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وَكَم مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَا فَجَآءَهَا بَأۡسُنَا بَيَٰتًا أَوۡ هُمۡ قَآئِلُونَ

7. अल-आराफ़

(मक्का में उतरी, आयतें 206)

नाम

इस सूरा का नाम आराफ़ इसलिए रखा गया है कि इसकी मूल अरबी की आयत 46 में एक स्थान पर 'आराफ़' शब्द आया है, मानो इसे 'सूरा आराफ़' कहने का अर्थ यह है कि “वह सूरा जिसमें ‘आराफ़' (बुलन्दियो) का उल्लेख हुआ है।"

अवतरणकाल

इसके विषयों पर विचार करने से स्पष्ट रूप से महसूस होता है कि इसका अवतरणकाल लगभग वहीं है जो छठवीं सूरा अनआम का है। इसलिए इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को  समझने के लिए उस भूमिका पर एक दृष्टि डाल लेना पर्याप्त होगा जो हमने पिछली सूरा अनआम पर लिखी है।

वार्ताएँ

इस सूरा के व्याख्यान का केन्द्रीय विषय रसूल की पैरवी की ओर बुलाना है। समस्त वार्ता का उद्देश्य यह है कि सम्बोधित लोगों को अल्लाह के भेजे हुए पैग़म्बर की पैरवी करने पर तैयार किया जाए, लेकिन इस दावत में डरावे और चेतावनी का रंग अधिक स्पष्ट मिलता है, क्योंकि जिन लोगों को सम्बोधित किया है (अर्थात मक्कावाले) उन्हें समझाते-समझाते एक लंबा समय बीत चुका है और उनका न सुनना हठधर्मी और विरोधात्मक दुराग्रह इस सीमा को पहुँच चुका है कि बहुत जल्द पैग़म्बर को उनसे सम्बोधन बन्द करके दूसरों लोगों को संबोधित करने का आदेश मिलनेवाला है, इसलिए समझाने के अन्दाज़ में रसूल की पैरवी क़ुबूल करने की दावत देने के साथ उनको यह भी बताया जा रहा है कि जो नीति तुमने अपने पैग़म्बर के मुक़ाबले में अपना रखी है, ऐसी ही नीति तुमसे पहले की क़ौमें अपने पैग़म्बरों के मुकाबले में अपनाकर बहुत बुरा परिणाम देख चुकी हैं। फिर चूँकि उनपर बात सप्रमाण पूरी होने के क़रीब आ गई है, इसलिए व्याख्यान के अन्तिम भाग में आह्वान की दिशा उनसे हटकर किताबवालों [अर्थात यहूदी, ईसाई आदि] की ओर फिर गई है और एक जगह तमाम दुनिया के लोगों से सामान्य सम्बोधन भी किया गया है, जो इसकी निशानी है कि अब हिजरत क़रीब है और वह दौर जिसमें नबी का सम्बोधन पूर्णत: अपने निकटवर्ती लोगों से हुआ करता है, समाप्ति पर आ लगा है।

अभिभाषण के बीच में चूँकि सम्बोधन यहूदियों की ओर भी फिर गया है, इसलिए साथ-साथ रसूल की पैरवी की ओर बुलाने के इस पहलू को भी स्पष्ट कर दिया गया है कि पैग़म्बर पर ईमान लाने के बाद उसके साथ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियो) जैसी नीति अपनाने और सुनने और उसपर अमल करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करने के बाद उसे तोड़ देने और सत्य-असत्य के अन्तर को जान लेने के बाद असत्यवाद में डूबे रहने का परिणाम क्या है।

सूरा के अन्त में नबी (सल्ल०) और आपके साथियों (सहाबा) को प्रचार-नीति के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिए गए हैं और मुख्य रूप से उन्हें नसीहत की गई है कि विरोधियों की भड़कानेवाली बातों और उनके जुल्मो-सितम के मुकाबले में सब्र और धैर्य से काम लें और भावनाओं के प्रवाह में आकर कोई ऐसा क़दम न उठाएँ जो मूल उद्देश्य को क्षति पहुँचानेवाला हो।

 

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وَكَم مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَا فَجَآءَهَا بَأۡسُنَا بَيَٰتًا أَوۡ هُمۡ قَآئِلُونَ ۝ 1
(4) कितनी ही बस्तियाँ हैं जिन्हें हमने हलाक कर दिया। उनपर हमारा अज़ाब अचानक रात के वक़्त टूट पड़ा, या दिन दहाड़े ऐसे वक़्त आया जबकि वे आराम कर रहे थे।
فَمَا كَانَ دَعۡوَىٰهُمۡ إِذۡ جَآءَهُم بَأۡسُنَآ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 2
(5) और जब हमारा अज़ाब उनपर आ गया तो उनकी ज़बान पर इसके सिवा कोई सदा न थी कि वाक़ई हम ज़ालिम थे।
فَلَنَسۡـَٔلَنَّ ٱلَّذِينَ أُرۡسِلَ إِلَيۡهِمۡ وَلَنَسۡـَٔلَنَّ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 3
(6) पास यह ज़रूर होकर रहना है की हम उन लोगों से बाज़-पुर्स करें जिनकी तरफ़ हमने पैग़म्बर भेजे हैं और पैग़म्बरों से भी पूछें (कि उन्होंने पैग़ाम रसानी का फ़र्ज़ कहाँ तक अंजाम दिया और उन्हें इसका क्या जवाब मिला),
فَلَنَقُصَّنَّ عَلَيۡهِم بِعِلۡمٖۖ وَمَا كُنَّا غَآئِبِينَ ۝ 4
(7) फिर हम ख़ुद पूरे इल्म के साथ सारी सरगुज़श्त उनके आगे पेश कर देंगे, आख़िर हम कहीं ग़ायब तो नहीं थे।
وَٱلۡوَزۡنُ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡحَقُّۚ فَمَن ثَقُلَتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 5
(8) और वज़न उस रोज़ ऐन हक़ होगा।2 जिनके पलड़े भारी होंगे वही फ़लाह पानेवाले होंगे
2. यानी उस रोज़ अल्लाह की मीज़ाने-अद्ल में हक़ के सिवा कोई चीज़ वज़नी न होगी और वज़्‌न के सिवा कोई चीज़ हक़ न होगी। जिसके साथ जितना हक़ होगा उतना ही वह बा-वज़्‌न होगा। और फ़ैसला जो कुछ भी होगा वज़्‌न के लिहाज़ से होगा, किसी दूसरी चीज़ का ज़र्रा बराबर लिहाज़ न किया जाएगा।
وَمَنۡ خَفَّتۡ مَوَٰزِينُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُم بِمَا كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَظۡلِمُونَ ۝ 6
(9) और जिनके पलड़े हलके होंगे वही अपने-आपको ख़सारे में मुब्तला करनेवाले होंगे, क्योंकि वे हमारी आयात के साथ ज़ालिमाना बरताव करते रहे थे।
وَلَقَدۡ مَكَّنَّٰكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَجَعَلۡنَا لَكُمۡ فِيهَا مَعَٰيِشَۗ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 7
(10) हमने तुम्हें ज़मीन में इख़्तियारात के साथ बसाया और तुम्हारे लिए यहाँ सामाने-ज़ीस्त फ़राहम किया, मगर तुम लोग कम ही शुक्रगुज़ार होते हो।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَٰكُمۡ ثُمَّ صَوَّرۡنَٰكُمۡ ثُمَّ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ لَمۡ يَكُن مِّنَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 8
(11) हमने तुम्हारी तख़लीक़ की इबतिदा की, फिर तुम्हारी सूरत बनाई, फिर फ़रिश्तों से कहा, “आदम को सजदा करो।” इस हुक्म पर सबने सजदा किया मगर इबलीस सजदा करनेवालों में शामिल न हुआ।3
3. इसका यह मतलब नहीं है कि इबलीस फ़रिश्तों में से था। दरअस्ल जब ज़मीन का इन्तिज़ाम करनेवाले फ़रिश्तों को आदम के आगे सजदा करने का हुक्म दिया गया तो उसके मानी ये थे कि वह तमाम मख़लूक़ भी आदम की मुतीअ हो जाए जो फ़रिश्तों के ज़ेरे-इन्तिज़ाम थी। इस मख़लूक़ में से सिर्फ़ इबलीस ने आगे बढ़कर यह एलान किया कि वह आदम के आगे सर-ब-सुजूद न होगा।
قَالَ مَا مَنَعَكَ أَلَّا تَسۡجُدَ إِذۡ أَمَرۡتُكَۖ قَالَ أَنَا۠ خَيۡرٞ مِّنۡهُ خَلَقۡتَنِي مِن نَّارٖ وَخَلَقۡتَهُۥ مِن طِينٖ ۝ 9
(12) पूछा, “तुझे किस चीज़ ने सजदा करने से रोका जबकि मैंने तुझको हुक्म दिया था?” बोला, “मैं इससे बेहतर हूँ, तूने मुझे आग से पैदा किया है और इसे मिट्टी से।”
سُورَةُ الأَعۡرَافِ
7. सूरा अल-आराफ़
قَالَ فَٱهۡبِطۡ مِنۡهَا فَمَا يَكُونُ لَكَ أَن تَتَكَبَّرَ فِيهَا فَٱخۡرُجۡ إِنَّكَ مِنَ ٱلصَّٰغِرِينَ ۝ 10
(13) फ़रमाया, “अच्छा तो यहाँ से नीचे उतर। तुझे हक़ नहीं कि यहाँ बड़ाई का घमण्ड करे। निकल जा कि दर-हक़ीक़त तू उन लोगों में से है जो ख़ुद अपनी ज़िल्लत चाहते हैं।”4
4. अस्ल में लफ़्ज़ ‘साग़िरीन' इस्तेमाल हुआ है। ‘साग़िर' के मानी हैं ‘अर-राज़ी बिज़्ज़ुल्ल' यानी वह जो ज़िल्लत और सिग़ार और छोटी हैसियत को ख़ुद इख़्तियार करे। पस अल्लाह तआला के इरशाद का मतलब यह था कि बन्दा और मख़लूक़ होने के बावजूद तेरा अपनी बड़ाई के घमंड में मुब्तला होना यह मानी रखता है कि तू ख़ुद ज़लील होना चाहता है।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قَالَ أَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 11
(14) बोला, “मुझे उस दिन तक मुहलत दे जबकि ये सब दोबारा उठाए जाएँगे।”
الٓمٓصٓ
(1) अलिफ़० लाम० मीम० साँद०)
قَالَ إِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 12
(15) फ़रमाया, “तुझे मुहलत है।”
كِتَٰبٌ أُنزِلَ إِلَيۡكَ فَلَا يَكُن فِي صَدۡرِكَ حَرَجٞ مِّنۡهُ لِتُنذِرَ بِهِۦ وَذِكۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 13
(2) यह एक किताब है जो तुम्हारी तरफ़ नाज़िल की गई है। पस (ऐ नबी!) तुम्हारे दिल में इससे कोई झिझक न हो।1 इसके उतारने की ग़रज़ यह है कि तुम इसके ज़रिए से (मुनकिरीन को) डराओ और ईमान लानेवाले लोगों को नसीहत हो।
1. यानी बग़ैर किसी झिझक और ख़ौफ़ के उसे लोगों तक पहुँचा दो और इसकी कुछ परवाह न करो कि मुख़ालिफ़ीन उसका कैसा इस्तिक़बाल करेंगे।
قَالَ فَبِمَآ أَغۡوَيۡتَنِي لَأَقۡعُدَنَّ لَهُمۡ صِرَٰطَكَ ٱلۡمُسۡتَقِيمَ ۝ 14
(16) बोला, “अच्छा तो जिस तरह तूने मुझे गुमराही में मुब्तला किया है मैं भी तेरी सीधी राह पर उन इनसानों की घात में लगा रहूँगा,
ٱتَّبِعُواْ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡ وَلَا تَتَّبِعُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَۗ قَلِيلٗا مَّا تَذَكَّرُونَ ۝ 15
(3) लोगो! जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर नाज़िल किया गया है, उसकी पैरवी करो और अपने रब को छोड़कर दूसरे सरपरस्तों की पैरवी न करो।— मगर तुम नसीहत कम ही मानते हो।
ثُمَّ لَأٓتِيَنَّهُم مِّنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ وَعَنۡ أَيۡمَٰنِهِمۡ وَعَن شَمَآئِلِهِمۡۖ وَلَا تَجِدُ أَكۡثَرَهُمۡ شَٰكِرِينَ ۝ 16
(17) आगे और पीछे, दाएँ और बाएँ, हर तरफ़ से उनको घेरूँगा और तू उनमें से अकसर को शुक्रगुज़ार न पाएगा।
قَالَ ٱخۡرُجۡ مِنۡهَا مَذۡءُومٗا مَّدۡحُورٗاۖ لَّمَن تَبِعَكَ مِنۡهُمۡ لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 17
(18) फ़रमाया, “निकल जा यहाँ से ज़लील और ठुकराया हुआ। यक़ीन रख कि इनमें से जो तेरी पैरवी करेंगे, तुझ समेत उन सबसे जहन्नम को भर दूँगा।
قَالَا رَبَّنَا ظَلَمۡنَآ أَنفُسَنَا وَإِن لَّمۡ تَغۡفِرۡ لَنَا وَتَرۡحَمۡنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 18
(23) दोनों बोल उठे, “ऐ रब! हमने अपने ऊपर सितम किया, अब अगर तूने हम से दरगुज़र न फ़रमाया और रहम न किया तो यक़ीनन हम तबाह हो जाएँगे।”5
5. इससे मालूम हुआ कि इनसान के अन्दर शर्म व हया का जज़्बा एक फ़ितरी जज़्बा है और इसका अव्वलीन मज़हर वह शर्म है जो अपने जिस्म के मख़सूस हिस्सों को दूसरों के सामने खोलने में आदमी को फ़ितरतन महसूस होती है, इसी लिए शैतान की पहली चाल जो उसने इनसान को फ़ितरते-इनसानी की सीधी राह से हटाने के लिए चली, यह थी कि उसके इस जज़्बा-ए-शर्म व हया पर ज़र्ब लगाए और बरहनगी के रास्ते से उसके लिए फ़वाहिश का दरवाज़ा खोले और उसको जिन्सी मामलात में बदराह कर दे। मजीद बर आँ इससे यह भी मालूम हुआ कि इनसान के अन्दर बलन्द हालत पर पहुँचने की एक फ़ितरी प्यास मौजूद है। इसी लिए शैतान को उसके सामने ख़ैरख़ाह के भेस में आना पड़ा और यह कहना पड़ा कि मैं तुझे ज़्यादा बुलन्द हालत की तरफ़ ले चाहता हूँ। नीज़ इससे यह भी मालूम हुआ कि इनसान की अस्ल ख़ूबी जो उसे जाना शैतान के मुक़ाबले में बेहतर बनाती है वह यह है कि जब उससे क़ुसूर सरज़द हो जाए तो वह नादिम होकर अल्लाह से माफ़ी माँगे। बख़िलाफ़ इसके शैतान को जिस चीज़ ने ज़लील व ख़ार किया वह यह थी कि वह क़ुसूर करके अल्लाह के मुक़ाबले में अकड़ गया और बग़ावत पर उतर आया।
وَيَٰٓـَٔادَمُ ٱسۡكُنۡ أَنتَ وَزَوۡجُكَ ٱلۡجَنَّةَ فَكُلَا مِنۡ حَيۡثُ شِئۡتُمَا وَلَا تَقۡرَبَا هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةَ فَتَكُونَا مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 19
(19) और ऐ आदम! तू और तेरी बीवी दोनों इस जन्नत में रहो, जहाँ जिस चीज़ को तुम्हारा जी चाहे खाओ, मगर इस दरख़्त के पास न फटकना वरना ज़ालिमों में से हो जाओगे।”
قَالَ ٱهۡبِطُواْ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ وَلَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُسۡتَقَرّٞ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 20
(24) फ़रमाया, “उतर जाओ, तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो, और तुम्हारे लिए एक ख़ास मुद्दत तक ज़मीन ही में जाए-क़रार और सामाने-ज़ीस्त है।”
فَوَسۡوَسَ لَهُمَا ٱلشَّيۡطَٰنُ لِيُبۡدِيَ لَهُمَا مَا وُۥرِيَ عَنۡهُمَا مِن سَوۡءَٰتِهِمَا وَقَالَ مَا نَهَىٰكُمَا رَبُّكُمَا عَنۡ هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةِ إِلَّآ أَن تَكُونَا مَلَكَيۡنِ أَوۡ تَكُونَا مِنَ ٱلۡخَٰلِدِينَ ۝ 21
(20) फिर शैतान ने उनको बहकाया ताकि उनकी शर्मगाहें जो एक-दूसरे से छिपाई गई थीं उनके सामने खोल दे। उसने उनसे कहा, “तुम्हारे रब ने तुम्हें जो इस दरख़्त से रोका है इसकी वजह इसके सिवा कुछ नहीं है कि कहीं तुम फरिश्ते न बन जाओ, या तुम्हें हमेशगी की ज़िन्दगी हासिल न हो जाए।”
وَقَاسَمَهُمَآ إِنِّي لَكُمَا لَمِنَ ٱلنَّٰصِحِينَ ۝ 22
(21) और उसने क़सम खाकर उनसे कहा कि मैं तुम्हारा सच्चा ख़ैरख़ाह हूँ।
قَالَ فِيهَا تَحۡيَوۡنَ وَفِيهَا تَمُوتُونَ وَمِنۡهَا تُخۡرَجُونَ ۝ 23
(25) और फ़रमाया, “वहीं तुमको जीना और वहीं मरना है और उसी में से तुमको आख़िरकार निकाला जाएगा।”
فَدَلَّىٰهُمَا بِغُرُورٖۚ فَلَمَّا ذَاقَا ٱلشَّجَرَةَ بَدَتۡ لَهُمَا سَوۡءَٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخۡصِفَانِ عَلَيۡهِمَا مِن وَرَقِ ٱلۡجَنَّةِۖ وَنَادَىٰهُمَا رَبُّهُمَآ أَلَمۡ أَنۡهَكُمَا عَن تِلۡكُمَا ٱلشَّجَرَةِ وَأَقُل لَّكُمَآ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ لَكُمَا عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 24
(22) इस तरह धोखा देकर वह उन दोनों को रफ़्ता-रफ़्ता अपने ढब पर ले आया। आख़िरकार जब उन्होंने उस दरख़्त का मज़ा चखा तो उनके सतर एक-दूसरे के सामने खुल गए और वे अपने जिस्मों को जन्नत के पत्तों से ढाँकने लगे। तब उनके रब ने उन्हें पुकारा, “क्या मैंने तुम्हें इस दरख़्त से न रोका था और न कहा था कि शैतान तुम्हारा खुला दुश्मन है?”
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ قَدۡ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكُمۡ لِبَاسٗا يُوَٰرِي سَوۡءَٰتِكُمۡ وَرِيشٗاۖ وَلِبَاسُ ٱلتَّقۡوَىٰ ذَٰلِكَ خَيۡرٞۚ ذَٰلِكَ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 25
(26) “ऐ औलादे-आदम! हमने तुमपर लिबास नाज़िल किया है कि तुम्हारे जिस्म के क़ाबिले-शर्म हिस्सों को ढाँके और तुम्हारे लिए जिस्म की हिफ़ाज़त और ज़ीनत का ज़रिआ भी हो, और बेहतरीन लिबास तक़वा का लिबास है। यह अल्लाह की निशानियों में से एक निशानी है, शायद कि लोग इससे सबक़ लें।
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ لَا يَفۡتِنَنَّكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ كَمَآ أَخۡرَجَ أَبَوَيۡكُم مِّنَ ٱلۡجَنَّةِ يَنزِعُ عَنۡهُمَا لِبَاسَهُمَا لِيُرِيَهُمَا سَوۡءَٰتِهِمَآۚ إِنَّهُۥ يَرَىٰكُمۡ هُوَ وَقَبِيلُهُۥ مِنۡ حَيۡثُ لَا تَرَوۡنَهُمۡۗ إِنَّا جَعَلۡنَا ٱلشَّيَٰطِينَ أَوۡلِيَآءَ لِلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 26
(27) ऐ बनी-आदम! ऐसा न हो कि शैतान तुम्हें फिर उसी तरह फ़ितने में मुब्तला कर दे जिस तरह उसने तुम्हारे वालिदैन को जन्नत से निकलवाया था और उनके लिबास उनपर से उतरवा दिए थे ताकि उनकी शर्मगाहें एक-दूसरे के सामने खोले। वे और उसके साथी तुम्हें ऐसी जगह से देखते हैं जहाँ से तुम उन्हें नहीं देख सकते। इन शयातीन को हमने उन लोगों का सरपरस्त बना दिया है जो ईमान नहीं लाते।
وَإِذَا فَعَلُواْ فَٰحِشَةٗ قَالُواْ وَجَدۡنَا عَلَيۡهَآ ءَابَآءَنَا وَٱللَّهُ أَمَرَنَا بِهَاۗ قُلۡ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَأۡمُرُ بِٱلۡفَحۡشَآءِۖ أَتَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 27
(28) ये लोग जब कोई शर्मनाक काम करते हैं तो कहते हैं “हमने अपने बाप-दादा को इसी तरीक़े पर पाया है और अल्लाह ही ने हमें ऐसा करने का हुक्म दिया है।”6 इनसे कहो, “अल्लाह बेहयाई का हुक्म कभी नहीं दिया करता। क्या तुम अल्लाह का नाम लेकर वे बातें कहते हो जिनके मुताल्लिक तुम्हें इल्म नहीं है कि वे अल्लाह की तरफ़ से हैं?”
6. इशारा है अहले-अरब के बरहना तवाफ़ की तरफ़। इनमें ब-कसरत लोग हज के मौक़े पर काबा का तवाफ़ बरहना होकर करते थे और उनकी औरतें इस मामले में उनके मर्दों से भी ज़्यादा बेहया थीं, उनकी निगाह में यह एक मज़हबी फ़ेल था और नेक काम समझकर किया जाता था।
قُلۡ إِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ ٱلۡفَوَٰحِشَ مَا ظَهَرَ مِنۡهَا وَمَا بَطَنَ وَٱلۡإِثۡمَ وَٱلۡبَغۡيَ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَأَن تُشۡرِكُواْ بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗا وَأَن تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 28
(33) (ऐ नबी!) इनसे कहो कि “मेरे रब ने जो चीज़ें हराम की हैं वे तो ये हैं : बेशर्मी के काम-ख़ाह खुले हों या छिपे-और गुनाह8 और हक़ के ख़िलाफ़ ज़्यादती9 और यह कि अल्लाह के साथ तुम किसी ऐसे को शरीक करो जिसके लिए उसने कोई सनद नाज़िल नहीं की, और यह कि अल्लाह के नाम पर कोई ऐसी बात कहो जिसके मुताल्लिक़ तुम्हें इल्म न हो (कि वह हक़ीक़त में उसी ने फ़रमाई है)।
8. अस्ल में लफ़्ज़ ‘इसमुन' इस्तेमाल हुआ है जिसके अस्ल मानी कोताही के हैं। और इससे मुराद है आदमी का अपने रब की इताअत व फ़रमाँबरदारी में कोताही करना।
9. यानी अपनी हद से तजावुज़ करके ऐसे हुदूद में क़दम रखना जिनके अन्दर दाख़िल होने का आदमी को हक़ न हो।
وَلِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٞۖ فَإِذَا جَآءَ أَجَلُهُمۡ لَا يَسۡتَأۡخِرُونَ سَاعَةٗ وَلَا يَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 29
(34) हर क़ौम के लिए मुहलत की एक मुद्दत मुक़र्रर है, फिर जब किसी क़ौम की मुद्दत आन पूरी होती है तो एक घड़ी भर की ताख़ीर व तक़दीम भी नहीं होती।
يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ إِمَّا يَأۡتِيَنَّكُمۡ رُسُلٞ مِّنكُمۡ يَقُصُّونَ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِي فَمَنِ ٱتَّقَىٰ وَأَصۡلَحَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 30
(35) (और यह बात अल्लाह ने आग़ाज़े-तख़लीक़ ही में साफ़ फ़रमा दी थी कि) ऐ बनी आदम याद रखो, और तुम्हारे पास तुम में से ख़ुद ऐसे रसूल आएँ जो तुम्हें मेरी आयात सुना रहे हों, तो जो कोई नाफ़रमानी से बचेगा और अपने रवैये की इसलाह कर लेगा उसके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं है,
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱسۡتَكۡبَرُواْ عَنۡهَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 31
(36) और जो लोग हमारी आयात को झुठलायेंगे और उनके मुक़ाबले में सरकशी बरतेंगे वही अहले-दोज़ख़ होगे, जहाँ वे हमेशा रहेंगे।
فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ يَنَالُهُمۡ نَصِيبُهُم مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُنَا يَتَوَفَّوۡنَهُمۡ قَالُوٓاْ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالُواْ ضَلُّواْ عَنَّا وَشَهِدُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰفِرِينَ ۝ 32
(37) आख़िर उससे बड़ा ज़ालिम और कौन होगा जो बिलकुल झूठी बातें गढ़कर अल्लाह की तरफ़ मंसूब करे या अल्लाह की सच्ची आयात को झुठलाए? ऐसे लोग अपने नविश्ता-ए-तक़दीर के मुताबिक़ अपना हिस्सा पाते रहेंगे,10 यहाँ तक कि वह घड़ी आ जाएगी जब हमारे भेजे हुए फ़रिश्ते उनकी रूहें क़ब्ज़ करने के लिए पहुँचेंगे। उस वक़्त वे उनसे पूछेंगे कि “बताओ, अब कहाँ हैं तुम्हारे माबूद जिनको तुम ख़ुदा के बजाय पुकारते थे?” वे कहेंगे कि “सब हम से गुम हो गए।” और वे ख़ुद अपने ख़िलाफ़ गवाही देंगे कि हम वाक़ई मुनकिरे हक़ थे।
10. यानी दुनिया में जितने दिन उनकी मुहलत के मुक़र्रर हैं, यहाँ रहेंगे और जिस क़िस्म की बज़ाहिर अच्छी या बुरी ज़िन्दगी गुज़ारना उनके नसीब में है, गुज़ार लेंगे।
قَالَ ٱدۡخُلُواْ فِيٓ أُمَمٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِكُم مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ فِي ٱلنَّارِۖ كُلَّمَا دَخَلَتۡ أُمَّةٞ لَّعَنَتۡ أُخۡتَهَاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا ٱدَّارَكُواْ فِيهَا جَمِيعٗا قَالَتۡ أُخۡرَىٰهُمۡ لِأُولَىٰهُمۡ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ أَضَلُّونَا فَـَٔاتِهِمۡ عَذَابٗا ضِعۡفٗا مِّنَ ٱلنَّارِۖ قَالَ لِكُلّٖ ضِعۡفٞ وَلَٰكِن لَّا تَعۡلَمُونَ ۝ 33
(38) अल्लाह फ़रमाएगा, “जाओ, तुम भी उसी जहन्नम में चले जाओ जिसमें तुमसे पहले गुज़रे हुए गरोहे-जिन्न व इंस जा चुके हैं। हर गरोह जब जहन्नम में दाख़िल होगा तो अपने पेश-रौ गरोह पर लानत करता हुआ दाख़िल होगा, हत्ता कि जब सब वहाँ जमा हो जाएँगे तो हर बादवाला गरोह पहले गरोह के हक़ में कहेगा कि “ऐ रब! ये लोग थे जिन्होंने हमको गुमराह किया लिहाज़ा इन्हें आग का दोहरा अज़ाब दे।” जवाब में इरशाद होगा, “हर एक के लिए दोहरा अज़ाब ही है मगर तुम जानते नहीं हो।”11
11. यानी एक अज़ाब ख़ुद गुमराही इख़्तियार करने का और दूसरा अज़ाब दूसरों के गुमराह करने का। एक सज़ा अपने जराइम की और दूसरी सज़ा दूसरों के लिए जराइम पेशगी की मीरास छोड़ आने की।
وَقَالَتۡ أُولَىٰهُمۡ لِأُخۡرَىٰهُمۡ فَمَا كَانَ لَكُمۡ عَلَيۡنَا مِن فَضۡلٖ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡسِبُونَ ۝ 34
(39) और पहला गरोह दूसरे गरोह से कहेगा कि (अगर हम क़ाबिले-इलज़ाम थे) तो तुम्हीं को हमपर कौन-सी फ़ज़ीलत हासिल थी, अब अपनी कमाई के नतीजे में अज़ाब का मज़ा चखो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱسۡتَكۡبَرُواْ عَنۡهَا لَا تُفَتَّحُ لَهُمۡ أَبۡوَٰبُ ٱلسَّمَآءِ وَلَا يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ حَتَّىٰ يَلِجَ ٱلۡجَمَلُ فِي سَمِّ ٱلۡخِيَاطِۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 35
(40) यक़ीन जानो, जिन लोगों ने हमारी आयात को झुठलाया है और उसके मुक़ाबले में सरकशी की है उनके लिए आसमान के दरवाज़े हरगिज़ न खोले जाएँगे। उनका जन्नत में जाना इतना ही नामुमकिन है जितना सूई के नाके में ऊँट का गुज़रना। मुजरिमों को हमारे यहाँ ऐसा ही बदला मिला करता है।
لَهُم مِّن جَهَنَّمَ مِهَادٞ وَمِن فَوۡقِهِمۡ غَوَاشٖۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 36
(41) उनके लिए तो जहन्नम का बिछौना होगा और जहन्नम ही का ओढ़ना। यह है वह जज़ा जो हम ज़ालिमों को दिया करते हैं।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 37
(42) बख़िलाफ़ इसके जिन लोगों ने हमारी आयात को मान लिया है और अच्छे काम किए हैं। — और इस बाब में हम हर एक को उसकी इस्तिताअत ही के मुताबिक़ ज़िम्मेदार ठहराते हैं। — वे अहले-जन्नत हैं जहाँ वे हमेशा रहेंगे।
وَنَزَعۡنَا مَا فِي صُدُورِهِم مِّنۡ غِلّٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَقَالُواْ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي هَدَىٰنَا لِهَٰذَا وَمَا كُنَّا لِنَهۡتَدِيَ لَوۡلَآ أَنۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُۖ لَقَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُ رَبِّنَا بِٱلۡحَقِّۖ وَنُودُوٓاْ أَن تِلۡكُمُ ٱلۡجَنَّةُ أُورِثۡتُمُوهَا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 38
(43) उनके दिलों में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ जो कुछ कुदूरत होगी उसे हम निकाल देंगे। उनके नीचे नहरें बहती होगी। और वे कहेंगे कि “तारीफ़ ख़ुदा ही के लिए है जिसने हमें यह रास्ता दिखाया, हम ख़ुद राह न पा सकते थे अगर ख़ुदा हमारी रहनुमाई न करता, हमारे रब के भेजे हुए रसूल वाक़ई हक़ ही लेकर आए थे।” उस वक़्त निदा आएगी कि “यह जन्नत जिसके तुम वारिस बनाए गए हो तुम्हें उन आमाल के बदले में मिली है जो तुम करते रहे थे।”
ٱلَّذِينَ يَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَيَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ كَٰفِرُونَ ۝ 39
(45) जो अल्लाह के रास्ते से लोगों को रोकते और उसे टेढ़ा करना चाहते थे और आख़िरत के मुनकिर थे।”
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ أَصۡحَٰبَ ٱلنَّارِ أَن قَدۡ وَجَدۡنَا مَا وَعَدَنَا رَبُّنَا حَقّٗا فَهَلۡ وَجَدتُّم مَّا وَعَدَ رَبُّكُمۡ حَقّٗاۖ قَالُواْ نَعَمۡۚ فَأَذَّنَ مُؤَذِّنُۢ بَيۡنَهُمۡ أَن لَّعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 40
(44) फिर ये जन्नत के लोग दोज़ख़वालों से पुकारकर कहेंगे, “हमने उन सारे वादों को ठीक पाया जो हमारे रब ने हमसे किए थे, क्या तुमने भी उन वादों को ठीक पाया जो तुम्हारे रब ने किए थे?” वे जवाब देंगे, “हाँ।” तब एक पुकारनेवाला उनके दरमियान पुकारेगा कि “ख़ुदा की लानत उन ज़ालिमों पर
وَبَيۡنَهُمَا حِجَابٞۚ وَعَلَى ٱلۡأَعۡرَافِ رِجَالٞ يَعۡرِفُونَ كُلَّۢا بِسِيمَىٰهُمۡۚ وَنَادَوۡاْ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ أَن سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡۚ لَمۡ يَدۡخُلُوهَا وَهُمۡ يَطۡمَعُونَ ۝ 41
(46) इन दोनों गरोहों के दरमियान एक ओट हायल होगी जिसकी बलन्दियों (आराफ़) पर कुछ और लोग होंगे। ये हर एक को उसके क़ियाफ़े से पहचानेंगे। और जन्नतवालों से पुकारकर कहेंगे कि “सलामती हो तुमपर!” ये लोग जन्नत में दाख़िल तो नहीं हुए मगर उसके उम्मीदवार होंगे।12
12. यानी ये अस्हाबुल-आराफ़ वे लोग होंगे जिनकी ज़िन्दगी का न तो मुस्बत पहलू ही इतना क़वी होगा कि जन्नत में दाख़िल हो सकें और न मनफ़ी पहलू ही इतना ख़राब होगा कि दोज़ख़ में झोंक दिए जाएँ। इसलिए वे जन्नत और दोज़ख़ के दरमियान एक सरहद पर रहेंगे और अल्लाह के फ़ज़्ल से यह उम्मीद लगाए हुए होंगे कि उन्हें जन्नत नसीब हो जाए।
۞وَإِذَا صُرِفَتۡ أَبۡصَٰرُهُمۡ تِلۡقَآءَ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِ قَالُواْ رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 42
(47) और जब उनकी निगाहें दोज़ख़वालों की तरफ़ फिरेंगी तो कहेंगे, “ऐ रब! हमें इन ज़ालिम लोगों में शामिल न कीजियो।”
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلۡأَعۡرَافِ رِجَالٗا يَعۡرِفُونَهُم بِسِيمَىٰهُمۡ قَالُواْ مَآ أَغۡنَىٰ عَنكُمۡ جَمۡعُكُمۡ وَمَا كُنتُمۡ تَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 43
(48) फिर ये आराफ़ के लोग दोज़ख़ की चंद बड़ी-बड़ी शख़्सियतों को उनकी अलामतों से पहचानकर पुकारेंगे कि “देख लिया तुमने! आज न तुम्हारे जत्थे तुम्हारे किसी काम आए और न वे साज़ो-सामान जिनको तुम बड़ी चीज़ समझते थे।
وَهُوَ ٱلَّذِي يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ بُشۡرَۢا بَيۡنَ يَدَيۡ رَحۡمَتِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَقَلَّتۡ سَحَابٗا ثِقَالٗا سُقۡنَٰهُ لِبَلَدٖ مَّيِّتٖ فَأَنزَلۡنَا بِهِ ٱلۡمَآءَ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦ مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِۚ كَذَٰلِكَ نُخۡرِجُ ٱلۡمَوۡتَىٰ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 44
(57) और वह अल्लाह ही है जो हवाओं को अपनी रहमत के आगे-आगे ख़ुशख़बरी लिए हुए भेजता है, फिर जब वे पानी से लदे हुए बादल उठा लेती हैं तो उन्हें किसी मुर्दा सरज़मीन की तरफ़ हरकत देता है और वहाँ मेंह बरसाकर (उसी मरी हुई ज़मीन से) तरह-तरह के फल निकाल लाता है। देखो, इस तरह हम मुर्दों को हालते-मौत से निकालते हैं, शायद कि तुम इस मुशाहदे से सबक़ लो।
أَهَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَقۡسَمۡتُمۡ لَا يَنَالُهُمُ ٱللَّهُ بِرَحۡمَةٍۚ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡكُمۡ وَلَآ أَنتُمۡ تَحۡزَنُونَ ۝ 45
(49) और क्या ये अहले-जन्नत वही लोग नहीं हैं जिनके मुताल्लिक़ तुम क़समें खा-खाकर कहते थे कि इनको तो ख़ुदा अपनी रहमत में से कुछ न देगा? आज उन्हीं से कहा गया कि दाख़िल हो जाओ जन्नत में, तुम्हारे लिए न ख़ौफ़ है न रंज।”
وَٱلۡبَلَدُ ٱلطَّيِّبُ يَخۡرُجُ نَبَاتُهُۥ بِإِذۡنِ رَبِّهِۦۖ وَٱلَّذِي خَبُثَ لَا يَخۡرُجُ إِلَّا نَكِدٗاۚ كَذَٰلِكَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَشۡكُرُونَ ۝ 46
(58) जो ज़मीन अच्छी होती है वह अपने रब के हुक्म से ख़ूब फल-फूल लाती है और जो ज़मीन ख़राब होती है उससे नाक़िस पैदावार के सिवा कुछ नहीं निकलता। इसी तरह हम निशानियों को बार-बार पेश करते हैं उन लोगों के लिए जो शुक्रगुज़ार होनेवाले हैं।
وَنَادَىٰٓ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ أَنۡ أَفِيضُواْ عَلَيۡنَا مِنَ ٱلۡمَآءِ أَوۡ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُۚ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ حَرَّمَهُمَا عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 47
(50) और दोज़ख़ के लोग जन्नतवालों को पुकारेंगे कि कुछ थोड़ा-सा पानी हमपर डाल दो या जो रिज़्क़ अल्लाह ने तुम्हें दिया है उसी में से दो। वे जवाब देंगे कि “अल्लाह ने ये दोनों चीज़ें उन मुनकिरीने-हक़ पर हराम कर दी हैं
لَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ فَقَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 48
(59) हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ भेजा।18 उसने कहा, “ऐ बिरादराने-क़ौम! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। मैं तुम्हारे हक़ में एक हौलनाक दिन के अज़ाब से डरता हूँ।”
18. हज़रत नूह (अलैहि०) की क़ौम उस इलाक़े में रहती थी जिसे आज हम इराक़ के नाम से जानते हैं।
ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَهُمۡ لَهۡوٗا وَلَعِبٗا وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَاۚ فَٱلۡيَوۡمَ نَنسَىٰهُمۡ كَمَا نَسُواْ لِقَآءَ يَوۡمِهِمۡ هَٰذَا وَمَا كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَجۡحَدُونَ ۝ 49
(51) जिन्होंने अपने दीन को खेल और तफ़रीह बना लिया था और जिन्हें दुनिया की ज़िन्दगी ने फ़रेब में मुब्तला कर रखा था। अल्लाह फ़रमाता है कि आज हम भी उन्हें उसी तरह भुला देंगे जिस तरह वे इस दिन की मुलाक़ात को भूले रहे और हमारी आयतों का इनकार करते रहे।”
قَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِهِۦٓ إِنَّا لَنَرَىٰكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 50
(60) उसकी क़ौम के सरदारों ने जवाब दिया, “हमको तो यह नज़र आता है कि तुम सरीही गुमराही में मुब्तला हो।”
وَلَقَدۡ جِئۡنَٰهُم بِكِتَٰبٖ فَصَّلۡنَٰهُ عَلَىٰ عِلۡمٍ هُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 51
(52) हम इन लोगों के पास एक ऐसी किताब ले आए हैं जिसको हमने इल्म की बिना पर मुफ़स्सल बनाया है और जो ईमान लानेवालों के लिए हिदायत और रहमत है।
قَالَ يَٰقَوۡمِ لَيۡسَ بِي ضَلَٰلَةٞ وَلَٰكِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 52
(61) नूह ने कहा, “ऐबिरादराने-क़ौम! मैं किसी गुमराही में नहीं पड़ा हूँ, बल्कि मैं रब्बुल-आलमीन का रसूल हूँ,
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا تَأۡوِيلَهُۥۚ يَوۡمَ يَأۡتِي تَأۡوِيلُهُۥ يَقُولُ ٱلَّذِينَ نَسُوهُ مِن قَبۡلُ قَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُ رَبِّنَا بِٱلۡحَقِّ فَهَل لَّنَا مِن شُفَعَآءَ فَيَشۡفَعُواْ لَنَآ أَوۡ نُرَدُّ فَنَعۡمَلَ غَيۡرَ ٱلَّذِي كُنَّا نَعۡمَلُۚ قَدۡ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 53
(53) अब क्या ये लोग इसके सिवा किसी और बात के मुन्तज़िर हैं कि वह अंजाम सामने आ जाए जिसकी यह किताब ख़बर दे रही है? जिस रोज़ वह अंजाम सामने आ गया तो वही लोग जिन्होंने पहले उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया था कहेंगे कि “वाक़ई हमारे रब के रसूल हक़ लेकर आए थे, फि क्या अब हमे कुछ सिफ़ारिशी मिलेंगे जो हमारे हक़ में सिफारिश करें? या हमें दोबारा वापस ही भेज दिया जाए ताकि जो कुछ हम पहले करते थे उसके बजाय अब दूसरे तरीक़े पर काम करके दिखाएँ।” — उन्होंने अपने-आपको ख़सारे में डाल दिया और वे सारे झूठ जो उन्होंने तसनीफ़ कर रखे थे उनसे गुम हो गए।
أُبَلِّغُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَأَنصَحُ لَكُمۡ وَأَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 54
(62) तुम्हें अपने रब के पैग़ामात पहुँचाता हूँ, तुम्हारा ख़ैरख़ाह हूँ, और मुझे अल्लाह की तरफ़ से वह कुछ मालूम है जो तुम्हें मालूम नहीं है।
إِنَّ رَبَّكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ يُغۡشِي ٱلَّيۡلَ ٱلنَّهَارَ يَطۡلُبُهُۥ حَثِيثٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ وَٱلنُّجُومَ مُسَخَّرَٰتِۭ بِأَمۡرِهِۦٓۗ أَلَا لَهُ ٱلۡخَلۡقُ وَٱلۡأَمۡرُۗ تَبَارَكَ ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 55
(54) दर हक़ीक़त तुम्हारा रब अल्लाह ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छहदिनों में पैदा किया,13 फिर अपने “तख़्ते-सल्तनत पर जलवाफ़रमा हुआ।14 जो रात को दिन पर ढाँक देता है और फिर दिन रात के पीछे दौड़ा चला आता है। जिसने सूरज और चाँद और तारे पैदा किए सब उसके फ़रमान के ताबे हैं। ख़बरदार रहो! उसी की ख़ल्क़ है और उसी का अम्र है।15 बड़ा बाबरकत16 है अल्लाह, सारे जहानों का मालिक व परवरदिगार।
13. यहाँ दिन का लफ़्ज़ या तो इसी चौबीस घंटे के दिन का हममानी है जिसे दुनिया के लोग दिन कहते हैं या फिर यह लफ़्ज़ दौर के मानी में इस्तेमाल हुआ है।
14. ख़ुदा के अर्श पर जलवाफ़रमा होने की तफ़सीली कैफ़ियत को समझना हमारे लिए मुमकिन नहीं है। यह मुतशाबिहात में से है जिनके मानी मुतय्यन नहीं किए जा सकते।
15. यानी ख़ुदा ही ने इस कायनात को पैदा किया है और वही इसका फ़रमाँरवा है, अपनी ख़ल्क़ को उसने दूसरों के हवाले नहीं कर दिया है, न किसी मख़लूक़ को यह हक़ दिया है कि ख़ुदमुख़्तार होकर जो कुछ चाहे करे।
16. अल्लाह के निहायत बाबरकत होने का मतलब यह है कि उसकी ख़ूबियों और भलाइयों की कोई हद नहीं है, बेहद व हिसाब ख़ैरात उसकी ज़ात से फैल रही हैं।
أَوَعَجِبۡتُمۡ أَن جَآءَكُمۡ ذِكۡرٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنكُمۡ لِيُنذِرَكُمۡ وَلِتَتَّقُواْ وَلَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 56
(63) क्या तुम्हें इस बात पर ताज्जुब हुआ कि तुम्हारे पास ख़ुद तुम्हारी अपनी क़ौम के एक आदमी के ज़रिए से तुम्हारे रब की याददिहानी आई ताकि तुम्हें ख़बरदार करे और तुम ग़लतरवी से बच जाओ और तुमपर रहम किया जाए?
ٱدۡعُواْ رَبَّكُمۡ تَضَرُّعٗا وَخُفۡيَةًۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 57
(55) अपने रब को पुकारो गिड़गिड़ाते हुए और चुपके-चुपके, यक़ीनन वह हद से गुज़रनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَلَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ بَعۡدَ إِصۡلَٰحِهَا وَٱدۡعُوهُ خَوۡفٗا وَطَمَعًاۚ إِنَّ رَحۡمَتَ ٱللَّهِ قَرِيبٞ مِّنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 58
(56) ज़मीन में फ़साद बरपा न करो जबकि उसकी इसलाह हो चुकी है,17 और ख़ुदा ही को पुकारो ख़ौफ़ के साथ और तमअ के साथ, यक़ीनन अल्लाह की रहमत नेक किरदार लोगों से क़रीब है।
17. यानी सैंकड़ों और हज़ारों बरस में अल्लाह के पैग़म्बरों और नौए-इनसानी के मुसलिहीन की कोशिशों से इनसानी अख़लाक़ और तमद्दुन में जो इस्लाहात हुई हैं उनमें अपनी ग़लतकारियों से ख़राबी बरपा न करो।
وَإِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ قَدۡ جَآءَتۡكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡۖ هَٰذِهِۦ نَاقَةُ ٱللَّهِ لَكُمۡ ءَايَةٗۖ فَذَرُوهَا تَأۡكُلۡ فِيٓ أَرۡضِ ٱللَّهِۖ وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 59
(73) और समूद की तरफ़ हमने उनके भाई सॉलेह को भेजा।22 उसने कहा, “ऐ बिरादराने-क़ौम! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई नहीं है। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की खुली दलील आ गई है। यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक निशानी के तौर पर है23 लिहाज़ा इसे छोड़ दो कि ख़ुदा की ज़मीन में चरती फिरे। इसको किसी बुरे इरादे से हाथ न लगाना वरना एक दर्दनाक अज़ाब तुम्हें आ लेगा।
22. क़ौमे-समूद का मस्कन शिमाल मग़रिबी अरब का वह इलाक़ा था जो आज भी 'अल-हिज्र' के नाम से मौसूम है। मौजूदा ज़माने में मदीना और तबूक के दरमियान एक मक़ाम है जिसे मदाइने-सॉलेह कहते हैं। यही समूद का सद्र मक़ाम था और क़दीम ज़माने में 'हिज्र' कहलाता था। अब तक वहाँ समूद की कुछ इमारतें मौजूद हैं जो उन्होंने पहाड़ खोदकर बनाई थीं।
23. इस क़िस्से की जो तफ़सीलात मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर क़ुरआन में बयान हुई हैं। उनसे होता है कि समूदवालों ने ख़ुद एक ऐसी निशानी का हज़रत सॉलेह मालूम (अलैहि०) से मुतालबा किया था जो उनके मामूर-मिनल्लाह होने पर खुली दलील हो, और इसी के जवाब में हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने ऊँटनी को पेश किया था।
وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ جَعَلَكُمۡ خُلَفَآءَ مِنۢ بَعۡدِ عَادٖ وَبَوَّأَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ تَتَّخِذُونَ مِن سُهُولِهَا قُصُورٗا وَتَنۡحِتُونَ ٱلۡجِبَالَ بُيُوتٗاۖ فَٱذۡكُرُوٓاْ ءَالَآءَ ٱللَّهِ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 60
(74) याद करो वह वक़्त जब अल्लाह ने क़ौमे-आद के बाद तुम्हें उसका जानशीन बनाया और ज़मीन में यह मंज़िलत बख़्शी कि आज तुम उसके हमवार मैदानों में आलीशान महल बनाते और उसके पहाड़ों को मकानात की शक्ल में तराशते हो। पस उसकी क़ुदरत के करिश्मों से ग़ाफ़िल न हो जाओ और ज़मीन में फ़साद बरपा न करो।”
قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لِلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِمَنۡ ءَامَنَ مِنۡهُمۡ أَتَعۡلَمُونَ أَنَّ صَٰلِحٗا مُّرۡسَلٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قَالُوٓاْ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلَ بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 61
(75) उसकी क़ौम के सरदारों ने जो बड़े बने हुए थे, कमज़ोर तबके के उन लोगों से जो ईमान ले आए थे, कहा, “क्या तुम वाक़ई यह जानते हो कि सॉलेह अपने रब का पैग़म्बर है?” उन्होंने जवाब दिया, “बेशक जिस पैग़ाम के साथ वह भेजा गया है उसे हम मानते हैं।”
قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُوٓاْ إِنَّا بِٱلَّذِيٓ ءَامَنتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 62
(76) उन बड़ाई के मुद्दइयों ने कहा, “जिस चीज़ को तुमने माना है हम उसके मुनकिर हैं।”
فَعَقَرُواْ ٱلنَّاقَةَ وَعَتَوۡاْ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِمۡ وَقَالُواْ يَٰصَٰلِحُ ٱئۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 63
(77) “फिर उन्होंने उस ऊँटनी को मार डाला24 और पूरे तमरुर्रद के साथ अपने रब के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर गुज़रे, और सॉलेह से कह दिया कि “ले आ वह अज़ाब जिसकी तू हमें धमकी देता है, अगर तू वाक़ई पैग़म्बरों में से है।”
24. अगरचे मारा एक शख़्स ने था, जैसा कि सूरा-54 क़मर और सूरा-91 शम्स में इरशाद हुआ है, लेकिन चूँकि पूरी क़ौम उस मुजरिम की पुश्त पर थी और वह दरअस्ल इस जुर्म में क़ौम की मरज़ी का आला-ए-कार था इसलिए इलज़ाम पूरी क़ौम पर आइद किया गया है।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دَارِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 64
(78) आख़िरकार एक दहला देनेवाली आफ़त ने उन्हें आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े-के-पड़े रह गए।
فَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰقَوۡمِ لَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُمۡ رِسَالَةَ رَبِّي وَنَصَحۡتُ لَكُمۡ وَلَٰكِن لَّا تُحِبُّونَ ٱلنَّٰصِحِينَ ۝ 65
(79) और सॉलेह यह कहता हुआ उनकी बस्तियों से निकल गया कि “ऐ मेरी क़ौम! मैंने अपने रब का पैग़ाम तुझे पहुँचा दिया और मैंने तेरी बहुत ख़ैरख़ाही की, मगर मैं क्या करूँ कि तुझे अपने ख़ैरख़ाह पसन्द ही नहीं हैं।”
وَلُوطًا إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ أَتَأۡتُونَ ٱلۡفَٰحِشَةَ مَا سَبَقَكُم بِهَا مِنۡ أَحَدٖ مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 66
(80) और लूत को हमने पैग़म्बर बनाकर भेजा, फिर याद करो जब उसने अपनी क़ौम से कहा,25 “क्या तुम ऐसे बेहया हो गए हो कि वह फ़ुहश काम करते हो जो तुमसे पहले दुनिया में किसी ने नहीं किया?
25. हज़रत लूत (अलैहि०) हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के भतीजे थे। और यह क़ौम जिसकी हिदायत के लिए वे भेजे गए थे, उस इलाक़े में रहती थी जहाँ अब बुहैरा-ए-मुर्दार (Dead Sea) वाक़े है।
إِنَّكُمۡ لَتَأۡتُونَ ٱلرِّجَالَ شَهۡوَةٗ مِّن دُونِ ٱلنِّسَآءِۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ ۝ 67
(81) तुम औरतों को छोड़कर मर्दों से अपनी ख़ाहिश पूरी करते हो। हक़ीक़त यह है कि तुम बिलकुल ही हद से गुज़र जानेवाले लोग हो।”
وَمَا كَانَ جَوَابَ قَوۡمِهِۦٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ أَخۡرِجُوهُم مِّن قَرۡيَتِكُمۡۖ إِنَّهُمۡ أُنَاسٞ يَتَطَهَّرُونَ ۝ 68
(82) मगर उसकी क़ौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि “निकालो इन लोगों को अपनी बस्तियों से, बड़े पाकबाज़ बनते हैं ये।”
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ كَانَتۡ مِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 69
(83) आख़िरकार हमने लूत और उसके घरवालों को बजुज़ उसकी बीवी के जो पीछे रह जानेवालों में थी — बचाकर निकाल दिया
وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِم مَّطَرٗاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 70
(84) और उस क़ौम पर बरसाई एक बारिश26, फिर देखो कि उन मुजरिमों क्या अंजाम हुआ!
26. बारिश से मुराद यहाँ पानी की बारिश नहीं, बल्कि पत्थरों की बारिश है जैसा कि दूसरे मक़ामात पर क़ुरआन में बयान हुआ है।
وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ قَدۡ جَآءَتۡكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡۖ فَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَٱلۡمِيزَانَ وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ بَعۡدَ إِصۡلَٰحِهَاۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 71
(85) और मदयनवालों27 की तरफ़ हमने उनके भाई शुऐब को भेजा। उसने कहा, “ऐ बिरादराने-क़ौम! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की साफ़ रहनुमाई आ गई है, लिहाज़ा वज़्‌न और पैमाने पूरे करो, लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दो, और ज़मीन में फ़साद बरपा न करो जबकि उसकी इसलाह हो चुकी है, इसी में तुम्हारी भलाई है अगर तुम वाक़ई मोमिन हो।28
27. मदयन का अस्ल इलाक़ा हिजाज़ के शिमाल-मग़रिब और फ़िलस्तीन के जुनूब में बहरे-अहमर (लाल सागर) और ख़लीजे-अक़बा के किनारे पर वाक़े था। मगर जज़ीरा नुमाए-सीना के मशरिक़ी साहिल पर भी इसका कुछ सिलसिला फैला हुआ था। यह एक बड़ी तिजारत-पेशा क़ौम थी। क़दीम ज़माने में जो तिजारती शाहराह बहरे-अहमर के किनारे यमन से मक्का और यमबूअ होती हुई शाम (सीरिया) तक जाती थी, और एक दूसरी तिजारती शाहराह जो इराक़ से मिस्र की तरफ़ जाती थी, उसके ऐन चौराहे पर इस क़ौम की बस्तियाँ वाक़े थीं।
28. इस फ़िकरे से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ये लोग ख़ुद मुद्दई-ए-ईमान थे।
وَلَا تَقۡعُدُواْ بِكُلِّ صِرَٰطٖ تُوعِدُونَ وَتَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ بِهِۦ وَتَبۡغُونَهَا عِوَجٗاۚ وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ كُنتُمۡ قَلِيلٗا فَكَثَّرَكُمۡۖ وَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 72
(86) और (ज़िन्दगी के) हर रास्ते पर रहज़न बनकर न बैठ जाओ कि लोगों को ख़ौफ़ज़दा करने और ईमान लानेवालों को ख़ुदा के रास्ते से रोकने लगो और सीधी राह को टेढ़ा करने के दरपै हो जाओ। याद करो वह ज़माना जब कि तुम थोड़े थे, फिर अल्लाह ने तुम्हें बहुत कर दिया, और आँखें खोलकर देखो कि दुनिया में मुफ़सिदों का क्या अंजाम हुआ है।
وَإِن كَانَ طَآئِفَةٞ مِّنكُمۡ ءَامَنُواْ بِٱلَّذِيٓ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦ وَطَآئِفَةٞ لَّمۡ يُؤۡمِنُواْ فَٱصۡبِرُواْ حَتَّىٰ يَحۡكُمَ ٱللَّهُ بَيۡنَنَاۚ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 73
(87) अगर तुममें से एक गरोह उस तालीम पर जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ, ईमान लाता है और दूसरा ईमाने नहीं लाता, तो सब्र के साथ देखते रहो यहाँ तक कि अल्लाह हमारे दरमियान फ़ैसला कर दे और वही सबसे बेहतर फ़ैसला करनेवाला है।”
۞قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لَنُخۡرِجَنَّكَ يَٰشُعَيۡبُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَكَ مِن قَرۡيَتِنَآ أَوۡ لَتَعُودُنَّ فِي مِلَّتِنَاۚ قَالَ أَوَلَوۡ كُنَّا كَٰرِهِينَ ۝ 74
(88) उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो अपनी बड़ाई के घमण्ड में मुब्त्ला थे उससे कहा कि “ऐ शुऐब! हम तुझे और उन लोगों को, जो तेरे साथ ईमान लाए हैं, अपनी बस्ती से निकाल देंगे वरना तुम लोगों को हमारी मिल्लत में वापस आना होगा।” शुऐब ने जवाब दिया, “क्या ज़बरदस्ती हमें फ़ेरा जाएगा ख़ाह हम राज़ी न हों?
قَدِ ٱفۡتَرَيۡنَا عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا إِنۡ عُدۡنَا فِي مِلَّتِكُم بَعۡدَ إِذۡ نَجَّىٰنَا ٱللَّهُ مِنۡهَاۚ وَمَا يَكُونُ لَنَآ أَن نَّعُودَ فِيهَآ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُ رَبُّنَاۚ وَسِعَ رَبُّنَا كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمًاۚ عَلَى ٱللَّهِ تَوَكَّلۡنَاۚ رَبَّنَا ٱفۡتَحۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَ قَوۡمِنَا بِٱلۡحَقِّ وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡفَٰتِحِينَ ۝ 75
(89) हम अल्लाह पर झूठ गढ़नेवाले होंगे अगर तुम्हारी मिल्लत में पलट आएँ जबकि अल्लाह हमें उससे नजात दे चुका है। हमारे लिए तो उसकी तरफ़ पलटना अब किसी तरह मुमकिन नहीं इल्ला यह कि ख़ुदा, हमारा रब, ही ऐसा चाहे। हमारे रब का इल्म हर चीज़ पर हावी है, उसी पर हमने एतिमाद कर लिया। ऐ रब! हमारे और हमारी क़ौम के दरमियान ठीक-ठीक फ़ैसला कर दे, और तू बेहतरीन फ़ैसला करनेवाला है।”
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ لَئِنِ ٱتَّبَعۡتُمۡ شُعَيۡبًا إِنَّكُمۡ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ ۝ 76
(90) उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो उसकी बात मानने से इनकार कर चुके थे, आपस में कहा, “अगर तुमने शुऐब की पैरवी क़ुबूल कर ली तो बरबाद हो जाओगे।”29
29. यह बात सिर्फ़ क़ौमे-शुऐब के सरदारों ही तक महदूद नहीं है। हर ज़माने में बिगड़े हुए लोगों ने हक़ और रास्ती और दियानत की रविश में ऐसे ही ख़तरात महसूस किए हैं। हर दौर के मुफ़सिदीन का यही ख़याल रहा है कि तिजारत और सियासत और दूसरे दुनियावी मामलात झूठ और बेईमानी और बद-अख़लाक़ी के बग़ैर नहीं चल सकते, ईमानदारी इख़्तियार करने के मानी अपनी दुनिया बरबाद कर लेने के हैं।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دَارِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 77
(91) मगर हुआ यह कि एक दहला देनेवाली आफ़त ने उनको आ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े-के-पड़े रह गए।
ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ شُعَيۡبٗا كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَاۚ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ شُعَيۡبٗا كَانُواْ هُمُ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 78
(92) जिन लोगों ने शुऐब को झुठलाया वे ऐसे मिटे कि गोया कभी उन घरों में बसे ही न थे। शुऐब के झुठलानेवाले ही आख़िरकार बरबाद होकर रहे।
فَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰقَوۡمِ لَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَنَصَحۡتُ لَكُمۡۖ فَكَيۡفَ ءَاسَىٰ عَلَىٰ قَوۡمٖ كَٰفِرِينَ ۝ 79
(93) और शुऐब यह कहकर उनकी बस्तियों से निकल गया कि “ऐ बिरादराने-क़ौम! मैंने अपने रब के पैग़ामात तुम्हें पहुँचा दिए और तुम्हारी ख़ैरख़ाही का हक़ अदा कर दिया। अब मैं उस क़ौम पर कैसे अफ़सोस करूँ जो क़ुबूले-हक़ से इनकार करती है।”
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّبِيٍّ إِلَّآ أَخَذۡنَآ أَهۡلَهَا بِٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ لَعَلَّهُمۡ يَضَّرَّعُونَ ۝ 80
(94) कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने किसी बस्ती में नबी भेजा हो और उस बस्ती के लोगों को पहले तंगी और सख़्ती में मुब्तला न किया हो, इससे कि शायद वे आजिज़ी पर उतर आएँ।
ثُمَّ بَدَّلۡنَا مَكَانَ ٱلسَّيِّئَةِ ٱلۡحَسَنَةَ حَتَّىٰ عَفَواْ وَّقَالُواْ قَدۡ مَسَّ ءَابَآءَنَا ٱلضَّرَّآءُ وَٱلسَّرَّآءُ فَأَخَذۡنَٰهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 81
(95) फिर हमने उनकी बदहाली को ख़ुशहाली से बदल दिया, यहाँ तक कि वे ख़ूब फले-फूले और कहने लगे कि “हमारे असलाफ़ पर भी अच्छे और बुरे दिन आते ही रहे हैं।” आख़िरकार हमने उन्हें अचानक पकड़ लिया और उन्हें ख़बर तक न हुई।30
30. एक-एक नबी और एक-एक क़ौम का मामला अलग-अलग बयान करने के बाद अब वह जामे ज़ाब्ता बयान किया जा रहा है जो हर ज़माने में अल्लाह तआला ने अम्बिया (अलैहिमुस्सलाम) की बिअसत के मौक़े पर इख़्तियार फ़रमाया है, और वह यह है कि जब किसी क़ौम के लिए कोई नबी भेजा गया तो पहले उसको मसाइब और आफ़ात में मुब्तला किया गया ताकि उसके कान नसीहत के लिए खुल जाएँ और वह अपने ख़ुदा के सामने आजिज़ी के साथ झुक जाने पर आमादा हो जाए। फिर जब इस साज़गार माहौल में भी उसका दिल क़ुबूले-हक़ की तरफ़ माइल न हुआ तो उसको ख़ुशहाली के फ़ितने में मुब्तला कर दिया गया और यहाँ से उसकी बरबादी की तमहीद शुरू हो गई। पैग़म्बर की बात न सुनने के बावजूद जब उसपर नेमतों की बारिश हुई तो उसने समझा कि ऊपर कोई अल्लाह नहीं है जो गिरिफ़्त करनेवाला हो और 'हम चू मा दीगरे नेस्त' की हवा उसके दिमाग़ में भर गई। इस चीज़ ने आख़िरकार उसे अज़ाबे-इलाही में मुब्तला कर दिया।
وَلَوۡ أَنَّ أَهۡلَ ٱلۡقُرَىٰٓ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَفَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَرَكَٰتٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِن كَذَّبُواْ فَأَخَذۡنَٰهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 82
(96) अगर बस्तियों के लोग ईमान लाते और तक़वा की रविश इख़्तियार करते तो हम उनपर आसमान और ज़मीन से बरकतों के दरवाज़े खोल देते, मगर उन्होंने तो झुठलाया, लिहाज़ा हमने उस बुरी कमाई के हिसाब में उन्हें पकड़ हा लिया जो वे समेट रहे थे।
أَفَأَمِنَ أَهۡلُ ٱلۡقُرَىٰٓ أَن يَأۡتِيَهُم بَأۡسُنَا بَيَٰتٗا وَهُمۡ نَآئِمُونَ ۝ 83
(97) फिर क्या बस्तियों के लोग अब इससे निर्भय हो गए हैं कि हमारी पकड़ कभी अचानक उनपर रात के समय न आ जाएगी जबकि वे सोए पड़े हों?
أَوَأَمِنَ أَهۡلُ ٱلۡقُرَىٰٓ أَن يَأۡتِيَهُم بَأۡسُنَا ضُحٗى وَهُمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 84
(98) या उन्हें इत्मीनान हो गया है कि हमारा मज़बूत हाथ कभी यकायक उनपर दिन के वक़्त न पड़ेगा जबकि वे खेल रहे हों?
أَفَأَمِنُواْ مَكۡرَ ٱللَّهِۚ فَلَا يَأۡمَنُ مَكۡرَ ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 85
(99) क्या ये लोग अल्लाह की चाल से बेख़ौफ़ हैं? हालाँकि अल्लाह की चाल31 से वही क़ौम बेख़ौफ़ होती है जो तबाह होनेवाली हो।
31. अस्ल में लफ़्ज़ ‘मकर’ इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी अरबी ज़बान में खुफ़िया तदबीर के हैं, यानी किसी शख़्स के ख़िलाफ़ ऐसी चाल चलना कि जब तक उसपर फ़ैसलाकुन ज़र्ब न पड़ जाए उस वक़्त तक उसे ख़बर न हो कि उसकी शामत आनेवाली है, बल्कि ज़ाहिर हालात को देखते हुए वह यही समझता रहे कि सब अच्छा है।
أَوَلَمۡ يَهۡدِ لِلَّذِينَ يَرِثُونَ ٱلۡأَرۡضَ مِنۢ بَعۡدِ أَهۡلِهَآ أَن لَّوۡ نَشَآءُ أَصَبۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡۚ وَنَطۡبَعُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 86
(100) और क्या उन लोगों को जो साबिक़ अहले-ज़मीन के बाद ज़मीन के वारिस होते है, इस अम्रे-वाक़ई ने कुछ सबक़ नहीं दिया कि अगर हम चाहें तो उनके क़ुसूरों पर उन्हें पकड़ सकते हैं? (मगर वे सबक़आमोज़ हक़ाइक़ से तग़ाफ़ुल बरतते है) और हम उनके दिलों पर मुहर लगा देते हैं, फिर वे कुछ नहीं सुनते।
تِلۡكَ ٱلۡقُرَىٰ نَقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآئِهَاۚ وَلَقَدۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُواْ بِمَا كَذَّبُواْ مِن قَبۡلُۚ كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 87
(101) ये कौमें जिनके क़िस्से हम तुम्हें सुना रहे हैं (तुम्हारे सामने मिसाल में मौजूद हैं), उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, मगर जिस चीज़ को वे एक दफ़ा झुठला चुके थे फिर उसे वे माननेवाले न थे। देखो इस तरह हम मुनकिरीने-हक़ के दिलों पर मुहर लगा देते हैं।
وَمَا وَجَدۡنَا لِأَكۡثَرِهِم مِّنۡ عَهۡدٖۖ وَإِن وَجَدۡنَآ أَكۡثَرَهُمۡ لَفَٰسِقِينَ ۝ 88
(102) हमने उनमें से अकसर में कोई पासे-अह्द न पाया, बल्कि अकसर को फ़ासिक ही पाया।
ثُمَّ بَعَثۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِم مُّوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَظَلَمُواْ بِهَاۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 89
(103) फिर उन क़ौमों के बाद (जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया) हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन32 और उसकी क़ौम के सरदारों के पास भेजा। मगर उन्होंने भी हमारी निशानियों के साथ ज़ुल्म किया, पस देखो कि उन मुफ़सिदों का क्या अंजाम हुआ।
32. लफ़्ज़ ‘फ़िरऔन’ के मानी हैं सूरज देवता की औलाद। क़दीम अहले-मिस्र सूरज को, जो उनका महादेव या रब्बे-आला था, ‘रअ’ कहते थे और फ़िरऔन उसी की तरफ़ मंसूब था। यह किसी एक शख़्स का नाम नहीं था, बल्कि शाहाने-मिस्र का लक़ब था जैसे रूस के बादशाहों का लक़ब 'ज़ार' और ईरान के बादशाहों का लक़ब 'किसरा' था।
وَقَالَ مُوسَىٰ يَٰفِرۡعَوۡنُ إِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 90
(104) मूसा ने कहा, “ऐ फ़िरऔन! मैं कायनात के मालिक की तरफ़ से भेजा हुआ आया हूँ,
حَقِيقٌ عَلَىٰٓ أَن لَّآ أَقُولَ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ قَدۡ جِئۡتُكُم بِبَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ فَأَرۡسِلۡ مَعِيَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 91
(105) मेरा मनसब यही है कि अल्लाह का नाम लेकर कोई बात हक़ के सिवा न कहूँ, मैं तुम लोगों के पास तुम्हारे रब की तरफ़ से सरीह दलीले-मामूरियत लेकर आया हूँ, लिहाज़ा तू बनी-इसराईल को मेरे साथ भेज दे।”
قُلۡ أَمَرَ رَبِّي بِٱلۡقِسۡطِۖ وَأَقِيمُواْ وُجُوهَكُمۡ عِندَ كُلِّ مَسۡجِدٖ وَٱدۡعُوهُ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَۚ كَمَا بَدَأَكُمۡ تَعُودُونَ ۝ 92
(29) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “मेरे रब ने तो रास्ती व इनसाफ़ का हुक्म दिया है, और उसका हुक्म तो यह है कि हर इबादत में अपना रुख़ ठीक रखो और उसी को पुकारो अपने दीन को उसके लिए ख़ालिस रखकर। जिस तरह उसने तुम्हें अब पैदा किया है उसी तरह तुम फिर पैदा किए जाओगे।”
قَالَ إِن كُنتَ جِئۡتَ بِـَٔايَةٖ فَأۡتِ بِهَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 93
(106) फ़िरऔन ने कहा, “अगर तू कोई निशानी लाया है और अपने दावे में सच्चा है तो उसे पेश कर।”
فَرِيقًا هَدَىٰ وَفَرِيقًا حَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلضَّلَٰلَةُۚ إِنَّهُمُ ٱتَّخَذُواْ ٱلشَّيَٰطِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَيَحۡسَبُونَ أَنَّهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 94
(30) एक गरोह को तो उसने सीधा रास्ता दिखा दिया, मगर दूसरे गरोह पर गुमराही चस्पाँ होकर रह गई है, क्योंकि उन्होंने ख़ुदा के बजाय शयातीन को अपना सरपरस्त बना लिया है और वे समझ रहे है कि हम सीधी राह पर हैं।
فَأَلۡقَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ ثُعۡبَانٞ مُّبِينٞ ۝ 95
(107) मूसा ने अपना असा फेंका और यकायक वह जीता-जागता अज़दहा था।
وَنَزَعَ يَدَهُۥ فَإِذَا هِيَ بَيۡضَآءُ لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 96
(108) उसने अपनी जेब से हाथ निकाला और सब देखनेवालों के सामने वह चमक रहा था।
۞يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ خُذُواْ زِينَتَكُمۡ عِندَ كُلِّ مَسۡجِدٖ وَكُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ وَلَا تُسۡرِفُوٓاْۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 97
(31) ऐ बनी-आदम! हर इबादत के मौक़े पर अपनी ज़ीनत से आरास्ता रहो, और खाओ-पियो और हद से तजावुज़ न करो, अल्लाह हद से बढ़नेवालों को पसन्द नहीं करता।
7. यहाँ ‘ज़ीनत' से मुराद मुकम्मल लिबास है। अल्लाह की इबादत में खड़े होने के लिए सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं है कि आदमी मह्ज़ अपना सतर छिपा ले, बल्कि इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि हस्बे-इस्तिताअत वह ऐसा लिबास पहने जिसमें सतरपोशी भी हो और ज़ीनत भी। आदमी किसी मुअज़्ज़ज़ शख़्स से मिलने के लिए जिस तरह अच्छा लिबास पहनता है उसी तरह अल्लाह की इबादत के लिए भी उसे अच्छा लिबास पहनना चाहिए।
قُلۡ مَنۡ حَرَّمَ زِينَةَ ٱللَّهِ ٱلَّتِيٓ أَخۡرَجَ لِعِبَادِهِۦ وَٱلطَّيِّبَٰتِ مِنَ ٱلرِّزۡقِۚ قُلۡ هِيَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا خَالِصَةٗ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 98
(32) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “किसने अल्लाह की उस ज़ीनत को हराम कर दिया जिसे अल्लाह ने अपने बन्दों के लिए निकाला था और किसने ख़ुदा की बख़्शी हुई पाक चीज़ें ममनूअ कर दीं?” कहो, “ये सारी चीज़ें दुनिया की ज़िन्दगी में भी ईमान लानेवालों के लिए हैं, और क़ियामत के रोज़ तो ख़ालिसतन उन्हीं के लिए होंगी।” इस तरह हम अपनी बातें साफ़-साफ़ बयान करते हैं उन लोगों के लिए जो इल्म रखनेवाले हैं।
قَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِ فِرۡعَوۡنَ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٌ عَلِيمٞ ۝ 99
(109) इसपर फ़िरऔन के क़ौम के सरदारों नें आपस में कहा कि “यक़ीनन यह शख़्स बड़ा माहिर जादूगर है,
يُرِيدُ أَن يُخۡرِجَكُم مِّنۡ أَرۡضِكُمۡۖ فَمَاذَا تَأۡمُرُونَ ۝ 100
(110) तुम्हें तुम्हारी ज़मीन से बेदख़ल करना चाहता है,33 अब कहो क्या कहते हो?”
33. मूसा (अलैहि०) का दावा-ए-नुबूवत अपने अन्दर ख़ुद ही यह मानी रखता था। कि वे दरअस्ल पूरे निज़ामे-ज़िन्दगी को बहैसियते-मजमूई तबदील करना चाहते है, जिसमें लामुहाला मुल्क का सियासी निज़ाम भी शामिल है। क्योंकि रब्बुल-आलमीन का नुमाइन्दा कभी मुतीअ और रईयत (प्रजा) बनकर रहने के लिए नहीं आता, बल्कि मुताअ और राई बनने ही के लिए आया करता है और किसी काफ़िर के हक़्क़े-हुक्मरानी को तसलीम कर लेना उसकी हैसियते-रिसालत के क़तअन मुनाफ़ी है। यही वजह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से रिसालत का दावा सुनते ही फ़िरऔन और उसके आयाने-सल्तनत के सामने सियासी व मआशी और तमद्दुनी इनक़िलाब का ख़तरा नमूदार हो गया और उन्होंने समझ लिया कि अगर इस शख़्स की बात चली तो इक़तिदार हमारे हाथ से निकल जाएगा।
قَالُوٓاْ أَرۡجِهۡ وَأَخَاهُ وَأَرۡسِلۡ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 101
(111) फिर उन सबने फ़िरऔन को मशवरा दिया कि उसे और उसके भाई को इन्तिज़ार में रखिए और तमाम शहरों में हरकारे भेज दीजिए
يَأۡتُوكَ بِكُلِّ سَٰحِرٍ عَلِيمٖ ۝ 102
(112) कि हर माहिरे-फ़न जादूगर को आपके पास ले आएँ।
وَجَآءَ ٱلسَّحَرَةُ فِرۡعَوۡنَ قَالُوٓاْ إِنَّ لَنَا لَأَجۡرًا إِن كُنَّا نَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 103
(113) चुनाँचे जादूगर फ़िरऔन के पास आ गए। उन्होंने कहा, “अगर हम ग़ालिब रहे तो हमें इसका सिला तो कर मिलेगा?”
قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 104
(121) कहने लगे, “हमने मान लिया रब्बुल-आलमीन को,
قَالَ نَعَمۡ وَإِنَّكُمۡ لَمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 105
(114) फ़िरऔन ने जवाब दिया, “हाँ, और तुम मुक़र्रबे-बारगाह होगे।”
رَبِّ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 106
(122) उस रब को जिसे मूसा और हारून मानते हैं।”34
34. इस तरह अल्लाह तआला ने फ़िरऔनियों की चाल को उलटा उन्हीं पर पलट दिया। उन्होंने तमाम मुल्क के माहिर जादूगरों को बुलाकर मंज़ेरे-आम पर इसलिए मुज़ाहरा कराया था कि अवामुन-नास को हज़रत मूसा (अलैहि०) के जादूगर होने का यक़ीन दिलाएँ या कम-अज़-कम शक ही में डाल दें। लेकिन इस मुक़ाबले में शिकस्त खाने के बाद ख़ुद उनके अपने बुलाए हुए माहिरीने-फ़न ने बिल-इत्तिफ़ाक़ फ़ैसला कर दिया कि हज़रत मूसा (अलैहि०) जो चीज़ पेश कर रहे हैं वह हरगिज़ जादू नहीं है, बल्कि यक़ीनन रब्बुल-आलमीन की ताक़त का करिश्मा है जिसके आगे किसी जादू का ज़ोर नहीं चल सकता।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِمَّآ أَن تُلۡقِيَ وَإِمَّآ أَن نَّكُونَ نَحۡنُ ٱلۡمُلۡقِينَ ۝ 107
(115) फिर उन्होंने मूसा से कहा, “तुम फेंकते हो या हम फेंकें?”
قَالَ أَلۡقُواْۖ فَلَمَّآ أَلۡقَوۡاْ سَحَرُوٓاْ أَعۡيُنَ ٱلنَّاسِ وَٱسۡتَرۡهَبُوهُمۡ وَجَآءُو بِسِحۡرٍ عَظِيمٖ ۝ 108
(116) जवाब दिया, “तुम ही फेंको।” उन्होंने जो अपने अंछर फेंके तो निगाहों को मसहूर और दिलों को ख़ौफ़ज़दा कर दिया और बड़ा ही ज़बरदस्त जादू बना लाए।
قَالَ فِرۡعَوۡنُ ءَامَنتُم بِهِۦ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّ هَٰذَا لَمَكۡرٞ مَّكَرۡتُمُوهُ فِي ٱلۡمَدِينَةِ لِتُخۡرِجُواْ مِنۡهَآ أَهۡلَهَاۖ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 109
(123) फ़िरऔन ने कहा, “तुम इसपर ईमान ले आए क़ब्ल इसके कि मैं तुम्हें इजाज़त दूँ? यक़ीनन यह कोई ख़ुफ़िया साज़िश थी जो तुम लोगों ने इस दारुस-सल्तनत में की ताकि इसके मालिकों को इक़तिदार से बेदख़ल कर दो। अच्छा तो इसका नतीजा अब तुम्हें मालूम हुआ जाता है।
لَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ ثُمَّ لَأُصَلِّبَنَّكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 110
(124) मैं तुम्हारे हाथ-पाँव मुख़ालिफ़ सम्तों से कटवा दूँगा और उसके बाद तुम सबको सूली पर चढ़ाऊँगा।”
۞وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَلۡقِ عَصَاكَۖ فَإِذَا هِيَ تَلۡقَفُ مَا يَأۡفِكُونَ ۝ 111
(117) हमने मूसा को इशारा किया कि फेंक अपना असा! उसका फेंकना था कि आन-की-आन में वह उनके उस झूठे तिलिस्म को निगलता चला गया।
فَوَقَعَ ٱلۡحَقُّ وَبَطَلَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 112
(118) इस तरह जो हक़ था वह हक़ साबित हुआ और जो कुछ उन्होंने बना रखा था वह बातिल होकर रह गया।
قَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا مُنقَلِبُونَ ۝ 113
(125) उन्होंने जवाब दिया, “बहरहाल हमें पलटना अपने रब ही की तरफ़ है।
فَغُلِبُواْ هُنَالِكَ وَٱنقَلَبُواْ صَٰغِرِينَ ۝ 114
(119) फ़िरऔन और उसके साथी मैदाने-मुक़ाबला में मग़लूब हुए और (फ़त्‌हमन्द होने के बजाय) उल्टे ज़लील हो गए।
وَمَا تَنقِمُ مِنَّآ إِلَّآ أَنۡ ءَامَنَّا بِـَٔايَٰتِ رَبِّنَا لَمَّا جَآءَتۡنَاۚ رَبَّنَآ أَفۡرِغۡ عَلَيۡنَا صَبۡرٗا وَتَوَفَّنَا مُسۡلِمِينَ ۝ 115
(126) तू जिस बात पर हमसे इन्तिक़ाम लेना चाहता है वह इसके सिवा कुछ नहीं कि हमारे रब की निशानियाँ जब हमारे सामने आ गईं तो हमने उन्हें मान लिया। ऐ रब! हमपर सब्र का फ़ैज़ान कर और हमें दुनिया से उठा तो इस हाल में कि हम तेरे फ़रमाँबरदार हों।”35
35. फ़िरऔन ने पाँसा पलटते देखकर आख़िरी चाल यह चली थी कि इस सारे मामले को मूसा (अलैहि०) और जादूगरों की साज़िश क़रार दे दे और फिर जादूगरों को जिस्मानी अज़ाब और क़त्ल की धमकी देकर उनसे अपने इस इलज़ाम का इक़बाल करा ले। लेकिन यह चाल भी उल्टी पड़ी। जादूगरों ने अपने-आपको हर सज़ा के लिए पेश करके साबित कर दिया कि उनका मूसा (अलैहि०) की सदाक़त पर ईमान लाना किसी साज़िश का नहीं, बल्कि सच्चे एतिराफ़े-हक़ का नतीजा था। इस मक़ाम पर यह बात भी देखने के क़ाबिल है कि चंद लम्हों के अन्दर ईमान ने उन जादूगरों की सीरत में कितना बड़ा इनक़िलाब पैदा कर दिया। अभी थोड़ी देर पहले उन्हीं जादूगरों की ज़िहानत का यह हाल था कि अपने दीने-आबाई की नुसरत व हिमायत के लिए घरों से चलकर आए थे और फ़िरऔन से पूछ रहे थे कि अगर हमने अपने मज़हब को मूसा (अलैहि) के हमले से बचा लिया तो सरकार से हमें इनाम तो मिलेगा ना? या अब जो नेमते-ईमान नसीब हुई तो उन्हीं की हक़-परस्ती और ऊलुल-अज़मी इस हद को पहुँच गई कि थोड़ी देर पहले जिस बादशाह के आगे लालच के मारे बिछे जा रहे थे अब उसकी किबरियाई और जबरूत को ठोकर मार रहे हैं और उन बदतरीन सज़ाओं को भुगतने के लिए तैयार हैं जिनकी धमकी वह दे रहा है, मगर उस हक़ को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं जिसकी सदाक़त उनपर खुल चुकी है।
وَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سَٰجِدِينَ ۝ 116
(120) और जादूगरों का हाल यह हुआ कि गोया किसी चीज़ ने अन्दर से उन्हें सजदे में गिरा दिया।
وَقَالَ ٱلۡمَلَأُ مِن قَوۡمِ فِرۡعَوۡنَ أَتَذَرُ مُوسَىٰ وَقَوۡمَهُۥ لِيُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَيَذَرَكَ وَءَالِهَتَكَۚ قَالَ سَنُقَتِّلُ أَبۡنَآءَهُمۡ وَنَسۡتَحۡيِۦ نِسَآءَهُمۡ وَإِنَّا فَوۡقَهُمۡ قَٰهِرُونَ ۝ 117
(127) फ़िरऔन से उसकी क़ौम के सरदारों ने कहा, “क्या तू मूसा और उसकी क़ौम को यूँ ही छोड़ देगा कि मुल्क में फ़साद फैलाएँ और वे तेरी और तेरे माबूदों की बन्दगी छोड़ बैठें?” फ़िरऔन ने जवाब दिया, “मैं उनके बेटों को क़त्ल कराऊँगा उनकी औरतों को जीता रहने दूँगा।36 हमारे इक़तिदार की गिरिफ़्त उनपर मज़बूत है।”
36. वाज़ेह रहे कि एक दौरे-सितम वह था जो हज़रत मूसा (अलैहि०) की पैदाइश से पहले जारी हुआ था, और दूसरा दौरे-सितम यह है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) की बिअसत के बाद शुरू हुआ। दोनों ज़मानों में यह बात मुश्तरक थी कि बनी-इसराईल के बेटों को क़त्ल कराया गया और उनकी बेटियों को जीता छोड़ दिया गया ताकि बतदरीज उनकी नस्ल का ख़ात्मा हो जाए और यह क़ौम दूसरी क़ौमों में गुम होकर रह जाए।
قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِ ٱسۡتَعِينُواْ بِٱللَّهِ وَٱصۡبِرُوٓاْۖ إِنَّ ٱلۡأَرۡضَ لِلَّهِ يُورِثُهَا مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 118
(128) मूसा ने अपनी क़ौम से कहा, “अल्लाह से मदद माँगो और सब्र करो। ज़मीन अल्लाह की है, अपने बन्दों में से जिसको चाहता है इसका वारिस बना देता है,37 और आखिरी कामयाबी उन्हीं के लिए है जो उससे डरते हुए काम करें।”
37. इस ज़माने में बाज़ लोग इस आयत से यह फ़िक़रा कि “ज़मीन अल्लाह की है” निकाल लेते हैं और बाद का फ़िक़रा छोड़ देते हैं कि “जिसको वह चाहता है, इसका वारिस बना देता है।”
قَالُوٓاْ أُوذِينَا مِن قَبۡلِ أَن تَأۡتِيَنَا وَمِنۢ بَعۡدِ مَا جِئۡتَنَاۚ قَالَ عَسَىٰ رَبُّكُمۡ أَن يُهۡلِكَ عَدُوَّكُمۡ وَيَسۡتَخۡلِفَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرَ كَيۡفَ تَعۡمَلُونَ ۝ 119
(129) उसकी क़ौम के लोगों ने कहा, “तेरे आने से पहले भी हम सताए जाते थे और अब तेरे आने पर भी सताए जा रहे हैं।” उसने जवाब दिया,” क़रीब है वह वक़्त कि तुम्हारा रब तुम्हारे दुश्मन को हलाक कर दे और तुमको ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाए, फिर देखे कि तुम कैसे अमल करते हो।”
وَلَمَّا وَقَعَ عَلَيۡهِمُ ٱلرِّجۡزُ قَالُواْ يَٰمُوسَى ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِندَكَۖ لَئِن كَشَفۡتَ عَنَّا ٱلرِّجۡزَ لَنُؤۡمِنَنَّ لَكَ وَلَنُرۡسِلَنَّ مَعَكَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 120
(134) जब कभी उनपर बला नाज़िल हो जाती तो कहते, “ऐ मूसा! तुझे अपने रब की तरफ़ से जो मंसब हासिल है उसकी बिना पर हमारे हक़ में दुआ कर, अगर अब के तू हमपर से यह बला टलवा दे तो हम तेरी बात मान लेंगे और बनी-इसराईल को तेरे साथ भेज देंगे।”
وَلَقَدۡ أَخَذۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ بِٱلسِّنِينَ وَنَقۡصٖ مِّنَ ٱلثَّمَرَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 121
(130) हमने फ़िरऔन के लोगों को कई साल तक क़हत और पैदावार की कमी में मुब्तला रखा कि शायद उनको होश आए।
فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُمُ ٱلرِّجۡزَ إِلَىٰٓ أَجَلٍ هُم بَٰلِغُوهُ إِذَا هُمۡ يَنكُثُونَ ۝ 122
(135) मगर जब हम उनपर से अपना अज़ाब एक वक़्ते-मुक़र्रर तक के लिए, जिसको वे बहरहाल पहुँचनेवाले थे, हटा लेते तो वे यकलख़्त अपने अह्द से फिर जाते।
فَإِذَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡحَسَنَةُ قَالُواْ لَنَا هَٰذِهِۦۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةٞ يَطَّيَّرُواْ بِمُوسَىٰ وَمَن مَّعَهُۥٓۗ أَلَآ إِنَّمَا طَٰٓئِرُهُمۡ عِندَ ٱللَّهِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 123
(131) मगर उनका हाल यह था कि जब अच्छा ज़माना आता तो कहते कि हम इसी के मुस्तहिक़ हैं, और जब बुरा जमाना आता तो मूसा और उसके साथियों को अपने लिए फ़ाले-बद ठहराते, हालाँकि दर-हक़ीक़त उनकी फ़ाले-बद तो अल्लाह के पास थी, मगर उनमें से अकसर बेइल्म थे।।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡيَمِّ بِأَنَّهُمۡ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ عَنۡهَا غَٰفِلِينَ ۝ 124
(136) तब हमने उनसे इन्तिक़ाम लिया और उन्हें समुन्दर में ग़र्क़ कर दिया क्योंकि उन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया था और उनसे बेपरवाह हो गए थे।
وَقَالُواْ مَهۡمَا تَأۡتِنَا بِهِۦ مِنۡ ءَايَةٖ لِّتَسۡحَرَنَا بِهَا فَمَا نَحۡنُ لَكَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 125
(132) उन्होंने मूसा से कहा कि “तू हमें मसहूर करने के लिए ख़ाह कोई निशानी ले आए, हम तो तेरी बात माननेवाले नहीं हैं।”
وَأَوۡرَثۡنَا ٱلۡقَوۡمَ ٱلَّذِينَ كَانُواْ يُسۡتَضۡعَفُونَ مَشَٰرِقَ ٱلۡأَرۡضِ وَمَغَٰرِبَهَا ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَاۖ وَتَمَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ ٱلۡحُسۡنَىٰ عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ بِمَا صَبَرُواْۖ وَدَمَّرۡنَا مَا كَانَ يَصۡنَعُ فِرۡعَوۡنُ وَقَوۡمُهُۥ وَمَا كَانُواْ يَعۡرِشُونَ ۝ 126
(137) और उनकी जगह हमने उन लोगों को, जो कमज़ोर बनाकर रखे गए थे, उस सरज़मीन के मशरिक़ व मग़रिब का वारिस बना दिया जिसे हमने बरकतों से मालामाल किया था।38 इस तरह बनी-इसराईल के हक़ में तेरे रब का वादा-ए-ख़ैर पूरा हुआ क्योंकि उन्होंने सब्र से काम लिया था और हमने फ़िरऔन और उसकी क़ौम का वह सब कुछ बरबाद कर दिया जो वे बनाते और चढ़ाते थे।
38. यानी बनी-इसराईल को फ़िलस्तीन की सरज़मीन का वारिस बना दिया। क़ुरआन मजीद में मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर फ़िलस्तीन व शाम (सीरिया) ही की सरज़मीन के लिए ये अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं कि हमने इस सरज़मीन में बरकतें रखी हैं।
فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلطُّوفَانَ وَٱلۡجَرَادَ وَٱلۡقُمَّلَ وَٱلضَّفَادِعَ وَٱلدَّمَ ءَايَٰتٖ مُّفَصَّلَٰتٖ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ وَكَانُواْ قَوۡمٗا مُّجۡرِمِينَ ۝ 127
(133) आख़िकार हमने उनपर तूफ़ान भेजा, टिड्डी दल छोड़े, सुरसुरियाँ फैलाईं, मेंढक निकाले और ख़ून बरसाया। ये सब निशानियाँ अलग-अलग करके दिखाईं। मगर वे सरकशी किए चले गए और वे बड़े ही मुजरिम लोग थे।
وَجَٰوَزۡنَا بِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡبَحۡرَ فَأَتَوۡاْ عَلَىٰ قَوۡمٖ يَعۡكُفُونَ عَلَىٰٓ أَصۡنَامٖ لَّهُمۡۚ قَالُواْ يَٰمُوسَى ٱجۡعَل لَّنَآ إِلَٰهٗا كَمَا لَهُمۡ ءَالِهَةٞۚ قَالَ إِنَّكُمۡ قَوۡمٞ تَجۡهَلُونَ ۝ 128
(138) बनी-इसराईल को हमने समुन्दर से गुज़ार दिया, फिर वे चले और रास्ते में एक ऐसी क़ौम पर उनका गुज़र हुआ जो अपने चंद बुतों की गिरवीदा बनी हई थी। कहने लगे, “ऐ मूसा! हमारे लिए भी कोई ऐसा माबूद बना दे जैसे इन लोगों के माबूद हैं।”39 मूसा ने कहा, “तुम लोग बड़ी नादानी की बातें करते हो।
39. यह क़ौम अगरचे मुसलमान थी मगर मिस्र में सदियों तक एक बुतपरस्त क़ौम के दरमियान रहने का यह असर था।
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ مُتَبَّرٞ مَّا هُمۡ فِيهِ وَبَٰطِلٞ مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 129
(139) ये लोग जिस तरीक़े की पैरवी कर रहे हैं वह तो बरबाद होनेवाला है और जो अमल वे कर रहे है वह सरासर बातिल है।”
قَالَ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡغِيكُمۡ إِلَٰهٗا وَهُوَ فَضَّلَكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 130
(140) फिर मूसा ने कहा, “क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और माबूद तुम्हारे लिए तलाश करूँ? हालाँकि वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हें दुनियाभर की क़ौमों पर फ़ज़ीलत बख़्शी है।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَلِقَآءِ ٱلۡأٓخِرَةِ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡۚ هَلۡ يُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 131
(147) हमारी निशानियों को जिस किसी ने झुठलाया और आख़िरत की पेशी का इनकार किया उसके सारे आमाल ज़ाया हो गए। क्या लोग इसके सिवा कुछ और जज़ा पा सकते हैं कि जैसा करें वैसा भरें?”
وَإِذۡ أَنجَيۡنَٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ يُقَتِّلُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ ۝ 132
(141) और (अल्लाह फ़रमाता है) वह वक़्त याद करो जब हमने फ़िरऔनवालों से तुम्हें नजात दी, जिनका हाल यह था कि तुम्हें सख़्त अज़ाब में मुब्तला रखते थे, तुम्हारे बेटों को क़त्ल करते और तुम्हारी औरतों को ज़िन्दा रहने देते थे, और इसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारी बड़ी आज़माइश थी।”
وَٱتَّخَذَ قَوۡمُ مُوسَىٰ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِنۡ حُلِيِّهِمۡ عِجۡلٗا جَسَدٗا لَّهُۥ خُوَارٌۚ أَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّهُۥ لَا يُكَلِّمُهُمۡ وَلَا يَهۡدِيهِمۡ سَبِيلًاۘ ٱتَّخَذُوهُ وَكَانُواْ ظَٰلِمِينَ ۝ 133
(148) मूसा के पीछे उसकी क़ौम के लोगों ने अपने ज़ेवरों से एक बछड़े का पुतला बनाया जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। क्या उन्हें नज़र न आता था कि वह न उनसे बोलता है, न किसी मामले में उनकी रहनुमाई करता है? मगर फिर भी उन्होंने उसे माबूद बना लिया, और वे सख़्त ज़ालिम थे।40
40. यह उस मिसरियत-ज़दगी का दूसरा ज़ुहूर था जिसे लिए हुए बनी-इसराईल मिस्र से निकले थे। मिस्र में गाय की परस्तिश और तक़दीस का जो रिवाज था उससे यह क़ौम इतनी शिद्दत के साथ मुतास्सिर हो चुकी थी कि पैग़म्बर के पीठ मोड़ते ही उसने परस्तिश के लिए एक मसनूई बछड़ा बना डाला।
۞وَوَٰعَدۡنَا مُوسَىٰ ثَلَٰثِينَ لَيۡلَةٗ وَأَتۡمَمۡنَٰهَا بِعَشۡرٖ فَتَمَّ مِيقَٰتُ رَبِّهِۦٓ أَرۡبَعِينَ لَيۡلَةٗۚ وَقَالَ مُوسَىٰ لِأَخِيهِ هَٰرُونَ ٱخۡلُفۡنِي فِي قَوۡمِي وَأَصۡلِحۡ وَلَا تَتَّبِعۡ سَبِيلَ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 134
(142) हमने मूसा को तीस शब व रोज़ के लिए (कोहे-सीना पर) तलब किया और बाद में दस दिन का और इज़ाफ़ा कर दिया, इस तरह उसके रब की मुक़र्रर करदा मुद्दत पूरे चालीस दिन हो गई। मूसा ने चलते अपने भाई हारून से कहा कि “मेरे पीछे तुम मेरी क़ौम में मेरी जानशीनी करना और ठीक काम करते रहना और बिगाड़ पैदा करनेवालों के तरीक़े पर न चलना।”
وَلَمَّا سُقِطَ فِيٓ أَيۡدِيهِمۡ وَرَأَوۡاْ أَنَّهُمۡ قَدۡ ضَلُّواْ قَالُواْ لَئِن لَّمۡ يَرۡحَمۡنَا رَبُّنَا وَيَغۡفِرۡ لَنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 135
(149) फिर जब उनकी फ़रेब-ख़ुर्दगी का तिलिस्म टूट गया और उन्होंने देख लिया कि दर-हक़ीक़त वे गुमराह हो गए हैं तो कहने लगे कि “अगर हमारे रब ने हमपर रहम न फ़रमाया और हमसे दरगुज़र न किया तो हम बरबाद हो जाएँगे।”
وَلَمَّا جَآءَ مُوسَىٰ لِمِيقَٰتِنَا وَكَلَّمَهُۥ رَبُّهُۥ قَالَ رَبِّ أَرِنِيٓ أَنظُرۡ إِلَيۡكَۚ قَالَ لَن تَرَىٰنِي وَلَٰكِنِ ٱنظُرۡ إِلَى ٱلۡجَبَلِ فَإِنِ ٱسۡتَقَرَّ مَكَانَهُۥ فَسَوۡفَ تَرَىٰنِيۚ فَلَمَّا تَجَلَّىٰ رَبُّهُۥ لِلۡجَبَلِ جَعَلَهُۥ دَكّٗا وَخَرَّ مُوسَىٰ صَعِقٗاۚ فَلَمَّآ أَفَاقَ قَالَ سُبۡحَٰنَكَ تُبۡتُ إِلَيۡكَ وَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 136
(143) जब वह हमारे मुक़र्रर किए हुए वक़्त पर पहुँचा और उसके रब ने कलाम किया तो उसने इल्तिजा की, “ऐ रब! मुझे यारा-ए-नज़र दे कि मैं तुझे देखूँ।” फ़रमाया, “तू मुझे नहीं देख सकता। हाँ, ज़रा सामने के पहाड़ की तरफ़ देख, अगर वह अपनी जगह क़ायम रह जाए तो अलबत्ता तू मुझे देख सकेगा।” चुनाँचे उसके रब ने जब पहाड़ पर तजल्ली की तो उसे रेज़ा-रेज़ा कर दिया और मूसा ग़श खाकर गिर पड़ा। जब होश आया तो बोला, “पाक है तेरी ज़ात, मैं तेरे हुज़ूर तौबा करता हूँ और सबसे पहला ईमान लानेवाला मैं हूँ।”
وَلَمَّا رَجَعَ مُوسَىٰٓ إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ غَضۡبَٰنَ أَسِفٗا قَالَ بِئۡسَمَا خَلَفۡتُمُونِي مِنۢ بَعۡدِيٓۖ أَعَجِلۡتُمۡ أَمۡرَ رَبِّكُمۡۖ وَأَلۡقَى ٱلۡأَلۡوَاحَ وَأَخَذَ بِرَأۡسِ أَخِيهِ يَجُرُّهُۥٓ إِلَيۡهِۚ قَالَ ٱبۡنَ أُمَّ إِنَّ ٱلۡقَوۡمَ ٱسۡتَضۡعَفُونِي وَكَادُواْ يَقۡتُلُونَنِي فَلَا تُشۡمِتۡ بِيَ ٱلۡأَعۡدَآءَ وَلَا تَجۡعَلۡنِي مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 137
(150) उधर से मूसा ग़ुस्से और रंज से भरा हुआ अपनी क़ौम की तरफ़ पलटा। आते ही उसने कहा, “बहुत बुरी जानशीनी की तुम लोगों ने मेरे बाद! क्या तुमसे इतना सब्र न हुआ कि अपने रब के हुक्म का इन्तिज़ार कर लेते?” और तख़्तियाँ फेंक दीं और अपने भाई (हारून) के सिर के बाल पकड़कर उसे खींचा। हारून ने कहा, “ऐ मेरी माँ के बेटे! इन लोगों ने मुझे दबा लिया और क़रीब था कि मुझे मार डालते। पस तू दुश्मनों को मुझपर हँसने का मौक़ा न दे और इस ज़ालिम गरोह के साथ मुझे न शामिल कर।”
قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ إِنِّي ٱصۡطَفَيۡتُكَ عَلَى ٱلنَّاسِ بِرِسَٰلَٰتِي وَبِكَلَٰمِي فَخُذۡ مَآ ءَاتَيۡتُكَ وَكُن مِّنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 138
(144) फ़रमाया, “ऐ मूसा! मैंने तमाम लोगों पर तरजीह देकर तुझे मुन्तख़ब किया कि मेरी पैग़म्बरी करे और मुझसे हम-कलाम हो। पस जो कुछ मैं तुझे दूँ उसे ले और शुक्र बजा ला।”
قَالَ رَبِّ ٱغۡفِرۡ لِي وَلِأَخِي وَأَدۡخِلۡنَا فِي رَحۡمَتِكَۖ وَأَنتَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 139
(151) तब मूसा ने कहा, “ऐ रब! मुझे और मेरे भाई को माफ़ कर और हमें अपनी रहमत में दाख़िल फ़रमा, तू सबसे बढ़कर रहीम है।”
وَكَتَبۡنَا لَهُۥ فِي ٱلۡأَلۡوَاحِ مِن كُلِّ شَيۡءٖ مَّوۡعِظَةٗ وَتَفۡصِيلٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ فَخُذۡهَا بِقُوَّةٖ وَأۡمُرۡ قَوۡمَكَ يَأۡخُذُواْ بِأَحۡسَنِهَاۚ سَأُوْرِيكُمۡ دَارَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 140
(145) इसके बाद हमने मूसा को हर शोबा-ए-ज़िन्दगी के मुताल्लिक़ नसीहत और हर पहलू के मुताल्लिक़ वाज़ेह हिदायत तख़्तियों पर लिखकर दे दी और उससे कहा, “इन हिदायात को मज़बूत हाथों से सम्भाल और अपनी क़ौम को दे कि उनके बेहतर मफ़हूम की पैरवी करें। अन-क़रीब मैं तुम्हें फ़ासिकों के घर दिखाऊँगा।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ ٱلۡعِجۡلَ سَيَنَالُهُمۡ غَضَبٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَذِلَّةٞ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُفۡتَرِينَ ۝ 141
(152) (जवाब में इरशाद हुआ कि) “जिन लोगों ने बछड़े को माबूद बनाया, वे ज़रूर अपने रब के ग़ज़ब में गिरफ़्तार होकर रहेंगे और दुनिया की ज़िन्दगी में ज़लील होंगे। झूठ गढ़नेवालों को हम ऐसी ही सज़ा देते हैं।
سَأَصۡرِفُ عَنۡ ءَايَٰتِيَ ٱلَّذِينَ يَتَكَبَّرُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَإِن يَرَوۡاْ كُلَّ ءَايَةٖ لَّا يُؤۡمِنُواْ بِهَا وَإِن يَرَوۡاْ سَبِيلَ ٱلرُّشۡدِ لَا يَتَّخِذُوهُ سَبِيلٗا وَإِن يَرَوۡاْ سَبِيلَ ٱلۡغَيِّ يَتَّخِذُوهُ سَبِيلٗاۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ عَنۡهَا غَٰفِلِينَ ۝ 142
(146) मैं अपनी निशानियों से उन लोगों की निगाहें फेर दूँगा जो बग़ैर किसी हक़ के ज़मीन में बड़े बनते हैं, वे ख़ाह कोई निशानी देख लें कभी उसपर ईमान न लाएँगे, अगर सीधा रास्ता उनके सामने आए तो उसे इख़्तियार न करेंगे और अगर टेढ़ा रास्ता नज़र आए तो उसपर चल पड़ेंगे, इसलिए कि उन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया और उनसे बेपरवाई करते रहे।
وَٱلَّذِينَ عَمِلُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ ثُمَّ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِهَا وَءَامَنُوٓاْ إِنَّ رَبَّكَ مِنۢ بَعۡدِهَا لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 143
(153) और जो लोग बुरे अमल करें, फिर तौबा कर लें और ईमान ले आएँ, तो यक़ीनन इस तौबा व ईमान के बाद तेरा रब दरगुज़र और रहम फ़रमानेवाला है।”
وَلَمَّا سَكَتَ عَن مُّوسَى ٱلۡغَضَبُ أَخَذَ ٱلۡأَلۡوَاحَۖ وَفِي نُسۡخَتِهَا هُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّلَّذِينَ هُمۡ لِرَبِّهِمۡ يَرۡهَبُونَ ۝ 144
(154) फिर जब मूसा का ग़ुस्सा ठण्डा हुआ तो उसने वे तख़्तियाँ उठा लीं जिनकी तहरीर में हिदायत और रहमत थी उन लोगों के लिए जो अपने रब से डरते हैं,
وَٱخۡتَارَ مُوسَىٰ قَوۡمَهُۥ سَبۡعِينَ رَجُلٗا لِّمِيقَٰتِنَاۖ فَلَمَّآ أَخَذَتۡهُمُ ٱلرَّجۡفَةُ قَالَ رَبِّ لَوۡ شِئۡتَ أَهۡلَكۡتَهُم مِّن قَبۡلُ وَإِيَّٰيَۖ أَتُهۡلِكُنَا بِمَا فَعَلَ ٱلسُّفَهَآءُ مِنَّآۖ إِنۡ هِيَ إِلَّا فِتۡنَتُكَ تُضِلُّ بِهَا مَن تَشَآءُ وَتَهۡدِي مَن تَشَآءُۖ أَنتَ وَلِيُّنَا فَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَاۖ وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡغَٰفِرِينَ ۝ 145
(155) और उसने अपनी क़ौम के सत्तर आदमियों को मुन्तख़ब किया ताकि वे (उसके साथ) हमारे मुक़र्रर किए हुए वक़्त पर हाज़िर हों।41 जब उन लोगों को एक सम्त ज़लज़ले ने आ पकड़ा तो मूसा ने अर्ज़ किया, “ऐ मेरे सरकार! आप चाहते तो पहले ही इनको और मुझे हलाक कर सकते थे। क्या आप उस क़ुसूर में, जो हममें से चंद नादानों ने किया था, हम सबको हलाक कर देंगे? यह तो आपकी डाली हुई एक आज़माइश थी जिसके ज़रिए से आप जिसे चाहते हैं गुमराही में मुब्तला कर देते हैं और जिसे चाहते हैं हिदायत बख़्श देते हैं। हमारे सरपरस्त तो आप ही हैं। पस हमें माफ़ कर दीजिए और हमपर रहम फ़रमाइए, आप सबसे बढ़कर माफ़ फ़रमानेवाले हैं।
41. यह तलबी इस ग़रज़ के लिए हुई थी कि क़ौम के 70 नुमाइन्दे कोहे-सीना पर पेशी-ए-ख़ुदावन्दी में हाज़िर होकर क़ौम की तरफ़ से गोसाला-परस्ती के जुर्म की माफ़ी माँगें और अज़-सरे-नौ इताअत का अह्द उस्तुवार करें।
ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلرَّسُولَ ٱلنَّبِيَّ ٱلۡأُمِّيَّ ٱلَّذِي يَجِدُونَهُۥ مَكۡتُوبًا عِندَهُمۡ فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَٱلۡإِنجِيلِ يَأۡمُرُهُم بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَىٰهُمۡ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُحِلُّ لَهُمُ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَيُحَرِّمُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡخَبَٰٓئِثَ وَيَضَعُ عَنۡهُمۡ إِصۡرَهُمۡ وَٱلۡأَغۡلَٰلَ ٱلَّتِي كَانَتۡ عَلَيۡهِمۡۚ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِهِۦ وَعَزَّرُوهُ وَنَصَرُوهُ وَٱتَّبَعُواْ ٱلنُّورَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ مَعَهُۥٓ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 146
(157) (पस आज यह रहमत उन लोगों का हिस्सा है) जो इस पैग़म्बर, नबी-ए-उम्मी की पैरवी इख़्तियार करें42 जिसका ज़िक्र उन्हें अपने यहाँ तौरात और इंजील में लिखा हुआ मिलता है। वह उन्हें नेकी का हुक्म देता है, बदी से रोकता है, उनके लिए पाक चीज़ें हलाल और नापाक चीज़ें हराम करता है, और उनपर से वह बोझ उतारता है जो उनपर लदे हुए थे और वे बन्दिशें खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे।43 लिहाज़ा जो लोग इसपर ईमान लाएँ और इसकी हिमायत और नुसरत करें और उस रौशनी की पैरवी इख़्तियार करें जो इसके साथ नाज़िल की गई है, वही फ़लाह पानेवाले है।
42. यहाँ नबी (सल्ल०) के लिए 'उम्मी' का लफ़्ज़ यहूदी इस्तिलाह के लिहाज़ से इस्तेमाल हुआ है। बनी-इसराईल अपने सिवा दूसरी सब क़ौमों को उम्मी (गोयम या Gentiles) कहते थे और उनका क़ौमी फ़ख़्र व ग़ुरूर किसी उम्मी की पेशवाई तसलीम करना तो दरकिनार, इसपर भी तैयार न था कि उम्मियों के लिए अपने बराबर इनसानी हुक़ूक़ ही तसलीम कर लें। चुनाँचे क़ुरआन में उनका यह क़ौल नक़्ल किया गया है कि “उम्मियों के माल मार खाने में हमपर कोई मुवाख़ज़ा नहीं है।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-75)। पस अल्लाह तआला उन्हीं की इस्तिलाह इस्तेमाल करके फ़रमाता है कि अब तो इसी उम्मी के साथ तुम्हारी क़िस्मत वाबस्ता है। इसकी पैरवी क़ुबूल करोगे तो मेरी रहमत से हिस्सा पाओगे वरना वही ग़ज़ब तुम्हारे लिए मुक़द्दर है जिसमें सदियों से गिरफ़्तार चले आ रहे हो।
43. यानी उनके फ़क़ीहों ने अपनी क़ानूनी मूशिगाफ़ियों से, उनके राहिबों ने अपने ज़ुह्द के मुबालग़ों से और उनके जाहिल अवाम ने अपने तवह्हुमात और ख़ुदसाख़्ता हुदूद व ज़वाबित से उनकी ज़िन्दगी को जिन बोझों तले दबा रखा है और जिन जकड़बन्दियों में कस रखा है, यह पैग़म्बर वे सारे बोझ उतार देता है और वे तमाम बन्दिशें तोड़कर ज़िन्दगी को आज़ाद कर देता है।
۞وَٱكۡتُبۡ لَنَا فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِنَّا هُدۡنَآ إِلَيۡكَۚ قَالَ عَذَابِيٓ أُصِيبُ بِهِۦ مَنۡ أَشَآءُۖ وَرَحۡمَتِي وَسِعَتۡ كُلَّ شَيۡءٖۚ فَسَأَكۡتُبُهَا لِلَّذِينَ يَتَّقُونَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلَّذِينَ هُم بِـَٔايَٰتِنَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 147
(156) और हमारे लिए इस दुनिया की भलाई भी लिख दीजिए और आख़िरत की भी, हमने आपकी तरफ़ रुजूअ कर लिया।” जवाब में इरशाद हुआ, “सज़ा तो मैं जिसे चाहता हूँ देता हूँ, मगर मेरी रहमत हर चीज़ पर छाई हुई है और उसे मैं उन लोगों के हक़ में लिखूँगा जो नाफ़रमानी से परहेज़ करेंगे, ज़कात देंगे और मेरी आयात पर ईमान लाएँगे।”
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنِّي رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡكُمۡ جَمِيعًا ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِ ٱلنَّبِيِّ ٱلۡأُمِّيِّ ٱلَّذِي يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَكَلِمَٰتِهِۦ وَٱتَّبِعُوهُ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 148
(158) (ऐ मुहम्मद!) कहो कि “ऐ इनसानो! मैं तुम सबकी तरफ़ उस ख़ुदा का पैग़म्बर हूँ जो ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, वही ज़िन्दगी बख़्शता है और वही मौत देता है, पस ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके भेजे हुए नबी-ए-उम्मी पर जो अल्लाह और उसके इरशादात को मानता है, और पैरवी इख़्तियार करो उसकी, उम्मीद है कि तुम राहे-रास्त पा लोगे।”
وَمِن قَوۡمِ مُوسَىٰٓ أُمَّةٞ يَهۡدُونَ بِٱلۡحَقِّ وَبِهِۦ يَعۡدِلُونَ ۝ 149
(159) मूसा की क़ौम में एक गरोह ऐसा भी था जो हक़ के मुताबिक़ हिदायत करता और हक़ ही के मुताबिक़ इनसाफ़ करता था।
وَقَطَّعۡنَٰهُمُ ٱثۡنَتَيۡ عَشۡرَةَ أَسۡبَاطًا أُمَمٗاۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ إِذِ ٱسۡتَسۡقَىٰهُ قَوۡمُهُۥٓ أَنِ ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡحَجَرَۖ فَٱنۢبَجَسَتۡ مِنۡهُ ٱثۡنَتَا عَشۡرَةَ عَيۡنٗاۖ قَدۡ عَلِمَ كُلُّ أُنَاسٖ مَّشۡرَبَهُمۡۚ وَظَلَّلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلۡغَمَٰمَ وَأَنزَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰۖ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡۚ وَمَا ظَلَمُونَا وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 150
(160) और हमने उस क़ौम को बारह घरानों में तक़सीम करके उन्हें मुस्तक़िल गरोहों की शक्ल दे दी थी। और जब मूसा से उसकी क़ौम ने पानी माँगा तो हमने उसको इशारा किया कि फ़ुलाँ चट्टान पर अपनी लाठी मारो। चुनाँचे उस चट्टान से यकायक बारह चश्मे फूट निकले और हर गरोह ने अपने पानी लेने की जगह मुतअय्यन कर ली। हमने उनपर बादल का साया किया और उनपर 'मन्न' व 'सलवा' उतारा। — “खाओ वे पाक चीज़ें जो हमने तुमको बख़्शी हैं।” —मगर इसके बाद उन्होंने जो कुछ किया तो हमपर ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि आप अपने ऊपर ज़ुल्म करते रहे।
فَلَمَّا نَسُواْ مَا ذُكِّرُواْ بِهِۦٓ أَنجَيۡنَا ٱلَّذِينَ يَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلسُّوٓءِ وَأَخَذۡنَا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ بِعَذَابِۭ بَـِٔيسِۭ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 151
(165) आख़िरकार जब वे उन हिदायात को बिलकुल ही फ़रामोश कर गए जो उन्हें याद कराई गई थीं तो हमने उन लोगों को बचा लिया जो बुराई से रोकते थे, और बाक़ी सब लोगों को जो ज़ालिम थे उनकी नाफ़रमानियों पर सख़्त अज़ाब में पकड़ लिया।
وَإِذۡ قِيلَ لَهُمُ ٱسۡكُنُواْ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةَ وَكُلُواْ مِنۡهَا حَيۡثُ شِئۡتُمۡ وَقُولُواْ حِطَّةٞ وَٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا نَّغۡفِرۡ لَكُمۡ خَطِيٓـَٰٔتِكُمۡۚ سَنَزِيدُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 152
(161) याद करो वह वक़्त जब उनसे कहा गया था कि “उस बस्ती में जाकर बस जाओ और उसकी पैदावार से अपने हस्बे-मंशा रोज़ी हासिल करो और 'हित्ततुन-हित्ततुन' कहते जाओ और शहर के दरवाज़े में सजदा-रेज़ होते होते हुए दाख़िल हो, हम तुम्हारी ख़ताएँ माफ़ करेंगे। और नेक रवैया रखनेवालों को मज़ीद फ़ज़्ल से नवाज़ेंगे।”
فَلَمَّا عَتَوۡاْ عَن مَّا نُهُواْ عَنۡهُ قُلۡنَا لَهُمۡ كُونُواْ قِرَدَةً خَٰسِـِٔينَ ۝ 153
(166) फिर जब वे पूरी सरकशी के साथ वही काम किए चले गए जिससे उन्हें रोका गया था, तो हमने कहा बन्दर हो जाओ45 ज़लील और ख़ार।
45. इस बयान से मालूम हुआ कि इस बस्ती में तीन क़िस्म के लोग मौजूद थे। एक, वे जो धड़ल्ले से अहकामे-इलाही की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर रहे थे। दूसरे, वे जो ख़ुद तो ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं करते थे मगर इस ख़िलाफ़वर्ज़ी को ख़ामोशी के साथ बैठे देख रहे थे और नासिहों से कहते थे इन कमबख़्तों को नसीहत करने से क्या हासिल है। तीसरे, वे जिनकी ग़ैरते-ईमानी हुदूदुल्लाह की इस खुल्लम-खुल्ला बेहुर्मती को बरदाश्त न कर सकती थी और वे इस ख़याल से नेकी का हुक्म करने और बदी से रोकने में सरगर्म थे कि शायद वे मुजरिम लोग उनकी नसीहत से राहे-रास्त पर आ जाएँ। और अगर वे राहे-रास्त न इख़्तियार करें तब भी हम अपनी हद तक तो अपना फ़र्ज़ अदा करके ख़ुदा के सामने अपनी बराअत का सुबूत पेश कर ही दें। इस सूरते-हाल में जब इस बस्ती पर अल्लाह का अज़ाब आया तो क़ुरआन मजीद कहता है कि इन तीनों गरोहों में से सिर्फ़ तीसरा गरोह ही उससे बचाया गया क्योंकि उसी ने ख़ुदा के हुज़ूर अपनी माज़िरत पेश करने को फ़िक्र की थी और वही था जिसने अपनी बराअत का सुबूत फ़राहम कर रखा था। बाक़ी दोनों गरोहों का शुमार ज़ालिमों में हुआ और वे अपने जुर्म की हद तक मुब्तला-ए-अज़ाब हुए। अलबत्ता बन्दर सिर्फ़ वे लोग बनाए गए जो पूरी सरकशी के साथ हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते चले गए थे।
فَبَدَّلَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡ قَوۡلًا غَيۡرَ ٱلَّذِي قِيلَ لَهُمۡ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِجۡزٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ بِمَا كَانُواْ يَظۡلِمُونَ ۝ 154
(162) मगर जो लोग उनमें ज़ालिम थे उन्होंने उस बात को जो उनसे कही गई थी, बदल डाला और नतीजा यह हुआ कि हमने उनके ज़ुल्म की पादाश में उनपर आसमान से अज़ाब भेज दिया।
وَسۡـَٔلۡهُمۡ عَنِ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِي كَانَتۡ حَاضِرَةَ ٱلۡبَحۡرِ إِذۡ يَعۡدُونَ فِي ٱلسَّبۡتِ إِذۡ تَأۡتِيهِمۡ حِيتَانُهُمۡ يَوۡمَ سَبۡتِهِمۡ شُرَّعٗا وَيَوۡمَ لَا يَسۡبِتُونَ لَا تَأۡتِيهِمۡۚ كَذَٰلِكَ نَبۡلُوهُم بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 155
(163) और ज़रा इनसे उस बस्ती का हाल भी पूछो जो समुद्र के किनानरे वाक़े थी।44 उन्हें याद दिलाओ वह वाक़िआ कि वहाँ के लोग 'सब्त' (हफ़्ता) के दिन अहकामे-इलाही की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते थे और यह कि मछलियाँ 'सब्त' ही के दिन उभर उभरकर सतह पर उनके सामने आती थीं और 'सब्त' के सिवा बाक़ी दिनों में नहीं आती थीं। यह इसलिए होता था कि हम उनकी नाफ़रमानियों की वजह से उनको आज़माइश में डाल रहे थे।
44. मुहक़्क़िक़ीन का ग़ालिब मैलान इस तरफ़ है कि यह मक़ाम ऐला या ऐलात या ऐलूत था जहाँ अब इसराईल की यहूदी रियासत ने इसी नाम की एक बन्दरगाह बनाई है और जिसके क़रीब ही उर्दुन की मशहूर बन्दरगाह अक़बा वाक़े है।
وَإِذۡ تَأَذَّنَ رَبُّكَ لَيَبۡعَثَنَّ عَلَيۡهِمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَن يَسُومُهُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِۗ إِنَّ رَبَّكَ لَسَرِيعُ ٱلۡعِقَابِ وَإِنَّهُۥ لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 156
(167) और याद करो जबकि तुम्हारे रब ने एलान कर दिया कि “वह क़ियामत तक बराबर ऐसे लोग बनी-इसराईल पर मुसल्लत करता रहेगा जो उनको बदतरीन अज़ाब देंगे।” यक़ीनन तुम्हारा रब सज़ा देने में तेज़दस्त है और यक़ीनन वह दरगुज़र और रहम से भी काम लेनेवाला है।।
وَقَطَّعۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ أُمَمٗاۖ مِّنۡهُمُ ٱلصَّٰلِحُونَ وَمِنۡهُمۡ دُونَ ذَٰلِكَۖ وَبَلَوۡنَٰهُم بِٱلۡحَسَنَٰتِ وَٱلسَّيِّـَٔاتِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 157
(168) हमने उनको ज़मीन में टुकड़े-टुकड़े करके बहुत-सी क़ौमों में तक़सीम कर दिया। कुछ लोग उनमें नेक थे और कुछ उससे मुख़्तलिफ़। और हम उनको अच्छे और बुरे हालात से आज़माइश में मुब्तला करते रहे कि शायद ये पलट आएँ।
فَخَلَفَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ خَلۡفٞ وَرِثُواْ ٱلۡكِتَٰبَ يَأۡخُذُونَ عَرَضَ هَٰذَا ٱلۡأَدۡنَىٰ وَيَقُولُونَ سَيُغۡفَرُ لَنَا وَإِن يَأۡتِهِمۡ عَرَضٞ مِّثۡلُهُۥ يَأۡخُذُوهُۚ أَلَمۡ يُؤۡخَذۡ عَلَيۡهِم مِّيثَٰقُ ٱلۡكِتَٰبِ أَن لَّا يَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّ وَدَرَسُواْ مَا فِيهِۗ وَٱلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يَتَّقُونَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 158
(169) फिर अगली नस्लों के बाद ऐसे नाख़लफ़ उनके जानशीन हुए जो किताबे-इलाही के वारिस होकर इसी दुनिया-ए-दनी के फ़ायदे समेटते हैं और कह देते हैं कि तवक़्क़ो है हमें माफ़ कर दिया जाएगा, और अगर वही मताए-दुनिया सामने आती है तो फिर लपककर उसे ले लेते हैं। क्या उनसे किताब का अह्द नहीं लिया जा चुका है कि अल्लाह के नाम पर वही बात कहें जो हक़ हो? और ये ख़ुद पढ़ चुके हैं जो किताब में लिखा है। आख़िरत की क़ियामगाह तो ख़ुदा-तरस लोगों के लिए ही बेहतर है,46 क्या तुम इतनी-सी बात नहीं समझते?
46. इस आयत के दो तर्जमे हो सकते हैं— एक वह जो हमने मत्न में इख़्तियार किया है। दूसरा यह कि “ख़ुदा-तरस लोगों के लिए तो आख़िरत की क़ियामगाह ही बेहतर है।”
وَٱلَّذِينَ يُمَسِّكُونَ بِٱلۡكِتَٰبِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ إِنَّا لَا نُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُصۡلِحِينَ ۝ 159
(170) जो लोग किताब की पाबन्दी करते हैं और जिन्होंने नमाज़ क़ायम कर रखी है, यक़ीनन ऐसे नेक किरदार लोगों का अज्र हम ज़ाया नहीं करेंगे।
۞وَإِذۡ نَتَقۡنَا ٱلۡجَبَلَ فَوۡقَهُمۡ كَأَنَّهُۥ ظُلَّةٞ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُۥ وَاقِعُۢ بِهِمۡ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱذۡكُرُواْ مَا فِيهِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 160
(171) उन्हें वह वक़्त भी कुछ याद है जब कि हमने पहाड़ को हिलाकर उनपर इस तरह छा दिया था कि गोया वह छतरी है और ये गुमान कर रहे थे कि वह इनपर आ पड़ेगा और उस वक़्त हमने उनसे कहा था कि जो किताब हम तुम्हें दे रहे हैं उसे मज़बूती के साथ थामो और जो कुछ उसमें लिखा है उसे याद रखो, तवक़्क़ो है कि तुम ग़लतरवी से बचे रहोगे!
وَإِذۡ أَخَذَ رَبُّكَ مِنۢ بَنِيٓ ءَادَمَ مِن ظُهُورِهِمۡ ذُرِّيَّتَهُمۡ وَأَشۡهَدَهُمۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَلَسۡتُ بِرَبِّكُمۡۖ قَالُواْ بَلَىٰ شَهِدۡنَآۚ أَن تَقُولُواْ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ إِنَّا كُنَّا عَنۡ هَٰذَا غَٰفِلِينَ ۝ 161
(172) और (ऐ नबी!) लोगों को याद दिलाओ वह वक़्त जबकि तुम्हारे रब ने बनी-आदम की पुश्तों से उनकी नस्ल को निकाला था और उन्हें ख़ुद उनके ऊपर गवाह बनाते हुए पूछा था, “क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ?” उन्होंने कहा, “ज़रूर आप ही हमारे रब हैं, इस पर गवाही देते हैं”।47 यह हमने इसलिए किया कि कहीं तुम क़ियामत के रोज़ यह न कह दो कि “हम तो इस बात से बेख़बर थे,”
47. जैसा कि मुतअद्दिद अहादीस से मालूम होता है यह मामला तख़लीक़े-आदम के मौक़े पर पेश आया था। उस वक़्त जिस तरह फ़रिश्तों को जमा करके इनसाने-अव्वल को सजदा कराया गया था और ज़मीन पर इनसान की ख़िलाफ़त का एलान किया गया था उसी तरह पूरी नस्ले-आदम को भी जो क़ियामत तक पैदा होनेवाली थी, अल्लाह तआला ने बयक-वक़्त वुजूद और शुऊर बख़्शकर अपने सामने हाज़िर किया था और उनसे अपनी रबूबियत की शहादत ली थी।
أَوۡ تَقُولُوٓاْ إِنَّمَآ أَشۡرَكَ ءَابَآؤُنَا مِن قَبۡلُ وَكُنَّا ذُرِّيَّةٗ مِّنۢ بَعۡدِهِمۡۖ أَفَتُهۡلِكُنَا بِمَا فَعَلَ ٱلۡمُبۡطِلُونَ ۝ 162
(173) या यह न कहने लगो कि “शिर्क की इबतिदा तो हमारे बाप-दादा ने हमसे पहले की थी और हम बाद को उनकी नस्ल से पैदा हुए, फिर क्या आप हमें उस क़ुसूर में पकड़ते हैं जो ग़लतकार लोगों ने किया था?”
وَكَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 163
(174) देखो, इस तरह हम निशानियाँ वाज़ेह तौर पर पेश करते हैं।48 और इसलिए करते हैं कि ये लोग पलट आएँ।
48. यानी मारिफ़ते-हक़ के वे निशानात जो इनसान के अपने नफ़्स में मौजूद हैं और हक़ीक़त की तरफ़ रहनुमाई करते हैं।
وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ ٱلَّذِيٓ ءَاتَيۡنَٰهُ ءَايَٰتِنَا فَٱنسَلَخَ مِنۡهَا فَأَتۡبَعَهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ فَكَانَ مِنَ ٱلۡغَاوِينَ ۝ 164
(175) और (ऐ नबी!) उनके सामने उस शख़्स का हाल बयान करो जिसको हमने अपनी आयात का इल्म अता किया था, मगर वह उनकी पाबन्दी से निकल भागा। आख़िरकार शैतान उसके पीछे पड़ गया यहाँ तक कि वह भटकनेवालों में शामिल होकर रहा।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَرَفَعۡنَٰهُ بِهَا وَلَٰكِنَّهُۥٓ أَخۡلَدَ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُۚ فَمَثَلُهُۥ كَمَثَلِ ٱلۡكَلۡبِ إِن تَحۡمِلۡ عَلَيۡهِ يَلۡهَثۡ أَوۡ تَتۡرُكۡهُ يَلۡهَثۚ ذَّٰلِكَ مَثَلُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۚ فَٱقۡصُصِ ٱلۡقَصَصَ لَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 165
(176) अगर हम चाहते तो उसे उन आयतों के ज़रिये से बलन्दी अता करते, मगर वह तो ज़मीन ही की तरफ़ झुककर रह गया और अपनी ख़ाहिशे-नफ़्स ही के पीछे पड़ा रहा, लिहाज़ा उसकी हालत कुत्ते की-सी हो गई कि तुम उसपर हमला करो तब भी ज़बान लटकाए रहे और उसे छोड़ दो तब भी ज़बान लटकाए रहे।49 यही मिसाल है उन लोगों की जो हमारी आयात को झुठलाते हैं। तुम ये हिकायात इनको सुनाते रहो, शायद कि ये कुछ ग़ौर व फ़िक्र करें।
49. मुफ़स्सिरीन ने अह्दे-रिसालत और उससे पहले की तारीख़ के मुख़्तलिफ़ अशख़ास पर इस मिसाल को चस्पाँ किया है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि वह ख़ास शख़्स तो परदे में है जो इस तमसील में पेशे-नज़र था, अलबत्ता यह तमसील हर उस शख़्स पर चस्पाँ होती है जिसमें यह सिफ़त पाई जाती हो। अल्लाह तआला उसकी हालत को कुत्ते से तशबीह देता है जिसकी हर वक़्त लटकी हुई ज़बान और टपकती हुई राल एक न बुझनेवाली आतिशे-हिर्स और कभी न सैर होनेवाली नीयत का पता देती है। बिनाए-तशबीह वही है जिसकी वजह से हम अपनी उर्दू ज़बान में ऐसे शख़्स को जो दुनिया की हिर्स में अन्धा हो रहा हो, दुनिया का कुत्ता कहते हैं।
سَآءَ مَثَلًا ٱلۡقَوۡمُ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَأَنفُسَهُمۡ كَانُواْ يَظۡلِمُونَ ۝ 166
(177) बड़ी ही बुरी मिसाल है ऐसे लोगों की जिन्होंने हमारी आयात को झुठलाया, और वे आप अपने ही पर ज़ुल्म करते रहे हैं।
مَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِيۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 167
(178) जिसे अल्लाह हिदायत बख़्शे बस वही राहे-रास्त पाता है और जिसको अल्लाह अपनी रहनुमाई से महरूम कर दे वही नाकाम व नामुराद होकर रहता है।
وَلَقَدۡ ذَرَأۡنَا لِجَهَنَّمَ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِۖ لَهُمۡ قُلُوبٞ لَّا يَفۡقَهُونَ بِهَا وَلَهُمۡ أَعۡيُنٞ لَّا يُبۡصِرُونَ بِهَا وَلَهُمۡ ءَاذَانٞ لَّا يَسۡمَعُونَ بِهَآۚ أُوْلَٰٓئِكَ كَٱلۡأَنۡعَٰمِ بَلۡ هُمۡ أَضَلُّۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡغَٰفِلُونَ ۝ 168
(179) और यह हक़ीक़त है कि बहुत-से जिन्न और इनसान ऐसे हैं जिनको हमने जहन्नम ही के लिए पैदा किया है। उनके पास दिल व दिमाग़ हैं मगर वे उनसे सोचते नहीं। उनके पास आँखें हैं मगर वे उनसे देखते नहीं। उनके पास कान हैं मगर वे उनसे सुनते नहीं। वे जानवरों की तरह हैं, बल्कि उनसे भी ज़्यादा गए गुज़रे, ये वे लोग हैं जो ग़फ़लत में खोए गए हैं।50
50. यानी हमने तो उनको पैदा किया था दिल, दिमाग, आँखें और कान देकर मगर ज़ालिमों ने उनसे कोई काम न लिया और अपनी ग़लतकारियों की बदौलत आख़िरकार जहन्नम के क़ाबिल बनकर रहे।
وَلِلَّهِ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰ فَٱدۡعُوهُ بِهَاۖ وَذَرُواْ ٱلَّذِينَ يُلۡحِدُونَ فِيٓ أَسۡمَٰٓئِهِۦۚ سَيُجۡزَوۡنَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 169
(180) अल्लाह अच्छे नामों का मुस्तहिक़ है, उसको अच्छे ही नामों से पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो जो उसके नाम रखने में रास्ती से मुन्हरिफ़ हो जाते हैं। जो कुछ वे करते हैं उसका बदला वे पाकर रहेंगे।51
51. 'अच्छे नामों से मुराद वे नाम हैं जिनसे ख़ुदा की अज़मत व बरतरी, उसके तक़द्दुस और पाकीज़गी और उसकी सिफ़ाते-कमालिया का इज़हार होता हो। अल्लाह के नाम रखने में रास्ती से इनहिराफ़ यह है कि अल्लाह को ऐसे नाम दिए जाएँ जो उसके मरतबे से फ़िरोतर हों, जो उसके अदब के मुनाफ़ी हों, जिनसे उयूब और नक़ायस उसकी तरफ़ मंसूब होते हों, या जिनसे उसकी ज़ाते-अक़दस व आला के मुताल्लिक़ किसी ग़लत अक़ीदे का इज़हार होता हो।
وَمِمَّنۡ خَلَقۡنَآ أُمَّةٞ يَهۡدُونَ بِٱلۡحَقِّ وَبِهِۦ يَعۡدِلُونَ ۝ 170
(181) हमारी मख़लूक़ में एक गरोह ऐसा भी है जो ठीक-ठीक हक़ के मुताबिक़ हिदायत और हक़ के मुताबिक़ इनसाफ़ करता है।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا سَنَسۡتَدۡرِجُهُم مِّنۡ حَيۡثُ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 171
(182) रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयात को झुठला दिया है, तो उन्हें हम बतदरीज ऐसे तरीक़े से तबाही की तरफ़ ले जाएँगे कि उन्हें ख़बर तक न होगी।
وَأُمۡلِي لَهُمۡۚ إِنَّ كَيۡدِي مَتِينٌ ۝ 172
(183) मैं उनको ढील दे रहा हूँ, मेरी चाल का कोई तोड़ नहीं है।
أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْۗ مَا بِصَاحِبِهِم مِّن جِنَّةٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 173
(184) और क्या इन लोगों ने कभी सोचा नहीं? इनके रफ़ीक़ पर जुनून का कोई असर नहीं है।52 वह तो एक ख़बरदार करनेवाला है, जो (बुरा अंजाम सामने आने से पहले) साफ़-साफ़ मुतनब्बेह कर रहा है।
52. रफ़ीक़ से मुराद मुहम्मद (सल्ल०) हैं। आप (सल्ल०) को अहले-मक्का का रफ़ीक़ इसलिए कहा गया है कि आप (सल्ल०) उनके लिए अजनबी न थे। उन्हीं लोगों में पैदा हुए, उन्हीं के दरमियान रहे-बसे, बच्चे से जवान और जवान से बूढ़े हुए, नुबूवत से पहले सारी क़ौम आप (सल्ल०) को एक निहायत सलीमुत्तबा और सहीहुद्दिमाग़ आदमी की हैसियत से जानती थी। नुबूवत के बाद जब आप (सल्ल०) ने ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचाना शुरू किया तो यकायक आप (सल्ल०) को मजनून कहने लगी। ज़ाहिर है कि यह हुक्मे-जुनून उन बातों पर न था जो आप (सल्ल०) नबी होने से पहले करते थे, बल्कि सिर्फ़ उन्हीं बातों पर लगाया जा रहा था जिनकी आप (सल्ल०) ने नबी होने के बाद तबलीग़ शुरू की। इसी वजह से फ़रमाया जा रहा है कि इन लोगों ने कभी सोचा भी है, आख़िर इन बातों में से कौन-सी बात जुनून की है?
أَوَلَمۡ يَنظُرُواْ فِي مَلَكُوتِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا خَلَقَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٖ وَأَنۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ قَدِ ٱقۡتَرَبَ أَجَلُهُمۡۖ فَبِأَيِّ حَدِيثِۭ بَعۡدَهُۥ يُؤۡمِنُونَ ۝ 174
(185) क्या इन लोगों ने आसमान व ज़मीन के इन्तिज़ाम पर कभी ग़ौर नहीं किया और किसी चीज़ को भी जो ख़ुदा ने पैदा की है आँखें खोलकर नहीं देखा? और क्या यह भी इन्होंने नहीं सोचा कि शायद इनकी मुहलते-ज़िन्दगी पूरी होने का वक़्त करीब आ लगा हो? फिर आख़िर पैग़म्बर की इस तंबीह के बाद और कौन-सी बात ऐसी हो सकती है जिसपर ये ईमान लाएँ?
مَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَا هَادِيَ لَهُۥۚ وَيَذَرُهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 175
(186) – जिसको अल्लाह रहनुमाई से महरूम कर दे उसके लिए फिर कोई रहनुमा नहीं है, और अल्लाह उन्हें उनकी सरकशी ही में भटकता हुआ छोड़े देता है।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلسَّاعَةِ أَيَّانَ مُرۡسَىٰهَاۖ قُلۡ إِنَّمَا عِلۡمُهَا عِندَ رَبِّيۖ لَا يُجَلِّيهَا لِوَقۡتِهَآ إِلَّا هُوَۚ ثَقُلَتۡ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ لَا تَأۡتِيكُمۡ إِلَّا بَغۡتَةٗۗ يَسۡـَٔلُونَكَ كَأَنَّكَ حَفِيٌّ عَنۡهَاۖ قُلۡ إِنَّمَا عِلۡمُهَا عِندَ ٱللَّهِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 176
(187) ये लोग तुमसे पूछते हैं कि आख़िर वह क़ियामत की घड़ी कब नाज़िल होगी? कहो, “उसका इल्म मेरे रब ही के पास है। उसे अपने वक़्त पर वही ज़ाहिर करेगा। आसमानों और ज़मीन में वह बड़ा सख़्त वक़्त होगा। वह तुमपर अचानक आ जाएगा।” ये लोग उसके मुताल्लिक़ तुमसे इस तरह पूछते हैं गोया कि तुम उसकी खोज में लगे हुए हो। कहो, “उसका इल्म तो सिर्फ़ अल्लाह को है मगर अकसर लोग इस हक़ीक़त से नावाक़िफ़ हैं।”
قُل لَّآ أَمۡلِكُ لِنَفۡسِي نَفۡعٗا وَلَا ضَرًّا إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۚ وَلَوۡ كُنتُ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ لَٱسۡتَكۡثَرۡتُ مِنَ ٱلۡخَيۡرِ وَمَا مَسَّنِيَ ٱلسُّوٓءُۚ إِنۡ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ وَبَشِيرٞ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 177
(188) (ए नबी!) इनसे कहो कि “मैं अपनी ज़ात के लिए किसी नफ़ा और नुक़सान का इख़्तियार नहीं रखता, अल्लाह ही जो कुछ चाहता है वह होता है। अगर मुझे ग़ैब का इल्म होता तो मैं बहुत-से फ़ायदे अपने लिए हासिल कर लेता और मुझे कभी कोई नुक़सान न पहुँचता। मैं तो महज़ एक ख़बरदार करनेवाला और ख़ुशखबरी सुनानेवाला हूँ उन लोगों के लिए जो मेरी बात मानें।”
۞هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ وَجَعَلَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا لِيَسۡكُنَ إِلَيۡهَاۖ فَلَمَّا تَغَشَّىٰهَا حَمَلَتۡ حَمۡلًا خَفِيفٗا فَمَرَّتۡ بِهِۦۖ فَلَمَّآ أَثۡقَلَت دَّعَوَا ٱللَّهَ رَبَّهُمَا لَئِنۡ ءَاتَيۡتَنَا صَٰلِحٗا لَّنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 178
(189) वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उसी की जिंस से उसका जोड़ा बनाया ताकि उसके पास सुकून हासिल करे। फिर जब मर्द ने औरत को ढाँक लिया तो उसे एक खफ़ीफ़-सा हम्ल रह गया जिसे लिए-लिए वह चलती-फिरती रही। फिर जब वह बोझल हो गई तो दोनों ने मिलकर अल्लाह, अपने रब से दुआ की कि अगर तूने हमको अच्छा-सा बच्चा दिया तो हम तेरे शुक्रगुज़ार होंगे।
فَلَمَّآ ءَاتَىٰهُمَا صَٰلِحٗا جَعَلَا لَهُۥ شُرَكَآءَ فِيمَآ ءَاتَىٰهُمَاۚ فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 179
(190) मगर जब अल्लाह ने उनको एक सही व सालिम बच्चा दे दिया तो वे उसकी बख़शिश व इनायत में दूसरों को उसका शरीक ठहराने लगे।53 अल्लाह बहुत बलन्द व बरतर है उन मुशरिकाना बातों से जो ये लोग करते हैं।
53. मतलब यह है कि औलाद देनेवाला तो अल्लाह है। अगर अल्लाह औरत के पेट में बन्दर या साँप या कोई और अजीबुल-ख़िलक़त हैवान पैदा कर दे या बच्चे को पेट ही में अंधा, बहरा, लंगड़ा, लूला बना दे, या उसकी जिस्मानी व ज़ेहनी और नफ़्सानी क़ुव्वतों में कोई नक़्स रख दे तो किसी में यह ताक़त नहीं है कि अल्लाह की इस साख़्त को बदल डाले। इस हक़ीक़त से मुशरिकीन भी उसी तरह आगाह हैं जिस तरह मुवह्हिदीन। चुनाँचे यही वजह है कि ज़माना-ए-हम्ल में सारी उम्मीदें अल्लाह ही से वाबस्ता होती हैं कि वही सहीह व सालिम बच्चा पैदा करेगा। लेकिन जब उम्मीद बर आती है और चाँद-सा बच्चा नसीब हो जाता है तो शुक्रिए के लिए नज़्रें और नियाज़ें किसी देवी, किसी अवतार, किसी वली और किसी हज़रत के नाम पर चढ़ाई जाती हैं और बच्चे को ऐसे नाम दिए जाते हैं कि गोया वह अल्लाह के सिवा किसी और की इनायत का नतीजा है।
أَيُشۡرِكُونَ مَا لَا يَخۡلُقُ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ ۝ 180
(191) कैसे नादान हैं ये लोग कि उनको ख़ुदा का शरीक ठहराते हैं जो किसी चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि ख़ुद पैदा किए जाते हैं,
وَلَا يَسۡتَطِيعُونَ لَهُمۡ نَصۡرٗا وَلَآ أَنفُسَهُمۡ يَنصُرُونَ ۝ 181
(192) जो न इनकी मदद कर सकते हैं और न आप-अपनी मदद ही पर क़ादिर हैं।
وَإِن تَدۡعُوهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ لَا يَتَّبِعُوكُمۡۚ سَوَآءٌ عَلَيۡكُمۡ أَدَعَوۡتُمُوهُمۡ أَمۡ أَنتُمۡ صَٰمِتُونَ ۝ 182
(193) अगर तुम उन्हें सीधी राह पर आने की दावत दो तो वे तुम्हारे पीछे न आएँ। तुम ख़ाह उन्हें पुकारो या ख़ामोश रहो, दोनों सूरतों में तुम्हारे लिए यकसाँ ही रहे।54
54. यानी उन मुशरिकीन के माबूदाने-बातिल का हाल यह है कि सीधी राह दिखाना और अपने परस्तारों की रहनुमाई करना तो दरकिनार, वे बेचारे तो किसी रहनुमा की पैरवी करने के क़ाबिल भी नहीं, हत्ता कि किसी पुकारनेवाले की पुकार का जवाब तक नहीं दे सकते।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ عِبَادٌ أَمۡثَالُكُمۡۖ فَٱدۡعُوهُمۡ فَلۡيَسۡتَجِيبُواْ لَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 183
(194) तुम लोग ख़ुदा को छोड़कर जिन्हें पुकारते हो वे तो मह्ज़ बन्दे हैं जैसे तुम बन्दे हो। इनसे दुआएँ माँग देखो, ये तुम्हारी दुआओं का जवाब दें अगर उनके बारे में तुम्हारे ख़यालात सही हैं।
أَلَهُمۡ أَرۡجُلٞ يَمۡشُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ أَيۡدٖ يَبۡطِشُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ أَعۡيُنٞ يُبۡصِرُونَ بِهَآۖ أَمۡ لَهُمۡ ءَاذَانٞ يَسۡمَعُونَ بِهَاۗ قُلِ ٱدۡعُواْ شُرَكَآءَكُمۡ ثُمَّ كِيدُونِ فَلَا تُنظِرُونِ ۝ 184
(195) क्या ये पाँव रखते हैं कि उनसे चलें? क्या ये हाथ रखते हैं कि उनसे पकड़ें? क्या ये आँखें रखते हैं कि उनसे देखें? क्या ये कान रखते हैं कि उनसे सुनें? (ऐ नबी!) उनसे कहो कि “बुला लो अपने ठहराए हुए शरीकों को, फिर तुम सब मिलकर मेरे ख़िलाफ़ तदबीरें करो और मुझे हरगिज़ मुहलत न दो,
إِنَّ وَلِـِّۧيَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي نَزَّلَ ٱلۡكِتَٰبَۖ وَهُوَ يَتَوَلَّى ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 185
(196) मेरा हामी व नासिर वह ख़ुदा है जिसने यह किताब नाज़िल की है और वह नेक आदमियों की हिमायत करता है।
وَٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَكُمۡ وَلَآ أَنفُسَهُمۡ يَنصُرُونَ ۝ 186
(197) बख़िलाफ़ इसके तुम जिन्हें ख़ुदा को छोड़कर पुकारते हो वे न तुम्हारी मदद कर सकते हैं और न ख़ुद अपनी मदद ही करने के क़ाबिल हैं,
وَإِخۡوَٰنُهُمۡ يَمُدُّونَهُمۡ فِي ٱلۡغَيِّ ثُمَّ لَا يُقۡصِرُونَ ۝ 187
(202) रहे उनके (यानी शयातीन के) भाई बन्द, तो वे उन्हें उनकी कजरवी में खींचे लिए चले जाते हैं और उन्हें भटकाने में कोई कसर उठा नहीं रखते।
وَإِن تَدۡعُوهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ لَا يَسۡمَعُواْۖ وَتَرَىٰهُمۡ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ وَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 188
(198) बल्कि अगर तुम उन्हें सीधी राह पर आने के लिए कहो तो वे तुम्हारी बात सुन भी नहीं सकते। बज़ाहिर तुमको ऐसा नज़र आता है कि वे तुम्हारी तरफ़ देख रहे हैं मगर फ़िल-वाक़े वे कुछ भी नहीं देखते।”
وَإِذَا لَمۡ تَأۡتِهِم بِـَٔايَةٖ قَالُواْ لَوۡلَا ٱجۡتَبَيۡتَهَاۚ قُلۡ إِنَّمَآ أَتَّبِعُ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ مِن رَّبِّيۚ هَٰذَا بَصَآئِرُ مِن رَّبِّكُمۡ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 189
(203) (ऐ नबी!) जब तुम इन लोगों के सामने कोई निशानी (यानी मोजिज़ा) पेश नहीं करते तो ये कहते हैं कि तुमने अपने लिए कोई निशानी क्यों न इन्तिख़ाब कर ली? उनसे कहो, “मैं तो सिर्फ़ उस वह्य की पैरवी करता हूँ जो मेरे रब ने मेरी तरफ़ भेजी है। यह बसीरत की रौशनियाँ हैं तुम्हारे रब की तरफ़ से और हिदायत और रहमत है उन लोगों के लिए जो उसे क़ुबूल करें।
خُذِ ٱلۡعَفۡوَ وَأۡمُرۡ بِٱلۡعُرۡفِ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 190
(199) (ऐ नबी!) नर्मी व दरगुज़र का तरीक़ा इख़्तियार करो, मारूफ़ की तलक़ीन किए जाओ, और जाहिलों से न उलझो।
وَإِمَّا يَنزَغَنَّكَ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ نَزۡغٞ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 191
(200) अगर कभी शैतान तुम्हें उकसाए तो अल्लाह की पनाह माँगो, वह सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।
وَإِذَا قُرِئَ ٱلۡقُرۡءَانُ فَٱسۡتَمِعُواْ لَهُۥ وَأَنصِتُواْ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 192
(204) जब क़ुरआन तुम्हारे सामने पढ़ा जाए तो उसे तवज्जुह से सुनो और ख़ामोश रहो, शायद कि तुमपर भी रहमत हो जाए।”
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ إِذَا مَسَّهُمۡ طَٰٓئِفٞ مِّنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ تَذَكَّرُواْ فَإِذَا هُم مُّبۡصِرُونَ ۝ 193
(201) हक़ीक़त में जो लोग मुत्तक़ी हैं उनका हाल तो यह होता है कि कभी शैतान के असर से कोई बुरा ख़याल अगर उन्हें छू भी जाता है तो फ़ौरन चौकन्ने हो जाते हैं और फिर उन्हें साफ़ नज़र आने लगता है कि उनके लिए सही तरीक़े-कार क्या है।
وَٱذۡكُر رَّبَّكَ فِي نَفۡسِكَ تَضَرُّعٗا وَخِيفَةٗ وَدُونَ ٱلۡجَهۡرِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ وَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡغَٰفِلِينَ ۝ 194
(205) (ऐ नबी!) अपने रब को सुबह व शाम याद किया करो, दिल-ही-दिल में ज़ारी और ख़ौफ़ के साथ और ज़बान से भी हल्की आवाज़ के साथ। तुम उन लोगों में से न हो जाओ जो ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ عِندَ رَبِّكَ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَيُسَبِّحُونَهُۥ وَلَهُۥ يَسۡجُدُونَۤ۩ ۝ 195
(206) जो फ़रिश्ते तुम्हारे रब के हुज़ूर तक़र्रुब का मक़ाम रखते है वे कभी अपनी बड़ाई के घमण्ड में आकर उसकी इबादत से मुँह नहीं मोड़ते, और उसकी तसबीह करते हैं, और उसके आगे झुके रहते हैं।”
55. इस मक़ाम पर हुक्म है कि जो शख़्स इस आयत को पढ़े या सुने वह सजदा करे। क़ुरआन मजीद में ऐसे 14 मक़ामात है जहाँ आयाते-सजदा आई हैं।
فَكَذَّبُوهُ فَأَنجَيۡنَٰهُ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ وَأَغۡرَقۡنَا ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمًا عَمِينَ ۝ 196
(64) मगर उन्होंने उसको झुठला दिया। आख़िरकार हमने उसे और उसके साथियों को एक कश्ती में नजात दी। और उन लोगों को डुबो दिया जिन्होंने हमारी आयात को झुठलाया था, यक़ीनन वे अंधे लोग थे।
۞وَإِلَىٰ عَادٍ أَخَاهُمۡ هُودٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۚ أَفَلَا تَتَّقُونَ ۝ 197
(65) और आद की तरफ़ हमने उनके भाई हूद को भेजा।19 उसने कहा, “ऐ बिरादराने-क़ौम! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। फिर क्या तुम ग़लतरवी से परहेज़ न करोगे?
19. क़ौमे-आद का अस्ल मस्कन अहक़ाफ़ का इलाक़ा था जो हिजाज़, यमन और यमामा के दरमियान वाक़े है। यहीं से फैलकर इन लोगों ने यमन के मग़रिबी सवाहिल और उम्मान व हज़रे-मौत से इराक़ तक अपनी ताक़त का सिक्का रवाँ कर दिया था।
قَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦٓ إِنَّا لَنَرَىٰكَ فِي سَفَاهَةٖ وَإِنَّا لَنَظُنُّكَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 198
(66) “उसकी क़ौम के सरदारों ने, जो उसकी बात मानने से इनकार कर रहे थे, जवाब में कहा, “हम तो तुम्हें बेअक़्ली में मुब्तला समझते हैं और हमें गुमान है कि तुम झूठे हो।”
قَالَ يَٰقَوۡمِ لَيۡسَ بِي سَفَاهَةٞ وَلَٰكِنِّي رَسُولٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 199
(67) उसने कहा, “ऐ बिरादराने-क़ौम! मैं बेअक़्ली में मुब्तला नहीं हूँ, बल्कि मैं रब्बुल-आलमीन का रसूल हूँ,
أُبَلِّغُكُمۡ رِسَٰلَٰتِ رَبِّي وَأَنَا۠ لَكُمۡ نَاصِحٌ أَمِينٌ ۝ 200
(68) तुमको अपने रब के पैग़ामात पहुँचाता हूँ, और तुम्हारा ऐसा ख़ैरख़ाह हूँ जिसपर भरोसा किया जा सकता है।
أَوَعَجِبۡتُمۡ أَن جَآءَكُمۡ ذِكۡرٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنكُمۡ لِيُنذِرَكُمۡۚ وَٱذۡكُرُوٓاْ إِذۡ جَعَلَكُمۡ خُلَفَآءَ مِنۢ بَعۡدِ قَوۡمِ نُوحٖ وَزَادَكُمۡ فِي ٱلۡخَلۡقِ بَصۜۡطَةٗۖ فَٱذۡكُرُوٓاْ ءَالَآءَ ٱللَّهِ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 201
(69) क्या तुम्हें इस बात पर ताज्जुब हुआ कि तुम्हारे पास ख़ुद तुम्हारी अपनी क़ौम के एक आदमी के ज़रिए से तुम्हारे रब की याददिहानी आई ताकि वह तुम्हें ख़बरदार करे? भूल न जाओ कि तुम्हारे रब ने नूह की क़ौम के बाद तुमको उसका जानशीन बनाया और तुम्हें ख़ूब तनोमन्द किया, पस अल्लाह की क़ुदरत के करिश्मों को याद रखो,20 उम्मीद है कि फ़लाह पाओगे।”
20. अस्ल में लफ़्ज़ 'आलाअ' इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी नेमतों के भी हैं और करिश्महा-ए-क़ुदरत के भी और सिफ़ाते-हमीदा के भी।
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا لِنَعۡبُدَ ٱللَّهَ وَحۡدَهُۥ وَنَذَرَ مَا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا فَأۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 202
(70) उन्होंने जवाब दिया, “क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि हम अकेले अल्लाह ही की इबादत करें और उन्हें छोड़ दें जिनकी इबादत हमारे बाप-दादा करते आए हैं? अच्छा तो ले आ वह अज़ाब जिसकी तू हमें धमकी देता है अगर तू सच्चा है।”
قَالَ قَدۡ وَقَعَ عَلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡ رِجۡسٞ وَغَضَبٌۖ أَتُجَٰدِلُونَنِي فِيٓ أَسۡمَآءٖ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّا نَزَّلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٖۚ فَٱنتَظِرُوٓاْ إِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُنتَظِرِينَ ۝ 203
(71) उसने कहा, “तुम्हारे रब की फिटकार तुमपर पड़ गई और उसका ग़ज़ब टूट पड़ा। क्या तुम मुझसे उन नामों पर झगड़ते हो जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं21 जिनके लिए अल्लाह ने कोई सनद नाज़िल नहीं की है? अच्छा तो तुम भी इन्तिज़ार करो और मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।”
21. यानी तुम किसी को बारिश का और किसी को हवा का और किसी को दौलत का और किसी को बीमारी का रब कहते हो, हालाँकि इनमें से कोई भी फ़िल-हक़ीक़त किसी चीज़ का रब नहीं है, ये सब मह्ज़ नाम हैं जो तुमने रख लिए हैं, जो इनके लिए झगड़ता है वह दरअस्ल चंद नामों के लिए झगड़ता है, न कि किसी हक़ीक़त के लिए।
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَقَطَعۡنَا دَابِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَاۖ وَمَا كَانُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 204
(72) आख़िरकार हमने अपनी मेहरबानी से हूद और उसके साथियों को बचा लिया और उन लोगों की जड़ काट दी जो हमारी आयात को झुठला चुके थे और ईमान लानेवाले न थे।
وَإِذۡ قَالَتۡ أُمَّةٞ مِّنۡهُمۡ لِمَ تَعِظُونَ قَوۡمًا ٱللَّهُ مُهۡلِكُهُمۡ أَوۡ مُعَذِّبُهُمۡ عَذَابٗا شَدِيدٗاۖ قَالُواْ مَعۡذِرَةً إِلَىٰ رَبِّكُمۡ وَلَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 205
(164) और उन्हें यह भी याद दिलाओ कि जब उनमें से एक गरोह ने दूसरे गरोह से कहा था कि “तुम ऐसे लोगों को क्यों नसीहत करते हो जिन्हें अल्लाह तबाह करनेवाला या सख़्त सज़ा देनेवाला है।” तो उन्होंने जवाब दिया था कि “हम ये सब कुछ तुम्हारे रब के सामने अपनी माज़िरत पेश करने के लिए करते हैं और इस उम्मीद पर करते हैं कि शायद ये लोग उसकी नाफ़रमानी से परहेज़ करने लगें।”