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سُورَةُ الأَنبِيَاءِ

21. अल-अंबिया

(मक्का में उतरी-आयतें 112)

परिचय

नाम

चूँकि इस सूरा में निरन्तर बहुत-से नबियों का उल्लेख हुआ है, इसलिए इसका नाम 'अल-अंबिया' रख दिया गया। यह विषय की दृष्टि से सूरा का शीर्षक नहीं है, बल्कि केवल पहचानने के लिए एक लक्षणमात्र है।

अवतरण काल

विषय और वर्णन-शैली, दोनों से यही मालूम होता है कि इसके उतरने का समय मक्का का मध्यवर्ती काल अर्थात् हमारे काल-विभाजन की दृष्टि से नबी (सल्ल०) की मक्की ज़िन्दगी का तीसरा काल है।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में उस संघर्ष पर वार्ता की गई है जो नबी (सल्ल०) और क़ुरैश के सरदारों के बीच चल रहा था। वे लोग प्यारे नबी (सल्ल०) की रिसालत के दावे और आपकी तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत और आख़िरत के अक़ीदे पर जो सन्देह और आक्षेप पेश करते थे, उनका उत्तर दिया गया है। उनकी ओर से आपके विरोध में जो चालें चली जा रही थीं, उनपर डॉट-फटकार की गई है और उन हरकतों के बुरे नतीजों से सावधान किया गया है और अन्त में उनको यह एहसास दिलाया गया है कि जिस व्यक्ति को तुम अपने लिए संकट और मुसीबत समझ रहे हो वह वास्तव में तुम्हारे लिए दयालुता बनकर आया है।

अभिभाषण करते समय मुख्य रूप से जिन बातों पर वार्ता की गई है, वे ये हैं-

  1. मक्का के विधर्मियों की यह कुधारणा कि इंसान कभी रसूल नहीं हो सकता और इस आधार पर उनका हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को रसूल मानने से इंकार करना- इस कुधारणा का सविस्तार खण्डन किया गया है।
  2. उनका नबी (सल्ल०) पर और क़ुरआन पर विभिन्न और विरोधाभासी आक्षेप करना और किसी एक बात पर न जमना- इसपर संक्षेप में मगर बहुत ही जोरदार और अर्थगर्भित ढंग से पकड़ की गई है।
  3. उनका यह विचार कि ज़िन्दगी बस एक खेल है जिसे कुछ दिन खेलकर यों ही समाप्त हो जाना है [इसका कोई हिसाब-किताब नहीं]- इसका बड़े ही प्रभावी ढंग से तोड़ किया गया है।
  4. शिर्क पर उनका आग्रह और तौहीद के विरुद्ध उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात - इसके सुधार के लिए संक्षेप में किन्तु महत्त्वपूर्ण और चित्ताकर्षक दलीलें भी दी गई है।
  5. उनका यह भ्रम कि नबी के बार-बार झुठालाने के बावजूद जब उनपर कोई अज़ाब नहीं आता तो अवश्य ही नबी झूठा है और अल्लाह के अज़ाब की धमकियाँ केवल धमकियाँ हैं- इसको दलीलों से और उपदेश देकर दोनों तरीक़ों से दूर करने की कोशिशें की गई हैं।

इसके बाद नबियों की जीवन-चर्याओं के महत्त्वपूर्ण घटनाओं से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जिनसे यह समझाना अभीष्ट है कि वे तमाम पैग़म्बर जो मानव-इतिहास के दौरान ख़ुदा की ओर से आए थे, इंसान थे। ईश्वरत्व और प्रभुता का उनमें लेशमात्र तक न था। इसके साथ इन्हीं ऐतिहासिक उदाहरणों से दो बातें और भी स्पष्ट हो गई हैं-एक यह कि नबियों पर तरह-तरह की मुसीबतें आती रही हैं और उनके विरोधियों ने भी उनको बर्बाद करने की कोशिशें को हैं, मगर आख़िरकार अल्लाह की ओर से असाधारण रूप से उनकी मदद की गई है। दूसरे यह कि तमाम नबियों का दीन एक था और वह वही दीन था जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं। मानव-जाति का असल दीन यही है और बाक़ी जितने धर्म दुनिया में बने हैं, वे केवल गुमराह इंसानों द्वारा डाली हुई फूट और संभेद है। अन्त में यह बताया गया है कि इंसान की नजात (मुक्ति) का आश्रय इसी दीन की पैरवी अपनाने पर है और इसका उतरना तो साक्षात दयालुता है।

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سُورَةُ الأَنبِيَاءِ
21. अल-अम्बिया
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱقۡتَرَبَ لِلنَّاسِ حِسَابُهُمۡ وَهُمۡ فِي غَفۡلَةٖ مُّعۡرِضُونَ
(1) क़रीब आ गया है लोगों के हिसाब का वक़्त, और वे हैं कि ग़फ़लत में मुँह मोड़े हुए हैं।
مَا يَأۡتِيهِم مِّن ذِكۡرٖ مِّن رَّبِّهِم مُّحۡدَثٍ إِلَّا ٱسۡتَمَعُوهُ وَهُمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 1
(2) उनके पास जो ताज़ा नसीहत उनके रब की तरफ़ से आती है उसको बतकल्लुफ़ सुनते हैं और खेल में पड़े रहते हैं,
لَاهِيَةٗ قُلُوبُهُمۡۗ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّجۡوَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ هَلۡ هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡۖ أَفَتَأۡتُونَ ٱلسِّحۡرَ وَأَنتُمۡ تُبۡصِرُونَ ۝ 2
(3) दिल उनके (दूसरी ही फ़िक्रों में) मुनहमिक हैं। और ज़ालिम आपस में सरगोशियाँ करते हैं कि “यह शख़्स आख़िर तुम जैसा एक बशर ही तो है, फिर क्या तुम आँखों देखते जादू के फंदे में फंस जाओगे?”
قَالَ رَبِّي يَعۡلَمُ ٱلۡقَوۡلَ فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 3
(4) रसूल ने कहा, “मेरा रब हर उस बात को जानता है जो आसमान और ज़मीन में की जाए, वह समीअ और अलीम है।”1
1. यानी रसूल ने कभी इस झूटे प्रोपगण्डे और सरगोशियों की इस मुहिम का जवाब इसके सिवा न दिया कि तुम लोग जो कुछ बातें बनाते हो सब ख़ुदा सुनता और जानता है। ख़ाह ज़ोर से कहो, ख़ाह चुपके-चुपके कानों में फेंको। वह कभी बेइनसाफ़ दुश्मनों के मुक़ाबले में तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने पर न उतर आया।
بَلۡ قَالُوٓاْ أَضۡغَٰثُ أَحۡلَٰمِۭ بَلِ ٱفۡتَرَىٰهُ بَلۡ هُوَ شَاعِرٞ فَلۡيَأۡتِنَا بِـَٔايَةٖ كَمَآ أُرۡسِلَ ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 4
(5) वे कहते हैं, “बल्कि ये परागन्दा ख़ाब हैं, बल्कि ये इसकी मनगढ़त है, बल्कि यह शख़्स शायर है, वरना यह लाए कोई निशानी जिस तरह पुराने ज़माने के रसूल निशानियों के साथ भेजे गए थे।”
مَآ ءَامَنَتۡ قَبۡلَهُم مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَآۖ أَفَهُمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 5
(6) हालाँकि उनसे पहले कोई बस्ती भी, जिसे हमने हलाक किया, ईमान न लाई। अब क्या ये ईमान लाएँगे?
لَوۡ أَرَدۡنَآ أَن نَّتَّخِذَ لَهۡوٗا لَّٱتَّخَذۡنَٰهُ مِن لَّدُنَّآ إِن كُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 6
(17) अगर हम कोई खिलौना बनाना चाहते, और बस यही कुछ हमें करना होता तो अपने ही पास से कर लेते।4
4. यानी हमें खेलना ही होता तो खिलौने बनाकर हम ख़ुद ही खेल लेते। इस सूरत में ये ज़ुल्म तो हरगिज़ न किया जाता कि ख़ामख़ाह एक ज़ी-हिस, ज़ी-शुऊर, ज़िम्मेदार मख़लूक़ को पैदा कर डाला जाता, उसके दरमियान हक़ व बातिल की यह कशमकश और खींचातानियाँ कराई जातीं, और मह्ज़ अपने लुत्फ़ और तफ़रीह के लिए हम नेक बन्दों को बिला वजह तकलीफ़ों में डालते।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 7
(7) और (ऐ नबी!) तुमसे पहले भी हमने इनसानों ही को रसूल बनाकर भेजा था जिनपर हम वह्य किया करते थे। तुम लोग अगर इल्म नहीं रखते तो अहले-किताब से पूछ लो।
بَلۡ نَقۡذِفُ بِٱلۡحَقِّ عَلَى ٱلۡبَٰطِلِ فَيَدۡمَغُهُۥ فَإِذَا هُوَ زَاهِقٞۚ وَلَكُمُ ٱلۡوَيۡلُ مِمَّا تَصِفُونَ ۝ 8
(18) मगर हम तो बातिल पर की चोट लगाते हैं जो उसका सिर तोड़ देती है और वह देखते-देखते मिट जाता है, और तुम्हारे लिए तबाही है उन बातों की वजह से जो तुम बनाते हो।
وَمَا جَعَلۡنَٰهُمۡ جَسَدٗا لَّا يَأۡكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَمَا كَانُواْ خَٰلِدِينَ ۝ 9
(8) उन रसूलों को हमने कोई ऐसा जिस्म नहीं दिया था कि वे खाते न हों, और न वे सदा जीनेवाले थे।
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَنۡ عِندَهُۥ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَلَا يَسۡتَحۡسِرُونَ ۝ 10
(19) ज़मीन और आसमानों में जो मख़लूक़ भी है, अल्लाह की है। और जो (फ़रिश्ते) उसके पास हैं वे न अपने-आपको बड़ा समझकर उसकी बन्दगी से सरताबी करते हैं और न मलूल होते5 हैं।
5. यानी ख़ुदा की बन्दगी करना उनको नागवार भी नहीं है कि बा-दिले-नाख़ास्ता बन्दगी करते-करते वे मलूल हो जाते हों, और अहकामे-इलाही बजा लाने में उनको तकान भी लाहिक़ नहीं होती।
ثُمَّ صَدَقۡنَٰهُمُ ٱلۡوَعۡدَ فَأَنجَيۡنَٰهُمۡ وَمَن نَّشَآءُ وَأَهۡلَكۡنَا ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 11
(9) फिर देख लो कि आख़िरकार हमने उनके साथ अपने वादे पूरे किए, और उन्हें और जिस-जिस को हमने चाहा बचा लिया, और हद से गुज़र जानेवालों को हलाक कर दिया।
يُسَبِّحُونَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ لَا يَفۡتُرُونَ ۝ 12
(20) शब व रोज़ उसकी तसबीह करते रहते हैं, दम नहीं लेते।
لَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ كِتَٰبٗا فِيهِ ذِكۡرُكُمۡۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 13
(10) लोगो! हमने तुम्हारी तरफ़ एक ऐसी किताब भेजी है जिसमें तुम्हारा ही ज़िक्र है, क्या तुम समझते नहीं हो!2
2. यानी इसमें कोई ख़ाब व ख़याल की बातें तो नहीं हैं। तुम्हारा अपना ही ज़िक्र है। तुम्हारे ही नफ़सियात और तुम्हारे ही मामलाते-ज़िन्दगी ज़ेरे-बहस हैं। तुम्हारी ही फ़ितरत व साख़्त और आग़ाज व अंजाम पर गुफ़्तगू है। तुम्हारे ही माहौल से निशानियाँ चुन-चुनकर पेश की गई हैं जो हक़ीक़त की तरफ़ इशारा कर रही हैं। और तुम्हारे ही अख़लाक़ी औसाफ़ में से फ़ज़ाइल और क़बाइह का फ़र्क़ नुमायाँ करके दिखाया जा रहा है जिसके सही होने पर तुम्हारे अपने ज़मीर गवाही देते हैं। इन सब बातों में क्या चीज़ ऐसी गुंजलक और पेचीदा है कि उसको समझने में तुम्हारी अक़्ल आजिज़ हो?
أَمِ ٱتَّخَذُوٓاْ ءَالِهَةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ هُمۡ يُنشِرُونَ ۝ 14
(21) क्या इन लोगों के बनाए हुए आरज़ी ख़ुदा ऐसे हैं कि (बेजान को जान बख़्शकर) उठा खड़ा करते हों?
وَكَمۡ قَصَمۡنَا مِن قَرۡيَةٖ كَانَتۡ ظَالِمَةٗ وَأَنشَأۡنَا بَعۡدَهَا قَوۡمًا ءَاخَرِينَ ۝ 15
(11) कितनी ही ज़ालिम बस्तियाँ हैं जिनको हमने पीसकर रख दिया और उनके बाद दूसरी किसी क़ौम को उठाया।
لَوۡ كَانَ فِيهِمَآ ءَالِهَةٌ إِلَّا ٱللَّهُ لَفَسَدَتَاۚ فَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ رَبِّ ٱلۡعَرۡشِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 16
(22) अगर आसमान व ज़मीन में एक अल्लाह के सिवा दूसरे ख़ुदा भी होते तो (ज़मीन और आसमान) दोनों का निज़ाम बिगड़ जाता। पस पाक है अल्लाह रब्बुल-अर्श उन बातों से जो ये लोग बना रहे हैं।
فَلَمَّآ أَحَسُّواْ بَأۡسَنَآ إِذَا هُم مِّنۡهَا يَرۡكُضُونَ ۝ 17
(12) जब उनको हमारा अज़ाब महसूस हुआ तो लगे वहाँ से भागने।
لَا يُسۡـَٔلُ عَمَّا يَفۡعَلُ وَهُمۡ يُسۡـَٔلُونَ ۝ 18
(23) वह अपने कामी के लिए (किसी के आगे) जवाबदेह नहीं है और सब जवाबदेह हैं।
لَا تَرۡكُضُواْ وَٱرۡجِعُوٓاْ إِلَىٰ مَآ أُتۡرِفۡتُمۡ فِيهِ وَمَسَٰكِنِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡـَٔلُونَ ۝ 19
(13) (कहा गया) “भागो नहीं, जाओ अपने उन्हीं घरों और ऐश के सामानों में जिनके अन्दर तुम चैन कर रहे थे, शायद कि तुमसे पूछा जाए।”3
3. इसके कई मतलब हो सकते हैं, मसलन-जरा अच्छी तरह इस अज़ाब का मुआइना करो ताकि कल कोई इसकी कैफ़ियत पूछे तो ठीक बता सको! अपने वही ठाठ जमाकर फिर मजलिसें गर्म करो। शायद अब भी तुम्हारे ख़दम व हशम हाथ बाँधकर पूछें कि हुज़ूर क्या हुक्म है? अपनी वही कौंसिलें और कमेटियाँ जमाए बैठे रहो, शायद अब भी तुम्हारे आक़िलाना मश्वरों और मुदब्बिराना आरा से इस्तिफ़ादा करने के लिए दुनिया हाज़िर हो।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗۖ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡۖ هَٰذَا ذِكۡرُ مَن مَّعِيَ وَذِكۡرُ مَن قَبۡلِيۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ٱلۡحَقَّۖ فَهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 20
(24) क्या उसे छोड़कर इन्होंने दूसरे ख़ुदा बना लिए हैं? (ऐ नबी!) इनस कहो, “लाओ अपनी दलील, यह किताब भी मौजूद है जिसमें मेरे दौर के लोगों के लिए नसीहत है और वे किताबें भी मौजूद हैं जिनमें मुझसे पहले के लोगों के लिए नसीहत थी।” मगर इनमें से अकसर लोग हक़ीक़त से बेख़बर हैं, इसलिए मुँह मोड़े हुए हैं।
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 21
(14) कहने लगे, “हाय हमारी कमबख़्ती! बेशक हम ख़तावार थे।”
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رَّسُولٍ إِلَّا نُوحِيٓ إِلَيۡهِ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 22
(25) हमने तुमसे पहले जो रसूल भी भेजा है उसको यही वह्य की है कि मेरे सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, पस तुम लोग मेरी ही बन्दगी करो।
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۚ بَلۡ عِبَادٞ مُّكۡرَمُونَ ۝ 23
(26) ये कहते हैं, “रहमान औलाद रखता है।” सुब्हानल्लाह, वे (यानी फ़रिश्ते) तो बन्दे हैं जिन्हें इज़्ज़त दी गई है।
فَمَا زَالَت تِّلۡكَ دَعۡوَىٰهُمۡ حَتَّىٰ جَعَلۡنَٰهُمۡ حَصِيدًا خَٰمِدِينَ ۝ 24
(15) और वे यही पुकारते रहे, यहाँ तक कि हमने उनको खलियान कर दिया। ज़िन्दगी का एक शरारा तक उनमें न रहा।
لَا يَسۡبِقُونَهُۥ بِٱلۡقَوۡلِ وَهُم بِأَمۡرِهِۦ يَعۡمَلُونَ ۝ 25
(27) उसके हुज़ूर बढ़कर नहीं बोलते और बस उसके हुक्म पर अमल करते हैं।
خُلِقَ ٱلۡإِنسَٰنُ مِنۡ عَجَلٖۚ سَأُوْرِيكُمۡ ءَايَٰتِي فَلَا تَسۡتَعۡجِلُونِ ۝ 26
(37) इनसान जल्दबाज़ मख़लूक़ है। अभी मैं तुमको अपनी निशानियाँ दिखाए देता हूँ, मुझसे जल्दी न मचाओ।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَآءَ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا لَٰعِبِينَ ۝ 27
(16) हमने इस आसमान और ज़मीन को और जो कुछ इनमें हैं कुछ खेल के तौर पर नहीं बनाया है।
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَلَا يَشۡفَعُونَ إِلَّا لِمَنِ ٱرۡتَضَىٰ وَهُم مِّنۡ خَشۡيَتِهِۦ مُشۡفِقُونَ ۝ 28
(28) जो कुछ उनके सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उससे भी वह बाख़बर है। वे किसी की सिफ़ारिश नहीं करते बजुज़ उसके जिसके हक़ में सिफ़ारिश सुनने पर अल्लाह राज़ी हो, और वे उसके ख़ौफ़ से डरे रहते हैं।
۞وَمَن يَقُلۡ مِنۡهُمۡ إِنِّيٓ إِلَٰهٞ مِّن دُونِهِۦ فَذَٰلِكَ نَجۡزِيهِ جَهَنَّمَۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 29
(29) और जो उनमें से कोई कह दे कि अल्लाह के सिवा मैं भी एक ख़ुदा हूँ, तो उसे हम जहन्नम की सज़ा दें, हमारे यहाँ ज़ालिमों का यही बदला है।
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ كَانَتَا رَتۡقٗا فَفَتَقۡنَٰهُمَاۖ وَجَعَلۡنَا مِنَ ٱلۡمَآءِ كُلَّ شَيۡءٍ حَيٍّۚ أَفَلَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 30
(30) क्या वे लोग जिन्होंने (नबी की बात मानने से) इनकार कर दिया है ग़ौर नहीं करते कि ये सब आसमान और ज़मीन बाहम मिले हुए थे, फिर हमने जुदा किया, और पानी से हर ज़िन्दा चीज़ पैदा की? क्या वे (हमारी इस ख़ल्लाक़ी को) नहीं मानते?
وَجَعَلۡنَا فِي ٱلۡأَرۡضِ رَوَٰسِيَ أَن تَمِيدَ بِهِمۡ وَجَعَلۡنَا فِيهَا فِجَاجٗا سُبُلٗا لَّعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 31
(31) और हमने ज़मीन में पहाड़ जमा दिए ताकि वह इन्हें लेकर ढुलक न जाए, और उसमें कुशादा राहें बना दीं, शायद कि लोग अपना रास्ता मालूम कर लें।
وَجَعَلۡنَا ٱلسَّمَآءَ سَقۡفٗا مَّحۡفُوظٗاۖ وَهُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِهَا مُعۡرِضُونَ ۝ 32
(32) और हमने आसमान को एक महफ़ूज़ छत बना दिया। मगर ये हैं कि कायनात की निशानियों की तरफ़ तवज्जोह ही नहीं करते।
قَالُواْ فَأۡتُواْ بِهِۦ عَلَىٰٓ أَعۡيُنِ ٱلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَشۡهَدُونَ ۝ 33
(61) उन्होंने कहा, “तो पकड़ लाओ उसे सबके सामने ताकि लोग देख लें (उसकी कैसी ख़बर ली जाती है)।”
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 34
(33) और वह अल्लाह ही है जिसने रात और दिन बनाए और सूरज और चाँद को पैदा किया। सब एक-एक फ़लक में तैर रहे हैं।6
6. 6. 'फ़-ल-क' जो फ़ारिसी के चर्ख़ और गर्दूं का ठीक हममानी है, अरबी ज़बान में आसमान के मारूफ़ नामों में से है। “सब एक-एक फ़लक में तैर रहे हैं” से दो बातें साफ़ समझ में आती हैं। एक यह कि ये सब तारे एक ही 'फ़लक' में नहीं है, बल्कि हर एक का फ़लक अलग है। दूसरा यह कि फ़लक कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसमें ये तारे ख़ूटियों की तरह जड़े हुए हों और वह ख़ुद इन्हें लिए हुए घूम रहा हो, बल्कि वह कोई सय्याल शय है या फ़िज़ा और ख़ला की-सी नौइयत की चीज़ है जिसमें इन तारों की हरकत तैरने के फ़ेल से मुशाबहत रखती है।
قَالُوٓاْ ءَأَنتَ فَعَلۡتَ هَٰذَا بِـَٔالِهَتِنَا يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ ۝ 35
(62) (इबराहीम के आने पर) उन्होंने पूछा, “क्यों इबराहीम! तूने हमारे ख़ुदाओं के साथ यह हरकत की है?”
وَمَا جَعَلۡنَا لِبَشَرٖ مِّن قَبۡلِكَ ٱلۡخُلۡدَۖ أَفَإِيْن مِّتَّ فَهُمُ ٱلۡخَٰلِدُونَ ۝ 36
(34) और (ऐ नबी!) हमेशगी तो हमने तुमसे पहले भी किसी इनसान के लिए नहीं रखी है, अगर तुम मर गए तो क्या ये लोग हमेशा जीते रहेंगे?
قَالَ بَلۡ فَعَلَهُۥ كَبِيرُهُمۡ هَٰذَا فَسۡـَٔلُوهُمۡ إِن كَانُواْ يَنطِقُونَ ۝ 37
(63) उसने जवाब दिया, “बल्कि यह सब कुछ इनके इस सरदार ने किया है, इन्हीं से पूछ लो अगर ये बोलते हो।”8
8. अलफ़ाज़ ख़ुद ज़ाहिर कर रहे हैं कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने यह बात इसलिए कही थी कि वे लोग जवाब में ख़ुद इसका इक़रार करें कि उनके ये माबूद बिलकुल बेबस हैं और उनसे किसी फ़ेल की तवक़्क़ो तक नहीं की जा सकती। ऐसे मवाक़े पर एक शख़्स इस्तिदलाल की ख़ातिर जो ख़िलाफ़े-वाक़िआ बात कहता है उसको झूठ क़रार नहीं दिया जा सकता क्योंकि न वह ख़ुद झूठ की नीयत से ऐसी बात कहता है और न उसके मुख़ातब ही उसे झूठ समझते हैं। कहनेवाला उसे हुज्जत क़ायम करने के लिए कहता है और सुननेवाला भी उसे इसी मानी में लेता है।
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۗ وَنَبۡلُوكُم بِٱلشَّرِّ وَٱلۡخَيۡرِ فِتۡنَةٗۖ وَإِلَيۡنَا تُرۡجَعُونَ ۝ 38
(35) हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है, और हम अच्छे और बुरे हालात डालकर तुम सबकी आज़माइश कर रहे हैं। आख़िरकार तुम्हें हमारी ही तरफ़ पलटना है।
فَرَجَعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ فَقَالُوٓاْ إِنَّكُمۡ أَنتُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 39
(64) ये सुनकर वे अपने ज़मीर की तरफ़ पलटे और (अपने दिलों में) कहने लगे, “वाक़ई तुम ख़ुद ही ज़ालिम हो।”
وَإِذَا رَءَاكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَتَّخِذُونَكَ إِلَّا هُزُوًا أَهَٰذَا ٱلَّذِي يَذۡكُرُ ءَالِهَتَكُمۡ وَهُم بِذِكۡرِ ٱلرَّحۡمَٰنِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 40
(36) ये मुनकिरीने-हक़ जब तुम्हें देखते हैं तो तुम्हारा मज़ाक़ बना लेते हैं। कहते हैं, “क्या यह है वह शख़्स जो तुम्हारे ख़ुदाओं का ज़िक्र किया करता है?” और इनका अपना हाल यह है कि रहमान के ज़िक्र से मुनकिर हैं।
ثُمَّ نُكِسُواْ عَلَىٰ رُءُوسِهِمۡ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَا هَٰٓؤُلَآءِ يَنطِقُونَ ۝ 41
(65) मगर फिर उनकी मत पलट गई और बोले, “तू जानता है कि ये बोलते नहीं हैं।”
قَالَ أَفَتَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يَضُرُّكُمۡ ۝ 42
(66) इबराहीम ने कहा, “फिर क्या तुम अल्लाह को छोड़कर उन चीज़ों को पूज रहे हो जो न तुम्हें नफ़ा पहुँचाने पर क़ादिर हैं, न नुक़सान।
أُفّٖ لَّكُمۡ وَلِمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 43
(67) तुफ़ है तुमपर और तुम्हारे उन माबूदों पर जिनकी तुम अल्लाह को छोड़कर पूजा कर रहे हो! क्या तुम कुछ भी अक़्ल नहीं रखते?”
قَالُواْ حَرِّقُوهُ وَٱنصُرُوٓاْ ءَالِهَتَكُمۡ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 44
(68) उन्होंने कहा, “जला डालो इसको और हिमायत करो अपने ख़ुदाओं की अगर तुम्हें कुछ करना है।”
۞وَأَيُّوبَ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥٓ أَنِّي مَسَّنِيَ ٱلضُّرُّ وَأَنتَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 45
(83) और (यही होशमन्दी और हुक्म व इल्म की नेमत) हमने अय्यूब को दी थी। याद करो, जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि “मुझे बीमारी लग गई है और तू अर्हमुर्राहिमीन है!”
قُلۡنَا يَٰنَارُ كُونِي بَرۡدٗا وَسَلَٰمًا عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 46
(69) हमने कहा, “ऐ आग! ठंडी हो जा और सलामती बन जा इबराहीम पर।”9
9. अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं, और सियाक़ व सबाक़ भी इस मफ़हूम की ताईद कर रहा है कि उन्होंने वाक़ई अपने इस फ़ैसले पर अमल किया, और जब आग का अलाव तैयार करके उन्होंने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उसमें फेंका तो अल्लाह तआला ने आग को हुक्म दिया कि वह इबराहीम के लिए ठण्डी हो जाए और बेज़रर बनकर रह जाए। पस सरीह तौर पर यह भी उन मोजिज़ात में से एक है जो क़ुरआन में बयान किए गए हैं।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَكَشَفۡنَا مَا بِهِۦ مِن ضُرّٖۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ أَهۡلَهُۥ وَمِثۡلَهُم مَّعَهُمۡ رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَا وَذِكۡرَىٰ لِلۡعَٰبِدِينَ ۝ 47
(84) हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और जो तकलीफ़ उसे थी उसको दूर कर दिया, और सिर्फ़ उसके अहलो-अयाल ही उसको नहीं दिए, बल्कि उनके साथ उतने ही और भी दिए, अपनी ख़ास रहमत के तौर पर, और इसलिए कि यह एक सबक़ हो इबादतगुज़ारों के लिए।
وَأَرَادُواْ بِهِۦ كَيۡدٗا فَجَعَلۡنَٰهُمُ ٱلۡأَخۡسَرِينَ ۝ 48
(70) वे चाहते थे कि इबराहीम के साथ बुराई करें। मगर हमने उनको बुरी तरह नाकाम कर दिया।
وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِدۡرِيسَ وَذَا ٱلۡكِفۡلِۖ كُلّٞ مِّنَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 49
(85) और यही नेमत इसमाईल और इदरीस और ज़ुल-किफ़्ल को दी कि ये सब साबिर लोग थे।
وَنَجَّيۡنَٰهُ وَلُوطًا إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَا لِلۡعَٰلَمِينَ ۝ 50
(71) और हम उसे और लूत को बचाकर उस सरज़मीन की तरफ़ निकाल ले गए जिसमें हमने दुनियावालों के लिए बरकतें रखी हैं।
وَأَدۡخَلۡنَٰهُمۡ فِي رَحۡمَتِنَآۖ إِنَّهُم مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 51
(86) और उनको हमने अपनी रहमत में दाख़िल किया कि वे सॉलेहों में से थे।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ نَافِلَةٗۖ وَكُلّٗا جَعَلۡنَا صَٰلِحِينَ ۝ 52
(72) और हमने उसे इसहाक़ अता किया और याक़ूब इसपर मज़ीद,10 और हर एक को सॉलेह बनाया।
10. यानी बेटे के बाद पोता भी ऐसा हुआ जिसे नुबूवत से सरफ़राज़ किया गया।
وَذَا ٱلنُّونِ إِذ ذَّهَبَ مُغَٰضِبٗا فَظَنَّ أَن لَّن نَّقۡدِرَ عَلَيۡهِ فَنَادَىٰ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ أَن لَّآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنتَ سُبۡحَٰنَكَ إِنِّي كُنتُ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 53
(87) और मछलीवाले11 को भी हमने नवाज़ा। याद करो, जबकि वह बिगड़कर चला गया था12 और समझा था कि हम इसपर गिरिफ़्त न करेंगे। आख़िर को उसने तारीकियों में से पुकारा,13 नहीं है कोई ख़ुदा मगर पाक है तेरी ज़ात, बेशक मैंने क़ुसूर किया।”
11. मुराद हैं हज़रत यूनुस (अलैहि०)। कहीं उनका नाम लिया गया है और कहीं ‘ज़ुन्नून’ और ‘साहिबुल-हूत’ यानी मछलीवाले के अलक़ाब से याद किया गया है। मछलीवाला उन्हें इसलिए नहीं कहा गया है कि वे मछलियाँ पकड़ते और बेचते थे, बल्कि इस बिना पर कि अल्लाह तआला के इज़्न से एक मछली ने उनको निगल लिया था, जैसा कि सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-142 में बयान हुआ है।
12. यानी वे अपनी क़ौम से नाराज़ होकर चले गए, क़ब्ल इसके कि ख़ुदा की तरफ़ से हिजरत का हुक्म आता। और उनके लिए अपनी ड्यूटी की जगह से हटना जाइज़ होता।
13. यानी मछली के पेट में से जो ख़ुद तारीक था और ऊपर से समुन्दर की तारीकियाँ मज़ीद।
وَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَئِمَّةٗ يَهۡدُونَ بِأَمۡرِنَا وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِمۡ فِعۡلَ ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَإِقَامَ ٱلصَّلَوٰةِ وَإِيتَآءَ ٱلزَّكَوٰةِۖ وَكَانُواْ لَنَا عَٰبِدِينَ ۝ 54
(73) और हमने उनको इमाम बना दिया जो हमारे हुक्म से रहनुमाई करते थे। और हमने उन्हें वह्य के ज़रिए नेक कामों की और नमाज़ क़ायम करने और ज़कात देने की हिदायत की, और वे हमारे इबादतगुज़ार थे।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ وَنَجَّيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡغَمِّۚ وَكَذَٰلِكَ نُـۨجِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 55
(88) तब हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और ग़म से उसको नजात बख़्शी, और इसी तरह हम मोमिनों को बचा लिया करते हैं।
وَلُوطًا ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗا وَنَجَّيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِي كَانَت تَّعۡمَلُ ٱلۡخَبَٰٓئِثَۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمَ سَوۡءٖ فَٰسِقِينَ ۝ 56
(74) और लूत को हमने हुक्म और इल्म बख़्शा और उसे उस बस्ती से बचाकर निकाल दिया जो बदकारियाँ करती थी। — दर हक़ीक़त वह बड़ी ही बुरी फ़ासिक़ क़ौम थी।
وَزَكَرِيَّآ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥ رَبِّ لَا تَذَرۡنِي فَرۡدٗا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡوَٰرِثِينَ ۝ 57
(89) और ज़करीया को, जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि “ऐ परवरदिगार! मुझे अकेला न छोड़, और बेहतरीन वारिस तो तू ही है।”
وَأَدۡخَلۡنَٰهُ فِي رَحۡمَتِنَآۖ إِنَّهُۥ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 58
(75) — और लूत को हमने अपनी रहमत में दाख़िल किया, वह सॉलेह लोगों में से था।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ وَوَهَبۡنَا لَهُۥ يَحۡيَىٰ وَأَصۡلَحۡنَا لَهُۥ زَوۡجَهُۥٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَيَدۡعُونَنَا رَغَبٗا وَرَهَبٗاۖ وَكَانُواْ لَنَا خَٰشِعِينَ ۝ 59
(90) पस हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और उसे यहया अता किया और उसकी बीवी को उसके लिए दुरुस्त कर दिया। ये लोग नेकी के कामों में दौड़-धूप करते थे और हमें रग़बत और ख़ौफ़ के साथ पुकारते थे, और हमारे आगे झुके हुए थे।
وَنُوحًا إِذۡ نَادَىٰ مِن قَبۡلُ فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلۡكَرۡبِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 60
(76) और यही नेमत हमने नूह को दी। याद करो जबकि इन सबसे पहले उसने हमें पुकारा था। हमने उसकी दुआ क़ुबूल की और उसे और उसके घरवालों को करबे-अज़ीम से नजात दी
وَٱلَّتِيٓ أَحۡصَنَتۡ فَرۡجَهَا فَنَفَخۡنَا فِيهَا مِن رُّوحِنَا وَجَعَلۡنَٰهَا وَٱبۡنَهَآ ءَايَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 61
(91) और वह ख़ातून जिसने अपनी इसमत की हिफ़ाज़त की थी।14 हमने उसके अन्दर अपनी रूह से फूँका और उसे और उसके बेटे को दुनिया भर के लिए निशानी बना दिया।
14. इससे मुराद हज़रत मरयम (अलैहि०) हैं।
وَنَصَرۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمَ سَوۡءٖ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 62
(77) और उस क़ौम के मुक़ाबले में उसकी मदद की जिसने हमारी आयात को झुठला दिया था। वे बड़े बुरे लोग थे, पस हमने उन सबको ग़र्क़ कर दिया।
إِنَّ هَٰذِهِۦٓ أُمَّتُكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَأَنَا۠ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 63
(92) यह तुम्हारी उम्मत हक़ीक़त में एक ही उम्मत है और मैं तुम्हारा रब हूँ, पस तुम मेरी इबादत करो।
يَوۡمَ نَطۡوِي ٱلسَّمَآءَ كَطَيِّ ٱلسِّجِلِّ لِلۡكُتُبِۚ كَمَا بَدَأۡنَآ أَوَّلَ خَلۡقٖ نُّعِيدُهُۥۚ وَعۡدًا عَلَيۡنَآۚ إِنَّا كُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 64
(104) वह दिन जबकि आसमान को हम यूँ लपेटकर रख देंगे जैसे तूमार में औराक़ लपेट दिए जाते हैं। जिस तरह पहले हमने तख़लीक़ की इबतिदा की थी उसी तरह हम फिर उसका इआदा करेंगे। यह एक वादा है हमारे ज़िम्मे, और यह काम हमें बहरहाल करना है।
وَدَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ إِذۡ يَحۡكُمَانِ فِي ٱلۡحَرۡثِ إِذۡ نَفَشَتۡ فِيهِ غَنَمُ ٱلۡقَوۡمِ وَكُنَّا لِحُكۡمِهِمۡ شَٰهِدِينَ ۝ 65
(78) और इसी नेमत से हमने दाऊद और सुलैमान को सरफ़राज़ किया। याद करो वह मौक़ा जबकि दोनों एक खेत के मुक़द्दमे में फ़ैसला कर रहे थे जिसमें रात के वक़्त दूसरे लोगों की बकरियाँ फैल गई थीं, और हम उनकी अदालत हलाँकि ख़ुद देख रहे थे।
وَتَقَطَّعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡۖ كُلٌّ إِلَيۡنَا رَٰجِعُونَ ۝ 66
(93) मगर (ये लोगों की कारस्तानी है कि उन्होंने आपस में अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर डाला। — सबको हमारी तरफ़ पलटना है।
فَفَهَّمۡنَٰهَا سُلَيۡمَٰنَۚ وَكُلًّا ءَاتَيۡنَا حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَسَخَّرۡنَا مَعَ دَاوُۥدَ ٱلۡجِبَالَ يُسَبِّحۡنَ وَٱلطَّيۡرَۚ وَكُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 67
(79) उस वक़्त हमने सही फ़ैसला सुलैमान को समझा दिया, हालाँकि हुक्म और इल्म हमने दोनों ही को अता किया था। दाऊद के साथ हमने पहाड़ों और परिन्दों को मुसख़्ख़र कर दिया था जो तसबीह करते थे, इस फ़ेल के करनेवाले हम ही थे,
وَلَقَدۡ كَتَبۡنَا فِي ٱلزَّبُورِ مِنۢ بَعۡدِ ٱلذِّكۡرِ أَنَّ ٱلۡأَرۡضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ ٱلصَّٰلِحُونَ ۝ 68
(105) और ज़बूर में हम नसीहत के बाद यह लिख चुके हैं कि ज़मीन के वारिस हमारे नेक बन्दे होंगे।17
17. इस आयत को समझने के लिए सूरा-39 ज़ुमर, आयत-73, 74 मुलाहज़ा हों।
فَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَا كُفۡرَانَ لِسَعۡيِهِۦ وَإِنَّا لَهُۥ كَٰتِبُونَ ۝ 69
(94) फिर जो नेक अमल करेगा, इस हाल में कि वह मोमिन हो, तो उसके काम की नाक़द्री न होगी, और उसे हम लिख रहे हैं।
وَعَلَّمۡنَٰهُ صَنۡعَةَ لَبُوسٖ لَّكُمۡ لِتُحۡصِنَكُم مِّنۢ بَأۡسِكُمۡۖ فَهَلۡ أَنتُمۡ شَٰكِرُونَ ۝ 70
(80) और हमने उसको तुम्हारे फ़ायदे के लिए ज़िरह बनाने की सनअत सिखा दी थी, ताकि तुमको एक-दूसरे की मार से बचाए, फिर क्या तुम शुक्रगुज़ार हो?
إِنَّ فِي هَٰذَا لَبَلَٰغٗا لِّقَوۡمٍ عَٰبِدِينَ ۝ 71
(106) इसमें एक बड़ी ख़बर है इबादतगुज़ार लोगों के लिए।
وَحَرَٰمٌ عَلَىٰ قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَآ أَنَّهُمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 72
(95) और मुमकिन नहीं है कि जिस बस्ती को हमने हलाक कर दिया हो वह फिर पलट सके।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا رَحۡمَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 73
(107) (ऐ नबी!) हमने तो तुमको दुनियावालों के लिए रहमत बनाकर भेजा है।
وَلِسُلَيۡمَٰنَ ٱلرِّيحَ عَاصِفَةٗ تَجۡرِي بِأَمۡرِهِۦٓ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَاۚ وَكُنَّا بِكُلِّ شَيۡءٍ عَٰلِمِينَ ۝ 74
(81) और सुलैमान के लिए हमने तेज़ हवा को मुसख़्ख़र कर दिया था जो उसके हुक्म से उस सरज़मीन की तरफ़ चलती थी जिसमें हमने बरकतें रखी हैं, हम हर चीज़ का इल्म रखनेवाले थे।
حَتَّىٰٓ إِذَا فُتِحَتۡ يَأۡجُوجُ وَمَأۡجُوجُ وَهُم مِّن كُلِّ حَدَبٖ يَنسِلُونَ ۝ 75
(96) यहाँ तक कि जब याजूज और माजूज खोल दिए जाएँगे और हर बलन्दी से वे निकल पड़ेंगे
وَمِنَ ٱلشَّيَٰطِينِ مَن يَغُوصُونَ لَهُۥ وَيَعۡمَلُونَ عَمَلٗا دُونَ ذَٰلِكَۖ وَكُنَّا لَهُمۡ حَٰفِظِينَ ۝ 76
(82) और शयातीन में से हमने ऐसे बहुत-सों को उसका ताबे बना दिया था जो उसके लिए ग़ोते लगाते और उसके सिवा दूसरे काम करते थे। इन सबके निगराँ हम ही थे।
قُلۡ إِنَّمَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 77
(108) उनसे कहो, “मेरे पास जो वह्य आती है वह यह है कि तुम्हारा ख़ुदा सिर्फ़ एक ख़ुदा है, फिर क्या तुम सरे-इताअत झुकाते हो?”
وَٱقۡتَرَبَ ٱلۡوَعۡدُ ٱلۡحَقُّ فَإِذَا هِيَ شَٰخِصَةٌ أَبۡصَٰرُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَٰوَيۡلَنَا قَدۡ كُنَّا فِي غَفۡلَةٖ مِّنۡ هَٰذَا بَلۡ كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 78
(97) और वादा-ए-बरहक़ के पूरा होने का वक़्त15 क़रीब आ लगेगा तो यकायक, उन लोगों के दीदे फटे-के-फटे रह जाएँगे जिन्होंने कुफ़्र किया था। कहेंगे, “हाय हमारी कमबख़्ती! हम इस चीज़ की तरफ़ से ग़फ़लत में पड़े हुए थे, बल्कि हम ख़ताकार थे।”
15. यानी क़ियामत बरपा होने का वक़्त।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُلۡ ءَاذَنتُكُمۡ عَلَىٰ سَوَآءٖۖ وَإِنۡ أَدۡرِيٓ أَقَرِيبٌ أَم بَعِيدٞ مَّا تُوعَدُونَ ۝ 79
(109) अगर वे मुँह फेरें तो कह दो कि “मैंने अलल-एलान तुमको ख़बरदार कर दिया है। अब यह मैं नहीं जानता कि वह चीज़ जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है क़रीब है या दूर।
إِنَّكُمۡ وَمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ حَصَبُ جَهَنَّمَ أَنتُمۡ لَهَا وَٰرِدُونَ ۝ 80
(98) बेशक तुम और तुम्हारे वे माबूद जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो, जहन्नम का ईंधन हैं, वहीं तुमको जाना है।16
16. रिवायात में आया है कि इस आयत पर मुशरिकीन के सरदारों में से एक ने एतिराज़ किया कि इस तरह तो सिर्फ़ हमारे ही माबूद नहीं, मसीह (अलैहि०), उज़ैर (अलैहि०) और मलाइका भी जहन्नम में जाएँगे क्योंकि दुनिया में उनकी भी इबादत की जाती है। इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ, हर वह शख़्स जिसने पसन्द किया कि अल्लाह के बजाय उसकी बन्दगी की जाए वह उन लोगों के साथ होगा जिन्होंने उसकी बन्दगी की।”
إِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلۡجَهۡرَ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ وَيَعۡلَمُ مَا تَكۡتُمُونَ ۝ 81
(110) अल्लाह वे बातें भी जानता है जो बआवाज़े-बलन्द कही जाती हैं और वे भी जो तुम छिपाकर करते हो।
وَإِنۡ أَدۡرِي لَعَلَّهُۥ فِتۡنَةٞ لَّكُمۡ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 82
(111) मैं तो यह समझता हूँ कि शायद यह (देर) तुम्हारे लिए एक फ़ितना है और तुम्हें एक वक़्ते-ख़ास तक के लिए मज़े करने का मौक़ा दिया जा रहा है।”
لَوۡ كَانَ هَٰٓؤُلَآءِ ءَالِهَةٗ مَّا وَرَدُوهَاۖ وَكُلّٞ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 83
(99) अगर ये वाक़ई ख़ुदा होते तो वहाँ न जाते। अब सबको हमेशा उसी में रहना है।
قَٰلَ رَبِّ ٱحۡكُم بِٱلۡحَقِّۗ وَرَبُّنَا ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلۡمُسۡتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ ۝ 84
(112) (आख़िरकार) रसूल ने कहा, “ऐ मेरे रब! हक़ के साथ फ़ैसला कर दे, और लोगो! तुम जो बातें बनाते हो उनके मुक़ाबले में हमारा रब्बे-रहमान ही हमारे लिए मदद का सहारा है।”
لَهُمۡ فِيهَا زَفِيرٞ وَهُمۡ فِيهَا لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 85
(100) वहाँ वे फुँकारे मारेंगे और हाल यह होगा कि उसमें कान पड़ी आवाज़ न सुनाई देगी।
إِنَّ ٱلَّذِينَ سَبَقَتۡ لَهُم مِّنَّا ٱلۡحُسۡنَىٰٓ أُوْلَٰٓئِكَ عَنۡهَا مُبۡعَدُونَ ۝ 86
(101) रहे वे लोग जिनके लिए हमारी तरफ़ से भलाई का पहले ही फ़ैसला हो चुका होगा, तो वे यक़ीनन उससे दूर रखे जाएँगे,
لَا يَسۡمَعُونَ حَسِيسَهَاۖ وَهُمۡ فِي مَا ٱشۡتَهَتۡ أَنفُسُهُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 87
(102) उसकी सरसराहट तक न सुनेंगे और वे हमेशा-हमेशा अपनी मनभाती चीज़ों के दरमियान रहेंगे,
لَا يَحۡزُنُهُمُ ٱلۡفَزَعُ ٱلۡأَكۡبَرُ وَتَتَلَقَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ هَٰذَا يَوۡمُكُمُ ٱلَّذِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 88
(103) वह इन्तिहाई घबराहट का वक़्त उनको ज़रा परेशान न करेगा और मलाइका बढ़कर उनको हाथों-हाथ लेंगे कि “यह तुम्हारा वही दिन है जिसका तुमसे वादा किया जाता था।”
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 89
(38) — ये लोग कहते हैं, “आख़िर यह धमकी पूरी कब होगी अगर तुम सच्चे हो?”
لَوۡ يَعۡلَمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ حِينَ لَا يَكُفُّونَ عَن وُجُوهِهِمُ ٱلنَّارَ وَلَا عَن ظُهُورِهِمۡ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 90
(39) काश! इन काफ़िरों को उस वक़्त का कुछ इल्म होता जबकि ये न अपने मुँह आग से बचा सकेंगे न अपनी पीठें, और न इनको कहीं से मदद पहुँचेगी।
بَلۡ تَأۡتِيهِم بَغۡتَةٗ فَتَبۡهَتُهُمۡ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ رَدَّهَا وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 91
(40) वह बला अचानक आएगी और इन्हें इस तरह यकलख़्त दबोच लेगी कि ये न उसको दफ़ा कर सकेंगे और न इनको लम्हे-भर मुहलत ही मिल सकेगी।
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَحَاقَ بِٱلَّذِينَ سَخِرُواْ مِنۡهُم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 92
(41) मज़ाक़ तुमसे पहले भी रसूलों का उड़ाया जा चुका है, मगर उनका मज़ाक़ उड़ानेवाले उसी चीज़ के फेर में आकर रहे जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
قُلۡ مَن يَكۡلَؤُكُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ مِنَ ٱلرَّحۡمَٰنِۚ بَلۡ هُمۡ عَن ذِكۡرِ رَبِّهِم مُّعۡرِضُونَ ۝ 93
(42) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “कौन है जो रात को या दिन को तुम्हें रहमान से बचा सकता हो? “मगर ये अपने रब की नसीहत से मुँह मोड़ रहे हैं।
أَمۡ لَهُمۡ ءَالِهَةٞ تَمۡنَعُهُم مِّن دُونِنَاۚ لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَ أَنفُسِهِمۡ وَلَا هُم مِّنَّا يُصۡحَبُونَ ۝ 94
(43) क्या ये कुछ ऐसे ख़ुदा रखते हैं जो हमारे मुक़ाबले में इनकी हिमायत करें? वे तो न ख़ुद अपनी मदद कर सकते हैं और न हमारी ही ताईद उनको हासिल है।
بَلۡ مَتَّعۡنَا هَٰٓؤُلَآءِ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ طَالَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡعُمُرُۗ أَفَلَا يَرَوۡنَ أَنَّا نَأۡتِي ٱلۡأَرۡضَ نَنقُصُهَا مِنۡ أَطۡرَافِهَآۚ أَفَهُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 95
(44) अस्ल बात यह है कि इन लोगों को और इनके आबा व अजदाद को हम ज़िन्दगी का सरो-सामान दिए चले गए यहाँ तक कि उनको दिन लग गए। मगर क्या इन्हें नज़र नहीं आता कि हम ज़मीन को मुख़्तलिफ़ सम्तों से घटाते चले आ रहे हैं?7 फिर क्या ये ग़ालिब आ जाएँगे?
7. यानी ज़मीन में हमारी ग़ालिब ताक़त की कारफ़रमाई के ये आसार अलानिया नज़र आते हैं कि अचानक कभी क़ह्त की शक्ल में, कभी वबा की शक्ल में, कभी सैलाब की शक्ल में, कभी ज़लज़ले की शक्ल में, कभी सर्दी या गर्मी की शक्ल में कोई बला ऐसी आ जाती है जो इनसान के सब किए-धरे पर पानी फेर देती हैं, हज़ारों-लाखों आदमी मर जाते हैं, बस्तियाँ तबाह हो जाती हैं, लहलहाती खेतियाँ ग़ारत हो जाती हैं, पैदावार घट जाती है, तिजारतों में कसाद-बाज़ारी आने लगती है। ग़रज़ इनसान के वसाइले-ज़िन्दगी में कभी किसी तरफ़ से कमी वाक़े हो जाती है और कभी किसी तरफ़ से। और इनसान अपना सारा ज़ोर लगाकर भी इन नुक़सानात को नहीं रोक सकता।
قُلۡ إِنَّمَآ أُنذِرُكُم بِٱلۡوَحۡيِۚ وَلَا يَسۡمَعُ ٱلصُّمُّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا مَا يُنذَرُونَ ۝ 96
(45) इनसे कह दो कि “मैं तो वह्य की बिना पर तुम्हें मुतनेब्बह कर रहा हूँ।” — मगर बहरे पुकार को नहीं सुना करते, जबकि इन्हें ख़बरदार किया जाए।
وَلَئِن مَّسَّتۡهُمۡ نَفۡحَةٞ مِّنۡ عَذَابِ رَبِّكَ لَيَقُولُنَّ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 97
(46) और अगर तेरे रब का अज़ाब ज़रा-सा उन्हें छू जाए तो अभी चीख़ उठें कि हाय हमारी कमबख़्ती! बेशक हम ख़तावार थे।
وَنَضَعُ ٱلۡمَوَٰزِينَ ٱلۡقِسۡطَ لِيَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَلَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗاۖ وَإِن كَانَ مِثۡقَالَ حَبَّةٖ مِّنۡ خَرۡدَلٍ أَتَيۡنَا بِهَاۗ وَكَفَىٰ بِنَا حَٰسِبِينَ ۝ 98
(47) क़ियामत के रोज़ हम ठीक-ठीक तौलनेवाले तराज़ू रख देंगे, फिर किसी शख़्स पर ज़र्रा बराबर ज़ुल्म न होगा। जिसका राई के दाने बराबर भी किया-धरा होगा वह हम सामने ले आएँगे। और हिसाब लगाने के लिए हम काफ़ी हैं।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ٱلۡفُرۡقَانَ وَضِيَآءٗ وَذِكۡرٗا لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 99
(48) पहले हम मूसा और हारून को फ़ुरक़ान और रौशनी और 'ज़िक्र’ अता कर चुके हैं उन मुत्तक़ी लोगों की भलाई के लिए
ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُم بِٱلۡغَيۡبِ وَهُم مِّنَ ٱلسَّاعَةِ مُشۡفِقُونَ ۝ 100
(49) जो बेदेखे अपने रब से डरे और जिनको (हिसाब की) उस घड़ी का खटका लगा हुआ हो।
وَهَٰذَا ذِكۡرٞ مُّبَارَكٌ أَنزَلۡنَٰهُۚ أَفَأَنتُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 101
(50) और अब यह बाबरकत 'ज़िक्र' हमने (तुम्हारे लिए) नाज़िल किया है। फिर क्या तुम इसको क़ुबूल करने से इनकारी हो?
۞وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَآ إِبۡرَٰهِيمَ رُشۡدَهُۥ مِن قَبۡلُ وَكُنَّا بِهِۦ عَٰلِمِينَ ۝ 102
(51) उससे भी पहले हमने इबराहीम को उसकी होशमन्दी बख़्शी थी और हम उसको ख़ूब जानते थे।
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَا هَٰذِهِ ٱلتَّمَاثِيلُ ٱلَّتِيٓ أَنتُمۡ لَهَا عَٰكِفُونَ ۝ 103
(52) याद करो वह मौक़ा जबकि उसने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा था कि “ये मूरतें कैसी हैं जिनके तुम लोग गिरवीदा हो रहे हो?”
قَالُواْ وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا لَهَا عَٰبِدِينَ ۝ 104
(53) उन्होंने जवाब दिया, “हमने अपने बाप-दादा को इनकी इबादत करते पाया है।”
قَالَ لَقَدۡ كُنتُمۡ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُمۡ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 105
(54) उसने कहा, “तुम भी गुमराह हो और तुम्हारे बाप-दादा भी सरीह गुमराही में पड़े हुए थे।”
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا بِٱلۡحَقِّ أَمۡ أَنتَ مِنَ ٱللَّٰعِبِينَ ۝ 106
(55) उन्होंने कहा, “क्या तू हमारे सामने अपने असली ख़यालात पेश कर रहा है या मज़ाक़ करता है?”
قَالَ بَل رَّبُّكُمۡ رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ ٱلَّذِي فَطَرَهُنَّ وَأَنَا۠ عَلَىٰ ذَٰلِكُم مِّنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 107
(56) उसने जवाब दिया, “नहीं, बल्कि फ़िल-वाक़े तुम्हारा रब वही है जो ज़मीन और आसमानों का रब और उनका पैदा करनेवाला है। इसपर मैं तुम्हारे सामने गवाही देता हूँ।
وَتَٱللَّهِ لَأَكِيدَنَّ أَصۡنَٰمَكُم بَعۡدَ أَن تُوَلُّواْ مُدۡبِرِينَ ۝ 108
(57) और ख़ुदा की कसम! मैं तुम्हारी ग़ैर-मौजूदगी में ज़रूर तुम्हारे बुतों की ख़बर लूँगा।”
فَجَعَلَهُمۡ جُذَٰذًا إِلَّا كَبِيرٗا لَّهُمۡ لَعَلَّهُمۡ إِلَيۡهِ يَرۡجِعُونَ ۝ 109
(58) चुनाँचे उसने उनको टुकड़े-टुकड़े कर दिया और सिर्फ़ उनके बड़े को छोड़ दिया, ताकि शायद वे उसकी तरफ़ रुजूअ करें।
قَالُواْ مَن فَعَلَ هَٰذَا بِـَٔالِهَتِنَآ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 110
(59) (उन्होंने आकर बुतों का यह हाल देखा तो) कहने लगे, “हमारे ख़ुदाओं का यह हाल किसने कर दिया? बड़ा ही कोई ज़ालिम था वह!”
قَالُواْ سَمِعۡنَا فَتٗى يَذۡكُرُهُمۡ يُقَالُ لَهُۥٓ إِبۡرَٰهِيمُ ۝ 111
(60) (बाज़ लोग) बोले, “हमने एक नौजवान को इनका ज़िक्र करते सुना था जिसका नाम इबराहीम है।”