Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

وَثِيَابَكَ فَطَهِّرۡ

74. अल-मुद्दस्सिर

(मक्का में उतरी, आयतें 56)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-मुद्दस्सिर' (ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले) को इस सूरा का नाम दिया गया है। यह भी केवल नाम है, विषय-वस्तु की दृष्टि से वार्ताओं का शीर्षक नहीं।

उतरने का समय

इसकी पहली सात आयतें मक्का मुअज़्ज़मा के बिलकुल आरम्भिक काल में अवतरित हुई हैं। पहली वह्य' (प्रकाशना) जो नबी (सल्ल०) पर अवतरित हुई वह "पढ़ो (ऐ नबी), अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया” से लेकर “जिसे वह न जानता था” (सूरा-96 अल-अलक़) तक है। इस पहली वह्य के बाद कुछ समय तक नबी (सल्ल०) पर कोई वह्य अवतरित नहीं हुई। [इस] फ़तरतुल वह्य (वह्य के बन्द रहने की अवधि) का उल्लेख करते हुए [अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वयं कहा है कि] “एक दिन मैं रास्ते से गुज़र रहा था। अचानक मैंने आसमान से एक आवाज़ सुनी। सिर उठाया तो वही फ़रिश्ता जो हिरा की गुफा में मेरे पास आया था, आकाश और धरती के मध्य एक कुर्सी पर बैठा हुआ है । मैं यह देखकर अत्यन्त भयभीत हो गया और घर पहुँचकर मैंने कहा, 'मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ।' अतएव घरवालों ने मुझपर लिहाफ़ (या कम्बल) ओढ़ा दिया। उस समय अल्लाह ने वह्य अवतरित की, 'ऐ ओढ़-लपेटकर लेटनेवाले...।' फिर निरन्तर मुझपर वह्य अवतरित होनी प्रारम्भ हो गई" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुस्नदे-अहमद, इब्ने-जरीर)। सूरा का शेष भाग आयत 8 से अन्त तक उस समय अवतरित हुआ जब इस्लाम का खुल्लम-खुल्ला प्रचार हो जाने के पश्चात् मक्का में पहली बार हज का अवसर आया।

विषय और वार्ता

पहली वह्य (प्रकाशना) में जो सूरा-96 (अलक़) की आरम्भिक 5 आयतों पर आधारित थी, आप (सल्ल०) को यह नहीं बताया गया था कि आप (सल्ल०) किस महान् कार्य पर नियुक्त हुए हैं और आगे क्या कुछ आप (सल्ल०) को करना है, बल्कि केवल एक प्रारम्भिक परिचय कराकर आप (सल्ल.) को कुछ समय के लिए छोड़ दिया गया था ताकि आपके मन पर जो बड़ा बोझ इस पहले अनुभव से पड़ा है उसका प्रभाव दूर हो जाए और आप मानसिक रूप से आगे वह्य प्राप्त करने और नुबूवत के कर्तव्यों के सम्भालने के लिए तैयार हो जाएँ। इस अन्तराल के पश्चात् जब पुन: वह्य के अवतरण का सिलसिला शुरू हुआ तो इस सूरा की आरम्भिक 7 आयतें अवतरित की गई और इनमें पहली बार आप (सल्ल०) को यह आदेश दिया गया कि आप उठें और ईश्वर के पैदा किए हुए लोगों को उस नीति के परिणाम से डराएँ जिसपर वे चल रहे हैं और इस दुनिया में ईश्वर की महानता की उद्घोषणा करें। इसके साथ आप (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि अब जो कार्य आप (सल्ल०) को करना है उसे यह अपेक्षित है कि आप (सल्ल०) का जीवन हर दृष्टि से [अत्यन्त पवित्र, पूर्ण निष्ठा और पूर्ण धैर्य और ईश्वरीय निर्णय पर राज़ी रहने का नमूना हो।] इस ईश्वरीय आदेश के अनुपालन स्वरूप जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस्लाम का प्रचार आरम्भ किया तो मक्का में खलबली मच गई और विरोधों का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। कुछ महीने इसी दशा में व्यतीत हुए थे कि हज का समय आ गया। क़ुरैश के सरदारों ने [इस भय से कि कहीं बाहर से आनेवाले हाजी इस्लाम के प्रचार से प्रभावित न हो जाएँ] एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें यह निश्चय किया कि हाजियों के आते ही उनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के विरुद्ध प्रोपगंडा शुरू कर दिया जाए। इसपर सहमति के पश्चात् वलीद-बिन-मुग़ीरा ने उपस्थित लोगों से कहा कि यदि आप लोगों ने मुहम्मद (सल्ल०) के सम्बन्ध में विभिन्न बातें लोगों से कहीं तो हम सबका विश्वास जाता रहेगा। इसलिए कोई एक बात निर्धारित कर लीजिए जिसे सब एकमत होकर कहें। [इसपर किसी ने आप (सल्ल०) को काहिन, किसी ने दीवाना और उन्मादी, किसी ने कवि और किसी ने जादूगर कहने का प्रस्ताव रखा। लेकिन वलीद इनमें से हर प्रस्ताव को रद्द करता गया। फिर उस] ने कहा कि इन बातों में से जो बात भी तुम करोगे, लोग उसे अनुचित आरोप समझेंगे। अल्लाह की क़सम! उस वाणी में बड़ा माधुर्य है; उसकी जड़ बड़ी गहरी और उसकी डालियाँ फलदार हैं। [अन्त में अबू जहल के आग्रह पर वह स्वयं] सोचकर बोला, "सर्वाधिक अनुकूल बात जो कही जा सकती है वह यह कि तुम अरब के लोगों से कहो कि यह व्यक्ति जादूगर है, यह ऐसी वाणी प्रस्तुत कर रहा है जो आदमी को उसके बाप, भाई, पत्नी, बच्चों और सारे परिवार से जुदा कर देती है।" वलीद की इस बात को सबने स्वीकार कर लिया। [और हज के अवसर पर इसके अनुसार भरपूर प्रोपगंडा किया गया।] किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि कुरैश ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का नाम स्वयं ही सम्पूर्ण अरब में प्रसिद्ध कर दिया, (सीरत इब्ने-हिशाम, प्रथम भाग, पृ० 288-289) । यही घटना है जिसकी इस सूरा के दूसरे भाग में समीक्षा की गई है। इसकी वार्ताओं का क्रम यह है—

आयत 8 से 10 तक सत्य का इनकार करनेवालों को [उनके बुरे परिणाम से] सावधान किया गया है। आयत 11 से 26 तक वलीद-बिन-मुग़ीरा का नाम लिए बिना यह बताया गया है कि अल्लाह ने इस व्यक्ति को क्या कुछ सुख-सामग्रियाँ प्रदान की थीं और उनका प्रत्युत्तर उसने सत्य के विरोध के रूप में दिया है। अपनी इस करतूत के पश्चात् भी यह व्यक्ति चाहता है कि इसे इनाम दिया जाए, जबकि अब यह इनाम का नहीं बल्कि नरक का भागी हो चुका है। इसके बाद आयत 27 से 48 तक नरक की भयावहताओं का उल्लेख किया गया है और यह बताया गया है कि किस नैतिक आधार और चरित्र के लोग उसके भागी हैं। फिर आयत 49 से 53 में इस्लाम-विरोधियों के रोष की अस्ल जड़ बता दी गई है कि वे चूँकि परलोक से निर्भय हैं इसलिए वे कुरआन से भागते हैं और ईमान के लिए तरह-तरह की अनुचित शर्ते पेश करते हैं । अन्त में साफ़-साफ़ कह दिया गया है कि ख़ुदा को किसी के ईमान की कोई आवश्यकता नहीं पड़ गई है कि वह उसकी शर्ते पूरी करता फिरे। क़ुरआन सामान्य जन के लिए एक उपदेश है जो सबके समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया है। अब जिसका जी चाहे उसको स्वीकार कर ले।

----------------------------

وَثِيَابَكَ فَطَهِّرۡ ۝ 1
(4) और अपने कपड़े पाक रखो।
وَٱلرُّجۡزَ فَٱهۡجُرۡ ۝ 2
(5) और गन्दगी से दूर रहो।
وَلَا تَمۡنُن تَسۡتَكۡثِرُ ۝ 3
(6) और एहसान न करो ज़्यादा हासिल करने के लिए।
فِي جَنَّٰتٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 4
(40) जो जन्नतों में होंगे।
وَلِرَبِّكَ فَٱصۡبِرۡ ۝ 5
(7) और अपने रब की ख़ातिर सब्र करो।
عَنِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 6
(41) वे मुजरिमों से पूछेंगे9
9. यानी जन्नत में बैठे-बैठे वे दोज़ख़ के लोगों से बात करेंगे और यह सवाल करेंगे।
فَإِذَا نُقِرَ فِي ٱلنَّاقُورِ ۝ 7
(8) अच्छा, जब2 सूर में फूँक मारी जाएगी,
2. यह हिस्सा इबतिदाई आयात के चन्द महीने बाद उस वक़्त नाज़िल हुआ था जब रसूल (सल्ल०) की तरफ़ से अलानिया तबलीग़े-इस्लाम शुरू हो जाने के बाद पहली मर्तबा हज का ज़माना आया और सरदाराने-कुरैश ने एक कॉन्फ़्रेंस करके यह तय किया कि बाहर से आनेवाले हाजियों को क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) से बदगुमान करने के लिए प्रोपेगण्डे की एक ज़बरदस्त मुहिम चलाई जाए।
مَا سَلَكَكُمۡ فِي سَقَرَ ۝ 8
(42) “तुम्हें क्या चीज़ दोज़ख़ में ले गई?”
فَذَٰلِكَ يَوۡمَئِذٖ يَوۡمٌ عَسِيرٌ ۝ 9
(9) वह दिन बड़ा ही सख़्त दिन होगा,
قَالُواْ لَمۡ نَكُ مِنَ ٱلۡمُصَلِّينَ ۝ 10
(43) वे कहेंगे, “हम नमाज़ पढ़नेवालों में से न थे,
عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ غَيۡرُ يَسِيرٖ ۝ 11
(10) काफ़िरों के लिए हल्का न होगा।
وَلَمۡ نَكُ نُطۡعِمُ ٱلۡمِسۡكِينَ ۝ 12
(44) और मिसकीन को खाना नहीं खिलाते थे,
ذَرۡنِي وَمَنۡ خَلَقۡتُ وَحِيدٗا ۝ 13
(11) छोड़ दो मुझे और उस शख़्स को जिसे मैंने अकेला पैदा किया,3,
3. इससे मुराद वलीद-बिन-मुग़ीरा है जो दिल में क़ुरआन के कलामे-इलाही होने का क़ायल हो चुका था मगर मक्का में अपनी सरदारी क़ायम रखने के लिए उसने मज़कूरा बाला कॉन्फ़्रेंस में कुफ़्फ़ार को वह मश्वरा दिया कि हुज़ूर (सल्ल०) को जादूगर और क़ुरआन को जादू मशहूर किया जाए।
وَكُنَّا نَخُوضُ مَعَ ٱلۡخَآئِضِينَ ۝ 14
(45) और हक़ के ख़िलाफ़ बातें बनानेवालों के साथ मिलकर हम भी बातें बनाने लगते थे,
وَجَعَلۡتُ لَهُۥ مَالٗا مَّمۡدُودٗا ۝ 15
(12) बहुत-सा माल उसको दिया
وَكُنَّا نُكَذِّبُ بِيَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 16
(46) और रोज़े-ज़ज़ा को झूठ क़रार देते थे,
وَبَنِينَ شُهُودٗا ۝ 17
(13) उसके साथ हाज़िर रहनेवाले बेटे दिए,
حَتَّىٰٓ أَتَىٰنَا ٱلۡيَقِينُ ۝ 18
(47) यहाँ तक कि हमें उस यक़ीनी चीज़ से साबिक़ा पेश आ गया।”
وَمَهَّدتُّ لَهُۥ تَمۡهِيدٗا ۝ 19
(14) और उसके लिए रियासत की राह हमवार की,
فَمَا تَنفَعُهُمۡ شَفَٰعَةُ ٱلشَّٰفِعِينَ ۝ 20
(48) उस वक़्त सिफ़ारिश करनेवालों की कोई सिफ़ारिश उनके किसी काम न आएगी।
ثُمَّ يَطۡمَعُ أَنۡ أَزِيدَ ۝ 21
(15) फिर वह तमअ रखता है कि मैं उसे और ज़्यादा दूँ।
فَمَا لَهُمۡ عَنِ ٱلتَّذۡكِرَةِ مُعۡرِضِينَ ۝ 22
(49) आख़िर इन लोगों को क्या हो गया है कि ये इस नसीहत से मुँह मोड़ रहे हैं,
كَلَّآۖ إِنَّهُۥ كَانَ لِأٓيَٰتِنَا عَنِيدٗا ۝ 23
(16) हरगिज़ नहीं, वह हमारी आयात से इनाद रखता है।
كَأَنَّهُمۡ حُمُرٞ مُّسۡتَنفِرَةٞ ۝ 24
(50) गोया ये जंगली गधे हैं,
سَأُرۡهِقُهُۥ صَعُودًا ۝ 25
(17) मैं तो उसे अन-क़रीब एक कठिन चढ़ाई चढ़वाऊँगा।
فَرَّتۡ مِن قَسۡوَرَةِۭ ۝ 26
(51) जो शेर से डरकर भाग पड़े हैं।10
10. यह एक अरबी मुहावरा है। जंगली गधों का यह ख़ास्सा होता है कि ख़तरा भाँपते ही वे इस क़दर बदहवास होकर भागते हैं कि कोई दूसरा जानवर इस तरह नहीं भागता।
إِنَّهُۥ فَكَّرَ وَقَدَّرَ ۝ 27
(18) उसने सोचा और कुछ बात बनाने की कोशिश की।
بَلۡ يُرِيدُ كُلُّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ أَن يُؤۡتَىٰ صُحُفٗا مُّنَشَّرَةٗ ۝ 28
(52) बल्कि इनमें से तो हर एक यह चाहता है कि उसके नाम खुले ख़त भेजे जाएँ।11
11. यानी ये चाहते हैं कि अल्लाह तआला ने अगर वाक़ई मुहम्मद (सल्ल०) को नबी मुक़र्रर फ़रमाया है तो वह मक्का के एक-एक सरदार और एक-एख शैख़ के नाम एक ख़त लिखकर भेजे कि मुहम्मद (सल्ल०) हमारे नबी हैं, तुम उनकी पैरवी क़ुबूल करो।
فَقُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ ۝ 29
(19) तो ख़ुदा की मार उसपर! कैसी बात बनाने की कोशिश की!
كَلَّاۖ بَل لَّا يَخَافُونَ ٱلۡأٓخِرَةَ ۝ 30
(53) हरगिज़ नहीं, अस्ल बात यह है कि ये आख़िरत का ख़ौफ़ नहीं रखते।
ثُمَّ قُتِلَ كَيۡفَ قَدَّرَ ۝ 31
(20) हाँ, ख़ुदा की मार उसपर! कैसी बात बनाने की कोशिश की!
كَلَّآ إِنَّهُۥ تَذۡكِرَةٞ ۝ 32
(54) हरगिज़ नहीं,12 यह तो एक नसीहत है,
12. यानी उनका ऐसा कोई मुतालबा हरगिज़ पूरा न किया जाएगा।
ثُمَّ نَظَرَ ۝ 33
(21) फिर (लोगों की तरफ़) देखा।
فَمَن شَآءَ ذَكَرَهُۥ ۝ 34
(55) अब जिसका जी चाहे इससे सबक़ हासिल कर ले,
ثُمَّ عَبَسَ وَبَسَرَ ۝ 35
(22) फिर पेशानी सिकोड़ी और मुँह बनाया।
وَمَا يَذۡكُرُونَ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ هُوَ أَهۡلُ ٱلتَّقۡوَىٰ وَأَهۡلُ ٱلۡمَغۡفِرَةِ ۝ 36
(56) और ये कोई सबक़ हासिल न करेंगे, इल्ला यह कि अल्लाह ही ऐसा चाहे। वह इसका हक़दार है कि उससे तक़वा किया जाए और वह इसका अह्ल है कि (तक़वा करनेवालों को) बख़्श दे।
ثُمَّ أَدۡبَرَ وَٱسۡتَكۡبَرَ ۝ 37
(23) फिर पलटा और तकब्बुर में पड़ गया।
فَقَالَ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ يُؤۡثَرُ ۝ 38
(24) आख़िरकार बोला कि यह कुछ नहीं है मगर एक जादू जो पहले से चला आ रहा है,
إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا قَوۡلُ ٱلۡبَشَرِ ۝ 39
(25) यह तो एक इनसानी कलाम है।
سُورَةُ المُدَّثِّرِ
74. अल-मुदस्सिर
سَأُصۡلِيهِ سَقَرَ ۝ 40
(26) अन-क़रीब मैं उसे दोज़ख़ में झोंक दूँगा।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا سَقَرُ ۝ 41
(27) और तुम क्या जानो कि क्या है वह दोज़ख़?
يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمُدَّثِّرُ
(1) ऐ ओढ़-लपेटकर1 लेटनेवाले!
1. इस सूरा की इबतिबाई सात आयात वे हैं जिनमें सबसे पहले रसूलुल्लाह (सल्ल०) को इस्लाम की तबलीग़ का हुक्म दिया गया। यह “इक़-रअ बिस्मि रब्बिकल्लज़ी ख़लक़” के बाद दूसरी वह्य है जो हुज़ूर (सल्ल०) पर नाज़िल हुई।
لَا تُبۡقِي وَلَا تَذَرُ ۝ 42
(28) न बाक़ी रखे न छोड़े।4
4. यानी वह अज़ाब के मुस्तहिक़ीन में से किसी को बाक़ी न रहने देगी जो उसकी गिरिफ़्त में आए बग़ैर रह जाए, और जो भी उसकी गिरिफ़्त में आएगा उसे अज़ाब दिए बग़ैर न छोड़ेगी।
قُمۡ فَأَنذِرۡ ۝ 43
(2) उठो और ख़बरदार करो।
لَوَّاحَةٞ لِّلۡبَشَرِ ۝ 44
(29) खाल झुलस देनेवाली।
وَرَبَّكَ فَكَبِّرۡ ۝ 45
(3) और अपने रब की बड़ाई का एलान करो।
عَلَيۡهَا تِسۡعَةَ عَشَرَ ۝ 46
(30) उन्नीस कारकुन उसपर मुकर्रर हैं।
وَمَا جَعَلۡنَآ أَصۡحَٰبَ ٱلنَّارِ إِلَّا مَلَٰٓئِكَةٗۖ وَمَا جَعَلۡنَا عِدَّتَهُمۡ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ لِيَسۡتَيۡقِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَيَزۡدَادَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِيمَٰنٗا وَلَا يَرۡتَابَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَلِيَقُولَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡكَٰفِرُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُۚ وَمَا يَعۡلَمُ جُنُودَ رَبِّكَ إِلَّا هُوَۚ وَمَا هِيَ إِلَّا ذِكۡرَىٰ لِلۡبَشَرِ ۝ 47
(31) — हमने5 दोज़ख़ के ये कारकुन फ़रिश्ते बनाए हैं, और उनकी तादाद को काफ़िरों के लिए फ़ितना बना दिया है, ताकि अहले-किताब को यक़ीन आ जाए और ईमान लानेवालों का ईमान बढ़े, और अहले-किताब और मोमिनीन किसी शक में न रहें,6 और दिल के बीमार और कुफ़्फ़ार ये कहें कि भला अल्लाह का इस अजीब बात से क्या मतलब हो सकता है। इस तरह अल्लाह जिसे चाहता है गुमराह कर देता है और जिसे चाहता है हिदायत बख़्श देता है। और तेरे रब के लश्करों को ख़ुद उसके सिवा कोई नहीं जानता। — और इस दोज़ख़ का ज़िक्र इसके सिवा किसी ग़रज़ के लिए नहीं किया गया है कि लोगों को इससे नसीहत हो।
5. यहाँ से लेकर 'तेरे रब के लश्करों को ख़ुद उसके सिवा कोई नहीं जानता' तक की पूरी इबारत एक जुमला-ए-मुअ्तरिज़ा है जो दौराने-तक़रीर में सिलसिला-ए-कलाम को तोड़कर उन मुअतरिज़ीन के जवाब में इरशाद फ़रमाया गया है जिन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) की ज़बान से यह सुनकर कि दोज़ख़ के कारकुनों की तादाद सिर्फ़ 19 होगी, उसका मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया था। उनको यह बात अजीब मालूम हुई कि एक तरफ़ तो हम से यह कहा जा रहा है कि आदम (अलैहि०) के वक़्त से लेकर क़ियामत तक दुनिया में जितने इनसानों ने भी कुफ़्र और कबीरा गुनाहों का इरतिकाब किया है वे दोज़ख़ में डाले जाएँगे, और दूसरी तरफ़ हमें यह ख़बर दी जा रही है कि इतनी बड़ी दोज़ख़ में इतने बेशुमार इनसानों को अज़ाब देने के लिए सिर्फ़ 19 कारकुन मुक़र्रर होंगे।
6. चूँकि अहले-किताब और अहले-ईमान फ़रिश्तों की ग़ैर-मामूली ताक़तों से वाक़िफ़ हैं इसलिए उन्हें इसमें कोई शक नहीं हो सकता कि 19 फ़रिश्ते दोज़ख़ का इन्तिज़ाम करने के लिए काफ़ी हैं।
كَلَّا وَٱلۡقَمَرِ ۝ 48
(32) हरगिज़ नहीं,7 क़सम है चाँद की,
7. यानी यह कोई हवाई बात नहीं है जिसका इस तरह मज़ाक़ उड़ाया जाए।
وَٱلَّيۡلِ إِذۡ أَدۡبَرَ ۝ 49
(33) और रात की जबकि वह पलटती है,
وَٱلصُّبۡحِ إِذَآ أَسۡفَرَ ۝ 50
(34) और सुबह की जबकि वह रौशन होती है।
إِنَّهَا لَإِحۡدَى ٱلۡكُبَرِ ۝ 51
(35) यह दोज़ख़ भी बड़ी चीज़ों में से एक है,8
8. यानी जिस तरह चाँद और रात और दिन अल्लाह तआला की क़ुदरत के अज़ीम निशानात हैं उसी तरह दोज़ख़ भी अजाइबे-क़ुदरत में से एक चीज़ है।
نَذِيرٗا لِّلۡبَشَرِ ۝ 52
(36) इनसानों के लिए डरावा,
لِمَن شَآءَ مِنكُمۡ أَن يَتَقَدَّمَ أَوۡ يَتَأَخَّرَ ۝ 53
(37) तुममें से हर उस शख़्स के लिए डरावा जो आगे बढ़ना चाहे या पीछे रह जाना चाहे।
كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡ رَهِينَةٌ ۝ 54
(38) हर शख़्स अपने कस्ब के बदले रेह्न है,
إِلَّآ أَصۡحَٰبَ ٱلۡيَمِينِ ۝ 55
(39) दाएँ बाज़ूवालों के सिवा,