43. अज़-ज़ुख़रुफ़
(मक्का में उतरी, आयतें 89)
परिचय
नाम
आयत 35 के शब्द ‘वज़्ज़ुख़रुफ़न ' (चाँदी और सोने के) से लिया गया है। अर्थ यह है कि वह वह सूरा हैं जिसमें शब्द ‘ज़ुख़रुफ़' आया है।
उतरने का समय
इसकी वार्ताओं पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा भी उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-40 अल-मोमिन, सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा और सूरा-42 अश-शूरा उतरीं। [यह वह समय था,] जब मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल.) की जान के पीछे पड़े हुए थे।
विषय और वार्ता
इस सूरा में पूरे ज़ोर के साथ क़ुरैश और अरबवालों को उन अज्ञानतापूर्ण धारणाओं और अंधविश्वासों की आलोचना की गई है, जिनपर वे दुराग्रह किए चले जा रहे थे, और अत्यन्त दृढ़ और दिल में घर करनेवाले तरीक़े से उनके बुद्धिसंगत न होने को उजागर किया गया है। वार्ता का आरंभ इस तरह किया गया है कि तुम लोग अपनी दुष्टता के बल पर यह चाहते हो कि इस किताब का उतरना रोक दिया जाए, मगर अल्लाह ने कभी दुष्टताओं की वजह से नबियों को भेजना और किताबों को उतारना बन्द नहीं किया है, बल्कि उन ज़ालिमों को तबाह कर दिया है जो उसके मार्गदर्शन का रास्ता रोककर खड़े हुए थे। यही कुछ वह अब भी करेगा। इसके बाद बताया गया है कि वह धर्म क्या है जिसे ये लोग सीने से लगाए हुए हैं और वे प्रमाण क्या हैं जिनके बल-बूते पर ये मुहम्मद (सल्ल०) का मुक़ाबला कर रहे हैं। ये स्वयं मानते हैं कि ज़मीन और आसमान का और इनका अपना और इनके उपास्यों का पैदा करनेवाला [भी और इनको रोज़ी देनेवाला भी] अल्लाह ही है। फिर भी दूसरों को अल्लाह के साथ प्रभुत्व में साझी करने पर हठ किए चले जा रहे हैं। बन्दों को अल्लाह की सन्तान कहते हैं और [फ़रिश्तों के बारे में] कहते हैं कि ये अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनकी उपासना करते हैं। आख़िर इन्हें कैसे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते औरतें हैं ? इन अज्ञानतापूर्ण बातों पर टोका जाता है तो तक़दीर का बहाना बनाते हैं और कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे इस काम को पसन्द न करता तो हम कैसे इन बुतों की पूजा कर सकते थे, हालाँकि अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का माध्यम उसकी किताबें हैं, न कि वे काम जो दुनिया में उसकी मशीयत (उसकी दी हुई छूट) के अन्तर्गत हो रहे हैं। [अपने शिर्क का एक तर्क यह भी] देते हैं कि बाप-दादा से यह काम यों ही होता चला आ रहा है। मानो इनके नज़दीक किसी धर्म के सत्य होने के लिए यह पर्याप्त प्रमाण है, हालाँकि इबराहीम (अलैहि०) ने जिनकी सन्तान होने पर ही इनका सारा गर्व और इनकी विशिष्टता निर्भर करती है, ऐसे अंधे अनुसरण को रद्द कर दिया था, जिसका साथ कोई बुद्धिसंगत प्रमाण न देता हो। फिर अगर इन लोगों को पूर्वजों का अनुसरण ही करना था, तो इसके लिए भी अपने सबसे बड़े पूर्वज इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर इन्होंने अपने सबसे बड़े अज्ञानी पूर्वजों का चुनाव किया। मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी स्वीकार करने में इन्हें संकोच है तो इस कारण कि उनके पास माल-दौलत और राज्य और सत्ता तो है ही नहीं। कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे यहाँ किसी को नबी बनाना चाहता तो हमारे दोनों शहरों (मक्का और ताइफ़) के बड़े आदमियों में से किसी को बनाता। इसी कारण फ़िरऔन ने भी हज़रत मूसा (अलैहि०) को तुच्छ जाना था और कहा था कि आसमान का बादशाह अगर मुझ ज़मीन के बादशाह के पास कोई दूत भेजता तो उसे सोने के कंगन पहनाकर और फ़रिश्तों की एक फ़ौज उसकी अरदली में देकर भेजता। यह फ़क़ीर कहाँ से आ खड़ा हुआ। आख़िर में साफ़-साफ़ कहा गया है कि न अल्लाह की कोई सन्तान है, न आसमान और ज़मीन के प्रभु अलग-अलग हैं और न अल्लाह के यहाँ कोई ऐसा सिफ़ारिशी है जो जान बूझकर गुमराही अपनानेवालों को उसकी सज़ा से बचा सके।
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وَقَالُواْ لَوۡ شَآءَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مَا عَبَدۡنَٰهُمۗ مَّا لَهُم بِذَٰلِكَ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ 2
(20) ये कहते हैं, “अगर ख़ुदा-ए-रहमान चाहता (कि हम उनकी इबादत न करें) तो हम कभी उनको न पूजते।”4 ये इस मामले की हक़ीक़त को क़तई नहीं जानते, मह्ज़ तीर-तुक्के लड़ाते हैं।
4. यह अपनी गुमराही पर तक़दीर से उनका इस्तिदलाल था जो हमेशा से ग़लतकार लोगों का शेवा रहा है।
إِنَّا جَعَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ 6
(3) कि हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है ताकि तुम लोग इसे समझो।1
1. क़ुरआन मजीद की क़सम जिस बात पर खाई गई है वह यह है कि इस किताब के मुसन्निफ़ ‘हम’ है न कि मुहम्मद (सल्ल०)। और क़सम खाने के लिए क़ुरआन की जिस सिफ़त का इन्तिख़ाब किया गया है वह यह है कि यह ‘किताबे-मुबीन’ है। इस सिफ़त के साथ क़ुरआन के कलामे-इलाही होने पर ख़ुद क़ुरआन की क़सम खाना आप-से-आप यह मानी दे रहा है कि लोगो! यह खुली किताब तुम्हारे सामने मौजूद हैं, इसे आँखें खोलकर देखो, इसके मज़ामीन, इसकी तालीम, इसकी ज़बान, सारी चीज़ें इस हक़ीक़त की सरीह शहादत दे रही है कि इसका मुसन्निफ़ ख़ुदावन्दे-आलम के सिवा कोई दूसरा नहीं हो सकता।
وَإِنَّهُۥ فِيٓ أُمِّ ٱلۡكِتَٰبِ لَدَيۡنَا لَعَلِيٌّ حَكِيمٌ 9
(4) और दर-हक़ीक़त यह उम्मुल-किताब2 में सब्त है, हमारे यहाँ बड़ी बलन्द मर्तबा और हिकमत से लबरेज़ किताब।
2. ‘अमुल-किताब’ से मुराद है ‘अस्ल किताब’ यानी वह किताब जिससे तमाम अम्बिया (अलैहि०) पर नाज़िल होनेवाली किताबें माख़ूज़ हैं। इसी के लिए सरा-85 बुरूज में लौहे-महफ़ूज़ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं, यानी ऐसी लौह जिसका लिखा मिट नहीं सकता और जो हर क़िस्म की दरअंदाज़ी से महफ़ूज़ है।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا لَّعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ 15
(10) वही न जिसने तुम्हारे लिए इस ज़मीन को गहवारा बनाया और इसमें तुम्हारी ख़ातिर रास्ते बना दिए3 ताकि तुम अपनी मंज़िले-मक़सूद की राह पा सको।
3. पहाड़ों के बीच-बीच में दर्रे और फिर कोहिस्तानी और मैदानी इलाक़ों में दरिया वे क़ुदरती रास्ते हैं जो अल्लाह ने ज़मीन की पुश्त पर बना दिए हैं। इनसान उन्हीं की मदद से कुर्रए-ज़मीन पर फैला है। फिर अल्लाह ने मज़ीद फ़ज़्ल यह फ़रमाया कि तमाम रूए-ज़मीन को यकसाँ बनाकर नहीं रख दिया, बल्कि इसमें क़िस्म-क़िस्म के ऐसे इमतियाजी निशानात क़ायम कर दिए जिनकी मदद से इनसान मुख़्तलिफ़ इलाक़ों को पहचानता है और एक इलाक़े और दूसरे इलाक़े का फ़र्क़ महसूस करता है।
وَإِنَّهُۥ لَذِكۡرٞ لَّكَ وَلِقَوۡمِكَۖ وَسَوۡفَ تُسۡـَٔلُونَ 26
(44) हक़ीक़त यह है कि यह किताब तुम्हारे लिए और तुम्हारी क़ौम के लिए एक बहुत बड़ा शरफ़ है। और अन-क़रीब तुम लोगों को इसकी जवाबदेही करनी होगी।7
7. यानी उस शख़्स से बढ़कर किसी शख़्स की कोई ख़ुशक़िस्मती नहीं हो सकती कि तमाम इनसानों में से उसको अल्लाह अपनी किताब नाज़िल करने के लिए मुन्तख़ब करे, और किसी क़ौम के हक़ में भी इससे बड़ी ख़ुशक़िस्मती का तसव्वुर नहीं किया जा सकता कि दुनिया की दूसरी सब क़ौमों को छोड़कर अल्लाह तआला उसके वहाँ अपना नबी पैदा करे और उसकी ज़बान में अपनी किताब नाज़िल करे और उसे दुनिया में पैग़ामे-ख़ुदावन्दी की हामिल बनकर उठने का मौक़ा दे। इस शरफ़े-अज़ीम का एहसास अगर कुरैश और अहले-अरब को नहीं है और वे इसकी नाक़द्री करना चाहते हैं तो एक वक़्त आएगा जब इन्हें इसकी जवाबदेही करनी होगी।
وَسۡـَٔلۡ مَنۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رُّسُلِنَآ أَجَعَلۡنَا مِن دُونِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ءَالِهَةٗ يُعۡبَدُونَ 27
(45) तुमसे पहले हमने जितने रसूल भेजे थे उन सबसे पूछ देखो, क्या हमने ख़ुदा-ए-रहमान के सिवा कुछ दूसरे माबूद भी मुक़र्रर किए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?8
8. रसूलों से पूछने का मतलब उनकी लाई हुई किताबों से मालूम करना है।
وَقَالُوٓاْ ءَأَٰلِهَتُنَا خَيۡرٌ أَمۡ هُوَۚ مَا ضَرَبُوهُ لَكَ إِلَّا جَدَلَۢاۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٌ خَصِمُونَ 31
(58) और कहने लगे कि “हमारे माबूद अच्छे हैं या यह मिसाल वह”10 यह मिसाल वे तुम्हारे सामने मह्ज़ कजबहसी के लिए लाए हैं, हक़ीक़त यह है कि ये हैं ही झगड़ालू लोग।
10. इससे पहले आयत 45 में यह बात गुज़र चुकी है कि ‘तुमसे पहले जो रसूल हो गुज़रे हैं उन सबसे पूछ देखो, क्या हमने ख़ुदा-ए-रहमान के सिवा कुछ दूसरे माबूद भी मुक़र्रर किए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?’ यह तक़रीर जब अहले-मक्का के सामने हो रही थी तो एक शख़्स ने एतिराज़ जड़ दिया कि “क्यों साहब! ईसाई मरयम (अलैहि०) के बेटे को ख़ुदा का बेटा क़रार देकर उसकी इबादत करते हैं या नहीं? फिर हमारे माबूद क्या बुरे हैं!” यह मिसाल पेश होते ही कुफ़्फ़ार के मजमे से एक ज़ोर का क़हक़हा बलन्द हुआ और नारे लगने शुरू हो गए कि इसका क्या जवाब है?
وَإِنَّهُۥ لَعِلۡمٞ لِّلسَّاعَةِ فَلَا تَمۡتَرُنَّ بِهَا وَٱتَّبِعُونِۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ 39
(61) और वह (यानी इब्ने-मरयम) दरअस्ल क़ियामत की एक निशानी है, पस तुम उसमें शक न करो11 और मेरी बात मान लो, यही सीधा रास्ता है,
11. यह तर्जमा भी हो सकता है कि ‘वह क़ियामत के इल्म का एक ज़रिआ है।’ यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि आँजनाब को क़ियामत की निशानी या क़ियामत के इल्म का ज़रिआ किस मानी में फ़रमाया गया है? बहुत-से मुफ़स्सिरीन कहते हैं कि इससे मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) का नुज़ूले-सानी है जिसकी ख़बर बकसरत अहादीस में वारिद हुई है, लेकिन बाद की इबारत यह मानी लेने में मानेअ है। उनका दोबारा आना तो क़ियामत के इल्म का ज़रिआ सिर्फ़ उन लोगों के लिए बन सकता है जो उस ज़माने में मौजूद होंगे या उसके बाद पैदा हों। कुफ़्फ़ारे-मक्का के लिए आख़िर वह कैसे ज़रिआ-ए-इल्म क़रार पा सकता था कि उनको करके यह कहना सही होता कि “पस तुम इसमें शक न करो?” लिहाज़ा हमारे नज़दीक सही तफ़सीर वही है जो बाज़ दूसरे मुफ़स्सिरीन ने की है कि यहाँ हज़रत ईसा (अलैहि०) के बेबाप पैदा होने और उनके मिट्टी से परिन्दा बनाने और मुर्दे जिलाने को क़ियामत के इमकान की एक दलील क़रार दिया गया है, और इरशादे-ख़ुदावन्दी का मंशा यह है कि जो ख़ुदा बाप के बग़ैर बच्चा पैदा कर सकता है और जिस ख़ुदा का एक बन्दा मिट्टी के पुतले में जान डाल सकता और मुर्दों को ज़िन्दा कर सकता है उसके लिए आख़िर तुम इस बात को क्यों नामुमकिन समझते हो कि वह तुम्हें और तमाम इनसानों को मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा कर दे।
وَلَمَّا جَآءَ عِيسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ قَالَ قَدۡ جِئۡتُكُم بِٱلۡحِكۡمَةِ وَلِأُبَيِّنَ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي تَخۡتَلِفُونَ فِيهِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ 43
(63) और जब ईसा सरीह निशानियाँ लिए हुए आया था तो उसने कहा था कि “मैं तुम लोगों के पास हिकमत लेकर आया हूँ, और इसलिए आया हूँ कि तुमपर बाज़ उन बातों की हक़ीक़त खोल दूँ जिनमें तुम इख़्तिलाफ़ कर रहे हो, लिहाज़ा तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
وَنَادَوۡاْ يَٰمَٰلِكُ لِيَقۡضِ عَلَيۡنَا رَبُّكَۖ قَالَ إِنَّكُم مَّٰكِثُونَ 45
(77) वे पुकारेंगे, “ऐ मालिक!,14 तेरा रब हमारा काम ही तमाम कर दे तो अच्छा है।” वह जवाब देगा, “तुम यूँ ही पड़े रहोगे,
14. ‘मालिक’ से मुराद है जहन्नम का दारोग़ा जैसा कि फ़ह्वा-ए-कलाम से ख़ुल ज़ाहिर हो रहा है।
إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ 46
(64) हकीक़त यह है कि अल्लाह ही मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। उसी की तुम इबादत करो, यही सीधा रास्ता है।”12
12. यानी ईसाई ख़ाह कुछ करते और कहते रहें ईसा (अलैहि०) ने ख़ुद कभी यह नहीं कहा था कि मैं ख़ुदा हूँ या ख़ुदा का बेटा हूँ और तुम मेरी इबादत करो, बल्कि उनकी दावत वही थी जो दूसरे तमाम अम्बिया की दावत थी और अब जिसकी तरफ़ मुहम्मद (सल्ल०) तुमको बुला रहे हैं।
فَٱسۡتَخَفَّ قَوۡمَهُۥ فَأَطَاعُوهُۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ 47
(54) उसने अपनी क़ौम को हल्का समझा और उन्होंने उसकी इताअत की, दर-हक़ीक़त वे थे ही फ़ासिक़ लोग।9
9. इस मुख़्तसर से फ़िक़रे में एक बहुत बड़ी हक़ीक़त बयान की गई है। जब कोई शख़्स किसी मुल्क में अपनी मुत्लक़ुल-इनानी चलाने की कोशिश करता है और इसके लिए खुल्लम-खुल्ला हर तरह की चालें चलता है, हर फ़रेब और मक्र व दग़ा से काम लेता है, खुले बाज़ार में ज़मीरों की ख़रीद व फ़रोख़्त का कारोबार चलाता है और जो बिकते नहीं उन्हें बेदरेग़ कुचलता और रौंदता है, तो ख़ाह ज़बान से वह यह बात न कहे मगर अपने अमल से साफ़ ज़ाहिर कर देता है। वह दर-हक़ीक़त इस मुल्क के बाशिन्दों को अक़्ल और अख़लाक और मर्दानगी के लिहाज़ से हल्का समझता है, और उसने उनके मुताल्लिक़ यह राय क़ायम की है कि मैं इन बेवक़ूफ़, बेज़मीर और बुज़दिल लोगों को जिधर चाहूँ हाँककर ले जा सकता हूँ। फिर जब उसकी ये तदबीरें कामयाब हो जाती हैं और मुल्क के बाशिन्दे उसके दस्तबस्ता ग़ुलाम बन जाते हैं तो वे अपने अमल से साबित कर देते हैं कि उस ख़बीस ने जो कुछ उन्हें समझा था, वाक़ई वे वही कुछ है। और उनके इस ज़लील हालत में मुब्तला होने की अस्ल वजह यह होती है कि वे बुनियादी तौर पर ‘फ़ासिक़’ होते हैं।
فَٱخۡتَلَفَ ٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَيۡنِهِمۡۖ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمٍ أَلِيمٍ 48
(65) मगर (उसकी इस साफ़ तालीम के बावजूद) गरोहों ने आपस में इख़्तिलाफ़ किया,13 पस तबाही है उन लोगों के लिए जिन्होंने ज़ुल्म किया एक दर्दनाक दिन के अज़ाब से।
13. यानी एक गरोह ने उनका इनकार किया तो मुख़ालफ़त में इस हद तक पहुँच गया कि उनपर नाजाइज़ विलादत की तुहमत लगाई। दूसरे गरोह ने उनका इक़रार किया तो अक़ीदत में बेतहाशा ग़ुलू करके उनको ख़ुदा बना बैठा और फिर एक इनसान के अल्लाह होने का मसला उसके लिए ऐसी गुत्थी बना जिसे सुलझाते-सुलझाते उसमें बेशुमार फ़िरक़े बन गए।
وَلَا يَمۡلِكُ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِ ٱلشَّفَٰعَةَ إِلَّا مَن شَهِدَ بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ 71
(86) उसको छोड़कर ये लोग जिन्हें पुकारते हैं वे किसी शफ़ाअत का इख़्तियार नहीं रखते, इल्ला यह कि कोई इल्म की बिना पर हक़ की शहादत दे।17
17. यानी अगर कोई शख़्स यह कहता है कि उसने जिन हस्तियों को माबूद बना रख है वे लाज़िमन शफ़ाअत के इख़्तियारात रखती हैं और उन्हें अल्लाह तआला के यहाँ ऐसा ज़ोर हासिल है कि जिसे चाहें बख़्शवा लें तो वह बताए कि क्या वह इल्म की बिना पर इस बात की मबनी बर-हक़ीक़त शहादत दे सकता है?
وَجَعَلَهَا كَلِمَةَۢ بَاقِيَةٗ فِي عَقِبِهِۦ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ 74
(28) और इबराहीम यही कलिमा अपने पीछे अपनी औलाद में छोड़ गया ताकि वे उसकी तरफ़ रुजूअ करें।5
5. यानी जब भी राहे-रास्त से ज़रा कदम हटे तो यह कलिमा उनकी रहनुमाई के लिए मौजूद रहे और वे इसी की तरफ़ पलट आएँ। इस वाक़िए को जिस ग़रज़ के लिए यहाँ बयान किया गया है वह यह है कि कुफ़्फ़ारे-कुरैश को इस बात पर शर्म दिलाई जाए कि तुमने असलाफ़ की तक़लीद इख़्तियार की भी तो इसके लिए अपने बेहतरीन असलाफ़ इबराहीम (अलैहि०) व इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर अपने बदतरीन असलाफ़ का इन्तिख़ाब किया।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَهُمۡ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ 75
(87) और अगर तुम इनसे पूछो कि इन्हें किसने पैदा किया है तो ये ख़ुद कहेंगे कि अल्लाह ने।18 फिर कहाँ से ये धोखा खा रहे हैं।
18. इस आयत के दो मतलब हैं। एक यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि ख़ुद इनको किसने पैदा किया है तो कहेंगे कि अल्लाह ने। दूसरे यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि तुम्हारे उन माबूदों का ख़ालिक़ कौन है तो ये कहेंगे कि अल्लाह।
وَقِيلِهِۦ يَٰرَبِّ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمٞ لَّا يُؤۡمِنُونَ 77
(88) क़सम है रसूल के इस क़ौल की कि ऐ रब! ये वे लोग हैं जो मानकर नहीं देते।19
19. मतलब यह है कि क़सम है रसूल के इस क़ौल की कि “ऐ रब! ये वे लोग हैं जो मानकर नहीं देते,” कैसी अजीब है इन लोगों की फ़रेब-ख़ुर्दगी कि ख़ुद तसलीम करते हैं कि इनका और इनके माबूदों का ख़ालिक़ अल्लाह तआला ही है और फिर भी ख़ालिक़ को छोड़कर मख़लूक़ ही की इबादत पर इसरार किए जाते हैं!
وَقَالُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنَ ٱلۡقَرۡيَتَيۡنِ عَظِيمٍ 81
(31) कहते हैं, “यह क़ुरआन दोनों शहरों के बड़े आदमियों में से किसी पर क्यों न नाज़िल किया गया?”6
6. ‘दोनों शहरों’ से मुराद मक्का और ताइफ़ हैं। कुफ़्फ़ार का यह कहना था कि अगर वाक़ई ख़ुदा को कोई रसूल भेजना होता और वह उसपर अपनी किताब नाज़िल करने का इरादा करता तो हमारे इन मरकज़ी शहरों में से किसी बड़े आदमी को इस ग़रज़ के लिए मुन्तख़ब करता।
أَهُمۡ يَقۡسِمُونَ رَحۡمَتَ رَبِّكَۚ نَحۡنُ قَسَمۡنَا بَيۡنَهُم مَّعِيشَتَهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَرَفَعۡنَا بَعۡضَهُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٖ دَرَجَٰتٖ لِّيَتَّخِذَ بَعۡضُهُم بَعۡضٗا سُخۡرِيّٗاۗ وَرَحۡمَتُ رَبِّكَ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ 82
(32) क्या तेरे रब की रहमत ये लोग तक़सीम करते हैं? दुनिया की ज़िन्दगी में इनकी गुज़र-बसर के ज़राए तो हमने इनके दरमियान तक़सीम किए हैं, और इनमें से कुछ लोगों को कुछ दूसरे लोगों पर हमने बदर्जहा फ़ौक़ियत दी है ताकि ये एक-दूसरे से ख़िदमत लें। और तेरे रब की रहमत (यानी नुबूवत) उस दौलत से ज़्यादा क़ीमती है जो (इनके रईस) समेट रहे हैं।