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سُورَةُ النُّورِ

24. अन-नूर

(मदीना में उतरी-आयतें 64)

परिचय

नाम

आयत 35 'अल्लाहु नूरुस्समावाति वल अरज़ि' (अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है) से लिया गया है।

उतरने का समय

इसपर सभी सहमत हैं कि यह सूरा बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के बाद उतरी है, लेकिन इस बारे में मतभेद है कि क्या यह लड़ाई सन् 05 हि० में अहज़ाब की लड़ाई से पहले हुई थी या सन् 15 हि० में अहज़ाब की लड़ाई के बाद। वास्तविक घटना क्या है, इसकी जाँच शरीअत के उस निहित हित [को समझने के लिए भी ज़रूरी है जो परदे के आदेशों में पाया जाता है, क्योंकि ये] आदेश क़ुरआन की दो ही सूरतों में आए हैं, एक यह सूरा-24, दूसरी सूरा-33 अहज़ाब, जो अहज़ाब को लड़ाई के अवसर पर उतरी है और इसमें सभी सहमत हैं। इस उद्देश्य से जब हम संबंधित रिवायतों की छानबीन करते हैं तो सही बात यही मालूम होती है कि यह सूरा सन् 06 हि० के उत्तरार्द्ध में सूरा अहज़ाब के कई महीने बाद उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिन परिस्थतियों में यह सूरा उतरी है, वे संक्षेप में ये हैं-

बद्र की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के बाद अरब में इस्लामी आंदोलन का जो उत्थान शुरू हुआ था, वह ख़न्दक (खाई) की लड़ाई तक पहुँचते-पहुँचते इस हद तक पहुंँच चुका था कि मुशरिक (बहुदेववादी) यहूदी, मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और इन्तिज़ार करनेवाले, सभी यह महसूस करने लगे थे कि इस नई उभरती ताकत को मात्र हथियार और सेनाओं के बल पर पराजित नहीं किया जा सकता। [इसलिए अब उन्होंने एक नया उपाय सोचा और अपनी इस्लाम दुश्मन] गतिविधियों का रुख़ जंगी कार्रवाइयों से हटाकर नीचतापूर्ण हमलों और आन्तिरिक षड्‍यंत्रों की ओर फेर दिया। यह नया उपाय पहली बार ज़ी-क़ादा 05 हि० में सामने आया, जब कि नबी (सल्ल0) ने अरब से लेपालक की अज्ञानतापूर्ण रीति का अन्त करने के लिए ख़ुद अपने मुँह बोले बेटे (ज़ैद-बिन-हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु) की तलाक़शुदा बीवी (जैनब-बिन्ते-जहश रज़ि०) से निकाह किया। इस अवसर पर मदीना के मुनाफ़िक़ दुष्प्रचार का भारी तूफ़ान लेकर उठ खड़े हुए और बाहर से यहूदियों और मुशरिकों ने भी उनकी आवाज़ से आवाज़ मिलाकर आरोप गढ़ने शुरू कर दिए। इन बेशर्म झूठ गढ़नेवालों ने नबी (सल्ल०) पर निकृष्ट झूठे नैतिक आरोप लगाए ।

दूसरा आक्रमण बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर किया गया। [जब एक मुहाजिर और एक अंसारी के मामूली से झगड़े को मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने एक बड़ा भारी फ़ितना बना देना चाहा। इस घटना का विवरण आगे सूरा-63 अल-मुनाफ़िकून के परिचय में आ रहा है। यह आक्रमण] पहले से भी अधिक भयानक था।

वह घटना अभी ताज़ा ही थी कि उसी सफ़र में उसने एक और भयानक फ़ितना उठा दिया। यह हज़रत आइशा (रज़ि०) को आरोपित करने का फ़ितना था। इस घटना को स्वयं उन्हीं के मुख से सुनिए, वे फ़रमाती हैं कि-

"बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर मैं नबी (सल्ल०) के साथ थी।। वापसी पर, जब हम मदीना के क़रीब थे, एक मंज़िल (पड़ाव) पर रात के समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने पड़ाव किया और अभी रात का कुछ हिस्सा बाक़ी था कि कूच की तैयारियांँ शुरू हो गई। मैं उठकर अपनी ज़रूरत पूरी करने निकली और जब पलटने लगी तो पड़ाव के क़रीब पहुँचकर मुझे लगा कि मेरे गले का हार टूटकर कहीं गिर पड़ा है। मैं उसे खोजने में लग गई और इतने में क़ाफ़िला रवाना हो गया।

क़ायदा यह था कि मैं कूच के समय अपने हौदे में बैठ जाती थी और चार आदमी उसे उठाकर ऊँट पर रख देते थे। हम औरतें उस वक़्त खाने-पीने की चीज़ों की कमी की वजह से बहुत हलकी-फुलकी थीं। मेरा हौदा उठाते समय लोगों को यह महसूस ही नहीं हुआ कि मैं उसमें नहीं हूँ। वे बेख़बरी में ख़ाली हौदा ऊँट पर रखकर रवाना हो गए।

मैं जब हार लेकर पलटी तो वहाँ कोई न था। आख़िर अपनी चादर ओढ़कर वही लेट गई और दिल में सोच लिया कि आगे जाकर जब ये लोग मुझे न पाएँगे तो स्वयं ही ढूँढते हुए आ जाएँगे। इसी हालत में मुझको नींद आ गई। सुबह के वक़्त सफ़वान-बिन-मुअत्तल सुलमी (रज़ि०) उस जगह से गुज़रे जहाँ मैं सो रही थी और मुझे देखते ही पहचान लिया, क्योंकि परदे का आदेश आने से पहले वे मुझे कई बार देख चुके थे। (यह साहब बद्री सहाबियों में से थे । इनको सुबह देर तक सोने की आदत थी, इसलिए ये भी फ़ौजी पड़ाव पर कहीं पड़े सोते रह गए थे और अब उठकर मदीना जा रहे थे।)

मुझे देखकर उन्होंने ऊँट रोक लिया और सहसा उनके मुख से निकला, "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन (निस्सन्देह हम अल्लाह के हैं और उसी की ओर हमें पलटना है।) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पत्नी यहीं रह गईं।" इस आवाज़ से मेरी आँख खुल गई और मैंने उठकर तुरन्त अपने मुँह पर चादर डाल ली। उन्होंने मुझसे कोई बात न की, लाकर अपना ऊँट मेरे पास बिठा दिया और अलग हटकर खड़े हो गए। मैं ऊँट पर सवार हो गई और वे नकेल पकड़कर रवाना हो गए। दोपहर के क़रीब हमने सेना को पा लिया, जबकि वह अभी एक जगह जाकर ठहरी ही थी और लश्करवालों को अभी यह पता न चला था कि मैं पीछे छूट गई हूँ। इसपर लांछन लगानेवालों ने लांछन लगा दिए और उनमें सब से आगे-आगे अब्दुल्लाह-बिन-उबई था।

“मगर मैं इससे बे-ख़बर थी कि मुझपर क्या बातें बन रही हैं। मदीना पहुँचकर मैं बीमार हो गई और एक माह के क़रीब पलंग पर पड़ी रही। शहर में इस लांछन की ख़बरें उड़ रही थीं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के कानों तक भी बात पहुँच चुकी थी, मगर मुझे कुछ पता न था। अलबत्ता जो चीज़ मुझे खटकती थी, वह यह कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का वह ध्यान मेरी ओर न था जो बीमारी के ज़माने हुआ करता था। आख़िर आप (सल्ल०) से इजाज़त लेकर मैं अपनी माँ के घर चली गई, ताकि वे मेरी देखभाल अच्छी तरह कर सकें ।

“एक दिन रात के समय ज़रूरत पूरी करने के लिए मैं मदीने के बाहर गई। उस वक़्त तक हमारे घरों में शौचालय न थे और हम लोग जंगल ही जाया करते थे। मेरे साथ मिस्तह-बिन-उसासा को माँ भी थीं। [उनकी ज़बानी मालूम हुआ कि] लांछन लगानेवाले झूठे लोग मेरे बारे में क्या बातें उड़ा रहे हैं? यह दास्तान सुनकर मेरा ख़ून सूख गया। वह ज़रूरत भी मैं भूल गई जिसके लिए आई थी। सीधे घर गई और रात रो-रोकर काटी।"

आगे चलकर हज़रत आइशा (रजि०) फ़रमाती हैं कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्त०) ने ख़ुतबे (अभिभाषण) में फ़रमाया, “मुसलमानो ! कौन है जो उस व्यक्ति के हमलों से मेरी इज़्ज़त बचाए जिसने मेरे घरवालो पर आरोप रखकर मुझे बहुत ज़्यादा दुख पहुँचाया है। अल्लाह की क़सम ! मैंने न तो अपनी बीवी ही में कोई बुराई देखी है और न उस व्यक्ति में जिसके साथ तोहमत लगाई जाती है। वह तो कभी मेरी अनुपस्थति में मेरे घर आया भी नहीं।"

इस पर उसैद-बिन-हुज़ैर (रजि०) औस के सरदार (कुछ रिवायतों में साद-बिन-मुआज़ रज़ि०) ने उठकर कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल ! अगर वह हमारे क़बीले का आदमी है तो हम उसकी गरदन मार दें और अगर हमारे भाई खज़रजियों में से है तो आप हुक्म दें, हम उसे पूरा करने के लिए हाज़िर हैं।"

यह सुनते ही साद बिन उबादा, खज़रज के सरदार उठ खड़े हुए और कहने लगे, “झूठ कहते हो, तुम हरगिज़ उसे नहीं मार सकते।" उसैद-बिन-हुजैर (रज़ि०) ने जवाब में कहा, “तुम मुनाफ़िक़ हो, इसलिए मुनाफ़िक़ों का पक्ष लेते हो।" इस पर मस्जिदे-नबवी में एक हंगामा खड़ा हो गया, हालाँकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मिम्बर पर तशरीफ़ रखते थे। क़रीब था कि औस और खज़रज मस्जिद ही में लड़ पड़ते, मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको ठंडा किया और फिर मिम्बर पर से उतर आए।

इन विवेचनों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने यह शोशा छोड़कर एक ही समय में कई शिकार करने की कोशिश की।

एक ओर उसने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) की इज़्ज़त पर हमला किया। दूसरी ओर उसने इस्लामी आन्दोलन की श्रेष्ठतम नैतिक प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाने की कोशिश की। तीसरी ओर उसने यह एक ऐसी चिंगारी फेंकी थी कि अगर इस्लाम अपने अनुपालकों के जीवन की काया न पलट चुका होता तो मुहाजिरीन, अंसार और ख़ुद अंसार के भी दोनों क़बीले (औस और खज़रज) आपस में लड़ मरते।

विषय और वार्ताएँ

ये थीं वे परिस्थितियाँ, जिनमें पहले हमले के मौक़े पर सूरा-33 (अहज़ाब) की आयतें 28 से लेकर 73 तक उतरीं और दूसरे हमले के मौक़े पर यह सूरा नूर उतरी। इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर इन दोनों सूरतों का क्रमवार अध्ययन किया जाए तो वह हिकमत (तत्वदर्शिता) अच्छी तरह समझ में आ जाती है जो उनके आदेशों में निहित है। मुनाफ़िक़ मुसलमानों को उस मैदान में परास्त करना चाहते थे, जो उनकी श्रेष्ठता का असल क्षेत्र था। अल्लाह ने बजाय इसके कि मुसलमानों को जवाबी हमले करने पर उकसाता, पूरा ध्यान उनपर यह शिक्षा देने पर लगाया कि तुम्हारे मुक़ाबले के नैतिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ अवरोध मौजूद हैं उनको हटाओ और उस मोर्चे को और अधिक मज़बूत करो। [ज़ैनब (रज़ि०) के निकाह के मौके पर] जब मुनाफ़िक़ो और काफ़िरों (दुश्मनों) ने तूफ़ान उठाया था, उस वक़्त सामाजिक सुधार के संबंध में वे आदेश दिए गए थे जिनका उल्लेख सूरा-33 अहज़ाब में किया गया है। फिर जब लांछन की घटना से मदीना के समाज में एक हलचल पैदा हुई तो यह सूरा नूर नैतिकता, सामाजिकता और क़ानून के ऐसे आदेशों के साथ उतारी गई जिनका उद्देश्य यह था कि एक तो मुस्लिम समाज को बुराइयों के पैदा होने और उनके फैलाव से सुरक्षित रखा जाए और अगर वे पैदा ही हो जाएँ तो उनकी भरपूर रोकथाम की जाए।

इन आदेशों और निर्देशों को उसी क्रम के साथ ध्यान से पढ़िए जिसके साथ वे इस सूरा में उतरे हैं, तो अन्दाज़ा होगा कि क़ुरआन ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर पर मानव-जीवन के सुधार और निर्माण के लिए किस तरह क़ानूनी, नैतिक और सामाजिक उपायों को एक साथ प्रस्तावित करता है। इन आदेशों और निर्देशों के साथ-साथ मुनाफ़िक़ों और ईमानवालों की वे खुली-खुली निशानियाँ भी बयान कर दी गईं जिनसे हर मुसलमान यह जान सके कि समाज में निष्ठावान ईमानवाले कौन लोग और मुनाफ़िक़ कौन हैं ? दूसरी ओर मुसलमानों के सामूहिक अनुशासन को और कस दिया गया। इस पूरी वार्ता में प्रमुख चीज़ देखने की यह है कि पूरी सूरा नूर उस कटुता से ख़ाली है जो अश्लील और घृणित हमलों के जवाब में पैदा हुआ करती है। इतनी अधिक उत्तेजनापूर्ण परिस्थितियों में कैसे ठंडे तरीक़े से क़ानून बनाए जा रहे हैं, सुधारवादी आदेश दिए जा रहे हैं, सूझ-बूझ भरे निरदेश दिए जा रहे हैं और शिक्षा और उपदेश देने का हक़ अदा किया जा रहा है। इससे केवल यही शिक्षा नहीं मिलती कि हमें फ़ितनों के मुक़ाबले में तीव्र से तीव्र उत्तेजना के अवसरों पर भी किस तरह ठंडे चिन्तन, विशाल हृदयता और विवेक से काम लेना चाहिए, बल्कि इससे इस बात का प्रमाण भी मिलता है कि यह कलाम (वाणी) मुहम्मद (सल्ल०) का अपना गढ़ा हुआ नहीं है, किसी ऐसी हस्ती ही का उतारा हुआ है जो बहुत उच्च स्थान से मानवीय परिस्थतियों और दशाओं को देख रही है और अपने आप में उन परिस्थतियों और दशाओं से अप्रभावित होकर विशुद्ध निर्देश और मार्गदर्शन के पद का हक़ अदा कर रही है। अगर यह हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी लिखी होती तो आपकी अति उच्चता और श्रेष्ठता के बावजूद उसमें उस स्वाभाविक कटुता का कुछ न कुछ प्रभाव तो ज़रूर पाया जाता जो स्वयं अपनी प्रतिष्ठा पर निकृष्ट हमलों को सुनकर एक सज्जन पुरुष की भावनाओं में अनिवार्य रूप से पैदा हो जाया करती है।

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سُورَةُ النُّورِ
24. अन-नूर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
سُورَةٌ أَنزَلۡنَٰهَا وَفَرَضۡنَٰهَا وَأَنزَلۡنَا فِيهَآ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ لَّعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ
(1) यह एक सूरा है जिसको हमने नाज़िल किया है, और इसे हमने फ़र्ज़ किया है, और इसमें हमने साफ़-साफ़ हिदायात नाज़िल की हैं,1 शायद कि तुम सबक़ लो।
1. यानी जो बातें इस सूरा में कही गई हैं वे ‘सिफ़ारिशात’ नहीं हैं कि आपका जी चाहे ते मानें वरना जो कुछ चाहें करते रहें, बल्कि क़तई अहकाम हैं जिनकी पैरवी करना लाज़िम है। अगर मोमिन हो तो उनकी पैरवी करना तुम्हारा फ़र्ज़ है।
ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِي فَٱجۡلِدُواْ كُلَّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا مِاْئَةَ جَلۡدَةٖۖ وَلَا تَأۡخُذۡكُم بِهِمَا رَأۡفَةٞ فِي دِينِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۖ وَلۡيَشۡهَدۡ عَذَابَهُمَا طَآئِفَةٞ مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 1
(2) ज़ानिया औरत और ज़ानी मर्द, दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो।2 और उनपर तरस खाने का जज़्बा अल्लाह के दीन के मामले में तुमको दामनगीर न हो, अगर तुम अल्लाह तआला और रोज़े-आख़िर पर ईमान रखते हो। और उनको सज़ा देते वक़्त ईमानवालों का एक गरोह मौजूद रहे।3
2. ज़िना के मुताल्लिक़ इब्तिदाई हुक्म सूरा-4 निसा, आयत-15 में गुज़र चुका है। अब उसकी यह क़तई सज़ा मुक़र्रर कर दी गई। यह सज़ा उस सूरत के लिए है जबकि ज़ानी मर्द ग़ैर-शादीशुदा या ज़ानिया औरत ग़ैर-शादीशुदा हो। क़ुरआने-पाक में भी इस तरफ़ इशारा मौजूद है, जैसा कि सूरा-4 निसा, आयत-25 से मालूम होता है और ब-कसरत अहादीस, हुज़ूर (सल्ल०) और ख़ुलफ़ाए राशिदीन की अमली सुन्नत और इजमाए-उम्मत से भी यह साबित है कि शादीशुदा होने की सूरत में ज़िना की सज़ा रज्म है।
3. यानी सज़ा बरसरे-आम दी जाए ताकि मुजिरम को नसीहत और दूसरे लोगों को इबरत व नसीहत हो और यह गुनाह मुस्लिम मुआशरे में फैलने न पाए।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 2
(5) सिवाय उन लोगों के जो इस हरकत के बाद ताइब हो जाएँ और इस्लाह कर लें कि अल्लाह ज़रूर (उनके हक़ में) बहुत ग़फ़ूर व रहीम है।6
6. इस बात पर फ़ुक़हा का इत्तिफ़ाक़ है कि तौबा से क़ज़फ़ की सज़ा साक़ित नहीं होती, इसपर भी इत्तिफ़ाक़ है कि तौबा करनेवाला फ़ासिक़ नहीं रहेगा और अल्लाह तआला उसे माफ़ फ़रमा देगा। अलबत्ता इसमें इख़्तिलाफ़ है कि आया तौबा कर लेने के बाद उसकी शहादत क़ुबूल की जाएगी या नहीं। हनफ़िया इस बात के क़ायल हैं कि उसकी शहादत क़ाबिले-क़ुबूल न होगी। इमाम शाफ़िई, (रह०), इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) उसकी शहादत को क़ाबिले-क़ुबूल समझते हैं।
وَٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ أَزۡوَٰجَهُمۡ وَلَمۡ يَكُن لَّهُمۡ شُهَدَآءُ إِلَّآ أَنفُسُهُمۡ فَشَهَٰدَةُ أَحَدِهِمۡ أَرۡبَعُ شَهَٰدَٰتِۭ بِٱللَّهِ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 3
(6) और जो लोग अपनी बीवियों पर इलज़ाम लगाएँ7 और उनके पास ख़ुद उनके अपने सिवा दूसरे कोई गवाह न हों तो उनमें से एक शख़स की शहादत (यह है कि वह) चार बार अल्लाह की क़सम खाकर गवाही दे कि वह (अपने इलज़ाम में) सच्चा है
7. यानी ज़िना का इलज़ाम लगाएँ।
ٱلزَّانِي لَا يَنكِحُ إِلَّا زَانِيَةً أَوۡ مُشۡرِكَةٗ وَٱلزَّانِيَةُ لَا يَنكِحُهَآ إِلَّا زَانٍ أَوۡ مُشۡرِكٞۚ وَحُرِّمَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 4
(3) ज़ानी निकाह न करे मगर ज़ानिया के साथ या मुशरिका के साथ; और ज़ानिया के साथ निकाह न करे मगर ज़ानी या मुशरिक; और यह हराम कर दिया गया है अहले-ईमान पर।4
4. यानी ज़ानी ग़ैर-ताइब के लिए अगर मौज़ूँ है तो ज़ानिया ही मौज़ूँ है या फिर मुशरिका। किसी मोमिना-ए-सॉलिहा के लिए वह मौज़ूँ नहीं है और हराम है अहले-ईमान के लिए कि वह जानते-बूझते अपनी लड़कियाँ ऐसे फ़ाजिरों को दें। इसी तरह ज़ानिया (ग़ैर-ताइबा) औरतों के लिए अगर मौज़ूँ हैं तो उन्हीं जैसे ज़ानी या मुशरिक। किसी मोमिन सॉलेह के लिए वे मौज़ूँ नहीं हैं, और हराम है मोमिनों के लिए कि जिन औरतों की बदचलनी का हाल उन्हें मालूम हो उनसे वह दानिस्ता निकाह करें। इस हुक्म का इतलाक़ सिर्फ़ उन्हीं मर्दों और औरतों पर होता है जो अपनी बुरी रविश पर क़ायम हों। जो लोग तौबा करके अपनी इस्लाह कर लें उनपर इसका इतलाक़ नहीं होता, क्योंकि तौबा व इस्लाह के बाद ‘ज़ानी’ होने की सिफ़त उनके साथ लगी नहीं रहती।
وَٱلۡخَٰمِسَةُ أَنَّ لَعۡنَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 5
(7) और पाँचवीं बार कहे कि उसपर अल्लाह की लानत हो अगर वह (अपने इलज़ाम में) झूठा हो।
وَيَدۡرَؤُاْ عَنۡهَا ٱلۡعَذَابَ أَن تَشۡهَدَ أَرۡبَعَ شَهَٰدَٰتِۭ بِٱللَّهِ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 6
(8) और औरत से सज़ा इस तरह टल सकती है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खाकर शहादत दे कि यह शख़्स (अपने इलज़ाम में) झूठा है
وَٱلۡخَٰمِسَةَ أَنَّ غَضَبَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَآ إِن كَانَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 7
(9) और पाँचवीं बार कहे कि उस बन्दी पर अल्लाह का ग़ज़ब टूटे अगर वह (अपने इलज़ाम में) सच्चा हो।8
8. शरीअत की इस्तिलाह में इसको 'लिआन' कहते हैं। यह लिआन घर बैठे नहीं हो सकता, बल्कि अदालत में होना चाहिए। लिआन का मुतालबा मर्द की तरफ़ से भी हो सकता है और औरत की तरफ़ से भी। इलज़ाम लगाने के बाद लिआन से अगर मर्द पहलू तही करे, या औरत क़सम खाने से इजतिनाब करे तो उसकी सज़ा हनफ़िया के नज़दीक क़ैद है जब तक मुजरिम लिआन न करे। और दोनों तरफ़ से लिआन हो जाने के बाद औरत और मर्द एक-दूसरे के लिए हराम हो जाते हैं।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ تَوَّابٌ حَكِيمٌ ۝ 8
(10) तुम लोगों पर अल्लाह का फ़ज़्ल और उसका रहम न होता और यह बात न होती कि अल्लाह बड़ा इल्तिफ़ात फ़रमानेवाला और हकीम है, (तो बीवियों पर इलज़ाम का मामला तुम्हें बड़ी पेचीदगी में डाल देता)।
إِنَّ ٱلَّذِينَ جَآءُو بِٱلۡإِفۡكِ عُصۡبَةٞ مِّنكُمۡۚ لَا تَحۡسَبُوهُ شَرّٗا لَّكُمۖ بَلۡ هُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۚ لِكُلِّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُم مَّا ٱكۡتَسَبَ مِنَ ٱلۡإِثۡمِۚ وَٱلَّذِي تَوَلَّىٰ كِبۡرَهُۥ مِنۡهُمۡ لَهُۥ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 9
(11) जो लोग यह बोहतान गढ़ लाए हैं8 वे तुम्हारे ही अन्दर का एक टोला हैं।9 इस वाक़िए को अपने लिए बुरा न समझो, बल्कि यह भी तुम्हारे लिए ख़ैर ही है।10 जिसने उसमें जितना हिस्सा लिया उसने उतना ही गुनाह समेटा और जिस शख़्स ने इस ज़िम्मेदारी का बड़ा हिस्सा अपने सर लिया11 उसके लिए तो बड़ा अज़ाब है।
9. यहाँ से आयत 26 तक उस मामले पर कलाम फ़रमाया गया है जो तारीख़ में ‘वाक़िए-इफ़्क’ के नाम से मशहूर है, जिसमें मुनाफ़िक़ीन ने हज़रत आइशा (रज़ि०) पर, मआज़अल्लाह ज़िना की तोहमत लगाई थी और इसका इतना चर्चा किया था कि कुछ मुसलमान भी इसमें मुब्तला हो गए थे।
10. मतलब यह है कि घबराओ नहीं, मुनाफ़िक़ीन ने अपनी समझ से तो यह बड़े ज़ोर का वार तुमपर किया है मगर इनशाअल्लाह यह उन्हीं पर उलटा पड़ेगा और तुम्हारे लिए मुफ़ीद साबित होगा।
11. यानी अब्दुल्लाह-बिन-उबई जो इस इलज़ाम का अस्ल मुसन्निफ़ और फ़ितने का अस्ल बानी था।
لَّوۡلَآ إِذۡ سَمِعۡتُمُوهُ ظَنَّ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ بِأَنفُسِهِمۡ خَيۡرٗا وَقَالُواْ هَٰذَآ إِفۡكٞ مُّبِينٞ ۝ 10
(12) जिस वक़्त तुम लोगों ने इसे सुना था उसी वक़्त क्यों न मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों ने अपने आपसे नेक गुमान किया12 और क्यों न कह दिया कि यह सरीह बोहतान है?13
12. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि अपने लोगों, या अपनी मिल्लत और अपने मुआशरे के लोगों से नेक गुमान क्यों न किया। आयत के अलफ़ाज़ दोनों मफ़हूमों पर हावी हैं। लेकिन जो तर्जमा हमने इख़्तियार किया है वह ज़्यादा मानाख़ेज़ है। इसका मतलब यह है कि तुममें से हर एक ने क्यों न ख़याल किया कि अगर उसको उस सूरते-हाल से साबिक़ा पेश आता जो हज़रत आइशा (रज़ि०) को पेश आई थी तो क्या वह ज़िना का मुर्तकिब हो जाता?
لَّوۡلَا جَآءُو عَلَيۡهِ بِأَرۡبَعَةِ شُهَدَآءَۚ فَإِذۡ لَمۡ يَأۡتُواْ بِٱلشُّهَدَآءِ فَأُوْلَٰٓئِكَ عِندَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ ۝ 11
(13) वे लोग (अपने इलज़ाम के सुबूत में) चार गवाह क्यों न लाए? अब कि वे गवाह नहीं लाए हैं, अल्लाह के नज़दीक वही झूठे हैं।13
13. इस जगह किसी को यह ग़लत-फ़हमी न हो कि यहाँ इलज़ाम के ग़लत होने की दलील और बुनियाद मह्ज़ गवाहों की ग़ैर-मौजूदगी को ठहराया जा रहा है, और मुसलमानों से कहा जा रहा है कि तुम भी सिर्फ़ इस वजह से इसको सरीह बोहतान क़रार दो कि इलज़ाम लगानेवाले चार गवाह नहीं लाए हैं। यह ग़लत-फ़हमी इस सूरते-वाक़िआ को निगाह में न रखने से पैदा होती है जो फ़िलवाक़े वहाँ पेश आई थी। इलज़ाम लगानेवालों ने इलज़ाम इस वजह से नहीं लगया था कि उन्होंने या उनमें से किसी शख़्स ने मआज़अल्लाह अपनी आँखों से वह बात देखी थी, जो वे ज़बान से निकाल रहे थे, बल्कि सिर्फ़ इस बुनियाद पर इतना बड़ा इलज़ाम तसनीफ़ कर डाला था कि इत्तिफ़ाक़न हज़रत आइशा (रज़ि०) क़ाफ़िले से पीछे रह गई थीं और हज़रत सफ़वान बाद में उनको अपने ऊँट पर सवार करके काफ़िले में ले आए थे। कोई साहिबे-अक़्ल आदमी भी इस मौक़े पर यह तसव्वुर नहीं कर सकता था कि हज़रत आइशा (रज़ि०) का इस तरह पीछे रह जाना मआज़अल्लाह किसी साज़-बाज़ का नतीजा था। साज़-बाज करनेवाले इस तरीक़े से तो साज़-बाज़ नहीं किया करते कि सालारे-लश्कर की बीवी चुपके से क़ाफ़िले के पीछे एक शख़्स के साथ रह जाए और फिर वही शख़्स उसको अपने ऊँट पर बिठाकर दिन-दहाड़े ठीक दोपहर के वक़्त लिए हुए अलानिया लश्कर के पड़ाव पर पहुँचे। यह हालत ख़ुद ही इन दोनों की मासूमियत पर दलालत कर रही थी। इस हालत में अगर इलज़ाम लगाया जा सकता था तो सिर्फ़ इस बुनियाद पर ही लगाया जा सकता था कि कहनेवालों ने अपनी आँखों से कोई मामला देखा हो। वरना क़राइन, जिनपर ज़ालिमों ने इलज़ाम की बिना रखी थी, किसी शक व शुब्हे की गुंजाइश नहीं रखते थे।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ لَمَسَّكُمۡ فِي مَآ أَفَضۡتُمۡ فِيهِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 12
(14) अगर तुम लोगों पर दुनिया और आख़िरत में अल्लाह का फ़ज़्ल व करम न होता तो जिन बातों में तुम पड़ गए थे, उनकी पादाश में बड़ा अज़ाब तुम्हें आ लेता।
إِذۡ تَلَقَّوۡنَهُۥ بِأَلۡسِنَتِكُمۡ وَتَقُولُونَ بِأَفۡوَاهِكُم مَّا لَيۡسَ لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞ وَتَحۡسَبُونَهُۥ هَيِّنٗا وَهُوَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمٞ ۝ 13
(15) (ज़रा ग़ौर करो तो, उस वक़्त तुम कैसी सख़्त ग़लती कर रहे थे) जबकि तुम्हारी एक ज़बान से दूसरी ज़बान उस झूठ को लेती चली जा रही थी और तुम अपने मुँह से वह कुछ कहे जा रहे थे जिसके मुताल्लिक़ तुम्हें कोई इल्म न था। तुम इसे एक मामूली बात समझ रहे थे, हालाँकि अल्लाह के नज़दीक यह बड़ी बात थी।
وَٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ثُمَّ لَمۡ يَأۡتُواْ بِأَرۡبَعَةِ شُهَدَآءَ فَٱجۡلِدُوهُمۡ ثَمَٰنِينَ جَلۡدَةٗ وَلَا تَقۡبَلُواْ لَهُمۡ شَهَٰدَةً أَبَدٗاۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 14
(4) और जो लोग पाकदामन औरतों पर तोहमत लगाएँ,5 फिर चार गवाह लेकर न आएँ, उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी क़ुबूल न करो, और वे ख़ुद ही फ़ासिक़ हैं,
5. यानी ज़िना की तोहमत, और यही हुक्म पाकदामन मर्दों पर भी ज़िना की तोहमत लगाने का है। शरीअत की इस्तिलाह में इस तुहमत तराशी को ‘क़ज़फ़’ कहा जाता है।
وَلَوۡلَآ إِذۡ سَمِعۡتُمُوهُ قُلۡتُم مَّا يَكُونُ لَنَآ أَن نَّتَكَلَّمَ بِهَٰذَا سُبۡحَٰنَكَ هَٰذَا بُهۡتَٰنٌ عَظِيمٞ ۝ 15
(16) क्यों न इसे सुनते ही तुमने कह दिया कि “हमें ऐसी बात ज़बान से निकालना जे़ब नहीं देता, सुब्हानल्लाह, यह तो एक बड़ी तोहमत है।”
يَعِظُكُمُ ٱللَّهُ أَن تَعُودُواْ لِمِثۡلِهِۦٓ أَبَدًا إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 16
(17) अल्लाह तुमको नसीहत करता है कि आइन्दा कभी ऐसी हरकत न करना अगर तुम मोमिन हो।
وَيُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۚ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 17
(18) अल्लाह तुम्हें साफ़-साफ़ हिदायात देता है, और वह अलीम व हकीम है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُحِبُّونَ أَن تَشِيعَ ٱلۡفَٰحِشَةُ فِي ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 18
(19) जो लोग चाहते हैं कि ईमान लानेवालों के गरोह में फ़ुह्श फैले, वे दुनिया और आख़िरत में दर्दनाक सज़ा के मुस्तहिक़ हैं, अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 19
(20) अगर अल्लाह का फ़ज़्ल और उसका रहम व करम तुमपर न होता और यह बात न होती कि अल्लाह बड़ा शफ़ीक़ व रहीम है (तो यह चीज़ जो अभी तुम्हारे अन्दर फैलाई गई थी, बदतरीन नताइज दिखा देती)।
لَّيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ مَسۡكُونَةٖ فِيهَا مَتَٰعٞ لَّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا تَكۡتُمُونَ ۝ 20
(29) अलबत्ता तुम्हारे लिए इसमें कोई मुज़ायक़ा नहीं है कि ऐसे घरों में दाख़िल हो जाओ जो किसी के रहने की जगह न हों और जिनमें तुम्हारे फ़ायदे (या काम) की कोई चीज़ हो,18 तुम जो कुछ ज़ाहिर करते हो और जो कुछ छिपाते हो सबकी अल्लाह को ख़बर है।
18. इससे मुराद हैं होटल, सराय मेहमानख़ाने, दुकानें, मुसाफ़िरख़ाने वग़ैरा जहाँ लोगों के लिए दाख़िले की आम इजाज़त हो।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ وَمَن يَتَّبِعۡ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِ فَإِنَّهُۥ يَأۡمُرُ بِٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِۚ وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ مَا زَكَىٰ مِنكُم مِّنۡ أَحَدٍ أَبَدٗا وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُزَكِّي مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 21
(21) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, शैतान के नक़्शे-क़दम पर न चलो। उसकी पैरवी कोई करेगा तो वह तो उसे फ़ुह्श और बदी ही का हुक्म देगा। अगर अल्लाह का फ़ज़्ल और उसका रहम व करम तुमपर न होता तो तुममें से कोई शख़्स पाक न हो सकता। मगर अल्लाह ही जिसे चाहता है पाक कर देता है, और अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।
وَلَا يَأۡتَلِ أُوْلُواْ ٱلۡفَضۡلِ مِنكُمۡ وَٱلسَّعَةِ أَن يُؤۡتُوٓاْ أُوْلِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينَ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ وَلۡيَعۡفُواْ وَلۡيَصۡفَحُوٓاْۗ أَلَا تُحِبُّونَ أَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 22
(22) तुममें से जो लोग साहिबे-फ़ज़्ल और साहिबे-मक़दिरत हैं वे इस बात की क़सम न खा बैठें कि अपने रिश्तेदारों, मिस्कीनों और मुहाजिरे-फ़ी-सबीलिल्लाह लोगों की मदद न करेंगे। उन्हें माफ़ कर देना चाहिए और दरगुज़र करना चाहिए। क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हें माफ़ करे? और अल्लाह की सिफ़त यह है कि वह ग़फ़ूर और रहीम है।14
14. यह आयत इस मामले में नाज़िल हुई है कि इलज़ाम लगानेवालों में जो बाज़ सादालौह मुसलमान शामिल हो गए थे, उनमें से एक हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के क़रीबी रिश्तेदार भी थे जिनपर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) हमेशा एहसान करते रहते थे। इस तकलीफ़देह वाक़िए के बाद हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने क़सम खा ली कि अब उनके साथ कोई हुस्ने-सुलूक न करेंगे। अल्लाह तआला ने इस बात को पसन्द न फ़रमाया कि सिद्दीक़े-अकबर जैसा शख़्स अफ़्व व दरगुज़र से काम न ले।
وَلۡيَسۡتَعۡفِفِ ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ نِكَاحًا حَتَّىٰ يُغۡنِيَهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱلَّذِينَ يَبۡتَغُونَ ٱلۡكِتَٰبَ مِمَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ فَكَاتِبُوهُمۡ إِنۡ عَلِمۡتُمۡ فِيهِمۡ خَيۡرٗاۖ وَءَاتُوهُم مِّن مَّالِ ٱللَّهِ ٱلَّذِيٓ ءَاتَىٰكُمۡۚ وَلَا تُكۡرِهُواْ فَتَيَٰتِكُمۡ عَلَى ٱلۡبِغَآءِ إِنۡ أَرَدۡنَ تَحَصُّنٗا لِّتَبۡتَغُواْ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَمَن يُكۡرِههُّنَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ مِنۢ بَعۡدِ إِكۡرَٰهِهِنَّ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 23
(33) और जो निकाह का मौक़ा न पाएँ, उन्हें चाहिए कि पाकदामनी इख़्तियार करें, यहाँ तक कि अल्लाह अपनी फ़ज़्ल से उनको ग़नी कर दे। और तुम्हारे ममलूकों में से जो मुकातबत की दरख़ास्त करें उनसे मुकातबत कर लो।27 अगर तुम्हें मालूम हो कि उनके अन्दर भलाई है,28 और उनको उस माल में से दो जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है।29 और अपनी लौंडियों को अपने दुनियवी फ़ायदों की ख़ातिर क़हबागरी पर मजबूर न करो30 जबकि वे ख़ुद पाकदामन रहना चाहती हों,31 और जो कोई उनको मजबूर करे तो इस जब्र के बाद अल्लाह उनके लिए माफ़ ग़फ़ूर व रहीम है।
27. मुकातबत का मतलब यह है कि कोई ग़ुलाम या लौंडी अपनी आज़ादी के लिए अपने आक़ा को एक मुआवज़ा अदा करने की पेशकश करे और जब आक़ा उसे क़ुबूल कर ले तो दोनों के दरमियान शर्तों की लिखा-पढ़ी हो जाए।
28. भलाई से मुराद दो चीज़़ें हैं : एक यह कि ग़ुलाम में माले-किताबत अदा करने की सलाहियत हो। दूसरे यह कि उसमें इतनी दियानत और रास्तबाज़ी मौजूद हो कि उसके क़ौल पर एतिमाद करके मुआहदा किया जा सके।
29. आम हुक्म है। मालिक भी कुछ न कुछ रक़म माफ़ कर दें। मुसलमान भी उनकी मदद करें। बैतुलमाल से भी उनकी इआनत की जाए।
30. ज़माना-ए-जाहिलियत में अरबवाले अपनी लौंडियों से क़हबागरी का पेशा कराते थे और उनकी कमाई खाते थे, इस्लाम में इस पेशे को मम्नूअ क़रार दिया गया।
31. मतलब यह है कि अगर लौंडी ख़ुद अपनी मर्ज़ी से बदकारी की मुर्तकिब होती है तो वह अपने जुर्म की आप ज़िम्मेदार है। क़ानून उसके जुर्म पर उसी को पकड़ेगा, लेकिन अगर उसका मालिक जब्र करके उससे पेशा कराए तो ज़िम्मेदारी मालिक की है और वही पकड़ा जाएगा।
وَلَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ ءَايَٰتٖ مُّبَيِّنَٰتٖ وَمَثَلٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۡ وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 24
(34) हमने साफ़-साफ़ हिदायत देनेवाली आयात तुम्हारे पास भेज दी हैं, और उन क़ौमों की इबरतनाक मिसालें भी हम तुम्हारे सामने पेश कर चुके हैं जो तुमसे पहले हो गुज़री हैं, और वे नसीहतें हमने कर दी हैं जो डरनेवालों के लिए होती हैं।
۞ٱللَّهُ نُورُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ مَثَلُ نُورِهِۦ كَمِشۡكَوٰةٖ فِيهَا مِصۡبَاحٌۖ ٱلۡمِصۡبَاحُ فِي زُجَاجَةٍۖ ٱلزُّجَاجَةُ كَأَنَّهَا كَوۡكَبٞ دُرِّيّٞ يُوقَدُ مِن شَجَرَةٖ مُّبَٰرَكَةٖ زَيۡتُونَةٖ لَّا شَرۡقِيَّةٖ وَلَا غَرۡبِيَّةٖ يَكَادُ زَيۡتُهَا يُضِيٓءُ وَلَوۡ لَمۡ تَمۡسَسۡهُ نَارٞۚ نُّورٌ عَلَىٰ نُورٖۚ يَهۡدِي ٱللَّهُ لِنُورِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَيَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَٰلَ لِلنَّاسِۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 25
(35) अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है।32 (कायनात में) उसके नूर की मिसाल ऐसी है जैसे एक ताक़ में चराग़ रखा हुआ हो, चराग़ एक फ़ानूस में हो, फ़ानूस का हाल यह हो कि जैसे मोती की तरह चमकता हुआ तारा, और वह चराग़ जै़तून के एक ऐसे मुबारक पेड़ के तेल से रौशन किया जाता हो जो न शरक़ी हो न ग़रबी, जिसका तेल आप-ही-आप भड़का पड़ता हो, चाहे आग उसको न लगे, (इस तरह) रौशनी-पर-रौशनी (बढ़ने के तमाम असबाब जमा हो गए हों33)। अल्लाह अपने नूर की तरफ़ जिसकी चाहता है रहनुमाई फ़रमाता है, वह लोगों को मिसालों से बात समझाता है, वह हर चीज़ से ख़ूब वाक़िफ़ है।
32. यानी कायनात में जो कुछ भी ज़ुहूर है उसी के नूर की बदौलत है।
33. इस तमसील में 'चराग़' से अल्लाह तआला की ज़ात को और 'ताक़' से कायनात को तशबीह दी गई है, और फ़ानूस से मुराद वह परदा है जिसमें हज़रते-हक़ ने अपने आपको निगाहे-ख़ल्क़ से छिपा रखा है। गोया यह परदा फ़िल-हक़ीक़त ख़िफ़ा का नहीं, शिद्दते-ज़ुहूर का परदा है, निगाहे-ख़ल्क़ उसको देखने से इसलिए आजिज़ है कि नूर ऐसा शदीद और बसीत और मुहीत है जिसे जिसका इदराक महदूद बीनाइयाँ नहीं कर सकतीं। रहा यह मज़मून कि “चराग़ एक ऐसे दरख़्ते-ज़ैतून के तेल से रौशन किया जाता हो जो न शरक़ी हो न ग़रबी", तो यह सिर्फ़ चराग़ की रौशनी के कमाल और उसकी शिद्दत का तसव्वुर दिलाने के लिए है। क्योंकि क़दीम ज़माने में ज़्यादा-से-ज़्यादा रौशनी रोग़ने-ज़ैतून के चराग़ों से हासिल की जाती थी, और उनमें सबसे ज़्यादा रौशनतरीन चराग़ वह होता था जो बलन्द और खुली जगह के दरख़्त से निकाले हुए तेल का हो और यह जो फ़रमाया कि “उसका तेल आप से आप भड़का पड़ता हो चाहे आग उसको न लगे", इससे भी चराग़ की रौशनी के ज़्यादा-से-ज़्यादा तेज़ होने का तसव्वुर दिलाना मक़सूद है।
فِي بُيُوتٍ أَذِنَ ٱللَّهُ أَن تُرۡفَعَ وَيُذۡكَرَ فِيهَا ٱسۡمُهُۥ يُسَبِّحُ لَهُۥ فِيهَا بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ ۝ 26
(36) (उसके नूर की तरफ़ हिदायत पानेवाले) उन घरों में पाए जाते हैं, जिन्हें बलन्द करने का और जिनमें अपने नाम की याद का अल्लाह ने इज़्न दिया है। उनमें ऐसे लोग सुबह-शाम उसकी तसबीह करते हैं
رِجَالٞ لَّا تُلۡهِيهِمۡ تِجَٰرَةٞ وَلَا بَيۡعٌ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَإِقَامِ ٱلصَّلَوٰةِ وَإِيتَآءِ ٱلزَّكَوٰةِ يَخَافُونَ يَوۡمٗا تَتَقَلَّبُ فِيهِ ٱلۡقُلُوبُ وَٱلۡأَبۡصَٰرُ ۝ 27
(37) जिन्हें तिजारत और ख़रीद व फ़रोख़्त अल्लाह की याद से और नमाज़ क़ायम करने और ज़कात देने से ग़ाफ़िल नहीं कर देती। वे उस दिन से डरते रहते हैं, जिसमें दिल उलटने और दीदे पथरा जाने की नौबत आ जाएगी,
لِيَجۡزِيَهُمُ ٱللَّهُ أَحۡسَنَ مَا عَمِلُواْ وَيَزِيدَهُم مِّن فَضۡلِهِۦۗ وَٱللَّهُ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 28
(38) (और वे यह सब कुछ इसलिए करते हैं) ताकि अल्लाह उनके बेहतरीन आमाल की जज़ा उनको दे और अपने फ़ज़्ल से मज़ीद नवाज़े, अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब देता है।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَعۡمَٰلُهُمۡ كَسَرَابِۭ بِقِيعَةٖ يَحۡسَبُهُ ٱلظَّمۡـَٔانُ مَآءً حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَهُۥ لَمۡ يَجِدۡهُ شَيۡـٔٗا وَوَجَدَ ٱللَّهَ عِندَهُۥ فَوَفَّىٰهُ حِسَابَهُۥۗ وَٱللَّهُ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 29
(39) (इसके बरअक्स) जिन्होंने कुफ़्र किया उनके आमाल की मिसाल ऐसी है जैसे दश्ते-बेआब में सराब कि प्यासा उसको पानी समझे हुए था, मगर जब वहाँ पहुँचा तो कुछ न पाया, बल्कि वहाँ उसने अल्लाह को मौजूद पाया जिसने उसका पूरा-पूरा हिसाब चुका दिया, और अल्लाह को हिसाब लेते देर नहीं लगती।
أَوۡ كَظُلُمَٰتٖ فِي بَحۡرٖ لُّجِّيّٖ يَغۡشَىٰهُ مَوۡجٞ مِّن فَوۡقِهِۦ مَوۡجٞ مِّن فَوۡقِهِۦ سَحَابٞۚ ظُلُمَٰتُۢ بَعۡضُهَا فَوۡقَ بَعۡضٍ إِذَآ أَخۡرَجَ يَدَهُۥ لَمۡ يَكَدۡ يَرَىٰهَاۗ وَمَن لَّمۡ يَجۡعَلِ ٱللَّهُ لَهُۥ نُورٗا فَمَا لَهُۥ مِن نُّورٍ ۝ 30
(40) या फिर उसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक गहरे समुन्दर में अंधेरा कि ऊपर एक मौज छाई हुई है, उसपर एक और मौज, और उसके ऊपर बादल, तारीकी-पर-तारीकी मुसल्लत है, आदमी अपना हाथ निकाले तो उसे भी न देखने पाए। जिसे अल्लाह नूर न बख़्शे, उसके लिए फिर कोई नूर नहीं।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱلطَّيۡرُ صَٰٓفَّٰتٖۖ كُلّٞ قَدۡ عَلِمَ صَلَاتَهُۥ وَتَسۡبِيحَهُۥۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 31
(41) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह की तसबीह कर रहे हैं वे सब जो आसमानों और ज़मीन में हैं और वे परिन्दे जो पंख फैलाए उड़ रहे हैं? हर एक अपनी नमाज़ और तसबीह का तरीक़ा जानता है, और ये सब जो कुछ करते हैं, अल्लाह उससे बाख़बर रहता है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 32
(42) आसमानों और ज़मीन की बादशाही अल्लाह ही के लिए है और उसी की तरफ़ सबको पलटना है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُزۡجِي سَحَابٗا ثُمَّ يُؤَلِّفُ بَيۡنَهُۥ ثُمَّ يَجۡعَلُهُۥ رُكَامٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦ وَيُنَزِّلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن جِبَالٖ فِيهَا مِنۢ بَرَدٖ فَيُصِيبُ بِهِۦ مَن يَشَآءُ وَيَصۡرِفُهُۥ عَن مَّن يَشَآءُۖ يَكَادُ سَنَا بَرۡقِهِۦ يَذۡهَبُ بِٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 33
(43) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह बादल को धीरे-धीरे चलाता है, फिर उसके टुकड़ों को बाहम जोड़ता है, फिर उसे समेटकर एक कसीफ़ बादल बना देता है, फिर तुम देखते हो कि उसके ख़ोल में से बारिश के क़तरे टपकते चले आते हैं। और वह आसमान से, उन पहाड़ों की बदौलत जो उसमें बलन्द हैं,34 ओले बरसाता है, फिर जिसे चाहता है उनका नुक़सान पहुँचाता है और जिसे चाहता है उनसे बचा लेता है। उसकी बिजली की चमक निगाहों को ख़ीरा किए देती है।
34. इससे मुराद सर्दी से जमे हुए बादल भी हो सकते हैं जिन्हें मजाज़न आसमान के पहाड़ कहा गया हो, और ज़मीन के पहाड़ भी हो सकते हैं जो आसमान में बलन्द हैं, जिनकी चोटियों पर जमी हुई बर्फ़ के असर से बसा औक़ात हवा इतनी ठण्डी हो जाती है कि बादलों में इंजिमाद पैदा होने लगता है और ओलों की शक्ल में बारिश होने लगती है।
يُقَلِّبُ ٱللَّهُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 34
(44) रात और दिन का उलट-फेर वही कर रहा है। इसमें एक सबक़ है आँखोंवालों के लिए।
وَٱللَّهُ خَلَقَ كُلَّ دَآبَّةٖ مِّن مَّآءٖۖ فَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰ بَطۡنِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰ رِجۡلَيۡنِ وَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰٓ أَرۡبَعٖۚ يَخۡلُقُ ٱللَّهُ مَا يَشَآءُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 35
(45) और अल्लाह ने हर जानदार एक तरह के पानी से पैदा किया, कोई पेट के बल चल रहा है तो कोई दो टाँगों पर और कोई चार टाँगों पर। जो कुछ वह चाहता है पैदा करता है, वह हर चीज़ पर क़ादिर है।
لَّقَدۡ أَنزَلۡنَآ ءَايَٰتٖ مُّبَيِّنَٰتٖۚ وَٱللَّهُ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 36
(46) हमने साफ़-साफ़ हक़ीक़त बतानेवाली आयात नाज़िल कर दी हैं, आगे सिराते-मुस्तक़ीम की तरफ़ हिदायत अल्लाह ही जिसे चाहता है देता है।
وَيَقُولُونَ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَبِٱلرَّسُولِ وَأَطَعۡنَا ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٞ مِّنۡهُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۚ وَمَآ أُوْلَٰٓئِكَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 37
(47) ये लोग कहते हैं कि हम ईमान लाए अल्लाह और रसूल पर और हमने इताअत क़ुबूल की, मगर इसके बाद इनमें से एक गरोह (इताअत से) मुँह मोड़ जाता है। ऐसे लोग हरगिज़ मोमिन नहीं हैं।
وَإِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 38
(48) जब इनको बुलाया जाता है अल्लाह और रसूल की तरफ़ ताकि रसूल इनके आपस के मुक़द्दमे का फ़ैसला करे तो इनमें से एक फ़रीक़ कतरा जाता है।
وَإِن يَكُن لَّهُمُ ٱلۡحَقُّ يَأۡتُوٓاْ إِلَيۡهِ مُذۡعِنِينَ ۝ 39
(49) अलबत्ता अगर हक़ इनकी मुवाफ़क़त में हो तो रसूल के पास बड़े इताअतकैश बनकर आ जाते हैं।
أَفِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ أَمِ ٱرۡتَابُوٓاْ أَمۡ يَخَافُونَ أَن يَحِيفَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَرَسُولُهُۥۚ بَلۡ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 40
(50) क्या इनके दिलों को (मुनाफ़क़त का) रोग लगा हुआ है? या ये शक में पड़े हुए हैं? या इनको यह ख़ौफ़ है कि अल्लाह और उसका रसूल उनपर ज़ुल्म करेगा? अस्ल बात यह है कि ज़ालिम तो ये लोग ख़ुद हैं।
إِنَّمَا كَانَ قَوۡلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ أَن يَقُولُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 41
(51) ईमान लानेवालों का काम तो यह है कि जब वे अल्लाह और रसूल की तरफ़ बुलाए जाएँ, ताकि रसूल उनके मुक़द्दमे का फ़ैसला करे तो वे कहें कि हमने सुना और इताअत की। ऐसे ही लोग फ़लाह पानेवाले हैं,
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَخۡشَ ٱللَّهَ وَيَتَّقۡهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 42
(52) और कामयाब वही हैं जो अल्लाह और रसूल की फ़रमाँबरदारी करें और अल्लाह से डरें और उसकी नाफ़रमानी से बचें।
۞وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِنۡ أَمَرۡتَهُمۡ لَيَخۡرُجُنَّۖ قُل لَّا تُقۡسِمُواْۖ طَاعَةٞ مَّعۡرُوفَةٌۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 43
(53) ये (मुनाफ़िक़) अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर कहते हैं कि ‘‘आप हुक्म दें तो हम घरों से निकल खड़े हों।” इनसे कहो, “क़़समें न खाओ, तुम्हारी इताअत का हाल मालूम है, तुम्हारे करतूतों से अल्लाह बेख़बर नहीं है।”
قُلۡ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡهِ مَا حُمِّلَ وَعَلَيۡكُم مَّا حُمِّلۡتُمۡۖ وَإِن تُطِيعُوهُ تَهۡتَدُواْۚ وَمَا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 44
(54) कहो, ‘‘अल्लाह के मुतीअ बनो और रसूल के ताबेअ-फ़रमान बनकर रहो। लेकिन अगर तुम मुँह फेरते हो तो ख़ूब समझ लो कि रसूल पर जिस फ़र्ज़ का बार रखा गया है, उसका ज़िम्मेदार वह है और तुमपर जिस फ़र्ज़ का बार डाला गया है, उसके ज़िम्मेदार तुम। उसकी इताअत करोगे तो ख़ुद ही हिदायत पाओगे। वरना रसूल की ज़िम्मेदारी इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि साफ़-साफ़ हुक्म पहुँचा दे।”
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَيَسۡتَخۡلِفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ كَمَا ٱسۡتَخۡلَفَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمۡ دِينَهُمُ ٱلَّذِي ٱرۡتَضَىٰ لَهُمۡ وَلَيُبَدِّلَنَّهُم مِّنۢ بَعۡدِ خَوۡفِهِمۡ أَمۡنٗاۚ يَعۡبُدُونَنِي لَا يُشۡرِكُونَ بِي شَيۡـٔٗاۚ وَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 45
(55) अल्लाह ने वादा फ़रमाया है तुममें से उन लोगों के साथ जो ईमान लाएँ और नेक अमल करें कि वह उनको उसी तरह ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाएगा जिस तरह उनसे पहले गुज़रे हुए लोगों को बना चुका है। उनके लिए उनके उस दीन को मज़बूत बुनियादों पर क़ायम कर देगा जिसे अल्लाह तआला ने उनके लिए पसन्द किया है, और उनकी (मौजूदा) हालते-ख़ौफ़ को अम्न से बदल देगा। बस वे मेरी बन्दगी करें और मेरे साथ किसी को शरीक न करें।35 और जो उसके बाद कुफ़्र करे36 तो ऐसे ही लोग फ़ासिक़ हैं।
35. बाज़ लोग इसका यह मतलब समझ बैठे हैं कि जिसको भी दुनिया में हुकूमत हासिल है उसे ख़िलाफ़त हासिल है। हालाँकि आयत में इरशाद यह हुआ है कि जो ईमानवाले होंगे अल्लाह उनको ख़िलाफ़त अता फ़रमाएगा।
36. इसके मानी यह भी हो सकते हैं कि ख़िलाफ़त पाकर नाशुक्री करे, और यह भी हो सकता है कि मुनाफ़िक़ाना रविश पर उतर आए कि बज़ाहिर मोमिन हो और हक़ीक़त में ईमान से ख़ाली।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 46
(56) नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और रसूल की इताअत करो, उम्मीद है तुमपर रहम किया जाएगा।
لَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ وَلَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 47
(57) जो लोग कुफ़्र कर रहे हैं उनके मुताल्लिक़ इस ग़लतफ़हमी में न रहो कि वे ज़मीन में अल्लाह को आजिज़ कर देंगे। उनका ठिकाना दोज़ख़ है, और वह बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِيَسۡتَـٔۡذِنكُمُ ٱلَّذِينَ مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ وَٱلَّذِينَ لَمۡ يَبۡلُغُواْ ٱلۡحُلُمَ مِنكُمۡ ثَلَٰثَ مَرَّٰتٖۚ مِّن قَبۡلِ صَلَوٰةِ ٱلۡفَجۡرِ وَحِينَ تَضَعُونَ ثِيَابَكُم مِّنَ ٱلظَّهِيرَةِ وَمِنۢ بَعۡدِ صَلَوٰةِ ٱلۡعِشَآءِۚ ثَلَٰثُ عَوۡرَٰتٖ لَّكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ وَلَا عَلَيۡهِمۡ جُنَاحُۢ بَعۡدَهُنَّۚ طَوَّٰفُونَ عَلَيۡكُم بَعۡضُكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 48
(58) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, लाज़िम है कि तुम्हारे लौंडी-ग़ुलाम और तुम्हारे वे बच्चे जो अभी अक़्ल की हद को नहीं पहुँचे हैं तीन औक़ात में इजाज़त लेकर तुम्हारे पास आया करें : सुबह की नमाज़ से पहले, और दोपहर को जबकि तुम कपड़े उतारकर रख देते हो, और इशा की नमाज़ के बाद। ये तीन वक़्त तुम्हारे लिए परदे के वक़्त हैं। इनके बाद वे बिला इजाज़त आएँ तो न तुमपर कोई गुनाह है, न उनपर, तुम्हें एक-दूसरे के पास बार-बार आना ही होता है। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपने इरशादात की तौज़ीह करता है, और वह अलीम व हकीम है।
وَإِذَا بَلَغَ ٱلۡأَطۡفَٰلُ مِنكُمُ ٱلۡحُلُمَ فَلۡيَسۡتَـٔۡذِنُواْ كَمَا ٱسۡتَـٔۡذَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 49
(59) और जब तुम्हारे बच्चे अक़्ल की हद को पहुँच जाएँ तो चाहिए कि उसी तरह इजाज़त लेकर आया करें जिस तरह उनके बड़े इजाज़त लेते रहे हैं। इस तरह अल्लाह अपनी आयात तुम्हारे सामने खोलता है, और वह अलीम व हकीम है।
وَٱلۡقَوَٰعِدُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا يَرۡجُونَ نِكَاحٗا فَلَيۡسَ عَلَيۡهِنَّ جُنَاحٌ أَن يَضَعۡنَ ثِيَابَهُنَّ غَيۡرَ مُتَبَرِّجَٰتِۭ بِزِينَةٖۖ وَأَن يَسۡتَعۡفِفۡنَ خَيۡرٞ لَّهُنَّۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 50
(60) और जो औरतें जवानी से गुज़री बैठी हों, निकाह की उम्मीदवार न हों, वे अगर अपनी चादरें उतारकर रख दें तो उनपर कोई गुनाह नहीं, बशर्तेकि ज़ीनत की नुमाइश करनेवाली न हों। ताहम वे भी हयादारी ही बरतें तो उनके हक़ में अच्छा है, और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞ وَلَا عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَن تَأۡكُلُواْ مِنۢ بُيُوتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ ءَابَآئِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أُمَّهَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ إِخۡوَٰنِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخَوَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَعۡمَٰمِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ عَمَّٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخۡوَٰلِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ خَٰلَٰتِكُمۡ أَوۡ مَا مَلَكۡتُم مَّفَاتِحَهُۥٓ أَوۡ صَدِيقِكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَأۡكُلُواْ جَمِيعًا أَوۡ أَشۡتَاتٗاۚ فَإِذَا دَخَلۡتُم بُيُوتٗا فَسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ تَحِيَّةٗ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُبَٰرَكَةٗ طَيِّبَةٗۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 51
(61) कोई हरज की बात नहीं अगर कोई अन्धा, या लंगड़ा, या बीमार (किसी के घर से खा ले) और न तुम्हारे लिए इसमेंं कोई हरज है कि अपने घरों से खाओ या अपने बाप-दादा के घरों से, या अपनी माँ, नानी के घरों से, या अपने भाइयों के घरों से, या अपनी बहनों के घरों से, या अपने चचाओं के घरों से या अपनी फूफियों के घरों से, या अपने मामाओं के घरों से, या अपनी ख़ालाओं के घरों से, या उनके घरों से जिनकी कुंजियाँ तुम्हें सौंपी गई हों, या अपने दोस्तों के घरों से। इसमेंं भी कोई हरज नहीं कि तुम लोग मिलकर खाओ या अलग-अलग। अलबत्ता जब घरों में प्रवेश किया करो तो अपने लोगों को सलाम किया करो, अच्छी दुआ अल्लाह की तरफ़ से नियत की हुई बड़ी बरकतवाली और पाक इस तरह अल्लाह तुम्हारे सामने आयात बयान करता है। आशा है कि तुम समझ-बूझ से काम लोगे।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَإِذَا كَانُواْ مَعَهُۥ عَلَىٰٓ أَمۡرٖ جَامِعٖ لَّمۡ يَذۡهَبُواْ حَتَّىٰ يَسۡتَـٔۡذِنُوهُۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَسۡتَـٔۡذِنُونَكَ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ فَإِذَا ٱسۡتَـٔۡذَنُوكَ لِبَعۡضِ شَأۡنِهِمۡ فَأۡذَن لِّمَن شِئۡتَ مِنۡهُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمُ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 52
(62) मोमिन तो अस्ल में वही हैं जो अल्लाह और उसके रसूल को दिल से मानें और जब किसी इजतिमाई काम के मौक़े पर रसूल के साथ हों तो उससे इजाज़त लिए बग़ैर न जाएँ। ऐ नबी! जो लोग तुमसे इजाज़त माँगते हैं वही अल्लाह और रसूल के माननेवाले हैं, पस जब वे अपने किसी काम से इजाज़त माँगें तो जिसे तुम चाहो इजाज़त दे दिया करो और ऐसे लोगों के हक़ में अल्लाह से दुआ-ए-मग़फ़िरत किया करो, अल्लाह यक़ीनन ग़फ़ूर व रहीम है।
لَّا تَجۡعَلُواْ دُعَآءَ ٱلرَّسُولِ بَيۡنَكُمۡ كَدُعَآءِ بَعۡضِكُم بَعۡضٗاۚ قَدۡ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ يَتَسَلَّلُونَ مِنكُمۡ لِوَاذٗاۚ فَلۡيَحۡذَرِ ٱلَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنۡ أَمۡرِهِۦٓ أَن تُصِيبَهُمۡ فِتۡنَةٌ أَوۡ يُصِيبَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 53
(63) मुसलमानो, अपने दरमियान रसूल के बुलाने को आपस में एक दूसरे का-सा बुलाना न समझ बैठो। अल्लाह उन लोगों को ख़ूब जानता है जो तुममें ऐसे हैं कि एक-दूसरे की आड़ लेते हुए चुपके से सटक जाते हैं। रसूल के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करनेवालों को डरना चाहिए कि वे किसी फ़ितने में गिरफ़्तार न हो जाएँ या उनपर दर्दनाक अज़ाब न आ जाए।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قَدۡ يَعۡلَمُ مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ وَيَوۡمَ يُرۡجَعُونَ إِلَيۡهِ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 54
(64) ख़बरदार रहो, आसमान व ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह का है। तुम जिस रविश पर भी हो अल्लाह उसको जानता है। जिस रोज़ लोग उसकी तरफ़ पलटेंगे वह उन्हें बता देगा कि वे क्या कुछ करके आए हैं। वह हर चीज़ का इल्म रखता है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡغَٰفِلَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ لُعِنُواْ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 55
(23) जो लोग पाकदामन, बेख़बर, मोमिन औरतों पर तोहमतें लगाते हैं, उनपर दुनिया और आख़िरत में लानत की गई और उनके लिए बड़ा अज़ाब है।
يَوۡمَ تَشۡهَدُ عَلَيۡهِمۡ أَلۡسِنَتُهُمۡ وَأَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 56
(24) वे उस दिन को भूल न जाएँ जबकि उनकी अपनी ज़बानें और उनके अपने हाथ-पाँव उनके करतूतों की गवाही देंगे।
يَوۡمَئِذٖ يُوَفِّيهِمُ ٱللَّهُ دِينَهُمُ ٱلۡحَقَّ وَيَعۡلَمُونَ أَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ ٱلۡمُبِينُ ۝ 57
(25) उस दिन अल्लाह वह बदला उन्हें भरपूर दे देगा जिसके वे मुस्तहिक़ हैं और उन्हें मालूम हो जाएगा कि अल्लाह ही हक़ है, सच को सच कर दिखानेवाला।
ٱلۡخَبِيثَٰتُ لِلۡخَبِيثِينَ وَٱلۡخَبِيثُونَ لِلۡخَبِيثَٰتِۖ وَٱلطَّيِّبَٰتُ لِلطَّيِّبِينَ وَٱلطَّيِّبُونَ لِلطَّيِّبَٰتِۚ أُوْلَٰٓئِكَ مُبَرَّءُونَ مِمَّا يَقُولُونَۖ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 58
(26) ख़बीस औरतें ख़बीस मर्दों के लिए हैं और ख़बीस मर्द ख़बीस औरतों के लिए। पाकीज़ा औरतें पाकीज़ा मर्दों के लिए हैं और पाकीज़ा मर्द पाकीज़ा औरतों के लिए। उनका दामन पाक है उन बातों से जो बनानेवाले बनाते हैं, उनके लिए मग़फ़िरत है और रिज़्क़े-करीम।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ بُيُوتِكُمۡ حَتَّىٰ تَسۡتَأۡنِسُواْ وَتُسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَهۡلِهَاۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 59
(27) ऐ लोगो15 जो ईमान लाए हो, अपने घरों के सिवा दूसरे घरों में दाख़िल न हुआ करो जब तक कि घरवालों की रज़ा न ले लो और घरवालों पर सलाम न भेज लो, यह तरीक़ा तुम्हारे लिए बेहतर है। उम्मीद है कि तुम इसका ख़याल रखोगे।
15. सूरा के आग़ाज़ में जो अहकाम दिए गए थे वे इसलिए थे कि मुआशरे में बुराई रूनुमा हो जाए तो उसका तदारुक कैसे किया जाए। अब वे अहकाम दिए जा रहे हैं जिनका मक़सद यह है कि मुआशरे में सिरे से बुराइयों की पैदाइश ही को रोक दिया जाए और तमद्दुन के तौर-तरीक़ों की इस्लाह करके उन असबाब का सद्दे-बाब कर दिया जाए जिनसे इस तरह की ख़राबियाँ रूनुमा होती हैं।
فَإِن لَّمۡ تَجِدُواْ فِيهَآ أَحَدٗا فَلَا تَدۡخُلُوهَا حَتَّىٰ يُؤۡذَنَ لَكُمۡۖ وَإِن قِيلَ لَكُمُ ٱرۡجِعُواْ فَٱرۡجِعُواْۖ هُوَ أَزۡكَىٰ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 60
(28) फिर अगर वहाँ किसी को न पाओ, तो दाख़िल न हो जब तक कि तुमको इजाज़त न दे दी जाए,16 और अगर तुमसे कहा जाए कि वापस चले जाओ, तो वापस हो जाओ। यह तुम्हारे लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीक़ा है,17 और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे ख़ूब जानता है।
16. यानी किसी के ख़ाली घर में दाख़िल होना जाइज़ नहीं, इल्ला यह कि साहिबे-ख़ाना ने आदमी को ख़ुद इस बात की इजाज़त दी हो। मसलन, उसने आपसे कह दिया हो कि अगर मैं मौजूद न हूँ तो आप मेरे कमरे में बैठ जाइएगा, या वह किसी और जगह हो और आपकी इत्तिलाअ मिलने पर वह कहला भेजे कि आप तशरीफ़ रखिए मैं अभी आता हूँ।
17. यानी इसपर बुरा न मानना चाहिए। एक आदमी को हक़ है कि वह किसी से न मिलना चाहे तो इनकार कर दे, या किसी मशग़ूलियत मुलाक़ात में मानेअ हो तो अपनी माज़रत कर दे।
قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِمۡ وَيَحۡفَظُواْ فُرُوجَهُمۡۚ ذَٰلِكَ أَزۡكَىٰ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا يَصۡنَعُونَ ۝ 61
(30) ऐ नबी, मोमिन मर्दों से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें19 और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, यह उनके लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीक़ा है, जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उससे बाख़बर रहता है।
19. अस्ल में 'ग़ज़्ज़े-बसर' का हुक्म दिया गया है जिसका तर्जमा आम तौर पर 'निगाह नीची करना या रखना' किया जाता है। लेकिन दरअस्ल इस हुक्म का मतलब हर वक़्त नीचे ही देखते रहना नहीं है, बल्कि पूरी तरह निगाह भरकर न देखना, और निगाहों को देखने के लिए बिलकुल आज़ाद न छोड़ देना है। यह मफ़हूम 'निगाह बचाने' से ठीक अदा होता है, यानी जिस चीज़़ को देखना मुनासिब न हो उससे निगाह हटा ली जाए, क़तअ नज़र इससे कि आदमी निगाह नीची करे या किसी और तरफ़ उसे बचा ले जाए और यह बात सियाक़ व सबाक़ से भी मालूम होती है कि यह पाबन्दी जिस चीज़ पर आयद की गई है वह है मर्दों का औरतों को देखना या दूसरे लोगों के सतर पर निगाह डालना, या फ़ुह्श मनाज़िर पर निगाह जमाना।
وَقُل لِّلۡمُؤۡمِنَٰتِ يَغۡضُضۡنَ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِنَّ وَيَحۡفَظۡنَ فُرُوجَهُنَّ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّۖ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ أَوۡ ءَابَآئِهِنَّ أَوۡ ءَابَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآئِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ أَخَوَٰتِهِنَّ أَوۡ نِسَآئِهِنَّ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّ أَوِ ٱلتَّٰبِعِينَ غَيۡرِ أُوْلِي ٱلۡإِرۡبَةِ مِنَ ٱلرِّجَالِ أَوِ ٱلطِّفۡلِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يَظۡهَرُواْ عَلَىٰ عَوۡرَٰتِ ٱلنِّسَآءِۖ وَلَا يَضۡرِبۡنَ بِأَرۡجُلِهِنَّ لِيُعۡلَمَ مَا يُخۡفِينَ مِن زِينَتِهِنَّۚ وَتُوبُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ جَمِيعًا أَيُّهَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 62
(31) और ऐ नबी, मोमिन औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें, और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें,20 और अपना बनाव-सिंगार न दिखाएँ बजुज़ उसके जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाए, और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें। वे अपना बनाव-सिंगार न ज़ाहिर करें मगर इन लोगों के सामने : शौहर, बाप, शौहरों के बाप,21 अपने बेटे, शौहरों के बेटे,22 भाई,23 भाइयों के बेटे, बहनों के बेटे,24 अपने मेल-जोल की औरतें,25 अपनी मिल्कियत में रहनेवाले (लौंडी-गु़लाम), वे ज़ेरदस्त मर्द जो किसी और क़िस्म की ग़रज़ न रखते हों,26 और वे बच्चे जो औरतों की पोशीदा बातों से अभी वाक़िफ़ न हुए हों। वे अपने पाँव ज़मीन पर मारती हुई न चला करें कि अपनी जो ज़ीनत उन्होंने छिपा रखी हो, उसका लोगों को इल्म हो जाए। ऐ ईमानवालो, तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, तवक़्क़ो है कि फ़लाह पाओगे।
20. यह बात निगाह में रहे कि अल्लाह की शरीअत औरतों से सिर्फ़ उतना ही मुतालबा नहीं करती जो मर्दों से उसने किया है, यानी नज़र बचाना और शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करना, बल्कि वह उनसे कुछ और मुतालबे भी करती है जो उसने मर्दों से नहीं किए हैं। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि इस मामले में औरत और मर्द यकसाँ नहीं हैं।
21. बाप के मफ़हूम में दादा परदादा, और नाना, परनाना भी शामिल हैं। लिहाज़ा एक औरत अपनी ददिहाल और ननिहाल और अपने शौहर की ददिहाल और ननिहाल के उन सब बुज़ुर्गों के सामने उसी तरह आ सकती है जिस तरह अपने वालिद और ख़ुसर के सामने आ सकती है।
22. बेटों में पोते, परपोते और नवासे-परनवासे सब शामिल हैं। और इस मामले में सगे-सौतेले का कोई फ़र्क़ नहीं है। अपने सौतेले बच्चों की औलाद के सामने भी औरत उसी तरह आज़ादी के साथ अपनी ज़ीनत ज़ाहिर कर सकती है जैसे ख़ुद अपनी औलाद और औलाद की औलाद के सामने कर सकती है।
23. 'भाइयों' में सगे और सौतेले और माँ-जाये भाई सब शामिल हैं।
24. भाई-बहनों से मुराद तीनों क़िस्म के भाई-बहन हैं और उनके बेटों, पोतों और नवासों सब पर उनकी औलाद का इतलाक़ होता है।
25. इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर होता है कि आवारा और बद-अतवार औरतों के सामने शरीफ़ मुसलमान औरत को अपनी ज़ीनत का इज़हार न करना चाहिए।
26. यानी ज़ेरदस्त होने की बिना पर उनके बारे में यह शक करने की गुंजाइश न हो कि वे उस घर की ख़वातीन के मामले में कोई नापाक ख़ाहिश करने की हिम्मत कर सकेंगे।
وَأَنكِحُواْ ٱلۡأَيَٰمَىٰ مِنكُمۡ وَٱلصَّٰلِحِينَ مِنۡ عِبَادِكُمۡ وَإِمَآئِكُمۡۚ إِن يَكُونُواْ فُقَرَآءَ يُغۡنِهِمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 63
(32) तुममें से जो लोग मुजर्रद हों, और तुम्हारे लौंडी-ग़ुलामों में से जो सॉलेह हों, उनके निकाह कर दो। अगर वे ग़रीब हों तो अल्लाह अपने फ़ज़्ल से उनको ग़नी कर देगा, अल्लाह बड़ी वुसअतवाला और अलीम है।