۡبَيۡنِ أَحۡصَىٰ لِمَا لَبِثُوٓاْ أَمَدٗا ۝ 11
(12) फिर हमने उन्हें उठाया ताकि देखें कि उनके दो गिरोहों में से कौन अपनी ठहरने की अवधि की ठीक गिनती करता है।
نَّحۡنُ نَقُصُّ عَلَيۡكَ نَبَأَهُم بِٱلۡحَقِّۚ إِنَّهُمۡ فِتۡيَةٌ ءَامَنُواْ بِرَبِّهِمۡ وَزِدۡنَٰهُمۡ هُدٗى ۝ 12
(13) हम उनका असल किस्सा तुम्हें सुनाते हैं।9 वे कुछ नौजवान थे जो अपने रख पर ईमान ले आए थे और हमने उनको हिदायत में तरक्की दी थी।10
9. इस क़िस्से की सबसे पुरानी गवाही शाम (सीरिया) के एक ईसाई पादरी जेम्स सरोजी के प्रवचनों में पाई गई है जो सुरथानी भाषा में लिखे गए थे। यह आदमी कहफ़वालों के देहान्त के कुछ साल बाद 452 to में पैदा हुआ था और उसने 474 ई0 के लगभग समय में अपने इन प्रवचनों को क्रमबद्ध कर दिया था। इन प्रवचनों में वह इस पूरी घटना को बड़ी विस्तार में बयान करता है। यही सुरयानी रिवायत एक ओर हमारे आरंभिक काल के टीकाकारों को पहुंची, जिसे इल्ने जरीर तबरी ने विभिन्न प्रमाणों के साथ अपनी टीका में नकल किया है और दूसरी ओर पूरोप पहुंची जहाँ यूनानी और लेटिन भाषाओं में उसके अनुवाद और सार प्रकाशित हुए गिब्बन (Gibbon) ने अपनी पुस्तक 'रूमी साम्राज्य के पतन का इतिहास' के अध्याय 33 में 'सात सोनेवालों' (Seven Sleepers) के शीर्षक के अन्तर्गत इन स्रोतों से इस किस्से का जो सार दिया है वह हमारे टीकाकारों को रिवायतों से इतना ज्यादा मिलता जुलता है कि दोनों किस्से करीब-करीब एक ही स्रोत से निकले मालूम होते हैं। जैसे जिस बादशाह के अत्याचार से भागकर कहफ़वालों ने गुफा में पनाह ली थी, हमारे टीकाकार उसका नाम दकयनूस या दकयानूस या इक्यूस बताते हैं और गिब्बन कहता है कि वह कैसर डिसियस (Decuis) था। जिस नगर में यह घटना हुई उसका नाम हमारे टीकाकार अफ़सुस या अफसोस लिखते हैं, और गिब्बन उसका नाम इफ़ेसुस (Ephesus) बताता है जो एशियाए कोचक के पश्चिमी तट पर रूमियों का सबसे बड़ा नगर और प्रसिद्ध बन्दरगाह था। फिर जिस बादशाह के युग में कहफ़ वाले जागे, उसका नाम हमारे टीकाकार तेदुसिस लिखते हैं और गिळ्बन कहता हैं कि उनके उठने की पटना कैसर थियुडोसियस (Theodosius) द्वितीय काल में घटी जो रूमी साम्राज्य के ईसाइयत क़बूल कर लेने के बाद 408 से 450 ई० तक रूम का कैसर रहा। दोनों बयानों में समानता होने की हद यह है कि कह्फ़वालों ने जागने के बाद अपने जिस साथी को खाना लाने के लिए शहर भेजा था, उसका नाम हमारे टीकाकार यमलोखा बताते हैं और गिब्बन उसे यमलीखुस (Jamblichus) लिखता है। विवरण दोनों रिवायतों में एक जैसा है। इनके अनुसार गुफा में इन लोगों के रहने की अवधि लगभग 196 साल बनती है। कुछ प्राच्य-विद्या विदों ने इस किस्से को कहफ़वालों के किस्से जैसा मानने से इस आधार पर इंकार कर दिया है कि आगे कुरआन उनके गुफा में निवास की मुद्दत 309 वर्ष बयान कर रहा है, लेकिन इसका उत्तर हमने टिपणी नं. 25 में दे दिया है। इस सुरयानी रिवायत और क़ुरआन के बयान में कुछ आंशिक मतभेद भी हैं जिनको आधार बनाकर गिब्बन ने नबी (सल्ल०) पर 'अज्ञानता' का आरोप लगाया है, हालांकि जिस रिवायत पर भरोसा करके वह इतनी बड़ी जुर्रत कर रहा है उसके बारे में वह स्वयं मानता है कि वह इस घटना के तीस-चालीस साल बाद शाम के एक आदमी ने लिखी है और इतनी अवधि के अन्दर ज़बानी रिवायतों के एक देश से दूसरे देश तक पहुँचने में कुछ न कुछ अन्तर हो जाया करता है। इस तरह की एक रिवायत के मुताल्लिक़ यह विचार करना कि उसका एक-एक अक्षर सही है और उससे किसी अंश में मतभेद होना अवश्य ही क़ुरआन ही की ग़लती है, केवल उन हतधर्म लोगों को शोभा देता है जो धार्मिक पक्षपात में बुद्धि के मामूली तक़ाज़ों तक को पीठ पीछे डाल देते हैं।
10. अर्थात जब वे सच्चे दिल से ईमान ले आए तो अल्लाह ने उनके मार्गदर्शन में बढ़ौतरी को और उनको यह सौभाग्य प्रदान किया कि सत्य और सच्चाई पर क़दम जमाए रखें और अपने आपको खतरे में डाल लेना गवारा कर लें, मगर असत्य के आगे सिर न झुकाएँ। रिवायतों से मालूम होता है कि ये नव जवान आरंभिक युग के ईसा (अलैहि०) के अनुपालक में से थे और रूमी साम्राज्य की जनता थे जो उस समय मुक्षिक थी और एकेश्वरवादियों की सख्ज दुश्मन हो रही थी।
وَرَبَطۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ إِذۡ قَامُواْ فَقَالُواْ رَبُّنَا رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَن نَّدۡعُوَاْ مِن دُونِهِۦٓ إِلَٰهٗاۖ لَّقَدۡ قُلۡنَآ إِذٗا شَطَطًا ۝ 13
(14) हमने उनके दिल उस समय सुदृढ़ कर दिए जब वे उठे और उन्होंने एलान कर दिया कि “हमारा रब तो बस वही है जो आसमानों और जमीन का रब है। हम उसे छोड़कर किसी दूसरे उपास्य को न पुकारेंगे, अगर हम ऐसा करें तो बिल्कुल अनुचित बात करेंगे।"
هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمُنَا ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗۖ لَّوۡلَا يَأۡتُونَ عَلَيۡهِم بِسُلۡطَٰنِۭ بَيِّنٖۖ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا ۝ 14
(15) (फिर उन्होंने आपस में एक-दूसरे से कहा) "यह हमारी क़ौम तो सृष्टि के पालनहार को छोड़कर दूसरे खुदा बना बैठी है। ये लोग उनके उपास्य होने पर कोई खुला प्रमाण क्यों नहीं लाते? आखिर उस आदमी से बढ़कर अत्याचारी और कौन हो सकता है जो अल्लाह पर झूठ बाँधे?
وَإِذِ ٱعۡتَزَلۡتُمُوهُمۡ وَمَا يَعۡبُدُونَ إِلَّا ٱللَّهَ فَأۡوُۥٓاْ إِلَى ٱلۡكَهۡفِ يَنشُرۡ لَكُمۡ رَبُّكُم مِّن رَّحۡمَتِهِۦ وَيُهَيِّئۡ لَكُم مِّنۡ أَمۡرِكُم مِّرۡفَقٗا ۝ 15
(16) अब जबकि तुम उनसे और अल्लाह के अतिरिक्त उनके इष्ट पूज्यों से सम्बन्ध काट चुके हो तो चलो अब अमुक गुफा में चलकर पनाह लो।11 तुम्हारा रब तुमपर अपनी रहमत का दामन फैला देगा और तुम्हारे काम के लिए सरो-सामान मुहैया कर देगा।"
11. जिस युग में इन ईश्वरवादी युवकों को आबादियों से भागकर पहाड़ों में शरण लेनी पड़ी थी, उस समय शहर इफ्सुस एशिया कोचक में बुतपरस्ती और जादूगरी का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ डायना देवी का एक भव्य मन्दिर था जिसकी ख्याति पूरी दुनिया में फैली हुई थी और दूर-दूर से लोग उसको पूजा के लिए आते थे। वहाँ के जादूगर, आमिल, ज्योतिषी और तावीज़ लिखनेवाले दुनिया भर में मशहूर थे। शाम व फिलस्तीन और मिस्र तक उनका कारोबार चलता था और उस कारोबार में यहूदियों का भी अच्छा-खासा हिस्सा था जो अपनी कला को हज़रत सुलैमान (अलैहि.) से जोड़ते थे (देखिए इंसाइक्लोपेडिया ऑफ़ बिबलिकल लिट्रेचर, शोर्षक Ephesus) शिर्क और अंधविश्वास के उस वातावरण में ईश्वरवादियों का जो हाल हो रहा था, उसका अनुमान कहफ़वालों के उस वाक्य से किया जा सकता है जो अगली आयतों में आ रहा है कि, "अगर उनका हाथ हमपर पड़ गया तो बस हमपर पथराव ही कर डालेंगे या फिर ज़बरदस्ती अपने समुदाय में वापस ले जाएँगे।"
۞وَتَرَى ٱلشَّمۡسَ إِذَا طَلَعَت تَّزَٰوَرُ عَن كَهۡفِهِمۡ ذَاتَ ٱلۡيَمِينِ وَإِذَا غَرَبَت تَّقۡرِضُهُمۡ ذَاتَ ٱلشِّمَالِ وَهُمۡ فِي فَجۡوَةٖ مِّنۡهُۚ ذَٰلِكَ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِۗ مَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ وَلِيّٗا مُّرۡشِدٗا ۝ 16
(17) तुम उन्हें गुफ़ा में देखते12 तो तुम्हें यूँ नज़र आता कि सूरज जब निकलता है तो उनके गुफ़ा को छोड़कर दायीं ओर चढ़ जाता है और जब डूबता है तो उनसे बचकर बायी ओर उतर जाता है और वे हैं कि गुफा के भीतर एक फैली जगह में पड़े हुए हैं।13 यह अल्लाह की निशानियों में से एक है, जिसको अल्लाह रास्ता दिखाए वही रास्ता पानेवाला है और जिसे अल्लाह भटका दे, उसके लिए तुम कोई मार्गदर्शक अभिभावक नहीं पा सकते।
12. बीच में यह वर्णान छोड़ दिया गया है कि इस आपसी समझौते के अनुसार ये लोग नगर से निकलकर पहाड़ों के बीच एक गुफ़ा में जा छिपे ताकि संगसार किए जाने या अपने पूर्वज के पूर्व पंथ पर लौटाए जाने पर विवश किए जाने से बच जाएँ।
13. अर्थात् उनकी गुफ़ा का मुहाना उत्तर की ओर था जिसके कारण सूरज की रौशनी किसी मौसम में भी अन्दर न पहुँचती थी और बाहर से गुज़रनेवाला यह न देख सकता था कि अन्दर कौन है।
وَتَحۡسَبُهُمۡ أَيۡقَاظٗا وَهُمۡ رُقُودٞۚ وَنُقَلِّبُهُمۡ ذَاتَ ٱلۡيَمِينِ وَذَاتَ ٱلشِّمَالِۖ وَكَلۡبُهُم بَٰسِطٞ ذِرَاعَيۡهِ بِٱلۡوَصِيدِۚ لَوِ ٱطَّلَعۡتَ عَلَيۡهِمۡ لَوَلَّيۡتَ مِنۡهُمۡ فِرَارٗا وَلَمُلِئۡتَ مِنۡهُمۡ رُعۡبٗا ۝ 17
(18) तुम उन्हें देखकर यह समझते कि वे जाग रहे है, हालाँकि वे सो रहे थे। हम उन्हें दाएँ-बाएँ करवट दिलवाते रहते थे।14 और उनका कुत्ता गुफा के दहाने पर हाथ फैलाए बैठा था। अगर तुम कहीं झाँककर उन्हें देखते तो उलटे पाँव भाग खड़े होते और तुम उन्हें देखकर भयभीत हो जाते।15
14. अर्थात् अगर कोई बाहर से झांककर देखता भी तो इन सात आदमियों को कभी-कभी करवटें लेते रहने की वजह से वह यही गुमान करता कि ये बस यूँ ही लेटे हुए हैं, सोए हुए नहीं हैं।
15. अर्थात् पहाड़ों के भीतर एक अंधेरी गुफ़ा में कुछ आदमियों का इस तरह मौजूद होना और आगे कुत्ते का बैठा होना एक ऐसा भयानक दृश्य पेश करता कि झाँकनेवाले उनको डाकू समझकर भाग जाते थे और एक बड़ा कारण था जिसके कारण उन लोगों के हाल पर इतनी मुद्दत तक परदा पड़ा रहा। किसी को यह साहस ही न हुआ कि भीतर जाकर कभी असल मामले से बाख़बर होता।
وَكَذَٰلِكَ بَعَثۡنَٰهُمۡ لِيَتَسَآءَلُواْ بَيۡنَهُمۡۚ قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ كَمۡ لَبِثۡتُمۡۖ قَالُواْ لَبِثۡنَا يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖۚ قَالُواْ رَبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَا لَبِثۡتُمۡ فَٱبۡعَثُوٓاْ أَحَدَكُم بِوَرِقِكُمۡ هَٰذِهِۦٓ إِلَى ٱلۡمَدِينَةِ فَلۡيَنظُرۡ أَيُّهَآ أَزۡكَىٰ طَعَامٗا فَلۡيَأۡتِكُم بِرِزۡقٖ مِّنۡهُ وَلۡيَتَلَطَّفۡ وَلَا يُشۡعِرَنَّ بِكُمۡ أَحَدًا ۝ 18
(19) और इसी अद्भुत चमत्कार से हमने उन्हें उठा-बिठाया16 ताकि तनिक आपस में पूछ-गछ करें। उनमें से एक ने पूछा, “कहो, कितनी देर इस हाल में रहे?" दूसरों ने कहा, “शायद दिन भर या उससे कुछ कम रहे होंगे।" फिर वे बोले, “अल्लाह ही बेहतर जानता है कि हमारा कितना समय इस दशा में बीता। चलो, अब अपने में से किसी को चाँदी का यह सिक्का देकर शहर भेजें और वह देखे कि सबसे अच्छा खाना कहाँ मिलता है। वहाँ से वह कुछ खाने के लिए लाए और चाहिए कि तनिक होशियारी से काम करे, ऐसा न हो कि वह किसी को हमारे यहाँ होने की सूचना दे बैठे।
16. अर्थात् जैसे अद्भुत ढंग से वे सुलाए गए थे और दुनिया को उनके हाल से बेखबर रखा गया था, वैसा ही प्रकृति का यह अद्भुत चमत्कार उनका एक लम्बी अवधि के बाद जागना भी था।
إِنَّهُمۡ إِن يَظۡهَرُواْ عَلَيۡكُمۡ يَرۡجُمُوكُمۡ أَوۡ يُعِيدُوكُمۡ فِي مِلَّتِهِمۡ وَلَن تُفۡلِحُوٓاْ إِذًا أَبَدٗا ۝ 19
(20) अगर कहीं उन लोगों का हाथ हमपर पड़ गया तो बस संगसार ही कर डालेंगे या फिर ज़बरदस्ती हमें अपने समुदाय में वापस ले जाएँगे, और ऐसा हुआ तो हम कभी सफलता प्राप्त न कर सकेंगे।"
وَكَذَٰلِكَ أَعۡثَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ لِيَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَأَنَّ ٱلسَّاعَةَ لَا رَيۡبَ فِيهَآ إِذۡ يَتَنَٰزَعُونَ بَيۡنَهُمۡ أَمۡرَهُمۡۖ فَقَالُواْ ٱبۡنُواْ عَلَيۡهِم بُنۡيَٰنٗاۖ رَّبُّهُمۡ أَعۡلَمُ بِهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ غَلَبُواْ عَلَىٰٓ أَمۡرِهِمۡ لَنَتَّخِذَنَّ عَلَيۡهِم مَّسۡجِدٗا ۝ 20
(21) इस तरह हमने नगरवालों को उनकी दशा से अवगत करा दिया,17 ताकि लोग जान लें कि अल्लाह का वादा सच्चा है और यह कि क़ियामत की घड़ी निस्संदेह आकर रहेगी।18 (मगर तनिक सोचो कि जब सोचने की असल बात यह थी) उस समय वे आपस में इस बात पर झगड़ रहे थे कि इन (कह्फ़वालों) के साथ क्या किया जाए। कुछ लोगों ने कहा, “इनपर एक दीवार चुन दो, इनका रब ही इनके मामले को बेहतर जानता है"19 मगर जो लोग उनके मामलों पर ग़ालिब थे,20 उन्होंने कहा, "हम तो इनपर एक इबादतगाह (उपासना-गृह) बनाएँगे।‘’21
17. अर्थात् जब वह आदमी खाना खरीदने के लिए नगर गया तो दुनिया बदल चुकी थी। बुतपरस्त रूम को ईसाई हुए एक समय बीत चुका था। भाषा, सभ्यता, संस्कृति, पहनावा हर चीज़ में खुला अन्तर आ गया था। दो सौ वर्ष पहले का यह आदमी अपनी सज-धज, पहनावा, भाषा, हर चीज़ को दृष्टि से तत्काल एक तमाशा बन गया, और जब उसने कैसर डिसियस के समय का सिक्का खाना खरीदने के लिए पेश किया, तो दुकानदार की आँखें फटी की फटी रह गई। सुरयानी रिवायत के अनुसार दुकानदार को उसपर सन्देह हुआ कि शायद वह किसी पुराने समय का गढ़ा ख़ज़ाना निकाल लाया है। चुनांचे उसने आस-पास के लोगों को इस ओर मुतवज्जह किया और अन्त में उस व्यक्ति को शासन अधिकारी के सामने प्रस्तुत किया गया। वहाँ जाकर यह मामला खुला कि यह आदमी तो मसीह के उन अनुपालकों में से है जो दो सौ वर्ष पहले अपना ईमान बचाने के लिए भाग निकले थे। यह खबर देखते ही देखते नगर की ईसाई आबादी में फैल गई और शासन अधिकारियों के साथ लोगों की एक भीड़ गुफा पर पहुंच गई। अब जो गुफावालों को मालूम हुआ कि वे दो सौ वर्ष बाद सोकर उठे हैं, तो वे अपने ईसाई भाइयों को सलाम करके लेट गए और उनके प्राण-पेखरू उड़ गए।
18. सुरयानी रिवायत के अनुसार उस समय वहाँ कियामत और आख़िरत के मसले पर ज़ोर-शोर को बहस छिड़ी हुई थी। यद्यपि रूमी साम्राज्य के प्रभाव से जन-साधारण मसीही मत स्वीकार कर चुके थे जिसके मूलभूत विश्वासों में आखिरत का विश्वास भी सम्मिलित था, लेकिन अभी तक रूमी शिर्क और मूर्तिपूजा और यूनानी दर्शन के प्रभाव अधिक शक्तिशाली थे, जिनके कारण बहुत-से लोग आखिरत से इंकार या कम से कम उसके होने में सन्देह करते थे। फिर इस सन्देह और इंकार को सबसे ज़्यादा जो चीज़ शक्ति दे रही थी वह यह थी कि उफ़सुस में यहूदियों की बड़ी आबादी थी और उनमें से एक सम्प्रदाय (जिसे सुदूकी कहा जाता था) आखिरत का खुल्लम-खुल्ला इंकारी था। यह गिरोह अल्लाह की किताब (अर्थात् तौरात) से आख़िरत के इन्कार पर प्रमाण लाता था और मसीही उलमा के पास उसके मुक़ाबले में दृढ़ प्रमाण मौजूद न थे। इसी कारण आखिरत के इंकारियों का पल्ला भारी हो रहा था और आखिरत पर ईमान लानेवाले भी सन्देह और असमंजस में पड़ते जा रहे थे। ठीक उस समय कह फ़वालों के उठने की यह घटना घटित हुई और उसने मौत के बाद उठाए जाने का एक इंकार न करने योग्य प्रमाण जुटा दिया।
سَيَقُولُونَ ثَلَٰثَةٞ رَّابِعُهُمۡ كَلۡبُهُمۡ وَيَقُولُونَ خَمۡسَةٞ سَادِسُهُمۡ كَلۡبُهُمۡ رَجۡمَۢا بِٱلۡغَيۡبِۖ وَيَقُولُونَ سَبۡعَةٞ وَثَامِنُهُمۡ كَلۡبُهُمۡۚ قُل رَّبِّيٓ أَعۡلَمُ بِعِدَّتِهِم مَّا يَعۡلَمُهُمۡ إِلَّا قَلِيلٞۗ فَلَا تُمَارِ فِيهِمۡ إِلَّا مِرَآءٗ ظَٰهِرٗا وَلَا تَسۡتَفۡتِ فِيهِم مِّنۡهُمۡ أَحَدٗا ۝ 21
(22) कुछ लोग कहेंगे कि वे तीन थे और चौथा उनका कुत्ता था और कुछ दूसरे कह देंगे कि पाँच थे और छठा उनका कुत्ता था। ये सब बेतुकी हाँकते हैं। कुछ और लोग कहते हैं कि सात थे और आठवाँ उनका कुत्ता था।22 कहो, मेरा रब ही बेहतर जानता है कि वे कितने थे। कम ही लोग उनकी सही तादाद जानते हैं। अत: सरसरी बात से बढ़कर उनकी तादाद के मामले में लोगों से बहस न करो, और न उनके बारे में किसी से कुछ पूछो23
22. इससे मालूम होता है कि इस घटना के पौने तीन सौ साल बाद, कुरआन उतरने के समय में, उसके सविस्तार विवरण जानने के बारे में अलग-अलग कहानियाँ ईसाइयों में फैली हुई थी और सामान्य रूप से प्रमाणिक जानकारियां लोगों के पास मौजूद न थीं।' स्पष्ट है कि वह प्रिंटिंग का युग न था कि जिन किताबों में उसके बारे में अपेक्षतः अधिक सही जानकारियाँ पाई जाती थीं, वे आम तौर पर छपतीं। घटनाएँ अधिकतर मौखिक रूप से फैलती थीं और समय बीतते-बीतते उनके बहुत-से विवरण कहानी बनते चले जाते थे, फिर भी चूंकि तीसरे कथन को अल्लाह ने रद्द नहीं किया है, इसलिए यह गुमान सोचा जा सकता है कि सही तादाद सात ही थी।
23. अर्थ यह है कि असल चीज़ उनकी तादाद नहीं है, बल्कि असल चीज़ वे शिक्षाएँ हैं जो इस किस्से से मिलते हैं। इससे यह शिक्षा मिलती है कि एक सच्चे ईमानवाले को किसी भी दशा में सत्य से मुँह मोड़ने - और असत्य के आगे सर झुकाने के लिए तैयार न होना चाहिए इससे यह शिक्षा मिलती है कि मोमिन का भरोसा दुनिया के साधनों पर नहीं, बल्कि अल्लाह पर होना चाहिए और सत्यवादिता के लिए प्रत्यक्ष रूप से कोई अनुकूलता की निशानी न पाई जाती हो, तब भी अल्लाह के भरोसे पर सत्य-मार्ग में क़दम उठा देना चाहिए। इससे यह शिक्षा मिलती है कि जिस 'प्रचलित रीति' को लोग 'प्राकृतिक-नियम' समझते हैं और विचार करते हैं कि इस नियम के विरुद्ध दुनिया में कुछ नहीं हो सकता, अल्लाह वास्तव में उसका पाबन्द नही है, वह जब और जहाँ चाहे इस चलन को बदलकर जो असमान्य कार्य भी करना चाहे, कर सकता है। उसके लिए यह कोई बड़ा कार्य नहीं है कि किसी को दो सौ वर्ष तक सुलाकर इस तरह उठा-बिठाए जैसे वह कुछ घंटे सोया है और उसकी उम्र, रूप, पहनावा, स्वास्थ्य, तात्पर्य यह कि किसी चीज़ पर भी इस बीते समय का कुछ प्रभाव न हो। इससे शिक्षा मिलती है कि मानव-जाति की तमाम अगली-पिछली नस्लों को एक ही समय में जिंदा करके उठा देना, जिसकी खबर नबियों और आसमानी किताबों ने दी है,अल्लाह की शक्ति-सामर्थ्य से कुछ भी दूर नहीं है। इससे यह शिक्षा मिलती है कि 'अज्ञानी मनुष्य' किस तरह हर समय में अल्लाह की निशानियों को अपने कुछ सिखाने का सामान बनाने के बजाए उलटा और गुमराही का सामान बनाते रहे हैं। कहफ़वालों का जो चमत्कार अल्लाह ने इसलिए दिखाया था कि लोग उससे आख्रिरत का विश्वास प्राप्त करें, ठीक उसी निशान को उन्होंने यह समझा कि अल्लाह ने उन्हें अपने कुछ और वली (संत) पूजने के लिए भेज दिए-ये हैं वे मूल शिक्षाएँ जो आदमी को इस किस्से से लेनी चाहिए और इसमें ध्यान देने योग्य यही बातें हैं। इनसे ध्यान हटाकर इस खोज में लग जाना कि कहवाले कितने थे और कितने न थे और उनके नाम क्या-क्या थे और उनका कुत्ता किस रंग का था, यह उन लोगों का काम है जो गूदों को छोड़कर छिलकों से दिलचस्पी रखते हैं। इसी लिए अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को और आपके माध्यम से ईमानवालों को यह शिक्षा दी कि अगर दूसरे लोग इस प्रकार की असम्बद्ध बहसे छ। भी तो तुम उनसे न उलझो, न ऐसे सवालों की खोज में अपना समय लगाओ, बल्कि अपनी ध्यान केवल काम की बात पर जमाए रखो। यही कारण है कि अल्लाह ने स्वयं उनकी सही तादाद बयान नहीं की ताकि बेकार का शौक रखनेवालों को कुछ न मिले।
وَلَا تَقُولَنَّ لِشَاْيۡءٍ إِنِّي فَاعِلٞ ذَٰلِكَ غَدًا ۝ 22
(23) और देखो किसी चीज़ के बारे में कभी यह न कहा करो कि मैं कल यह काम कर दूंगा।
إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ وَٱذۡكُر رَّبَّكَ إِذَا نَسِيتَ وَقُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَهۡدِيَنِ رَبِّي لِأَقۡرَبَ مِنۡ هَٰذَا رَشَدٗا ۝ 23
(24) (तुम कुछ नहीं कर सकते) अलावा इसके कि अल्लाह चाहे । अगर भूले से यह बात मुख से निकल जाए तो तुरन्त अपने रब को याद करो और कहो, "आशा है कि मेरा रब इस मामले में सच्चाई से निकटतम बात की ओर मेरा मार्गदर्शन कर देगा।‘’24
24. यह एक सन्दर्भ से हटकर वाक्य है जो पिछली आयत के विषय को दृष्टि में रखकर कहा गया है। पिछली आयत में आदेश दिया गया था कि कहफ़वालों की सही तादाद का वास्तविक ज्ञान अल्लाह को है और इसकी खोज करना एक अनावश्यक कर्म है, इसलिए ख़ामख़ाह एक अनावश्यक बात की खोज में लगने से बचो और उसपर किसी से बहस भी न करो। इस क्रम में आगे की बात कहने से पहले सन्दर्भ से हटकर एक और निर्देश भी नबी (सल्ल०) और ईमानवालों को दिया गया और वह यह कि तुम कभी दावे से यह न कह देना कि मैं कल अमुक काम कर दूंगा। तुमको क्या पता कि तुम वह काम कर सकोगे या नहीं, न तुम्हें परोक्ष का ज्ञान और न तुम अपने कार्यों में इतना अधिकार प्राप्त रखते हो कि जो चाहो कर सको। इसलिए अगर कभी अनचाहे में ऐसी बात मुख से निकल भी जाए तो तुरंत सचेत होकर अल्लाह को याद करो और 'इन्शा अल्लाह', (अगर अल्लाह ने चाहा) कह दिया करो। साथ ही तुम यह भी नहीं जानते कि जिस काम के करने को कह रहे हो, उसमें भलाई भी है या कोई दूसरा काम उससे अच्छा है ? इसलिए अल्लाह पर भरोसा करते हुए यूँ कहा करो कि आशा है मेरा रब इस मामले में सही बात या उचित रोति-नीति की ओर मेरा मार्गदर्शन कर देगा।
وَلَبِثُواْ فِي كَهۡفِهِمۡ ثَلَٰثَ مِاْئَةٖ سِنِينَ وَٱزۡدَادُواْ تِسۡعٗا ۝ 24
(25) और वे अपनी गुफ़ा में तीन सौ साल रहे, और (कुछ लोग अवधि के गिनने में) 9 साल और बढ़ गए है।25
25. इस वाक्य का सम्बन्ध हमारे नज़दीक सन्दर्भ से हटकर आए वाक्य से पहले के वाकय से है, अर्थात् वर्णन क्रम यूँ है कि, "कुछ लोग कहेंगे कि वे तीन थे और चौथा उनका कुत्ता था ...... और कुछ लोग कहते हैं कि वे अपनी गुफा में तीन सौ साल रहे और कुछ लोग इस अवधि की गिनती में नौ साल और बढ़ गए हैं।" इस वाक्य में तीन सौ और तीन सौ नौ साल की संख्या जो बयान की गई है, "हमारे विचार में यह वास्तव में लोगों के कथन का वृतान्त है, न कि अल्लाह का अपना कथन । और उस पर यह प्रमाण है कि बाद के वाक्य में अल्लाह स्वयं फ़रमा रहा है कि तुम कहो, अल्लाह बेहतर जानता है कि वे कितने समय रहे। अगर 309 की तादाद अल्लाह ने स्वयं बयान फ़रमाई होती तो उसके बाद यह वाक्य कहने का कोई अर्थ नहीं था। इसी तर्क के आधार पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि०) ने भी यही अर्थ लिया है कि यह अल्लाह का कथन नहीं है बल्कि लोगों के कथन का वृतान्त है।
قُلِ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا لَبِثُواْۖ لَهُۥ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ أَبۡصِرۡ بِهِۦ وَأَسۡمِعۡۚ مَا لَهُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَلِيّٖ وَلَا يُشۡرِكُ فِي حُكۡمِهِۦٓ أَحَدٗا ۝ 25
(26) तुम कहो, अल्लाह उनके ठहरने की अवधि अधिक जानता है 25अ, आसमानों और ज़मीन के सब छिपे हाल उसी को मालूम हैं, क्या ख़ूब है वह देखनेवाला और सुननेवाला ! (ज़मीन और आसमान में पायी जानेवाली चीज़ों और जीवों का) कोई ख़बर रखनेवाला उसके सिवा नहीं, और वह अपने शासन में किसी को साझीदार नहीं बनाता।
25अ. अर्थात् कहफ़वालों की तादाद की तरह उनके ठहरने की अवधि के बारे में भी लोगों के बीच मतभेद है, मगर तुम्हें उसकी खोज में पड़ने की ज़रूरत नहीं। अल्लाह ही जानता है कि वे कितनी मुद्दत इस हाल में रहे।
وَٱتۡلُ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِن كِتَابِ رَبِّكَۖ لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِهِۦ وَلَن تَجِدَ مِن دُونِهِۦ مُلۡتَحَدٗا ۝ 26
(27) ऐ नबी।26 तुम्हारे रब की किताब में से जो कुछ तुमपर वह्य की गई है उसे (ज्यों का त्यो) सुना दो, कोई उसके फरमानों को बदल देने की शक्ति नहीं रखता। और (अगर तुम किसी के लिए उसमें परिवर्तन करोगे तो) उससे बचकर भागने के लिए कोई पनाहगाह न पाओगे।27
26. कह्फ़वालों का किस्सा समाप्त करने के बाद अब यहाँ से दूसरे विषय का आरंभ हो रहा है और उसमें परिस्थितियों की समीक्षा है जिसका उस समय मक्के में मुसलमानों को सामना करना पड़ रहा था।
27. इसका यह अर्थ नहीं कि मआज-अल्लाह (अल्लाह की पनाह) उस समय नबी (सल्ल०) मक्का के विधर्मियों के लिए क़ुरआन में कुछ परिवर्तन कर देने और क़ुरैश के सरदारों से कुछ कमी व बेश पर समझौता कर लेने की सोच रहे थे और अल्लाह आपको इससे मना कर रहा था, बल्कि वास्तव में सम्बोधन मक्का के विधर्मियों की ओर है, यद्यपि सम्बोधन प्रत्यक्ष में नबी (सल्ल०) से है। विधर्मियों को यह बताना अभिप्रेत है कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह की वाणी में अपनी ओर से कोई कमी या बेशी करने का अधिकार नहीं रखते । उनका काम बस यह है कि जो कुछ अल्लाह ने उतारा है, उसे बिना कुछ घटाए-बढ़ाए पहुँचा दें। तुम्हें मानना है तो इस पूरे दीन को ज्यों का त्यों मानो, जो जगत के पालनहार की ओर से प्रस्तुत किया जा रहा है, और नहीं मानना है तो शौक से न मानो, मगर यह उम्मीद किसी हाल में न रखो कि तुम्हें प्रसन्न करने के लिए इस दीन में तुम्हारी इच्छाओं के अनुसार कोई संशोधन किया जाएगा, भले ही साधारण आंशिक संशोधन हो। यह उत्तर है उस माँग का जो विधर्मियों की ओर से बार बार किया जाता था कि ऐसी भी क्या ज़िद है कि हम तुम्हारी पूरी बात मान लें। आख़िर कुछ तो हमारे बाप-दादा के दीन के विश्वासों और रस्म व रिवाज की रिआयत को ध्यान में रखो, कुछ तुम हमारी मान लो, कुछ हम तुम्हारी मान लें। इस पर यह समझौता हो सकता है और बिरादरी फूट से बच सकती है। क़ुरआन में इसकी माँग का कई अवसरों पर उल्लेख किया गया है और इसका यही उत्तर दिया गया है। उदाहरण के रूप में सूरा 10 (यूनुस) को आयत-15 देखिए, जब हमारी आयतें साफ़-साफ़ उनको सुनाई जाती हैं तो वे लोग, जो कभी हमारे सामने हाज़िर होने की उम्मीद नहीं रखते, कहते हैं कि इसके बजाय कोई और क़ुरआन लाओ या इसमें कुछ संशोधन करो।"
وَٱصۡبِرۡ نَفۡسَكَ مَعَ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ رَبَّهُم بِٱلۡغَدَوٰةِ وَٱلۡعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجۡهَهُۥۖ وَلَا تَعۡدُ عَيۡنَاكَ عَنۡهُمۡ تُرِيدُ زِينَةَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَا تُطِعۡ مَنۡ أَغۡفَلۡنَا قَلۡبَهُۥ عَن ذِكۡرِنَا وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ وَكَانَ أَمۡرُهُۥ فُرُطٗا ۝ 27
(28) और अपने दिल को उन लोगों के साथ रहने पर सन्तुष्ट करो जो अपने रब की प्रसन्नता के इच्छुक बनकर सुबह व शाम उसे पुकारते हैं, और उनसे कदापि निगाह न फेरो। क्या तुम दुनिया को शोभा पसन्द करते हो?28 किसी ऐसे आदमी का आज्ञापालन न करो29 जिसके दिल को हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल कर दिया है और जो अपनी इच्छा पर चलने और मनमानी करने में लग गया है और जिसका क्रिया-कलाप असन्तुलित है।30
28. इब्ने अब्बास (रजि०) की रिवायत के अनुसार, क़ुरैश के सरदार नबी (सल्ल०) से कहते थे कि यह बिलाल (रजि०) और सुहैब (रजि०) और अम्मार (रजि०) और खब्बाब (रजि०) और इब्ने मसऊद (रजि०) जैसे धनहीन लोग, जो तुम्हारी संगति में बैठा करते हैं, उनके साथ हम नहीं बैठ सकते। इन्हें हटाओ तो हम तुम्हारी बैठकों में आ सकते हैं और मालूम कर सकते हैं कि तुम क्या करना चाहते हो। इसपर अल्लाह ने नबी (सल्ल०) से फ़रमाया कि जो लोग अल्लाह को प्रसन्नता के लिए तुम्हारे पास इकट्ठा हुए हैं और रात व दिन अपने रख को याद करते हैं, उनके साथ होने पर अपने दिल को सन्तुष्ट करो और उनसे कदापि निगाह न फेरो। क्या तुम इन निष्ठावान व्यक्तियों को छोड़कर यह चाहते हो कि दुनिया के ठाठ-बाट रखनेवाले लोग तुम्हारे पास बैठे? इस वाक्य में भी प्रत्यक्ष सम्बोधन नबी (सल्ल०) से है, मगर वास्तव में क़ुरैश के सरदारों को सुनाना अभिप्रेत है कि तुम्हारी यह दिखावे की शान व शौकत, जिसपर तुम फूल रहे हो, अल्लाह और उसके रसूल की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं रखते । तुमसे वे धनहीन अधिक मूल्यवान हैं जिनके दिल में निष्ठा है और जो अपने रब को याद से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहते । ठीक यही मामला हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम के सरदारों के बीच भी सामने आया था। वे हज़रत नूह (अलैहि०) से कहते थे, "हम तो यह देखते हैं कि हममें से जो नीच हैं वे बे-सोचे-समझे तुम्हारे पीछे लग गए हैं।" और हज़रत नूह (अलैहि०) का जवाब यह था कि, "मैं ईमान लानेवालों को धुतकार नहीं सकता। और जिन लोगों को तुम हीनता की दृष्टि से देखते हो,मैं उनके बारे में यह नहीं कह सकता कि अल्लाह ने उन्हें कोई भलाई अता नहीं की है।" सूरा-11 (हूद) आयत 27, 29, 31.सूरा-6 (अनआम) आयत 52 और सूरा-15 (हिज़्र) आयत 88 ।
28. इब्ने अब्बास (रजि०) की रिवायत के अनुसार, क़ुरैश के सरदार नबी (सल्ल०) से कहते थे कि यह बिलाल (रजि०) और सुहैब (रजि०) और अम्मार (रजि०) और खब्बाब (रजि०) और इब्ने मसऊद (रजि०) जैसे धनहीन लोग, जो तुम्हारी संगति में बैठा करते हैं, उनके साथ हम नहीं बैठ सकते। इन्हें हटाओ तो हम तुम्हारी बैठकों में आ सकते हैं और मालूम कर सकते हैं कि तुम क्या करना चाहते हो। इसपर अल्लाह ने नबी (सल्ल०) से फ़रमाया कि जो लोग अल्लाह को प्रसन्नता के लिए तुम्हारे पास इकट्ठा हुए हैं और रात व दिन अपने रख को याद करते हैं, उनके साथ होने पर अपने दिल को सन्तुष्ट करो और उनसे कदापि निगाह न फेरो। क्या तुम इन निष्ठावान व्यक्तियों को छोड़कर यह चाहते हो कि दुनिया के ठाठ-बाट रखनेवाले लोग तुम्हारे पास बैठे? इस वाक्य में भी प्रत्यक्ष सम्बोधन नबी (सल्ल०) से है, मगर वास्तव में क़ुरैश के सरदारों को सुनाना अभिप्रेत है कि तुम्हारी यह दिखावे की शान व शौकत, जिसपर तुम फूल रहे हो, अल्लाह और उसके रसूल की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं रखते । तुमसे वे धनहीन अधिक मूल्यवान हैं जिनके दिल में निष्ठा है और जो अपने रब को याद से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहते । ठीक यही मामला हज़रत नूह (अलैहि०) और उनकी क़ौम के सरदारों के बीच भी सामने आया था। वे हज़रत नूह (अलैहि०) से कहते थे, "हम तो यह देखते हैं कि हममें से जो नीच हैं वे बे-सोचे-समझे तुम्हारे पीछे लग गए हैं।" और हज़रत नूह (अलैहि०) का जवाब यह था कि, "मैं ईमान लानेवालों को धुतकार नहीं सकता। और जिन लोगों को तुम हीनता की दृष्टि से देखते हो,मैं उनके बारे में यह नहीं कह सकता कि अल्लाह ने उन्हें कोई भलाई अता नहीं की है।" सूरा-11 (हूद) आयत 27, 29, 31.सूरा-6 (अनआम) आयत 52 और सूरा-15 (हिज़्र) आयत 88 ।
وَقُلِ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَن شَآءَ فَلۡيُؤۡمِن وَمَن شَآءَ فَلۡيَكۡفُرۡۚ إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلظَّٰلِمِينَ نَارًا أَحَاطَ بِهِمۡ سُرَادِقُهَاۚ وَإِن يَسۡتَغِيثُواْ يُغَاثُواْ بِمَآءٖ كَٱلۡمُهۡلِ يَشۡوِي ٱلۡوُجُوهَۚ بِئۡسَ ٱلشَّرَابُ وَسَآءَتۡ مُرۡتَفَقًا ۝ 28
(29) स्पष्ट कह दो कि यह सत्य है तुम्हारे रब की ओर से, अब जिसका जी चाहे मान ले और जिसका जी चाहे इंकार कर दे।31 हमने (इंकार करने वाले) जालिमों के लिए एक आग तैयार कर रखी है जिसकी लपटें उन्हें घेरे में ले चुकी है।32 वहाँ अगर वे पानी मांगेगे तो ऐसे पानी से उनका सत्कार किया जाएगा जो तेल की तलछट जैसा होगा33 और उनका मुँह भून डालेगा, सबसे बुरा पेय और बहुत बुरा विश्राम स्थल !
31. यहाँ पहुँचकर स्पष्ट रूप में समझ में आ जाता है कि कह फ़वालों का क़िस्सा सुनाने के बाद ये वाक्य किस अनुकूलता से कहे गए हैं। कह्फ़वालों की जो घटनाएँ ऊपर आई हैं, उनमें यह बताया गया था कि तौहीद पर ईमान लाने के बाद उन्होंने किस तरह उठकर दो टूक बात कह दी कि "हमारा रब तो बस वह है जो आसमानों और जमीन का रब है।" और फिर किस तरह वे अपनी गुमराह कौम से किसी प्रकार के समझौते पर तैयार न हुए बल्कि उन्होंने दढ़ संकल्प के साथ कहा कि हम उसके सिवा किसी दूसरे खुदा को न पुकारेंगे, अगर हम ऐसा करें तो बड़ी गलत बात करेंगे।" और किस प्रकार उन्होंने अपनी क़ौम और उसके उपास्यों को छोड़कर बिना किसी सहारे और बिना किसी सामग्री के एक गुफा में जा पड़ना स्वीकार कर लिया, मगर यह स्वीकार न किया कि सत्य से बाल बराबर भी हटकर अपनी कौम से समझौता कर लेते। फिर जब वे जागे तब भी उन्हें चिन्ता हुई तो इस बात की कि अगर खुदा न करे, हमारी कौम हमको अपने समुदाय की ओर फेर ले जाने में सफल हो गई तो हम कभी सफलता प्राप्त न कर सकेंगे। इन घटनाओं का उल्लेख करने के बाद अब नबी (सल्ल०) को सम्बोधित करके कहा जा रहा है- और सुनाना वास्तव में इस्लाम के विरोधियों को अभिप्रेत है कि इन मुश्किों और सत्य के इंकारियों का समझौता करना विवाद से परे की बात है। जो सत्य अल्लाह की ओर से आया है उसे बिना घटाए बढ़ाए जैसा कुछ है उनके सामने पेश कर दो। मानते हैं तो मानें, नहीं मानते हैं तो स्वयं दुष्परिणाम भोगेंगे। जिन्होंने मान लिया है, चाहे वे कमसिन नव जवान हों या निर्धन व्यक्ति या दास और मज़दूर, बहरहाल वही बहुमूल्य हीरे हैं, उन्हीं को यहाँ प्रिय रखा जाएगा और उनको छोड़कर उन बड़े-बड़े सरदारों और रईसों की कुछ परवाह न की जाएगी जो दुनिया की शान व शौकत चाहे जितनी रखते हो, मगर हैं अल्लाह से ग़ाफ़िल और अपने मन के दास ।
32. अरबी शब्द 'सुरादिक' का मूल अर्थ है कनाते और सरापरदे जो किसी खेमे के चारों ओर लगाए जाते हैं, लेकिन जहन्नम की अनुकूलता को सामने रखकर देखा जाए तो विचार होता है कि सुरादिक़ से तात्पर्य उसकी वे बाहरी सीमाएँ हैं जहाँ तक उसकी लपटें पहुंचे और उसकी गर्मी (ताप) का प्रभाव हो। आयत में फरमाया गया है कि “उसके सुरादिक़ ने उनको घेरे में ले लिया है। कुछ लोगों ने उसको भविष्य के अर्थ में लिया है, अर्थात् वे इसका अर्थ यह समझते हैं कि आख़िरत-जगत में जहन्नम के सरापरदे उनको घेर लेंगे, लेकिन हम इसका अर्थ यह समझते हैं कि सत्य से मुंह मोड़नेवाले ज़ालिम यहीं से जहन्नम को लपेट में आ चुके हैं और इससे बचकर भाग निकलना उनके लिए सम्भव नहीं है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ إِنَّا لَا نُضِيعُ أَجۡرَ مَنۡ أَحۡسَنَ عَمَلًا ۝ 29
(30) रहे वे लोग जो मान लें और भले काम करें तो निश्चित रूप से हम सत्कर्मियों का बदला बर्बाद नहीं किया करते।
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ جَنَّٰتُ عَدۡنٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُ يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَيَلۡبَسُونَ ثِيَابًا خُضۡرٗا مِّن سُندُسٖ وَإِسۡتَبۡرَقٖ مُّتَّكِـِٔينَ فِيهَا عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِۚ نِعۡمَ ٱلثَّوَابُ وَحَسُنَتۡ مُرۡتَفَقٗا ۝ 30
(31) उनके लिए सदा बहार जन्नतें हैं जिनके नीचे नहरे बह रही होगी, वहाँ वे सोने के कंगनों से सुसज्जित किए जाएँगे।34 बारीक रेशम और अतलस व दीवा के हरे कपड़े पहनेंगे, और ऊँची मस्नदों 35 पर तकिए लगाकर बैठेंगे। बेहतरीन बदला और उम्दा श्रेणी का निवास-स्थान!
34. प्राचीन समय में बादशाह सोने के कंगन पहनते थे। जन्नतवालों के पहनावों में इसका उल्लेख करने से अभिप्राय यह बताना है कि वहाँ उनको शाही लिबास पहनाए जाएंगे। एक अवज्ञाकारी बादशाह वहाँ अपमानित व तिस्कृत होगा और एक मोमिन और व भला मजदूर वहाँ बादशाह की-सी शान व शौकत से रहेगा।
35. अरबी शब्द 'अराइक' बहुवचन है 'अरीका' का । अरीका अरबी भाषा में ऐसे तन्न को कहते हैं जिसपर छत्र लगा हुआ हो। इससे भी यही विचार पैदा करना अभिप्रेत है कि वहाँ हर जन्नती शाही तख्त पर बैठा होगा।
۞وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلٗا رَّجُلَيۡنِ جَعَلۡنَا لِأَحَدِهِمَا جَنَّتَيۡنِ مِنۡ أَعۡنَٰبٖ وَحَفَفۡنَٰهُمَا بِنَخۡلٖ وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُمَا زَرۡعٗا ۝ 31
(32) ऐ नबी ! इनके सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करो।36 दो व्यक्ति थे। उनमें से एक को हमने अंगूर के दो बाग़ दिए और उनके चारों ओर खजूर के पेड़ों की बाड़ लगाई और उनके बीच कृषि की भूमि रखी।
36. इस उदाहरण की सार्थकता समझने के लिए पिछले रुकूअ की वह आयत दृष्टि में रहनी चाहिए जिसमें मक्का के अहंकारी सरदारों को उस बात का उत्तर दिया गया है कि हम निर्धन मुसलमानों के साथ आकर नहीं बैठ सकते, उन्हें हटा दिया जाए तो हम आकर सुनेंगे कि तुम क्या कहना चाहते हो। इस जगह पर वह उदाहरण भी सामने रहे जो सूरा-68 (अल-कलम) आयत 17.33 में दिया गया है, साथ ही सूरा-19 (मरयम) आयत 73-74, सूरा-23 (मोमिनून) आयत 55-61, सूरा-34 (सबा), आयत 34-36 और सूरा-41 (हा० मीम० अस सज्दा) आयत 49.50 पर भी एक दृष्टि डाल ली जाए।
كِلۡتَا ٱلۡجَنَّتَيۡنِ ءَاتَتۡ أُكُلَهَا وَلَمۡ تَظۡلِم مِّنۡهُ شَيۡـٔٗاۚ وَفَجَّرۡنَا خِلَٰلَهُمَا نَهَرٗا ۝ 32
(33) दोनों बाग़ खूब फले-फूले और फलदार होने में उन्होंने कोई कमी न छोड़ी। उन बागों के भीतर हमने एक नहर प्रवाहित कर दी
وَكَانَ لَهُۥ ثَمَرٞ فَقَالَ لِصَٰحِبِهِۦ وَهُوَ يُحَاوِرُهُۥٓ أَنَا۠ أَكۡثَرُ مِنكَ مَالٗا وَأَعَزُّ نَفَرٗا ۝ 33
(34) और उसे खूब लाभ प्राप्त हुआ। यह कुछ पाकर एक दिन वह अपने वह पड़ोसी से बात करते हुए बोला, “मैं तुझसे अधिक धनवान हूँ और तुझसे अधिक व्यक्तियों की शक्ति मुझे प्राप्त है।"
وَدَخَلَ جَنَّتَهُۥ وَهُوَ ظَالِمٞ لِّنَفۡسِهِۦ قَالَ مَآ أَظُنُّ أَن تَبِيدَ هَٰذِهِۦٓ أَبَدٗا ۝ 34
(35) फिर उसने अपने बाग में प्रवेश किया37 और स्वयं अपने हक में जालिम बनकर कहने लगा, "मैं नहीं समझता कि यह धन कभी नष्ट हो जाएगा,
37. अर्थात् जिन बागों को वह अपनी जन्नत समझ रहा था। तुच्छ स्वभाव के लोग जिन्हें दुनिया में कुछ सुख-वैभव प्राप्त हो जाता है, सदैव इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि उने दुनिया ही में जन्नत मिल चुकी है, अब और कौन-सी जन्नत है जिसे प्राप्त करने की ये चिन्ता करें।
وَمَآ أَظُنُّ ٱلسَّاعَةَ قَآئِمَةٗ وَلَئِن رُّدِدتُّ إِلَىٰ رَبِّي لَأَجِدَنَّ خَيۡرٗا مِّنۡهَا مُنقَلَبٗا ۝ 35
, (36) और मुझे आशा नहीं कि क्रियामत की घड़ी कभी आएगी, फिर भी अगर कभी मुझे अपने रब के पास पलटाया भी गया तो अवश्य ही इससे भी अधिक शानदार जगह पाऊँगा।"38
38. अर्थात् अगर मान लीजिए कोई दूसरी जिंदगी है, भी तो मैं वहाँ इससे भी अधिक सम्पन्न रहूँगा, क्योंकि यहाँ मेरा सम्पन्न होना इस बात का प्रमाण है कि मैं अल्लाह का चहेता और उसका प्रिय हूँ।
قَالَ لَهُۥ صَاحِبُهُۥ وَهُوَ يُحَاوِرُهُۥٓ أَكَفَرۡتَ بِٱلَّذِي خَلَقَكَ مِن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ سَوَّىٰكَ رَجُلٗا ۝ 36
(37) उसके पड़ोसी ने बातें करते हुए उससे कहा, “क्या तू नाशुक्री करता है उस जात से जिसने तुझे मिट्टी से और फिर वीर्य से पैदा किया और तुझे एक पूरा आदमी बना खड़ा किया?39
39. यद्यपि उस आदमी ने अल्लाह की हस्ती से इंकार नहीं किया था बल्कि "फिर भी अगर कभी मुझे अपने रख के पास पलटाया भी गया" के शब्द बताते हैं कि वह अल्लाह के अस्तित्व को स्वीकार करता था। लेकिन इसके बाद भी उसके पड़ोसी ने उसे अल्लाह के इंकार का अपराधी बना दिया। इसका कारण यह है कि अल्लाह का इंकार केवल अल्लाह की हस्ती के इंकार ही का नाम नहीं है, बल्कि अहंकार, घमंड और आख़िरत का इंकार भी अल्लाह से कुफ़्र (इंकार) ही है। जिसने यह समझा कि बस मैं ही मैं हूँ, मेरा धन और मेरी शान व शौकत किसी को देन नहीं, बल्कि मेरी शक्ति और योग्यता का फल है, और मेरा धन समाप्त हानेवाला नहीं है, कोई इसको मुझसे छीननेवाला नहीं और किसी के सामने मुझे हिसाब देना नहीं वह अगर अल्लाह को मानता भी है तो मात्र एक अस्तित्व के रूप में मानता है, अपने स्वामी और आक़ा और शासक के रूप में नहीं मानता। हालाँकि अल्लाह पर ईमान इसी हैसियत से अल्लाह को मानना है,न कि मात्र एक मौजूद हस्ती के रूप में।
لَّٰكِنَّا۠ هُوَ ٱللَّهُ رَبِّي وَلَآ أُشۡرِكُ بِرَبِّيٓ أَحَدٗا ۝ 37
(38) रहा मैं, तो मेरा रब तो वही अल्लाह है और मैं उसके साथ किसी को शरीक नहीं करता ।
وَلَوۡلَآ إِذۡ دَخَلۡتَ جَنَّتَكَ قُلۡتَ مَا شَآءَ ٱللَّهُ لَا قُوَّةَ إِلَّا بِٱللَّهِۚ إِن تَرَنِ أَنَا۠ أَقَلَّ مِنكَ مَالٗا وَوَلَدٗا ۝ 38
(39) और जब तू अपने बाग़ में प्रवेश कर रहा था तो उस समय तेरे मुख से यह क्यों न निकला कि माशा-अल्लाह ला कुव्व-त इल्ला बिल्लाह (जो अल्लाह चाहे, अल्लाह के सिवा कोई शक्ति नहीं) 40? अगर तू मुझे धन और सन्तान में अपने से कमतर पा रहा है
40. "अर्थात् जो कुछ अल्लाह चाहेगा वही होगा। मेरा और किसी का कुछ ज़ोर नहीं है। हमारा अगर कुछ बस चल सकता है तो अल्लाह ही के दिए हुए सौभाग्य और समर्थन से चल सकता है।"
فَعَسَىٰ رَبِّيٓ أَن يُؤۡتِيَنِ خَيۡرٗا مِّن جَنَّتِكَ وَيُرۡسِلَ عَلَيۡهَا حُسۡبَانٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فَتُصۡبِحَ صَعِيدٗا زَلَقًا ۝ 39
(40) तो असंभव नहीं कि मेरा रब मुझे तेरे बाग़ से बेहतर प्रदान कर दे और तेरे बाग़ पर आसमान से कोई आफ़त भेज दे जिससे वह साफ़ मैदान बन कर रह जाए,
أَوۡ يُصۡبِحَ مَآؤُهَا غَوۡرٗا فَلَن تَسۡتَطِيعَ لَهُۥ طَلَبٗا ۝ 40
(41) या उसका पानी धरती में उतर जाए और फिर तू उसे किसी तरह न निकाल सके।”
وَأُحِيطَ بِثَمَرِهِۦ فَأَصۡبَحَ يُقَلِّبُ كَفَّيۡهِ عَلَىٰ مَآ أَنفَقَ فِيهَا وَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا وَيَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي لَمۡ أُشۡرِكۡ بِرَبِّيٓ أَحَدٗا ۝ 41
” (42) अन्त में यह हुआ कि उसका सारा फल मारा गया और वह अपने अंगूरों बाग़ को टट्टियों पर उल्टा पड़ा देखकर अपनी लगाई हुई लागत पर हाथ मलता रह गया और कहने लगा कि "काश, मैंने अपने रब के साथ किसी को शरीक न ठहराया होता"
وَلَمۡ تَكُن لَّهُۥ فِئَةٞ يَنصُرُونَهُۥ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَمَا كَانَ مُنتَصِرًا ۝ 42
(43) न हुआ अल्लाह को छोड़कर उसके पास कोई जत्था कि उसकी सहायता करता, और न कर सका वह आप ही इस आफ़त का मुक़ाबला
هُنَالِكَ ٱلۡوَلَٰيَةُ لِلَّهِ ٱلۡحَقِّۚ هُوَ خَيۡرٞ ثَوَابٗا وَخَيۡرٌ عُقۡبٗا ۝ 43
(44) उस समय मालूम हुआ कि काम बनाने का सारा अधिकार परम सत्य अल्लाह ही के लिए है। पुरस्कार की श्रेष्ठ है, जो मापदान करे और अंजाम वही अच्छा है जो वर दिखाए।
وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَآءٍ أَنزَلۡنَٰهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَٱخۡتَلَطَ بِهِۦ نَبَاتُ ٱلۡأَرۡضِ فَأَصۡبَحَ هَشِيمٗا تَذۡرُوهُ ٱلرِّيَٰحُۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ مُّقۡتَدِرًا ۝ 44
(45) और ऐ बची। इन्हें दुनिया की जिन्दगी की वास्तविकता इस उदाहरण से समझाओ कि आज हमने आसमान से पानी बरसा दिया तो धरती की पौध बरी हो गई और कल कही वनस्पति भुस बनकर रह गई जिसे नवाए उहाए लिए फिरती है। अल्लाह को हर चीज पर प्रभुत्‍व रखता है।41
41. अर्थात् वह जीवन भी देता है और मृत्यु भी। वह उन्नति भी देता है और पतन भी। उसके आदेश से बहार भी आती है तो पतझड़ भी आ जाती है। अगर आज तुम्हें सुख वैभव और सम्पलता मिली हुई है तो इस धोखे में न रहो कि यह स्थिति सदैव रहेगी। जिस अल्लाह के आदेश से यह कुछ तुम्हें मिला है, उसी के हुक्म से सब कुछ तुमसे छिन भी सकता है।
ٱلۡمَالُ وَٱلۡبَنُونَ زِينَةُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَٱلۡبَٰقِيَٰتُ ٱلصَّٰلِحَٰتُ خَيۡرٌ عِندَ رَبِّكَ ثَوَابٗا وَخَيۡرٌ أَمَلٗا ۝ 45
(46) यह धन और यह सन्तान केवल सांसारिक जीवन का एक छणिक दिखावा है। वास्तव में तो शेष रह जानेवाली नेकियाँ ही तेरे रब के नजदीक फल की दृष्टि से बनता है और उन्ही से अच्छी आशाएँ की जा सकती हैं।
وَيَوۡمَ نُسَيِّرُ ٱلۡجِبَالَ وَتَرَى ٱلۡأَرۡضَ بَارِزَةٗ وَحَشَرۡنَٰهُمۡ فَلَمۡ نُغَادِرۡ مِنۡهُمۡ أَحَدٗا ۝ 46
(47) चिन्ता उस दिन की होनी चाहिए जब कि हम पहाड़ों को चलाएँगे42, और तुम ज़मीन को बिल्कुल नंगा पाओगे,43 और हम तमाम इंसानों को इस तरह घेरकर जमा करेंगे कि (अगलों-पिछलों में से) एक भी न छूटेगा,44
42. अर्थात् जबकि ज़मीन को पकड़ ढीली पड़ जाएगी और पहाड़ इस तरह चलने शुरू होंगे जैसे बादल चलते हैं। इस स्थिति को एक दूसरे स्थान पर कुरआन में इस तरह बयान किया गया है-"तुम पहाड़ों को देखते हो और समझते हो कि ये सुदृढ़ जमे हुए हैं। सूरा-27 : 88 मगर वे चलेंगे इस तरह जैसे बादल चलते हैं।
43. अर्थात् उसपर कोई हरियाली और इमारत बाकी न रहेगी, बिल्कुल एक चटयल मैदान बन जाएगी। यह वही बात है जो इस सूरा के आरंभ में कही गई थी कि “जो कुछ इस ज़मीन पर है उसे हमने लोगों को परीक्षा के लिए क्षणिक-सज्जा सजावट की वस्तु बनाया है। एक समय आएगा जब यह बिल्कुल एक बिना पानी और हरियाली का मरुस्थल बनकर रह जाएगा।"
وَعُرِضُواْ عَلَىٰ رَبِّكَ صَفّٗا لَّقَدۡ جِئۡتُمُونَا كَمَا خَلَقۡنَٰكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةِۭۚ بَلۡ زَعَمۡتُمۡ أَلَّن نَّجۡعَلَ لَكُم مَّوۡعِدٗا ۝ 47
(48) और सब के सब तुम्हारे रब के सामने पंक्तियों में पेश किए जाएंगे - लो देख लो, आ गए ना तुम हमारे पास उसी तरह जैसा हमने तुमको पहली बार पैदा किया था।45 तुमने तो यह समझा था कि हमने तुम्हारे लिए कोई वादे का समय निर्धारित ही नहीं किया है
45. अर्थात् उस समय आख़िरत के इंकारियों से कहा जाएगा कि देखो, नबियों को दी हुई ख़बर सच्ची सिद्ध हुई ना। वे तुमें बताते थे कि जिस तरह अल्लाह ने तुम्हें पहली बार पैदा किया है, उसी तरह दोबारा पैदा करेगा, मगर तुम उसे मानने से इंकार करते थे। बताओ अब दोबारा तुम पैदा हो गए या नहीं।
وَوُضِعَ ٱلۡكِتَٰبُ فَتَرَى ٱلۡمُجۡرِمِينَ مُشۡفِقِينَ مِمَّا فِيهِ وَيَقُولُونَ يَٰوَيۡلَتَنَا مَالِ هَٰذَا ٱلۡكِتَٰبِ لَا يُغَادِرُ صَغِيرَةٗ وَلَا كَبِيرَةً إِلَّآ أَحۡصَىٰهَاۚ وَوَجَدُواْ مَا عَمِلُواْ حَاضِرٗاۗ وَلَا يَظۡلِمُ رَبُّكَ أَحَدٗا ۝ 48
(49) और आमालनामा सामने रख दिया जाएगा। उस वक़्त तुम देखोगे कि अपराधी लोग अपनी जिंदगी की किताब में अंकित बातों से डर रहे होंगे और वे कह रहें होंगे कि “हाय हमारा दुर्भाग्य ! यह कैसी किताब है कि हमारी कोई छोटी-बड़ी हरकत ऐसी नहीं रही जो इसमें लिख न दी गई हो।" जो-जो कुछ उन्होंने किया था वह सब अपने सामने मौजूद पाएँगे, और तेरा रब किस पर तनिक भी जुल्म न करेगा।46
46. अर्थात् ऐसा कदापि ने होगा कि किसी ने कोई अपराध न किया हो और वह ख़ामख़ाह उसके आमालनामे में लिख दिया जाए और न यही होगा कि आदमी को उसके अपराध से बढ़कर सज़ा दी जाए या बेगुनाह को पकड़कर सज़ा दे डाली जाए।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ كَانَ مِنَ ٱلۡجِنِّ فَفَسَقَ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِۦٓۗ أَفَتَتَّخِذُونَهُۥ وَذُرِّيَّتَهُۥٓ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِي وَهُمۡ لَكُمۡ عَدُوُّۢۚ بِئۡسَ لِلظَّٰلِمِينَ بَدَلٗا ۝ 49
(50) याद करो, जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सज्दा करो तो उन्होंने सज्दा किया, मगर इब्लीस ने न किया47, वह जिन्नों में से था इसलिए अपने रब के आदेश के पालन से निकल गया।48 अब क्या तुम मुझे छोड़कर उसके और उसकी (संतान) को अपना संरक्षक बनाते हो, हालाँकि वे तुम्हारे शत्रु हैं ? बड़ा ही बुरा बदला है जिसे ज़ालिम लोग अपना रहे हैं।
47. इस वर्णन-क्रम में आदम और इब्लीस के किस्से की ओर संकेत करने से अभिप्रेत गुमराह इंसानों को उनकी इस मूर्खता पर सचेत करना है कि वे अपने दयालु व कृपालु पालनहार और हितैषी पैग़म्बरों को छोड़कर अपने उस सदा के शत्रु के फंदे में फंस रहे हैं जो पहले दिन आदिकाल से उनके विरुद्ध द्वेष-भाव (हसद) रखता है।
48. अर्थात् इब्लीस फ़रिश्तों में से न था, बल्कि जिन्नों में से था, इसी लिए आज्ञापालन से बाहर हो जाना उसके लिए सम्भव हुआ। फ़रिश्तों के बारे में कुरआन स्पष्ट करता है कि वे स्वाभाविक रूप से आज्ञापालक हैं- "अल्लाह जो आदेश भी उनको दे वे उसकी अवज्ञा नहीं करते और वही करते हैं जो उनको आदेश दिया जाता है।" (66 :6)“वे सरकशी नहीं करते, अपने रब से जो उनके ऊपर है,डरते हैं और वही करते हैं जिसका उन्हें आदेश दिया जाता है।" (27 : 50) इसके विपरीत जिन्न इंसानों की तरह एक अधिकार रखनेवाला प्राणी है जिसे जन्मजात आज्ञापालक नहीं बनाया गया है, बल्कि कुफ़्र और ईमान और आज्ञापालन और अवज्ञा, दोनों की क्षमता प्रदान की गई है। इस वास्तविकता को यहाँ खोला गया है कि इब्लीस जिन्नों में से था, इसलिए उसने स्वयं अपने अधिकार से अवज्ञा का रास्ता अपनाया। यह स्पष्टीकरण उन तमाम भ्रमों को दूर कर देता है जो सामान्य रूप से लोगों में पाए जाते हैं कि इब्लीस फ़रिश्तों में से था और फ़रिश्ता भी कोई साधारण नहीं बल्कि फ़रिश्तों का गुरु (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-15 (अल-हिज्र), आयत 27 और सूरा-72 (जिन्न), आयत 13-15) रहा यह प्रश्न कि जब इब्लीस फ़रिश्तों में से न था, तो फिर कुरआन की यह वर्णन-शैली कैसे सही हो सकती है कि हमने फ़रिश्तों को कहा कि "आदम सज्दा करो। तो उन सब ने सज्दा किया, मगर इब्लीस ने न किया।" इसका उत्तर यह है कि फ़रिश्तों को सज्दे का हुक्म देने का अर्थ यह था कि धरती के वे तमाम जीव भी आज्ञापालक बन जाएँ जो पृथ्वी पर फ़रिश्तों के प्रबन्ध में आबाद हैं। चुनांचे फ़रिश्तों के साथ ये सब जीष भी सज्दे में गिर पड़े, मगर इब्लीस ने इनका साथ देने से इंकार कर दिया । (शब्द इब्लीस के अर्थ के लिए देखिए सूरा-23 अल-मोमिनून, टिप्पणी 73)
۞مَّآ أَشۡهَدتُّهُمۡ خَلۡقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَا خَلۡقَ أَنفُسِهِمۡ وَمَا كُنتُ مُتَّخِذَ ٱلۡمُضِلِّينَ عَضُدٗا ۝ 50
(51) मैंने आसमान और ज़मीन पैदा करते समय उनको नहीं बुलाया था और न स्वयं उनकी अपनी पैदाइश में उन्हें शरीक किया था,49 मेरा यह काम नहीं है कि गुमराह करनेवालों को अपना मददगार बनाया करूँ।
49. अर्थ यह है कि ये शैतान आख़िर तुम्हारा आज्ञापालन और तुम्हारी दासता के अधिकारी कैसे बन गए? दासता का अधिकारी तो केवल पैदा करनेवाला ही हो सकता है और इन शैतानों का हाल यह है कि आसमान और ज़मीन की पैदाइश में शरीक होना तो दूर की बात, ये तो खुद पैदा किए हुए हैं।
وَيَوۡمَ يَقُولُ نَادُواْ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُمۡ فَدَعَوۡهُمۡ فَلَمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَهُمۡ وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُم مَّوۡبِقٗا ۝ 51
(52) फिर क्या करेंगे ये लोग उस दिन जबकि उनका रख उनसे कहेगा कि पुकारो अब उन हस्तियों को जिन्हें तुम मेरा शरीक समझ बैठे थे।50 ये उनको पुकारेंगे, मगर वे उनकी सहायता को न आएँगे और हम उनके बीच एक ही विनाश का सामूहिक गढ़ा तैयार कर देंगे।51
50. यहाँ फिर उसी नियम का वर्णन हुआ है जिसका इससे पहले भी कई स्थान पर कुरआन में वर्णन किया जा चुका है कि अल्लाह के आदेशों और उसके मार्गदर्शनों को छोड़कर किसी दूसरे के आदेशों और मार्गदर्शन को स्वीकार करना वास्तव में उसको खुदाई में अल्लाह का शरीक ठहराना है चाहे आदमी उस दूसरे को ज़बान से अल्लाह का शरीक करार देता हो या न करार देता हो, बल्कि अगर आदमी उन दूसरी हस्तियों को धिक्कारते हुए भी अल्लाह के आदेश के मुकाबले में उनके आदेशों का पालन कर रहा हो, तब भी वह शिर्क का अपराधी है। चुनांचे यहाँ शैतानों के मामले में आप स्पष्ट रूप से देख रहे हैं कि दुनिया में हर एक उनको धिक्कारता है, मगर इस धिक्कार के बावजूद जो लोग इनका पालन करते हैं, कुरआन उन सबको यह इल्ज़ाम दे रहा है कि तुम शैतानों को अल्लाह का शरीक बनाए हुए हो। यह शिर्क आस्था पर आधारित नहीं, बल्कि व्यावहारिक है और कुरआन इसको भी शिर्क ही कहता है। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-4 (अन-निसा), टिप्पणी 91, 145, सूरा-6 (अनआम) टिप्पणी 87, 107, सूरा-11 (अत-तौबा), टिप्पणी 31, सूरा-14 (इब्राहीम), टिप्पणी 32, सूरा-19 (मरयम), टिप्पणी 27, सूरा-23 (अल-मोमिनून), टिप्पणी 41, सूरा-25 (अल-फुरकान), टिप्पणी 56, सूरा-28 (अल-कसस) टिप्पणी 86, सूरा-34 (सबा) टिप्पणी 59-63, सूरा-36 (यासीन), टिप्पणी 53, सूरा-41 (अश शूरा), टिप्पणी 38, सूरा-45 (अल-जासिया) टिप्पणी 30)
51. टीकाकारों ने इस आयत के दो अर्थ बयान किए हैं। एक वह जो ऊपर हमने अनुवाद में लिया है और दूसरा अर्थ यह है कि "हम इनके बीच दुश्मनी डाल देंगे” अर्थात् दुनिया में इनके बीच जो मैत्री थी, आख़िरत में वह सज्ज शत्रुता में परिवर्तित हो जाएगी।
وَرَءَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ٱلنَّارَ فَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مُّوَاقِعُوهَا وَلَمۡ يَجِدُواْ عَنۡهَا مَصۡرِفٗا ۝ 52
(53) सारे अपराधी उस दिन आग देखेंगे और समझ लेंगे कि अब उन्हें उसी में गिरना है और वे उससे बचने के लिए कोई पनाहगाह न पाएँगे।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لِلنَّاسِ مِن كُلِّ مَثَلٖۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَكۡثَرَ شَيۡءٖ جَدَلٗا ۝ 53
(54) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया, मगर इंसान बड़ा ही झगड़ालू सिद्ध हुआ है।
وَمَا مَنَعَ ٱلنَّاسَ أَن يُؤۡمِنُوٓاْ إِذۡ جَآءَهُمُ ٱلۡهُدَىٰ وَيَسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّهُمۡ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمۡ سُنَّةُ ٱلۡأَوَّلِينَ أَوۡ يَأۡتِيَهُمُ ٱلۡعَذَابُ قُبُلٗا ۝ 54
(55) उसके सामने जब मार्गदर्शन आया तो उसे मानने और अपने रब के हुजूर क्षमा चाहने से आख़िर उनको किस चीज़ ने रोक दिया? इसके सिवा और कुछ नहीं कि वे प्रतीक्षा में हैं कि उनके साथ भी वही कुछ हो जो पिछली क़ौमों के साथ हो चुका है, या यह कि वे अज़ाब को सामने आते देख लें।52
52. अर्थात् जहाँ तक तर्क और प्रमाण का सम्बन्ध है, कुरआन ने सत्य को स्पष्ट करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। मन और मस्तिष्क को अपील करने के जितने प्रभावी तरीके अपनाने सम्भव थे, वे सब उत्तम ढंग से यहाँ अपनाए गए हैं। अब वह क्या चीज़ है जो इन्हें सत्य स्वीकारने में रुकावट बन रही है? सिर्फ़ यह कि इनें अज़ाब की प्रतीक्षा है । जूते खाए बिना सीधे नहीं होना चाहते ।
وَمَا نُرۡسِلُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّا مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَۚ وَيُجَٰدِلُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِٱلۡبَٰطِلِ لِيُدۡحِضُواْ بِهِ ٱلۡحَقَّۖ وَٱتَّخَذُوٓاْ ءَايَٰتِي وَمَآ أُنذِرُواْ هُزُوٗا ۝ 55
(56) रसूलों को हम इस कार्य के सिवा और किसी उद्देश्य के लिए नहीं भेजते कि वे शुभ-सूचना और चेतावनी का कार्य पूरा करें।53 पर इन्कारियों का यह हाल है कि वे असत्य के हथियार लेकर सत्य को नीचा दिखाने का यल करते हैं और इन्होंने मेरी आयतों को और उन चेतावनियों को जो इन्हें की गई उपहास बना लिया है।
53. इस आयत के भी दो अर्थ हो सकते हैं और दोनों ही यहाँ फिट होते हैं। एक यह कि रसूलों को हम इसो लिए भेजते हैं कि निर्णय का समय आने से पहले लोगों को आज्ञापालन के अच्छे और अवज्ञा के बुरे अंजाम से सचेत कर दें, मगर ये मूर्ख इस अग्रिम चेतावनियों से कोई लाभ नहीं उठाते और उसी बुरे अंजाम को देखने पर आग्रह कर रहे हैं जिससे रसूल उन्हें बचाना चाहते हैं ।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن ذُكِّرَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦ فَأَعۡرَضَ عَنۡهَا وَنَسِيَ مَا قَدَّمَتۡ يَدَاهُۚ إِنَّا جَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۖ وَإِن تَدۡعُهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ فَلَن يَهۡتَدُوٓاْ إِذًا أَبَدٗا ۝ 56
(57) और उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम और कौन है जिसे उसके रब की आयतें सुनाकर उपदेश दिया जाए और वह उनसे मुँह फेरे और उस बुरे अंजाम को भूल जाए जिसका सरो सामान उसने अपने लिए स्वयं अपने हाथों किया है ? (जिन लोगों ने यह रवैया अपनाया है) उनके दिलो पर हमने ग़िलाफ़ चढ़ा दिए हैं जो उन्हें क़ुरआन की बात नहीं समझने देते, और उनके कानों में हमने बोझ पैदा कर दिया है। तुम उन्हें सन्मार्ग की ओर कितना ही बुलाओ, वे इस स्थिति में कभी सन्मार्ग न पाएँगे।54
54. अर्थात् जब कोई व्यक्ति या गिरोह तर्क और प्रमाण और हितौषितापूर्ण उपदेश के मुक़ाबले में झगड़ालूपन पर उतर आता है और सत्य का मुक़ाबला झूठ और चालबाज़ी और धोखा-धड़ी के हथियारों से करने लगता है और अपने करतूतों का बुरा अंजाम देखने से पहले किसी समझाने से अपनी ग़लती मानने पर तैयार नहीं होता, तो अल्लाह फिर उसके दिल पर ताला चढ़ा देता है और उसके कान सत्य की हर आवाज़ के लिए बहरे कर देता है। ऐसे लोगै उद्देश्यों से नहीं माना करते, बल्कि विनाश के गढ़े में गिरकर ही उन्हें विश्वास होता है कि वह विनाश था जिसकी राह पर वे बढ़े चले जा रहे थे।
وَرَبُّكَ ٱلۡغَفُورُ ذُو ٱلرَّحۡمَةِۖ لَوۡ يُؤَاخِذُهُم بِمَا كَسَبُواْ لَعَجَّلَ لَهُمُ ٱلۡعَذَابَۚ بَل لَّهُم مَّوۡعِدٞ لَّن يَجِدُواْ مِن دُونِهِۦ مَوۡئِلٗا ۝ 57
(58) तेरा रब बड़ा क्षमा करनेवाला और दया करनेवाला है। वह उनके करतूतों पर उन्हें पकड़ना चाहता तो जल्दी ही अज़ाब भेज देता। मगर उनके लिए वादे का एक समय निश्चित है और उससे बचकर भाग निकलने की ये कोई राह न पाएँगे।55
55. अर्थात् अल्लाह का यह तरीका नहीं है कि जिस समय किसी से ग़लती हो उसी समय पकड़कर सज़ा दे डाले। यह उसके दयावान होने का तकाज़ा है कि अपराधियों के पकड़ने में वह जल्दबाज़ी से काम नहीं लेता और मुद्दतों उनको संभलने का मौका देता रहता है, मगर बड़े नासमझ है वे लोग जो इस ढील को ग़लत अर्थ में लेते हैं और यह गुमान करते हैं कि वे चाहे कुछ भी करते रहें, उनसे कभी पूछ-ताछ होगी ही नहीं।
وَتِلۡكَ ٱلۡقُرَىٰٓ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡ لَمَّا ظَلَمُواْ وَجَعَلۡنَا لِمَهۡلِكِهِم مَّوۡعِدٗا ۝ 58
(59) ये अज़ाब को लपेट में आई हुई बस्तियाँ तुम्हारे सामने मौजूद है।56 इन्होंने जब ज़ुल्म किया तो हमने इन्हें विनष्ट कर दिया, और इनमें से हर एक के विनाश के लिए हमने समय निश्चित कर रखा था।
56. संकेत है सबा और समूद और मयन और लूत की कौम के उजड़े क्षेत्रों की ओर जिन्हें क़ुरैश के लोग अपनी व्यापारिक यात्राओं में आते-जाते देखा करते थे और जिनको अरब के दूसरे लोग भी अच्छी तरह जानते थे।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِفَتَىٰهُ لَآ أَبۡرَحُ حَتَّىٰٓ أَبۡلُغَ مَجۡمَعَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ أَوۡ أَمۡضِيَ حُقُبٗا ۝ 59
(60) (तनिक इनको वह किस्सा सुनाओ जो मूसा को पेश आया था, जबकि मूसा ने अपने सेवक से कहा था कि “मैं अपनी यात्रा समाप्त करूंगा जब तक कि दोनों नदियों के संगम पर न पहुँच जाऊँ, वरना मैं एक लम्बे समय तक चलता ही रहूँगा।"57
57. यहाँ यह किस्सा सुनाने से अभिप्रेत विधर्मियों और ईमानवालों दोनों को एक अहम सच्चाई पर सचेत करना है और वह यह है कि प्रत्यक्ष को देखनेवाली निगाह दुनिया में प्रत्यक्ष में जो कुछ होते देखती है उससे बिल्कुल ग़लत नतीजे निकाल लेती है, क्योंकि उसके सामने अल्लाह की वे मस्लहतें नहीं होतों जिन्हें ध्यान में रखकर वह काम करती है। ज़ालिमों का फलना-फूलना और निरपराधों का कष्टों में पड़ा होना अवज्ञाकारियों पर इनाम की वर्षा और आज्ञापालकों पर विपदाओं का हमला, दुष्कर्मियों का ऐश्वर्य और सत्कर्मियों की बदहाली में वे दृश्य हैं जो आए दिन इंसानों के सामने आते रहते हैं और केवल इसलिए कि लोग उनकी बारीकी को नहीं समझते, उनसे आम तौर पर मन में उलझनें, बल्कि भ्रम तक पैदा हो जाते हैं। इंकारी और ज़ालिम इससे यह अर्थ निकालते हैं कि यह दुनिया अंधेर नगरी है, कोई इसका राजा नहीं और है तो चौपट है। यहाँ जिसका जो भी चाहे करता रहे कोई पूछनेवाला नहीं। इस तरह की घटनाओं को देखकर ईमानवाले के दिल टूट जाते हैं और कभी-कभी कड़ी से कड़ी आज़माइशों के मौक़ों पर उनके ईमान तक डगमगा जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में अल्लाह ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को अपने इच्छानुकूल कारख़ाने का परदा उठाकर तनिक उसकी एक झलक दिखाई थी, ताकि उन्हें मालूम हो जाए कि यहाँ रात व दिन जो कुछ हो रहा है कैसे और किन कारणों से हो रहा है और किस तरह की घटनाओं का ज़ाहिर उनके अन्दर से भिन्न होता है। हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ यह घटना कब और कहाँ घटी? इसका कोई स्पष्टीकरण कुरआन ने नहीं दिया है। हदीस में औफ़ी की एक रिवायत हमें ज़रूर मिलती है जिसमें वह इब्ने अब्बास (रज़ि०) का यह कथन नक़ल करते हैं कि यह घटना उस समय घटित हुई थी जब फ़िरऔन की तबाही के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) ने मिस्र में अपनी कौम को आवाद किया था। लेकिन इने अब्बास (रज़ि०) से जो ज्यादा मजबूत रिवायतें बुखारी और हदीस की दूसरी किताबों में नकल की गई हैं, वे इस बयान का समर्थन नहीं करतीं, और न किसी दूसरे ज़रिये ही से यह सिद्ध होता है कि फ़िरऔन के विनाश के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) कभी मिस में रहे थे। बल्कि कुरआन इसे सष्ट करता है कि मिस्र से निकलने के बाद उनका सारा समय सीना और तीह में बीता। इसलिए यह रिवायत स्वीकार करने योग्य नहीं है। अलबत्ता जब हम स्वयं इस किस्से के विवरण पर विचार करते हैं तो दो बातें स्पष्ट रूप से समझ में आती हैं। एक यह कि आँखों देखे ये तजुर्वे हज़रत मूसा (अलैहि०) को उनकी नुबूवत के आरंभिक युग में कराए गए होंगे, क्योंकि नुबूवत के आरंभ में नबियों को इस तरह की शिक्षा-दीक्षा की ज़रूरत हुआ करती है। दूसरे यह कि हज़रत मूसा (अलैहि०) को इन आँखों देखे तजुर्वे की ज़रूरत उस समय महसूस हुई होगी जबकि बनी ईसराईल को भी उसी तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा होगा जिनका सामना मक्का मुअज़्ज़मा के मुसलमान कर रहे थे। इन दो कारणों से हमारा अनुमान यह है (सही जानकारी अल्लाह ही को है) कि इस घटना का संबंध उस दौर से है जबकि मिस्र में बनी इसराईल पर फ़िरऔन के जुल्मों का सिलसिला जारी था और क़ुरैश के सरदारों की तरह फ़िरऔन और उसके दरबारी भी अज़ाब में देर होते देखकर यह समझ रहे थे कि ऊपर कोई नहीं है जो उससे पूछ-गछ करनेवाला हो और मक्का के पीड़ित मुसलमानों की तरह मिस के पीड़ित मुसलमान भी बेचैन हो-होकर पूछ रहे थे कि ऐ खुदा ! इन ज़ालिमों पर पुरस्कारों की और हमपर विपदाओं की यह वर्षा कब तक? यहाँ तक कि स्वयं हज़रत मूसा (अलैहि.) यह पुकार उठे थे कि “ऐ पालनहार । तूने फ़िरऔन और उसके दरबारियों को दुनिया की जिंदगी में बड़ी शानो-शौकत और धन-दौलत दे रखी है, ऐ पालनहार । क्या यह इसलिए है कि वे दुनिया को तेरे रास्ते से भटका दें।" अगर हमारा यह अनुमान सही हो तो फिर यह विचार किया जा सकता है कि शायद हज़रत मूसा (अलैहि०) की यह यात्रा सूडान की ओर थी और मजमउल बहरैन से तात्पर्य वह स्थान है जहाँ वर्तमान नगर ख़ुर्तृम के क़रीब नील नदी की दो बड़ी शाखाएँ बहरुल अब यज़ और बहरुल अज़रक़ आकर मिलती हैं। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अपना पूरा जीवन जिन क्षेत्रों में बिताया है उनमें इस एक स्थान के अलावा और कोई मजमउल बहरैन (दो नदियों का संगम) नहीं पाया जाता। बाइबल इस घटना के बारे में बिल्कुल चुप है, अलबत्ता तलमूद में इसका उल्लेख है, मगर वे उसे हज़रत मूसा के बजाय रिब्बी यह हानान बिन लाबी से जोड़ देती है और उसका बयान यह है कि उक्त रिब्बी यह घटना हज़रत इलयास के साथ पेश आई थी जो दुनिया से ज़िंदा उठाए जाने के बाद फ़रिश्तों में शामिल कर लिए गए हैं और दुनिया के प्रबंध पर लगा दिए गए हैं (The Talmud Selection by H. Polano, pp 313-16) । संभव है कि निर्गमन से पहले की बहुत-सी घटनाओं की तरह यह घटना बनी इसराईल के यहां अपने मूल रूप में सुरक्षित न रही हो और सदियों के बाद उन्होंने किस्से की कड़ियाँ कहीं से कहीं ले जाकर जोड़ दी हों । तलमूद की इसी रिवायत से प्रभावित होकर मुसलमानों में से कुछ लोगों ने यह कह दिया कि कुरआन में इस जगह पर मूसा (अलैहि०) से तात्पर्य हज़रत मूसा (अलैहि०) नहीं बल्कि कोई और मूसा हैं, लेकिन न तो तलमूद की हर रिवायत अनिवार्य रूप से सही इतिहास कहा जा सकता है, न हमारे लिए यह विचार करने का कोई उचित कारण है कि कुरआन में किसी और मन्द बुद्धि मूसा का उल्लेख इस तरीक़े से किया गया होगा और फिर जबकि विश्वसनीय हदीसों में हज़रत उबई बिन काब की यह रिवायत मौजूद है कि स्वयं नबी (सल्ल०) ने इस क़िस्से की व्याख्या करते हुए मूसा से तात्पर्य हज़रत मूसा पैग़म्बर बनी इसराईल को बताया है, तो किसी मुसलमान के लिए तलमूद का बयान ध्यान देने योग्य नहीं रहता। प्राच्यविदों ने अपने नियमों के अनुसार कुरआन मजीद के इस किस्से के भी स्रोतों की खोज लगाने का यत्न किया है और तीन किस्सों पर उँगली रख दी कि ये हैं वे जगहें जहाँ से मुहम्मद (सल्ल०) ने नक़ल करके यह किस्सा बना लिया और फिर दावा कर दिया कि यह तो मेरे ऊपर वह्य के जरिये उतरा है। एक दास्ताने गलगा मेश, दूसरे सिकन्दर नामा सुरयानी और तीसरे यह यहूदी रिवायत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है। लेकिन ये बद-नीयत लोग ज्ञान के नाम पर जो खोज करते हैं, उसमें पहले अपनी जगह यह तय कर लेते हैं कि कुरान को बहरहाल अल्लाह का उतारा हुआ तो नहीं मानना है, अब कहीं न कहीं से इस बात का प्रमाण जुटाना जरूरी है कि जो कुछ मुहम्मद (सल्ल०) ने उसमें पेश किया है, ये अमुक अमुक स्थान से चुराए, हुए, विषय और जानकारियाँ हैं । खोज की इस पद्धति में ये लोग इतनी ढिठाई के साथ खींच-तान कर जमीन-आसमान के छोरों को मिलाते हैं कि सहज रूप से थिन आने लगती है और आदमी को विवश होकर कहना पड़ता है कि अगर इसी का नाम वैज्ञानिक खोज है तो धिक्कार है उस ज्ञान पर और उस खोज पर, इनके इस पक्षपातपूर्ण झूठ गढ़ने पर परदा बिल्कुल चाक हो जाए अगर कोई छात्र उनसे सिर्प, चार बातों का उत्तर मांग ले- एक यह कि आपके पास वह क्या प्रमाण है जिसके आधार पर आप दो-चार पुरानी किताबों में क़ुरआन के किसी बयान से मिलता-जुलता विषय पाकर यह दावा कर देते है कि क़ुरआन का बयान अनिवार्य रूप से उन्हीं किताबों से लिया गया है। दूसरे यह कि विभिन्न भाषाओं की जितनी पुस्तकों को आप लोगों ने कुरआन मजीद के किस्सों और दूसरे बयानों का स्रोत बताया है आर उनकी सूची बनाई आए, तो अच्छी-भली एक लाइब्रेरी की सूची बन जाए। क्या ऐसी कोई लाइब्रेरी मक्का में उस समय मौजूद थी और अलग-अलग भाषाओं के अनुवादक बैठे हुए मुहम्मद (सल्ल०) के लिए सामग्री जुटा रहे थे? अगर ऐसा नहीं है और आपका सारा आश्रय उन दो-तीन यात्राओं पर है जो नबी (सल्ल०) ने नुबूवत से कई साल पहले अरब से बाहर किए थे, तो प्रश्न यह है कि आख़िर इन व्यापारिक यात्राओं में प्यारे नबी (सल्ल०) कितनी लाइब्रेरी नकल या याद कर लाए थे? और नुबूवत के एलान के एक दिन पहले तक भी प्यारे नबी (सल्ल०) की ऐसी जानकारियों का कोई निशान आपकी बात-चीत में न पाए जाने का क्या यथोचित कारण है। तीसरे यह कि मक्का के विधर्मी और यहूदी और ईसाई, सब आप ही लोगों की तरह इस खोज में थे कि मुहम्मद (सल्ल०) ये विषय कहाँ से लाते हैं। क्या आप बता सकते हैं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के समकालीन व्यक्तियों को इस चोरी का पता न चलने का क्या कारण है? उन्हें तो बार-बार ललकारा जा रहा था कि यह कुरआन अल्लाह की ओर से उतारा गया है, वह्य के सिवा इसका कोई स्रोत नहीं है। अगर तुम इसे इनसान की वाणी कहते हो तो सिद्ध करो कि इनसान ऐसी वाणी बोल सकता है। इस चुनौती ने प्यारे नबी (सल्ल०) के समकालीन शत्रुओं की कमर तोड़कर रख दी, मगर वे एक स्रोत का भी पना न बता सके जिससे क़ुरआन के उदघृत होने का कोई सूझ-बूझवाला व्यक्ति विश्वास तो दूर की बात, सन्देह कर सकता । प्रश्न यह है कि समकालीन व्यक्ति इसका पता लगाने में विफल क्यों हुए और हज़ार-बारह सौ वर्ष बाद आज विरोधियों को उसमें कैसे सफलता मिल रही है। अन्तिम और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस बात की संभावना तो बहरहाल है, ना कि क़ुरआन अल्लाह का उतारा हुआ और वह पिछले इतिहास की उन्हीं घटनाओं की सही सूचनाएँ दे रहा हो जो दूसरे लोगों तक सदियों के अन्तराल में मौखिक रिवायतों से बिगड़ती हुई पहुँची हों और कहानियों में जगह पा गई हो। इस संभावना को किस यथोचित प्रमाण के आधार पर बिल्कुल ही वार्ता से निकाल दिया गया और क्यों केवल इसी एक संभावना को वार्ता और खोज का आधार घोषित कर दिया गया कि क़ुरआन उन किरसों से ही लिया गया हो जो लोगों के पास मौखिक रिवायतों और किस्से कहानियों के रूप में मौजूद थे? क्या धार्मिक पक्षपात और अहं के सिवा इस प्रमुखता का कोई दूसरा कारण बयान किया जा सकता है? इन प्रश्नों पर जो आदमी भी विचार करेगा, वह इस नतीजे पर पहुंचे बिना न रह सकेगा कि प्राच्य विद्या-विशारदों ने 'ज्ञान' के नाम से जो कुछ प्रस्तुत किया है, वह वास्तव में किसी विचारशील छात्र के लिए ध्यान देने योग्य नहीं है।
فَلَمَّا بَلَغَا مَجۡمَعَ بَيۡنِهِمَا نَسِيَا حُوتَهُمَا فَٱتَّخَذَ سَبِيلَهُۥ فِي ٱلۡبَحۡرِ سَرَبٗا ۝ 60
(61) अत: जब चे उनके संगम पर पहुँचे तो अपनी मछली से ग़ाफ़िल हो गए और वह निकलकर इस तरह नदी में चली गई जैसा कि कोई सुरंग लगी हो ।
فَلَمَّا جَاوَزَا قَالَ لِفَتَىٰهُ ءَاتِنَا غَدَآءَنَا لَقَدۡ لَقِينَا مِن سَفَرِنَا هَٰذَا نَصَبٗا ۝ 61
(62) आगे जाकर मूसा ने अपने सेवक से कहा, "लाओ, हमारा नाश्ता, आज के यात्रा में तो हम बुरी तरह थक गए हैं।”
قَالَ أَرَءَيۡتَ إِذۡ أَوَيۡنَآ إِلَى ٱلصَّخۡرَةِ فَإِنِّي نَسِيتُ ٱلۡحُوتَ وَمَآ أَنسَىٰنِيهُ إِلَّا ٱلشَّيۡطَٰنُ أَنۡ أَذۡكُرَهُۥۚ وَٱتَّخَذَ سَبِيلَهُۥ فِي ٱلۡبَحۡرِ عَجَبٗا ۝ 62
(63) सेवक ने कहा, “आपने देखा ! यह क्या हुआ? जब हम उस चट्टान के पास ठहरे हुए थे उस समय मुझे मछली का ध्यान न रहा और शैतान ने मुझको ऐसा ग़ाफ़िल कर दिया कि मैं उसका उल्लेख (आपसे करना) भूल गया। मछली तो अजीब तरीके से निकलकर नदी में चली गई।"
قَالَ ذَٰلِكَ مَا كُنَّا نَبۡغِۚ فَٱرۡتَدَّا عَلَىٰٓ ءَاثَارِهِمَا قَصَصٗا ۝ 63
(64) मूसा ने कहा, “इसी की तो हमें खोज थी।‘’58 चुनांचे वे दोनों अपने पद-चिह्नों पर फिर वापस हुए
58. अर्थात् मंज़िले मक्सूद (अभिप्रेत गन्तव्य स्थल) का यही निशान तो हमें बताया गया था। इससे अपने आप यह संकेत निकलता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की यह यात्रा अल्लाह की आज्ञा से थी और उनके मंज़िले मक्सूद की निशानी यही बताई गई थी कि जहाँ उनके नाश्ते की मछली ग़ायब हो जाए, वही जगह उस बन्दे की मुलाक़ात की है जिससे मिलने के लिए वे भेजे गए थे।
فَوَجَدَا عَبۡدٗا مِّنۡ عِبَادِنَآ ءَاتَيۡنَٰهُ رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَا وَعَلَّمۡنَٰهُ مِن لَّدُنَّا عِلۡمٗا ۝ 64
(65) और वहाँ उन्होंने हमारे बन्दों में से एक बन्दे को पाया जिसे हमने अपनी रहमत से विभूषित किया था और अपनी ओर से एक विशेष ज्ञान प्रदान किया था।59
59. उस बन्दे का नाम विश्वासनीय हदीसों में ख्रिन बताया गया हैं। इसलिए उन लोगों के कथन कुछ ध्यान देने योग्य नहीं हैं जो इसराईली रिवायतों से प्रभावित होकर हज़रत इलयास से इस किस्से को जोड़ते हैं। उनका यह कथन न केवल इस कारण ग़लत है कि नबी (सल्ल०) के कथन से टकराता है, बल्कि इस कारण से भी बिल्कुल झूठ है कि हज़रत इलयास (अलैहि०) हज़रत मूसा (अलैहि०) के कई सौ साल बाद पैदा हुए है। हज़रत मूसा (अलैहि०) के सेवक का नाम भी क़ुरआन में नहीं बताया गया है। अलबत्ता कुछ रिवायतों में उल्लेख है कि वह हज़रत यूशअ बिन नून थे जो बाद में हज़रत मूसा (अलैहि०) के खलीफ़ा हुए।
قَالَ لَهُۥ مُوسَىٰ هَلۡ أَتَّبِعُكَ عَلَىٰٓ أَن تُعَلِّمَنِ مِمَّا عُلِّمۡتَ رُشۡدٗا ۝ 65
(66) मूसा ने उससे कहा, “क्या मैं आपके साथ रह सकता हूँ ताकि आप मुझे भी उस सूझ-बूझ की शिक्षा दें जो आपको सिखाई गई है?"
قَالَ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 66
(67) उसने उत्तर दिया, "आप मेरे साथ सब नहीं कर सकते?
وَكَيۡفَ تَصۡبِرُ عَلَىٰ مَا لَمۡ تُحِطۡ بِهِۦ خُبۡرٗا ۝ 67
(68) और जिस चीज़ की आपको खबर न हो आख़िर आप उसपर सब कर भी कैसे सकते हैं।"
قَالَ سَتَجِدُنِيٓ إِن شَآءَ ٱللَّهُ صَابِرٗا وَلَآ أَعۡصِي لَكَ أَمۡرٗا ۝ 68
(69) मूसा ने कहा, “इनशाअल्लाह ! (अगर अल्लाह ने चाहा) आप मुझे सब करनेवाला पाएँगे और मैं किसी मामले में आपकी अवज्ञा न करूँगा।"
قَالَ فَإِنِ ٱتَّبَعۡتَنِي فَلَا تَسۡـَٔلۡنِي عَن شَيۡءٍ حَتَّىٰٓ أُحۡدِثَ لَكَ مِنۡهُ ذِكۡرٗا ۝ 69
(70) उसने कहा “अच्छा अगर आप मेरे साथ चलते हैं तो मुझसे कोई बात न पूछे जब तक कि मैं स्वयं उसका आपसे उल्लेख न करूँ।"
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَا رَكِبَا فِي ٱلسَّفِينَةِ خَرَقَهَاۖ قَالَ أَخَرَقۡتَهَا لِتُغۡرِقَ أَهۡلَهَا لَقَدۡ جِئۡتَ شَيۡـًٔا إِمۡرٗا ۝ 70
(71) अब वे दोनों रवाना हुए, यहाँ तक कि वे एक नाव में सवार हो गए तो उस व्यक्ति ने नाव में शिगाफ़ (दरार) डाल दी। मूसा ने कहा, "आपने उसमें दरार पैदा कर दी, ताकि सब नाववालों को डुबो दें? यह तो आपने एक सख्त हरकत कर डाली।"
قَالَ أَلَمۡ أَقُلۡ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 71
(72) उसने कहा, “मैंने तुमसे कहा न था कि तुम मेरे साथ सब नहीं कर सकते?"
قَالَ لَا تُؤَاخِذۡنِي بِمَا نَسِيتُ وَلَا تُرۡهِقۡنِي مِنۡ أَمۡرِي عُسۡرٗا ۝ 72
(73) मूसा ने कहा, “भूल-चूक पर मुझे न पकड़िए। मेरे मामले में आप तनिक सख्ती से काम न लें।"
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَا لَقِيَا غُلَٰمٗا فَقَتَلَهُۥ قَالَ أَقَتَلۡتَ نَفۡسٗا زَكِيَّةَۢ بِغَيۡرِ نَفۡسٖ لَّقَدۡ جِئۡتَ شَيۡـٔٗا نُّكۡرٗا ۝ 73
(74) फिर वे दोनों चले, यहाँ तक कि उनको एक लड़का मिला और व्यक्ति ने उसे क़त्ल कर दिया। मूसा ने कहा, “आपने एक निरपराध की जान ले ली, हालांकि उसने किसी का ख़ून न किया था, यह काम तो आपने बहुत ही बुरा किया है।”
۞قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكَ إِنَّكَ لَن تَسۡتَطِيعَ مَعِيَ صَبۡرٗا ۝ 74
(75) उसने कहा, “मैंने तुमसे कहा न था तुम मेरे साथ सब नहीं कर सकते?"
قَالَ إِن سَأَلۡتُكَ عَن شَيۡءِۭ بَعۡدَهَا فَلَا تُصَٰحِبۡنِيۖ قَدۡ بَلَغۡتَ مِن لَّدُنِّي عُذۡرٗا ۝ 75
(76) मूसा ने कहा, “इसके बाद अगर मैं आपसे कुछ पूछूँ तो आप मुझे साथ न रखें। लीजिए अब तो मेरी ओर से आपको उन मिल गया।"
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَآ أَتَيَآ أَهۡلَ قَرۡيَةٍ ٱسۡتَطۡعَمَآ أَهۡلَهَا فَأَبَوۡاْ أَن يُضَيِّفُوهُمَا فَوَجَدَا فِيهَا جِدَارٗا يُرِيدُ أَن يَنقَضَّ فَأَقَامَهُۥۖ قَالَ لَوۡ شِئۡتَ لَتَّخَذۡتَ عَلَيۡهِ أَجۡرٗا ۝ 76
(77) फिर वे आगे चले, यहाँ तक कि एक बस्ती में पहुँचे और वहाँ के लोगों से खाना माँगा। मगर उन्होंने इन दोनों की मेहमान-नवाज़ी (आतिथ्य-सत्कार) से इंकार कर दिया। वहाँ उन्होने एक दीवार देखी जो गिरा चाहती थी। उस आदमी ने उस दीवार को फिर सीधी खड़ी कर दिया। मूसा ने कहा, "अगर आप चाहते तो इस काम की उजरत ले सकते थे।"
قَالَ هَٰذَا فِرَاقُ بَيۡنِي وَبَيۡنِكَۚ سَأُنَبِّئُكَ بِتَأۡوِيلِ مَا لَمۡ تَسۡتَطِع عَّلَيۡهِ صَبۡرًا ۝ 77
(78) उसने कहा, “बस मेरा तुम्हारा साथ समाप्त हुआ।” अब मैं तुम्हें इन बातों की वास्तविकता बताता हूँ जिनपर तुम सब न कर सके ।
أَمَّا ٱلسَّفِينَةُ فَكَانَتۡ لِمَسَٰكِينَ يَعۡمَلُونَ فِي ٱلۡبَحۡرِ فَأَرَدتُّ أَنۡ أَعِيبَهَا وَكَانَ وَرَآءَهُم مَّلِكٞ يَأۡخُذُ كُلَّ سَفِينَةٍ غَصۡبٗا ۝ 78
(79) उस नाव का मामला यह है कि वह कुछ ग़रीब आदमियों की थी जो नदी में मेहनत मजदूरी करते थे। मैंने चाहा कि उसे ऐबदार कर दूं क्योंकि आगे एक ऐसे बादशाह का क्षेत्र था जो हर नाव को ज़बरदस्ती छीन लेता था।
وَأَمَّا ٱلۡغُلَٰمُ فَكَانَ أَبَوَاهُ مُؤۡمِنَيۡنِ فَخَشِينَآ أَن يُرۡهِقَهُمَا طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗا ۝ 79
(80) रहा वह लड़का, तो उसके माँ-बाप ईमानवाले थे। हमें डर हुआ कि वह लड़का अपनी उदंडता और कुफ्र से उनको तंग करेगा।
فَأَرَدۡنَآ أَن يُبۡدِلَهُمَا رَبُّهُمَا خَيۡرٗا مِّنۡهُ زَكَوٰةٗ وَأَقۡرَبَ رُحۡمٗا ۝ 80
(81) इसलिए हमने चाहा कि उनका रब उसके बदले उनको ऐसी सन्तान दे जो अख़लाक में भी उससे बेहतर हो और जिससे रिश्ते-नाते जोड़ने की भी आशा अधिक हो।
وَأَمَّا ٱلۡجِدَارُ فَكَانَ لِغُلَٰمَيۡنِ يَتِيمَيۡنِ فِي ٱلۡمَدِينَةِ وَكَانَ تَحۡتَهُۥ كَنزٞ لَّهُمَا وَكَانَ أَبُوهُمَا صَٰلِحٗا فَأَرَادَ رَبُّكَ أَن يَبۡلُغَآ أَشُدَّهُمَا وَيَسۡتَخۡرِجَا كَنزَهُمَا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ وَمَا فَعَلۡتُهُۥ عَنۡ أَمۡرِيۚ ذَٰلِكَ تَأۡوِيلُ مَا لَمۡ تَسۡطِع عَّلَيۡهِ صَبۡرٗا ۝ 81
(82) और इस दीवार का मामला यह है कि यह दो यतीम लड़कों की है जो इस नगर में रहते हैं। इस दीवार के नीचे इन बच्चों के लिए एक खजाना दान है और उनका बाप एक नेक आदमी था। इसलिए तुम्हारे रख ने चाहा कि ये दोनों बच्चे बालिग़ हो और अपना ख़जाना निकाल लें। यह तुम्हारे रब की रहमत की बिना पर किया गया है, मैंने कुछ अपने इख्ति़यार से नहीं कर दिया है। यह है वास्तविकता उन बातों को जिनपर तुम सब न कर सके।‘’60
60. इस क़िस्से में एक बड़ी पेचीदगी है जिसे दूर करना बहुत ज़रूरी है। हज़रत खिन ने ये तीन काम जो किए हैं उनमें से तीसरा काम तो खैर शरीअत से नहीं टकराता, मगर पहले दोनों काम निश्चित रूप से उन आदेशों से टकराते हैं जो मानवता के आरंभिक काल से आजतक तमाम आसमानी शरीअतों में से साबित रहे हैं। कोई शरीअत भी किसी इंसान को यह अनुमति नहीं देती कि किसी की मिल्कियत को ख़राब कर दे और किसी जान को बे-कसूर क़त्ल कर डाले, यहाँ तक कि अगर किसी इंसान को इलहाम (ईश्वर की ओर से हृदय में आई हुई बात) के ज़रिये से यह मालूम हो जाए कि एक नाव को आगे जाकर एक छीननेवाला ज़ालिम छीन लेगा और अमुक लड़का बड़ा होकर उदंड और विधर्मी निकलेगा, तब भी उसके लिए अल्लाह को भेजी हुई शरीअतों में से किसी शरीअत के मुताबिक़ यह वैध नहीं है कि वह अपने इस इलहामी ज्ञान के आधार पर नाव में छेद कर दे और एक निरपराध लड़के को मार डाले। इसके उत्तर में यह कहना कि हज़रत खिन ने ये दोनों काम अल्लाह के आदेश से किए थे, सचमुच इस पेचीदगी को कुछ भी दूर नहीं करता। प्रश्न यह नहीं है कि हज़रत ख्रिन ने ये काम किसके आदेश से किए थे। इनका अल्लाह के आदेश से होना तो निश्चित रूप से सिद्ध है क्योंकि हज़रत खिन स्वयं फ़रमाते हैं कि उनके ये कार्य उनके इरिजयारी से नहीं हैं, बल्कि अल्लाह की रहमत उनके लिए प्रेरक हुई है और इसकी पुष्टि अल्लाह स्वयं कर चुका है कि हज़रत ख्रिन को अल्लाह की ओर से एक विशेष ज्ञान प्राप्त था। अतः यह बात तो हर सन्देह और भ्रम से परे है कि ये काम अल्लाह के आदेश से किए गए थे। मगर मूल प्रश्न जो यहाँ पैदा होता है वह यह है कि अल्लाह के ये आदेश किस प्रकार के थे? ज़ाहिर है कि ये शरअई हुक्म न थे क्योंकि इलाही शरीअतों के जो मौलिक नियम क़ुरआन और इससे पहले की आसमानी किताबों से प्रमाणित हैं, उनमें कभी किसी इंसान के लिए यह गुंजाइश नहीं रखी गई कि वह अपराध साबित हुए बिना इंसान को क़त्ल कर दे। इसलिए अनिवार्य रूप से यह मानना पड़ेगा कि ये आदेश अपने स्वरूप में अल्लाह के उन प्राकृतिक आदेशों से मिलते-जुलते हैं जिनके अन्तर्गत दुनिया में हर क्षण कोई बीमार डाला जाता है और कोई तन्दुरुस्त किया जाता है, किसी को मौत दी जाती है और किसी को जीवन दिया जाता है, किसी को नष्ट किया जाता है और किसी को नेमतें दी जाती हैं। अब अगर ये प्राकृतिक आदेश हैं तो इनके सम्बोधित केवल फ़रिश्ते ही हो सकते हैं जिनके बारे में शरई तौर पर वैध होने या अवैध होने का कोई प्रश्न ही नहीं पैदा होता क्योंकि वे निजी इख़तियार के बिना केवल अल्लाह के आदेशों का पालन करते हैं। रहा इंसान तो चाहे वह बेइरादा किसी प्राकृतिक आदेश को लागू करने का साधन बने और चाहे इलहामी तौर पर इस तरह का कोई परोक्ष ज्ञान और आदेश पाकर उसको व्यवहार में लाए, बहरहाल वह गुनाहगार होने से नहीं बच सकता, अगर वह काम जो उसने किया है किसी शरई आदेशों से टकराता हो। इसलिए कि इंसान इस हैसियत से कि वह इंसान है, शरई आदेशों के करने पर विवश है और शरीअत के नियमों में कहीं यह गुंजाइश नहीं पाई जाती कि किसी इंसान के लिए केवल इस कारण शरई आदेशों में से किसी आदेश का उल्लंघन वैध हो कि उसे इलहाम के ज़रिये इस उल्लंघन का आदेश मिला है, और परोक्ष ज्ञान के ज़रिये इस उल्लंघन की मस्लेहत बताया गई है। यह एक ऐसी बात है जिसपर न केवल शरीअत के तमाम उलमा सहमत हैं, बल्कि महान सूफ़ी भी एकमत होकर यह बात कहते हैं। चुनांचे अल्लामा आलूसी ने सविस्तार अब्दुल बहाब शरानी, मुहीउद्दीन इब्ने अरबी, मुजद्दिद अलिफ सानी, शेख अब्दुल कादिर जीलानी (रह०), जुनैद बग़दादी, सरिय्या सकती, अबुल हुसैन अन-नूरी, अबू सरीद खरोज़, अब्दुल अब्बास अहमद दनयौरी और इमाम ग़ज़ाली जैसे प्रख्यात बुजुर्गों के कथन नक़ल करके यह सिद्ध किया है कि सूफ़ियों के नज़दीक भी किसी ऐसे इलहाम पर अमल करना स्वयं इलहामवालों तक के लिए वैध नहीं है, जो शरई नस्स (क़ुरआन और हदीस के स्पष्ट आदेश) के खिलाफ़ हो । (रूहुल मआनी, भाग 16, पृ. 16-17) अब क्या हम यह मान लें कि इस नियम का केवल एक व्यक्ति अपवाद मान लिया गया है और वह हैं हज़रत ख़िज़? या यह समझें कि ख़िज़ कोई इंसान न थे, बल्कि अल्लाह के उन बन्दों में से थे जो अल्लाह की इच्छा के तहत (न कि शरीअते इलाही के तहत) काम करते हैं? पहली शक्ल को हम मान लेते अगर क़ुरआन खुले शब्दों में यह कह देता कि वह 'बन्दा' जिसके पास हज़रत मूसा इस प्रशिक्षण के लिए भेजे गए थे, इंसान था। लेकिन क़ुरआन उसका इंसान होना स्पष्ट नहीं करता, बल्कि केवल 'अब्दम मिन माम इबदिना' (हमारे बन्दों में से एक बन्दा) के शब्द बोलता है जो स्पष्ट है कि उस बन्दे का इंसान होने के लिए अनिवार्य नहीं है। क़ुरआन मजीद में बहुत सी जगहों पर फ़रिश्तों के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है, उदाहरण के रूप में देखिए सूरा-21 अंबिया, आयत 26, और सूरा-43, जुखरुफ़ आयत 19। फिर किसी सही हदीस में नबी (सल्ल०) से भी कोई ऐसा कथन नक़ल नहीं किया गया है जिसे साफ तौर पर हज़रत खिन को मानवजाति का एक व्यक्ति कहा गया हो। इस बारे में अत्यंत प्रामाणिक रिवायतें वे हैं जो सईद बिन ज़ुबैर, इब्ने अब्बास, उबई बिन काब (रजि०) से वर्णित की गई हैं और जो प्यारे रसूल (सल्ल०) से रिवायत की सनद से हदीस के इमामों को पहुंची हैं। इनमें हज़रत ख़िज़ के लिए सिर्फ़रजुल' का शब्द आया है, जो यद्यपि मर्द इंसानों के लिए प्रयुक्त होता है, मगर इंसानों के लिए मुख्य नहीं है। चुनांचे स्वयं क़ुरआन में यह शब्द जिन्नों के लिए प्रयुक्त हो चुका है जैसा कि सूरा-72 आयत 6 (और यह कि इसानों में से कुछ लोग जिन्नों में से कुछ लोगों की पनाह माँगा करते थे।) जिन में कहा गया है. साथ ही यह स्पष्ट है कि जिन्न या फ़रिश्ते या कोई अनदेखा अस्तित्त्व जब इंसानों के सामने आएगा तो इंसानी रूप ही में आएगा और इस हालत में उसको मनुष्य या इंसान ही कहा जाएगा। हज़रत मरयम के सामने जब फ़रिश्ता आया तो क़ुरआन इस घटना को यूँ बयान करता है कि 'फ-त-मस्स-ल लहा ब-श-रन सविय्या'। अत: नबी (सल्ल०) का यह कथन है कि "वहाँ उन्होंने एक मर्द को पाया", हज़रत ख़िज़्र के इंसान होने की खुली दलील नहीं बनती। इसके बाद हमारे लिए इस पेचदिगी को दूर करने की केवल यही एक शक्ल बाकी रह जाती है कि हम ' ख़िज़्र ' को इंसान न मानें बल्कि फरिश्तों में से या अल्लाह के किसी और ऐसे प्राणियों में से समझें जो शरीअतों के पाबन्द नहीं हैं बल्कि अल्लाह की मंशा को पूरा करनेवाले कार्यकर्ता हैं। पहलों में से कुछ विद्वानों ने भी यही राय प्रकट की है, जिसे इब्ने कसीर ने अपनी टीका में मावरदी के हवाले से नक़ल किया है।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَن ذِي ٱلۡقَرۡنَيۡنِۖ قُلۡ سَأَتۡلُواْ عَلَيۡكُم مِّنۡهُ ذِكۡرًا ۝ 82
(83) और ऐ नबी ! ये लोग तुमसे ज़ुलक़रनैन के बारे में पूछते हैं।61 इनसे कहो, मैं उसका कुछ हाल तुमको सुनाता हूँ।62
61. 'व यस् अलू-न-क अन ज़िलकरनैन' को 'और' शब्द सम्बन्ध कारक के रूप में पिछले किस्से से जोड़ रहा है। इससे अपने आप यह इशारा निकलता है कि मूसा और ख़िज़्र का किस्सा भी लोगों के प्रश्न ही के उत्तर में सुनाया गया है और यह बात हमारे इस अनुमान का समर्थन करती है कि इस सूरा के ये तीनों महत्वपूर्ण किस्से वास्तव में मक्का के विधर्मियों ने अहले किताब के मश्विरे से परीक्षा लेने के उद्देश्य से मालूम किए थे।
62. इस विषय में प्राचीन काल से अब तक मतभेद पाया जाता है रहा है कि 'ज़ुलक़रनैन' जिसका यहाँ उल्लेख । रहा है, कौन था। प्राचीन काल में सामान्य रूप से टीकाकारों का झुकाव सिकन्दर की ओर था, लेकिन क़ुरआन में इसके जो गुण और विशेषताएँ बयान की गई हैं वे मुश्किल ही से सिकन्दर पर फिट बैठती हैं। वर्तमान युग में ऐतिहासिक खोजों के आधार पर टीकाकारों का झुकाव अधिकतर ईरान के शासक खुरस (ख़ुसरो या साइरस) की ओर है, और यह अपेक्षतः अनुमान के अधिक निकट है। मगर बहरहाल अभी तक विश्वास के साथ किसी भी व्यक्तित्व के बारे में नहीं कहा जा सकता।
إِنَّا مَكَّنَّا لَهُۥ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَءَاتَيۡنَٰهُ مِن كُلِّ شَيۡءٖ سَبَبٗا ۝ 83
(84) हमने उसको धरती में सत्ता सीप रखी थी और उसे हर प्रकार के साधन दे रखे थे।
فَأَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 84
(85) उसने (पहले पश्चिम की ओर एक मुहिम की) तैयारी की,
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ مَغۡرِبَ ٱلشَّمۡسِ وَجَدَهَا تَغۡرُبُ فِي عَيۡنٍ حَمِئَةٖ وَوَجَدَ عِندَهَا قَوۡمٗاۖ قُلۡنَا يَٰذَا ٱلۡقَرۡنَيۡنِ إِمَّآ أَن تُعَذِّبَ وَإِمَّآ أَن تَتَّخِذَ فِيهِمۡ حُسۡنٗا ۝ 85
(86) यहाँ तक कि जब वह सूरज के डूबने की सीमा तक पहुँच गया तो 63 उसने सूरज को एक काले पानी में डूबते देखा 64 और वहाँ उसे एक क़ौम मिली। हमने कहा, “ऐ ज़ुलक़रनैन ! तुझे यह सामर्थ्य भी मिला हुआ है कि उनको पीडा पहुँचाएँ और यह भी कि उनके साथ सद्व्यवहार करे।"65
63. सूरज डूबने की सीमा से तात्पर्य, जैसा कि इब्ने कसीर ने लिखा है कि "वह भूभाग में चलता हुआ उसके सुदूर स्थान तक पहुँचा जो सूर्य के अस्त होने की दिशा (पश्चिम) की ओर था, न कि सूरज डूबने की जगह । तात्पर्य यह है कि वह पश्चिम की ओर देश पर देश जीतता हुआ भू-भाग के अन्तिम छोर तक पहुँच गया जिसके आगे समुद्र था।
64. अर्थात् वहाँ सूरज डूबने के समय ऐसा लगता था कि सूरज समुद्र के कालापन लिए हुए गदले पानी में डूब रहा है। अगर वास्तव में जुलक़रनैन से तात्पर्य खूरस ही है तो यह एशिया-ए कोचक का पश्चिमी तट होगा, जहाँ ऐजियन सागर छोटी-छोटी खाड़ियों का रूप धारण कर लेता है। इस अनुमान की पुष्टि यह बात भी करती है कि क़ुरआन यहाँ बह के बजाय ऐन' का शब्द प्रयोग करता है जो समुद्र के बजाय 'झील' या 'खाड़ी' ही,के लिए ज़्यादा सही रूप में बोला जा सकता है।
قَالَ أَمَّا مَن ظَلَمَ فَسَوۡفَ نُعَذِّبُهُۥ ثُمَّ يُرَدُّ إِلَىٰ رَبِّهِۦ فَيُعَذِّبُهُۥ عَذَابٗا نُّكۡرٗا ۝ 86
(87) उसने कहा, 'जो इनमें से ज़ुल्म करेगा हम उसको सज़ा देंगे, फिर वह अपने रब की ओर पलटाया जाएगा और वह उसे और अधिक कठोर अज़ाब देगा
وَأَمَّا مَنۡ ءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَهُۥ جَزَآءً ٱلۡحُسۡنَىٰۖ وَسَنَقُولُ لَهُۥ مِنۡ أَمۡرِنَا يُسۡرٗا ۝ 87
(88) और जो उनमें से ईमान लाएगा और भले कार्य करेगा, उसके लिए अच्छा बदला है और हम उसको नर्म आदेश देगे।"
ثُمَّ أَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 88
(89) फिर उसने (एक दूसरे मुहिम की) तैयारी की,
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ مَطۡلِعَ ٱلشَّمۡسِ وَجَدَهَا تَطۡلُعُ عَلَىٰ قَوۡمٖ لَّمۡ نَجۡعَل لَّهُم مِّن دُونِهَا سِتۡرٗا ۝ 89
(90) यहाँ तक कि सूरज के निकलने की सीमा तक जा पहुँचा। वहाँ उसने देखा कि सूरज एक ऐसी क़ौम पर निकल रहा है जिसके लिए धूप से बचने का कोई सामान हमने नहीं किया है।66
66. अर्थात् वह देशों को जीतता हुआ पूर्व की ओर ऐसे क्षेत्रों तक पहुँच गया जहाँ सभ्य जगत की सीमा समाप्त हो गई थी और आगे ऐसी वहशी क़ौमों का क्षेत्र था जो इमारतें बनाना तो दूर की बात नेमे बनाना तक न जानती थी।
كَذَٰلِكَۖ وَقَدۡ أَحَطۡنَا بِمَا لَدَيۡهِ خُبۡرٗا ۝ 90
(91) यह हाल था उनका और ज़ुलक़रनैन के पास जो कुछ था, उसे हम जानते थे।
ثُمَّ أَتۡبَعَ سَبَبًا ۝ 91
(92) फिर उसने (एक मुहिम का) सामान किया,
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ بَيۡنَ ٱلسَّدَّيۡنِ وَجَدَ مِن دُونِهِمَا قَوۡمٗا لَّا يَكَادُونَ يَفۡقَهُونَ قَوۡلٗا ۝ 92
(93) यहाँ तक कि जब दो पहाड़ों के बीच पहुँचा67 तो उनके पास एक क़ौम मिली जो मुशकिल ही से कोई बात समझती थी।68
67. चूँकि आगे इस का उल्लेख किया जा रहा है कि इन दोनों पहाड़ों के उस ओर याजूज माजूज का क्षेत्र था, इसलिए यक़ीनन इन पहाड़ों से तात्पर्य काकेशिया के वे पहाड़ी सिलसिले ही हो सकते हैं जो कैस्पियन सागर और मृत सागर के बीच स्थित हैं।
68. अर्थात् उसकी भाषा ज़ुलक़रनैन और उसके साथियों के लिए क़रीब-क़रीब बिल्कुल अपरिचित थी। घोर वहशी होने के कारण न कोई उनकी भाषा को जानता था और न वे किसी दूसरी भाषा को जानते थे।
قَالُواْ يَٰذَا ٱلۡقَرۡنَيۡنِ إِنَّ يَأۡجُوجَ وَمَأۡجُوجَ مُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَهَلۡ نَجۡعَلُ لَكَ خَرۡجًا عَلَىٰٓ أَن تَجۡعَلَ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَهُمۡ سَدّٗا ۝ 93
(94) उन लोगों ने कहा कि “ऐ जुलकरनैन ! याजूज और माजूज69 इस भू-भाग में फ़साद फैलाते हैं, तो क्या हम तुझे कोई टैक्स इस काम के लिए दें कि तू हमारे और उनके बीच एक बाँध बना दें?"
69. याजूज-माजूज से तात्पर्य जैसा कि ऊपर टिप्पणी नं. 62 में संकेत किया जा चुका है, एशिया के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र की वे क़ौमें हैं जो प्राचीन काल से सभ्य देशों पर लूट-मार के लिए हमले करती रही हैं और जिनकी आँधी समय-समय से उठकर एशिया और यूरोप दोनों ओर रुख करती रही हैं। बाइबल की किताब पैदाइश (अध्याय 10) में उनको हज़रत नूह के बेटे याफ़स की नस्ल में गिना गया है और यही बयान मुसलमान इतिहासकारों का भी है। हिज़की-एल की पुस्तक (अध्याय 38, 39) में उनका क्षेत्र रूस और तौबुल (वर्तमान तौबालसक) और मस्क (वर्तमान मास्को) बताया गया है। इसराईली इतिहासकार यूसीफ़ोस उनसे तात्पर्य सीथियन क़ौम लेता है, जिसका क्षेत्र काले सागर के उत्तर और पूरब में स्थित था। जीरूम के बयान के अनुसार माजूज काकेशिया के उत्तर में ख़िज़र सागर के क़रीब आबाद थे
قَالَ مَا مَكَّنِّي فِيهِ رَبِّي خَيۡرٞ فَأَعِينُونِي بِقُوَّةٍ أَجۡعَلۡ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُمۡ رَدۡمًا ۝ 94
(95) उसने कहा, “जो कुछ मेरे रब ने मुझे दे रखा है, वह बहुत है। तुम बस मेहनत से मेरी मदद करो, मैं तुम्हारे और उनके बीच बाँध बनाए देता हूँ।70
70. अर्थात् शासक होने की हैसियत से मेरा कर्तव्य है कि अपनी जनता को लूट-मार करनेवालो के हमले से बचाऊँ। इस काम के लिए तुमपर अलग टैक्स लगाना मेरे लिए वैध नहीं है। देश का जो खज़ाना अल्लाह ने मेरे हवाले किया है, वह इस सेवा के लिए पर्याप्त है। अलबत्ता हाथ-पाँव की मेहनत से तुमको मेरी सहायता करनी होगी।
ءَاتُونِي زُبَرَ ٱلۡحَدِيدِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا سَاوَىٰ بَيۡنَ ٱلصَّدَفَيۡنِ قَالَ ٱنفُخُواْۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَعَلَهُۥ نَارٗا قَالَ ءَاتُونِيٓ أُفۡرِغۡ عَلَيۡهِ قِطۡرٗا ۝ 95
(96) मुझे लोहे की चादरें ला दो।" आख़िर जब दोनों पहाड़ों की बीच की खाली जगह को उसने पाट दिया तो लोगों से कहा कि अब आग धधकाओ यहाँ तक कि जब (यह लोहे की दीवार) बिल्कुल आग की तरह लाल हो गई तो उसने कहा, "लाओ, अब मैं उसपर पिघला हुआ ताँबा उंडेलूँगा।"
فَمَا ٱسۡطَٰعُوٓاْ أَن يَظۡهَرُوهُ وَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ لَهُۥ نَقۡبٗا ۝ 96
(97) (यह बाँध ऐसा था कि याजूज-माजूज उसपर चढ़ कर भी न आ सकते थे और उसमें नक़ब लगाना उनके लिए और भी कठिन था।
قَالَ هَٰذَا رَحۡمَةٞ مِّن رَّبِّيۖ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ رَبِّي جَعَلَهُۥ دَكَّآءَۖ وَكَانَ وَعۡدُ رَبِّي حَقّٗا ۝ 97
(98) ज़ुलक़रनैन ने कहा, “यह मेरे रब की रहमत है। मगर जब मेरे रब के वादे का समय आएगा तो वह उसको धूल में मिला देगा 71, और मेरे रब का वादा सच्चा है।"72
71. अर्थात् अगरचे मैंने अपनी सामर्थ्य तक बड़ी मज़बूत दीवार बनाई है, मगर यह अमर नहीं है। जब तक अल्लाह की मर्जी है, यह क़ायम रहेगी और जब समय आएगा जो अल्लाह ने उसके विनाश के लिए तय कर रखा है, तो फिर उसको टुकड़ा-टुकड़ा होने से कोई चीज़ न बचा सकेगी। 'वादे का समय' दोहरा अर्थ देता है। इससे तात्पर्य उस दीवार के विनाश का समय भी है और वह घड़ी भी जो अल्लाह ने हर चीज़ की मौत और फ़ना के लिए निश्चित कर दी है, अर्थात् क़ियामत ।
72. यहाँ पहुँचकर ज़ुलक़रनैन का क़िस्सा समाप्त हो जाता है। यह किस्सा यद्यपि मक्का के विधर्मियों की परीक्षा लेनेवाले प्रश्न पर सुनाया गया है, मगर कह्फ़वालों का क़िस्सा और मूसा और ख़िज़ के क़िस्से की तरह इसको भी क़ुरआन ने अपने नियम के अनुसार अपने उद्देश्य के लिए पूरी तरह इस्तेमाल किया है। इसमें बताया गया कि ज़ुलक़रनैन जिसकी बड़ाई का हाल तुमने अहले-किताब से सुना है, केवल एक विजेता ही न था, बल्कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत का माननेवाला था, अद्ल और इंसाफ़ और उदारता के नियमों को व्यवहार में लानेवाला था, और तुम लोगों की तरह हीन स्वभाववाला न था कि तनिक-सी सरदारी मिली और समझ बैठे कि हम जो हैं वह दूसरे कहाँ ।
۞وَتَرَكۡنَا بَعۡضَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ يَمُوجُ فِي بَعۡضٖۖ وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَجَمَعۡنَٰهُمۡ جَمۡعٗا ۝ 98
(99) और उस दिन73 हम लोगों को छोड़ देंगे कि (समुद्र की लहरों की तरह) एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था हो और 'सूर' फूंका जाएगा और हम सब इंसानों को एक साथ जमा करेंगे
73. अर्थात् 'क़ियामत के दिन ।' ज़ुलक़रनैन ने जो संकेत क़ियामत के सच्चे वादे की ओर किया था, उसी को ध्यान में रखकर ये वाक्य उसके कथन को आगे बढ़ाते हुए कहे जा रहे हैं
وَعَرَضۡنَا جَهَنَّمَ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡكَٰفِرِينَ عَرۡضًا ۝ 99
(100) और वह दिन होगा जब हम जहन्नम को इन्कारियों के सामने लाएंगे,
ٱلَّذِينَ كَانَتۡ أَعۡيُنُهُمۡ فِي غِطَآءٍ عَن ذِكۡرِي وَكَانُواْ لَا يَسۡتَطِيعُونَ سَمۡعًا ۝ 100
(101) उन इन्कारियों के सामने जो मेरो नसीहत की ओर से अंधे बने हुए थे और कुछ सुनने के लिए तैयार ही न थे।
أَفَحَسِبَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَن يَتَّخِذُواْ عِبَادِي مِن دُونِيٓ أَوۡلِيَآءَۚ إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا جَهَنَّمَ لِلۡكَٰفِرِينَ نُزُلٗا ۝ 101
(102) तो क्या74 ये लोग, जिन्होंने इंकार किया है। यह विचार रखते है। कि मुझे छोड़कर मेरे बन्दों को अपना कर्ता-धर्ता बना लें?75 हमने ऐसे इंकारियों की मेहमानी के लिए जहन्नम तैयार कर रखी है।
74. यह पूरी सूरा का समापन है, इसलिए कुल मिलाकर उसकी सार्थकता ज़ुलक़रनैन के क़िस्से में नहीं, बल्कि सूरा के पूरे विषय में खोजनी चाहिए। सूरा के विषय का सार यह है कि नबी (सल्ल०) अपनी क़ौम को शिर्क छोड़कर तौहीद अपनाने और दुनिया-परस्ती छोड़कर आख़िरत पर विश्वास करने की दावत दे रहे थे, मगर कौम के बड़े-बड़े सरदार अपने धन-ऐश्वर्य के घमण्ड में न सिर्फ़ आपकी इस दावत को रद्द कर रहे थे, बल्कि उन कुछ सत्यवादी व्यक्तियों को भी, जिन्होंने यह दावत स्वीकार कर ली थी, ज़ुल्मो-सितम और अपमान व तिरस्कार का निशाना बना रहे थे। इसपर वह पूरा भाषण व्यक्त किया गया जो शुरू सूरा से यहाँ तक चला आ रहा है, और इसी भाषण के दौर में एक-एक करके उन तीन किस्सों को भी, जिन्हें विरोधियों ने परीक्षा लेने के लिए मालूम किया था, सही स्थान पर नगीनों की तरह जड़ दिया गया। अब भाषण समाप्त करते हुए फिर वाणी की दिशा उसी उद्देश्य की ओर फेरी जा रही है जिसे भाषण के शुरू में पेश किया गया था और जिसपर रुकूअ 4 से 8 (आयत 32-59) तक लगातार बातें की जा चुकी हैं।
75. अर्थात् क्या यह सब कुछ सुनने के बाद भी उनका विचार यही है और वे यह समझते हैं कि यह रवैया उनके लिए लाभप्रद होगा?
قُلۡ هَلۡ نُنَبِّئُكُم بِٱلۡأَخۡسَرِينَ أَعۡمَٰلًا ۝ 102
(103) ऐ नबी ! इनसे कहो, क्या हम तुम्हें बताएँ कि अपने कार्यों में सबसे अधिक विफ़ल कौन लोग है ?
ٱلَّذِينَ ضَلَّ سَعۡيُهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُمۡ يَحۡسَبُونَ أَنَّهُمۡ يُحۡسِنُونَ صُنۡعًا ۝ 103
(104) वे कि दुनिया की जिंदगी में जिनकी सारी कोशिश सीधे रास्ते से भटकी रही76 और वे समझते रहे कि वे सब कुछ ठीक कर रहे हैं।
76. इस आयत के दो अर्थ हो सकते हैं। एक वह जो हमने अनुवाद में अपनाया है और दूसरा यह है कि 'जिनकी सारी कोशिशें दुनिया की ज़िन्दगी ही में गुम होकर रह गई अर्थात् उन्होंने जो कुछ भी किया अल्लाह से उदासीन और आख़िरत से निश्चित होकर सिर्फ़ दुनिया के लिए किया। दुनिया की जिंदगी को ही ज़िदंगी समझा। दुनिया की सफलताओं और सम्पन्नताओं ही को अपना अभिप्रेत बनाया। अल्लाह की हस्ती के अगर क़ायल हुए भी तो इस बात की कभी चिन्ता न की उसकी प्रसन्नता क्या है और हमें कभी उसके सामने जाकर अपने कर्मों का हिसाब भी देना है। अपने आपको सिर्फ़ एक स्वतंत्र, गैर-ज़िम्मेदार बुद्धि रखनेवाला जीव समझते रहे, जिसके लिए दुनिया को इस चरागाह से लाभ उठाने के सिवा और कोई काम नहीं है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ وَلِقَآئِهِۦ فَحَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فَلَا نُقِيمُ لَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَزۡنٗا ۝ 104
(105) ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने रब की आयतों को मानने से इंकार किया और उसके हुजूर पेशी का यकीन न किया । इसलिए उनके सारे कर्म व्यर्थ गए, क्रियामत के दिन हम उन्हें कोई वज़न न देंगे।77
77. अर्थात् इस तरह के लोगों ने दुनिया में चाहे कितने हो बड़े कारनामे किए हों बहरहाल वे दुनिया की समाप्ति के साथ ही ख़त्म हो जाएँगे, अपने महल और कोठियां, अपनी युनीवर्सिटियाँ और लाइब्रेरियाँ, अपने कारखाने और वर्कशाप, अपनी सड़कें और रेलें, अपनी ईजादें और उद्योग-धन्धे, अपने ज्ञान और कलाएँ और अपनी आर्ट गैलरियाँ और दूसरी वे चीजें जिनपर वे गर्व करते हैं, उनमें से तो कोई चीज़ भी अपने साथ लिए हुए वे अल्लाह के यहाँ न पहुँचेंगे कि अल्लाह की तराज़ू में उसको रख सकें। वहाँ जो चीज़ बाकी रहनेवाली है, वह सिर्फ़ कर्म का उद्देश्य और कर्म-फल है। अब अगर किसी के सारे उद्देश्य दुनिया तक सीमित थे और नतीजे भी उसके दुनिया ही में अभीष्ट थे और दुनिया में वे अमल के अपने नतीजे देख चुका तो उसका सब किया कराया नश्वर दुनिया के साथ ही नष्ट हो गया। आख़िरत में जो कुछ पेश करके वह कोई वज़न पा सकता है, वह तो ज़रूर ही कोई ऐसा कारनामा होना चाहिए जो उसने अल्लाह की प्रसन्नता के लिए किया हो, उसके आदेशों की पाबन्दी करते हुए किया हो और उन नतीजों को अभिप्रेत बना लिया हो जो आख़िरत में निकलनेवाले हैं। ऐसा कोई कारनामा अगर उसके हिसाब में नहीं है तो वह सारी दौड़-धूप बेशक अकारथ गई जो उसने दुनिया में की थी।
ذَٰلِكَ جَزَآؤُهُمۡ جَهَنَّمُ بِمَا كَفَرُواْ وَٱتَّخَذُوٓاْ ءَايَٰتِي وَرُسُلِي هُزُوًا ۝ 105
(106) उनका बदला जहन्नम है उस 'क़ुफ़्र' के बदले जो उन्होंने किया और उस उपहास के बदले में जो वे मेरी आयतों और मेरे रसूलों के साथ करते रहे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ كَانَتۡ لَهُمۡ جَنَّٰتُ ٱلۡفِرۡدَوۡسِ نُزُلًا ۝ 106
(107) अलबत्ता वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने भले कर्म किए, उनकी मेहमानी के लिए फ़िरदौस78 के बाग़ होंगे,
78. व्याख्या के लिए देखिए सूरा-23 (अल-मोमिनून), टिप्पणी 10
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يَبۡغُونَ عَنۡهَا حِوَلٗا ۝ 107
(108) जिनमें वे सदैव रहेंगे। और कभी उस जगह से निकलकर कही जाने को उनका जी न चाहेगा।79
79. अर्थात् उस स्थिति से बेहतर और कोई स्थिति होगी ही नहीं कि जन्नत की जिंदगी को उससे बदल लेने के लिए उनके दिलों में कोई इच्छा पैदा हो ।
قُل لَّوۡ كَانَ ٱلۡبَحۡرُ مِدَادٗا لِّكَلِمَٰتِ رَبِّي لَنَفِدَ ٱلۡبَحۡرُ قَبۡلَ أَن تَنفَدَ كَلِمَٰتُ رَبِّي وَلَوۡ جِئۡنَا بِمِثۡلِهِۦ مَدَدٗا ۝ 108
(109) ऐ नबी ! कहो कि अगर समुद्र मेरे रब की बाते80 लिखने के लिए रोशनाई बन जाए तो वह समाप्त हो जाए, मगर मेरे रब की बातें सामाप्त न हो, बल्कि अगर उतनी ही रोशनाई हम और ले आएँ तो वह भी काफ़ी न हो।
80. अल्लाह की 'बातों' से तात्पर्य उसके कार्य और कुशलता और सामर्थ्य की अदभुत बाते और तत्त्वदर्शिता हैं। व्याख्या के लिए देखिए, सूरा-31 (लुक़मान), टिप्पणी 48।
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ فَمَن كَانَ يَرۡجُواْ لِقَآءَ رَبِّهِۦ فَلۡيَعۡمَلۡ عَمَلٗا صَٰلِحٗا وَلَا يُشۡرِكۡ بِعِبَادَةِ رَبِّهِۦٓ أَحَدَۢا ۝ 109
(110) ऐ नबी ! कहो कि मैं तो एक इंसान हूँ तुम ही जैसा, मेरी ओर वह्य की जाती है कि तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही खुदा है, अत: जो कोई अपने रब की मुलाक़ात का उम्मीदवार हो उसे चाहिए कि भले कार्य करे और बन्दगी में अपने रब के साथ किसी और को साझीदार न बनाए ।