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قَدۡ كَانَتۡ لَكُمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ إِذۡ قَالُواْ لِقَوۡمِهِمۡ إِنَّا بُرَءَٰٓؤُاْ مِنكُمۡ وَمِمَّا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ كَفَرۡنَا بِكُمۡ وَبَدَا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةُ وَٱلۡبَغۡضَآءُ أَبَدًا حَتَّىٰ تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَحۡدَهُۥٓ إِلَّا قَوۡلَ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ لَأَسۡتَغۡفِرَنَّ لَكَ وَمَآ أَمۡلِكُ لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۖ رَّبَّنَا عَلَيۡكَ تَوَكَّلۡنَا وَإِلَيۡكَ أَنَبۡنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ

60. अल-मुम्तहिना

(मदीना में उतरी, आयतें 13)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 10 में आदेश दिया गया है कि ‘जो औरतें हिजरत करके आएँ और मुसलमान होने का दावा करें उनकी परीक्षा ली जाए।’ इसी संदर्भ में इसका नाम 'अल-मुस्तहिना' रखा गया है। इसका उच्चारण मुम्तहना भी किया जाता है और मुम्तहिना भी। पहले उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "वह औरत जिसकी परीक्षा ली जाए" और दूसरे उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "परीक्षा लेनेवाली सूरा।"

उतरने का समय

इसमें दो ऐसे मामलों पर वार्ता की गई है जिनका समय ऐतिहासिक रूप से मालूम है। पहला मामला हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तअह (रज़ि०) का है और दूसरा मामला उन मुसलमान औरतों का है जो हुदैबिया के समझौते के बाद मक्का से हिजरत करके मदीना आने लगी थीं। इन दो मामलों के उल्लेख से [जिनका विस्तृत विवरण आगे आ रहा है] यह बात बिलकुल निश्चित हो जाती है कि यह सूरा हुदैबिया के समझौते और मक्का-विजय के मध्य उतरी है।

विषय और वार्ता

इस सूरा के तीन भाग हैं : पहला भाग सूरा के आरंभ से आयत 9 तक चलता है और सूरा के अन्त पर आयत 13 भी इसी से ताल्लुक रखती है। इसमें हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ (रज़ि०) के इस कर्म पर कड़ी पकड़ की गई है कि उन्होंने केवल अपने परिवार के लोगों को बचाने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के एक अति महत्त्वपूर्ण युद्ध-सम्बन्धी रहस्य से शत्रुओं को अवगत कराने की कोशिश की थी, जिसे अगर समय रहते विफल नहीं कर दिया गया होता तो मक्का-विजय के अवसर पर बड़ा ख़ून-ख़राबा होता और वे तमाम फ़ायदे भी हासिल न हो सकते जो मक्का पर शान्तिमय ढंग से विजय प्राप्त करने के रूप में प्राप्त हो सकते थे। [हज़रत हातिब (रज़ि०) की] इस भयानक ग़लती पर सचेत करते हुए अल्लाह ने तमाम ईमानवालों को यह शिक्षा दी है कि किसी ईमानवाले को किसी हाल में और किसी उद्देश्य के लिए भी इस्लाम के दुश्मन के साथ प्रेम और मित्रता का सम्बन्ध न रखना चाहिए और कोई ऐसा काम न करना चाहिए जो कुफ़्र और इस्लाम के संघर्ष में शत्रुओं के लिए लाभप्रद हो। अलबत्ता जो काफ़िर इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध व्यावहारिक रूप से शत्रुता और पीड़ा पहुँचाने का काम न कर रहे हों, उनके साथ सद्व्यवहार की नीति अपनाने में कोई दोष नहीं है। दूसरा भाग आयत 10-11 पर आधारित है। इसमें एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या का समाधान किया गया है जो उस समय बड़ी पेचीदगी पैदा कर रही थी। मक्का में बहुत-सी मुसलमान औरतें ऐसी थीं, जिनके पति अधर्मी थे और वे किसी न किसी प्रकार हिजरत करके मदीना पहुँच जाती थीं। इसी तरह मदीना में बहुत-से मुसलमान मर्द ऐसे थे जिनकी पत्‍नियाँ अधर्मी थीं और वे मक्का ही में रह गई थीं। उनके बारे में यह प्रश्न पैदा होता था कि उनके बीच दाम्पत्य सम्बन्ध बाक़ी है या नहीं। अल्लाह ने इसका हमेशा के लिए यह निर्णय कर दिया कि मुसलमान औरत के लिए अधर्मी पति हलाल (वैध) नहीं है और मुसलमान मर्द के लिए यह वैध नहीं कि वह मुशरिक (बहुदाववादी) पत्‍नी के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध बनाए रखे। तीसरा भाग आयत 12 पर आधारित है, जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि जो औरतें इस्लाम अपना लें, उनसे आप बड़ी-बड़ी बुराइयों से बचने का और भलाई के तमाम तरीक़ों के अनुसरण का [वचन लें।]

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قَدۡ كَانَتۡ لَكُمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ إِذۡ قَالُواْ لِقَوۡمِهِمۡ إِنَّا بُرَءَٰٓؤُاْ مِنكُمۡ وَمِمَّا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ كَفَرۡنَا بِكُمۡ وَبَدَا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةُ وَٱلۡبَغۡضَآءُ أَبَدًا حَتَّىٰ تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَحۡدَهُۥٓ إِلَّا قَوۡلَ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ لَأَسۡتَغۡفِرَنَّ لَكَ وَمَآ أَمۡلِكُ لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۖ رَّبَّنَا عَلَيۡكَ تَوَكَّلۡنَا وَإِلَيۡكَ أَنَبۡنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 1
(4) तुम लोगों के लिए इबराहीम और उसके साथियों में एक अच्छा नमूना है कि उन्होंने अपनी क़ौम से साफ़ कह दिया, “हम तुमसे और तुम्हारे उन माबूदों से, जिनको तुम ख़ुदा को छोड़कर पूजते हो, क़तई बेज़ार हैं, हमने तुमसे कुफ़्र किया4 और हमारे और तुम्हारे दरमियान हमेशा के लिए अदावत हो गई और बैर पड़ गया जब तक तुम अल्लाह वाहिद पर ईमान न लाओ।” मगर इबराहीम का अपने बाप से यह कहना (इससे मुस्तसना है) कि मैं आपके लिए मग़फ़िरत की दरख़ास्त ज़रूर करूँगा, और अल्लाह से आप लिए कुछ हासिल कर लेना मेरे बस में नहीं है।”5 (और इबराहीम व असहाबे-इबराहीम की दुआ यह थी कि) “ऐ हमारे रब! तेरे ही ऊपर हमने भरोसा किया और तेरी ही तरफ़ हमने रुजूअ कर लिया और तेरे ही हुज़ूर हमें पलटना है।
4. यानी हम तुम्हारे काफ़िर है, न तुम्हें हक़ पर मानते हैं न तुम्हारे दीन को।
5. दूसरे अलफ़ाज़ में इसका मतलब यह है कि तुम्हारे लिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यह बात तो क़ाबिले-तक़लीद है कि उन्होंने अपनी काफ़िर व मुशरिक क़ौम से साफ़-साफ़ बेज़ारी और क़तए-ताल्लुक़ का एलान कर दिया, मगर उनकी यह बात तक़लीद के क़ाबिल नहीं है कि उन्होंने अपने मुशरिक बाप के लिए मग़फ़िरत की दुआ करने का वादा किया और अमलन उसके हक़ में दुआ की।
رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ وَٱغۡفِرۡ لَنَا رَبَّنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 2
(5) ऐ हमारे रब! हमें काफ़िरों के लिए फ़ितना न बना दे।6 और ऐ हमारे रब! हमारे क़ुसूरों से दरगुज़र फ़रमा, बेशक तू ही ज़बरदस्त और दाना है।”
6. काफ़िरों के लिए अहले-ईमान के फ़ितना बनने की बहुत-सी सूरतें हो सकती हैं। मसलन यह कि काफ़िर उनपर ग़ालिब आ जाएँ और अपने ग़लबे को इस बात की दलील क़रार दें कि हम हक़ पर हैं और अहले-ईमान बरसरे-बातिल या यह कि अहले-ईमान पर काफ़िरों का ज़ुल्म व सितम उनकी हद्दे-बरदाश्त से बढ़ जाए और आख़िरकार वे उनसे दबकर अपने दीन व अख़लाक़ का सौदा करने पर उतर आएँ। या यह कि दीने-हक़ की नुमाइन्दगी के मक़ामे-बलन्द पर फ़ाइज़ होने के बावजूद अहले-ईमान उस अख़लाक़ी फ़ज़ीलत से महरूम हों जो इस मक़ाम के शायाने-शान है, और दुनिया को उनकी सीरत व किरदार में भी वही उयूब नज़र आएँ जो जाहिलियत के मुआशरे में आम तौर पर फैले हुए हों। इससे काफ़िरों को यह कहने का मौक़ा मिलेगा कि इस दीन में आख़िर वह क्या ख़ूबी है जो इसे हमारे कुफ़्र पर शरफ़ अता करती हो?
لَقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِيهِمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَۚ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 3
(6) उन्हीं लोगों के तर्ज़े-अमल में तुम्हारे लिए और हर उस शख़्स के लिए अच्छा नमूना है जो अल्लाह और रोज़े-आख़िर का उम्मीदवार हो। इससे कोई मुनहरिफ़ हो तो अल्लाह बेनियाज़ और अपनी ज़ात में आप महमूद है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا جَآءَكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ مُهَٰجِرَٰتٖ فَٱمۡتَحِنُوهُنَّۖ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِهِنَّۖ فَإِنۡ عَلِمۡتُمُوهُنَّ مُؤۡمِنَٰتٖ فَلَا تَرۡجِعُوهُنَّ إِلَى ٱلۡكُفَّارِۖ لَا هُنَّ حِلّٞ لَّهُمۡ وَلَا هُمۡ يَحِلُّونَ لَهُنَّۖ وَءَاتُوهُم مَّآ أَنفَقُواْۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ أَن تَنكِحُوهُنَّ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّۚ وَلَا تُمۡسِكُواْ بِعِصَمِ ٱلۡكَوَافِرِ وَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقۡتُمۡ وَلۡيَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقُواْۚ ذَٰلِكُمۡ حُكۡمُ ٱللَّهِ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡۖ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 4
(10) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब मोमिन औरतें हिजरत करके तुम्हारे पास आएँ तो (उनके मोमिन होने की) जाँच-पड़ताल कर लो, और उनके ईमान की हक़ीक़त तो अल्लाह ही बेहतर जानता है। फिर जब तुम्हें मालूम हो जाए कि वे मोमिन हैं तो उन्हें कुफ़्फ़ार की तरफ़ वापस न करो।9 न वे कुफ़्फ़ार के लिए हलाल हैं न कुफ़्फ़ार उनके लिए हलाल। उनके काफ़िर शौहरों ने जो मह्‍र उनको दिए थे वे उन्हें फेर दो। और उनसे निकाह कर लेने में तुम पर कोई गुनाह नहीं जबकि तुम उनके मह्‍र उनको अदा कर दो।10 और तुम ख़ुद भी काफ़िर औरतों को अपने निकाह में न रोके रहो। जो मह्‍र तुमने अपनी काफ़िर बीवियों को दिए थे वे तुम वापस माँग लो और जो मह्‍र काफ़िरों ने अपनी मुसलमान बीवियों को दिए थे उन्हें वे वापस माँग लें। यह अल्लाह का हुक्म है, वह तुम्हारे दरमियान फ़ैसला करता है और वह अलीम व हकीम है।
9. सुलहे हुदैबिया के बाद अव्वल-अव्वल तो मुसलमान मर्द मक्का से भाग-भागकर मदीना आते रहे और उन्हें मुआहदे की शराइत के मुताबिक़ वापस किया जाता रहा। फिर मुसलमान औरतों के आने का सिलसिला शुरू हो गया और कुफ़्फ़ार ने मुआहदे का हवाला देकर उनकी वापसी का भी मुतालबा किया। इसपर यह सवाल पैदा हुआ कि क्या हुदैबिया के मुआहदे का इतलाक़ औरतों पर भी होता है? अल्लाह तआला ने इसी सवाल का यहाँ जवाब दिया है कि अगर वे मुसलमान हों और यह इत्मीनान कर लिया जाए कि वाक़ई वे ईमान ही की ख़ातिर हिजरत करके आई हैं, कोई और चीज़ उन्हें नहीं लाई है, तो उन्हें वापस न किया जाए। यह हुक्म इस बिना पर दिया गया कि मुआहदे की जो शराइत लिखी गई थी उनमें 'रजुलुन' (मर्द) का लफ़्ज़ लिखा गया था जैसा कि बुख़ारी की रिवायत में आया है।
10. मतलब यह है कि उनके काफ़िर शौहरों को उनके जो मह्‍र वापस किए जाएँगे वही इन औरतों के मह्‍र शुमार न होंगे, बल्कि अब जो मुसलमान भी उनमें से किसी औरत से निकाह करना चाहे वह उसका मह्‍र अदा करे और उससे निकाह कर ले।
۞عَسَى ٱللَّهُ أَن يَجۡعَلَ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَ ٱلَّذِينَ عَادَيۡتُم مِّنۡهُم مَّوَدَّةٗۚ وَٱللَّهُ قَدِيرٞۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 5
(7) बईद नहीं कि अल्लाह कभी तुम्हारे और उन लोगों के दरमियान महब्बत डाल दे जिनसे आज तुमने दुश्मनी मोल ली है।7 अल्लाह बड़ी क़ुदरत रखता है और वह ग़फ़ूर व रहीम है।
7. ऊपर की आयात में मुसलमानों को अपने काफ़िर रिश्तेदारों से क़तए-ताल्लुक़ की तलक़ीन करने के बाद यह उम्मीद भी दिलाई गई है कि ऐसा वक़्त भी आ सकता है जब तुम्हारे यही रिश्तेदार मुसलमान हो जाएँ और आज की दुश्मनी कल फिर महब्बत में तब्दील हो जाए।
لَّا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَلَمۡ يُخۡرِجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ أَن تَبَرُّوهُمۡ وَتُقۡسِطُوٓاْ إِلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 6
(8) अल्लाह तुम्हें इस बात से नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ नेकी और इनसाफ़ का बरताव करो जिन्होंने दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की है। और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला है। अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।8
8. मतलब यह है कि जो शख़्स तुम्हारे साथ अदावत नहीं बरतता, इनसाफ़ का तकाज़ा यह है कि तुम भी उसके साथ अदावत न बरतो। दुश्मन और ग़ैर-दुश्मन को एक दरजे में रखना और दोनों से एक ही-सा सुलूक करना इनसाफ़ नहीं है। तुम्हें उन लोगों के साथ सख़्त रवैया इख़्तियार करने का हक़ है जिन्होंने ईमान लाने की पादाश में तुमपर ज़ुल्म तोड़े, और तुमको वतन से निकल जाने पर मजबूर किया, और निकालने के बाद भी तुम्हारा पीछा न छोड़ा। मगर जिन लोगों ने इस ज़ुल्म में कोई हिस्सा नहीं लिया, इनसाफ़ यह है कि तुम उनके साथ अच्छा बरताव करो और रिश्ते और बरादरी के लिहाज़ से उनके जो हुकूक़ तुमपर आइद होते हैं। उन्हें अदा करने में कमी न करो।
وَإِن فَاتَكُمۡ شَيۡءٞ مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُمۡ إِلَى ٱلۡكُفَّارِ فَعَاقَبۡتُمۡ فَـَٔاتُواْ ٱلَّذِينَ ذَهَبَتۡ أَزۡوَٰجُهُم مِّثۡلَ مَآ أَنفَقُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 7
(11) और अगर तुम्हारी काफ़िर बीवियों के मह्‍रों में से कुछ तुम्हें कुफ़्फ़ार से वापस न मिले और फिर तुम्हारी नौबत आए तो जिन लोगों की बीवियाँ उधर रह गई हैं उनको उतनी रक़म अदा कर दो जो उनके दिए हुए मह्‍रों के बराबर हो। और उस ख़ुदा से डरते रहो जिसपर तुम ईमान लाए हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ يُبَايِعۡنَكَ عَلَىٰٓ أَن لَّا يُشۡرِكۡنَ بِٱللَّهِ شَيۡـٔٗا وَلَا يَسۡرِقۡنَ وَلَا يَزۡنِينَ وَلَا يَقۡتُلۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ وَلَا يَأۡتِينَ بِبُهۡتَٰنٖ يَفۡتَرِينَهُۥ بَيۡنَ أَيۡدِيهِنَّ وَأَرۡجُلِهِنَّ وَلَا يَعۡصِينَكَ فِي مَعۡرُوفٖ فَبَايِعۡهُنَّ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُنَّ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 8
(12) ऐ नबी! जब तुम्हारे पास मोमिन औरतें बैअत करने के लिए आएँ11 और इस बात का अह्द करें कि वे अल्लाह के साथ किसी चीज़ को शरीक न करेंगी, चोरी न करेंगी, ज़िना न करेंगी, अपनी औलाद को क़त्ल न करेंगी, अपने हाथ-पाँव के आगे कोई बुहतान पड़कर न लाएँगी,12 और किसी अम्रे-मारूफ़ में तुम्हारी नाफ़रमानी न करेंगी,13 तो उनसे बैअत ले लो और उनके हक़ अल्लाह से में दुआ-ए-मग़फ़िरत करो, यक़ीनन अल्लाह दरगुज़ार फ़रमानेवाला और रह्म करनेवाला है।
11. यह आयत फ़त्‌हे-मक्का से कुछ पहले नाज़िल हुई थी। इसके बाद जब मक्का फ़त्‌ह हुआ तो कुरैश के लोग जौक़-दर-जौक़ हुज़ूर (सल्ल०) से बैअत करने के लिए हाज़िर होने लगे। आप (सल्ल०) ने मर्दों से कोहे-सफ़ा पर ख़ुद बैअत ली और हज़रत उमर (रज़ि०) को अपनी तरफ़ से मामूर फ़रमाया कि वे औरतों से बैअत लें और उन बातों का इक़रार कराएँ जो इस आयत में बयान हुई हैं। फिर मदीना वापस तशरीफ़ ले जाकर आप (सल्ल०) ने एक मकान में अनसार की ख़वातीन को जमा करने का हुक्म दिया और हज़रत उमर (रज़ि०) को उनसे बैअत लेने के लिए भेजा।
12. इससे दो क़िस्म के बुहतान मुराद हैं। एक वह कि कोई औरत दूसरी औरतों पर और मर्दों से आशनाई की तोहमत लगाए और इस तरह के क़िस्से लोगों में फैलाए। दूसरा यह कि एक औरत बच्चा तो किसी का जने और शौहर को यक़ीन दिलाए कि यह तेरा ही है।
13. इस मुख़्तसर से फ़िक़रे में दो बड़े अहम क़ानूनी निकात बयान किए गए हैं। एक यह कि नबी (सल्ल०) की इताअत पर भी भलाई में इताअत की क़ैद लगाई गई है, हलाँकि हुज़ूर (सल्ल०) के बारे में इस अम्र के किसी अदना शुब्हे की गुंजाइश भी न थी कि आप (सल्ल०) कभी बुराई का हुक्म भी दे सकते हैं। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात वाज़ेह हो गई कि दुनिया में किसी मख़लूक़ की इताअत क़ानूने-ख़ुदावन्दी के हुदूद से बाहर जाकर नहीं की जा सकती। क्योंकि जब ख़ुदा के रसूल (सल्ल०) तक की इताअत मारूफ़ की शर्त से मशरूत है, तो फिर किसी दूसरे का यह मक़ाम कहाँ हो सकता है कि उसे ग़ैर-मशरूत इताअत का हक़ पहुँचे और उसके किसी ऐसे हुक्म या क़ानून या ज़ाबिते और रस्म की पैरवी की जाए जो क़ानूने-ख़ुदावन्दी के ख़िलाफ़ हो। दूसरी बात जो आईनी हैसियत से बड़ी अहमियत रखती है यह है कि इस आयत में पाँच मनफ़ी अहकाम देने के बाद मुसबत हुक्म सिर्फ़ एक ही दिया गया है और वह यह कि तमाम नेक कामों में नबी (सल्ल०) के अहकाम की इताअत की जाएगी। जहाँ तक बुराइयों का ताल्लुक़ है, वे बड़ी-बड़ी बुराइयाँ गिना दी गईं जिनमें ज़माना-ए-जाहिलियत की औरतें मुब्तला थीं और उनसे बाज़ रहने का अह्द ले लिया गया, मगर जहाँ तक भलाइयों का ताल्लुक़ है, उनकी कोई फ़ेहरिस्त देकर अह्द नहीं लिया गया कि तुम फुलाँ-फुलाँ आमाल करोगी, बल्कि सिर्फ़ यह अह्द लिया गया कि जिस नेक काम का भी हुज़ूर (सल्ल०) हुक्म देंगे उसकी पैरवी तुम्हें करनी होगी।
إِنَّمَا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ قَٰتَلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَأَخۡرَجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ وَظَٰهَرُواْ عَلَىٰٓ إِخۡرَاجِكُمۡ أَن تَوَلَّوۡهُمۡۚ وَمَن يَتَوَلَّهُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 9
(9) वह तुम्हें जिस बात से रोकता है वह तो यह है कि तुम उन लोगों से दोस्ती करो जिन्होंने तुम से दीन के मामले में जंग की है और तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला है और तुम्हारे इख़राज में एक-दूसरे की मदद की है। उनसे जो लोग दोस्ती करें वही ज़ालिम हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَوَلَّوۡاْ قَوۡمًا غَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ قَدۡ يَئِسُواْ مِنَ ٱلۡأٓخِرَةِ كَمَا يَئِسَ ٱلۡكُفَّارُ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡقُبُورِ ۝ 10
(13) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! उन लोगों को दोस्त न बनाओ जिनपर अल्लाह ने ग़ज़ब फ़रमाया है, जो आख़िरत से उसी तरह मायूस हैं जिस तरह कब्रों में पड़े हुए काफ़िर मायूस हैं।
سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ
60. अल-मुम्तहना
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمۡ أَوۡلِيَآءَ تُلۡقُونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَقَدۡ كَفَرُواْ بِمَا جَآءَكُم مِّنَ ٱلۡحَقِّ يُخۡرِجُونَ ٱلرَّسُولَ وَإِيَّاكُمۡ أَن تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ رَبِّكُمۡ إِن كُنتُمۡ خَرَجۡتُمۡ جِهَٰدٗا فِي سَبِيلِي وَٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِيۚ تُسِرُّونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَأَنَا۠ أَعۡلَمُ بِمَآ أَخۡفَيۡتُمۡ وَمَآ أَعۡلَنتُمۡۚ وَمَن يَفۡعَلۡهُ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ
(1) ऐ लोगो,1 जो ईमान लाए हो! अगर तुम मेरी राह में जिहाद करने के लिए और मेरी रज़ाजूई की ख़ातिर (वतन छोड़कर घरों से) निकले हो तो मेरे और अपने दुश्मनों को दोस्त न बनाओ। तुम उनके साथ दोस्ती की तरह डालते हो, हालाँकि जो हक़ तुम्हारे पास आया है उसको मानने से वे इनकार कर चुके हैं और उनकी रविश यह है कि रसूल को और ख़ुद तुमको सिर्फ़ इस क़ुसूर पर जलावतन करते हैं कि तुम अपने रब, अल्लाह पर ईमान लाए हो। तुम छिपाकर उनको दोस्ताना पैग़ाम भेजते हो, हालाँकि जो कुछ तुम छिपाकर करते हो और जो अलानिया करते हो, हर चीज़ को मैं ख़ूब जानता हूँ। जो शख़्स भी तुममें से ऐसा करे वह यक़ीनन राहे-रास्त से भटक गया।
1. मुफ़स्सिरीन का इस बात पर इत्तिफ़ाक़ है कि इन आयात का नुज़ूल उस वक़्त हुआ था जब मुशरिकीने-मक्का के नाम हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ (रज़ि०) का ख़त पकड़ा गया था जिसमें उन्होंने क़ब्ल अज़-वक़्त दुश्मनों को मुत्तला कर दिया था कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) मक्का पर चढ़ाई करनेवाले हैं।
إِن يَثۡقَفُوكُمۡ يَكُونُواْ لَكُمۡ أَعۡدَآءٗ وَيَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ وَأَلۡسِنَتَهُم بِٱلسُّوٓءِ وَوَدُّواْ لَوۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 11
(2) उनका रवैया तो यह है कि अगर तुमपर क़ाबू पा जाएँ तो तुम्हारे साथ दुश्मनी करें और हाथ और ज़बान से तुम्हें आज़ार दें। वे तो यह चाहते हैं कि तुम किसी तरह काफ़िर हो जाओ।
لَن تَنفَعَكُمۡ أَرۡحَامُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُمۡۚ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَفۡصِلُ بَيۡنَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 12
(3) क़ियामत के दिन न तुम्हारी रिश्तेदारियाँ किसी काम आएँगी न तुम्हारी औलाद।2 उस रोज़ अल्लाह तुम्हारे दरमियान जुदाई डाल देगा,3 और वही तुम्हारे आमाल का देखनेवाला है।
2. चूँकि हज़रत हातिब (रज़ि०) ने यह काम इसलिए किया था कि मक्का में उनके जो अहलो-अयाल हैं वे जंग के मौक़े पर महफ़ूज़ रहें। इसलिए फ़रमाया कि जिस आल-औलाद की ख़ातिर तुमने यह काम किया है वह आख़िरत में काम आनेवाली नहीं है।
3. यानी दुनिया के तमाम रिश्ते, ताल्लुक़ात और राबिते वहाँ तोड़ दिए जाएँगे। हर शख़्स अपनी ज़ाती हैसियत में पेश होगा और हर एक को अपना ही हिसाब देना पड़ेगा। इसलिए दुनिया में किसी शख़्स को भी किसी क़राबत या दोस्ती या जत्थेबन्दी की ख़ातिर कोई नाजाइज़ काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपने किए की सज़ा उसको ख़ुद ही भुगतनी होगी, उसकी ज़ाती ज़िम्मेदारी में कोई दूसरा शरीक न होगा।