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سُورَةُ النَّحۡلِ

  1. अन-नहल

(मक्‍का में उतरी-आयतें 128)

परिचय

नाम

आयत 68 के वाक्‍य ‘व औहा रब्‍बु-क इलन्‍नह्‍ल' से लिया गया है। नह्‍ल शब्द का अर्थ है- मधुमक्‍खी । यह भी केवल संकेत है, न कि वार्ता के विषय का शीर्षक ।

उतरने का समय

बहुत-सी अदरूनी गवाहियों से इसके उतरने के समय पर रौशनी पड़ती है। जैसे आयत 41 के वाक्य 'वल्लज़ी-न हाजरू फ़िल्लाहि मिम-बादि मा ज़ुलिमू’ (जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह के लिए हिजरत कर गए) से स्पष्ट मालूम होता है कि उस समय हब्शा की हिजरत हो चुकी थी। आयत 106 'मन क-फ़-र बिल्‍लाहि मिम-बादि ईमानिही' (जो आदमी ईमान लाने के बाद इनकार करे) से मालूम होता है कि उस समय अन्याय उग्र रूप धारण किए हुए था और यह प्रश्न पैदा हो गया था कि अगर कोई व्यक्ति असह्य पीड़ा से विवश होकर कुफ़्र (अधर्म) के शब्द कह बैठे तो उसका क्‍या हुक्‍म है।

आयत 112-114 का स्‍पष्ट संकेत इस ओर है कि मक्का में जो ज़बरदस्त सूखा पड़ गया था, वह इस सूरा के उतरते समय समाप्त हो चुका था। -इस सूरा में एक आयत 115 ऐसी है जिसका हवाला सूरा-6 अनआम की आयत 119 में दिया गया है और दूसरी आयत (118) ऐसी है जिसमें सूरा अनआम की आयत 146 का हवाला दिया गया है। यह इस बात की दलील है कि इन दोनों सूरतों के उतरने का समय क़रीब-क़रीब है।

इन गवाहियों से पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय भी मक्का का अन्तिम काल ही है।

शीर्षक और केन्द्रीय विषय

शिर्क (बहुदेववाद) का खंडन, तौहीद (एकेश्वरवाद) का प्रमाण, पैग़म्‍बर की दावत को न मानने के बुरे नतीजों पर चेतावनी और समझाना-बुझाना और सत्य के विरोध और उसके लिए रुकावटें खड़ी करने पर डाँट-फटकार।

वार्ताएँ

सूरा का आरंभ बिना किसी भूमिका के एकाएक एक चेतावनी भरे वाक्य से होता है। मक्का के कुफ़्फ़ार (अधर्मी) बार-बार कहते थे कि 'जब हम तुम्हें झुठला चुके है और खुल्लम-खुल्ला तुम्हारा विरोध कर रहे है तो आख़िर वह अल्लाह का अज़ाब आ क्यों नहीं जाता जिसकी तुम हमें धमकियाँ देते हो।' इसपर कहा गया कि मूर्खो! अल्लाह का अज़ाब तो तुम्हारे सिर पर तुला खड़ा है। अब इसके टूट पड़ने के लिए जल्दी न मचाओ, बल्कि जो तनिक भर मोहलत बाक़ी है उससे लाभ उठाकर बात समझने की कोशिश करो। इसके बाद तुरन्त ही समझाने-बुझाने के लिए व्याख्यान आरंभ हो जाता है और निम्नलिखित विषय बार-बार एक के बाद एक सामने आने शुरू होते हैं।

  1. दिल लगती दलीलों और सृष्टि और निज की निशानियों की खुली-खुली गवाहियों से समझाया जाता है कि शिर्क असत्य है और तौहीद ही सत्य है
  2. इंकारियों की आपत्ति, सन्देह, दुराग्रह और हीले-बहानों का एक-एक करके उत्तर दिया जाता है।
  3. असत्य पर आग्रह और सत्य के मुक़ाबले में घमंड व्यक्त करने के बुरे नतीजों से डराया जाता है।
  4. उन नैतिक और व्यावहारिक परिवर्तनों को संक्षेप में, मगर मन में बैठ जानेवाली शैली में, बयान किया जाता है जो मुहम्मद (सल्ल०) का लाया हुआ दीन मानव-जीवन में लाना चाहता है।
  5. नबी (सल्ल०) और आपके साथियों की ढाढ़स बँधाई जाती है और साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि कुफ़्फ़ार की रुकावटों और अत्याचारों के मुक़ाबले में उनका रवैया क्या होना चाहिए।

 

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سُورَةُ النَّحۡلِ
16. अन-नहल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
أَتَىٰٓ أَمۡرُ ٱللَّهِ فَلَا تَسۡتَعۡجِلُوهُۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ
(1) आ गया अल्लाह का फ़ैसला1, अब उसके लिए जल्दी न मचाओ। पाक है वह और उच्चतर है उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं।2
1. अर्थात् बस वह आया ही चाहता है-उसके प्रकट होने और लागू होने का समय क़रीब आ लगा है-इस बात को भूतकाल में या तो उसके अति विश्वसनीय और अत्यन्त निकट होने का आभास दिलाने के लिए फ़रमाया गया या फिर इसलिए कि कुरैश के विरोधियों की उदंडता और दुराचार का पैमाना छलक उठा था और अन्तिम निर्णायक कदम उठाने का समय आ गया था। प्रश्न पैदा होता है कि यह 'फ़ैसला' क्या था और किस रूप में आया? हम यह समझते हैं (अल्लाह ही सबसे बेहतर जानता है) इस फैसले से तात्पर्य नबी (सल्ल०) की मक्का से हिजरत है जिसका आदेश थोड़े समय बाद ही दिया गया। क़ुरआन के पढ़ने से मालूम होता है कि नबी जिन लोगों के बीच भेजा जाता है उनके दुराग्रह और इंकार के अन्तिम सीमा तक पहुँचने पर ही उसे हिजरत का आदेश दिया जाता है और यह आदेश उनके भाग्य का निर्णय कर देता है। उसके बाद या तो उनपर विनाशकारी अज़ाब आ जाता है या फिर नबी और उसके माननेवालों के हाथों उनकी जड़ काटकर रख दी जाती है। यही बात इतिहास से भी मालूम होती है। हिजरत जब हुई तो मक्का के विरोधी समझे कि फैसला उनके पक्ष में है। मगर आठ-दस साल के भीतर ही दुनिया ने देख लिया कि न केवल मक्का से, बल्कि पूरे अरब भू-भाग ही से, कुफ़ और शिर्क की जड़ें उखाड़कर फेंक दी गई।
2. [अर्थ यह है कि इस ईश्वरीय फैसले] के लागू करने में [तुम्हारे बार-बार के चैलेंज के बावजूद अब तक जो देर होती रही है, उस] का कारण कदापि वह नहीं है जो तुम समझ बैठे हो, [अर्थात् यह कि हमारा नबी जो कुछ कह रहा है, ग़लत कह रहा है और तुम्हारा शिर्कवाला धर्म ही सत्य है| अल्लाह इससे उच्चतर और पवित्रतम है कि कोई उसका शरीक हो ।
يُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ بِٱلرُّوحِ مِنۡ أَمۡرِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ أَنۡ أَنذِرُوٓاْ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱتَّقُونِ ۝ 1
(2) वह इस रूह 3 को अपने जिस बन्दे पर चाहता है, अपने आदेश से फ़रिश्तो के ज़रिये उतार देता है।4 (इस मार्गदर्शन के साथ कि लोगों को) "सावधान कर दो, मेरे सिवा कोई तुम्हारा उपास्य नहीं है, इसलिए तुम मुझी से डरो।"5
3. रूह से तात्पर्य है 'नुबूवत की रूह' और 'वह्य' जिससे परिपूर्ण होकर नबी कार्य करता और बातें करता है। यह वह्य और यह पैग़म्बरों वाली स्प्रिट चूँकि नैतिक जीवन में स्थान रखती है, जो प्राकृतिक जीवन में रूह का स्थान है, इसलिए 'क़ुरआन' में बहुत-सी जगहों पर उसके लिए रूह का शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसी वास्तविकता को न समझने के कारण ईसाइयों ने रुहुल कुद्स (Holy Ghost) को 'तीन ख़ुदाओं में से एक ख़ुदा बना डाला।
4. फ़ैसला तलब करने के लिए विरोधी जो चुनौती दे रहे थे, उसके पीछे चूँकि मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत का इंकार भी मौजूद था, इसलिए शिर्क के खंडन के साथ और उसके तुरन्त बाद आपकी नुबूवत के प्रमाण दिए गए। वे कहते थे कि ये बनावटी बातें हैं जो यह आदमी बना रहा है। अल्लाह इसके उत्तर में फ़रमाता है कि नहीं, यह हमारी भेजी हुई रूह है जिससे परिपूर्ण होकर यह आदमी नुबूबत कर रहा है। फिर यह जो फ़रमाया कि अपने जिस बन्दे पर अल्लाह चाहता है, यह रूह उतारता है तो यह विरोधियों की उन आपत्तियों का उत्तर है जो वे नबी (सल्ल०) पर करते थे कि अगर अल्लाह को नबी ही भेजना था तो क्या बस मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह ही इस काम के लिए रह गया था। इसके उत्तर में कहा जाता है कि अल्लाह अपने काम को स्वयं जानता है, तुमसे सलाह लेने की आवश्यकता नहीं है, वह अपने बन्दों में से जिसको उचित समझता है, आप ही अपने काम के लिए चुन लेता है।
خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۚ تَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 2
(3) उसने आसमानों व ज़मीन को हक़ के साथ पैदा किया है, वह बहुत उच्चतर है, उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।6
6. दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि शिर्क को नकारना और तौहीद को स्वीकारना, जिसकी दावत अल्लाह के पैग़म्बर देते हैं, उसी की गवाही ज़मीन व आसमान को यह उत्पादक कारख़ाना दे रहा है। यह कारख़ाना कोई काल्पनिक गोरखधंधा नहीं है, बल्कि एक पूर्णतः सत्य पर आधारित व्यवस्था है। उसमें जिस ओर चाहो निगाह उठाकर देख लो, शिर्क की गवाही कहीं से न मिलेगी। इसके बाद सृष्टि की निशानियों से और स्वयं इंसान के अपने अस्तित्त्व से वे गवाहियाँ प्रस्तुत की जाती हैं जो एक ओर तौहीद के और दूसरी ओर रिसालत के प्रमाण जुटाती हैं।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ۝ 3
(4) उसने इंसान को एक ज़रा-सी बूंद से पैदा किया और देखते-देखते खुले तौर पर वह एक झगड़ालू हस्ती बन गया।7
7. इसके दो अर्थ हो सकते हैं और शायद दोनों ही मुराद हैं। एक यह कि अल्लाह ने वीर्य को तुच्छ बूँद से वह इंसान पैदा किया जो बहस और तर्क-वितर्क की योग्यता रखता है और अपने प्रमाण के लिए युक्तियाँ प्रस्तुत कर सकता है। दूसरे यह कि जिस इंसान को अल्लाह ने वीर्य जैसी तुच्छ चीज़ से पैदा किया है, उसके स्वाभिमान का उफान तो देखो कि वह स्वयं अल्लाह के मुक़ाबले में झगड़ने पर उतर आया है।
وَٱلۡأَنۡعَٰمَ خَلَقَهَاۖ لَكُمۡ فِيهَا دِفۡءٞ وَمَنَٰفِعُ وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 4
(5) उसने जानवर पैदा किए जिनमें तुम्हारे लिए लिबास भी है और भोजन भी, और तरह-तरह के दूसरे लाभ भी।
وَلَكُمۡ فِيهَا جَمَالٌ حِينَ تُرِيحُونَ وَحِينَ تَسۡرَحُونَ ۝ 5
(6) उनमें तुम्हारे लिए सौन्दर्य है जबकि सुबह तुम उन्हें चरने के लिए भेजते हो और जबकि शाम उन्हें वापस लाते हो।
وَتَحۡمِلُ أَثۡقَالَكُمۡ إِلَىٰ بَلَدٖ لَّمۡ تَكُونُواْ بَٰلِغِيهِ إِلَّا بِشِقِّ ٱلۡأَنفُسِۚ إِنَّ رَبَّكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 6
(7) वे तुम्हारे लिए बोझ ढोकर ऐसी-ऐसी जगहों तक ले जाते हैं जहाँ तुम कड़ी मेहनत के बिना नहीं पहुँच सकते। सच तो यह है कि तुम्हारा रब बड़ा ही दयालु और मेहरबान है ।
وَٱلۡخَيۡلَ وَٱلۡبِغَالَ وَٱلۡحَمِيرَ لِتَرۡكَبُوهَا وَزِينَةٗۚ وَيَخۡلُقُ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 7
(8) उसने घोड़े और खच्चर और गधे पैदा किए, ताकि तुम उनपर सवार हो और वे तुम्हारी ज़िन्दगी की शोभा बनें। वह और बहुत-सी चीज़ें (तुम्हारे लाभ के लिए) पैदा करता है जिनका तुम्हें ज्ञान तक नहीं है।8
8. अर्थात् बहुत-सी ऐसी चीजें हैं जो इंसान की भलाई के लिए काम कर रही हैं और इंसान को ख़बर तक नहीं है कि कहाँ-कहां कितने सेवक उसकी सेवा में लगे हुए हैं और क्या सेवा कर रहे हैं।
وَعَلَى ٱللَّهِ قَصۡدُ ٱلسَّبِيلِ وَمِنۡهَا جَآئِرٞۚ وَلَوۡ شَآءَ لَهَدَىٰكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 8
(9) और अल्लाह ही के ज़िम्मे है सीधा रास्ता बताना जबकि रास्ते टेढ़े भी मौजूद हैं।9 अगर वह चाहता तो तुम सबको मार्ग दिखा देता।10
9. तौहीद और रहमत और रब होने के प्रमाण प्रस्तुत करते हुए यहाँ इशारे-इशारे में नुबूवत का भी एक प्रमाण प्रस्तुत कर दिया गया है । इस दलील का संक्षिप्त बयान यह है दुनिया में इंसान के लिए चिन्तन और व्यवहार के बहुत-से अलग-अलग रास्ते संभव हैं और व्यवहार में पाए जाते हैं। इनमें से सही दृष्टिकोण और कार्य के सही रास्ते को जानना इंसान की सबसे बड़ी ज़रूरत है, बल्कि वास्तविक मौलिक ज़रूरत यही है, क्योंकि यह अगर पूरी न हो तो इसका अर्थ यह है कि आदमी का सारा जीवन ही विफल हो गया। अब सोचो कि जिस अल्लाह ने तुम्हारे पाश्विक जीवन की एक-एक आवश्यकता पूरी कर रखी है, क्या उससे तुम यह आशा रखते हो कि उसने तुम्हारे मानवीय जीवन की इस सबसे बड़ी और वास्तविक आवश्यकता को पूरा करने का प्रबन्ध न किया होगा? यही प्रबन्ध तो है जो नुबूवत के ज़रिये से किया गया है। अगर तुम नुबूवत को नहीं मानते तो बताओ कि तुम्हारे विचार में अल्लाह ने इंसान के मार्गदर्शन के लिए और कौन-सा प्रबन्ध किया है ? इसके उत्तर में न तुम यह कह सकते हो कि अल्लाह ने हमें रास्ता खोज लेने के लिए बुद्धि और सोच दे रखी है, क्योंकि मानवीय बुद्धि और सोच पहले ही अनगिनत अलग-अलग रास्ते ईजाद कर बैठी है जो सीधे रास्ते की सही खोज में उसकी असफलता का खुला प्रमाण है और न तुम यही कह सकते हो कि अल्लाह ने हमारे मार्गदर्शन का कोई प्रबन्ध नहीं किया है, क्योंकि अल्लाह के साथ इससे बढ़कर बदगुमानी और कोई नहीं हो सकती कि वह जानवर होने की हैसियत से तो तुम्हारी परवरिश और तुम्हारे पलने-बढ़ने का इतना विस्तृत और पूर्ण प्रबन्ध करे, मगर इंसान होने की हैसियत से तुम्हें यूँ ही अंधेरों में भटकने और ठोकरे खाने के लिए छोड़ दे।
10. अर्थात् यद्यपि यह भी संभव था कि अल्लाह अपनी इस ज़िम्मेदारी को (जो मानव-जाति के मार्गदर्शन के लिए उसने स्वयं अपने आप ले ली है) इस तरह अदा करता कि सारे इंसानों को पैदाइशी तौर पर दूसरे तमाम अधिकारविहीन प्राणियों की तरह सीधे रास्ते पर डाल देता, लेकिन यह उसकी मंशा का तकाज़ा न था। उसकी मंशा एक ऐसे साधिकार प्राणी को अस्तित्त्व में लाने का तकाज़ा करती थी जो अपनी पसन्द और अपने चुनाव से सही और गलत, हर तरह के रास्तों पर जाने की स्वतंत्रता रखती हो। उसी स्वतंत्रता के इस्तेमाल के लिए उसको ज्ञान के साधन दिए गए, बुद्धि और सोच की क्षमताएँ दी गई,इच्छा और इरादे की शक्ति प्रदान की गई, अपने अन्दर और बाहर की अनगिनत चीज़ों के उपभोग के अधिकार दिए गए और प्रत्यक्ष और परोक्ष में हर ओर अनगिनत ऐसे साधन रख दिए गए जो उसके लिए सन्मार्ग और पथ-भ्रष्टता दोनों का कारण बन सकते हैं। ये सब कुछ व्यर्थ हो जाता । अगर वह जन्मजात सीधे रास्ते पर चलनेवाला बना दिया जाता और प्रगति के उन सर्वोच्च श्रेणियों तक भी इंसान का पहुँचना संभव न रहता जो केवल स्वतंत्रता के सही इस्तेमाल ही के नतीजे में उसको मिल सकती हैं। इसलिए अल्लाह ने इंसान के मार्गदर्शन के लिए ज़बरदस्ती रास्ता दिखाने का तरीक़ा छोड़कर रिसालत का तरीक़ा अपनाया ताकि इंसान स्वतंत्र भी रहे और उसकी परीक्षा की मंशा भी पूरी हो और सीधा रास्ता भी अत्यंत उचित ढंग से उसके सामने पेश कर दिया जाय।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗۖ لَّكُم مِّنۡهُ شَرَابٞ وَمِنۡهُ شَجَرٞ فِيهِ تُسِيمُونَ ۝ 9
(10) वही है जिसने आसमान से तुम्हारे लिए पानी बरसाया जिससे तुम स्वयं भी सैराब होते हो और तुम्हारे जानवरों के लिए भी चारा पैदा होता है ।
يُنۢبِتُ لَكُم بِهِ ٱلزَّرۡعَ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلنَّخِيلَ وَٱلۡأَعۡنَٰبَ وَمِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 10
(11) वह इस पानी के ज़रिये से खेतियाँ उगाता है और जैतून और खजूर और अंगूर और तरह-तरह के दूसरे फल पैदा करता है। इसमें एक बड़ी निशानी है उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते हैं।
وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ وَٱلنُّجُومُ مُسَخَّرَٰتُۢ بِأَمۡرِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 11
(12) उसने तुम्हारी भलाई के लिए रात और दिन को और सूरज और चाँद को सधा रखा है और सब तारे भी उसी के आदेश से सधे हुए हैं। इसमें बहुत निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते हैं।
وَمَا ذَرَأَ لَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُخۡتَلِفًا أَلۡوَٰنُهُۥٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَذَّكَّرُونَ ۝ 12
(13) और ये जो बहुत-सी रंग-बिरंग की चीजें उसने तुम्हारे लिए धरती में पैदा कर रखी हैं, इनमें भी जरूर निशानी है उन लोगों के लिए जो शिक्षा प्राप्त करनेवाले हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي سَخَّرَ ٱلۡبَحۡرَ لِتَأۡكُلُواْ مِنۡهُ لَحۡمٗا طَرِيّٗا وَتَسۡتَخۡرِجُواْ مِنۡهُ حِلۡيَةٗ تَلۡبَسُونَهَاۖ وَتَرَى ٱلۡفُلۡكَ مَوَاخِرَ فِيهِ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 13
(14) वही है जिसने तुम्हारे लिए समुद्र को सधा रखा है, ताकि तुम उससे तरो-ताज़ा मांस लेकर खाओ और उससे शोभा की वे चीज़ें निकालो जिन्हें तुम पहना करते हो। तुम देखते हो कि नाव समुद्र का सीना चीरती हुई चलती है, यह सब कुछ इसलिए है कि तुम अपने रब की मेहरबानी तलाश करो11 और उसके कृतज्ञ बनो।
11. अर्थात् हलाल तरीकों से अपनी रोजी प्राप्त करने की कोशिश करो।
وَأَلۡقَىٰ فِي ٱلۡأَرۡضِ رَوَٰسِيَ أَن تَمِيدَ بِكُمۡ وَأَنۡهَٰرٗا وَسُبُلٗا لَّعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 14
(15) उसने धरती में पहाड़ों की मेख़ें गाड़ दी ताकि धरती तुमको लेकर लुढ़क न जाए।12 उसने नदियाँ बहाई और प्राकृतिक रास्ते बनाए13 ताकि तुम रास्ता पाओ।
12. इससे मालूम होता है कि धरातल पर पहाड़ों के उभार का वास्तविक लाभ यह है कि उसके कारण पृथवी के घूमने में और उसकी चाल में नियंत्रण पैदा होता है । क़ुरआन मजीद में बहुत सी जगहों पर पहाड़ों के इस लाभ को उभारकर बताया गया है जिससे हम यह समझते हैं कि दूसरे तमाम लाभ गौण हैं और वास्तविक लाभ यही है कि पृथ्वी की गति को अनियंत्रित होने से बचाकर नियंत्रित (Regulate) करना है।
13. अर्थात् वे रास्ते जो नदी-नालों और दरियाओं के साथ बनते चले जाते हैं, इन प्राकृतिक रास्तों का महत्त्व मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में महसूस होता है, यद्यपि मैदानी क्षेत्रों में भी वे कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।
وَعَلَٰمَٰتٖۚ وَبِٱلنَّجۡمِ هُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 15
(16) उसने धरती में रास्ता बतानेवाली निशानियाँ रख दी,14 और तारों से भी लोग रास्ता पाते हैं।15
14. अर्थात् अल्लाह ने सारी ज़मीन बिल्कुल एक समान बनाकर नहीं रख दी, बल्कि हर क्षेत्र को अलग-अलग प्रमुख चिह्नों (Landmarks) से नुमायाँ किया। इसके बहुत-से दूसरे लाभों के साथ एक लाभ यह भी है कि आदमी अपने रास्ते और अपने गन्तव्य (मंज़िल) को अलग पहचान लेता है। इस नेमत का महत्त्व आदमी को उसी वक़्त मालूम होता है जबकि उसे कभी ऐसे रेगिस्तानी क्षेत्रों में जाने का मौक़ा हुआ हो जहाँ इस तरह के नुमायाँ निशान लगभग गायब होते हैं और आदमी हर वक्त भटक जाने का ख़तरा महसूस करता है। इससे भी बढ़कर समुद्री सफर में आदमी को इस शानदार नेमत का एहसास होता है, क्योंकि वहाँ रास्ते के निशान बिलकुल ही ग़ायब होते हैं, लेकिन जंगलों और समुद्रों में भी अल्लाह ने इंसान के मार्गदर्शन का एक प्राकृतिक प्रबन्ध कर रखा है, और वे हैं तारे जिन्हें देख-देखकर इंसान प्राचीनतम समय से आज तक अपना रास्ता मालूम कर रहा है। यहाँ फिर अल्लाह के एक होने, उसके रहीम और रब होने की दलीलों के दर्मियान एक सूक्ष्म संकेत रिसालत की दलील की ओर कर दिया गया है। इस जगह को पढ़ते हुए मन अपने आप उस विषय की ओर चला जाता है कि जिस अल्लाह ने तुम्हारे भौतिक जीवन में तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए ये कुछ प्रबन्ध किए हैं, क्या वह तुम्हारे नैतिक जीवन से इतना बेपरवाह हो सकता है कि यहाँ तुम्हें रास्ता दिखाने का कुछ भी प्रबन्ध न करे। स्पष्ट है कि भौतिक जीवन में भटक जाने की बड़ी से बड़ी हानि भी नैतिक जीवन में भटकने की हानि से बहुत कम है। फिर जिस रहीम रब को हमारे भौतिक कल्याण की इतनी चिन्ता है कि पहाड़ों में हमारे लिए रास्ते बनाता है, मैदानों में रास्ते के निशान खड़े करता है, जंगलों और समुद्रों में हमें सफ़र की सही दिशा बताने के लिए आसमानों पर दीप जलाता है, उससे यह बदगुमानी कैसे की जा सकती है कि उसने हमारी नैतिक भलाई के लिए कोई रास्ता न बनाया होगा, उस रास्ते को स्पष्ट करने के लिए कोई निशान न खड़ा किया गया होगा और उसे साफ़-साफ़ दिखाने के लिए कोई जगमगाता चिराग़ न रौशन किया गया होगा?
15. यहाँ तक दुनिया की और इंसान के अपने भीतर की बहुत-सी निशानियाँ जो एक-एक करके बयान की गई हैं, उनसे मन में यह बिठाना अभिप्रेत है कि इंसान अपने अस्तित्त्व से लेकर ज़मीन और आसमान के कोने-कोने तक जिधर चाहे नज़र दौड़ाकर देख ले, हर चीज़ पैग़म्बर के बयान की पुष्टि कर रही है और कहीं से भी शिर्क (अनेकेश्वरवाद) के और साथ-साथ दहरियत (नास्तिकता) के भी समर्थन में कोई गवाही नहीं मिलती। ये सारी चीजें साफ़ गवाही दे रही हैं कि एक ही सत्ता ने पैदा करने की यह योजना सोची है। उसी ने अपनी योजना के अनुसार इन सब चीज़ों को डिज़ाइन किया है, उसी ने इस डिज़ाइन पर इनको पैदा किया है, वही हर क्षण इस दुनिया में नित नई चीजे बना-बनाकर इस तरह ला रहा है कि सामूहिक स्कीम और उसकी व्यवस्था में तनिक भर भी अन्तर नहीं आता और वही ज़मीन से लेकर आसमानों तक इस भव्य कारख़ाने को चला रहा है। एक मूर्ख या एक हठधर्म के सिवा और कौन यह कह सकता है कि यह सब कुछ एक आकस्मिक घटना है? या यह कि इस अत्यन्त व्यवस्थित, सुसम्बद्ध और सन्तुलित सृष्टि के अलग-अलग काम या अलग-अलग भाग अलग-अलग ख़ुदाओं के बनाए हुए और अलग-अलग ख़ुदाओं के प्रबन्ध में है।
أَفَمَن يَخۡلُقُ كَمَن لَّا يَخۡلُقُۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 16
(17) फिर क्या वह पैदा करता है और वे जो कुछ भी नहीं पैदा करते, दोनों बराबर है?16 क्या तुम होश में नहीं आते ?
16. अर्थात् अगर तुम यह मानते हो (जैसा कि वास्तव में मक्का के कुफ़्फ़ार भी मानते थे और दुनिया के दूसरे मुशरिक भी मानते है) कि पैदा करनेवाला अल्लाह ही है और इस सृष्टि के अन्दर तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में से किसी का कुछ भी पैदा किया हुआ नहीं है, तो फिर कैसे हो सकता है कि पैदा करनेवाले को पैदा की हुई व्यवस्था में न पैदा करनेवालों को हैसियत स्वयं पैदा करनेवाले के बराबर या किसी तरह भी उस जैसी हो? कैसे संभव है कि अपनी पैदा की हुई सृष्टि में जो अधिकार पैदा करनेवाले के हैं वहीं इन न पैदा करनेवालों को भी प्राप्त हों और अपनी पैदा की हुई चीज़ों पर जो हक पैदा करनेवाले को मिले हुए हैं, वहीं हक़ उनको भी प्राप्त हों जिन्होंने पैदा नहीं किया है? कैसे सोचा जा सकता है कि पैदा करनेवाले और न पैदा करनेवाले के गुण एक जैसे होगे या वे एक जाति के लोग होंगे, यहाँ तक कि उनके बीच बाप और संन्तान का रिश्ता होगा?
وَإِن تَعُدُّواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ لَا تُحۡصُوهَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 17
(18) अगर तुम अल्लाह की नेमतों को गिनना चाहो तो गिन नहीं सकते । सच तो यह है कि वह बड़ा ही क्षमाशील और दयावान है,17
17. पहले और दूसरे वाक्य के बीच एक पूरी दास्तान अनकही छोड़ दी है, इसलिए कि वह इतनी स्पष्ट है कि उसके बयान की ज़रूरत नहीं। इसकी ओर केवल यह सूक्ष्म संकेत ही पर्याप्त है कि अल्लाह के अनगिनत उपकारों का उल्लेख करने के तुरन्त बाद उसके क्षमाशील और दयावान होने का उल्लेख कर दिया जाए। इसी से मालूम हो जाता है जिस इंसान का बाल-बाल अल्लाह के उपकारों में बंधा हुआ है वह अपने उपकारी को नेमतों का जवाब कैसी-कैसी नमकहरामियों, बेवफ़ाइयों, ग़द्दारियों और उइंडताओं से दे रहा है और फिर उसका उपकारी कैसा दयावान और सहनशील है कि इन सारो हरकतों के बावजूद वह सालों-वर्षों एक नमकहराम आदमी को और सदियों एक बागी क़ौम को अपनी नेमतें देता चला जाता है। यहाँ वे भी देखने में आते हैं जो खुल्लम-खुल्ला पैदा करनेवाले को हस्ती हो के इंकारी हैं और फिर भी नेमतों से मालामाल हुए जा रहे हैं। वे भी पाए जाते हैं जो पैदा करनेवाले को जात, सिफ़ात (गुणो), अधिकारों और हकों, सबमें पैदा करनेवाले के अलावा हस्तियों को उसका साझी ठहरा रहे हैं और इनाम देनेवाले को नेमतों का शुक्रिया रौर इनाम देनेवालों को अदा कर रहे हैं, फिर भी नेमत देनेवाला हाथ नेमतें देने से नहीं रुकता। वे भी हैं जो पैदा करनेवाले को पैदा करनेवाला और नेमतें देनेवाला मानने के बावजूद उसके मुक़ाबले में उदंडता और अवज्ञा ही को अपना तरीका और उसके आज्ञापालन से स्वतंत्रता ही को अपना पंथ बनाए रखते हैं, फिर भी पूरी उम्र उसके अनगिनत उपकारों का सिलसिला उनपर जारी रहता है।
وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُسِرُّونَ وَمَا تُعۡلِنُونَ ۝ 18
(19) हालाँकि वह तुम्हारे खुले को भी जानता है और छिपे को भी।18
18. अर्थात् कोई मूर्ख यह न समझे कि अल्लाह का इंकार, शिर्क और अवज्ञा के बावजूद नेमतों का सिलसिला बन्द न होना कुछ इस कारण है कि अल्लाह को लोगों के करतूतों की ख़बर नहीं है। यह कोई अंधी बाँट और ग़लत बख़्शी नहीं है, जो बेख़बरी की वजह से हो रही हो । यह तो वह सहनशीलता और क्षमा है जो अपराधियों के गुप्त भेदों, बल्कि दिल की छिपी हुई नीयतों तक को जानने के बावजूद किया जा रहा है और यह वह दानशीलता और विशाल हृदयता है जो केवल जहानों के रब ही को शोभा देती है।
وَٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَخۡلُقُونَ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ ۝ 19
(20) और वे दूसरी हस्तियाँ जिन्हें अल्लाह को छोड़कर लोग पुकारते हैं, वे किसी चीज़ को भी पैदा करनेवाली नहीं है, बल्कि स्वयं पैदा की हुई हैं।
أَمۡوَٰتٌ غَيۡرُ أَحۡيَآءٖۖ وَمَا يَشۡعُرُونَ أَيَّانَ يُبۡعَثُونَ ۝ 20
(21) मुर्दा है, न कि जिन्दा, और उनको कुछ मालूम नहीं है कि उन्हें कब (दोबारा ज़िन्दा करके) उठाया जाएगा।19
19. ये शब्द स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि यहाँ मुख्य रूप से जिन बनावटी उपास्यों का खंडन किया जा रहा है, वे फ़रिश्ते या जिन या शैतान या लकड़ी-पत्थर की मूर्तियाँ नहीं हैं, बल्कि वे इनसान हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी है। इसलिए कि फ़रिश्ते और शैतान तो ज़िन्दा हैं, उनपर 'मुर्दा हैं न कि जिन्दा' के शब्दों का प्रयोग नहीं हो सकता, और लकड़ी-पत्थर की मूर्तियों के मामले में दोबारा ज़िन्दा करके उठाए जाने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इसलिए उन्हें कुछ मालूम नहीं है कि उन्हें कब दोबारा उठाया जाएगा' के शब्द इन्हें भी विवाद से परे कर देते हैं। अब अनिवार्य रूप से इस आयत में वे दूसरी हस्तियाँ, जिन्हें अल्लाह को छोड़कर लोग पुकारते हैं' से तात्पर्य वे नबी, वली, शहीद और सदाचारी और दूसरे असाधारण इंसान ही हैं जिनको कट्टर दाता, मुश्किल-कुशा, फ़रियाद रस, ग़रीब-नवाज़, गंज-बख्श और न जाने क्या-क्या मानकर अपनी ज़रूरतों को पूरा कराने के लिए पुकारना शुरू कर देते हैं। इसके उत्तर में अगर कोई यह कहे कि अरब में इस प्रकार के उपास्य नहीं पाए जाते थे तो हम कहेंगे कि यह अरब अज्ञानता के इतिहास के न जानने का प्रमाण है। कौन पढ़ा-लिखा आदमी नहीं जानता है कि अरब के बहुत-से कबीले रबीआ, ग़स्सान, कल्ब, तालिब, कुज़ाआ, किनाना, हर्स, काब, किन्दा आदि में अधिकतर यहूदी और ईसाई पाए जाते थे और ये दोनों धर्म बुरी तरह नबियों, वलियों और शहीदों की पूजा करते थे। फिर अरब के मुशरिकों के अधिकतर नहीं तो बहुत-से उपास्य वे गुज़रे हुए इंसान ही थे जिन्हें बाद की नस्लों ने खुदा बना लिया था। बुख़ारी में इब्ने अब्बास की रिवायत है कि वद्द, सुवाअ, यगूस, यभूक, नत्र, ये सब सदाचारी लोगों के नाम हैं जिन्हें बाद के लोग बुत बना बैठे। हज़रत आइशा (रजि०) की रिवायत है कि इसाफ़ और नाइला दोनों इंसान थे। इसी तरह की रिवायत लात, मनात और उज्ज़ा के बारे में भी मौजूद है और मुशरिकों का यह विश्वास भी रिवायतों में आता है कि लात और उज्ज़ा अल्लाह के ऐसे प्यारे थे कि अल्लाह मियाँ जाड़ा लात के यहाँ और गर्मी उज्ज़ा के यहाँ बसर करते थे। 'सुब-हानहू व तआला अम्मा यसिफून०' (अल्लाह दुर्गुणों से पाक और बुलंद है जो ये लोग बयान करते हैं।)
إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۚ فَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ قُلُوبُهُم مُّنكِرَةٞ وَهُم مُّسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 21
(22) तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही अल्लाह है। मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते उनके दिलों में इंकार बसकर रह गया है और वे घमंड में पड़ गए हैं।20
20. अर्थात् आख़िरत के इंकार ने उनको इतना ग़ैर-ज़िम्मेदार, निश्चिन्त और दुनिया की ज़िन्दगी में मस्त बना कर दिया है कि अब उन्हें किसी सच्चाई का इंकार कर देने में संकोच नहीं रहा, किसी सच्चाई का उनके दिल में मूल्य शेष नहीं रहा, किसी नैतिक बन्धन को अपने मन पर सहन करने के लिए वे तैयार नहीं रहे और उन्हें यह खोज-बीन करने की परवाह ही नहीं रही कि जिस तरीक़े पर वे चल रहे हैं,वह सत्य है भी या नहीं।
لَا جَرَمَ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡتَكۡبِرِينَ ۝ 22
(23) अल्लाह निश्चित रूप से इनके सब करतूत जानता है, छिपे हुए भी और खुले हुए भी। वह उन लोगों को कदापि पसन्द नहीं करता जो अहंकार में पड़े हो।
وَإِذَا قِيلَ لَهُم مَّاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡ قَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 23
(24) और जब21 कोई उनसे पूछता है कि तुम्हारे रब ने यह क्या चीज़ उतारी है तो कहते हैं, “अजी, वे तो अगले समय की घिसी-पिटी कहानियाँ हैं।"22
21. यहाँ से भाषण की दिशा दूसरी ओर हो जाती है। नवी (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में जो दुष्टताएँ मक्का के काफ़िरों की ओर से हो रही थीं, जो तर्क आपके विरुद्ध प्रस्तुत किए जा रहे थे, जो हीले और बहाने ईमान न लाने के लिए गढ़े जा रहे थे, जो आपत्तियाँ आपपर की जा रही थीं, उनको एक-एक करके लिया जाता है और उन्हें समझाया जाता है, डाँटा जाता है और उनको नसीहत की जाती है।
22. नबी (सल्ल०) की दावत की चर्चा अब आस-पास के क्षेत्रों में फैली तो मक्का के लोग जहाँ कहीं जाते थे, उनसे पूछा जाता था कि तुम्हारे यहाँ जो साहब नबी बनकर उठे हैं, वे क्या शिक्षा देते हैं? क़ुरआन किस प्रकार की पुस्तक है ? इसके विषय क्या हैं? आदि । इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर मक्का के काफ़िर सदैव ऐसे शब्दों में देते थे जिनसे पूछनेवाले के दिल में नबी (सल्ल०) और आपकी लाई हुई किताब के बारे में कोई न कोई सन्देह पैदा हो जाए, या कम से कम उसको आपसे और आपकी नुबूवत के मामले से कोई दिलचस्पी बाक़ी न रहे।
لِيَحۡمِلُوٓاْ أَوۡزَارَهُمۡ كَامِلَةٗ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَمِنۡ أَوۡزَارِ ٱلَّذِينَ يُضِلُّونَهُم بِغَيۡرِ عِلۡمٍۗ أَلَا سَآءَ مَا يَزِرُونَ ۝ 24
(25) ये बातें वे इसलिए करते हैं कि क़ियामत के दिन अपने बोझ भी पूरे उठाएँ और साथ-साथ कुछ उन लोगों के बोझ भी समेटें जिन्हें ये अज्ञानतावश पथभ्रष्ट कर रहे हैं। देखो, कैसी कठिन जिम्मेदारी है जो ये अपने सिर ले रहे हैं।
قَدۡ مَكَرَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَأَتَى ٱللَّهُ بُنۡيَٰنَهُم مِّنَ ٱلۡقَوَاعِدِ فَخَرَّ عَلَيۡهِمُ ٱلسَّقۡفُ مِن فَوۡقِهِمۡ وَأَتَىٰهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 25
(26) इनसे पहले भी बहुत-से लोग (सत्य को नीचा दिखाने के लिए) ऐसी ही मक्कारियाँ कर चुके हैं, तो देख लो कि अल्लाह ने उनकी चालों की इमारत जड़ से उखाड़ फेंकी और उसकी छत ऊपर से उनके सिर पर आ रही और ऐसी दिशा से उनपर अज़ाब आया, जिधर से उसके आने का उनको गुमान तक न था।
ثُمَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يُخۡزِيهِمۡ وَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تُشَٰٓقُّونَ فِيهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ إِنَّ ٱلۡخِزۡيَ ٱلۡيَوۡمَ وَٱلسُّوٓءَ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 26
(27) फिर क़ियामत के दिन अल्लाह उन्हें अपमानित करेगा और उनसे कहेगा, “बताओ अब कहाँ हैं मेरे वे शरीक जिनके लिए तुम (सत्यवालों से) झगड़े किया करते थे?"-जिन लोगों 23 को दुनिया में ज्ञान प्राप्त था वे कहेंगे, “आज अपमान और दुर्भाग्य है इनकार करनेवालों के लिए।"
23. पहले वाक्य और इस वाक्य के बीच में एक सूक्ष्म शून्य है जिसे सुननेवाले की बुद्धि थोड़े सोच-विचार से स्वयं भर सकती है। इसका विवरण यह है कि जब अल्लाह यह सवाल करेगा तो हश्र के पूरे मैदान में एक सन्नाटा छा जाएगा, काफ़िरों और मुशरिकों की ज़बानें बन्द हो जाएँगी। उनके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर न होगा। इसलिए वे बिल्कुल चुप्पी साध लेंगे और ज्ञानवानों के बीच आपस में ये बातें होंगी।
ٱلَّذِينَ تَتَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡۖ فَأَلۡقَوُاْ ٱلسَّلَمَ مَا كُنَّا نَعۡمَلُ مِن سُوٓءِۭۚ بَلَىٰٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 27
(28) हाँ24, उन्हीं इनकार करनेवालों के लिए जो अपने उपर ज़ुल्म करते हुए जब फ़रिश्तों के हाथों गिरफ़्तार होते हैं25 तो (उदंडता छोड़कर) तुरन्त डगें डाल देते हैं और कहते हैं, "हम तो कोई क़ुसूर नहीं कर रहे थे।" फ़रिश्ते उत्तर देते हैं, “कर कैसे नहीं रहे थे ! अल्लाह तुम्हारे करतूतों को ख़ूब जानता है ।
24. यह वाक्य 'ज्ञानवानों की बातों में वृद्धि करते हुए अल्लाह स्वयं व्याख्या के रूप में कह रहा है। यह 'ज्ञानवानों का कथन नहीं है।
25. अर्थात् जब मौत के समय फ़रिश्ते उनकी रूहें उनके देह से निकालकर अपने कब्जे में ले लेते हैं।
فَٱدۡخُلُوٓاْ أَبۡوَٰبَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ فَلَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 28
(29) अब जाओ, जहन्नम के दरवाज़ों में घुस जाओ, वहीं तुम्हें सदैव रहना है।"26 बस सच्चाई तो यह है कि बहुत ही बुरा ठिकाना है अहंकारियों के लिए।
26. यह आयत और इसके बादवाली आयत, जिसमें रूह के क़ब्ज़ किए जाने के बाद परेहज़गारों और फ़रिश्तों की बातचीत का उल्लेख है, क़ुरआन मजीद की उन बहुत-सी आयतों में से ऐक है जो स्पष्ट रूप से क़ब्र के अज़ाब व सवाब का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। हदीस में 'कब्र' का शब्द आलमे बरज़ख़' के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है और इससे तात्पर्य वह दुनिया है जिसमें मौत की आखिरी हिचकी से लेकर मौत के बाद उठाए जाने के पहले झटके तक इंसानी रूहें रहेंगी। हदीस के इंकारियों को इसपर आग्रह है कि यह स्थिति बिलकुल शून्य की स्थिति है। जिसमें कोई अनुभूति और चेतना न होगी और किसी प्रकार का अज़ाब या सवाब न होगा। लेकिन यहाँ देखिए कि कुफ्फार की रूहें जब क़ब्ज़ की जाती हैं तो वह मौत की सीमा के पार का हाल बिलकुल अपनी आशाओं के विपरीत पाकर स्तब्ध हो जाती हैं और तुरन्त सलाम ठोंककर फ़रिश्तों को विश्वास दिलाने की कोशिश करती हैं कि हम कोई बुरा काम नहीं कर रहे थे। उत्तर में फ़रिश्ते उनको डॉट बताते हैं और जहन्नम में डाले जाने की अग्रिम सूचना देते हैं। दूसरी ओर अल्लाह से डर रखनेवालों की रूहें जब कब्ज की जाती हैं तो फ़रिश्ते उनको सलाम पेश करते हैं और जन्नती होने की पेशगी मुबारकबाद देते हैं। क्या बरज़ख़ की ज़िन्दगी की अनुभूति, चेतना, अज़ाब और सवाब का इससे अधिक स्पष्ट प्रमाण चाहिए? इसी से मिलता-जुलता विषय सूरा-4 (निसा), आयत 97 में गुज़र चुका है जहाँ हिजरत न करनेवाले मुसलमानों से रूह के क़ब्ज़ किए जाने के बाद फ़रिश्तों से बातचीत का उल्लेख हुआ है। और इन सबसे अधिक स्पष्ट शब्दों में बरज़ख़ के अज़ाब को खोलकर सूरा-40 (मोमिन) आयत 45-46 में बयान किया गया है, जहाँ अल्लाह फ़िरऔन और फ़िरऔनियों के बारे में फ़रमाता है कि “एक कठोर अज़ाब उनको घेरे हुए है, अर्थात् सुबह व शाम वे आग के सामने पेश किए जाते हैं, फिर जब क़ियामत की घड़ी आ जाएगी तो आदेश दिया जाएगा कि फ़िरऔनियों को कठोर-से-कठोर अज़ाब में दाख़िल करो।" सच तो यह है कि क़ुरआन और हदीस, दोनों से मौत और क़ियामत के बीच की हालत का एक ही चित्र सामने आता है, और वह यह है कि मौत केवल शरीर और आत्मा के अलग होने का नाम है, न कि बिलकुल अस्तित्त्वहीन हो जाने का। शरीर से अलग हो जाने के बाद आत्मा समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि उस पूरे व्यक्तित्व के साथ जीवित रहती है जो दुनिया में ज़िन्दगी के अनुभवों और मानसिक और नैतिक अर्जनों से बना था। इस स्थिति में रूह की चेतना, अनुभूति और निरीक्षण और अनुभवों की स्थिति सपनों से मिलती-जुलती होती है। एक अपराधी रूह से फ़रिश्तों को पूछताछ और फिर उसका अज़ाब और पीड़ा में पड़ जाना और दोज़ख़ के सामने पेश किया जाना, सब कुछ उस स्थिति से मिलता-जुलता है जो एक हत्या के अपराधी पर फाँसी की तारीख़ से एक दिन पहले एक डरावने सपने के रूप में गुज़रती होगी। इसी तरह एक पवित्र रूह का स्वागत और फिर उसका जन्नत को शुभ-सूचना सुनना और उसका जन्नत की हवाओं और ख़ुशबुओं से आनंदित होना, यह सब भी उस कर्मचारी के सपने से मिलता-जुलता होगा जो अच्छी कारगुज़ारी के बाद सरकारी बुलावे पर हेड क्वार्टर में हाज़िर हुआ हो और मुलाकात के वादे को तारीख़ से एक दिन पहले भावी इनामों की उम्मीदों से भरपूर एक सुहावना सपना देख रहा हो। यह सपना एक साथ दूसरे सूर के फूँके जाते हो बिखर जाएगा और यकायक हश्र के मैदान में अपने आपको शरीर व आत्मा के साथ ज़िन्दा पाकर अपराधी चकित होकर कहेंगे कि “अरे, यह कौन हमें हमारे शयनकक्षों से उठा लाया?" मगर ईमानवाले पूरे इत्मीनान से कहेंगे कि "यह वही चीज़ है जिसका रहमान ने वादा किया था, और रसूलों का बयान सच्चा था।" अपराधी तत्काल ऐसा महसूस करेंगे कि वे अपने सोने की जगह में (जहाँ मौत के बिस्तर पर उन्होंने दुनिया में जान दी थी) शायद कोई एक घंटा-भर सोए होंगे और अब अचानक इस घटना से आँख खुलते ही कहीं भागे चले जा रहे हैं। मगर ईमानवाले दिल के पूरे जमाव के तुम इस चीज़ को जानते न थे।"
۞وَقِيلَ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ مَاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡۚ قَالُواْ خَيۡرٗاۗ لِّلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٞۚ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞۚ وَلَنِعۡمَ دَارُ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 29
(30) दूसरी ओर जब अल्लाह का डर रखनेवालों से पूछा जाता है कि यह क्या चीज़ है जो तुम्हारे रब की ओर से उतरी है? तो वे उत्तर देते हैं कि "बेहतरीन चीज़ उतरी है।27 इस तरह के सत्कर्मियों के लिए इस दुनिया में भी भलाई है और आख़िरत का घर तो अवश्य ही उनके हक़ में बेहतर है। बड़ा अच्छा घर है परहेज़गारों का,
27. अर्थात् मक्के से बाहर के लोग जब अल्लाह का डर रखनेवाले और सच्चे लोगों से नबी (सल्ल०) और आपकी लाई हुई शिक्षा के बारे में प्रश्न करते हैं तो उनका उत्तर झूठे और बेईमान विरोधियों के उत्तर से बिलकुल अलग होता है। वे झूठा प्रोपेगंडा नहीं करते, वे जनता को बहकाने और भ्रमित करने की कोशिश नहीं करते । वे हुजूर (सल्ल०) की और आपकी लाई हुई शिक्षा की प्रशंसा करते हैं और लोगों को सही स्थिति से अवगत कराते हैं।
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ لَهُمۡ فِيهَا مَا يَشَآءُونَۚ كَذَٰلِكَ يَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 30
(31) हमेशा ठहरने की जन्नतें जिनमें वे दाख़िल होंगे, नीचे नहरें बह रही होगी और सब कुछ वहाँ ठीक उनकी इच्छा के अनुसार होगा।28 यह बदला देता है अल्लाह परहेज़गारों को,
28. यह है जन्नत का सही परिचय । वहाँ इंसान जो कुछ चाहेगा, वही उसे मिलेगा और कोई चीज़ उसकी मरज़ी और पसन्द के विरुद्ध न होगी। दुनिया में किसी धनवान, किसी अमीर-कबीर, किसी बड़े से बड़े बादशाह को भी यह नेमत कभी मयस्सर नहीं आई है,न यहाँ उसके पाने की कोई संभावना है। मगर जन्नत के हर निवासी को राहत और ख़ुशी को यह पराकाष्ठा प्राप्त होगी कि उसकी ज़िन्दगी में हर समय हर ओर सब कुछ उसकी इच्छा और पसन्द के बिल्कुल अनुसार होगा। उसका हर अरमान निकलेगा, उसकी हर आरज़ू पूरी होगी, उसकी हर चाहत व्यवहार में आकर रहेगी।
ٱلَّذِينَ تَتَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ طَيِّبِينَ يَقُولُونَ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمُ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 31
(32) उन परहेज़गारों को जिनकी रूहें पवित्रता की दशा में जब फ़रिश्ते निकालते हैं तो कहते हैं, "सलाम हो तुमपर, जाओ जन्नत में अपने आमाल (कर्मों) के बदले।"
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ أَمۡرُ رَبِّكَۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ وَمَا ظَلَمَهُمُ ٱللَّهُ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 32
(33) ऐ नबी, अब जो ये लोग इन्तिज़ार कर रहे हैं तो इसके सिवा अब और क्या बाक़ी रह गया है कि फरिश्ते ही आ पहुँचें, या तेरे रब का फ़ैसला लागू हो जाए?29 इसी तरह की ढिठाई इनसे पहले बहुत से लोग कर चुके हैं। फिर जो कुछ उनके साथ हुआ वह उनपर अल्लाह का जुल्म न था बल्कि उनका अपना जुल्म था जो उन्होंने खुद अपने ऊपर किया।
29. ये कुछ बातें उपदेश और चेतावनी के रूप में कही जा रही हैं। अर्थ यह है कि जहाँ तक समझाने का सम्बन्ध था, हमने एक-एक सच्चाई पूरी तरह खोलकर समझा दी। दलीलों से उसका प्रमाण दे दिया। पूरी सृष्टि-व्यवस्था से उसकी गवाहियाँ प्रस्तुत कर दीं। किसी समझदार आदमी के लिए शिर्क पर जमे रहने को कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं छोड़ी। अब ये लोग एक सीधी-सादी बात को मान लेने में क्यों संकोच कर रहे हैं? क्या इसका इन्तिज़ार कर रहे हैं कि मौत का फ़रिश्ता सामने आ खड़ा हो तो ज़िन्दगी के अन्तिम क्षणों में मानेंगे? या अल्लाह का अज़ाब सिर पर आ जाए तो उसकी पहली चोट खा लेने के बाद मानेंगे?
فَأَصَابَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا عَمِلُواْ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 33
(34) उनकी करतूतों की खराबियाँ आख़िरकार उनके सिर आ लगी और वही चीज़ उनपर छाकर रही जिसकी वे हँसी उड़ाया करते थे।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ لَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا عَبَدۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖ نَّحۡنُ وَلَآ ءَابَآؤُنَا وَلَا حَرَّمۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ فَهَلۡ عَلَى ٱلرُّسُلِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 34
(35) ये मुशरिक (बहुदेववादी) कहते हैं, "अगर अल्लाह चाहता तो न हम और न हमारे बाप-दादा उसके सिवा किसी और की बन्दगी करते और न उसके आदेश के बिना किसी चीज़ को हराम (अवैध) ठहराते।”30 ऐसे ही बहाने इनसे पहले के लोग भी बनाते31 रहे हैं। तो क्या रसूलों पर साफ़-साफ़ बात पहुँचा देने के सिवा और भी कोई ज़िम्मेदारी है ?
30. मुशरिकों के इस दुराग्रह को सूरा-6 (अनआम), आयत 148-149 में भी नक़ल करके उसका उत्तर दिया गया है। वे जगहें और उनकी टिप्पणियाँ अगर दृष्टि में रहें तो समझने में अधिक आसानी होगी। (देखिए सूरा-6 अनआम,टिप्पणी 124-126)
31. अर्थात् यह कोई नई बात नहीं है कि आज तुम लोग अल्लाह की इच्छा को अपनी पथ-भ्रष्टता और दुष्कर्म के लिए दलीलें बना रहे हो । यह तो बड़ा पुराना तर्क है जिसे सदा से बिगड़े हुए लोग अपनी अन्तरात्मा को धोखा देने और उपदेश देनेवालों का मुँह बन्द करने के लिए प्रयुक्त करते रहे हैं। यह मुशरिकों के दुराग्रह का पहला उत्तर है। इस उत्तर का पूरा स्वाद पाने के लिए यह बात मन में रहना अनिवार्य है कि अभी कुछ पंक्तियों में पहले मुशरिकों के उस प्रोपेगंडे का उल्लेख बीत चुका है, जो वे क़ुरआन के विरुद्ध यह कह-कहकर किया करते थे कि "अजी, वे तो पुराने समयों की घिसी-पिटी कहानियाँ हैं ।” मानो उनको नबी पर आपत्ति यह थी कि यह साहब नई बात कौन-सी लाए हैं, वही पुरानी बातें दोहरा रहे हैं जो नूह के तूफ़ान के समय से लेकर आज तक हज़ारों बार कही जा चुकी हैं। इसके उत्तर में यहाँ उनके तर्क (जिसे वे बड़े ज़ोर का तर्क समझते हुए प्रस्तुत करते थे) का उल्लेख करने के बाद यह सूक्ष्म संकेत किया गया है कि लोगो! आप ही कौन से मॉडर्न हैं। यह शानदार तर्क जो आप लाए हैं इसमें निश्चय ही कोई मौलिकता नहीं है। वही पिटी-पिटाई बातें हैं जो हज़ारों वर्ष से पथ भ्रष्ट लोग कहते चले आ रहे हैं, आपने भी उसी को दोहरा दिया है।
وَلَقَدۡ بَعَثۡنَا فِي كُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولًا أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱجۡتَنِبُواْ ٱلطَّٰغُوتَۖ فَمِنۡهُم مَّنۡ هَدَى ٱللَّهُ وَمِنۡهُم مَّنۡ حَقَّتۡ عَلَيۡهِ ٱلضَّلَٰلَةُۚ فَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 35
(36) हमने हर उम्मत (समुदाय) में एक रसूल भेज दिया और उसके ज़रिये से सबको सूचित कर दिया कि “अल्लाह की बन्दगी करो और तागत (बढ़े हुए अवज्ञाकारी) की बन्दगी से बचो।"32 इसके बाद इनमें से किसी को अल्लाह ने मार्ग दिखाया और किसी पर पथभ्रष्टता छा गई।33 फिर तनिक धरती में चल-फिरकर देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हो चुका है34
32. अर्थात् तुम अपने शिर्क और मनमाने तौर पर हराम व हलाल बनाने के अपने पक्ष में हमारी इच्छा को कैसे वैधता का प्रमाण बना सकते हो, जबकि हमने हर उम्मत (समुदाय) में अपने रसूले भेजे और उनके द्वारा लोगों को साफ़-साफ़ बता दिया कि तुम्हारा काम सिर्फ हमारी बन्दगी करना है. तागुत' की बन्दगी के लिए तुम पैदा नहीं किए गए हो। इस तरह जबकि हम पहले ही सर्वथा उचित माध्यमों से तुम्हें बता चुके कि तुम्हारी इन पथ-भ्रष्टताओं को हमारी स्वीकृति (रिजा) प्राप्ति नहीं है, तो इसके बाद हमारी इच्छा (मशीयत) की आड़ लेकर तुम्हारा अपनी पथ-भष्टताओं को सही ठहराना स्पष्ट रूप से यही अर्थ देता है कि तुम चाहते थे कि हम समझानेवाले रसूल भेजने के बजाय, ऐसे रसूल भेजते जो हाथ पकड़कर तुम्हें ग़लत रास्तों से खींच लेते और ज़बरदस्ती तुम्हें सीधे रास्ते पर चलाते । (इच्छा और स्वीकृति के अंतर को समझने के लिए देखिए सूरा-6, अनआम, टिप्पणी ४), सूरा-39, जुमर, टिप्पणी 20)
33. अर्थात् हर पैग़म्बर के आने के बाद उसकी क़ौम दो हिस्सों में बँट गई। कुछ ने उसकी बात मानी (और यह मान लेना अल्लाह की कृपा से था) और कुछ अपनी पथ-प्रष्टता पर जमे रहे। (और अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6, अनआम, टिप्पणी 28)
إِن تَحۡرِصۡ عَلَىٰ هُدَىٰهُمۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي مَن يُضِلُّۖ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 36
(37) ऐ नबी ! तुम चाहे इनको रास्ता दिखाने के लिए कितने ही लालायित हो, मगर अल्लाह जिसको भटका देता है फिर उसे रास्ता नहीं दिखाया करता और इस तरह के लोगों की सहायता कोई नहीं कर सकता।
وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَا يَبۡعَثُ ٱللَّهُ مَن يَمُوتُۚ بَلَىٰ وَعۡدًا عَلَيۡهِ حَقّٗا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 37
(38) ये लोग अल्लाह के नाम से कड़ी कड़ी कसमें खाकर कहते हैं कि "अल्लाह किसी मरनेवाले को फिर से जिन्दा करके न उठाएगा"-उठाएगा क्यों नहीं? यह तो एक वादा है जिसे पूरा करना उसने अपने लिए अनिवार्य कर लिया है, मगर अधिकतर लोग जानते नहीं हैं।
لِيُبَيِّنَ لَهُمُ ٱلَّذِي يَخۡتَلِفُونَ فِيهِ وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰذِبِينَ ۝ 38
(39) और ऐसा होना इसलिए जरूरी है कि अल्लाह इनके सामने उस वास्तविकता को खोल दे जिसके बारे में ये मतभेद कर रहे हैं और सत्य के इंकारियों को मालूम हो जाए कि वे झूठे थे।35
35. यह मरने के बाद की ज़िन्दगी और हश्र के क़ायम होने की बौद्धिक और नैतिक आवश्यकता है। दुनिया में जब से इंसान पैदा हुआ है, वास्तविकता के बारे में अनगिनत मतभेद प्रकट हुए हैं। इन्हीं मतभेदों के आधार पर नस्लों और क़ौमों और परिवारों में फूट पड़ी है। इन्हीं के आधार पर विभिन्न दृष्टिकोण रखनेवालों ने अपने अलग धर्म, अलग समाज, अलग संस्कृति बनाए या इख्तियार किए हैं। एक-एक दृष्टिकोण के समर्थन और वकालत में हजारों-लाखों आदमियों ने अलग-अलग समयों में जान, माल, आबरू.हर चीज़ की बाज़ी लगा दी है और अनगिनत अवसरों पर इन अलग-अलग दृष्टिकोणों के समर्थकों में ऐसी प्रबल खींच-तान हुई है कि एक ने दूसरे को बिलकुल मिटा देने का यत्न किया है और मिटनेवाले ने मिटते-मिटते भी अपनी सोच नहीं छोड़ी है। बुद्धि चाहती है कि ऐसे महत्त्वपूर्ण और गंभीर मतभेदों के बारे में कभी तो सही और निश्चित रूप से मालूम हो कि वास्तव में उनके भीतर सत्य क्या था और असत्य क्या? सीधे रास्ते पर कौन था और टेढ़े रास्ते पर कौन ? इस दुनिया में तो कोई संभावना इस परदे के उठने को दिखाई नहीं पड़ती। इस दुनिया की व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि इसमें वास्तविकता पर से परदा उठ नहीं सकता, इसलिए अवश्य ही बुद्धि के इस तकाज़े को पूरा करने के लिए एक-दूसरी ही दुनिया चाहिए। और यह केवल बुद्धि का तकाज़ा ही नहीं है, बल्कि नैतिकता का तकाज़ा भी है, क्योंकि इन मतभेदों और इन संघर्षों में बहुत-से फ़रीक़ों ने हिस्सा लिया है। किसी ने अत्याचार किया है और किसी ने सहा है, किसी ने क़ुरबानियाँ की हैं और किसी ने इन कुरवानियों को वुसूल किया है। हर एक ने अपने दृष्टिकोण के अनुसार एक नैतिक दर्शन और एक नैतिक रीति अपनाई है और इससे अरबों और खरबों इंसानों की जिन्दगियाँ बुरे या भले रूप में प्रभावित हुई हैं। आख़िर कोई समय तो होना चाहिए जबकि उन सबका नैतिक परिणाम इनाम या सज़ा के रूप में सामने आए। इस दुनिया की व्यवस्था अगर सही और पूर्ण नैतिक परिणामों को सामने नहीं ला सकती तो एक दूसरी दुनिया होनी चाहिए जहाँ ये परिणाम सामने आ सकें।
إِنَّمَا قَوۡلُنَا لِشَيۡءٍ إِذَآ أَرَدۡنَٰهُ أَن نَّقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 39
(40) (रही इसकी संभावना तो) हमें किसी चीज़ को अस्तित्व में लाने के लिए इससे अधिक कुछ नहीं करना होता कि उसे आदेश दें कि 'हो जा' और बस वह हो जाती है।36
36. अर्थात् लोग समझते हैं कि मरने के बाद इंसान को दोबारा पैदा करना और तमाम अगले-पिछले इंसानों को एक ही समय में जिला उठाना कोई बड़ा ही कठिन काम है, हालाँकि अल्लाह की शक्ति व सामर्थ्य का यह हाल है कि वे अपने किसी इरादे को पूरा करने के लिए किसी सामग्री, किसी कारण, किसी माध्यम और परिस्थितियों की किसी अनुकूलता का मोहताज नहीं है। उसका हर इरादा केवल उसके आदेश से पूरा होता है। उसका आदेश ही संसाधनों को अस्तित्त्व में लाता है। उसके आदेश ही से साधन पैदा हो जाते हैं। उसका आदेश ही उसकी इच्छा के बिल्कुल अनुसार परिस्थितियों को जन्म देते हैं। इस समय जो दुनिया मौजूद है, यह भी केवल आदेश से अस्तित्व में आई है और दूसरी दुनिया भी आनन-फानन केवल एक आदेश से प्रकट हो सकती है।
وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ فِي ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا ظُلِمُواْ لَنُبَوِّئَنَّهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗۖ وَلَأَجۡرُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 40
(41) जो लोग जुल्म सहने के बाद अल्लाह के लिए हिजरत कर गए हैं, उन्हें हम दुनिया ही में अच्छा ठिकाना देंगे और आख़िरत का बदला तो बहुत बड़ा है।37 काश, जान लें
37. यह संकेत है उन मुहाजिरों की ओर जो शत्रुओं के असहय अत्याचारों से तंग आकर मक्का से हबशा को ओर हिजरत कर गए थे। आखिरत के इंकारियों की बात का उत्तर देने के बाद यकायक हबशा के मुहाजिरों का उल्लेख कर देने में एक सूक्ष्म बात छिपी हुई है। इससे अभिप्रेत मक्का के शत्रुओं को सचेत करना है कि ज़ालिमो । इन अत्याचारों के करने के बाद अब तुम यह समझते हो कि कभी तुमसे पूछताछ करने और मज़लूमों की फ़रियाद सुनने का समय ही न आएगा।
ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 41
(42) वे उत्पीड़ित जिन्होंने धैर्य से काम लिया है और जो अपने रब के भरोसे पर काम कर रहे हैं (कि कैसा अच्छा अंजाम उनका इंतिज़ार कर रहा है)।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 42
(43) ऐ नबी ! हमने तुमसे पहले भी जब कभी रसूल भेजे हैं, आदमी ही भेजे हैं जिनकी ओर हम अपने सन्देश वह्य किया करते थे।38 ज़िक्रवालों39 से पूछ लो अगर तुम लोग स्वयं नहीं जानते ।
38. यहाँ मक्का के मुशरिकों की एक आपत्ति को नकल किए बिना उसका उत्तर दिया जा रहा है। आपत्ति वही है जो पहले भी तमाम नबियों पर हो चुकी थी और नबी (सल्ल०) के समय के लोगों ने भी आप पर बार बार की थी कि तुम हमारी ही तरह के इंसान हो, फिर हम कैसे मान लें कि अल्लाह ने तुम्हें पैग़म्बर बनाकर भेजा है।
39. अर्थात् अहले किताब के उलमा और वे दूसरे लोग जो चाहे सिक्का बन्द उलमा न हों मगर बहरहाल आसमानी किताबों की शिक्षा के जानकार और पिछले नबियों के किस्सों को जानते हों।
بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلزُّبُرِۗ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلذِّكۡرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيۡهِمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 43
(44) पिछले रसूलों को भी हमने रौशन निशानियाँ और किताबें देकर भेजा था और अब यह 'ज़िक्र' तुमपर उतारा है, ताकि तुम लोगों के सामने उस शिक्षा की व्याख्या और स्पष्टीकरण करते जाओ जो उनके लिए उतारी गई है।40 और ताकि लोग (स्वयं भी) सोच-विचार करें।
40. व्याख्या और स्पष्टीकरण केवल मुख ही से नहीं, बल्कि अपने कर्म से भी, और अपनी रहनुमाई में एक पूरे मुस्लिम समाज को गठित करके भी और अल्लाह के ज़िक्र की मंशा के अनुसार उसकी व्यवस्था को चलाकर भी। इस तरह अल्लाह ने वह उद्देश्य बयान कर दिया है जिसका तकाज़ा यह था अनिवार्य रूप से एक इंसान ही को पैग़म्बर बनाकर भेजा जाए। 'ज़िक्र' फ़रिश्तों के द्वारा भी भेजा जा सकता था, सीधे-सीधे छापकर एक-एक इंसान तक भी पहुंचाया जा सकता था। मगर केवल ज़िक्र भेज देने से वह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता था जिसके लिए अल्लाह की तत्त्वदर्शिता, कृपा-दृष्टि और उसका पालनहार होना, यह सब चीजें उसके उतरने का तक़ाज़ा करती थीं। उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ज़रूरी था कि इस 'ज़िक्र' को एक योग्यतम इंसान लेकर आए। वह उसको थोड़ा-थोड़ा करके लोगों के सामने पेश करे। जिनकी समझ में कोई बात न आए, उसका मतलब समझा जाए। जिन्हें कुछ सन्देह हो उनका सन्देह दूर करे, जिन्हें कोई आपत्ति हो उनकी आपत्ति का उत्तर दे, जो न मानें और विरोध करें, उनके मुक़ाबले में वे उस तरह का रवैया बरतकर दिखाए, जो इस 'ज़िक्र वालों की शान के अनुसार है । जो मान लें उन्हें ज़िन्दगी के हर हिस्से और हर पहलू के बारे में आदेश दें, उनके सामने स्वयं अपनी ज़िन्दगी को नमूना बनाकर पेश करे और उनको व्यक्तिगत और सामूहिक प्रशिक्षण देकर सारी दुनिया के सामने एक ऐसी सोसाइटी को उदाहरणस्वरूप रख दे जिसकी पूरी सामूहिक व्यवस्था 'ज़िक्र' की मंशा की व्याख्या हो। यह आयत जिस तरह नुबूवत के उन इंकारियों की युक्ति के लिए पर्याप्त थी जो खुदा का ज़िक्र इंसान के माध्यम से आने को नहीं मानते थे, उसी तरह आज ये हदीस के उन इंकारियों की युक्ति के लिए भी पर्याप्त हैं जो नबी की व्याख्या और स्पष्टीकरण के बिना केवल 'ज़िक्र' को ले लेना चाहते हैं। वे चाहे इस बात को मानते हों कि नबी ने व्याख्या और स्पष्टीकरण कुछ भी नहीं किया था केवल ज़िक्र पेश कर दिया था, या इसे मानते हों कि मानने के लायक केवल ज़िक्र है न कि नबी की व्याख्या या इसे मानते हों कि अब हमारे लिए केवल ज़िक्र काफ़ी है, नबी की व्याख्या की कोई ज़रूरत नहीं, या इस बात को मानते हों कि अब केवल ज़िक ही विश्वश्नीय हालत में बाकी रह गया है, नबी की व्याख्या या तो बाक़ी ही नहीं रही या बाक़ी है भी तो विश्वश्नीय नहीं है। तात्पर्य यह कि इन चारों बातों में से जिस बात को भी वे मानते हों, उनकी नीति बहरहाल क़ुरआन की इस आयत से टकराती है- अगर वे पहली बात को मानते हैं तो इसका अर्थ यह है कि नबी ने उस मंशा ही को समाप्त कर दिया जिसके लिए जिन को फ़रिश्तों के द्वारा भेजने या सीधे-सीधे लोगों तक पहुँचा देने के बजाय उसे पहुँचा देने का माध्यम बनाया गया था और अगर वे दूसरी या तीसरी बात को मानते हैं तो इसका अर्थ यह है कि अल्लाह ने (अल्लाह की पनाह) यह व्यर्थ काम किया कि अपना 'ज़िक' एक नबी के द्वारा भेजा, क्योंकि नबी के आने का मूलोद्देश्य भी वही है जो नबी के बिना केवल ज़िक्र के छपी शक्ल में उतारे जाने का हो सकता था। और अगर वे चौथी बात मानते हैं तो वास्तव में यह क़ुरआन और मुहम्मदी नुबूवत, दोनों के निरस्त हो जाने का एलान है जिसके बाद अगर कोई सर्वथा उचित मसलक बाकी रह जाता है तो वह सिर्फ उन लोगों का मसलक है जो एक नई नुबूवत और नई वह्य को मानते हैं इसलिए कि इस आयत में अल्लाह स्वयं कुरआन मजीद के उतारे जाने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए नबी की व्याख्या को अनिवार्य ठहरा रहा है और नबी की ज़रूरत ही इस तरह सिद्ध कर रहा है कि वह जिक्र की मंशा को स्पष्ट करे। अब अगर हदीस के इंकारियों की यह बात सही है कि नबी की व्याख्या और स्पष्टीकरण दुनिया में बाकी नहीं रही है तो इसके दो परिणाम खुले हुए हैं- पहला परिणाम यह है कि पैरवी के नमूने की हैसियत से नुबूवते मुहम्मदी समाप्त हो गई और हमारा ताल्लुक मुहम्मद (सल्ल०) के साथ सिर्फ उस तरह का रह गया जैसा हूद और सालेह और शुऐब (अलै०) के साथ है कि हम उनकी पुष्टि करते हैं और उनपर ईमान लाते हैं, मगर उनका कोई आदर्श हमारे पास नहीं है जिसका हम पालन करें। यह चीज़ नई नुबूवत की ज़रूरत आपसे आप सिद्ध कर देती है, मात्र एक मूर्ख ही इसके बाद नुबूवत के अंत पर आग्रह कर सकता है। दूसरा परिणाम यह है कि अकेला कुरआन नबी की व्याख्या और स्पष्टीकरण के बिना स्वयं अपने भेजनेवाले के कथन की दृष्टि से रास्ता पाने के लिए अपर्याप्त है, इसलिए कुरआन के माननेवाले, चाहे कितने ही ज़ोर से चीख-चीखकर उसे अपने आप पर्याप्त कह दें, सुस्त दावेदारी के समर्थन में चुस्त गवाहों की बात कदापि नहीं चल सकती और एक नई किताब के उतरने की ज़रूरत आप से आप स्वयं क़ुरआन के अनुसार साबित हो जाती है। अल्लाह उन्हें नष्ट करे। इस तरह ये लोग वास्तव में हदीस के इंकार के द्वारा दीन की जड़ खोद रहे हैं।
أَفَأَمِنَ ٱلَّذِينَ مَكَرُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ أَن يَخۡسِفَ ٱللَّهُ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضَ أَوۡ يَأۡتِيَهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 44
(45) फिर क्या वे लोग जो (पैग़म्बर की दावत के विरोध में) बुरी से बुरी चालें चल रहे हैं, इस बात से बिलकुल ही निर्भय हो गए हैं कि अल्लाह उन्हें जमीन में धंसा दे या ऐसे हिस्से से उनपर अज़ाब ले आए जिधर से उसके आने की वे कल्पना तक न कर सकें,
أَوۡ يَأۡخُذَهُمۡ فِي تَقَلُّبِهِمۡ فَمَا هُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 45
(46-47) या अचानक चलते-फिरते उनको पकड़ ले या ऐसी हालत में उनको पकड़े जबकि उन्हें स्वयं आनेवाली विपत्ति का खटका लगा हुआ हो और वे उससे बचने की चिन्ता में चौकन्ने हो? वह जो कुछ भी करना चाहे, ये लोग उसको विवश करने की शक्ति नहीं रखते। सच तो यह है कि तुम्हारा रब बड़ा ही ना स्वभाववाला और दयावान है।
أَوۡ يَأۡخُذَهُمۡ عَلَىٰ تَخَوُّفٖ فَإِنَّ رَبَّكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٌ ۝ 46
0
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَىٰ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٖ يَتَفَيَّؤُاْ ظِلَٰلُهُۥ عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَٱلشَّمَآئِلِ سُجَّدٗا لِّلَّهِ وَهُمۡ دَٰخِرُونَ ۝ 47
(48) और क्या ये लोग अल्लाह की पैदा की हुई किसी चीज़ को भी नहीं देखते कि उसका साया किस तरह अल्लाह के सामने सजदा करते हुए दाएँ और बाएँ गिरता है ?41 सब-के-सब इस तरह विनीत भाव प्रकट कर रहे हैं।
41. अर्थात् तमाम देहधारी वस्तुओं के साए इस बात की निशानी हैं कि पहाड़ हों या पेड़, जानवर हों या इंसान, सब के सब एक सर्वव्यापी क़ानून की पकड़ में जकड़े हुए हैं, सबके माथे पर बन्दगी का निशान लगा हुआ है। ख़ुदाई (ईश्वरत्व) में किसी का कोई छोटा-सा भाग भी नहीं है । साया पड़ना एक चीज़ के भौतिक होने की खुली निशानी है और भौतिक होना बन्दा और पैदा किया हुआ होने का खुला प्रमाण है।
وَلِلَّهِۤ يَسۡجُدُۤ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ مِن دَآبَّةٖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 48
(49) जमीन और आसमानों में जितने जीवधारी हैं और जितने फरिश्ते, सब अल्लाह के आगे सजदा करते हैं ।42 वे कदापि उदंडता नहीं करते
42. अर्थात् जमीन ही की नहीं, आसमानों को भी वे तमाम हस्तियाँ जिनको पुराने समय से लेकर आजतक लोग देवी, देवता और अल्लाह के रिश्तेदार ठहराते आए हैं वास्तव में दास और आधीन हैं। इनमें से भी किसी का ईश्वरत्त्व में कोई भाग नहीं है। साथ ही इस आयत से एक संकेत इस ओर भी निकल आया कि जीवधारी केवल पृथ्वी ही में नहीं हैं, बल्कि ऊपरी जगत के ग्रहों में भी हैं।
يَخَافُونَ رَبَّهُم مِّن فَوۡقِهِمۡ وَيَفۡعَلُونَ مَا يُؤۡمَرُونَ۩ ۝ 49
(50) अपने रब से जो उनके ऊपर है, डरते हैं और जो कुछ आदेश दिया जाता है उसी के अनुसार काम करते हैं।
۞وَقَالَ ٱللَّهُ لَا تَتَّخِذُوٓاْ إِلَٰهَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِۖ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَإِيَّٰيَ فَٱرۡهَبُونِ ۝ 50
(51) अल्लाह का आदेश है कि "दो ख़ुदा न बना लो43, ख़ुदा तो बस एक ही है, इसलिए तुम मुझो से डरो।
43. दो ख़ुदाओं के निषेध में दो से अधिक खुदाओं का निषेध आप से आप शामिल है।
وَلَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَهُ ٱلدِّينُ وَاصِبًاۚ أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَتَّقُونَ ۝ 51
(52) उसी का है वह सब कुछ जो आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, और विशुद्ध रूप से उसी का धर्म (सम्पूर्ण जगत में) चल रहा है।44 फिर क्या अल्लाह को छोड़कर तुम किसी और का डर रखोगे?45
44. दूसरे शब्दों में उसी के आज्ञापालन पर ज़िन्दगी के पूरे कारखाने की व्यवस्था स्थापित है।
45. दूसरे शब्दों में क्या अल्लाह के बजाय किसी और का डर और किसी और की नाराजी से बचने की भावना तुम्हारी जीवन-व्यवस्था का आधार बनेगा?
وَمَا بِكُم مِّن نِّعۡمَةٖ فَمِنَ ٱللَّهِۖ ثُمَّ إِذَا مَسَّكُمُ ٱلضُّرُّ فَإِلَيۡهِ تَجۡـَٔرُونَ ۝ 52
(53) तुम्हें जो नेमत भी प्राप्त है, अल्लाह ही की ओर से है। फिर जब कोई कठिन घड़ी तुमपर आती है तो तुम लोग स्वयं अपनी फरियादें लेकर उसी की ओर दौड़ते हो46,
46. अर्थात् यह तौहीद की एक खुली गवाही तुम्हारे अपने भीतर मौजूद है। बड़ी विपदा के समय जब तमाम मनगढ़त विचारों का जंग हट जाता है तो थोड़ी देर के लिए तुम्हारी मूल प्रकृति उभर आती है जो अल्लाह के सिवा किसी इलाह (पूज्य), किसी रब और किसी साधिकारिक स्वामी को नहीं जानती । (अधिक व्याख्या के लिए देखिए सूरा-6 अनआम, टिप्पणी 29-41)
ثُمَّ إِذَا كَشَفَ ٱلضُّرَّ عَنكُمۡ إِذَا فَرِيقٞ مِّنكُم بِرَبِّهِمۡ يُشۡرِكُونَ ۝ 53
, (54) मगर जब अल्लाह उस समय को टाल देता है तो यकायकी तुममें से एक गिरोह अपने रब के साथ दूसरों को (इस कृपा के प्रति कृतज्ञता दिखाने में) साझीदार बनाने लगता है47,
47. अर्थात् अल्लाह के शुक्रिए के साथ-साथ किसी बुजुर्ग या किसी देवी-देवता के शुक्रिए की भी नियाजें और जननें चढ़ानी शुरू कर देता है और अपनी बात-बात से यह प्रकट करता है कि उसके नज़दीक अल्लाह की इस मेहरबानी में उन हज़रत की मेहरबानी का भी दखल था, बल्कि अल्लाह कदापि मेहरबानी न करता अगर वह हज़रत मेहरबान होकर अल्लाह को मेहरबानी पर तैयार न करते।
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡۚ فَتَمَتَّعُواْ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 54
(55) ताकि अल्लाह के उपकार की कृतघ्नता करे। अच्छा, मज़े कर लो, बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जाएगा।
وَيَجۡعَلُونَ لِمَا لَا يَعۡلَمُونَ نَصِيبٗا مِّمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡۗ تَٱللَّهِ لَتُسۡـَٔلُنَّ عَمَّا كُنتُمۡ تَفۡتَرُونَ ۝ 55
(56) ये लोग, जिनकी वास्तविकता से परिचित नहीं हैं48, उनके हिस्से हमारी दी हुई रोज़ी में से निश्चित करते हैं।49 -ख़ुदा की क़सम ! अवश्य ही तुमसे पूछा जाएगा कि यह झूठ तुमने कैसे गढ़ लिए थे?
48. अर्थात् जिनके बारे में ज्ञान के किसी प्रामाणिक माध्यम से उन्हें यह मालूम नहीं हुआ है कि अल्लाह मियाँ ने उनको सच में अल्लाह का साझी मनोनीत कर रखा है और अपने ईश्वरत्व के कामों में से कुछ काम या अपने साम्राज्य के क्षेत्रों में से कुछ क्षेत्र उनको सौंप रखे हैं।
49. अर्थात् उनकी नज, नियाज़ और भेंट के लिए अपनी आमदनियों और अपनी आराज़ी की पैदावार में से एक निश्चित हिस्सा अलग निकाल रखते हैं।
وَيَجۡعَلُونَ لِلَّهِ ٱلۡبَنَٰتِ سُبۡحَٰنَهُۥ وَلَهُم مَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 56
(57) ये अल्लाह के लिए बेटियाँ ठहराते हैं ,50 पाक है अल्लाह ! और इनके लिए वह जो ये स्वयं चाहे?51
50. अरब मुशरिकों के उपास्यों में देवता कम थे और देवियाँ अधिक थीं, और इन देवियों के बारे में उनका विश्वास यह था कि ये ख़ुदा की बेटियाँ हैं । इसी तरह फ़रिश्तों को भी वे खुदा की बेटियाँ करार देते थे।
51. अर्थात् बेटे।
وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُم بِٱلۡأُنثَىٰ ظَلَّ وَجۡهُهُۥ مُسۡوَدّٗا وَهُوَ كَظِيمٞ ۝ 57
(58) जब इनमें से किसी को बेटी पैदा होने की शुभ-सूचना दी जाती है तो उसके चेहरे पर कलौस छा जाती है और वह बस खून का-सा चूंट पीकर रह जाता है।
يَتَوَٰرَىٰ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ مِن سُوٓءِ مَا بُشِّرَ بِهِۦٓۚ أَيُمۡسِكُهُۥ عَلَىٰ هُونٍ أَمۡ يَدُسُّهُۥ فِي ٱلتُّرَابِۗ أَلَا سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 58
(59) लोगों से छिपता है कि इस बुरी ख़बर के बाद क्या किसी को मुँह दिखाए। सोचता है कि अपमान के साथ बेटी को लिए रहे या मिट्टी में दबा दे?-देखो, कैसे बुरे हुक्म हैं जो ये अल्लाह के बारे में लगाते हैं।52
52. अर्थात् अपने लिए जिस बेटी को ये लोग इतना अधिक अनादर और लज्जा का कारण समझते हैं, उसी को अल्लाह के लिए बेझिझक पसन्द कर लेते हैं, इससे हटकर कि अल्लाह के लिए सन्तान ठहराना अपने आपमें एक प्रबल अज्ञानता और धृष्टता है। अरब मुशरिकों की इस हरकत पर यहाँ इस प्रमुख पहलू से पकड़ इसलिए की गई है कि अल्लाह के बारे में उनके विचारों की तुच्छता स्पष्ट की जाए और यह बताया जाए कि शिर्क भरे विश्वासों ने अल्लाह के मामले में उनको कितना निडर और अशिष्ट बना दिया है और वे कितने चेतना शून्य हो चुके हैं कि इस तरह की बातें करते हुए किसी परेशानी का अनुभव नहीं करते।
لِلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ مَثَلُ ٱلسَّوۡءِۖ وَلِلَّهِ ٱلۡمَثَلُ ٱلۡأَعۡلَىٰۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 59
(60) बुरे गुणों से विभूषित किए जाने योग्य तो हैं वे लोग जो आख़िरत का विश्वास नहीं रखते। रहा अल्लाह, तो उसके लिए सबसे श्रेष्ठ गुण हैं, वहीं तो सब पर प्रभावी और तत्त्वदर्शिता में पूर्ण है।
وَلَوۡ يُؤَاخِذُ ٱللَّهُ ٱلنَّاسَ بِظُلۡمِهِم مَّا تَرَكَ عَلَيۡهَا مِن دَآبَّةٖ وَلَٰكِن يُؤَخِّرُهُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۖ فَإِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ لَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 60
(61) अगर कहीं अल्लाह लोगों को उनकी ज़्यादती पर तुरन्त ही पकड़ लिया करता तो धरती पर किसी जीवधारी को न छोड़ता। लेकिन वह सबको एक निश्चित समय तक मोहलत देता है, फिर जब वह समय आ जाता है तो उससे कोई एक घड़ी भर भी आगे-पीछे नहीं हो सकता।
وَيَجۡعَلُونَ لِلَّهِ مَا يَكۡرَهُونَۚ وَتَصِفُ أَلۡسِنَتُهُمُ ٱلۡكَذِبَ أَنَّ لَهُمُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ لَا جَرَمَ أَنَّ لَهُمُ ٱلنَّارَ وَأَنَّهُم مُّفۡرَطُونَ ۝ 61
(62) आज ये लोग वे चीजें अल्लाह के लिए ठहरा रहे हैं जो स्वयं अपने लिए उन्हें नापसन्द है, और झूठ कहती हैं इनकी ज़बानें कि इनके लिए भला ही भला है। इनके लिए तो एक ही चीज़ है और वह है दोज़ख की आग। अवश्य ही ये सबसे पहले उसमें पहुँचाए जाएँगे।
تَٱللَّهِ لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰٓ أُمَمٖ مِّن قَبۡلِكَ فَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَهُوَ وَلِيُّهُمُ ٱلۡيَوۡمَ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 62
(63) अल्लाह की क़सम ! ऐ नबी ! तुमसे पहले भी बहुत-सी क़ौमों में हम रसूल भेज चुके हैं (और पहले भी यही होता रहा है कि) शैतान ने उनके बुरे करतूत उन्हें सुन्दर बनाकर दिखाए (और रसूलों की बात उन्होंने मानकर न दी)। वही शैतान आज इन लोगों का भी सरपरस्त बना हुआ है और ये दर्दनाक सज़ा के हक़दार बन रहे हैं।
وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّا لِتُبَيِّنَ لَهُمُ ٱلَّذِي ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 63
(64) हमने यह किताब तुमपर इसलिए उतारी है कि तुम उन मतभेदों की सच्चाई इनपर खोल दो जिनमें ये पड़े हुए हैं। यह किताब रहनुमाई और रहमत बनकर उतरी है उन लोगों के लिए जो इसे मान लें।53
53. दूसरे शब्दों में इस किताब के उतरने से इन लोगों को इस बात का बेहतरीन मौका मिला है कि अंधविश्वासों और अंधानुकरण के विचारों के आधार पर जिन अनगिनत भिन्न-भिन्न मस्लकों और मज़हबों (पंथों और धमों) में ये बंटे हुए हैं, उनके बजाय सच्चाई की एक ऐसी मज़बूत बुनियाद पा लें जिसपर ये सब सहमत हो सकें । अब जो लोग इतने मूर्ख हैं कि इस नेमत के आ जाने पर भी अपनी पिछली हालत हो को प्रमुखता दे रहे हैं, वे विनाश और अपमान के सिवा और कोई अंजाम देखनेवाले नहीं हैं। अब तो सीधा रास्ता बही पाएगा और वही बरकतों और रहमतों से मालामाल होगा जो इस किताब को मान लेगा।
وَٱللَّهُ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 64
(65) (तुम हर बरसात में देखते हो कि) अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया और यकायक मुरदा पड़ी हुई ज़मीन में उसकी बदौलत जान डाल दी। निश्चय ही इसमें एक निशानी है सुननेवालों के लिए। 53अ
अर्थात् यह दृश्य हर वर्ष तुम्हारी आँखों के सामने गुज़रता है कि धरती बिलकुल चटयल मैदान पड़ी हुई है, ज़िन्दगी की कोई निशानी मौजूद नहीं, न घास-फूस है, न बेल-बूटे हैं, न फूल-पत्ती और न किसी प्रकार के कीड़े-मकोड़े। इतने में वर्षा का मौसम आ गया और एक-दो छोटे पड़ते ही उसी धरती में से ज़िन्दगी के सोते फूटने लगे। धरती की तहों में दबी हुई अनगिनत जड़ें यकायक जी उठीं और हर एक के अन्दर से वही वनस्पति फिर बरामद हो गई जो पिछली बरसात में पैदा होने के बाद मर चुकी थी। अनगिनत कीड़े-मकोड़े, जिनका नाम व निशान तक गर्मी के ज़माने में बाकी न रहा था, यकायक फिर उसी शान से प्रकट हो गए जैसे पिछली बरसात में देखे गए थे। यह सब कुछ अपनी ज़िन्दगी में तुम बार-बार देखते रहे हो और फिर भी तुम्हें नबी की ज़बान से यह सुनकर आश्चर्य होता है कि अल्लाह तमाम इंसानों को मरने के बाद दोबारा जिन्दा करेगा। इस आश्चर्य का कारण इसके सिवा और क्या है कि तुम्हारा देखना बुद्धिहीन जीवों का सा देखना है। तुम सृष्टि के करिश्मों को तो देखते हो मगर उनके पीछे पैदा करनेवाले की सामर्थ्य और तत्त्वदर्शिता के निशान नहीं देखते । वरना यह संभव न था कि नबी का बयान सुनकर तुम्हारा दिल न पुकार उठता कि सच में ये निशानियाँ उसके बयान का समर्थन कर रही हैं।
وَإِنَّ لَكُمۡ فِي ٱلۡأَنۡعَٰمِ لَعِبۡرَةٗۖ نُّسۡقِيكُم مِّمَّا فِي بُطُونِهِۦ مِنۢ بَيۡنِ فَرۡثٖ وَدَمٖ لَّبَنًا خَالِصٗا سَآئِغٗا لِّلشَّٰرِبِينَ ۝ 65
(66) और तुम्हारे लिए मवेशियों में भी एक शिक्षा मौजूद है। उनके पेट से गोबर और खून के बीच हम एक चीज़ तुम्हें पिलाते हैं अर्थात् शुद्ध दूध54, जो पीनेवालों के लिए अति प्रिय है।
54. 'गोबर और ख़ून के बीच' का अर्थ यह है कि जानवर जो भोजन खाते हैं उससे एक ओर तो खून बनता है और दूसरी ओर मल, मगर इन्हीं जानवरों को मादाओं में उसी भोजन से एक तीसरी चीज़ भी पैदा हो जाती है जो गुण, रंग व गंध, लाभ और उद्देश्य में उन दोनों से बिलकुल भिन्न है। फिर मुख्य रूप से मवेशियों में उस चीज़ की पैदावार इतनी अधिक होती है कि वे अपने बच्चों की जरूरत पूरी करने के बाद इंसान के लिए भी यह बेहतरीन भोजन भारी मात्रा में जुटाते रहते हैं।
وَمِن ثَمَرَٰتِ ٱلنَّخِيلِ وَٱلۡأَعۡنَٰبِ تَتَّخِذُونَ مِنۡهُ سَكَرٗا وَرِزۡقًا حَسَنًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 66
(67) (इसी तरह) खजूर के पेड़ो और अंगूर की बेलों से भी हम एक चीज़ तुम्हें पिलाते हैं। जिसे तुम नशाआवर भी बना लेते हो और पाक रोज़ी भी।55 निश्चय ही इसमें एक निशानी है बुद्धि से काम लेनेवालों के लिए।
55. इसमें एक हल्का-सा संकेत इस विषय को ओर भी है कि फलों के इस रस में वह तत्व भी मौजूद है जो इंसान के लिए जीवनदायी भोजन बन सकता है और वह तत्त्व भी मौजूद है जो सड़कर अलकोहल में तब्दील हो जाता है। अब यह इंसान को अपनी चयन-शक्ति पर आश्रित है कि वह उस स्रोत से पाक रोज़ी प्राप्त करता है या बुद्धि विवेक को समाप्त कर देनेवाली शराब । एक और छोटा-सा संकेत शराब के हराम होने की ओर भी है कि वह पाक रोज़ी नहीं है।
وَأَوۡحَىٰ رَبُّكَ إِلَى ٱلنَّحۡلِ أَنِ ٱتَّخِذِي مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتٗا وَمِنَ ٱلشَّجَرِ وَمِمَّا يَعۡرِشُونَ ۝ 67
(68) और देखो, तुम्हारे रब ने शहद का मक्खी पर यह बात वह्य कर दी कि56 पहाड़ों में और पेड़ों में, और टट्टियों पर चढ़ाई हुई बेलों में अपने छत्ते बना
56. वह्य शब्द का अर्थ है गुप्त और सूक्ष्म संकेत, जिसे संकेत करनेवाले और संकेत पानेवाले के सिवा कोई और न महसूस कर सके । इसी अनुकूलता से यह शब्द बलका (दिल में बात डाल देने) और इलहाम (छिपी शिक्षा और उपदेश) के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अल्लाह अपनी पैदा की हुई चीज़ों को जो शिक्षा देता है, वह चूँकि किसी मक्तब और स्कूल में नहीं दी जाती, बल्कि ऐसे सूक्ष्म ढंग से दी जाती है कि प्रत्यक्ष में कोई शिक्षा देता कोई शिक्षा पाता नज़र नहीं आता, इसलिए इसको कुरआन में वय, इलहाम और इलका का नाम दिया गया है। अब ये तीनों शब्द अलग-अलग परिभाषा वाले शब्दों का रूप ले चुके हैं। शब्द वह्य नबियों के लिए मुख्य हो गया है। इलहाम को औलिया और ख़ास बन्दों के लिए मुख्य कर दिया और इलका अपेक्षत: आम है। लेकिन कुरआन में यह पारिभाषिक अन्तर नहीं पाया जाता । यहाँ आसमानों और ज़मीन और फरिश्तों पर भी वह्य होती है (देखिए क्रमवार सूरा-41 हा-मीम सजदा, सूरा-99 ज़िलज़ाल और सूरा-8 अंफ़ाल । इसी तरह। शहद की मक्खी को भी इसका पूरा काम बह्य (स्वाभाविक शिक्षा) के द्वारा सिखाया जाता है, जैसा कि इस आयत में आप देख रहे हैं और यह बय सिर्फ़ शहद की मक्खी तक ही सीमित नहीं है। मछली को तैरना, परिन्दे को ठड़ना और नवजात बच्चे को दूध पीना भी अल्लाह की वह्य ही सिखाया करती है। फिर एक इंसान को सोच-विचार और जांच-पड़ताल और खोज के बिना जो सही उपाय या सही राय या सोच और कर्म की सही राह सुझाई जाती है, वह भी वह्य है और हमने वह्य की मूसा की माँ की ओर कि इसे रख दो", (क़ुरआन, 28 : 7,) और इस वह्य से कोई इंसान भी महरूम नहीं है। दुनिया में जितनी भी खोजें और जितने लाभप्रद आविष्कार हुए हैं, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, विजेता, चिन्तक और लेखकों ने जो मारके के काम किए हैं, उन सबमें इस बय की कार्यशीलता नज़र आती है, बल्कि आम इंसानों को आए दिन इस तरह के अनुभव होते रहते हैं कि कभी बैठे-बैठे दिल में एक को बात आई या कोई उपाय सूझ गया या सपने में कुछ देख लिया और बाद में अनुभव से पता चला कि वह एक सही रहनुमाई थी जो रौब (अनदेखे) से उन्हें प्राप्त हुई थी। इन बहुत-सी क़िस्मों में से एक विशेष प्रकार को वह्य वह है जो नबियों को प्रदान की जाती है और यह वह्य अपनी विशेषताओं में दूसरी किस्मों से बिलकुल अलग होती है। इसमें वह्य किए जानेवाले को पूरी चेतना होती है कि यह वय अल्लाह की ओर से आ रही है। उसे उसके अल्लाह की ओर से होने का पूरा विश्वास होता है। वह विश्वासों,आदेशों, क़ानूनों और मार्गदर्शनों पर सम्मिलित होती है और उसे उतारे जाने का उद्देश्य यह होता है कि नबी उसके की द्वारा मानव-जाति का मार्गदर्शन करे।
ثُمَّ كُلِي مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ فَٱسۡلُكِي سُبُلَ رَبِّكِ ذُلُلٗاۚ يَخۡرُجُ مِنۢ بُطُونِهَا شَرَابٞ مُّخۡتَلِفٌ أَلۡوَٰنُهُۥ فِيهِ شِفَآءٞ لِّلنَّاسِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 68
(69) और हर तरह के फलों का रस चूस और अपने रब की हमवार की हुई राहों पर चलती रह।57 इस मक्खी के भीतर से रंग-बिरंग का एक सरवत निकलता है जिसमें शिफा (अरोग्य) है लोगों के लिए।58 निस्सन्देह इसमें भी एक निशानी है उन लोगों के लिए जो सोच विचार करते है।59
57. 'रब को समतल को हुई राहों' का संकेत उस पूरी व्यवस्था और व्यावहारिक तरीक़े की ओर है जिसपर शहद की मक्खियों का एक गिरोह काम करता है । उनके छत्तों की बनावट, उनके गिरोह का संगठन, उनके अलग-अलग काम करनेवालों में कार्य विभाजन, भोजन जुटाने के लिए उनका बराबर आना-जाना, उनका नियमित रूप से शहद बना बनाकर भंडार करते जाना, ये सब वे राहें हैं जो उनके अमल के लिए उनके रब ने इस तरह समतल कर दी हैं कि उन्हें कभी सोचने और समझने की ज़रूरत पेश नहीं आती। बस एक निश्चित व्यवस्था है जिसपर एक लो जो तरीक़े पर शकर के ये अनगिनत छोटे-छोटे कारखाने हजारों वर्ष से काम किए चले जा रहे है।
58. शहद का एक लाभप्रद और स्वादिषः खाद्य पदार्थ होना तो स्पष्ट है, इसलिए उसका उल्लेख नहीं किया गया, अलबता उसके भीतर रोग मुक्त करना एक छिपा गुण है, इसलिए उससे अवगत करा दिया गया।
وَٱللَّهُ خَلَقَكُمۡ ثُمَّ يَتَوَفَّىٰكُمۡۚ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡ لَا يَعۡلَمَ بَعۡدَ عِلۡمٖ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٞ قَدِيرٞ ۝ 69
(70) और देखो, अल्लाह ने तुम्हे पैदा किया, फिर वह तुम्हें मौत देता है60 और तुममें से कोई सबसे बुरी उप को पहुँचा दिया जाता है, ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ न जाने।61 सच तो यह है कि अल्लाह ही ज्ञान में भी पूर्ण है और सामर्थ्य में भी।
60. अर्थात् वास्तविकता केवल इतनी ही नहीं है कि तुम्हारा पाला-पोसा जाना और तुम्मे रोजी का दिया जाना, यह सारा प्रबन्ध अल्लाह के हाथ में है, बल्कि वास्तविकता यह भी है कि तुम्हारी जिन्दगी और मौत दोनों अल्लाह के क़ब्ज़े में हैं।
61. अर्थात् यह ज्ञान जिसपर तुम गर्व करते हो और जिसके कारण धरती के दूसरे जीवधारियों पर तुम्हें श्रेष्ठता प्राप्त है, यह भी अल्लाह का दिया हुआ है। तुम अपनी आँखों से यह शिक्षाप्रद दृश्य देखते रहते हो कि जब किसी इंसान को अल्लाह अत्यधिक लंबी उम्र दे देता है तो वही आदमी जो कभी जवानी में दूसरों को अक्ल सिखाता था, किस तरह गोश्त का एक लोथड़ा बनकर रह जाता है जिसे अपने तन-बदन का भी होश नहीं रहता।
وَٱللَّهُ فَضَّلَ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ فِي ٱلرِّزۡقِۚ فَمَا ٱلَّذِينَ فُضِّلُواْ بِرَآدِّي رِزۡقِهِمۡ عَلَىٰ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَهُمۡ فِيهِ سَوَآءٌۚ أَفَبِنِعۡمَةِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ ۝ 70
(71) और देखो, अल्लाह ने तुममें से कुछ को कुछ पर रोज़ी में श्रेष्ठता प्रदान की है। फिर जिन लोगों को यह श्रेष्ठता दी गई है वे ऐसे नहीं हैं कि अपनी रोज़ी अपने दासों की ओर फेर दिया करते हों, ताकि दोनों इस रोज़ी में बराबर के हिस्सेदार बन जाएँ। तो क्या अल्लाह ही का उपकार मानने से इन लोगों को इंकार है?62
62. आज के समय में इस आयत से जो अनोखे और विचित्र अर्थ निकाले गए हैं वे इसकी सबसे बुरी मिसाल है कि क़ुरआन की आयतों को उनके प्रसंग और संदर्भ से अलग करके एक-एक आयत के अलग अर्थ लेने से कैसी-कैसी निरर्थक वार्ताओं का दरवाज़ा खुल जाता है। लोगों ने इस आयत को इस्लाम के अर्थ-दर्शन की मूल और आर्थिक नियम की एक महत्त्वपूर्ण धारा ठहराया है। उनके नज़दीक आयत की मंशा यह है कि जिन लोगों को अल्लाह ने रोज़ी में श्रेष्ठता दी हो, उन्हें अपनी रोज़ी अपने नौकरों और दासों की ओर ज़रूर लौटा देना चाहिए। अगर न लौटाएँगे तो अल्लाह की नेमत के इंकारी क़रार पाएँगे, हालांकि इस पूरे वार्ताक्रम में वित्त कानून के वर्णन का सिरे से कोई अवसर ही नहीं है। ऊपर से पूरा भाषण शिर्क को झुठलाने और तौहीद को सिद्ध करने पर चला आ रहा है और आगे भी बराबर यही विषय चल रहा है। इस वार्ता के बीच में यकायक वित्त-क़ानून की एक धारा के उल्लेख कर देने का आखिर कौन-सा तुक है? आयत को उसके प्रसंग और संदर्भ में रखकर देखा जाए तो साफ़ मालूम होता है कि यहाँ इसके बिलकुल विपरीत विषय चल रहा है। यहाँ तर्क यह दिया गया है कि तुम स्वयं अपने माल में अपने दासों और नौकरों को जब बराबर का पद नहीं देते हालाँकि यह माल अल्लाह का दिया हुआ है तो आख़िर किस तरह यह बात तुम सही समझते हो कि जो उपकार अल्लाह ने तुमपर किए हैं, उनके आभार-प्रदर्शन में अल्लाह के साथ उसके अधिकारविहीन दासों को भी साझीदार बना लो और अपनी जगह यह समझ बैठो कि अधिकारों और हक़ों में अल्लाह के ये दास भी उसके साथ बराबर के साझीदार हैं? ठीक यही तर्क, इसी विषय से सूरा रूम-30, आयत 28 में दिया गया है। दोनों आयतों की तुलना करने से स्पष्ट मालूम होता है कि दोनों में एक ही उद्देश्य के लिए एक ही मिसाल से तर्क दिया गया है और इनमें से हर एक दूसरे की व्याख्या कर रही है। शायद लोगों को भ्रम अ-फ-बिनिअ-मतिल्लाहि यज-हदून के शब्दों से हुआ है। उन्होंने मिसाल के बाद तुरन्त यह वाक्य देखकर विचार किया कि हो न हो इसका अर्थ यही होगा कि अपने आधीनों को ओर रोज़ी न फेर देना ही अल्लाह की नेमत का इंकार है, हालांकि जो आदमी क़ुरआन में कुछ भी नज़र रखता है वह इस बात को जानता है कि अल्लाह की नेमतों का आभार अल्लाह के सिवा किसी और का प्रकट करना इस किताब की निगाह में अल्लाह की नेमतों का इंकार है।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُم بَنِينَ وَحَفَدَةٗ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِۚ أَفَبِٱلۡبَٰطِلِ يُؤۡمِنُونَ وَبِنِعۡمَتِ ٱللَّهِ هُمۡ يَكۡفُرُونَ ۝ 71
(72) और वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए तुम्हारी सहजातीय पलियाँ बनाई और उसी ने इन पत्नियों से तुम्हें बेटे-पोते प्रदान किए और अच्छी-अच्छी चीजें तुम्हें खाने को दी, फिर क्या ये लोग (यह सब कुछ देखते और जानते हुए भी) असत्य को मानते हैं63 और अल्लाह के उपकार का इंकार करते हैं।64
63. 'असत्य को मानते हैं' अर्थात् ये निराधार और अवास्तविक विश्वास रखते हैं कि उनका भाग्य बनाना और बिगाड़ना, उनकी मुरादें पूरी करना और दुआएँ सुनना, उन्हें सन्तान देना और उनको रोज़गार दिलवाना, उनके मुक़द्दमे जितवाना और उन्हें बीमारियों से बचाना कुछ देवियों और देवताओं और जिनों और अगले-पिछले बुजुर्गों के अधिकार में है।
64. यद्यपि मक्का के मुशरिक इस बात से इंकार नहीं करते थे कि ये सारी नेमतें अल्लाह को दी हुई हैं, और इन नेमतों पर अल्लाह का उपकार मानने से भी उन्हें इंकार न था, लेकिन जो गलती वे करते थे वह यह थी कि इन नेमतों पर अल्लाह का कृतज्ञ बनने के साथ-साथ वे उन बहुत-सी हस्तियों का आभार भी मुख और कार्य से अदा करते थे जिन्हें उन्होंने बिना किसी तर्क और बिना किसी प्रमाण के इस नेमत के प्रदान करने में साझीदार ठहरा रखा था। इसी चीज़ को क़ुरआन 'अल्लाह के उपकार का इंकार' करार देता है । क़ुरआन में यह बात एक मान्य नियम के रूप में प्रस्तुत की गई है कि उपकारी के उपकार की कृतज्ञता प्रकट करने के बजाय उसकी कृतज्ञता प्रकट करना जिसने उपकार नहीं किया है वास्तव में उपकारी के उपकार का इंकार करना है । इसी तरह क़ुरआन यह बात भी नियम के रूप में बयान करता है कि उपकार करनेवाले के बारे में बिना किसी तर्क और प्रमाण के यह सोच लेना कि उसने स्वयं अपनी दया व कृपा से यह उपकार नहीं किया है, बल्कि अमुक व्यक्ति के कारण या अमुक को रियायत से या अमुक की सिफारिश से या अमुक के दख़ल देने से किया है, यह भी वास्तव में उसके उपकार का इंकार ही है।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَمۡلِكُ لَهُمۡ رِزۡقٗا مِّنَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ شَيۡـٔٗا وَلَا يَسۡتَطِيعُونَ ۝ 72
(73) और अल्लाह को छोड़कर उनको पूजते हैं जिनके हाथ में न आसमानो से उन्हें कुछ भी रोज़ी देनी है, न ज़मीन से और न यह काम वे कर हो सकते हैं ?
فَلَا تَضۡرِبُواْ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡثَالَۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 73
(74) अतएव अल्लाह के लिए मिसालें न गढ़ो।65 अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
65. 'अल्लाह के लिए मिसालें न घड़ो' अर्थात् अल्लाह को दुनिया के बादशाहों और राजाओं-महाराजाओं पर न क़यास करो कि जिस तरह कोई उनके सभासदों और दरबार के कार्यकर्ताओं के बिना उन तक अपनी फ़रियाद नहीं पहुँचा सकता, उसी तरह अल्लाह के बारे में भी तुम यह सोचने लगो कि वह अपने शाही महल में फरिश्तों, वलियों और दूसरे करीबी लोगों के दर्मियान घिरा बैठा है और किसी का कोई काम इन माध्यमों के बिना उसके यहां से नहीं बन सकता।
۞ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلًا عَبۡدٗا مَّمۡلُوكٗا لَّا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَمَن رَّزَقۡنَٰهُ مِنَّا رِزۡقًا حَسَنٗا فَهُوَ يُنفِقُ مِنۡهُ سِرّٗا وَجَهۡرًاۖ هَلۡ يَسۡتَوُۥنَۚ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 74
(75) अल्लाह एक मिसाल देता है।66 एक तो है दास जो दूसरे का अधीन है और स्वयं कोई अधिकार नहीं रखता। दूसरा आदमी ऐसा है जिसे हमने अपनी ओर से अच्छी रोज़ी दी है और वह उसमें से खुले और छिपे ख़ूब ख़र्च करता है। बताओ, क्या ये दोनों बराबर हैं? -अल-हम्दु लिल्लाह । 67 मगर अधिकतर लोग (इस सीधी बात को) नहीं जानते ।68
66. अर्थात् अगर मिसालों से ही बात समझनी है तो अल्लाह सही मिसालों से तुम्हे वास्तविकता समझाता है। तुम जो मिसालें दे रहे हो वे सलत है, इसलिए तुम उनसे ग़लत नतीजे निकाल बैठते हो।
67. प्रश्नों और 'अलहम्दु लिल्लाह' के बीच एक सूक्ष्म शून्य है जिसे भरने के लिए स्वयं शब्द 'अलहम्दु लिल्लाह' ही में स्पष्ट संकेत मौजूद हैं। स्पष्ट है कि नबी के मुख से यह सवाल सुनकर मुशरिकों के लिए उसका यह उत्तर देना तो किसी तरह संभव न था कि दोनों बराबर हैं। अनिवार्य रूप से इसके उत्तर में किसी ने साफ़-साफ़ स्वीकार किया होगा कि सच में दोनों बराबर नहीं हैं और किसी ने इस डर से चुप्पी साध ली होगी कि स्वीकारात्मक उत्तर देने की स्थिति में उसके तार्किक परिणाम को भी स्वीकार करना होगा और उससे अपने आप उनके शिर्क का खंडन हो जाएगा। इसलिए नबी ने दोनों का उत्तर पाकर फ़रमाया, 'अल-हम्दु लिल्लाह' । स्वीकार करनेवालों के स्वीकरण पर भी 'अल-हम्दु लिल्लाह' और चुप रह जानेवालों की चुप्पी पर भी 'अल-हम्दु लिल्लाह' । पहली दशा में इसका अर्थ यह हुआ कि 'अल्लाह का शुक्र है, इतनी बात तो तुम्हारी समझ में आई।' दूसरी दशा में इसका अर्थ यह है कि "चुप हो गए? अल-हम्दु लिल्लाह, अपनी सारी हठधर्मियों के बावजूद दोनों को बराबर कह देने का साहस तुम भी न कर सके।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا رَّجُلَيۡنِ أَحَدُهُمَآ أَبۡكَمُ لَا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَهُوَ كَلٌّ عَلَىٰ مَوۡلَىٰهُ أَيۡنَمَا يُوَجِّههُّ لَا يَأۡتِ بِخَيۡرٍ هَلۡ يَسۡتَوِي هُوَ وَمَن يَأۡمُرُ بِٱلۡعَدۡلِ وَهُوَ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 75
(76) अल्लाह एक और मिसाल देता है। दो आदमी हैं। एक गूंगा-बहरा है, कोई काम नहीं कर सकता, अपने स्वामी पर बोझ बना हुआ है, जिधर भी वह उसे भेजे, कोई भला काम उससे बन न आए। दूसरा व्यक्ति ऐसा है कि न्याय का आदेश देता है और स्वयं सीधे मार्ग पर कायम है। बताओ, क्या ये दोनों बराबर है? 69
69. पहले उदाहरण में अल्लाह और बनावटी उपास्यों के अन्तर को केवल अधिकार और अधिकारविहीनता की दृष्टि से स्पष्ट किया गया था, अब इस दूसरे उदाहरण में वही अन्तर और अधिक खोलकर गुणों की दृष्टि से बयान किया गया है। अर्थ यह है कि अल्लाह और इन बनावटी उपास्यों के बीच अन्तर केवल इतना ही नहीं है कि एक साधिकारिक स्वामी है और दूसरा अधिकारविहीन दास, बल्कि आगे यह अन्तर भी है कि यह दास न तुम्हारी पुकार सुनता है, न उसका उत्तर दे सकता है, न कोई काम अपने आप कर सकता है। उसकी अपनी जिन्दगी का सारा आश्रय उसके स्वामी की जात पर है और स्वामी अगर कोई काम उसपर छोड़ दे तो वह कुछ भी नहीं बना सकता । इसके विपरीत स्वामी का हाल यह है कि वह केवल बोलनेवाला ही नहीं, बल्कि ऐसा बोलनेवाला है जिसमें तत्वदर्शिता है, दुनिया को न्याय का आदेश देता है और साधिकारिक कर्ता ही नहीं, सत्यानुकूल कर्ता है, जो कुछ करता है सत्यता और शुद्धता के साथ करता है, बताओ यह कौन सी बुद्धिमता है कि तुम ऐसे स्वामी को उसके दास के समान समझ रहे हो?
وَلِلَّهِ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَآ أَمۡرُ ٱلسَّاعَةِ إِلَّا كَلَمۡحِ ٱلۡبَصَرِ أَوۡ هُوَ أَقۡرَبُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 76
(77) और ज़मीन और आसमानों के छिपे तथ्यों का ज्ञान तो अल्लाह ही को है,70 और क़ियामत के पटित होने का मामला कुछ देर न लेगा मगर बस इतनी कि जिसमें आदमी की पलक झपक जाए, बल्कि इससे भी कुछ कम।71 सच तो यह है कि अल्लाह सब कुछ कर सकता है।
70. बाद के वाक्य से मालूम होता है कि यह वास्तव में उत्तर है मक्का के विरोधियों के उस प्रश्न का जो वे प्रायः नबी (सल्ल०) से किया करते थे कि अगर सच में क़ियामत आनेवाली है जिसकी तुम हमें खबर देते हो तो आख़िर वह किस तारीख़ को आएगी। यहाँ उनके प्रश्न को नकल किए बिना उसका उत्तर दिया जा रहा है।
71. अर्थात् क़ियामत धीरे-धीरे किसी लंबी अवधि में घटित न होगी, न उसके आने से पहले तुम दूर से उसको आते देखोगे कि संभल सको और कुछ उसके लिए तैयारी कर सको। वह तो किसी दिन अचानक, पलक झपकाते ही, बल्कि उससे भी कम समय में आ जाएगी। इसलिए जिसको विचार करना हो, गंभीरता के साथ विचार करे और अपने रवैये के बारे में जो फ़ैसला भी करना हो, जल्दी कर ले। किसी को इस भरोसे पर न रहना चाहिए कि अभी तो क़ियामत दूर है, जब आने लगेगी तो अल्लाह से मामला दुरुस्त कर लेंगे -तौहीद के व्याख्यान के बीच में यकायकी क़ियामत का यह उल्लेख इसलिए किया गया है कि लोग तौहीद और शिर्क के बीच किसी एक विश्वास के चुनाव के प्रश्न को केवल एक सैद्धान्तिक प्रश्न न समझ बैठे। उन्हें यह एहसास रहना चाहिए कि एक फैसले की घड़ी किसी नामालूम समय पर अचानक आ जानेवाली है और उस समय इसी चुनाव के सही या ग़लत होने पर आदमी की सफलता और विफलता का आश्रय होगा। इस चेतावनी के बाद फिर व्याख्यान का वही क्रम शुरू हो जाता है जो ऊपर से चला आ रहा था।
وَٱللَّهُ أَخۡرَجَكُم مِّنۢ بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 77
(78) अल्लाह ने तुम्हें तुम्हारी माओं के पेटों से निकाला इस हालत में कि तुम कुछ न जानते थे। उसने तुम्हें कान दिए, आँखें दी और सोचनेवाले दिल दिए,72 इसलिए कि तुम कृतज्ञ बनो।73
72. अर्थात् वे साधन जिनसे तुम्हें दुनिया में हर तरह की जानकारी मिली और तुम इस योग्य हुए कि दुनिया के काम चला सको। इंसान का बच्चा जन्म के समय जितना बेबस और बेखबर होता है, उतना किसी जानवर का नहीं होता। मगर यह केवल अल्लाह के दिए हुए ज्ञान-साधन (सुनने, देखने, सोच-विचार करने के) ही हैं जिनके कारण से वह प्रगति करके दुनिया की तमाम चीज़ों पर शासन करने के योग्य बन जाता है।
73. अर्थात् उस अल्लाह के कृतज्ञ जिसने ये मूल्यवान नेमतें तुम्हें दीं। इन नेमतों की इससे बढ़कर कृतघ्नता और क्या हो सकती है कि इन कानों से आदमी सब कुछ सुने मगर एक अल्लाह ही की बात न सुने । इन आँखों से सब कुछ देखे मगर एक अल्लाह ही की आयते न देखे और इस दिमाग़ से सब कुछ सोचे मगर एक ही बात न सोचे कि मेरा वह उपकारी कौन है जिसने ये नेमतें मुझे दी हैं।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَى ٱلطَّيۡرِ مُسَخَّرَٰتٖ فِي جَوِّ ٱلسَّمَآءِ مَا يُمۡسِكُهُنَّ إِلَّا ٱللَّهُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 78
(79) क्या इन लोगों ने कभी परिन्दों को नहीं देखा कि आसमान की फ़िज़ा में किस तरह सधे हुए है ? अल्लाह के सिवा किसने इनको थाम रखा है? इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۢ بُيُوتِكُمۡ سَكَنٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّن جُلُودِ ٱلۡأَنۡعَٰمِ بُيُوتٗا تَسۡتَخِفُّونَهَا يَوۡمَ ظَعۡنِكُمۡ وَيَوۡمَ إِقَامَتِكُمۡ وَمِنۡ أَصۡوَافِهَا وَأَوۡبَارِهَا وَأَشۡعَارِهَآ أَثَٰثٗا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ ۝ 79
(80) अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हारे घरों को शान्ति प्राप्त करने की जगह बनाया। उसने जानवरों की खालों से तुम्हारे लिए ऐसे मकान पैदा किए74 जिन्हें तुम यात्रा और ठहरने, दोनों हालतें में हलका पाते हो।75 उसने जानवरों के सूफ़ (भेड़-बकरी के बाल) और ऊन और बालों से तुम्हारे लिए पहनने और बरतने की बहुत सी चीज़े पैदा कर दी जो जिन्दगी की निश्चित अवधि तक, तुम्हारे काम आती हैं।
74. अर्थात् चमड़े के ख़ेमे जिनका चलन अरब में बहुत है।
75. अर्थात् जब कूच करना चाहते हो तो उन्हें आसानी से तह करके उठा ले जाते हो और जब ठहरना चाहते हो तो आसानी से उनको खोलकर डेरा जमा लेते हो।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّمَّا خَلَقَ ظِلَٰلٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡجِبَالِ أَكۡنَٰنٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ سَرَٰبِيلَ تَقِيكُمُ ٱلۡحَرَّ وَسَرَٰبِيلَ تَقِيكُم بَأۡسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُتِمُّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡلِمُونَ ۝ 80
(81) उसने अपनी पैदा की हुई बहुत-सी चीज़ों से तुम्हारे लिए साए का प्रबन्ध किया, पहाड़ों में तुम्हारे लिए पनाहगाहें बनाई और तुम्हें ऐसे लिबास दिए जो तुम्हें गर्मी से बचाते हैं.76 और कुछ दूसरे लिबास जो आपस के युद्ध में तुम्हारी रक्षा करते हैं।77 इस तरह वह तुमपर अपनी नेमतें पूरी करता है78 शायद कि तुम आज्ञाकारी बनो ।
76. सर्दी से बचाने का उल्लेख या तो इसलिए नहीं फरमाया कि गर्मी में कपड़ों का उपयोग मानवीय संस्कृति की पराकाष्ठा है और इसका उल्लेख कर देने के बाद आरंभिक बातों के उल्लेख की जरूरत नहीं रहती या फिर उसे मुख्य रूप से इसलिए बयान किया गया है कि जिन देशों में बड़ी ही घातक प्रकार की गर्म हवा चलती है, वहाँ सर्दी के पहनावे से भी बढ़कर गर्मी का पहनावा महत्त्व रखता है। ऐसे देशों में अगर आदमी सिर, कान, गरदन और सारा शरीर अच्छी तरह ढांककर न निकले तो गर्म हवा उसे झुलसकर रख दे, बल्कि कभी-कभी तो आँखों को छोड़कर पूरा मुंह लपेट लेना पड़ता है।
77. अर्थात् कवच।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 81
(82) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं तो ऐ नबी ! तुमपर साफ़ साफ सत्य का सन्देश पहुँचा देने के सिवा और कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
يَعۡرِفُونَ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ ثُمَّ يُنكِرُونَهَا وَأَكۡثَرُهُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 82
(83) ये अल्लाह के उपकार को पहचानते हैं, फिर उसका इंकार करते हैं79 और इनमें अधिकतर लोग ऐसे हैं जो सत्य को मानने के लिए तैयार नहीं है।
79. इंकार से तात्पर्य वही कार्य-पद्धति है जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं। मक्का के इंकारी इस बात का इंकार न करते थे कि ये सारे उपकार अल्लाह ने उनपर किए हैं, मगर उनका विश्वास यह था कि अल्लाह ने ये उपकार उनके बुजुर्गों और देवताओं के हस्तक्षेप से किए हैं और इसी आधार पर वे उन उपकारों का आभार अल्लाह के साथ, बल्कि कुछ अल्लाह से भी बढ़कर,उन बिचौलियों के प्रति व्यक्त करते थे। इसी हरकत को अल्लाह 'नेमत का इंकार, कृतघ्नता और नाशुक्री का नाम देता है।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ مِن كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدٗا ثُمَّ لَا يُؤۡذَنُ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ ۝ 83
(84) (इने कुछ होश भी है कि उस दिन क्या बनेगी) जबकि हम हर उम्मत (समुदाय) में से एक गवाह 80 खड़ा करेंगे, फिर काफिरों को न युक्ति प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाएगा81, न उनसे तौबा व इस्तिरफार (क्षमा याचना) ही की माँग की जाएगी।82
80. अर्थात् उस उम्मत (समुदाय) का नबी या कोई ऐसा आदमी जिसने नबी के गुज़र जाने के बाद उस उम्मत को तौहीद और विशुद्ध ईश्वरवाद का आह्वान किया हो, शिर्क और शिर्क भरे अंधविश्वासों और रस्मों पर सचेत किया हो और क्रियामत के दिन की जवाबदेही से खबरदार कर दिया हो....वह इस बात की गवाही देगा कि मैंने सत्य का सन्देश उन लोगों को पहुंचा दिया था, इसलिए जो कुछ उन्होंने किया वह न जानने के कारण नहीं किया, बल्कि जानते-बूझते किया।
81. यह अर्थ नहीं है कि उन्हें सफाई प्रस्तुत करने की अनुमति न दी जाएगी, बल्कि अर्थ यह है कि उनके अपराध ऐसी स्पष्ट इंकार न करने योग्य और खुली गवाहियों से सिद्ध कर दिए जाएंगे कि उनके लिए सफ़ाई प्रस्तुत करने की कोई गुंजाइश न रहेगी।
وَإِذَا رَءَا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلۡعَذَابَ فَلَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 84
(85) ज़ालिम लोग जब एक बार अजाम देख लेगे तो उसके बाद न उनके अजाब में कोई कमी की जाएगी और न उन्हें एक क्षण-भर की मोहलत दी जाएगी।
وَإِذَا رَءَا ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ شُرَكَآءَهُمۡ قَالُواْ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ شُرَكَآؤُنَا ٱلَّذِينَ كُنَّا نَدۡعُواْ مِن دُونِكَۖ فَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلَ إِنَّكُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 85
(86) और जब वे लोग, जिन्होंने दुनिया में शिर्क किया था, अपने ठहराए हुए शरीकों को देखेंगे तो कहेंगे, "ऐ पालनहार ! यही है हमारे वे शरीक जिन्हें हम तुझे छोड़कर पुकारा करते थे।" इसपर उनके वे उपास्य उन्हें स्पष्ट उत्तर देंगे कि “तुम झूठे हो।‘’83
83. इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अपने आप ही इस घटना का इंकार करेंगे कि मुशरिक उन्हें ज़रूरतें पूरी करने के लिए और मुश्किलें दूर करने के लिए पुकारा करते थे, बल्कि वास्तव में वे इस घटना के बारे में अपने ज्ञान व सूचना और उसपर अपनी रज़ामंदी और ज़िम्मेदारी का इंकार करेंगे, वे कहेंगे कि हमने कभी तुमसे यह नहीं कहा था कि तुम अल्लाह को छोड़कर हमें पुकारा करो, न हम तुम्हारी इस हरकत पर राजी थे, बल्कि हमें तो ख़बर तक न थी कि तुम हमें पुकार रहे हो। तुमने अगर हमें दुआओं का सुननेवाला, पुकार का जवाब देनेवाला और फ़रियादों पर विचार करनेवाला करार दिया था तो यह निश्चित रूप से एक झूठी बात थी जो तुमने गढ़ ली थी और इसके ज़िम्मेदार तुम स्वयं थे। अब हमें इसकी ज़िम्मेदारी में लपेटने की कोशिश क्यों करते हो।
وَأَلۡقَوۡاْ إِلَى ٱللَّهِ يَوۡمَئِذٍ ٱلسَّلَمَۖ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 86
(87) उस समय ये सब अल्लाह के आगे झुक जाएँगे और उनकी वे सारी झूठी गढ़ी बातें रफूचक्कर हो जाएँगी जो ये दुनिया में करते रहे थे।84
84. अर्थात् वे सब ग़लत सिद्ध हो जाएँगी। जिन-जिन सहारों पर वे दुनिया में भरोसा किए हुए थे, वे सारे के सारे गुम हो जाएँगे। किसी फ़रियाद सुननेवाले को वहाँ फ़रियाद सुनने के लिए मौजूद न पाएँगे। कोई मुश्किल दूर करनेवाला उनकी मुश्किल दूर करने के लिए नहीं मिलेगा। कोई आगे बढ़कर यह कहनेवाला न था कि ये मेरे माध्यम थे, इन्हें कुछ न कहा जाए ।
ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ زِدۡنَٰهُمۡ عَذَابٗا فَوۡقَ ٱلۡعَذَابِ بِمَا كَانُواْ يُفۡسِدُونَ ۝ 87
(88) जिन लोगों ने स्वयं कुफ़्र का रास्ता अपनाया और दूसरों को अल्लाह की राह से रोका, उन्हें हम अज़ाब पर अज़ाब देंगे85 उस बिगाड़ के बदले जो वे दुनिया में पैदा करते रहे।
85. अर्थात् एक अज़ाब स्वयं कुफ़ करने का और दूसरा अज़ाब दूसरों को अल्लाह के रास्ते से रोकने का।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ فِي كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدًا عَلَيۡهِم مِّنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَجِئۡنَا بِكَ شَهِيدًا عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِۚ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ تِبۡيَٰنٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 88
(89) (ऐ नबी ! इन्हें उस दिन से ख़बरदार कर दो) जबकि हम हर उम्मत (समुदाय) में स्वयं उसी के अन्दर से एक गवाह उठा खड़ा करेंगे जो उसके मुकाबले में गवाही देगा, और इन लोगों के मुक़ाबले में गवाही देने के लिए हम तुम्हें लाएँगे। और (यह उसी गवाही की तैयारी है कि) हमने यह किताब तुमपर उतारी है जो हर चीज़ को खुले तौर पर स्पष्ट करनेवाली है86 और मार्गदर्शन और रहमत और शुभ-सूचना है उन लोगों के लिए जो आज्ञाकारी हो गए हैं।87
86. अर्थात् हर ऐसी चीज़ का स्पष्टीकरण जिसपर सही मार्ग का मिलना, न मिलना और सफलता और विफलता आश्रित है, जिसका जानना सीधे रास्ते के लिए जरूरी है, जिससे सत्य और असत्य का अन्तर स्पष्ट होता है - ग़लती से लोग अरबी के शब्द तिब यानल-लि कुल्लि शैइन' और इसकी समानार्थी आयतों का अर्थ यह लेते हैं कि कुरआन में सब कुछ बयान कर दिया गया है। फिर वे उसे निभाने के लिए क़ुरआन से विज्ञान और कलाओं के अनोखे और विचित्र विषय निकालने का यल शुरू कर देते हैं।
87. अर्थात् जो लोग आज इस किताब को मान लेंगे और आज्ञापालन का रास्ता अपना लेंगे, उन्हें यह ज़िन्दगी के हर मामले में सही रास्ता बताएगी, और उसके अनुपालन के कारण उनपर अल्लाह को रहमतें होंगी और उन्हें यह किताब शुभ-सूचना देगी कि फैसले के दिन अल्लाह की अदालत से वे सफल होकर निकलेंगे। इसके विपरीत जो लोग उसे न मानेंगे, वे केवल यही नहीं कि मार्गदर्शन और रहमत से वंचित रहेंगे, बल्कि क़ियामत के दिन जब अल्लाह का पैग़म्बर उनके मुक़ाबले में गवाही देने खड़ा होगा तो यही दस्ताबेज़ उनके ख़िलाफ़ एक प्रबल युक्ति होगी, क्योंकि पैग़म्बर यह सिद्ध कर देगा कि उसने वह चीज़ उन्हें पहुँचाई थी जिसमें सत्य और असत्य का अन्तर खोलकर रख दिया गया था।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُ بِٱلۡعَدۡلِ وَٱلۡإِحۡسَٰنِ وَإِيتَآيِٕ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَيَنۡهَىٰ عَنِ ٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِ وَٱلۡبَغۡيِۚ يَعِظُكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 89
(90) अल्लाह अद्ल (इंसाफ) और एहसान (उपकार, भलाई) करने और रिश्ते जोड़ने का आदेश देता है88 और बुराई और ज़ुल्म और अश्लीलता व ज़्यादती से मना करता है।89 वह तुम्हें उपदेश देता है ताकि तुम शिक्षा लो।
88. इस संक्षिप्त वाक्य में तीन ऐसी चीज़ों का आदेश दिया गया है जिनपर पूरे मानव-समाज के ठीक होने का आश्रय है। पहली चीज़ अदल है जिसमें दो प्रबल सच्चाइयाँ मौजूद हैं। एक यह कि लोगों के आपसी हक़ों में एक सन्तुलन पैदा हो। दूसरे यह कि हर एक को उसका हक़ बेलाग तरीके से दिया जाए। उर्दू में 'इंसाफ़ शब्द इसका समानार्थी है, मगर यह शब्द धमित करनेवाला है। इससे खामखाह यह विचार जन्म लेता है कि दो आदमियों के बीच हकों का बंटवारा आधे (निस्फ) के आधार पर हो और फिर इसी से अद्ल का अर्थ हकों का बराबर-बराबर बँटवारा समझ लिया गया है जो सरासर प्रकृति के विरुद्ध है। वास्तव में अदल जिस चीज़ का तकाज़ा करता है वह सन्तुलन और समानुपात है, न कि समानता । कुछ पहलुओं से तो अद्ल बेशक समाज के लोगों में समानता चाहता है, जैसे नागरिकता के हकों में। मगर कुछ पहलुओं से समानता अल के बिलकुल विरुद्ध है, जैसे मां-बाप और औलाद के बीच सामाजिक और नैतिक समानता और उच्च श्रेणी की सेवा करनेवालों और निम्न श्रेणी की सेवा करनेवालों के बीच मुआवज़ों की समानता। अतः अल्लाह ने जिस चीज़ का हुक्म दिया है वह हकों में समानता नहीं, बल्कि अनुपात और सन्तुलन है, और इस आदेश का तक़ाज़ा यह है कि हर व्यक्ति को उसके नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, क़ानूनी और राजनीतिक और सांस्कृतिक दायित्व पूरी ईमानदारी के साथ अदा किए जाएँ। दूसरी चीज़ एहसान है जिससे तात्पर्य सद्व्यवहार, उदारता, सहानुभूतिपूर्ण रवैया, रवादारी, सच्चरित्र, क्षमा कर देने की भावना, आपसी रियायतें, एक दूसरे का ध्यान, दूसरे को उसके हक़ से कुछ अधिक देना और स्वयं अपने हक से कुछ कम पर राजी हो जाना। यह इंसाफ़ से अधिक एक चीज़ है जिसका महत्त्व सामूहिक जीवन में अद्ल से भी अधिक है। अद्ल अगर समाज की बुनियाद है तो एहसान उसका जमाल (सौन्दर्य) और उसका कमाल (पूर्णता) है। अद्ल अगर समाज को नागवारियों और कडुवाहटों से बचाता है तो एहसान उसमें खुशगवारियाँ और मिठास पैदा करता है। कोई समाज केवल इस आधार पर खड़ा नहीं रह सकता कि उसका हर व्यक्ति हर समय नाप-तौल करके देखता रहे कि उसका क्या हक है और उसे वुसूल करके छोड़े, और दूसरे का कितना हक़ है और उसे बस उतना ही दे दे। ऐसे एक ठंडे और खुरें समाज में संघर्ष तो न होगा, मगर प्रेम, कृतज्ञता, उदारता, त्याग, ईसार, निष्ठा और हितैषिता जैसे मूल्यों से वह वंचित रहेगा जो वास्तव में जीवन में मिठास पैदा करनेवाले और सामूहिक गुणों को विकसित करनेवाले मूल्य हैं। तीसरी चीज़ जिसका इस आयत में आदेश दिया गया है, रिश्तों का जोड़ना है जो रिश्तेदारों के मामले में सद्व्यवहार का एक विशेष रूप निश्चित कर देता है। इसका अर्थ केवल यही नहीं है कि आदमी अपने रिश्तेदारों के साथ सद्व्यवहार करे, बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि हर समर्थ व्यक्ति अपने माल पर केवल अपनी ज़ात और अपने बाल-बच्चों ही के हक़ न समझे, बल्कि अपने रिश्तेदारों के हक़ भी माने। अल्लाह की शरीअत हर परिवार के समृद्ध लोगों को इस बात का ज़िम्मेदार करार देती है कि वह अपने परिवार के लोगों को भूखा-नंगा न छोड़ें।
89. ऊपर को तीन भलाइयों के मुक़ाबले में अल्लाह तीन बुराइयों से रोकता है जो अलग-अलग हैसियत में एक-एक व्यक्ति को और सामूहिक रूप से पूरे समाज को नष्ट करनेवाली है- पहली चीज़ 'फहशा' (अश्लीलता) है जिसमें तमाम बेहूदा और शर्मनाक (निर्लज्ज) कर्म आ जाते हैं। हर वह बुराई जो अपने आपमें अत्यन्त बुरी हो, फहश है, जैसे मुख्ल (कंजूसी), जिना (व्यभिचार, नग्नता (नगापन), समलैंगिकता, जिन औरतों से शादी हराम है उनसे निकाह करना, चोरी, शराब पीना, भीख मांगना, गालियाँ बकना और बदकलामी करना आदि। इसी तरह खुल्लम-खुल्ला बुरे काम करना और बुराइयों को फैलाना भी 'फरश' है, जैसे झूठा प्रोपेगंडा, आरोप लगाना, छिपे ऐबों का प्रचार, व्यभिचार पर उभारनेवाले नारक, कहानियाँ, फिल्में, नंगे चित्र, औरतों का बन-संवरकर सबके सामने आना, खुले तौर पर मर्दो और औरतों के बीच बेरोक-टोक मेल-मिलाप होना और स्टेज पर औरतों का नाचना-थिरकता और नाज़ो-अदा का प्रदर्शन करना आदि। दूसरी चीज़ 'मुन्कर' (बुराई) है जिससे तात्पर्य हर वह बुराई है जिसे इंसान सामान्यत: बुरा जानते हैं, सदा से बुरा कहते रहे हैं और तमाम आसमानी शरीअतों ने जिससे मना किया है। तीसरी चीज़ 'बाय' (उदण्डता) है जिसका अर्थ है अपनी सीमा से आगे बढ़ जाना और दूसरे के हकों पर हाथ डाल देना, भले ही वे हक ख़ुदा के हों या उसके बंदों के।
وَأَوۡفُواْ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ إِذَا عَٰهَدتُّمۡ وَلَا تَنقُضُواْ ٱلۡأَيۡمَٰنَ بَعۡدَ تَوۡكِيدِهَا وَقَدۡ جَعَلۡتُمُ ٱللَّهَ عَلَيۡكُمۡ كَفِيلًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا تَفۡعَلُونَ ۝ 90
(91) अल्लाह की प्रतिज्ञा को पूरा करो जबकि तुमने उससे कोई प्रतिज्ञा की हो और अपनी कसमें पक्की करने के बाद तोड़ न डालो जबकि तुम अल्लाह को अपने ऊपर गवाह बना चुके हो। अल्ताह तुम्हारे सब कामों की ख़बर रखता है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّتِي نَقَضَتۡ غَزۡلَهَا مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٍ أَنكَٰثٗا تَتَّخِذُونَ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ أَن تَكُونَ أُمَّةٌ هِيَ أَرۡبَىٰ مِنۡ أُمَّةٍۚ إِنَّمَا يَبۡلُوكُمُ ٱللَّهُ بِهِۦۚ وَلَيُبَيِّنَنَّ لَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 91
(92) तुम्हारी हालत उस औरत की-सी न हो जाए जिसने आप ही मेहनत से सूत काता और फिर आप ही उसे टुकड़े-टुकड़े कर डाला।90 तुम अपनी कसमों को आपस के मामलों में चालबाज़ी और धोखादेही का हथियार बनाते हो ताकि एक क़ौम दूसरी कौम से बढ़कर लाभ प्राप्त करे, हालांकि अल्लाह उस प्रतिज्ञा और वचन के द्वारा तुम्हें परीक्षा में डालता है,91 और अवश्य ही वह क़ियामत के दिन तुम्हारे तमाम मतभेदों की वास्तविकता तुमपर खोल देगा।92
90. यहाँ क्रमवार तीन प्रकार की प्रतिज्ञाओं को उनके महत्त्व की दृष्टि से अलग-अलग बयान करके उनके पालन का आदेश दिया गया है। एक वह प्रतिज्ञा जो इंसान ने अल्लाह के साथ की हो, और यह अपने महत्त्व की दृष्टि से सबसे बढ़कर है। दूसरी वह प्रतिज्ञा जो एक इंसान या गिरोह ने दूसरे इसान या गिरोह से की हो और उसपर अल्लाह की कसम खाई हो या किसी न किसी रूप में अल्लाह का नाम लेकर अपने वचन के दृढ़ होने का विश्वास दिलाया हो। यह दूसरी श्रेणी का महत्त्व रखता है। तीसरी वह प्रतिज्ञा जो अल्लाह का नाम लिए बिना की गई हो। इसका महत्त्व ऊपर के दोनों प्रकारों के बाद है, लेकिन पाबन्दी इन सबको ज़रूरी है और इसके विरुद्ध करना इनमें से किसी की भी ज़ाइज नहीं है।
91. यहाँ मुख्य रूप से वचन-भंग करने के उस सबसे बुरे स्वरूप की निन्दा की गई है जो दुनिया में सबसे अधिक बिगाड़ पैदा करने की वजह होती है और जिसे बड़े-बड़े उच्च श्रेणी के लोग भी पुण्य का काम समझकर करते और अपनी क़ौम की प्रशंसाएँ प्राप्त करते हैं। क़ौमों और गिरोहों की राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक टकरावों में यह आए दिन होता रहता है कि एक क़ौम का लीडर एक समय में दूसरी क़ौम से एक समझौता करता है और दूसरे समय में केवल अपने क़ौमी हिस्सों के लिए या तो उसे एलानिया तोड़ देता है या परदे के पीछे से उसके खिलाफ़ चलकर अनुचित लाभ उठाता है। ये हरकतें ऐसे-ऐसे लोग तक कर गुज़रते हैं जो अपने निजी जीवन में बड़े सत्यवादी होते हैं और इन हरकतों पर केवल यही नहीं कि इनकी पूरी क़ौम में से निन्दा की कोई आवाज़ नहीं उठती, बल्कि हर ओर से उनकी पीठ ठोंकी जाती है और इस तरह की चालबाजियों को 'डिप्लोमेसी का कमाल' समझा जाता है। अल्लाह इसपर सचेत करता है कि हर समझौता वास्तव में समझौता करनेवाले आदमी और क़ौम के चरित्र व ईमानदारी की परीक्षा है, और जो लोग इस परीक्षा में विफल होंगे वे अल्लाह की अदालत में पकड़ से न बच सकेंगे।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن يُضِلُّ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَلَتُسۡـَٔلُنَّ عَمَّا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 92
(93) अगर अल्लाह की इच्छा यह होती (कि तुममें कोई मतभेद न हो) तो वह तुम सबको एक ही उम्मत (समुदाय) बना देता,93 मगर वह जिसे चाहता है गुमराही में डालता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है।94 और अवश्य ही तुमसे तुम्हारे कर्मों की पूछगच्छ होकर रहेगी।
93. यह पिछले विषयों की और अधिक व्याख्या है। इसका अर्थ यह है कि अगर कोई अपने आपको अल्लाह का तरफ़दार समझकर भले और बुरे हर तरीके से अपने धर्म को (जिसे वह अल्लाह का मज़हब समझ रहा है) बढ़ावा देने और दूसरे धर्मों को मिटा देने की कोशिश करता है तो उसकी यह हरकत पूर्ण रूप से अल्लाह की इच्छा के विरुद्ध है, क्योंकि अगर अल्लाह की इच्छा सच में यह होती कि इंसान से धार्मिक मतभेद का अधिकार छीन लिया जाए, और चाहे-अनचाहे सारे इंसानों को एक ही धर्म की पैरवी करनेवाला बनाकर छोड़ा जाए तो उसके लिए अल्लाह को अपने तथा कथित तरफ़दारों की और उनके निन्दनीय हथकंडों से मदद लेने की कोई आवश्यकता न थी। यह काम तो वह स्वयं अपने सामर्थ्य के बूते पर कर सकता था। वह सबको मोमिन और फ़रमाँबरदार पैदा कर देता और कुफ़ और नाफरमानी की शक्ति छीन लेता। फिर किसकी मजाल थी कि ईमान और आज्ञापालन की राह से बाल बराबर भी हट सकता?
94. अर्थात् इंसान को अपनाने और चुनने की स्वतंत्रता अल्लाह ने स्वयं ही दी है, इसलिए इंसानों की राहें दुनिया में अलग-अलग हैं। कोई गुमराही की ओर जाना चाहता है और अल्लाह उसके लिए गुमराही के साधन जुटा देता है, और कोई सीधे रास्ते को तलब करता है और अल्लाह उसके लिए रास्ता पाने का प्रबन्ध कर देता है।
وَلَا تَتَّخِذُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ فَتَزِلَّ قَدَمُۢ بَعۡدَ ثُبُوتِهَا وَتَذُوقُواْ ٱلسُّوٓءَ بِمَا صَدَدتُّمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَكُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 93
(94) (और ऐ मुसलमानो !) तुम अपनी क़समों को आपस में एक-दूसरे को धोखा देने का साधन न बना लेना। कहीं ऐसा न हो कि कोई क़दम जमने के बाद उखड़ जाए।95 और तुम इस अपराध की सज़ा में कि तुमने लोगों को अल्लाह की राह से रोका, बुरा परिणाम देखो और कड़ी सज़ा भुगतो।
95. अर्थात् ऐसा न हो कि कोई व्यक्ति इस्लाम की सच्चाई का कायल हो जाने के बाद केवल तुम्हारा दुराचार देखकर इस दीन से घृणा करने लग जाए और इस कारण वह ईमानवालों के गिरोह में सम्मिलित होने से रुक जाए कि इस गिरोह के जिन लोगों से उसका वास्ता पड़ा हो, उनको चरित्र और आचरण में उसने विरोधी इंकार करनेवालों से कुछ भी भिन्न न पाया हो।
وَلَا تَشۡتَرُواْ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلًاۚ إِنَّمَا عِندَ ٱللَّهِ هُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 94
(95) अल्लाह की प्रतिज्ञा 96 को थोड़े-से लाभ के बदले बेच न डालो 97, जो कुछ अल्लाह के पास है वह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है, अगर तुम जानो ।
96. अर्थात् उस प्रतिज्ञा को जो तुमने अल्लाह के नाम पर की हो, या अल्लाह के दीन के प्रतिनिधि होने की हैसियत से की हो।
97. यह अर्थ नहीं है कि उसे बड़े लाभ के बदले बेच सकते हो, बल्कि अर्थ यह है कि दुनिया का जो लाभ भी है वह अल्लाह की प्रतिज्ञा के मूल्य में थोड़ा है। इसलिए इस मूल्यवान वस्तु को उस छोटी चीज़ के बदले में बेचना बहरहाल घाटे का सौदा है।
مَا عِندَكُمۡ يَنفَدُ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ بَاقٖۗ وَلَنَجۡزِيَنَّ ٱلَّذِينَ صَبَرُوٓاْ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 95
(96) जो कुछ तुम्हारे पास है वह ख़र्च हो जानेवाला है और जो कुछ अल्लाह के पास है वही बाक़ी रहनेवाला है, और हम अवश्य धैर्य से काम लेनेवालों को 98 उनके बदले (पारितोषिक) उनके उत्तम कर्मों के अनुसार देंगे।
98. 'धैर्य से काम लेनेवालों को' अर्थात् उन लोगों को जो हर लोभ और इच्छा और मनोकामना के मुकाबले में सत्य और सच्चाई पर कायम रहें, हर उस क्षति को सहन कर लें जो इस दुनिया में सत्यता अपनाने से पहुँचता हो, हर उस लाभ को दुकरा दें जो दुनिया में अवैध तरीके अपनाने से प्राप्त हो सकता हो और उत्तम कर्म के लाभप्रद परिणामों के लिए उस समय तक इन्तिज़ार करने के लिए तैयार हों जो वर्तमान सांसारिक जीवन समाप्त हो जाने के बाद दूसरी दुनिया में आनेवाला है।
مَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَنُحۡيِيَنَّهُۥ حَيَوٰةٗ طَيِّبَةٗۖ وَلَنَجۡزِيَنَّهُمۡ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 96
(97) जो आदमी भी अच्छा कार्य करेगा, चाहे वह मर्द हो या औरत, बशर्ते कि वह हो मोमिन (ईमानवाला), उसे हम दुनिया में पवित्र जीवन बसर कराएँगे99, और (आख़िरत में) ऐसे लोगों को उनके बदले उनके उत्तम कर्मों के अनुसार प्रदान करेंगे।100
99. इस आयत में 'मुस्लिम' और 'काफिर दोनों ही गिरोहों के उन तमाम कम-नज़र और बे-सब लोगों की ग़लतफहमी दूर की गई है जो यह समझते हैं कि सच्चाई, दयानत और परहेज़गारी (संयम) का रवैया अपनाने से आदमी की आख़िरत चाहे बन जाती हो, मगर उसकी दुनिया ज़रूर बिगड़ जाती है। अल्लाह उनके उत्तर में फ़रमाता है कि तुम्हारा यह विचार ग़लत है। इस सही रवैये से सिर्फ़ आख़िरत ही नहीं बनती, दुनिया भी बनती है। जो लोग वास्तव में ईमानदार, पाकबाज़ और मामले के खरे होते हैं उनका सांसारिक जीवन भी बेईमान और दुष्कर्म लोगों के मुक़ाबले में स्पष्ट रूप से अच्छी रहती है। जो साख और सच्चा आदर अपने निष्कलंक आचरण के कारण उन्हें प्राप्त होता है वह दूसरों को प्राप्त नहीं होती। जो सुथरी और पवित्र सफलताएँ उन्हें प्राप्त होती हैं वे उन लोगों को नहीं मिलतीं जिनकी हर सफलता गन्दे और घिनौने तरीक़ों का नतीजा होती है । वे बोरिया-नशीन (साधन-रहित) होकर भी दिल के जिस सन्तोष और अन्तरात्मा की जिस ठंडक से भरे होते हैं, उसका कोई मामूली-सा हिस्सा भी महलों में रहनेवाले अवज्ञाकारी और अत्याचारी नहीं पा सकते।
100. अर्थात् आख़िरत में उनका दर्जा उनके बेहतर से बेहतर कर्म की दृष्टि से निश्चित होगा। दूसरे शब्दों में जिस आदमी ने दुनिया में छोटी और बड़ी, हर तरह की नेकियाँ की होंगी, उसे वह ऊंचा दर्जा दिया जाएगा जिसका वह अपनी बड़ी से बड़ी नेकी की दृष्टि से अधिकारी होगा।
فَإِذَا قَرَأۡتَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ ۝ 97
(98) फिर जब तुम कुरआन पढ़ने लगो तो फिटकारे हुए शैतान से अल्लाह की पनाह माँग लिया करो।101
101. इसका अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि बस ज़बान से 'अअज़ू बिल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीम' कहा जाए, बल्कि इसके साथ वास्तव में मन में यह इच्छा और व्यावहारिक रूप से यह यत्न भी होना चाहिए कि आदमी क़ुरआन पढ़ते समय शैतान के गुमराह करनेवाले वस्वसों (विचारों) से बचा रहे, ग़लत और अनुचित सन्देहों में न पड़े, कुरआन की हर बात को उसकी सही रौशनी में देखे और अपने स्वयं के गढ़े हुए सिद्धान्त या बाहर से प्राप्त किए हुए विचारों की मिलावट से कुरआन के शब्दों को वह अर्थ न पहनाने लगे जो अल्लाह की मंशा के विरुद्ध हों। इसके साथ आदमी के दिल में यह एहसास भी मौजूद होना चाहिए कि शैतान सबसे बढ़कर जिस चीज़ पर उतारू है, वह यही है कि आदम की सन्तान कुरआन से हिदायत (मार्गदर्शन) न प्राप्त करने पाए। यही कारण है कि आदमी जब इस किताब की ओर रुजू करता है तो शैतान उसे बहकाने, हिदायत पाने से रोकने और विचार और समझ को ग़लत राहों पर डालने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देता है। इसलिए आदमी को इस किताब के पढ़ते समय अत्यन्त चौकन्ना रहना चाहिए और हर समय अल्लाह से मदद माँगते रहना चाहिए कि कहीं शैतान के हस्तक्षेप और घुसपैठ से उसे हिदायत के इस स्रोत से लाभ न प्राप्त करने दे, क्योंकि जिसने यहां से हिदायत न पाई वह फिर कहीं से हिदायत न पा सकेगा और जो इस किताब से गुमराही ले बैठा उसे फिर दुनिया की कोई चीज़ गुमराहियों के चक्कर से न निकाल सकेगी-इस वार्ता-क्रम में यह आयत जिस उद्देश्य के लिए आई है वह यह है कि आगे चलकर उन आपत्तियों का उत्तर दिया जा रहा है जो मक्का के मुशरिक क़ुरआन पर किया करते थे। इसलिए पहले प्रस्तावना के रूप में यह फ़रमाया गया कि क़ुरआन को उसकी असली रौशनी में केवल वही व्यक्ति देख सकता है जो शैतान की गुमराह कर देनेवाले वस्वसों से चौकन्ना हो और उनसे बचा रहने के लिए अल्लाह से पनाह माँगे, वरना शैतान कभी आदमी को इस योग्य नहीं रहने देता कि वह सीधी तरह क़ुरआन को और उसकी बातों को समझ सके।
إِنَّهُۥ لَيۡسَ لَهُۥ سُلۡطَٰنٌ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 98
(99) उसे उन लोगों पर ग़लबा नहीं प्राप्त होता जो ईमान लाते और अपने रब पर भरोसा करते हैं ।
إِنَّمَا سُلۡطَٰنُهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ يَتَوَلَّوۡنَهُۥ وَٱلَّذِينَ هُم بِهِۦ مُشۡرِكُونَ ۝ 99
(100) उसका ज़ोर तो उन्हीं लोगों पर चलता है जो उसको अपना सरपरस्त बनाते और उसके बहकाने से शिर्क करते हैं।
وَإِذَا بَدَّلۡنَآ ءَايَةٗ مَّكَانَ ءَايَةٖ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا يُنَزِّلُ قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مُفۡتَرِۭۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 100
(101) जब हम एक आयत की जगह दूसरी आयत उतारते हैं और अल्लाह बेहतर जानता है कि वह क्या उतारे-तो ये लोग कहते है कि तुम यह क़ुरआन स्वयं गढ़ते हो।102 सही बात यह है कि इनमें से अधिकतर लोग वास्तविकता नहीं जानते हैं ।
102. एक आयत की जगह दूसरी आयत उतारने से तात्पर्य एक आदेश के बाद दूसरा आदेश भेजना भी हो सकता है। क्योंकि कुरआन मजीद के आदेश एक क्रम के साथ उतरे हैं और बार-बार एक ही मामले में कुछ वर्षों के अन्तराल से एक के बाद दो-दो, तीन-तीन आदेश भेजे गए हैं, जैसे शराब का मामला या जिना को सज़ा का मामला । लेकिन हमें यह अर्थ स्वीकार करने में इस कारण संकोच है कि सूरा नल को यह आयत मक्की दौर में उतरी है और जहाँ तक हमें मालूम है, इस दौर में आदेशों के क्रमवार आने का कोई उदाहरण सामने नहीं आया था, इसलिए हम यहाँ 'एक आयत की जगह दूसरी आयत उतारने' का अर्थ यह समझते हैं कि क़ुरआन को अलग-अलग जगहों पर कभी एक विषय को एक उदाहरण से समझाया गया है और कभी वही विषय समझाने के लिए दूसरे उदाहरण से काम लिया गया है। एक ही किस्सा बार-बार आया है और हर बार उसे दूसरे शब्दों में बयान किया गया है। एक मामले का कभी एक पहलू प्रस्तुत किया गया है और कभी उसी मामले का दूसरा पहलू सामने लाया गया है। एक बात के लिए कभी एक तर्क दिया गया है और कभी दूसरा तर्क । एक बात एक समय में अस्पष्ट रूप से कही गई है और दूसरे समय में सविस्तार। यही चीज़ थी जिसे मक्का के काफ़िर इस बात का प्रमाण ठहराते थे कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम,मआज़ल्लाह ! यह कुरआन स्वयं गढ़ते हैं। उनका तर्क यह था कि अगर इस वाणी का स्रोत ईश्वरीय ज्ञान होता तो पूरी बात एक ही समय में कह दी जाती। अल्लाह कोई इंसान की तरह बुद्धि का अधूरा थोड़े ही है कि सोच-समझकर बात करे, धीरे-धीरे जानकारियाँ प्राप्त करता रहे और एक बात ठीक बैठती नज़र न आए तो दूसरे तरीक़े से बात करे। यह तो मानवीय ज्ञान को कमज़ोरियाँ हैं जो तुम्हारी इस वाणी में दिखाई पड़ रही हैं।
قُلۡ نَزَّلَهُۥ رُوحُ ٱلۡقُدُسِ مِن رَّبِّكَ بِٱلۡحَقِّ لِيُثَبِّتَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 101
(102) इनसे कहो कि इसे तो 'रूहुल क़ुद्स' ने ठीक-ठीक मेरे रब की ओर से क्रमश: उतारा है103 ताकि ईमान लानेवालों के ईमान को सुदृढ़ करे104 और आज्ञाकारियों को जिन्दगी के मामलों में सीधी राह बताए 105 और उन्हें सफलता और सौभाग्य की शुभ-सूचना दे ।106
103. शब्द रूहुल कुस' का अर्थ है, पाक रूह (पवित्रात्मा) या पाकीज़गी की रूह, और परिभाषा में यह उपाधि हजरत जिबरील (अलैहि०) को दी गई है। वहाँ वह्य लानेवाले फ़रिश्ते का नाम लेने के बजाय उसको उपाधि इस्तेमाल करने का अभिप्रेत सुननेवालों को इस सच्चाई पर सचेत करना है कि इस वाणी को एक ऐसी रूह लेकर आ रही है जो इंसानी कमजोरियों और कोताहियों से पाक है। वह न ख्रियानत करनेवाला है कि अल्लाह कुछ भेजे और वह अपनी ओर से कमी-बेशी करके कुछ और बना दे, न झूठा और झूठ गढ़नेवाला है कि स्वयं कोई बात गढ़ के अल्लाह के नाम से बयान कर दे,न बद-नीयत है कि अपनी किसी मनोकामना के आधार पर धोखे और फरेब से काम ले। वह सरासर एक मुक़द्दस और पाक रूह है जो अल्लाह की वाणी पूरी अमानत के साथ लाकर पहुँचती है।
104. अर्थात् उसके क्रमशः इस वाणी को लेकर आने और एक ही समय में सब कुछ न ले आने का कारण यह नहीं है कि अल्लाह के ज्ञान व विवेक में कोई कमी है, जैसा कि तुमने अपनी नादानी से समझा, बल्कि इसका कारण यह है कि इंसान की समझने की शक्ति और नतीजा निकालने की शक्ति में कमी है जिसके कारण वह एक ही समय में सारी बात को न समझ सकता है और एक ही समय की समझी हुई बात में दव हो सकता है। इसलिए अल्लाह की हिकमत (तत्वदर्शिता) ने इस बात का तकाजा किया कि कहुल कुस' इस वाणी को थोड़ा-थोड़ा करके लाए, कभी संक्षेप से काम ले और कभी विस्तार से कभी एक तरीक़े से बात समझाए और कभी दूसरे तरीके से, कभी एक शैली अपनाए और कभी दूसरी, और एक ही बात को बार-बार तरीक़े से मन में बिठाने की कोशिश करे ताकि विभिन्न योग्यता और अनुभवों के सत्य की तलब रखनेवाले लोग ईमान ला सकें और ईमान लाने के बाद ज्ञान व विश्वास और सूझ बुझ में सुदृढ़ हो सकें।
وَلَقَدۡ نَعۡلَمُ أَنَّهُمۡ يَقُولُونَ إِنَّمَا يُعَلِّمُهُۥ بَشَرٞۗ لِّسَانُ ٱلَّذِي يُلۡحِدُونَ إِلَيۡهِ أَعۡجَمِيّٞ وَهَٰذَا لِسَانٌ عَرَبِيّٞ مُّبِينٌ ۝ 102
(103) हमें मालूम है कि ये लोग तुम्हारे बारे में कहते हैं कि इस व्यक्ति को एक आदमी सिखाता-पढ़ाता है,107 हालाँकि उसका संकेत जिस आदमी की ओर है उनकी भाषा अजमी (ग़ैर-अरबी) है और यह साफ़ अरबी भाषा है।
107. रिवायतों में अलग-अलग आदमियों के बारे में बयान किया गया है कि मक्का के कुफ़्फ़ार उनमें से किसी पर यह गुमान करते थे। एक रिवायत में उसका नाम जब बयान किया गया है जो आमिर बिन हज़रमी का एक रूमी दास था। दूसरी रिवायत में हुवैतब बिन अब्दुल उज़्ज़ा के एक गुलाम का नाम लिया गया है जिसे आइश या यीश कहते थे। एक और रिवायत में यसार का नाम लिया गया है जिसका उपनाम अबू फ़ुकैहा था और जो मक्का की एक औरत का यहूदी दास था। एक और रिवायत बलआन या बलआम नामी एक रूमी दास के बारे में है। बहरहाल इनमें से जो भी हो, मक्का के कुफ्फार ने केवल यह देखकर कि एक आदमी तौरात और इंजील पढ़ता है और मुहम्मद (सल्ल०) की उससे मुलाक़ात है, उन्होंने निःसंकोच यह आरोप गढ़ दिया कि इस क़ुरआन को वास्तव में वह रच रहा है और मुहम्मद (सल्ल०) उसे अपनी ओर से अल्लाह का नाम ले-लेकर पेश कर रहे हैं। इससे न केवल यह अन्दाज़ा होता है कि प्यारे नबी (सल्ल०) के विरोधी आपके विरुद्ध झूठ गढ़ने में कितने ढीठ थे, बल्कि यह शिक्षा भी मिलती है कि लोग अपने समय के लोगों का मूल्य पहचानने में कितने बे-इंसाफ़ (अन्यायी) होते हैं। इन लोगों के सामने मानव-इतिहास का एक ऐसा महान व्यक्तित्व था जिसका उदाहरण न उस समय दुनिया भर में कहीं मौजूद था और न आज तक पाया गया है, मगर इन अक्ल के अंधों को उसके मुक़ाबले में एक अजमी (ग़ैर-अरबी) दास, जो कुछ तौरात और इंजील पढ़ लेता था, अधिक योग्य दिखाई पड़ रहा था और वे सोच रहे थे कि यह अनमोल मोती इस कोयले से चमक प्राप्त कर रहा है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ لَا يَهۡدِيهِمُ ٱللَّهُ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 103
(104) वास्तविकता तो यह है कि जो लोग अल्लाह की आयतों को नहीं मानते, अल्लाह उन्हें कभी सही बात तक पहुँचने का सौभाग्य नहीं देता और ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
إِنَّمَا يَفۡتَرِي ٱلۡكَذِبَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ ۝ 104
(105) (झूठी बातें नबी नहीं गढ़ता, बल्कि) झूठ वे लोग गढ़ रहे हैं जो अल्लाह की आयतों को नहीं मानते,108 वहीं वास्तव में झूठे हैं।
108. दूसरा अनुवाद इस आयत का यह भी हो सकता है कि "झूठ तो वे लोग गढ़ा करते हैं जो अल्लाह की आयों पर ईमान नहीं लाते।"
مَن كَفَرَ بِٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ إِيمَٰنِهِۦٓ إِلَّا مَنۡ أُكۡرِهَ وَقَلۡبُهُۥ مُطۡمَئِنُّۢ بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَٰكِن مَّن شَرَحَ بِٱلۡكُفۡرِ صَدۡرٗا فَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 105
(106) जो आदमी ईमान लाने के बाद इंकार करे (वह अगर) मजबूर किया गया हो और दिल उसका ईमान पर सन्तुष्ट हो (तब तो ठीक), मगर जिसने दिल की रज़ामंदी से कुफ़्र (अधर्म) को स्वीकार कर लिया उसपर अल्लाह का प्रकोप है और ऐसे सब लोगों के लिए बड़ा अज़ाब है।109
109. इस आयत में उन मुसलमानों के मामले से वार्ता की गई है जिनपर उस समय जुल्म के पहाड़ तोड़े जा रहे थे और असह्य पीड़ाएँ दे-देकर कुफ्र पर मजबूर किया जा रहा था। उनको बताया गया है कि अगर तुम किसी समय जुल्म से मजबूर होकर केवल जान बचाने के लिए कुफ्र का कलिमा ज़बान से अदा कर दो और दिल तुम्हारा कुत के अकीदे से सुरक्षित हो तो क्षमा कर दिया जाएगा, लेकिन अगर दिल से तुमने क़ुफ़्र स्वीकार कर लिया तो दुनिया में चाहे जान बचा लो, अल्लाह के अज़ाब से बच न सकोगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि जान बचाने के लिए कुफ़्र क़लिमा कह देना चाहिए, बल्कि यह केवल छूट है। अगर ईमान दिल में रखते हुए आदमी मजबूर होकर ऐसा कह दे तो पकड़ न होगी, वरना श्रेष्ठ दर्जा तो यही है कि चाहे आदमी का शरीर तक्का-बोटी कर डाला जाए,बहरहाल वह सत्य के कलिमे ही का एलान करता रहे। दोनों प्रकार के उदाहरण नबी (सल्ल०) के मुंबारक दौर में पाए जाते हैं। एक ओर ख़ब्बाब बिन अरत (रज़ि०) हैं जिनको आग के अंगारों पर लिटाया गया यहाँ तक कि उनकी चर्बी पिघलने से आग बुझ गई, मगर वे दृढ़तापूर्वक अपने ईमान पर जमे रहे । बिलाल हबशी (रज़ि०) हैं जिनको लोहे का कवच पहनाकर चिलचिलाती धूप में खड़ा कर दिया गया, फिर तपती हुई रेत पर लिटाकर घसीटा गया, मगर वह अहद-अहद ही कहते रहे। हबीब बिन जैद बिन आसिम (रज़ि०) हैं जिनके शरीर का एक-एक अंग महाझूठा मुसैलमा कज्जाब के हुक्म से काटा जाता था और फिर माँग की जाती थी कि मुसलमा को नबी मान लें,मगर हर बार वह उसकी रिसालत के दावे की गवाही देने से इंकार करते थे, यहाँ तक कि इसी हालत में कट-कटकर उन्होंने जान दे दी। दूसरी ओर अम्मार बिन यासिर हैं जिनकी आँखों के सामने उनके माँ-बाप को कड़ी यातना देकर शहीद कर दिया गया, फिर उनको इतनी असह्य पीड़ा दी गई कि अन्ततः उन्होंने जान बचाने के लिए वह सब कुछ कह दिया जो कुफ्फार उनसे कहलवाना चाहते थे। फिर जब वह रोते हुए नबी (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित हुए और कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल । मुझे न छोड़ा गया जब तक कि मैंने आपको बुरा और उनके उपास्यों को अच्छा न कह दिया।" नबी (सल्ल०) ने पूछा, अपने दिल ए का क्या हाल पाते हो?" कहा : "ईमान पर पूरी तरह सन्तुष्ट ।" इसपर हुजूर (सल्ल०) ने फ़रमाया, अगर वे फिर इस तरह का ज़ुल्म करें तो तुम फिर यही बातें कह देना।"
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمُ ٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا عَلَى ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 106
(107) यह इसलिए कि उन्होंने आख़िरत के मुक़ाबले में दुनिया की ज़िन्दगी को पसन्द कर लिया, और अल्लाह का नियम है कि वह उन लोगों को नजात (मुक्ति) का रास्ता नहीं दिखाता जो उसकी नेमत को झुठलाएँ ।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَسَمۡعِهِمۡ وَأَبۡصَٰرِهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡغَٰفِلُونَ ۝ 107
(108) ये वे लोग हैं जिनके दिलों और कानों और आँखों पर अल्लाह ने मुहर लगा दी है, ये ग़फ़लत में डूब चुके हैं।
لَا جَرَمَ أَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 108
(109) अवश्य है कि आखिरत में यही घाटे में रहें।110
110. ये वाक्य उन लोगों के बारे में कहे गए हैं जिन्होंने ईमान की राह कठिन पाकर उससे तौबा कर ली थी और फिर अपनी काफ़िर व मुशरिक क़ौम में जा मिले थे।
ثُمَّ إِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِينَ هَاجَرُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا فُتِنُواْ ثُمَّ جَٰهَدُواْ وَصَبَرُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 109
(110) इसके विपरीत जिन लोगों का हाल यह है कि जब (ईमान लाने के कारण) वे सताए गए तो उन्होंने घर-बार छोड़ दिए, हिजरत की, अल्लाह के रास्ते में सख्तियाँ झेली और धैर्य से काम लिया,111 उनके लिए निश्चय ही तेरा रब क्षमा करनेवाला और दयावान है।
111. संकेत है हबशा के मुहाजिरों की ओर।
۞يَوۡمَ تَأۡتِي كُلُّ نَفۡسٖ تُجَٰدِلُ عَن نَّفۡسِهَا وَتُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 110
(111) (इन सबका निर्णय उस दिन होगा) जबकि हर जीव अपने ही बचाव की चिन्ता में लगा हुआ होगा और हर एक को उसके किए का बदला पूरा-पूरा दिया जाएगा और किसी पर कण-भर भी अत्याचार न होने पाएगा।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا قَرۡيَةٗ كَانَتۡ ءَامِنَةٗ مُّطۡمَئِنَّةٗ يَأۡتِيهَا رِزۡقُهَا رَغَدٗا مِّن كُلِّ مَكَانٖ فَكَفَرَتۡ بِأَنۡعُمِ ٱللَّهِ فَأَذَٰقَهَا ٱللَّهُ لِبَاسَ ٱلۡجُوعِ وَٱلۡخَوۡفِ بِمَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 111
(112) अल्लाह एक बस्ती का उदाहरण प्रस्तुत करता है। वह सुख-शान्ति का जीवन बिता रही थी और हर ओर से उसको भरपूर रोजी पहुँच रही थी कि उसने अल्लाह की नेमतों की नाशुक्री शुरू कर दी। तब अल्लाह ने उसके रहनेवालों को उनके करतूतों का यह मज़ा चखाया कि भूख और डर की मुसीबतें उनपर छा गई ।
وَلَقَدۡ جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مِّنۡهُمۡ فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَهُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 112
(113) उनके पास उनकी अपनी क़ौम में से एक रसूल आया, मगर उन्होंने उसको झुठला दिया। अन्तत: अज़ाब ने उनको आ लिया जबकि वे अत्याचारी हो चुके थे।112
112. यहाँ जिस बस्ती का उदाहरण दिया गया है उसकी कोई निशानदेही नहीं की गई। न टीकाकार यह निश्चित कर सके हैं कि यह कौन-सी बस्ती है। प्रत्यक्ष में इब्ने अब्बास (रजि०) ही का यह कथन सही मालूम होता है कि यहाँ स्वयं मक्का का नाम लिए बिना उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस टीका के अनुसार डर और भूख की जिस विपदा के छा जाने का यहाँ उल्लेख किया गया है, इससे तात्पर्य वह अकाल है जो नबी (सल्ल०) के भेजे जाने के बाद एक समय तक मक्कावालों पर छाया रहा।
فَكُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ حَلَٰلٗا طَيِّبٗا وَٱشۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ إِيَّاهُ تَعۡبُدُونَ ۝ 113
(114) अतएव ऐ लोगो ! अल्लाह ने जो कुछ हलाल और पाक रोजी तुम्हें दी है उसे खाओ और अल्लाह के उपकार के प्रति कृतज्ञता दिखाओ113 अगर तुम सच में उसी की बन्दगी करनेवाले हो।114
113. इससे मालूम होता है कि इस सूरा के उतरने के समय वह अकाल समाप्त हो चुका था जिसकी ओर ऊपर संकेत आ चुका है।
114. अर्थात् सच में अगर तुम अल्लाह की बन्दगी के कायल हो, जैसा कि तुम्हारा दावा है, तो हराम व हलाल करने के अधिकारी न बनो। जिस रोज़ी को अल्लाह ने हलाल और पाक करार दिया है उसे खाओ और कृतज्ञता दर्शाओ और जो कुछ अल्लाह के क़ानून में हराम और नापाक है, उससे बचो।
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ وَٱلدَّمَ وَلَحۡمَ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۖ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 114
(115) अल्लाह ने जो कुछ तुमपर हराम किया है वह है मुरदार और ख़ून और सुअर का मांस और वह जानवर जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो। अलबत्ता भूख से मजबूर और बेक़रार होकर अगर कोई इन चीज़ों को खा ले, बिना इसके कि वह ईश्वरीय क़ानून के विरुद्ध काम करने का इच्छुक हो या ज़रूरत की सीमा से आगे बढ़नेवाला हो, तो निश्चय ही अल्लाह क्षमा करनेवाला और दया दर्शानवाला है।115
115. यह आदेश सूरा-2 बक़रा आयत 173, सूरा-5 माइदा आयत 3 और सूरा-6 अनआम आयत 119 में भी ग़ुज़र चुका है।
وَلَا تَقُولُواْ لِمَا تَصِفُ أَلۡسِنَتُكُمُ ٱلۡكَذِبَ هَٰذَا حَلَٰلٞ وَهَٰذَا حَرَامٞ لِّتَفۡتَرُواْ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ لَا يُفۡلِحُونَ ۝ 115
(116) और यह जो तुम्हारी ज़बाने झूठे हुक्म लगाया करती हैं कि यह चीज़ हलाल है और वह हराम, तो इस तरह के हुक्म लगाकर अल्लाह पर झूठ न बाँधो।116 जो लोग अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं वे कदापि सफ़लता नहीं पाया करते ।
116. यह आयत स्पष्ट रूप से कहती है कि अल्लाह के सिवा हलाल व हराम बनाने का अधिकार किसी को भी नहीं, या दूसरे शब्दों में कानून बनानेवाला केवल अल्लाह है। दूसरा जो व्यक्ति भी जाइज और नाजाइज़
مَتَٰعٞ قَلِيلٞ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 116
(117) दुनिया का ऐश कुछ दिनों का है। अन्तत: उनके लिए दर्दनाक सजा है।
وَعَلَى ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا مَا قَصَصۡنَا عَلَيۡكَ مِن قَبۡلُۖ وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 117
(118) वे चीज़े117 हमने मुख्य रूप से यहूदियों के लिए हराम की थीं जिनका उल्लेख इससे पहले हम तुमसे कर चुके है,118 और यह उनपर हमारा जुल्म न था, बल्कि उनका अपना ही जुल्म था जो वे अपने ऊपर कर रहे थे।
117. यह पूरा पैराग्राफ़ उन आपत्तियों के उत्तर में है जो उपरोक्त आदेश पर किए जा रहे थे। मक्का के इंकारियों की पहली आपत्ति यह थी कि बनी इसराईल को शरीअत में तो और भी बहुत-सी चीजें हराम हैं जिनको तुमने हलाल कर रखा है। अगर वह शरीअत अल्लाह की ओर से थी तो तुम स्वयं उसके विरुद्ध कार्य कर रहे हो। और अगर वह भी अल्लाह की ओर से थी और यह तुम्हारी शरीअत भी अल्लाह की ओर से है तो दोनों में यह मतभेद कैसा है? दूसरी आपत्ति यह थी कि बनी इसराईल की शरीअत में सब्त (शनिवार) के हराम होने का जो विधान था उसको भी तुमने उड़ा दिया है। यह तुम्हारा अपना मनमाना काम है या अल्लाह ही ने अपनी दो शरीअतों में दो परस्पर विरोधी आदेश दे रखे है?
118. संकेत है सूरा-6, अनआम को आयत 146 की ओर जिसमें बताया गया है कि यहूदियों पर उनकी अवज्ञाओं के कारण मुख्य रूप से कौन-कौन सी चीजें हराम की गई थीं। इस जगह एक कठिनाई सामने आती है। सूरा-16, नहल की इस आयत में सूरा अनआम की एक आयत का हवाला दिया गया है जिससे मालूम होता है कि सूरा अनआम इससे पहले उतर चुकी थी, लेकिन एक जगह पर सूरा-6 अनआम में इर्शाद हुआ है कि "आख़िर क्या वजह है कि तुम वैध चीज़ न खाओ जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया हो? हालांकि, "(आयात 119), इसमें सूरा नल की ओर खुला संकेत है, क्योंकि मक्की सूरतों में सूरा अनआम के सिवा बस यही एक सूरा है जिसमें हराम चीज़ों का विवरण दिया गया है। अब प्रश्न पैदा होता है कि इनमें से कौन-सी सूरा पहले उतरी थी, और कौन-सी बाद में ? हमारे नज़दीक इसका सही उत्तर यह है कि पहले सूरा नल उतरी थी, जिसका उल्लेख सूरा अनआम की उपरोक्त आयत में किया गया है। बाद में किसी अवसर पर मक्का के इंकारियों ने सूरा नल की इन आयतों पर वे आपत्तियाँ की जो अभी हम बयान कर चुके हैं, उस समय सूरा अनआम उतर चुकी थी। इसलिए उनको उत्तर दिया गया कि हम पहले अर्थात् सूरा अनआम में बता चुके हैं कि यहूदियों पर कुछ चीज़ें मुख्य रूप से हराम की गई थी, और चूँकि यह आपत्ति सूरा नल पर की गई थी इसलिए इसका उत्तर भी सूरा नहल ही में दिया गया।
ثُمَّ إِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِينَ عَمِلُواْ ٱلسُّوٓءَ بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 118
119. अर्थात् वह अकेला इंसान अपने आपमें एक उम्मत (समुदाय) था। जब दुनिया में कोई मुसलमान न था तो एक ओर वह अकेला इस्लाम का झंडा उठाए हुए था और दूसरी ओर सारी दुनिया इंकार का झंडा उठाए हुए थी। अल्लाह के उस अकेले बन्दे ने वह काम किया जो उम्मत के करने का था। वह एक आदमी न था, बल्कि एक पूरी संस्था थी।
إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ كَانَ أُمَّةٗ قَانِتٗا لِّلَّهِ حَنِيفٗا وَلَمۡ يَكُ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 119
(120) सत्य तो यह है कि इबराहीम अपनी ज़ात से एक पूरी उम्मत (समुदाय) था119, अल्लाह का आज्ञाकारी और एकाग्र। वह कभी मुशरिक (बहुदेववादी) न था,
شَاكِرٗا لِّأَنۡعُمِهِۚ ٱجۡتَبَىٰهُ وَهَدَىٰهُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 120
(121) अल्लाह की नेमतों का आभार व्यक्त करनेवाला था। अल्लाह ने उसको चुन लिया और सीधा रास्ता दिखाया,
وَءَاتَيۡنَٰهُ فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗۖ وَإِنَّهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ لَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 121
(122) दुनिया में उसको भलाई दी और आख़िरत में वह निश्चित रूप से भले लोगों में से होगा।
ثُمَّ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ أَنِ ٱتَّبِعۡ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 122
(123) फिर हमने तुम्हारी ओर यह वह्य भेजी कि एकाग्र होकर इबराहीम के तरीक़े पर चलो और वह मुशरिकों में से न था।120
120. यह आपत्ति करनेवालों की पहली आपत्ति का पूर्ण उत्तर है। इस उत्तर के दो भाग हैं- एक यह कि अल्लाह की शरीअत में टकराव नहीं है जैसा कि तुमने यहूदियों के धार्मिक क़ानून और मुहम्मदी शरीअत के प्रत्यक्ष अन्तर को देखकर गुमान किया है, बल्कि वास्तव में यहूदियों को मुख्य रूप से उनकी अवज्ञाओं के बदले में कुछ नेमतों से महरूम किया गया था जिनसे दूसरों को महरूम करने का कोई कारण नहीं। दूसरा भाग यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) को जिस तरीके की पैरवी का आदेश दिया गया है वह इबराहीम (अलै०) का तरीक़ा है, और तुम्हें मालमू है कि इबराहीमी मिल्लत में वे चीजें हराम न थीं जो यहूदियों के यहाँ हराम हैं, जैसे यहूदी ऊँट नहीं खाते, मगर इबराहीमी मिल्लत में वह हलाल था। यहूदियों के यहाँ शुतुरमुर्ग, बत्तख और खरगोश आदि हराम हैं, मगर इबराहीमी मिल्लत में ये सब चीजें हलाल थीं। इस उत्तर के साथ-साथ मक्का के इंकारियों को इस बात पर भी सचेत कर दिया गया है कि न तुम्हें इबराहीम से कोई वास्ता है न यहूदियों को, क्योंकि तुम दोनों ही शिर्क कर रहे हो। इबराहीमी मिल्लत की सही पैरवी करनेवाला अगर कोई है तो वह यह नबी और उसके साथी हैं जिनके अक़ीदों और अमल (विश्वासों और कर्मों) में शिर्क का अंश तक नहीं पाया जाता।
إِنَّمَا جُعِلَ ٱلسَّبۡتُ عَلَى ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِۚ وَإِنَّ رَبَّكَ لَيَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 123
(124) रहा सब्त, तो वह हमने उन लोगों पर मुसल्लत किया था जिन्होंने उसके आदेशों में मतभेद किया121 , और निश्चित रूप से तेरा रब क़ियामत के दिन इन सब बातों पर फैसला कर देगा जिनमें वे मतभेद करते रहे हैं।
121. यह मक्का के विरोधियों को दूसरी आपत्ति का उत्तर है। इसमें यह बयान करने की ज़रूरत न थी कि सब्न भी यहूदियों के लिए मुख्य था और इबराहीमी मिल्लत में सब्त के हराम होने का कोई अस्तित्त्व न था, क्योंकि इस बात को स्वयं मक्का के विरोधी भी जानते थे। इसलिए केवल इतना ही संकेत करने को पर्याप्त समझा गया कि यहूदियों के यहाँ सब्त के कानून में जो कठोरताएँ तुम पाते हो ये आरंभ से न थीं, बल्कि ये बाद में यहूदियों की दुष्टताओं और अवज्ञाकारियों के कारण उनपर लगू कर दी गई थीं। क़ुरआन मजीद के इस संकेत को आदमी अच्छी तरह नहीं समझ सकता जब तक कि वह एक ओर बाइबिल के उन स्थानों को न देखे जहाँ सब्त के आदेश उल्लिखित हुए हैं । (जैसे देखिए खुरूज अध्याय 20, आयत 8-11, अध्याय 23, आयत 12-13, अध्याय 31, आयत 12-17, अध्याय 35 आयत 2-3, गिनती अध्याय 15, आयत 32-36) और दूसरी ओर उन दुस्साहसों को न जानता हो जो यहूदी सब्त के हराम होनेवाली पाबन्दी को तोड़ने में दिखाते रहे । (जैसे देखिए यरमियाह, अध्याय 17, आयत 21-27, हिज़क़ी एल अध्याय 20, आयत 12-24)
ٱدۡعُ إِلَىٰ سَبِيلِ رَبِّكَ بِٱلۡحِكۡمَةِ وَٱلۡمَوۡعِظَةِ ٱلۡحَسَنَةِۖ وَجَٰدِلۡهُم بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 124
(125) ऐ नबी ! अपने रब के रास्ते की ओर दावत दो हिकमत (तत्त्वदर्शिता) और अच्छी नसीहत (सुदपदेश) के साथ 122 और लोगों से बहस करो ऐसे तरीक़े पर जो उत्तम हो।123 तुम्हारा रब ही ज़्यादा बेहतर जानता है कि कौन उसकी राह से भटका हुआ है और कौन सीधे रास्ते पर है।
122. अर्थात् दावत देने में दो चीज़ों को ध्यान में रखना चाहिए–एक हिकमत, दूसरे अच्छी नसीहत । हिकमत का मतलब यह है कि मूों की तरह अंधाधुंध प्रचार न किया जाए, बल्कि दानाई (सूझ-बूझ) के साथ सामनेवाले की मनोवृत्ति, योग्यता और परिस्थितियों को समझकर, साथ ही मौक़े और अवसर को देखकर बात की जाए। हर प्रकार के लोगों को एक ही लकड़ी से न हाँका जाए। जिस आदमी या गिरोह से मामला हो, पहले उसके रोग का पता लगाया जाए, फिर ऐसे तों से उसका इलाज किया जाए जो उसके मन व मस्तिष्क की गहराइयों से उसके रोग को जड़ निकाल सकते हों। अच्छी नसीहत के दो अर्थ हैं- एक यह कि सामनेवाले को केवल तर्को ही से सन्तुष्ट करने को पर्याप्त न समझा जाए, बल्कि उसकी भावनाओं को भी अपील किया जाए। बुराइयों और गुमराहियों को केवल तर्क देकर रद्द न किया जाए, बल्कि इंसान की प्रकृति में उनके लिए जो जन्मजात घृणा पाई जाती है उसे भी उभारा जाए और उनके बुरे नतीजों का डर दिलाया जाए। मार्गदर्शन और भले काम को अच्छाई और खूबी ही तार्किक आधारों पर न सिद्ध की जाए, बल्कि उसके प्रति चाव और रुचि भी पैदा की जाए। दूसरा अर्थ यह है कि नसीहत ऐसे तरीके से की जाए जिससे सहानुभूति और हितैषिता टपकती हो। सामनेवाला यह न समझे कि नसीहत करनेवाला उसे तुच्छ समझ रहा है और अपनी बुलन्दी के एहसास से लज़्ज़त ले रहा है, बल्कि उसे यह महसूस हो कि नसीहत करनेवाले के दिल में उसके सुधार के लिए एक तड़प मौजूद है और वह सच में उसकी भलाई चाहता है।
123. अर्थात् उसका रूप मात्र शास्त्रार्थ, बौद्धिक कुश्ती और मानसिक दंगल का न हो। इसमें कठहुज्जतियाँ, आरोप-प्रत्यारोप, चोटें और फबतियाँ न हों। इसका अभिप्राय मुकाबले के दुश्मन को चुप कर देना और अपनी वाचालता के डंके बजा देना न हो, बल्कि उसमें मिठास हो, उच्च श्रेणी का शालीन चरित्र हो, समुचित और दिल लगते तर्क हों। सामनेवाले के भीतर दुराग्रह और बात की पच और हठधर्मी पैदा न होने दी जाए। सीधे तरीक़े से उसको बात समझाने की कोशिश की जाए, और जब महसूस हो कि वह कठहुज्जती पर उतर आया है तो उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाए, ताकि वह गुमराही में और अधिक दूर न निकल जाए।
وَإِنۡ عَاقَبۡتُمۡ فَعَاقِبُواْ بِمِثۡلِ مَا عُوقِبۡتُم بِهِۦۖ وَلَئِن صَبَرۡتُمۡ لَهُوَ خَيۡرٞ لِّلصَّٰبِرِينَ ۝ 125
(126) और अगर तुम लोग बदला लो, तो बस उतना ही ले लो जितनी तुमपर ज़्यादती की गई हो, लेकिन अगर तुम सब करो तो निश्चय ही यह सब करनेवालों ही के हक़ में बेहतर है।
وَٱصۡبِرۡ وَمَا صَبۡرُكَ إِلَّا بِٱللَّهِۚ وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَلَا تَكُ فِي ضَيۡقٖ مِّمَّا يَمۡكُرُونَ ۝ 126
(127) ऐ नबी! सब्र (धैर्य) से काम किए जाओ और तुम्हारा यह सब अल्लाह ही की तौफ़ीक़ से है-इन लोगों की हरकतों पर रंज न करो और न इनकी चालबाज़ियों पर दिल तंग हो।
إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَواْ وَّٱلَّذِينَ هُم مُّحۡسِنُونَ ۝ 127
(128) अल्लाह उन लोगों के साथ है जो डर रखते हैं और उत्तमकार हैं।124
124. अर्थात् जो अल्लाह से डरकर हर प्रकार के बुरे तरीक़ों से बचते हैं और सदैव नेक रवैये पर जमे रहते हैं। दूसरे उनके साथ, चाहे कितनी ही बुराई करें, वे उनका उत्तर बुराई से नहीं बल्कि भलाई ही से दिए जाते हैं।