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إِلَّا عَلَىٰٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَإِنَّهُمۡ غَيۡرُ مَلُومِينَ

23. अल-मोमिनून

(मक्का में उतरी-आयतें 118)

परिचय

नाम

पहली ही आयत “क़द अफ़-ल-हल मोमिनून (निश्चय ही सफलता पाई है ईमान लानेवालों ने)" से लिया गया है।

उतरने का समय

वर्णनशैली और विषय, दोनों से यही मालूम होता है कि इस सूरा के उतरने का समय मक्का का मध्यकाल है। आयत 75-76 से स्पष्ट रूप से यह गवाही मिलती है कि यह मक्का के उस भीषण अकाल के समय में उतरी है जो विश्वस्त रिवायतों के अनुसार इसी मध्यकाल में पड़ा था।

विषय और वार्ताएँ

रसूल (सल्ल०) की पैरवी की दावत इस सूरा का केंद्रीय विषय है और पूरा भाषण इसी केंद्र के चारों ओर घूमता है। बात का आरंभ इस तरह होता है कि जिन लोगों ने इस पैग़म्बर की बात मान ली है, उनके भीतर ये और ये गुण पैदा हो रहे हैं और निश्चय ही ऐसे ही लोग दुनिया और आख़िरत की सफलता के अधिकारी हैं। इसके बाद इंसान की पैदाइश, आसमान और ज़मीन की पैदाइश, पेड़-पौधों और जानवरों की पैदाइश और सृष्टि की दूसरी निशानियों से तौहीद और आख़िरत के सत्य होने के प्रमाण जुटाए गए हैं, फिर नबियों (अलैहि०) और उनकी उम्मतों (समुदायों) के क़िस्से |बयान करके] कुछ बातें श्रोताओं को समझाई गई हैं-

एक यह कि आज तुम लोग मुहम्मद (सल्ल०) की दावत पर जो सन्देह और आपत्तियाँ कर रहे हो वे कुछ नई नहीं हैं, पहले भी जो नबी दुनिया में आए थे, उन सबपर उनके समय के अज्ञानियों ने यही आपत्तियाँ की थीं। अब देख लो कि इतिहास का पाठ क्या बता रहा है, आपत्ति करनेवाले सत्य पर थे या नबी?

दूसरे यह कि तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत के बारे में जो शिक्षा मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं, यही शिक्षा हर युग के नबियों ने दी है।

तीसरे यह कि जिन क़ौमों ने नबियों की बात सुनकर न दो, वे अन्तत: नष्ट होकर रहीं।

चौथे यह कि अल्लाह की ओर से हर समय में एक ही दीन आता रहा है और सारे नबी एक ही उम्मत (समुदाय) के लोग थे, उस अकेले धर्म के सिवा, जो अलग-अलग धर्म तुम लोग दुनिया में देख रहे हो, ये सब लोगों के गढ़े हुए हैं।

इन क़िस्सों के बाद लोगों को यह बताया गया है कि वास्तविक चीज़ जिसपर अल्लाह के यहाँ प्रिय या अप्रिय होना आश्रित है, वह आदमी का ईमान और उसकी ख़ुदातर्सी और सत्यवादिता है। ये बातें इसलिए कही गई हैं कि नबी (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में उस समय जो रुकावटें पैदा की जा रही थी, उसके ध्वजावाहक सब के सब मक्का के बुजुर्ग और बड़े-बड़े सरदार थे। वे अपनी जगह स्वयं भी यह घमंड रखते थे और उनके प्रभावाधीन लोग भी इस भ्रम में पड़े हुए थे कि नेमतों की बारिश जिन लोगों पर हो रही है, उनपर ज़रूर अल्लाह और देवताओं की कृपा है। रहे ये टूटे-मारे लोग जो मुहम्मद के साथ हैं, इनकी तो हालत स्वयं ही यह बता रही है कि अल्लाह इनके साथ नहीं है और देवताओं की तो मार ही इनपर पड़ी हुई है। इसके बाद मक्कावालों को अलग-अलग पहलुओं से नबी (सल्ल०) की नुबूवत पर सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। फिर उनको बताया गया है कि यह अकाल जो तुमपर आ पड़ा है, यह एक चेतावनी है, बेहतर है कि इसको देखकर संभलो और सीधे रास्ते पर आ जाओ। फिर उनको नए सिरे से उन निशानियों की ओर ध्यान दिलाया गया है जो सृष्टि और स्वयं उनके अपने अस्तित्त्व में मौजूद हैं। और अल्लाह की तौहीद और मरने के बाद की ज़िन्दगी की खुली हुई गवाही दे रही हैं। फिर नबी (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि चाहे ये लोग तुम्हारे मुक़ाबले में कैसा ही रवैया अपनाएँ, तुम भले तरीक़ों ही से बचाव करना । शैतान कभी तुमको जोश में लाकर बुराई का जवाब बुराई से देने पर तैयार न करने पाए।

वार्ता के अन्त में सत्य के विरोधियों को आख़िरत की पूछ-ताछ से डराया गया है और उन्हें सचेत किया गया है कि जो कुछ तुम सत्य की दावत और उसकी पैरवी करनेवालों के साथ कर रहे हो, उसका कड़ा हिसाब तुमसे लिया जाएगा।

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إِلَّا عَلَىٰٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ فَإِنَّهُمۡ غَيۡرُ مَلُومِينَ ۝ 1
(6) सिवाय अपनी बीवियों के और उन औरतों के जो उनकी मिल्के-यमीन में हों2 कि उनपर महफ़ूज़ न खने में वे क़ाबिले-मलामत नहीं हैं।
2. यानी लौंडियाँ जो जंग में गिरफ़्तार होकर आएँ और असीराने-जंग का तबादला न होने की सूरत में इस्लामी हुकूमत की तरफ़ से किसी की मिल्क में दे दी जाएँ।
فَمَنِ ٱبۡتَغَىٰ وَرَآءَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡعَادُونَ ۝ 2
(7) अलबत्ता जो उसके अलावा कुछ और चाहें वही ज़्यादती करनेवाले हैं,
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِأَمَٰنَٰتِهِمۡ وَعَهۡدِهِمۡ رَٰعُونَ ۝ 3
(8) अपनी अमानतों और अपने अह्द व पैमान का पास रखते हैं,
فَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِ أَنِ ٱصۡنَعِ ٱلۡفُلۡكَ بِأَعۡيُنِنَا وَوَحۡيِنَا فَإِذَا جَآءَ أَمۡرُنَا وَفَارَ ٱلتَّنُّورُ فَٱسۡلُكۡ فِيهَا مِن كُلّٖ زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَأَهۡلَكَ إِلَّا مَن سَبَقَ عَلَيۡهِ ٱلۡقَوۡلُ مِنۡهُمۡۖ وَلَا تُخَٰطِبۡنِي فِي ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِنَّهُم مُّغۡرَقُونَ ۝ 4
(27) हमने उसपर वह्य की कि “हमारी निगरानी में और हमारी वह्य के मुताबिक़ कश्ती तैयार कर। फिर जब हमारा हुक्म आ जाए और वह तन्नूर उबल पड़े तो हर क़िस्म के जानवरों में से एक-एक जोड़ा लेकर उसमें सवार हो जा, और अपने अहलो-अयाल को भी साथ ले, सिवाय उनके जिनके ख़िलाफ़ पहले फ़ैसला हो चुका है, और ज़ालिमों के बारे में मुझसे कुछ न कहना। ये अब ग़र्क़ होनेवाले हैं।
وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَلَىٰ صَلَوَٰتِهِمۡ يُحَافِظُونَ ۝ 5
(9) और अपनी नमाज़ों की मुहाफ़ज़त करते हैं।
سُورَةُ المُؤۡمِنُونَ
23. अल-मोमिनून
فَإِذَا ٱسۡتَوَيۡتَ أَنتَ وَمَن مَّعَكَ عَلَى ٱلۡفُلۡكِ فَقُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي نَجَّىٰنَا مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 6
(28) फिर जब तू अपने साथियों समेत कश्ती पर सवार हो जाए तो कह, शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने हमें ज़ालिम लोगों से नजात दी!
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡوَٰرِثُونَ ۝ 7
(10) यही लोग वारिस हैं
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَقُل رَّبِّ أَنزِلۡنِي مُنزَلٗا مُّبَارَكٗا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡمُنزِلِينَ ۝ 8
(29) और कह, परवरदिगार! मुझको बरकतवाली जगह उतार और तू बेहतरीन जगह देनेवाला है।”
ٱلَّذِينَ يَرِثُونَ ٱلۡفِرۡدَوۡسَ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 9
(11) जो मीरास में फ़िरदौस पाएँगे और उसमें हमेशा रहेंगे।
قَدۡ أَفۡلَحَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ
(1) यक़ीनन सफलता पाई है ईमान लानेवालों ने
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ وَإِن كُنَّا لَمُبۡتَلِينَ ۝ 10
(30) इस क़िस्से में बड़ी निशानियाँ हैं, और आज़माइश तो हम करके ही रहते हैं।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِن سُلَٰلَةٖ مِّن طِينٖ ۝ 11
(12) हमने इनसान को मिट्टी के सत से बनाया,
ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي صَلَاتِهِمۡ خَٰشِعُونَ ۝ 12
(2) जो अपनी नमाज़ में ख़ुशूअ इख़्तियार करते हैं,
ثُمَّ أَنشَأۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِمۡ قَرۡنًا ءَاخَرِينَ ۝ 13
(31) उनके बाद हमने एक दूसरे दौर की क़ौम उठाई।
ثُمَّ جَعَلۡنَٰهُ نُطۡفَةٗ فِي قَرَارٖ مَّكِينٖ ۝ 14
(13) फिर उसे एक महफ़ूज़ जगह टपकी हुई बूँद में तबदील किया,
وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَنِ ٱللَّغۡوِ مُعۡرِضُونَ ۝ 15
(3) लग़वियात से दूर रहते हैं,
فَأَرۡسَلۡنَا فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡهُمۡ أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۚ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 16
(32) फिर उनमें ख़ुद उन्हीं की क़ौम का एक रसूल भेजा (जिसने उन्हें दावत दी) कि अल्लाह की बन्दगी करो, तुम्हारे लिए उसके सिवा कोई और माबूद नहीं है, क्या तुम डरते नहीं हो?
ثُمَّ خَلَقۡنَا ٱلنُّطۡفَةَ عَلَقَةٗ فَخَلَقۡنَا ٱلۡعَلَقَةَ مُضۡغَةٗ فَخَلَقۡنَا ٱلۡمُضۡغَةَ عِظَٰمٗا فَكَسَوۡنَا ٱلۡعِظَٰمَ لَحۡمٗا ثُمَّ أَنشَأۡنَٰهُ خَلۡقًا ءَاخَرَۚ فَتَبَارَكَ ٱللَّهُ أَحۡسَنُ ٱلۡخَٰلِقِينَ ۝ 17
(14) फिर उस बूँद को लोथड़े की शक्ल दी, फिर लोथड़े को बोटी बना दिया, फिर बोटी की हड्डियाँ बनाईं, फिर हड्डियों पर गोश्त चढ़ाया, फिर उसे एक दूसरी ही मख़लूक़ बना खड़ा किया।3 पस बड़ा ही बा-बरकत है अल्लाह, सब कारीगरों से अच्छा कारीगर!
3. यानी अगरचे यही सब कुछ जानवरों की तख़लीक़ में भी होता है, मगर अल्लाह ने इस अमले-तख़लीक़ से इनसान को एक और क़िस्म की मख़लूक़ बना खड़ा किया जो हैवानात से बिलकुल मुख़्तलिफ़ है।
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِلزَّكَوٰةِ فَٰعِلُونَ ۝ 18
(4) ज़कात के तरीक़े पर आमिल होते हैं,
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَتۡرَفۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا مَا هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يَأۡكُلُ مِمَّا تَأۡكُلُونَ مِنۡهُ وَيَشۡرَبُ مِمَّا تَشۡرَبُونَ ۝ 19
(33) उसकी क़ौम के जिन सरदारों ने मानने से इनकार किया और आख़िरत की पेशी को झुठलाया, जिनको हमने दुनिया की ज़िन्दगी में आसूदा कर रखा था, वे कहने लगे, “यह शख़्स कुछ नहीं है, मगर एक बशर तुम ही जैसा। जो कुछ तुम खाते हो वही यह खाता है और जो कुछ तुम पीते हो वही यह पीता है।
ثُمَّ إِنَّكُم بَعۡدَ ذَٰلِكَ لَمَيِّتُونَ ۝ 20
(15) फिर इसके बाद तुमको ज़रूर मरना है
وَٱلَّذِينَ هُمۡ لِفُرُوجِهِمۡ حَٰفِظُونَ ۝ 21
(5) अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करते हैं1
1. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि अपने जिस्म के क़ाबिले-शर्म हिस्सों को छिपाकर रखते हैं, यानी उरयानी से परहेज़ करते हैं और अपना सत्र दूसरों के सामने नहीं खोलते। दूसरे यह कि वे अपनी इस्मत व इफ़्फ़त को महफ़ूज़ रखते हैं, यानी जिंसी मामलात में आज़ादी नहीं बरतते और क़ुव्वते-शहवानी के इस्तेमाल में बेलगाम नहीं होते।
وَلَئِنۡ أَطَعۡتُم بَشَرٗا مِّثۡلَكُمۡ إِنَّكُمۡ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ ۝ 22
(34) अब अगर तुमने अपने ही जैसे एक बशर की इताअत क़ुबूल कर ली तो तुम घाटे ही में रहे।
ثُمَّ إِنَّكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ تُبۡعَثُونَ ۝ 23
(16) फिर क़ियामत के रोज़ यक़ीनन तुम उठाए जाओगे।
أَيَعِدُكُمۡ أَنَّكُمۡ إِذَا مِتُّمۡ وَكُنتُمۡ تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَنَّكُم مُّخۡرَجُونَ ۝ 24
(35) यह तुम्हें इत्तिला देता है कि जब तुम मरकर मिट्टी हो जाओगे और हड्डियों का पंजर बनकर रह जाओगे उस वक़्त तुम (क़ब्रों से) निकाले जाओगे?
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا فَوۡقَكُمۡ سَبۡعَ طَرَآئِقَ وَمَا كُنَّا عَنِ ٱلۡخَلۡقِ غَٰفِلِينَ ۝ 25
(17) और तुम्हारे ऊपर हमने सात रास्ते बनाए,4 तख़लीक़ के काम से हम कुछ नाबलद न थे।5
4. ग़ालिबन इससे मुराद सात सैयारों की गरदिश के रास्ते हैं, और चूँकि उस ज़माने का इनसान सबअ सैयारे ही से वाकिफ़ था, इसलिए सात ही रास्तों का ज़िक्र किया गया। इसके मानी ये नहीं हैं कि इनके अलावा और दूसरे रास्ते नहीं हैं।
5. अगूर के दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है “और मख़लूक़ात की तरफ़ से हम ग़ाफ़िल न थे, या नहीं हैं।” पहले तर्जमे के लिहाज़ से आयत का मतलब यह है कि यह सब कुछ जो हमने बनाया है, यह बस यूँ ही किसी अनाड़ी के हाथों अलल-टप नहीं बन गया है, बल्कि इसे एक सोचे-समझे मंसूबे पर पूरे इल्म के साथ बनाया गया है, अहम क़वानीन इसमें कारफ़रमा हैं। अदना से लेकर आला तक सारे निज़ामे-कायनात में एक मुक़म्मल हमआहंगी पाई जाती है, और इस कारगाहे-अज़ीम में हर तरफ़ एक मक़सदियत नज़र आती है जो बनानेवाले की हिकमत पर दलालत कर रही है। दूसरे तर्जमे के लिहाज़ से मतलब यह होगा कि इस कायनात में जितनी भी मख़लूक़ात हमने पैदा की हैं उनकी किसी हाजत से हम कभी ग़ाफ़िल और किसी हालत से कभी बेख़बर नहीं रहे हैं। किसी चीज़ को हमने अपने मंसूबे के ख़िलाफ़ बनने और चलने नहीं दिया है, किसी चीज़ की फ़ितरी ज़रूरियात फ़राहम करने में हमने कोताही नहीं की है। और एक-एक ज़र्रे और पत्ते की हालत से हम बाख़बर रहे हैं।
۞هَيۡهَاتَ هَيۡهَاتَ لِمَا تُوعَدُونَ ۝ 26
(36) बईद, बिलकुल बईद है यह वादा जो तुमसे किया जा रहा है।
أَيَحۡسَبُونَ أَنَّمَا نُمِدُّهُم بِهِۦ مِن مَّالٖ وَبَنِينَ ۝ 27
(55) क्या ये समझते हैं कि हम जो उन्हें माल-औलाद से मदद दिए जा रहे हैं
نُسَارِعُ لَهُمۡ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ بَل لَّا يَشۡعُرُونَ ۝ 28
(56) तो गोया उन्हें भलाइयाँ देने में सरगर्म हैं? नहीं, अस्ल मामले का उन्हें शुऊर नहीं है।
وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءَۢ بِقَدَرٖ فَأَسۡكَنَّٰهُ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَإِنَّا عَلَىٰ ذَهَابِۭ بِهِۦ لَقَٰدِرُونَ ۝ 29
(18) और आसमान से हमने ठीक हिसाब के मुताबिक़ एक ख़ास मिक़दार में पानी उतारा और उसको ज़मीन में ठहरा दिया, हम उसे जिस तरह चाहें ग़ायब कर सकते हैं।
إِنۡ هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا ٱلدُّنۡيَا نَمُوتُ وَنَحۡيَا وَمَا نَحۡنُ بِمَبۡعُوثِينَ ۝ 30
(37) ज़िन्दगी कुछ नहीं है मगर बस यही दुनिया की ज़िन्दगी। यहीं हमको मरना और जीना है और हम हरगिज़ उठाए जानेवाले नहीं हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ هُم مِّنۡ خَشۡيَةِ رَبِّهِم مُّشۡفِقُونَ ۝ 31
(57) वास्तव में तो जो लोग अपने रब के ख़ौफ़ से डरनेवाले होते हैं, हक़ीक़त में तो जो लोग अपने रब के ख़ौफ़ से डरनेवाले होते हैं,
فَأَنشَأۡنَا لَكُم بِهِۦ جَنَّٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ لَّكُمۡ فِيهَا فَوَٰكِهُ كَثِيرَةٞ وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 32
(19) फिर उस पानी के ज़रिए से हमने तुम्हारे लिए खज़ूर और अंगूर के बाग़ पैदा कर दिए, तुम्हारे लिए इन बाग़ों में बहुत-से लज़ीज़ फल हैं और उनसे तुम रोज़ी हासिल करते हो।
إِنۡ هُوَ إِلَّا رَجُلٌ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا وَمَا نَحۡنُ لَهُۥ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 33
(38) यह शख़्स ख़ुदा के नाम पर मह्ज़ झूठ गढ़ रहा है और हम कभी इसकी माननेवाले नहीं हैं।”
وَشَجَرَةٗ تَخۡرُجُ مِن طُورِ سَيۡنَآءَ تَنۢبُتُ بِٱلدُّهۡنِ وَصِبۡغٖ لِّلۡأٓكِلِينَ ۝ 34
(20) और वह दरख़्त भी हमने पैदा किया जो तूरे-सीना से निकलता है,6 तेल भी लिए हुए उगता है और खानेवालों के लिए सालन भी।
6. मुराद है ज़ैतून, जो बहरे-रूम के गिर्दो-पेश के इलाक़े की पैदावार में सबसे ज़्यादा अहम चीज़ है। तूरे-सेना की तरफ़ इसको मंसूब करने की वजह ग़ालिबन यह है कि वही इलाक़ा जिसका मशहूरतरीन मक़ाम तूरे-सीना है, इस दरख़्त का वतने असली है।
قَالَ رَبِّ ٱنصُرۡنِي بِمَا كَذَّبُونِ ۝ 35
(39) रसूल ने कहा, “परवरदिगार! इन लोगों ने जो मेरी तकज़ीब की है उसपर अब तू ही मेरी नुसरत फ़रमा।”
وَإِنَّ لَكُمۡ فِي ٱلۡأَنۡعَٰمِ لَعِبۡرَةٗۖ نُّسۡقِيكُم مِّمَّا فِي بُطُونِهَا وَلَكُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ كَثِيرَةٞ وَمِنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 36
(21) और हक़ीक़त यह है कि तुम्हारे लिए मवेशियों में भी एक सबक़ है। उनके पेटों में जो कुछ है उसी में से एक चीज़ (यानी दूध) हम तुम्हें पिलाते हैं, और तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से दूसरे फ़ायदे भी हैं। उनको तुम खाते हो
قَالَ عَمَّا قَلِيلٖ لَّيُصۡبِحُنَّ نَٰدِمِينَ ۝ 37
(40) जवाब में इरशाद हुआ, “क़रीब है वह वक़्त जब ये अपने किए पर पछताएँगे।”
وَعَلَيۡهَا وَعَلَى ٱلۡفُلۡكِ تُحۡمَلُونَ ۝ 38
(22) और उनपर और कश्तियों पर सवार भी किए जाते हो।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ بِٱلۡحَقِّ فَجَعَلۡنَٰهُمۡ غُثَآءٗۚ فَبُعۡدٗا لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 39
(41) आख़िरकार ठीक-ठीक हक़ के मुताबिक़ एक हंगामा-ए-अज़ीम ने उनको आ लिया और हमने उनको कचरा बनाकर फेंक दिया — दूर हो ज़ालिम क़ौम!
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَقَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۚ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 40
(23) हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ भेजा। उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारे लिए कोई माबूद नहीं है, क्या तुम डरते नहीं हो?”
فَقَالَ ٱلۡمَلَؤُاْ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ مَا هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُرِيدُ أَن يَتَفَضَّلَ عَلَيۡكُمۡ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَأَنزَلَ مَلَٰٓئِكَةٗ مَّا سَمِعۡنَا بِهَٰذَا فِيٓ ءَابَآئِنَا ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 41
(24) उसकी क़ौम के जिन सरदारों ने मानने से इनकार किया वे कहने लगे कि, “यह शख़्स कुछ नहीं है मगर एक बशर तुम ही जैसा। इसकी ग़रज़ यह है कि तुमपर बरतरी हासिल करे। अल्लाह को अगर भेजना होता तो फ़रिश्ते भेजता। यह बात तो हमने कभी अपने बाप-दादा के वक़्तों में सुनी ही नहीं (कि बशर रसूल बनकर आए)।
ثُمَّ أَنشَأۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِمۡ قُرُونًا ءَاخَرِينَ ۝ 42
(42) फिर हमने उनके बाद दूसरी क़ौमें उठाई।
إِنۡ هُوَ إِلَّا رَجُلُۢ بِهِۦ جِنَّةٞ فَتَرَبَّصُواْ بِهِۦ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 43
(25) कुछ नहीं, बस इस आदमी को ज़रा जुनून लाहिक़ हो गया है। कुछ मुद्दत और देख लो (शायद इफ़ाक़ा हो जाए)।”
مَا تَسۡبِقُ مِنۡ أُمَّةٍ أَجَلَهَا وَمَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ ۝ 44
(43) कोई क़ौम न अपने वक़्त से पहले ख़त्म हुई और न उसके बाद ठहर सकी।
قَالَ رَبِّ ٱنصُرۡنِي بِمَا كَذَّبُونِ ۝ 45
(26) नूह ने कहा, “परवरदिगार! इन लोगों ने जो मेरी तकज़ीब की है उसपर अब तू ही मेरी नुसरत फ़रमा।”
ثُمَّ أَرۡسَلۡنَا رُسُلَنَا تَتۡرَاۖ كُلَّ مَا جَآءَ أُمَّةٗ رَّسُولُهَا كَذَّبُوهُۖ فَأَتۡبَعۡنَا بَعۡضَهُم بَعۡضٗا وَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَحَادِيثَۚ فَبُعۡدٗا لِّقَوۡمٖ لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 46
(44) फिर हमने पै-दर-पै अपने रसूल भेजे। जिस क़ौम के पास भी उसका रसूल आया, उसने उसे झुठलाया, और हम एक के बाद एक क़ौम को हलाक करते चले गए, हत्ता कि उनको बस अफ़साना ही बनाकर छोड़ा — फिटकार उन लोगों पर जो ईमान नहीं लाते!
ثُمَّ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ وَأَخَاهُ هَٰرُونَ بِـَٔايَٰتِنَا وَسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 47
(45) फिर हमने मूसा और उसके भाई हारून को अपनी निशानियों और खुली सनद के साथ
إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ وَكَانُواْ قَوۡمًا عَالِينَ ۝ 48
(46) फ़िरऔन और उसके आयाने-सल्तनत की तरफ़ भेजा। मगर उन्होंने तकब्बुर किया और बड़ी दून की ली।
فَقَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ لِبَشَرَيۡنِ مِثۡلِنَا وَقَوۡمُهُمَا لَنَا عَٰبِدُونَ ۝ 49
(47) कहने लगे, “क्या हम अपने ही जैसे दो आदमियों पर ईमान ले आएँ और आदमी भी वे जिनकी क़ौम हमारी बन्दी है?”
سَيَقُولُونَ لِلَّهِۚ قُلۡ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 50
(85) ये ज़रूर कहेंगे, “अल्लाह की।” कहो, “फिर तुम होश में क्यों नहीं आते?
فَكَذَّبُوهُمَا فَكَانُواْ مِنَ ٱلۡمُهۡلَكِينَ ۝ 51
(48) पस उन्होंने दोनों को झुठला दिया और हलाक होनेवालों में जा मिले।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ لَعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 52
(49) और मूसा को हमने किताब अता फ़रमाई ताकि लोग उससे रहनुमाई हासिल करें।
وَجَعَلۡنَا ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَأُمَّهُۥٓ ءَايَةٗ وَءَاوَيۡنَٰهُمَآ إِلَىٰ رَبۡوَةٖ ذَاتِ قَرَارٖ وَمَعِينٖ ۝ 53
(50) और इब्ने-मरयम और उसकी माँ को हमने एक निशानी बनाया है। उनको एक सतहे-मुर्तफ़ा पर रखा जो इत्मीनान की जगह थी और चश्मे उसमें जारी थे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلرُّسُلُ كُلُواْ مِنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَٱعۡمَلُواْ صَٰلِحًاۖ إِنِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 54
(51) ऐ पैग़म्बरो! खाओ पाक चीज़ें और अमल करो सॉलेह, तुम जो कुछ भी करते हो मैं उसको ख़ूब जानता हूँ।
وَإِنَّ هَٰذِهِۦٓ أُمَّتُكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَأَنَا۠ رَبُّكُمۡ فَٱتَّقُونِ ۝ 55
(52) और यह तुम्हारी उम्मत एक ही उम्मत है और मैं तुम्हारा रब हूँ, पस मुझी से तुम डरो।
فَتَقَطَّعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡ زُبُرٗاۖ كُلُّ حِزۡبِۭ بِمَا لَدَيۡهِمۡ فَرِحُونَ ۝ 56
(53) मगर बाद में लोगों ने अपने दीन को आपस में टुकड़े-टुकड़े कर लिया। हर गरोह के पास जो कुछ है उसी में वह मगन है।
فَذَرۡهُمۡ فِي غَمۡرَتِهِمۡ حَتَّىٰ حِينٍ ۝ 57
(54) — अच्छा, तो छोड़ उन्हें, डूबे रहें अपनी ग़फ़लत में एक वक़्ते-ख़ास तक।
قُلۡ مَن رَّبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ ٱلسَّبۡعِ وَرَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 58
(86) इनसे पूछो, “सातों आसमानों और अर्श-अज़ीम का मालिक कौन है?”
سَيَقُولُونَ لِلَّهِۚ قُلۡ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 59
(87) ये ज़रूर कहेंगे, “अल्लाह।” कहो, “फिर तुम डरते क्यों नहीं?”
قُلۡ مَنۢ بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيۡءٖ وَهُوَ يُجِيرُ وَلَا يُجَارُ عَلَيۡهِ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 60
(88) इनसे कहो, “बताओ अगर तुम जानते हो कि हर चीज़ पर इक़तिदार किसका है? और कौन है वह जो पनाह देता है और उसके मुक़ाबले में कोई पनाह नहीं दे सकता?
سَيَقُولُونَ لِلَّهِۚ قُلۡ فَأَنَّىٰ تُسۡحَرُونَ ۝ 61
(89) “ये ज़रूर कहेंगे कि “यह बात तो अल्लाह ही के लिए है।” कहो, “फिर कहाँ से तुमको धोखा लगता है?”
بَلۡ أَتَيۡنَٰهُم بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 62
(90) जो अम्रे-हक़ है वह हम इनके सामने ले आए हैं और कोई शक नहीं कि ये लोग झूठे हैं।9
9. यानी अपने इस क़ौल में झूठे कि अल्लाह के सिवा किसी और को भी ख़ुदाई की सिफ़ात, इख़्तियारात और हुक़ूक़, या उनमें से कोई हिस्सा हासिल है। और अपने इस क़ौल में झूठे कि ज़िन्दगी बादे-मौत मुमकिन नहीं है। उनका झूठ उनके अपने एतिराफ़ात से साबित है। एक तरफ़ यह मानना कि ज़मीन व आसमान का मालिक और कायनात की हर चीज़ का मुख़्तार अल्लाह है, और दूसरी तरफ़ यह कहना कि ख़ुदाई तन्हा उसी की नहीं है, बल्कि दूसरों का भी (जो लामुहाला उसके बंदे और मख़लूक़ ही होंगे) उसमें कोई हिस्सा है, ये दोनों बातें सरीह तौर पर एक-दूसरे से मुतनाक़िज़ हैं। इसी तरह एक तरफ़ यह कहना कि हमको और इस अज़ीमुश्शान कायनात को ख़ुदा ने पैदा किया है, और दूसरी तरफ़ यह कहना कि ख़ुदा अपनी ही पैदाकरदा मख़लूक़ को दोबारा पैदा नहीं कर सकता, सरीहन ख़िलाफ़े-अक़्ल है। लिहाज़ा उनकी अपनी मानी हुई सदाक़तों से यह साबित है कि शिर्क और इनकारे-आख़िरत, दोनों ही झूठे अक़ीदे हैं जो उन्होंने इख़्तियार कर रखे हैं।
مَا ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ مِن وَلَدٖ وَمَا كَانَ مَعَهُۥ مِنۡ إِلَٰهٍۚ إِذٗا لَّذَهَبَ كُلُّ إِلَٰهِۭ بِمَا خَلَقَ وَلَعَلَا بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 63
(91) अल्लाह ने किसी को अपनी औलाद नहीं बनाया है,10 और कोई दूसरा ख़ुदा उसके साथ नहीं है। अगर ऐसा होता तो हर ख़ुदा अपनी ख़ल्क़ को लेकर अलग हो जाता और फिर वे एक-दूसरे पर चढ़ दौड़ते। पाक है अल्लाह उन बातों से जो ये लोग बनाते हैं।
10. यहाँ किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि यह इरशाद मह्ज़ ईसाइयत की तरदीद में है। नहीं, मुशरिकीने-अरब भी अपने माबूदों को ख़ुदा की औलाद क़रार देते थे, और दुनिया के अकसर मुशरिकीन इस गुमराही में उनके शरीके-हाल रहे हैं।
عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 64
(92) खुले और छिपे का जाननेवाला, वह बालातर है उस शिर्क से जो ये लोग तजवीज़ कर रहे हैं।
قُل رَّبِّ إِمَّا تُرِيَنِّي مَا يُوعَدُونَ ۝ 65
(93) (ऐ नबी!) दुआ करो कि “परवरदिगार! जिस अज़ाब की इनको धमकी दी जा रही है वह अगर मेरी मौजूदगी में तू लाए,
رَبِّ فَلَا تَجۡعَلۡنِي فِي ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 66
(94) तो ऐ मेरे रब! मुझे इन जालिम लोगों में शामिल न कीजियो।11
11. इसका यह मतलब नहीं है कि मआज़अल्लाह उस अज़ाब में नबी (सल्ल०) के मुब्तला होने का फ़िल-वाक़े कोई ख़तरा था, या यह कि अगर आप यह दुआ न माँगते तो उसमें मुब्तला हो जाते, बल्कि इस तरह का अंदाज़े-बयान यह तसव्वुर दिलाने के लिए इख़्तियार किया गया है कि ख़ुदा का अज़ाब है ही डरने के लायक़ चीज़, वह ऐसी ख़ौफ़नाक चीज़ है कि गुनहगारों ही को नहीं, नेकूकारों को भी अपनी सारी नेकियों के बावजूद उससे पनाह माँगनी चाहिए।
وَإِنَّا عَلَىٰٓ أَن نُّرِيَكَ مَا نَعِدُهُمۡ لَقَٰدِرُونَ ۝ 67
(95) और हक़ीक़त यह है कि हम तुम्हारी आँखों के सामने ही वह चीज़ ले आने की पूरी क़ुदरत रखते हैं। जिसकी धमकी हम उन्हें दे रहे हैं।
قَالَ ٱخۡسَـُٔواْ فِيهَا وَلَا تُكَلِّمُونِ ۝ 68
(108) अल्लाह तआला जवाब देगा, “दूर हो मेरे सामने से, पड़े रहो इसी में और मुझसे बात न करो।
ٱدۡفَعۡ بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ ٱلسَّيِّئَةَۚ نَحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَصِفُونَ ۝ 69
(96) (ऐ नबी!) बुराई को उस तरीक़े से दफ़ा करो जो बेहतरीन हो। जो बातें वे तुमपर बनाते हैं वे हमें ख़ूब मालूम हैं।
وَقُل رَّبِّ أَعُوذُ بِكَ مِنۡ هَمَزَٰتِ ٱلشَّيَٰطِينِ ۝ 70
(97) और दुआ करो कि “परवरदिगार! मैं शयातीन की उकसाहटों से तेरी पनाह माँगता हूँ,
إِنَّهُۥ كَانَ فَرِيقٞ مِّنۡ عِبَادِي يَقُولُونَ رَبَّنَآ ءَامَنَّا فَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 71
(109) तुम वही लोग तो हो कि मेरे कुछ बन्दे जब कहते थे कि ऐ हमारे परवरदिगार! हम ईमान लाए, हमें माफ़ कर दे, हमपर रहम कर, तू सब रहीमों से अच्छा रहीम है,
وَأَعُوذُ بِكَ رَبِّ أَن يَحۡضُرُونِ ۝ 72
(98) बल्कि ऐ मेरे रब! मैं तो इससे भी तेरी पनाह माँगता हूँ कि वे मेरे पास आएँ।”
فَٱتَّخَذۡتُمُوهُمۡ سِخۡرِيًّا حَتَّىٰٓ أَنسَوۡكُمۡ ذِكۡرِي وَكُنتُم مِّنۡهُمۡ تَضۡحَكُونَ ۝ 73
(110) तो तुमने उनका मज़ाक़ बना लिया। यहाँ तक कि उनकी ज़िद ने तुम्हें यह भी भुला दिया कि मैं भी कोई हूँ, और तुम उनपर हँसते रहे।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَحَدَهُمُ ٱلۡمَوۡتُ قَالَ رَبِّ ٱرۡجِعُونِ ۝ 74
(99) (ये लोग अपनी करनी से बाज़ न आएँगे) यहाँ तक कि जब उनमें से किसी को मौत आ जाएगी तो कहना शुरू करेगा कि “ऐ मेरे रब! मुझे उसी दुनिया में वापस भेज दीजिए जिसे मैं छोड़ आया हूँ,
إِنِّي جَزَيۡتُهُمُ ٱلۡيَوۡمَ بِمَا صَبَرُوٓاْ أَنَّهُمۡ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 75
(111) आज उनके इस सब्र का मैंने यह फल दिया है कि वही कामयाब हैं।”
لَعَلِّيٓ أَعۡمَلُ صَٰلِحٗا فِيمَا تَرَكۡتُۚ كَلَّآۚ إِنَّهَا كَلِمَةٌ هُوَ قَآئِلُهَاۖ وَمِن وَرَآئِهِم بَرۡزَخٌ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 76
(100) उम्मीद है कि अब मैं नेक अमल करूँगा।” — हरगिज़ नहीं, यह तो बस एक बात है जो वह बक रहा है। अब इन सब (मरनेवालों) के पीछे एक बरज़ख़12 हायल है दूसरी ज़िन्दगी के दिन तक।
12. ‘बरज़ख़' फ़ारिसी लफ़्ज़ 'परदा' का मुअर्रब है। आयत का मतलब यह है कि अब उनके और दुनिया के दरमियान एक रोक है जो उन्हें वापस जाने नहीं देगी और क़ियामत तक यह दुनिया और आख़िरत के दरमियान की इस हद्दे-फ़ासिल में ठहरे रहेंगे।
قَٰلَ كَمۡ لَبِثۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ عَدَدَ سِنِينَ ۝ 77
(112) फिर अल्लाह तआला उनसे पूछेगा, “बताओ, ज़मीन में तुम कितने साल रहे?”
فَإِذَا نُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَلَآ أَنسَابَ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ وَلَا يَتَسَآءَلُونَ ۝ 78
(101) फिर ज्यों ही कि सूर फूँक दिया गया, उनके दरमियान फिर कोई रिश्ता न रहेगा और न वे एक-दूसरे को पूछेंगे।
قَالُواْ لَبِثۡنَا يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖ فَسۡـَٔلِ ٱلۡعَآدِّينَ ۝ 79
(113) वे कहेंगे, “एक दिन या दिन का भी कुछ हिस्सा हम वहाँ ठहरे हैं, शुमार करनेवालों से पूछ लीजिए।”
فَمَن ثَقُلَتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 80
(102) उस वक़्त जिनके पलड़े भारी होंगे वही फ़लाह पाएँगे।
قَٰلَ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗاۖ لَّوۡ أَنَّكُمۡ كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 81
(114) इरशाद होगा, “थोड़ी ही देर ठहरे हो न, काश तुमने यह उस वक़्त जाना होता!
وَمَنۡ خَفَّتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فِي جَهَنَّمَ خَٰلِدُونَ ۝ 82
(103) और जिनके पलड़े हलके होंगे वही लोग होंगे जिन्होंने अपने-आपको घाटे में डाल लिया। वे जहन्नम में हमेशा रहेंगे।
أَفَحَسِبۡتُمۡ أَنَّمَا خَلَقۡنَٰكُمۡ عَبَثٗا وَأَنَّكُمۡ إِلَيۡنَا لَا تُرۡجَعُونَ ۝ 83
(115) क्या तुमने यह समझ रखा था कि हमने तुम्हें फ़ुज़ूल ही पैदा किया है और तुम्हें हमारी तरफ़ कभी पलटना ही नहीं है?”
تَلۡفَحُ وُجُوهَهُمُ ٱلنَّارُ وَهُمۡ فِيهَا كَٰلِحُونَ ۝ 84
(104) आग उनके चेहरों की खाल चाट जाएगी और उनके जबड़े बाहर निकल आएँगे।
فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡحَقُّۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ رَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡكَرِيمِ ۝ 85
(116) पस बाला व बरतर है अल्लाह, पादशाहे-हक़ीक़ी, कोई ख़ुदा उसके सिवा नहीं, मालिक है अर्शे-बुज़ुर्ग का।
أَلَمۡ تَكُنۡ ءَايَٰتِي تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَكُنتُم بِهَا تُكَذِّبُونَ ۝ 86
(105) “क्या तुम वही लोग नहीं हो कि मेरी आयात तुम्हें सुनाई जाती थीं तो तुम उन्हें झुठलाते थे?”
وَمَن يَدۡعُ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ لَا بُرۡهَٰنَ لَهُۥ بِهِۦ فَإِنَّمَا حِسَابُهُۥ عِندَ رَبِّهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 87
(117) और जो कोई अल्लाह के साथ किसी और माबूद को पुकारे, जिसके लिए उसके पास कोई दलील नहीं,13 तो उसका हिसाब उसके रब के पास है। ऐसे काफ़िर कभी फ़लाह नहीं पा सकते।
13. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “जो कोई अल्लाह के साथ किसी और माबूद को पुकारे उसके लिए अपने इस फ़ेल के हक़ में कोई दलील नहीं है।”
قَالُواْ رَبَّنَا غَلَبَتۡ عَلَيۡنَا شِقۡوَتُنَا وَكُنَّا قَوۡمٗا ضَآلِّينَ ۝ 88
(106) वे कहेंगे, “ऐ हमारे रब! हमारी बदबख़्ती हमपर छा गई थी। हम वाक़ई गुमराह लोग थे।
وَقُل رَّبِّ ٱغۡفِرۡ وَٱرۡحَمۡ وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 89
(118) (ऐ नबी!) कहो, “मेरे रब! दरगुज़र फ़रमा और रहम कर, और तू सब रहीमों से अच्छा रहीम है।”
رَبَّنَآ أَخۡرِجۡنَا مِنۡهَا فَإِنۡ عُدۡنَا فَإِنَّا ظَٰلِمُونَ ۝ 90
(107) ऐ परवरदिगार! अब हमें यहाँ से निकाल दे। फिर हम ऐसा क़ुसूर करें तो ज़ालिम होंगे।”
وَٱلَّذِينَ هُم بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 91
(58) जो अपने रब की आयात पर ईमान लाते हैं,
وَٱلَّذِينَ هُم بِرَبِّهِمۡ لَا يُشۡرِكُونَ ۝ 92
(59) जो अपने रब के साथ किसी शरीक नहीं करते
وَٱلَّذِينَ يُؤۡتُونَ مَآ ءَاتَواْ وَّقُلُوبُهُمۡ وَجِلَةٌ أَنَّهُمۡ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ رَٰجِعُونَ ۝ 93
(60) और जिनका हाल यह है कि देते हैं जो कुछ भी देते हैं और दिल उनके इस ख़याल से काँपते रहते हैं कि हमें अपने रब की तरफ़ पलटना है,
أُوْلَٰٓئِكَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَهُمۡ لَهَا سَٰبِقُونَ ۝ 94
(61) वही भलाइयों की तरफ़ दौड़नेवाले और सबक़त करके उन्हें पा लेनेवाले हैं।
وَلَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۚ وَلَدَيۡنَا كِتَٰبٞ يَنطِقُ بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 95
(62) हम किसी शख़्स को उसकी मक़िदरत से ज़्यादा तकलीफ़ नहीं देते, और हमारे पास एक किताब है जो (हर एक का हाल) ठीक-ठीक बता देनेवाली है,7 और लोगों पर ज़ुल्म बहरहाल नहीं किया जाएगा,
7. यानी हर शख़्स का नामा-ए-आमाल जिसमें उसका सब कुछ किया-धरा दर्ज है।
بَلۡ قُلُوبُهُمۡ فِي غَمۡرَةٖ مِّنۡ هَٰذَا وَلَهُمۡ أَعۡمَٰلٞ مِّن دُونِ ذَٰلِكَ هُمۡ لَهَا عَٰمِلُونَ ۝ 96
(63) मगर ये लोग इस मामले से बेख़बर हैं। और इनके आमाल भी उस तरीक़े से (जिसका ऊपर ज़िक्र किया गया है) मुख़्तलिफ़ हैं।
حَتَّىٰٓ إِذَآ أَخَذۡنَا مُتۡرَفِيهِم بِٱلۡعَذَابِ إِذَا هُمۡ يَجۡـَٔرُونَ ۝ 97
(64) (वे अपने ये करतूत किए चले जाएँगे) यहाँ तक कि जब हम उनके अय्याशों को अज़ाब में पकड़ लेंगे तो फिर वे डकराना शुरू कर देंगे।
لَا تَجۡـَٔرُواْ ٱلۡيَوۡمَۖ إِنَّكُم مِّنَّا لَا تُنصَرُونَ ۝ 98
(65) — अब बन्द करो अपनी फ़रियाद व फ़ुग़ाँ, हमारी तरफ़ से अब कोई मदद तुम्हें नहीं मिलनी।
قَدۡ كَانَتۡ ءَايَٰتِي تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَكُنتُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡ تَنكِصُونَ ۝ 99
(66) मेरी आयात सुनाई जाती थीं तो तुम (रसूल की आवाज़ सुनते ही) उलटे-पाँव भाग निकलते थे,
مُسۡتَكۡبِرِينَ بِهِۦ سَٰمِرٗا تَهۡجُرُونَ ۝ 100
(67) अपने घमण्ड में उसको ख़ातिर ही में न लाते थे, अपनी चौपालों में उसपर बातें छाँटते और बकवास किया करते थे।
أَفَلَمۡ يَدَّبَّرُواْ ٱلۡقَوۡلَ أَمۡ جَآءَهُم مَّا لَمۡ يَأۡتِ ءَابَآءَهُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 101
(68) तो क्या इन लोगों ने कभी इस कलाम पर ग़ौर नहीं किया? या वह कोई ऐसी बात लाया है जो कभी उनके असलाफ़ के पास न आई थी?
أَمۡ لَمۡ يَعۡرِفُواْ رَسُولَهُمۡ فَهُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 102
(69) या ये अपने रसूल से कभी के वाक़िफ़ न थे कि (अंजाना आदमी होने के बाइस) उससे बिदकते हैं?
أَمۡ يَقُولُونَ بِهِۦ جِنَّةُۢۚ بَلۡ جَآءَهُم بِٱلۡحَقِّ وَأَكۡثَرُهُمۡ لِلۡحَقِّ كَٰرِهُونَ ۝ 103
(70) या ये इस बात के क़ायल हैं कि वह मजनूँ है? नहीं, बल्कि वह हक़ लाया है और हक़ तो उनकी अक्सरियत को नागवार है।
وَلَوِ ٱتَّبَعَ ٱلۡحَقُّ أَهۡوَآءَهُمۡ لَفَسَدَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهِنَّۚ بَلۡ أَتَيۡنَٰهُم بِذِكۡرِهِمۡ فَهُمۡ عَن ذِكۡرِهِم مُّعۡرِضُونَ ۝ 104
(71) — और हक़ अगर कहीं उनकी ख़ाहिशात के पीछे चलता तो ज़मीन और आसमान और उनकी सारी आबादी का निज़ाम दरहम-बरहम हो जाता! — नहीं, बल्कि हम उनका अपना ही ज़िक्र उनके पास लाए हैं और वे अपने ज़िक्र से मुँह मोड़ रहे हैं।
أَمۡ تَسۡـَٔلُهُمۡ خَرۡجٗا فَخَرَاجُ رَبِّكَ خَيۡرٞۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 105
(72) क्या तू उनसे कुछ माँग रहा है? तेरे लिए तो तेरे रब का दिया ही बेहतर है और वह बेहतरीन राज़िक़ है।
وَإِنَّكَ لَتَدۡعُوهُمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 106
(73) तू तो उनको सीधे रास्ते की तरफ़ बुला रहा है।
وَإِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ عَنِ ٱلصِّرَٰطِ لَنَٰكِبُونَ ۝ 107
(74) मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते वे राहे-रास्त से हटकर चलना चाहते हैं।
۞وَلَوۡ رَحِمۡنَٰهُمۡ وَكَشَفۡنَا مَا بِهِم مِّن ضُرّٖ لَّلَجُّواْ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 108
(75) अगर हम इनपर रहम करें और वह तकलीफ़ जिसमें आजकल ये मुब्तला है,8 दूर कर दें तो ये अपनी सरकशी में बिलकुल ही बहक जाएँगे।
8. मुराद है वह क़हत जो नबी (सल्ल०) की बिअसत के बाद चंद साल तक बरपा रहा।
وَلَقَدۡ أَخَذۡنَٰهُم بِٱلۡعَذَابِ فَمَا ٱسۡتَكَانُواْ لِرَبِّهِمۡ وَمَا يَتَضَرَّعُونَ ۝ 109
(76) इनका हाल तो यह है कि हमने इन्हें तकलीफ़ में मुब्तला किया, फिर भी ये अपने रब के आगे न झुके और न आजिज़ी इख़्तियार करते हैं।
حَتَّىٰٓ إِذَا فَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَابٗا ذَا عَذَابٖ شَدِيدٍ إِذَا هُمۡ فِيهِ مُبۡلِسُونَ ۝ 110
(77) अलबत्ता जब नौबत यहाँ तक पहुँच जाएगी कि हम इनपर सख़्त अज़ाब का दरवाज़ा खोल दें तो यकायक तुम देखोगे कि इस हालत में ये हर ख़ैर से मायूस हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَۚ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 111
(78) वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हें सुनने और देखने की क़ुव्वतें दीं और सोचने को दिल दिए। मगर तुम लोग कम ही शुक्रगुज़ार होते हो।
وَهُوَ ٱلَّذِي ذَرَأَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 112
(79) वही है जिसने तुम्हें ज़मीन में फैलाया, और उसी की तरफ़ तुम समेटे जाओगे।
وَهُوَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ وَلَهُ ٱخۡتِلَٰفُ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 113
(80) वही ज़िन्दगी बख़्शता है और वही मौत देता है। गरदिशे-लैलो-नहार उसी के क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में है। क्या तुम्हारी समझ में यह बात नहीं आती?
بَلۡ قَالُواْ مِثۡلَ مَا قَالَ ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 114
(81) मगर ये लोग वही कहते हैं जो इनके पेशरौ कह चुके हैं।
قَالُوٓاْ أَءِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 115
(82) ये कहते हैं, “क्या जब हम मरकर मिट्टी हो जाएँगे और हड्डियों का पंजर बनकर रह जाएँगे तो हमको फिर ज़िन्दा करके उठाया जाएगा?
لَقَدۡ وُعِدۡنَا نَحۡنُ وَءَابَآؤُنَا هَٰذَا مِن قَبۡلُ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 116
(83) हमने भी ये वादे बहुत सुने हैं और हमसे पहले हमारे बाप-दादा भी सुनते रहे हैं। ये मह्ज़ अफसाना-हाए-पारीना हैं।”
قُل لِّمَنِ ٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهَآ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 117
(84) इनसे कहो, “बताओ अगर तुम जानते हो कि यह ज़मीन और इसकी सारी आबादी किसकी है?”