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سُورَةُ العَصۡرِ

103. अल-अस्र

(मक्का में उतरी—आयतें 3)

परिचय

नाम

इस सूरा की पहली ही आयत के शब्द 'अल-अस्र' (ज़माना) को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

यद्यपि मुजाहिद, क़तादा और मुक़ातिल (रह०) ने इसे मदनी कहा है, लेकिन टीकाकारों की एक बड़ी संख्या इसे मक्की क़रार देती हैं और इसका विषय भी यह गवाही देता है कि यह मक्का के भी आरंभिक काल में उतरी होगी, जब इस्लाम की शिक्षा को संक्षिप्त और हृदयग्राही वाक्यों में बयान किया जाता था, ताकि वे आप से आप लोगों की ज़बानों पर चढ़ जाएँ।

विषय और वार्ता

यह सूरा व्यापक और संक्षिप्त वाणी का अनुपम नमूना है। इसमें बिल्कुल दो टूक तरीक़े से बता दिया गया है कि इंसान की सफलता का रास्ता कौन-सा है और उसके नाश-विनाश का रास्ता कौन सा। इमाम शाफ़िई (रह०) ने बहुत सही कहा है कि अगर लोग इस सूरा पर ग़ौर करें तो यही उनके मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त है। सहाबा किराम (रज़ि०) की दृष्टि में इसका बड़ा महत्त्व क्या था इसका अंदाज़ा इस बात से किया जा सकता है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-हिस्निद्दारमी अबू मदीना की रिवायत के अनुसार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथियों में से जब दो आदमी एक दूसरे से मिलते तो उस समय तक अलग न होते जब तक एक-दूसरे को सूरा अस्र न सुना लेते। (हदीस तबरानी)

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سُورَةُ العَصۡرِ
103. अल-अस्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلۡعَصۡرِ
(1) ज़माने की क़सम1,
1. ज़माने से मुराद गुज़रा हुआ ज़माना भी है और गुज़रता हुआ ज़माना भी। उसकी क़सम खाने का मतलब यह है कि तारीख़ भी गवाह है और जो ज़माना अब गुज़र रहा है वह भी शहादत देता है कि वह बात बरहक़ है जो आगे बयान की जा रही है।
إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَفِي خُسۡرٍ ۝ 1
(2) इनसान दर-हक़ीक़त ख़सारे में है,
إِلَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَتَوَاصَوۡاْ بِٱلۡحَقِّ وَتَوَاصَوۡاْ بِٱلصَّبۡرِ ۝ 2
(3) सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए, और नेक आमाल करते रहे, और एक-दूसरे को हक़ की नसीहत और सब की तलक़ीन करते रहे।