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سُورَةُ يُونُسَ

  1.  यूनुस

(मक्‍का में उतरी – आयतें 109)

परि‍चय

नाम

इस सूरा का नाम नियमानुसार केवल प्रतीक के रूप में आयत 98 से लिया गया है, जिसमें संकेत रूप में हज़रत यूनुस (अलैहि०) का उल्लेख हुआ है। सूरा की वार्ता का विषय हज़रत यूनुस (अलैहि०) का क़िस्सा नहीं है।

उतरने का स्थान

रिवायतों से मालूम होता है और विषयवस्तु से इसका समर्थन होता है कि यह पूरी सूरा मक्के में उतरी है।

उतरने का समय

उतरने के समय के बारे में कोई रिवायत हमें नहीं मिली। लेकिन विषय से ऐसा ही प्रतीत होता है कि यह सूरा मक्का-निवास के अन्तिम काल में उतरी होगी, जब इस्लामी संदेश के विरोधी पूरी तीव्रता से अवरोध उत्पन्न कर रहे थे। लेकिन इस सूरा में हिजरत (घर-बार छोड़ने) की ओर भी कोई संकेत नहीं पाया जाता, इसलिए इसका समय उन सूरतों से पहले का समझना चाहिए जिनमें कोई न कोई सूक्ष्म या असूक्ष्म संकेत हमें हिजरत के बारे में मिलता है --- समय के इस निर्धारण के बाद ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उल्लेख की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, क्योंकि इस काल को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सूरा-6 (अनआम) और सूरा-7 (आराफ़) की प्रस्तावनाओं में वर्णन किया जा चुका है।

विषय

व्याख्यान का विषय दावत (आह्वान), उपदेश और चेतावनी है । बात इस तरह शुरू होती है लोग एक इंसान के नबी होने का सन्देश प्रस्तुत करने पर चकित हैं और इसे ख़ाहमख़ाह जादूगरी का इलज़ाम दे रहे हैं, हालाँकि जो बात वह पेश कर रहा है उसमें कोई चीज़ भी न तो विचित्र ही है और न ही जादू और ज्योतिष से ताल्लुक़ रखती है। वह तो दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों से तुम्हें अवगत करा रहा है। [एक तो एकेश्वरवाद, दूसरा क़ियामत और बदला दिए जाने के दिन का आना।] ये दोनों तथ्य जो वह तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा है, अपने आपमें सही हैं, चाहे तुम मानो या न मानो। इन्हें अगर मान लोगे तो तुम्हारा अपना ही अंजाम अच्छा होगा वरना स्वयं ही बुरा नतीजा देखोगे।

वार्ताएँ

इस भूमिका के बाद निम्‍न वार्ताएँ एक विशेष क्रम के साथ सामने आती हैं-

(1) वे प्रमाण जो रब के एक होने और मरने के बाद की ज़िन्दगी के सिलसिले में ऐसे लोगों की बुद्धि और अन्तरात्मा को सन्तुष्ट कर सकते हैं जो अज्ञानता पूर्ण विद्वेष में ग्रस्त न हों।

(2) उन ग़लतफहमियों को दूर किया गया और उन ग़फ़लतों (भुलावों) पर चेतावनी दी गई जो लोगों को तौहीद और आख़िरत का विश्वास मानने से रोक बन रही थीं (और हमेशा ऐसा हुआ करता है)।

(3) उन सन्देहों और आपत्तियों का उत्तर जो मुहम्मद (सल्ल०) के रसूल होने और आपके लाए हुए सन्देश के बारे में की जाती थीं।

(4) दूसरे जीवन में जो कुछ सामने आनेवाला है, उसकी अग्रिम सूचना ।

(5) इस बात पर चेतावनी कि इस जगत का वर्तमान जीवन वास्तव में परीक्षा का जीवन है। इस जीवन की मोहलत को अगर तुमने नष्ट कर दिया और नबी का मार्गदर्शन स्वीकार करके परीक्षा की सफलता का सामान न किया, तो फिर कोई दूसरा अवसर तुम्हें मिलना नहीं है।

(6) उन खुली-खुली अज्ञानताओं और गुमराहियों की ओर संकेत जो लोगों के जीवन में केवल इस कारण पाई जा रही थीं कि वे अल्लाह के मार्गदर्शन के बिना जी रहे थे।

इस सिलसिले में नूह (अलैहि०) का क़िस्सा संक्षेप में और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा तनिक विस्तार के साथ बयान किया गया है जिससे चार बातें मन में बिठानी हैं-

एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ जो मामला तुम लोग कर रहे हो, वह इससे मिलता-जुलता है जो नूह और मूसा (अलैहि०) के साथ तुम्हारे पहले के लोग कर चुके हैं और विश्वास करो कि इस नीति का जो परिणाम वे देख चुके हैं, वही तुम्हें भी देखना पड़ेगा।

दूसरे यह कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथियों को आज कमज़ोर और बेबस देखकर यह न समझ लेना कि स्थिति सदैव यही रहेगी। तुम्हें खबर नहीं कि इन लोगों के पीछे वही अल्लाह है जो मूसा और हारून के पीछे था और वह ऐसे तरीक़े से स्थिति में परिवर्तन ला देता है जिस तक किसी की दृष्टि नहीं पहुँच सकती।

तीसरे यह कि संभलने की मोहलत समाप्त हो जाने के बाद (बिलकुल) अन्तिम क्षण में तौबा की तो क्षमा नहीं किए जाओगे।

चौथे यह कि ईमानवाले, विरोधी वातावरण की तीव्रता देखकर निराश न हों और उन्हें मालूम हो कि इन परिस्थितियों में उनको किस तरह काम करना चाहिए। साथ ही वे इस बात पर भी सचेत हो जाएँ कि जब अल्लाह अपनी कृपा से उनको इस सिथति से निकाल दे तो कहीं वे इस नीति पर न चल पड़ें जो बनी-इसराईल ने मिस्र से मुक्ति पाने पर अपनाई।

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سُورَةُ يُونُسَ
10. सूरा यूनुस
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡحَكِيمِ
अलिफ़-लाम-रा, ये उस किताब की आयात हैं जो हिकमत व दानिश से लबरेज़ है।
أَكَانَ لِلنَّاسِ عَجَبًا أَنۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ رَجُلٖ مِّنۡهُمۡ أَنۡ أَنذِرِ ٱلنَّاسَ وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنَّ لَهُمۡ قَدَمَ صِدۡقٍ عِندَ رَبِّهِمۡۗ قَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٞ مُّبِينٌ ۝ 1
(2) क्या लोगों के लिए यह एक अजीब बात हो गई कि हमने ख़ुद उन्हीं में से एक आदमी पर वह्य भेजी कि (ग़फ़लत में पड़े हुए) लोगों को चौंका दे और जो मान लें उनको ख़ुशखबरी दे दे कि उनके लिए उनके रब के पास मची इज़्ज़त व सरफ़राज़ी है? (इसपर) मुनकिरीन ने कहा कि यह शख़्स तो खुला जादूगर है।1
1. हुजर (सल्ल०) को जादूगर वे इस मानी में कहते थे कि जो शख़्स भी क़ुरआन सुनकर आप (सल्ल०) की तबलीग़ से मुतास्सिर होकर ईमान लाता था वह जान पर खेल जाने और दुनिया भर से कट जाने और हर मुसीबत बरदाश्त करने के लिए तैयार हो जाता था।
إِنَّ رَبَّكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَۖ مَا مِن شَفِيعٍ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ إِذۡنِهِۦۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 2
(3) हक़ीक़त यह है कि तुम्हारा रब वही ख़ुदा है जिसने आसमानों और ज़मीन को छह दिनों में पैदा किया, फिर तख़्ते-सल्तनत पर जलवागर होकर कायनात का इन्तिज़ाम चला रहा है। कोई शिफ़ाअत (सिफ़ारिश) करनेवाला नहीं है इल्ला यह कि उसकी इजाज़त के बाद शिफ़ाअत करे। यही अल्लाह तुम्हारा रब है, लिहाज़ा तुम इसी की इबादत करो। फिर क्या तुम होश में न आओगे?
إِلَيۡهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقًّاۚ إِنَّهُۥ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَهُمۡ شَرَابٞ مِّنۡ حَمِيمٖ وَعَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 3
(4) उसी की तरफ़ तुम सबको पलटकर जाना है, यह अल्लाह का पक्का वादा है। बेशक पैदाइश की इबतिदा वही करता है, फिर वही दोबारा पैदा करेगा ताकि जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए उनको इनसाफ़ के साथ जज़ा दे, और जिन्होंने कुफ़्र का तरीक़ा इख़्तियार किया वे खौलता हुआ पानी पिएँ और दर्दनाक सज़ा भुगतें उस इनकारे- हक़ की पादाश में जो वे करते रहे।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ ٱلشَّمۡسَ ضِيَآءٗ وَٱلۡقَمَرَ نُورٗا وَقَدَّرَهُۥ مَنَازِلَ لِتَعۡلَمُواْ عَدَدَ ٱلسِّنِينَ وَٱلۡحِسَابَۚ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ ذَٰلِكَ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۚ يُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 4
(5) वही है जिसने सूरज को उजियाला बनाया और चाँद को चमक दी और चाँद के घटने-बढ़ने की मंज़िलें ठीक-ठीक मुक़र्रर कर दीं ताकि तुम उससे बरसों और तारीख़ों के हिसाब मालूम करो। अल्लाह ने ये सब कुछ बरहक़ ही पैदा किया है। वह अपनी निशानियों को खोल-खोलकर पेश कर रहा है उन लोगों के लिए जो इल्म रखते हैं।
إِنَّ فِي ٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَمَا خَلَقَ ٱللَّهُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَّقُونَ ۝ 5
(6) यक़ीनन रात और दिन के उलट-फेर में और हर उस चीज़ में जो अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों में पैदा की है, निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो (ग़लतबीनी और ग़लतरवी से) बचना चाहते हैं।2
2. यानी इन निशानात से हक़ीक़त तक सिर्फ़ वही लोग रसाई हासिल कर सकते हैं जिनके अन्दर ये सिफ़ात मौजूद हों। एक यह कि वह जाहिलाना तास्सुबात से पाक होकर इल्म हासिल करने के उन ज़राए से काम लें जो अल्लाह ने इनसान को दिए हैं। दूसरे यह कि उनके अन्दर ख़ुद यह ख़ाहिश मौजूद हो कि ग़लती से बचें और सही रास्ता इख़्तियार करें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا وَرَضُواْ بِٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَٱطۡمَأَنُّواْ بِهَا وَٱلَّذِينَ هُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِنَا غَٰفِلُونَ ۝ 6
(7) हक़ीक़त यह है कि जो लोग हमसे मिलने की तवक़्क़ो नहीं रखते और दुनिया की ज़िन्दगी ही पर राज़ी और मुत्मइन हो गए हैं, और जो लोग हमारी निशानियों से ग़ाफ़िल हैं,
أُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 7
(8) उनका आख़िरी ठिकाना जहन्नम होगा उन बुराइयों की पादाश में जिनका इकतिसाब वे (अपने इस ग़लत अक़ीदे और ग़लत तर्ज़े-अमल की वजह से) करते रहे हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ يَهۡدِيهِمۡ رَبُّهُم بِإِيمَٰنِهِمۡۖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُ فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 8
(9) और यह भी हक़ीक़त है कि जो लोग ईमान लाए (यानी जिन्होंने उन सदाक़तों को क़ुबूल कर लिया जो इस किताब में पेश की गई हैं) और नेक आमाल करते रहे, उन्हें उनका रब उनके ईमान की वजह से सीधी राह चलाएगा, नेमत भरी जन्नतों में उनके नीचे नहरें बहेंगी,
دَعۡوَىٰهُمۡ فِيهَا سُبۡحَٰنَكَ ٱللَّهُمَّ وَتَحِيَّتُهُمۡ فِيهَا سَلَٰمٞۚ وَءَاخِرُ دَعۡوَىٰهُمۡ أَنِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 9
(10) वहाँ उनकी सदा यह होगी कि “पाक है तू ऐ ख़ुदा!” उनकी दुआ यह होगी कि “सलामती हो” और उनकी हर बात का ख़ातिमा इसपर होगा कि “सारी तारीफ़ अल्लाह रब्बुल-आलमीन ही के लिए है।”
۞وَلَوۡ يُعَجِّلُ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ ٱلشَّرَّ ٱسۡتِعۡجَالَهُم بِٱلۡخَيۡرِ لَقُضِيَ إِلَيۡهِمۡ أَجَلُهُمۡۖ فَنَذَرُ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 10
(11) अगर कहीं अल्लाह लोगों के साथ बुरा मामला करने में भी उतनी ही जल्दी करता जितनी वे दुनिया की भलाई माँगने में जल्दी करते हैं तो उनकी मुहलते-अमल कभी की ख़त्म कर दी गई होती। (मगर हमारा यह तरीक़ा नहीं है) इसलिए हम उन लोगों को जो हमसे मिलने की तवक़्क़ो नहीं रखते, उनकी सरकशी में भटकने के लिए छूट दे देते हैं।
وَإِذَا مَسَّ ٱلۡإِنسَٰنَ ٱلضُّرُّ دَعَانَا لِجَنۢبِهِۦٓ أَوۡ قَاعِدًا أَوۡ قَآئِمٗا فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُ ضُرَّهُۥ مَرَّ كَأَن لَّمۡ يَدۡعُنَآ إِلَىٰ ضُرّٖ مَّسَّهُۥۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلۡمُسۡرِفِينَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 11
(12) इनसान का हाल यह है कि जब उसपर कोई सख़्त वक़्त आता है तो खड़े और बैठे और लेटे हमको पुकारता है, मगर जब हम उसकी मुसीबत टाल देते हैं तो ऐसा चल निकलता है कि गोया उसने कभी अपने किसी बुरे वक़्त पर हमको पुकारा ही न था। इस तरह हद से गुज़र जानेवालों के लिए उनके करतूत ख़ुशनुमा बना दिए गए हैं।
وَلَقَدۡ أَهۡلَكۡنَا ٱلۡقُرُونَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَمَّا ظَلَمُواْ وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 12
(13) लोगो! तुमसे पहले की क़ौमों3 को हमने हलाक कर दिया जब उन्होंने ज़ुल्म की रविश इख़्तियार की और उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए और उन्होंने ईमान लाकर ही न दिया। इस तरह हम मुजरिमों को उनके जराइम का बदला दिया करते हैं।
3. अस्ल लफ़्ज़ 'क़र्न’ इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद आम तौर पर तो अरबी ज़बान में एक ‘अह्द के लोग’ होते हैं, लेकिन क़ुरआन मजीद में जिस अदाज़ से मुख़्तलिफ़ मवाक़े पर इस लफ़्ज़ को इस्तेमाल किया गया है उससे ऐसा महसूस होता है कि 'क़र्न’ से मुराद वह क़ौम है जो अपने दौर में बरसरे-उरूज रही हो। ऐसी क़ौम की हलाकत लाज़िमन यही मानी नहीं रखती कि उसकी नस्ल को बिलकुल ग़ारत ही कर दिया जाए, बल्कि उसका मक़ामे-उरूज से गिरा दिया जाना, उसकी तहज़ीब व तमद्दुन का तबाह हो जाना, उसके तशख़्ख़ुस का मिट जाना और उसके अज्ज़ा का पारा-पारा होकर दूसरी क़ौमों में गुम हो जाना, ये भी हलाकत ही की एक सूरत है।
ثُمَّ جَعَلۡنَٰكُمۡ خَلَٰٓئِفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لِنَنظُرَ كَيۡفَ تَعۡمَلُونَ ۝ 13
(14) अब उनके बाद हमने तुमको ज़मीन में उनकी जगह दी है, ताकि देखें तुम कैसे अमल करते हो।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَاتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا ٱئۡتِ بِقُرۡءَانٍ غَيۡرِ هَٰذَآ أَوۡ بَدِّلۡهُۚ قُلۡ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أُبَدِّلَهُۥ مِن تِلۡقَآيِٕ نَفۡسِيٓۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۖ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 14
(15) जब उन्हें हमारी साफ़-साफ़ बातें सुनाई जाती हैं तो वे लोग जो हमसे मिलने की तवक़्क़ो नहीं रखते, कहते हैं कि “इसके बजाय कोई और क़ुरआन लाओ या इसमें कुछ तरमीम करो।” (ऐनबी!) उनसे कहो, “मेरा यह काम नहीं है कि अपनी तरफ़ से इसमें कोई तग़य्युर व तबद्दुल कर लूँ। मैं तो बस उस वह्य का पैरौ हूँ जो मेरे पास भेजी जाती है। अगर मैं अपने रब की नाफ़रमानी करूँ तो मुझे एक बड़े हौलनाक दिन के अज़ाब का डर है।”
قُل لَّوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا تَلَوۡتُهُۥ عَلَيۡكُمۡ وَلَآ أَدۡرَىٰكُم بِهِۦۖ فَقَدۡ لَبِثۡتُ فِيكُمۡ عُمُرٗا مِّن قَبۡلِهِۦٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 15
(16) और कहो “अगर अल्लाह की मशीयत यही होती तो मैं यह क़ुरआन तुम्हें कभी न सुनाता और अल्लाह तुम्हें उसकी ख़बर तक न देता। आख़िर इससे पहले मैं एक उम्र तुम्हारे दरमियान गुज़ार चुका हूँ, क्या तुम अक़्ल से काम नहीं लेते?4
4. यानी मैं तुम्हारे लिए कोई अजनबी आदमी नहीं हूँ। तुम्हारे ही शहर में पैदा हुआ। तुम्हारे ही दरमियान बचपन से इस उम्र को पहुँचा। अब क्या मेरी सारी ज़िन्दगी को देखते हुए तुम ईमानदारी के साथ यह कह सकते हो कि यह क़ुरआन मेरा अपना तसनीफ़ करदा कलाम हो सकता है और क्या तुम मुझसे यह तवक़्क़ो कर सकते हो कि मैं इतना झूठ बोलूँगा कि ख़ुद अपने दिल से कोई बात गढ़ूँ और फिर लोगों से कहूँ कि यह अल्लाह तआला की तरफ़ से मुझपर नाज़िल हुई है?
فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 16
(17) फिर उससे बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो एक झूठी बात गढ़कर अल्लाह की तरफ़ मंसूब करे या अल्लाह की वाक़ई आयात को अयात को झूठा क़रार दे। यक़ीनन मुजरिम कभी फ़लाह नहीं पा सकते।”
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡ وَيَقُولُونَ هَٰٓؤُلَآءِ شُفَعَٰٓؤُنَا عِندَ ٱللَّهِۚ قُلۡ أَتُنَبِّـُٔونَ ٱللَّهَ بِمَا لَا يَعۡلَمُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 17
(18) ये लोग अल्लाह के सिवा उनकी परस्तिश कर रहे हैं जो इनको न नुक़सान पहुँचा सकते हैं, न नफ़ा, और कहते यह हैं कि ये अल्लाह के हमारे सिफ़ारिशी हैं। (ऐ नबी !) इनसे कहो “क्या तुम अल्लाह को उस बात की ख़बर देते हो जिसे वह न आसमानों में जानता है न ज़मीन में?” पाक है वह और बाला व बरतर है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
5. किसी चीज़ का अल्लाह के इल्म में न होना यह मानी रखता है कि वह सिरे से मौजूद ही नहीं है, इसलिए कि सब कुछ जो मौजूद है, अल्लाह के इल्म में है। पस सिफ़ारिशियों के मादूम होने के लिए यह एक निहायत लतीफ़ अन्दाज़े-बयान कि अल्लाह तआला तो जानता नहीं कि ज़मीन या आसमान में कोई उसके हुज़ूर तुम्हारी सिफ़ारिश करनेवाला है। फिर यह तुम किन सिफ़ारिशियों की उसको ख़बर दे रहे हो?
وَمَا كَانَ ٱلنَّاسُ إِلَّآ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ فَٱخۡتَلَفُواْۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡ فِيمَا فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 18
(19) इबतिदाअन सारे इनसान एक ही उम्मत थे, बाद में उन्होंने मुख़्तलिफ़ अक़ीदे और मसलक बना लिए, और अगर तेरे रब की तरफ़ से पहले ही एक बात तय न कर ली गई होती तो जिस चीज़ में वे बाहम इख़्तिलाफ़ कर रहे हैं। उसका फ़ैसला कर दिया जाता।6
6. यानी अगर अल्लाह तआला ने पहले ही यह फ़ैसला न कर लिया होता कि फ़ैसला क़ियामत के रोज़ होगा तो यही उसका फ़ैसला कर दिया जाता।
وَيَقُولُونَ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۖ فَقُلۡ إِنَّمَا ٱلۡغَيۡبُ لِلَّهِ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 19
(20) और यह जो वे कहते हैं कि इस नबी पर इसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों न उतारी गई, तो उनसे कहो, “ग़ैब का मालिक व मुख़्तार तो अल्लाह ही है, अच्छा, इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।”
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ مِّنۢ بَعۡدِ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُمۡ إِذَا لَهُم مَّكۡرٞ فِيٓ ءَايَاتِنَاۚ قُلِ ٱللَّهُ أَسۡرَعُ مَكۡرًاۚ إِنَّ رُسُلَنَا يَكۡتُبُونَ مَا تَمۡكُرُونَ ۝ 20
(21) लोगों का हाल यह है कि मुसीबत के बाद जब हम उनको रहमत का मज़ा चखाते हैं तो फ़ौरन ही वे हमारी निशानियों के मामले में चालबाज़ियाँ शुरू कर देते हैं। इनसे कहो, “अल्लाह अपनी चाल में तुमसे ज़्यादा तेज है, उसके फ़िरेश्ते तुम्हारी सब मक्कारियों को क़लमबंद कर रहे हैं।”
7. यानी मुसीबत अल्लाह की तरफ़ से एक निशानी होती है जो इनसान को एहसास दिलाती है कि फ़िल-वाक़े अल्लाह के सिवा कोई उसे दूर करनेवाला नहीं है। मगर जब वह टल जाती है और अच्छा वक़्त आ जाता है तो फिर ये कहने लगते हैं कि यह हमारे माबूदों और सिफ़ारिशियों की इनायत का नतीजा है।
هُوَ ٱلَّذِي يُسَيِّرُكُمۡ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا كُنتُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَجَرَيۡنَ بِهِم بِرِيحٖ طَيِّبَةٖ وَفَرِحُواْ بِهَا جَآءَتۡهَا رِيحٌ عَاصِفٞ وَجَآءَهُمُ ٱلۡمَوۡجُ مِن كُلِّ مَكَانٖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُمۡ أُحِيطَ بِهِمۡ دَعَوُاْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ لَئِنۡ أَنجَيۡتَنَا مِنۡ هَٰذِهِۦ لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 21
(22) वह अल्लाह ही है जो तुमको ख़ुशकी और तरी में चलाता है। चुनाँचे जब तुम कश्तियों में सवार होकर बादे-मुवाफ़िक़ पर फ़रहाँ व शादाँ सफ़र कर रहे होते हो और फिर यकायक बादे-मुख़ालिफ़ का ज़ोर होता है और हर तरफ़ से मौजों के थपेड़े लगते हैं और मुसाफ़िर समझ लेते हैं कि तूफ़ान में घिर गए, उस वक़्त सब अपने दीन को अल्लाह ही के लिए ख़ालिस करके उससे दुआएँ माँगते हैं कि “अगर तूने हमको इस बला से नजात दे दी तो हम शुक्रगुज़ार बन्दे बनेंगे।”
فَلَمَّآ أَنجَىٰهُمۡ إِذَا هُمۡ يَبۡغُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۗ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّمَا بَغۡيُكُمۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۖ مَّتَٰعَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ ثُمَّ إِلَيۡنَا مَرۡجِعُكُمۡ فَنُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 22
(23) मगर जब वह उनको बचा लेता है तो फिर वही लोग हक़ से मुनहरिफ़ होकर ज़मीन में बग़ावत करने लगते हैं। लोगो! तुम्हारी यह बग़ावत तुम्हारे ही ख़िलाफ़ पड़ रही है। दुनिया की ज़िन्दगी के चंद रोज़ा मज़े हैं (लूट लो), फिर हमारी तरफ़ तुम्हें पलटकर आना है, उस वक़्त हम तुम्हें बता देंगे कि तुम क्या कुछ करते रहे हो।
إِنَّمَا مَثَلُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَآءٍ أَنزَلۡنَٰهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَٱخۡتَلَطَ بِهِۦ نَبَاتُ ٱلۡأَرۡضِ مِمَّا يَأۡكُلُ ٱلنَّاسُ وَٱلۡأَنۡعَٰمُ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَخَذَتِ ٱلۡأَرۡضُ زُخۡرُفَهَا وَٱزَّيَّنَتۡ وَظَنَّ أَهۡلُهَآ أَنَّهُمۡ قَٰدِرُونَ عَلَيۡهَآ أَتَىٰهَآ أَمۡرُنَا لَيۡلًا أَوۡ نَهَارٗا فَجَعَلۡنَٰهَا حَصِيدٗا كَأَن لَّمۡ تَغۡنَ بِٱلۡأَمۡسِۚ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 23
(24) दुनिया की ये ज़िन्दगी (जिसके नशे में मस्त होकर तुम हमारी निशानियों से ग़फ़लत बरत रहे हो) इसकी मिसाल ऐसी है जैसे आसमान से हमने पानी बरसाया तो ज़मीन की पैदावार, जिसे आदमी और जानवर सब खाते हैं, ख़ूब घनी हो गई। फिर ऐन उस वक़्त जबकि ज़मीन अपनी बहार पर थी और खेतियाँ बनी-सँवरी खड़ी थीं और उनके मालिक समझ रहे थे कि अब हम इनसे फ़ायदा उठाने पर क़ादिर हैं, यकायक रात को या दिन को हमारा हुक्म आ गया और हमने उसे ऐसा ग़ारत करके रख दिया कि गोया कल वहाँ कुछ था ही नहीं। इस तरह हम निशानियाँ खोल-खोलकर पेश करते हैं उन लोगों के लिए जो सोचने-समझनेवाले हैं।
وَٱللَّهُ يَدۡعُوٓاْ إِلَىٰ دَارِ ٱلسَّلَٰمِ وَيَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 24
(25) (तुम इस नापायदार ज़िन्दगी के फ़रेब में मुब्तला हो रहे हो) और अल्लाह तुम्हें दारुस्सलाम की तरफ़ दावत दे रहा है।8 (हिदायत उसके इख़्तियार में है) जिसको वह चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है।
8. यानी दुनिया में ज़िन्दगी बसर करने के उस तरीक़े की तरफ़ दावत दे रहा है जो आख़िरत की ज़िन्दगी में तुमको दारुस्सलाम का मुस्तहिक़ बनाए। दारुस्सलाम से मुराद है जन्नत और उसके मानी हैं सलामती का घर, वह जगह जहाँ कोई आफ़त, कोई नुक़सान, कोई रंज और कोई तकलीफ़ न हो।
۞لِّلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ ٱلۡحُسۡنَىٰ وَزِيَادَةٞۖ وَلَا يَرۡهَقُ وُجُوهَهُمۡ قَتَرٞ وَلَا ذِلَّةٌۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 25
(26) जिन लोगों ने भलाई का तरीका इख़्तियार किया उनके लिए भलाई है और मज़ीद फ़ज़्ल। उनके चेहरों पर रूसियाही और ज़िल्लत न छाएगी। वे जन्नत के मुस्तहिक हैं जहाँ वे हमेशा रहेंगे।
وَٱلَّذِينَ كَسَبُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ جَزَآءُ سَيِّئَةِۭ بِمِثۡلِهَا وَتَرۡهَقُهُمۡ ذِلَّةٞۖ مَّا لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِنۡ عَاصِمٖۖ كَأَنَّمَآ أُغۡشِيَتۡ وُجُوهُهُمۡ قِطَعٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِ مُظۡلِمًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 26
(27) और जिन लोगों ने बुराइयाँ कमाईं उनकी बुराई जैसी है वैसा ही वे बदला पाएँगे, ज़िल्लत उनपर मुसल्लत होगी, कोई अल्लाह से उनको बचानेवाला न होगा, उनके चेहरों पर ऐसी तारीकी छाई हुई होगी जैसे रात के सियाह परदे उनपर पड़े हुए हों, वह दोज़ख़ के मुस्तहिक़ हैं जहाँ वे हमेशा रहेंगे।
فَذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمُ ٱلۡحَقُّۖ فَمَاذَا بَعۡدَ ٱلۡحَقِّ إِلَّا ٱلضَّلَٰلُۖ فَأَنَّىٰ تُصۡرَفُونَ ۝ 27
(32) तब तो यही अल्लाह तुम्हारा हक़ीक़ी रब है। फिर हक़ के बाद गुमराही के सिवा और क्या बाक़ी रह गया? आख़िर यह तुम किधर फिराए जा रहे हो?”10
10. ख़याल रहे कि ख़िताब आम लोगों से है और उनसे सवाल यह नहीं किया जा रहा है कि “तुम किधर फिरे जाते हो” बल्कि यह है कि “तुम किधर फिराए जा रहे हो।” इससे साफ़ ज़ाहिर है कि कोई ऐसा गुमराहकुन शख़्स या गरोह मौजूद है जो लोगों को सही रुख़ से हटाकर ग़लत रुख़ पर फेर रहा है। इसी बिना पर लोगों से कहा जा रहा है कि तुम अंधे बनकर ग़लत रहनुमाई करनेवालों के पीछे क्यों चले जा रहे हो? अपनी गिरह की अक़्ल से काम लेकर सोचते क्यों नहीं कि जब हक़ीक़त यह है तो आख़िर यह तुमको किधर चलाया जा रहा है।
وَيَوۡمَ نَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ نَقُولُ لِلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ مَكَانَكُمۡ أَنتُمۡ وَشُرَكَآؤُكُمۡۚ فَزَيَّلۡنَا بَيۡنَهُمۡۖ وَقَالَ شُرَكَآؤُهُم مَّا كُنتُمۡ إِيَّانَا تَعۡبُدُونَ ۝ 28
(28) जिस रोज़ हम उन सबको एक साथ (अपनी अदालत में) इकट्ठा करेंगे, फिर उन लोगों से जिन्होंने शिर्क किया है कहेंगे कि “ठहर जाओ तुम भी और तुम्हारे बनाए हुए शरीक भी”, फिर हम उनके दरमियान से अजनबियत का परदा हटा देंगे9 और उनके शरीक कहेंगे कि “तुम हमारी इबादत तो नहीं करते थे।
9. यानी मुशरिकीन को उनके माबूद पहचान लेंगे कि ये वे लोग हैं जो हमारी इबादत करते थे और मुशरिकीन अपने माबूदों को पहचान लेंगे कि ये हैं वे जिनकी हम इबादत करते थे।
كَذَٰلِكَ حَقَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ عَلَى ٱلَّذِينَ فَسَقُوٓاْ أَنَّهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 29
(33) (ऐ नबी! देखो) इस तरह नाफ़रमानी इख़्तियार करनेवालों पर तुम्हारे रब की बात सादिक़ आ गई कि वे मानकर न देंगे।
فَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ إِن كُنَّا عَنۡ عِبَادَتِكُمۡ لَغَٰفِلِينَ ۝ 30
(29) हमारे और तुम्हारे दरमियान अल्लाह की गवाही काफ़ी है कि (तुम अगर हमारी इबादत करते भी थे तो) हम तुम्हारी इस इबादत से बिलकुल बेख़बर थे।”
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۚ قُلِ ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 31
(34) इनसे पूछो, “तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई है जो तख़लीक़ की बतिदा भी करता हो और फिर उसका इआदा भी करे?” — कहो “वह सिर्फ़ अल्लाह है जो तख़लीक़ की इबतिदा भी करता है और उसका इआदा भी, फिर तुम यह किस उलटी राह पर चलाए जा रहे हो?”
هُنَالِكَ تَبۡلُواْ كُلُّ نَفۡسٖ مَّآ أَسۡلَفَتۡۚ وَرُدُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ مَوۡلَىٰهُمُ ٱلۡحَقِّۖ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 32
(30) उस वक़्त हर शख़्स अपने किए का मज़ा चख लेगा, सब अपने हक़ीक़ी मालिक की तरफ़ फेर दिए जाएँगे और वे सारे झूठ जो उन्होंने गढ़ रख थे गुम हो जाएँगे।
قُلۡ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّۚ قُلِ ٱللَّهُ يَهۡدِي لِلۡحَقِّۗ أَفَمَن يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ أَحَقُّ أَن يُتَّبَعَ أَمَّن لَّا يَهِدِّيٓ إِلَّآ أَن يُهۡدَىٰۖ فَمَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ ۝ 33
(35) इनसे पूछो, “तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई ऐसा भी है जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता हो?” कहो, “वह सिर्फ़ अल्लाह है जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है। फिर भला बताओ, जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है वह इसका ज़्यादा मुस्तहिक़ है कि उसकी पैरवी की जाए या वह जो ख़ुद राह नहीं पाता इल्ला यह कि उसकी रहनुमाई की जाए? आख़िर तुम्हें हो क्या गया है, कैसे उलटे-उलटे फ़ैसले करते हो?”
قُلۡ مَن يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ أَمَّن يَمۡلِكُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَمَن يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَيُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّ وَمَن يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَۚ فَسَيَقُولُونَ ٱللَّهُۚ فَقُلۡ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 34
(31) उनसे पूछो, “कौन तुमको आसमान और ज़मीन से रिज़्क़ देता है। ये समाअत और बीनाई की क़ुव्वतें किसके इख़्तियार में हैं? कौन बेजान में से जानदार को और जानदार में से बेजान को निकालता है? कौन इस नज़्मे-आलम की तदबीर कर रहा है?” वे ज़रूर कहेंगे कि “अल्लाह।” कहो, “फिर तुम (हक़ीक़त के ख़िलाफ़ चलने से) परहेज़ नहीं करते?
وَمَا يَتَّبِعُ أَكۡثَرُهُمۡ إِلَّا ظَنًّاۚ إِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغۡنِي مِنَ ٱلۡحَقِّ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 35
(36) हक़ीक़त यह है कि उनमें से अकसर लोग मह्ज़ क़ियास व गुमान के पीछे चले जा रहे हैं,11 हालाँकि गुमान हक़ की ज़रूरत को कुछ भी पूरा नहीं करता। जो कुछ ये कर रहे हैं अल्लाह उसको ख़ूब जानता है।
11. यानी जिन्होंने मज़ाहिब बनाए, जिन्होंने फ़ल्सफ़े तसनीफ़ किए और जिन्होंने क़वानीने-हयात तजवीज़ किए, उन्होंने भी यह सब कुछ इल्म की बिना पर नहीं, बल्कि गुमान व क़ियास की बिना पर किया, और जिन्होंने इन मज़हबी और दुनयवी रहनुमाओं की पैरवी की उन्होंने भी जानकर और समझकर नहीं बल्कि मह्ज़ इस गुमान की बिना पर उनका इत्तिबाअ इख़्तियार लिया कि ऐसे बड़े-बड़े लोग जब यह कहते हैं और बाप-दादा उनको मानते चले आ रहे हैं और एक दुनिया उनकी पैरवी कर रही है तो ज़रूर ठीक ही कहते होंगे।
وَمَا كَانَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ أَن يُفۡتَرَىٰ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِن تَصۡدِيقَ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَتَفۡصِيلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا رَيۡبَ فِيهِ مِن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 36
(37) और यह क़ुरआन वह चीज़ नहीं है जो अल्लाह की वह्य व तालीम के बग़ैर तसनीफ़ कर लिया जाए, बल्कि यह तो जो कुछ पहले आ चुका थ उसकी तसदीक़ और अल-किताब की तफ़सील है। इसमें कोई शक नहीं कि यह फ़रमाँरवा-ए-कायनात की तरफ़ से है।
وَإِمَّا نُرِيَنَّكَ بَعۡضَ ٱلَّذِي نَعِدُهُمۡ أَوۡ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَإِلَيۡنَا مَرۡجِعُهُمۡ ثُمَّ ٱللَّهُ شَهِيدٌ عَلَىٰ مَا يَفۡعَلُونَ ۝ 37
(46) जिन बुरे नताइज से हम उन्हें डरा रहे हैं उनका कोई हिस्सा हम तेरे जीते-जी दिखा दें या इससे पहले ही तुझे उठा लें, बहरहाल उन्हें आना हमारी तरफ़ ही है और जो कुछ ये कर रहे हैं उसपर अल्लाह गवाह है।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ فَأۡتُواْ بِسُورَةٖ مِّثۡلِهِۦ وَٱدۡعُواْ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 38
क्या ये लोग कहते हैं कि “पैग़म्बर ने इसे ख़ुद तसनीफ़ कर लिया है?” कहो, “अगर तुम अपने इस इल्ज़ाम में सच्चे हो तो एक सूरा इस जैसी तसनीफ़ कर लाओ और एक ख़ुदा को छोड़कर जिस-जिसको बुला सकते हो लिए बुला लो।”
وَلِكُلِّ أُمَّةٖ رَّسُولٞۖ فَإِذَا جَآءَ رَسُولُهُمۡ قُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 39
(47) हर उम्मत के लिए एक रसूल है।14 फिर जब किसी उम्मत के पास उसका रसूल आ जाता है तो उसका फ़ैसला पूरे इनसाफ़ के साथ चुका दिया जाता है और उसपर ज़र्रा बराबर ज़ुल्म नहीं किया जाता।
14. 'उम्मत' का लफ़्ज़ यहाँ मह्ज़ क़ौम के मानी में नहीं है, बल्कि एक रसूल की आमद के बाद उसकी दावत जिन-जिन लोगों तक पहुँचे वे सब उसकी उम्मत हैं। नीज़ इसके लिए यह भी ज़रूरी नहीं है कि रसूल उनके दरमियान ज़िन्दा मौजूद हो, बल्कि रसूल के बाद भी जब तक उसकी तालीम मौजूद रहे और हर शख़्स के लिए यह मालूम करना मुमकिन हो कि वह दर-हक़ीक़त किस चीज़ की तालीम देता था, उस वक़्त तक दुनिया के सब लोग उसकी उम्मत ही क़रार पाएँगे और उनपर वह हुक्म साबित होगा जो आगे बयान किया जा रहा है। इस लिहाज़ से मुहम्मद (सल्ल०) की तशरीफ़आवरी के बाद तमाम दुनिया के इनसान आप (सल्ल०) की उम्मत हैं और उस वक़्त तक रहेंगे जब तक क़ुरआन अपनी ख़ालिस सूरत में मौजूद है। इसी वजह से आयत में यह नहीं फ़रमाया गया कि “हर क़ौम में एक रसूल है,” बल्कि इरशाद यह हुआ कि “हर उम्मत के लिए एक रसूल है।”
بَلۡ كَذَّبُواْ بِمَا لَمۡ يُحِيطُواْ بِعِلۡمِهِۦ وَلَمَّا يَأۡتِهِمۡ تَأۡوِيلُهُۥۚ كَذَٰلِكَ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 40
(39) अस्ल यह है कि जो चीज़ उनके इल्म की गिरिफ़्त में नहीं आई और जिसका मआल भी उनके सामने नहीं आया, उसको उन्होंने (ख़ाह-मख़ाह अटकल-पच्चू) झुठला दिया। इसी तरह तो इनसे पहले के लोग भी झुठला चुके हैं, फिर देख लो उन ज़ालिमों का क्या अंजाम हुआ।
وَمِنۡهُم مَّن يُؤۡمِنُ بِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن لَّا يُؤۡمِنُ بِهِۦۚ وَرَبُّكَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 41
(40) इनमें से कुछ लोग ईमान लाएँगे और कुछ नहीं लाएँगे और तेरा रब इन मुफ़सिदों को ख़ूब जानता है।
وَمَا تَكُونُ فِي شَأۡنٖ وَمَا تَتۡلُواْ مِنۡهُ مِن قُرۡءَانٖ وَلَا تَعۡمَلُونَ مِنۡ عَمَلٍ إِلَّا كُنَّا عَلَيۡكُمۡ شُهُودًا إِذۡ تُفِيضُونَ فِيهِۚ وَمَا يَعۡزُبُ عَن رَّبِّكَ مِن مِّثۡقَالِ ذَرَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ وَلَآ أَصۡغَرَ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡبَرَ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٍ ۝ 42
(61) (ऐ नबी!) तुम जिस हाल में भी होते हो और क़ुरआन में से जो भी सुनाते हो, और लोगो! तुम भी जो कुछ करते हो उस सब के दौरान में हम तुमको देखते रहते हैं। कोई ज़र्रा बराबर चीज़ आसमान और ज़मीन में ऐसी नहीं है, न छोटी न बड़ी, जो तेरे रब की नज़र से पोशीदा हो और एक साफ़ दफ़्तर में दर्ज न हो।
وَإِن كَذَّبُوكَ فَقُل لِّي عَمَلِي وَلَكُمۡ عَمَلُكُمۡۖ أَنتُم بَرِيٓـُٔونَ مِمَّآ أَعۡمَلُ وَأَنَا۠ بَرِيٓءٞ مِّمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 43
(41) अगर ये तुझे झुठलाते हैं तो कह दे “कि मेरा अमल मेरे लिए है और तुम्हारा अमल तुम्हारे लिए, जो कुछ मैं करता हूँ उसकी ज़िम्मेदारी से तुम बरी हो और जो कुछ तुम कर रहे हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।”12
12. यानी ख़ाह-मख़ाह झगड़े और कजबहसियाँ करने की कोई ज़रूरत नहीं। अगर मैं इफ़तिरापरदाज़ी कर रहा हूँ तो अपने अमल का मैं ख़ुद ज़िम्मेदार हूँ, तुमपर इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं। और अगर तुम सच्ची बात को झुठला रहे हो तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ते, अपना ही कुछ बिगाड़ रहे हो।
أَلَآ إِنَّ أَوۡلِيَآءَ ٱللَّهِ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 44
(62) सुनो! जो अल्लाह के दोस्त हैं, जो ईमान लाए और जिन्होंने तक़वा का रवैया इख़्तियार किया,
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُونَ إِلَيۡكَۚ أَفَأَنتَ تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ وَلَوۡ كَانُواْ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 45
(42) इनमें बहुत-से लोग हैं जो तेरी बातें सुनते हैं, मगर क्या तू बहरों को सुनाएगा ख़ाह वे कुछ न समझते हों?13
13. एक सुनना तो इस तरह का होता है जैसे जानवर भी आवाज़ सुन लेते हैं। दूसरा सुनना वह होता है जिसमें मानी की तरफ़ तवज्जुह हो और यह आमादगी पाई जाती हो कि बात अगर माक़ूल होगी तो उसे मान लिया जाएगा।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 46
(63) उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं है।
وَمِنۡهُم مَّن يَنظُرُ إِلَيۡكَۚ أَفَأَنتَ تَهۡدِي ٱلۡعُمۡيَ وَلَوۡ كَانُواْ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 47
(43) इनमें बहुत-से लोग हैं जो तुझे देखते है, मगर क्या तू अन्धों को राह बताएगा ख़ाह उन्हें कुछ न सूझता हो?
لَهُمُ ٱلۡبُشۡرَىٰ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِۚ لَا تَبۡدِيلَ لِكَلِمَٰتِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 48
(64) दुनिया और आख़िरत दोनों ज़िन्दगियों में उनके लिए बशारत-ही-बशारत है। अल्लाह की बातें बदल नहीं सकतीं। यही बड़ी कामयाबी है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَظۡلِمُ ٱلنَّاسَ شَيۡـٔٗا وَلَٰكِنَّ ٱلنَّاسَ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 49
(44) हक़ीकत यह है कि अल्लाह लोगों पर ज़ुल्म नहीं करता, लोग ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म करते हैं।
وَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّ ٱلۡعِزَّةَ لِلَّهِ جَمِيعًاۚ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 50
(65) (ऐ नबी!) जो बातें ये लोग तुझपर बनाते हैं वे तुझे रंजीदा न करें, इज़्ज़त सारी-की-सारी ख़ुदा के इख़्तियार में है। और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ كَأَن لَّمۡ يَلۡبَثُوٓاْ إِلَّا سَاعَةٗ مِّنَ ٱلنَّهَارِ يَتَعَارَفُونَ بَيۡنَهُمۡۚ قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱللَّهِ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 51
(45) (आज ये दुनिया की ज़िन्दगी में मस्त हैं) और जिस रोज़ अल्लाह इनको इकट्ठा करेगा तो (यही दुनिया की ज़िन्दगी इन्हें ऐसी महसूस होगी) गोया ये मह्ज़ एक घड़ी-भर आपस में जान-पहचान करने को ठहरे थे। (उस वक़्त तहक़ीक़ हो जाएगा कि) फ़िल-वाक़े सख़्त घाटे में रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह की मुलाक़ात को झुठलाया और हरगिज़ वे राहे-रास्त पर न थे।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَمَا يَتَّبِعُ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ شُرَكَآءَۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 52
(66) आगाह रहो! आसमानों के बसनेवाले हों या ज़मीन के, सब-के-सब अल्लाह के ममलूक हैं। और जो लोग अल्लाह के सिवा कुछ (अपने ख़ुदसाख़्ता) शरीकों को पुकार रहे हैं वे निरे वहम व गुमान के पैरौ हैं और मह्ज़ क़ियासआराइयाँ करते हैं।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِتَسۡكُنُواْ فِيهِ وَٱلنَّهَارَ مُبۡصِرًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 53
(67) वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई कि उसमें सुकून हासिल करो और दिन को रौशन बनाया। इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो (खुले कानों से पैग़म्बर की दावत को) सुनते हैं।
قَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۖ هُوَ ٱلۡغَنِيُّۖ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ إِنۡ عِندَكُم مِّن سُلۡطَٰنِۭ بِهَٰذَآۚ أَتَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 54
(68) लोगों ने कह दिया कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है। सुब्हानल्लाह! वह तो बेनियाज़ है, आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब उसकी मिल्क है। तुम्हारे पास इस क़ौल के लिए आख़िर दलील क्या है। क्या तुम अल्लाह के मुताल्लिक़ वे बातें कहते हो जो तुम्हारे इल्म में नहीं हैं?
قَالَ مُوسَىٰٓ أَتَقُولُونَ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَكُمۡۖ أَسِحۡرٌ هَٰذَا وَلَا يُفۡلِحُ ٱلسَّٰحِرُونَ ۝ 55
(77) मूसा ने कहा, “तुम हक़ को यह कहते हो जबकि वह तुम्हारे सामने आ गया? क्या यह जादू है? हालाँकि जादूगर फ़लाह नहीं पाया करते।”18
18. मतलब यह है कि ज़ाहिर नज़र में जादू और मोजिज़े के दरमियान जो मुशाबहत होती है उसकी बिना पर तुम लोगों ने बेतकल्लुफ़ इसे जादू क़रार दे दिया, मगर नादानो! तुमने यह न देखा कि जादूगर किस सीरत व अख़लाक़ के लोग होते हैं। और किन मक़ासिद के लिए जादूगरी किया करते हैं। क्या किसी जादूगर का यही काम होता है कि बेग़रज़ और बेधड़क एक जब्बार फ़रमाँरवा के दरबार में आए और उसे उसकी गुमराही पर सरज़निश करे और ख़ुदा-परस्ती और तहारते-नफ़्स इख़्तियार करने की दावत दे?
قُلۡ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ لَا يُفۡلِحُونَ ۝ 56
(69) (ऐ नबो!) कह दो कि “जो लोग अल्लाह पर झूठे इफ़तिरा बाँधते हैं वे हरगिज़ फ़लाह नहीं पा सकते।”
مَتَٰعٞ فِي ٱلدُّنۡيَا ثُمَّ إِلَيۡنَا مَرۡجِعُهُمۡ ثُمَّ نُذِيقُهُمُ ٱلۡعَذَابَ ٱلشَّدِيدَ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 57
(70) दुनिया की चंद-रोज़ा ज़िन्दगी में मज़े कर लें, फिर हमारी तरफ़ उनको पलटना है, फिर हम उस कुफ़्र के बदले जिसका इरतिकाब वे कर रहे हैं उनको सख़्त अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا لِتَلۡفِتَنَا عَمَّا وَجَدۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَا وَتَكُونَ لَكُمَا ٱلۡكِبۡرِيَآءُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا نَحۡنُ لَكُمَا بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 58
(78) उन्होंने जवाब में कहा, “क्या तू इसलिए आया है कि हमें उस तरीक़े से फेर दे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है और ज़मीन में बड़ाई तुम दोनों की क़ायम हो जाए? तुम्हारी बात तो हम माननेवाले नहीं हैं।”
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ ٱئۡتُونِي بِكُلِّ سَٰحِرٍ عَلِيمٖ ۝ 59
(79) और फ़िरऔन ने (अपने आदमियों से) कहा कि “हर माहिरे-फ़न जादूगर को मेरे पास हाज़िर करो।”
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ نُوحٍ إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ إِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكُم مَّقَامِي وَتَذۡكِيرِي بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَعَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡتُ فَأَجۡمِعُوٓاْ أَمۡرَكُمۡ وَشُرَكَآءَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُنۡ أَمۡرُكُمۡ عَلَيۡكُمۡ غُمَّةٗ ثُمَّ ٱقۡضُوٓاْ إِلَيَّ وَلَا تُنظِرُونِ ۝ 60
(71) इनको नूह का क़िस्सा सुनाओ, उस वक़्त का क़िस्सा जब उसने अपनी क़ौम से कहा था कि “ऐ बिरादराने-क़ौम, अगर मेरा तुम्हारे दरमियान रहना और अल्लाह की आयात सुना-सुनाकर तुम्हें ग़फ़लत से बेदार करना तुम्हारे लिए नाक़ाबिले-बरदाश्त हो गया है तो मेरा भरोसा अल्लाह पर है, तुम अपने ठहराए हुए शरीकों को साथ लेकर एक मुत्तफ़िक़ा फ़ैसला कर लो और जो मंसूबा तुम्हारे पेशे-नज़र हो उसको ख़ूब सोच-समझ लो ताकि उसका कोई पहलू तुम्हारी निगाह से पोशीदा न रहे, फिर मेरे ख़िलाफ़ उसको अमल में ले आओ और मुझे हरगिज़ मुहलत न दो।
فَلَمَّا جَآءَ ٱلسَّحَرَةُ قَالَ لَهُم مُّوسَىٰٓ أَلۡقُواْ مَآ أَنتُم مُّلۡقُونَ ۝ 61
(80) जब जादूगर आ गए तो मूसा ने उनसे कहा, “जो कुछ तुम्हें फेंकना है फ़ेको।”
فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَمَا سَأَلۡتُكُم مِّنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 62
(72) तुमने मेरी नसीहत से मुँह मोड़ा (तो मेरा क्या नुक़सान किया) मैं तुमसे किसी अज्र का तलबगार न था, मेरा अज्र तो अल्लाह के ज़िम्मे है। और मुझे हुक्म दिया गया है कि (ख़ाह कोई माने या न माने) मैं ख़ुद मुस्लिम बनकर रहूँ।”
فَلَمَّآ أَلۡقَوۡاْ قَالَ مُوسَىٰ مَا جِئۡتُم بِهِ ٱلسِّحۡرُۖ إِنَّ ٱللَّهَ سَيُبۡطِلُهُۥٓ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُصۡلِحُ عَمَلَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 63
(81) फिर जब उन्होंने अपने अंछर फेंक दिए तो मूसा ने कहा, “यह जो कुछ तुमने फेंका है यह जादू है। अल्लाह अभी इसे बातिल किए देता है, मुफ़सिदों के काम को अल्लाह सुधरने नहीं देता,
فَكَذَّبُوهُ فَنَجَّيۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَجَعَلۡنَٰهُمۡ خَلَٰٓئِفَ وَأَغۡرَقۡنَا ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 64
(73) उन्होंने उसे झुठलाया और नतीजा यह हुआ कि हमने उसे और उन लोगों को जो उसके साथ कश्ती में थे, बचा लिया और उन्हीं को ज़मीन में जानशीन बनाया और उन सब लोगों को ग़र्क़ कर दिया जिन्होंने हमारी आयात को झुठलाया था। पस देख लो कि जिन्हें मुतनब्बेह किया गया था (और फिर भी उन्होंने मानकर न दिया) उनका क्या अंजाम हुआ।
وَيُحِقُّ ٱللَّهُ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 65
(82) और अल्लाह अपने फ़रमानों से हक़ को हक़ कर दिखाता है, ख़ाह मुजरिमों को वह कितना ही नागवार हो।”
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ رُسُلًا إِلَىٰ قَوۡمِهِمۡ فَجَآءُوهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْ بِمَا كَذَّبُواْ بِهِۦ مِن قَبۡلُۚ كَذَٰلِكَ نَطۡبَعُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 66
(74) फिर नूह के बाद हमने मुख़्तलिफ़ पैग़म्बरों को उनकी क़ौमों की तरफ़ भेजा और वे उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, मगर जिस चीज़ को उन्होंने पहले झुठला दिया था उसे फिर मानकर न दिया। इस तरह हम हद से गुज़र जानेवालों के दिलों पर ठप्पा लगा देते हैं।
فَمَآ ءَامَنَ لِمُوسَىٰٓ إِلَّا ذُرِّيَّةٞ مِّن قَوۡمِهِۦ عَلَىٰ خَوۡفٖ مِّن فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِمۡ أَن يَفۡتِنَهُمۡۚ وَإِنَّ فِرۡعَوۡنَ لَعَالٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 67
(83) (फिर देखो कि) मूसा को उसकी क़ौम में से चंद नौजवानों के सिवा किसी ने न माना, फ़िरऔन के डर से और ख़ुद अपनी क़ौम के सरबर आवरदा लोगों के डर से (जिन्हें ख़ौफ़ था) कि फ़िरऔन उनको अज़ाब में मुब्तला करेगा। और वाक़िआ यह है कि फ़िरऔन ज़मीन में ग़लबा रखता था और वह उन लोगों में से था जो किसी हद पर रुकते नहीं हैं।20
19. मत्न में लफ़्ज़ ‘जुर्रिय्यतुन' इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी औलाद के हैं। हमने इसका तर्जमा ‘नौजवान’ किया है। दरअस्ल इस ख़ास लफ़्ज़ के इस्तेमाल से जो बात क़ुरआन मजीद बयान करना चाहता है वह यह है कि इस पुरख़तर ज़माने में हक़ का साथ देने और अलमबरदारे-हक़ को अपना रहनुमा तसलीम करने की जुरअत चंद लड़कों और लड़कियों ने तो की मगर माँओं-बापों और क़ौम के सिन-रसीदा लोगों को इसकी तौफ़ीक़ नसीब न हुई। उनपर मस्लहत-परस्ती और दुनयवी अग़राज़ की बन्दगी और आफ़ियत-कोशी कुछ इस तरह छाई रही कि वे ऐसे हक़ का साथ देने पर आमादा न हुए जिसका रास्ता उनको ख़तरात से पुर नजर आ रहा था, बल्कि वे उलटे नौजवानों ही को रोकते रहे कि मूसा (अलैहि०) के क़रीब न जाओ, वरना तुम ख़ुद भी फ़िरऔन के ग़ज़ब में मुब्तला होगे और हमपर भी आफ़त लाओगे।
20. यानी अपनी मतलब-बरारी के लिए किसी बुरे-से-बुरे तरीक़े को भी इख़्तियार करने में ताम्मुल नहीं करते। किसी ज़ुल्म और किसी बदअख़लाक़ी और किसी वहशत व बरबरियत के इरतिकाब से नहीं चूकते। अपनी ख़ाहिशात के पीछे हर इन्तिहा तक जा सकते हैं। उनके लिए कोई हद नहीं जिसपर जाकर वे रुक जाएँ।
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِم مُّوسَىٰ وَهَٰرُونَ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ بِـَٔايَٰتِنَا فَٱسۡتَكۡبَرُواْ وَكَانُواْ قَوۡمٗا مُّجۡرِمِينَ ۝ 68
(75) फिर उनके बाद हमने मूसा और हारून को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उसके सरदारों की तरफ़ भेजा, मगर उन्होंने अपनी बड़ाई का घमण्ड किया और वे मुजरिम लोग थे।
فَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ مِنۡ عِندِنَا قَالُوٓاْ إِنَّ هَٰذَا لَسِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 69
(76) पस जब हमारे पास से हक़ उनके सामने आया तो उन्होंने कह दिया कि “यह तो खुला जादू है।”
وَقَالَ مُوسَىٰ يَٰقَوۡمِ إِن كُنتُمۡ ءَامَنتُم بِٱللَّهِ فَعَلَيۡهِ تَوَكَّلُوٓاْ إِن كُنتُم مُّسۡلِمِينَ ۝ 70
(84) मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि “लोगो! अगर तुम वाक़ई अल्लाह पर ईमान रखते हो तो उसपर भरोसा करो अगर मुसलमान हो।”
فَقَالُواْ عَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡنَا رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 71
(85) उन्होंने जवाब दिया,21हमने अल्लाह ही पर भरोसा किया, ऐ हमारे रब! हमें ज़ालिम लोगों के लिए फ़ितना न बना
21. यह जवाब उन नौजवानों का था जो मूसा (अलैहि०) का साथ देने पर आमादा हुए थे। यहाँ 'कालू' की ज़मीर क़ौम की तरफ़ नहीं, बल्कि ‘ज़ुर्रिय्यतुन' की तरफ़ फिर रही है जैसा कि सियाक़े-कलाम से ज़ाहिर है।
وَنَجِّنَا بِرَحۡمَتِكَ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 72
(86) और अपनी रहमत से हमको काफ़िरों से नजात दे”।
وَقَالَ مُوسَىٰ رَبَّنَآ إِنَّكَ ءَاتَيۡتَ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَأَهُۥ زِينَةٗ وَأَمۡوَٰلٗا فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا رَبَّنَا لِيُضِلُّواْ عَن سَبِيلِكَۖ رَبَّنَا ٱطۡمِسۡ عَلَىٰٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ وَٱشۡدُدۡ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُواْ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 73
(88) मूसा ने दुआ की, “ऐ हमारे रब! तूने फ़िरऔन और उसके सरदारों को दुनिया की ज़िन्दगी में ज़ीनत और अमवाल से नवाज़ रखा है। ऐ रब! क्या यह इसलिए है कि वे लोगों को तेरी राह से भटकाएँ? ऐ रब! उनके माल ग़ारत कर दे और उनके दिलों पर ऐसी मुहर कर दे कि ईमान न लाएँ जब तक कि दर्दनाक अज़ाब न देख लें।”23
23. यह दुआ हज़रत मूसा (अलैहि०) ने ज़माना-ए-क़ियामे-मिस्र के बिलकुल आख़िरी ज़माने में की थी, और उस वक़्त की थी जब पै-दर-पै निशानात देख लेने और दीन की हुज्जत पूरी हो जाने के बाद भी फ़िरऔन और उसके आयाने-सल्तनत हक़ की दुश्मनी पर इन्तिहाई हठधर्मी के साथ जमे रहे। ऐसे मौक़े पर पैग़म्बर जो बद्दुआ करता है वह ठीक-ठीक वही होती है जो कुफ़्र पर इसरार करनेवालों के बारे में ख़ुद अल्लाह तआला का फ़ैसला होता है, यानी यह कि फिर उन्हें ईमान की तौफ़ीक़ न बख़्शी जाए।
وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰ وَأَخِيهِ أَن تَبَوَّءَا لِقَوۡمِكُمَا بِمِصۡرَ بُيُوتٗا وَٱجۡعَلُواْ بُيُوتَكُمۡ قِبۡلَةٗ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 74
(87) और हमने मूसा और उसके भाई को इशारा किया कि “मिस्र में चंद मकान अपनी क़ौम के लिए मुहैया करो और अपने उन मकानों को क़िब्ला ठहरा लो और नमाज़ क़ायम करो22 और अहले-ईमान को बशारत दे दो।”
22. मिस्र में हुकूमत के तशद्दुद से और ख़ुद बनी-इसराईल के अपने ज़ोफ़े-ईमानी की वजह से इसराईली और मिम्री मुसलमानों के यहाँ नमाज़ बा-जमाअत का निज़ाम ख़त्म हो चुका था, और यह उनके शीराज़े के बिखरने और उनकी दीनी रूह पर मौत तारी हो जाने का एक बहुत बड़ा सबब था। इसलिए हज़रत मूसा (अलैहि०) को हुक्म दिया गया कि इस निज़ाम को अज़-सरे-नौ क़ायम करें और मिस्र में चंद मकान इस ग़रज़ के लिए तामीर या तजवीज़ कर लें कि वहाँ इजतिमाई नमाज़ अदा की जाया करे। इन मकानों को क़िब्ला ठहराने का मफ़हूम यह है कि इन मकानों को सारी क़ौम के लिए मर्कज़ और मरजअ ठहराया जाए, और इसके बाद ही “नमाज़ क़ायम करो” कहने का मतलब यह है कि मुतफ़र्रिक़ तौर पर अपनी-अपनी जगह नमाज़ पढ़ लेने के बजाय लोग इन मुक़र्रर मक़ामात पर जमा होकर नमाज़ पढ़ा करें।
قَالَ قَدۡ أُجِيبَت دَّعۡوَتُكُمَا فَٱسۡتَقِيمَا وَلَا تَتَّبِعَآنِّ سَبِيلَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 75
(89) अल्लाह तआला ने जवाब फ़रमाया, “तुम दोनों की दुआ क़ुबूल की गई। साबित-क़दम रहो और उन लोगों के तरीक़े की हरगिज़ पैरवी न करो जो इल्म नहीं रखते।”
۞وَجَٰوَزۡنَا بِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡبَحۡرَ فَأَتۡبَعَهُمۡ فِرۡعَوۡنُ وَجُنُودُهُۥ بَغۡيٗا وَعَدۡوًاۖ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَدۡرَكَهُ ٱلۡغَرَقُ قَالَ ءَامَنتُ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱلَّذِيٓ ءَامَنَتۡ بِهِۦ بَنُوٓاْ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَأَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 76
(90) और हम बनी-इसराईल को समुन्दर से गुज़ार गए। फिर फ़िरऔन और उसके लश्कर ज़ुल्म और ज़्यादती की ग़रज़ से उनके पीछे चले। हत्ता कि जब फ़िरऔन डूबने लगा तो बोल उठा, “मैंने मान लिया कि ख़ुदावन्दे-हक़ीक़ी उसके सिवा कोई नहीं है जिसपर बनी-इसराईल ईमान लाए, और में भी सरे-इताअत झुका देनेवालों में से हूँ।”
ءَآلۡـَٰٔنَ وَقَدۡ عَصَيۡتَ قَبۡلُ وَكُنتَ مِنَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 77
(91) (जवाब दिया गया) “अब ईमान लाता है! हालाँकि इससे पहले तक तो नाफ़रमानी करता रहा और फ़साद करनेवालों में से था।
فَهَلۡ يَنتَظِرُونَ إِلَّا مِثۡلَ أَيَّامِ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِهِمۡۚ قُلۡ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 78
(102) अब ये लोग इसके सिवा और किस बात के मुन्तज़िर हैं कि वही बुरे दिन देखें जो इनसे पहले गुज़रे हुए लोग देख चुके हैं? इनसे कहो, “अच्छा, इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।”
فَٱلۡيَوۡمَ نُنَجِّيكَ بِبَدَنِكَ لِتَكُونَ لِمَنۡ خَلۡفَكَ ءَايَةٗۚ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ عَنۡ ءَايَٰتِنَا لَغَٰفِلُونَ ۝ 79
(92) अब तो हम सिर्फ़ तेरी लाश ही को बचाएँगे ताकि बाद की नस्लों के लिए निशाने-इबरत बने अगरचे बहुत-से इनसान ऐसे हैं जो हमारी निशानियों से ग़फ़लत बरतते हैं।”
ثُمَّ نُنَجِّي رُسُلَنَا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۚ كَذَٰلِكَ حَقًّا عَلَيۡنَا نُنجِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 80
(103) फिर (जब ऐसा वक़्त आता है तो) हम अपने रसूलों को और उन लोगों को बचा लिया करते हैं जो ईमान लाए हों। हमारा यही तरीक़ा है। हम पर यह हक़ है कि मोमिनों को बचा लें।
وَلَقَدۡ بَوَّأۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مُبَوَّأَ صِدۡقٖ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ فَمَا ٱخۡتَلَفُواْ حَتَّىٰ جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُۚ إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 81
(93) हमने बनी-इसराईल को बहुत अच्छा ठिकाना दिया और निहायत उम्दा वसाइले-ज़िन्दगी उन्हें अता किए। फिर उन्होंने बाहम इख़्तिलाफ़ नहीं किया मगर उस वक़्त जब कि इल्म उनके पास आ चुका था। यक़ीनन तेरा रब क़ियामत के रोज़ उनके दरमियान उस चीज़ का फ़ैसला कर देगा जिसमें वे इख़्तिलाफ़ करते रहे हैं।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي شَكّٖ مِّن دِينِي فَلَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِينَ تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِنۡ أَعۡبُدُ ٱللَّهَ ٱلَّذِي يَتَوَفَّىٰكُمۡۖ وَأُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 82
(104) (ऐ नबी!) कह दो कि “लोगो! अगर तुम अभी तक मेरे दीन के मुताल्लिक़ किसी शक में हो तो सुन लो कि तुम अल्लाह के सिवा जिनकी बन्दगी करते हो मैं उनकी बन्दगी नहीं करता, बल्कि सिर्फ़ उसी ख़ुदा की बन्दगी करता हूँ जिसके क़ब्ज़े में तुम्हारी मौत है। मुझे हुक्म दिया गया है कि में ईमान लानेवालों में से हूँ।
فَإِن كُنتَ فِي شَكّٖ مِّمَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ فَسۡـَٔلِ ٱلَّذِينَ يَقۡرَءُونَ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكَۚ لَقَدۡ جَآءَكَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 83
(94) अब अगर तुझे इस हिदायत की तरफ़ से कुछ भी शक हो जो हमने तुझपर नाज़िल की है तो उन लोगों से पूछ ले जो पहले से किताब पढ़ रहे हैं। फ़िल-वाक़े यह तेरे पास हक़ ही आया है तेरे रब की तरफ़ से, लिहाज़ा तू शक करनेवालों में से न हो,
وَأَنۡ أَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗا وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 84
(105) और मुझसे फ़रमाया गया है कि यकसू होकर अपने-आपको ठीक-ठीक इस दीन पर क़ायम कर दे,27 और हरगिज़-हरगिज़ मुशरिकों में से न हो।
27. अस्ल अलफ़ाज़ हैं 'अक़िम वज-ह-क लिद्दीनि हनीफ़न'। 'अक़िम वज-ह-क' के लफ़्ज़ी मानी हैं अपना चेहरा जमा दे'। इसका मफ़हूम यह है कि तेरा रुख़ एक ही तरफ़ क़ायम हो। डगमगाता और हिलता-डुलता न हो। कभी पीछे और कभी आगे और कभी दाएँ और कभी बाएँ न मुड़ता रहे। बिलकुल नाक की सीध उसी रास्ते पर नज़रें जमाए हुए चल जो तुझे दिखाया गया है। यह बन्दिश बजाय ख़ुद बहुत चुस्त थी, मगर इसपर भी इकतिफ़ा न किया गया। इसपर एक और क़ैद 'हनीफ़न' की बढ़ाई गई। हनीफ़ उसको कहते हैं जो सब तरफ़ से मुड़कर एक तरफ़ का हो रहा हो।
وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَتَكُونَ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 85
(95) और उन लोगो में न शामिल हो जिन्होंने अल्लाह की आयात को झुठलाया है वरना तू नुक़सान उठानेवालों में से होगा।24
24. यह ख़िताब बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से है मगर दरअस्ल बात उन लोगों को सुनानी मक़सूद है जो आप (सल्ल०) की दावत में शक कर रहे थे। और अहले-किताब का हवाला इसलिए दिया गया है कि अरब के अवाम तो आसमानी किताबों के इल्म से बेबहरा थे, उनके लिए यह आवाज़ एक नई आवाज़ थी, मगर अहले-किताब के उलमा में से जो लोग मुतदय्यिन और मुनसिफ़ मिज़ाज थे वे इस अम्र की तसदीक़ कर सकते थे कि जिस चीज़ की दावत क़ुरआन दे रहा है यह वही चीज़ है जिसकी दावत तमाम पिछले अम्बिया देते रहे हैं।
وَلَا تَدۡعُ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُكَ وَلَا يَضُرُّكَۖ فَإِن فَعَلۡتَ فَإِنَّكَ إِذٗا مِّنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 86
(106) और अल्लाह को छोड़कर किसी ऐसी हस्ती को पुकार जो तुझे न फ़ायदा पहुँचा सकती है न नुक़सान, अगर तू ऐसा करेगा तो ज़ालिमों में से होगा।
إِنَّ ٱلَّذِينَ حَقَّتۡ عَلَيۡهِمۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 87
(96) हक़ीक़त यह है कि जिन लोगों पर तेरे रब का क़ौल रास्त आ गया है।25 उनके सामने ख़ाह कोई निशानी आ जाए
25. यानी यह क़ौल कि जो लोग ख़ुद तालिबे-हक़ नहीं होते, और जो अपने दिलों पर ज़िद, तास्सुब और हठधर्मी के क़ुफ़्ल चढ़ाए रखते हैं, और जो दुनिया के इश्क़ में मदहोश और आक़िबत से बेफ़िक्र होते हैं उन्हें ईमान की तौफ़ीक़ नसीब नहीं होती।
وَإِن يَمۡسَسۡكَ ٱللَّهُ بِضُرّٖ فَلَا كَاشِفَ لَهُۥٓ إِلَّا هُوَۖ وَإِن يُرِدۡكَ بِخَيۡرٖ فَلَا رَآدَّ لِفَضۡلِهِۦۚ يُصِيبُ بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 88
(107) अगर अल्लाह तुझे किसी मुसीबत में डाले तो उसके सिवा कोई नहीं जो उस मुसीबत को टाल दे, और अगर वह तेरे हक़ में किसी भलाई का इरादा करे तो उसके फ़ज़्ल को फेरनेवाला भी कोई नहीं है। वह अपने बन्दों में से जिसको चाहता है अपने फ़ज़्ल से नवाज़ता है और वह दरगुज़र करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।”
وَلَوۡ جَآءَتۡهُمۡ كُلُّ ءَايَةٍ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 89
(97) वे कभी ईमान लाकर नहीं देते जब तक कि दर्दनाक अज़ाब सामने आता न देख लें।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُمُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۖ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِوَكِيلٖ ۝ 90
(108) (ऐ मुहम्मद!) कह दो कि “लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से हक़ आ चुका है। अब जो सीधी राह इख़्तियार करे उसकी रास्तरवी उसी के लिए मुफीद है, और जो गुमराह रहे उसकी गुमराही उसी के लिए तबाहकुन है। और मैं तुम्हारे ऊपर कोई हवालेदार नहीं हूँ।”
فَلَوۡلَا كَانَتۡ قَرۡيَةٌ ءَامَنَتۡ فَنَفَعَهَآ إِيمَٰنُهَآ إِلَّا قَوۡمَ يُونُسَ لَمَّآ ءَامَنُواْ كَشَفۡنَا عَنۡهُمۡ عَذَابَ ٱلۡخِزۡيِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَمَتَّعۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 91
(98) फिर क्या ऐसी कोई मिसाल है कि एक बस्ती अज़ाब देखकर ईमान लाई हो और उसका ईमान उसके लिए नफ़ाबख़्श साबित हुआ हो? यूनुस की क़ौम के सिवा (इसकी कोई नज़ीर नहीं)। वह क़ौम जब ईमान ले आई थी तो अलबत्ता हमने उसपर से दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवाई का अज़ाब टाल दिया था26 और उसको एक मुद्दत तक ज़िन्दगी से बहरामंद होने का मौक़ा दे दिया था।
26. मुफ़स्सिरीन ने इसकी वजह यह बयान की है कि हज़रत यूनुस (अलैहि०) चूँकि अज़ाब की इत्तिला देने के बाद अल्लाह तआला की इजाज़त के बग़ैर अपना मुस्तक़र छोड़कर चले गए थे, इसलिए जब आसारे-अज़ाब को देखकर आशूरियों ने तौबा व इसतिग़फ़ार की तो अल्लाह तआला ने उन्हें माफ़ कर दिया।
وَٱتَّبِعۡ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيۡكَ وَٱصۡبِرۡ حَتَّىٰ يَحۡكُمَ ٱللَّهُۚ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 92
(109) और (ऐ नबी!) तुम उस हिदायत की पैरवी किए जाओ जो तुम्हारी तरफ़ बज़रिए वह्य भेजी जा रही है, और सब्र करो यहाँ तक कि अल्लाह फ़ैसला कर दे, और वही बेहतरीन फ़ैसला करनेवाला है।
وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ لَأٓمَنَ مَن فِي ٱلۡأَرۡضِ كُلُّهُمۡ جَمِيعًاۚ أَفَأَنتَ تُكۡرِهُ ٱلنَّاسَ حَتَّىٰ يَكُونُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 93
(99) अगर तेरे रब की मशीयत यह होती (कि ज़मीन में सब मोमिन व फ़रमाँबरदार ही हों) तो सारे अहले-ज़मीन ईमान ले आए होते। फिर क्या तू लोगों को मजबूर करेगा कि वे मोमिन हो जाएँ?
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ أَن تُؤۡمِنَ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَجۡعَلُ ٱلرِّجۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 94
(100) कोई मुतनफ़्फ़िस अल्लाह के इज़्न के बग़ैर ईमान नहीं ला सकता, और अल्लाह का तरीक़ा यह है कि जो लोग अक़्ल से काम नहीं लेते वह उनपर गन्दगी डाल देता है।
قُلِ ٱنظُرُواْ مَاذَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَا تُغۡنِي ٱلۡأٓيَٰتُ وَٱلنُّذُرُ عَن قَوۡمٖ لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 95
(101) इनसे कहो, “ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है उसे आँखें खोलकर देखो।” और जो लोग ईमान लाना ही नहीं चाहते उनके लिए निशानियाँ और तबीहें आख़िर क्या मुफ़ीद हो सकती हैं?
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 96
(48) कहते हैं “अगर तुम्हारी यह धमकी सच्ची है तो आख़िर यह कब पूरी होगी?”
قُل لَّآ أَمۡلِكُ لِنَفۡسِي ضَرّٗا وَلَا نَفۡعًا إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۗ لِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٌۚ إِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ فَلَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 97
(49) कहो, “मेरे इख़्तियार में तो ख़ुद अपना नफ़ा व ज़रर भी नहीं, सब कुछ अल्लाह की मशीयत पर मौक़ूफ़ है। हर उम्मत के लिए मुहलत की एक मुद्दत है, जब यह मुद्दत पूरी हो जाती है तो घड़ी-भर की तक़दीम व ताख़ीर भी नहीं होती।”
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُهُۥ بَيَٰتًا أَوۡ نَهَارٗا مَّاذَا يَسۡتَعۡجِلُ مِنۡهُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 98
(50) इनसे कहो, “कभी तुमने यह भी सोचा है कि अगर अल्लाह का अज़ाब अचानक रात को या दिन को आ जाए (तो तुम क्या कर सकते हो?) आख़िर यह ऐसी कौन-सी चीज़ है जिसके लिए मुजरिम जल्दी मचाएँ?
أَثُمَّ إِذَا مَا وَقَعَ ءَامَنتُم بِهِۦٓۚ ءَآلۡـَٰٔنَ وَقَدۡ كُنتُم بِهِۦ تَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 99
(51) क्या जब वह तुमपर आ पड़े उसी वक़्त तुम उसे मानोगे? अब बचना चाहते हो? हालाँकि तुम ख़ुद ही इसके जल्दी आने का तक़ाज़ा कर रहे थे!”
ثُمَّ قِيلَ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡخُلۡدِ هَلۡ تُجۡزَوۡنَ إِلَّا بِمَا كُنتُمۡ تَكۡسِبُونَ ۝ 100
(52) फिर ज़ालिमों से कहा जाएगा कि अब हमेशा के अज़ाब का मज़ा रखो, जो कुछ तुम कमाते रहे हो उसकी पादाश के सिवा और क्या बदला तुमको दिया जा सकता है?
۞وَيَسۡتَنۢبِـُٔونَكَ أَحَقٌّ هُوَۖ قُلۡ إِي وَرَبِّيٓ إِنَّهُۥ لَحَقّٞۖ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 101
(53) फिर पूछते हैं “क्या वाक़ई यह सच है जो तुम कह रहे हो?” कहो, “मेरे रब की क़सम! यह बिलकुल सच है, और तुम इतना बल-बूता नहीं रखते कि उसे ज़ुहूर में आने से रोक दो।”
وَلَوۡ أَنَّ لِكُلِّ نَفۡسٖ ظَلَمَتۡ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ لَٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّدَامَةَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَۖ وَقُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 102
(54) अगर हर उस शख़्स के पास जिसने ज़ुल्म किया है, रूए-ज़मीन की दौलत भी हो तो उस अज़ाब से बचने के लिए वह उसे फ़िदये में देने पर आमादा हो जाएगा। जब ये लोग उस अज़ाब को देख लेंगे तो दिल-ही-दिल में पछताएँगे। मगर उनके दरमियान इनसाफ़ से फ़ैसला किया जाएगा, कोई ज़ुल्म उनपर न होगा।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 103
(55) सुनो! आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह का है। सुन रखो! अल्लाह का वादा सच्चा है मगर अकसर इनसान जानते नहीं हैं।
هُوَ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 104
(56) वही ज़िन्दगी बख़्शता है और वही मौत देता है और उसी की तरफ़ तुम सबको पलटना है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَتۡكُم مَّوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَشِفَآءٞ لِّمَا فِي ٱلصُّدُورِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 105
(57) लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से नसीहत आ गई है। यह वह चीज़ है जो दिलों के अमराज़ की शिफ़ा है और जो इसे क़ुबूल कर लें उनके लिए रहनुमाई और रहमत है।
قُلۡ بِفَضۡلِ ٱللَّهِ وَبِرَحۡمَتِهِۦ فَبِذَٰلِكَ فَلۡيَفۡرَحُواْ هُوَ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 106
(58) (ऐ नबी!) कहो कि “यह अल्लाह का फ़ज़्ल और उसकी मेहरबानी है कि यह चीज़ उसने भेजी, इसपर तो लोगों को ख़ुशी मनानी चाहिए, यह उन सब चीज़ों से बेहतर है जिन्हें लोग समेट रहे हैं।”
قُلۡ أَرَءَيۡتُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ لَكُم مِّن رِّزۡقٖ فَجَعَلۡتُم مِّنۡهُ حَرَامٗا وَحَلَٰلٗا قُلۡ ءَآللَّهُ أَذِنَ لَكُمۡۖ أَمۡ عَلَى ٱللَّهِ تَفۡتَرُونَ ۝ 107
(59) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “तुम लोगों ने कभी यह भी सोचा है कि जो रिज़्क़15 अल्लाह ने तुम्हारे लिए उतारा था उसमें से तुमने ख़ुद ही किसी को हराम और किसी को हलाल ठहरा लिया।”16 इनसे पूछो, “अल्लाह ने तुमको इसकी इजाजत दी थी? या तुम अल्लाह पर इफ़तिरा कर रहे हो?”17
15. उर्दू ज़बान में रिज़्क़ का इतलाक़ सिर्फ़ खाने-पीने की चीज़ों पर होता है, लेकिन अरबी ज़बान में रिज़्क मह्ज़ ख़ूराक के मानी तक महदूद नहीं है, बल्कि अता और बख़शिश और नसीब के मानी में आम है। अल्लाह तआला ने जो कुछ भी दुनिया में इंसान को दिया है वह सब उसका रिज़्क़ है।
16. यानी ख़ुद अपने लिए क़ानून और शरीअत बना लेने के मुख़तार बन बैठे। हालाँकि जिसका रिज़्क़ है उसी का यह हक़ है कि उसके इस्तेमाल की जाइज़ और नाजाइज़ सूरतों के लिए हुदूद और उसूल मुक़र्रर करे।
17. इफ़तिरा की तीन सूरतें हैं — एक यह कि कोई शख़्स यह कहे कि ये इख़्तियारात अल्लाह ने इनसानों को सौंप दिए हैं, दूसरी यह कि वह कहे कि अल्लाह का यह काम ही नहीं है कि हमारे लिए क़ानून और शरीअत मुक़र्रर करे, तीसरी यह कि वह हलाल व हराम के इन अहकाम को अल्लाह की तरफ़ मंसूब करे हालाँकि सनद में वह अल्लाह की कोई किताब न पेश कर सके।
وَمَا ظَنُّ ٱلَّذِينَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 108
(60) जो लोग अल्लाह पर यह झूठा इफ़तिरा बाँधते है उनका क्या गुमान है कि क़ियामत के रोज़ उनसे क्या मामला होगा? अल्लाह तो लोगों पर मेहरबानी की नज़र रखता है मगर अकसर इनसान ऐसे हैं जो शुक्र नहीं करते।