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أَتَىٰٓ أَمۡرُ ٱللَّهِ فَلَا تَسۡتَعۡجِلُوهُۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ

  1. अन-नहल

(मक्‍का में उतरी-आयतें 128)

परिचय

नाम

आयत 68 के वाक्‍य ‘व औहा रब्‍बु-क इलन्‍नह्‍ल' से लिया गया है। नह्‍ल शब्द का अर्थ है- मधुमक्‍खी । यह भी केवल संकेत है, न कि वार्ता के विषय का शीर्षक ।

उतरने का समय

बहुत-सी अदरूनी गवाहियों से इसके उतरने के समय पर रौशनी पड़ती है। जैसे आयत 41 के वाक्य 'वल्लज़ी-न हाजरू फ़िल्लाहि मिम-बादि मा ज़ुलिमू’ (जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह के लिए हिजरत कर गए) से स्पष्ट मालूम होता है कि उस समय हब्शा की हिजरत हो चुकी थी। आयत 106 'मन क-फ़-र बिल्‍लाहि मिम-बादि ईमानिही' (जो आदमी ईमान लाने के बाद इनकार करे) से मालूम होता है कि उस समय अन्याय उग्र रूप धारण किए हुए था और यह प्रश्न पैदा हो गया था कि अगर कोई व्यक्ति असह्य पीड़ा से विवश होकर कुफ़्र (अधर्म) के शब्द कह बैठे तो उसका क्‍या हुक्‍म है।

आयत 112-114 का स्‍पष्ट संकेत इस ओर है कि मक्का में जो ज़बरदस्त सूखा पड़ गया था, वह इस सूरा के उतरते समय समाप्त हो चुका था। -इस सूरा में एक आयत 115 ऐसी है जिसका हवाला सूरा-6 अनआम की आयत 119 में दिया गया है और दूसरी आयत (118) ऐसी है जिसमें सूरा अनआम की आयत 146 का हवाला दिया गया है। यह इस बात की दलील है कि इन दोनों सूरतों के उतरने का समय क़रीब-क़रीब है।

इन गवाहियों से पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय भी मक्का का अन्तिम काल ही है।

शीर्षक और केन्द्रीय विषय

शिर्क (बहुदेववाद) का खंडन, तौहीद (एकेश्वरवाद) का प्रमाण, पैग़म्‍बर की दावत को न मानने के बुरे नतीजों पर चेतावनी और समझाना-बुझाना और सत्य के विरोध और उसके लिए रुकावटें खड़ी करने पर डाँट-फटकार।

वार्ताएँ

सूरा का आरंभ बिना किसी भूमिका के एकाएक एक चेतावनी भरे वाक्य से होता है। मक्का के कुफ़्फ़ार (अधर्मी) बार-बार कहते थे कि 'जब हम तुम्हें झुठला चुके है और खुल्लम-खुल्ला तुम्हारा विरोध कर रहे है तो आख़िर वह अल्लाह का अज़ाब आ क्यों नहीं जाता जिसकी तुम हमें धमकियाँ देते हो।' इसपर कहा गया कि मूर्खो! अल्लाह का अज़ाब तो तुम्हारे सिर पर तुला खड़ा है। अब इसके टूट पड़ने के लिए जल्दी न मचाओ, बल्कि जो तनिक भर मोहलत बाक़ी है उससे लाभ उठाकर बात समझने की कोशिश करो। इसके बाद तुरन्त ही समझाने-बुझाने के लिए व्याख्यान आरंभ हो जाता है और निम्नलिखित विषय बार-बार एक के बाद एक सामने आने शुरू होते हैं।

  1. दिल लगती दलीलों और सृष्टि और निज की निशानियों की खुली-खुली गवाहियों से समझाया जाता है कि शिर्क असत्य है और तौहीद ही सत्य है
  2. इंकारियों की आपत्ति, सन्देह, दुराग्रह और हीले-बहानों का एक-एक करके उत्तर दिया जाता है।
  3. असत्य पर आग्रह और सत्य के मुक़ाबले में घमंड व्यक्त करने के बुरे नतीजों से डराया जाता है।
  4. उन नैतिक और व्यावहारिक परिवर्तनों को संक्षेप में, मगर मन में बैठ जानेवाली शैली में, बयान किया जाता है जो मुहम्मद (सल्ल०) का लाया हुआ दीन मानव-जीवन में लाना चाहता है।
  5. नबी (सल्ल०) और आपके साथियों की ढाढ़स बँधाई जाती है और साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि कुफ़्फ़ार की रुकावटों और अत्याचारों के मुक़ाबले में उनका रवैया क्या होना चाहिए।

 

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أَتَىٰٓ أَمۡرُ ٱللَّهِ فَلَا تَسۡتَعۡجِلُوهُۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ
(1) आ गया अल्लाह का फ़ैसला,1 अब इसके लिए जल्दी न मचाओ। पाक है वह और बाला व बरतर है उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं।
1. यानी उसके ज़ुहूर और निफ़ाज़ का वक़्त क़रीब आ लगा है। ग़ालिबन उस फ़ैसले से मुराद नबी (सल्ल०) की मक्का से हिजरत है जिसका हुक्म थोड़ी मुद्दत बाद ही दे दिया गया। क़ुरआन के मुताले से मालूम होता है कि नबी जिन लोगों के दरमियान मबऊस होता है वे जब इनकार की आख़िरी हद पर पहुँच जाते हैं तो नबी को हिजरत का हुक्म दे दिया जाता है और यही हुक्म उनकी क़िस्मत का फ़ैसला कर देता है। इसके बाद या तो उनपर तबाहकुन अज़ाब आ जाता है, या फिर नबी और उसके मुत्तबेईन के हाथों उनकी जड़ काटकर रख दी जाती है।
يُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ بِٱلرُّوحِ مِنۡ أَمۡرِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ أَنۡ أَنذِرُوٓاْ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱتَّقُونِ ۝ 1
(2) वह इस रूह2 को अपने जिस बन्दे पर चाहता है अपने हुक्म से मलाइका ज़रिए नाज़िल फ़रमा देता है (इस हिदायत के साथ कि लोगों को) “आगाह कर दो, मेरे सिवा कोई तुम्हारा माबूद नहीं है, लिहाज़ा तुम मुझी से डरो।”
2. रूह से मुराद है रूहे-नुबूवत और वह्य जिससे भरकर नबी काम और कलाम करता है।
خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۚ تَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 2
(3) उसने आसमान व ज़मीन को बरहक़ पैदा किया है, वह बहुत बाला व बरतर है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ۝ 3
(4) उसने इनसान को एक ज़रा-सी बूँद से पैदा किया और देखते-देख सरीहन वह एक झगड़ालू हस्ती बन गया।3
3. इसके दो मानी हो सकते हैं और ग़ालिबन दोनों ही मुराद हैं। एक यह कि अल्लाह ने नुत्फ़े की हक़ीर-सी बूँद से वह इनसान पैदा किया जो बहस व इस्तिदलाल के क़ाबलियत रखता है और अपने मुद्दआ के लिए हुज्जतें पेश कर सकता है। दूसरे यह कि जिस इनसान को ख़ुदा ने नुत्फ़े जैसी हक़ीर चीज़ से पैदा किया है, उसकी ख़ुदी का तुग़यान तो देखो कि वह ख़ुद ख़ुदा ही के मुक़ाबले में झगड़ने पर उतर आया है।
وَٱلۡأَنۡعَٰمَ خَلَقَهَاۖ لَكُمۡ فِيهَا دِفۡءٞ وَمَنَٰفِعُ وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 4
(5) उसने जानवर पैदा किए जिनमें तुम्हारे लिए पोशाक भी है और ख़ुराक भी, और तरह-तरह के दूसरे फ़ायद भी।
وَلَكُمۡ فِيهَا جَمَالٌ حِينَ تُرِيحُونَ وَحِينَ تَسۡرَحُونَ ۝ 5
(6) उनमें तुम्हारे लिए जमाल है जबकि सुबह तुम उन्हें चरने के लिए भेजत हो और जब कि शाम उन्हें वापस लाते हो।
وَتَحۡمِلُ أَثۡقَالَكُمۡ إِلَىٰ بَلَدٖ لَّمۡ تَكُونُواْ بَٰلِغِيهِ إِلَّا بِشِقِّ ٱلۡأَنفُسِۚ إِنَّ رَبَّكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 6
(7) वे तुम्हारे लिए बोझ ढोकर ऐसे-ऐसे मक़ामात तक ले जाते हैं जहाँ तुम सख़्त जाँफिशानी के बग़ैर नहीं पहुँच सकते। हक़ीक़त यह है कि तुम्हारा रब बड़ा ही शफ़ीक़ और मेहरबान है।
وَٱلۡخَيۡلَ وَٱلۡبِغَالَ وَٱلۡحَمِيرَ لِتَرۡكَبُوهَا وَزِينَةٗۚ وَيَخۡلُقُ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 7
(8) उसने घोड़े और ख़च्चर और गधे पैदा किए ताकि तुम उनपर सवार हो और वे तुम्हारी ज़िन्दगी की रौनक़ बनें। वह और बहुत-सी चीज़ें (तुम्हारे फ़ायदे के लिए) पैदा करता है जिनका तुम्हें इल्म तक नहीं है।4
4. यानी बकसरत ऐसी चीज़ है जो इनसान की भलाई के लिए काम कर रही है और इनसान को ख़बर तक नहीं है कि कहाँ-कहाँ कितने ख़ुद्दाम उसकी ख़िदमत में लगे हुए हैं और क्या ख़िदमत अंजाम दे रहे हैं।
وَعَلَى ٱللَّهِ قَصۡدُ ٱلسَّبِيلِ وَمِنۡهَا جَآئِرٞۚ وَلَوۡ شَآءَ لَهَدَىٰكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 8
(9) और अल्लाह ही के ज़िम्मे है सीधा रास्ता बताना जबकि रास्ते टेढ़े भी मौजूद हैं। अगर वह चाहता तो तुम सबको हिदायत दे देता।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗۖ لَّكُم مِّنۡهُ شَرَابٞ وَمِنۡهُ شَجَرٞ فِيهِ تُسِيمُونَ ۝ 9
(10) वही है जिसने आसमान से तुम्हारे लिए पानी बरसाया जिससे तुम ख़ुद भी सैराब होते हो और तुम्हारे जानवरों के लिए भी चारा पैदा होता है।
وَٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَخۡلُقُونَ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ ۝ 10
(20) और वे दूसरी हस्तियाँ जिन्हें अल्लाह को छोड़कर लोग पुकारते हैं, वे किसी चीज़ की भी ख़ालिक़ नहीं हैं, बल्कि ख़ुद मख़लूक़ हैं।
يُنۢبِتُ لَكُم بِهِ ٱلزَّرۡعَ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلنَّخِيلَ وَٱلۡأَعۡنَٰبَ وَمِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 11
(11) वह पानी के ज़रिए से खेतियाँ उगाता है और ज़ैतून और खजूर और अंगूर और तरह-तरह के दूसरे फल पैदा करता है। इसमें एक बड़ी निशानी है उन लोगों के लिए जो ग़ौर व फ़िक्र करते हैं।
أَمۡوَٰتٌ غَيۡرُ أَحۡيَآءٖۖ وَمَا يَشۡعُرُونَ أَيَّانَ يُبۡعَثُونَ ۝ 12
(21) मुर्दा हैं, न कि ज़िन्दा। और उनको कुछ मालूम नहीं है कि उन्हें कब (दोबारा ज़िन्दा करके) उठाया जाएगा।6
6. ये अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं कि यहाँ ख़ास तौर पर जिन बनावटी माबूदों की तरदीद की जा रही है वे वफ़ात-याफ़्ता इनसान हैं, क्योंकि फ़रिश्ते तो ज़िन्दा हैं मुर्दा नहीं हैं और लकड़ी-पत्थर की मूर्तियों के मामले में दोबारा ज़िन्दा करके उठाए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
وَسَخَّرَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ وَٱلنُّجُومُ مُسَخَّرَٰتُۢ بِأَمۡرِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 13
(12) उसने तुम्हारी भलाई के लिए रात और दिन को और सूरज और चाँद को मुसख़्ख़र कर रखा है और सब तारे भी उसी के हुक्म से मुसख़्ख़र हैं। इसमें बहुत निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۚ فَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ قُلُوبُهُم مُّنكِرَةٞ وَهُم مُّسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 14
(22) तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही ख़ुदा है। मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते उनके दिलों में इनकार बसकर रह गया है और वे घमंड में पड़ गए हैं।
وَمَا ذَرَأَ لَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُخۡتَلِفًا أَلۡوَٰنُهُۥٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَذَّكَّرُونَ ۝ 15
(13) और ये जो बहुत-सी रंग-बिरंग की चीज़ें उसने तुम्हारे लिए ज़मीन में पैदा कर रखी है, इनमें भी ज़रूर निशानी है उन लोगों के लिए जो सबक़ हासिल करनेवाले हैं।
لَا جَرَمَ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡتَكۡبِرِينَ ۝ 16
(23) अल्लाह यक़ीनन इनके सब करतूत जानता है, छिपे हुए भी और खुले हुए भी। वह उन लोगों को हरगिज़ पसन्द नहीं करता जो ग़ुरूरे-नफ़्स में मुब्तला हों।
وَهُوَ ٱلَّذِي سَخَّرَ ٱلۡبَحۡرَ لِتَأۡكُلُواْ مِنۡهُ لَحۡمٗا طَرِيّٗا وَتَسۡتَخۡرِجُواْ مِنۡهُ حِلۡيَةٗ تَلۡبَسُونَهَاۖ وَتَرَى ٱلۡفُلۡكَ مَوَاخِرَ فِيهِ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 17
(14) वही है जिसने तुम्हारे लिए समुन्दर को मुसख़्ख़र कर रखा है ताकि तुम उससे तर व ताज़ा गोश्त लेकर खाओ और उससे ज़ीनत की वे चीज़ें निकालो जिन्हें तुम पहना करते हो। तुम देखते हो कि कश्ती समुन्दर का सीना चीरती हुई चलती है। ये सब कुछ इसलिए है कि तुम अपने रब का फ़ज़्ल तलाश करो5 और उसके शुक्रगुज़ार बनो।
5. यानी हलाल तरीक़ों से अपना रिज़क़ हासिल करने की कोशिश करो।
وَأَلۡقَىٰ فِي ٱلۡأَرۡضِ رَوَٰسِيَ أَن تَمِيدَ بِكُمۡ وَأَنۡهَٰرٗا وَسُبُلٗا لَّعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 18
(15) उसने ज़मीन में पहाड़ों की मेख़ें गाड़ दीं ताकि ज़मीन तुमको लेकर ढुलक न जाए। उसने दरिया जारी किए और क़ुदरती रास्ते बनाए ताकि हिदायत पाओ।
وَإِذَا قِيلَ لَهُم مَّاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡ قَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 19
(24) और जब कोई उनसे पूछता है कि तुम्हारे रब ने यह क्या चीज़ नाज़िल की है7, तो कहते हैं, “अजी वे तो अगले वक़्तों की फ़रसूदा कहानियाँ हैं।”
7. अरब में जब नबी (सल्ल०) का चर्चा होने लगा तो बाहर के लोग मक्कावालों से आप (सल्ल०) के और क़ुरआन के बारे में सवाल करते थे।
وَعَلَٰمَٰتٖۚ وَبِٱلنَّجۡمِ هُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 20
(16) उसने ज़मीन में रास्ता बनानेवाली अलामतें रख दीं, और तारों से भी लोग हिदायत पाते हैं।
لِيَحۡمِلُوٓاْ أَوۡزَارَهُمۡ كَامِلَةٗ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَمِنۡ أَوۡزَارِ ٱلَّذِينَ يُضِلُّونَهُم بِغَيۡرِ عِلۡمٍۗ أَلَا سَآءَ مَا يَزِرُونَ ۝ 21
(25) ये बातें वे इसलिए करते हैं कि क़ियामत के रोज़ अपने बोझ भी पूरे उठाएँ, और साथ-साथ कुछ उन लोगों के बोझ भी समेटें जिन्हें ये बर बिनाए-जहालत गुमराह कर रहे हैं। देखो, कैसी सख़्त ज़िम्मेदारी है जो ये अपने सर ले रहे हैं!
أَفَمَن يَخۡلُقُ كَمَن لَّا يَخۡلُقُۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 22
(17) फिर क्या वह जो पैदा करता है और वे जो कुछ भी पैदा नहीं करते, दोनों यकसाँ हैं? क्या तुम होश में नहीं आते?
قَدۡ مَكَرَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَأَتَى ٱللَّهُ بُنۡيَٰنَهُم مِّنَ ٱلۡقَوَاعِدِ فَخَرَّ عَلَيۡهِمُ ٱلسَّقۡفُ مِن فَوۡقِهِمۡ وَأَتَىٰهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 23
(26) इनसे पहले भी बहुत-से लोग (हक़ को नीचा दिखाने के लिए) ऐसी ही मक्कारियाँ कर चुके हैं, तो देख लो कि अल्लाह ने उनके मक्र की इमारत जड़ से उखाड़ फेंकी और उसकी छत ऊपर से उनके सर पर आ रही और ऐसे रुख़ से उनपर अज़ाब आया जिधर से उसके आने का उनको गुमान तक न था।
وَإِن تَعُدُّواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ لَا تُحۡصُوهَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 24
(18) अगर तुम अल्लाह की नेमतों को गिनना चाहो तो गिन नहीं सकते, हक़ीक़त यह है कि वह बड़ा ही दरगुज़र करनेवाला और रहीम है,
ثُمَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يُخۡزِيهِمۡ وَيَقُولُ أَيۡنَ شُرَكَآءِيَ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تُشَٰٓقُّونَ فِيهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ إِنَّ ٱلۡخِزۡيَ ٱلۡيَوۡمَ وَٱلسُّوٓءَ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 25
(27) फिर क़ियामत के रोज़ अल्लाह उन्हें ज़लील व ख़ार करेगा। और उनसे कहेगा, “बताओ अब कहाँ है मेरे वे शरीक जिनके लिए तुम (अहले-हक़ से) झगड़े किया करते थे? — जिन लोगों को दुनिया में इल्म हासिल था वे कहेंगे, “आज रुसवाई और बदबख़्ती है काफ़िरों के लिए।”
وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُسِرُّونَ وَمَا تُعۡلِنُونَ ۝ 26
(19) हालाँकि वह तुम्हारे खुले से भी वाक़िफ़ है और छिपे से भी।
ٱلَّذِينَ تَتَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡۖ فَأَلۡقَوُاْ ٱلسَّلَمَ مَا كُنَّا نَعۡمَلُ مِن سُوٓءِۭۚ بَلَىٰٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 27
(28)— हाँ, उन्हीं काफ़िरों के लिए जो अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करते हुए जब मलाइका के हाथों गिरफ़्तार होते हैं तो (सरकशी छोड़कर) फ़ौरन डगें डाल देते हैं और कहते हैं, “हम तो कोई क़ुसूर नहीं कर रहे थे।” मलाइका जवाब देते हैं, “कर कैसे नहीं रहे थे! अल्लाह तुम्हारे करतूतों से ख़ूब वाक़िफ़ है।
وَلَقَدۡ بَعَثۡنَا فِي كُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولًا أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَٱجۡتَنِبُواْ ٱلطَّٰغُوتَۖ فَمِنۡهُم مَّنۡ هَدَى ٱللَّهُ وَمِنۡهُم مَّنۡ حَقَّتۡ عَلَيۡهِ ٱلضَّلَٰلَةُۚ فَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 28
(36) हमने हर उम्मत में एक रसूल भेज दिया, और उसका ज़रिए से सबको ख़बरदार कर दिया कि “अल्लाह की बन्दगी करो और ताग़ूत की बन्दगी से बचो।” इसके बाद उनमें से किसी को अल्लाह ने हिदायत बख़्शी और किसी पर ज़लालत मुसल्लत हो गई। फिर ज़रा ज़मीन में चल-फिरकर देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हो चुका है।
فَٱدۡخُلُوٓاْ أَبۡوَٰبَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ فَلَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 29
(29) अब जाओ, जहन्नम के दरवाज़ों में घुस जाओ। वहीं तुमको हमेशा रहना है। 'पस हक़ीक़त यह है कि बड़ा ही बुरा ठिकाना है मुतकब्बिरों के लिए।’
سُورَةُ النَّحۡلِ
16. सूरा अन-नह्ल
إِن تَحۡرِصۡ عَلَىٰ هُدَىٰهُمۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي مَن يُضِلُّۖ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 30
(37) — (ऐ नबी!) तुम चाहे इनकी हिदायत के लिए कितने ही हरीस हो, मगर अल्लाह जिसको भटका देता है फिर उसे हिदायत नहीं दिया करता और इस तरह के लोगों की मदद कोई नहीं कर सकता।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَا يَبۡعَثُ ٱللَّهُ مَن يَمُوتُۚ بَلَىٰ وَعۡدًا عَلَيۡهِ حَقّٗا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 31
(38) ये लोग अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर कहते हैं कि “अल्लाह किसी मरनेवाले को फिर से ज़िन्दा करके न उठाएगा।” — उठाएगा क्यों नहीं? यह तो एक वादा है जिसे पूरा करना उसने अपने ऊपर वाजिब का लिया है, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।
۞وَقِيلَ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ مَاذَآ أَنزَلَ رَبُّكُمۡۚ قَالُواْ خَيۡرٗاۗ لِّلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٞۚ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞۚ وَلَنِعۡمَ دَارُ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 32
(30) दूसरी तरफ़ जब ख़ुदा-तरस लोगों से पूछा जाता है कि यह क्या चीज़ है जो तुम्हारे रब की तरफ़ से नाज़िल हुई है, तो वे जवाब देते हैं कि “बेहतरीन चीज़ उतरी है।” इस तरह के नेकूकार लोगों के लिए इस दुनिया में भी भलाई है और आख़िरत का घर तो ज़रूर ही उनके हक़ में बेहतर है। बड़ा अच्छा घर है मुत्तक़ियों का,
لِيُبَيِّنَ لَهُمُ ٱلَّذِي يَخۡتَلِفُونَ فِيهِ وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰذِبِينَ ۝ 33
(39) और ऐसा होना इसलिए ज़रूरी है। कि अल्लाह इनके सामने इस हक़ीक़त को खोल दे जिसके बारे में इख़्तिलाफ़ कर रहे हैं और मुनकिरीने-हक़ को मालूम हो जाए कि वे झूठे थे।
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ يَدۡخُلُونَهَا تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ لَهُمۡ فِيهَا مَا يَشَآءُونَۚ كَذَٰلِكَ يَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 34
(31) दायमी क़ियाम की जन्नतें, जिनमें वे दाख़िल होंगे, नीचे नहरें बह रही होंगी, और सब कुछ वहाँ ऐन उनकी ख़ाहिश के मुताबिक़ होगा! यह जज़ा देता है अल्लाह मुत्तक़ियों को।
إِنَّمَا قَوۡلُنَا لِشَيۡءٍ إِذَآ أَرَدۡنَٰهُ أَن نَّقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 35
(40) (रहा उसका इमकान तो) हमें किसी चीज़ को वुजूद में लाने के लिए इससे ज़्यादा कुछ करना नहीं होता कि उसे हुक्म दें “हो जा” और बस वह हो जाती है।
ٱلَّذِينَ تَتَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ طَيِّبِينَ يَقُولُونَ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمُ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 36
(32) उन मुत्तक़ियों को जिनकी रूहें पाकीज़गी की हालत में जब मलाइका क़ब्ज़ करते हैं तो कहते हैं, “सलाम हो तुमपर, जाओ जन्नत में अपने आमाल के बदले।”
وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ فِي ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا ظُلِمُواْ لَنُبَوِّئَنَّهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗۖ وَلَأَجۡرُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 37
(41) जो लोग ज़ुल्म सहने के बाद अल्लाह की ख़ातिर हिजरत कर गए हैं उनको हम दुनिया ही में अच्छा ठिकाना देंगे और आख़िरत का अज्र तो बहुत बडा है।8 काश, जान लें
8. यह इशारा है उन मुहाजिरीन की तरफ़ जो कुफ़्फ़ार के नाक़ाबिले-बरदाश्त मज़ालिम से तंग आकर हबश की तरफ़ हिजरत कर गए थे।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ أَمۡرُ رَبِّكَۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ وَمَا ظَلَمَهُمُ ٱللَّهُ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 38
(33) (ऐ नबी!) अब जो ये लोग इन्तिज़ार कर रहे हैं तो इसके सिवा अब और क्या बाक़ी रह गया है कि मलाइका ही आ पहुँचें, या तेरे रब का फ़ैसला सादिर हो जाए? इसी तरह की ढिठाई इनसे पहले बहुत-से लोग कर चुके हैं। फिर जो कुछ उनके साथ हुआ वह उनपर अल्लाह का ज़ुल्म न था, बल्कि उनका अपना ज़ुल्म था जो उन्होंने ख़ुद अपने ऊपर किया।
وَمَا بِكُم مِّن نِّعۡمَةٖ فَمِنَ ٱللَّهِۖ ثُمَّ إِذَا مَسَّكُمُ ٱلضُّرُّ فَإِلَيۡهِ تَجۡـَٔرُونَ ۝ 39
(53) तुमको जो नेमत भी हासिल है अल्लाह ही की तरफ़ से है। फिर जब कोई सख़्त वक़्त तुमपर आता है तो तुम लोग ख़ुद अपनी फ़रियादें लेकर उसी की तरफ़ दौड़ते हो।
ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 40
(42) वे मज़लूम जिन्होंने सब्र किया है और जो अपने रब के भरोसे पर काम कर रहे हैं (कि कैसा अच्छा अंजाम उनका मुन्तज़िर है)!
فَأَصَابَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا عَمِلُواْ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 41
(34) उनके करतूतों की ख़राबियाँ आख़िरकार उनकी दामनगीर हो गईं और वही चीज़ उनपर मुसल्लत होकर रही जिसका वे मज़ाक़ उड़ाया करते थे।
ثُمَّ إِذَا كَشَفَ ٱلضُّرَّ عَنكُمۡ إِذَا فَرِيقٞ مِّنكُم بِرَبِّهِمۡ يُشۡرِكُونَ ۝ 42
(54) मगर जब अल्लाह उस वक़्त को टाल देता है तो यकायक तुममें से एक गरोह अपने रब के साथ दूसरों को (इस मेहरबानी के शुक्रिए में) शरीक करने लगता है,
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 43
(43) (ऐ नबी!) हमने तुमसे पहले भी जब कभी रसूल भेजे हैं आदमी ही भेजे है जिनकी तरफ़ हम अपने पैग़ामात वह्य किया करते थे, अहले-ज़िक्र से पूछलो9 अगर तुम लोग ख़ुद नहीं जानते।
9. यानी उन लोगों से पूछो जो आसमानी किताबों का इल्म रखते हैं कि अम्बिया कुछ इनसान ही होते थे या कुछ और।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ لَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا عَبَدۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖ نَّحۡنُ وَلَآ ءَابَآؤُنَا وَلَا حَرَّمۡنَا مِن دُونِهِۦ مِن شَيۡءٖۚ كَذَٰلِكَ فَعَلَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ فَهَلۡ عَلَى ٱلرُّسُلِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 44
(35) ये मुशरिकीन कहते हैं, “अगर अल्लाह चाहता तो न हम और न हमारे बाप-दादा उसके सिवा किसी और की इबादत करते और न उसके हुक्म के बग़ैर किसी चीज़ को हराम ठहराते।” ऐसे ही बहाने इनसे पहले के लोग बनाते रहे हैं। तो क्या रसूलों पर साफ़-साफ़ बात पहुँचा देने के सिवा और भी कोई ज़िम्मेदारी है?
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡۚ فَتَمَتَّعُواْ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 45
(55) ताकि अल्लाह के एहसान की नाशुक्री करे। अच्छा, मज़े कर लो, अन-करीब तुम्हें मालूम हो जाएगा।
بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلزُّبُرِۗ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلذِّكۡرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيۡهِمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 46
(44) पिछले रसूलों को भी हमने रौशन निशानियाँ और किताबें देकर भेजा था, और अब यह ज़िक्र तुमपर नाज़िल किया है ताकि तुम लोगों के सामने उस तालीम की तशरीह व तौज़ीह करते जाओ जो उनके लिए उतारी गई है,10 और ताकि लोग (ख़ुद भी) ग़ौर व फ़िक्र करें।
10. यानी रसूलुल्लाह (सल्ल०) पर किताब इसलिए नाज़िल की गई थी कि आप अपने क़ौल और अमल से उसकी तालीमात और उसके अहकाम की तशरीह व तौज़ीह करते रहें। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात साबित होती है कि हुज़ूर (सल्ल०) की सुन्नत क़ुरआन की मुस्तनद सरकारी तशरीह है।
وَيَجۡعَلُونَ لِمَا لَا يَعۡلَمُونَ نَصِيبٗا مِّمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡۗ تَٱللَّهِ لَتُسۡـَٔلُنَّ عَمَّا كُنتُمۡ تَفۡتَرُونَ ۝ 47
(56) ये लोग जिनकी हक़ीक़त से वाक़िफ़ नहीं हैं उनके हिस्से हमारे दिए हुए रिज़्क़ में से मुक़र्रर करते हैं — ख़ुदा की कसम! ज़रूर तुमसे पूछा जाएगा कि ये झूठ तुमने कैसे गढ़ लिए थे?
أَفَأَمِنَ ٱلَّذِينَ مَكَرُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ أَن يَخۡسِفَ ٱللَّهُ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضَ أَوۡ يَأۡتِيَهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 48
(45) फिर क्या वे लोग जो (दावते-पैग़म्बर की मुख़ालफ़त में) बदतर-से-बदतर चालें चल रहे हैं इस बात से बिलकुल ही बेख़ौफ़ हो गए है कि अल्लाह उनको ज़मीन में धँसा दे, या ऐसे गोशे से उनपर अज़ाब ले आए जिधर से उसके आने का उनको वहम व गुमान तक न हो,
وَيَجۡعَلُونَ لِلَّهِ ٱلۡبَنَٰتِ سُبۡحَٰنَهُۥ وَلَهُم مَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 49
(57) ये ख़ुदा के लिए बेटियाँ तजवीज़ करते हैं।14 सुब्हान-अल्लाह! और इनके लिए वह जो ये ख़ुद चाहें?15
14. मुशरिकीने-अरब के माबूदों में देवता कम थे, देवियाँ ज़्यादा थीं और उन देवियों के मुताल्लिक़ उनका अक़ीदा यह था कि ये ख़ुदा की बेटियाँ हैं। इसी तरह फ़रिश्तों को भी वे ख़ुदा की बेटियाँ क़रार देते थे।
15. यानी बेटे।
أَوۡ يَأۡخُذَهُمۡ فِي تَقَلُّبِهِمۡ فَمَا هُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 50
(46) या अचानक चलते-फिरते उनको पकड़ ले,
وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُم بِٱلۡأُنثَىٰ ظَلَّ وَجۡهُهُۥ مُسۡوَدّٗا وَهُوَ كَظِيمٞ ۝ 51
(58) जब इनमें से किसी को बेटी के पैदा होने की ख़ुशख़बरी दी जाती है तो उसके चेहरे पर कलौंस छा जाती है और वह बस ख़ून का-सा घूँट पीकर रह जाता है।
أَوۡ يَأۡخُذَهُمۡ عَلَىٰ تَخَوُّفٖ فَإِنَّ رَبَّكُمۡ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٌ ۝ 52
(47) या ऐसी हालत में उन्हें पकड़े जबकि उन्हें ख़ुद आनेवाली मुसीबत का खटका लगा हुआ हो और वे उससे बचने की फ़िक्र में चौकन्ने हों? वह जो कुछ भी करना चाहे ये लोग उसको आजिज़ करने की ताक़त नहीं रखते। हक़ीक़त यह है कि तुम्हारा रब बड़ा ही नर्म-ख़ू और रहीम है।
وَأَوۡحَىٰ رَبُّكَ إِلَى ٱلنَّحۡلِ أَنِ ٱتَّخِذِي مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتٗا وَمِنَ ٱلشَّجَرِ وَمِمَّا يَعۡرِشُونَ ۝ 53
(68) और देखो, तुम्हारे रब ने शहद की मक्खी पर यह बात वह्य कर दी19 कि पहाड़ों में, और दरख़्तों में, और टट्टियों पर चढ़ाई हुई बेलों में, अपने छत्ते बना,
19. वह्य के लुग़वी मानी हैं ख़ुफ़िया और लतीफ़ इशारे के, जिसे इशारा करनेवाले और इशारा पानेवाले के सिवा और कोई महसूस न कर सके। इसी मुनासबत से यह लफ़्ज़ इलक़ा (दिल में बात डाल देने) और इलहाम (मख़फ़ी तालीम व तलक़ीन) के मानी में इस्तेमाल होता है।
يَتَوَٰرَىٰ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ مِن سُوٓءِ مَا بُشِّرَ بِهِۦٓۚ أَيُمۡسِكُهُۥ عَلَىٰ هُونٍ أَمۡ يَدُسُّهُۥ فِي ٱلتُّرَابِۗ أَلَا سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 54
(59) लोगों से छिपता फिरता है कि इस बुरी ख़बर के बाद क्या किसी को मुँह दिखाए। सोचता है कि ज़िल्लत के साथ बेटी को लिए रहे या मिट्टी में दबा दे? — देखो कैसे बुरे हुक्म हैं जो ये ख़ुदा के बारे में लगाते हैं!16
16. यानी अपने लिए जिस बेटी को ये लोग इस क़दर नंग व आर समझते हैं, उसी को ख़ुदा के लिए बिला ताम्मुल तजवीज़ कर देते हैं।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَىٰ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٖ يَتَفَيَّؤُاْ ظِلَٰلُهُۥ عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَٱلشَّمَآئِلِ سُجَّدٗا لِّلَّهِ وَهُمۡ دَٰخِرُونَ ۝ 55
(48) और क्या ये लोग अल्लाह की पैदा की हुई किसी चीज़ को भी नहीं देखते कि उसका साया किस तरह अल्लाह के हुज़ूर सजदा करते हुए दाएँ और बाएँ गिरता है?11 सब-के-सब इस तरह इज़हारे-इज्ज़ कर रहे हैं।
11. यानी तमाम जिस्मानी अशया के साए इस बात की अलामत हैं कि पहाड़ हो या दरख़्त, जानवर हों या इनसान, सब-के-सब एक हमागीर क़ानून की गिरिफ़्त में जकड़े हुए हैं, सबकी पेशानी पर बन्दगी का दाग़ लगा हुआ है, उलूहियत में किसी का कोई अदना हिस्सा भी नहीं है। साया पड़ना एक चीज़ के माद्दी होने की खुली अलामत है और माद्दी होना बन्दा और मख़लूक़ होने का खुला सुबूत।
ثُمَّ كُلِي مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ فَٱسۡلُكِي سُبُلَ رَبِّكِ ذُلُلٗاۚ يَخۡرُجُ مِنۢ بُطُونِهَا شَرَابٞ مُّخۡتَلِفٌ أَلۡوَٰنُهُۥ فِيهِ شِفَآءٞ لِّلنَّاسِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 56
(69) और हर तरह के फलों का रस चूस, और अपने रब की हमवार की हुई राहों पर चलती रह। इस मक्खी के अन्दर से रंग-बिरंग का एक शरबत निकलता है जिसमें शिफ़ा है लोगों के लिए। यक़ीनन इसमें भी एक निशानी है लोगों के लिए जो ग़ौर व फ़िक्र करते हैं।
وَلِلَّهِۤ يَسۡجُدُۤ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ مِن دَآبَّةٖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 57
(49) ज़मीन और आसमानों में जिस क़दर जानदार मख़लूक़ात हैं और जितने मलाइका, सब अल्लाह के आगे सर बसुजूद हैं। वे हरगिज़ सरकशी नहीं करते।
لِلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ مَثَلُ ٱلسَّوۡءِۖ وَلِلَّهِ ٱلۡمَثَلُ ٱلۡأَعۡلَىٰۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 58
(60) बुरी सिफ़ात से मुत्तसिफ़ किए जाने के लायक़ तो वे लोग हैं जो आख़िरत का यक़ीन नहीं रखते। रहा अल्लाह तो उसके लिए सबसे बरतर सिफ़ात हैं, वही तो सबपर ग़ालिब और हिकमत में कामिल है।
وَلَوۡ يُؤَاخِذُ ٱللَّهُ ٱلنَّاسَ بِظُلۡمِهِم مَّا تَرَكَ عَلَيۡهَا مِن دَآبَّةٖ وَلَٰكِن يُؤَخِّرُهُمۡ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗىۖ فَإِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ لَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 59
(61) अगर कहीं अल्लाह लोगों को उनकी ज़्यादती पर फ़ौरन ही पकड़ लिया तो रूए-ज़मीन पर किसी मुतनफ़्फ़िस को न छोड़ता। लेकिन वह सबको एक वक़्ते-मुक़र्रर तक मुहलत देता है, फिर जब वह वक़्त आ जाता है तो उससे कोई एक घड़ी-भर भी आगे-पीछे नहीं हो सकता।
وَٱللَّهُ خَلَقَكُمۡ ثُمَّ يَتَوَفَّىٰكُمۡۚ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡ لَا يَعۡلَمَ بَعۡدَ عِلۡمٖ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٞ قَدِيرٞ ۝ 60
(70) और देखो, अल्लाह ने तुमको पैदा किया, फिर वह तुमको मौत देता है, और तुममें से कोई बदतरीन उम्र को पहुँचा दिया जाता है ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ न जाने। हक़ यह है कि अल्लाह ही इल्म में भी कामिल है और क़ुदरत में भी।
يَخَافُونَ رَبَّهُم مِّن فَوۡقِهِمۡ وَيَفۡعَلُونَ مَا يُؤۡمَرُونَ۩ ۝ 61
(50) अपने रब से जो उनके ऊपर है, डरते हैं और जो कुछ हुक्म दिया जाता है उसी के मुताबिक़ काम करते हैं।
وَيَجۡعَلُونَ لِلَّهِ مَا يَكۡرَهُونَۚ وَتَصِفُ أَلۡسِنَتُهُمُ ٱلۡكَذِبَ أَنَّ لَهُمُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ لَا جَرَمَ أَنَّ لَهُمُ ٱلنَّارَ وَأَنَّهُم مُّفۡرَطُونَ ۝ 62
(62) आज ये लोग वे चीज़ें अल्लाह के लिए तजवीज़ कर रहे हैं जो ख़ुद अपने लिए इन्हें नापसन्द है, और झूठ कहती हैं इनकी ज़बानें कि उनके लिए भला-ही-भला है। इनके लिए तो एक ही चीज़ है, और वह है दोज़ख़ की आग। ज़रूर ये सबसे पहले उसमें पहुँचाए जाएँगे।
۞وَقَالَ ٱللَّهُ لَا تَتَّخِذُوٓاْ إِلَٰهَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِۖ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَإِيَّٰيَ فَٱرۡهَبُونِ ۝ 63
(51) अल्लाह का फ़रमान है कि “दो ख़ुदा न बना लो,12 ख़ुदा तो बस एक ही है, लिहाज़ा तुम मुझी से डरो।”
12. दो ख़ुदाओं की नफ़ी में दो से ज़्यादा ख़ुदाओं की नफ़ी आप-से-आप शामिल है।
وَٱللَّهُ فَضَّلَ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ فِي ٱلرِّزۡقِۚ فَمَا ٱلَّذِينَ فُضِّلُواْ بِرَآدِّي رِزۡقِهِمۡ عَلَىٰ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَهُمۡ فِيهِ سَوَآءٌۚ أَفَبِنِعۡمَةِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ ۝ 64
(71) और देखो, अल्लाह ने तुममें से बाज़ को बाज़ पर रिज़्क़ में फ़ज़ीलत अता की है। फिर जिन लोगों को यह फ़ज़ीलत दी गई है वे ऐसे नहीं हैं कि अपना रिज़्क़ अपने ग़ुलामों की तरफ़ फेर दिया करते हों ताकि दोनों इस रिज़्क़ में बराबर के हिस्सेदार बन जाएँ। तो क्या अल्लाह ही का एहसान मानने से इन लोगों को इनकार है?20
20. ज़माना-ए-हाल में कुछ लोगों ने इस आयत से यह मतलब निकाल लिया है कि जिन लोगों को अल्लाह ने रिज़्क़ में फ़ज़ीलत अता की हो उन्हें अपना रिज़्क़ अपने नौकरों और ग़ुलामों की तरफ़ ज़रूर लौटा देना चाहिए, अगर न लौटाएँगे तो अल्लाह तआला की नेमत के मुनकिर क़रार पाएँगे। हालाँकि ऊपर से तमाम तक़रीर शिर्क के इबताल और तौहीद के इसबात में होती चली आ रही है और आगे भी मुसलसल यही मज़मून चल रहा है, सियाक़ व सबाक़ को निगाह में रखकर देखा जाए तो साफ़ मालूम होता है कि यहाँ इस्तिदलाल यह किया गया है कि तुम ख़ुद अपने माल में अपने ग़ुलामों और नौकरों को जब बराबर का दरजा नहीं देते तो आख़िर किस तरह यह बात सही समझते हो कि जो एहसानात अल्लाह ने तुमपर किए हैं उनके शुक्रिए में अल्लाह के साथ उसके बेइख़्तियार ग़ुलामों को भी शरीक कर लो और अपनी जगह यह समझ बैठो कि इख़्तियारात और हुक़ूक़ में अल्लाह के ये ग़ुलाम भी उसके साथ बराबर के हिस्सेदार हैं।
وَلَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَهُ ٱلدِّينُ وَاصِبًاۚ أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَتَّقُونَ ۝ 65
(52) उसी का है वह सब कुछ जो आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, और ख़ालिसन उसी का दीन (सारी कायनात में) चल रहा है।13 फिर क्या अल्लाह को छोड़कर तुम किसी और से तक़वा करोगे?
13. दूसरे अलफ़ाज़ में उसी की इताअत पर इस पूरे कारखाना-ए-हस्ती का निज़ाम क़ायम है।
تَٱللَّهِ لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰٓ أُمَمٖ مِّن قَبۡلِكَ فَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَعۡمَٰلَهُمۡ فَهُوَ وَلِيُّهُمُ ٱلۡيَوۡمَ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 66
(63) ख़ुदा की क़सम, (ऐ नबी!) तुमसे पहले भी बहुत-सी क़ौमों में हम रसूल भेज चुके हैं (और पहले भी यही होता रहा है कि) शैतान ने उनके बुरे करतूत उन्हें ख़ुशनुमा बनाकर दिखाए (और रसूलों की बात उन्होंने मानकर न दी)। वही शैतान आज इन लोगों का भी सरपरस्त बना हुआ है और ये दर्दनाक सज़ा के मुस्तहिक़ बन रहे हैं।
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُم بَنِينَ وَحَفَدَةٗ وَرَزَقَكُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِۚ أَفَبِٱلۡبَٰطِلِ يُؤۡمِنُونَ وَبِنِعۡمَتِ ٱللَّهِ هُمۡ يَكۡفُرُونَ ۝ 67
(72) और वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए तुम्हारी हम-जिंस बीवियाँ बनाईं और उसी ने इन बीवियों से तुम्हें बेटे-पोते अता किए और अच्छी-अच्छी चीज़ें तुम्हें खाने को दीं। फिर क्या ये लोग (ये सब कुछ देखते और जानते हुए भी) बातिल को मानते हैं21 और अल्लाह के एहसान का इनकार करते हैं?
21. यानी ये बेबुनियाद और बेहक़ीक़त अक़ीदा रखते हैं कि उनकी क़िस्मतें बनाना और बिगाड़ना, उनकी मुरादें बर लाना और दुआएँ सुनना, उन्हें औलाद देना, उनको रोज़गार दिलवाना, उनके मुक़द्दमे जितवाना और उन्हें बीमारियों से बचाना कुछ देवियों और देवताओं और जिन्नों और अगले-पिछले बुज़ुर्गों के इख़्तियार में है।
وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّا لِتُبَيِّنَ لَهُمُ ٱلَّذِي ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 68
(64) हमने यह किताब तुमपर इसलिए नाज़िल की है कि तुम उन इख़्तिलाफ़ात की हक़ीक़त इनपर खोल दो जिनमें ये पड़े हुए हैं। यह किताब रहनुमाई और रहमत बनकर उतरी है उन लोगों के लिए जो इसे मान लें।
وَٱللَّهُ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 69
(65) (तुम हर बरसात में देखते हो कि) अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया और यकायक मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन में उसकी बदौलत जान डाल दी।17 यक़ीनन उसमें एक निशानी है सुननेवालों के लिए।
17. यानी यह मंज़र हर साल तुम्हारी आँखों के सामने गुज़रता है कि ज़मीन बिलकुल चटियल मैदान पड़ी हुई है, ज़िन्दगी के कोई आसार मौजूद नहीं, न घास-फूस है, न बेल-बूटे, न फूल-पत्ती और न किसी क़िस्म के हशरातुल-अर्ज़। इतने में बारिश का मौसम आ गया और एक-दो छींटे पड़ते ही इसी ज़मीन से ज़िन्दगी के चश्मे उबलने शुरू हो गए। ज़मीन की तहों में दबी हुई बेशुमार जड़ें यकायक जी उठीं और हर एक के अन्दर से वही नबातात फिर बरामद हो गई जो पिछली बरसात में पैदा होने के बाद मर चुकी थी। बेशुमार हशरातुल-अर्ज़ जिनका नाम व निशान तक गर्मी के ज़माने में बाक़ी न रहा था, यकायक फिर उसी शान से नमूदार हो गए जैसे पिछली बरसात में देखे गए थे। ये सब कुछ अपनी ज़िन्दगी में बार-बार तुम देखते रहते हो, और फिर भी तुम्हें नबी की ज़बान से यह सुनकर हैरत होती है कि अल्लाह तआला इनसनों को मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा करेगा।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَمۡلِكُ لَهُمۡ رِزۡقٗا مِّنَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ شَيۡـٔٗا وَلَا يَسۡتَطِيعُونَ ۝ 70
(73) और अल्लाह को छोड़कर उनको पूजते हैं जिनके हाथ में न आसमानों से इन्हें कुछ भी रिज़्क़ देना है न ज़मीन से, और न यह काम वे कर ही सकते हैं?
وَإِنَّ لَكُمۡ فِي ٱلۡأَنۡعَٰمِ لَعِبۡرَةٗۖ نُّسۡقِيكُم مِّمَّا فِي بُطُونِهِۦ مِنۢ بَيۡنِ فَرۡثٖ وَدَمٖ لَّبَنًا خَالِصٗا سَآئِغٗا لِّلشَّٰرِبِينَ ۝ 71
(66) और तुम्हारे लिए मवेशियों में भी एक सबक़ मौजूद है। उनके पेट से गोबर और ख़ून के दरमियान हम एक चीज़ तुम्हें पिलाते हैं, यानी ख़ालिस दूध जो पीनेवालों के लिए निहायत ख़ुशगवार है।
فَلَا تَضۡرِبُواْ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡثَالَۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 72
(74) पस अल्लाह के लिए मिसालें न घडो,22 अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
22. यानी अल्लाह को दुनियवी बादशाहों और राजों और महाराजों पर क़ियास न करो कि जिस तरह कोई उनके मुसाहिबों और मुक़र्रबे-बारगाह मुलाज़िमों के तवस्सुत के बग़ैर अपनी अर्ज़ व मारूज़ नहीं पहुँचा सकता उसी तरह अल्लाह के मुताल्लिक़ भी तुम यह गुमान करने लगो कि वह अपने क़स्रे-शाही में मलाइका और औलिया और दूसरे मुक़र्रबीन के दरमियान घिरा बैठा है और किसी का कोई काम इन वास्तों के बग़ैर उसके यहाँ से नहीं बन सकता।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَى ٱلطَّيۡرِ مُسَخَّرَٰتٖ فِي جَوِّ ٱلسَّمَآءِ مَا يُمۡسِكُهُنَّ إِلَّا ٱللَّهُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 73
(79) क्या इन लोगों ने कभी परिन्दों को नहीं देखा है कि फ़िज़ा-ए-आसमानी में किस तरह मुसख़्ख़र हैं? अल्लाह के सिवा किसने उनको थाम रखा है। इसमें बहुत निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
وَمِن ثَمَرَٰتِ ٱلنَّخِيلِ وَٱلۡأَعۡنَٰبِ تَتَّخِذُونَ مِنۡهُ سَكَرٗا وَرِزۡقًا حَسَنًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 74
(67) (इसी तरह) खजूर के दरख़्तों और अंगूर की बेलों से भी हम एक चीज़ तुम्हें पिलाते हैं जिसे तुम नशाआवर भी बना लेते हो और पाक रिज़्क भी।18 यक़ीनन इसमें एक निशानी है अक़्ल से काम लेनेवालों के लिए। ।
18. इसमें एक ज़िमनी इशारा शराब की हुरमत की तरफ़ भी है कि वह पाक रिज़्क़ नहीं है।
۞ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلًا عَبۡدٗا مَّمۡلُوكٗا لَّا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَمَن رَّزَقۡنَٰهُ مِنَّا رِزۡقًا حَسَنٗا فَهُوَ يُنفِقُ مِنۡهُ سِرّٗا وَجَهۡرًاۖ هَلۡ يَسۡتَوُۥنَۚ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 75
(75) अल्लाह एक मिसाल देता है। एक तो है ग़ुलाम, जो दूसरे का ममलूक है और ख़ुद कोई इख़्तियार नहीं रखता। दूसरा शख़्स ऐसा है जिसे हमने अपनी तरफ़ से अच्छा रिज़्क़ अता किया है और वह उसमें से खुले और छिपे व ख़र्च करता है। बताओ, क्या ये दोनों बराबर हैं? अलहम्दुलिल्लाह,23 मगर अकसर लोग (इस सीधी बात को) नहीं जानते।
23. चूँकि इस सवाल के जवाब में मुशरिकीन यह नहीं कह सके कि दोनों बराबर हैं, इसलिए फ़रमाया अलहम्दुलिल्लाह, इतनी बात तो तुम्हारी समझ में आई!
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّنۢ بُيُوتِكُمۡ سَكَنٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّن جُلُودِ ٱلۡأَنۡعَٰمِ بُيُوتٗا تَسۡتَخِفُّونَهَا يَوۡمَ ظَعۡنِكُمۡ وَيَوۡمَ إِقَامَتِكُمۡ وَمِنۡ أَصۡوَافِهَا وَأَوۡبَارِهَا وَأَشۡعَارِهَآ أَثَٰثٗا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ ۝ 76
(80) अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हारे घरों को जाए-सुकून बनाया। उसने जानवरों की खालों से तुम्हारे लिए ऐसे मकान पैदा किए जिन्हें तुम सफ़र और क़ियाम दोनों हालतों में हलका पाते हो।24 उसने जानवरों के सूफ़ और ऊन और बालों से तुम्हारे लिए पहनने और बरतने की बहुत-सी चीज़ें पैदा कर दीं जो ज़िन्दगी की मुद्दते-मुक़र्ररा तक तुम्हारे काम आती हैं।
24. यानी चमड़े के ख़ेमे जिनका रिवाज अरब में बहुत है।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا رَّجُلَيۡنِ أَحَدُهُمَآ أَبۡكَمُ لَا يَقۡدِرُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَهُوَ كَلٌّ عَلَىٰ مَوۡلَىٰهُ أَيۡنَمَا يُوَجِّههُّ لَا يَأۡتِ بِخَيۡرٍ هَلۡ يَسۡتَوِي هُوَ وَمَن يَأۡمُرُ بِٱلۡعَدۡلِ وَهُوَ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 77
(76) अल्लाह एक और मिसाल देता है। दो आदमी हैं। एक गूँगा-बहरा है, कोई काम नहीं कर सकता, अपने आक़ा पर बोझ बना हुआ है, जिधर भी वह उसे भेजे कोई भला काम उससे बन न आए। दूसरा शख़्स ऐसा है कि इनसाफ़ का हुक्म देता है और ख़ुद राहे-रास्त पर क़ायम है। बताओ क्या ये दोनों यकसाँ हैं?
وَٱللَّهُ جَعَلَ لَكُم مِّمَّا خَلَقَ ظِلَٰلٗا وَجَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡجِبَالِ أَكۡنَٰنٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ سَرَٰبِيلَ تَقِيكُمُ ٱلۡحَرَّ وَسَرَٰبِيلَ تَقِيكُم بَأۡسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُتِمُّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡلِمُونَ ۝ 78
(81) उसने अपनी पैदा हुई बहुत-सी चीज़ों से तुम्हारे लिए साए का इन्तिज़ाम किया, पहाड़ों में तुम्हारे लिए पनाहगाहें बनाईं, और तुम्हें ऐसी पोशाकें बख़्शीं जो तुम्हें गर्मी से बचाती हैं और कुछ दूसरी पोशाकें जो आपस की जंग में तुम्हारी हिफ़ाज़त करती हैं। इस तरह वह तुमपर अपनी नेमतों की तकमील करता है शायद कि तुम फ़रमाँबरदार बनो।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 79
(82) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं तो (ऐ नबी!) तुमपर साफ़-साफ़ पैग़ामे-हक़ पहुँचा देने के सिवा और कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن يُضِلُّ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَلَتُسۡـَٔلُنَّ عَمَّا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 80
(93) अगर अल्लाह की मशीयत यह होती (कि तुममें कोई इख़्तिलाफ़ न हो) तो वह तुम सबको एक ही उम्मत बना देता, मगर वह जिसे चाहता है गुमराही में डालता है और जिसे चाहता है राहे-रास्त दिखा देता है, और ज़रूर तुमसे तुम्हारे आमाल की बाज़-पुर्स होकर रहेगी।
يَعۡرِفُونَ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ ثُمَّ يُنكِرُونَهَا وَأَكۡثَرُهُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 81
(83) ये अल्लाह के एहसान को पहचानते हैं, फिर उसका इनकार करते हैं। और इनमें बेशतर लोग ऐसे हैं जो हक़ मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
وَلَا تَتَّخِذُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ فَتَزِلَّ قَدَمُۢ بَعۡدَ ثُبُوتِهَا وَتَذُوقُواْ ٱلسُّوٓءَ بِمَا صَدَدتُّمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَكُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 82
(94) (और ऐ मुसलमानो!) तुम अपनी क़समों को आपस में एक-दूसरे को धोखा देने का ज़रिआ न बना लेना, कहीं ऐसा न हो कि कोई क़दम जमने के बाद उखड़ जाए और तुम इस जुर्म की पादाश में कि तुमने लोगों को अल्लाह की राह से रोका, बुरा नतीजा देखो और सज़ा भुगतो।27
27. यानी ऐसा न हो कि कोई शख़्स इस्लाम की सदाक़त का क़ायल हो जाने के बाद मह्ज़ तुम्हारी बदअख़लाक़ी देखकर इस दीन से बरगश्ता हो जाए और इस वजह से वह अहले-ईमान के गरोह में शामिल होने से रुक जाए कि इस गरोह के जिन लोगों से उसको साबिक़ा पेश आया हो उनको अख़लाक़ और मामलात में उसने कुफ़्फ़ार से कुछ भी मुख़्तलिफ़ न पाया हो।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ مِن كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدٗا ثُمَّ لَا يُؤۡذَنُ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ ۝ 83
(84) (इन्हें कुछ होश भी है कि उस रोज़ क्या बनेगी) जबकि हम हर उम्मत में से एक गवाह खड़ा करेंगे, फिर काफ़िरों को न हुज्जतें पेश करने का मौक़ा दिया जाएगा।25 न उनसे तौबा-इस्तिग़फ़ार ही का मुतालबा किया जाएगा।
25. यह मतलब नहीं है कि उन्हें सफ़ाई पेश करने की इजाज़त न दी जाएगी। बल्कि मतलब यह है कि उनके जराइम ऐसी सरीह नाक़ाबिले-इनकार और नाक़ाबिले-तावील शहादतों से साबित कर दिए जाएँगे कि उनके लिए सफ़ाई पेश करने की कोई गुंजाइश न रहेगी।
وَلِلَّهِ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَآ أَمۡرُ ٱلسَّاعَةِ إِلَّا كَلَمۡحِ ٱلۡبَصَرِ أَوۡ هُوَ أَقۡرَبُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 84
(77) और ज़मीन व आसमान की पोशीदा हक़ाइक का इल्म तो अल्लाह ही को है। और क़ियामत के बरपा होने का मामला कुछ देर न लेगा मगर बस इतनी कि जिसमें आदमी की पलक झपक जाए, बल्कि इससे भी कुछ कम। हक़ीक़त यह है कि अल्लाह सब कुछ कर सकता है।
وَلَا تَشۡتَرُواْ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلًاۚ إِنَّمَا عِندَ ٱللَّهِ هُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 85
(95) अल्लाह के अह्द को थोड़े-से फ़ायदे के बदले न बेच डालो, जो कुछ अल्लाह के पास है वह तुम्हारे लिए ज़्यादा बेहतर है अगर तुम जानो।
وَإِذَا رَءَا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلۡعَذَابَ فَلَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 86
(85) ज़ालिम लोग जब एक दफ़ा अज़ाब देख लेंगे तो उसके बाद न उनके अज़ाब में कोई तख़फ़ीफ़ की जाएगी और न उन्हें एक लम्हा-भर मुहलत दी जाएगी।
مَا عِندَكُمۡ يَنفَدُ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ بَاقٖۗ وَلَنَجۡزِيَنَّ ٱلَّذِينَ صَبَرُوٓاْ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 87
(96) जो कुछ तुम्हारे पास है वह ख़र्च हो जानेवाला है और जो कुछ अल्लाह के पास है वही बाक़ी रहनेवाला है, और हम ज़रूर सब्र से काम लेनेवालों को उनके अज्र उनके बेहतरीन आमाल के मुताबिक़ देंगे।
وَٱللَّهُ أَخۡرَجَكُم مِّنۢ بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 88
(78) अल्लाह ने तुमको तुम्हारी माओं के पेटों से निकाला इस हालत में कि तुम कुछ न जानते थे, उसने तुम्हें कान दिए, आँखें दीं और सोचनेवाले दिल दिए, इसलिए कि तुम शुक्रगुज़ार बनो।
وَإِذَا رَءَا ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ شُرَكَآءَهُمۡ قَالُواْ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ شُرَكَآؤُنَا ٱلَّذِينَ كُنَّا نَدۡعُواْ مِن دُونِكَۖ فَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلَ إِنَّكُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 89
(86) और जब वे लोग जिन्होंने दुनिया में शिर्क किया था अपने ठहराए हुए शरीकों को देखेंगे तो कहेंगे, “ऐ परवरदिगार! यही हैं हमारे वे शरीक जिन्हें हम तुझे छोड़कर पुकारा करते थे।” इसपर उनके वे माबूद उन्हें साफ़ जवाब देंगे कि “तुम झूठे हो”26
26. यानी हमने कभी तुमसे यह नहीं कहा था कि तुम ख़ुदा को छोड़कर हमें पुकार करो, न हम तुम्हारी इस हरकत पर राज़ी थे, बल्कि हमें तो ख़बर तक न थी कि तुम हमें पुकार रहे हो।
مَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَنُحۡيِيَنَّهُۥ حَيَوٰةٗ طَيِّبَةٗۖ وَلَنَجۡزِيَنَّهُمۡ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 90
(97) जो शख़्स भी नेक अमल करेगा ख़ाह वह मर्द हो या औरत, बशर्ते कि हो वह मोमिन, उसे हम दुनिया में पाकीज़ा ज़िन्दगी बसर कराएँगे और (आख़िरत में) ऐसे लोगों को उनके अज्र उनके बेहतरीन आमाल के मुताबिक़ बख़्शेंगे।
وَأَلۡقَوۡاْ إِلَى ٱللَّهِ يَوۡمَئِذٍ ٱلسَّلَمَۖ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 91
(87) उस वक़्त ये सब अल्लाह के आगे झुक जाएँगे और इनकी वे सारी इफ़तिरा-परदाज़ियाँ रफ़ूचक्कर हो जाएँगी जो ये दुनिया में करते रहे थे।
فَإِذَا قَرَأۡتَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ ۝ 92
(98) फिर जब तुम क़ुरआन पढ़ने लगो तो शैताने-रजीम से ख़ुदा की पनाह माँग लिया करो।28
28. इसका मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि ज़बान से 'अऊज़ु बिल्लाहि मिनश-शैतानिर-रजीम' कहा जाए, बल्कि इसके साथ फ़िल-वाक़े दिली जज़्बे के साथ अल्लाह से यह दुआ भी करनी चाहिए कि क़ुरआन पढ़ते वक़्त वह शैतान गुमराहकुन वसवसों से उसको महफ़ूज़ रखे क्योंकि जिसने यहाँ से हिदायत न पाई वह फिर कहीं हिदायत न पा सकेगा, और जो इस किताब से गुमराही अख़ज़ कर बैठा उसे फिर दुनिया की कोई चीज़ गुमराहियों के चक्कर से न निकाल सकेगी।
ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ زِدۡنَٰهُمۡ عَذَابٗا فَوۡقَ ٱلۡعَذَابِ بِمَا كَانُواْ يُفۡسِدُونَ ۝ 93
(88) जिन लोगों ने ख़ुद कुफ़्र की राह इख़्तियार की और दूसरों को अल्लाह की राह से रोका उन्हें हम अज़ाब-पर-अज़ाब देंगे उस फ़साद के बदले जो वे दुनिया में बरपा करते रहे।
إِنَّهُۥ لَيۡسَ لَهُۥ سُلۡطَٰنٌ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 94
(99) उसे उन लोगों पर तसल्लुत हासिल नहीं होता जो ईमानलाते और अपने रब पर भरोसा करते हैं।
وَيَوۡمَ نَبۡعَثُ فِي كُلِّ أُمَّةٖ شَهِيدًا عَلَيۡهِم مِّنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَجِئۡنَا بِكَ شَهِيدًا عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِۚ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ تِبۡيَٰنٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 95
(89) (ऐ नबी! इन्हें उस दिन से ख़बरदार कर दो) जबकि हम हर उम्मत में ख़ुद उसी के अन्दर से एक गवाह उठा खड़ा करेंगे जो उसके मुक़ाबले में शहादत देगा, और इन लोगों के मुक़ाबले में शहादत देने के लिए हम तुम्हें लाएँगे। और (यह उसी शहादत की तैयारी है कि) हमने यह किताब तुमपर नाज़िल कर दी है जो हर चीज़ की साफ़-साफ़ वज़ाहत करनेवाली है और हिदायत व रहमत और बशारत है उन लोगों के लिए जिन्होंने सरे-तस्लीम ख़म कर दिया है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمُ ٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا عَلَى ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 96
(107) यह इसलिए कि उन्होंने आख़िरत के मुक़ाबले में दुनिया की ज़िन्दगी को पसन्द कर लिया, और अल्लाह का क़ायदा है कि वह उन लोगों को राहे-नजात नहीं दिखाता जो उसकी नेमत का कुफ़रान करें।
إِنَّمَا سُلۡطَٰنُهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ يَتَوَلَّوۡنَهُۥ وَٱلَّذِينَ هُم بِهِۦ مُشۡرِكُونَ ۝ 97
(100) उसका ज़ोर तो उन्हीं लोगों पर चलता है जो उसको अपना सरपरस्त बनाते और उसके बहकाने से शिर्क करते हैं।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُ بِٱلۡعَدۡلِ وَٱلۡإِحۡسَٰنِ وَإِيتَآيِٕ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَيَنۡهَىٰ عَنِ ٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِ وَٱلۡبَغۡيِۚ يَعِظُكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 98
(90) अल्लाह अद्ल व एहसान और सिला-रहमी का हुक्म देता है और बदी व बेहयाई और ज़ुल्म व ज़्यादती से मना करता है। वह तुम्हें नसीहत करता है ताकि तुम सबक़ लो।
وَإِذَا بَدَّلۡنَآ ءَايَةٗ مَّكَانَ ءَايَةٖ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا يُنَزِّلُ قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مُفۡتَرِۭۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 99
(101) जब हम एक आयत की जगह दूसरी आयत नाज़िल करते हैं। और अल्लाह बेहतर जानता है कि वह क्या नाज़िल करे। — तो ये लोग कहते हैं कि तुम यह क़ुरआन ख़ुद गढ़ते हो। अस्ल बात यह है कि उनमें से अकसर लोग हक़ीक़त से नावाक़िफ़ हैं।
وَأَوۡفُواْ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ إِذَا عَٰهَدتُّمۡ وَلَا تَنقُضُواْ ٱلۡأَيۡمَٰنَ بَعۡدَ تَوۡكِيدِهَا وَقَدۡ جَعَلۡتُمُ ٱللَّهَ عَلَيۡكُمۡ كَفِيلًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا تَفۡعَلُونَ ۝ 100
(91) अल्लाह के अह्द को पूरा करो जबकि तुमने उससे कोई अह्द बाँधा हो, और अपनी क़समें पुख़्ता करने बाद तोड़ न डालो जबकि तुम अल्लाह को अपने ऊपर गवाह बना चुके हो। अल्लाह तुम्हारे सब अफ़आल से बाख़बर है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَسَمۡعِهِمۡ وَأَبۡصَٰرِهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡغَٰفِلُونَ ۝ 101
(108) ये वे लोग हैं जिनके दिलों और कानों और आँखों पर अल्लाह ने मुहर लगा दी है, ये ग़फ़लत में डूब चुके हैं।
قُلۡ نَزَّلَهُۥ رُوحُ ٱلۡقُدُسِ مِن رَّبِّكَ بِٱلۡحَقِّ لِيُثَبِّتَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 102
(102) उनसे कहो कि उसे तो रूहुल-क़ुदुस ठीक-ठीक ने मेरे रब की तरफ़ से बतदरीज नाज़िल किया है29 ताकि ईमानलानेवालों के ईमान को पुख़्ता करे और फ़रमाँबरदारों को ज़िन्दगी के मामलात में सीधी राह बताए और उन्हें फ़लाह व सआदत की ख़ुशख़बरी दे।
29. 'रूहुल-क़ुदुस' का लफ़्ज़ी तर्जमा है 'पाक रूह' या 'पाकीज़गी की रूह', और इस्तिलाहन यह लक़ब हज़रत जिबरील (अलैहि०) को दिया गया है। यहाँ वह्य लानेवाले फ़रिश्ते का नाम लेने के बजाय उसका लक़ब इस्तेमाल करने से मक़सूद सामिईन को इस हक़ीक़त पर मुतनब्बेह करना है कि इस कलाम को एक ऐसी रूह लेकर आ रही है जो बशरी कमज़ोरियों और नक़ायस से पाक है और बिलकुल अमानतदारी के साथ अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाती है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّتِي نَقَضَتۡ غَزۡلَهَا مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٍ أَنكَٰثٗا تَتَّخِذُونَ أَيۡمَٰنَكُمۡ دَخَلَۢا بَيۡنَكُمۡ أَن تَكُونَ أُمَّةٌ هِيَ أَرۡبَىٰ مِنۡ أُمَّةٍۚ إِنَّمَا يَبۡلُوكُمُ ٱللَّهُ بِهِۦۚ وَلَيُبَيِّنَنَّ لَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 103
(92) तुम्हारी हालत उस औरत की-सी न हो जाए जिसने आप ही मेहनत से सूत काता और फिर आप ही उसे टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तुम अपनी क़समों को आपस के मामलात में मक्र व फ़रेब का हथियार बनाते हो ताकि एक क़ौम दूसरी क़ौम से बढ़कर फ़ायदे हासिल करे। हालाँकि अल्लाह इस अह्द व पैमान के ज़रिए से तुमको आज़माइश में डालता है, और ज़रूर वह क़ियामत के रोज़ तुम्हारे तमाम इख़्तिलाफ़ात की हक़ीक़त तुमपर खोल देगा।
لَا جَرَمَ أَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 104
(109) ज़रूर है कि आख़िरत में यही ख़सारे में रहें।32
32. यह इरशाद उन लोगों के बारे में है जिन्होंने ईमान की राह कठिन पाकर उससे तौबा कर ली थी और फिर अपनी काफ़िर व मुशरिक क़ौम में जा मिले थे।
ثُمَّ إِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِينَ هَاجَرُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا فُتِنُواْ ثُمَّ جَٰهَدُواْ وَصَبَرُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 105
(110) बख़िलाफ़ इसके जिन लोगों का हाल यह है कि जब (ईमान लाने की वजह से) वे सताए गए तो उन्होंने घर-बार छोड़ दिए, हिजरत की, राहे-ख़ुदा में सख़्तियाँ झेलीं और सब्र से काम लिया, उनके लिए यक़ीनन तेरा रब ग़फ़ूर व रहीम है।
۞يَوۡمَ تَأۡتِي كُلُّ نَفۡسٖ تُجَٰدِلُ عَن نَّفۡسِهَا وَتُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 106
(111) (इन सबका फ़ैसला उस दिन होगा) जबकि हर मुतनफ़्फ़िस अपने ही बचाव की फ़िक्र में लगा हुआ होगा और हर एक को उसके किए का बदला पूरा-पूरा दिया जाएगा और किसी पर ज़र्रा बराबर ज़ुल्म न होने पाएगा।
وَلَقَدۡ نَعۡلَمُ أَنَّهُمۡ يَقُولُونَ إِنَّمَا يُعَلِّمُهُۥ بَشَرٞۗ لِّسَانُ ٱلَّذِي يُلۡحِدُونَ إِلَيۡهِ أَعۡجَمِيّٞ وَهَٰذَا لِسَانٌ عَرَبِيّٞ مُّبِينٌ ۝ 107
(103) हमें मालूम है ये लोग तुम्हारे मुताल्लिक़ कहते हैं कि उस शख़्स को एक आदमी सिखाता-पढ़ाता है, हालाँकि उनका इशारा जिस आदमी की तरफ़ है उसकी ज़बान अजमी है और यह साफ़ अरबी ज़बान है।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا قَرۡيَةٗ كَانَتۡ ءَامِنَةٗ مُّطۡمَئِنَّةٗ يَأۡتِيهَا رِزۡقُهَا رَغَدٗا مِّن كُلِّ مَكَانٖ فَكَفَرَتۡ بِأَنۡعُمِ ٱللَّهِ فَأَذَٰقَهَا ٱللَّهُ لِبَاسَ ٱلۡجُوعِ وَٱلۡخَوۡفِ بِمَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 108
(112) अल्लाह एक बस्ती की मिसाल देता है। वह अमन व इत्मीनान की ज़िन्दगी बसर कर रही थी और हर तरफ़ से उसको बफ़राग़त रिज़्क़ पहुँच रहा था कि उसने अल्लाह की नेमतों का कुफ़रान शुरू कर दिया। तब अल्लाह ने उसके बाशिन्दों को उनके करतूतों का यह मज़ा चखाया कि भूख और ख़ौफ़ की मुसीबतें उनपर छा गईं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ لَا يَهۡدِيهِمُ ٱللَّهُ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 109
(104) हक़ीक़त यह है कि जो लोग अल्लाह की आयात को नहीं मानते अल्लाह कभी उनको सही बात तक पहुँचने की तौफ़ीक़ नहीं देता और ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
ثُمَّ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ أَنِ ٱتَّبِعۡ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 110
(123) फिर हमने तुम्हारी तरफ़ यह वह्य भेजी कि यकसू होकर इबराहीम के तरीक़े पर चलो और वह मुशरिकों में से न था।
وَلَقَدۡ جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مِّنۡهُمۡ فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَهُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 111
(113) उनके पास उनकी अपनी क़ौम में से एक रसूल आया। मगर उन्होंने उसको झुठला दिया। आख़िरकार अज़ाब ने उनको आ लिया जबकि वे ज़ालिम हो चुके थे।33
33. हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का क़ौल है कि यहाँ ख़ुद मक्का को नाम लिए बग़ैर मिसाल के तौर पर पेश किया गया है। इस तफ़सीर की रू से ख़ौफ़ और भूख की जिस मुसीबत के छा जाने का यहाँ ज़िक्र किया गया है उससे मुराद वह क़हत है जो नबी (सल्ल०) की बिअसत के बाद एक मुद्दत तक अहले-मक्का पर मुसल्लत रहा।
إِنَّمَا يَفۡتَرِي ٱلۡكَذِبَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ ۝ 112
(105) (झूठी बातें नबी नहीं गढ़ता, बल्कि) झूठ वे लोग गढ़ रहे हैं जो अल्लाह की आयात को नहीं मानते,30 वही हक़ीक़त में झूठे हैं।
30. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “झूठ तो वे लोग गढ़ा करते हैं जो अल्लाह की आयात पर ईमान नहीं लाते।”
إِنَّمَا جُعِلَ ٱلسَّبۡتُ عَلَى ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِۚ وَإِنَّ رَبَّكَ لَيَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 113
(124) रहा 'सब्त', तो वह हमने उन लोगों पर मुसल्लत किया जिन्होंने उसके अहकाम में इख़्तिलाफ़ किया, और यक़ीनन तेरा रब क़ियामत के रोज़ उन सब बातों का फ़ैसला कर देगा जिनमें वे इख़्तिलाफ़ करते रहे हैं।
فَكُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ حَلَٰلٗا طَيِّبٗا وَٱشۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ إِيَّاهُ تَعۡبُدُونَ ۝ 114
(114) पस (ऐ लोगो!) अल्लाह ने जो कुछ हलाल और पाक रिज़्क़ तुमको बख़्शा है उसे खाओ और अल्लाह के एहसान का शुक्र अदा करो अगर तुम कई उसी की बन्दगी करनेवाले हो।
مَن كَفَرَ بِٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ إِيمَٰنِهِۦٓ إِلَّا مَنۡ أُكۡرِهَ وَقَلۡبُهُۥ مُطۡمَئِنُّۢ بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَٰكِن مَّن شَرَحَ بِٱلۡكُفۡرِ صَدۡرٗا فَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 115
(106) जो शख़्स ईमान लाने के बाद कुफ़्र करे (वह अगर) मजबूर किया या हो और दिल उसका ईमान पर मुत्मइन हो (तब तो ख़ैर) मगर जिसने दिल की रज़ामन्दी से कुफ़्र को क़ुबूल कर लिया उसपर अल्लाह का ग़ज़ब है और ऐसे सब लोगों के लिए बड़ा अज़ाब है।31
31. यह आयत उन मुसलमानों के बारे में है जिनपर उस वक़्त सख़्त मज़ालिम तोड़े जा रहे थे और नाक़ाबिले-बरदाश्त अज़ीयतें दे-देकर कुफ़्र पर मजबूर किया जा रहा था। उनको बताया गया है कि अगर तुम किसी वक़्त ज़ुल्म से मजबूर होकर मह्ज़ जान बचाने के लिए कलिमा-ए-कुफ़्र ज़बान से अदा कर दो, और दिल तुम्हारा अक़ीदा-ए-कुफ़्र से महफ़ूज़ हो तो माफ़ कर दिया जाएगा। लेकिन अगर दिल से तुमने कुफ़्र क़ुबूल कर लिया तो दुनिया में चाहे जान बचा लो, ख़ुदा के अज़ाब से न बच सकोगे।
ٱدۡعُ إِلَىٰ سَبِيلِ رَبِّكَ بِٱلۡحِكۡمَةِ وَٱلۡمَوۡعِظَةِ ٱلۡحَسَنَةِۖ وَجَٰدِلۡهُم بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 116
(125) (ऐ नबी!) अपने रब के रास्ते की तरफ़ दावत दो हिकमत और उम्दा नसीहत के साथ, और लोगों से मुबाहसा करो ऐसे तरीक़े पर जो बेहतरीन हो। तुम्हारा रब ही ज़्यादा बेहतर जानता है कि कौन उसकी राह से भटका हुआ है और कौन राहे-रास्त पर है।
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ وَٱلدَّمَ وَلَحۡمَ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۖ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 117
(115) अल्लाह ने जो कुछ तुमपर हराम किया है वह है मुर्दार और ख़ून और सूअर का गोश्त और वह जानवर जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो। अलबत्ता भूख से और बेक़रार होकर अगर कोई इन चीज़ों को खा ले, बग़ैर इसके कि वह क़ानूने-इलाही की ख़िलाफ़वर्ज़ी का ख़ाहिशमन्द हो या हद्दे-ज़रूरत से तजावुज़ का मुर्तकिब हो, तो यक़ीनन अल्लाह माफ़ करने और रहम फ़रमानेवाला है।
وَإِنۡ عَاقَبۡتُمۡ فَعَاقِبُواْ بِمِثۡلِ مَا عُوقِبۡتُم بِهِۦۖ وَلَئِن صَبَرۡتُمۡ لَهُوَ خَيۡرٞ لِّلصَّٰبِرِينَ ۝ 118
(126) और अगर तुम लोग बदला लो तो बस उसी क़दर ले लो जिस क़दर तुमपर ज़्यादती की गई हो। लेकिन अगर तुम सब्र से काम लो तो यक़ीनन यह सब्र करनेवालों ही के हक़ में बेहतर है।
وَلَا تَقُولُواْ لِمَا تَصِفُ أَلۡسِنَتُكُمُ ٱلۡكَذِبَ هَٰذَا حَلَٰلٞ وَهَٰذَا حَرَامٞ لِّتَفۡتَرُواْ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ لَا يُفۡلِحُونَ ۝ 119
(116) और यह जो तुम्हारी ज़बानें झूठे अहकाम लगाया करती हैं। कि यह चीज़ हलाल है और वह हराम,34 तो इस तरह के हुक्म लगाकर अल्लाह पर झूठ न बाँधो। जो लोग अल्लाह पर झूठे इफ़तिरा बाँधते हैं वे हरगिज़ फ़लाह नहीं पाया करते।
وَٱصۡبِرۡ وَمَا صَبۡرُكَ إِلَّا بِٱللَّهِۚ وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَلَا تَكُ فِي ضَيۡقٖ مِّمَّا يَمۡكُرُونَ ۝ 120
(127) (ऐ नबी!) सब्र से काम किए जाओ — और तुम्हारा यह सब्र अल्लाह ही की तौफ़ीक़ से है — उन लोगों की हरकात पर रंज न करो और न उनकी चालबाज़ियों पर दिल तंग हो।
مَتَٰعٞ قَلِيلٞ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 121
(117) दुनिया का ऐश चंद रोज़ा है। आख़िरकार उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
34. यह आयत साफ़ तसरीह करती है कि ख़ुदा के सिवा तहलील व तहरीम का हक़ किसी को भी नहीं। दूसरा जो शख़्स भी जाइज़ और नाजाइज़ का फ़ैसला करने की जुरअत करेगा वह अपनी हद से तजावुज़ करेगा। इल्ला यह कि वह क़ानूने-इलाही को सनद मानकर उसके फ़रामीन से इस्तिम्बात करते हुए यह कहे कि फ़ुलाँ चीज़ या फ़ुलाँ फ़ेल जाइज़ है और फ़ुलाँ नाजाइज़। ख़ुदमुख़्ताराना तहलील व तहरीम को अल्लाह पर झूठ और इफ़तिरा इसलिए फ़रमाया गया कि जो शख़्स इस तरह के अहकाम लगाता है उसका ये फ़ेल दो हाल से ख़ाली नहीं हो सकता। या वह इस बात का दावा करता है कि जिसे वह किताबे-इलाही की सनद से बेनियाज़ होकर जाइज़ या नाजाइज़ कह रहा है उसे ख़ुदा ने जाइज़ या नाजाइज़ ठहराया है, या उसका दावा यह है कि अल्लाह ने तहलील व तहरीम के इख़्तियारात से दस्तबरदार होकर इनसान को ख़ुद अपनी मर्ज़ी का क़ानून बना लेने के लिए आज़ाद छोड़ दिया है। उनमें से जो दावा भी वह करे वह लामुहाला झूठ और अल्लाह पर इफ़तिरा है।
إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَواْ وَّٱلَّذِينَ هُم مُّحۡسِنُونَ ۝ 122
(128) अल्लाह उन लोगों के साथ है जो तक़वा से काम लेते हैं और एहसान पर अमल करते हैं।
وَعَلَى ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا مَا قَصَصۡنَا عَلَيۡكَ مِن قَبۡلُۖ وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 123
(118) वे चीज़ें हमने ख़ास तौर पर यहूदियों के लिए हराम की थीं जिनका ज़िक्र इससे पहले हम तुमसे कर चुके हैं और यह उनपर हमारा ज़ुल्म न था, बल्कि उनका अपना ही ज़ुल्म था जो वे अपने ऊपर कर रहे थे।
ثُمَّ إِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِينَ عَمِلُواْ ٱلسُّوٓءَ بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 124
(119) अलबत्ता जिन लोगों ने जहालत की बिना पर बुरा अमल किया और फिर तौबा करके अपने अमल की इसलाह कर ली तो यक़ीनन तौबा व इसलाह के बाद तेरा रब उनके लिए ग़फ़ूर और रहीम है।
إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ كَانَ أُمَّةٗ قَانِتٗا لِّلَّهِ حَنِيفٗا وَلَمۡ يَكُ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 125
(120) वाक़िआ यह है कि इबराहीम अपनी ज़ात से एक पूरी उम्मत था, अल्लाह का मुतीए-फ़रमान और यकसू। वह कभी मुशरिक न था।
شَاكِرٗا لِّأَنۡعُمِهِۚ ٱجۡتَبَىٰهُ وَهَدَىٰهُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 126
(121) अल्लाह की नेमतों का शुक्र अदा करनेवाला था। अल्लाह ने उसको मुन्तख़ब कर लिया और सीधा रास्ता दिखाया।
وَءَاتَيۡنَٰهُ فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗۖ وَإِنَّهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ لَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 127
(122) दुनिया में उसको भलाई दी और आख़िरत में वह यक़ीनन सॉलिहीन में से होगा।