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هُوَ ٱلَّذِيٓ أَخۡرَجَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن دِيَٰرِهِمۡ لِأَوَّلِ ٱلۡحَشۡرِۚ مَا ظَنَنتُمۡ أَن يَخۡرُجُواْۖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مَّانِعَتُهُمۡ حُصُونُهُم مِّنَ ٱللَّهِ فَأَتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِنۡ حَيۡثُ لَمۡ يَحۡتَسِبُواْۖ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَۚ يُخۡرِبُونَ بُيُوتَهُم بِأَيۡدِيهِمۡ وَأَيۡدِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فَٱعۡتَبِرُواْ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ

59. अल-हश्र

(मक्का में उतरी, आयतें 24)

परिचय

नाम

दूसरी आयत के वाक्यांश 'अख़-र-जल्लज़ी-न क-फ़-रू मिन अहलिल किताबि मिन दियारिहिम लिअव्वलिल हश्र' अर्थात् 'अहले-किताब काफ़िरों को पहले ही हल्ले (हश्र) में उनके घरों से निकाल बाहर किया' से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अल- हश्र' शब्द आया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) [फ़रमाते हैं कि सूरा हश्र] बनी-नज़ीर के अभियान के बारे में उतरी थी जिस तरह सूरा-8 (अन्‌फ़ाल) बद्र के युद्ध के विषय में उतरी थी। [(हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) विश्वस्त उल्लेखों के अनुसार इस अभियान का समय रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० है।]

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इस सूरा की वार्ताओं को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि मदीना तय्यिबा और हिजाज़ के यहूदियों के इतिहास पर एक दृष्टि डाली जाए, क्योंकि इसके बिना आदमी ठीक-ठीक यह नहीं जान सकता कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अन्ततः उनके विभिन्न क़बीलों के साथ जो मामला किया, उसके वास्तविक कारण क्या थे। [यह इतिहास पहली सदी ईसवी के अन्त से शुरू होता है,] जब सन् 70 ई० में रूमियों (रोमवासियों) ने फ़िलस्तीन में यहूदियों का क़त्ले-आम किया और फिर सन् 132 ई० में उन्हें इस भू-भाग से बिल्कुल निकाल बाहर किया। उस समय बहुत-से यहूदी क़बीलों ने भागकर हिजाज़ में शरण ली थी, क्योंकि यह क्षेत्र फ़िलस्तीन के दक्षिण से बिल्कुल मिला हुआ था। यहाँ आकर उन्होंने जहाँ-जहाँ पानी के स्रोत और हरे-भरे स्थान देखे, वहाँ ठहर गए और फिर धीरे-धीरे अपने जोड़-तोड़ और सूदी (ब्याज के) कारोबारों के ज़रिए उनपर क़ब्ज़ा जमा लिया। ऐला, मक़ना, तबूक, तैमा, वादिउल-क़ुरा, फ़दक और ख़ैबर पर उनका क़ब्ज़ा उसी समय में क़ायम हुआ और बनी-क़ुरैज़ा, बनी-नज़ीर, बनी-बहदल और बनी-कैनुक़ाअ ने भी उसी समय आकर यसरिब (मदीना का पुराना नाम) पर क़ब्ज़ी जमाया। यसरिब में आबाद होनेवाले क़बीलों में से बनी-नज़ीर और बनी-क़ुरेज़ा अधिक प्रसिद्ध और प्रभुत्वशाली थे, क्योंकि उनका सम्बन्ध काहिनों के वर्ग से था। उन्हें यहदियों में उच्च वंश का माना जाता था और उनको अपने संप्रदाय में धार्मिक नेतृत्व प्राप्त था। ये लोग जब मदीना में आकर आबाद हुए उस समय कुछ दूसरे अरब क़बीले यहाँ रहते थे, जिनको उन्होंने दबा लिया और व्यावहारिक रूप से इस हरी-भरी जगह के मालिक बन बैठे। इसके लगभग तीन शताब्दी के बाद औस और ख़ज़रज यसरिब में जाकर आबाद हुए [और उन्होंने कुछ दिनों बाद यहूदियों का ज़ोर तोड़कर यसरिब पर पूरा आधिपत्य प्राप्त कर लिया।] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने से पहले, हिजरत के आरंभ तक, हिजाज़ में सामान्य रूप से और यसरिब में विशेष रूप से यहूदियों की स्थिति की स्पष्ट रूप-रेखाएँ ये थीं—

भाषा, पहनावा, संस्कृति एवं सभ्यता, हर दृष्टि से उन्होंने पूरी तरह से अरब-संस्कृति का रंग अपना लिया था। उनके और अरबों के बीच शादी-ब्याह तक के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, लेकिन इन सारी बातों के बावजूद वे अरबों में समाहित बिल्कुल न हुए थे और उन्होंने कठोरतापूर्वक अपने यहूदी पक्षपात को जीवित रखा था। उनमें अत्यन्त इसराईली पक्षपात और वंशगत गर्व और अहंकार पाया जाता था। अरबवालों को वे उम्मी (Gentiles) कहते थे जिसका अर्थ केवल अपढ़ ही नहीं बल्कि असभ्य और उज्जड होता था। उनकी धारणा यह थी कि इन 'उम्मियों' को वे मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इसराईलियों के लिए हैं और उनका माल हर वैध या अवैध तरीक़े से मार खाना इसराईलियों के लिए वैध और विशुद्ध है। आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति अरब क़बीलों की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ थी। वे बहुत-सी ऐसी कलाएँ जानते थे जो अरबों में नहीं पाई जाती थीं और बाहर की दुनिया से उनके व्यावसायिक संबंध भी थे। वे अपने व्यापार में ख़ूब लाभ बटोरते थे, लेकिन उनका सबसे बड़ा कारोबार ब्याज लेने का था, जिसके जाल में उन्होंने अपने आसपास की अरब आबादियों को फाँस रखा था। मगर इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी था कि अरबों में सामान्य रूप से उनके विरुद्ध एक गहरी घृणा पाई जाती थी। उनके व्यापारिक और आर्थिक हितों की अपेक्षा यह थी कि अरबों में किसी के मित्र बनकर किसी से न बिगाड़ें और न उनकी आपसी लड़ाइयों में भाग लें। इसके अलावा अपनी रक्षा के लिए उनके हर क़बीले ने किसी न किसी शक्तिशाली अरब क़बीले से प्रतिज्ञाबद्ध मैत्रीपूर्ण संबंध भी स्थापित [कर रखे थे।] यसरिब में बनी-क़ुरैज़ा और बनी-नज़ीर औस के प्रतिज्ञाबद्ध मित्र थे और बनी-क़ैनुक़ाअ ख़ज़रज के। ये परिस्थितियाँ थीं जब मदीना में इस्लाम पहुँचा और अन्ततः अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने के बाद वहाँ एक इस्लामी राज्य अस्तित्व में आया। आप (सल्ल०) ने इस राज्य को स्थापित करते ही सबसे पहले जो काम किए उनमें से एक यह था कि औस और ख़ज़रज और मुहाजिरों को मिलाकर एक बिरादरी बनाई, और दूसरा यह था कि इस मुस्लिम समाज और यहूदियों के मध्य स्पष्ट शर्तों पर एक समझौता तय किया, जिसमें इस बात की ज़मानत दी गई थी कि कोई किसी के अधिकारों पर हाथ न डालेगा और बाहरी शत्रुओं के मुक़ाबले में ये सब मिलकर बचाव करेंगे। इस समझौते के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश ये हैं—

''.....यह कि यहूदी अपना ख़र्च उठाएँगे और मुसलमान अपना ख़र्च, और यह कि इस समझौते में शरीक लोग हमलावर के मुक़ाबले में एक-दूसरे की मदद करने के पाबन्द होंगे, और यह कि वे शुद्ध हृदयता के साथ एक-दूसरे का हित चाहेंगे और उनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध यह होगा कि वे एक-दूसरे के साथ न्याय करेंगे। गुनाह और ज़्यादती नहीं करेंगे और यह कि कोई उसके साथ ज़्यादती न करेगा जिसके साथ उसकी प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री है, और यह कि उत्पीड़ित की मदद की जाएगी, और यह कि जब तक लड़ाई रहे, यहूदी मुसलमानों के साथ मिलकर उसका ख़र्च उठाएँगे, और यह कि उस समझौते में शरीक लोगों के लिए यसरिब में किसी भी प्रकार का उपद्रव और बिगाड़ का कार्य वर्जित है, और यह कि इस समझौते में शरीक होनेवालों के दरमियान अगर कोई ऐसा विवाद या मतभेद पैदा हो जिससे फ़साद का ख़तरा हो तो उसका फ़ैसला अल्लाह के क़ानून के अनुसार रसूल मुहम्मद (सल्ल०) करेंगे....... और यह कि क़ुरैश और उसका समर्थन करनेवालों को शरण नहीं दी जाएगी, और यह कि यसरिब पर जो हमलावर हो उसके मुक़ाबले में समझौते में शरीक लोग एक-दूसरे की सहायता करेंगे......... । हर पक्ष अपनी तरफ़ के क्षेत्र की सुरक्षा का ज़िम्मेदार होगा।" (इब्‍ने-हिशाम, भाग 2, पृष्ठ 147-150)

यह एक निश्चित और स्पष्ट समझौता था जिसकी शर्ते यहूदियों ने स्वयं स्वीकार की थीं, लेकिन बहुत जल्द उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०), इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण नीति का प्रदर्शन शुरू कर दिया और उनकी दुश्मनी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली गई। उन्होंने नबी (सल्ल०) के विरोध को अपना जातीय लक्ष्य बना लिया। आप (सल्ल०) को पराजित करने के लिए कोई चाल, कोई उपाय और कोई हथकंडा इस्तेमाल करने में उनको कणभर भी संकोच न था। समझौते के विरुद्ध खुली-खुली शत्रुतापूर्ण नीति तो बद्र की लड़ाई से पहले ही वे अपना चुके थे, मगर जब बद्र में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों को क़ुरैश पर खुली विजय प्राप्त हुई तो वे तिलमिला उठे और उनकी दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। बनी-नज़ीर का सरदार काब-बिन-अशरफ़ चीख़ उठा कि "ख़ुदा की क़सम ! अगर मुहम्मद (सल्ल०) ने अरब के इन सम्मानित व्यक्तियों को क़त्ल कर दिया है तो ज़मीन का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से अधिक अच्छा है।" फिर वह मक्का पहुँचा और बद्र में कुरैश के जो सरदार मारे गए थे, उनके बड़े भड़काऊ मर्सिये (शोक गीत) कहकर मक्कावालों को बदला लेने पर उकसाया। यहूदियों का पहला क़बीला जिसने सामूहिक रूप से बद्र की लड़ाई के बाद खुल्लम-खुल्ला अपना समझौता तोड़ दिया, बनी-क़ैनुक़ाअ था, जिसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने शव्वाल (और कुछ उल्लेखों के अनुसार ज़ी-क़ादा) सन् 02 हि० के अन्त में उनके महल्ले का घेराव कर दिया। केवल पन्द्रह दिन ही यह घेराव रहा कि उन्होंने हथियार डाल दिए [और अन्त में उन्हें] अपना सब माल-हथियार और उद्योग के उपकरण और यंत्र छोड़कर मदीना से निकल जाना पड़ा (इब्‍ने-साद, इब्‍ने-हिशाम, तारीख़े-तबरी)। इसके बाद जब शव्वाल 03 हि० में कुरैश के लोग बद्र की लड़ाई का बदला लेने के लिए बड़ी तैयारियों के साथ मदीना पर चढ़ आए तो इन यहूदियों ने समझौते का पहला और खुला विरोध इस तरह किया कि मदीना की प्रतिरक्षा में आप (सल्ल०) के साथ शरीक न हुए, हालाँकि वे इसके पाबन्द थे। फिर जब उहुद की लड़ाई में मुसलमानों को भारी क्षति पहुँची तो उनका सहास और बढ़ गया। यहाँ तक कि बनी-नज़ीर ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को क़त्ल करने के लिए व्यवस्थित रूप से एक षड्‍यंत्र रचा जो ठीक समय पर असफल हो गया। [इन घटनाओं के बाद] अब उनके साथ किसी प्रकार की नर्मी का सवाल बाक़ी ही न रहा। नबी (सल्ल०) ने उनको अविलम्ब यह चेतावनी भेज दी कि तुमने जो ग़द्दारी करनी चाही थी, वह मुझे मालूम हो गई है, इसलिए दस दिन के अन्दर मदीना से निकल जाओ। इसके बाद अगर तुम यहाँ ठहरे रहे तो जो व्यक्ति भी तुम्हारी आबादी में पाया जाएगा, उसकी गर्दन मार दी जाएगी। [अब्दुल्लाह-बिन-उबई के] झूठे भरोसे पर उन्होंने नबी (सल्ल०) की चेतावनी का यह उत्तर दिया कि "हम यहाँ से नहीं निकलेंगे, आपसे जो हो सके, कर लीजिए।" इसपर रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनका घेराव कर लिया और सिर्फ़ कुछ ही दिनों के घेराव के बाद वे इस शर्त पर मदीना छोड़ देने के लिए राज़ी हो गए कि हथियार के सिवा जो कुछ भी वे अपने ऊँटों पर लाद कर ले जा सकेंगे, ले जाएंँगे। इस तरह यहूदियों के इस दूसरे दुष्ट क़बीले से मदीना की धरती ख़ाली करा ली गई। उनमें से सिर्फ़ दो आदमी मुसलमान होकर यहाँ ठहर गए। शेष शाम (सीरिया) और ख़ैबर की ओर निकल गए। यही घटना है जिसकी इस सूरा में विवेचना की गई है।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय, जैसा कि ऊपर बयान हुआ, बनी-नज़ीर के अभियान (युद्ध) की समीक्षा है। इसमें सामूहिक रूप से चार विषय बयान किए गए हैं—

  1. पहली चार आयतों में दुनिया को उस अंजाम से शिक्षा दिलाई गई है जो अभी-अभी बनी-नज़ीर ने देखा था। अल्लाह ने बताया है कि [बनी नज़ीर का यह देश निकाला स्वीकार कर लेना] मुसलमानों को शक्ति का चमत्कार नहीं था, बल्कि इस बात का परिणाम था कि वे अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) से लड़ गए थे, और जो लोग अल्लाह की ताक़त से टकराने की दुस्साहस करें, वे ऐसे ही परिणामों से दोचार होते हैं।
  2. आयत 5 में युद्ध के क़ानून का यह नियम बताया गया है कि युद्ध-सम्बन्धी ज़रूरतों के लिए दुश्मन के क्षेत्रों में जो ध्वंसात्मक कार्रवाई की जाए उसे धरती में फ़साद फैलाने का नाम नहीं दिया जाता।
  3. आयत 6 से 10 तक यह बताया गया है कि उन देशों की ज़मीनों और जायदादों का बन्दोबस्त किस तरह किया जाए जो लड़ाई या समझौते के नतीजे में इस्लामी राज्य के अधीन हो जाएँ।
  4. आयत 11 से 17 तक मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के उस रवैये की समीक्षा की गई है जो उन्होंने बनी-नज़ीर की लड़ाई के मौक़े पर अपनाई थी।
  5. आयत 18 से सूरा के अन्त तक पूरे का पूरा एक उपदेश है जिसका सम्बोधन उन तमाम लोगों से है जो ईमान का दावा करके मुसलमानों के गरोह में सम्मिलित हो गए हों, मगर ईमान के वास्तविक भाव से वंचित रहें। इसमें उनको बताया गया है कि वास्तव में ईमान का तक़ाज़ा क्या है।

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هُوَ ٱلَّذِيٓ أَخۡرَجَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن دِيَٰرِهِمۡ لِأَوَّلِ ٱلۡحَشۡرِۚ مَا ظَنَنتُمۡ أَن يَخۡرُجُواْۖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مَّانِعَتُهُمۡ حُصُونُهُم مِّنَ ٱللَّهِ فَأَتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِنۡ حَيۡثُ لَمۡ يَحۡتَسِبُواْۖ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَۚ يُخۡرِبُونَ بُيُوتَهُم بِأَيۡدِيهِمۡ وَأَيۡدِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فَٱعۡتَبِرُواْ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 1
(2) वही है जिसने अहले-किताब काफ़िरों को पहले ही हल्ले में उनके घरों से निकाल बाहर किया।1 तुम्हें हरगिज़ यह गुमान न था कि वे निकल जाएँगे, और वे भी यह समझे बैठे थे कि उनकी गढ़ियाँ उन्हें अल्लाह से बचा लेंगी। मगर अल्लाह ऐसे रुख़ से उनपर आया जिधर उनका ख़याल भी न गया था2 उसने उनके दिलों में रोब डाल दिया। नतीजा यह हुआ कि वे ख़ुद अपने हाथों से भी अपने घरों को बरबाद कर रहे थे और मोमिनों के हाथों भी बरबाद करवा रहे थे। पस इबरत हासिल करो ऐ दीदा-ए-बीना रखनेवालो!
1. अहले-किताब काफ़िरों से मुराद यहाँ बनी-नज़ीर का यहूदी क़बीला है जो मदीना के एक हिस्से में रहता था। इस क़बीले से रसूलुल्लाह (सल्ल०) का मुआहदा था, लेकिन उसने बार-बार अह्दशिकनी की। आख़िरकार रबीउल अव्वल सन् 4 हि० में हुज़ूर (सल्ल०) ने इन लोगों को नोटिस दिया कि या तो मदीना से निकल जाओ वरना जंग के लिए तैयार हो जाओ। उन्होंने निकलने से इनकार किया तो आप (सल्ल०) ने मुसलमानों का लश्कर लेकर उनपर चढ़ाई की और अभी जंग की नौबत भी न आई थी कि वे जलावतनी क़ुबूल करने पर आमादा हो गए हलाँकि उनकी गढ़ियाँ बड़ी मजबूत थीं, उनकी तादाद भी मुसलमानों से कम न थी, और जंगी सरो-सामान भी उनके पास बहुत था।
2. अल्लाह का उनपर आना इस मानी में नहीं है कि अल्लाह किसी और जगह था और फिर वहाँ से उनपर हमलाआवर हुआ, बल्कि यह मजाज़ी कलाम है। अस्ल मुद्दआ यह तसव्वुर दिलाना है कि मुसलमानों के हमले से पहले वे इस ख़याल में थे कि बाहर से कोई हमला होगा तो हम अपनी क़िलाबन्दियों से उसको रोक लेंगे लेकिन अल्लाह तआला ने ऐसे रास्ते से उनपर हमला किया जिधर से किसी बला के आने की वे कोई तवक़्को़ न रखते थे। और वह रास्ता यह था कि उसने अन्दर से उनकी हिम्मत और क़ुव्वते-मुक़ाबला को खोखला कर दिया। जिसके बाद न उनके हथियार किसी काम आ सकते थे, न उनके मज़बूत गढ़।
وَلَوۡلَآ أَن كَتَبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡجَلَآءَ لَعَذَّبَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابُ ٱلنَّارِ ۝ 2
(3) अगर अल्लाह ने उनके हक़ में जलावतनी न लिख दी होती तो दुनिया ही में वे उन्हें अज़ाब दे डालता,3 और आख़िरत में तो उनके लिए दोज़ख़ का अज़ाब है ही।
3. दुनिया के अज़ाब से मुराद है उनका नाम व निशान मिटा देना। अगर वे सुल्ह करके अपनी जाने बचाने के बजाय लड़ते तो उनका पूरी तरह क़ला-क़मा हो जाता।
وَمَآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡهُمۡ فَمَآ أَوۡجَفۡتُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ خَيۡلٖ وَلَا رِكَابٖ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُسَلِّطُ رُسُلَهُۥ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 3
(6) और जो माल6 अल्लाह ने उनके क़ब्ज़े से निकालकर अपने रसूल की तरफ़ पलटा दिए,7 वे ऐसे माल नहीं है जिनपर तुमने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाए हों, बल्कि अल्लाह अपने रसूलों को जिसपर चाहता है तसल्लुत अता फ़रमा देता है, और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।8
6. अब उन जायदादों और अमलाक का ज़िक्र हो रहा है जो पहले बनी-नज़ीर की मिल्क थीं और उनकी जलावतनी के बाद इस्लामी हुकूमत के क़ब्ज़े में आईं। उनके मुताल्लिक़ यहाँ से आयत 10 तक अल्लाह तआला ने बताया है कि उनका इन्तिज़ाम किस तरह किया जाए।
7. इन अलफाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद ये मानी निकलते हैं कि यह ज़मीन और वे सारी चीज़ें जो यहाँ पाई जाती हैं, दरअस्ल उन लोगों का हक़ नहीं हैं जो अल्लाह जल-ल शानुहू के बाग़ी हैं। इसलिए जो अमवाल भी एक जाइज़ व बरहक़ जंग के नतीजे में कुफ़्फ़ार के क़ब्ज़े से निकलकर अहले-ईमान के क़ब्ज़े में आएँ उनकी हक़ीक़ी हैसियत यह है कि उनका मालिक उन्हें अपने ख़ाइन और ग़द्दार मुलाज़िमों के क़ब्ज़े से निकालकर अपने फ़रमाँबरदार मुलाज़िमों की तरफ़ पलटा लाया है। इसी लिए इन अमलाक को इस्लामी क़ानून की इस्तिलाह में ‘फ़य’ (पलटाकर लाए हुए अमवाल) क़रार दिया गया है।
8. यानी इन अमवाल का मुसलमानों के क़ब्ज़े में आना बराहे-रास्त लड़नेवाली फ़ौज के ज़ोरे-बाज़ू का नतीजा नहीं है, बल्कि यह उस मजमूई क़ुव्वत का नतीजा है जो अल्लाह ने अपने रसूल (सल्ल०) और उसकी उम्मत और उसके क़ायम-करदा निज़ाम को अता फ़रमाई है। इसलिए ये अमवाल माले-ग़नीमत से बिलकुल मुख़्तलिफ़ हैसियत रखते हैं और लड़नेवाली फ़ौज का यह हक़ नहीं है कि ग़नीमत की तरह इनको भी उसमें तक़सीम कर दिया जाए। इस तरह शरीअत में ग़नीमत और फ़य का हुक्म अलग-अलग कर दिया गया है। ग़नीमत वे अमवाले-मनक़ूला हैं जो जंगी कार्रवाइयों के दौरान में दुश्मन के लश्करों से हासिल हों। उनके मासिवा दुश्मन मुल्क की ज़मीनें, मकानात और दूसरे अमवाले-मनक़ूला व ग़ैर-मनक़ूला ग़नीमत की तारीफ़ से ख़ारिज और फ़य में शामिल हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۖ وَمَن يُشَآقِّ ٱللَّهَ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 4
(4) यह सब कुछ इसलिए हुआ कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला किया, और जो भी अल्लाह का मुक़ाबला करे अल्लाह उसको सज़ा देने में बहुत सख़्त है।
مَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰ فَلِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ كَيۡ لَا يَكُونَ دُولَةَۢ بَيۡنَ ٱلۡأَغۡنِيَآءِ مِنكُمۡۚ وَمَآ ءَاتَىٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَىٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 5
(7) जो कुछ भी अल्लाह बस्तियों के लोगों से अपने रसूल की तरफ़ पलटा दे वह अल्लाह और रसूल और रिश्तेदारों9 और यतामा और मसाकीन और मुसाफ़िरों के लिए है ताकि वह तुम्हारे मालदारों ही के दरमियान गरदिश न करता रहे।10 जो कुछ रसूल तुम्हें दे वह ले लो और जिस चीज़ से वह तुमको रोक दे उससे रुक जाओ। अल्लाह से डरो, अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।11
9. रिश्तेदारों से मुराद रसूलुल्लाह (सल्ल०) के रिश्तेदार हैं, यानी बनी-हाशिम और बनी-मुत्तलिब, यह हिस्सा इसलिए मुक़र्रर किया गया था कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) अपनी ज़ात और अपने अहलो-अयाल के हुक़ूक़ अदा करने के साथ अपने उन रिश्तेदारों के भी हुक़ूक़ अदा फ़रमा सकें जो आप (सल्ल०) की मदद के मुहताज हों, या आप (सल्ल०) जिनकी मदद करने की ज़रूरत महसूस फ़रमाएँ। हुज़ूर (सल्ल०) की वफ़ात के बाद यह एक अलग और मुस्तक़िल हिस्से की हैसियत से बाक़ी नहीं रहा, बल्कि मुसलमानों के दूसरे मसाकीन, यतामा और मुसाफ़िरों के साथ बनी-हाशिम और बनी-मुत्तलिब के मुहताज लोगों के हुक़ूक़ भी बैतुल-माल के ज़िम्मे आइद हो गए, अलबत्ता इस बिना पर उनका हक़ दूसरों पर फ़ाइक़ समझा गया कि ज़कात में उनका हिस्सा नहीं है।
10. यह क़ुरआन मजीद की अहम उसूली हिदायात में से है जिसमें इस्लामी मुआशारे और हुकूमत की मआशी पॉलिसी का यह बुनियादी क़ायदा बयान किया गया है कि दौलत की गरदिश पूरे मुआशरे में आम होनी चाहिए। ऐसा न हो कि माल सिर्फ़ मालदारों ही में घूमता रहे, या अमीर रोज़-ब-रोज़ अमीरतर और ग़रीब रोज़-ब-रोज़ ग़रीबतर होते चले जाएँ।
11. अगरचे यह इरशाद बनी-नज़ीर के अमवाल की तक़सीम के सिलसिले में नाज़िल हुआ था मगर हुक्म के अलफ़ाज़ आम हैं, इसलिए इसका मंशा यह है कि तमाम मामलात में मुसलमान रसूलुल्लाह (सल्ल०) की इताअत करें। इस मंशा को यह बात और ज़्यादा वाज़ेह कर देती है कि “जो कुछ रसूल तुम्हें दे” के मुक़ाबले में “जो कुछ न दे” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल नहीं फ़रमाए गए हैं, बल्कि फ़रमाया यह गया है कि “जिस चीज़ से वह तुम्हें रोक दे (या मना कर दे)” उससे रुक जाओ।
مَا قَطَعۡتُم مِّن لِّينَةٍ أَوۡ تَرَكۡتُمُوهَا قَآئِمَةً عَلَىٰٓ أُصُولِهَا فَبِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَلِيُخۡزِيَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 6
(5) तुम लोगों ने खजूरों के जो दरख़्त काटे या जिनको अपनी जड़ों पर खड़ा रहने दिया, यह सब अल्लाह ही के इज़्न से था।4 और (अल्लाह ने यह इज़्न इसलिए दिया) ताकि फ़ासिक़ों को ज़लील व ख़ार करे।5
4. यह इशारा है इस मामले की तरफ़ कि बनी-नज़ीर की बस्ती के अतराफ़ में जो नख़लिस्तान वाक़े थे। उनके बहुत-से दरख़्तों को मुसलमानों ने मुहासरे के आग़ाज़ में काट डाला या जला दिया ताकि मुहासरा ब-आसानी किया जा सके, और जो दरख़्त फ़ौजी नक़्ल व हरकत में हाइल न थे उनको खड़ा रहने दिया। इसपर मदीना के मुनाफ़िक़ीन और यहूदियों ने शोर मचा दिया कि “मुहम्मद (सल्ल०) तो फ़साद फ़िल-अर्ज से मना करते हैं, मगर ये देख लो हरे-भरे फ़लदार दरख़्त काटे जा रहे हैं। यह आख़िर फ़साद फ़िल-अर्ज़ नहीं तो क्या है!” इसपर अल्लाह तआला ने यह हुक्म नाज़िल फ़रमाया कि “तुम लोगों ने जो दरख़्त काटे और जिनको खड़ा रहने दिया, इनमें से कोई फ़ेल भी नाजाइज नहीं है, बल्कि दोनों को अल्लाह का इज़्न हासिल है।
5. यानी अल्लाह का इरादा यह था कि इन दरख़्तों को काटने से भी उनकी ज़िल्लत व ख़ारी हो और न काटने से भी। काटने में उनकी ज़िल्लत व ख़ारी का पहलू यह था कि जो बाग़ उन्होंने अपने हाथों से लगाए थे और जिन बाग़ों के वे मुद्दत-हाए-दराज़ से मालिक चले आ रहे थे, उनके दरख़्त उनकी आँखों के सामने काटे जा रहे थे और वे काटनेवालों को किसी तरह न रोक सकते थे। रहा दरख़्तों को न काटने में ज़िल्लत का पहलू तो वह यह था कि जब ये मदीना से निकले तो उनकी आँखें यह देख रही थीं कि कल तक जो हरे-भरे बाग़ उनकी मिलकियत थे वे आज मुसलमानों के क़ब्ज़े में जा रहे हैं। उनका बस चलता तो वे उनको पूरी तरह उजाड़कर जाते और एक सालिम दरख़्त भी मुसलमानों के क़ब्ज़े में न जाने देते। मगर बेबसी के साथ वे सब कुछ ज्यों-का-त्यों छोड़कर बा-हसरत व यास निकल गए।
لِلۡفُقَرَآءِ ٱلۡمُهَٰجِرِينَ ٱلَّذِينَ أُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَأَمۡوَٰلِهِمۡ يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٗا وَيَنصُرُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصَّٰدِقُونَ ۝ 7
(8) (नीज़ वह माल) उन ग़रीब मुहाजिरीन के लिए है जो अपने घरों और जायदादों से निकाल-बाहर किए गए हैं। ये लोग अल्लाह का फ़ज़्ल और उसकी ख़ुशनूदी चाहते हैं और अल्लाह और उसके रसूल की हिमायत पर कमर-बस्ता रहते हैं। यही रास्तबाज़ लोग हैं।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ نَافَقُواْ يَقُولُونَ لِإِخۡوَٰنِهِمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَئِنۡ أُخۡرِجۡتُمۡ لَنَخۡرُجَنَّ مَعَكُمۡ وَلَا نُطِيعُ فِيكُمۡ أَحَدًا أَبَدٗا وَإِن قُوتِلۡتُمۡ لَنَنصُرَنَّكُمۡ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 8
(11) तुमने15 देखा नहीं उन लोगों को जिन्होंने मुनाफ़क़त की रविश इख़्तियार की है? ये अपने काफ़िर अहले-किताब भाइयों से कहते हैं, “अगर तुम्हें निकाला गया तो हम तुम्हारे साथ निकलेंगे, और तुम्हारे मामले में हम किसी की बात हरगिज़ न मानेंगे, और अगर तुमसे जंग की गई तो हम तुम्हारी मदद करेंगे।” मगर अल्लाह गवाह है कि ये लोग क़तई झूठे हैं।
15. इस पूरे रुकूअ में मुनाफ़िक़ीन के रवैये पर कलाम फ़रमाया गया है। जब रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने बनी-नज़ीर को मदीना से निकल जाने के लिए दस दिन का नोटिस दिया था और उनका मुहासरा शुरू होने में अभी कई दिन बाक़ी थे, तो मदीना के मुनाफ़िक़ लीडरों ने उनको यह कहला भेजा कि हम दो हज़ार आदमियों के साथ तुम्हारी मदद को आएँगे और बनी-क़ुरैज़ा और बनी-ग़तफ़ान भी तुम्हारी हिमायत में उठ खड़े होंगे। लिहाज़ा तुम मुसलमानों के मुक़ाबले में डट जाओ और हरगिज़ उनके आगे हथियार न डालो। ये तुमसे लड़ेंगे तो हम तुम्हारे साथ लड़ेंगे और तुम यहाँ से निकाले गए तो हम भी निकल जाएँगे।
وَٱلَّذِينَ تَبَوَّءُو ٱلدَّارَ وَٱلۡإِيمَٰنَ مِن قَبۡلِهِمۡ يُحِبُّونَ مَنۡ هَاجَرَ إِلَيۡهِمۡ وَلَا يَجِدُونَ فِي صُدُورِهِمۡ حَاجَةٗ مِّمَّآ أُوتُواْ وَيُؤۡثِرُونَ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ وَلَوۡ كَانَ بِهِمۡ خَصَاصَةٞۚ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفۡسِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 9
(और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन मुहाजिरीन की आमद से पहले ही ईमान लाकर दारुल-हिजरत में मुक़ीम थे।12 ये उन लोगों से मुहब्बत करते हैं जो हिजरत करके उनके पास आए हैं और जो भी उनको दे दिया जाए उसकी कोई हाजत तक ये अपने दिलों में महसूस नहीं करते और अपनी ज़ात पर दूसरों को तरजीह देते हैं ख़ाह अपनी जगह ख़ुद मुहताज हों। हक़ीक़त यह है कि जो लोग अपने दिल की तंगी से बचा लिए गए वही फ़लाह पानेवाले हैं।
12. मुराद हैं अनसार, यानी फ़य में सिर्फ़ मुहाजिरीन ही का हक़ नहीं है, बल्कि पहले से जो मुसलमान दारुल-इस्लाम में आबाद हैं वे भी इसमें हिस्सा पाने के हक़दार हैं।
لَئِنۡ أُخۡرِجُواْ لَا يَخۡرُجُونَ مَعَهُمۡ وَلَئِن قُوتِلُواْ لَا يَنصُرُونَهُمۡ وَلَئِن نَّصَرُوهُمۡ لَيُوَلُّنَّ ٱلۡأَدۡبَٰرَ ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ ۝ 10
(12) अगर वे निकाले गए तो ये उनके साथ हरगिज़ न निकलेंगे, और अगर उनसे जंग की गई तो ये उनकी हरगिज़ मदद न करेंगे, और अगर ये उनकी मदद करें भी तो पीठ फेर जाएँगे और फिर कहीं से कोई मदद न पाएँगे।
وَٱلَّذِينَ جَآءُو مِنۢ بَعۡدِهِمۡ يَقُولُونَ رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لَنَا وَلِإِخۡوَٰنِنَا ٱلَّذِينَ سَبَقُونَا بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَا تَجۡعَلۡ فِي قُلُوبِنَا غِلّٗا لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ رَبَّنَآ إِنَّكَ رَءُوفٞ رَّحِيمٌ ۝ 11
(10) (और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन अगलों के बाद आए हैं,13 जो कहते हैं कि “ऐ हमारे रब! हमें और हमारे उन सब भाइयों को बख़्श दे जो हमसे पहले ईमान लाए हैं और हमारे दिलों में अहले-ईमान के लिए कोई बुग़्ज़ न रख, ऐ हमारे रब! तू बड़ा मेहरबान और रहीम है।”14
13. यानी अमवाले-फ़य में सिर्फ़ मौजूदा नस्लों ही का हक़ नहीं है, बल्कि बाद के आनेवालों का हक़ भी है।
14. इस आयत में मुसलमानों को यह अहम अख़लाक़ी दर्स दिया गया है कि वे किसी मुसलमान के लिए अपने दिल में बुग़्ज़ न रखें और अपने से पहले गुज़रे हुए मुसलमानों के हक़ में दुआ-ए-मग़फ़िरत करते रहें, न यह कि उनपर लानत भेजें और तबर्रा करें।
لَوۡ أَنزَلۡنَا هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ عَلَىٰ جَبَلٖ لَّرَأَيۡتَهُۥ خَٰشِعٗا مُّتَصَدِّعٗا مِّنۡ خَشۡيَةِ ٱللَّهِۚ وَتِلۡكَ ٱلۡأَمۡثَٰلُ نَضۡرِبُهَا لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 12
(21) अगर हमने यह क़ुरआन किसी पहाड़ पर भी उतार दिया होता तो तुम देखते कि वह अल्लाह के ख़ौफ़ से दबा जा रहा है और फटा पड़ता है,20 ये मिसालें हम लोगों के सामने इसलिए बयान करते हैं कि वे (अपनी हालत पर) ग़ौर करें।
20. इस तमसील का मतलब यह है कि क़ुरआन जिस तरह ख़ुदा की किबरियाई और उसके हुज़ूर बन्दे की ज़िम्मेदारी व जवाबदेही को साफ़-साफ़ बयान कर रहा है, उसका फ़ह्म अगर पहाड़ जैसी अज़ीम मख़लूक़ को भी नसीब होता और उसे मालूम हो जाता कि उसको किस रब्बे-क़दीर के सामने अपने आमाल की जवाबदेही करनी है तो वह भी ख़ौफ़ से काँप उठता।
لَأَنتُمۡ أَشَدُّ رَهۡبَةٗ فِي صُدُورِهِم مِّنَ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 13
(13) इनके दिलों में अल्लाह से बढ़कर तुम्हारा ख़ौफ़ है, इसलिए कि ये ऐसे लोग हैं जो समझ-बूझ नहीं रखते।16
16. इस छोटे-से फ़िक़रे में एक बड़ी हक़ीक़त बयान की गई है। जो शख़्स समझ-बूझ रखता हो वह तो यह जानता है कि अस्ल में डरने के क़ाबिल ख़ुदा की ताक़त है न कि इनसानों की ताक़त। इसलिए वह हर ऐसे काम से बचेगा जिसपर उसे ख़ुदा के मुआख़ज़े का ख़तरा हो, ख़ाह कोई इनसानी ताक़त मुआख़ज़ा करनेवाली हो या न हो, और हर वह फ़रीज़ा अंजाम देने के लिए उठ खड़ा होगा जो ख़ुदा ने उसपर आइद किया हो, या सारी दुनिया की ताक़तें उसमें मानेअ व मज़ाहिम हों। लेकिन एक नासमझ आदमी तमाम मामलात में अपने तर्ज़े-अमल का फ़ैसला ख़ुदा के बजाय इनसानी ताक़तों के लिहाज़ से करता है। किसी चीज़ से बचेगा तो इसलिए नहीं कि ख़ुदा के यहाँ उसकी पकड़ होनेवाली है, बल्कि इसलिए कि सामने कोई इनसानी ताक़त उसकी ख़बर लेने के लिए मौजूद है। और किसी काम को करेगा तो वह भी इस बिना पर नहीं कि ख़ुदा ने इसका हुक्म दिया है, बल्कि सिर्फ़ इस बिना पर कि कोई इनसानी ताक़त इसका हुक्म देनेवाली या इसको पसन्द करनेवाली है। यही समझ और नासमझी का फ़र्क़ दरअस्ल मोमिन और ग़ैर-मोमिन की सीरत व किरदार को एक-दूसरे से मुमय्यज़ करता है।
سُورَةُ الحَشۡرِ
59. अल-हश्र
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۖ هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 14
(22) वह अल्लाह ही है जिसके सिवा कोई माबूद नहीं,21 ग़ायब और ज़ाहिर हर चीज़ का जाननेवाला, वही रहमान और रहीम है।
21. यानी जिसके सिवा किसी की यह हैसियत और मक़ाम और मर्तबा नहीं है कि उसकी बन्दगी व परस्तिश की जाए। जिसके सिवा कोई ख़ुदाई की सिफ़ात व इख़्तियारात रखता ही नहीं कि उसे माबूद होने का हक़ पहुँचता हो।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
لَا يُقَٰتِلُونَكُمۡ جَمِيعًا إِلَّا فِي قُرٗى مُّحَصَّنَةٍ أَوۡ مِن وَرَآءِ جُدُرِۭۚ بَأۡسُهُم بَيۡنَهُمۡ شَدِيدٞۚ تَحۡسَبُهُمۡ جَمِيعٗا وَقُلُوبُهُمۡ شَتَّىٰۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡقِلُونَ ۝ 15
(14) ये कभी इकट्ठे होकर (खुले मैदान में) तुम्हारा मुक़ाबला न करेंगे, लड़ेंगे भी तो क़िलाबन्द बस्तियों में बैठकर या दीवारों के पीछे छिपकर। ये आपस की मुख़ालफ़त में बड़े सख़्त हैं। तुम इन्हें इकठ्ठा समझते हो मगर इनके दिल एक-दूसरे से फटे हुए हैं। इनका यह हाल इसलिए है कि ये बेअक़्ल लोग हैं।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡقُدُّوسُ ٱلسَّلَٰمُ ٱلۡمُؤۡمِنُ ٱلۡمُهَيۡمِنُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡجَبَّارُ ٱلۡمُتَكَبِّرُۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 16
(23) वह अल्लाह ही है जिसके सिवा कोई माबूद नहीं। वह बादशाह है निहायत मुकद्दस,22 सरासर सलामती,23 अम्न देनेवाला,24 निगहबान,25 सबपर ग़ालिब, अपना हुक्म बज़ोर नाफ़िज़ करनेवाला, और बड़ा ही होकर रहनेवाला। पाक है अल्लाह उस शिर्क से जो लोग कर रहे हैं।
22. यानी वह उससे बदरजहा बाला व बरतर है कि उसकी ज़ात में कोई ऐब या नक़्स या कोई क़बीह सिफ़त पाई जाए, बल्कि वह एक पाकीज़ातरीन हस्ती है जिसके बारे में किसी बुराई का तसव्वुर तक नहीं किया जा सकता।
23. यानी उसकी ज़ात इससे बालातर है कि कोई आफ़त या कमज़ोरी या ख़ामी उसको लाहिक़ हो या कभी उसके कमाल पर ज़वाल आए।
24. यानी उसकी मख़लूक़ इससे अम्न में है कि वह कभी उसपर ज़ुल्म करेगा या उसका हक़ मारेगा, या उसका अज्र ज़ाए करेगा, या उसके साथ अपने किए हुए वादों की ख़िलाफ़वर्ज़ी करेगा।
25. अस्ल में लफ़्ज़ 'अल-मुहैमिन’ इस्तेमाल हुआ है जिसके तीन मानी हैं। एक निगहबानी और हिफ़ाज़त करनेवाला। दूसरे शाहिद, जो देख रहा हो कि कौन क्या करता है। तीसरे वह हस्ती जिसने लोगों की ज़रूरियात और हाजात पूरी करने का ज़िम्मा उठा रखा हो।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ
(1) अल्लाह ही की तसबीह की है हर उस चीज़ ने जो आसमानों और ज़मीन में है, और वही ग़ालिब और हकीम है।
كَمَثَلِ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ قَرِيبٗاۖ ذَاقُواْ وَبَالَ أَمۡرِهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 17
(15) ये उन्हीं लोगों के मानिन्द हैं जो इन से थोड़ी ही मुद्दत पहले अपने किए का मज़ा चख चुके हैं17 और इनके लिए दर्दनाक अज़ाब है।
17. इशारा है कुफ़्फ़ारे-कुरैश और यहूदे-बनी-क़ैनुक़ा की तरफ़ जो अपनी कसरते-तादाद और अपने सरो-सामान के बावजूद इन्हीं कमज़ोरियों के बाइस मुसलमानों की मुट्ठी-भर बेसरो-सामान जमाअत से शिकस्त खा चुके थे।
كَمَثَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ إِذۡ قَالَ لِلۡإِنسَٰنِ ٱكۡفُرۡ فَلَمَّا كَفَرَ قَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَ رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 18
(16) इनकी मिसाल शैतान की-सी है कि पहले वह इनसान से कहता है कि कुफ़्र कर, और जब इनसान कुफ़्र कर बैठता है तो वह कहता है कि मैं तुझसे बरीउज़-ज़िम्मा हूँ, मुझे तो अल्लाह रब्बुल-आलमीन से डर लगता है।
فَكَانَ عَٰقِبَتَهُمَآ أَنَّهُمَا فِي ٱلنَّارِ خَٰلِدَيۡنِ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَٰٓؤُاْ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 19
(17) फिर दोनों का अंजाम यह होना है कि हमेशा के लिए जहन्नम में जाएँ, और ज़ालिमों की यही जज़ा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلۡتَنظُرۡ نَفۡسٞ مَّا قَدَّمَتۡ لِغَدٖۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 20
(18) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो, और हर शख़्स यह देखे कि उसने कल के लिए क्या सामान किया है।18 अल्लाह से डरते रहो, अल्लाह यक़ीनन तुम्हारे उन सब आमाल से बाख़बर है जो तुम करते हो।
18. कल से मुराद आख़िरत है, गोया दुनिया की यह पूरी ज़िन्दगी ‘आज’ और ‘कल’ वह यौमे-क़ियामत है जो इस आज के बाद आनेवाला है।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ نَسُواْ ٱللَّهَ فَأَنسَىٰهُمۡ أَنفُسَهُمۡۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 21
(19) उन लोगों की तरह न हो जाओ जो अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने उन्हें ख़ुद अपना नफ़्स भुला दिया,19 यही लोग फ़ासिक़ हैं।
19. यानी ख़ुदा फ़रामोशी का लाज़िमी नतीजा ख़ुद फ़रामोशी है। जब आदमी यह भूल जाता है कि वह किसी का बन्दा है तो लाज़िमन वह दुनिया में अपनी एक ग़लत हैसियत मुतय्यन कर बैठता है और उसकी सारी ज़िन्दगी इसी बुनियादी ग़लत-फ़हमी के बाइस ग़लत होकर रह जाती है। इसी तरह जब वह यह भूल जाता है कि वह एक अल्लाह के सिवा किसी का बन्दा नहीं है तो वह उस एक की बन्दगी तो नहीं करता जिसका वह दर-हक़ीक़त बन्दा है, और उन बहुत-सों की बन्दगी करता रहता है जिनका वह फ़िल-वाक़े बन्दा नहीं है।
لَا يَسۡتَوِيٓ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۚ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 22
(20) दोज़ख़ में जानेवाले और जन्नत में जानेवाले कभी यकसाँ नहीं हो सकते जन्नत में जानेवाले ही अस्ल में कामयाब हैं।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡخَٰلِقُ ٱلۡبَارِئُ ٱلۡمُصَوِّرُۖ لَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 23
(24) वह अल्लाह ही है जो तख़लीक़ का मंसूबा बनानेवाला और उसको नाफ़िज़ करनेवाला और उसके मुताबिक़ सूरतगरी करनेवाला है। उसके लिए बेहतरीन नाम हैं। हर चीज़ जो आसमानों और ज़मीन में है उसकी तसबीह कर रही है,26 और वह ज़बरदस्त और हकीम है।
26. यानी ज़बाने-क़ाल या ज़बाने-हाल से यह बयान कर रही है कि उसका ख़ालिक़ हर ऐब और नक़्स और कमज़ोरी और ग़लती से पाक है।