29. अल-अन्कबूत
(मवका में उतरी-आयातें 69)
परिचय
नाम
आयत 41 में आए शब्द 'जिन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर दूसरे संरक्षक बना लिए है उनकी मिसाल मकड़ी (अन्कबूत) जैसी है' से लिया गया है। अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अन्कबूत' आया है।
उतरने का समय
आयत 56 से 60 तक साफ़ मालूम होता है कि यह सूरा हबशा की हिजरत से कुछ पहले उतरी थी। शेष विषयों की आन्तरिक गवाही भी इसी की पुष्टि करती है, क्योंकि पृष्ठभूमि में उसी समय के हालात झलकते नज़र आते हैं।
विषय और वार्ताएँ
सूरा को पढ़ते हुए महसूस होता है कि इसके उतरने का समय मक्का मुअज़्ज़मा में मुसलमानों पर बड़ी मुसीबतों और परेशानियों का समय था। [उस समय] अल्लाह ने यह सूरा एक ओर सच्चे ईमानवाले लोगों में संकल्प, हौसला और धैर्य पैदा करने के लिए और दूसरी ओर कमज़ोर ईमानवाले लोगों को शर्म दिलाने के लिए उतारी। इसके साथ मक्का के विधर्मियों को भी इसमें (सत्य-विरोध के अंजाम के बारे में) कठोर धमकी दी गई है। इस सिलसिले में उन सवालों का जवाब भी दिया गया है जिनका कुछ मुस्लिम नौजवानों को उस समय सामना करना पड़ रहा था। जैसे उनके माँ-बाप उनपर ज़ोर डालते थे कि हमारे दीन पर क़ायम रहो। जिस क़ुरआन पर तुम ईमान लाए हो, उसमें भी तो यही लिखा है कि माँ-बाप का हक़ सबसे ज़्यादा है, तो जो कुछ हम कहते हैं उसे मानो, वरना स्वयं अपने ही ईमान के विरुद्ध काम करोगे। इसका उत्तर आयत 8 में दिया गया है। इसी तरह कुछ नव-मुस्लिमों से उनके क़बीले के लोग कहते थे कि अज़ाब-सवाब हमारी गर्दन पर, तुम हमारा कहना मानो और इस आदमी से अलग हो जाओ। [अल्लाह के यहाँ इसके उत्तरदायी हम होंगे।] इसका जवाब आयत 12-13 में दिया गया है। जो क़िस्से इस सूरा में बयान किए गए हैं उनमें भी अधिकतर यही पहलू उभरा हुआ है कि पिछले नबियों को देखो, कैसी-कैसी सख़्तियाँ उनपर गुज़रीं और कितनी-कितनी मुद्दत वे सताए गए। फिर अन्तत: अल्लाह की ओर से उनकी मदद हुई, इसलिए घबराओ नहीं, अल्लाह की मदद ज़रूर आएगी, मगर आज़माइश का एक दौर गुज़रना बहुत ज़रूरी है। फिर मुसलमानों को निर्देश दिया गया कि अगर ज़ुल्मो-सितम तुम्हारे लिए असह्य हो जाए, तो ईमान छोड़ने के बजाय घर-बार छोड़कर निकल जाओ। अल्लाह की ज़मीन बहुत बड़ी है। जहाँ अल्लाह की बन्दगी कर सको, वहाँ चले जाओ। इन सब बातों के साथ विधर्मियों को समझाने का पहलू भी छूटने नहीं पाया है, बल्कि तौहीद और आख़िरत दोनों सच्चाइयों को प्रमाणों के साथ उनके मन में बिठाने की कोशिश की गई है।
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إِنَّمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡثَٰنٗا وَتَخۡلُقُونَ إِفۡكًاۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَمۡلِكُونَ لَكُمۡ رِزۡقٗا فَٱبۡتَغُواْ عِندَ ٱللَّهِ ٱلرِّزۡقَ وَٱعۡبُدُوهُ وَٱشۡكُرُواْ لَهُۥٓۖ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ 4
(17) तुम अल्लाह को छोड़कर जिन्हें पूज रहे हो वे तो सिर्फ़ बुत हैं और तुम एक झूठ गढ़ रहे हो। दर-हक़ीक़त अल्लाह के सिवा जिनकी तुम पूजा करते हो वे तुम्हें कोई रिज़्क़ भी देने का इख़्तियार नहीं रखते। अल्लाह से रिज़्क़ माँगो और उसी की बन्दगी करो और उसका शुक्र अदा करो, उसी की तरफ़ तुम पलटाए जानेवाले हो।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَلِقَآئِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ يَئِسُواْ مِن رَّحۡمَتِي وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ 10
(23) जिन लोगों ने अल्लाह की आयात का और उससे मुलाक़ात का इनकार किया है वे मेरी रहमत से मायूस हो चुके हैं7 और उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
7. यानी उनका कोई हिस्सा मेरी रहमत में नहीं है। उनके लिए कोई गुंजाइश इस अम्र की नहीं है कि वे मेरी रहमत में से हिस्सा पाने की उम्मीद रख सकें। और जब उन्होंने आख़िरत ही का इनकार कर दिया और यह तसलीम ही न किया कि उन्हें कभी अल्लाह के हुज़ूर पेश होना है तो इसका मतलब यह है कि उन्होंने ख़ुदा की बख़्शिश व मग़फ़िरत के साथ उम्मीद का कोई रिश्तए-उम्मीद सिरे से वाबस्ता ही नहीं किया है।
وَقَالَ إِنَّمَا ٱتَّخَذۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡثَٰنٗا مَّوَدَّةَ بَيۡنِكُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ ثُمَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكۡفُرُ بَعۡضُكُم بِبَعۡضٖ وَيَلۡعَنُ بَعۡضُكُم بَعۡضٗا وَمَأۡوَىٰكُمُ ٱلنَّارُ وَمَا لَكُم مِّن نَّٰصِرِينَ 12
(25) और उसने कहा, “तुमने दुनिया की ज़िन्दगी में तो अल्लाह को छोड़कर बुतों को अपने दरमियान मुहब्बत का ज़रिआ बना लिया है8 मगर क़ियामत के रोज़ तुम एक-दूसरे का इनकार और एक-दूसरे पर लानत करोगे और आग तुम्हारा ठिकाना होगी और कोई तुम्हारा मददगार न होगा।”
8. यानी तुमने ख़ुदा-परस्ती के बजाय बुत-परस्ती की बुनियाद पर अपनी इज्तिमाई ज़िन्दगी की तामीर कर ली है जो दुनियवी ज़िन्दगी की हद तक तुम्हारा क़ौमी शीराज़ा बाँध सकती है। इसलिए कि यहाँ किसी अक़ीदे पर भी लोग जमा हो सकते हैं ख़ाह हक़ हो या बातिल। और हर इत्तिफ़ाक़ व इज्तिमाअ, चाहे वह कैसे ही ग़लत अक़ीदे पर हो, बाहम दोस्तियों, रिश्तेदारियों और दूसरे तमाम मज़हबी, मुआशरती व तमद्दुनी और मआशी व सियासी ताल्लुक़ात के क़ियाम का ज़रिआ बन सकता है।
أَئِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلرِّجَالَ وَتَقۡطَعُونَ ٱلسَّبِيلَ وَتَأۡتُونَ فِي نَادِيكُمُ ٱلۡمُنكَرَۖ فَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُواْ ٱئۡتِنَا بِعَذَابِ ٱللَّهِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ 16
(29) क्या तुम्हारा हाल यह है कि मर्दों के पास जाते हो, और रहज़नी करते हो और अपनी मजलिसों में बुरे काम करते हो?” फिर कोई जवाब उसकी क़ौम के पास इसके सिवा न था कि उन्होंने कहा, “ले आ अल्लाह का अज़ाब अगर तू सच्चा है।”
وَلَمَّا جَآءَتۡ رُسُلُنَآ إِبۡرَٰهِيمَ بِٱلۡبُشۡرَىٰ قَالُوٓاْ إِنَّا مُهۡلِكُوٓاْ أَهۡلِ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةِۖ إِنَّ أَهۡلَهَا كَانُواْ ظَٰلِمِينَ 18
(31) और जब हमारे फ़रिस्तादे इबराहीम के पास बशारत लेकर पहुँचे तो उन्होंने उससे कहा, “हम इस बस्ती के लोगों को हलाक करनेवाले हैं,9 इसके लोग सख़्त ज़ालिम हो चुके हैं।”
9. ‘इस बस्ती’ का इशारा क़ौमे-लूत के इलाक़े की तरफ़ था। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) उस वक़्त फ़िलस्तीन के शहर हबरून (मौजूदा अल-ख़लील) में रहते थे। इस शहर के जुनूब मशरिक़ में कुछ ही मील के फ़ासले पर बुहैरए-मुर्दार का वह हिस्सा वाक़े है जहाँ पहले क़ौमे-लूत आबाद थी और अब जिसपर बुहैरे का पानी फैला हुआ है। यह इलाक़ा नशेब में वाक़े है और हबरून की बलन्द पहाड़ियों पर से साफ़ नज़र आता है। इसी लिए फ़रिश्तों ने उसकी तरफ़ इशारा करके हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से अर्ज़ किया कि “हम इस बस्ती को हलाक करनेवाले हैं।"
قَالَ إِنَّ فِيهَا لُوطٗاۚ قَالُواْ نَحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَن فِيهَاۖ لَنُنَجِّيَنَّهُۥ وَأَهۡلَهُۥٓ إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ 19
(32) इबराहीम ने कहा, “वहाँ तो लूत मौजूद है।”उन्होंने कहा, “हम ख़ूब जानते हैं कि वहाँ कौन-कौन है। हम उसे, उसकी बीवी के सिवा, उसके बाक़ी सब घरवालों को बचा लेंगे।” उसकी बीवी पीछे रह जानेवालों में से थी।
وَلَمَّآ أَن جَآءَتۡ رُسُلُنَا لُوطٗا سِيٓءَ بِهِمۡ وَضَاقَ بِهِمۡ ذَرۡعٗاۖ وَقَالُواْ لَا تَخَفۡ وَلَا تَحۡزَنۡ إِنَّا مُنَجُّوكَ وَأَهۡلَكَ إِلَّا ٱمۡرَأَتَكَ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ 20
(33) फिर जब हमारे फ़रिस्तादे लूत के पास पहुँचे तो उनके आने पर वह सख़्त परेशान और दिल-तंग हुआ। उन्होंने कहा, “न डरो और न रंज करो। हम तुम्हें और तुम्हारे घरवालों को बचा लेंगे, सिवाय तुम्हारी बीवी के जो पीछे रह जानेवालों में से है।
وَلَقَد تَّرَكۡنَا مِنۡهَآ ءَايَةَۢ بَيِّنَةٗ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ 22
(35) और हमने उस बस्ती की एक खुली निशानी छोड़ दी है10 उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
10. इस खुली निशानी से मुराद है बुहैरए-मुर्दार जिसे बहरे-लूत भी कहा जाता है। क़ुरआन मजीद में मुतअद्दिद मक़ामात पर कुफ़्फ़ारे-मक्का को ख़िताब करके कहा गया है कि इस ज़ालिम क़ौम पर इसके करतूतों की बदौलत जो अज़ाब आया था उसकी एक निशानी आज भी शाहराहे-आम पर मौजूद है जिसे तुम शाम की तरफ़ अपने तिजारती सफ़रों में जाते हुए शबो-रोज़ देखते हो।
فَكُلًّا أَخَذۡنَا بِذَنۢبِهِۦۖ فَمِنۡهُم مَّنۡ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِ حَاصِبٗا وَمِنۡهُم مَّنۡ أَخَذَتۡهُ ٱلصَّيۡحَةُ وَمِنۡهُم مَّنۡ خَسَفۡنَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ وَمِنۡهُم مَّنۡ أَغۡرَقۡنَاۚ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ 27
(40) आख़िरकार हर एक को हमने उसके गुनाह में पकड़ा, फिर उनमें से किसी पर हमने पथराव करनेवाली हवा भेजी, और किसी को एक ज़बरदस्त धमाके ने आ लिया, और किसी को हमने ज़मीन में धँसा दिया, और किसी को ग़र्क़ कर दिया। अल्लाह उनपर ज़ुल्म करनेवाला न था, मगर वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म कर रहे थे।
ٱتۡلُ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَۖ إِنَّ ٱلصَّلَوٰةَ تَنۡهَىٰ عَنِ ٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِۗ وَلَذِكۡرُ ٱللَّهِ أَكۡبَرُۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تَصۡنَعُونَ 32
(45) (ऐ नबी) तिलावत करो उस किताब की जो तुम्हारी तरफ़ वह्य के ज़रिए से भेजी गई है और नमाज़ क़ायम करो, यक़ीनन नमाज़ फ़ुह्श और बुरे कामों से रोकती है और अल्लाह का ज़िक्र इससे भी ज़्यादा बड़ी चीज़ है।11 अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो।
11. मतलब यह है कि फ़ुह्श कामों से रोकना तो एक छोटी चीज़़ है, अल्लाह के ज़िक्र, यानी नमाज़ की बरकतें उससे बहुत बढ़कर हैं।
۞وَلَا تُجَٰدِلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ إِلَّا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡۖ وَقُولُوٓاْ ءَامَنَّا بِٱلَّذِيٓ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَأُنزِلَ إِلَيۡكُمۡ وَإِلَٰهُنَا وَإِلَٰهُكُمۡ وَٰحِدٞ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ 33
(46) और अहले-किताब से बहस न करो मगर उम्दा तरीक़े से — सिवाय उन लोगों के जो उनमें से ज़ालिम हों12 —और उनसे कहो कि “हम ईमान लाए हैं उस चीज़ पर भी जो हमारी तरफ़ भेजी गई है और उस चीज़ पर भी जो तुम्हारी तरफ़ भेजी गई थी, हमारा ख़ुदा और तुम्हारा ख़ुदा एक ही है और हम उसी के मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हैं।”
12. यानी जो लोग ज़ुल्म का रवैया अपनाएँ उनके साथ उनके ज़ुल्म की नौइयत के लिहाज़ से मुख़्तलिफ़ रवैया भी इख़्तियार किया जा सकता है। मतलब यह है कि हर वक़्त, हर हाल में और हर तरह के लोगों के मुक़ाबले में नर्म व शीरीं ही न बने रहना चाहिए कि दुनिया दाई-ए-हक़ कीशराफ़त को आजिज़ी व मिस्कीनी समझ बैठे। इस्लाम अपने पैरुओं को शाइस्तगी, शराफ़त और माक़ूलियत तो ज़रूर सिखाता है मगर आजिज़ी व मिस्कीनी नहीं सिखाता कि वे हर ज़ालिम के लिए नर्म चारा बनकर रहें।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَۚ فَٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۖ وَمِنۡ هَٰٓؤُلَآءِ مَن يُؤۡمِنُ بِهِۦۚ وَمَا يَجۡحَدُ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَّا ٱلۡكَٰفِرُونَ 34
(47) (ऐ नबी) हमने इसी तरह तुम्हारी तरफ़ किताब नाज़िल की है,13 इसलिए वे लोग जिनको हमने पहले किताब दी थी, वे इसपर ईमान लाते हैं,14 और इन लोगों में से भी बहुत-से इसपर ईमान ला रहे हैं,15 और हमारी आयात का इनकार सिर्फ़ काफ़ि ही करते हैं।
13. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि जिस तरह पहले अम्बिया (अलैहि०) पर हमने किताबें नाज़िल की थीं उसी तरह अब यह किताब तुमपर नाज़िल की है। दूसरा यह कि हमने उसी तालीम के साथ यह किताब नाज़िल की है कि हमारी पिछली किताबों का इनकार करके नहीं, बल्कि उन सबका इक़रार करते हुए इसे माना जाए।
14. सियाक़ व सबाक़ ख़ुद बता रहा है कि इससे मुराद तमाम अहले-किताब नहीं हैं, बल्कि वे अहले-किताब हैं जिनको कुतुबे-इलाहिया का सही इल्म व फ़हम नसीब हुआ था, जो हक़ीक़ी मानी में किताबवाले थे।
15. ‘इन लोगों’ का इशारा अहले-अरब की तरफ़ है। मतलब यह है कि हक़-पसन्द लोग हर जगह इसपर ईमान ला रहे हैं ख़ाह वे अहले-किताब में से हों या ग़ैर-अहले-किताब में से।
بَلۡ هُوَ ءَايَٰتُۢ بَيِّنَٰتٞ فِي صُدُورِ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَۚ وَمَا يَجۡحَدُ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَّا ٱلظَّٰلِمُونَ 36
(49) दरअस्ल ये रौशन निशानियाँ हैं उन लोगों के दिलों में जिन्हें इल्म बख़्शा गया है,16 और हमारी आयात का इनकार नहीं करते मगर वे जो ज़ालिम हैं।
16. यानी एक उम्मी का क़ुरआन जैसी किताब पेश करना और अचानक उन ग़ैर-मामूली कमालात का मुज़ाहरा करना जिनके लिए किसी साबिक़ा तैयारी के आसार कभी किसी के मुशाहदे में नहीं आए, यही दानिश व बीनिश रखनेवालों की निगाह में उसकी पैग़म्बरी पर दलालत करनेवाली रौशनतरीन निशानियाँ हैं।
يَٰعِبَادِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ أَرۡضِي وَٰسِعَةٞ فَإِيَّٰيَ فَٱعۡبُدُونِ 43
(56) ऐ मेरे बन्दो जो ईमान लाए हो, मेरी ज़मीन वसीअ है, पस तुम मेरी ही बन्दगी बजा लाओ।17
17. यह इशारा है 'हिजरत' की तरफ़। मतलब यह है कि अगर मक्का में ख़ुदा की बन्दगी करनी मुशकिल हो रही है तो मुल्क छोड़कर निकल जाओ, अल्लाह की ज़मीन तंग नहीं है। जहाँ भी तुम ख़ुदा के बन्दे बनकर रह सकते हो वहाँ चले जाओ।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ 48
(61) अगर तुम18 इन लोगों से पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है और चाँद और सूरज को किसने मुसख़्ख़र कर रखा है तो ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ने, फिर ये किधर से धोखा खा रहे हैं?
18. यहाँ से फिर कलाम का रुख़ कुफ़्फ़ारे-मक्का की तरफ़ मुड़ता है।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّن نَّزَّلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِ مَوۡتِهَا لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۚ قُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ 50
(63) और अगर तुम इनसे पूछो कि किसने आसमान से पानी बरसाया और उसके ज़रिए से मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को जिला उठाया तो वे ज़रूर कहेंगे अल्लाह ने। कहो, “अल-हम्दुलिल्लाह”19 मगर इनमें से अकसर लोग समझते नहीं हैं।
19. इस मक़ाम पर 'अलहम्दु लिल्लाह' का शब्द दो मानी दे रहा है। एक यह कि जब ये सारे काम अल्लाह के हैं तो हम्द का मुस्तहिक़ भी सिर्फ़ वही है, दूसरों को हम्द का इस्तिहक़ाक़ कहाँ से पहुँच गया? दूसरे यह कि ख़ुदा का शुक्र है, इस बात का एतिराफ़ तुम ख़ुद भी करते हो।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا جَعَلۡنَا حَرَمًا ءَامِنٗا وَيُتَخَطَّفُ ٱلنَّاسُ مِنۡ حَوۡلِهِمۡۚ أَفَبِٱلۡبَٰطِلِ يُؤۡمِنُونَ وَبِنِعۡمَةِ ٱللَّهِ يَكۡفُرُونَ 54
(67) क्या ये देखते नहीं हैं कि हमने एक पुर-अम्न हरम बना दिया है, हालाँकि इनके गिर्दो-पेश लोग उचक लिए जाते हैं?20 क्या फिर भी ये लोग बातिल को मानते हैं और अल्लाह की नेमत का कुफ़्रान करते हैं?
20. यानी क्या इनके शहर मक्का को, जिसके दामन में इन्हें कमाल दर्जे का अम्न मुयस्सर है, किसी लात या हुबल ने हरम बनाया है? क्या किसी देवता या देवी की यह क़ुदरत थी कि ढाई हज़ार साल से अरब की इन्तिहाई बदअम्नी के माहौल में इस जगह को तमाम फ़ितनों और फ़सादों से महफ़ूज़ रखता? उसकी हुरमत को बरक़रार रखनेवाले हम न थे तो और कौन था?
وَٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ فِينَا لَنَهۡدِيَنَّهُمۡ سُبُلَنَاۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَمَعَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ 56
(69) जो लोग हमारी ख़ातिर मुजाहदा करेंगे उन्हें हम अपने रास्ते दिखाएँगे21 और यक़ीनन अल्लाह नेकूकारों ही के साथ है।
21. मतलब यह है कि जो लोग अल्लाह की राह में इख़्लास के साथ दुनिया भर से कश्मकश का ख़तरा मोल ले लेते हैं उन्हें अल्लाह तआला उनके हाल पर नहीं छोड़ देता, बल्कि वह उनकी दस्तगीरी और रहनुमाई फ़रमाता है और अपनी तरफ़ आने की राहें उनके लिए खोल देता है। वह क़दम-क़दम पर उन्हें बताता है कि हमारी ख़ुशनूदी तुम किस तरह हासिल कर सकते हो। हर-हर मोड़ पर उन्हें रौशनी दिखाता है कि राहे-रास्त किधर है और ग़लत रास्ते कौन-से हैं। जितनी नेक-नीयती और ख़ैर-तलबी उनमें होती है उतनी ही अल्लाह की मदद और तौफ़ीक़ और हिदायत भी उनके साथ रहती है।
وَمَن جَٰهَدَ فَإِنَّمَا يُجَٰهِدُ لِنَفۡسِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَغَنِيٌّ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ 61
(6) जो शख़्स भी मुजाहदा करेगा अपने ही भले के लिए करेगा,2 अल्लाह यक़ीनन दुनिया-जहानवालों से बेनियाज़ है।3
2. मुजाहदा से मुराद है कुफ़्फ़ार के मुक़ाबले में दीने-हक़ का उलम बलन्द करने और रखने के लिए जान लड़ाना।
3. यानी अल्लाह इस मुजाहदे की यह माँग तुमसे इसलिए नहीं कर रहा है कि उसकी अपनी कोई ज़रूरत मआज़ल्लाह इससे अटकी हुई है, बल्कि यह तुम्हारी अपनी अख़लाक़ी और रूहानी तरक़्क़ी का ज़रिआ है।
وَوَصَّيۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ بِوَٰلِدَيۡهِ حُسۡنٗاۖ وَإِن جَٰهَدَاكَ لِتُشۡرِكَ بِي مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٞ فَلَا تُطِعۡهُمَآۚ إِلَيَّ مَرۡجِعُكُمۡ فَأُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ 63
(8) हमने इनसान को ताकीद की कि अपने वालिदैन के साथ नेक सुलूक करे। लेकिन अगर वे तुझपर दबाव डालें कि तू मेरे साथ किसी ऐसे (माबूद) को शरीक ठहराए जिसे तू (मेरे शरीक की हैसियत से) नहीं जानता तो उनकी इताअत न कर।4 मेरी ही तरफ़ तुम सबको पलटकर आना है, फिर मैं तुमको बता दूँगा कि तुम क्या करते रहे हो।
4. जो नौजवान मक्का में ईमान लाए थे, उनके माँ-बाप उनपर दबाव डाल रहे थे कि वे ईमान से बाज़ आ जाएँ। इसपर कहा गया कि वालिदैन के हुक़ूक़ अपनी जगह पर, मगर उनको यह हक़ नहीं है कि ख़ुदा के रास्ते से औलाद को रोकें।
وَلَيَحۡمِلُنَّ أَثۡقَالَهُمۡ وَأَثۡقَالٗا مَّعَ أَثۡقَالِهِمۡۖ وَلَيُسۡـَٔلُنَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَمَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ 68
(13) हाँ ज़रूर वे अपने बोझ भी उठाएँगे और अपने बोझों के साथ दूसरे बहुत-से बोझ भी।5 और क़ियामत के दिन यक़ीनन उनसे इन इफ़्तिरा-परदाज़ियों की बाज़पुर्स होगी जो वे करते रहे हैं।
5. यानी एक बोझ ख़ुद गुमराह होने का और दूसरे बोझ दूसरों को गुमराह करने या गुमराही पर मजबूर करने के।