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إِنَّ رَبَّكَ لَبِٱلۡمِرۡصَادِ

89. अल-फ़ज्र

(मक्का में उतरी, आयतें 30)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'वल-फ़ज्र’ (क़सम है फ़ज्र अर्थात् उषाकाल की) को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इसकी वार्ताओं से स्पष्ट होता है कि यह उस काल में उतरी थी जब मक्का में इस्लाम स्वीकार करनेवालों के विरुद्ध जुल्म की चक्की चलनी शुरू हो चुकी थी। इसी कारण मक्कावालों को आद और समूद और फ़िरऔन के अंजाम से सचेत किया गया है।

विषय और वार्ता

इसका विषय आखिरत के इनाम और सज़ा को साबित करता है, जिसका मक्कावाले इंकार कर रहे थे। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले फ़ज्र (ऊषाकाल) और दस रातों और युग्‍म और अयुग्म संख्या और विदा होती हुई रात की क़सम खाकर सुननेवालों से सवाल किया गया है कि जिस बात का तुम इंकार कर रहे हो उसके सत्य होने की गवाही देने के लिए क्या ये चीजें काफ़ी नहीं हैं? इसके बाद मानव-इतिहास से प्रमाण प्रस्तुत करते हुए उदाहरण के रूप में आद और समूद और फ़िरऔन के अंजाम को पेश किया गया है कि जब वे सीमा से आगे बढ़ गए तो अल्लाह के अज़ाब का कोड़ा उनपर बरस गया। इससे पता चलता है कि सृष्टि की व्यवस्था कुछ अंधी-बहरी ताक़तें नहीं चला रही हैं, बल्कि एक तत्त्वदर्शी और सर्वज्ञ शासक इसपर शासन कर रहा है, जिसकी तत्त्वदर्शिता और न्याय का यह तक़ाज़ा स्वयं इस दुनिया में और मानव इतिहास के भीतर बराबर नजर आता है कि बुद्धि और नैतिक चेतना देकर जिस जीव को उसने यहाँ उपभोग के अधिकार दिए हैं उसका हिसाब-किताब ले और उसे इनाम या सज़ा दे। इसके बाद मानव समाज की सामान्य नैतिक स्थिति का जायजा लिया गया है और मुख्य रूप से उसके विभिन्न पहलुओं की आलोचना की गई है। एक, लोगों के भौतिकवादी दृष्टिकोण जिसके कारण वह नैतिकता की भलाई और बुराई को नज़रअंदाज़ करके केवल दुनिया की दौलत और सत्ता के पाने और खोने के आदर-अनादर का मापदण्ड क़रार दिए बैठे थे और इस बात को भूल गए थे कि न धन का होना कोई इनाम है, न रोज़ी की तंगी कोई सज़ा, बल्कि अल्लाह इन दोनों हालतों में इंसान की परीक्षा ले रहा है। दूसरे, लोगों का यह रवैया कि जिसका बस चलता है मुर्दे की सारी मीरास समेटकर बैठ जाता है और कमज़ोर हक़दारों को टरका देता है। इस आलोचना का अभिप्राय लोगों को इस बात का पक्षधर बनाना है कि दुनिया की जिंदगी में जिन इंसानों का यह रवैया है, उनसे पूछ-गच्छ आख़िर क्यों न हो। फिर वार्ता को इस बात पर समाप्त किया गया है कि हिसाब-किताब होगा और ज़रूर होगा। उस समय इनाम और सज़ा का इंकारी इंसान हाथ मलता रह जाएगा कि काश, मैंने दुनिया में इस दिन के लिए कोई सामान किया होता! मगर यह पश्चात्ताप उसे अल्लाह की सज़ा से न बचा सकेगा, अलबत्ता जिन इंसानों ने दुनिया में दिल के पूरे इत्मीनान के साथ सत्य को अपना लिया होगा, अल्लाह उनसे राज़ी होगा और वे अल्लाह के प्रदान किए हुए बदले से राजी होंगे। उन्हें दावत दी जाएगी कि वे अपने रब के पसंदीदा बन्दों में शामिल हों और जन्नत में दाख़िल हो जाएँ।

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إِنَّ رَبَّكَ لَبِٱلۡمِرۡصَادِ ۝ 1
(14) हक़ीक़त यह है कि तुम्हारा रब घात लगाए हुए है।2
2. घात उस जगह को कहते हैं जहाँ कोई शख़्स किसी के इन्तिज़ार में इस ग़रज़ के लिए छुपा बैठा होता है कि जब वह ज़द पर आए उसी वक़्त उसपर हमला कर दे। अंजाम से ग़ाफ़िल, बेफ़िक्री के साथ वह उस मक़ाम से गुज़रता है और अचानक शिकार हो जाता है। यही सूरते-हाल अल्लाह तआला के मुक़ाबले में उन ज़ालिमों की है जो दुनिया में फ़साद का तूफ़ान बरपा किए रखते हैं और उन्हें इसका कोई एहसास नहीं होता कि ख़ुदा भी कोई है जो उनकी हरकात को देख रहा है। वे पूरी बेख़ौफ़ी के साथ रोज़-ब-रोज़ ज़्यादा-से-ज़्यादा शरारतें करते चले जाते हैं। यहाँ तक कि जब वह हद आ जाती है जिससे आगे अल्लाह तआला उन्हें बढ़ने नहीं देना चाहता उसी वक़्त उनपर अचानक उसके अज़ाब का कोड़ा बरस जाता है।
فَأَمَّا ٱلۡإِنسَٰنُ إِذَا مَا ٱبۡتَلَىٰهُ رَبُّهُۥ فَأَكۡرَمَهُۥ وَنَعَّمَهُۥ فَيَقُولُ رَبِّيٓ أَكۡرَمَنِ ۝ 2
(15) मगर इनसान का हाल यह है कि उसका रब जब उसको आज़माइश में डालता है और उसे इज़्ज़त और नेमत देता है तो वह कहता है कि मेरे रब ने मुझे इज़्ज़तदार बना दिया।
وَأَمَّآ إِذَا مَا ٱبۡتَلَىٰهُ فَقَدَرَ عَلَيۡهِ رِزۡقَهُۥ فَيَقُولُ رَبِّيٓ أَهَٰنَنِ ۝ 3
(16) और जब वह उसको आज़माइश में डालता है और उसका रिज़्क़ उसपर तंग कर देता है तो वह कहता है कि मेरे रब ने मुझे ज़लील कर दिया।3
3. यानी यह है इनसान का माद्दा-परस्ताना नज़रिया-ए-हयात। इसी दुनिया में माल व दौलत और जाह व इक़तिदार मिलजाने को वह इज़्ज़त और न मिलने को ज़िल्लत समझता है, हालाँकि अस्ल हक़ीक़त जिसे वह नहीं समझता यह है कि अल्लाह ने जिसको दुनिया में जो कुछ भी दिया है आज़माइश के लिए दिया है। दौलत और इक़तिदार में भी आज़माइश है और मुफ़लिसी में भी आज़ामइश।
كَلَّاۖ بَل لَّا تُكۡرِمُونَ ٱلۡيَتِيمَ ۝ 4
(17) हरगिज़ नहीं, बल्कि तुम यतीम से इज़्ज़त का सुलूक नहीं करते,
وَلَا تَحَٰٓضُّونَ عَلَىٰ طَعَامِ ٱلۡمِسۡكِينِ ۝ 5
(18) और मिसकीन को खाना खिलाने पर एक-दूसरे को नहीं उकसाते,
وَتَأۡكُلُونَ ٱلتُّرَاثَ أَكۡلٗا لَّمّٗا ۝ 6
(19) और मीरास का सारा माल समेटकर खा जाते हो,
وَتُحِبُّونَ ٱلۡمَالَ حُبّٗا جَمّٗا ۝ 7
और माल की मुहब्बत बुरी तरह गिरफ़्तार हो।
كَلَّآۖ إِذَا دُكَّتِ ٱلۡأَرۡضُ دَكّٗا دَكّٗا ۝ 8
(21) हरगिज़ नहीं,4 जब ज़मीन पै-दर-पै कूट-कूटकर रेगज़ार बना दी जाएगी,
4. यानी तुम्हारा यह ख़याल ग़लत है कि तुम दुनिया में जीते जी यह सब कुछ करते रहो और इसकी बाज़-पुर्स का वक़्त कभी न आए।
وَجَآءَ رَبُّكَ وَٱلۡمَلَكُ صَفّٗا صَفّٗا ۝ 9
(22) और तुम्हारा रब जलवा-फ़रमा होगा इस हाल में कि फ़रिश्ते सफ़-दर-सफ़ खड़े होंगे,
وَجِاْيٓءَ يَوۡمَئِذِۭ بِجَهَنَّمَۚ يَوۡمَئِذٖ يَتَذَكَّرُ ٱلۡإِنسَٰنُ وَأَنَّىٰ لَهُ ٱلذِّكۡرَىٰ ۝ 10
(23) और जहन्नम उस रोज़ सामने ले आई जाएगी, उस दिन इनसान को समझ आएगी और उस वक़्त उसके समझने का क्या हासिल?
يَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي قَدَّمۡتُ لِحَيَاتِي ۝ 11
(24) वह कहेगा कि काश, मैंने अपनी इस ज़िन्दगी के लिए कुछ पेशगी सामान किया होता!
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يُعَذِّبُ عَذَابَهُۥٓ أَحَدٞ ۝ 12
(25) फिर उस दिन अल्लाह जो अज़ाब देगा वैसा अज़ाब देनेवाला कोई नहीं,
وَلَا يُوثِقُ وَثَاقَهُۥٓ أَحَدٞ ۝ 13
(26) और अल्लाह जैसा बाँधेगा वैसा बाँधनेवाला कोई नहीं।
يَٰٓأَيَّتُهَا ٱلنَّفۡسُ ٱلۡمُطۡمَئِنَّةُ ۝ 14
(27) (दूसरीतरफ़ इरशाद होगा) ऐ नफ़्से-मुत्मइन!5
5. नफ़्से-मुत्मइन से मुराद वह इनसान है जिसने किसी शक व शुब्हे के बग़ैर पूरे इत्मीनान और ठण्डे दिल के साथ ‘अल्लाह वहदहू ला शरीक’ को अपना रब और अम्बिया के लाए हुए दीने-हक़ को अपना दीन क़रार दिया।
ٱرۡجِعِيٓ إِلَىٰ رَبِّكِ رَاضِيَةٗ مَّرۡضِيَّةٗ ۝ 15
(28) चल अपने रब की तरफ़ इस हाल में कि तू (अपने अंजामे-नेक से) ख़ुश (और अपने रब के नज़दीक़) पसंदीदा है।
فَٱدۡخُلِي فِي عِبَٰدِي ۝ 16
(29) शामिल हो जा मेरे (नेक) बन्दों में
وَٱدۡخُلِي جَنَّتِي ۝ 17
(30) और दाख़िल हो जा मेरी जन्नत में।
سُورَةُ الفَجۡرِ
89. अल-फ़ज्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلۡفَجۡرِ
(1) क़सम है फ़ज्र की,
وَلَيَالٍ عَشۡرٖ ۝ 18
(2) और दस रातों की,
وَٱلشَّفۡعِ وَٱلۡوَتۡرِ ۝ 19
(3) और जुफ़्त और ताक़ की,
وَٱلَّيۡلِ إِذَا يَسۡرِ ۝ 20
(4) और रात की जबकि वह रुख़सत हो रही हो!
هَلۡ فِي ذَٰلِكَ قَسَمٞ لِّذِي حِجۡرٍ ۝ 21
(5) क्या इसमें किसी साहिबे-अक़्ल के लिए कोई क़सम है?1
1. आगे की आयतों पर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) और कुफ़्फ़ार के दरमियान जज़ा व सज़ा के मसलेपर बहस हो रही थी, जिसमें हुज़ूर (सल्ल०) उसको साबित कर रहे थे और कुफ़्फ़ार उसका इनकार कर रहे थे। इसपर चार चीज़ों की क़सम खाकर फ़रमाया गया कि इस हक़ बात पर शहादत देने के लिए इसके बाद क्या किसी और क़सम की ज़रूरत बाक़ी रह जाती है?
أَلَمۡ تَرَ كَيۡفَ فَعَلَ رَبُّكَ بِعَادٍ ۝ 22
(6) तुमने देखा नहीं कि तुम्हारे रब ने क्या बरताव किया
إِرَمَ ذَاتِ ٱلۡعِمَادِ ۝ 23
(7) ऊँचे सुतूनोंवाले आदे-इरम के साथ
ٱلَّتِي لَمۡ يُخۡلَقۡ مِثۡلُهَا فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 24
(8) जिनके मानिन्द कोई क़ौम दुनिया के मुल्कों में पैदा नहीं की गई थी?
وَثَمُودَ ٱلَّذِينَ جَابُواْ ٱلصَّخۡرَ بِٱلۡوَادِ ۝ 25
(9) और समूद के साथ जिन्होंने वादी में चट्टानें तराशी थीं?
وَفِرۡعَوۡنَ ذِي ٱلۡأَوۡتَادِ ۝ 26
(10) और मेख़ोंवाले फ़िरऔन के साथ?
ٱلَّذِينَ طَغَوۡاْ فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 27
(11) ये वे लोग थे जिन्होंने दुनिया के मुल्कों में बड़ी सरकशी की थी
فَأَكۡثَرُواْ فِيهَا ٱلۡفَسَادَ ۝ 28
(12) और उनमें बहुत फ़साद फैलाया था।
فَصَبَّ عَلَيۡهِمۡ رَبُّكَ سَوۡطَ عَذَابٍ ۝ 29
(13) आख़िरकार तुम्हारे रब ने उनपर अज़ाब का कोड़ा बरसा दिया।