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سُورَةُ الزُّخۡرُفِ

43. अज़-ज़ुख़रुफ़

(मक्का में उतरी, आयतें 89)

परिचय

नाम

आयत 35 के शब्द ‘वज़्ज़ुख़रुफ़न ' (चाँदी और सोने के) से लिया गया है। अर्थ यह है कि वह वह सूरा हैं जिसमें शब्द ‘ज़ुख़रुफ़' आया है।

उतरने का समय

इसकी वार्ताओं पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा भी उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-40 अल-मोमिन, सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा और सूरा-42 अश-शूरा उतरीं। [यह वह समय था,] जब मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल.) की जान के पीछे पड़े हुए थे।

विषय और वार्ता

इस सूरा में पूरे ज़ोर के साथ क़ुरैश और अरबवालों को उन अज्ञानतापूर्ण धारणाओं और अंधविश्वासों की आलोचना की गई है, जिनपर वे दुराग्रह किए चले जा रहे थे, और अत्यन्त दृढ़ और दिल में घर करनेवाले तरीक़े से उनके बुद्धिसंगत न होने को उजागर किया गया है। वार्ता का आरंभ इस तरह किया गया है कि तुम लोग अपनी दुष्टता के बल पर यह चाहते हो कि इस किताब का उतरना रोक दिया जाए, मगर अल्लाह ने कभी दुष्टताओं की वजह से नबियों को भेजना और किताबों को उतारना बन्द नहीं किया है, बल्कि उन ज़ालिमों को तबाह कर दिया है जो उसके मार्गदर्शन का रास्ता रोककर खड़े हुए थे। यही कुछ वह अब भी करेगा। इसके बाद बताया गया है कि वह धर्म क्या है जिसे ये लोग सीने से लगाए हुए हैं और वे प्रमाण क्या हैं जिनके बल-बूते पर ये मुहम्मद (सल्ल०) का मुक़ाबला कर रहे हैं। ये स्वयं मानते हैं कि ज़मीन और आसमान का और इनका अपना और इनके उपास्यों का पैदा करनेवाला [भी और इनको रोज़ी देनेवाला भी] अल्लाह ही है। फिर भी दूसरों को अल्लाह के साथ प्रभुत्व में साझी करने पर हठ किए चले जा रहे हैं। बन्दों को अल्लाह की सन्तान कहते हैं और [फ़रिश्तों के बारे में] कहते हैं कि ये अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनकी उपासना करते हैं। आख़िर इन्हें कैसे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते औरतें हैं ? इन अज्ञानतापूर्ण बातों पर टोका जाता है तो तक़दीर का बहाना बनाते हैं और कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे इस काम को पसन्द न करता तो हम कैसे इन बुतों की पूजा कर सकते थे, हालाँकि अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का माध्यम उसकी किताबें हैं, न कि वे काम जो दुनिया में उसकी मशीयत (उसकी दी हुई छूट) के अन्तर्गत हो रहे हैं। [अपने शिर्क का एक तर्क यह भी] देते हैं कि बाप-दादा से यह काम यों ही होता चला आ रहा है। मानो इनके नज़दीक किसी धर्म के सत्य होने के लिए यह पर्याप्त प्रमाण है, हालाँकि इबराहीम (अलैहि०) ने जिनकी सन्तान होने पर ही इनका सारा गर्व और इनकी विशिष्टता निर्भर करती है, ऐसे अंधे अनुसरण को रद्द कर दिया था, जिसका साथ कोई बुद्धिसंगत प्रमाण न देता हो। फिर अगर इन लोगों को पूर्वजों का अनुसरण ही करना था, तो इसके लिए भी अपने सबसे बड़े पूर्वज इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर इन्होंने अपने सबसे बड़े अज्ञानी पूर्वजों का चुनाव किया। मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी स्वीकार करने में इन्हें संकोच है तो इस कारण कि उनके पास माल-दौलत और राज्य और सत्ता तो है ही नहीं। कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे यहाँ किसी को नबी बनाना चाहता तो हमारे दोनों शहरों (मक्का और ताइफ़) के बड़े आदमियों में से किसी को बनाता। इसी कारण फ़िरऔन ने भी हज़रत मूसा (अलैहि०) को तुच्छ जाना था और कहा था कि आसमान का बादशाह अगर मुझ ज़मीन के बादशाह के पास कोई दूत भेजता तो उसे सोने के कंगन पहनाकर और फ़रिश्तों की एक फ़ौज उसकी अरदली में देकर भेजता। यह फ़क़ीर कहाँ से आ खड़ा हुआ। आख़िर में साफ़-साफ़ कहा गया है कि न अल्लाह की कोई सन्तान है, न आसमान और ज़मीन के प्रभु अलग-अलग हैं और न अल्लाह के यहाँ कोई ऐसा सिफ़ारिशी है जो जान बूझकर गुमराही अपनानेवालों को उसकी सज़ा से बचा सके।

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سُورَةُ الزُّخۡرُفِ
43. अज़-ज़ुख़रुफ़
وَجَعَلُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ ٱلَّذِينَ هُمۡ عِبَٰدُ ٱلرَّحۡمَٰنِ إِنَٰثًاۚ أَشَهِدُواْ خَلۡقَهُمۡۚ سَتُكۡتَبُ شَهَٰدَتُهُمۡ وَيُسۡـَٔلُونَ ۝ 1
(19) इन्होंने फ़रिश्तों को, जो ख़ुदा-ए-रहमान के ख़ास बन्दे हैं, औरतें क़रार दे लिया। क्या उनके जिस्म की साख़्त इन्होंने देखी है? उनकी गवाही लिख ली जाएगी और उन्हें इसकी जवाबदेही करनी होगी।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَقَالُواْ لَوۡ شَآءَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مَا عَبَدۡنَٰهُمۗ مَّا لَهُم بِذَٰلِكَ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 2
(20) ये कहते हैं, “अगर ख़ुदा-ए-रहमान चाहता (कि हम उनकी इबादत न करें) तो हम कभी उनको न पूजते।”4 ये इस मामले की हक़ीक़त को क़तई नहीं जानते, मह्ज़ तीर-तुक्के लड़ाते हैं।
4. यह अपनी गुमराही पर तक़दीर से उनका इस्तिदलाल था जो हमेशा से ग़लतकार लोगों का शेवा रहा है।
حمٓ
(1) हा० मीम०।
أَمۡ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ كِتَٰبٗا مِّن قَبۡلِهِۦ فَهُم بِهِۦ مُسۡتَمۡسِكُونَ ۝ 3
(21) क्या हमने इससे पहले कोई किताब इनको दी थी जिसकी सनद (अपनी इस मलाइका-परस्ती के लिए) ये अपने पास रखते हों?
وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 4
(2) क़सम है इस वाज़ेह किताब की
بَلۡ قَالُوٓاْ إِنَّا وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا عَلَىٰٓ أُمَّةٖ وَإِنَّا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم مُّهۡتَدُونَ ۝ 5
(22) नहीं, बल्कि ये कहते हैं कि हमने अपने बाप-दादा को एक तरीक़े पर पाया है और हम उन्हीं के नक़्शे-क़दम पर चल रहे हैं।
إِنَّا جَعَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 6
(3) कि हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है ताकि तुम लोग इसे समझो।1
1. क़ुरआन मजीद की क़सम जिस बात पर खाई गई है वह यह है कि इस किताब के मुसन्निफ़ ‘हम’ है न कि मुहम्मद (सल्ल०)। और क़सम खाने के लिए क़ुरआन की जिस सिफ़त का इन्तिख़ाब किया गया है वह यह है कि यह ‘किताबे-मुबीन’ है। इस सिफ़त के साथ क़ुरआन के कलामे-इलाही होने पर ख़ुद क़ुरआन की क़सम खाना आप-से-आप यह मानी दे रहा है कि लोगो! यह खुली किताब तुम्हारे सामने मौजूद हैं, इसे आँखें खोलकर देखो, इसके मज़ामीन, इसकी तालीम, इसकी ज़बान, सारी चीज़ें इस हक़ीक़त की सरीह शहादत दे रही है कि इसका मुसन्निफ़ ख़ुदावन्दे-आलम के सिवा कोई दूसरा नहीं हो सकता।
وَكَذَٰلِكَ مَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّذِيرٍ إِلَّا قَالَ مُتۡرَفُوهَآ إِنَّا وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا عَلَىٰٓ أُمَّةٖ وَإِنَّا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم مُّقۡتَدُونَ ۝ 7
(23) इसी तरह तुमसे पहले जिस बस्ती में भी हमने कोई नज़ीर भेजा, उसके खाते-पीते लोगों ने यही कहा कि हमने अपने बाप-दादा को एक तरीक़े पर पाया है और हम उन्हीं के नक़्शे-क़दम की पैरवी कर रहे हैं।
۞قَٰلَ أَوَلَوۡ جِئۡتُكُم بِأَهۡدَىٰ مِمَّا وَجَدتُّمۡ عَلَيۡهِ ءَابَآءَكُمۡۖ قَالُوٓاْ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 8
(24) हर नबी ने उनसे पूछा, “क्या तुम उसी डगर पर चले जाओगे ख़ाह मैं तुम्हें उस रास्ते से ज़्यादा सही रास्ता बताऊँ जिसपर तुमने अपने बाप-दादा को पाया है?” उन्होंने सारे रसूलों को यही जवाब दिया कि “जिस दीन की तरफ़ बुलाने के लिए तुम भेजे गए हो हम उसके काफ़िर हैं।”
وَإِنَّهُۥ فِيٓ أُمِّ ٱلۡكِتَٰبِ لَدَيۡنَا لَعَلِيٌّ حَكِيمٌ ۝ 9
(4) और दर-हक़ीक़त यह उम्मुल-किताब2 में सब्त है, हमारे यहाँ बड़ी बलन्द मर्तबा और हिकमत से लबरेज़ किताब।
2. ‘अमुल-किताब’ से मुराद है ‘अस्ल किताब’ यानी वह किताब जिससे तमाम अम्बिया (अलैहि०) पर नाज़िल होनेवाली किताबें माख़ूज़ हैं। इसी के लिए सरा-85 बुरूज में लौहे-महफ़ूज़ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं, यानी ऐसी लौह जिसका लिखा मिट नहीं सकता और जो हर क़िस्म की दरअंदाज़ी से महफ़ूज़ है।
أَفَنَضۡرِبُ عَنكُمُ ٱلذِّكۡرَ صَفۡحًا أَن كُنتُمۡ قَوۡمٗا مُّسۡرِفِينَ ۝ 10
(5) अब क्या हम तुमसे बेज़ार होकर यह दरसे-नसीहत तुम्हारे यहाँ भेजना छोड़ दें सिर्फ़ इसलिए कि तुम हद से गुज़रे हुए हो?
وَكَمۡ أَرۡسَلۡنَا مِن نَّبِيّٖ فِي ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 11
(6) पहले गुज़री हुई क़ौमों में भी बारहा हमने नबी भेजे हैं।
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن نَّبِيٍّ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 12
(7) कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई नबी उनके यहाँ आया हो और उन्होंने उसका मज़ाक़ न उड़ाया हो।
فَأَهۡلَكۡنَآ أَشَدَّ مِنۡهُم بَطۡشٗا وَمَضَىٰ مَثَلُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 13
(8) फिर जो लोग इनसे बदर्जहा ज़्यादा ताक़तवर थे। उन्हें हमने हलाक कर दिया, पिछली क़ौमों की मिसालें गुज़र चुकी हैं।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ لَيَقُولُنَّ خَلَقَهُنَّ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 14
(9) अगर तुम इनसे पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है। तो ये ख़ुद कहेंगे कि “उन्हें उसी ज़बरदस्त अलीम हस्ती ने पैदा किया है।”
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا لَّعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 15
(10) वही न जिसने तुम्हारे लिए इस ज़मीन को गहवारा बनाया और इसमें तुम्हारी ख़ातिर रास्ते बना दिए3 ताकि तुम अपनी मंज़िले-मक़सूद की राह पा सको।
3. पहाड़ों के बीच-बीच में दर्रे और फिर कोहिस्तानी और मैदानी इलाक़ों में दरिया वे क़ुदरती रास्ते हैं जो अल्लाह ने ज़मीन की पुश्त पर बना दिए हैं। इनसान उन्हीं की मदद से कुर्रए-ज़मीन पर फैला है। फिर अल्लाह ने मज़ीद फ़ज़्ल यह फ़रमाया कि तमाम रूए-ज़मीन को यकसाँ बनाकर नहीं रख दिया, बल्कि इसमें क़िस्म-क़िस्म के ऐसे इमतियाजी निशानात क़ायम कर दिए जिनकी मदद से इनसान मुख़्तलिफ़ इलाक़ों को पहचानता है और एक इलाक़े और दूसरे इलाक़े का फ़र्क़ महसूस करता है।
وَٱلَّذِي نَزَّلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءَۢ بِقَدَرٖ فَأَنشَرۡنَا بِهِۦ بَلۡدَةٗ مَّيۡتٗاۚ كَذَٰلِكَ تُخۡرَجُونَ ۝ 16
(11) जिसने एक ख़ास मिक़दार में आसमान से पानी उतारा और उसके ज़रिए से मुर्दा ज़मीन को जिला उठाया, इसी तरह एक रोज़ तुम ज़मीन से बरामद किए जाओगे।
وَٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا وَجَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡفُلۡكِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ مَا تَرۡكَبُونَ ۝ 17
(12) वही जिसने ये तमाम जोड़े पैदा किए, और जिसने तुम्हारे लिए कश्तियों और जानवरों को सवारी बनाया ताकि तुम उनकी पुश्त पर चढ़ो
وَلَن يَنفَعَكُمُ ٱلۡيَوۡمَ إِذ ظَّلَمۡتُمۡ أَنَّكُمۡ فِي ٱلۡعَذَابِ مُشۡتَرِكُونَ ۝ 18
(39) उस वक़्त उन लोगों से कहा जाएगा कि “जब तुम ज़ुल्म कर चुके तो आज ये बात तुम्हारे लिए कुछ भी नाफ़े नहीं है कि तुम और तुम्हारे शयातीन अज़ाब में मुश्तरक हैं।”
لِتَسۡتَوُۥاْ عَلَىٰ ظُهُورِهِۦ ثُمَّ تَذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ رَبِّكُمۡ إِذَا ٱسۡتَوَيۡتُمۡ عَلَيۡهِ وَتَقُولُواْ سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي سَخَّرَ لَنَا هَٰذَا وَمَا كُنَّا لَهُۥ مُقۡرِنِينَ ۝ 19
(13) और जब उनपर बैठो तो अपने रब का एहसान याद करो और कहो “पाक है वह जिसने हमारे लिए इन चीज़ों को मुसख़्ख़र कर दिया वरना हम इन्हें क़ाबू में लाने की ताक़त न रखते थे,
أَفَأَنتَ تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ أَوۡ تَهۡدِي ٱلۡعُمۡيَ وَمَن كَانَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 20
(40) अब क्या (ऐ नबी!) तुम बहरों को सुनाओगे? या अंधों और सरीह गुमराही में पड़े हुए लोगों को राह दिखाओगे?
وَإِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا لَمُنقَلِبُونَ ۝ 21
(14) और एक रोज़ हमें अपने रब की तरफ़ पलटना है।”
فَإِمَّا نَذۡهَبَنَّ بِكَ فَإِنَّا مِنۡهُم مُّنتَقِمُونَ ۝ 22
(41) अब तो हमें इनको सज़ा देनी है। ख़ाह हम तुम्हें दुनिया से उठा लें,
وَجَعَلُواْ لَهُۥ مِنۡ عِبَادِهِۦ جُزۡءًاۚ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَكَفُورٞ مُّبِينٌ ۝ 23
(15) (यह सब कुछ जानते और मानते हुए भी) इन लोगों ने उसके बन्दों में से बाज़ को उसका जुज़ बना डाला। हक़ीक़त यह है कि इनसान खुला एहसान-फ़रामोश है।
أَوۡ نُرِيَنَّكَ ٱلَّذِي وَعَدۡنَٰهُمۡ فَإِنَّا عَلَيۡهِم مُّقۡتَدِرُونَ ۝ 24
(42) या तुमको आँखों से इनका वह अंजाम दिखा दें जिसका हमने इनसे वादा किया है, हमें इनपर पूरी क़ुदरत हासिल है।
فَٱسۡتَمۡسِكۡ بِٱلَّذِيٓ أُوحِيَ إِلَيۡكَۖ إِنَّكَ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 25
(43) तुम बहरहाल उस किताब को मज़बूती से थामे रहो जो वह्य के ज़रिए में तुम्हारे पास भेजी गई है, यक़ीनन तुम सीधे रास्ते पर हो।
وَإِنَّهُۥ لَذِكۡرٞ لَّكَ وَلِقَوۡمِكَۖ وَسَوۡفَ تُسۡـَٔلُونَ ۝ 26
(44) हक़ीक़त यह है कि यह किताब तुम्हारे लिए और तुम्हारी क़ौम के लिए एक बहुत बड़ा शरफ़ है। और अन-क़रीब तुम लोगों को इसकी जवाबदेही करनी होगी।7
7. यानी उस शख़्स से बढ़कर किसी शख़्स की कोई ख़ुशक़िस्मती नहीं हो सकती कि तमाम इनसानों में से उसको अल्लाह अपनी किताब नाज़िल करने के लिए मुन्तख़ब करे, और किसी क़ौम के हक़ में भी इससे बड़ी ख़ुशक़िस्मती का तसव्वुर नहीं किया जा सकता कि दुनिया की दूसरी सब क़ौमों को छोड़कर अल्लाह तआला उसके वहाँ अपना नबी पैदा करे और उसकी ज़बान में अपनी किताब नाज़िल करे और उसे दुनिया में पैग़ामे-ख़ुदावन्दी की हामिल बनकर उठने का मौक़ा दे। इस शरफ़े-अज़ीम का एहसास अगर कुरैश और अहले-अरब को नहीं है और वे इसकी नाक़द्री करना चाहते हैं तो एक वक़्त आएगा जब इन्हें इसकी जवाबदेही करनी होगी।
وَسۡـَٔلۡ مَنۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رُّسُلِنَآ أَجَعَلۡنَا مِن دُونِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ءَالِهَةٗ يُعۡبَدُونَ ۝ 27
(45) तुमसे पहले हमने जितने रसूल भेजे थे उन सबसे पूछ देखो, क्या हमने ख़ुदा-ए-रहमान के सिवा कुछ दूसरे माबूद भी मुक़र्रर किए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?8
8. रसूलों से पूछने का मतलब उनकी लाई हुई किताबों से मालूम करना है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَقَالَ إِنِّي رَسُولُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 28
(46) हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उसके आयाने-सल्तनत के पास भेजा और उसने जाकर कहा कि मैं रब्बुल-आलमीन का रसूल हूँ।
أَمِ ٱتَّخَذَ مِمَّا يَخۡلُقُ بَنَاتٖ وَأَصۡفَىٰكُم بِٱلۡبَنِينَ ۝ 29
(16) क्या अल्लाह ने अपनी मख़लूक़ में से अपने लिए बेटियाँ इन्तिख़ाब कीं और तुम्हे बेटों से नवाज़ा?
فَلَمَّا جَآءَهُم بِـَٔايَٰتِنَآ إِذَا هُم مِّنۡهَا يَضۡحَكُونَ ۝ 30
(47) फिर जब उसने हमारी निशानियाँ उनके सामने पेश की तो वे ठट्ठे मारने लगे।
وَقَالُوٓاْ ءَأَٰلِهَتُنَا خَيۡرٌ أَمۡ هُوَۚ مَا ضَرَبُوهُ لَكَ إِلَّا جَدَلَۢاۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٌ خَصِمُونَ ۝ 31
(58) और कहने लगे कि “हमारे माबूद अच्छे हैं या यह मिसाल वह”10 यह मिसाल वे तुम्हारे सामने मह्ज़ कजबहसी के लिए लाए हैं, हक़ीक़त यह है कि ये हैं ही झगड़ालू लोग।
10. इससे पहले आयत 45 में यह बात गुज़र चुकी है कि ‘तुमसे पहले जो रसूल हो गुज़रे हैं उन सबसे पूछ देखो, क्या हमने ख़ुदा-ए-रहमान के सिवा कुछ दूसरे माबूद भी मुक़र्रर किए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?’ यह तक़रीर जब अहले-मक्का के सामने हो रही थी तो एक शख़्स ने एतिराज़ जड़ दिया कि “क्यों साहब! ईसाई मरयम (अलैहि०) के बेटे को ख़ुदा का बेटा क़रार देकर उसकी इबादत करते हैं या नहीं? फिर हमारे माबूद क्या बुरे हैं!” यह मिसाल पेश होते ही कुफ़्फ़ार के मजमे से एक ज़ोर का क़हक़हा बलन्द हुआ और नारे लगने शुरू हो गए कि इसका क्या जवाब है?
وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُم بِمَا ضَرَبَ لِلرَّحۡمَٰنِ مَثَلٗا ظَلَّ وَجۡهُهُۥ مُسۡوَدّٗا وَهُوَ كَظِيمٌ ۝ 32
(17) और हाल यह है कि जिस औलाद को वे लोग उस ख़ुदा-ए-रहमान की तरफ़ मंसूब करते हैं उसकी विलादत का मुज़दा जब ख़ुद इनमें से किसी को दिया जाता है तो उसके मुँह पर सियाही छा जाती है और वह ग़म से भर जाता है।
وَمَا نُرِيهِم مِّنۡ ءَايَةٍ إِلَّا هِيَ أَكۡبَرُ مِنۡ أُخۡتِهَاۖ وَأَخَذۡنَٰهُم بِٱلۡعَذَابِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 33
(48) हम एक-पर-एक ऐसी निशानी उनको दिखाते चले गए जो पहली से बढ़-चढ़कर थी, और हमने उनको अज़ाब में धर लिया कि वे अपनी रविश से बाज़ आएँ।
أَوَمَن يُنَشَّؤُاْ فِي ٱلۡحِلۡيَةِ وَهُوَ فِي ٱلۡخِصَامِ غَيۡرُ مُبِينٖ ۝ 34
(18) क्या अल्लाह के हिस्से में वह औलाद आई जो ज़ेवरों में पाली जाती है और बहस व हुज्जत में अपना मुद्दआ पूरी तरह वाज़ेह भी नहीं कर सकती।
إِنۡ هُوَ إِلَّا عَبۡدٌ أَنۡعَمۡنَا عَلَيۡهِ وَجَعَلۡنَٰهُ مَثَلٗا لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 35
(59) इब्ने-मरयम इसके सिवा कुछ न था कि एक बन्दा था जिसपर हमने इनाम किया और बनी-इसराईल के लिए उसे अपनी क़ुदरत का एक नमूना बना दिया।
وَقَالُواْ يَٰٓأَيُّهَ ٱلسَّاحِرُ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِندَكَ إِنَّنَا لَمُهۡتَدُونَ ۝ 36
(49) हर अज़ाब के मौक़े पर वे कहते, “ऐ साहिर! अपने रब की तरफ़ से जो मनसब तुझे हासिल है उसकी बिना पर हमारे लिए उससे दुआ कर, हम ज़रूर राहे-रास्त पर आ जाएँगे।”
وَلَوۡ نَشَآءُ لَجَعَلۡنَا مِنكُم مَّلَٰٓئِكَةٗ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَخۡلُفُونَ ۝ 37
(60) हम चाहें तो तुमसे फ़रिश्ते पैदा कर दें जो ज़मीन में तुम्हारे जानशीन हों।
فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابَ إِذَا هُمۡ يَنكُثُونَ ۝ 38
(50) मगर ज्यों ही कि हम उनपर से अज़ाब हटा देते वे अपनी बात से फिर जाते थे।
وَإِنَّهُۥ لَعِلۡمٞ لِّلسَّاعَةِ فَلَا تَمۡتَرُنَّ بِهَا وَٱتَّبِعُونِۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 39
(61) और वह (यानी इब्ने-मरयम) दरअस्ल क़ियामत की एक निशानी है, पस तुम उसमें शक न करो11 और मेरी बात मान लो, यही सीधा रास्ता है,
11. यह तर्जमा भी हो सकता है कि ‘वह क़ियामत के इल्म का एक ज़रिआ है।’ यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि आँजनाब को क़ियामत की निशानी या क़ियामत के इल्म का ज़रिआ किस मानी में फ़रमाया गया है? बहुत-से मुफ़स्सिरीन कहते हैं कि‌ इससे मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) का नुज़ूले-सानी है जिसकी ख़बर बकसरत अहादीस में वारिद हुई है, लेकिन बाद की इबारत यह मानी लेने में मानेअ है। उनका दोबारा आना तो क़ियामत के इल्म का ज़रिआ सिर्फ़ उन लोगों के लिए बन सकता है जो उस ज़माने में मौजूद होंगे या उसके बाद पैदा हों। कुफ़्फ़ारे-मक्का के लिए आख़िर वह कैसे ज़रिआ-ए-इल्म क़रार पा सकता था कि उनको करके यह कहना सही होता कि “पस तुम इसमें शक न करो?” लिहाज़ा हमारे नज़दीक सही तफ़सीर वही है जो बाज़ दूसरे मुफ़स्सिरीन ने की है कि यहाँ हज़रत ईसा (अलैहि०) के बेबाप पैदा होने और उनके मिट्टी से परिन्दा बनाने और मुर्दे जिलाने को क़ियामत के इमकान की एक दलील क़रार दिया गया है, और इरशादे-ख़ुदावन्दी का मंशा यह है कि जो ख़ुदा बाप के बग़ैर बच्चा पैदा कर सकता है और जिस ख़ुदा का एक बन्दा मिट्टी के पुतले में जान डाल सकता और मुर्दों को ज़िन्दा कर सकता है उसके लिए आख़िर तुम इस बात को क्यों नामुमकिन समझते हो कि वह तुम्हें और तमाम इनसानों को मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा कर दे।
وَنَادَىٰ فِرۡعَوۡنُ فِي قَوۡمِهِۦ قَالَ يَٰقَوۡمِ أَلَيۡسَ لِي مُلۡكُ مِصۡرَ وَهَٰذِهِ ٱلۡأَنۡهَٰرُ تَجۡرِي مِن تَحۡتِيٓۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ ۝ 40
(51) एक रोज़ फ़िरऔन ने अपनी क़ौम के दरमियान पुकारकर कहा, “लोगो! क्या मिस्र की बादशाही मेरी नहीं है, और ये नहरें मेरे नीच नहीं बह रही हैं? क्या तुम लोगों को नज़र नहीं आता?
وَلَا يَصُدَّنَّكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 41
(62) ऐसा न हो शैतान तुमको उससे रोक दे कि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
أَمۡ أَنَا۠ خَيۡرٞ مِّنۡ هَٰذَا ٱلَّذِي هُوَ مَهِينٞ وَلَا يَكَادُ يُبِينُ ۝ 42
(52) मैं बेहतर हूँ या यह शख़्स जो ज़लील व हक़ीर है और अपनी बात भी खोलकर बयान नहीं कर सकता?
وَلَمَّا جَآءَ عِيسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ قَالَ قَدۡ جِئۡتُكُم بِٱلۡحِكۡمَةِ وَلِأُبَيِّنَ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي تَخۡتَلِفُونَ فِيهِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 43
(63) और जब ईसा सरीह निशानियाँ लिए हुए आया था तो उसने कहा था कि “मैं तुम लोगों के पास हिकमत लेकर आया हूँ, और इसलिए आया हूँ कि तुमपर बाज़ उन बातों की हक़ीक़त खोल दूँ जिनमें तुम इख़्तिलाफ़ कर रहे हो, लिहाज़ा तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
فَلَوۡلَآ أُلۡقِيَ عَلَيۡهِ أَسۡوِرَةٞ مِّن ذَهَبٍ أَوۡ جَآءَ مَعَهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ مُقۡتَرِنِينَ ۝ 44
(53) क्यों न इसपर सोने के कंगन उतारे गए? या फ़रिश्तों का एक दस्ता इसकी अरदली में न आया?”
وَنَادَوۡاْ يَٰمَٰلِكُ لِيَقۡضِ عَلَيۡنَا رَبُّكَۖ قَالَ إِنَّكُم مَّٰكِثُونَ ۝ 45
(77) वे पुकारेंगे, “ऐ मालिक!,14 तेरा रब हमारा काम ही तमाम कर दे तो अच्छा है।” वह जवाब देगा, “तुम यूँ ही पड़े रहोगे,
14. ‘मालिक’ से मुराद है जहन्नम का दारोग़ा जैसा कि फ़ह्वा-ए-कलाम से ख़ुल ज़ाहिर हो रहा है।
إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 46
(64) हकीक़त यह है कि अल्लाह ही मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। उसी की तुम इबादत करो, यही सीधा रास्ता है।”12
12. यानी ईसाई ख़ाह कुछ करते और कहते रहें ईसा (अलैहि०) ने ख़ुद कभी यह नहीं कहा था कि मैं ख़ुदा हूँ या ख़ुदा का बेटा हूँ और तुम मेरी इबादत करो, बल्कि उनकी दावत वही थी जो दूसरे तमाम अम्बिया की दावत थी और अब जिसकी तरफ़ मुहम्मद (सल्ल०) तुमको बुला रहे हैं।
فَٱسۡتَخَفَّ قَوۡمَهُۥ فَأَطَاعُوهُۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 47
(54) उसने अपनी क़ौम को हल्का समझा और उन्होंने उसकी इताअत की, दर-हक़ीक़त वे थे ही फ़ासिक़ लोग।9
9. इस मुख़्तसर से फ़िक़रे में एक बहुत बड़ी हक़ीक़त बयान की गई है। जब कोई शख़्स किसी मुल्क में अपनी मुत्लक़ुल-इनानी चलाने की कोशिश करता है और इसके लिए खुल्लम-खुल्ला हर तरह की चालें चलता है, हर फ़रेब और मक्र व दग़ा से काम लेता है, खुले बाज़ार में ज़मीरों की ख़रीद व फ़रोख़्त का कारोबार चलाता है और जो बिकते नहीं उन्हें बेदरेग़ कुचलता और रौंदता है, तो ख़ाह ज़बान से वह यह बात न कहे मगर अपने अमल से साफ़ ज़ाहिर कर देता है। वह दर-हक़ीक़त इस मुल्क के बाशिन्दों को अक़्ल और अख़लाक और मर्दानगी के लिहाज़ से हल्का समझता है, और उसने उनके मुताल्लिक़ यह राय क़ायम की है कि मैं इन बेवक़ूफ़, बेज़मीर और बुज़दिल लोगों को जिधर चाहूँ हाँककर ले जा सकता हूँ। फिर जब उसकी ये तदबीरें कामयाब हो जाती हैं और मुल्क के बाशिन्दे उसके दस्तबस्ता ग़ुलाम बन जाते हैं तो वे अपने अमल से साबित कर देते हैं कि उस ख़बीस ने जो कुछ उन्हें समझा था, वाक़ई वे वही कुछ है। और उनके इस ज़लील हालत में मुब्तला होने की अस्ल वजह यह होती है कि वे बुनियादी तौर पर ‘फ़ासिक़’ होते हैं।
فَٱخۡتَلَفَ ٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَيۡنِهِمۡۖ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمٍ أَلِيمٍ ۝ 48
(65) मगर (उसकी इस साफ़ तालीम के बावजूद) गरोहों ने आपस में इख़्तिलाफ़ किया,13 पस तबाही है उन लोगों के लिए जिन्होंने ज़ुल्म किया एक दर्दनाक दिन के अज़ाब से।
13. यानी एक गरोह ने उनका इनकार किया तो मुख़ालफ़त में इस हद तक पहुँच गया कि उनपर नाजाइज़ विलादत की तुहमत लगाई। दूसरे गरोह ने उनका इक़रार किया तो अक़ीदत में बेतहाशा ग़ुलू करके उनको ख़ुदा बना बैठा और फिर एक इनसान के अल्लाह होने का मसला उसके लिए ऐसी गुत्थी बना जिसे सुलझाते-सुलझाते उसमें बेशुमार फ़िरक़े बन गए।
لَقَدۡ جِئۡنَٰكُم بِٱلۡحَقِّ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَكُمۡ لِلۡحَقِّ كَٰرِهُونَ ۝ 49
(78) हम तुम्हारे पास हक़ लेकर आए थे मगर तुममें से अकसर को हक़ ही नागवार था।”15
15. दारोग़ा-ए-जहन्नम का यह क़ौल कि “हम तुम्हारे पास हक़ लेकर आए थे” ऐसा ही है जैसे हुकूमत का कोई अफ़सर हुकूमत की तरफ़ से बोलते हुए ‘हम’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल करता है और उसकी मुराद यह होती है कि हमारी हुकूमत ने यह काम किया या यह हुक्म दिया।
فَلَمَّآ ءَاسَفُونَا ٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 50
(55) आख़िरकार जब उन्होंने हमें ग़ज़बनाक कर दिया तो हमने उनसे इन्तिक़ाम लिया और उनको इकट्ठा ग़र्क़ कर दिया
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا ٱلسَّاعَةَ أَن تَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 51
(66) क्या ये लोग अब बस इसी चीज़ के मुन्तज़िर हैं कि अचानक इनपर क़ियामत आ जाए और इन्हें ख़बर भी न हो?
أَمۡ أَبۡرَمُوٓاْ أَمۡرٗا فَإِنَّا مُبۡرِمُونَ ۝ 52
(79) क्या इन लोगों ने कोई इक़दाम करने का फ़ैसला कर लिया है?16 अच्छा तो हम भी फिर एक फ़ैसला किए लेते हैं।
16. इशारा है उन बातों की तरफ़ जो सरदाराने-क़ुरैश अपनी ख़ुफ़िया मजलिसों में रसूल (सल्ल०) के ख़िलाफ़ कोई फ़ैसलाकुन कदम उठाने के लिए कर रहे थे।
فَجَعَلۡنَٰهُمۡ سَلَفٗا وَمَثَلٗا لِّلۡأٓخِرِينَ ۝ 53
(56) और बादवालों के लिए पेशरौ और नमूना-ए-इबरत बनाकर रख दिया।
ٱلۡأَخِلَّآءُ يَوۡمَئِذِۭ بَعۡضُهُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوٌّ إِلَّا ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 54
(67) वह दिन जब आएगा तो मुत्तक़ीन को छोड़कर बाक़ी सब दोस्त एक-दूसरे के दुश्मन हो जाएँगे।
۞وَلَمَّا ضُرِبَ ٱبۡنُ مَرۡيَمَ مَثَلًا إِذَا قَوۡمُكَ مِنۡهُ يَصِدُّونَ ۝ 55
(57) और ज्यों ही कि इब्ने-मरयम की मिसाल दी गई, तुम्हारी क़ौम के लोगों ने इसपर ग़ुल मचा दिया
أَمۡ يَحۡسَبُونَ أَنَّا لَا نَسۡمَعُ سِرَّهُمۡ وَنَجۡوَىٰهُمۚ بَلَىٰ وَرُسُلُنَا لَدَيۡهِمۡ يَكۡتُبُونَ ۝ 56
(80) क्या इन्होंने यह समझ रखा है कि हम इनकी राज़ की बातें और इनकी सरगोशियाँ सुनते नहीं हैं? हम सब कुछ सुन रहे हैं और हमारे फ़रिश्ते इनके पास ही लिख रहे हैं।
يَٰعِبَادِ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡكُمُ ٱلۡيَوۡمَ وَلَآ أَنتُمۡ تَحۡزَنُونَ ۝ 57
(68) उस रोज़ उन लोगों से, जो हमारी आयात पर ईमान लाए थे और मुतीए-फ़रमान बनकर रहे थे, कहा जाएगा कि
قُلۡ إِن كَانَ لِلرَّحۡمَٰنِ وَلَدٞ فَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡعَٰبِدِينَ ۝ 58
(81) इनसे कहो, “अगर वाक़ई रहमान की कोई औलाद होती तो सबसे पहले इबादत करनेवाला मैं होता।”
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ مُسۡلِمِينَ ۝ 59
(69 )“ऐ मेरे बन्दो! आज तुम्हारे लिए कोई ख़ौफ़ नहीं और न तुम्हें कोई ग़म लाहिक़ होगा।
سُبۡحَٰنَ رَبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ رَبِّ ٱلۡعَرۡشِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 60
(82) पाक है आसमानों और ज़मीन का फ़रमाँरवा, अर्श का मालिक, उन सारी बातों से जो ये लोग उसकी तरफ़ मंसूब करते हैं।
ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ أَنتُمۡ وَأَزۡوَٰجُكُمۡ تُحۡبَرُونَ ۝ 61
(70) दाख़िल हो जाओ जन्नत में तुम और तुम्हारी बीवियाँ, तुम्हें ख़ुश कर दिया जाएगा।”
فَذَرۡهُمۡ يَخُوضُواْ وَيَلۡعَبُواْ حَتَّىٰ يُلَٰقُواْ يَوۡمَهُمُ ٱلَّذِي يُوعَدُونَ ۝ 62
(83) अच्छा, इन्हें अपने बातिल ख़यालात में ग़र्क़ और अपने खेल में मुनहमिक रहने दो, यहाँ तक कि ये अपना वह दिन देख लें जिसका इन्हें ख़ौफ़ दिलाया जा रहा है।
يُطَافُ عَلَيۡهِم بِصِحَافٖ مِّن ذَهَبٖ وَأَكۡوَابٖۖ وَفِيهَا مَا تَشۡتَهِيهِ ٱلۡأَنفُسُ وَتَلَذُّ ٱلۡأَعۡيُنُۖ وَأَنتُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 63
(71) उनके आगे सोने का थाल और साग़र गरदिश कराए जाएँगे और हर मनभाती और निगाहों को लज़्ज़त देनेवाली चीज़ वहाँ मौजूद होंगी। उनसे कहा जाएगा, तुम अब यहाँ हमेशा रहोगे।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 64
(25) आख़िरकार हमने उनकी ख़बर ले डाली और देख लो कि झुठलानेवालों क्या अंजाम हुआ।
وَتِلۡكَ ٱلۡجَنَّةُ ٱلَّتِيٓ أُورِثۡتُمُوهَا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 65
(72) तुम इस जन्नत के वारिस अपने उन आमाल की वजह से हुए हो जो तुम दुनिया में करते रहे।
وَهُوَ ٱلَّذِي فِي ٱلسَّمَآءِ إِلَٰهٞ وَفِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَٰهٞۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 66
(84) वही एक आसमान में भी ख़ुदा है और ज़मीन में भी ख़ुदा, और वही हकीम और अलीम है।
لَكُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ كَثِيرَةٞ مِّنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 67
(73) तुम्हारे लिए यहाँ बकसरत फ़वाकिह मौजूद हैं जिन्हें तुम खाओगे।”
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِيمُ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦٓ إِنَّنِي بَرَآءٞ مِّمَّا تَعۡبُدُونَ ۝ 68
(26) याद करो वह वक़्त जब इबराहीम ने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा था कि “तुम जिनकी बन्दगी करते हो मेरा उनसे कोई ताल्लुक़ नहीं।
وَتَبَارَكَ ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا وَعِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلسَّاعَةِ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 69
(85) बहुत बाला व बरतर है वह जिसके क़ब्जे में ज़मीन और आसमानों और हर उस चीज़ की बादशाही है जो ज़मीन व आसमान के दरमियान पाई जाती है। और वही क़ियामत की घड़ी का इल्म रखता है, और उसी की तरफ़ तुम सब पलटाए जानेवाले हो।
إِنَّ ٱلۡمُجۡرِمِينَ فِي عَذَابِ جَهَنَّمَ خَٰلِدُونَ ۝ 70
(74) रहे मुजरिमीन, तो वे हमेशा जहन्नम के अज़ाब में मुब्तला रहेंगे,
وَلَا يَمۡلِكُ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِ ٱلشَّفَٰعَةَ إِلَّا مَن شَهِدَ بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 71
(86) उसको छोड़कर ये लोग जिन्हें पुकारते हैं वे किसी शफ़ाअत का इख़्तियार नहीं रखते, इल्ला यह कि कोई इल्म की बिना पर हक़ की शहादत दे।17
17. यानी अगर कोई शख़्स यह कहता है कि उसने जिन हस्तियों को माबूद बना रख है वे लाज़िमन शफ़ाअत के इख़्तियारात रखती हैं और उन्हें अल्लाह तआला के यहाँ ऐसा ज़ोर हासिल है कि जिसे चाहें बख़्शवा लें तो वह बताए कि क्या वह इल्म की बिना पर इस बात की मबनी बर-हक़ीक़त शहादत दे सकता है?
إِلَّا ٱلَّذِي فَطَرَنِي فَإِنَّهُۥ سَيَهۡدِينِ ۝ 72
(27) मेरा ताल्लुक़ सिर्फ़ उससे है जिसने मुझे पैदा किया, वही मेरी रहनुमाई करेगा।”
لَا يُفَتَّرُ عَنۡهُمۡ وَهُمۡ فِيهِ مُبۡلِسُونَ ۝ 73
(75) कभी उनके अज़ाब में कमी न होगी, और वे उसमें मायूस पड़े होंगे।
وَجَعَلَهَا كَلِمَةَۢ بَاقِيَةٗ فِي عَقِبِهِۦ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 74
(28) और इबराहीम यही कलिमा अपने पीछे अपनी औलाद में छोड़ गया ताकि वे उसकी तरफ़ रुजूअ करें।5
5. यानी जब भी राहे-रास्त से ज़रा कदम हटे तो यह कलिमा उनकी रहनुमाई के लिए मौजूद रहे और वे इसी की तरफ़ पलट आएँ। इस वाक़िए को जिस ग़रज़ के लिए यहाँ बयान किया गया है वह यह है कि कुफ़्फ़ारे-कुरैश को इस बात पर शर्म दिलाई जाए कि तुमने असलाफ़ की तक़लीद इख़्तियार की भी तो इसके लिए अपने बेहतरीन असलाफ़ इबराहीम (अलैहि०) व इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर अपने बदतरीन असलाफ़ का इन्तिख़ाब किया।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَهُمۡ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 75
(87) और अगर तुम इनसे पूछो कि इन्हें किसने पैदा किया है तो ये ख़ुद कहेंगे कि अल्लाह ने।18 फिर कहाँ से ये धोखा खा रहे हैं।
18. इस आयत के दो मतलब हैं। एक यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि ख़ुद इनको किसने पैदा किया है तो कहेंगे कि अल्लाह ने। दूसरे यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि तुम्हारे उन माबूदों का ख़ालिक़ कौन है तो ये कहेंगे कि अल्लाह।
وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن كَانُواْ هُمُ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 76
(76) उनपर हमने ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म करते रहे।
وَقِيلِهِۦ يَٰرَبِّ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمٞ لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 77
(88) क़सम है रसूल के इस क़ौल की कि ऐ रब! ये वे लोग हैं जो मानकर नहीं देते।19
19. मतलब यह है कि क़सम है रसूल के इस क़ौल की कि “ऐ रब! ये वे लोग हैं जो मानकर नहीं देते,” कैसी अजीब है इन लोगों की फ़रेब-ख़ुर्दगी कि ख़ुद तसलीम करते हैं कि इनका और इनके माबूदों का ख़ालिक़ अल्लाह तआला ही है और फिर भी ख़ालिक़ को छोड़कर मख़लूक़ ही की इबादत पर इसरार किए जाते हैं!
بَلۡ مَتَّعۡتُ هَٰٓؤُلَآءِ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ وَرَسُولٞ مُّبِينٞ ۝ 78
(29) (इसके बावजूद जब ये लोग दूसरों की बन्दगी करने लगे तो मैंने इनको मिटा नहीं दिया) बल्कि मैं इन्हें और इनके बाप-दादा को मताए-हयात देता रहा यहाँ तक कि इनके पास हक़, और खोल-खोलकर बयान करनेवाला रसूल आ गया।
وَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ قَالُواْ هَٰذَا سِحۡرٞ وَإِنَّا بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 79
(30) मगर जब वह हक़ इनके पास आया तो इन्होंने कह दिया यह तो जादू है, और हम इसको मानने से इनकार करते हैं।
فَٱصۡفَحۡ عَنۡهُمۡ وَقُلۡ سَلَٰمٞۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 80
(89) अच्छा, (ऐ नबी!) इनसे दरगुज़र करो और कह दो कि सलाम है तुम्हें, अन-क़रीब इन्हें मालूम हो जाएगा।
وَقَالُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنَ ٱلۡقَرۡيَتَيۡنِ عَظِيمٍ ۝ 81
(31) कहते हैं, “यह क़ुरआन दोनों शहरों के बड़े आदमियों में से किसी पर क्यों न नाज़िल किया गया?”6
6. ‘दोनों शहरों’ से मुराद मक्का और ताइफ़ हैं। कुफ़्फ़ार का यह कहना था कि अगर वाक़ई ख़ुदा को कोई रसूल भेजना होता और वह उसपर अपनी किताब नाज़िल करने का इरादा करता तो हमारे इन मरकज़ी शहरों में से किसी बड़े आदमी को इस ग़रज़ के लिए मुन्तख़ब करता।
أَهُمۡ يَقۡسِمُونَ رَحۡمَتَ رَبِّكَۚ نَحۡنُ قَسَمۡنَا بَيۡنَهُم مَّعِيشَتَهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَرَفَعۡنَا بَعۡضَهُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٖ دَرَجَٰتٖ لِّيَتَّخِذَ بَعۡضُهُم بَعۡضٗا سُخۡرِيّٗاۗ وَرَحۡمَتُ رَبِّكَ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 82
(32) क्या तेरे रब की रहमत ये लोग तक़सीम करते हैं? दुनिया की ज़िन्दगी में इनकी गुज़र-बसर के ज़राए तो हमने इनके दरमियान तक़सीम किए हैं, और इनमें से कुछ लोगों को कुछ दूसरे लोगों पर हमने बदर्जहा फ़ौक़ियत दी है ताकि ये एक-दूसरे से ख़िदमत लें। और तेरे रब की रहमत (यानी नुबूवत) उस दौलत से ज़्यादा क़ीमती है जो (इनके रईस) समेट रहे हैं।
وَلَوۡلَآ أَن يَكُونَ ٱلنَّاسُ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ لَّجَعَلۡنَا لِمَن يَكۡفُرُ بِٱلرَّحۡمَٰنِ لِبُيُوتِهِمۡ سُقُفٗا مِّن فِضَّةٖ وَمَعَارِجَ عَلَيۡهَا يَظۡهَرُونَ ۝ 83
(33) अगर यह अंदेशा न होता कि सारे लोग एक ही तरीक़े के हो जाएँगे तो हम ख़ुदा-ए-रहमान से कुफ़्र करनेवालों के घरों की छतें, और उनकी सीढ़ियाँ जिनसे वे अपने बालाख़ानों पर चढ़ते हैं,
وَلِبُيُوتِهِمۡ أَبۡوَٰبٗا وَسُرُرًا عَلَيۡهَا يَتَّكِـُٔونَ ۝ 84
(34) और उनके दरवाज़े और उनके तख़्त जिनपर वे तकिए लगाकर बैठते हैं,
وَزُخۡرُفٗاۚ وَإِن كُلُّ ذَٰلِكَ لَمَّا مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَٱلۡأٓخِرَةُ عِندَ رَبِّكَ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 85
(35) सब चाँदी और सोने के बना देते। यह तो मह्ज़ हयाते-दुनिया की मताअ है, और आख़िरत तेरे रब के यहाँ सिर्फ़ मुत्तक़ीन के लिए है।
وَمَن يَعۡشُ عَن ذِكۡرِ ٱلرَّحۡمَٰنِ نُقَيِّضۡ لَهُۥ شَيۡطَٰنٗا فَهُوَ لَهُۥ قَرِينٞ ۝ 86
(36) जो शख़्स रहमान के ज़िक्र से तग़ाफ़ुल बरतता है, हम उसपर एक शैतान मुसल्लत कर देते हैं और वह उसका रफ़ीक़ बन जाता है।
وَإِنَّهُمۡ لَيَصُدُّونَهُمۡ عَنِ ٱلسَّبِيلِ وَيَحۡسَبُونَ أَنَّهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 87
(37) ये शयातीन ऐसे लोगों को राहे-रास्त पर आने से रोकते हैं, और वे अपनी जगह यह समझते है कि हम ठीक जा रहे हैं।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَنَا قَالَ يَٰلَيۡتَ بَيۡنِي وَبَيۡنَكَ بُعۡدَ ٱلۡمَشۡرِقَيۡنِ فَبِئۡسَ ٱلۡقَرِينُ ۝ 88
(38) आख़िरकार जब यह शख़्स हमारे यहाँ पहुँचेगा तो अपने शैतान से कहेगा, “काश, मेरे और तेरे दरमियान मशरिक़ व मग़रिब का बुअ्द होता! तू तो बदतरीन साथी निकला।”