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سُورَةُ هُودٍ

  1. हूद

(मक्‍का में उतरी-आयतें 123)

परिचय

नाम

आयत 50 में पैग़म्बर हज़रत हूद का उल्लेख हुआ है; उसी को लक्षण के तौर पर इस सूरा का नाम दे दिया है।

उतरने का समय

इस सूरा के विषय पर विचार करने से ऐसा लगता है कि यह उसी काल में उतरी होगी जिसमें सूरा यूनुस उतरी थी। असंभव नहीं कि यह उसके साथ ही आगे-पीछे उतरी हो, क्योंकि भाषण का विषय वही है, मगर डरावे और चेतावनी की शैली उससे अधिक तीव्र है। हदीस में आता है कि हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से अर्ज़ किया, “मैं देखता हूँ कि आप बूढ़े होते जा रहे हैं। इसकी क्या वजह है?" उत्तर में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मुझको हूद और उस जैसी विषयवाली सूरतों ने बूढ़ा कर दिया है।” इससे अन्दाज़ा होता है कि नबी (सल्ल०) के लिए वह समय कैसा कठोर होगा, जबकि एक ओर क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन अपने तमाम हथियारों से सत्य की उस दावत को कुचल देने की कोशिश कर रहे थे और दूसरी ओर अल्लाह की ओर से ये बार-बार चेतावनियाँ आ रही थीं। इन परिस्थितियों में आपको हर समय यह आशंका घुलाए देती होगी कि कहीं अल्लाह की दी हुई मोहलत समाप्त न हो जाए और वह अन्तिम घड़ी न आ जाए, जबकि अल्लाह किसी क़ौम को अज़ाब में पकड़ लेने का निर्णय कर देता है। वास्तविकता तो यह है कि इस सूरा को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे एक बाढ़ का बाँध टूटने को है और उस भुलावे में पड़ी हुई आबादी को, जो इस बाढ़ की शिकार होनेवाली है, अन्तिम चेतावनी दी जा रही है।

विषय और वार्ताएँ

भाषण का विषय, जैसा कि अभी वर्णित किया जा चुका था, वही है जो सूरा यूनुस का था, अर्थात् दावत (इस्लाम की ओर आमंत्रण), समझाना-बुझाना और चेतावनी । लेकिन अन्तर यह है कि सूरा यूनुस के मुक़ाबले में यहाँ दावत संक्षेप में है। समझाने-बुझाने में तर्कों का ज़ोर कम है और उपदेश अधिक है और चेतावनी सविस्तार और ज़ोरदार है।

दावत यह है कि पैग़म्बर की बात मानो, शिर्क को छोड़ दो, सबकी बन्दगी छोड़कर अल्लाह के बन्दे बनो और अपनी दुनिया की ज़िन्दगी की सारी व्यवस्था आख़िरत की जवाबदेही के एहसास पर स्थापित करो।

समझाना यह है कि दुनिया की ज़िन्दगी के प्रत्यक्ष पहलू पर भरोसा करके जिन क़ौमों ने अल्लाह के रसूलों की दावत को ठुकराया है, वे इससे पहले बहुत बुरा अंजाम देख चुकी हैं। अब क्या ज़रूरी है कि तुम भी उसी राह पर चलो, जिसे इतिहास के लगातार अनुभव निश्चित रूप से विनाश का रास्ता सिद्ध कर चुके हैं।

चेतावनी यह है कि अज़ाब के आने में जो देर हो रही है, यह वास्तव में एक मोहलत है जो अल्लाह अपनी कृपा से तुम्हें दे रहा है। इस मोहलत के अन्दर अगर तुम न संभले तो वह अज़ाब आएगा जो किसी के टाले न टल सकेगा और ईमानवालों की मुट्ठी-भर जमाअत को छोड़कर तुम्हारी सारी क़ौम का नामो-निशान मिटा देगा।

इस विषय को स्पष्ट करने के लिए सीधे सम्बोधन की अपेक्षा नूह की क़ौम, आद, समूद, लूत की क़ौम, मयदन के लोग और फ़िरऔन की क़ौम के क़िस्सों से अधिक काम लिया गया है। इन क़िस्सों में मुख्य रूप से जो बात स्पष्ट की गई है, वह यह है कि अल्लाह जब फ़ैसला चुकाने पर आता है, तो फिर बिलकुल बे-लाग तरीक़े से निर्णय करता है। इसमें किसी के साथ तनिक भर भी रिआयत नहीं होती। उस समय यह नहीं देखा जाता कि कौन किसका बेटा और किसका रिश्तेदार है। अल्लाह की दयालुता सिर्फ़ उसके हिस्से में आती है जो सीधे रास्ते पर आ गया हो, वरना अल्लाह के प्रकोप से न किसी पैग़म्बर का बेटा बचता है और न किसी पैग़म्बर की बीवी। यही नहीं, बल्कि जब ईमान और कुफ़्र (अधर्म) का दो टूक फ़ैसला हो रहा हो तो दीन का स्वभाव यह चाहता है कि स्वयं मोमिन भी बाप और बेटे और पति और पत्नी के रिश्तों को भूल जाए और अल्लाह के न्याय की तलवार की तरह बिलकुल बे-लाग होकर सत्य के एक रिश्ते के सिवा हर दूसरे रिश्ते को काट फेंके। ऐसे अवसर पर ख़ून और वंश की रिश्तेदारियों का थोड़ा-सा भी ध्यान कर जाना इस्लाम की आत्मा के विपरीत है। यही वह शिक्षा थी जिसका पूरा-पूरा प्रदर्शन तीन-चार साल बाद मक्का के मुहाजिर मुसलमानों ने बद्र की लड़ाई में करके दिखाया।

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سُورَةُ هُودٍ
11. हूद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
الٓرۚ كِتَٰبٌ أُحۡكِمَتۡ ءَايَٰتُهُۥ ثُمَّ فُصِّلَتۡ مِن لَّدُنۡ حَكِيمٍ خَبِيرٍ
(1) अलिफ़ लाम-रा। फ़रमान है1, जिसकी आयतें सुदृढ़ और सविस्तार बयान हुई हैं2, एक तत्त्वदर्शी और ख़बर रखनेवाली हस्ती की ओर से,
1. 'किताब' का अनुवाद वर्णन-शैली को देखते हुए ‘फ़रमान' किया गया है। अरबी भाषा में यह शब्द "किताब' और 'लेख' ही के अर्थ में नहीं आता, बल्कि आदेश और शाही फ़रमान के अर्थ में भी आता है और स्वयं क़ुरआन में कई अवसरों पर यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
2. अर्थात् इस फ़रमान में जो बातें बयान की गई हैं, वे दृढ़ और अटल हैं, ख़ूब जंची-तुली हैं और इसका एक शब्द भी ऐसा नहीं जो वास्तविकता से कम या अधिक हो । फिर ये आयतें सविस्तार भी हैं। इनमें एक-एक बात खोल-खोलकर स्पष्ट रूप से कही है। बयान [में न कोई उलझाव है न कोई अस्पष्टता।]
أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَۚ إِنَّنِي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ وَبَشِيرٞ ۝ 1
(2) कि तुम न बन्दगी करो, मगर केवल अल्लाह को। मैं उसकी ओर से तुमको सचेत करनेवाला भी हूँ और शुभ-सूचना देनेवाला भी।
وَأَنِ ٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِ يُمَتِّعۡكُم مَّتَٰعًا حَسَنًا إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى وَيُؤۡتِ كُلَّ ذِي فَضۡلٖ فَضۡلَهُۥۖ وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٖ كَبِيرٍ ۝ 2
(3) और यह कि तुम अपने रब से क्षमा चाहो और उसकी ओर पलट आओ तो वह एक विशेष अवधि तक तुमको अच्छो जीवन सामग्री देगा3 और हर श्रेष्ठता वाले को उसकी श्रेष्ठता प्रदान करेगा4। लेकिन अगर तुम मुँह फेरते हो, तो मैं तुम्हारे हक़ में एक बड़े दहला देनेवाले दिन के अज़ाब से डरता हूँ।
3. अर्थात् संसार में तुम्हारे ठहरने के लिए जो समय तय है, उस समय तक वह तुमको बुरी तरह नहीं बल्कि अच्छी तरह रखेगा, उसकी नेमतें तुमपर बरसेंगी, उसकी बरकतों से लाभान्वित होगे, समृद्ध और सम्पन्न रहोगे। ज़िन्दगी में सुख-चैन नसीब होगा। अपमान व तिरस्कार के साथ नहीं, बल्कि मान-सम्मान के साथ जियोगे। यही विषय |सूरा-16, अन-नहल, आयत 97 में भी| आया है। इससे लोगों की उस ग़लतफहमी को दूर करना अभिप्रेत है जो शैतान ने हर नासमझ दुनियापरस्त आदमी के कान में फूँक रखी है कि ख़ुदातरसी और सच्चाई और ज़िम्मेदारी के एहसास का तरीका अपनाने से आदमी की आख़िरत बनती हो तो बनती हो, मगर दुनिया ज़रूर बिगड़ जाती है। अल्लाह उसके खंडन में फ़रमाता है कि-आखिरत की तरह इस दुनिया का वास्तविक सम्मान और सफलता भी ऐसे ही लोगों के लिए है, जो सच्ची ख़ुदापरस्ती के साथ भली ज़िन्दगी बिताएँ । [मताअ हसन' (अच्छी जीवन-सामग्री) क़ुरआन की भाषा में ज़िन्दगी के उस सामान को कहा जाता है] जो मात्र दुनिया के सुख-वैभव ही पर समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि नतीजे में आख़िरत के सुख-वैभव का भी साधन बनता है।
4. अर्थात् जो व्यक्ति चरित्र व व्यवहार में जितना भी आगे बढ़ेगा, अल्लाह उसको उतना ही बड़ा पद देगा। जो व्यक्ति भी अपने चरित्र व आचरण से अपने को जिस श्रेष्ठता का हकदार सिद्ध कर देगा, वह श्रेष्ठता उसको अवश्य दी जाएगी।
إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 3
(4) तुम सबको अल्लाह की ओर पलटना है और वह सब कुछ कर सकता है
أَلَآ إِنَّهُمۡ يَثۡنُونَ صُدُورَهُمۡ لِيَسۡتَخۡفُواْ مِنۡهُۚ أَلَا حِينَ يَسۡتَغۡشُونَ ثِيَابَهُمۡ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 4
(5) देखो, ये लोग अपने सीनों को मोड़ते हैं ताकि उससे छिप जाएँ ।5 ख़बरदार ! जब ये कपड़ों से अपने आपको ढाँपते हैं, अल्लाह इनके छिपे को भी जानता है और खुले को भी। वह तो उन भेदों को भी जानता है जो सीनों में हैं।
5. मक्के में जब नबी (सल्ल०) की दावत (सन्देश) की चर्चा हुई तो बहुत-से लोग वहाँ ऐसे थे जो विरोध में तो कुछ बहुत अधिक सक्रिय न थे, मगर आपको दावत से सख्न बेज़ार थे। उन लोगों का रवैया यह था कि आपसे कतराते थे, आपको किसी बात को सुनने के लिए तैयार न थे, कहीं आपको बैठे देखते तो उलटे पाँव फिर जाते, दूर से आपको आते देख लेते तो दिशा बदल देते या कपड़ों की ओट में मुँह छिपा लेते, ताकि उनसे आपका आमना-सामना न हो जाए और आप उन्हें सम्बोधित करके कुछ अपनी बातें न कहने लगें। इसी प्रकार के लोगों की ओर यहाँ संकेत किया गया है कि ये लोग सत्य का सामना करने से घबराते हैं और शुतुरमुर्ग की तरह मुँह छिपाकर समझते हैं कि वह वास्तविकता ही ग़ायब हो गई जिससे उन्होंने मुँह छिपाया है। हालाँकि तथ्य अपनी जगह मौजूद है और वह यह भी देख रहा है कि ये मूर्ख़ इससे बचने के लिए मुँह छिपाए बैठे हैं।
۞وَمَا مِن دَآبَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِ رِزۡقُهَا وَيَعۡلَمُ مُسۡتَقَرَّهَا وَمُسۡتَوۡدَعَهَاۚ كُلّٞ فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 5
(6) धरती में चलनेवाला कोई जीव ऐसा नहीं है जिसकी रोज़ी अल्लाह के ज़िम्मे न हो और जिसके बारे में वह न जानता हो कि कहाँ वह रहता है और कहाँ वह सौंपा जाता है6, सब कुछ एक साफ़ दफ़्तर में अंकित है।
6. अर्थात् जिस अल्लाह के ज्ञान का हाल यह है कि एक-एक चिड़िया का घोंसला और एक-एक कीड़े का बिल उसको मालूम है और वह उसी की जगह पर उसको जीवन सामग्री पहुँचा रहा है और जिसको हर क्षण इसकी ख़बर है कि कौन-सा जीव कहाँ रहता है और कहाँ अपनी जान दे देता है, उसके बारे में अगर तुम यह विचार करते हो कि इस तरह मुँह छिपा-छिपाकर या कानों में उँगलियाँ दूंसकर या आँखों पर परदा डालकर तुम उसकी पकड़ से बच जाओगे तो बड़े नासमझ हो। सत्य की ओर बुलानेवाले से तुमने मुँह छिपा भी लिया तो आख़िर इससे क्या मिलनेवाला? क्या अल्लाह से भी तुम छिप गए? क्या अल्लाह यह नहीं देख रहा है कि एक आदमी तुम्हें सच्ची बात बताने में लगा हुआ है और तुम यह यल कर रहे हो कि किसी तरह उसकी कोई बात तुम्हारे कान में न पड़ने पाए?
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ وَكَانَ عَرۡشُهُۥ عَلَى ٱلۡمَآءِ لِيَبۡلُوَكُمۡ أَيُّكُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗاۗ وَلَئِن قُلۡتَ إِنَّكُم مَّبۡعُوثُونَ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡمَوۡتِ لَيَقُولَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 6
(7) और वही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छ: दिनों में पैदा किया जबकि इससे पहले उसका अर्श (सिंहासन) पानी पर था7-ताकि तुमको आज़माकर देखे कि तुममें कौन भले कर्म करनेवाला है।8 अब अगर ऐ नबी ! तुम कहते हो कि लोगो ! मरने के बाद तुम दोबारा उठाए जाओगे, तो इंकारी तुरन्त बोल उठते हैं कि यह तो खुली जादूगरी है।9
7. यह मूल विषय से हटकर बीच में आ गया एक वाक्य है जो शायद लोगों के इस प्रश्न के उत्तर में फ़रमाया गया है कि आसमान व ज़मीन अगर पहले न थे और बाद में पैदा किए गए, तो पहले क्या था? इस प्रश्न को यहाँ नक़ल किए बिना इसका उत्तर इस संक्षिप्त वाक्य में दिया गया है कि पहले पानी था। हम नहीं कह सकते कि इस पानी से तात्पर्य क्या है? यही पानी जिसे हम इस नाम से जानते हैं? या यह शब्द रूपक के रूप में द्रव्य (Matter) की उस तरलता (Fluid) के लिए प्रयुक्त किया गया है जो वर्तमान रूप में ढाले जाने से पहले थी? रहा यह कथन कि अल्लाह का अर्श (सिंहासन) पहले पानी पर था, तो इसका अर्थ हमारी समझ में यह आता है कि अल्लाह का साम्राज्य पानी पर था।
8. इस कथन का अर्थ यह है कि अल्लाह ने ज़मीन व आसमान को इसलिए पैदा किया कि तुमको (अर्थात् इंसान को) पैदा करना अभिप्रेत था और तुम्हें इसलिए पैदा किया कि तुमपर नैतिक दायित्व का बोझ डाला जाए, तुम्हें ख़िलाफ़त के अधिकार दिए जाएँ और फिर देखा जाए कि तुममें से कौन इन अधिकारों को और इस नैतिक दायित्व के भार को किस तरह सँभालता है। अगर इस पैदाइश की तह में यह उद्देश्य न होता, अगर अधिकारों के सौंपे जाने के बाद भी किसी परीक्षा का, किसी पूछताछ और हिसाब-किताब का और किसी बदले या सज़ा का कोई प्रश्न पैदा न होता और अगर मनुष्य को नैतिक दायित्व उठानेवाला होने के बावजूद यूँ ही व्यर्थ मर-मिटकर मिट्टी हो जाना ही होता, तो फिर पैदा करने का यह पूरा कार्य एक व्यर्थ का खेल था और अस्तित्व के इस तमाम हंगामे की कोई हैसियत व्यर्थ के काम के सिवा कुछ न थी।
وَلَئِنۡ أَخَّرۡنَا عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابَ إِلَىٰٓ أُمَّةٖ مَّعۡدُودَةٖ لَّيَقُولُنَّ مَا يَحۡبِسُهُۥٓۗ أَلَا يَوۡمَ يَأۡتِيهِمۡ لَيۡسَ مَصۡرُوفًا عَنۡهُمۡ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 7
(8) और अगर हम एक विशेष अवधि तक उनकी सज़ा को टालते हैं, तो वे कहने लगते हैं कि आख़िर किस चीज़ ने उसे रोक रखा है ? सुनो, जिस दिन उस सज़ा का समय आ गया तो वह किसी के फेरे न फिर सकेगा और वही चीज़ उनको आ घेरेगी जिसका वे उपहास कर रहे हैं।
وَلَئِنۡ أَذَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِنَّا رَحۡمَةٗ ثُمَّ نَزَعۡنَٰهَا مِنۡهُ إِنَّهُۥ لَيَـُٔوسٞ كَفُورٞ ۝ 8
(9) अगर कभी हम इंसान को अपनी रहमत से नवाजने के बाद फिर उससे महरूम कर देते हैं तो वह निराश होता है और नाशुक्री करने लगता है।
وَلَئِنۡ أَذَقۡنَٰهُ نَعۡمَآءَ بَعۡدَ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُ لَيَقُولَنَّ ذَهَبَ ٱلسَّيِّـَٔاتُ عَنِّيٓۚ إِنَّهُۥ لَفَرِحٞ فَخُورٌ ۝ 9
(10) और अगर उस विपत्ति के बाद जो उसपर आई थी, हम उसे नेमत का मज़ा चखाते हैं तो कहता है कि मेरी तो सारी दरिद्रता दूर हो गई, फिर वह फूला नहीं समाता और अकड़ने लगता है।10
10. यह इंसान के छिछोरेपन, संकीर्णदृष्टि, चिन्तन-अभाव का हाल है जिसका जीवन में हर समय प्रदर्शन होता रहता है और जिसको आम तौर से लोग अपने आप का हिसाब लेकर स्वयं अपने भीतर भी महसूस कर सकते हैं। आज समृद्ध और बलवान हैं तो अकड़ रहे हैं, घमंड कर रहे हैं, सावन के अंधे की तरह हर ओर हरा ही हरा नज़र आ रहा है और ध्यान तक नहीं जाता कि कभी इस वसन्त पर पतझड़ भी आ सकता है। कल किसी विपत्ति के फेर में आ गए तो बिलबिला उठे, साक्षात निराशा बनकर रह गए और बहुत तिलमिलाए तो ख़ुदा को गालियाँ देकर और उसकी ख़ुदाई पर व्यंग्य करके दुख का भार हलका करने लगे। फिर जब बुरा समय बीत गया और भले दिन आए तो वही अकड़, वही डींगें और नेमत के नशे में वही मद-मस्तियाँ फिर शुरू हो गई। इंसान के इस घटिया दुर्गुण का यहाँ क्यों उल्लेख हो रहा है ? इसका उद्देश्य बड़ी सूक्ष्म शैली में लोगों को इसपर चेतावनी देनी है कि आज शान्ति के वातावरण में जब हमारा पैग़म्बर तुम्हें सचेत करता है कि अल्लाह की अवज्ञा करते रहोगे तो तुमपर अज़ाब आएगा, और तुम उसकी यह बात सुनकर एक ज़ोर का ठठ्ठा मारते हो और कहते हो कि "दीवाने । देखता नहीं हमपर नेमतों की वर्षा हो रही है, हर ओर हमारी बड़ाई के फरेरे उड़ रहे हैं, इस समय तुम्हें दिन दहाड़े यह डरावना सपना कैसे नज़र आ गया कि कोई अज़ाब हमपर टूट पड़नेवाला है, तो वास्तव में पैग़म्बर के उपदेशों के उत्तर में तुम्हारा यह ठठ्ठा इसी घटिया दुर्गुण का एक अति घृणित प्रदर्शन है। अल्लाह तो तुम्हारी पथ भ्रष्टताओं और दुष्कर्मों के बावजूद केवल अपनी दया व कृपा से तुम्हारी सज़ा में देर कर रहा है, ताकि तुम किसी तरह संभाल जाओ, मगर तुम इस मोहलत के समय में यह सोच रहे हो कि हमारी ख़ुशहाली कैसी दृढ़ नीवों पर स्थापित है और हमारा यह चमन कैसा सदाबहार है कि इसपर पतझड़ आने का कोई ख़तरा ही नहीं।
إِلَّا ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٞ كَبِيرٞ ۝ 10
(11) इस दोष से मुक्त अगर कोई हैं तो बस वे लोग जो सब करने (धैर्य रखने) वाले11 और सत्कर्म करनेवाले हैं। और वही हैं जिनके लिए क्षमा भी है और बड़ा बदला भी।12
11. यहाँ 'सब्र' के एक और अर्थ पर प्रकाश पड़ता है। सब्र की विशेषता उस छिछोरेपन का विलोम है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है । सन्न करनेवाला वह व्यक्ति है जो समय के बदलते हुए हालात में अपनी सोच के सन्तुलन को बाकी रखे। समय की हर चाल से प्रभावित होकर अपने स्वभाव का रंग बदलता न चला जाए, बल्कि एक समुचित और सही रवैये पर हर हाल में कायम रहे। अगर कभी परिस्थितियाँ अनुकूल हों और वह धन, शक्ति और प्रसिद्धि की ऊँचाइयों पर चढ़ा चला जा रहा हो तो बड़ाई के नशे में मस्त होकर बहकने न लगे और अगर किसी दूसरे समय विपत्तियों और विपदाओं की चक्की उसे पीसे डाल रही हो तो अपने मानवीय तत्त्व को ठसमें नष्ट न कर दे। अल्लाह की ओर से परीक्षा, चाहे सम्पन्नता के रूप में आए या विपत्ति के रूप में, दोनों दशाओं में उसकी नम्रता और सहनशीलता अपने हाल पर कायम रहे और उसका समाईपात्र किसी चीज़ की भी छोटी या बड़ी मात्रा से छलक न पड़े।
12. अर्थात् अल्लाह ऐसे लोगों के क़ुसूर माफ़ भी करता है और उनकी भलाइयों पर बदला भी देता है।
فَلَعَلَّكَ تَارِكُۢ بَعۡضَ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيۡكَ وَضَآئِقُۢ بِهِۦ صَدۡرُكَ أَن يَقُولُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ كَنزٌ أَوۡ جَآءَ مَعَهُۥ مَلَكٌۚ إِنَّمَآ أَنتَ نَذِيرٞۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ وَكِيلٌ ۝ 11
(12) तो ऐ पैग़म्बर ! कहीं ऐसा न हो कि तुम उन चीज़ों में से किसी चीज़ का (वर्णन करने से) छोड़ दो जो तुम्हारी ओर वह्य की जा रही हैं और इस बात पर दिल तंग हो कि वे कहेंगे, "इस व्यक्ति पर कोई ख़जाना क्यों न उतारा गया?" या यह कि "इसके साथ कोई फ़रिश्ता क्यों न आया?" तो केवल चेतावनी देनेवाले हो, आगे हर चीज़ का हवालेदार अल्लाह है।13
13. इस कथन का अर्थ समझने के लिए उन परिस्थितियों को दृष्टि में रखना चाहिए जिनमें यह कहा गया है कि 'मक्का एक ऐसे कबीले की राजधानी है जो तमाम अरब पर अपनी धार्मिक सत्ता, अपने धन व व्यापार और अपने राजनीति दबदबे के कारण छाया हुआ है। ठीक इस स्थिति में जबकि ये लोग अपनी पराकाष्ठा पर हैं, इस आबादी का एक व्यक्ति उठता है और एलानिया कहता है कि जिस धर्म के तुम गुरु हो, वह पूर्ण रूप से पथभ्रष्टता है। रहन-सहन की जिस व्यवस्था के तुम सरदार हो, वह अपनी जड़ तक गली और सड़ी हुई व्यवस्था है। अल्लाह का अज़ाब तुमपर टूट पड़ने के लिए तुला खड़ा है और तुम्हारे लिए उससे बचने की कोई शक्ल इसके सिवा नहीं है कि सत्य धर्म और उस मंगलकारी व्यवस्था को ग्रहण कर लो जो मैं अल्लाह की ओर से तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। उस व्यक्ति के साथ उसका पवित्र आचरण और उसकी उचित बातों के सिवा कोई ऐसी असाधारण वस्तु नहीं है जिससे आम लोग उसे अल्लाह की ओर से भेजा हुआ समझें और आसपास की परिस्थितियों में भी धर्म व नैतिकता और सभ्यता की गहरी बुनियादी ख़राबियों के सिवा कोई ऐसी प्रत्यक्ष निशानी नहीं है जो अज़ाब के आने की निशानदेही करती हो । बल्कि इसके विपरीत तमाम खुली निशानियाँ यही प्रकट कर रही हैं कि इन लोगों पर अल्लाह की (और उनके विश्वास के अनुसार देवताओं को) बड़ी कृपा है और जो कुछ वे कर रहे हैं, ठीक ही कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में यह बात कहने का परिणाम यह होता है और इसके सिवा कुछ हो भी नहीं सकता कि कुछ बहुत ही सही दिमाग़वाले और सच्चाई तक पहुँचनेवाले लोगों के सिवा बस्ती के सब लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं। कोई अत्याचार व अन्याय करके उसको दबाना चाहता है, कोई झूठे आरोपों और ओछी आपत्तियों से उसकी हवा उखाड़ने की कोशिश करता है, कोई पक्षपात के कारण मुँह फेर लेने में उसकी हिम्मत तोड़ता है और कोई हँसी उड़ाकर, आवाजें और फबतियाँ कसकर और ठठे लगाकर उसकी बातों को हवा में उड़ा देने का यत्न करता है। यह स्वागत जो कई साल तक उस व्यक्ति की दावत का होता रहता है, जैसा कुछ दिल तोड़नेवाला और निराश करनेवाला हो सकता है, स्पष्ट है। बस यही स्थिति है जिसमें अल्लाह अपने पैग़म्बर की हिम्मत बंधाने के लिए ज़ोर देकर कहता है कि अच्छी परिस्थितियों में फूल जाना और बुरी परिस्थितियों में निराश हो जाना छिछोरे लोगों का काम है। हमारी दृष्टि में मूल्यवान मनुष्य वह है जो नेक हो और नेकी के रास्ते पर धैर्य, जमाव और साहस के साथ चलनेवाला हो। इसलिए जिस पक्षपात से, जिस विमुखता से, जिस उपहास से और जिन अज्ञानपूर्ण आपत्तियों से तुम्हारा मुक़ाबला किया जा रहा है उनके कारण तुम्हारे क़दमों में तनिक भर भी डगमगाहट न आने पाए। जो तथ्य तुमपर वह्य के ज़रिये खोला गया है, उसके बयान करने और एलान करने में और उसकी ओर बुलाने में तुम्हें कदापि कोई झिझक न हो। तुम्हारे दिल में इस विचार का कभी गुज़र तक न हो कि अमुक बात कैसे कहूँ जबकि लोग सुनते ही उसकीखिल्ली उड़ाने लगते हैं और अमुक वास्तविकता को कैसे व्यक्त कमै जबकि किसी को उसका सुनना तक गवारा नहीं है। कोई माने या न माने, तुम जिसे सच पाते हो उसे बिना कुछ घटाए-बढ़ाए और निर्भय होकर बयान किए जाओ, आगे सब मामले अल्लाह के सुपुर्द हैं।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ فَأۡتُواْ بِعَشۡرِ سُوَرٖ مِّثۡلِهِۦ مُفۡتَرَيَٰتٖ وَٱدۡعُواْ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 12
(13) क्या ये कहते हैं कि पैग़म्बर ने यह किताब स्वयं गढ़ ली है ? कहो, “अच्छा, यह बात है तो इस जैसी गढ़ी हुई दस सूरतें तुम बना लाओ और अल्लाह के सिवा और जो-जो (तुम्हारे उपास्य) हैं, उनको सहायता के लिए बुला सकते हो तो बुला लो, अगर तुम (उन्हें उपास्य समझने मे) सच्चे हो ।
فَإِلَّمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَكُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَآ أُنزِلَ بِعِلۡمِ ٱللَّهِ وَأَن لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 13
(14) अब अगर वे (तुम्हारे उपास्य) तुम्हारी सहायता को नहीं पहुँचते तो जान लो कि यह अल्लाह के ज्ञान से उतरी है और यह कि अल्लाह के सिवा कोई वास्तविक उपास्य नहीं है फिर क्या तुम (इस सच्ची बात के आगे) सिर झुकाते हो?’’14
14. यहाँ एक ही तर्क से क़ुरआन के अल्लाह की वाणी होने का प्रमाण भी दिया गया है, और तौहीद (एकेश्वरवाद) का प्रमाण भी। तर्क का सार यह है कि- (1) अगर तुम्हारे नज़दीक यह मानव-वाणी है तो मनुष्य को ऐसी वाणी में सक्षम होना चहिए, इसलिए तुम्हारा यह दावा कि मैंने इसे स्वयं गढ़ा है, केवल इसी रूप में सही हो सकता है कि तुम ऐसी एक किताब लिखकर दिखाओ, लेकिन अगर मेरे बार-बार चैलेंज देने पर भी तुम सब मिलकर उसका उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकते, तो मेरा यह दावा सही है कि मैं इस किताब का लेखक नहीं हूँ, बल्कि यह अल्लाह के ज्ञान से उतरी है। (2) फिर जबकि इस किताब में तुम्हारे उपास्यों का भी खुल्लम-खुल्ला विरोध किया गया है और साफ़-साफ़ कहा गया है कि उनकी उपासना छोड़ दो, क्योंकि ईश्वरत्व में उनकी कोई भागीदारी नहीं है, तो ज़रूर है कि तुम्हारे उपास्यों को भी (अगर सचमुच उनमें कोई शक्ति है) मेरे दावे को झूठ सिद्ध करने और इस किताब का उदाहरण प्रस्तुत करने में तुम्हारी सहायता करनी चाहिए, लेकिन अगर वे इस निर्णय की घड़ी में भी तुम्हारी सहायता नहीं करते और तुम्हारे भीतर कोई ऐसी शक्ति नहीं फूँकते कि तुम इस किताब जैसी किताब प्रस्तुत कर सको, तो इससे स्पष्ट रूप से सिद्ध हो सकता है कि तुमने खामखाह उनको उपास्य बना रखा है, वरना वास्तव में उनके भीतर कोई क्षमता और ईश्वरत्व का गुण लेशमात्र भी नहीं है जिसकी वजह से वे उपास्य होने के अधिकारी हों। इस आयत से एक यह बात भी मालूम हुई कि यह सूरा उतरने के क्रम की दृष्टि से सूरा यूनुस से पहले की है। यहाँ दस सूरतें बनाकर लाने का चैलेंज दिया गया है और जब वे इसका उत्तर न दे सके तो फिर सूरा यूनुस में कहा गया है कि अच्छा एक ही सूरा इस जैसी लिखकर लाओ । (सूरा यूनुस (10 ), आयत 38)
مَن كَانَ يُرِيدُ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتَهَا نُوَفِّ إِلَيۡهِمۡ أَعۡمَٰلَهُمۡ فِيهَا وَهُمۡ فِيهَا لَا يُبۡخَسُونَ ۝ 14
(15) जो लोग बस इसी दुनिया की जिन्दगी और उसकी शोभा की तलब रखते हैं15, उनके किए-धरे का सारा फल हम यहीं उनको दे देते हैं और इसमें उनके साथ कोई कमी नहीं की जाती,
15. वार्ता के इस क्रम में यह बात इस अनुकूलता से कही गई है कि क़ुरआन की दावत को जिस प्रकार के लोग उस समय में रद्द कर रहे थे और आज भी रद्द कर रहे हैं, वे अधिकतर वही थे और हैं जिनके मन व मस्तिष्क पर दुनियापरस्ती छाई हुई है। अल्लाह के सन्देश को रद्द करने के लिए जो दलीलबाज़ियाँ वे करते हैं, वे सब तो बाद की चीजें हैं। पहली चीज़ जो इस इंकार का मूल कारण है, वह उनके मन का यह निर्णय है कि दुनिया और उसके भौतिक लाभों से परे कोई वस्तु मूल्यवान नहीं है और यह कि इन लाभों से फ़ायदा उठाने के लिए उनको पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَيۡسَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِلَّا ٱلنَّارُۖ وَحَبِطَ مَا صَنَعُواْ فِيهَا وَبَٰطِلٞ مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 15
(16) मगर आख़िरत में ऐसे लोगों के लिए आग के सिवा कुछ नहीं है ।16 (वहाँ मालूम हो जाएगा कि) जो कुछ उन्होंने दुनिया में बनाया, वह सब मिट्टी में मिल गया और अब उनका सारा किया-धरा मात्र मिथ्या है।
16.अर्थात् जिसकी दृष्टि में केवल दुनिया और उसका लाभ हो, वह अपनी दुनिया बनाने की जैसी कोशिश यहाँ करेगा, वैसा ही उसका फल उसे यहाँ मिल जाएगा। लेकिन जबकि आख़िरत उसकी दृष्टि में नहीं है और इसके लिए उसने कोई कोशिश भी नहीं की है, तो कोई कारण नहीं कि दुनिया प्राप्त करने की उसकी कोशिशों का फल आख़िरत तक चले। वहाँ फल पाने की संभावना तो केवल इसी रूप में हो सकती है जबकि दुनिया में आदमी की कोशिश उन कामों के लिए हो जो आख़िरत में भी लाभप्रद हो । उदाहरण के रूप में अगर एक व्यक्ति चाहता है कि एक शानदार मकान उसे रहने के लिए मिले और वह उसके लिए उन उपायों को व्यवहार में लाता है, जिनसे यहाँ मकान बना करते हैं, तो जसार एक शानदार महल बनकर तैयार हो जाएगा और उसकी कोई एक ईंट भी केवल इस कारण जमने से इंकार न करेगी कि एक काफ़िर उसे जमाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उस व्यक्ति को अपना यह महल और उसका सारी सामग्री मौत की आख़िरी हिचकी के साथ ही इस दुनिया में छोड़ देनी पड़ेगी और उसकी कोई चीज़ भी वह अपने साथ दूसरी दुनिया में न ले जा सकेगा। आर उसने आख़िरत में महल तैयार करने के लिए कुछ भी नहीं किया है तो कोई उचित कारण नहीं है कि उसका यह महल वहाँ उसके साथ स्थानान्तरित हो। वहाँ कोई महल वह पा सकता है तो केवल इस रूप में पा सकता है जबकि दुनिया में उसकी कोशिश उन कामों में हो जिनसे अल्लाह के क़ानून के अनुसार आख़िरत का महल बना करता है। अब प्रश्न यह किया जा सकता है कि इस तर्क का तकाज़ा तो केवल इतना ही है कि वहाँ उसे कोई महल न मिले। मगर यह क्या बात है कि वहाँ महल के बजाय उसे आग मिलेगी? इसका उत्तर यह है (और यह क़ुरआन ही का उत्तर है जो विभिन्न अवसरों पर उसने दिया है कि जो व्यक्ति आख़िरत को नज़रअंदाज करके केवल दुनिया के लिए काम करता है वह अनिवार्य रूप से और स्वभावत: ऐसे तरीक़ों से काम करता है जिनसे आख़िरत में महल के बजाय आग का अलाव तैयार होता है। (दखिए सूरा यूनुस (10), टिप्पणी 12)
أَفَمَن كَانَ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّهِۦ وَيَتۡلُوهُ شَاهِدٞ مِّنۡهُ وَمِن قَبۡلِهِۦ كِتَٰبُ مُوسَىٰٓ إِمَامٗا وَرَحۡمَةًۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِهِۦ مِنَ ٱلۡأَحۡزَابِ فَٱلنَّارُ مَوۡعِدُهُۥۚ فَلَا تَكُ فِي مِرۡيَةٖ مِّنۡهُۚ إِنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 16
(17) फिर भला वह व्यक्ति जो अपने रब की ओर से एक साफ गवाही रखता था17, इसके बाद एक गवाह भी पालनहार की ओर से (इस गवाही के समर्थन में) आ गया18 और पहले मूसा की किताब मार्गदर्शक और रहमत के रूप में आई हुई भी मौजूद थी, (क्या वह भी दुनियापरस्तों की तरह इससे इंकार कर सकता है?) ऐसे लोग तो उसपर ईमान ही लाएँगे19 और इंसानी गिरोहों में से जो कोई उसका इंकार करे तो उसके लिए जिस जगह का वादा है, वह दोज़ख़ है। अत: ऐ पैग़म्बर ! तुम इस चीज़ की ओर से किसी सन्देह में न पड़ना, यह सत्य है तुम्हारे रब की ओर से, मगर अधिकतर लोग नहीं मानते।
17.अर्थात् जिसको स्वयं अपने अस्तित्व में और जमीन व आसमान की बनावट में और सृष्टि व्यवस्था में इस बात की खुली गवाही मिल रही थी कि इस दुनिया का पैदा करनेवाला, स्वामी, पालनहार और शासक व बादशाह केवल एक अल्लाह है और फिर उन्हीं गवाहियों को देखकर जिसका दिल यह गवाही भी पहले ही से दे रहा था कि इस ज़िन्दगी के बाद कोई और जिन्दगी जरूर होनी चाहिए, जिसमें इंसान अपने अल्लाह को अपने कर्मों का हिसाब दे और अपने किए का बदला व सजा पाए।
18.अर्थात् क़ुरआन, जिसने आकर उस स्वाभाविक और बौद्धिक गवाही का समर्थन किया और उसे बताया कि सच में सत्य वही है जिसका निशान दुनिया और अपने-आप में तूने पाया है।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُعۡرَضُونَ عَلَىٰ رَبِّهِمۡ وَيَقُولُ ٱلۡأَشۡهَٰدُ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ عَلَىٰ رَبِّهِمۡۚ أَلَا لَعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 17
(18) और उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ गढ़े ?20 ऐसे लोग अपने रब के सामने पेश होंगे और गवाह गवाही देंगे कि ये हैं वे लोग जिन्होंने अपने रब पर झूठ गढ़ा था। सुनो, अल्लाह की लानत है ज़ालिमों पर21
20.अर्थात् यह कहे कि अल्लाह के साथ ईश्वरत्त्व और बन्दगी करवाने का अधिकार पाने में दूसरे भी साझीदार हैं। या यह कहे कि अल्लाह को अपने बन्दों के मार्गदर्शन और पथभ्रष्टता से कोई दिलचस्पी नहीं है और उसने कोई किताब और कोई नबी हमारे मार्गदर्शन के लिए नहीं भेजा है, बल्कि हमें आज़ाद छोड़ दिया है कि जो ढंग चाहें अपने जीवन के लिए अपना लें या यह कहे कि अल्लाह ने हमें यूँ ही खेल के रूप में पैदा किया और यूँ ही हमें समाप्त कर देगा, कोई जवाबदेही हमें उसके सामने नहीं करनी है और कोई बदला व सज़ा नहीं होनी है।
21.वर्णनशैली साफ़ बता रही है कि यह बात आखिरत में उनकी पेशी के मौके पर कही जाएगी।
ٱلَّذِينَ يَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَيَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 18
(19)-उन ज़ालिमों पर22 जो अल्लाह के रास्ते से लोगों को रोकते हैं, उसके रास्ते को टेढ़ा करना चाहते हैं23 और आख़िरत का इंकार करते हैं।
22.यह एक ज़रूरी बात है जो संदर्भ से हटकर कही जा रही है कि जिन ज़ालिमों पर वहाँ अल्लाह की धिक्कार का एलान होगा, वे वही लोग होंगे जो आज दुनिया में ये हरकतें कर रहे हैं।
23.अर्थात् वे उस सीधी राह को, जो उनके सामने पेश की जा रही है, पसन्द नहीं करते और चाहते हैं कि यह राह कुछ उनकी मनोकामनाओं और उनके अज्ञानतापूर्ण पक्षपातों और उनके अंधविश्वासों के अनुसार टेढ़ी हो जाए तो वे उसे स्वीकार करें।
أُوْلَٰٓئِكَ لَمۡ يَكُونُواْ مُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا كَانَ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِنۡ أَوۡلِيَآءَۘ يُضَٰعَفُ لَهُمُ ٱلۡعَذَابُۚ مَا كَانُواْ يَسۡتَطِيعُونَ ٱلسَّمۡعَ وَمَا كَانُواْ يُبۡصِرُونَ ۝ 19
(20) — वे धरती में 24 अल्लाह को बेबस करनेवाले न थे और न अल्लाह के मुकाबले में कोई उनका समर्थक था। उन्हें अब दोहरा अज़ाब दिया जाएगा। 25 वे न किसी की सुन ही सकते थे और न स्वयं ही उन्हें कुछ सूझता था।
24.यह फिर परलोक का बयान है।
25.एक अज़ाब स्वयं गुमराह होने का, दूसरा अज़ाब दूसरों को गुमराह करने और बाद की नस्लों के लिए गुमराही की मीरास छोड़ जाने का। (देखिए सूरा-7, आराफ़, टिप्पणी-30)
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 20
(21) ये वह लोग हैं, जिन्होंने अपने आपको स्वयं घाटे में डाला और वह सब कुछ इनसे खोया गया जो उन्होंने गढ़ रखा था।26
26.अर्थात् वे सब सिद्धान्त हवा हो गए जो उन्होंने अल्लाह और सृष्टि और अपनी हस्ती के बारे में गढ़ रखे थे और वे सब भरोसे भी झूठे निकले जो उन्होंने अपने उपास्यों और सिफ़ारिशियों और अभिभावकों पर रखे थे और वे अनुमान भी ग़लत निकले जो उन्होंने मरने के बाद जीवन के बारे में निश्चित किए थे।
لَا جَرَمَ أَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ هُمُ ٱلۡأَخۡسَرُونَ ۝ 21
(22) अनिवार्य है कि वही आख़िरत में सबसे बढ़कर घाटे में रहें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَأَخۡبَتُوٓاْ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 22
(23) रहे वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने भले कर्म किए और अपने रब ही के होकर रहे, तो निश्चय ही वे जन्नती लोग हैं और जन्नत में वे हमेशा रहेंगे।27
27.यहाँ आख़िरत की दुनिया का बयान समाप्त हुआ।
۞مَثَلُ ٱلۡفَرِيقَيۡنِ كَٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡأَصَمِّ وَٱلۡبَصِيرِ وَٱلسَّمِيعِۚ هَلۡ يَسۡتَوِيَانِ مَثَلًاۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 23
(24) इन दोनों फ़रीक़ों की मिसाल ऐसी है जैसे एक आदमी तो हो अंधा, बहरा और दूसरा हो देखने और सुननेवाला, क्या ये दोनों बराबर हो सकते हैं? 28 क्या तुम (इस उदाहरण से) कोई शिक्षा नहीं ग्रहण करते?
28.अर्थात् क्या इन दोनों की रीति-नीति और अन्तत: दोनों का अंजाम एक जैसा हो सकता है? स्पष्ट है कि जो व्यक्ति न स्वयं रास्ता देखता है और न किसी ऐसे आदमी की बात ही सुनता है जो उसे रास्ता बता रहा हो, वह अवश्य ही कहीं ठोकर खाएगा और कहीं किसी बड़ी दुर्घटना का शिकार होगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति स्वयं भी रास्ता देख रहा हो और किसी रास्ता जाननेवाले से भी फ़ायदा उठाता हो, वह ज़रूर अपनी मंज़िल पर सकुशल पहुँच जाएगा। बस यही अन्तर उन लोगों के बीच भी है जिनमें से एक अपनी आँखों से भी सृष्टि में सच्चाई को निशानियों को देखता है और अल्लाह के भेजे हुए रहनुमाओं की बात भी सुनता है, और दूसरा न स्वयं दिल की आँखें खुली रखता है कि अल्लाह की निशानियाँ उसे नज़र आएँ और न पैग़म्बरों की बात ही सुनकर देता है। कैसे संभव है कि ज़िन्दगी में इन दोनों की रीति-नीति एक जैसी हो और फिर क्या कारण है कि अन्ततः इनके अंजाम में अन्तर न हो?
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦٓ إِنِّي لَكُمۡ نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 24
(25) (और ऐसी ही परिस्थितियाँ थीं जब) हमने नूह को उसकी क़ौम की ओर भेजा था।29 (उसने कहा) “मैं तुम लोगों को साफ़-साफ़ ख़बरदार करता हूँ
29.उचित है कि इस अवसर पर सूरा-7, (आराफ़), आयत 54-58, की टिप्पणियाँ भी सामने रहें।
أَن لَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَۖ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ أَلِيمٖ ۝ 25
(26) कि अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो, वरना मुझे डर है कि तुमपर एक दिन दर्दनाक अज़ाब आएगा।‘’30
30.यह वही बात है जो इस सूरा के आरंभ में मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से अदा हुई है।
فَقَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ مَا نَرَىٰكَ إِلَّا بَشَرٗا مِّثۡلَنَا وَمَا نَرَىٰكَ ٱتَّبَعَكَ إِلَّا ٱلَّذِينَ هُمۡ أَرَاذِلُنَا بَادِيَ ٱلرَّأۡيِ وَمَا نَرَىٰ لَكُمۡ عَلَيۡنَا مِن فَضۡلِۭ بَلۡ نَظُنُّكُمۡ كَٰذِبِينَ ۝ 26
(27) उत्तर में उसको क़ौम के सरदार, जिन्होंने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया था, बोले, “हमारी दृष्टि में तो तुम इसके सिवा कुछ नहीं हो कि बस एक इंसान हो हम जैसे 31 और हम देख रहे हैं कि हमारी क़ौम में से बस उन लोगों ने, जो हमारे यहाँ नीच थे, बेसोचे-समझे तुम्हारी पैरवी अपना ली है 32 और हम कोई चीज़ भी ऐसी नहीं पाते जिसमें तुम लोग हमसे कुछ बढ़े हुए हो 33, बल्कि हम तो तुम्हें झूठा समझते हैं।”
31.वही अज्ञानतापूर्ण आपत्ति जो मक्के के लोग मुहम्मद (सल्ल०) के मुकाबले में सामने लाते थे कि जो व्यक्ति हमारी ही तरह का एक मामूली इंसान है, खाता-पीता है, चलता-फिरता है, सोता और जागता है, बाल-बच्चे रखता है, आख़िर हम कैसे मान लें कि वह अल्लाह की ओर से पैग़म्बर नियुक्त होकर आया है।
32.यह भी वही बात है जो मक्का के बड़े लोग और उच्च वर्ग के लोग मुहम्मद (सल्ल०) बारे में कहते कि उनके साथ है कौन, या तो कुछ सिरफिरे लड़के हैं जिन्हें दुनिया का कोई अनुभव नहीं, या कुछ दास और दलित वर्ग के लोग हैं जो अक़्ल से कोरे और विश्वास के कमज़ोर होते हैं। दिखिए सूरा-6 (अनआम), टिप्पणी 34-37 और सूरा-10 (युनुस), टिप्पणी 78)
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَءَاتَىٰنِي رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِهِۦ فَعُمِّيَتۡ عَلَيۡكُمۡ أَنُلۡزِمُكُمُوهَا وَأَنتُمۡ لَهَا كَٰرِهُونَ ۝ 27
(28) उसने कहा, “ऐ मेरे क़ौमी भाइयो ! तनिक सोचो तो सही कि अगर मैं अपने रब की ओर से एक खुली गवाही पर कायम था और फिर उसने मुझको अपनी खास रहमत से भी नवाज़ दिया 34, मगर वह तुमको नज़र न आई, तो आखिर हमारे पास क्या साधन है कि तुम मानना न चाहो और हम ज़बरदस्ती उसको तुम्हारे सिर थोप दें ?
34.यह वही बात है जो अभी पिछली आयतों में मुहम्मद (सल्ल०) से कहलवाई जा चुकी है कि पहले स्वयं दुनिया में और अपने आप में अल्लाह की निशानियाँ देखकर तौहीद की वास्तविकता तक पहुँच चुका था, फिर अल्लाह ने अपनी रहमत (यानी वह्य) से मुझे नवाज़ा और उन सच्चाइयों का सीधा ज्ञान मुझे प्रदान किया जिनपर मेरा दिल पहले से गवाही दे रहा था। इससे यह भी मालूम हुआ कि तमाम पैग़म्बर नबी होने से पहले अपने चिन्तन मनन से परोक्ष पर ईमान प्राप्त कर चुके होते थे, फिर अल्लाह उनको पैग़म्बरी का पद प्रदान करते समय प्रत्यक्ष पर ईमान प्रदान करता था।
وَيَٰقَوۡمِ لَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مَالًاۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۚ وَمَآ أَنَا۠ بِطَارِدِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْۚ إِنَّهُم مُّلَٰقُواْ رَبِّهِمۡ وَلَٰكِنِّيٓ أَرَىٰكُمۡ قَوۡمٗا تَجۡهَلُونَ ۝ 28
(29) और ऐ मेरे क़ौमी भाइयो । मैं इस काम पर तुमसे कोई माल नहीं माँगता 35, मेरा बदला तो अल्लाह के जिम्मे है और मैं उन लोगों को धक्के देने से भी रहा जिन्होंने मेरी बात मानी है। वे आप ही अपने रब के पास जानेवाले हैं 36, मगर मैं देखता हूँ कि तुम लोग नासमझी दिखा रहे हो ।
35.अर्थात मैं एक नि:स्वार्थ हितैषी हूँ। अपने किसी स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे ही भले के लिए ये सारी मशक्कतें और तकलीफें सह रहा हूँ। तुम किसी ऐसे निजी स्वार्थ की निशानदेही नहीं कर सकते जो इस सच्ची बात की दावत देने में और उसके लिए जान-तोड़ मेहनतें करने और मुसीबतें झेलने में मेरे सामने हो। (देखिए सूरा-23, (मोमिनून), टिप्पणी-70, सूरा-36, (यासीन) टिप्पणी-17, सूरा-42 (अश-शूरा) टिप्पणी- 41)
36.अर्थात् उनका मूल्य जो कुछ भी है, वह उनके रब को मालूम है और उसी के सामने जाकर वह खुलेगा। अगर ये क़ीमती हीरे हैं तो मेरे और तुम्हारे फेंक देने से पत्थर न हो जाएँगे और अगर ये मूल्यहीन पत्थर हैं तो इनके स्वामी को अधिकार है कि इन्हें जहाँ चाहे फेंके।
وَيَٰقَوۡمِ مَن يَنصُرُنِي مِنَ ٱللَّهِ إِن طَرَدتُّهُمۡۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 29
(30) और ऐ मेरी क़ौम ! अगर मैं इन लोगों को धुतकार दूँ तो अल्लाह की पकड़ से कौन मुझे बचाने आएगा? तुम लोगों की समझ में क्या इतनी बात भी नहीं आती?
وَلَآ أَقُولُ لَكُمۡ عِندِي خَزَآئِنُ ٱللَّهِ وَلَآ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ وَلَآ أَقُولُ إِنِّي مَلَكٞ وَلَآ أَقُولُ لِلَّذِينَ تَزۡدَرِيٓ أَعۡيُنُكُمۡ لَن يُؤۡتِيَهُمُ ٱللَّهُ خَيۡرًاۖ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا فِيٓ أَنفُسِهِمۡ إِنِّيٓ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 30
(31) और मैं तुमसे नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के खजाने हैं, न यह कहता कि मै परोक्ष का ज्ञान रखता हूँ, न यह मेरा दावा है कि मैं फ़रिश्ता हूँ37 और यह भी मैं नहीं कह सकता कि जिन लोगों को तुम्हारी आँखें घृणा से देखती हैं, उन्हें अल्लाह ने कोई भलाई नहीं दी। उनके मन का हाल अल्लाह ही बेहतर जानता है। अगर मैं ऐसा कहूँ तो ज़ालिम हूँगा।"
37.यह उस बात का उत्तर है जो विरोधियों ने कही थी कि हमें तो बस तुम अपने ही जैसे एक इंसान नज़र आते हो । इसपर हज़रत नूह (अलैहि०) फ़रमाते हैं कि सच में मैं एक इंसान ही हूँ। मैंने इंसान के सिवा कुछ और होने का दावा कब किया था कि तुम मुझपर यह आपत्ति करते हो । मेरा दावा जो कुछ है, वह तो केवल यह है कि अल्लाह ने मुझे ज्ञान और कर्म का सीधा रास्ता दिखाया है। उसकी परीक्षा तुम जिस तरह चाहो, कर लो, मगर इस दावे की परीक्षा का यह कौन-सा तरीक़ा है कि कभी तुम मुझसे परोक्ष की ख़बरें पूछते हो और कभी ऐसी-ऐसी विभिन्न माँगें करते हो कि मानो अल्लाह के खज़ानों की सारी कुंजियाँ मेरे पास हैं और कभी इस बात पर आपत्ति करते हो कि मैं इंसानों की तरह खाता-पीता और चलता-फिरता हूँ. मानो मैंने फ़रिश्ता होने का दावा किया था। जिस आदमी ने विश्वास, चरित्र और संस्कृति में सही मार्गदर्शन का दावा किया है उससे इन चीज़ों के बारे में जो चाहो पूछो, मगर तुम विचित्र लोग हो जो उससे पूछते हो कि अमुक आदमी की भैंस पड़वा जनेगी या पड़िया, मानो इंसानी ज़िन्दगी के लिए चरित्र और संस्कृति के सही नियम बताने का कोई ताल्लुक भैंस के गर्भ से भी है। (देखिए सूरा-6, (अनआम), टिप्पणी 31-32)
قَالُواْ يَٰنُوحُ قَدۡ جَٰدَلۡتَنَا فَأَكۡثَرۡتَ جِدَٰلَنَا فَأۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 31
(32) अन्तत: उन लोगों ने कहा, “ऐ नूह ! तुमने हमसे झगड़ा किया और बहुत कर लिया, अब तो बस वह अज़ाब ले आओ जिसकी तुम हमें धमकी देते हो अगर सच्चे हो।"
قَالَ إِنَّمَا يَأۡتِيكُم بِهِ ٱللَّهُ إِن شَآءَ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 32
(33) नूह ने उत्तर दिया, "वह तो अल्लाह ही लाएगा अगर चाहेगा और तुम इतना बलबूता नहीं रखते कि उसे रोक दो।
وَلَا يَنفَعُكُمۡ نُصۡحِيٓ إِنۡ أَرَدتُّ أَنۡ أَنصَحَ لَكُمۡ إِن كَانَ ٱللَّهُ يُرِيدُ أَن يُغۡوِيَكُمۡۚ هُوَ رَبُّكُمۡ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 33
(34) अब अगर मैं तुम्हारा कुछ हित भी करना चाहूँ, तो मेरा हित चाहना तुम्हें कोई फ़ायदा नहीं दे सकता, जबकि अल्लाह ही ने तुम्हें भटका देने का इरादा कर लिया हो।38 वही तुम्हारा रब है और उसी की ओर तुम्हें पलटना है।"
38.अर्थात् अगर अल्लाह ने तुम्हारी हठधर्मी, दुष्टता और भलाई से नफ़रत देखकर यह निर्णय कर लिया है कि तुम्हें सीधे रास्ते का सौभाग्य न दे और जिन राहों में तुम स्वयं भटकना चाहते हो, उन्हीं में तुमको भटका दे, तो अब तुम्हारी भलाई के लिए मेरा कोई प्रयास सफल नहीं हो सकता।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ إِنِ ٱفۡتَرَيۡتُهُۥ فَعَلَيَّ إِجۡرَامِي وَأَنَا۠ بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُجۡرِمُونَ ۝ 34
(35) ऐ नबी ! क्या ये लोग कहते हैं कि इस आदमी ने यह सब कुछ स्वयं गढ़ लिया है ? इनसे कहो, “अगर मैंने यह स्वयं गढ़ा है तो मुझपर अपने अपराध की ज़िम्मेदारी है और जो अपराध तुम कर रहे हो, उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।"39
39.वर्णनशैली से ऐसा लगता है कि नबी (सल्ल०) के मुख से हज़रत नूह (अलैहि०) का यह किस्सा सुनते हुए विरोधियों ने आपत्ति की होगी कि मुहम्मद ये किस्से बना बनाकर इसलिए पेश करता है कि उन्हें हमपर चस्पा करे। जो चोटें वह हम पर सीधे-सीधे नहीं करना चाहता, उनके लिए एक किस्सा गढ़ता है और इस तरह 'दूसरों की बातों' के अन्दाज़ में हमपर चोट करता है, इसलिए वार्ता के इस क्रम को तोड़कर उनकी आपत्ति का उत्तर इस वाक्य में दिया गया। सच तो यह है कि घटिया प्रकार के लोगों का मस्तिष्क सदैव बात के बुरे पहलू की ओर जाया करता है और अच्छाई से उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती कि बात के अच्छे पहलू पर उनकी नज़र जा सके । एक आदमी ने अगर कोई सूझ-बूझ को बात कही है या वह तुम्हें कोई लाभप्रद शिक्षा दे रहा है या तुम्हारी किसी ग़लती पर तुमको सचेत रहा है तो इससे लाभ उठाओ और अपना सुधार करो, मगर घटिया आदमी सदैव इसमें बुराई का कोई ऐसा पहलू खोजेगा जिससे विवेक और उपदेश पर पानी फेर देगा और न केवल स्वयं अपनी बुराई पर कायम रहे, बल्कि कहनेवाले के जिम्मे भी उलटी कुछ बुराई लगा दे। अच्छे से अच्छा उपदेश भी नष्ट किए जा सकते हैं अगर सुननेवाला उसे हितैषिता के बजाय 'चोट' के अर्थ में ले ले और उसका मस्तिष्क अपनी ग़लती को मानने और महसूस करने के बजाय बुरा मानने की ओर चल पड़े। फिर इस प्रकार के लोग सदैव अपने चिन्तन की बुनियाद एक दुनियावी दुर्भावना पर रखते हैं। जिस बात के सही होने और बनावटी होने की एक जैसी संभावना हो, मगर वह ठीक-ठीक तुम्हारे हाल पर फिट हो रही हो और उसमें तुम्हारी किसी ग़लती की निशानदेही होती हो, तो तुम एक सूझ बूझ वाले आदमी होगे अगर उसे एक सच्ची बात समझकर उसके शिक्षाप्रद पहलू से लाभ उठाओगे, और मात्र एक दुर्भावना प्रस्त और टेढ़वाले आदमी होगे अगर किसी प्रमाण के बिना यह आरोप लगा दोगे कि कहनेवाले ने केवल हमपर फिट करने के लिए यह किस्सा गढ़ लिया है। इसी कारण यह कहा कि अगर किस्सा मैने गढ़ा है तो अपने अपराध का मैं ज़िम्मेदार हूँ, लेकिन जो अपराध तुम कर रहे हो, वह तो अपनी जगह कायम है और उसकी जिम्मेदारी में तुम ही पकड़े जाओगे, न कि मैं।
وَأُوحِيَ إِلَىٰ نُوحٍ أَنَّهُۥ لَن يُؤۡمِنَ مِن قَوۡمِكَ إِلَّا مَن قَدۡ ءَامَنَ فَلَا تَبۡتَئِسۡ بِمَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 35
(36) नूह पर वहय की गई कि तुम्हारी कौम में से जो लोग ईमान ला चुके, बस चे ला चुके, अब कोई माननेवाला नहीं है। उनके करतूतों पर दुखी होना छोड़ दो
وَٱصۡنَعِ ٱلۡفُلۡكَ بِأَعۡيُنِنَا وَوَحۡيِنَا وَلَا تُخَٰطِبۡنِي فِي ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِنَّهُم مُّغۡرَقُونَ ۝ 36
(37) और हमारी निगरानी में हमारी वह्य के अनुसार एक नाव बनानी शुरू कर दो और देखो जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है, उनके लिए मुझसे कोई सिफारिश न करना। ये सारे के सारे अब डूबनेवाले है।40
40.इससे मालूम हुआ कि जब नबी का सन्देश किसी कौम को पहुँच जाए तो उसे सिर्फ उस वक़्त तक मोहलत मिलती है जब तक उसमें कुछ भले आदमियों के निकल आने की संभावना पाई जाती हो, मगर जब उसके भले लोग सब निकल चुकते हैं और वह केवल बुरे लोगों ही का गिरोह रह जाता है तो अल्लाह उस क़ौम को फिर कोई मोहलत नहीं देता और उसकी रहमत का तकाजा यही होता है कि सड़े हुए फलों के उस टोकरे को दूर फेंक दिया जाए, ताकि वह अच्छे फलों को भी सड़ा न दे। फिर उसपर तरस खाना सारी दुनिया के साथ और आनेवाली इंसानी नस्लों के साथ क्रूरता है।
وَيَصۡنَعُ ٱلۡفُلۡكَ وَكُلَّمَا مَرَّ عَلَيۡهِ مَلَأٞ مِّن قَوۡمِهِۦ سَخِرُواْ مِنۡهُۚ قَالَ إِن تَسۡخَرُواْ مِنَّا فَإِنَّا نَسۡخَرُ مِنكُمۡ كَمَا تَسۡخَرُونَ ۝ 37
(38) नूह नाव बना रहा था और उसकी कौम के सरदारों में से जो कोई उसके पास से गुज़रता था, वह उसका उपहास करता था। उसने कहा, “अगर तुम हमपर हँसते हो तो हम भी तुमपर हँस रहे हैं ।
فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن يَأۡتِيهِ عَذَابٞ يُخۡزِيهِ وَيَحِلُّ عَلَيۡهِ عَذَابٞ مُّقِيمٌ ۝ 38
(39) बहुत जल्द तुम्हे स्वयं मालूम हो जाएगा कि किस पर वह अज़ाब आता है जो उसे रुसवा कर देगा और किस पर वह बला टूट पड़ती है जो टाले नहीं टलेगी।"41
41.यह एक अनोखा मामला है जिसपर विचार करने से मालूम होता है कि इंसान दुनिया के ज़ाहिर से कितना धोखा खाता है। जब नूह (अलैहि०) नदी से बहुत दूर सूखे पर अपना जहाज़ बना रहे होंगे तो सच में यह लोगों को एक बड़ा हास्यास्पद कार्य दिखाई देता होगा और वे हँस-हँसकर कहते होंगे कि बड़े मियाँ का पागलपन आख़िर यहाँ तक पहुँचा कि अब आप सूखे में जहाज़ चलाएँगे। उस समय किसी को सपने में भी यह बात न आ सकती होगी कि कुछ दिनों बाद सच में यहाँ जहाज चलेगा। वे इस काम को हज़रत नूह के दिमाग़ की खराबी का एक खुला प्रमाण समझ रहे होंगे और एक-एक से कहते होंगे कि अगर पहले तुम्हें इस आदमी के पागलपने में कुछ सन्देह था तो लो अब अपनी आँखों से देख लो कि यह क्या हरकत कर रहा है। लेकिन जो व्यक्ति वास्तविकता की जानकारी रखता था और जिसे मालूम था कि कल यहाँ जहाज़ की क्या ज़रूरत सामने आनेवाली है, उसे उन लोगों की अज्ञानता व बेख़बरी पर और फिर उनकी मूर्खतापूर्ण निश्चिंतता पर उलटी हंसी आती होगी और वह कहता होगा कि कितने नासमझ हैं ये लोग कि शामत इनके सिर पर तुली खड़ी है, मैं इन्हें सचेत कर चुका हूँ कि वह बस आया चाहती है और इनकी आँखों के सामने उससे बचने की तैयारी भी कर रहा हूँ, मगर ये सन्तुष्ट बैठे हैं और उलटा मुझे दीवाना समझ रहे हैं । इस मामले को अगर फैलाकर देखा जाए तो मालूम होगा कि दुनिया के प्रत्यक्ष व प्रकट पहलू की दृष्टि से बुद्धिमानी और मूर्खता की जो कसौटी बनाई जाती है, वह उस कसौटी से कितनी अलग होती है जो वास्तविक ज्ञान की दृष्टि से तैयार होती है। ऊपरी दृष्टि रखनेवाला आदमी जिस चीज़ को अति बुद्धिमानी समझता है, वह वास्तविकता देखनेवाले आदमी की दृष्टि में अति मूर्खता होती है और प्रत्यक्ष देखनेवालों के नज़दीक जो चीज़ बिलकुल बेकार, खुला दीवानापन और निरा उपहास होती है, वास्तविकता देखनेवाले के लिए वही पूर्ण विवेक, अत्यंत गंभीरता और बुद्धि की अपेक्षा के बिलकुल अनुकूल होती है।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَمۡرُنَا وَفَارَ ٱلتَّنُّورُ قُلۡنَا ٱحۡمِلۡ فِيهَا مِن كُلّٖ زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَأَهۡلَكَ إِلَّا مَن سَبَقَ عَلَيۡهِ ٱلۡقَوۡلُ وَمَنۡ ءَامَنَۚ وَمَآ ءَامَنَ مَعَهُۥٓ إِلَّا قَلِيلٞ ۝ 39
(40) यहाँ तक कि जब हमारा आदेश आ गया और वह तनूर उबल पड़ा 42 तो हमने कहा, "हर प्रकार के जानवरों का एक-एक जोड़ा नाव में रख लो, अपने घरवालों को भी–सिवाय उन लोगों के जिनकी निशानदेही पहले की जा चुकी है 43 -उसमें सवार करा दो और उन लोगों को भी बिठा लो जो ईमान लाए हैं।"44 और थोड़े ही लोग थे जो नूह के साथ ईमान लाए थे ।
42.इसके बारे में टीकाकारों के अलग-अलग कथन हैं, मगर हमारे नज़दीक सही वही है जो क़ुरआन के स्पष्ट शब्दों से समझ में आता है कि तूफ़ान का आरंभ एक ख़ास तनूर से हुआ जिसके नीचे से पानी का स्रोत फूट पड़ा, फिर एक ओर आसमान से मूसलाधार वर्षा शुरू हो गई और दूसरी ओर धरती में जगह-जगह से सोते फूटने लगे। यहाँ केवल तनूर के उबल पड़ने का उल्लेख है और आगे चलकर वर्षा की ओर भी संकेत है, पर सूरा-54 (क्रमर) में इसका विवरण मिलता है कि "हमने आसमान के दरवाजे खोल दिए जिनसे लगातार बर्षा बरसने लगी और धरती को फाड़ दिया कि हर ओर सोते ही सोते फूट निकले और ये दोनों तरह के पानी उस काम को पूरा करने के लिए मिल गए जो नियत कर दिया गया था। साथ ही शब्द तनूर पर 'अलिफ़-लाम' दाखिल करने से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह ने एक विशेष तनूर को इस काम के आरंभ के लिए विशिष्ट कर दिया था, जो संकेत पाते ही ठीक अपने समय पर उबल पड़ा और बाद में तूफान वाले तनूर की हैसियत से प्रसिद्ध हो गया।
43.अर्थात् तुम्हारे घर के जिन लोगों के बारे में पहले बताया जा चुका है कि वे अधर्मी हैं और अल्लाह की रहमत के हक़दार नहीं हैं, उन्हें नाव में न बिठाओ। शायद ये दो ही लोग थे। एक हज़रत नूह (अलैहि०) का बेटा, जिसके डूबने का अभी उल्लेख होता है। दूसरी हज़रत नूह की बीवी, जिसका उल्लेख सूरा-66 (तहरीम) में आया है। संभव है कि परिवार के दूसरे लोग भी हों, मगर क़ुरआन में उनका उल्लेख नहीं है।
۞وَقَالَ ٱرۡكَبُواْ فِيهَا بِسۡمِ ٱللَّهِ مَجۡرٜىٰهَا وَمُرۡسَىٰهَآۚ إِنَّ رَبِّي لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 40
(41) नूह ने कहा, “सवार हो जाओ इसमें, अल्लाह ही के नाम से है इसका चलना भी और इसका ठहरना भी। मेरा रब बड़ा क्षमाशील और दयावान है।‘’45
45.यह है ईमानवालों की सच्ची शान । बह कारण-जगत में सारे उपाय प्रकृति के नियम के अनुसार उसी तरह अपनाता है जिस तरह दुनियावाले करते हैं। मगर उसका भरो इन उपायों पर नहीं, बल्कि अल्लाह पर होता है और वह ख़ूब समझता है कि उसका कोई उपाय न तो ठीक शुरू हो सकता है, न ठीक चल सकता है और न अन्तिम अभीष्ट तक पहुँच सकता है जब तक कि अल्लाह की मेहरबानी और उसकी दया कृपा शामिल न हो जाए।
وَهِيَ تَجۡرِي بِهِمۡ فِي مَوۡجٖ كَٱلۡجِبَالِ وَنَادَىٰ نُوحٌ ٱبۡنَهُۥ وَكَانَ فِي مَعۡزِلٖ يَٰبُنَيَّ ٱرۡكَب مَّعَنَا وَلَا تَكُن مَّعَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 41
(42) नाव इन लोगों को लिए चली जा रही थी और एक-एक लहर पहाड़ की तरह उठ रही थी। नूह का बेटा दूर फ़ासले पर था। नूह ने पुकारकर कहा, “बेटा ! हमारे साथ सवार हो जा, इनकार करनेवालों के साथ न रह।"
قَالَ سَـَٔاوِيٓ إِلَىٰ جَبَلٖ يَعۡصِمُنِي مِنَ ٱلۡمَآءِۚ قَالَ لَا عَاصِمَ ٱلۡيَوۡمَ مِنۡ أَمۡرِ ٱللَّهِ إِلَّا مَن رَّحِمَۚ وَحَالَ بَيۡنَهُمَا ٱلۡمَوۡجُ فَكَانَ مِنَ ٱلۡمُغۡرَقِينَ ۝ 42
(43) उसने पलटकर जवाब दिया, "मैं अभी एक पहाड़ पर चढ़ा जाता हूँ जो मुझे पानी से बचा लेगा।" नूह ने कहा, "आज कोई चीज़ अल्लाह के आदेश से बचानेवाली नहीं है, सिवाय इसके कि अल्लाह ही किसी पर दया करे।" इतने में एक लहर दोनों के बीच ओट बन गई और वह भी डूबनेवालों में शामिल हो गया।
وَقِيلَ يَٰٓأَرۡضُ ٱبۡلَعِي مَآءَكِ وَيَٰسَمَآءُ أَقۡلِعِي وَغِيضَ ٱلۡمَآءُ وَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ وَٱسۡتَوَتۡ عَلَى ٱلۡجُودِيِّۖ وَقِيلَ بُعۡدٗا لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 43
(44) आदेश हुआ, "ऐ जमीन । अपना सारा पानी निगल जा और ऐ आसमान ! रुक जा।" चुनाचे पानी जमीन पर बैठ गया, फैसला चुका दिया गया, नाव जूदी पर टिक गई 46, और कह दिया गया कि दूर हुई जालिमो की क़ौम !
46.जूदी पहाड़ कुर्दिस्तान के क्षेत्र में इब्ने उमर द्वीप के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित है। बाइबिल में इस नाव के ठहरने की जगह अरारात बताई गई है जो आरमीनिया के एक पहाड़ का नाम भी है और एक पहाड़ी सिलसिले का नाम भी। अरारात का अर्थ भी 'पहाड़ी सिलसिला' है और आरमीनिया की ऊँची सतह से शुरू होकर दक्षिण में कुर्दिस्तान तक चला जाता है और जूदी पहाड़ इसी सिलसिले का एक पहाड़ है जो आज भी जूदी ही के नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन इतिहास में नाव के ठहरने की यही जगह बताई गई है। चुनांचे मसीह से ढाई सौ वर्ष पहले बाबिल के एक धर्म-गुरु बेरुसस (Berasus) ने प्राचीन किलदानी रिवायतों की बुनियाद पर अपने देश का जो इतिहास लिखा है, उसमें वह नूह (अलैहि०) की नाब के ठहरने की जगह जूदी ही बताता है। अरस्तू का शिष्य अबीडीनूस (Abydenus) भी अपने इतिहास में इसकी पुष्टि करता है, साथ ही वह अपने समय का हाल बयान करता है कि इराक में बहुत-से लोगों के पास इस नाव के टुकड़े सुरक्षित हैं जिन्हें वे घोल-घोलकर बीमारों को पिलाते हैं। यह तूफ़ान जिसका उल्लेख यहाँ किया गया है, विश्वव्यापी तूफ़ान था या उस विशेष क्षेत्र में आया था जहाँ हज़रत नूह (अलैहि०) की क़ौम आबाद थी? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका निर्णय आज तक नहीं हुआ। इसराईली रिवायतों के आधार पर सामान्य विचार यही है कि यह तूफ़ान सम्पूर्ण भूमण्डल पर आया था (उत्पत्ति 7 : 18-24) मगर कुरआन में यह बात कहीं नहीं कही गई है। क़ुरआन के संकेतों से यह अवश्य मालूम होता है कि बाद की इंसानी नस्लें उन्हीं लोगों की सन्तान से हैं जो नूह के तूफान से बचा लिए गए थे, लेकिन इससे यह अनिवार्य नहीं होता कि तूफ़ान सम्पूर्ण भूमण्डल पर आया हो, क्योंकि यह बात इस तरह भी सही हो सकती है कि उस समय तक आदम की सन्तान की आबादी उसी क्षेत्र तक सीमित रही हो जहाँ तूफ़ान आया था और तूफ़ान के बाद जो नस्लें पैदा हुई हों, वे धीरे-धीरे तमाम दुनिया में फैल गई हों। इस दृष्टिकोण की पुष्टि दो चीज़ों से होती है। एक यह कि दजला व फ़रात की धरती पर तो एक ज़बरदस्त तूफ़ान का प्रमाण ऐतिहासिक रिवायतों से, पूरातत्व से और धरती के परतों से मिलता है लेकिन धरती के तमाम भाग में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे किसी विश्वव्यापी तूफ़ान का यकीन किया जा सके। दूसरे यह कि इस धरती को अधिकतर कौमों में एक बड़े तूफान की रिवायतें प्राचीन समय से चली आ रही हैं, यहाँ तक कि आस्ट्रेलिया, अमरीका और न्यूगिनी जैसे बहुत दूर के देशों की पुरानी रिवायतों में भी इसका उल्लेख मिलता है। इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि किसी समय इन सब क़ौमों के पुरखे एक ही क्षेत्र में आबाद होंगे जहाँ यह तूफ़ान आया था और फिर जब उनकी नस्लें धरती के विभिन्न भागों में फैली तो ये रिवायतें उनके साथ गई। (देखिए सूरा-7 (आराफ़), टिप्पणी 47)
وَنَادَىٰ نُوحٞ رَّبَّهُۥ فَقَالَ رَبِّ إِنَّ ٱبۡنِي مِنۡ أَهۡلِي وَإِنَّ وَعۡدَكَ ٱلۡحَقُّ وَأَنتَ أَحۡكَمُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 44
45) नूह ने अपने रब को पुकारा । कहा, “ऐ रब ! मेरा बेटा मेरे घरवालों में से है और तेरा वादा सच्चा है47 और तू सब हाकिमों से बड़ा और बेहतर हाकिम है।"48
47.अर्थात् तृने वादा किया था कि मेरे घरवालों को इस विनाश से बचा लेगा, तो मेरा बेटा भी में घरवालों ही में से है, इसलिए इसे भी बचा ले।
48.अर्थात् तेरा फैसला आखिरी फैसला है जिसकी कोई अपील नहीं। और तू जो फैसला भी करता है विशुद्ध ज्ञान और पूर्ण न्याय के साथ करता है।
قَالَ يَٰنُوحُ إِنَّهُۥ لَيۡسَ مِنۡ أَهۡلِكَۖ إِنَّهُۥ عَمَلٌ غَيۡرُ صَٰلِحٖۖ فَلَا تَسۡـَٔلۡنِ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۖ إِنِّيٓ أَعِظُكَ أَن تَكُونَ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 45
(46) उत्तर में कहा गया, “ऐ नूह ! वह तेरे घरवालों में से नहीं है, वह तो एक बिगड़ा हुआ काम है 49, इसलिए तू इस बात की मुझसे प्रार्थना न कर जिसकी वास्तविकता तू नहीं जानता। मैं तुझे उपदेश करता हूँ कि अपने आपको अज्ञानियों की तरह न बना ले।"50
49.यह ऐसा ही है जैसे एक व्यक्ति के शरीर का कोई अंग सड़ गया हो और डॉक्टर ने उसको काट फेंकने का निर्णय किया हो। अब व्ह रोगी डॉक्टर से कहता है कि यह तो मेरे शरीर का एक हिस्सा है, इसे क्यों काटते हो? और डॉक्टर उसके उत्तर में कहता है कि यह तुम्हारे शरीर का अंग नहीं रहा है, क्योंकि यह सड़ चुका है। अतएव एक नेक बाप से उसके अयोग्य बेटे के बारे में यह कहना कि यह बेटा तुम्हारे घरवालों में से नहीं है, यह तो बिगड़ा हुआ काम है, इसका अर्थ यह है कि तुमने इसे पालने-पोसने में जो मेहनत की, वह बर्बाद गई और यह काम बिगड़ गया। अब यह बिगड़ा हुआ इंसान तुम्हारे नेक परिवार का आदमी नहीं है। वह तुम्हारे वंश का एक सदस्य हो तो हुआ करे, मगर तुम्हारे नैतिक परिवार से उसका कोई नाता नहीं, और आज जो निर्णय किया जा रहा है वह किसी वंशगत या जातिगत विवाद का नहीं, कुफ़्र और ईमान के झगड़े का फैसला है जिसमें सिर्फ़ भले लोग बचा लिए जाएंगे और बुरे लोग मिटा दिए जाएँगे।
50.इस कथन को देखकर कोई आदमी यह न सोचे कि हज़रत नूह (अलैहि०) के अन्दर ईमान की कमी थी या उनके ईमान में अज्ञानता का कोई अंश था। वास्तविक बात यह है कि नबी भी इंसान ही होते हैं और कोई इंसान भी इसका सामर्थ्य नहीं रख सकता कि हर समय उस उच्चतमपूर्ण आदर्श पर क़ायम रहे जो ईमानवाले के लिए तय किया गया है। कभी-कभी संवेदनशील मनोवैज्ञानिक अवसर पर नबी जैसा सर्वश्रेष्ठ और उच्चतम इंसान भी थोड़ी देर के लिए अपनी इंसानी कमज़ोरी से मरलूब (पराभूत) हो जाता है, लेकिन ज्यों ही कि उसे यह अनुभव होता है या अल्लाह की ओर से अनुभव करा दिया जाता है कि उसका क़दम अभीष्ट स्तर से नीचे जा रहा है, वह तुरन्त तौबा करता है और अपनी ग़लती को सुधारने में उसे एक क्षण के लिए भी संकोच नहीं होता। हज़रत नूह (अलैहि०) की नैतिक श्रेष्ठता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि अभी जवान बेटा आँखों के सामने डूबा है और उस दृश्य से कलेजा मुँह को आ रहा है, लेकिन जल अल्लाह सचेत करता है कि जिस बेटे ने सत्य को छोड़कर असत्य का साथ दिया, उसको केवल इसलिए अपना समझना कि वह तुमसे पैदा हुआ है, केवल एक अज्ञानता भरी भावना है, तो वह तुरन्त अपने दिल के घाव से बेपरवाह होकर इस चिन्तनशैली की ओर पलट आते हैं जो इस्लाम का तकाज़ा है।
قَالَ رَبِّ إِنِّيٓ أَعُوذُ بِكَ أَنۡ أَسۡـَٔلَكَ مَا لَيۡسَ لِي بِهِۦ عِلۡمٞۖ وَإِلَّا تَغۡفِرۡ لِي وَتَرۡحَمۡنِيٓ أَكُن مِّنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 46
(47) नूह ने तुरन्त कहा, “ऐ मेरे रब ! मैं तेरी पनाह माँगता हूँ इससे कि वह चीज तुझसे माँगू जिसका मुझे ज्ञान नहीं ।"50अ अगर तूने मुझे क्षमा न किया और दया न की तो मै नष्ट हो जाऊँगा।"51
50अ. अर्थात् ऐसी प्रार्थना करूं जिसके सही होने का मुझे ज्ञान नहीं है।
51.नूह के बेटे का यह किस्सा बयान करके अल्लाह ने बड़ी प्रभावी शैली में यह बताया है कि उसका न्याय कितना बेलाग और उसका निर्णय कैसा दो-टूक होता है। मक्का के मुशरिक यह समझते थे कि हम चाहे कैसे ही काम करें, पर हमपर अल्लाह का प्रकोप नहीं आ सकता, क्योंकि हम हज़रत इबराहीम की सन्तान हैं और अमुक अमुक देवियों और देवताओं से हमारा संबंध है। यहूदियों और ईसाइयों के भी ऐसे ही कुछ विचार थे और हैं और बहुत से पटके हुए मुसलमान भी इस प्रकार के झूठे भरोसों पर आश्रय लिए हुए हैं कि हम फला हजरत सन्तान और फलाँ हज़रत का दामन पकड़े हुए हैं। उनको सिफ़ारिश हमको अल्लाह के इंसाफ़ से बचा लेगी। लेकिन यहाँ यह दृश्य दिखाया गया है कि एक महान पैग़म्बर अपनी आँखों के सामने अपने जिगर के टुकड़े को डूबते हुए देखता है और तड़पकर बेटे की माफी के लिए प्रार्थना करता है, लेकिन अल्लाह के दरबार से उलटी उसपर डाँट पड़ जाती है और बाप की पैग़म्बरी भी एक दुष्कर्मी बेटे को यातना से नहीं बचा सकी।
قِيلَ يَٰنُوحُ ٱهۡبِطۡ بِسَلَٰمٖ مِّنَّا وَبَرَكَٰتٍ عَلَيۡكَ وَعَلَىٰٓ أُمَمٖ مِّمَّن مَّعَكَۚ وَأُمَمٞ سَنُمَتِّعُهُمۡ ثُمَّ يَمَسُّهُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 47
(48) हुक्म हुआ, “ऐ नूह ! उतर जा 52, हमारी ओर से सलामती और बरकतें हैं तुझपर और उन गिरोहों पर जो तेरे साथ है, और कुछ गिरोह ऐसे भी हैं जिनको हम कुछ समय तक जीवन-सामग्री देंगे, फिर उन्हें हमारी ओर से दर्दनाक अज़ाब पहुँचेगा।"
52.अर्थात् उस पहाड़ से जिसपर नाव ठहरी थी ।
تِلۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهَآ إِلَيۡكَۖ مَا كُنتَ تَعۡلَمُهَآ أَنتَ وَلَا قَوۡمُكَ مِن قَبۡلِ هَٰذَاۖ فَٱصۡبِرۡۖ إِنَّ ٱلۡعَٰقِبَةَ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 48
(49) ऐ नबी ! ये परोक्ष की खबरें हैं जो हम तुम्हारी ओर वह्य कर रहे हैं। इससे पहले न तुम उनको जानते थे और न तुम्हारी क़ौम । अत: सब्र करो, अंतिम परिणाम तो डरनेवालों के पक्ष में है।53
53.अर्थात् जिस तरह नूह (अलैहि०) और उनके साथियों ही का अन्ततः बोलबाला हुआ, उसी तरह तुम्हारा और तुम्हारे साथियों का भी होगा। अल्लाह का क़ानून यही है कि शुरू में सत्य के विरोधी चाहे जितने सफल हों, मगर अन्तिम सफलता केवल उन लोगों का हिस्सा होती है जो अल्लाह से डरकर, चिन्तन व कर्म की ग़लत राहों से बचते हुए सत्य के उद्देश्य के लिए काम करते हैं। इसलिए इस समय जो विपदाएँ और परेशानियाँ तुमपर आ रही हैं, जिन कठिनाइयों का तुम सामना कर रहे हो और तुम्हारे सन्देश को दबाने में तुम्हारे विरोधियों को प्रत्यक्ष में जो सफलता मिलती नज़र आ रही है, उससे हताश न हो, बल्कि साहस और धैर्य के साथ अपना काम किए चले जाओ।
وَإِلَىٰ عَادٍ أَخَاهُمۡ هُودٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۖ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا مُفۡتَرُونَ ۝ 49
(50) और आद की ओर हमने उनके भाई हूद को भेजा।54 उसने कहा, "ऐ मेरे क़ौमी भाइयो ! अल्लाह की बन्दगी करो। तुम्हारा कोई ख़ुदा उसके सिवा नहीं है। तुमने मात्र झूठ गढ़ रखे हैं।"55
54.सूरा-7 (आराफ़), की आयत 40 से 47 की टिप्पणियाँ दृष्टि में रहें।
55.अर्थात् वे तमाम दूसरे उपास्य, जिनकी तुम बन्दगी और पूजा कर रहे हो, वास्तव में किसी प्रकार का भी ईश्वरीय गुण और शक्ति नहीं रखते । बन्दगी और पूजा कराने का कोई अधिकार उनको प्राप्त नहीं है, तुमने ख़ामख़ाह उनको उपास्य बना रखा है और अकारण ही उनसे ज़रूरत होने की आशा किए बैठे हो।
يَٰقَوۡمِ لَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًاۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱلَّذِي فَطَرَنِيٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 50
(51) ऐ मेरे क़ौमी भाइयो ! इस काम पर मैं तुमसे कोई बदला नहीं चाहता, मेरा बदला तो उसके ज़िम्मे है जिसने मुझे पैदा किया है, क्या तुम बुद्धि से तनिक काम नहीं लेते?56
56.यह बड़ा ही अर्थपूर्ण वाक्य है जिसमें एक बड़ा तर्क समेट दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि मेरी बात को जिस तरह सरसरी तौर पर तुम नज़रअंदाज़ कर रहे हो और उसपर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं करते, यह इस बात का प्रमाण है कि तुम लोग बुद्धि से काम नहीं लेते। वरना अगर तुम बुद्धि से काम लेनेवाले होते तो ज़रूर सोचते कि जो व्यक्ति अपनी किसी निजी ज़रूरत के बिना प्रचार-प्रसार और उपदेश की ये सब परेशानियाँ झेल रहा है, जिसकी इस दौड़-भाग में तुम किसी निजी या पारिवारिक स्वार्थ का लेशमात्र भी नहीं पा सकते, वे अवश्य अपने पास मानने और विश्वास करने का कोई ऐसा आधार और अन्तरात्मा के 'सन्तोष का कोई ऐसा कारण रखता है जिससे उसने अपना सुख-वैभव छोड़कर, अपनी दुनिया बनाने की चिन्ता से मुक्त होकर अपने आपको इस जोखिम में डाला है कि सदियों के जमे और रचे हुए विश्वासों और जीवन बिताने के तरीकों के विरुद्ध आवाज़ उठाए और उसके कारण दुनिया भर का वैर मोल ले ले। ऐसे व्यक्ति की बात कम से कम इतनी महत्त्वहीन तो नहीं हो सकती कि बे-सोचे-समझे उसे यूँ ही टाल दिया जाए और उसपर गंभीरतापूर्वक सोच-विचार के लिए किसी प्रकार का कष्ट भी न दिया जाए।
وَيَٰقَوۡمِ ٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِ يُرۡسِلِ ٱلسَّمَآءَ عَلَيۡكُم مِّدۡرَارٗا وَيَزِدۡكُمۡ قُوَّةً إِلَىٰ قُوَّتِكُمۡ وَلَا تَتَوَلَّوۡاْ مُجۡرِمِينَ ۝ 51
(52) और ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! अपने रब से क्षमा चाहो, फिर उसकी ओर पलटो, वह तुमपर आसमान के मुहाने खोल देगा और तुम्हारी वर्तमान शक्ति पर और शक्ति बढ़ाएगा ।57 अपराधी बनकर (बंदगी से) मुँ फेरो।
57.यह वही बात है जो इस सूरा की आरम्भिक आयत 3 में मुहम्मद (सल्ल.) से कहलवाई गई थी कि 'अपने रब से क्षमा माँगो और उसकी ओर पलट आओ तो वह तुम्हें अच्छी जीवन-सामग्री देगा।' इससे मालूम हुआ कि आख़िरत में ही नहीं, इस दुनिया में भी कौमों के भाग्यों का उतार-चढ़ाव नैतिक बुनियादों पर ही होता है। अल्लाह इस दुनिया पर जो शासन कर रहा है, वह नैतिक नियमों पर आधारित है, न कि उन प्राकृतिक नियमों पर जो नैतिक भलाई-बुराई के अन्तर से खाली हों। यह बात कई जगहों पर क़ुरआन में कही गई है कि जब एक क़ौम के पास नबी के माध्यम से अल्लाह का सन्देश पहुँचता है तो उसका भाग्य इस सन्देश पर आश्रित हो जाता है। अगर वह उसे स्वीकार कर लेती है तो अल्लाह उसपर अपनी नेमतों और बरकतों के दरवाज़े खोल देता है। अगर रद्द कर देती है तो उसे नष्ट कर दिया जाता है। यह मानो एक धारा है उस नैतिक नियम को जिसपर अल्लाह इंसान के साथ मामला कर रहा है। इसी तरह उस क़ानून को एक धारा यह भी है कि जो क़ौम दुनिया की समृद्धि से धोखा खाकर अत्याचार और अवज्ञा के रास्ते पर चल निकलती है, उसका अंजाम विनाश है। लेकिन ठीक उस समय जबकि वह अपने उस बुरे अंजाम की ओर बगटुट चली जा रही हो, अगर वह अपनी गलती का अनुभव कर ले और अवज्ञा छोड़कर अल्लाह को बन्दगी की ओर पलट आए, तो उसका भाग्य बदल जाता है, कर्म की उसकी मोहलत बढ़ा दी जाती है और भविष्य में उसके लिए अज़ाब के बजाय इनाम, उन्नति और प्रतिष्ठा का निर्णय लिख दिया जाता है।
قَالُواْ يَٰهُودُ مَا جِئۡتَنَا بِبَيِّنَةٖ وَمَا نَحۡنُ بِتَارِكِيٓ ءَالِهَتِنَا عَن قَوۡلِكَ وَمَا نَحۡنُ لَكَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 52
(53) उन्होंने उत्तर दिया "ऐ हूद । तूम हमारे पास कोई खुली गवाही लेकर नहीं आया है 58, और तेरे कहने से हम अपने उपास्यों को नहीं छोड़ सकते, और तुझ हम ईमान लानेवाले नहीं है।
58.अर्थात् ऐसी कोई खुली निशानी या ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण जिससे हम बिना किसी सन्देह के मालूम कर लें कि अल्लाह ने तुझे भेजा है और जो बात तू प्रस्तुत कर रहा है, वह सत्य है।
إِن نَّقُولُ إِلَّا ٱعۡتَرَىٰكَ بَعۡضُ ءَالِهَتِنَا بِسُوٓءٖۗ قَالَ إِنِّيٓ أُشۡهِدُ ٱللَّهَ وَٱشۡهَدُوٓاْ أَنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 53
(54) हम तो यह समझते हैं कि तेरे ऊपर हमारे उपास्यों में से किसी की मार पड़ गई है।"59 हूद ने कहा, “मैं अल्लाह की गवाही प्रस्तुत करता हूँ60 और तुम गवाह रहो कि यह जो अल्लाह के सिवा दूसरों को तुमने (खुदाई में) साझीदार बना रखा है, उससे मैं बेज़ार हूँ।61
59.अर्थात् तूने किसी देवी या देवता या किसी हज़रत के आस्ताने पर गुस्ताख़ी की होगी, उसकी सज़ा है जो तू भुगत रहा है कि बहकी-बहकी बातें करने लगा है और वही बस्तियाँ जिनमें कल तू सम्मान के साथ रहता था, आज वहाँ गालियों और पत्थरों से तेरा सत्कार हो रहा है।
60.अर्थात् तुम कहते हो कि मैं कोई गवाही लेकर नहीं आया, हालाँकि छोटी-छोटी गवाहियाँ प्रस्तुत करने के बजाय मैं तो सबसे बड़ी गवाहो उस अल्लाह की प्रस्तुत कर रहा हूँ जो अपने सम्पूर्ण सम्प्रभुत्व के साथ सृष्टि के हर भाग और जलवे में इस बात की गवाही दे रहा है कि जो तथ्य मैंने तुमसे बयान की हैं, वे सरासर सत्य हैं, उनमें झूठ का लेश-मात्र भी नहीं और जो धारणाएँ तुमने गढ़ रखी हैं, वे बिलकुल झूठी हैं, सच्चाई इनमें तनिक भर भी नहीं ।
مِن دُونِهِۦۖ فَكِيدُونِي جَمِيعٗا ثُمَّ لَا تُنظِرُونِ ۝ 54
(55) तुम सब-के-सब मिलकर मेरे विरुद्ध अपनी करनी में कसर न उठा रखो और मुझे तनिक मोहलत न दो 62,
62.यह उनके इस वाक्य का उत्तर है कि हमारे उपास्यों की तुझपर मार पड़ी है। (तुलना के लिए देखिए सूरा 10 (यूनुस), आयत 71)
إِنِّي تَوَكَّلۡتُ عَلَى ٱللَّهِ رَبِّي وَرَبِّكُمۚ مَّا مِن دَآبَّةٍ إِلَّا هُوَ ءَاخِذُۢ بِنَاصِيَتِهَآۚ إِنَّ رَبِّي عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 55
(56) मेरा भरोसा अल्लाह पर है जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। कोई जानदार ऐसा नहीं जिसकी चोटी उसके हाथ में न हो। निस्सन्देह मेरा रब सीधी राह पर है।63
63.अर्थात् वह जो कुछ करता है, सही करता है। उसका हर काम सीधा है। उसके यहाँ अंधेर नगरी नहीं है, बल्कि वह सरासर सत्य और न्याय के साथ अपना शासन कर रहा है। यह किसी तरह संभव नहीं है कि तुम गुमराह व बदकार हो और फिर सफलता मिले और मैं सच्चा और भला आदमी हूँ और फिर टोटे में रहूँ।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُم مَّآ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦٓ إِلَيۡكُمۡۚ وَيَسۡتَخۡلِفُ رَبِّي قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ وَلَا تَضُرُّونَهُۥ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ رَبِّي عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَفِيظٞ ۝ 56
(57) अगर तुम मुँह फेरते हो तो फेर लो, जो सन्देश देकर मैं तुम्हारे पास भेजा गया था वह मैं तुमको पहुँचा चुका हूँ। अब मेरा रब तुम्हारी जगह दूसरी क़ौम को उठाएगा और तुम उसका कुछ न बिगाइ सकोगे।64 निश्चय ही मेरा निस्चय ही मेरा रब हर चीज़ पर निर्गरा है।
64.यह उनको इस बात का उत्तर है कि हम तुझपर ईमान लानेवाले नहीं है।
وَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا هُودٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَنَجَّيۡنَٰهُم مِّنۡ عَذَابٍ غَلِيظٖ ۝ 57
(58) फिर जब हमारा आदेश आ गया तो हमने अपनी रहमत से हूद को और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए ये नजाल दे दो और एक कडे अज़ाब से उन्हें बचा लिया।
وَتِلۡكَ عَادٞۖ جَحَدُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ وَعَصَوۡاْ رُسُلَهُۥ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَمۡرَ كُلِّ جَبَّارٍ عَنِيدٖ ۝ 58
(59) ये है आद! अपने रब की आयतो से इन्होंने इंकार किया. उसके रसूलों को बात न मानी65 और हर महाअत्याचारी सत्य के दुश्मन के पीछे चलते रहे।
65.यद्यपि उनके पास एक ही रसूल आया था, मगर जिस चीज़ की ओर उसने दाबत दो धो वह वही एक दावत यो, जो सदैव हर युग और हर काम में अल्लाह के रसूल प्रस्तुत करते रहे हैं। इसी लिए एक रसूल को बास न मानने को सारे रसूलों की नाफ़रमानी कहा गया।
وَأُتۡبِعُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا لَعۡنَةٗ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَآ إِنَّ عَادٗا كَفَرُواْ رَبَّهُمۡۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّعَادٖ قَوۡمِ هُودٖ ۝ 59
(60) अन्ततः इस दुनिया में भी इसपर फिटकार पड़ो और क़ियामत के दिन भो। सुनो! आद ने अपने रब का इनकार किया। सुनो ! दूर फेक दिए गए आदरद को क़ौम के लोग।
۞وَإِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ هُوَ أَنشَأَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ وَٱسۡتَعۡمَرَكُمۡ فِيهَا فَٱسۡتَغۡفِرُوهُ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِۚ إِنَّ رَبِّي قَرِيبٞ مُّجِيبٞ ۝ 60
( 61) और समुद को ओर हमने उनके भाई सालेह को भेजा।66 उसने कहा "ऐ मेरो क़ौम के लोगो! अल्लाह को बन्दों करो। उसके सिजा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। वही है जिसने तुमको धरती से पैदा किया है और यहाँ तुमको बसाया है 67, इसलिए तुम उससे क्षमा चाहो 68 और उसकी ओर पलट आओ, निश्चय ही मेरा रब करीब है और वह दुआओं का जवाब देनेवाला है।‘’69
66. सूरा-7 आराफ़, (आयत) 736 को टिप्पणियाँ दृष्टि मे रहें।
67.यह तर्क है उस दावे का जो पहले वाक्य में किया गया था कि अल्लाह के सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा और कोई वास्तविक उपास्य नहीं है। मुशरिक स्वयं भी इस बात को मानते थे कि उनका पैदा करनेवाला अल्लाह ही है। इसी मान्य तथ्य पर तर्क का आधार तैयार करके हज़रत सालेह (अलैहि०) उनको समझाते हैं कि जब वह अल्लाह ही है जिसने धरती के निर्जीव पदार्थों के मिश्रण से तुमको यह मानव-अस्तित्व प्रदान किया और वह भी अल्लाह ही है जिसने धरती में तुमको आबाद किया, तो फिर अल्लाह के सिवा ईश्वरत्त्व और किसका हो सकता है, और किसी दूसरे यह अधिकार कैसे प्राप्त हो सकता है कि तुम उसकी बन्दगी और उपासना करो।
قَالُواْ يَٰصَٰلِحُ قَدۡ كُنتَ فِينَا مَرۡجُوّٗا قَبۡلَ هَٰذَآۖ أَتَنۡهَىٰنَآ أَن نَّعۡبُدَ مَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا وَإِنَّنَا لَفِي شَكّٖ مِّمَّا تَدۡعُونَآ إِلَيۡهِ مُرِيبٖ ۝ 61
(62) उन्होंने कहा, “ऐ सालेह ! इससे पहले तू हमारे बीच ऐसा व्यक्ति था जिससे बड़ी आशाएँ की जा रही थीं।70 क्या तू हमें उन उपास्यों की पूजा से रोकना चाहता है जिनकी पूजा हमारे बाप-दादा करते थे?71 तू जिस तरीके की ओर हमें बुला रहा है, उसके बारे में हमको बडा सन्देह है, जिसने हमें दुविधा में डाल रखा है।‘’72
70.अर्थात तुम्हारे विवेक, बुद्धिमत्ता, सूझ-बूझ, गंभीरता और शालीनता और प्रतिभाशली व्यक्तित्व को देखकर हम यह आशाएँ किए बैठे थे कि बड़े आदमी बनोगे, अपनी दुनिया भी खूब बनाओगे और हमें भी दूसरी क़ौमों और क़बीलों की तुलना में तुम्हारी सूझ-बूझ से लाभ उठाने का अवसर मिलेगा। मगर तुमने यह तौहीद और आख़िरत का नया राग छेड़कर तो हमारी सारी आशाओं पर पानी फेर दिया। याद रहे। ऐसे ही कुछ विचार मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में भी आपके जाति के लोगों में पाए जाते थे। वे भी नबी होने से पहले आप (सल्ल०) की श्रेष्ठ योग्यताओं को मानते थे और अपने नज़दीक यह समझते थे कि यह आदमी एक बहुत बड़ा व्यापारी बनेगा और इसकी सजग बुद्धि से हमें भी बहुत कुछ फायदा पहुँचेगा, मगर जब उनको आशाओं के विपरीत आपने तौहीद और आख़िरत और उच्च नैतिक गुणों को ओर बुलाना शुरू कर दिया तो वे आपसे न केवल निराश हुए, बल्कि आप से घृणा करने लग गए और कहने लगे कि अच्छा-भला काम का आदमी था, अल्लाह जाने इसे क्या जुनून हो गया कि अपनी ज़िन्दगी भी बर्बाद को और हमारी आशाओं पर पानी फेर दिया।
71.यह मानो तर्क है इस बात का कि ये उपास्य क्यों उपासना के अधिकारी हैं? [चूँकि बाप-दादा के समयों से उनको उपासना होती चली आ रही है इसलिए] उनकी उपासना छोड़ी नहीं जा सकती।
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَءَاتَىٰنِي مِنۡهُ رَحۡمَةٗ فَمَن يَنصُرُنِي مِنَ ٱللَّهِ إِنۡ عَصَيۡتُهُۥۖ فَمَا تَزِيدُونَنِي غَيۡرَ تَخۡسِيرٖ ۝ 62
(63) सालेह ने कहा, “ऐ मेरे क़ौमी भाइयो ! तुमने कुछ इस बात पर भी विचार किया कि अगर मैं अपने रब की ओर से एक साफ़ गवाही रखता था, और फिर उसने अपनी रहमत से भी मुझको नवाज़ दिया तो इसके बाद अल्लाह की पकड़ से मुझे कौन बचाएगा अगर मैं उसकी अवज्ञा करूँ? तुम मेरे किस काम आ सकते हो सिवाय इसके कि मुझे और अधिक घाटे में डाल दो।73
73.अर्थात् अगर मैं अपने विवेक के विरुद्ध और उस ज्ञान के विरुद्ध जो अल्लाह ने मुझे दिया है, केवल तुमको प्रसन्न करने के लिए गुमराही का रास्ता अपना लूं तो यही नहीं कि अल्लाह की पकड़ से तुम मुझे बचा न सकोगे, बल्कि तुम्हारी वजह से मेरा अपराध और अधिक बढ़ जाएगा और अल्लाह मुझे इस बात की और सजा देगा कि मैंने तुम्हें सीधा रास्ता बताने के बजाय तुम्हें जान-बूझकर उलटा और गुमराह कर दिया।
وَيَٰقَوۡمِ هَٰذِهِۦ نَاقَةُ ٱللَّهِ لَكُمۡ ءَايَةٗۖ فَذَرُوهَا تَأۡكُلۡ فِيٓ أَرۡضِ ٱللَّهِۖ وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابٞ قَرِيبٞ ۝ 63
(64) और ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! देखो यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक निशानी है। इसे अल्लाह की जमीन में चरने के लिए आज़ाद छोड़ दो। इसे तनिक भी न छेड़ना, वरना कुछ ज़्यादा देर न गुजरेगी कि तुमपर अल्लाह का अज़ाब आ जाएगा।"
فَعَقَرُوهَا فَقَالَ تَمَتَّعُواْ فِي دَارِكُمۡ ثَلَٰثَةَ أَيَّامٖۖ ذَٰلِكَ وَعۡدٌ غَيۡرُ مَكۡذُوبٖ ۝ 64
(65) मगर उन्होंने ऊँटनी को मार डाला। इसपर सालेह ने उनको सचेत कर दिया कि “बस अब तीन दिन अपने घरों में और रह-बस लो। और यह ऐसी अवधि है जो झूठी न साबित होगी।'
فَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا صَٰلِحٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَمِنۡ خِزۡيِ يَوۡمِئِذٍۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ ٱلۡقَوِيُّ ٱلۡعَزِيزُ ۝ 65
(66) अन्ततः जब हमारे फैसले का समय आ गया तो हमने अपनी रहमत से सालेह और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए थे बचा लिया और उस दिन की रुसवाई से उनको सुरक्षित रखा।74 निस्सन्देह तेरा रब ही वास्तव में शक्तिमान और प्रभुत्त्वशाली है।
74.सीना प्रायद्वीप में जो रिवायतें मशहूर हैं उनसे मालूम होता है कि जब समूद पर अज़ाब आया तो हज़रत सालेह (अलैहि०) हिजरत करके वहाँ से चले गए थे। चुनांचे हज़रत मूसा (अलैहि०) वाले पहाड़ के क़रीब ही एक पहाड़ी का नाम नबी सालेह है और कहा जाता है कि यही जगह आपकी ठहरने की जगह थी।
وَأَخَذَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلصَّيۡحَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دِيَٰرِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 66
(67) रहे वे लोग जिन्होंने जुल्म किया था, तो एक तीव्र धमाके ने उनको धर लिया और वे अपनी बस्तियों में इस तरह निश्चित और निस्क्रिय पड़े रह गए
كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَآۗ أَلَآ إِنَّ ثَمُودَاْ كَفَرُواْ رَبَّهُمۡۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّثَمُودَ ۝ 67
(68) कि मानो वे वहाँ कभी बसे ही न थे।
وَلَقَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُنَآ إِبۡرَٰهِيمَ بِٱلۡبُشۡرَىٰ قَالُواْ سَلَٰمٗاۖ قَالَ سَلَٰمٞۖ فَمَا لَبِثَ أَن جَآءَ بِعِجۡلٍ حَنِيذٖ ۝ 68
(69) और देखो, इबराहीम के पास हमारे फ़रिश्ते शुभ-सूचना लिए हुए पहुँचे। कहा कि तुमपर सलाम हो । इबराहीम ने उत्तर दिया कि तुमपर भी सलाम हो। फिर कुछ देर न गुज़री कि इबराहीम एक भुना हुआ बछड़ा (उनकी मेहमानी के लिए) ले आया।75
75.इससे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के यहाँ मानव-रूप में पहुंचे थे और आरंभ में उन्होंने अपना परिचय नहीं कराया था, इसलिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने सोचा कि ये कोई अजनबी मेहमान हैं और उनके आते ही तुरंत उनके सत्कार का प्रबन्ध किया।
فَلَمَّا رَءَآ أَيۡدِيَهُمۡ لَا تَصِلُ إِلَيۡهِ نَكِرَهُمۡ وَأَوۡجَسَ مِنۡهُمۡ خِيفَةٗۚ قَالُواْ لَا تَخَفۡ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمِ لُوطٖ ۝ 69
(70) पर जब देखा कि उनके हाथ खाने पर नहीं बढ़ते 75अ, वह उनके बारे में सन्देह में पड़ गया और दिल में उनसे डर महसूस करने लगा।76 उन्होंने कहा, "डरो नहीं, हम तो लूत की क़ौम की ओर भेजे गए हैं।77
75अ. इससे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को मालूम हुआ कि ये फ़रिश्ते हैं।
76.कुछ टीकाकारों के नज़दीक यह डर इस कारण से था कि जब इन अजनबी नए आनेवालों ने खाने में संकोच किया तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उनकी नीयत पर सन्देह होने लगा और यह सोचकर डरे कि ये किसी दुश्मनी के इरादे से तो नहीं आए हैं, क्योंकि अरब में जब कोई आदमी किसी का सत्कार स्वीकार करने से इंकार करता, तो इससे यह समझा जाता था कि वह मेहमान की हैसियत से नहीं आया है, बल्कि हत्या और लूट-मार की नीयत से आया है। लेकिन बाद की आयत इस व्याख्या का समर्थन नहीं करती।
وَٱمۡرَأَتُهُۥ قَآئِمَةٞ فَضَحِكَتۡ فَبَشَّرۡنَٰهَا بِإِسۡحَٰقَ وَمِن وَرَآءِ إِسۡحَٰقَ يَعۡقُوبَ ۝ 70
(71) इबराहीम की बीवी भी खड़ी हुई थी। वह यह सुनकर हँस दी।78 फिर हमने उसको इस्हाक़ की और इस्हाक़ के बाद याकूब की शुभ-सूचना दी।79
78.इससे मालूम हुआ कि फ़रिश्तों के मानव-रूप में आने की खबर सुनते ही सारा घर परेशान हो गया था और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की बीवी भी घबराई हुई बाहर निकल आई थीं। फिर जब उन्होंने यह सुन लिया कि उनके घर पर या उनकी बस्ती पर कोई विपदा आनेवाली नहीं है, तब कहीं उनकी जान में जान आई और वह प्रसन्न हो गईं।
79.फ़रिश्तों ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बजाय हज़रत सारा को यह शुभ-सूचना इसलिए सुनाई कि इससे पहले हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के यहाँ तो उनकी दूसरी बीवी हज़रत हाजरा से हज़रत इसमाईल (अलैहि०) पैदा हो चुके थे, मगर हज़रत सारा उस समय तक निस्सन्तान थीं, और इस कारण दिल उन्हीं का अधिक दुखी था। उनके इस दुख को दूर करने के लिए फ़रिश्तों ने सिर्फ उन्हें यही शुभ-सूचना नहीं सुनाई कि तुम्हारे यहाँ इसहाक़ जैसा अति प्रतिष्ठ बेटा पैदा होगा, बल्कि यह भी बताया कि इस बेटे के बाद पोता भी याक़ूब (अलैहि०) जैसा महान पैग़म्बर होगा।
قَالَتۡ يَٰوَيۡلَتَىٰٓ ءَأَلِدُ وَأَنَا۠ عَجُوزٞ وَهَٰذَا بَعۡلِي شَيۡخًاۖ إِنَّ هَٰذَا لَشَيۡءٌ عَجِيبٞ ۝ 71
(72) वह बोली, "हाय मेरा अभाग्य ! 80 क्या अब मेरे यहाँ सन्तान होगी? जबकि मैं बुढ़िया फॅस हो गई और यह मेरे मियाँ भी बूढ़े हो चुके? 81 यह तो बड़ी विचित्र बात है ।"
80.इसका अर्थ यह नहीं है कि हज़रत सारा वास्तव में इसपर प्रसन्न होने के बजाय उलटे इसको अभागापन समझती थीं, बल्कि वास्तव में यह उस प्रकार के शब्दों में से है कि जो औरतें आम तौर से आश्चर्य के अवसरों पर बोला करती हैं और जिनका अभिप्राय शाब्दिक मकसद नहीं होता, बल्कि जिसका अर्थ आश्चर्य व्यक्त करना होता है।
81.बाइबल से मालूम होता है कि हज़रत इबराहीम की उम्र उस समय 100 वर्ष और हज़रत सारा की उम्र 90 वर्ष की थी।
قَالُوٓاْ أَتَعۡجَبِينَ مِنۡ أَمۡرِ ٱللَّهِۖ رَحۡمَتُ ٱللَّهِ وَبَرَكَٰتُهُۥ عَلَيۡكُمۡ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِۚ إِنَّهُۥ حَمِيدٞ مَّجِيدٞ ۝ 72
(73) फ़रिश्तों ने कहा, “अल्लाह के हुक्म पर आश्चर्य करती हो?82 इबराहीम के घरवालो ! तुम लोगों पर तो अल्लाह की रहमत और उसकी बरकतें हैं और निश्चय ही अल्लाह अति प्रशंसनीय और बड़ा गौरववाला है।"
82.अर्थ यह है कि यद्यपि स्वभावतः इस उम्र में इंसान के यहाँ संतान नहीं हुआ करती, लेकिन अल्लाह की क़ुदरत से ऐसा होना कुछ असंभव भी नहीं है, और जबकि यह शुभ-सूचना तुम्हें अल्लाह की ओर से दी जा रही है तो कोई कारण नहीं कि तुम जैसी ईमानवाली औरत इसपर आश्चर्य व्यक्त करे।
فَلَمَّا ذَهَبَ عَنۡ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلرَّوۡعُ وَجَآءَتۡهُ ٱلۡبُشۡرَىٰ يُجَٰدِلُنَا فِي قَوۡمِ لُوطٍ ۝ 73
(74) फिर जब इबराहीम की घबराहट दूर हो गई और (सन्तान की शुभ-सूचना से) उसका मन प्रसन्न हो गया तो उसने लूत की क़ौम के मामले में हमसे झगड़ा शुरू किया।83
83.'झगड़ा' शब्द इस अवसर पर उस अत्यधिक प्रेम और गर्वपूर्ण संबंध को व्यक्त करता है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपने अल्लाह के साथ रखते थे। इस शब्द से यह चित्र आँखों के सामने फिर जाता है कि बन्दे और अल्लाह के बीच बड़ी देर तक वाद-प्रति-वाद चलता रहता है । बन्दा आग्रह कर रहा है कि किसी तरह लूत की क़ौम पर से अज़ाब टाल दिया जाए। अल्लाह उत्तर में कह रहा है कि यह क़ौम भलाई और नेकी से बिलकुल खाली हो चुकी है और उसके अपराध इस सीमा को पार कर चुके हैं कि उसके साथ कोई रिआयत की जा सके, मगर बन्दा है कि फिर यही कहे जाता है कि “पालनहार ! अगर कुछ थोड़ी-सी भलाई भी उसमें बाक़ी हो तो उसे और अधिक मोहलत दे दे, शायद कि वह भलाई फलदायक हो।" बाइबल में इस झगड़े की कुछ व्याख्या भी की गई है, लेकिन कुरआन का संक्षिप्त बयान अपने अन्दर इससे अधिक व्यापक अर्थ रखता है। (तुलना के लिए देखिए उत्पत्ति 18, : 23-32)
إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ لَحَلِيمٌ أَوَّٰهٞ مُّنِيبٞ ۝ 74
(75) वास्तव में इबराहीम बड़ा सहनशील और नर्म दिल आदमी था और हर हाल में हमारी ओर रुजू करता था।
يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ أَعۡرِضۡ عَنۡ هَٰذَآۖ إِنَّهُۥ قَدۡ جَآءَ أَمۡرُ رَبِّكَۖ وَإِنَّهُمۡ ءَاتِيهِمۡ عَذَابٌ غَيۡرُ مَرۡدُودٖ ۝ 75
(76) (अन्तत: हमारे फ़रिश्तों ने उससे कहा) “ऐ इबराहीम ! इससे बाज़ आ जाओ, तुम्हारे रब का आदेश हो चुका है और अब उन लोगों पर वह अज़ाब आकर रहेगा जो किसी के फेरे नहीं फिर सकता।‘’84
84.वर्णन के इस क्रम में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यह घटना, मुख्य रूप से लूत की क़ौम के क़िस्से की भूमिका के रूप में, जिस संदर्भ में बयान की गई है, उसे समझने के लिए निम्न दो बातों को दृष्टि में रखिए- (1) सम्बोधन क़ुरैश के लोगों से है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की सन्तान होने के कारण इस घमंड में पड़े हुए हैं कि हमपर अल्लाह का प्रकोप कैसे आ सकता है। इस ग़लत घमंड को तोड़ने के लिए पहले तो उन्हें यह दृश्य दिखाया गया कि हज़रत नूह (अलैहि०) जैसा महान पैग़म्बर अपनी आँखों के सामने अपने जिगर के टुकड़े को डूबते देख रहा है और तड़पकर अल्लाह से दुआ करता है कि उसके बेटे को बचा लिया जाए, मगर केवल यही नहीं कि उसकी सिफ़ारिश बेटे के कुछ काम नहीं आती, बल्कि इस सिफ़ारिश पर बाप को उलटे डाँट सुननी पड़ती है। इसके बाद अब यह दूसरा दृश्य स्वयं हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का दिखाया जाता है कि एक ओर तो उनपर असीम कृपाएँ हैं और बड़े ही प्यारे ढंग से उनका उल्लेख हो रहा है, पर दूसरी ओर जब वही इबराहीम न्याय के मामले में दखल देते हैं तो उनके इस आग्रह और प्रार्थना के उपरांत अल्लाह अपराधी क़ौम के मामले में उनकी सिफ़ारिश को रद्द कर देता है। (2) इस भाषण में यह बात भी क़ुरैश के मन में बिठानी है कि अल्लाह का वह बदले का क़ानून' जिससे ये लोग बिलकुल निडर और निश्चिन्त बैठे हुए थे, किस तरह इतिहास के दौरान में निरन्तर और विधिवत रूप से सामने आता रहा है। एक ओर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) हैं, जिन्हें अल्लाह उन [की सत्यप्रियता और] कर्मों का बदला यह देता है कि उनकी बाँझ बीवी से इसहाक़ (अलैहि०) पैदा होते हैं, फिर उनके यहाँ याक़ूब अलैहिस्सलाम का जन्म होता है और उनसे बनी इसराईल की शानदार नस्ल चलती है, जिसकी बड़ाई के डंके सदियों तक उसी फ़िलस्तीन व शाम (सीरिया) में बजते रहे, जहाँ हज़रत इबराहीम एक बेघर-द्वार मुहाजिर की हैसियत से आकर आबाद हुए थे। दूसरी ओर लूत (अलैहि०) को क़ौम है जो इसी भू-भाग के एक हिस्से में अपनी सम्पन्नता पर मगन और अपने कुकर्मों पर मस्त है और लूत (अलैहि०) के उपदेशों को चुटकियों में उड़ा रही है। मगर जिस इतिहास को इबराहीम (अलै०) की नस्ल से एक बड़ी प्रतापवान क़ौम के उठाए जाने का निर्णय किया जाता है, ठीक वही तारीख़ है जब इस कुकर्मों क़ौम को दुनिया से मिटा देने का फ़रमान लागू होता है और वह ऐसे शिक्षाप्रद तरीक़े से फ़ना की जाती है कि आज उसकी बस्तियों का निशान कहीं ढूँढ़े नहीं मिलता।
وَلَمَّا جَآءَتۡ رُسُلُنَا لُوطٗا سِيٓءَ بِهِمۡ وَضَاقَ بِهِمۡ ذَرۡعٗا وَقَالَ هَٰذَا يَوۡمٌ عَصِيبٞ ۝ 76
(77) और जब हमारे फ़रिश्ते लूत के पास पहुँचे 85 तो उनके आने से वह बहुत घबराया और दिल तंग हुआ और कहने लगा कि आज बड़ी मुसीबत का दिन है।86
85.सूरा-7(आराफ़), आयत 73-84 की टिप्पणियाँ दृष्टि में रहें।
86.इस क़िस्से का जो विवरण क़ुरआन मजीद में आया है, उन्हें देखने से यह बात खुलकर सामने आती है कि ये फ़रिश्ते ख़ूबसूरत लड़कों की शक्ल में हज़रत लूत (अलैहि०) के यहाँ पहुँचे थे और हज़रत लूत (अलैहि०) इस बात से बेखबर थे कि ये फ़रिश्ते हैं। यही कारण था कि इन मेहमानों के आने से आपको बहुत परेशानी और दिल तंगी हुई। अपनी क़ौम को जानते थे कि वे कैसी दुष्चरित्र और कितनी निर्लज्ज हो चुकी है।
وَجَآءَهُۥ قَوۡمُهُۥ يُهۡرَعُونَ إِلَيۡهِ وَمِن قَبۡلُ كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ هَٰٓؤُلَآءِ بَنَاتِي هُنَّ أَطۡهَرُ لَكُمۡۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُخۡزُونِ فِي ضَيۡفِيٓۖ أَلَيۡسَ مِنكُمۡ رَجُلٞ رَّشِيدٞ ۝ 77
(78) (उन मेहमानों का आना था कि) उसकी क़ौम के लोग बेकाबू होकर उसके घर की ओर दौड़ पड़े। पहले से वे ऐसे ही कुकर्मों के आदी थे। लूत ने उनसे कहा, “भाइयो ! ये मेरी बेटियाँ मौजूद हैं, ये तुम्हारे लिए अधिक शुद्ध हैं 87, कुछ अल्लाह से डरो और मेरे मेहमानों के मामले में मुझे अपमानित न करो। क्या तुममें कोई भला आदमी नहीं?”
87.हो सकता है कि हज़रत लूत (अलैहि०) का संकेत क़ौम की लड़कियों की ओर हो, क्योंकि नबी अपनी क़ौम के लिए बाप जैसा होता है और क़ौम की लड़कियाँ उसकी दृष्टि में अपनी बेटियों की तरह होती हैं और यह भी हो सकता है कि आपका संकेत स्वयं अपनी लड़कियों की ओर हो। बहरहाल दोनों शक्लों में यह सोचने का कोई कारण नहीं है कि हज़रत लूत (अलैहि०) ने उनके सामने अपनी बेटियों को ज़िना के लिए पेश किया होगा। 'ये तुम्हारे लिए अधिक शुद्ध हैं' वाक्य ऐसा ग़लत अर्थ लेने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। हज़रत लूत (अलैहि०) का मंशा साफ तौर पर यह था कि अपनी वासना को उस स्वाभाविक और वैध तरीक़े से पूरा करो जो अल्लाह ने निश्चित किया है और इसके लिए औरतों की कमी नहीं है।
قَالُواْ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَا لَنَا فِي بَنَاتِكَ مِنۡ حَقّٖ وَإِنَّكَ لَتَعۡلَمُ مَا نُرِيدُ ۝ 78
(79) उन्होंने उत्तर दिया, “तुझे तो मालूम ही है कि तेरी बेटियों में हमारा कोई हिस्सा नहीं है।88 और तू यह भी जानता है कि हम चाहते क्या है।"
88.यह वाक्य उन लोगों के भीतर का पूरा चित्र खींच देता है कि उनमें नीचता कितनी आ गई थी। बात केवल इस सीमा तक ही नहीं थी कि वे प्रकृति और पवित्रता के रास्ते से हटकर एक गन्दे अप्राकृतिक रास्ते पर चल पड़े थे, बल्कि बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि उनकी सारी रुचि और तमाम दिलचस्पी अब उसी गन्दी राह ही में थी। उनके मन में अब तलब उस गन्दगी ही की रह गई थी और वे प्रकृति और पवित्रता की राह के बारे में यह कहने में कोई शर्म महसूस न करते थे कि यह रास्ता तो हमारे लिए बना ही नहीं है। यह चरित्र की गिरावट और मन के बिगाड़ की चरम सीमा है जिससे कम किसी दर्जे के बारे में सोचा नहीं जा सकता। उस आदमी का मामला तो बहुत हल्का है जो केवल मन की कमजोरी के कारण हराम में पड़ जाता हो, मगर हलाल को चाहने के योग्य और हराम को बचने के योग्य चीज़ समझता हो। ऐसा आदमी कभी सुधर भी सकता है और न सुधरे तब भी अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि वह एक बिगड़ा हुआ इंसान है, मगर जब किसी आदमी की सारी रुचि सिर्फ़ हराम ही में हो और वह समझे कि हलाल उसके लिए है ही नहीं, तो उसकी गिनती इंसानों में नहीं की जा सकती। वह वास्तव में एक गन्दा कीड़ा है जो गन्दगी ही में परवरिश पाता है और पाक-साफ़ चीज़ों से उसका स्वभाव कोई मेल नहीं खाता। ऐसे कीड़े अगर किसी सफ़ाई-पसन्द इंसान के घर में पैदा हो जाएँ तो वह पहली फुर्सत में फिनाइल डालकर उनके अस्तित्व से अपने घर को पाक कर देता है, फिर भला अल्लाह अपनी धरती पर इन गन्दे कीड़ों के जमघट को कब तक गवारा कर सकता था।
قَالَ لَوۡ أَنَّ لِي بِكُمۡ قُوَّةً أَوۡ ءَاوِيٓ إِلَىٰ رُكۡنٖ شَدِيدٖ ۝ 79
(80) लूत ने कहा, "काश, मेरे पास इतनी शक्ति होती कि तुम्हें सीधा कर देता या कोई मजबूत सहारा ही होता कि उसकी शरण लेता।"
قَالُواْ يَٰلُوطُ إِنَّا رُسُلُ رَبِّكَ لَن يَصِلُوٓاْ إِلَيۡكَۖ فَأَسۡرِ بِأَهۡلِكَ بِقِطۡعٖ مِّنَ ٱلَّيۡلِ وَلَا يَلۡتَفِتۡ مِنكُمۡ أَحَدٌ إِلَّا ٱمۡرَأَتَكَۖ إِنَّهُۥ مُصِيبُهَا مَآ أَصَابَهُمۡۚ إِنَّ مَوۡعِدَهُمُ ٱلصُّبۡحُۚ أَلَيۡسَ ٱلصُّبۡحُ بِقَرِيبٖ ۝ 80
(81) तब फरिश्तों ने उससे कहा, "ऐ लूत । हम तेरे रख के भेजे हुए फ़रिश्ते हैं। ये लोग तेरा कुछ न बिगाड़ सकेंगे। बस, तू कुछ रात रहे अपने घरवालों को लेकर निकल जा। और देखो, तुममें से कोई वयक्ति पीछे पलटकर न देखें 89, मगर तेरी बीवी (साथ नहीं जाएगी क्योंकि इसपर भी वही कुछ गुज़रनेवाला है जो इन लोगों पर गुज़रना है।90 इनके विनाश के लिए सुबह का समय निश्चित है-सुबह होने में अब देर ही कितनी है !"
89.अर्थ यह है कि अब तुम लोगों को बस यह चिन्ता होनी चाहिए कि किसी तरह जल्दी से जल्दी इस क्षेत्र से निकल जाओ। कहीं ऐसा न हो कि पीछे शोर और धमाकों की आवाज़ें सुनकर रास्ते में ठहर जाओ और जो क्षेत्र अज़ाब के लिए नामज़द किया जा चुका है, उसमें अज़ाब का समय आ जाने के बाद भी तुममें से कोई रुका रह जाए।
90.यह तीसरी शिक्षाप्रद घटना है जो इस सूरा में लोगों को यह शिक्षा देने के लिए बयान की गई है कि तुमको किसी बुजुर्ग की रिश्तेदारी और किसी बुजुर्ग की सिफारिश अपने गुनाहों की सज़ा से नहीं बचा सकती।
فَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا جَعَلۡنَا عَٰلِيَهَا سَافِلَهَا وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهَا حِجَارَةٗ مِّن سِجِّيلٖ مَّنضُودٖ ۝ 81
(82) फिर जब हमारे निर्णय का समय आ पहुँचा तो हमने उस बस्ती को तलपट कर दिया और उसपर पकी हुई मिट्टी के पत्थर ताबड़-तोड़ बरसाए91,
91.शायद यह अज़ाब एक बड़े भूकंप और ज्वालामुखी फूटने के रूप में आया था । भूकंप ने उनकी आबादियों को तलपट कर दिया और ज्वालामुखी पदार्थों के फटने से उनके ऊपर ज़ोर का पथराव हुआ। पकी हुई मिट्टी के पत्थरों से तात्पर्य शायद वह पथरीली मिट्टी है जो ज्वालामुखी वाले क्षेत्रों में भूमिगत ताप और लावे के प्रभाव से पत्थर का रूप धारण कर लेती है। आजतक लूत सागर के दक्खिन और पूरब के क्षेत्र में इस (ज्वालामुखी के) फूटने की निशानियाँ हर ओर दिखाई देती हैं।
مُّسَوَّمَةً عِندَ رَبِّكَۖ وَمَا هِيَ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ بِبَعِيدٖ ۝ 82
(83) जिनमें से हर पत्थर तेरे रब के यहाँ निशानज़दा था92 और ज़ालिमों से यह सज़ा कुछ दूर नहीं है।93
92.अर्थात् हर-हर पत्थर अल्लाह की ओर से नामज़द किया हुआ था कि उसे विनाश का क्या काम करना है और किस पत्थर को किस अपराधो पर पड़ना है।
93.अर्थात् आज जो लोग जुल्म के इस रवैये पर चल रहे हैं, वे भी इस अज़ाब को अपने से दूर न समझें। अज़ाब अगर लूत (अलैहि०) की क़ौम पर आ सकता था तो इनपर भी आ सकता है। अल्लाह को न लूत (अलैहि०) की क़ौम विवश कर सकी थी, न ये कर सकते हैं।
۞وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ وَلَا تَنقُصُواْ ٱلۡمِكۡيَالَ وَٱلۡمِيزَانَۖ إِنِّيٓ أَرَىٰكُم بِخَيۡرٖ وَإِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٖ مُّحِيطٖ ۝ 83
(84) और मदयनवालों की ओर हमने उनके भाई शुऐब को भेजा।94 उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है। और नाप-तौल में कमी न किया करो। आज मैं तुमको अच्छे हाल में देख रहा हूँ, मगर मुझे डर है कि कल तुमपर ऐसा दिन आएगा जिसका अज़ाब सबको घेर लेगा।
94.सूरा-7 (आराफ़), रुकूअ 11 की टिप्पणियाँ दृष्टि में रहें।
وَيَٰقَوۡمِ أَوۡفُواْ ٱلۡمِكۡيَالَ وَٱلۡمِيزَانَ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 84
(85) और ऐ मेरे क़ौमी भाइयो ! ठीक-ठीक न्याय के साथ पूरा नापो और तौलो और लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दिया करो और धरती में बिगाड़ न फैलाते फिरो।
بَقِيَّتُ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَۚ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِحَفِيظٖ ۝ 85
(86) अल्लाह की दी हुई बचत तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम ईमानवाले हो। और बहरहाल मैं तुम्हारे ऊपर कोई नियुक्त रखवाला नहीं हूँ।‘’95
95.अर्थात् कोई ज़ोर तुमपर नहीं है। मैं तो बस एक भला चाहनेवाला हितैषी हूँ। अधिक से अधिक इतना ही कर सकता हूँ कि तुम्हें समझा हूँ। आगे तुम्हें अधिकार है, चाहे मानो, चाहे न मानो। सवाल मेरी पूछताछ से डरने या न डरने का नहीं है, असल चीज़ अल्लाह की पूछताछ है, जिसका अगर तुम्हें कुछ डर हो तो अपनी इन हरकतों से बाज़ आ जाओ।
قَالُواْ يَٰشُعَيۡبُ أَصَلَوٰتُكَ تَأۡمُرُكَ أَن نَّتۡرُكَ مَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَآ أَوۡ أَن نَّفۡعَلَ فِيٓ أَمۡوَٰلِنَا مَا نَشَٰٓؤُاْۖ إِنَّكَ لَأَنتَ ٱلۡحَلِيمُ ٱلرَّشِيدُ ۝ 86
(87) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ शुऐब ! क्या तेरी यह नमाज़ तुझे यह सिख़ाती है96 कि हम इन सारे उपास्यों को छोड़ दें जिनकी पूजा हमारे बाप-दादा करते थे? या यह कि हमें अपने माल में अपनी इच्छा अनुसार कुछ करने धरने का अधिकार न हो?97 बस तू ही तो एक उदार और सच्चा व्यक्ति रह गया है?"
96.यह वास्तव में एक व्यंग्यात्मक वाक्य है जिसकी आत्मा आज भी आप हर उस समाज में मौजूद पाएँगे जो अल्लाह से ग़ाफ़िल और बुराई और दुराचार में डूबा हुआ हो । चूँकि नमाज़ दीनदारी का सबसे पहला और सबसे अधिक उभरा हुआ प्रतीक है और दीनदारी को अवज्ञाकारी और दुष्कर्मी लोग एक ख़तरनाक, बल्कि सबसे ज़्यादा ख़तरनाक रोग समझते हैं, इसलिए नमाज़ ऐसे लोगों के समाज इबादत के बजाय रोग की पहचान जानी जाती है। किसी आदमी को अपने बीच नमाज़ पढ़ते देखकर उन्हें तुरन्त यह अनुभव होने लगता है कि इस आदमी पर 'दीनदारी के रोग' का हमला हो गया है। फिर ये लोग दीनदारी की इस विशेषता को भी जानते हैं कि यह चीज़ जिस आदमी के अन्दर पैदा हो जाती है, वह केवल अपने सत्कर्मों को ही पर्याप्त नहीं समझता, बल्कि दूसरों को भी ठीक करने की कोशिश करता है, और अधर्म और दुष्चरित्र पर कुछ कहे बिना उससे रहा नहीं जाता। इसलिए नमाज़ पर उनकी बेचैनी केवल इसी हैसियत से नहीं होती कि उनके एक भाई पर दीनदारी का दौरा पड़ गया है, बल्कि इसके साथ ही उन्हें यह खटका भी लग जाता है कि अब बहुत जल्द नैतिकता और सत्कर्म का उपदेश शुरू होनेवाला है और सामूहिक जीवन के हर पहलू में कीड़े निकालने का एक न समाप्त होनेवाला सिलसिला शुरू होनेवाला है। यही कारण है कि ऐसे समाज में नमाज़ सबसे बढ़कर व्यंग्य और उपहास का निशाना बनती है और अगर कहीं नमाज़ी आदमी ठीक-ठीक इन्हीं अंदेशों के अनुसार जो उसकी नमाज़ से पहले ही पैदा हो चुके थे, बुराइयों की आलोचना और भलाइयों का प्रचार भी शुरू कर दे, तब तो नमाज़ इसी तरह कोसी जाती है कि मानो यह सारी बला उसी की लाई हुई है।
97.यह इस्लाम के मुकाबले में अज्ञानता के दृष्टिकोण की पूर्ण अभिव्यक्ति है। इस्लाम का दृष्टिकोण यह है कि अल्लाह की बन्दगी के सिवा जो तरीक़ा भी है, ग़लत है और उसकी पैरवी न करनी चाहिए, क्योंकि किसी दूसरे तरीके के लिए बुद्धि, ज्ञान और आसमानी किताबों में कोई दलील नहीं है और यह कि अल्लाह को बन्दगी सिर्फ एक सीमित धार्मिक क्षेत्र ही में नहीं होनी चाहिए, बल्कि सभ्यता, सामाजिकता, अर्थ, राजनीति, तात्पर्य यह कि जीवन के तमाम विभागों में होनी चाहिए, इसलिए कि दुनिया में इंसान के पास जो कुछ भी है, अल्लाह हो का है और इंसान किसी चीज़ पर भी अल्लाह की इच्छा से मुक्त होकर निर्बाध रूप से उपभोग का अधिकार नहीं रखता । इसके मुकाबले में अज्ञानता का दृष्टिकोण यह है कि बाप-दादा से जो तरीक़ा भी चला आ रहा हो, इंसान को उसी का पालन करना चाहिए और उसके पालन के लिए इस दलील के सिवा किसी और दलील को ज़रूरत नहीं है कि वह बाप-दादा का तरीक़ा है, साथ ही यह कि दीन और धर्म का ताल्लुक सिर्फ पूजा-पाठ से है, रहे हमारी ज़िन्दगी के आम सांसारिक मामले, तो इनमें हमें पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि जिस तरह चाहें, काम करें।
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَرَزَقَنِي مِنۡهُ رِزۡقًا حَسَنٗاۚ وَمَآ أُرِيدُ أَنۡ أُخَالِفَكُمۡ إِلَىٰ مَآ أَنۡهَىٰكُمۡ عَنۡهُۚ إِنۡ أُرِيدُ إِلَّا ٱلۡإِصۡلَٰحَ مَا ٱسۡتَطَعۡتُۚ وَمَا تَوۡفِيقِيٓ إِلَّا بِٱللَّهِۚ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ أُنِيبُ ۝ 87
(88) शुऐब ने कहा, “भाइयो ! तुम स्वयं ही सोचो कि अगर मैं अपने रब की ओर से एक खुली गवाही पर था और फिर उसने मुझे अपने यहाँ से अच्छी रोजी भी दी98, (तो इसके बाद मैं तुम्हारो गुमराहियों और हरामखोरियों में तुम्हरा सहभागी कैसे हो सकता हूँ?) और मैं कदापि यह नहीं चाहता कि जिन बातों से मैं तुम्मे रोकता है, उन्हें स्वयं करूँ।99 में तो सुधारना चाहता , जहाँ तक भी मेरा बस चले। और यह जो कुछ में करना चाहता ये सारी चीज अल्लाह की योगदान पर निर्भर है। उसी पर मैंने भरोसा किया और हर मामले में मैं उसी की ओर जू करता हूँ।
98. रिज़्क़ (रोज़ी) का शब्द यहाँ दोहरा अर्थ दे रहा है । इसका एक अर्थ तो सत्य ज्ञान है जो अल्लाह की ओर से दिया गया हो और दूसरा अर्थ वही है जो सामान्य रूप से इस शब्द से समझा जाता है, अर्थात् वे साधन जो जीवन बिताने के लिए अल्लाह अपने बन्दों को देता है। पहले अर्थ की दृष्टि से यह आयत उसी विषय को अदा कर रही है जो इस सूरा में मुहम्मद (सल्ल०), नूह (अलै०) और सालेह (अलै०) के मुख से अदा होता चला आया है कि नुबूवत से पहले भी मैं अपने रब की ओर से सत्य की खुली-खुली गवाही अपने अन्दर और सृष्टि की निशानियों में पा रहा था, और इसके बाद मेरे रब ने सीधे तौर पर सत्य-ज्ञान भी मुझे दे दिया। अब मेरे लिए यह कैसे संभव है कि जान-बूझकर उन गुमराहियों और दुष्कर्मों में तुम्हारा साथ दूँ जिनमें तुम पड़े हुए हो। और दूसरे अर्थ की दृष्टि से यह आयत उस व्यंग्य का उत्तर है जो उन लोगों ने हज़रत शुऐब (अलै०) को दिया था कि 'बस तुम ही तो एक विशालहृदय और सत्यनिष्ठ व्यक्ति रह गए हो।' इस तीव्र और कटु आक्रमण का यह ठंडा उत्तर दिया गया है कि भाइयो ! अगर मेरे रब ने मुझे सत्य पहचानने की सूझ-बूझ भी दी हो और हलाल रोज़ी भी दी हो, तो आख़िर तुम्हारे व्यंग्य करने से यह कृपा अकृपा कैसे हो जाएगी? आख़िर मेरे लिए यह वैध कैसे हो सकता है कि जब अल्लाह ने मुझपर यह कृपा की है तो मैं तुम्हारी गुमराहियों और हरामख़ोरियों को सत्य और हलाल कहकर उसकी नाशुक्रो करूँ?
99.अर्थात् मेरी सच्चाई का तुम इस बात से अन्दाजा कर सकते हो कि जो कुछ दूसरों से कहता हूँ उसी पर ख़ुद अमल करता हूँ। अगर मैं तुमको गैर-अल्लाह के आस्तानी से रोकता और स्वयं किसी आस्ताने का मुजाविर बन बैठा होता तो निस्सन्देह तुम यह कह सकते थे कि अपनी पीरी चमकाने के लिए दूसरी टुहानी की साख बिगाड़ना चाहता है। अगर मैं तुम्हें हराम के माल खाने से मना करता और खुद अपने कारोबार में बेईमानियाँ कर रहा होता तो जरूर तुम यह सन्देह कर सकते थे कि मैं अपनी साख जमाने के लिए, ईमानदारी का ढोल पीट रहा हूँ। लेकिन तुम देखते ही कि मैं स्वयं उन बुराइयों से बचता हूँ जिनमें तुमको मना करता हूँ। मेरा अपना जीवन उन धब्बों से पाक है जिनसे तुम्हें पाक देखना चाहता हूँ। मैंने अपने लिए भी उसी तरीक़े को पसन्द किया है जिसकी ओर तुम्हें बुला रहा हूँ। यह चीज़ इस बात की गवाही के लिए काफ़ी है कि मैं अपने इस बुलाने में सच्चा हूँ।
وَيَٰقَوۡمِ لَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شِقَاقِيٓ أَن يُصِيبَكُم مِّثۡلُ مَآ أَصَابَ قَوۡمَ نُوحٍ أَوۡ قَوۡمَ هُودٍ أَوۡ قَوۡمَ صَٰلِحٖۚ وَمَا قَوۡمُ لُوطٖ مِّنكُم بِبَعِيدٖ ۝ 88
(89) और ऐ मेरे कौमी भाइयो । मेरे विरुद्ध तुम्हारी हठधर्मी कहीं यह नौबत न पहुँचा दे कि अन्ततः तुमपर भी वही अज़ाब आकर रहे जो नह या हूद या सालेह की क्रीम पर आया था। और लूत की कौम तो तुमसे कुछ अधिक दूर भी नहीं है।"100
100.अर्थात् लूत (अलै०) की कौम की घटना तो अभी ताजा ही है और तुम्हारे क़रीब ही के क्षेत्र में घटित हो चुकी है, शायद उस समय लूत (अलै०) की क्रीम की तबाही पर छ-सात सौ वर्ष से अधिक न गुजो थे और भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भी शुऐब (अले०) की क़ौम का देश उस क्षेत्र से बिलकुल मिला हुआ था जहाँ लूत की क़ौम रहती थी।
وَٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِۚ إِنَّ رَبِّي رَحِيمٞ وَدُودٞ ۝ 89
(90) देखो, अपने रख से क्षमा माँगी और उसकी ओर पलट आओ, निस्सन्देह मेरा रब दयावान है और अपने पैदा किए हुए, प्राणी से प्रेम रखता है।"101
101.अर्थात् अल्लाह निर्मम और पाषाण-हदय नहीं है । उसको अपने पैदा किए हुए प्राणियों से कोई दुश्मनी नहीं है कि ख़ामख़ाह सजा देने ही को उसका जी चाहे और अपने बन्दों को मार-मारकर ही वह प्रसन्न हो । तुम लोग अपनी उदंडताओं में जब सीमा पार कर जाते हो और किसी तरह बिगाड़ फैलाने से बाज ही नहीं आने तब वह तुम्हें सजा देता है, वरना उसका हाल तो यह है कि तुम चाहे कितने ही अपराध कर चुके हो, अब भी अपने कर्मों पर लज्जित होकर उसकी ओर पलटोगे, उसके रहमत को अपने लिए फैला हुआ पाओगे, क्योंकि अपनी पैदा की हुई चीज़ों से वह अपार प्रेम रखता है। इस विषय को नबी (सल्ल०) ने दो अति सूक्ष्म उदाहरणों से स्पष्ट किया है। एक उदाहरण तो आपने यह दिया है कि अगर तुममें से किसी व्यक्ति का ऊँट एक चटयल मैदान में खोया गया हो और उसके खाने-पीने का समान भी उसी ऊँट पर हो और वह आदमी उसको ढूंढ-ढूँढ़कर परेशान हो चुका हो, यहाँ तक कि जीवन से निराश होकर एक पेड़ के नीचे लेट गया हो और ठीक उस स्थिति में यकायकी वह देखे कि उसका ऊँट सामने खड़ा है तो उस समय जैसी कुछ ख़ुशी उसको होगी, उससे कहीं अधिक ख़ुशी अल्लाह को अपने भटके हुए बन्दों के पलट आने से होती है। दूसरा उदाहरण इससे भी अधिक प्रभावकारी है। हज़रत उमर (रजि०) फ़रमाते हैं कि एक बार नबी (सल्ल०) की सेवा में कुछ युद्धबन्दी गिरफ़्तार होकर आए। उनमें एक औरत भी थी जिसका दूध पीता बच्चा छूट गया था और वह ममता की मारी ऐसी बेचैन थी कि जिस बच्चे को पा लेती, उसे छाती से चिमटाकर दूध पिलाने लगती थी। नबी (सल्ल.) ने उसकी दशा देखकर हम लोगों से पूछा, "क्या तुम लोग यह आशा कर सकते हो कि यह माँ अपने बच्चे को स्वयं अपने हाथों आग में फेंक देगी?" हमने कहा, "कदापि नहीं, स्वयं फेंकना तो दूर की बात, वह आप गिरता हो तो यह अपनी हद तक तो उसे बचाने में कोई कसर उठा न रखेगी।" नबी (सल्ल०) ने फरमाया, "अल्लाह की दया अपने बन्दों पर इससे कहीं अधिक है जो यह औरत अपने बच्चे के लिए रखती है।" और वैसे भी विचार करने से यह बात अच्छी तरह समझ में आ सकती है। वह अल्लाह ही तो है जिसने बच्चों के पालन-पोषण के लिए माँ-बाप के दिल में प्रेम पैदा किया है, वरना सच यह है कि अगर अल्लाह उस प्रेम को पैदा न करता तो माँ और बाप से बढ़कर बच्चों का कोई शत्रु न होता, क्योंकि सबसे बढ़कर वे इन्हीं के लिए कष्टदायक होते हैं। अब हर आदमी स्वयं समझ सकता है कि जो अल्लाह माँ की मुहब्बत और बाप का स्नेह पैदा करनेवाला है, स्वयं उसके अन्दर अपने बन्दों के लिए कैसी कुछ मुहब्बत मौजूद होगी।
قَالُواْ يَٰشُعَيۡبُ مَا نَفۡقَهُ كَثِيرٗا مِّمَّا تَقُولُ وَإِنَّا لَنَرَىٰكَ فِينَا ضَعِيفٗاۖ وَلَوۡلَا رَهۡطُكَ لَرَجَمۡنَٰكَۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡنَا بِعَزِيزٖ ۝ 90
(91) उन्होंने उत्तर दिया, “ऐ शुऐब ! तेरी बहुत-सी बातें तो हमारी समझ ही में नहीं आती।102 और हम देखते हैं कि तू हमारे बीच एक निर्बल व्यक्ति है। तेरी बिरादरी न होती तो हम कभी का पथराव करके तुझे मार डालते, तेरा बलबूता तो इतना नहीं है कि हमपर भारी हो।"103
102.यह समझ में न आना कुछ इसलिए न था कि हज़रत शुऐब (अलै०) किसी अन्य भाषा में बात करते थे या उनकी बातें बहुत अस्पष्ट और उलझी हुई होती थीं। बातें तो सब साफ़ और सीधी ही थी और उसी भाषा में की जाती थीं जो ये लोग बोलते थे, लेकिन उनके मन का साँचा इतना टेढ़ा हो चुका था कि हज़रत शुऐब (अलै०) की सीधी बातें किसी तरह उसमें न उतर सकती थीं। सीधी बात है कि जो लोग पक्षपात और मनोकामना की दासता में कट्टरता के साथ ग्रस्त होते हैं और किसी विशेष विचारधारा पर परिपक्व हो चुके होते हैं, वे एक तो कोई ऐसी बात सुन ही नहीं सकते जो उनके विचारों से भिन्न हो और अगर सुन भी लें तो उनकी समझ में नहीं आता कि ये किस दुनिया की बातें की जा रही हैं।
103.यह बात दृष्टि में रहे कि ठीक यही स्थिति इन आयतों के उतरने के समय मक्का में पाई जाती थी। उस समय क़ुरैश के लोग भी इसी तरह मुहम्मद (सल्ल०) के खून के प्यासे हो रहे थे और चाहते थे कि आपके जीवन का अन्त कर दें, लेकिन सिर्फ इस वजह से आपपर हाथ डालते हुए डरते थे कि बनू हाशिम आपके मददगार थे। अत: हज़रत शुऐब (अलै०) और उनकी कौम का यह किस्सा ठीक-ठीक क़ुरैश और मुहम्मद (सल्ल०) के मामले में फिट करते हुए बयान किया जा रहा है और आगे हज़रत शुऐब (अलै०) का जो अति शिक्षाप्रद उत्तर नकल किया गया है, उसमें यह अर्थ निहित है कि ऐ कुरैश के लोगो ! तुमको भी मुहम्मद की ओर से यही उत्तर है।
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَهۡطِيٓ أَعَزُّ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱللَّهِ وَٱتَّخَذۡتُمُوهُ وَرَآءَكُمۡ ظِهۡرِيًّاۖ إِنَّ رَبِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 91
(92) शुऐब ने कहा, “भाइयो ! क्या मेरी बिरादरी तुमपर अल्लाह से ज़्यादा भारी है कि तुमने (बिरादरी का तो भय रखा और) अल्लाह को बिलकुल पीठ पीछे डाल दिया? जान रखो कि जो कुछ तुम कर रहे हो, वह अल्लाह की पकड़ से बाहर नहीं है ।
وَيَٰقَوۡمِ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنِّي عَٰمِلٞۖ سَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن يَأۡتِيهِ عَذَابٞ يُخۡزِيهِ وَمَنۡ هُوَ كَٰذِبٞۖ وَٱرۡتَقِبُوٓاْ إِنِّي مَعَكُمۡ رَقِيبٞ ۝ 92
(93) ऐ मेरी क़ौम के लोगो ! तुम अपने तरीके पर काम किए जाओ और मैं अपने तरीके पर करता रहूँगा, जल्दी ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि किस पर ज़िल्लत का अज़ाब आता है और कौन झूठा है। तुम भी इन्तिज़ार करो और मैं भी तुम्हारे साथ बाट देख रहा हूँ।"
وَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا شُعَيۡبٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَأَخَذَتِ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلصَّيۡحَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دِيَٰرِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 93
(94) अन्तत: जब हमारे निर्णय का समय आ गया तो हमने अपनी हमत से शुऐब और उसके साथी ईमानवालों को बचा लिया और जिन लोगों ने जुल्म किया था, उनको एक तेज़ धमाके ने ऐसा पकड़ा कि वे अपनी बस्तियों में बेहिले-डुले पड़े के पड़े रह गए,
كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَآۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّمَدۡيَنَ كَمَا بَعِدَتۡ ثَمُودُ ۝ 94
(95) मानो वे कभी वहाँ रहे-बसे ही न थे। सुनो ! मदयनवाले भी दूर फेंक दिए गए जिस तरह समूद फेंके गए थे।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَا وَسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 95
(96, 97) और मूसा को हमने अपनी निशानियों और (पैग़म्बर बनाए जाने के) खुले प्रमाण-पत्र के साथ फ़िरऔन और उसके दरबारियों की ओर भेजा, मगर उन्होंने फ़िरऔन के आदेश का पालन किया, हालाँकि फ़िरऔन का आदेश सत्यता पर आधारित न था।
إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَٱتَّبَعُوٓاْ أَمۡرَ فِرۡعَوۡنَۖ وَمَآ أَمۡرُ فِرۡعَوۡنَ بِرَشِيدٖ ۝ 96
0
يَقۡدُمُ قَوۡمَهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَأَوۡرَدَهُمُ ٱلنَّارَۖ وَبِئۡسَ ٱلۡوِرۡدُ ٱلۡمَوۡرُودُ ۝ 97
(98) क़ियामत के दिन वह अपनी क़ौम के आगे-आगे होगा और अपने नेतृत्व में उन्हें दोज़ख़ की ओर ले जाएगा।104 कैसी बुरी आने की जगह है यह जिसपर कोई पहुँचे !
104.इस आयत से और क़ुरआन मजीद की दूसरी व्याख्याओ से मालूम होता है कि जो लोग दुनिया में किसी क़ौम या दल के नेता होते हैं, वही क़ियामत के दिन भी उसके नेता होंगे। अगर वे दुनिया में नेकी और सच्चाई और सत्य की ओर मार्गदर्शन करते हैं, तो जिन लोगों ने उनका यहाँ पालन किया है, वे क़ियामत के दिन भी उन्हीं के झंडे तले जमा होंगे और उनके नेतृत्व में जन्नत की ओर जाएँगे। और आगर वे दुनिया में किसी गुमराही, किसी दुष्चरित्र या किसी ऐसी राह की ओर लोगों को बुलाते हैं जो सत्य धर्म का रास्ता नहीं है, तो जो लोग यहाँ उनके पीछे चल रहे हैं, वे वहाँ भी उनके पीछे होंगे और उन्हीं के नेतृत्व में जहन्नम का रुख करेंगे। इसी विषय की अभिव्यक्ति नबी (सल्ल०) के इस कथन में पाई जाती है कि "क़ियामत के दिन अज्ञानकाल के काव्य का झंडा इमरउल कैस के हाथ में होगा और अरब अज्ञानता के तमाम कवि ठसी नेतृत्व में दोज़ख़ की राह लेंगे। 'अब यह दृश्य हर व्यक्ति को अपनी कल्पना को उसकी आँखों के सामने खींच सकता है कि ये दोनों प्रकार के जुलूस किस शान से अपनी मंज़िल की ओर जाएंगे। स्पष्ट है जिन नेताओं ने दुनिया में लोगों को गुमराह किया और सत्य के विपरीत राहों पर चलाया है, उनकी पैरवी करनेवाले जब अपनी आँखों से देख लेंगे कि ये ज़ालिम हमें किस भयानक अंजाम की ओर खींच लाए हैं, तो वे अपनी सारी मुसीबतों का ज़िम्मेदार इन्हीं को समझेंगे और इनका जुलूस इस शान से दोज़ख के रास्ते पर बढ़ रहा होगा कि आगे-आगे वे होंगे और पीछे-पीछे उनकी पैरवी करनेवालों की भीड़ उनको गालियाँ देती हुई और उनपर लानतों की बौछार करती हुई जा रही होगी। इसके विपरीत जिन लोगों के नेतृत्त्व ने लोगों को नेमतों भरी जन्नत का अधिकारी बनाया होगा, उनकी पैरवी करनेवाले अपना भला अंजाम देखकर अपने लीडरों को दुआएँ देते हुए और उनपर प्रशंसाओं के फूल बरसाते हुए चलेंगे।
وَأُتۡبِعُواْ فِي هَٰذِهِۦ لَعۡنَةٗ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ بِئۡسَ ٱلرِّفۡدُ ٱلۡمَرۡفُودُ ۝ 98
(99) और उन लोगों पर दुनिया में भी लानत पड़ी और क्रियामत के दिन भी पड़ेगी। कैसा बुरा बदला है यह जो किसी को मिले !
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡقُرَىٰ نَقُصُّهُۥ عَلَيۡكَۖ مِنۡهَا قَآئِمٞ وَحَصِيدٞ ۝ 99
(100) यह कुछ बस्तियों की खबरें हैं जो हम तुम्हें सुना रहे हैं। इनमें से कुछ अब भी खड़ी हैं और कुछ की फसल कट चुकी है।
وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡۖ فَمَآ أَغۡنَتۡ عَنۡهُمۡ ءَالِهَتُهُمُ ٱلَّتِي يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖ لَّمَّا جَآءَ أَمۡرُ رَبِّكَۖ وَمَا زَادُوهُمۡ غَيۡرَ تَتۡبِيبٖ ۝ 100
(101) हमने इनपर ज़ुल्म नहीं किया, उन्होंने आप ही अपने ऊपर सितम ढाया और जब अल्लाह का आदेश आ गया तो उनके वे उपास्य, जिन्हें वे अल्लाह को छोड़कर पुकारा करते थे, उनके कुछ काम न आ सके और उन्होंने नाश-विनाश के सिवा उन्हें कुछ लाभ न पहुँचाया।
وَكَذَٰلِكَ أَخۡذُ رَبِّكَ إِذَآ أَخَذَ ٱلۡقُرَىٰ وَهِيَ ظَٰلِمَةٌۚ إِنَّ أَخۡذَهُۥٓ أَلِيمٞ شَدِيدٌ ۝ 101
(102) और तेरा रब जब किसी ज़ालिम बस्ती को पकड़ता है तो फिर उसकी पकड़ ऐसी ही हुआ करती है, सच तो यह है कि उसकी पकड़ बड़ी कठोर और दर्दनाक होती है।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّمَنۡ خَافَ عَذَابَ ٱلۡأٓخِرَةِۚ ذَٰلِكَ يَوۡمٞ مَّجۡمُوعٞ لَّهُ ٱلنَّاسُ وَذَٰلِكَ يَوۡمٞ مَّشۡهُودٞ ۝ 102
(103) वास्तविकता यह है कि उसमें एक निशानी है हर उस व्यक्ति के लिए जो आख़िरत के अज़ाब का डर रखे।105 वह एक दिन होगा जिसमें सब लोग जमा होंगे और फिर जो कुछ भी उस दिन होगा, सबकी आँखों के सामने होगा।
105.अर्थात् इतिहास की इन घटनाओं में एक ऐसी निशानी है जिसपर अगर इंसान विचार करे तो उसे विश्वास हो जाएगा कि आख़िरत का अज़ाब ज़रूर पेश आनेवाला है और उसके बारे में पैग़म्बरों की दी हुई ख़बर सच्ची है। साथ ही इसी निशानी से वह यह भी मालूम कर सकता है कि आख़िरत का अज़ाब कैसा कठोर होगा और यह जानकारी उसके मन में डर पैदा करके उसे सीधा कर देगी। अब रही यह बात कि इतिहास में वह क्या चीज़ है जो आख़िरत और उसके अज़ाब की निशानी कही जा सकती है, तो हर वह आदमी उसे आसानी से समझ सकता है जो इतिहास को मात्र घटनाओं का संग्रह ही न समझता हो, बल्कि इन घटनाओं के तर्कों पर भी कुछ विचार करता हो और उनसे नतीजे भी निकालने का आदी हो । हज़ारों वर्ष के मानव-इतिहास में क़ौमों और गिरोहों का उठना और गिरना जिस अनवरत ढंग से और नियमानुसार होता रहा है और फिर इस गिरने और उठने में जिस तरह स्पष्ट रूप से कुछ नैतिक कारण काम करते रहे हैं और गिरनेवाली क़ौमें जैसी-जैसी शिक्षाप्रद रूपों में गिरी हैं, यह सब कुछ इस सच्चाई की ओर खुला संकेत है कि इंसान इस सृष्टि में एक ऐसे शासन का शासित है जो मात्र अंधे भौतिक नियमों पर शासन नहीं कर रहा है, बल्कि अपना एक यथोचित नैतिक क़ानून भी रखता है जिसके अनुसार वह नैतिकता की एक विशेष सीमा से ऊपर रहनेवालों को पुरस्कार देता है, उससे नीचे उतरनेवालों को कुछ समय तक ढील देता रहता है और जब वे उससे बहुत अधिक नीचे चले जाते हैं तो उन्हें गिराकर ऐसा फेंकता है कि वे फिर एक शिक्षाप्रद कहानी बनकर रह जाते हैं। इन घटनाओं का सदा एक क्रम के साथ घटित होते रहना इस मामले में सन्देह करने की तनिक भी गुंजाइश नहीं छोड़ता कि दंड देना और पुरस्कृत करना सृष्टि के इस शासन का एक स्थाई नियम है। फिर जो अज़ाब अलग-अलग क़ौमों पर आए हैं, उनपर और अधिक विचार करने से यह अंदाज़ा भी होता है कि न्याय के अनुसार दंड और पुरस्कार के नियम के जो नैतिक तक़ाज़े हैं, वे एक सीमा तक इन अज़ाबों से ज़रूर पूरे हुए हैं, मगर बहुत बड़ी हद तक अभी अधूरे हैं, क्योंकि दुनिया में जो अज़ाब आया उसने केवल उस नस्ल को पकड़ा जो अज़ाब के समय मौजूद थी। रहीं वे नस्लें जो दुष्टताओं के बीज बोकर और अत्याचार और दुष्कर्मों की फ़सलें तैयार करके कटाई से पहले ही दुनिया से विदा हो चुकी थीं और जिनके करतूतों की सज़ा बाद की नस्लों को भुगतनी पड़ी, वे तो मानो दंड-पुरस्कार के नियम की प्रक्रिया से साफ़ ही बच निकली हैं। अब अगर हम इतिहास के अध्ययन से सृष्टि के शासन के स्वभाव को ठीक-ठीक समझ चुके हैं तो हमारा यह अध्ययन ही इस बात की गवाही देने के लिए पर्याप्त है कि बुद्धि और न्याय को रौशनी में बदले के नियम के जो नैतिक तकाज़े अभी अधूरे हैं, उनको पूरा करने के लिए यह न्यायी शासन निश्चित रूप से फिर एक दूसरी दुनिया पैदा करेगा और वहाँ तमाम ज़ालिमों को उनके करतूतों का पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा और वह बदला दुनिया के इन अज़ाबों से भी अधिक कठोर होगा। (देखिए सूरा-7 (आराफ), टिप्पणी 20 और सूरा-10 (यूनुस), टिप्पणी 10)
وَمَا نُؤَخِّرُهُۥٓ إِلَّا لِأَجَلٖ مَّعۡدُودٖ ۝ 103
(104) हम उसके लाने में कुछ अधिक देर नहीं कर रहे हैं, बस एक गिनी-चुनी अवधि इसके लिए निश्चित है।
يَوۡمَ يَأۡتِ لَا تَكَلَّمُ نَفۡسٌ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦۚ فَمِنۡهُمۡ شَقِيّٞ وَسَعِيدٞ ۝ 104
(105) जब वह आएगा, तो किसी को बात करने की मजाल न होगी, अलावा इसके कि अल्लाह की इजाज़त से कुछ अर्ज़ करे ।106 फिर कुछ लोग उस दिन भाग्यहीन होंगे और कुछ भाग्यवान ।
106.अर्थात् ये मूर्ख लोग अपनी जगह इस भरोसे में हैं कि अमुक हज़रत हमारी सिफ़ारिश करके हमें बचा लेंगे और उनकी बात न टाली जाएगी, हालाँकि अल्लाह के प्रतापी न्यायालय में किसी बड़े से बड़े इंसान और किसी इज़्ज़तदार से इज़्ज़तदार फ़रिश्ते को भी दम मारने की भी मजाल तक न होगी और अगर कोई कुछ कह भी सकेगा तो उस समय जबकि सर्वोच्च शासक स्वयं उसे कुछ अर्ज़ करने की इजाजत दे दे। अतएव जो लोग अपने स्वयं के गढ़े हुए उपास्यों की 'शफ़ाअत' (सिफ़ारिश) पर भरोसा किए बैठे हैं, उन्हें वहाँ भारी निराशा का सामना करना पड़ेगा।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ شَقُواْ فَفِي ٱلنَّارِ لَهُمۡ فِيهَا زَفِيرٞ وَشَهِيقٌ ۝ 105
(106, 107) जो भाग्यहीन होंगे वे दोज़ख़ में जाएँगे (जहाँ गर्मी और प्यास की अधिकता से) वे हाँफेंगे और फुकारे मारेंगे और इसी हालत में वे सदैव रहेंगे, जब तक कि ज़मीन व आसमान क़ायम हैं107, अलावा इसके कि तेरा रब कुछ और चाहे । निस्सन्देह तेरा रब पूरा अधिकार रखता है कि जो चाहे करे।108
107.इन शब्दों से या तो आख़िरत की दुनिया के आसमान व ज़मोन तात्पर्य हैं या फिर केवल मुहावरे के रूप में उनको 'सदा सर्वदा' के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है । बहरहाल वर्तमान ज़मीन व आसमान तो तात्पर्य नहीं हो सकते, क्योंकि क़ुरआन के बयान की रौशनी में ये क़ियामत के दिन बदल डाले जाएँगे और यहाँ जिन घटनाओं का उल्लेख हो रहा है, वे क़ियामत के बाद घटित होनेवाली हैं।
108.अर्थात् कोई और शक्ति तो ऐसी है ही नहीं जो इन लोगों को इस सदा सर्वदा के अज़ाब से बचा सके। अलबत्ता आगर अल्लाह स्वयं ही किसी के अंजाम को बदलना चाहे या किसी को सदा सर्वदा का अज़ाब देने के बजाय एक अवधि तक अज़ाब देकर क्षमा कर देने का निर्णय करे तो उसे ऐसा करने का पूरा अधिकार है, क्योंकि अपने नियमों का वह स्वयं ही बनानेवाला है, कोई सर्वोपरि नियम ऐसा नहीं है जो उसके अधिकारों को सीमित कर देता हो।
خَٰلِدِينَ فِيهَا مَا دَامَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ إِلَّا مَا شَآءَ رَبُّكَۚ إِنَّ رَبَّكَ فَعَّالٞ لِّمَا يُرِيدُ ۝ 106
0
۞وَأَمَّا ٱلَّذِينَ سُعِدُواْ فَفِي ٱلۡجَنَّةِ خَٰلِدِينَ فِيهَا مَا دَامَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ إِلَّا مَا شَآءَ رَبُّكَۖ عَطَآءً غَيۡرَ مَجۡذُوذٖ ۝ 107
(108) रहे वे लोग जो भाग्यवान निकलेंगे, तो वे जन्नत में जाएंगे और वहाँ सदैव रहेंगे जब तक कि ज़मीन व आसमान क़ायम है, अलावा इसके कि तेरा रब कुछ और चाहे।109 ऐसी बख्शिश उनको मिलेगी कि जिसका सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होगा।
109.अर्थात् उनका जन्नत में ठहरना भी किसी ऐसे सर्वोपरि नियम पर आश्रित नहीं है जिसने अल्लाह को ऐसा करने पर विवश कर रखा हो, बल्कि यह पूर्णतः अल्लाह की कृपा होगी कि वह उनको वहाँ रखेगा। अगर वह उनका भाग्य भी बदलना चाहे तो उसे बदलने का पूरा अधिकार प्राप्त है।
فَلَا تَكُ فِي مِرۡيَةٖ مِّمَّا يَعۡبُدُ هَٰٓؤُلَآءِۚ مَا يَعۡبُدُونَ إِلَّا كَمَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُهُم مِّن قَبۡلُۚ وَإِنَّا لَمُوَفُّوهُمۡ نَصِيبَهُمۡ غَيۡرَ مَنقُوصٖ ۝ 108
(109) अतएव ऐ नबी! तू उन उपास्यों की ओर से किसी सन्देह में न रह जिनकी ये लोग पूजा कर रहे हैं। ये तो (बस लकीर के फकीर बने हुए) उसी तरह पूजा पाठ किए जा रहे हैं जिस तरह पहले इनके बाप-दादा करते थे110, और हम इनका हिस्सा इन्हें भरपूर देगे बिना इसके कि इसमें कुछ काट-कसर हो।
110.इसका अर्थ यह नहीं है कि नबी (सल्ल०) सचमुच उन उपास्यों की ओर से किसी सन्देह में थे, बल्कि वास्तव में ये बातें नबी (सल्ल०) को सम्बोधित करते हुए आम लोगों को सुनाई जा रही हैं। अर्थ यह है कि किसी विवेकी पुरुष को इस सन्देह में न रहना चाहिए कि ये लोग जो इन उपास्यों की उपासना और उनसे दुआएँ माँगने में लगे हुए हैं, तो आख़िर कुछ तो उन्होंने देखा होगा जिसके कारण ये उनसे लाभ की आशाएँ रखते हैं। सच तो यह है कि ये उपासनाएँ, भेंट और चढ़ावे और दुआएँ किसी ज्ञान, किसी अनुभव और किसी वास्तविक निरीक्षण के आधार पर नहीं है, बल्कि सब कुछ निरी अंधी पैरवी के कारण हो रहा है। आख़िर यही आस्ताने पिछली क़ौमों के यहाँ भी तो मौजूद थे और ऐसी ही उनकी करामतें उनमें भी मशहूर थीं, मगर जब अल्लाह का अज़ाब आया तो वे तबाह हो गई और ये आस्ताने यूँ ही धरे के धरे रह गए।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ فَٱخۡتُلِفَ فِيهِۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّهُمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ ۝ 109
(110) हम इससे पहले मूसा को भी किताब दे चुके है और उसके बारे में भी मतभेद किया गया था, (जिस तरह आज इस किताब के बारे में किया जा रहा है जो तुम्हें दी गई है)111 अगर तेरे रब की ओर से एक बात पहले ही न तय कर दी गई होती तो उन मतभेद करनेवालों के बीच कभी का फैसला चुका दिया गया होता।112 यह सही है कि ये लोग उसकी ओर से सन्देह और दुविधा में पड़े हुए हैं
111.अर्थात् यह कोई नई बात नहीं है कि आज इस कुरआन के बारे में विभिन्न लोग अलग-अलग प्रकार की कानाफूसियाँ कर रहे हैं, बल्कि इससे पहले जब मूसा को किताब दी गई थी तो उसके बारे में भी ऐसे ही अलग-अलग मत व्यक्त किए गए थे, इसलिए ऐ मुहम्मद (सल्ल०) ! तुम यह देखकर निराश और हतोत्साह न हो कि ऐसी सीधी-सीधी और साफ़ बातें क़ुरआन में प्रस्तुत की जा रही हैं और फिर भी लोग उनको स्वीकार नहीं करते।
112.यह वाक्य भी नबी (सल्ल०) और ईमानवालों को सन्तुष्ट करने और धैर्य दिलाने के लिए कहा गया है। अर्थ यह है कि तुम इस बात के लिए बेचैन न हो कि जो लोग इस कुरआन के बारे में मतभेद कर रहे हैं, उनका फैसला जल्दी से चुका दिया जाए। अल्लाह पहले ही यह तय कर चुका है कि फैसला निश्चित समय से पहले न किया जाएगा और यह कि दुनिया के लोग फ़ैसला चाहने में जो जल्दबाज़ी करते हैं, अल्लाह फ़ैसला कर देने में वह जल्दबाज़ी न करेगा।
وَإِنَّ كُلّٗا لَّمَّا لَيُوَفِّيَنَّهُمۡ رَبُّكَ أَعۡمَٰلَهُمۡۚ إِنَّهُۥ بِمَا يَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 110
(111) और यह भी सच है कि तेरा रब उन्हें उनके कर्मों का पूरा-पूरा बदला देकर रहेगा, निश्चय ही वह उनकी तमाम गतिविधियों की खबर रखता है।
فَٱسۡتَقِمۡ كَمَآ أُمِرۡتَ وَمَن تَابَ مَعَكَ وَلَا تَطۡغَوۡاْۚ إِنَّهُۥ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 111
(112) अत: ऐ नबी ! तुम और तुम्हारे वे साथी, जो (इंकार और विद्रोह से ईमान और आज्ञापालन की ओर) पलट आए हैं, ठीक-ठीक सीधे रास्ते पर क़दम जमाए रहो जैसा कि तुम्हें आदेश दिया गया है, और बन्दगी की सीमा का उल्लंघन न करो। जो कुछ तुम कर रहे हो उसपर तुम्हारा रब निगाह रखता है।
وَلَا تَرۡكَنُوٓاْ إِلَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ فَتَمَسَّكُمُ ٱلنَّارُ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِنۡ أَوۡلِيَآءَ ثُمَّ لَا تُنصَرُونَ ۝ 112
(113) इन ज़ालिमों की ओर तनिक भी न झुकना, वरना जहन्नम की लपेट में आ जाओगे और तुम्हें कोई ऐसा मित्र और संरक्षक न मिलेगा जो अल्लाह से तुम्हें बचा सके और कहीं से तुमको सहायता न पहुँचेगी।
وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ طَرَفَيِ ٱلنَّهَارِ وَزُلَفٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِۚ إِنَّ ٱلۡحَسَنَٰتِ يُذۡهِبۡنَ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ ذَٰلِكَ ذِكۡرَىٰ لِلذَّٰكِرِينَ ۝ 113
(114) और देखो नमाज़ स्थापित करो दिन के दोनों सिरों पर, और कुछ रात गुज़रने पर।113 वास्तव में नेकियाँ बुराइयों को दूर कर देती हैं।114 यह एक याददेहानी है उन लोगों के लिए जो अल्लाह को याद रखनेवाले हैं।
113.'दिन के दोनों सिरों से तात्पर्य सुबह और मग़रिब है और 'कुछ रात गुज़रने पर' से तात्पर्य इशा का समय है। इससे मालूम हुआ कि यह कथन उस समय का है जब नमाज़ के लिए अभी पाँच वक़्त निश्चित नहीं किए थे। मेराज की घटना इसके बाद घटी जिसमें पाँच वक्त की नमाज़ फ़र्ज़ हुई। (नमाज़ के वक़्तों के विवरण के लिए देखिए सूरा-17 (बनी इसराईल), टिप्पणी 95, सूरा-20 (ताहा), टिप्पणी 111 और सूरा-30 (रूम), टिप्पणी 124)
114.अर्थात् जो बुराइयाँ दुनिया में फैली हुई हैं और जो बुराइयाँ तुम्हारे साथ इस सत्य-सन्देश की दुश्मनी में को जा रही हैं, इन सबको दफा करने का असली तरीक़ा यह है कि तुम स्वयं ज़्यादा से ज़्यादा नेक बनो और अपनी नेकी से इस बुराई को पराजित करो और तुम्हें नेक बनाने का सर्वोत्तम साधन यह नमाज़ है जो तुम्हारे अन्दर ऐसे गुण पैदा करेगी जिनसे तुम बुराई के इस नियोजित तूफ़ान का न सिर्फ मुकाबला कर सकोगे, बल्कि उसे दफा करके दुनिया में अमली तौर पर भलाइयों और अच्छाइयों को व्यवस्था भी स्थापित कर सकोगे।
وَٱصۡبِرۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 114
(115) और सब्र कर, अल्लाह नेकी करनेवालों का बदला कभी नष्ट नहीं करता।
فَلَوۡلَا كَانَ مِنَ ٱلۡقُرُونِ مِن قَبۡلِكُمۡ أُوْلُواْ بَقِيَّةٖ يَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡفَسَادِ فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّنۡ أَنجَيۡنَا مِنۡهُمۡۗ وَٱتَّبَعَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَآ أُتۡرِفُواْ فِيهِ وَكَانُواْ مُجۡرِمِينَ ۝ 115
(116) फिर क्यों न उन क़ौमों में, जो तुमसे पहले गुज़र चुकी हैं, ऐसे भले लोग मौजूद रहे जो को ज़मीन में बिगाड़ पैदा करने से रोकते? ऐसे लोग निकले भी तो बहुत कम, जिनको हमने इन क़ौमों में से बचा लिया, वरना ज़ालिम लोग तो उन्हीं मज़ों के पीछे पड़े रहे जिनके सामान उन्हें ख़ूब दिए गए थे और वे अपराधी बनकर रहे।
وَمَا كَانَ رَبُّكَ لِيُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ بِظُلۡمٖ وَأَهۡلُهَا مُصۡلِحُونَ ۝ 116
(117) तेरा रब ऐसा नहीं है कि बस्तियों को अकारण नष्ट कर दे, हालाँकि उनके निवासी सुधार करनेवाले हों।115
115.इन आयतों में [अज़ाब पकड़ में आनेवाली क़ौमों के वृत्तान्त] पर समीक्षा करते हुए फरमाया जाता है कि पिछले मानव-इतिहास में जितनी कौमें भी नष्ट हुई हैं, उन सबको जिस चीज़ ने गिराया वह यह थी कि जब अल्लाह ने उन्हें अपनी नेमतों से मालामाल किया तो वे समृद्धि के नशे में मस्त होकर धरती में बिगाड़ फैलाने लगी और उनका सामूहिक स्वभाव इतना बिगड़ गया कि या तो उनके भीतर ऐसे नेक लोग बाक़ी रहे ही नहीं जो उनको बुराइयों से रोकते या अगर कुछ लोग ऐसे निकले भी तो वे इतने कम थे और उनकी आवाज़ इतनी कमज़ोर थी कि उनके रोकने से बिगाड़ रुक न सका। यही चीज़ है जिसके कारण अन्ततः ये क़ौमें अल्लाह के प्रकोप का शिकार हुई, वरना अल्लाह को अपने बन्दों से कोई दुश्मनी नहीं है कि वे तो भले काम कर रहे हों और अल्लाह उनको ख़ामवाह अज़ाब में डाल दे। इस कथन से यहाँ तीन बातें मन में बिठानी अभीष्ट हैं- एक यह कि हर सामाजिक व्यवस्था में ऐसे नेक लोगों का मौजूद रहना ज़रूरी है जो भलाई की ओर बुलानेवाले और बुराई से रोकनेवाले हों, इसलिए कि भलाई हो वह चीज़ है जो वास्तव में अल्लाह को अभीष्ट है और लोगों की दुष्टताओं को अगर अल्लाह सहन करता भी है तो उस भलाई के लिए करता है जो उनके भीतर मौजूद हो और उसी समय तक करता है जब तक उनके भीतर भलाई की संभावना बाक़ी रहे। मगर जब कोई इंसानी गिरोह भले लोगों से खाली हो जाए और उसमें केवल भ्रष्ट लोग ही बाक़ी रह जाएँ या भले लोग मौजूद हों भी तो कोई उनको सुनकर न दे और पूरी क़ौम की क़ौम नैतिक बिगाड़ की राह पर बढ़ती चली जाए, तो फिर अल्लाह का अज़ाब उसके सिर पर इस तरह मंडराने लगता है जैसे पूरे दिनों की गर्भवती को कुछ नहीं कह सकते कि कब बह बच्चा जन दे। दूसरे यह कि जो कौम अपने बीच ऐसे लोगों को सहने के लिए तैयार न हो जो उसे बुराइयों से रोकते और भलाइयों की ओर बुलाते हों तो समझ लो कि उसके बुरे दिन करीब आ गए हैं, क्योंकि अब वह स्वयं ही अपनी जान की दुश्मन हो गई है। तीसरे यह कि एक कौम के अज़ाव में पड़ने या न पड़ने का अन्तिम निर्णय जिस चीज़ पर होता है वह यह है कि उसमें भलाई की पुकार पर लपकनेवाले लोग किस हद तक मौजूद हैं। अगर उसके अन्दर ऐसे लोग इतनी संख्या में निकल आएँ जो बिगाड़ को मिटाने और कल्याणकारी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए पर्याप्त हों तो उसपर आम अज़ाब नहीं भेजा जाता, बल्कि उन भले लोगों को स्थिति सुधारने का अवसर दिया जाता है। लेकिन अगर लगातार कोशिशों के बाद भी उनमें से इतने आदमी नहीं निकलते जो सुधार के लिए पर्याप्त हो सकें और वह कौम अपनी गोद से कुछ हीरे फेंक देने के बाद अपने रवैये से सिद्ध कर देती है कि अब उसके पास कोयले ही कोयले बाकी रह गए हैं, तो फिर कुछ अधिक देर नहीं लगती कि वह भट्ठी सुलगा दी जाती है जो इन कोयलों को फूंककर रख दे।
وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ لَجَعَلَ ٱلنَّاسَ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗۖ وَلَا يَزَالُونَ مُخۡتَلِفِينَ ۝ 117
(118) निस्सन्देह तेरा रब अगर चाहता तो तमाम इंसानों को एक गिरोह बना सकता था, मगर अब तो वे अलग-अलग तरीक़ों पर ही चलते रहेंगे
إِلَّا مَن رَّحِمَ رَبُّكَۚ وَلِذَٰلِكَ خَلَقَهُمۡۗ وَتَمَّتۡ كَلِمَةُ رَبِّكَ لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ ٱلۡجِنَّةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 118
(119) और बे-राह होने से केवल वे लोग बचे रहेंगे जिनपर तेरे रब की रहमत है। इसी (चुनने और अपनाने की स्वतंत्रता और परीक्षा) के लिए तो उसने इन्हें पैदा किया था116, और तेरे रब की वह बात पूरी हो गई जो उसने कही थी कि मैं जहन्नम को जिनों और इंसानों सबसे भर दूँगा।
116.यह उस सन्देह का उत्तर है जो सामान्य रूप से ऐसे अवसरों पर भाग्य के नाम से प्रस्तुत किया जाता है। ऊपर पिछली क़ौमों के विनाश का जो कारण बताया गया है उसपर यह आपत्ति की जा सकती है कि उनमें भले लोगों का मौजूद न रहना या बहुत कम पाया जाना भी तो आखिर अल्लाह की इच्छा ही से था, फिर उसका आरोप उन क़ौमें पर क्यों रखा जाए? क्यों न अल्लाह ने उनके भीतर बहुत-से भले लोग पैदा कर दिए? इसके उत्तर में फ़रमाया गया है कि अल्लाह की इच्छा इंसान के बारे में यह है ही नहीं कि उसको नैसर्गिक रूप से एक लगे-बंधे रास्ते का पाबंद बना दिया जाए जिससे हटकर वह चल ही न सके। अगर यह उसकी इच्छा होती तो फिर ईमान की दावत, नबियों का भेजा जाना और किताबों के अवतरण, इन सबकी ज़रूरत ही क्या थी, सारे इंसान उसके आज्ञाकारी और ईमानवाले ही पैदा होते और कुफ़्र और अवज्ञा की सिरे से कोई संभावना ही न होती। लेकिन अल्लाह की, इंसान के बारे में, जो इच्छा है, वह वास्तव में यह है कि उसको चुनने और अपनाने की स्वतंत्रता प्रदान की जाए, उसे अपनी पसन्द के अनुसार अलग-अलग राहों पर चलने की शक्ति दी जाए, उसके सामने जन्नत और दोज़ख दोनों की राहें खोल दी जाएँ और फिर हर इंसान और हर इंसानी गिरोह को अवसर दिया जाए कि वह उनमें से जिस राह को भी अपने लिए पसन्द करे, उसपर चल सके, ताकि हर एक जो कुछ भी पाए अपनी कोशिश व कमाई के नतीजे में पाए। अतः जब वह स्कीम, जिसके तहत इंसान पैदा किया गया है, चुनने की स्वतंत्रता और कुफ़्र व ईमान के अपनाने की स्वतंत्रता के नियम पर आधारित है तो यह कैसे हो सकता है कि कोई कौम स्वयं तो बढ़ना चाहे बुराई की राह पर और अल्लाह ज़बरदस्ती उसको भलाई के रास्ते पर मोड़ दे।
وَكُلّٗا نَّقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلرُّسُلِ مَا نُثَبِّتُ بِهِۦ فُؤَادَكَۚ وَجَآءَكَ فِي هَٰذِهِ ٱلۡحَقُّ وَمَوۡعِظَةٞ وَذِكۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 119
(120) और ऐ नबी ! ये पैग़म्बरों के किस्से जो हम तुम्हें सुनाते हैं, ये वे चीजें हैं जिनके द्वारा हम तुम्हारे दिल को दृढ़ करते हैं। उनके भीतर तुमको सत्य का ज्ञान मिला और ईमान लानेवालों को उपदेश और जगरूकता प्राप्त हुई ।
وَقُل لِّلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنَّا عَٰمِلُونَ ۝ 120
(121) रहे वे लोग जो ईमान नहीं लाते, तो उनसे कह दो कि तुम अपने तरीके पर काम करते रहो और हम अपने तरीके पर किए जाते हैं,
وَٱنتَظِرُوٓاْ إِنَّا مُنتَظِرُونَ ۝ 121
(122) परिणाम का तुम भी इन्तिज़ार करो और हम भी इन्तिज़ार कर रहे हैं।
وَلِلَّهِ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَإِلَيۡهِ يُرۡجَعُ ٱلۡأَمۡرُ كُلُّهُۥ فَٱعۡبُدۡهُ وَتَوَكَّلۡ عَلَيۡهِۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 122
(123) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ छिपा हुआ है सब अल्लाह के अधिकार में है और सारा मामला उसी की ओर रुजू किया जाता है। अत: ऐ नबी, तू उसकी बन्दगी कर और उसी पर भरोसा रख, जो कुछ तुम लोग कर रहे हो तेरा रब उससे बेखबर नहीं है।117
117.अर्थात् कुफ़्र और शांति (धर्म-अधर्म) के इस संघर्ष के दोनों फ़रीक़ जो कुछ कर रहे हैं, वह सब अल्लाह की दृष्टि में है। यहाँ तत्वदर्शिता, सहनशीलता और नम्रता के आधार पर देर तो ज़रूर है, पर अंधेर नहीं है। जो लोग सुधार का यत्न कर रहे हैं, वे विश्वास करें कि उनकी मेहनतें बर्बाद न होंगी और वे लोग भी जो बिगाड़ पैदा करने और उसे बाको रखने में लगे हुए हैं, जो सुधार की कोशिश करनेवालों पर अन्याय व अत्याचार कर रहे हैं और जिन्होंने अपना सारा ज़ोर इस कोशिश में लगा रखा है कि सुधार का यह काम किसी तरह न चल सके, उन्हें भी सचेत रहना चाहिए कि उनके ये सारे करतूत अल्लाह के ज्ञान में हैं और उनको सज़ा उन्हें ज़रूर भुगतनी पड़ेगी।