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إِنۡ أَحۡسَنتُمۡ أَحۡسَنتُمۡ لِأَنفُسِكُمۡۖ وَإِنۡ أَسَأۡتُمۡ فَلَهَاۚ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ ٱلۡأٓخِرَةِ لِيَسُـُٔواْ وُجُوهَكُمۡ وَلِيَدۡخُلُواْ ٱلۡمَسۡجِدَ كَمَا دَخَلُوهُ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَلِيُتَبِّرُواْ مَا عَلَوۡاْ تَتۡبِيرًا

17. बनी-इसराईल

(मक्का में उतरी-आयतें 111)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 4 के वाक्य “व क़ज़ैना इला बनी इसराई-ल फ़िल-किताब” से लिया गया है। यह नाम भी अधिकतर क़ुरआनी सूरतों की तरह केवल निशानी के रूप में रखा गया है।

उतरने का समय

पहली ही आयत इस बात की निशानदेही कर देती है कि यह सूरा मेराज के मौक़े पर अर्थात् मक्की दौर के अन्तिम काल में उतरी थी। मेराज की घटना हदीस और सीरत (नबी सल्ल० को जीवन-चर्या) की अधिकतर रिवायतों के अनुसार हिजरत से एक साल पहले घटित हुई थी।

पृष्ठभूमि

उस समय नबी (सल्ल०) को तौहीद (एकेश्वरवाद) की आवाज़ बुलन्द करते हुए 12 साल बीत चुके थे। विरोधियों की डाली तमाम रुकावटों के बावजूद आपकी आवाज़ अरब के कोने-कोने में पहुँच गई थी। अब वह समय क़रीब आ गया था जब आप (सल्ल०) को मक्का से मदीना की ओर चले जाने और बिखरे मुसलमानों को समेटकर इस्लामी सिद्धातों पर एक राज्य स्थापित कर देने का अवसर मिलनेवाला था - इन हालात में मेराज पेश आई और वापसी पर यह सन्देश नबी (सल्ल०) ने दुनिया को सुनाया।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में चेतावनी, समझाना-बुझाना और शिक्षा, तीनों को एक संतुलित शैली में इकट्ठा कर दिया गया है।

चेतावनी मक्का के विधर्मियों को दी गई है कि बनी-इसराईल और दूसरी कौमों के अंजाम से सबक़ लो और इस दावत को स्वीकार कर लो, वरना मिटा दिए जाओगे। साथ ही बनी-इसराईल को भी जिन्हें हिजरत के बाद बहुत जल्द वह्य द्वारा सम्बोधित किया जानेवाला था, यह चेतावनी दी गई है कि पहले जो सज़ाएँ तुम्हें मिल चुकी हैं उनसे शिक्षा लो और अब जो अवसर मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने से तुम्हें मिल रहा है उससे फ़ायदा उठाओ। यह अन्तिम अवसर भी अगर तुमने खो दिया तो दर्दनाक अंजाम से दो-चार होगे।

समझाने-बुझाने के अंदाज़ में बड़े दिलनशीं तरीक़े से बताया गया है कि इंसान के सौभाग्य एवं दुर्भाग्य और सफलता एवं विफलता की निर्भरता वास्तव में किन चीज़ों पर है। तौहीद, आख़िरत, नुबूवत और क़ुरआन के सत्य पर होने के प्रमाण दिए गए हैं, उन सन्देहों को दूर किया गया है जो इन बुनियादी सच्चाइयों के बारे में मक्का के इस्लाम-विरोधियों की ओर से पेश किए जाते थे।

शिक्षा के पहलू में नैतिकता एवं सभ्यता के वे बड़े-बड़े उसूल बयान किए गए हैं जिनपर जीवन की व्यवस्था को स्थापित करना हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की दावत (अह्वान) के समक्ष था। यह मानो इस्लामी घोषणा-पत्र था जो इस्लामी राज्य की स्थापना से एक साल पहले अरबवालों के सामने प्रस्तुत किया गया था।

इन सब बातों के साथ नबी (सल्ल०) को निरदेश दिया गया है कि कठिनाइयों के इस तूफ़ान में दृढ़ता के साथ अपनी नीति पर जमे रहें और कुफ़्र (अथर्म) के साथ समझौते का ख़याल तक न लाएँ। साथ ही मुसलमानों को बताया गया है कि पूरे धैर्य और शान्ति के साथ परिस्थितियों का मुक़ाबला करते रहें और प्रचार तथा सुधार के काम में अपनी भावनाओं पर क़ाबू रखें। इस सिलसिले में आत्म-सुधार और उसे शुद्ध बनाने के लिए उनको नमाज़ का नुस्ख़ा बताया गया है। रिवायतों से मालूम होता है कि यह पहला मौक़ा है जब पाँच वक़्त की नमाज़ समय की पाबंदी के साथ मुसलमानों पर फ़र्ज़ की गई।

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إِنۡ أَحۡسَنتُمۡ أَحۡسَنتُمۡ لِأَنفُسِكُمۡۖ وَإِنۡ أَسَأۡتُمۡ فَلَهَاۚ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ ٱلۡأٓخِرَةِ لِيَسُـُٔواْ وُجُوهَكُمۡ وَلِيَدۡخُلُواْ ٱلۡمَسۡجِدَ كَمَا دَخَلُوهُ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَلِيُتَبِّرُواْ مَا عَلَوۡاْ تَتۡبِيرًا ۝ 1
(7) देखो! तुमने भलाई की तो वह तुम्हारे अपने ही लिए भलाई थी, और बुराई की तो वह तुम्हारे अपनी ज़ात के लिए बुराई साबित हुई। फिर जब दूसरे वादे का वक़्त आया तो हमने दूसरे दुश्मनों को तुमपर मुसल्लत किया ताकि वे तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दें और मस्जिद (बैतुल-मक़दिस) में उसी तरह घुस जाएँ जिस तरह पहले दुश्मन घुसे थे और जिस चीज़ पर उनका हाथ पड़े उसे तबाह करके रख दें।5
5. इससे मुराद रूमी हैं जिन्होंने बैतुल-मक़दिस को बिलकुल तबाह कर दिया, बनी-इसराईल को मार-मारकर फ़िलस्तीन से निकाल दिया और इसके बाद आज दो हज़ार साल से वे दुनिया भर में परागन्दा व मुन्तशिर हैं।
عَسَىٰ رَبُّكُمۡ أَن يَرۡحَمَكُمۡۚ وَإِنۡ عُدتُّمۡ عُدۡنَاۚ وَجَعَلۡنَا جَهَنَّمَ لِلۡكَٰفِرِينَ حَصِيرًا ۝ 2
(8) हो सकता है कि अब तुम्हारा रब तुमपर रह्म करे, लेकिन अगर तुमने फिर अपनी साबिक़ रविश का इआदा किया तो हम भी फिर अपनी सज़ा का इआदा करेंगे, और काफ़िरे-नेमत लोगों के लिए हमने जहन्नम को क़ैदखाना बना रखा है।
سُورَةُ الإِسۡرَاءِ
17. बनी-इसराईल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
إِنَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ يَهۡدِي لِلَّتِي هِيَ أَقۡوَمُ وَيُبَشِّرُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ أَجۡرٗا كَبِيرٗا ۝ 3
(9) हक़ीक़त यह है कि यह क़ुरआन वह राह दिखाता है जो बिलकुल सीधी है। जो लोग इसे मानकर भले काम करने लगें उन्हें यह बशारत देता है कि उनके लिए बड़ा अज्र है
سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِيٓ أَسۡرَىٰ بِعَبۡدِهِۦ لَيۡلٗا مِّنَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ إِلَى ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡأَقۡصَا ٱلَّذِي بَٰرَكۡنَا حَوۡلَهُۥ لِنُرِيَهُۥ مِنۡ ءَايَٰتِنَآۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ
(1) पाक है वह जो ले गया एक रात अपने बन्दे को मस्जिदे-हराम से दूर की इस मस्जिद तक जिसके माहौल को उसने बरकत दी है ताकि उसे अपनी कुछ निशानियों का मुशाहदा कराए।1 हक़ीक़त में वही है सब कुछ सुनने और देखनेवाला।
1.  यह वाक़िआ वही है जो इस्तिलाहन 'मेराज' के नाम से मशहूर है। अकसर और मोतबर रिवायतों की रू से यह वाक़िआ हिजरत से एक साल पहले पेश आया। हदीस और सीरत की किताबों में इस वाक़िए की तफ़सीलात बकसरत सहाबा (रज़ि०) से मरवी हैं जिनकी तादाद 25 तक पहुँचती है। क़ुरआन मजीद सिर्फ़ मस्जिदे-हराम (यानी बैतुल्लाह) से मस्जिदे-अक़सा (यानी बैतुल-मक़दिस) तक हुज़ूर (सल्ल०) के जाने की तसरीह करता है और अहादीस में बैतुल-मक़दिस से आलमे-बाला की इन्तिहाई बलन्दी पर पहुँचकर अल्लाह तआला के हुज़ूर में आप (सल्ल०) की हाज़िरी का मुफ़स्सल ज़िक्र किया गया है। इस सफ़र की कैफ़ियत क्या थी? यह आलमे-ख़ाब में पेश आया था या बेदारी में? और आया हुज़ूर (सल्ल०) बज़ाते-ख़ुद तशरीफ़ ले गए थे या अपनी जगह बैठे-बैठे महज़ रूहानी तौर पर ही आपको यह मुशाहदा करा दिया गया? इन सवालात का जवाब क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ ख़ुद दे रहे हैं। 'पाक है वह जो ले गया' से बयान की इबतिदा करना ख़ुद बता रहा है कि यह कोई बहुत बड़ा ग़ैर-मामूली वाक़िआ था जो अल्लाह तआला की ग़ैर-मामूली क़ुदरत से रूनुमा हुआ। ज़ाहिर है कि ख़ाब में किसी शख़्स का इस तरह की चीज़ें देख लेना, या कश्फ़ के तौर पर देखना यह अहमियत नहीं रखता कि उसे बयान करने के लिए इस तमहीद की ज़रूरत हो कि तमाम कमज़ोरियों और नक़ायस से पाक है वह ज़ात जिसने अपने बन्दे को यह ख़ाब दिखाया या कश्फ़ में यह कुछ दिखाया। फिर ये अलफ़ाज़ भी कि ‘एक रात अपने बन्दे को ले गया’ जिस्मानी सफ़र पर सरीहन दलालत करते हैं। ख़ाब के सफ़र या कश्फ़ी सफ़र के लिए ये अलफ़ाज़ किसी तरह मौजूँ नहीं हो सकते। लिहाज़ा हमारे लिए यह माने बग़ैर चारा नहीं कि यह मह्ज़ एक रूहानी तजरिबा न था, बल्कि एक जिस्मानी सफ़र और ऐनी मुशाहदा था जो अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को कराया।
وَءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلۡنَٰهُ هُدٗى لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَلَّا تَتَّخِذُواْ مِن دُونِي وَكِيلٗا ۝ 4
(2) हमने इससे पहले मूसा को किताब दी थी और उसे बनी-इसराईल के लिए ज़रिया-ए-हिदायत बनाया था इस ताकीद के साथ कि मेरे सिवा किसी को अपना वकील न बनाना।2
2. यानी एतिमाद और भरोसे का मदार जिसपर तवक्कुल किया जाए, जिसके सिपुर्द अपने मामलात कर दिए जाएँ, जिसकी तरफ़ हिदायत और इस्तिमदाद के लिए रुजूअ किया जाए।
ذُرِّيَّةَ مَنۡ حَمَلۡنَا مَعَ نُوحٍۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَبۡدٗا شَكُورٗا ۝ 5
(3) तुम उन लोगों की औलाद हो जिन्हें हमने नूह के साथ कश्ती पर सवार किया था, और नूह एक शुक्रगुज़ार बन्दा था।
وَقَضَيۡنَآ إِلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ لَتُفۡسِدُنَّ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَرَّتَيۡنِ وَلَتَعۡلُنَّ عُلُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 6
(4) फिर हमने अपनी किताब3 में बनी-इसराईल को इस बात पर भी मुतनब्बेह का दिया था कि तुम दो मर्तबा ज़मीन में फ़सादे-अज़ीम बरपा करोगे और बड़ी सरकशी दिखाओगे।
3. किताब से मुराद यहाँ तौरात नहीं है, बल्कि सुहुफ़े-आसमानी का मजमूआ है जिसके लिए क़ुरआन में इस्तिलाह के तौर पर लफ़्ज़ 'अल-किताब' कई जगह इस्तेमाल हुआ है।
وَمَنۡ أَرَادَ ٱلۡأٓخِرَةَ وَسَعَىٰ لَهَا سَعۡيَهَا وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ كَانَ سَعۡيُهُم مَّشۡكُورٗا ۝ 7
(19) और जो आख़िरत का ख़ाहिशमन्द हो और उसके लिए सई करे जैसी कि उसके लिए सई करनी चाहिए, और हो वह मोमिन, तो ऐसे हर शख़्स की सई मशकूर होगी।10
10. यानी उसके काम की क़द्र की जाएगी और जितनी और जैसी कोशिश भी उसने आख़िरत की कामयाबी के लिए की होगी उसका फल वह ज़रूर पाएगा।
فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ أُولَىٰهُمَا بَعَثۡنَا عَلَيۡكُمۡ عِبَادٗا لَّنَآ أُوْلِي بَأۡسٖ شَدِيدٖ فَجَاسُواْ خِلَٰلَ ٱلدِّيَارِۚ وَكَانَ وَعۡدٗا مَّفۡعُولٗا ۝ 8
(5) आख़िरकार जब उनमें से पहली सरकशी का मौक़ा पेश आया, तो (ऐ बनी-इसराईल!) हमने तुम्हारे मुक़ाबले पर अपने ऐसे बन्दे उठाए जो निहायत ज़ोरआवर थे और वे तुम्हारे मुल्क में घुसकर हर तरफ़ फैल गए।4 यह एक वादा था जिस पूरा होकर ही रहना था।
4. इससे मुराद वह हौलनाक तबाही है जो आशूरियों और अहले-बाबिल के हाथों बनी-इसराईल पर नाज़िल हुई।
كُلّٗا نُّمِدُّ هَٰٓؤُلَآءِ وَهَٰٓؤُلَآءِ مِنۡ عَطَآءِ رَبِّكَۚ وَمَا كَانَ عَطَآءُ رَبِّكَ مَحۡظُورًا ۝ 9
(20) इनको भी और उनको भी, दोनों फ़रीक़ों को हम (दुनिया में) सामाने-ज़ीस्त दिए जा रहे हैं, यह तेरे रब का अतीया है, और तेरे रब की अता को रोकनेवाला कोई नहीं है।
ثُمَّ رَدَدۡنَا لَكُمُ ٱلۡكَرَّةَ عَلَيۡهِمۡ وَأَمۡدَدۡنَٰكُم بِأَمۡوَٰلٖ وَبَنِينَ وَجَعَلۡنَٰكُمۡ أَكۡثَرَ نَفِيرًا ۝ 10
(6) इसके बाद हमने तुम्हें उनपर ग़लबे का मौक़ा दे दिया और तुम्हें माल और औलाद से मदद दी और तुम्हारी तादाद पहले से बढ़ा दी।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ فَضَّلۡنَا بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ وَلَلۡأٓخِرَةُ أَكۡبَرُ دَرَجَٰتٖ وَأَكۡبَرُ تَفۡضِيلٗا ۝ 11
(21) मगर देख लो, दुनिया ही में हमने एक गरोह को दूसरे पर कैसी फ़ज़ीलत दे रखी है,11 और आख़िरत में उसके दरजे और भी ज़्यादा होंगे, और उसकी फ़ज़ीलत और भी ज़्यादा बढ़-चढ़कर होगी।
11. यानी दुनिया ही में यह फ़र्क़ नुमायाँ नज़र आता है कि आख़िरत के तलबगार दुनिया-परस्त लोगों पर फ़ज़ीलत रखते हैं। यह फ़ज़ीलत इस एतिबार से नहीं है कि इनके खाने और लिबास और मकान और सवारियाँ और तमद्दुन व तहज़ीब के ठाठ उनसे कुछ बढ़कर हैं, बल्कि इस एतिबार से है कि ये जो कुछ भी पाते हैं सदाक़त, दियानत और अमानत के साथ पाते हैं, और वे जो कुछ पा रहे हैं ज़ुल्म से, बेईमानियों से और तरह-तरह की हरामख़ोरियों से पा रहे हैं। फिर इनको जो कुछ मिलता है वह एतिदाल के साथ ख़र्च होता है, उसमें से हक़दारों के हुक़ूक़ अदा होते हैं, उसमें से साइल और महरूम का हिस्सा भी निकलता है और उसमें से ख़ुदा की ख़ुशनूदी के लिए दूसरे नेक कामों पर भी माल सर्फ़ किया जाता है। इसके बरअक्स दुनिया-परस्तों को जो कुछ मिलता है वह बेशतर अय्याशियों और हराम-कारियों और तरह-तरह के फ़सादअंगेज़ और फ़ितनाख़ेज़ कामों में पानी की तरह बहाया जाता है। इसी तरह तमाम हैसियतों से आख़िरत के तलबगार की ज़िन्दगी दुनिया-परस्त की ज़िन्दगी से बरतर होती है।
لَّا تَجۡعَلۡ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتَقۡعُدَ مَذۡمُومٗا مَّخۡذُولٗا ۝ 12
(22) तू अल्लाह के साथ कोई दूसरा माबूद न बना, वरना मलामत-ज़दा और बेयार व मददगार बैठा रह जाएगा।
۞وَقَضَىٰ رَبُّكَ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّآ إِيَّاهُ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنًاۚ إِمَّا يَبۡلُغَنَّ عِندَكَ ٱلۡكِبَرَ أَحَدُهُمَآ أَوۡ كِلَاهُمَا فَلَا تَقُل لَّهُمَآ أُفّٖ وَلَا تَنۡهَرۡهُمَا وَقُل لَّهُمَا قَوۡلٗا كَرِيمٗا ۝ 13
(23) तेरे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि तुम लोग किसी की इबादत न करो, मगर सिर्फ़ उसकी। वालिदैन के साथ नेक सुलूक करो, अगर तुम्हारे पास उनमें से कोई एक, या दोनों, बूढ़े होकर रहें तो उन्हें उफ़ तक न कहो, न उन्हें झिड़ककर जवाब दो, बल्कि उनसे एहतिराम के साथ बात करो,
وَلَا تَقۡرَبُواْ مَالَ ٱلۡيَتِيمِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ أَشُدَّهُۥۚ وَأَوۡفُواْ بِٱلۡعَهۡدِۖ إِنَّ ٱلۡعَهۡدَ كَانَ مَسۡـُٔولٗا ۝ 14
(34) माले-यतीम के पास न फटको मगर अहसन तरीक़े से, यहाँ तक कि वह अपन शबाब को पहुँच जाए। अह्द की पाबन्दी करो, बेशक अह्द के बारे में तुमको जवाबदेही करनी होगी।
وَٱخۡفِضۡ لَهُمَا جَنَاحَ ٱلذُّلِّ مِنَ ٱلرَّحۡمَةِ وَقُل رَّبِّ ٱرۡحَمۡهُمَا كَمَا رَبَّيَانِي صَغِيرٗا ۝ 15
(24) और नर्मी और रहम के साथ उनके सामने झुककर रहो, और दुआ किया करो कि “परवरदिगार! उनपर रहम फ़रमा जिस तरह उन्होंने रहमत व शफ़क़त के साथ मुझे बचपन में पाला था।”
وَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ إِذَا كِلۡتُمۡ وَزِنُواْ بِٱلۡقِسۡطَاسِ ٱلۡمُسۡتَقِيمِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلٗا ۝ 16
(35) पैमाने से दो तो पूरा भरकर दो, और तौलो तो ठीक तराज़ू से तौलो। यह अच्छा तरीक़ा है और बलिहाज़े-अंजाम भी यही बेहतर है।
رَّبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَا فِي نُفُوسِكُمۡۚ إِن تَكُونُواْ صَٰلِحِينَ فَإِنَّهُۥ كَانَ لِلۡأَوَّٰبِينَ غَفُورٗا ۝ 17
(25) तुम्हारा रब ख़ूब जानता है कि तुम्हारे दिलों में क्या है। अगर तुम सॉलेह बनकर रहो तो वह ऐसे सब लोगों के लिए दरगुज़र करनेवाला है
وَلَا تَقۡفُ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۚ إِنَّ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡبَصَرَ وَٱلۡفُؤَادَ كُلُّ أُوْلَٰٓئِكَ كَانَ عَنۡهُ مَسۡـُٔولٗا ۝ 18
(36) किसी ऐसी चीज़ के पीछे न लगो जिसका तुम्हें इल्म न हो।16 यक़ीनन आँख, कान और दिल सब ही की बाज़पुर्स होनी है।
16. इस इरशाद का मंशा यह है कि लोग अपनी इनफ़िरादी और इजतिमाई जिन्दगी में वहम व गुमान के बजाय 'इल्म' की पैरवी करें।
وَءَاتِ ذَا ٱلۡقُرۡبَىٰ حَقَّهُۥ وَٱلۡمِسۡكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِ وَلَا تُبَذِّرۡ تَبۡذِيرًا ۝ 19
(26) जो अपने क़ुसूर पर मुतनब्बेह होकर बन्दगी के रवैये की तरफ़ पलट आएँ। रिश्तेदार को उसका हक़ दो और मिसकीन और मुसाफ़िर को उसका हक़। फ़ुज़ूलखर्ची न करो।
وَلَا تَمۡشِ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَرَحًاۖ إِنَّكَ لَن تَخۡرِقَ ٱلۡأَرۡضَ وَلَن تَبۡلُغَ ٱلۡجِبَالَ طُولٗا ۝ 20
(37) ज़मीन में अकड़कर न चलो, तुम न ज़मीन फाड़ सकते हो, न पहाड़ों की बलंदी को पहुँच सकते हो।
كُلُّ ذَٰلِكَ كَانَ سَيِّئُهُۥ عِندَ رَبِّكَ مَكۡرُوهٗا ۝ 21
(38) इन उमूर में से हर एक का बुरा पहलू तेरे रब के नज़दीक नापसन्दीदा है।17
17. यानी इन अहकाम में से जिस हुक्म की भी नाफ़रमानी की जाए वह नापसन्दीदा है।
ذَٰلِكَ مِمَّآ أَوۡحَىٰٓ إِلَيۡكَ رَبُّكَ مِنَ ٱلۡحِكۡمَةِۗ وَلَا تَجۡعَلۡ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتُلۡقَىٰ فِي جَهَنَّمَ مَلُومٗا مَّدۡحُورًا ۝ 22
(39) ये वे हिकमत की बातें हैं जो तेरे रब ने तुझपर वह्य की हैं। और देख! अल्लाह के साथ कोई दूसरा माबूद न बना बैठ वरना तू जहन्नम, में डाल दिया जाएगा मलामत-ज़दा और हर भलाई से महरूम होकर।18
18. इस फ़रमान का मुख़ातब हर इनसान है। मतलब यह है कि ऐ इनसान तू यह काम न कर।
إِنَّ ٱلۡمُبَذِّرِينَ كَانُوٓاْ إِخۡوَٰنَ ٱلشَّيَٰطِينِۖ وَكَانَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لِرَبِّهِۦ كَفُورٗا ۝ 23
(27) फ़ुज़ूलख़र्च लोग शैतान के भाई हैं, और शैतान अपने रब का नाशुक्रा है।
أَفَأَصۡفَىٰكُمۡ رَبُّكُم بِٱلۡبَنِينَ وَٱتَّخَذَ مِنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنَٰثًاۚ إِنَّكُمۡ لَتَقُولُونَ قَوۡلًا عَظِيمٗا ۝ 24
(40) — कैसी अजीब बात है कि तुम्हारे रब ने तुम्हें तो बेटों से नवाज़ा और ख़ुद अपने लिए मलाइका को बेटियाँ बना लिया! बड़ी झूठी बात है जो तुम लोग ज़बानों से निकालते हो!
وَإِمَّا تُعۡرِضَنَّ عَنۡهُمُ ٱبۡتِغَآءَ رَحۡمَةٖ مِّن رَّبِّكَ تَرۡجُوهَا فَقُل لَّهُمۡ قَوۡلٗا مَّيۡسُورٗا ۝ 25
(28) अगर उनसे (यानी हाजतमंद रिश्तेदारों, मिसकीनों और मुसाफ़िरों से) तुम्हें कतराना हो, इस बिना पर कि अभी तुम अल्लाह की उस रहमत को जिसके तुम उम्मीदवार हो तलाश कर रहे हो, तो उन्हें नर्म जवाब दे दो।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لِيَذَّكَّرُواْ وَمَا يَزِيدُهُمۡ إِلَّا نُفُورٗا ۝ 26
(41) हमने इस क़ुरआन में तरह-तरह से लोगों को समझाया कि होश में आएँ, मगर वे हक़ से और ज़्यादा दूर ही भागे जा रहे हैं।
قُل لَّوۡ كَانَ مَعَهُۥٓ ءَالِهَةٞ كَمَا يَقُولُونَ إِذٗا لَّٱبۡتَغَوۡاْ إِلَىٰ ذِي ٱلۡعَرۡشِ سَبِيلٗا ۝ 27
(42) (ऐ नबी!) इनसे कहो कि अगर अल्लाह के साथ दूसरे ख़ुदा भी होते जैसा कि ये लोग कहते है, तो वे मालिके-अर्श के मक़ाम को पहुँचने की ज़रूर कोशिश करते।
سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يَقُولُونَ عُلُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 28
(43) पाक वह और बहुत बाला व बरतर है उन बातों से जो ये लोग कह रहे हैं।
تُسَبِّحُ لَهُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ ٱلسَّبۡعُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهِنَّۚ وَإِن مِّن شَيۡءٍ إِلَّا يُسَبِّحُ بِحَمۡدِهِۦ وَلَٰكِن لَّا تَفۡقَهُونَ تَسۡبِيحَهُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ حَلِيمًا غَفُورٗا ۝ 29
(44) उसकी पाकी तो सातों आसमान और ज़मीन और वे सारी चीज़ें बयान कर रही हैं जो आसमान व ज़मीन19 में हैं। कोई चीज़ ऐसी नहीं जो उसकी हम्द के साथ उसकी तसबीह न कर रही हो, मगर तुम उनकी तसबीह समझते नहीं हो। हक़ीक़त यह है कि वह बड़ा ही बुर्दबार और दरगुज़र करनेवाला है।
19. यानी सारी कायनात और उसकी हर शय अपने पूरे वुजूद से इस हक़ीक़त पर गवाही दे रही है कि जिसने उसको पैदा किया है और जो उसकी परवरदिगारी व निगहबानी कर रहा है उसकी ज़ात हर ऐब और नक़्स और कमज़ोरी से मुनज़्ज़ह है, और वह इससे बिलकुल पाक है कि ख़ुदाई में कोई उसका शरीक व सहीम हो।
وَإِذَا قَرَأۡتَ ٱلۡقُرۡءَانَ جَعَلۡنَا بَيۡنَكَ وَبَيۡنَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ حِجَابٗا مَّسۡتُورٗا ۝ 30
जब तुम क़ुरआन पढ़ते हो तो हम तुम्हारे और आख़िरत पर ईमान न लानेवालों के दरमियान एक परदा हाइल कर देते हैं,
وَجَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۚ وَإِذَا ذَكَرۡتَ رَبَّكَ فِي ٱلۡقُرۡءَانِ وَحۡدَهُۥ وَلَّوۡاْ عَلَىٰٓ أَدۡبَٰرِهِمۡ نُفُورٗا ۝ 31
(46) और उनके दिलों पर ऐसा ग़िलाफ़ चढ़ा देते हैं कि वे कुछ नहीं समझते, और उनके कानों में गिरानी पैदा कर देते हैं।20 और जब तुम क़ुरआन में अपने एक ही रब का ज़िक्र करते हो तो वे नफ़रत से मुँह मोड़ लेते हैं।21
20. यानी आख़िरत पर ईमान न लाने का यह क़ुदरती नतीजा है कि आदमी के दिल पर कुफ़्ल चढ़ जाएँ और उसके कान उस दावत के लिए बन्द हो जाएँ जो क़ुरआन पेश करता है। क़ुरआन की तो दावत ही इस बुनियाद पर है कि दुनयवी ज़िन्दगी के ज़ाहिरी पहलू से धोखा न खाओ। हक़ और बातिल के फ़ैसले इस दुनिया में नहीं, बल्कि आख़िरत में होंगे। नेकी वह है जिसका अच्छा नतीजा आख़िरत में निकलेगा ख़ाह दुनिया में इसकी वजह से इनसान को कितनी ही तकलीफ़ें पहुँचें। और बदी वह है जिसका नतीजा आख़िरत में लाज़िमन बुरा निकलेगा, ख़ाह दुनिया में वह कितनी ही लज़ीज़ और मुफ़ीद हो। अब जो शख़्स आख़िरत ही का नहीं मानता वह क़ुरआन की इस दावत पर कैसे तवज्जुह दे सकता है।
21. यानी उन्हें यह बात सख़्त नागवार होती है कि तुम बस एक अल्लाह ही को मालिक व मुख़्तार क़रार देते हो और उसी की तारीफ़ों के गुन गाते हो। वे कहते हैं कि यह अजीब शख़्स है जिसके नज़दीक इल्मे-ग़ैब है तो अल्लाह को, क़ुदरत है तो अल्लाह की, तसर्रुफ़ात व इख़्तियारात हैं तो बस एक अल्लाह ही के। आख़िर ये हमारे आसतानोंवाले भी कोई चीज़ हैं कि नहीं जिनके यहाँ से हमें औलाद मिलती है, बीमारों को शिफ़ा नसीब होती है, कारोबार चमकते हैं और मुँह माँगी मुरादें बर आती हैं।
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَسۡتَمِعُونَ بِهِۦٓ إِذۡ يَسۡتَمِعُونَ إِلَيۡكَ وَإِذۡ هُمۡ نَجۡوَىٰٓ إِذۡ يَقُولُ ٱلظَّٰلِمُونَ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا رَجُلٗا مَّسۡحُورًا ۝ 32
(47) हमें मालूम है कि जब वे कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं तो दरअस्ल क्या सुनते हैं, और जब बैठकर बाहम सरगोशियाँ करते है तो क्या कहते हैं। ये ज़ालिम आपस में कहते हैं कि यह एक सेहरज़दा आदमी है जिसके पीछे तुम लोग जा रहे हो।22
22. कुफ़्फ़ारे-मक्का का हाल यह था कि छिप-छिपकर क़ुरआन सुनते और फिर आपस में मश्वरा करते थे कि इसका तोड़ क्या होना चाहिए। बसा-औक़ात उन्हें अपने ही आदमियों में से किसी पर यह शुबह भी हो जाता था कि शायद यह शख़्स क़ुरआन सुनकर कुछ मुतास्सिर हो गया है। इसलिए वे सब मिलकर उसको समझाते थे कि अजी, यह किसके फेर में आ रहे हो! यह शख़्स तो सेहरज़दा है, यानी किसी दुश्मन ने इसपर जादू कर दिया है इसलिए बहकी-बहकी बातें करने लगा है।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ ضَرَبُواْ لَكَ ٱلۡأَمۡثَالَ فَضَلُّواْ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ سَبِيلٗا ۝ 33
(48)— देखो, कैसी बातें हैं जो ये लोग तुमपर छाँटते हैं, ये भटक गए हैं, इन्हें रास्ता नहीं मिलता।
وَقَالُوٓاْ أَءِذَا كُنَّا عِظَٰمٗا وَرُفَٰتًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ خَلۡقٗا جَدِيدٗا ۝ 34
(49) वे कहते हैं, “जब हम सिर्फ़ हड्डियाँ और ख़ाक होकर रह जाएँगे तो क्या हम नए सिरे से पैदा करके उठाए जाएँगे?”
۞قُلۡ كُونُواْ حِجَارَةً أَوۡ حَدِيدًا ۝ 35
(50) उनसे कहो, “तुम पत्थर या लोहा भी हो जाओ
أَوۡ خَلۡقٗا مِّمَّا يَكۡبُرُ فِي صُدُورِكُمۡۚ فَسَيَقُولُونَ مَن يُعِيدُنَاۖ قُلِ ٱلَّذِي فَطَرَكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖۚ فَسَيُنۡغِضُونَ إِلَيۡكَ رُءُوسَهُمۡ وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هُوَۖ قُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ قَرِيبٗا ۝ 36
(51) या उससे भी ज़्यादा सख़्त कोई चीज़ जो तुम्हारे ज़ेहन में क़ुबूले-हयात से बईदतर हो (फिर भी तुम उठकर रहोगे)” वे ज़रूर पूछेगे, “कौन है वह जो हमें फिर ज़िन्दगी की तरफ़ पलटाकर लाएगा?” जवाब में कहो, “वही जिसने पहली बार तुमको पैदा किया।” वे सिर हिला-हिलाकर पूछेगे,23 अच्छा, तो यह होगा कब? “तुम कहो, “क्या अजब कि वह वक़्त क़रीब ही आ लगा हो!
23. 'इनग़ाज़' के मानी हैं सिर को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की तरफ़ हिलाना, जिस तरह इज़हारे-ताज्जुब के लिए या मज़ाक़ उड़ाने के लिए आदमी करता है।
يَوۡمَ يَدۡعُوكُمۡ فَتَسۡتَجِيبُونَ بِحَمۡدِهِۦ وَتَظُنُّونَ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 37
(52) जिस रोज़ वह तुम्हें पुकारेगा तो तुम उसकी हम्द करते हुए उसकी पुकार के जवाब में निकल आओगे और तुम्हारा गुमान उस वक़्त यह होगा कि हम बस थोड़ी देर ही इस हालत में पड़े रहे हैं।24
24. यानी दुनिया में मरने के वक़्त से लेकर क़ियामत के रोज़ उठने के वक़्त तक की मुद्दत तुमको चंद घटों से ज़्यादा महसूस न होगी। तुम उस वक़्त यह समझोगे कि हम ज़रा देर सोए पड़े थे कि यकायक इस शोरे-महशर ने हमें जगा उठाया।
وَقُل لِّعِبَادِي يَقُولُواْ ٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُۚ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ يَنزَغُ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ كَانَ لِلۡإِنسَٰنِ عَدُوّٗا مُّبِينٗا ۝ 38
(53) और (ऐ नबी !) मेरे बन्दों (यानी मोमिन बन्दों) से कह दो कि ज़बान से वह बात निकाला करें जो बेहतरीन हो।25 दरअस्ल यह शैतान है जो इनसानों के दरमियान फ़साद डलवाने की कोशिश करता है। हक़ीक़त यह है कि शैतान इनसान का खुला दुश्मन है।
25. यानी मुख़ालिफ़ीन ख़ाह कैसी ही नागवार बातें करें मुसलमानों को बहरहाल न तो कोई बात ख़िलाफ़े-हक़ ज़बान से निकालनी चाहिए और न ग़ुस्से में आपे से बाहर होकर बेहूदगी का जवाब बेहूदगी से देना चाहिए। उन्हें ठडे दिल से वही बात कहनी चाहिए जो जँची-तुली हो, बरहक़ हो, और उनकी दावत के वक़ार के मुताबिक़ हो।
رَّبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِكُمۡۖ إِن يَشَأۡ يَرۡحَمۡكُمۡ أَوۡ إِن يَشَأۡ يُعَذِّبۡكُمۡۚ وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ وَكِيلٗا ۝ 39
(54) तुम्हारा रब तुम्हारे हाल से ख़ूब वाक़िफ़ है। वह चाहे तो तुमपर रहम करे और चाहे तो तुम्हें अज़ाब दे दे।26 और (ऐनबी!) हमने तुमको लोगों पर हवालेदार बनाकर नहीं भेजा है।
26. यानी अहले-ईमान की ज़बान पर कभी ऐसे दावे न आने चाहिएँ कि हम जन्नती हैं और फ़ुलाँ शख़्स या गरोह दोज़ख़ी है। इस चीज़ का फ़ैसला अल्लाह के इख़्तियार में है। वही सब इनसानों के ज़ाहिर व बातिन और उनके हाल व मुस्तक़बिल से वाक़िफ़ है। उसी को यह फ़ैसला करना है कि किसपर रहमत फ़रमाए और किसे अज़ाब दे। एक मुसलमान उसूली हैसियत से तो यह कहने का ज़रूर मजाज़ है कि किताबुल्लाह (अल्लाह की किताब) की रू से किस क़िस्म के इनसान रहमत के मुस्तहिक़ हैं और किस क़िस्म के इनसान अज़ाब के मुस्तहिक़। मगर किसी को यह कहने का हक़ नहीं है कि फ़ुलाँ शख़्स को अज़ाब दिया जाएगा और फ़ुलाँ शख़्स बख़्शा जाएगा।
وَرَبُّكَ أَعۡلَمُ بِمَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَلَقَدۡ فَضَّلۡنَا بَعۡضَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ عَلَىٰ بَعۡضٖۖ وَءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ زَبُورٗا ۝ 40
(55) तेरा रब ज़मीन और आसमानों की मख़लूक़ात को ज़्यादा जानता है। हमने बाज़ पैग़म्बरों को बाज़ से बढ़कर मर्तबे दिए, और हमने ही दाऊद को ज़बूर दी थी।
وَأَنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ أَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 41
(10) और जो लोग आख़िरत को न मानें उन्हें यह ख़बर देता है कि उनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब मुहैया कर रखा है।
وَيَدۡعُ ٱلۡإِنسَٰنُ بِٱلشَّرِّ دُعَآءَهُۥ بِٱلۡخَيۡرِۖ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ عَجُولٗا ۝ 42
(11) इनसान शर उस तरह माँगता है जिस तरह ख़ैर माँगनी चाहिए। इनसान बड़ा ही जल्दबाज़ वाक़े हुआ है।6
6. यह जवाब है कुफ़्फ़ारे-मक्का की उन अहमक़ाना बातों का जो वे बार-बार नबी (सल्ल०) से कहते थे कि बस ले आओ वह अज़ाब जिससे तुम हमें डराया करते हो। ऊपर के बयान के बाद मअन् यह फ़िक़रा इरशाद फ़रमाने की ग़रज़ इस बात पर मुतनब्बेह करना है कि बेवक़ूफ़ो! ख़ैर माँगने के बजाय अज़ाब माँगते हो? तुम्हें कुछ अंदाज़ा भी है कि अल्लाह का अज़ाब जब किसी क़ौम पर आता है तो उसकी क्या गत बनती है? इसके साथ इस फ़िक़रे में एक लतीफ़ तंबीह मुसलमानों के लिए भी थी जो के ज़ुल्म व सितम और उनकी हठधर्मियों से तंग आकर कभी-कभी उनके हक़ में नुज़ूले-अज़ाब की दुआ करने लगते थे, हालाँकि अभी उन्हीं कुफ़्फ़ार में बहुत-से वे लोग मौजूद थे जो आगे चलकर ईमान लानेवाले और दुनिया भर में इस्लाम का झण्डा बलन्द करनेवाले थे। इसपर अल्लाह तआला फ़रमाता है कि इनसान बड़ा ही बेसब्र वाक़े हुआ है, हर वह चीज़ माँग बैठता है। जिसकी बरवक़्त ज़रूरत महसूस होती है, हलाँकि बाद में उसे ख़ुद तजरिबे से मालूम हो जाता है कि अगर उस वक़्त उसकी दुआ क़ुबूल कर ली जाती तो वह उसके हक़ में ख़ैर न होती।
وَجَعَلۡنَا ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ ءَايَتَيۡنِۖ فَمَحَوۡنَآ ءَايَةَ ٱلَّيۡلِ وَجَعَلۡنَآ ءَايَةَ ٱلنَّهَارِ مُبۡصِرَةٗ لِّتَبۡتَغُواْ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكُمۡ وَلِتَعۡلَمُواْ عَدَدَ ٱلسِّنِينَ وَٱلۡحِسَابَۚ وَكُلَّ شَيۡءٖ فَصَّلۡنَٰهُ تَفۡصِيلٗا ۝ 43
(12) देखो, हमने रात और दिन को दो निशानियाँ बनाया है। रात की निशानी को हमने बेनूर बनाया, और दिन की निशानी को रौशन कर दिया ताकि अपने रब का फ़ज़्ल तलाश कर सको और माह व साल का हिसाब मालूम कर सका। इसी तरह हमने हर चीज़ को अलग-अलग मुमय्यज़ करके रखा है।
وَكُلَّ إِنسَٰنٍ أَلۡزَمۡنَٰهُ طَٰٓئِرَهُۥ فِي عُنُقِهِۦۖ وَنُخۡرِجُ لَهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ كِتَٰبٗا يَلۡقَىٰهُ مَنشُورًا ۝ 44
(13) हर इनसान का शगुन हमने उसके अपने गले में लटका रखा है,7 और क़ियामत के रोज़ हम एक नविश्ता उसके लिए निकालेंगे जिसे वह खुली किताब की तरह पाएगा
7. यानी हर इनसान की नेकबख़्ती व बदबख़्ती और उसके अंजाम की भलाई और बुराई के असबाब व वुजूह ख़ुद उसकी अपनी ज़ात ही में मौजूद हैं।
ٱقۡرَأۡ كِتَٰبَكَ كَفَىٰ بِنَفۡسِكَ ٱلۡيَوۡمَ عَلَيۡكَ حَسِيبٗا ۝ 45
(14) — पढ़ अपना नामा-ए-आमाल, आज अपना हिसाब लगाने के लिए तू ख़ुद ही काफ़ी है।
مَّنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۗ وَمَا كُنَّا مُعَذِّبِينَ حَتَّىٰ نَبۡعَثَ رَسُولٗا ۝ 46
(15) जो कोई राहे-रास्त इख़्तियार करे उसकी रास्त-रवी उसके अपने ही लिए मुफ़ीद है, और जो गुमराह हो उसकी गुमराही का वबाल उसी पर है। कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ न उठाएगा।8 और हम अज़ाब देनेवाले नहीं हैं। जब तक कि (लोगों को हक़ व बातिल का फ़र्क़ समझाने के लिए) एक पैग़म्बर न भेज दें।
8. मतलब यह है कि हर इनसान अपनी एक मुस्तक़िल अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी रखता है और अपनी शख़्सी हैसियत में अल्लाह तआला के सामने जवाबदेह है। इस ज़ाती ज़िम्मेदारी में कोई दूसरा शख़्स उसके साथ शरीक नहीं है।
وَإِذَآ أَرَدۡنَآ أَن نُّهۡلِكَ قَرۡيَةً أَمَرۡنَا مُتۡرَفِيهَا فَفَسَقُواْ فِيهَا فَحَقَّ عَلَيۡهَا ٱلۡقَوۡلُ فَدَمَّرۡنَٰهَا تَدۡمِيرٗا ۝ 47
(16) जब हम किसी बस्ती को हलाक करने का इरादा करते हैं तो उसके ख़ुशहाल लोगों को हुक्म देते हैं और वे उसमें नाफ़रमानियाँ करने लगते हैं, तब अज़ाब का फ़ैसला उस बस्ती पर चस्पाँ हो जाता है और हम उसे बरबाद करके रख देते हैं।9
9. जिस हक़ीक़त पर इस आयत में मुतनब्बेह किया गया है वह यह है कि एक मुआशरे को आख़िरकार जो चीज़ तबाह करती है वह उसके खाते-पीते, ख़ुशहाल लोगों और ऊँचे तबक़ों का बिगाड़ है। जब किसी क़ौम की शामत आने को होती है तो उसके दौलतमंद और साहिबे-इक़तिदार लोग फ़िस्क़ व फ़ुजूर पर उतर आते हैं, ज़ुल्म व सितम और बदकारियाँ और शरारतें करने लगते हैं, और आख़िर यही फ़ितना पूरी क़ौम को ले डूबता है। लिहाज़ा जो मुआशरा आप-अपना दुश्मन न हो उसे फ़िक्र रखनी चाहिए कि उसके यहाँ इक़तिदार की बागें और मआशी दौलत की कुंजियाँ कमज़र्फ़ और बदअख़लाक़ लोगों के हाथों में न जाने पाएँ।
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِنَ ٱلۡقُرُونِ مِنۢ بَعۡدِ نُوحٖۗ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ بِذُنُوبِ عِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 48
(17) देख लो, कितनी ही नस्लें हैं जो नूह के बाद हमारे हुक्म से हलाक हुईं। तेरा रब अपने बन्दों के गुनाहों से पूरी तरह बाख़बर है और सब कुछ देख रहा है।
مَّن كَانَ يُرِيدُ ٱلۡعَاجِلَةَ عَجَّلۡنَا لَهُۥ فِيهَا مَا نَشَآءُ لِمَن نُّرِيدُ ثُمَّ جَعَلۡنَا لَهُۥ جَهَنَّمَ يَصۡلَىٰهَا مَذۡمُومٗا مَّدۡحُورٗا ۝ 49
(18) जो कोई (इस दुनिया में) जल्दी हासिल होनेवाले फ़ायदों का ख़ाहिशमन्द हो, उसे यहीं हम दे देते हैं जो कुछ भी जिसे देना चाहें, फिर मक़सूम में जहन्नम लिख देते हैं जिसे वह तापेगा मलामत-ज़दा और रहमत से महरूम होकर।
وَإِذۡ قُلۡنَا لَكَ إِنَّ رَبَّكَ أَحَاطَ بِٱلنَّاسِۚ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلرُّءۡيَا ٱلَّتِيٓ أَرَيۡنَٰكَ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلنَّاسِ وَٱلشَّجَرَةَ ٱلۡمَلۡعُونَةَ فِي ٱلۡقُرۡءَانِۚ وَنُخَوِّفُهُمۡ فَمَا يَزِيدُهُمۡ إِلَّا طُغۡيَٰنٗا كَبِيرٗا ۝ 50
(60) याद करो (ऐ नबी!) हमने तुमसे कह दिया था कि तेरे रब ने इन लोगों को घेर रखा है। और यह जो अभी हमने तुम्हें दिखाया है,30 उसको और उस दरख़्त को जिसपर क़ुरआन में लानत की गई है,31 हमने इन लोगों के लिए बस एक फ़ितना बनाकर रख दिया।32 हम उन्हें तंबीह-पर-तंबीह किए जा रहे हैं, मगर हर तंबीह उनकी सरकशी में इज़ाफ़ा किए जाती है।
30. इशारा है मेराज की तरफ़। यहाँ लफ़्ज़ 'रुअया' ख़ाब के मानी में नहीं है, बल्कि आँखों देखने के मानी में है।
31. यानी ज़क़्क़ूम जिसके मुताल्लिक़ क़ुरआन में ख़बर दी गई है कि वह दोज़ख़ की तह में पैदा होगा और दोज़ख़ियों को उसे खाना पड़ेगा। उसपर लानत करने से मुराद उसका अल्लाह की रहमत से दूर होना है।
32. यानी हमने इनकी भलाई के लिए तुमको मेराज के मुशाहदात कराए, ताकि तुम जैसे सादिक़ व अमीन इनसान के ज़रिए से इन लोगों को हक़ीक़ते-नफ़्सुल-अमरी का इल्म हासिल हो और ये मुतनब्बेह होकर राहे-रास्त पर आ जाएँ, मगर इन लोगों ने उलटा इसपर तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाया। हमने तुम्हारे ज़रिए से इनको ख़बरदार किया कि यहाँ की हरामख़ोरियाँ आख़िरकार तुम्हें ज़क़्क़ूम के निवाले खिलवाकर रहेंगी, मगर इन्होंने इसपर एक ठट्ठा लगाया और कहने लगे, “ज़रा इस शख़्स को देखो, एक तरफ़ कहता है कि दोज़ख़ में बला की आग भड़क रही होगी, और दूसरी तरफ़ ख़बर देता है कि वहाँ दरख़्त उगेंगे?
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ قَالَ ءَأَسۡجُدُ لِمَنۡ خَلَقۡتَ طِينٗا ۝ 51
(61) और याद करो जबकि हमने मलाइका से कहा कि आदम को सजदा करो, तो सब ने सजदा किया, मगर इबलीस ने न किया। उसने कहा, “क्या मैं उसको सजदा करूँ जिसे तूने मिट्टी से बनाया है?”
قَالَ أَرَءَيۡتَكَ هَٰذَا ٱلَّذِي كَرَّمۡتَ عَلَيَّ لَئِنۡ أَخَّرۡتَنِ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَأَحۡتَنِكَنَّ ذُرِّيَّتَهُۥٓ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 52
(62) फिर वह बोला, “देख तो सही! क्या यह इस क़ाबिल था कि तूने इसे मुझपर फ़ज़ीलत दी? अगर तू मुझे क़ियामत के दिन तक मुहलत दे तो मैं इसकी पूरी नस्ल की बेख़कनी कर डालूँ, बस थोड़े ही लोग मुझसे बच सकेंगे।”
قَالَ ٱذۡهَبۡ فَمَن تَبِعَكَ مِنۡهُمۡ فَإِنَّ جَهَنَّمَ جَزَآؤُكُمۡ جَزَآءٗ مَّوۡفُورٗا ۝ 53
अल्लाह तआला ने फ़रमाया, “अच्छा तो जा, इनमें से जो भी तेरी पैरवी करें, तुझ समेत उन सबके लिए जहन्नम ही भरपूर जज़ा है।
وَٱسۡتَفۡزِزۡ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتَ مِنۡهُم بِصَوۡتِكَ وَأَجۡلِبۡ عَلَيۡهِم بِخَيۡلِكَ وَرَجِلِكَ وَشَارِكۡهُمۡ فِي ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَوۡلَٰدِ وَعِدۡهُمۡۚ وَمَا يَعِدُهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ إِلَّا غُرُورًا ۝ 54
(64) तू जिस-जिसको अपनी दावत से फिसला सकता है फिसला ले, उनपर अपने सवार और पियादे चढ़ा ले, माल और औलाद में उनके साथ साझा लगा, और उनको वादों के जाल में फाँस — और शैतान के वादे एक धोखे के सिवा और कुछ भी नहीं।
إِنَّ عِبَادِي لَيۡسَ لَكَ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٞۚ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ وَكِيلٗا ۝ 55
(65) — यक़ीनन मेरे बन्दों पर तुझे कोई इक़तिदार हासिल न होगा, और तवक्कुल के लिए तेरा रब काफ़ी है।”
وَلَا تَجۡعَلۡ يَدَكَ مَغۡلُولَةً إِلَىٰ عُنُقِكَ وَلَا تَبۡسُطۡهَا كُلَّ ٱلۡبَسۡطِ فَتَقۡعُدَ مَلُومٗا مَّحۡسُورًا ۝ 56
(29) न तो अपना हाथ गर्दन से बाँध रखो और न उसे बिलकुल ही खुला छोड़ दो कि मलामत-ज़दा और आजिज़ बनकर रह जाओ।12
12. ‘हाथ बाँधना' इस्तिआरा है बुख़्ल के लिए और उसे खुला छोड़ देने से मुराद है 'फ़ुज़ूलखर्ची।'
رَّبُّكُمُ ٱلَّذِي يُزۡجِي لَكُمُ ٱلۡفُلۡكَ فِي ٱلۡبَحۡرِ لِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا ۝ 57
(66) तुम्हारा (हक़ीक़ी) रब तो वह है जो समुन्दर में तुम्हारी कश्ती चलाता है ताकि तुम उसका फ़ज़्ल तलाश करो। हक़ीक़त यह है कि वह तुम्हारे हाल पर निहायत मेहरबान है।
وَإِذَا مَسَّكُمُ ٱلضُّرُّ فِي ٱلۡبَحۡرِ ضَلَّ مَن تَدۡعُونَ إِلَّآ إِيَّاهُۖ فَلَمَّا نَجَّىٰكُمۡ إِلَى ٱلۡبَرِّ أَعۡرَضۡتُمۡۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ كَفُورًا ۝ 58
(67) जब समुन्दर में तुमपर मुसीबत आती है तो उस एक के सिवा दूसरे जिन-जिनको तुम पुकारा करते हो वे सब गुम हो जाते हैं, मगर जब वह तुमको बचाकर ख़ुश्की पर पहुँचा देता है तो तुम उससे मुँह मोड़ जाते हो। इनसान वाक़ई बड़ा नाशुक्रा है।
إِنَّ رَبَّكَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 59
(30) तेरा रब जिसके लिए चाहता है रिज़्क़ कुशादा करता है और जिसके लिए चाहता है तंग कर देता है। वह अपने बन्दों के हाल से बाख़बर है और उन्हें देख रहा है।
أَفَأَمِنتُمۡ أَن يَخۡسِفَ بِكُمۡ جَانِبَ ٱلۡبَرِّ أَوۡ يُرۡسِلَ عَلَيۡكُمۡ حَاصِبٗا ثُمَّ لَا تَجِدُواْ لَكُمۡ وَكِيلًا ۝ 60
(68) अच्छा, तो क्या तुम इस बात से बिलकुल बेख़ौफ़ हो कि ख़ुदा कभी ख़ुश्की पर ही तुमको ज़मीन में धँसा दे, या तुमपर पथराव करनेवाली आँधी भेज दे और तुम उससे बचानेवाला कोई हिमायती न पाओ?
وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُمۡ خَشۡيَةَ إِمۡلَٰقٖۖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُهُمۡ وَإِيَّاكُمۡۚ إِنَّ قَتۡلَهُمۡ كَانَ خِطۡـٔٗا كَبِيرٗا ۝ 61
(31) अपनी औलाद को इफ़लास के अंदेशे से कत्ल न करो। हम उन्हें भी रिज़क़ देंगे और तुम्हें भी। दर-हक़ीक़त उनका क़त्ल एक बड़ी ख़ता है।
أَمۡ أَمِنتُمۡ أَن يُعِيدَكُمۡ فِيهِ تَارَةً أُخۡرَىٰ فَيُرۡسِلَ عَلَيۡكُمۡ قَاصِفٗا مِّنَ ٱلرِّيحِ فَيُغۡرِقَكُم بِمَا كَفَرۡتُمۡ ثُمَّ لَا تَجِدُواْ لَكُمۡ عَلَيۡنَا بِهِۦ تَبِيعٗا ۝ 62
(69) और क्या तुम्हें इसका अंदेशा नहीं कि ख़ुदा फिर किसी वक़्त समुन्दर में तुमको ले जाए और तुम्हारी नाशुक्री के बदले तुमपर सख़्त तूफ़ानी हवा भेजकर तुम्हें ग़र्क़ कर दे और तुमको ऐसा कोई न मिले जो उससे तुम्हारे इस अंजाम की पूछ-गछ कर सके?
وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلزِّنَىٰٓۖ إِنَّهُۥ كَانَ فَٰحِشَةٗ وَسَآءَ سَبِيلٗا ۝ 63
(32) ज़िना के क़रीब न फटको। वह बहुत बुरा फ़ेल है और बड़ा ही बुरा रास्ता।
وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۗ وَمَن قُتِلَ مَظۡلُومٗا فَقَدۡ جَعَلۡنَا لِوَلِيِّهِۦ سُلۡطَٰنٗا فَلَا يُسۡرِف فِّي ٱلۡقَتۡلِۖ إِنَّهُۥ كَانَ مَنصُورٗا ۝ 64
(33) क़त्ले-नफ़्स का इर्तिकाब न करो जिसे अल्लाह ने हराम किया है मगर हक़ के साथ। और जो शख़्स मज़लूमाना क़त्ल किया गया हो उसके वली को हमने क़िसास के मुतालबे का हक़ अता किया है,13 पस चाहिए कि वह क़त्ल में हद से न गुज़रे,14 उसकी मदद की जाएगी।15
13. अस्ल अलफ़ाज़ हैं “उसके वली को हमने सुल्तान अता किया है।” सुल्तान से मुराद यहाँ 'हुज्जत' है जिसकी बिना पर वह क़िसास का मुतालबा कर सकता है।
14. क़त्ल में हद से गुज़रने की मुतअद्दिद सूरतें हो सकती हैं और वे सब ममनूअ हैं। मसलन जोशे-इन्तिक़ाम में मुजरिम के अलावा दूसरों को क़त्ल करना, या मुजरिम को अज़ाब दे-देकर मारना, या मार देने के बाद उसकी लाश पर ग़ुस्सा निकालना, या ख़ूँबहा लेने के बाद फिर उसे क़त्ल करना वग़ैरा।
15. चूँकि उस वक़्त तक इस्लामी हुकूमत क़ायम न हुई थी इसलिए इस बात को नहीं खोला गया कि उसकी मदद कौन करेगा। हिजरत के बाद जब इस्लामी हुकूमत क़ायम हो गई तो यह तय कर दिया गया कि उसकी मदद करना उसके क़बीले या उसके हलीफ़ों का काम नहीं, बल्कि इस्लामी हुकूमत और उसके निज़ामे-अदालत का काम है। कोई शख़्स या गरोह बतौरे-ख़ुद क़त्ल का इन्तिक़ाम लेने का मजाज़ नहीं है, बल्कि यह मंसब इस्लामी हुकूमत का है कि हुसूले-इनसाफ़ के लिए उससे मदद माँगी जाए।
۞وَلَقَدۡ كَرَّمۡنَا بَنِيٓ ءَادَمَ وَحَمَلۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَفَضَّلۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ كَثِيرٖ مِّمَّنۡ خَلَقۡنَا تَفۡضِيلٗا ۝ 65
(70) — यह तो हमारी इनायत है कि हमने बनी-आदम को बुज़ुर्गी दी और उन्हें ख़ुश्की व तरी में सवारियाँ अता कीं और उनको पाकीज़ा चीज़ों से रिज़्क़ दिया और अपनी बहुत-सी मख़लूक़ात पर नुमायाँ फ़ौक़ियत बख़्शी।
يَوۡمَ نَدۡعُواْ كُلَّ أُنَاسِۭ بِإِمَٰمِهِمۡۖ فَمَنۡ أُوتِيَ كِتَٰبَهُۥ بِيَمِينِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَقۡرَءُونَ كِتَٰبَهُمۡ وَلَا يُظۡلَمُونَ فَتِيلٗا ۝ 66
(71) फिर ख़याल करो उस दिन का जबकि हम हर इनसानी गरोह को उसके पेशवा के साथ बुलाएँगे। उस वक़्त जिन लोगों को उनका नामा-ए-आमाल सीधे हाथ में दिया गया वे अपना कारनामा पढ़ेंगे और उनपर ज़र्रा बराबर ज़ुल्म न होगा।
وَمَن كَانَ فِي هَٰذِهِۦٓ أَعۡمَىٰ فَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ أَعۡمَىٰ وَأَضَلُّ سَبِيلٗا ۝ 67
(72) और जो इस दुनिया में अंधा बनकर रहा वह आख़िरत में भी अंधा ही रहेगा, बल्कि रास्ता पाने में अंधे से भी ज़्यादा नाकामा।
وَإِن كَادُواْ لَيَفۡتِنُونَكَ عَنِ ٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ لِتَفۡتَرِيَ عَلَيۡنَا غَيۡرَهُۥۖ وَإِذٗا لَّٱتَّخَذُوكَ خَلِيلٗا ۝ 68
(73) (ऐ नबी!) उन लोगों ने इस कोशिश में कोई कसर उठा नहीं रखी कि तुम्हें फ़ितने में डालकर उस वह्य से फेर दें जो हमने तुम्हारी तरफ़ भेजी है ताकि तुम हमारे नाम पर अपनी तरफ़ से कोई बात गढ़ो। अगर तुम ऐसा करते तो वे ज़रूर तुम्हे अपना दोस्त बना लेते।
وَلَوۡلَآ أَن ثَبَّتۡنَٰكَ لَقَدۡ كِدتَّ تَرۡكَنُ إِلَيۡهِمۡ شَيۡـٔٗا قَلِيلًا ۝ 69
(74) और बईद न था कि अगर हम तुम्हें मज़बूत न रखते तो तुम उनकी तरफ़ कुछ-न-कुछ झुक जाते।
إِذٗا لَّأَذَقۡنَٰكَ ضِعۡفَ ٱلۡحَيَوٰةِ وَضِعۡفَ ٱلۡمَمَاتِ ثُمَّ لَا تَجِدُ لَكَ عَلَيۡنَا نَصِيرٗا ۝ 70
(75) लेकिन अगर तुम ऐसा करते तो हम तुम्हें दुनिया में भी दोहरे अज़ाब का मज़ा चखाते और आख़िरत में भी दोहरे अज़ाब का, फिर हमारे मुक़ाबले में तुम कोई मददगार न पाते।
وَإِن كَادُواْ لَيَسۡتَفِزُّونَكَ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ لِيُخۡرِجُوكَ مِنۡهَاۖ وَإِذٗا لَّا يَلۡبَثُونَ خِلَٰفَكَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 71
(76) और ये लोग इस बात पर भी तुले रहे हैं कि तुम्हारे क़दम इस सरज़मीन से उखाड़ दें और तुम्हें यहाँ से निकाल बाहर करें। लेकिन अगर ये ऐसा करेंगे तो तुम्हारे बाद ये ख़ुद यहाँ कुछ ज़्यादा देर न ठहर सकेंगे।
سُنَّةَ مَن قَدۡ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ مِن رُّسُلِنَاۖ وَلَا تَجِدُ لِسُنَّتِنَا تَحۡوِيلًا ۝ 72
(77) यह हमारा मुस्तक़िल तरीक़े-कार है जो उन सब रसूलों के मामले में हमने बरता है जिन्हें तुमसे पहले हमने भेजा था, और हमारे तरीक़े-कार में कोई तग़य्युर न पाओगे।
أَوۡ يَكُونَ لَكَ بَيۡتٞ مِّن زُخۡرُفٍ أَوۡ تَرۡقَىٰ فِي ٱلسَّمَآءِ وَلَن نُّؤۡمِنَ لِرُقِيِّكَ حَتَّىٰ تُنَزِّلَ عَلَيۡنَا كِتَٰبٗا نَّقۡرَؤُهُۥۗ قُلۡ سُبۡحَانَ رَبِّي هَلۡ كُنتُ إِلَّا بَشَرٗا رَّسُولٗا ۝ 73
(93) या तेरे लिए सोने का एक घर बन जाए। या तू आसमान पर चढ़ जाए, और तेरे चढ़ने का भी हम यक़ीन न करेंगे जब तक कि तू हमारे ऊपर एक ऐसी तहरीर न उतार लाए जिसे हम पढ़ें” — (ऐ नबी!) इनसे कहो, “पाक है मेरा परवरदिगार! क्या मैं एक पैग़ाम लानेवाले इनसान के सिवा और भी कुछ हूँ?”
أَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ لِدُلُوكِ ٱلشَّمۡسِ إِلَىٰ غَسَقِ ٱلَّيۡلِ وَقُرۡءَانَ ٱلۡفَجۡرِۖ إِنَّ قُرۡءَانَ ٱلۡفَجۡرِ كَانَ مَشۡهُودٗا ۝ 74
(78) नमाज़ क़ायम करो ज़वाले-आफ़ताब से लेकर रात के अंधेरे तक,33 और फ़ज्र के क़ुरआन का भी इल्तिज़ाम करो क्योंकि क़ुरआने-फ़ज्र मशहूद होता है।34
33. इसमें ज़ुह्‍र से लेकर इशा तक की चारों नमाज़ें आ जाती हैं।
34. फ़ज्र के क़ुरआन से मुराद फ़ज्र की नमाज़ में क़ुरआन पढ़ना है और क़ुरआने-फ़ज्र के मशहूद होने का मतलब यह है कि ख़ुदा के फ़रिश्ते ख़ास तौर पर उसके गवाह बनते हैं क्योंकि उसे एक ख़ास अहमियत हासिल है।
وَمَا مَنَعَ ٱلنَّاسَ أَن يُؤۡمِنُوٓاْ إِذۡ جَآءَهُمُ ٱلۡهُدَىٰٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ أَبَعَثَ ٱللَّهُ بَشَرٗا رَّسُولٗا ۝ 75
(94) लोगों के सामने जब कभी हिदायत आई तो उसपर ईमान लाने से उनको किसी चीज़ ने नहीं रोका मगर उनके इसी क़ौल ने कि “क्या अल्लाह ने बशर को पैग़म्बर बनाकर भेज दिया?”
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَتَهَجَّدۡ بِهِۦ نَافِلَةٗ لَّكَ عَسَىٰٓ أَن يَبۡعَثَكَ رَبُّكَ مَقَامٗا مَّحۡمُودٗا ۝ 76
(79) और रात को तहज्जुद पढ़ो,35 यह तुम्हारे लिए नफ़्ल है, बईद नहीं कि तुम्हारा रब तुम्हें मक़ामे-महमूद पर फ़ाइज़ कर दे।36
35. 'तहज्जुद' के मानी है नींद तोड़कर उठने के। पस रात के वक़्त तहज्जुद करने का मतलब यह है कि रात का एक हिस्सा सोने के बाद फिर उठकर नमाज़ पढ़ी जाए।
36. यानी दुनिया और आख़िरत में तुमको ऐसे मर्तबे पर पहुँचा दे जहाँ तुम महमूदे-ख़लाइक़ होकर रहो। हर तरफ़ से तुमपर मद्ह व सताइश की बारिश हो और तुम्हारी हस्ती एक क़ाबिले-तारीफ़ हस्ती बनकर रहे।
قُل لَّوۡ كَانَ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَلَٰٓئِكَةٞ يَمۡشُونَ مُطۡمَئِنِّينَ لَنَزَّلۡنَا عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَلَكٗا رَّسُولٗا ۝ 77
(95) उनसे कहो, “अगर ज़मीन में फ़रिश्ते इत्मीनान से चल-फिर रहे होते तो हम ज़रूर आसमान से किसी फ़रिश्ते ही को उनके लिए पैग़म्बर बनाकर भेजते।”
قُلۡ كَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 78
(96) (ऐ नबी!) इनसे कह दो कि “मेरे और तुम्हारे दरमियान बस एक अल्लाह की गवाही काफ़ी है। वह अपने बन्दों के हाल से बाख़बर है और सब कुछ देख रहा है।
وَقُل رَّبِّ أَدۡخِلۡنِي مُدۡخَلَ صِدۡقٖ وَأَخۡرِجۡنِي مُخۡرَجَ صِدۡقٖ وَٱجۡعَل لِّي مِن لَّدُنكَ سُلۡطَٰنٗا نَّصِيرٗا ۝ 79
(80) और दुआ करो कि परवरदिगार! मुझको जहाँ भी तू ले जा सच्चाई के साथ ले जा और जहाँ से भी निकाल सच्चाई के साथ निकाल और अपनी तरफ़ से एक इक़तिदार को मेरा मददगार बना दे।37
37. यानी या तो मुझे ख़ुद इक़तिदार अता कर या किसी हुकूमत को मेरा मददगार बना दे ताकि उसकी ताक़त से मैं दुनिया के बिगाड़ को दुरुस्त कर सकूँ, फ़वाहिश व मआसी के इस सैलाब को रोक सकूँ, और तेरे क़ानूने-अद्ल को जारी कर सकूँ।
وَمَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُمۡ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِهِۦۖ وَنَحۡشُرُهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَلَىٰ وُجُوهِهِمۡ عُمۡيٗا وَبُكۡمٗا وَصُمّٗاۖ مَّأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ كُلَّمَا خَبَتۡ زِدۡنَٰهُمۡ سَعِيرٗا ۝ 80
(97) जिसको अल्लाह हिदायत दे वही हिदायत पानेवाला है, और जिसे वह गुमराही में डाल दे तो उसके सिवा ऐसे लोगों के लिए तू कोई हामी व नासिर नहीं पा सकता। इन लोगों को हम क़ियामत के रोज़ औंधे मुँह खींच लाएँगे, अंधे, गूँगे और बहरे। उनका ठिकाना जहन्नम है। जब कभी उसकी आग धीमी होने लगेगी हम उसे और भड़का देंगे।
وَقُلۡ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَزَهَقَ ٱلۡبَٰطِلُۚ إِنَّ ٱلۡبَٰطِلَ كَانَ زَهُوقٗا ۝ 81
(81) और एलान कर दो कि “हक़ आ गया और बातिल मिट गया, बातिल तो मिटने ही वाला है।”
ذَٰلِكَ جَزَآؤُهُم بِأَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَقَالُوٓاْ أَءِذَا كُنَّا عِظَٰمٗا وَرُفَٰتًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ خَلۡقٗا جَدِيدًا ۝ 82
(98) यह बदला है उनकी उस हरकत का कि उन्होंने हमारी आयात का इनकार किया और कहा, “क्या जब हम सिर्फ़ हड्डियाँ और ख़ाक होकर रह जाएँगे तो नए सिरे से हमको पैदा करके उठा खड़ा किया जाएगा?
وَنُنَزِّلُ مِنَ ٱلۡقُرۡءَانِ مَا هُوَ شِفَآءٞ وَرَحۡمَةٞ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ وَلَا يَزِيدُ ٱلظَّٰلِمِينَ إِلَّا خَسَارٗا ۝ 83
(82) हम इस क़ुरआन के सिलसिला-ए-तंज़ील में वह कुछ नाज़िल कर रहे हैं जो माननेवालों के लिए तो शिफ़ा और रहमत है, मगर ज़ालिमों के लिए ख़सारे के सिवा और किसी चीज़ में इज़ाफ़ा नहीं करता।
وَإِذَآ أَنۡعَمۡنَا عَلَى ٱلۡإِنسَٰنِ أَعۡرَضَ وَنَـَٔا بِجَانِبِهِۦ وَإِذَا مَسَّهُ ٱلشَّرُّ كَانَ يَـُٔوسٗا ۝ 84
(83) इनसान का हाल यह है कि जब हम उसको नेमत अता करते हैं तो वह ऐंठता और पीठ मोड़ लेता है, और जब ज़रा मुसीबत से दोचार होता है तो मायूस होने लगता है।
۞أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ قَادِرٌ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۡ وَجَعَلَ لَهُمۡ أَجَلٗا لَّا رَيۡبَ فِيهِ فَأَبَى ٱلظَّٰلِمُونَ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 85
(99) “क्या उनको यह न सूझा कि जिस ख़ुदा ने ज़मीन और आसमानों को पैदा किया है वह इन जैसों को पैदा करने की ज़रूर क़ुदरत रखता है? उसने इनके हश्र के लिए एक वक़्त मुकर्रर कर रखा है जिसका आना यक़ीनी है, मगर ज़ालिमों को इसरार है कि वह उसका इनकार ही करेंगे।
قُلۡ كُلّٞ يَعۡمَلُ عَلَىٰ شَاكِلَتِهِۦ فَرَبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَنۡ هُوَ أَهۡدَىٰ سَبِيلٗا ۝ 86
(84) (ऐ नबी!) इन लोगों से कह दो कि “हर एक अपने तरीक़े पर अमल कर रहा है, अब यह तुम्हारा रब ही बेहतर जानता है कि सीधी राह पर कौन है।”
قُل لَّوۡ أَنتُمۡ تَمۡلِكُونَ خَزَآئِنَ رَحۡمَةِ رَبِّيٓ إِذٗا لَّأَمۡسَكۡتُمۡ خَشۡيَةَ ٱلۡإِنفَاقِۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ قَتُورٗا ۝ 87
(100) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “अगर कहीं मेरे रब की रहमत के ख़ज़ाने तुम्हारे क़ब्ज़े में होते तो तुम ख़र्च हो जाने के अंदेशे से ज़रूर उनको रोक रखते।” वाक़ई इनसान बड़ा तंगदिल वाक़े हुआ है।39
39. मुशरिकीने-मक्का जिन नफ़सियाती वुजूह से नबी (सल्ल०) की नुबूवत का इनकार करते थे उनमें से एक अहम वजह यह थी कि इस तरह उन्हें आपका फ़ज़्ल व शरफ़ मानना पड़ता था, और अपने किसी मुआसिर और हमचश्म का फ़ज़्ल मानने के लिए इनसान मुशकिल ही से आमादा हुआ करता है। इसी पर फ़रमाया जा रहा है कि जिन लोगों की बख़ीली का हाल यह है कि किसी के वाक़ई मर्तबे का इक़रार व एतिराफ़ करते हुए भी उनका दिल दुखता है, उन्हें अगर कहीं ख़ुदा ने अपने ख़ज़ानहाए-रहमत की कुंजियाँ हवाले कर दी होतीं तो वे किसी को फूटी कौड़ी भी न देते।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلرُّوحِۖ قُلِ ٱلرُّوحُ مِنۡ أَمۡرِ رَبِّي وَمَآ أُوتِيتُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 88
(85) ये लोग तुमसे रूह के मुताल्लिक़ पूछते हैं। कहो, “यह रूह मेरे रब के हुक्म से आती है, मगर तुम लोगों ने इल्म से कम ही बहरा पाया है।”38
38. आमतौर पर यह समझा जाता है कि यहाँ रूह से मुराद जान है। यानी लोगों ने नबी (सल्ल०) से रूहे-हयात के मुताल्लिक़ पूछा था कि इसकी हक़ीक़त क्या है और इसका जवाब यह दिया गया कि वह अल्लाह के हुक्म से आती है। लेकिन रब्ते-इबारत को निगाह में रखकर देखा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि यहाँ रूह से मुराद रूहे-नुबूवत या वह्य है और यही बात सूरा-16 नह्ल, आयत-2; सूरा 40 मोमिन, आयत-15 और सूरा-42 शूरा, आयत-52 में बयान हुई है। सलफ़ में से इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा और हसन बसरी (रह०) ने भी यहीं तफ़सीर इख़्तियार की है और साहिबे रूहुल-मआनी हसन और क़तादा का यह क़ौल नक़्ल करते हैं कि “रूह से मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं।” और सवाल दरअस्ल यह था कि वे कैसे नाज़िल होते हैं और किस तरह नबी (सल्ल०) के क़ल्ब पर वह्य का इलक़ा होता है।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ تِسۡعَ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖۖ فَسۡـَٔلۡ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِذۡ جَآءَهُمۡ فَقَالَ لَهُۥ فِرۡعَوۡنُ إِنِّي لَأَظُنُّكَ يَٰمُوسَىٰ مَسۡحُورٗا ۝ 89
(101) हमने मूसा को नौ निशानियाँ अता की थीं जो सरीह तौर पर दिखाई दे रही थीं।40 अब यह तुम ख़ुद बनी-इसराईल से पूछ लो कि जब मूसा उनके यहाँ आए तो फ़िरऔन ने यही कहा था न कि “ऐ मूसा! मैं समझता हूँ कि ज़रूर एक सेहर-ज़दा आदमी है।”
40. इन नौ निशानियों की तफ़सील सूरा-7 आराफ़ में गुज़र चुकी है।
وَلَئِن شِئۡنَا لَنَذۡهَبَنَّ بِٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ ثُمَّ لَا تَجِدُ لَكَ بِهِۦ عَلَيۡنَا وَكِيلًا ۝ 90
(86) और (ऐ नबी!) हम चाहें तो वह सब कुछ तुमसे छीन लें जो हमने वह्य के ज़रिए से तुमको अता किया है, फिर तुम हमारे मुक़ाबले में कोई हिमायती न पाओगे जो उसे वापस दिला सके।
قَالَ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَآ أَنزَلَ هَٰٓؤُلَآءِ إِلَّا رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ بَصَآئِرَ وَإِنِّي لَأَظُنُّكَ يَٰفِرۡعَوۡنُ مَثۡبُورٗا ۝ 91
(102) मूसा ने इसके जवाब में कहा, “तू ख़ूब जानता है कि ये बसीरत-अफ़रोज़ निशानियाँ ज़मीन और आसमानों के रब के सिवा किसी ने नाज़िल नहीं की हैं,41 और मेरा ख़याल यह है कि ऐ फ़िरऔन! तू ज़रूर एक शामत-ज़दा आदमी है।”
41. यह बात हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इसलिए फ़रमाई कि एक पूरे मुल्क में काल पड़ जाना, या लाखों मुरब्बा मील ज़मीन पर फैले हुए इलाक़े में मेंढकों का एक बला की तरह निकलना, या तमाम मुल्क के ग़ल्ले के गोदामों में घुन लग जाना, और ऐसे ही दूसरे आम मसाइब किसी जादूगर के जादू, या किसी इनसानी ताक़त के करतब से रूनुमा नहीं हो सकते। जादूगर सिर्फ़ एक महदूद जगह एक मजमे की निगाहों पर सेहर करके उन्हें कुछ करिश्मे दिखा सकता है और वे भी हक़ीक़त नहीं होते, बल्कि नज़र का धोखा होते हैं।
إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ إِنَّ فَضۡلَهُۥ كَانَ عَلَيۡكَ كَبِيرٗا ۝ 92
(87) यह तो जो कुछ तुम्हें मिला है तुम्हारे रब की रहमत से मिला है, हक़ीक़त यह है कि इसका फ़ज़्ल तुमपर बहुत बड़ा है।
فَأَرَادَ أَن يَسۡتَفِزَّهُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ فَأَغۡرَقۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ جَمِيعٗا ۝ 93
(103) आख़िरकार फ़िरऔन ने इरादा किया कि मूसा और बनी-इसराईल को ज़मीन से उखाड़ फेंके, मगर हमने उसको और उसके साथियों को इकट्ठा ग़र्क़ कर दिया
قُل لَّئِنِ ٱجۡتَمَعَتِ ٱلۡإِنسُ وَٱلۡجِنُّ عَلَىٰٓ أَن يَأۡتُواْ بِمِثۡلِ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لَا يَأۡتُونَ بِمِثۡلِهِۦ وَلَوۡ كَانَ بَعۡضُهُمۡ لِبَعۡضٖ ظَهِيرٗا ۝ 94
(88) कह दो कि “अगर इनसान और जिन्न सब-के-सब मिलकर इस क़ुरआन जैसी कोई चीज़ लाने की कोशिश करें तो न ला सकेंगे, चाहे वे सब एक-दूसरे के मददगार ही क्यों न हों।”
وَقُلۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ لِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱسۡكُنُواْ ٱلۡأَرۡضَ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ ٱلۡأٓخِرَةِ جِئۡنَا بِكُمۡ لَفِيفٗا ۝ 95
(104) और उसके बाद बनी-इसराईल से कहा कि अब तुम ज़मीन में बसो, फिर जब आख़िरत के वादे का वक़्त आन पूरा होगा तो हम तुम सबको एक साथ ला हाज़िर करेंगे।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖ فَأَبَىٰٓ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 96
(89) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया मगर अकसर लोग इनकार ही पर जमे रहे
وَبِٱلۡحَقِّ أَنزَلۡنَٰهُ وَبِٱلۡحَقِّ نَزَلَۗ وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا مُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 97
(105) इस क़ुरआन को हमने हक़ के साथ नाज़िल किया है और हक़ ही के साथ यह नाज़िल हुआ है, और (ऐ नबी!) तुम्हें हमने इसके सिवा और किसी काम के लिए नहीं भेजा कि (जो मान ले उसे) बशारत दे दो और (जो न माने उसे) मुतनब्बेह कर दो।
وَقَالُواْ لَن نُّؤۡمِنَ لَكَ حَتَّىٰ تَفۡجُرَ لَنَا مِنَ ٱلۡأَرۡضِ يَنۢبُوعًا ۝ 98
(90) और उन्होंने कहा, “हम तेरी बात न मानेंगे जब तक कि तू हमारे लिए ज़मीन को फाड़कर एक चश्मा जारी न कर दे।
وَقُرۡءَانٗا فَرَقۡنَٰهُ لِتَقۡرَأَهُۥ عَلَى ٱلنَّاسِ عَلَىٰ مُكۡثٖ وَنَزَّلۡنَٰهُ تَنزِيلٗا ۝ 99
(106) और इस क़ुरआन को हमने थोड़ा-थोड़ा करके नाज़िल किया है ताकि तुम ठहर-ठहरकर इसे लोगों को सुनाओ, और इसे हमने (मौक़े-मौक़े से) बतदरीज उतारा है।
أَوۡ تَكُونَ لَكَ جَنَّةٞ مِّن نَّخِيلٖ وَعِنَبٖ فَتُفَجِّرَ ٱلۡأَنۡهَٰرَ خِلَٰلَهَا تَفۡجِيرًا ۝ 100
(91) और उन्होंने कहा, “हम तेरी बात न मानेंगे जब तक कि तू हमारे लिए ज़मीन को फाड़कर एक चश्मा जारी न कर दे।
قُلۡ ءَامِنُواْ بِهِۦٓ أَوۡ لَا تُؤۡمِنُوٓاْۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ مِن قَبۡلِهِۦٓ إِذَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ يَخِرُّونَۤ لِلۡأَذۡقَانِۤ سُجَّدٗاۤ ۝ 101
(107) (ऐ नबी!) इन लोगों से कह दो कि “तुम इसे मानो या न मानो, जिन लोगों को इससे पहले इल्म दिया गया है उन्हें जब यह सुनाया जाता है तो वे मुँह के बल सजदे में गिर जाते हैं
أَوۡ تُسۡقِطَ ٱلسَّمَآءَ كَمَا زَعَمۡتَ عَلَيۡنَا كِسَفًا أَوۡ تَأۡتِيَ بِٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ قَبِيلًا ۝ 102
(92) या तू आसमान को टुकड़े-टुकड़े करके हमारे ऊपर गिरा दे जैसा कि तेरा दावा है। या ख़ुदा और फ़रिश्तों को रू-दर-रू हमारे सामने ले आए।
وَيَقُولُونَ سُبۡحَٰنَ رَبِّنَآ إِن كَانَ وَعۡدُ رَبِّنَا لَمَفۡعُولٗا ۝ 103
(108) और पुकार उठते हैं, 'पाक है हमारा रब! उसका वादा तो पूरा होना ही था।'
وَيَخِرُّونَ لِلۡأَذۡقَانِ يَبۡكُونَ وَيَزِيدُهُمۡ خُشُوعٗا۩ ۝ 104
(109) और वे मुँह के बल रोते हुए गिर जाते हैं और उसे सुनकर उनका ख़ुशूअ और बढ़ जाता है।”
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱللَّهَ أَوِ ٱدۡعُواْ ٱلرَّحۡمَٰنَۖ أَيّٗا مَّا تَدۡعُواْ فَلَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَلَا تَجۡهَرۡ بِصَلَاتِكَ وَلَا تُخَافِتۡ بِهَا وَٱبۡتَغِ بَيۡنَ ذَٰلِكَ سَبِيلٗا ۝ 105
(110) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “अल्लाह कहकर पुकारो या रहमान कहकर, जिस नाम से भी पुकारो उसके लिए सब अच्छे ही नाम हैं।”42 और अपनी नमाज़ न बहुत ज़्यादा बुलन्द आवाज़ से पढ़ो और न बहुत पस्त आवाज़ से, इन दोनों के दरमियान औसत दरजे का लहजा इख़्तियार करो।43
42. यह जवाब है मुशरिकीने-मक्का के इस एतिराज़ का कि ख़ालिक़ के लिए 'अल्लाह' का नाम तो हमने सुना था, मगर यह 'रहमान' का नाम तुमने कहाँ से निकाला? उनके यहाँ चूँकि अल्लाह तआला के लिए यह नाम राइज न था इसलिए वह इसपर नाक-भौं चढ़ाते थे।
43. इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का बयान है कि मक्का में जब नबी (सल्ल०) या दूसरे सहाबा (रज़ि०) नमाज़ पढ़ते वक़्त बलन्द आवाज़ से क़ुरआन पढ़ते थे तो कुफ़्फ़ार शोर मचाने लगते और बसा-औक़ात गालियों की बौछाड़ शुरू कर देते थे। इसपर हुक्म हुआ कि न तो इतने ज़ोर से पढ़ो कि कुफ़्फ़ार सुनकर हुजूम करें, और न इस क़दर आहिस्ता पढ़ो कि तुम्हारे अपने साथी भी न सुन सकें। यह हुक्म सिर्फ़ उन्हीं हालात के लिए था। मदीना में जब हालात बदल गए तो यह हुक्म बाक़ी न रहा। अलबत्ता जब कभी मुसलमानों को मक्का के से हालात से दोचार होना पड़े, उन्हें इसी हिदायत के मुताबिक़ अमल करना चाहिए।
وَقُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي لَمۡ يَتَّخِذۡ وَلَدٗا وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ شَرِيكٞ فِي ٱلۡمُلۡكِ وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلِيّٞ مِّنَ ٱلذُّلِّۖ وَكَبِّرۡهُ تَكۡبِيرَۢا ۝ 106
(111) तारीफ़ है उस ख़ुदा के लिए जिसने न किसी को बेटा बनाया, न कोई बादशाही में उसका शरीक है, और न वह आजिज़ है कि कोई उसका पुश्तीबान हो।” और उसकी बड़ाई बयान करो, कमाल दरजे की बड़ाई।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُم مِّن دُونِهِۦ فَلَا يَمۡلِكُونَ كَشۡفَ ٱلضُّرِّ عَنكُمۡ وَلَا تَحۡوِيلًا ۝ 107
(56) इनसे कहो, “पुकार देखो उन माबूदों को जिनको तुम ख़ुदा के सिवा (अपना कारसाज़) समझते हो, वे किसी तकलीफ़ को तुमसे न हटा सकते हैं न बदल सकते हैं।”27
27. इससे साफ़ मालूम होता है कि ग़ैरुल्लाह को सजदा करना ही शिर्क नहीं है, बल्कि अल्लाह के सिवा किसी दूसरी हस्ती से दुआ माँगना या उसको मदद के लिए पुकारना भी शिर्क है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ يَبۡتَغُونَ إِلَىٰ رَبِّهِمُ ٱلۡوَسِيلَةَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ وَيَرۡجُونَ رَحۡمَتَهُۥ وَيَخَافُونَ عَذَابَهُۥٓۚ إِنَّ عَذَابَ رَبِّكَ كَانَ مَحۡذُورٗا ۝ 108
(57) जिनको ये लोग पुकारते हैं वे तो ख़ुद अपने रब के हुज़ूर रसाई हासिल करने का वसीला तलाश कर रहे हैं कि कौन उससे क़रीबतर हो जाए और वह उसकी रहमत के उम्मीदवार और उसके अज़ाब से ख़ाइफ़ हैं।28 हक़ीक़त यह है कि तेरे रब का अज़ाब है ही डरने के लाइक़।
28. ये अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं कि मुशरिकीन के जिन माबूदों और फ़रियादरसों का यहाँ ज़िक्र किया जा रहा है उनसे मुराद पत्थर के बुत नहीं है, बल्कि या तो फरिश्ते हैं या गुज़रे हुए ज़माने के बरगुज़ीदा इनसान।
وَإِن مِّن قَرۡيَةٍ إِلَّا نَحۡنُ مُهۡلِكُوهَا قَبۡلَ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَوۡ مُعَذِّبُوهَا عَذَابٗا شَدِيدٗاۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَسۡطُورٗا ۝ 109
(58) और कोई बस्ती ऐसी नहीं जिसे हम क़ियामत से पहले हलाक न करें या सख़्त अज़ाब न दें, यह नविश्ता-ए-इलाही में लिखा हुआ है।
وَمَا مَنَعَنَآ أَن نُّرۡسِلَ بِٱلۡأٓيَٰتِ إِلَّآ أَن كَذَّبَ بِهَا ٱلۡأَوَّلُونَۚ وَءَاتَيۡنَا ثَمُودَ ٱلنَّاقَةَ مُبۡصِرَةٗ فَظَلَمُواْ بِهَاۚ وَمَا نُرۡسِلُ بِٱلۡأٓيَٰتِ إِلَّا تَخۡوِيفٗا ۝ 110
(59) और हमको निशानियाँ भेजने से नहीं रोका मगर इस बात ने कि पहले के लोग उनको झुठला चुके हैं।29 (चुनाँचे देख लो) समूद को हमने अलानिया ऊँटनी लाकर दी और उन्होंने उसपर ज़ुल्म किया। हम निशानियाँ इसी लिए तो भेजते हैं कि लोग उन्हें देखकर डरें।
29. यह कुफ़्फ़ार के इस मुतालबे का जवाब है कि मुहम्मद (सल्ल०) उनको कोई मोजिज़ा दिखाएँ। मुद्दआ यह है कि ऐसा मोजिज़ा देख लेने के बाद जब लोग उसकी तकज़ीब करते हैं, तो फिर लामुहाला उनपर नुज़ूले-अज़ाब वाजिब हो जाता है और फिर ऐसी क़ौम को तबाह किए बग़ैर नहीं छोड़ा जाता। अब यह सरासर अल्लाह की रहमत है कि वह ऐसा कोई मोजिज़ा नहीं भेज रहा है, मगर तुम ऐसे बेवक़ूफ़ लोग हो कि मोजिज़े का मुतालबा कर-करके समूद जैसे अंजाम से दोचार होना चाहते हो।