(82) और इस दीवार का मामला यह है कि यह दो यतीम लड़कों की है जो इस नगर में रहते हैं। इस दीवार के नीचे इन बच्चों के लिए एक खजाना दान है और उनका बाप एक नेक आदमी था। इसलिए तुम्हारे रख ने चाहा कि ये दोनों बच्चे बालिग़ हो और अपना ख़जाना निकाल लें। यह तुम्हारे रब की रहमत की बिना पर किया गया है, मैंने कुछ अपने इख्ति़यार से नहीं कर दिया है। यह है वास्तविकता उन बातों को जिनपर तुम सब न कर सके।‘’60
60. इस क़िस्से में एक बड़ी पेचीदगी है जिसे दूर करना बहुत ज़रूरी है। हज़रत खिन ने ये तीन काम जो किए हैं उनमें से तीसरा काम तो खैर शरीअत से नहीं टकराता, मगर पहले दोनों काम निश्चित रूप से उन आदेशों से टकराते हैं जो मानवता के आरंभिक काल से आजतक तमाम आसमानी शरीअतों में से साबित रहे हैं। कोई शरीअत भी किसी इंसान को यह अनुमति नहीं देती कि किसी की मिल्कियत को ख़राब कर दे और किसी जान को बे-कसूर क़त्ल कर डाले, यहाँ तक कि अगर किसी इंसान को इलहाम (ईश्वर की ओर से हृदय में आई हुई बात) के ज़रिये से यह मालूम हो जाए कि एक नाव को आगे जाकर एक छीननेवाला ज़ालिम छीन लेगा और अमुक लड़का बड़ा होकर उदंड और विधर्मी निकलेगा, तब भी उसके लिए अल्लाह को भेजी हुई शरीअतों में से किसी शरीअत के मुताबिक़ यह वैध नहीं है कि वह अपने इस इलहामी ज्ञान के आधार पर नाव में छेद कर दे और एक निरपराध लड़के को मार डाले। इसके उत्तर में यह कहना कि हज़रत खिन ने ये दोनों काम अल्लाह के आदेश से किए थे, सचमुच इस पेचीदगी को कुछ भी दूर नहीं करता। प्रश्न यह नहीं है कि हज़रत ख्रिन ने ये काम किसके आदेश से किए थे। इनका अल्लाह के आदेश से होना तो निश्चित रूप से सिद्ध है क्योंकि हज़रत खिन स्वयं फ़रमाते हैं कि उनके ये कार्य उनके इरिजयारी से नहीं हैं, बल्कि अल्लाह की रहमत उनके लिए प्रेरक हुई है और इसकी पुष्टि अल्लाह स्वयं कर चुका है कि हज़रत ख्रिन को अल्लाह की ओर से एक विशेष ज्ञान प्राप्त था। अतः यह बात तो हर सन्देह और भ्रम से परे है कि ये काम अल्लाह के आदेश से किए गए थे। मगर मूल प्रश्न जो यहाँ पैदा होता है वह यह है कि अल्लाह के ये आदेश किस प्रकार के थे? ज़ाहिर है कि ये शरअई हुक्म न थे क्योंकि इलाही शरीअतों के जो मौलिक नियम क़ुरआन और इससे पहले की आसमानी किताबों से प्रमाणित हैं, उनमें कभी किसी इंसान के लिए यह गुंजाइश नहीं रखी गई कि वह अपराध साबित हुए बिना इंसान को क़त्ल कर दे। इसलिए अनिवार्य रूप से यह मानना पड़ेगा कि ये आदेश अपने स्वरूप में अल्लाह के उन प्राकृतिक आदेशों से मिलते-जुलते हैं जिनके अन्तर्गत दुनिया में हर क्षण कोई बीमार डाला जाता है और कोई तन्दुरुस्त किया जाता है, किसी को मौत दी जाती है और किसी को जीवन दिया जाता है, किसी को नष्ट किया जाता है और किसी को नेमतें दी जाती हैं। अब अगर ये प्राकृतिक आदेश हैं तो इनके सम्बोधित केवल फ़रिश्ते ही हो सकते हैं जिनके बारे में शरई तौर पर वैध होने या अवैध होने का कोई प्रश्न ही नहीं पैदा होता क्योंकि वे निजी इख़तियार के बिना केवल अल्लाह के आदेशों का पालन करते हैं। रहा इंसान तो चाहे वह बेइरादा किसी प्राकृतिक आदेश को लागू करने का साधन बने और चाहे इलहामी तौर पर इस तरह का कोई परोक्ष ज्ञान और आदेश पाकर उसको व्यवहार में लाए, बहरहाल वह गुनाहगार होने से नहीं बच सकता, अगर वह काम जो उसने किया है किसी शरई आदेशों से टकराता हो। इसलिए कि इंसान इस हैसियत से कि वह इंसान है, शरई आदेशों के करने पर विवश है और शरीअत के नियमों में कहीं यह गुंजाइश नहीं पाई जाती कि किसी इंसान के लिए केवल इस कारण शरई आदेशों में से किसी आदेश का उल्लंघन वैध हो कि उसे इलहाम के ज़रिये इस उल्लंघन का आदेश मिला है, और परोक्ष ज्ञान के ज़रिये इस उल्लंघन की मस्लेहत बताया गई है।
यह एक ऐसी बात है जिसपर न केवल शरीअत के तमाम उलमा सहमत हैं, बल्कि महान सूफ़ी भी एकमत होकर यह बात कहते हैं। चुनांचे अल्लामा आलूसी ने सविस्तार अब्दुल बहाब शरानी, मुहीउद्दीन इब्ने अरबी, मुजद्दिद अलिफ सानी, शेख अब्दुल कादिर जीलानी (रह०), जुनैद बग़दादी, सरिय्या सकती, अबुल हुसैन अन-नूरी, अबू सरीद खरोज़, अब्दुल अब्बास अहमद दनयौरी और इमाम ग़ज़ाली जैसे प्रख्यात बुजुर्गों के कथन नक़ल करके यह सिद्ध किया है कि सूफ़ियों के नज़दीक भी किसी ऐसे इलहाम पर अमल करना स्वयं इलहामवालों तक के लिए वैध नहीं है, जो शरई नस्स (क़ुरआन और हदीस के स्पष्ट आदेश) के खिलाफ़ हो । (रूहुल मआनी, भाग 16, पृ. 16-17)
अब क्या हम यह मान लें कि इस नियम का केवल एक व्यक्ति अपवाद मान लिया गया है और वह हैं हज़रत ख़िज़? या यह समझें कि ख़िज़ कोई इंसान न थे, बल्कि अल्लाह के उन बन्दों में से थे जो अल्लाह की इच्छा के तहत (न कि शरीअते इलाही के तहत) काम करते हैं? पहली शक्ल को हम मान लेते अगर क़ुरआन खुले शब्दों में यह कह देता कि वह 'बन्दा' जिसके पास हज़रत मूसा इस प्रशिक्षण के लिए भेजे गए थे, इंसान था। लेकिन क़ुरआन उसका इंसान होना स्पष्ट नहीं करता, बल्कि केवल 'अब्दम मिन माम इबदिना' (हमारे बन्दों में से एक बन्दा) के शब्द बोलता है जो स्पष्ट है कि उस बन्दे का इंसान होने के लिए अनिवार्य नहीं है। क़ुरआन मजीद में बहुत सी जगहों पर फ़रिश्तों के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है, उदाहरण के रूप में देखिए सूरा-21 अंबिया, आयत 26, और सूरा-43, जुखरुफ़ आयत 19। फिर किसी सही हदीस में नबी (सल्ल०) से भी कोई ऐसा कथन नक़ल नहीं किया गया है जिसे साफ तौर पर हज़रत खिन को मानवजाति का एक व्यक्ति कहा गया हो। इस बारे में अत्यंत प्रामाणिक रिवायतें वे हैं जो सईद बिन ज़ुबैर, इब्ने अब्बास, उबई बिन काब (रजि०) से वर्णित की गई हैं और जो प्यारे रसूल (सल्ल०) से रिवायत की सनद से हदीस के इमामों को पहुंची हैं। इनमें हज़रत ख़िज़ के लिए सिर्फ़रजुल' का शब्द आया है, जो यद्यपि मर्द इंसानों के लिए प्रयुक्त होता है, मगर इंसानों के लिए मुख्य नहीं है। चुनांचे स्वयं क़ुरआन में यह शब्द जिन्नों के लिए प्रयुक्त हो चुका है जैसा कि सूरा-72 आयत 6 (और यह कि इसानों में से कुछ लोग जिन्नों में से कुछ लोगों की पनाह माँगा करते थे।) जिन में कहा गया है. साथ ही यह स्पष्ट है कि जिन्न या फ़रिश्ते या कोई अनदेखा अस्तित्त्व जब इंसानों के सामने आएगा तो इंसानी रूप ही में आएगा और इस हालत में उसको मनुष्य या इंसान ही कहा जाएगा। हज़रत मरयम के सामने जब फ़रिश्ता आया तो क़ुरआन इस घटना को यूँ बयान करता है कि 'फ-त-मस्स-ल लहा ब-श-रन सविय्या'। अत: नबी (सल्ल०) का यह कथन है कि "वहाँ उन्होंने एक मर्द को पाया", हज़रत ख़िज़्र के इंसान होने की खुली दलील नहीं बनती। इसके बाद हमारे लिए इस पेचदिगी को दूर करने की केवल यही एक शक्ल बाकी रह जाती है कि हम ' ख़िज़्र ' को इंसान न मानें बल्कि फरिश्तों में से या अल्लाह के किसी और ऐसे प्राणियों में से समझें जो शरीअतों के पाबन्द नहीं हैं बल्कि अल्लाह की मंशा को पूरा करनेवाले कार्यकर्ता हैं। पहलों में से कुछ विद्वानों ने भी यही राय प्रकट की है, जिसे इब्ने कसीर ने अपनी टीका में मावरदी के हवाले से नक़ल किया है।