21. अल-अंबिया
(मक्का में उतरी-आयतें 112)
परिचय
नाम
चूँकि इस सूरा में निरन्तर बहुत-से नबियों का उल्लेख हुआ है, इसलिए इसका नाम 'अल-अंबिया' रख दिया गया। यह विषय की दृष्टि से सूरा का शीर्षक नहीं है, बल्कि केवल पहचानने के लिए एक लक्षणमात्र है।
अवतरण काल
विषय और वर्णन-शैली, दोनों से यही मालूम होता है कि इसके उतरने का समय मक्का का मध्यवर्ती काल अर्थात् हमारे काल-विभाजन की दृष्टि से नबी (सल्ल०) की मक्की ज़िन्दगी का तीसरा काल है।
विषय और वार्ताएँ
इस सूरा में उस संघर्ष पर वार्ता की गई है जो नबी (सल्ल०) और क़ुरैश के सरदारों के बीच चल रहा था। वे लोग प्यारे नबी (सल्ल०) की रिसालत के दावे और आपकी तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत और आख़िरत के अक़ीदे पर जो सन्देह और आक्षेप पेश करते थे, उनका उत्तर दिया गया है। उनकी ओर से आपके विरोध में जो चालें चली जा रही थीं, उनपर डॉट-फटकार की गई है और उन हरकतों के बुरे नतीजों से सावधान किया गया है और अन्त में उनको यह एहसास दिलाया गया है कि जिस व्यक्ति को तुम अपने लिए संकट और मुसीबत समझ रहे हो वह वास्तव में तुम्हारे लिए दयालुता बनकर आया है।
अभिभाषण करते समय मुख्य रूप से जिन बातों पर वार्ता की गई है, वे ये हैं-
- मक्का के विधर्मियों की यह कुधारणा कि इंसान कभी रसूल नहीं हो सकता और इस आधार पर उनका हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को रसूल मानने से इंकार करना- इस कुधारणा का सविस्तार खण्डन किया गया है।
- उनका नबी (सल्ल०) पर और क़ुरआन पर विभिन्न और विरोधाभासी आक्षेप करना और किसी एक बात पर न जमना- इसपर संक्षेप में मगर बहुत ही जोरदार और अर्थगर्भित ढंग से पकड़ की गई है।
- उनका यह विचार कि ज़िन्दगी बस एक खेल है जिसे कुछ दिन खेलकर यों ही समाप्त हो जाना है [इसका कोई हिसाब-किताब नहीं]- इसका बड़े ही प्रभावी ढंग से तोड़ किया गया है।
- शिर्क पर उनका आग्रह और तौहीद के विरुद्ध उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात - इसके सुधार के लिए संक्षेप में किन्तु महत्त्वपूर्ण और चित्ताकर्षक दलीलें भी दी गई है।
- उनका यह भ्रम कि नबी के बार-बार झुठालाने के बावजूद जब उनपर कोई अज़ाब नहीं आता तो अवश्य ही नबी झूठा है और अल्लाह के अज़ाब की धमकियाँ केवल धमकियाँ हैं- इसको दलीलों से और उपदेश देकर दोनों तरीक़ों से दूर करने की कोशिशें की गई हैं।
इसके बाद नबियों की जीवन-चर्याओं के महत्त्वपूर्ण घटनाओं से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जिनसे यह समझाना अभीष्ट है कि वे तमाम पैग़म्बर जो मानव-इतिहास के दौरान ख़ुदा की ओर से आए थे, इंसान थे। ईश्वरत्व और प्रभुता का उनमें लेशमात्र तक न था। इसके साथ इन्हीं ऐतिहासिक उदाहरणों से दो बातें और भी स्पष्ट हो गई हैं-एक यह कि नबियों पर तरह-तरह की मुसीबतें आती रही हैं और उनके विरोधियों ने भी उनको बर्बाद करने की कोशिशें को हैं, मगर आख़िरकार अल्लाह की ओर से असाधारण रूप से उनकी मदद की गई है। दूसरे यह कि तमाम नबियों का दीन एक था और वह वही दीन था जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं। मानव-जाति का असल दीन यही है और बाक़ी जितने धर्म दुनिया में बने हैं, वे केवल गुमराह इंसानों द्वारा डाली हुई फूट और संभेद है। अन्त में यह बताया गया है कि इंसान की नजात (मुक्ति) का आश्रय इसी दीन की पैरवी अपनाने पर है और इसका उतरना तो साक्षात दयालुता है।
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قَالَ رَبِّي يَعۡلَمُ ٱلۡقَوۡلَ فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ 3
(4) रसूल ने कहा, “मेरा रब हर उस बात को जानता है जो आसमान और ज़मीन में की जाए, वह समीअ और अलीम है।”1
1. यानी रसूल ने कभी इस झूटे प्रोपगण्डे और सरगोशियों की इस मुहिम का जवाब इसके सिवा न दिया कि तुम लोग जो कुछ बातें बनाते हो सब ख़ुदा सुनता और जानता है। ख़ाह ज़ोर से कहो, ख़ाह चुपके-चुपके कानों में फेंको। वह कभी बेइनसाफ़ दुश्मनों के मुक़ाबले में तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने पर न उतर आया।
بَلۡ قَالُوٓاْ أَضۡغَٰثُ أَحۡلَٰمِۭ بَلِ ٱفۡتَرَىٰهُ بَلۡ هُوَ شَاعِرٞ فَلۡيَأۡتِنَا بِـَٔايَةٖ كَمَآ أُرۡسِلَ ٱلۡأَوَّلُونَ 4
(5) वे कहते हैं, “बल्कि ये परागन्दा ख़ाब हैं, बल्कि ये इसकी मनगढ़त है, बल्कि यह शख़्स शायर है, वरना यह लाए कोई निशानी जिस तरह पुराने ज़माने के रसूल निशानियों के साथ भेजे गए थे।”
لَوۡ أَرَدۡنَآ أَن نَّتَّخِذَ لَهۡوٗا لَّٱتَّخَذۡنَٰهُ مِن لَّدُنَّآ إِن كُنَّا فَٰعِلِينَ 6
(17) अगर हम कोई खिलौना बनाना चाहते, और बस यही कुछ हमें करना होता तो अपने ही पास से कर लेते।4
4. यानी हमें खेलना ही होता तो खिलौने बनाकर हम ख़ुद ही खेल लेते। इस सूरत में ये ज़ुल्म तो हरगिज़ न किया जाता कि ख़ामख़ाह एक ज़ी-हिस, ज़ी-शुऊर, ज़िम्मेदार मख़लूक़ को पैदा कर डाला जाता, उसके दरमियान हक़ व बातिल की यह कशमकश और खींचातानियाँ कराई जातीं, और मह्ज़ अपने लुत्फ़ और तफ़रीह के लिए हम नेक बन्दों को बिला वजह तकलीफ़ों में डालते।
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَنۡ عِندَهُۥ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَلَا يَسۡتَحۡسِرُونَ 10
(19) ज़मीन और आसमानों में जो मख़लूक़ भी है, अल्लाह की है। और जो (फ़रिश्ते) उसके पास हैं वे न अपने-आपको बड़ा समझकर उसकी बन्दगी से सरताबी करते हैं और न मलूल होते5 हैं।
5. यानी ख़ुदा की बन्दगी करना उनको नागवार भी नहीं है कि बा-दिले-नाख़ास्ता बन्दगी करते-करते वे मलूल हो जाते हों, और अहकामे-इलाही बजा लाने में उनको तकान भी लाहिक़ नहीं होती।
لَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ كِتَٰبٗا فِيهِ ذِكۡرُكُمۡۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ 13
(10) लोगो! हमने तुम्हारी तरफ़ एक ऐसी किताब भेजी है जिसमें तुम्हारा ही ज़िक्र है, क्या तुम समझते नहीं हो!2
2. यानी इसमें कोई ख़ाब व ख़याल की बातें तो नहीं हैं। तुम्हारा अपना ही ज़िक्र है। तुम्हारे ही नफ़सियात और तुम्हारे ही मामलाते-ज़िन्दगी ज़ेरे-बहस हैं। तुम्हारी ही फ़ितरत व साख़्त और आग़ाज व अंजाम पर गुफ़्तगू है। तुम्हारे ही माहौल से निशानियाँ चुन-चुनकर पेश की गई हैं जो हक़ीक़त की तरफ़ इशारा कर रही हैं। और तुम्हारे ही अख़लाक़ी औसाफ़ में से फ़ज़ाइल और क़बाइह का फ़र्क़ नुमायाँ करके दिखाया जा रहा है जिसके सही होने पर तुम्हारे अपने ज़मीर गवाही देते हैं। इन सब बातों में क्या चीज़ ऐसी गुंजलक और पेचीदा है कि उसको समझने में तुम्हारी अक़्ल आजिज़ हो?
لَا تَرۡكُضُواْ وَٱرۡجِعُوٓاْ إِلَىٰ مَآ أُتۡرِفۡتُمۡ فِيهِ وَمَسَٰكِنِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡـَٔلُونَ 19
(13) (कहा गया) “भागो नहीं, जाओ अपने उन्हीं घरों और ऐश के सामानों में जिनके अन्दर तुम चैन कर रहे थे, शायद कि तुमसे पूछा जाए।”3
3. इसके कई मतलब हो सकते हैं, मसलन-जरा अच्छी तरह इस अज़ाब का मुआइना करो ताकि कल कोई इसकी कैफ़ियत पूछे तो ठीक बता सको! अपने वही ठाठ जमाकर फिर मजलिसें गर्म करो। शायद अब भी तुम्हारे ख़दम व हशम हाथ बाँधकर पूछें कि हुज़ूर क्या हुक्म है? अपनी वही कौंसिलें और कमेटियाँ जमाए बैठे रहो, शायद अब भी तुम्हारे आक़िलाना मश्वरों और मुदब्बिराना आरा से इस्तिफ़ादा करने के लिए दुनिया हाज़िर हो।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗۖ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡۖ هَٰذَا ذِكۡرُ مَن مَّعِيَ وَذِكۡرُ مَن قَبۡلِيۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ٱلۡحَقَّۖ فَهُم مُّعۡرِضُونَ 20
(24) क्या उसे छोड़कर इन्होंने दूसरे ख़ुदा बना लिए हैं? (ऐ नबी!) इनस कहो, “लाओ अपनी दलील, यह किताब भी मौजूद है जिसमें मेरे दौर के लोगों के लिए नसीहत है और वे किताबें भी मौजूद हैं जिनमें मुझसे पहले के लोगों के लिए नसीहत थी।” मगर इनमें से अकसर लोग हक़ीक़त से बेख़बर हैं, इसलिए मुँह मोड़े हुए हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ 34
(33) और वह अल्लाह ही है जिसने रात और दिन बनाए और सूरज और चाँद को पैदा किया। सब एक-एक फ़लक में तैर रहे हैं।6
6. 6. 'फ़-ल-क' जो फ़ारिसी के चर्ख़ और गर्दूं का ठीक हममानी है, अरबी ज़बान में आसमान के मारूफ़ नामों में से है। “सब एक-एक फ़लक में तैर रहे हैं” से दो बातें साफ़ समझ में आती हैं। एक यह कि ये सब तारे एक ही 'फ़लक' में नहीं है, बल्कि हर एक का फ़लक अलग है। दूसरा यह कि फ़लक कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसमें ये तारे ख़ूटियों की तरह जड़े हुए हों और वह ख़ुद इन्हें लिए हुए घूम रहा हो, बल्कि वह कोई सय्याल शय है या फ़िज़ा और ख़ला की-सी नौइयत की चीज़ है जिसमें इन तारों की हरकत तैरने के फ़ेल से मुशाबहत रखती है।
قَالَ بَلۡ فَعَلَهُۥ كَبِيرُهُمۡ هَٰذَا فَسۡـَٔلُوهُمۡ إِن كَانُواْ يَنطِقُونَ 37
(63) उसने जवाब दिया, “बल्कि यह सब कुछ इनके इस सरदार ने किया है, इन्हीं से पूछ लो अगर ये बोलते हो।”8
8. अलफ़ाज़ ख़ुद ज़ाहिर कर रहे हैं कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने यह बात इसलिए कही थी कि वे लोग जवाब में ख़ुद इसका इक़रार करें कि उनके ये माबूद बिलकुल बेबस हैं और उनसे किसी फ़ेल की तवक़्क़ो तक नहीं की जा सकती। ऐसे मवाक़े पर एक शख़्स इस्तिदलाल की ख़ातिर जो ख़िलाफ़े-वाक़िआ बात कहता है उसको झूठ क़रार नहीं दिया जा सकता क्योंकि न वह ख़ुद झूठ की नीयत से ऐसी बात कहता है और न उसके मुख़ातब ही उसे झूठ समझते हैं। कहनेवाला उसे हुज्जत क़ायम करने के लिए कहता है और सुननेवाला भी उसे इसी मानी में लेता है।
قُلۡنَا يَٰنَارُ كُونِي بَرۡدٗا وَسَلَٰمًا عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ 46
(69) हमने कहा, “ऐ आग! ठंडी हो जा और सलामती बन जा इबराहीम पर।”9
9. अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं, और सियाक़ व सबाक़ भी इस मफ़हूम की ताईद कर रहा है कि उन्होंने वाक़ई अपने इस फ़ैसले पर अमल किया, और जब आग का अलाव तैयार करके उन्होंने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उसमें फेंका तो अल्लाह तआला ने आग को हुक्म दिया कि वह इबराहीम के लिए ठण्डी हो जाए और बेज़रर बनकर रह जाए। पस सरीह तौर पर यह भी उन मोजिज़ात में से एक है जो क़ुरआन में बयान किए गए हैं।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَكَشَفۡنَا مَا بِهِۦ مِن ضُرّٖۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ أَهۡلَهُۥ وَمِثۡلَهُم مَّعَهُمۡ رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَا وَذِكۡرَىٰ لِلۡعَٰبِدِينَ 47
(84) हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और जो तकलीफ़ उसे थी उसको दूर कर दिया, और सिर्फ़ उसके अहलो-अयाल ही उसको नहीं दिए, बल्कि उनके साथ उतने ही और भी दिए, अपनी ख़ास रहमत के तौर पर, और इसलिए कि यह एक सबक़ हो इबादतगुज़ारों के लिए।
وَذَا ٱلنُّونِ إِذ ذَّهَبَ مُغَٰضِبٗا فَظَنَّ أَن لَّن نَّقۡدِرَ عَلَيۡهِ فَنَادَىٰ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ أَن لَّآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنتَ سُبۡحَٰنَكَ إِنِّي كُنتُ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ 53
(87) और मछलीवाले11 को भी हमने नवाज़ा। याद करो, जबकि वह बिगड़कर चला गया था12 और समझा था कि हम इसपर गिरिफ़्त न करेंगे। आख़िर को उसने तारीकियों में से पुकारा,13 नहीं है कोई ख़ुदा मगर पाक है तेरी ज़ात, बेशक मैंने क़ुसूर किया।”
11. मुराद हैं हज़रत यूनुस (अलैहि०)। कहीं उनका नाम लिया गया है और कहीं ‘ज़ुन्नून’ और ‘साहिबुल-हूत’ यानी मछलीवाले के अलक़ाब से याद किया गया है। मछलीवाला उन्हें इसलिए नहीं कहा गया है कि वे मछलियाँ पकड़ते और बेचते थे, बल्कि इस बिना पर कि अल्लाह तआला के इज़्न से एक मछली ने उनको निगल लिया था, जैसा कि सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-142 में बयान हुआ है।
12. यानी वे अपनी क़ौम से नाराज़ होकर चले गए, क़ब्ल इसके कि ख़ुदा की तरफ़ से हिजरत का हुक्म आता। और उनके लिए अपनी ड्यूटी की जगह से हटना जाइज़ होता।
13. यानी मछली के पेट में से जो ख़ुद तारीक था और ऊपर से समुन्दर की तारीकियाँ मज़ीद।
فَفَهَّمۡنَٰهَا سُلَيۡمَٰنَۚ وَكُلًّا ءَاتَيۡنَا حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَسَخَّرۡنَا مَعَ دَاوُۥدَ ٱلۡجِبَالَ يُسَبِّحۡنَ وَٱلطَّيۡرَۚ وَكُنَّا فَٰعِلِينَ 67
(79) उस वक़्त हमने सही फ़ैसला सुलैमान को समझा दिया, हालाँकि हुक्म और इल्म हमने दोनों ही को अता किया था। दाऊद के साथ हमने पहाड़ों और परिन्दों को मुसख़्ख़र कर दिया था जो तसबीह करते थे, इस फ़ेल के करनेवाले हम ही थे,
وَلَقَدۡ كَتَبۡنَا فِي ٱلزَّبُورِ مِنۢ بَعۡدِ ٱلذِّكۡرِ أَنَّ ٱلۡأَرۡضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ ٱلصَّٰلِحُونَ 68
(105) और ज़बूर में हम नसीहत के बाद यह लिख चुके हैं कि ज़मीन के वारिस हमारे नेक बन्दे होंगे।17
17. इस आयत को समझने के लिए सूरा-39 ज़ुमर, आयत-73, 74 मुलाहज़ा हों।
وَٱقۡتَرَبَ ٱلۡوَعۡدُ ٱلۡحَقُّ فَإِذَا هِيَ شَٰخِصَةٌ أَبۡصَٰرُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَٰوَيۡلَنَا قَدۡ كُنَّا فِي غَفۡلَةٖ مِّنۡ هَٰذَا بَلۡ كُنَّا ظَٰلِمِينَ 78
(97) और वादा-ए-बरहक़ के पूरा होने का वक़्त15 क़रीब आ लगेगा तो यकायक, उन लोगों के दीदे फटे-के-फटे रह जाएँगे जिन्होंने कुफ़्र किया था। कहेंगे, “हाय हमारी कमबख़्ती! हम इस चीज़ की तरफ़ से ग़फ़लत में पड़े हुए थे, बल्कि हम ख़ताकार थे।”
15. यानी क़ियामत बरपा होने का वक़्त।
إِنَّكُمۡ وَمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ حَصَبُ جَهَنَّمَ أَنتُمۡ لَهَا وَٰرِدُونَ 80
(98) बेशक तुम और तुम्हारे वे माबूद जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो, जहन्नम का ईंधन हैं, वहीं तुमको जाना है।16
16. रिवायात में आया है कि इस आयत पर मुशरिकीन के सरदारों में से एक ने एतिराज़ किया कि इस तरह तो सिर्फ़ हमारे ही माबूद नहीं, मसीह (अलैहि०), उज़ैर (अलैहि०) और मलाइका भी जहन्नम में जाएँगे क्योंकि दुनिया में उनकी भी इबादत की जाती है। इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ, हर वह शख़्स जिसने पसन्द किया कि अल्लाह के बजाय उसकी बन्दगी की जाए वह उन लोगों के साथ होगा जिन्होंने उसकी बन्दगी की।”
بَلۡ مَتَّعۡنَا هَٰٓؤُلَآءِ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ طَالَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡعُمُرُۗ أَفَلَا يَرَوۡنَ أَنَّا نَأۡتِي ٱلۡأَرۡضَ نَنقُصُهَا مِنۡ أَطۡرَافِهَآۚ أَفَهُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ 95
(44) अस्ल बात यह है कि इन लोगों को और इनके आबा व अजदाद को हम ज़िन्दगी का सरो-सामान दिए चले गए यहाँ तक कि उनको दिन लग गए। मगर क्या इन्हें नज़र नहीं आता कि हम ज़मीन को मुख़्तलिफ़ सम्तों से घटाते चले आ रहे हैं?7 फिर क्या ये ग़ालिब आ जाएँगे?
7. यानी ज़मीन में हमारी ग़ालिब ताक़त की कारफ़रमाई के ये आसार अलानिया नज़र आते हैं कि अचानक कभी क़ह्त की शक्ल में, कभी वबा की शक्ल में, कभी सैलाब की शक्ल में, कभी ज़लज़ले की शक्ल में, कभी सर्दी या गर्मी की शक्ल में कोई बला ऐसी आ जाती है जो इनसान के सब किए-धरे पर पानी फेर देती हैं, हज़ारों-लाखों आदमी मर जाते हैं, बस्तियाँ तबाह हो जाती हैं, लहलहाती खेतियाँ ग़ारत हो जाती हैं, पैदावार घट जाती है, तिजारतों में कसाद-बाज़ारी आने लगती है। ग़रज़ इनसान के वसाइले-ज़िन्दगी में कभी किसी तरफ़ से कमी वाक़े हो जाती है और कभी किसी तरफ़ से। और इनसान अपना सारा ज़ोर लगाकर भी इन नुक़सानात को नहीं रोक सकता।