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سُورَةُ السَّجۡدَةِ

32. अस-सजदा

(मक्का में उतरी, आयतें 30)

 

परिचय

नाम

आयत 15 में सजदे का जो उल्लेख हुआ है, उसी को सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

वर्णनशैली से ऐसा लगता है कि इसके उतरने का समय मक्का का मध्यकाल है और उसका भी आरंभिक काल [जब मक्का के इस्लाम-विरोधियों के अत्याचारों में अभी शिद्दत पैदा नहीं हुई थी] ।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय तौहीद (एकेश्वरवाद), आख़िरत (परलोकवाद) और रिसालत (ईशदूतत्व) के बारे में लोगों के सन्देहों को दूर करना और इन तीनों सच्चाइयों पर ईमान लाने की दावत देना है। [सत्य की दावत की इन तीनों बुनियादी बातों पर मक्का के इस्लाम-विरोधियों की आपत्तियों का जवाब देते हुए सबसे पहले उनसे] यह कहा गया है कि निस्सन्देह यह अल्लाह की वाणी है और इसलिए उतारी गई है कि नुबूवत की बरकत से वंचित, ग़फ़लत में पड़ी हुई एक क़ौम को चौंकाया जाए। इसे तुम झूठ कैसे कह सकते हो, जबकि इसका अल्लाह की ओर से उतारा जाना पूरी तरह स्पष्ट है। फिर उनसे कहा गया है कि यह कुरआन जिन सच्चाइयों को तुम्हारे सामने पेश करता है, बुद्धि से काम लेकर ख़ुद सोचो कि इनमें क्या चीज़ अचंभे की है। आसमान और ज़मीन के प्रबन्ध को देखो, स्वयं अपनी पैदाइश और बनावट पर विचार करो, क्या यह सब कुछ क़ुरआनी शिक्षाओं के सच्चे होने पर गवाह नहीं है। फिर आख़िरत की दुनिया का एक चित्र खींचा गया है और ईमान के सुख़द फल और कुफ़्र (इनकार) के कुपरिणामों को बयान करके इस बात पर उभारा गया है कि लोग बुरा अंजाम सामने आने से पहले कुफ़्र छोड़ दें और क़ुरआन की इस शिक्षा को स्वीकार कर लें। फिर उनको बताया गया है कि यह अल्लाह की बड़ी रहमत है कि वह इंसान के कु़सूरों पर यकायक अन्तिम और निर्णायक अज़ाब में उसे नहीं पकड़ लेता, बल्कि उससे पहले हल्की-हल्की चोटें लगाता रहता है, ताकि उसे चेतावनी हो और उसकी आँखें खुल जाएँ। फिर कहा कि दुनिया में किताब उतरने की यह कोई पहली और अनोखी घटना तो नहीं है, इससे पहले आख़िर मूसा (अलैहिस्सलाम) पर भी तो किताब आई थी जिसे तुम सब लोग जानते हो। विश्वास करो कि यह किताब अल्लाह ही की ओर से आई है और खू़ब समझ लो कि अब फिर वही कुछ होगा जो मूसा के समय में हो चुका है। पेशवाई और नेतृत्त्व अब उन्हीं के हिस्से में आएगा जो अल्लाह की इस किताब को मान लेंगे। इसे रद्द कर देनेवाले के लिए नाकामी मुक़द्दर हो चुकी है। फिर मक्का के इस्लाम विरोधियों से कहा गया है कि अपनी व्यापारिक यात्राओं के दौरान में तुम जिन पिछली तबाह हुई क़ौमों की बस्तियों पर से गुजरते हो, उनका अंजाम देख लो। क्या यही अंजाम तुम अपने लिए पसन्द करते हो? प्रत्यक्ष से धोखा न खा जाओ।आज [ईमानवाले जिन हालात से दोचार हैं, उन्हें देखकर] तुम यह समझ बैठे हो कि यह चलनेवाली बात नहीं है, लेकिन यह केवल तुम्हारी निगाह का धोखा है। क्या तुम रात-दिन यह देखते नहीं रहते कि आज एक भू-भाग बिल्कुल सूखा मुर्दा पड़ा हुआ है, मगर कल एक ही बारिश में वह भू-भाग इस तरह फबक उठता है कि उसके चप्पे-चप्पे से विकास की शक्तियाँ उभरनी शुरू हो जाती हैं। अन्त में नबी (सल्ल.) को सम्बोधित करके कहा गया है कि ये लोग [तुम्हारे मुँह से फै़सले के दिन की बात] सुनकर उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं । इनसे कहो कि जब हमारे और तुम्हारे फ़ैसले का समय आ जाएगा, उस समय मानना तुम्हारे लिए कुछ भी लाभप्रद न होगा। मानना है तो अभी मान लो।

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سُورَةُ السَّجۡدَةِ
32. अस-सजदा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़० लाम० मीम०।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ لَا رَيۡبَ فِيهِ مِن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 1
(2) इस किताब की तंज़ील बिला शुब्हा रब्बुल-आलमीन की तरफ़ से है।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۚ بَلۡ هُوَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أَتَىٰهُم مِّن نَّذِيرٖ مِّن قَبۡلِكَ لَعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 2
(3) क्या ये लोग कहते हैं कि इस शख़्स ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है? नहीं, बल्कि यह हक़ है तेरे रब की तरफ़ से ताकि तू मुतनब्बेह करे एक ऐसी क़ौम को जिसके पास तुझसे पहले कोई मुतनब्बेह करनेवाला नहीं आया, शायद के वे हिदायत पा जाएँ।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ مَا لَكُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَلِيّٖ وَلَا شَفِيعٍۚ أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ ۝ 3
(4) वह अल्लाह ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को और उन सारी चीज़ों को जो उनके बीच हैं छः दिनों में पैदा किया और इसके बाद अर्श पर जलवा-फ़रमा हुआ, उसके सिवा न तुम्हारा कोई हामी व मददगार है और न कोई उसके आगे सिफ़ारिश करनेवाला, फिर क्या तुम होश में न आओगे?
يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ثُمَّ يَعۡرُجُ إِلَيۡهِ فِي يَوۡمٖ كَانَ مِقۡدَارُهُۥٓ أَلۡفَ سَنَةٖ مِّمَّا تَعُدُّونَ ۝ 4
(5) वह आसमान से ज़मीन तक दुनिया के मामलों का संचालन करता है। और इस संचालन का ब्योरा ऊपर उसके पास जाता है एक ऐसे दिन में जिसकी माप तुम्हारी गणना से एक हज़ार वर्ष1 है।
1. यानी तुम्हारे नज़दीक जो एक हज़ार बरस की तारीख़ है वह अल्लाह तआला के हाँ गोया एक दिन का काम है, जिसकी स्कीम आज कारकुनाने-क़ज़ा व क़दर के सिपुर्द की जाती है और कल वे उसकी रूदाद उसके हुज़ूर पेश करते हैं ताकि दूसरे दिन (यानी तुम्हारे हिसाब से एक हज़ार बरस) का काम उनके सिपुर्द किया जाए।
ذَٰلِكَ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 5
(6) वही है हर पोशीदा और ज़ाहिर का जाननेवाला, ज़बरदस्त और रहीम।
ٱلَّذِيٓ أَحۡسَنَ كُلَّ شَيۡءٍ خَلَقَهُۥۖ وَبَدَأَ خَلۡقَ ٱلۡإِنسَٰنِ مِن طِينٖ ۝ 6
(7) जो चीज़ भी उसने बनाई ख़ूब ही बनाई। उसने इनसान की तख़लीक़ की इबतिदा गारे से की,
ثُمَّ جَعَلَ نَسۡلَهُۥ مِن سُلَٰلَةٖ مِّن مَّآءٖ مَّهِينٖ ۝ 7
(8) फिर उसकी नस्ल एक ऐसे सत् से चलाई जो हक़ीर पानी की तरह का है,
ثُمَّ سَوَّىٰهُ وَنَفَخَ فِيهِ مِن رُّوحِهِۦۖ وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَۚ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 8
(9) फिर उसको निक-सुक से दुरुस्त किया और उसके अन्दर अपनी रूह फूँक दी, और तुमको कान दिए, आँखें दीं और दिल दिए। तुम लोग कम ही शुक्रगुज़ार होते हो।
وَقَالُوٓاْ أَءِذَا ضَلَلۡنَا فِي ٱلۡأَرۡضِ أَءِنَّا لَفِي خَلۡقٖ جَدِيدِۭۚ بَلۡ هُم بِلِقَآءِ رَبِّهِمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 9
(10) और ये लोग कहते हैं, “जब हम मिट्टी में रल-मिल चुके होंगे तो क्या हम फिर नए सिरे से पैदा किए जाएँगे?” अस्ल बात यह है कि ये अपने रब की मुलाक़ात के मुनकिर हैं।
۞قُلۡ يَتَوَفَّىٰكُم مَّلَكُ ٱلۡمَوۡتِ ٱلَّذِي وُكِّلَ بِكُمۡ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُمۡ تُرۡجَعُونَ ۝ 10
(11) इनसे कहो, “मौत का वह फ़रिश्ता जो तुमपर मुक़र्रर किया गया है, तुमको पूरा-का-पूरा अपने क़ब्ज़े में ले लेगा और फिर तुम अपने रब की तरफ़ पलटा लाए जाओगे।”
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلۡمُجۡرِمُونَ نَاكِسُواْ رُءُوسِهِمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ رَبَّنَآ أَبۡصَرۡنَا وَسَمِعۡنَا فَٱرۡجِعۡنَا نَعۡمَلۡ صَٰلِحًا إِنَّا مُوقِنُونَ ۝ 11
(12) काश, तुम देखो वह वक़्त जब ये मुजरिम सिर झुकाए अपने रब के हुज़ूर खड़े होंगे! (उस वक़्त ये कह रहे होंगे,) “ऐ हमारे रब, हमने ख़ूब देख लिया और सुन लिया, अब हमें वापस भेज दे, ताकि हम नेक अमल करें, हमें अब यक़ीन आ गया है।”
وَلَوۡ شِئۡنَا لَأٓتَيۡنَا كُلَّ نَفۡسٍ هُدَىٰهَا وَلَٰكِنۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ مِنِّي لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ ٱلۡجِنَّةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 12
(13) (जवाब में इरशाद होगा,) “अगर हम चाहते तो पहले ही हर नफ़्स को उसकी हिदायत दे देते। मगर मेरी वह बात पूरी हो गई जो मैंने कही थी कि मैं जहन्नम को, जिन्नों और इनसानों, सबसे भर दूँगा।
فَذُوقُواْ بِمَا نَسِيتُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَآ إِنَّا نَسِينَٰكُمۡۖ وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡخُلۡدِ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 13
(14) पस अब चखो मज़ा अपनी इस हरकत का कि तुमने इस दिन की मुलाक़ात को फ़रामोश कर दिया, हमने भी अब तुम्हें फ़रामोश कर दिया है। चखो हमेशा रहनेवाले अज़ाब का मज़ा अपना करतूतों की पादाश में।”
إِنَّمَا يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِّرُواْ بِهَا خَرُّواْۤ سُجَّدٗاۤ وَسَبَّحُواْ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ۩ ۝ 14
(15) हमारी आयात पर तो वे लोग ईमान लाते हैं जिन्हें ये आयात सुनाकर जब नसीहत की जाती है तो सजदे में गिर पड़ते हैं और अपने रब की हम्द के साथ उसकी तसबीह करते हैं और तकब्बुर नहीं करते।
تَتَجَافَىٰ جُنُوبُهُمۡ عَنِ ٱلۡمَضَاجِعِ يَدۡعُونَ رَبَّهُمۡ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 15
(16) उनकी पीठें बिस्तरों से अलग रहती हैं, अपने रब को ख़ौफ़ और तमअ के साथ पुकारते हैं, और जो कुछ रिज़्क़ हमने उन्हें दिया है, उसमें से ख़र्च करते हैं।
فَلَا تَعۡلَمُ نَفۡسٞ مَّآ أُخۡفِيَ لَهُم مِّن قُرَّةِ أَعۡيُنٖ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 16
(17) फिर जैसा कुछ आँखों की ठण्डक का सामान उनके आमाल की जज़ा में उनके लिए छिपाकर रखा गया है, उसकी किसी मुतनफ़्फ़िस को ख़बर नहीं है।
أَفَمَن كَانَ مُؤۡمِنٗا كَمَن كَانَ فَاسِقٗاۚ لَّا يَسۡتَوُۥنَ ۝ 17
(18) भला कहीं यह हो सकता है कि जो शख़्स मोमिन हो, वह उस शख़्स की तरह हो जाए जो फ़ासिक़ हो? ये दोनों बराबर नहीं हो सकते।
أَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَلَهُمۡ جَنَّٰتُ ٱلۡمَأۡوَىٰ نُزُلَۢا بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 18
(19) जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने नेक अमल किए हैं, उनके लिए तो जन्नतों की क़ियामगाहें हैं, ज़ियाफ़त के तौर पर उनके आमाल के बदले में।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ فَسَقُواْ فَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ كُلَّمَآ أَرَادُوٓاْ أَن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَآ أُعِيدُواْ فِيهَا وَقِيلَ لَهُمۡ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلنَّارِ ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تُكَذِّبُونَ ۝ 19
(20) और जिन्होंने फ़िस्क़ इख़्तियार किया है, उनका ठिकाना जहन्नम है। जब कभी वे उससे निकलना चाहेंगे, उसी में धकेल दिए जाएँगे और उनसे कहा जाएगा कि चखो अब उसी आग के अज़ाब का मज़ा जिसको तुम झुठलाया करते थे।
وَلَنُذِيقَنَّهُم مِّنَ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡأَدۡنَىٰ دُونَ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡأَكۡبَرِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 20
(21) उस बड़े अज़ाब से पहले हम इसी दुनिया में (किसी-न-किसी छोटे) अज़ाब का मज़ा इन्हें चखाते रहेंगे, शायद कि ये (अपनी बाग़ियाना रविश से) बाज़ आ जाएँ।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن ذُكِّرَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦ ثُمَّ أَعۡرَضَ عَنۡهَآۚ إِنَّا مِنَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ مُنتَقِمُونَ ۝ 21
(22) और उससे बड़ा ज़ालिम कौन होगा जिसे उसके रब की आयात के ज़रिए से नसीहत की जाए और फिर वह उनसे मुँह फेर ले। ऐसे मुजरिमों से तो हम इन्तिक़ाम लेकर रहेंगे।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ فَلَا تَكُن فِي مِرۡيَةٖ مِّن لِّقَآئِهِۦۖ وَجَعَلۡنَٰهُ هُدٗى لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 22
(23) इससे पहले हम मूसा को किताब दे चुके हैं, लिहाज़ा उसी चीज़ के मिलने पर तुम्हें कोई शक न होना चाहिए। उस किताब को हमने बनी-इसराईल के लिए हिदायत बनाया था,
وَجَعَلۡنَا مِنۡهُمۡ أَئِمَّةٗ يَهۡدُونَ بِأَمۡرِنَا لَمَّا صَبَرُواْۖ وَكَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يُوقِنُونَ ۝ 23
(24) और जब उन्होंने सब्र किया और हमारी आयात पर यक़ीन लाते रहे तो उनके अन्दर हमने ऐसे पेशवा पैदा किए जो हमारे हुक्म से रहनुमाई करते थे।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَفۡصِلُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 24
(25) यक़ीनन तेरा रब ही क़ियामत के दिन उन बातों का फ़ैसला करेगा जिनमें (बनी-इसराईल) बाहम इख़्तिलाफ़ करते रहे हैं।
أَوَلَمۡ يَهۡدِ لَهُمۡ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَبۡلِهِم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ يَمۡشُونَ فِي مَسَٰكِنِهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٍۚ أَفَلَا يَسۡمَعُونَ ۝ 25
(26) और क्या इन लोगों को (इन तारीख़ी वाक़िआत में) कोई हिदायत नहीं मिली कि इनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं, जिनके रहने की जगहों में आज ये चलते-फिरते हैं? इसमें बड़ी निशानियाँ हैं, क्या ये सुनते नहीं हैं?
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا نَسُوقُ ٱلۡمَآءَ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡجُرُزِ فَنُخۡرِجُ بِهِۦ زَرۡعٗا تَأۡكُلُ مِنۡهُ أَنۡعَٰمُهُمۡ وَأَنفُسُهُمۡۚ أَفَلَا يُبۡصِرُونَ ۝ 26
(27) और क्या इन लोगों ने यह मंज़र कभी नहीं देखा कि हम एक सूखी-बंजर ज़मीन की तरफ़ पानी बहा लाते हैं? और फिर उसी ज़मीन से वह फ़सल उगाते हैं जिससे इनके जानवरों को भी चारा मिलता है और ये ख़ुद भी खाते हैं? तो क्या इन्हें कुछ नहीं सूझता?
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡفَتۡحُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 27
(28) ये लोग कहते हैं कि “यह फ़ैसला कब होगा अगर तुम सच्चे हो?”
قُلۡ يَوۡمَ ٱلۡفَتۡحِ لَا يَنفَعُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِيمَٰنُهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 28
(29) इनसे कहो, “फ़ैसले के दिन ईमान लाना उन लोगों के लिए कुछ भी नाफ़े न होगा जिन्होंने कुफ़्र किया है और फिर उनको कोई मुहलत न मिलेगी।”
فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَٱنتَظِرۡ إِنَّهُم مُّنتَظِرُونَ ۝ 29
(30) अच्छा, इन्हें, इनके हाल पर छोड़ दो और इन्तिज़ार करो, ये भी इन्तिज़ार में हैं।