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وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗ لَّا يَخۡلُقُونَ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ وَلَا يَمۡلِكُونَ لِأَنفُسِهِمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗا وَلَا يَمۡلِكُونَ مَوۡتٗا وَلَا حَيَوٰةٗ وَلَا نُشُورٗا

25. अल-फ़ुरक़ान 

(मक्का में उतरी-आयतें 77)

परिचय

नाम

पहली ही आयत 'त बा-र-कल्लज़ी नज़्ज़-लल फ़ुर-क़ान' अर्थात् 'बहुत ही बरकतवाला है वह, जिसने यह फ़ुरक़ान (कसौटी) अवतरित किया' से लिया गया है। यह भी क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के नामों की तरह पहचान के रूप में है, न कि विषय के शीर्षक के रूप में। फिर भी इस सूरा के विषय में यह नाम क़रीबी लगाव रखता है, जैसा कि आगे चलकर मालूम होगा।

उतरने का समय

वर्णन-शैली और विषय पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि इसके उतरने का समय भी वही है जो सूरा-23 मोमिनून आदि का है, अर्थात् मक्का निवास का मध्यकाल।

विषय और वार्ताएँ

इसमें उन सन्देहों और आपत्तियों पर वार्ता की गई है जो क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत और आपकी पेश की हुई शिक्षा पर मक्का के विधर्मियों की ओर से की जाती थीं। उनमें से एक-एक का जंचा-तुला उत्तर दिया गया है और साथ-साथ सत्य सन्देश से मुंँह मोड़ने के दुष्परिणाम भी स्पष्ट शब्दों में बताए गए हैं। अन्त में सूरा-23 मोमिनून की तरह ईमानवालों के नैतिक गुणों का एक चित्र खींचकर आम लोगों के सामने रख दिया गया है कि इस कसौटी पर कस कर देख लो, कौन खोटा है और कौन खरा है। एक ओर इस चरित्र एवं आचरण के लोग हैं जो मुहम्मद (सल्ल०) की शिक्षा से अब तक तैयार हुए है और आगे तैयार करने की कोशिश हो रही है। दूसरी ओर नैतिकता का वह नमूना है जो आम अरबो में पाया जाता है और जिसे बाक़ी रखने के लिए अज्ञानता के ध्वजावाहक एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। अब स्वयं फ़ैसला करो कि इन दोनों नमूनों में से किसे पसन्द करते हो? यह एक सांकेतिक प्रश्‍न था जो अरब के हर वासी के सामने रख दिया गया और कुछ साल के भीतर एक छोटी सी तादाद को छोड़कर सारी क़ौम ने इसका जो उत्तर दिया वह समय की किताब में लिखा जा चुका है।

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وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗ لَّا يَخۡلُقُونَ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ وَلَا يَمۡلِكُونَ لِأَنفُسِهِمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗا وَلَا يَمۡلِكُونَ مَوۡتٗا وَلَا حَيَوٰةٗ وَلَا نُشُورٗا ۝ 1
(3) लोगों ने उसे छोड़कर ऐसे माबूद बना लिए जो किसी चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि ख़ुद पैदा किए जाते हैं, जो ख़ुद अपने लिए भी किसी नफ़ा या नुक़सान का इख़्तियार नहीं रखते, जो न मार सकते हैं, न जिला सकते हैं, न मरे हुए को फिर उठा सकते हैं।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ إِفۡكٌ ٱفۡتَرَىٰهُ وَأَعَانَهُۥ عَلَيۡهِ قَوۡمٌ ءَاخَرُونَۖ فَقَدۡ جَآءُو ظُلۡمٗا وَزُورٗا ۝ 2
(4) जिन लोगों ने नबी की बात मानने से इनकार कर दिया है, वे कहते हैं कि “यह फ़ुरक़ान एक मनगढ़न्त चीज़ है जिसे इस शख़्स ने आप ही गढ़ लिया है और कुछ दूसरे लोगों ने इस काम में इसकी मदद की है।” बड़ा ज़ुल्म और सख़्त झूठ है जिसपर ये लोग उतर आए हैं।
وَقَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ٱكۡتَتَبَهَا فَهِيَ تُمۡلَىٰ عَلَيۡهِ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلٗا ۝ 3
(5) कहते हैं, ‘‘ये पुराने लोगों की लिखी हुई चीज़ें हैं जिन्हें यह शख़्स नक़्ल कराता है और वे इसे सुबह-शाम सुनाई जाती हैं।”
قُلۡ أَنزَلَهُ ٱلَّذِي يَعۡلَمُ ٱلسِّرَّ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّهُۥ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 4
(6) ऐ नबी, इनसे कहो, ‘‘इसे नाज़िल किया है उसने जो ज़मीन और आसमानों का भेद जानता है।” हक़ीक़त यह है कि वह बड़ा ग़फ़ूर व रहीम है।
سُورَةُ الفُرۡقَانِ
25. अल-फ़ुरक़ान
وَقَالُواْ مَالِ هَٰذَا ٱلرَّسُولِ يَأۡكُلُ ٱلطَّعَامَ وَيَمۡشِي فِي ٱلۡأَسۡوَاقِ لَوۡلَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مَلَكٞ فَيَكُونَ مَعَهُۥ نَذِيرًا ۝ 5
(7) कहते हैं, “यह कैसा रसूल है जो खाना खाता है और बाज़ारों में चलता-फिरता है? क्यों न इसके पास कोई फ़रिश्ता भेजा गया जो इसके साथ रहता और (न माननेवालों को) धमकाता?
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
أَوۡ يُلۡقَىٰٓ إِلَيۡهِ كَنزٌ أَوۡ تَكُونُ لَهُۥ جَنَّةٞ يَأۡكُلُ مِنۡهَاۚ وَقَالَ ٱلظَّٰلِمُونَ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا رَجُلٗا مَّسۡحُورًا ۝ 6
(8) या और कुछ नहीं तो इसके लिए कोई ख़ज़ाना ही उतार दिया जाता, या इसके पास कोई बाग़ ही होता जिससे यह (इत्मीनान की) रोज़ी हासिल करता।”और ये ज़ालिम कहते हैं, “तुम लोग तो एक सेहरज़दा आदमी के पीछे लग गए हो।”
تَبَارَكَ ٱلَّذِي نَزَّلَ ٱلۡفُرۡقَانَ عَلَىٰ عَبۡدِهِۦ لِيَكُونَ لِلۡعَٰلَمِينَ نَذِيرًا
(1) निहायत मुतबर्रिक है वह जिसने यह फ़ुरक़ान अपने बन्दे पर नाज़िल किया ताकि सारे जहानवालों के लिए ख़बरदार कर देनेवाला हो।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ ضَرَبُواْ لَكَ ٱلۡأَمۡثَٰلَ فَضَلُّواْ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ سَبِيلٗا ۝ 7
(9) देखो कैसी-कैसी हुज्जतें ये लोग तुम्हारे आगे पेश कर रहे हैं, ऐसे बहके हैं कि कोई ठिकाने की बात इनको नहीं सूझती।
ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَمۡ يَتَّخِذۡ وَلَدٗا وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ شَرِيكٞ فِي ٱلۡمُلۡكِ وَخَلَقَ كُلَّ شَيۡءٖ فَقَدَّرَهُۥ تَقۡدِيرٗا ۝ 8
(2) वह जो ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है, जिसने किसी को बेटा नहीं बनाया है, जिसके साथ बादशाही में कोई शरीक नहीं है, जिसने हर चीज़ को पैदा किया, फिर उसकी एक तक़दीर मुक़र्रर की।
تَبَارَكَ ٱلَّذِيٓ إِن شَآءَ جَعَلَ لَكَ خَيۡرٗا مِّن ذَٰلِكَ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ وَيَجۡعَل لَّكَ قُصُورَۢا ۝ 9
(10) बड़ा बा-बरकत है वह जो अगर चाहे तो उनकी तजवीज़ करदा चीज़ों से भी ज़्यादा बढ़-चढ़कर तुमको दे सकता है, (एक नहीं) बहुत-से बाग़ जिनके नीचे नहरें बहती हों, और बड़े-बड़े महल।
بَلۡ كَذَّبُواْ بِٱلسَّاعَةِۖ وَأَعۡتَدۡنَا لِمَن كَذَّبَ بِٱلسَّاعَةِ سَعِيرًا ۝ 10
(11) अस्ल बात यह है कि ये लोग ‘उस घड़ी’ को झुठला चुके हैं1— और जो उस घड़ी को झुठलाए उसके लिए हमने भड़कती हुई आग मुहैया कर रखी है।
1. यानी क़ियामत को।
إِذَا رَأَتۡهُم مِّن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ سَمِعُواْ لَهَا تَغَيُّظٗا وَزَفِيرٗا ۝ 11
(12) वह जब दूर से उनको देखेगी तो ये उसके ग़ज़ब और जोश की आवाज़ें सुन लेंगे।
يَوۡمَ يَرَوۡنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ لَا بُشۡرَىٰ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡمُجۡرِمِينَ وَيَقُولُونَ حِجۡرٗا مَّحۡجُورٗا ۝ 12
(22) जिस दिन ये फ़रिश्तों को देखेंगे, वह मुजरिमों के लिए किसी बशारत का दिन न होगा, चीख़ उठेंगे कि पनाहे-ख़ुदा,
وَإِذَآ أُلۡقُواْ مِنۡهَا مَكَانٗا ضَيِّقٗا مُّقَرَّنِينَ دَعَوۡاْ هُنَالِكَ ثُبُورٗا ۝ 13
(13) और जब ये दस्तो-पा उसमें एक तंग जगह ठूँसे जाएँगे तो अपनी मौत को पुकारने लगेंगे।
وَقَدِمۡنَآ إِلَىٰ مَا عَمِلُواْ مِنۡ عَمَلٖ فَجَعَلۡنَٰهُ هَبَآءٗ مَّنثُورًا ۝ 14
(23) और जो कुछ भी इनका किया-धरा है, उसे लेकर हम धूल की तरह उड़ा देंगे।
لَّا تَدۡعُواْ ٱلۡيَوۡمَ ثُبُورٗا وَٰحِدٗا وَٱدۡعُواْ ثُبُورٗا كَثِيرٗا ۝ 15
(14) (उस वक़्त उनसे कहा जाएगा कि) आज एक मौत को नहीं, बहुत-सी मौतों को पुकारो।
أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ يَوۡمَئِذٍ خَيۡرٞ مُّسۡتَقَرّٗا وَأَحۡسَنُ مَقِيلٗا ۝ 16
(24) बस वही लोग जो जन्नत के मुस्तहिक़ हैं, उस दिन अच्छी जगह ठहरेंगे और दोपहर गुज़ारने को उम्दा मक़ाम पाएँगे।
قُلۡ أَذَٰلِكَ خَيۡرٌ أَمۡ جَنَّةُ ٱلۡخُلۡدِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۚ كَانَتۡ لَهُمۡ جَزَآءٗ وَمَصِيرٗا ۝ 17
(15) इनसे पूछो, यह अंजाम अच्छा है या वह हमेशा रहनेवाली जन्नत जिसका वादा ख़ुदा-तरस परहेज़गारों से किया गया है? जो उनके अमल की जज़ा और उनके सफ़र की आख़िरी मंज़िल होगी,
لَّهُمۡ فِيهَا مَا يَشَآءُونَ خَٰلِدِينَۚ كَانَ عَلَىٰ رَبِّكَ وَعۡدٗا مَّسۡـُٔولٗا ۝ 18
(16) जिसमें उनकी हर ख़ाहिश पूरी होगी, जिसमें वे हमेशा-हमेशा रहेंगे, जिसका अता करना तुम्हारे रब के ज़िम्मे एक वाजिबुल-अदा वादा है।
وَيَوۡمَ تَشَقَّقُ ٱلسَّمَآءُ بِٱلۡغَمَٰمِ وَنُزِّلَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ تَنزِيلًا ۝ 19
(25) आसमान को चीरता हुआ एक बादल उस दिन नमूदार होगा और फ़रिश्तों के परे-के-परे उतार दिए जाएँगे।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ وَمَا يَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَقُولُ ءَأَنتُمۡ أَضۡلَلۡتُمۡ عِبَادِي هَٰٓؤُلَآءِ أَمۡ هُمۡ ضَلُّواْ ٱلسَّبِيلَ ۝ 20
(17) और वही दिन होगा जबकि (तुम्हारा रब) इन लोगों को घेर लाएगा और इनके उन माबूदों को भी बुला लेगा जिन्हें आज ये अल्लाह को छोड़कर पूज रहे हैं, फिर वह उनसे पूछेगा, “क्या तुमने मेरे इन बन्दों को गुमराह किया था? या ये ख़ुद राहे-रास्त से भटक गए थे?”
ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡحَقُّ لِلرَّحۡمَٰنِۚ وَكَانَ يَوۡمًا عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ عَسِيرٗا ۝ 21
(26) उस दिन हक़ीक़ी बादशाही सिर्फ़ रहमान की होगी और वह मुनकिरीन के लिए बड़ा सख़्त दिन होगा।
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ مَا كَانَ يَنۢبَغِي لَنَآ أَن نَّتَّخِذَ مِن دُونِكَ مِنۡ أَوۡلِيَآءَ وَلَٰكِن مَّتَّعۡتَهُمۡ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ نَسُواْ ٱلذِّكۡرَ وَكَانُواْ قَوۡمَۢا بُورٗا ۝ 22
(18) वे कहेंगे, “पाक है आपकी ज़ात! हमारी तो यह भी मजाल न थी कि आपके सिवा किसी को अपना मौला बनाएँ। मगर आपने इनको और इनके बाप-दादा को सामाने-ज़िन्दगी दे दिया, यहाँ तक कि ये सबक़ भूल गए और शामतज़दा होकर रहे।”
وَيَوۡمَ يَعَضُّ ٱلظَّالِمُ عَلَىٰ يَدَيۡهِ يَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي ٱتَّخَذۡتُ مَعَ ٱلرَّسُولِ سَبِيلٗا ۝ 23
(27) ज़ालिम इनसान अपने हाथ चबाएगा और कहेगा, “काश, मैंने रसूल का साथ दिया होता!
فَقَدۡ كَذَّبُوكُم بِمَا تَقُولُونَ فَمَا تَسۡتَطِيعُونَ صَرۡفٗا وَلَا نَصۡرٗاۚ وَمَن يَظۡلِم مِّنكُمۡ نُذِقۡهُ عَذَابٗا كَبِيرٗا ۝ 24
(19) यूँ झुठला देंगे वे (तुम्हारे माबूद) तुम्हारी उन बातों को जो आज तुम कह रहे हो,2 फिर तुम न अपनी शामत को टाल सकोगे, न कहीं से मदद पा सकोगे और जो भी तुममें से ज़ुल्म करे, उसे हम सख़्त अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
2. मज़मून ख़ुद ज़ाहिर कर रहा है कि इन आयतों में माबूदों से मुराद बुत, या चाँद, सूरज वग़ैरा नहीं हैं, बल्कि फ़रिश्ते और नेक इनसान हैं जिनको दुनिया में माबूद बना लिया गया।
يَٰوَيۡلَتَىٰ لَيۡتَنِي لَمۡ أَتَّخِذۡ فُلَانًا خَلِيلٗا ۝ 25
(28) हाय मेरी कमबख़्ती! काश, मैंने फ़ुलाँ शख़्स को दोस्त न बनाया होता!
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّآ إِنَّهُمۡ لَيَأۡكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَيَمۡشُونَ فِي ٱلۡأَسۡوَاقِۗ وَجَعَلۡنَا بَعۡضَكُمۡ لِبَعۡضٖ فِتۡنَةً أَتَصۡبِرُونَۗ وَكَانَ رَبُّكَ بَصِيرٗا ۝ 26
(20) ऐ नबी, तुमसे पहले जो रसूल भी हमने भेजे थे, वे सब भी खाना खानेवाले और बाज़ारों में चलने-फिरनेवाले लोग ही थे। दरअस्ल हमने तुम लोगों को एक-दूसरे के लिए आज़माइश का ज़रिआ बना दिया है।3 क्या तुम सब्र करते हो?4 तुम्हारा रब सब कुछ देखता है।
3. यानी रसूल और अहले-ईमान के लिए मुनकिरीन आज़माइश हैं और मुनकिरीन के लिए रसूल और अहले-ईमान।
4. यानी इस मस्लहत को समझ लेने के बाद क्या अब तुमको सब्र आ गया कि आज़माइश की यह हालत इस मक़सदे-ख़ैर के लिए निहायत ज़रूरी है जिसके लिए तुम काम कर रहे हो? क्या अब तुम वे चोटें खाने पर राज़ी हो जो इस आज़माइश के दौर में लगनी नागुज़ीर हैं?
لَّقَدۡ أَضَلَّنِي عَنِ ٱلذِّكۡرِ بَعۡدَ إِذۡ جَآءَنِيۗ وَكَانَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لِلۡإِنسَٰنِ خَذُولٗا ۝ 27
(29) उसके बहकावे में आकर मैंने वह नसीहत न मानी जो मेरे पास आई थी, शैतान इनसान के हक़ में बड़ा ही बेवफ़ा निकला।”
۞وَقَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ نَرَىٰ رَبَّنَاۗ لَقَدِ ٱسۡتَكۡبَرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ وَعَتَوۡ عُتُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 28
(21) जो लोग हमारे हुज़ूर पेश होने का अन्देशा नहीं रखते वे कहते हैं, “क्यों न फ़रिश्ते हमारे पास भेजे जाएँ? या फिर हम अपने रब को देखें।” बड़ा घमण्ड ले बैठे ये अपने नफ़्स में और हद से गुज़र गए ये अपनी सरकशी में।
وَقَالَ ٱلرَّسُولُ يَٰرَبِّ إِنَّ قَوۡمِي ٱتَّخَذُواْ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ مَهۡجُورٗا ۝ 29
(30) और रसूल कहेगा कि “ऐ मेरे रब, मेरी क़ौम के लोगों ने इस क़ुरआन को निशान-ए-तज़हीक बना लिया था।”
أَمۡ تَحۡسَبُ أَنَّ أَكۡثَرَهُمۡ يَسۡمَعُونَ أَوۡ يَعۡقِلُونَۚ إِنۡ هُمۡ إِلَّا كَٱلۡأَنۡعَٰمِ بَلۡ هُمۡ أَضَلُّ سَبِيلًا ۝ 30
(44) क्या तुम समझते हो कि इनमें से अकसर लोग सुनते और समझते हैं? ये तो जानवरों की तरह हैं, बल्कि उनसे भी गए गुज़रे।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوّٗا مِّنَ ٱلۡمُجۡرِمِينَۗ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ هَادِيٗا وَنَصِيرٗا ۝ 31
(31) ऐ नबी, हमने तो इसी तरह मुजरिमों को हर नबी का दुश्मन बनाया है और तुम्हारे लिए तुम्हारा रब ही रहनुमाई और मदद को काफ़ी है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَىٰ رَبِّكَ كَيۡفَ مَدَّ ٱلظِّلَّ وَلَوۡ شَآءَ لَجَعَلَهُۥ سَاكِنٗا ثُمَّ جَعَلۡنَا ٱلشَّمۡسَ عَلَيۡهِ دَلِيلٗا ۝ 32
(45) तुमने देखा नहीं कि तुम्हारा रब किस तरह साया फैला देता है? अगर वह चाहता तो उसे दाइमी साया बना देता। हमने सूरज को उसपर दलील बनाया,8
8. मल्लाहों की इस्तिलाह में दलील उस शख़्स को कहते हैं जो कश्तियों को रास्ता दिखाता हो। साए को सूरज पर दलील बनाने का मतलब यह है कि साए का फैलना और सिकुड़ना सूरज के उरूज व ज़वाल और तूलूअ व ग़ुरूब होने का ताबेअ है।
ثُمَّ قَبَضۡنَٰهُ إِلَيۡنَا قَبۡضٗا يَسِيرٗا ۝ 33
(46) फिर (जैसे-जैसे सूरज उठता जाता है) हम उस साए को रफ़्ता-रफ़्ता अपनी तरफ़ समेटते चले जाते हैं।9
9. अपनी तरफ़ समेटने से मुराद ग़ायब और फ़ना करना है, क्योंकि हर चीज़़ जो फ़ना होती है वह अल्लाह हो की तरफ़ पलटती है। हर शय उसी की तरफ़ से आती है और उसी की तरफ़ जाती है।
وَعِبَادُ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلَّذِينَ يَمۡشُونَ عَلَى ٱلۡأَرۡضِ هَوۡنٗا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ ٱلۡجَٰهِلُونَ قَالُواْ سَلَٰمٗا ۝ 34
(63) रहमान के (असली) बन्दे वे हैं जो ज़मीन पर नर्म चाल चलते हैं13 और जाहिल उनके मुँह आएँ तो कह देते हैं कि तुमको सलाम।
13. यानी तकब्बुर के साथ अकड़ते और ऐंठते हुए नहीं चलते, जब्बारों और मुफ़सिदों की तरह अपनी चाल से अपना ज़ोर जताने की कोशिश नहीं करते, बल्कि उनकी चाल एक शरीफ़ और सलीमुत-तबअ और नेक मिज़ाज आदमी की-सी चाल होती है।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِبَاسٗا وَٱلنَّوۡمَ سُبَاتٗا وَجَعَلَ ٱلنَّهَارَ نُشُورٗا ۝ 35
(47) और वह अल्लाह ही है जिसने रात को तुम्हारे लिए लिबास, और नींद को सुकूने-मौत, और दिन को जी उठने का वक़्त बनाया।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ عَلَيۡهِ ٱلۡقُرۡءَانُ جُمۡلَةٗ وَٰحِدَةٗۚ كَذَٰلِكَ لِنُثَبِّتَ بِهِۦ فُؤَادَكَۖ وَرَتَّلۡنَٰهُ تَرۡتِيلٗا ۝ 36
(32) मुनकिरीन कहते हैं, “इस आदमी पर सारा क़ुरआन एक ही वक़्त में क्यों न उतार दिया गया?”— हाँ, ऐसा इसलिए किया गया है कि इसको अच्छी तरह हम तुम्हारे ज़ेहन नशीन करते रहें। और (इसी ग़रज़ के लिए) हमने इसको एक ख़ास तरतीब के साथ अलग-अलग अजज़ा की शक्ल दी है।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ ٱلرِّيَٰحَ بُشۡرَۢا بَيۡنَ يَدَيۡ رَحۡمَتِهِۦۚ وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ طَهُورٗا ۝ 37
(48) और वही है जो अपनी रहमत के आगे-आगे हवाओं को बशारत बनाकर भेजता है। फिर आसमान से पाक पानी नाज़िल करता है
وَٱلَّذِينَ يَبِيتُونَ لِرَبِّهِمۡ سُجَّدٗا وَقِيَٰمٗا ۝ 38
(64) जो अपने रब के हुज़ूर सजदे में और क़ियाम में रातें गुज़ारते हैं।
لِّنُحۡـِۧيَ بِهِۦ بَلۡدَةٗ مَّيۡتٗا وَنُسۡقِيَهُۥ مِمَّا خَلَقۡنَآ أَنۡعَٰمٗا وَأَنَاسِيَّ كَثِيرٗا ۝ 39
(49) ताकि एक मुर्दा इलाक़े को उसके ज़रिए से ज़िन्दगी बख़्शे और अपनी मख़लूक़ में से बहुत-से जानवरों और इनसानों को सैराब करे।
وَلَا يَأۡتُونَكَ بِمَثَلٍ إِلَّا جِئۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ وَأَحۡسَنَ تَفۡسِيرًا ۝ 40
(33) और (इसमें यह मस्लहत भी है कि) जब कभी वह तुम्हारे सामने कोई निराली बात (या अजीब सवाल) लेकर आए, उसका ठीक जवाब बर-वक़्त हमने तुम्हें दे दिया और बेहतरीन तरीक़े से बात खोल दी।
وَٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا ٱصۡرِفۡ عَنَّا عَذَابَ جَهَنَّمَۖ إِنَّ عَذَابَهَا كَانَ غَرَامًا ۝ 41
(65) जो दुआएँ करते हैं कि “ऐ हमारे रब, जहन्नम के अज़ाब से हमको बचा ले, उसका अज़ाब तो जान का लागू है,
إِنَّهَا سَآءَتۡ مُسۡتَقَرّٗا وَمُقَامٗا ۝ 42
(66) वह तो बड़ा ही बुरा मुस्तक़र और मक़ाम है।”
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَٰهُ بَيۡنَهُمۡ لِيَذَّكَّرُواْ فَأَبَىٰٓ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 43
(50) इस करिश्मे को हम बार-बार उनके सामने लाते हैं ताकि वे कुछ सबक़ लें, मगर अकसर लोग कुफ़्र और नाशुक्री के सिवा कोई दूसरा रवैया अपनाने से इनकार कर देते हैं।
ٱلَّذِينَ يُحۡشَرُونَ عَلَىٰ وُجُوهِهِمۡ إِلَىٰ جَهَنَّمَ أُوْلَٰٓئِكَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضَلُّ سَبِيلٗا ۝ 44
(34) — जो लोग औंधे मुँह जहन्नम की तरफ़ धकेले जानेवाले हैं उनका मौक़िफ़ बहुत बुरा है और उनकी राह हद दर्जा ग़लत।
وَٱلَّذِينَ إِذَآ أَنفَقُواْ لَمۡ يُسۡرِفُواْ وَلَمۡ يَقۡتُرُواْ وَكَانَ بَيۡنَ ذَٰلِكَ قَوَامٗا ۝ 45
(67) जो ख़र्च करते हैं तो न फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं न बुख़्ल, बल्कि उनका ख़र्च दोनों इन्तिहाओं के दरमियान एतिदाल पर क़ायम रहता है।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلۡنَا مَعَهُۥٓ أَخَاهُ هَٰرُونَ وَزِيرٗا ۝ 46
(35) हमने मूसा को किताब5 दी और उसके साथ उसके भाई हारून को मददगार के तौर पर लगाया
5. यहाँ किताब से मुराद ग़ालिबन वह किताब नहीं है जो मिस्र से निकलने के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) को दो गई थी, बल्कि इससे मुराद वे हिदायात हैं जो मंसबे-नुबूवत पर मामूर होने के वक़्त से लेकर मिस्र से निकलने तक हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी जाती रही हैं। उनमें वे ख़ुतबे भी शामिल हैं जो अल्लाह के हुक्म से हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन के दरबार में दिए और वे हिदायात भी शामिल हैं जो फ़िरऔन के ख़िलाफ जिद्दो-जुह्द के दौरान में आपको दी जाती रही हैं। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह इन चीज़़ों का ज़िक्र है, मगर अग़लब यह है कि ये चीज़़ें तौरात में शामिल नहीं की गईं। तौरात का आग़ाज़ उन अहकामे-अ-श-र से होता है जो ख़ुरूज के बाद तूरे-सीना पर कतबों की शक्ल में आपको दिए गए थे।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَبَعَثۡنَا فِي كُلِّ قَرۡيَةٖ نَّذِيرٗا ۝ 47
(51) अगर हम चाहते तो एक-एक बस्ती में एक-एक ख़बरदार करनेवाला उठा खड़ा करते।10
10. यानी ऐसा करना हमारी क़ुदरत से बाहर न था, चाहते तो जगह-जगह नबी पैदा कर सकते थे मगर हमने ऐसा नहीं किया और दुनिया भर के लिए एक ही नबी मबऊस कर दिया, जिस तरह एक सूरज सारे जहान के लिए काफ़ी हो रहा है, उसी तरह यह अकेला आफ़ताबे-हिदायत ही सारे जहानवालों के लिए काफ़ी है।
وَٱلَّذِينَ لَا يَدۡعُونَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ وَلَا يَقۡتُلُونَ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَلَا يَزۡنُونَۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ يَلۡقَ أَثَامٗا ۝ 48
(68) जो अल्लाह के सिवा किसी और माबूद को नहीं पुकारते, अल्लाह की हराम की हुई किसी जान को नाहक़ हलाक नहीं करते, और न ज़िना के मुर्तकिब होते हैं। — यह काम जो कोई करे वह अपने गुनाह का बदला पाएगा।
فَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَجَٰهِدۡهُم بِهِۦ جِهَادٗا كَبِيرٗا ۝ 49
(52) पस ऐ नबी, काफ़रों की बात हरगिज़ न मानो और इस क़ुरआन को लेकर उनके साथ ज़बरदस्त जिहाद करो।
فَقُلۡنَا ٱذۡهَبَآ إِلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَدَمَّرۡنَٰهُمۡ تَدۡمِيرٗا ۝ 50
(36) और उनसे कहा कि जाओ उस क़ौम की तरफ़ जिसने हमारी आयात को झुठला दिया है। आख़िरकार उन लोगों को हमने तबाह करके रख दिया।
يُضَٰعَفۡ لَهُ ٱلۡعَذَابُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَيَخۡلُدۡ فِيهِۦ مُهَانًا ۝ 51
(69) क़ियामत के रोज़ उसको मुकर्रर अज़ाब दिया जाएगा और उसी में वह हमेशा ज़िल्लत के साथ पड़ा रहेगा।
۞وَهُوَ ٱلَّذِي مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ هَٰذَا عَذۡبٞ فُرَاتٞ وَهَٰذَا مِلۡحٌ أُجَاجٞ وَجَعَلَ بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٗا وَحِجۡرٗا مَّحۡجُورٗا ۝ 52
(53) और वही है जिसने दो समुन्दरों को मिला रखा है। एक लज़ीज़ व शीरीं, दूसरा तल्ख़ व शोर। और दोनों के बीच एक परदा हाइल है। एक रुकावट है जो उन्हें गड्ड-मड्ड होने से रोके हुए है।11
11. यह कैफ़ियत हर उस जगह रूनुमा होती है जहाँ कोई बड़ा दरिया समुन्दर में आकर गिरता है। इसके अलावा ख़ुद समुन्दर में भी मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर मीठे पानी के चश्मे पाए जाते हैं जिनका पानी समुन्दर के निहायत तल्ख़ पानी के दरमियान भी अपनी मिठास पर क़ायम रहता है। मिसाल के तौर पर बहरैन और दूसरे मक़ामात पर ख़लीजे-फ़ारिस की तह से इस तरह के बहुत से चश्मे निकले हुए हैं जिनसे लोग मीठा पानी हासिल करते हैं।
وَقَوۡمَ نُوحٖ لَّمَّا كَذَّبُواْ ٱلرُّسُلَ أَغۡرَقۡنَٰهُمۡ وَجَعَلۡنَٰهُمۡ لِلنَّاسِ ءَايَةٗۖ وَأَعۡتَدۡنَا لِلظَّٰلِمِينَ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 53
(37) यही हाल नूह की क़ौम का हुआ जब उन्होंने रसूलों की तकज़ीब की। हमने उनको ग़र्क़ कर दिया और दुनिया भर के लोगों के लिए निशाने-इबरत बना दिया और उन ज़ालिमों के लिए एक दर्दनाक अज़ाब हमने मुहैया कर रखा है।
إِلَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ عَمَلٗا صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ يُبَدِّلُ ٱللَّهُ سَيِّـَٔاتِهِمۡ حَسَنَٰتٖۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 54
(70) इल्ला यह कि कोई (इन गुनाहों के बाद) तौबा कर चुका हो और ईमान लाकर अमले-सॉलेह करने लगा हो। ऐसे लोगों की बुराइयों को अल्लाह भलाइयों से बदल देगा। और वह बड़ा ग़फ़ूर व रहीम है।
وَعَادٗا وَثَمُودَاْ وَأَصۡحَٰبَ ٱلرَّسِّ وَقُرُونَۢا بَيۡنَ ذَٰلِكَ كَثِيرٗا ۝ 55
(38) इसी तरह आद और समूद और असहाबुर्रस्स6 और बीच की सदियों के बहुत-से लोग तबाह किए गए।
6. 'रस्स' अरबी ज़बान में पुराने या अन्धे कुएँ को कहते हैं। असहाबुर्रस्स' वे लोग थे जिन्होंने अपने नबी को कुएँ में फेंककर या लटकाकर मार दिया था।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ مِنَ ٱلۡمَآءِ بَشَرٗا فَجَعَلَهُۥ نَسَبٗا وَصِهۡرٗاۗ وَكَانَ رَبُّكَ قَدِيرٗا ۝ 56
(54) और वही है जिसने पानी से एक बशर पैदा किया, फिर उससे नसब और ससुराल के दो अलग-अलग सिलसिले चलाए। तेरा रब बड़ा ही क़ुदरतवाला है।
وَمَن تَابَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَإِنَّهُۥ يَتُوبُ إِلَى ٱللَّهِ مَتَابٗا ۝ 57
(71) जो शख़्स तौबा करके नेक अमली इख़्तियार करता है वह तो अल्लाह की तरफ़ पलट आता है जैसा कि पलटने का हक़ है।
وَكُلّٗا ضَرَبۡنَا لَهُ ٱلۡأَمۡثَٰلَۖ وَكُلّٗا تَبَّرۡنَا تَتۡبِيرٗا ۝ 58
(39) उनमें से हर एक को हमने (पहले तबाह होनेवालों की) मिसालें दे-देकर समझाया और आख़िरकार हर एक को ग़ारत कर दिया।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُهُمۡ وَلَا يَضُرُّهُمۡۗ وَكَانَ ٱلۡكَافِرُ عَلَىٰ رَبِّهِۦ ظَهِيرٗا ۝ 59
(55) उस ख़ुदा को छोड़कर लोग उनको पूज रहे हैं जो न उनको नफ़ा पहुँचा सकते हैं, न नुक़सान और ऊपर से मज़ीद यह कि काफ़ि अपने रब के मुक़ाबले में हर बाग़ी का मददगार बना हुआ है।
وَٱلَّذِينَ لَا يَشۡهَدُونَ ٱلزُّورَ وَإِذَا مَرُّواْ بِٱللَّغۡوِ مَرُّواْ كِرَامٗا ۝ 60
(72) — (और रहमान के बन्दे वे हैं) जो झूठ के गवाह नहीं बनते और किसी लग़्व चीज़ पर उनका गुज़र हो जाए तो शरीफ़ आदमियों की तरह गुज़र जाते हैं।
وَلَقَدۡ أَتَوۡاْ عَلَى ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِيٓ أُمۡطِرَتۡ مَطَرَ ٱلسَّوۡءِۚ أَفَلَمۡ يَكُونُواْ يَرَوۡنَهَاۚ بَلۡ كَانُواْ لَا يَرۡجُونَ نُشُورٗا ۝ 61
(40) और उस बस्ती पर तो इनका गुज़र हो चुका है जिसपर बदतरीन बारिश बरसाई गई थी।7 क्या इन्होंने उसका हाल देखा न होगा? मगर ये मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी की तवक़्क़ो ही नहीं रखते।
7. यानी क़ौमे-लूत (अलैहि०) की बस्ती। बदतरीन बारिश से मुराद पत्थरों की बारिश है।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا مُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 62
(56) ऐ नबी, तुमको तो हमने बस एक बशारत देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला बनाकर भेजा है।12
12. यानी तुम्हारा काम न किसी ईमान लानेवाले को जज़ा देना है, न किसी इनकार करनेवाले को सज़ा देना। तुम किसी को ईमान की तरफ़ खींच लाने और इनकार से ज़बरदस्ती रोक देने पर मामूर नहीं किए गए हो। तुम्हारी ज़िम्मेदारी इससे ज़्यादा कुछ नहीं कि जो राहे-रास्त क़ुबूल करे उसे अंजामे-नेक की बशारत दे दो, और जो अपनी बदराही पर जमा रहे उसको अल्लाह की पकड़ से डरा दो।
وَٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِّرُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ لَمۡ يَخِرُّواْ عَلَيۡهَا صُمّٗا وَعُمۡيَانٗا ۝ 63
(73) जिन्हें अगर उनके रब की आयात सुनाकर नसीहत की जाती है तो वे उसपर अंधे और बहरे बनकर नहीं रह जाते।
وَٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا هَبۡ لَنَا مِنۡ أَزۡوَٰجِنَا وَذُرِّيَّٰتِنَا قُرَّةَ أَعۡيُنٖ وَٱجۡعَلۡنَا لِلۡمُتَّقِينَ إِمَامًا ۝ 64
(74) जो दुआएँ माँगा करते हैं, “ऐ हमारे रब, हमें अपनी बीवियों और अपनी औलाद से आँखों की ठण्डक दे और हमको परहेज़गारों का इमाम बना।”14
14. यानी हम तक़वा और इताअत में सबसे बढ़ जाएँ, भलाई और नेकी में सबसे आगे निकल जाएँ, सिर्फ़ नेक ही न हों बल्कि नेकों के पेशवा हों और हमारी बदौलत दुनिया भर में नेकी फैले। इस चीज़़ का ज़िक्र यहाँ दरअस्ल यह बताने के लिए किया गया है कि ये वे लोग हैं जो माल व दौलत और शौकत व हशमत में नहीं, बल्कि नेकी व परहेज़गारी में एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिश करते हैं।
وَإِذَا رَأَوۡكَ إِن يَتَّخِذُونَكَ إِلَّا هُزُوًا أَهَٰذَا ٱلَّذِي بَعَثَ ٱللَّهُ رَسُولًا ۝ 65
(41) ये लोग जब तुम्हें देखते हैं तो तुम्हारा मज़ाक़ बना लेते हैं। (कहते हैं) “क्या यह शख़्स है जिसे ख़ुदा ने रसूल बनाकर भेजा है?
قُلۡ مَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍ إِلَّا مَن شَآءَ أَن يَتَّخِذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ سَبِيلٗا ۝ 66
(57) इनसे कह दो कि “मैं इस काम पर तुमसे कोई उजरत नहीं माँगता, मेरी उजरत बस यही है कि जिसका जी चाहे वह अपने रब का रास्ता इख़्तियार कर ले।”
أُوْلَٰٓئِكَ يُجۡزَوۡنَ ٱلۡغُرۡفَةَ بِمَا صَبَرُواْ وَيُلَقَّوۡنَ فِيهَا تَحِيَّةٗ وَسَلَٰمًا ۝ 67
(75)— ये हैं वे लोग जो अपने सब्र का फल बलन्द मंज़िल की शक्ल में पाएँगे। आदाब व तसलीमात से उनका इस्तिक़बाल होगा।
وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱلۡحَيِّ ٱلَّذِي لَا يَمُوتُ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِهِۦۚ وَكَفَىٰ بِهِۦ بِذُنُوبِ عِبَادِهِۦ خَبِيرًا ۝ 68
(58) ऐ नबी, उस ख़ुदा पर भरोसा रखो जो ज़िन्दा है और कभी मरनेवाला नहीं। उसकी हम्द के साथ उसकी तसबीह करो। अपने बन्दों के गुनाहों से बस उसी का बाख़बर होना काफ़ी है।
إِن كَادَ لَيُضِلُّنَا عَنۡ ءَالِهَتِنَا لَوۡلَآ أَن صَبَرۡنَا عَلَيۡهَاۚ وَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ حِينَ يَرَوۡنَ ٱلۡعَذَابَ مَنۡ أَضَلُّ سَبِيلًا ۝ 69
(42) इसने तो हमें गुमराह करके अपने माबूदों से बरगश्ता कर ही दिया होता अगर हम उनकी अक़ीदत पर जम न गए होते।”अच्छा, वह वक़्त दूर नहीं है जब अज़ाब देखकर इन्हें ख़ुद मालूम हो जाएगा कि कौन गुमराही में दूर निकल गया था।
ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ ٱلرَّحۡمَٰنُ فَسۡـَٔلۡ بِهِۦ خَبِيرٗا ۝ 70
(59) वह जिसने छः दिनों में ज़मीन और आसमानों को और उन सारी चीज़ों को बनाकर रख दिया जो आसमानों और ज़मीन के दरमियान हैं, फिर आप ही ‘अर्श’ पर जलवाफ़रमा हुआ। रहमान, उसकी शान बस किसी जाननेवाले से पूछो।
خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ حَسُنَتۡ مُسۡتَقَرّٗا وَمُقَامٗا ۝ 71
(76) वे हमेशा-हमेशा वहाँ रहेंगे। क्या ही अच्छा है वह मुस्तक़र और वह मक़ाम।
أَرَءَيۡتَ مَنِ ٱتَّخَذَ إِلَٰهَهُۥ هَوَىٰهُ أَفَأَنتَ تَكُونُ عَلَيۡهِ وَكِيلًا ۝ 72
(43) कभी तुमने उस शख़्स के हाल पर ग़ौर किया है जिसने अपने ख़ाहिशे-नफ़्स को अपना ख़ुदा बना लिया हो?” क्या तुम ऐसे शख़्स को राहे-रास्त पर लाने का ज़िम्मा ले सकते हो?
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱسۡجُدُواْۤ لِلرَّحۡمَٰنِ قَالُواْ وَمَا ٱلرَّحۡمَٰنُ أَنَسۡجُدُ لِمَا تَأۡمُرُنَا وَزَادَهُمۡ نُفُورٗا۩ ۝ 73
(60) इन लोगों से जब कहा जाता है कि उस रहमान को सजदा करो तो कहते हैं, “रहमान क्या होता है? क्या जिसे तू कह दे, उसी को हम सजदा करते फिरें?” यह दावत उनकी नफ़रत में उलटा और इज़ाफ़ा कर देती है।
قُلۡ مَا يَعۡبَؤُاْ بِكُمۡ رَبِّي لَوۡلَا دُعَآؤُكُمۡۖ فَقَدۡ كَذَّبۡتُمۡ فَسَوۡفَ يَكُونُ لِزَامَۢا ۝ 74
(77) ऐ नबी, लोगों से कहो, “मेरे रब को तुम्हारी क्या हाजत पड़ी है अगर तुम उसको न पुकारो।15 अब कि तुमने झुठला दिया है, अन-क़रीब वह सज़ा पाओगे कि जान छुड़ानी मुशकिल होगी।”
15. यानी अगर तुम अल्लाह से दुआएँ न माँगो, और उसकी इबादत न करो, और अपनी हाजात में उसको मदद के लिए न पुकारो, तो फिर तुम्हारा कोई वज़्‌न भी अल्लाह तआला की निगाह में नहीं है जिसकी वजह से वह परे-काह बराबर भी तुम्हारी परवाह करे। मह्ज़ मख़लूक़ होने की हैसियत से तुममें और पत्थरों में कोई फ़र्क़ नहीं। तुमसे अल्लाह की कोई हाजत अटकी हुई नहीं है कि तुम बन्दगी न करोगे तो उसका कोई काम रुका रह जाएगा। उसकी निगाहे-इल्तिफ़ात को जो चीज़़ तुम्हारी तरफ़ माइल करती है वह तुम्हारा उसकी तरफ़ हाथ फैलाना और उससे दुआएँ माँगना ही है। यह काम न करोगे तो कूड़ा-करकट की तरह फेंक दिए जाओगे।
تَبَارَكَ ٱلَّذِي جَعَلَ فِي ٱلسَّمَآءِ بُرُوجٗا وَجَعَلَ فِيهَا سِرَٰجٗا وَقَمَرٗا مُّنِيرٗا ۝ 75
(61) बड़ा मुतबर्रिक है वह जिसने आसमान में बुर्ज बनाए और उसमें एक चराग़ और एक चमकता चाँद रौशन किया।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ خِلۡفَةٗ لِّمَنۡ أَرَادَ أَن يَذَّكَّرَ أَوۡ أَرَادَ شُكُورٗا ۝ 76
(62) वही है जिसने रात और दिन को एक-दूसरे का जानशीन बनाया, हर उस शख़्स के लिए जो सबक़ लेना चाहे, या शुक्रगुज़ार होना चाहे।