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إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ

  1. यूसुफ़

(मक्‍का में उतरी-आयतें 111)

परिचय

उतरने का समय और कारण

इस सूरा के विषय से स्पष्ट होता है कि यह भी मक्का निवास के अन्तिम समय में उतरी होगी, जबकि क़ुरैश के लोग इस समस्या पर विचार कर रहे थे कि नबी (सल्ल०) को क़त्ल कर दें या देश निकाला दे दें या क़ैद कर दें। उस समय मक्का के कुछ विधर्मियों ने (शायद यहूदियों के संकेत पर) नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए आपसे प्रश्न किया कि बनी-इसराईल के मिस्र जाने का क्या कारण हुआ? अल्लाह ने केवल यही नहीं किया कि तुरन्त उसी समय यूसुफ़ (अलैहि०) का यह पूरा क़िस्सा आपकी ज़ुबान पर जारी कर दिया, बल्कि यह भी किया कि इस क़िस्से को क़ुरैश के उस व्यवहार पर चस्पाँ भी कर दिया जो वे यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों की तरह प्यारे नबी (सल्ल०) के साथ कर रहे थे।

उतरने के उद्देश्य

इस तरह यह क़िस्सा दो महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए उतारा गया था-

एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के नबी होने का प्रमाण और वह भी विरोधियों का अपना मुँह माँगा प्रमाण जुटाया जाए।

दूसरे यह कि कुरैश के सरदारों को यह बताया जाए कि आज तुम अपने भाई के साथ वही कुछ कर रहे हो जो यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने उनके साथ किया था, मगर जिस तरह वे अल्लाह की इच्छा से लड़ने में सफल न हुए और अन्तत: उसी भाई के क़दमों में आ रहे जिसको उन्होंने कभी बड़ी निर्दयता के साथ कुएंँ में फेंका था, उसी तरह तुम्हारी कोशिशें भी अल्लाह की तदबीरों के मुकाबले में सफल न हो सकेंगी और एक दिन तुम्हें भी अपने इसी भाई से दया एवं कृपा की भीख मांँगनी पड़ेगी जिसे आज तुम मिटा देने पर तुले हुए हो।

सच तो यह है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के क़िस्से को मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरैश के मामले पर चस्पाँ करके क़ुरआन मजीद ने मानो एक खुली भविष्यवाणी कर दी थी जिसे आगे दस साल की घटनाओं ने एक-एक करके सही सिद्ध करके दिखा दिया।

वार्ताएँ एवं समस्याएँ

ये दो पहलू तो इस सूरा में उद्देश्य की हैसियत रखते हैं। इनके अतिरिक्त क़ुरआन मजीद इस पूरे किस्से में यह बात भी स्पष्ट करके दिखाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०), हज़रत इसहाक़ (अलैहि०), हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की दावत भी वही थी जो आज मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं।

फिर वह एक ओर हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के चरित्र और दूसरी ओर यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों, व्यापारियों के काफ़िले, मिस्र के शासक, उसकी बीवी, मिस्र की बेगमों और मिस्र के अधिकारियों के चरित्र एक दूसरे के मुक़ाबले में रख देता है [ताकि लोग देख लें कि] अल्लाह की बन्दगी और आख़िरत के हिसाब के विश्वास से [पैदा होनेवाले चरित्र कैसे होते हैंऔर दुनियापरस्ती और ईश्वर और परलोक के प्रति बेपरवाही के साँचों में ढलकर तैयार [होनेवाले चरित्रों का क्या हाल हुआ करता है ?] फिर इस क़िस्से से क़ुरआने-हकीम एक और गहरी सच्चाई भी इंसान के मन में बिठाता है, और वह यह है कि अल्लाह जिसे उठाना चाहता है, सारी दुनिया मिलकर भी उसे नहीं गिरा सकती, बल्कि दुनिया जिस उपाय को उसके गिराने का बड़ा कारगर और निश्चित उपाय समझकर अपनाती है, अल्लाह उसी उपाय में से उसके उठने की शक्लें निकाल देता है।

ऐतिहासिक और भौगोलिक परिस्थितियाँ

इस क़िस्से को समझने के लिए आवश्यक है कि संक्षेप में उसके बारे में कुछ ऐतिहासिक और भौगोलिक जानकारियाँ भी पाठकों के सामने रहें।

बाइबल के वर्णन के अनुसार हज़रत याकूब (अलैहि०) के बारह बेटे चार पत्नियों से थे। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) और उनके छोटे भाई बिन-यमीन एक पत्नी से और शेष दस दूसरी पलियों से । फ़िलस्तीन में हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का निवास स्थान हिबरून की घाटी में था। इसके अलावा उनकी कुछ ज़मीन सेकिम (वर्तमान नाबुलुस) में भी थी। बाइबल के विद्वानों की खोज अगर सही मान ली जाए तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की पैदाइश 1906 ई०पू० के लगभग ज़माने में हुई। सपना देखने और फिर कुएँ में फेंके जाने [की घटना उनकी सत्तरह वर्ष की उम्र में घटी]। जिस कुएँ में वे फेंके गए वह बाइबल और तलमूद की रिवायतों के अनुसार सेकिम के उत्तर में दूतन (वर्तमान दुसान) के क़रीब स्थित था और जिस क़ाफ़िले ने उन्हें कुएँ से निकाला वह जलआद (पूर्वी जार्डन) से आ रहा था और मिस्र की ओर जा रहा था। -मिस्र पर उस समय पन्द्रहवें वंश का शासन था जो मिस्री इतिहास में चरवाहे बादशाहों (Hyksos Kings) के नाम से याद किया जाता है। ये लोग अरबी नस्ल के थे और फ़िलस्तीन और शाम (Syria) से मिस्र (Egypt) जाकर दो हज़ार वर्ष ई०पू० के लगभग ज़माने में मिस्री राज्य पर क़ाबिज़ हो गए थे। यही कारण हुआ कि इनके शासन में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उन्नति-पथ पर आगे बढ़ने का मौक़ा मिला और फिर बनी-इसराईल वहाँ हाथों-हाथ लिए गए, क्योंकि वे उन विदेशी शासकों के वंश के थे। पन्द्रहवीं सदी ई०पू० के अन्त तक ये लोग मिस्र पर आधिक्य जमाए रहे और उनके ज़माने में देश की सम्पूर्ण सत्ता व्यावहारिक रूप में बनी-इसराईल के हाथ में रही। उसी दौर की ओर सूरा-5 (माइदा) आयत 20 में इशारा किया गया है कि “जब उसने तुममें नबी पैदा किए और तुम्हें शासक बनाया।” इसके बाद हिक्सूस सत्ता का तख़्ता उलटकर एक अति क्रूर क़िब्ती नस्ल का परिवार सत्ता में आ गया और उसने बनी-इसराईल पर उन अत्याचारों का सिलसिला शुरू किया जिनका उल्लेख हज़रत मूसा (अलैहि०) के क़िस्से में हुआ है। इन चरवाहे बादशाहों ने मिस्री देवताओं को स्वीकार नहीं किया था। यही कारण है कि क़ुरआन मजीद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के समकालीन बादशाह को फ़िरऔन' के नाम से याद नहीं करता, क्योंकि फ़िरऔन मिस्र का धार्मिक पारिभाषिक शब्द था, और ये लोग मिस्री धर्म के माननेवाले न थे।-

हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) 30 साल की उम्र में देश के शासक हुए और 90 साल तक बिना किसी को साझी बनाए पूरे मिस्र पर शासन करते रहे। अपने शासन के नवें या दसवें साल उन्होंने हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अपने पूरे परिवार के साथ फ़िलस्तीन से मिस्र बुला लिया और उस क्षेत्र में आबाद किया जो दिमयात और क़ाहिरा के बीच स्थित है। बाइबल में इस क्षेत्र का नाम जुशन या गोशन बताया गया है। हज़रत मूसा (अलैहि०) के समय तक ये लोग उसी क्षेत्र में आबाद रहे। बाइबल का बयान है कि हज़रत यूसुफ (अलैहि०) का देहावसान एक सौ दस साल की उम्र में हुआ और देहावसान के समय बनी-इसराईल को वसीयत की कि जब तुम इस देश से निकलो तो मेरी हड्डियाँ अपने साथ लेकर जाना।

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إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 1
(2) हमने इसे नाज़िल किया है क़ुरआन1 बनाकर अरबी ज़बान में ताकि तुम (अहले-अरब) इसको अच्छी तरह समझ सको।
1. क़ुरआन के लुग़वी (शाब्दिक) मानी हैं 'पढ़ना' और किताब को इस नाम से मौसूम करने का मतलब यह है कि यह आमो-ख़ास सबके पढ़ने के लिए है और ब-कसरत पढ़ी जानेवाली चीज़ है।
نَحۡنُ نَقُصُّ عَلَيۡكَ أَحۡسَنَ ٱلۡقَصَصِ بِمَآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ وَإِن كُنتَ مِن قَبۡلِهِۦ لَمِنَ ٱلۡغَٰفِلِينَ ۝ 2
(3) (ऐ नबी!) हम इस क़ुरआन को तुम्हारी तरफ़ वह्य करके बेहतरीन पैराए में वाक़िआत और हक़ाइक तुमसे बयान करते हैं, वरना इससे पहले चीज़ों से) तुम बिलकुल ही बेख़बर थे।
إِذۡ قَالَ يُوسُفُ لِأَبِيهِ يَٰٓأَبَتِ إِنِّي رَأَيۡتُ أَحَدَ عَشَرَ كَوۡكَبٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ رَأَيۡتُهُمۡ لِي سَٰجِدِينَ ۝ 3
(4) यह उस वक़्त का ज़िक्र है जब यूसुफ़ ने अपने बाप से कहा, “अब्बा-जान! मैंने ख़ाब देखा है कि ग्यारह सितारे हैं और सूरज और चाँद हैं और वे मुझे सजदा कर रहे हैं।”
قَالَ يَٰبُنَيَّ لَا تَقۡصُصۡ رُءۡيَاكَ عَلَىٰٓ إِخۡوَتِكَ فَيَكِيدُواْ لَكَ كَيۡدًاۖ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ لِلۡإِنسَٰنِ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 4
(5) जवाब में उसके बाप ने कहा, “बेटा! अपना यह ख़ाब अपने भाइयों को न सुनाना वरना वे तेरे दरपै आज़ार हो जाएँगे,2 हक़ीक़त यह है कि शैतान आदमी का खुला दुश्मन है।
2. हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के दस भाई दूसरी माँओं से थे और एक उनसे छोटा और उनका सगा भाई था। हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को मालूम था कि सौतेले भाई यूसुफ़ से हसद रखते हैं और अख़लाक़ के लिहाज़ से भी ऐसे सॉलेह नहीं हैं कि अपना मतलब निकालने के लिए कोई नारवा कार्रवाई करने में उन्हें कोई ताम्मुल हो, इसलिए उन्होंने अपने सॉलेह बेटे को मुतनब्बेह फ़रमा दिया कि उनसे होशियार रहना। ख़ाब का साफ़ मतलब यह था कि सूरज से मुराद हज़रत याक़ूब (अलैहि०), चाँद से मुराद उनकी बीवी (हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की सौतेली वालिदा) और ग्यारह सितारों से मुराद ग्यारह भाई हैं।
وَكَذَٰلِكَ يَجۡتَبِيكَ رَبُّكَ وَيُعَلِّمُكَ مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِ وَيُتِمُّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكَ وَعَلَىٰٓ ءَالِ يَعۡقُوبَ كَمَآ أَتَمَّهَا عَلَىٰٓ أَبَوَيۡكَ مِن قَبۡلُ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡحَٰقَۚ إِنَّ رَبَّكَ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 5
(6) और ऐसा ही होगा (जैसा तूने ख़ाब में देखा है कि), तेरा रब तुझे (अपने काम के लिए) मुंतख़ब करेगा और तुझे बातों की तह तक पहुँचना सिखाएगा3 और तेरे ऊपर और आले-याक़ूब पर अपनी नेमत उसी तरह पूरी करेगा जिस तरह इससे पहले वह तेरे बुजुर्गों, इबराहीम और इसहाक़ पर कर चुका है, यक़ीनन तेरा रब अलीम और हकीम है।”
3. अस्ल में 'तावीलिल-अहादीस' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं जिनका मतलब मह्ज़ ताबीर-ख़ाब का इल्म नहीं है जैसा कि गुमान किया गया है, बल्कि इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला तुझे मामला-फ़हमी और हक़ीक़त-रसी की तालीम देगा और वह बसीरत तुझको अता करेगा जिससे तू हर मामले की गहराई में उतरने और उसकी तह तक पहुँचने के क़ाबिल हो जाएगा।
۞لَّقَدۡ كَانَ فِي يُوسُفَ وَإِخۡوَتِهِۦٓ ءَايَٰتٞ لِّلسَّآئِلِينَ ۝ 6
(7) हक़ीक़त यह है कि यूसुफ़ और उसके भाइयों के क़िस्से में इन पूछनेवालों के लिए बड़ी निशानियाँ हैं।
إِذۡ قَالُواْ لَيُوسُفُ وَأَخُوهُ أَحَبُّ إِلَىٰٓ أَبِينَا مِنَّا وَنَحۡنُ عُصۡبَةٌ إِنَّ أَبَانَا لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 7
(8) यह क़िस्सा यूँ शुरू होता है कि उसके भाइयों ने आपस में कहा, “यह यूसुफ़ और इसका भाई,4 दोनों हमारे वालिद को सबसे ज़्यादा महबूब हैं, हालाँकि हम एक पूरा जत्था है, सच्ची बात यह है कि हमारे अब्बा-जान बिलकुल ही बहक गए हैं।
4. इससे मुराद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के हक़ीक़ी भाई बिन-यमीन हैं जो उनसे कई साल छोटे थे।
ٱقۡتُلُواْ يُوسُفَ أَوِ ٱطۡرَحُوهُ أَرۡضٗا يَخۡلُ لَكُمۡ وَجۡهُ أَبِيكُمۡ وَتَكُونُواْ مِنۢ بَعۡدِهِۦ قَوۡمٗا صَٰلِحِينَ ۝ 8
(9) चलो यूसुफ़ को क़त्ल कर दो या उसे कहीं फेंक दो ताकि तुम्हारे वालिद की तवज्जुह सिर्फ़ तुम्हारी ही तरफ़ हो जाए। यह काम कर लेने के बाद फिर नेक बन रहना।”
وَجَآءَتۡ سَيَّارَةٞ فَأَرۡسَلُواْ وَارِدَهُمۡ فَأَدۡلَىٰ دَلۡوَهُۥۖ قَالَ يَٰبُشۡرَىٰ هَٰذَا غُلَٰمٞۚ وَأَسَرُّوهُ بِضَٰعَةٗۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 9
(19) उधर एक क़ाफ़िला आया और उसने अपने सक़्क़े को पानी लाने के लिए भेजा। सक़्क़े ने जो कुएँ में डोल डाला तो (यूसुफ़ को देखकर) पुकार उठा, “मुबारक हो! यहाँ तो एक लड़का है।” उन लोगों ने उसको माले-तिजारत समझकर छिपा लिया, हालाँकि जो कुछ वे कर रहे थे ख़ुदा उससे बाख़बर था।
قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ لَا تَقۡتُلُواْ يُوسُفَ وَأَلۡقُوهُ فِي غَيَٰبَتِ ٱلۡجُبِّ يَلۡتَقِطۡهُ بَعۡضُ ٱلسَّيَّارَةِ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 10
(10) इसपर उनमें से एक बोला, “यूसुफ़ को क़त्ल न करो, अगर कुछ करना ही है तो उसे किसी अंधे कुँए में डाल दो, कोई आता-जाता क़ाफ़िला उसे निकाल ले जाएगा।”
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مَا لَكَ لَا تَأۡمَ۬نَّا عَلَىٰ يُوسُفَ وَإِنَّا لَهُۥ لَنَٰصِحُونَ ۝ 11
(11) इस क़रारदाद पर उन्होंने जाकर अपने बाप से कहा, “अब्बा-जान, क्या बात है कि आप यूसुफ़ के मामले में हमपर भरोसा नहीं करते हालाँकि हम उसके सच्चे ख़ैरख़ाह हैं?
وَشَرَوۡهُ بِثَمَنِۭ بَخۡسٖ دَرَٰهِمَ مَعۡدُودَةٖ وَكَانُواْ فِيهِ مِنَ ٱلزَّٰهِدِينَ ۝ 12
(20) आख़िरकार उन्होंने थोड़ी-सी क़ीमत पर चंद दिरहमों के एवज़ उसे बेच डाला और वे उसकी क़ीमत के मामले में कुछ ज़्यादा के उम्मीदवार न थे।
أَرۡسِلۡهُ مَعَنَا غَدٗا يَرۡتَعۡ وَيَلۡعَبۡ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 13
(12) कल उसे हमारे साथ भेज दीजिए, कुछ चर-चुग लेगा5 और खेल-कूद से भी दिल बहलाएगा। हम उसकी हिफ़ाज़त को मौजूद हैं।”
5. उर्दू मुहावरे में बच्चा अगर जंगल में चल-फिरकर कुछ फल तोड़ता और खाता फिरे तो उसके लिए प्यार के अंदाज़ में ये अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए जाते हैं।
وَقَالَ ٱلَّذِي ٱشۡتَرَىٰهُ مِن مِّصۡرَ لِٱمۡرَأَتِهِۦٓ أَكۡرِمِي مَثۡوَىٰهُ عَسَىٰٓ أَن يَنفَعَنَآ أَوۡ نَتَّخِذَهُۥ وَلَدٗاۚ وَكَذَٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوسُفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلِنُعَلِّمَهُۥ مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ وَٱللَّهُ غَالِبٌ عَلَىٰٓ أَمۡرِهِۦ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 14
(21) मिस्र के जिस शख़्स ने उसे ख़रीदा उसने अपनी बीवी से कहा, “इसको अच्छी तरह रखना, बईद नहीं कि यह हमारे लिए मुफ़ीद साबित हो या हम इसे बेटा बना लें।” इस तरह हमने यूसुफ़ के लिए उस सरज़मीन में क़दम जमाने की सूरत निकाली और उसे मामला-फ़हमी की तालीम देने का इन्तिज़ाम किया। अल्लाह अपना काम करके रहता है, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।
قَالَ إِنِّي لَيَحۡزُنُنِيٓ أَن تَذۡهَبُواْ بِهِۦ وَأَخَافُ أَن يَأۡكُلَهُ ٱلذِّئۡبُ وَأَنتُمۡ عَنۡهُ غَٰفِلُونَ ۝ 15
(13) बाप ने कहा, “तुम्हारा उसे ले जाना मुझे शाक़ गुज़रता है और मुझे अंदेशा है कि कहीं उसे भेड़िया न फाड़ खाए जबकि तुम उससे ग़ाफ़िल हो।”
وَلَمَّا بَلَغَ أَشُدَّهُۥٓ ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 16
(22) और जब वह अपनी पूरी जवानी को पहुँचा तो हमने उसे क़ुव्वते-फ़ैसला और इल्म अता किया, इस तरह हम नेक लोगों को जज़ा देते हैं।
قَالُواْ لَئِنۡ أَكَلَهُ ٱلذِّئۡبُ وَنَحۡنُ عُصۡبَةٌ إِنَّآ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ ۝ 17
(14) उन्होंने जवाब दिया, “अगर हमारे होते उसे भेड़िये ने खा लिया, जबकि हम एक जत्था हैं, तब तो हम बड़े ही निकम्मे होंगे।”
فَلَمَّا ذَهَبُواْ بِهِۦ وَأَجۡمَعُوٓاْ أَن يَجۡعَلُوهُ فِي غَيَٰبَتِ ٱلۡجُبِّۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِ لَتُنَبِّئَنَّهُم بِأَمۡرِهِمۡ هَٰذَا وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 18
(15) इस तरह इसरार करके जब वे उसे ले गए और उन्होंने तय कर लिया कि उसे एक अंधे कुँए में छोड़ दें, तो हमने यूसुफ़ को वह्य की कि “एक वक़्त आएगा जब तू इन लोगों को इनकी यह हरकत जताएगा, ये अपने फ़ेल के नताइज से बेख़बर हैं।”
وَجَآءُوٓ أَبَاهُمۡ عِشَآءٗ يَبۡكُونَ ۝ 19
(16) शाम को वे रोते-पीटते अपने बाप के पास आए।
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَآ إِنَّا ذَهَبۡنَا نَسۡتَبِقُ وَتَرَكۡنَا يُوسُفَ عِندَ مَتَٰعِنَا فَأَكَلَهُ ٱلذِّئۡبُۖ وَمَآ أَنتَ بِمُؤۡمِنٖ لَّنَا وَلَوۡ كُنَّا صَٰدِقِينَ ۝ 20
(17) और कहा, “अब्बा-जान, हम दौड़ का मुक़ाबला करने में लग गए थे और यूसुफ़ को हमने अपने सामान के पास छोड़ दिया था कि इतने में भेड़िया आकर उसे खा गया। आप हमारी बात का यक़ीन न करेंगे चाहे हम सच्चे ही हों।”
وَجَآءُو عَلَىٰ قَمِيصِهِۦ بِدَمٖ كَذِبٖۚ قَالَ بَلۡ سَوَّلَتۡ لَكُمۡ أَنفُسُكُمۡ أَمۡرٗاۖ فَصَبۡرٞ جَمِيلٞۖ وَٱللَّهُ ٱلۡمُسۡتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ ۝ 21
(18) और वे यूसुफ़ की क़मीज़ पर झूठ-मूठ का ख़ून लगाकर ले आए थे। यह सुनकर उनके बाप ने कहा, “बल्कि तुम्हारे नफ़्स ने तुम्हारे लिए एक बड़े काम को आसान बना दिया। अच्छा, सब्र करूँगा और बख़ूबी सब्र करूँगा, जो बात तुम बना रहे हो उसपर अल्लाह ही से मदद माँगी जा सकती है।”
فَلَمَّا سَمِعَتۡ بِمَكۡرِهِنَّ أَرۡسَلَتۡ إِلَيۡهِنَّ وَأَعۡتَدَتۡ لَهُنَّ مُتَّكَـٔٗا وَءَاتَتۡ كُلَّ وَٰحِدَةٖ مِّنۡهُنَّ سِكِّينٗا وَقَالَتِ ٱخۡرُجۡ عَلَيۡهِنَّۖ فَلَمَّا رَأَيۡنَهُۥٓ أَكۡبَرۡنَهُۥ وَقَطَّعۡنَ أَيۡدِيَهُنَّ وَقُلۡنَ حَٰشَ لِلَّهِ مَا هَٰذَا بَشَرًا إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا مَلَكٞ كَرِيمٞ ۝ 22
(31) उसने जो उनकी मक्काराना बातें सुनी तो उनको बुलावा भेज दिया और उनके लिए तकियादार मजलिस आरास्ता की और ज़ियाफ़त में हर एक के आगे एक-एक छुरी रख दी, (फिर ऐन उस वक़्त जबकि वे फल काट-काटकर खा रही थीं) उसने यूसुफ़ को इशारा किया कि उनके सामने निकल आ। जब उन औरतों की निगाह उसपर पड़ी तो वे दंग रह गईं और अपने हाथ काट बैठीं और बेसाख़्ता पुकार उठीं, “हाशा लिल्लाह! यह शख़्स इनसान नहीं है, यह तो कोई बुज़ुर्ग फ़रिश्ता है।”
قَالَتۡ فَذَٰلِكُنَّ ٱلَّذِي لُمۡتُنَّنِي فِيهِۖ وَلَقَدۡ رَٰوَدتُّهُۥ عَن نَّفۡسِهِۦ فَٱسۡتَعۡصَمَۖ وَلَئِن لَّمۡ يَفۡعَلۡ مَآ ءَامُرُهُۥ لَيُسۡجَنَنَّ وَلَيَكُونٗا مِّنَ ٱلصَّٰغِرِينَ ۝ 23
(32) अज़ीज़ की बीवी ने कहा, “देख लिया, यह है वह शख़्स जिसके मामले में तुम मुझपर बातें बनाती थीं। बेशक मैंने इसे रिझाने की कोशिश की थी मगर यह बच निकला, अगर यह मेरा कहना न मानेगा तो क़ैद किया जाएगा और बहुत ज़लील व ख़ार होगा।”
قَالَ رَبِّ ٱلسِّجۡنُ أَحَبُّ إِلَيَّ مِمَّا يَدۡعُونَنِيٓ إِلَيۡهِۖ وَإِلَّا تَصۡرِفۡ عَنِّي كَيۡدَهُنَّ أَصۡبُ إِلَيۡهِنَّ وَأَكُن مِّنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 24
(33) यूसुफ ने कहा, “ऐ मेरे रब! क़ैद मुझे मंजूर है, बनिस्बत इसके कि मैं वह काम करूँ जो ये लोग मुझसे चाहते हैं। और अगर तूने इनकी चालों को मुझसे दफ़ा न किया तो मैं इनके दामन में फँस जाऊँगा और जाहिलों में शामिल हो रहूँगा।”
فَٱسۡتَجَابَ لَهُۥ رَبُّهُۥ فَصَرَفَ عَنۡهُ كَيۡدَهُنَّۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 25
(34) — उसके रब ने उसकी दुआ क़ुबूल की और उन औरतों की चालें उससे दफ़ा कर दीं, बेशक वही है जो सबकी सुनता और सब कुछ जानता है।
ثُمَّ بَدَا لَهُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا رَأَوُاْ ٱلۡأٓيَٰتِ لَيَسۡجُنُنَّهُۥ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 26
(35) फिर उन लोगों को यह सूझी कि एक मुद्दत के लिए उसे क़ैद कर दें हालाँकि वे (उसकी पाकदामनी और ख़ुद अपनी औरतों के बुरे अतवार की) सरीह निशानियाँ देख चुके थे।10
10. इससे मालूम हुआ कि किसी शख़्स को शराइते-इनसाफ़ के मुताबिक़ अदालत में मुजरिम साबित किए बग़ैर, बस यूँ ही पकड़कर जेल भेज देना, बेईमान हुक्मरानों की पुरानी सुन्नत है। इस मामले में भी आज के शयातीन चार हज़ार बरस पहले के अशरार से कुछ बहुत ज़्यादा मुख़्तलिफ़ नहीं हैं।
وَدَخَلَ مَعَهُ ٱلسِّجۡنَ فَتَيَانِۖ قَالَ أَحَدُهُمَآ إِنِّيٓ أَرَىٰنِيٓ أَعۡصِرُ خَمۡرٗاۖ وَقَالَ ٱلۡأٓخَرُ إِنِّيٓ أَرَىٰنِيٓ أَحۡمِلُ فَوۡقَ رَأۡسِي خُبۡزٗا تَأۡكُلُ ٱلطَّيۡرُ مِنۡهُۖ نَبِّئۡنَا بِتَأۡوِيلِهِۦٓۖ إِنَّا نَرَىٰكَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 27
(36) क़ैदखाने में दो ग़ुलाम और भी उसके साथ दाख़िल हुए। एक रोज़ उनमें से एक ने कहा, “मैंने ख़ाब देखा है कि मैं शराब कशीद कर रहा हूँ।” दूसरे ने कहा, “मैंने देखा कि मेरे सर पर रोटियाँ रखी हैं और परिन्दे उनको खा रहे हैं।” दोनों ने कहा, “हमें इसकी ताबीर बताइए, हम देखते हैं कि आप एक नेक आदमी हैं।”
قَالَ لَا يَأۡتِيكُمَا طَعَامٞ تُرۡزَقَانِهِۦٓ إِلَّا نَبَّأۡتُكُمَا بِتَأۡوِيلِهِۦ قَبۡلَ أَن يَأۡتِيَكُمَاۚ ذَٰلِكُمَا مِمَّا عَلَّمَنِي رَبِّيٓۚ إِنِّي تَرَكۡتُ مِلَّةَ قَوۡمٖ لَّا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 28
(37) यूसुफ़ ने कहा, “यहाँ जो खाना तुम्हें मिला करता है उसके आने से पहले मैं तुम्हें इन ख़ाबों की ताबीर बता दूँगा। यह उन उलूम में से है जो मेरे रब ने मुझे अता किए हैं। वाक़िआ यह है कि मैंने उन लोगों का तरीक़ा छोड़कर जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और आख़िरत का इनकार करते हैं,
وَٱتَّبَعۡتُ مِلَّةَ ءَابَآءِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَۚ مَا كَانَ لَنَآ أَن نُّشۡرِكَ بِٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۚ ذَٰلِكَ مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ عَلَيۡنَا وَعَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 29
(38) अपने बुज़ुर्गों, इबराहीम, इसहाक़ और याक़ूब का तरीक़ा इख़्तियार किया है। हमारा यह काम नहीं है कि अल्लाह के साथ किसी को शरीक ठहराएँ। दर-हक़ीक़त यह अल्लाह का फ़ज़्ल है हमपर और तमाम इनसानों पर (कि उसने अपने सिवा किसी का बन्दा हमें नहीं बनाया), मगर अकसर लोग शुक्र नहीं करते।
يَٰصَٰحِبَيِ ٱلسِّجۡنِ ءَأَرۡبَابٞ مُّتَفَرِّقُونَ خَيۡرٌ أَمِ ٱللَّهُ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّارُ ۝ 30
(39) ऐ ज़िन्दाँ के साथियो! तुम ख़ुद ही सोचो कि बहुत-से मुतफ़र्रिक़ रब बेहतर हैं या वह एक अल्लाह जो सबपर ग़ालिब है?
مَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِهِۦٓ إِلَّآ أَسۡمَآءٗ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٍۚ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِ أَمَرَ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّآ إِيَّاهُۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 31
(40) उसको छोड़कर तुम जिनकी बन्दगी कर रहे हो वे इसके सिवा कुछ नहीं है कि बस चंद नाम हैं जो तुमने और तुम्हारे आबा व अजदाद ने रख लिए हैं, अल्लाह ने उनके लिए कोई सनद नाज़िल नहीं की। फ़रमाँरवाई का इक़तिदार अल्लाह के सिवा किसी के लिए नहीं है। उसका हुक्म है कि ख़ुद उसके सिवा तुम किसी की बन्दगी न करो। यही ठेठ सीधा तरीक़े-ज़िन्दगी है, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।
يَٰصَٰحِبَيِ ٱلسِّجۡنِ أَمَّآ أَحَدُكُمَا فَيَسۡقِي رَبَّهُۥ خَمۡرٗاۖ وَأَمَّا ٱلۡأٓخَرُ فَيُصۡلَبُ فَتَأۡكُلُ ٱلطَّيۡرُ مِن رَّأۡسِهِۦۚ قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ٱلَّذِي فِيهِ تَسۡتَفۡتِيَانِ ۝ 32
(41) ऐ ज़िन्दाँ के साथियो! तुम्हारे ख़ाब की ताबीर यह है कि तुममें से तो अपने रब (शाहे-मिस्र11) को शराब पिलाएगा, रहा दूसरा तो उसे सूली पर चढ़ाया जाएगा और परिन्दे उसका सर नोच-नोचकर खाएँगे। फ़ैसला हा गया उस बात का जो तुम पूछ रहे थे।”
11. आयत-23 के साथ इस आयत को मिलाकर पढ़ा जाए तो मालूम हो जाता है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने जब मेरा रब कहा तो उससे मुराद अल्लाह तआला की ज़ात थी और जब शाहे-मिस्र के ग़ुलाम से कहा कि तू अपने रब को शराब पिलाएगा तो उससे मुराद शाहे-मिस्र था, क्योंकि वह मिस्र के बादशाह ही को अपना रब समझता था।
وَقَالَ لِلَّذِي ظَنَّ أَنَّهُۥ نَاجٖ مِّنۡهُمَا ٱذۡكُرۡنِي عِندَ رَبِّكَ فَأَنسَىٰهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ ذِكۡرَ رَبِّهِۦ فَلَبِثَ فِي ٱلسِّجۡنِ بِضۡعَ سِنِينَ ۝ 33
(42) फिर उनमें से जिसके मुताल्लिक़ ख़याल था कि वह रिहा हो जाएगा उससे युसुफ़ ने कहा कि “अपने रब (शाहे-मिस्र) से मेरा ज़िक्र करना।” मगर शैतान ने उसे ऐसा ग़फ़लत में डाला कि वह अपने रब से उसका ज़िक्र करना भूल गया और यूसुफ़ कई साल क़ैदखाने में पड़ा रहा।
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ إِنِّيٓ أَرَىٰ سَبۡعَ بَقَرَٰتٖ سِمَانٖ يَأۡكُلُهُنَّ سَبۡعٌ عِجَافٞ وَسَبۡعَ سُنۢبُلَٰتٍ خُضۡرٖ وَأُخَرَ يَابِسَٰتٖۖ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَأُ أَفۡتُونِي فِي رُءۡيَٰيَ إِن كُنتُمۡ لِلرُّءۡيَا تَعۡبُرُونَ ۝ 34
(43) एक रोज़12 बादशाह ने कहा, “मैंने ख़ाब में देखा है कि सात मोटी गायें हैं जिनको सात दुबली गायें खा रही हैं, और अनाज की सात बालें हरी हैं और दूसरी सात सूखी। ऐ अहले-दरबार! मुझे इस ख़ाब की ताबीर बताओ अगर तुम ख़ाबों का मतलब समझते हो।”
12. बीच में कई साल के ज़माना-ए-क़ैद का हाल छोड़कर अब सरे-रिश्ता-ए-बयान उस मक़ाम से जोड़ा जाता है जहाँ से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का दुनयवी उरूज शुरू हुआ है।
قَالُوٓاْ أَضۡغَٰثُ أَحۡلَٰمٖۖ وَمَا نَحۡنُ بِتَأۡوِيلِ ٱلۡأَحۡلَٰمِ بِعَٰلِمِينَ ۝ 35
(44) लोगों ने कहा, “यह तो परेशान ख़ाबों की बातें हैं और हम इस तरह के ख़ाबों का मतलब नहीं जानते।”
وَقَالَ ٱلَّذِي نَجَا مِنۡهُمَا وَٱدَّكَرَ بَعۡدَ أُمَّةٍ أَنَا۠ أُنَبِّئُكُم بِتَأۡوِيلِهِۦ فَأَرۡسِلُونِ ۝ 36
(45) उन दो क़ैदियों में से जो शख़्स बच गया था और उसे एक मुद्दते-दराज़ के बाद अब बात याद आई, और उसने कहा, “मैं आप हज़रात को इसकी तावील बताता हूँ, मुझे ज़रा (क़ैदख़ाने में यूसुफ़ के पास) भेज दीजिए।”
يُوسُفُ أَيُّهَا ٱلصِّدِّيقُ أَفۡتِنَا فِي سَبۡعِ بَقَرَٰتٖ سِمَانٖ يَأۡكُلُهُنَّ سَبۡعٌ عِجَافٞ وَسَبۡعِ سُنۢبُلَٰتٍ خُضۡرٖ وَأُخَرَ يَابِسَٰتٖ لَّعَلِّيٓ أَرۡجِعُ إِلَى ٱلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 37
(46) उसने जाकर कहा, “यूसुफ़, ऐ सरापा रास्ती!13 मुझे इस ख़ाब का मतलब बता कि सात मोटी गायें हैं जिनको सात दुबली गायें खा रही हैं और सात बालें हरी हैं और सात सूखी, शायद कि मैं उन लोगों के पास वापस जाऊँ और शायद कि वे जान लें।14
13. अस्ल में लफ़्ज़ 'सिद्दीक़' इस्तेमाल हुआ है जो अरबी ज़बान में सच्चाई और रास्तबाज़ी के इन्तिहाई मर्तबे के लिए इस्तेमाल होता है, इससे यह अंदाजा किया जा सकता है कि क़ैदख़ाने के ज़माना-ए-क़ियाम में उस शख़्स ने यूसुफ़ (अलैहि०) की सीरते-पाक से कैसा गहरा असर लिया था और यह असर एक मुद्दते-दराज़ गुज़र जाने के बाद भी कितना रासिख़ था।
14. यानी आपकी क़द्र व मंज़िलत जान लें और उनको एहसास हो कि किस पाए के आदमी को उन्होंने कहाँ बन्द कर रखा है और इस तरह मुझे अपना वह वादा पूरा करने का मौक़ा मिल जाए जो मैंने आपसे क़ैद के ज़माने में किया था।
قَالَ تَزۡرَعُونَ سَبۡعَ سِنِينَ دَأَبٗا فَمَا حَصَدتُّمۡ فَذَرُوهُ فِي سُنۢبُلِهِۦٓ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّا تَأۡكُلُونَ ۝ 38
(47) यूसुफ़ ने कहा, “सात बरस तक लगातार तुम खेती-बाड़ी करते रहोगे। उस दौरान में जो फ़सलें तुम काटो उनमें से बस थोड़ा-सा हिस्सा, जो तुम्हारी ख़ुराक के काम आए, निकालो और बाक़ी को उसकी बालों ही में रहने दो।
ثُمَّ يَأۡتِي مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ سَبۡعٞ شِدَادٞ يَأۡكُلۡنَ مَا قَدَّمۡتُمۡ لَهُنَّ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّا تُحۡصِنُونَ ۝ 39
(48) फिर सात बरस बहुत सख़्त आएँगे। उस ज़माने में वह सब ग़ल्ला खा लिया जाएगा जो तुम उस वक़्त के लिए जमा करोगे। अगर कुछ बचेगा तो बस वही जो तुमने महफ़ूज़ कर रखा हो।
ثُمَّ يَأۡتِي مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ عَامٞ فِيهِ يُغَاثُ ٱلنَّاسُ وَفِيهِ يَعۡصِرُونَ ۝ 40
(49) इसके बाद फिर एक साल ऐसा आएगा जिसमें बाराने-रहमत से लोगों की फ़रियाद-रसी की जाएगी और वे रस निचोड़ेंगे।”
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ ٱئۡتُونِي بِهِۦۖ فَلَمَّا جَآءَهُ ٱلرَّسُولُ قَالَ ٱرۡجِعۡ إِلَىٰ رَبِّكَ فَسۡـَٔلۡهُ مَا بَالُ ٱلنِّسۡوَةِ ٱلَّٰتِي قَطَّعۡنَ أَيۡدِيَهُنَّۚ إِنَّ رَبِّي بِكَيۡدِهِنَّ عَلِيمٞ ۝ 41
(50) बादशाह ने कहा, “उसे मेरे पास लाओ।” मगर जब शाही फ़रिस्तादा यूसुफ़ के पास पहुँचा तो उसने कहा, “अपने रब के पास वापस जा और उससे पूछ कि उन औरतों का क्या मामला है जिन्होंने अपने हाथ काट लिए थे? मेरा रब तो उनकी मक्कारी से वाक़िफ़ ही है।”
قَالَ مَا خَطۡبُكُنَّ إِذۡ رَٰوَدتُّنَّ يُوسُفَ عَن نَّفۡسِهِۦۚ قُلۡنَ حَٰشَ لِلَّهِ مَا عَلِمۡنَا عَلَيۡهِ مِن سُوٓءٖۚ قَالَتِ ٱمۡرَأَتُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡـَٰٔنَ حَصۡحَصَ ٱلۡحَقُّ أَنَا۠ رَٰوَدتُّهُۥ عَن نَّفۡسِهِۦ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 42
(51) इसपर बादशाह ने उन औरतों से दरयाफ़्त किया, “तुम्हारा क्या तजरिबा है उस वक़्त का जब तुमने यूसुफ़ को रिझाने की कोशिश की थी? “सबने यक ज़बान होकर कहा, “हाशा लिल्लाह! हमने तो उसमें बदी का शाइबा तक न पाया।” अज़ीज़ की बीवी बोल उठी, “अब हक़ खुल चुका है, वह मैं ही थी जिसने उसको फिसलाने की कोशिश की थी, बेशक वह बिलकुल सच्चा है।”
ذَٰلِكَ لِيَعۡلَمَ أَنِّي لَمۡ أَخُنۡهُ بِٱلۡغَيۡبِ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي كَيۡدَ ٱلۡخَآئِنِينَ ۝ 43
(52) (यूसुफ़ ने कहा) इससे मेरी ग़रज़ यह थी कि (अज़ीज़) यह जान ले कि मैंने दरपरदा उसकी ख़ियानत नहीं की थी, और यह कि जो ख़ियानत करते हैं उनकी चालों को अल्लाह कामयाबी की राह पर नहीं लगाता।
۞وَمَآ أُبَرِّئُ نَفۡسِيٓۚ إِنَّ ٱلنَّفۡسَ لَأَمَّارَةُۢ بِٱلسُّوٓءِ إِلَّا مَا رَحِمَ رَبِّيٓۚ إِنَّ رَبِّي غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 44
(53) मैं कुछ अपने नफ़्स की बराअत नहीं कर रहा हूँ, नफ़्स तो बदी पर उकसाता ही इल्ला यह कि किसी पर मेरे रब की रहमत हो, बेशक मेरा रब बड़ा ग़फ़ूरुर्रहीम है।”
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ ٱئۡتُونِي بِهِۦٓ أَسۡتَخۡلِصۡهُ لِنَفۡسِيۖ فَلَمَّا كَلَّمَهُۥ قَالَ إِنَّكَ ٱلۡيَوۡمَ لَدَيۡنَا مَكِينٌ أَمِينٞ ۝ 45
(54) बादशाह ने कहा, “उन्हें मेरे पास लाओ ताकि मैं उनको अपने लिए मख़सूस कर लूँ।” जब यूसुफ़ ने उससे गुफ़्तगू की तो उसने कहा, “अब आप हमारे हाँ क़द्र व मंज़िलत रखते हैं और आपकी अमानत पर पूरा भरोसा है।”
قَالَ ٱجۡعَلۡنِي عَلَىٰ خَزَآئِنِ ٱلۡأَرۡضِۖ إِنِّي حَفِيظٌ عَلِيمٞ ۝ 46
(55) यूसुफ़ ने कहा, “मुल्क के ख़ज़ाने मेरे सिपुर्द कीजिए, मैं हिफ़ाज़त करनेवाला भी और इल्म भी रखता हूँ।
وَكَذَٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوسُفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَتَبَوَّأُ مِنۡهَا حَيۡثُ يَشَآءُۚ نُصِيبُ بِرَحۡمَتِنَا مَن نَّشَآءُۖ وَلَا نُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 47
(56) इस तरह हमने उस सरज़मीन में यूसुफ़ के लिए इक़तिदार की राह हमवार की। वह मुख़्तार था कि उसमें जहाँ चाहे अपनी जगह बनाए,15 हम अपनी रहमत से जिसको चाहते हैं नवाज़ते हैं, नेक लोगों का अज्र हमारे यहाँ मारा नहीं जाता,
15. यानी अब सारी सरज़मीने-मिस्र उसकी थी। उसकी हर जगह को वह अपनी जगह कह सकता था। वहाँ कोई गोशा भी ऐसा न रहा था जो उससे रोका जा सकता हो। यह गोया उस कामिल तसल्लुत और हमागीर इक़तिदार का बयान है जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उस मुल्क पर हासिल था। क़दीम मुफ़स्सिरीन भी इस आयत की यही तफ़सीर करते हैं, चुनाँचे इब्ने-ज़ैद इसके मानी बयान करते हैं कि “हमने यूसुफ़ को उन सब चीज़ों का मालिक बना दिया जो मिस्र में थीं, दुनिया के उस हिस्से में वह जहाँ जो कुछ चाहता कर सकता था। वह सरज़मीन उसके हवाले कर दी गई थी, हत्ता कि अगर वह चाहता कि फ़िरऔन को अपने ज़ेरे-दस्त कर ले और ख़ुद उससे बालातर हो जाए तो यह भी कर सकता था।” मुजाहिद का ख़याल है कि बादशाहे-मिस्र ने यूसुफ़ (अलैहि०) के हाथ पर इस्लाम क़ुबूल कर लिया था।
وَلَأَجۡرُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 48
(57) और आख़िरत का अज्र उन लोगों के लिए ज़्यादा बेहतर है जो ईमान ले आए और ख़ुदा-तरसी के साथ काम करते रहे।
وَجَآءَ إِخۡوَةُ يُوسُفَ فَدَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَعَرَفَهُمۡ وَهُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 49
(58) यूसुफ़ के भाई मिस्र आए और उसके यहाँ हाज़िर हुए।16 उसने उन्हें पहचान लिया मगर वे उससे नाआशना थे।
16. यहाँ फिर सात-आठ बरस के वाक़िआत दरमियान में छोड़कर सिलसिला-ए-बयान उस जगह से जोड़ दिया गया है जहाँ से बनी-इसराईल के मिस्र मुन्तक़िल होने की इबतिदा हुई।
وَلَمَّا جَهَّزَهُم بِجَهَازِهِمۡ قَالَ ٱئۡتُونِي بِأَخٖ لَّكُم مِّنۡ أَبِيكُمۡۚ أَلَا تَرَوۡنَ أَنِّيٓ أُوفِي ٱلۡكَيۡلَ وَأَنَا۠ خَيۡرُ ٱلۡمُنزِلِينَ ۝ 50
(59) फिर जब उसने उनका सामान तैयार करवा दिया तो चलते वक़्त उनसे कहा, “अपने सौतेले भाई को मेरे पास लाना। देखते नहीं हो कि मैं किस तरह पैमाना भरकर देता हूँ और कैसा अच्छा मेहमाननवाज़ हूँ!
فَإِن لَّمۡ تَأۡتُونِي بِهِۦ فَلَا كَيۡلَ لَكُمۡ عِندِي وَلَا تَقۡرَبُونِ ۝ 51
(60) अगर तुम उसे न लाओगे तो मेरे पास तुम्हारे लिए कोई ग़ल्ला नहीं है, बल्कि तुम मेरे क़रीब भी न फटकना।17
17. यह बात हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने इस बिना पर फ़रमाई होगी कि क़हत की वजह से मिस्र में ग़ल्ले पर कंट्रोल था। ग़ल्ला लेने के लिए ये दस भाई आए थे, मगर वे अपने वालिद और अपने ग्यारहवें भाई का हिस्सा भी माँगते होंगे। इसपर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने कहा होगा कि तुम्हारे वालिद के ख़ुद न आने के लिए तो यह उज़्र माक़ूल हो सकता है कि वे बहुत बूढ़े और नाबीना हैं, मगर भाई के न आने का क्या माक़ूल सबब हो सकता है? ख़ैर, इस वक़्त तो हम तुम्हारी ज़बान का एतिबार करके तुमको पूरा ग़ल्ला दे देते हैं, मगर आइन्दा अगर तुम उसको साथ न लाए तो तुम्हारा एतिबार जाता रहेगा और तुम्हें यहाँ से कोई ग़ल्ला न मिलेगा।
قَالُواْ سَنُرَٰوِدُ عَنۡهُ أَبَاهُ وَإِنَّا لَفَٰعِلُونَ ۝ 52
(61) उन्होंने कहा, “हम कोशिश करेंगे कि वालिद साहब उसे भेजने पर राज़ी हो जाएँ, और हम ऐसा ज़रूर करेंगे।”
وَقَالَ لِفِتۡيَٰنِهِ ٱجۡعَلُواْ بِضَٰعَتَهُمۡ فِي رِحَالِهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَعۡرِفُونَهَآ إِذَا ٱنقَلَبُوٓاْ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 53
(62) यूसुफ़ ने अपने ग़ुलामों को इशारा किया कि “इन लोगों नें ग़ल्ले के एवज़ जो माल दिया है वह चुपके से इनके सामान ही में रख दो।” यह यूसुफ़ ने इस उम्मीद पर किया कि घर पहुँचकर वे अपना वापस पाया हुआ माल पहचान जाएँगे (या इस फ़ैयाज़ी पर एहसानमन्द होंगे) और अजब नहीं कि फिर पलटें।
فَلَمَّا رَجَعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَبِيهِمۡ قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مُنِعَ مِنَّا ٱلۡكَيۡلُ فَأَرۡسِلۡ مَعَنَآ أَخَانَا نَكۡتَلۡ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 54
(63) जब वे अपने बाप के पास गए तो कहा, “अब्बा-जान! आइन्दा हमको देने से इनकार कर दिया गया है, लिहाज़ा आप हमारे भाई को हमारे साथ भेज दीजिए ताकि हम ग़ल्ला लेकर आएँ। और उसकी हिफ़ाज़त के हम जिम्मेदार हैं।”
قَالَ هَلۡ ءَامَنُكُمۡ عَلَيۡهِ إِلَّا كَمَآ أَمِنتُكُمۡ عَلَىٰٓ أَخِيهِ مِن قَبۡلُ فَٱللَّهُ خَيۡرٌ حَٰفِظٗاۖ وَهُوَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 55
(64) बाप ने जवाब दिया, “क्या मैं उसके मामले में तुमपर वैसा ही भरोसा करूँ जैसा इससे पहले उसके भाई के मामले में कर चुका हूँ? अल्लाह ही बेहतर मुहाफ़िज़ है और वह सबसे बढ़कर रहम फ़रमानेवाला है।”
وَلَمَّا فَتَحُواْ مَتَٰعَهُمۡ وَجَدُواْ بِضَٰعَتَهُمۡ رُدَّتۡ إِلَيۡهِمۡۖ قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مَا نَبۡغِيۖ هَٰذِهِۦ بِضَٰعَتُنَا رُدَّتۡ إِلَيۡنَاۖ وَنَمِيرُ أَهۡلَنَا وَنَحۡفَظُ أَخَانَا وَنَزۡدَادُ كَيۡلَ بَعِيرٖۖ ذَٰلِكَ كَيۡلٞ يَسِيرٞ ۝ 56
(65) फिर जब उन्होंने अपना सामान खोला तो देखा कि उनका माल भी उन्हें वापस कर दिया गया है। यह देखकर वे पुकार उठे, “अब्बा-जान! और हमें क्या चाहिए, देखिए यह हमारा माल भी हमें वापस दे दिया गया है। बस, अब हम जाएँगे और अपने अहलो-अयाल के लिए रसद लेकर आएँगे, अपने भाई की हिफ़ाज़त भी करेंगे और एक बारे-शुतर और ज़्यादा भी लाएँगे, इतने ग़ल्ले का इज़ाफ़ा आसानी के साथ हो जाएगा।”
سُورَةُ يُوسُفَ
12. सूरा यूसुफ़
قَالَ لَنۡ أُرۡسِلَهُۥ مَعَكُمۡ حَتَّىٰ تُؤۡتُونِ مَوۡثِقٗا مِّنَ ٱللَّهِ لَتَأۡتُنَّنِي بِهِۦٓ إِلَّآ أَن يُحَاطَ بِكُمۡۖ فَلَمَّآ ءَاتَوۡهُ مَوۡثِقَهُمۡ قَالَ ٱللَّهُ عَلَىٰ مَا نَقُولُ وَكِيلٞ ۝ 57
(66) उनके बाप ने कहा, “मैं उसको हरगिज़ तुम्हारे साथ न भेजूँगा जब तक कि तुम अल्लाह के नाम से मुझको पैमान न दे दो कि उसे मेरे पास ज़रूर वापस लेकर आओगे, इल्ला यह कि तुम घेर ही लिए जाओ। “जब उन्होंने उसको अपने अपने पैमान दे दिए तो उसने कहा, “देखो, हमारे इस क़ौल पर अल्लाह निगहबान है।”
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَقَالَ يَٰبَنِيَّ لَا تَدۡخُلُواْ مِنۢ بَابٖ وَٰحِدٖ وَٱدۡخُلُواْ مِنۡ أَبۡوَٰبٖ مُّتَفَرِّقَةٖۖ وَمَآ أُغۡنِي عَنكُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٍۖ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۖ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُۖ وَعَلَيۡهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُتَوَكِّلُونَ ۝ 58
(67) फिर उसने कहा, “मेरे बच्चो! मिस्र के दारुस-सल्तनत में एक दरवाज़े से दाख़िल न होना,18 बल्कि मुख़्तलिफ़ दरवाज़ों से जाना। मगर मैं अल्लाह की मशीयत से तुमको नहीं बचा सकता, हुक्म उसके सिवा किसी का भी नहीं चलता, उसी पर मैंने भरोसा किया और जिसको भी भरोसा करना हो उसी पर करे।”
18. ग़ालिबन हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अंदेशा हुआ होगा कि इस क़हत के ज़माने में अगर ये लोग एक जत्था बने हुए मिस्र में दाख़िल होंगे तो शायद उन्हें मुश्तबह समझा जाए और यह गुमान किया जाए कि ये यहाँ लूट-मार करने की ग़रज़ से आए हैं।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ
(1) अलिफ़-लाम-रॉ। ये उस किताब की आयात हैं जो अपना मुद्दा साफ़-साफ़ बयान करती है।
وَلَمَّا دَخَلُواْ مِنۡ حَيۡثُ أَمَرَهُمۡ أَبُوهُم مَّا كَانَ يُغۡنِي عَنۡهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٍ إِلَّا حَاجَةٗ فِي نَفۡسِ يَعۡقُوبَ قَضَىٰهَاۚ وَإِنَّهُۥ لَذُو عِلۡمٖ لِّمَا عَلَّمۡنَٰهُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 59
(68) और वाक़िआ भी यही हआ कि जब वे अपने बाप की हिदायत के मुताबिक़ शहर में (मुतफ़र्रिक़ दरवाज़ों से) दाख़िल हुए तो उसकी यह एहतियाती तदबीर अल्लाह की मशीयत के मुक़ाबले में कुछ भी काम न आ सकी। हाँ, बस याक़ूब के दिल में जो एक खटक थी उसे दूर करने के लिए उसने अपनी-सी कोशिश कर ली। बेशक वह हमारी दी हुई तालीम से साहिबे-इल्म था मगर अकसर लोग मामले की हक़ीक़त को जानते नहीं हैं।
وَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَىٰ يُوسُفَ ءَاوَىٰٓ إِلَيۡهِ أَخَاهُۖ قَالَ إِنِّيٓ أَنَا۠ أَخُوكَ فَلَا تَبۡتَئِسۡ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 60
(69) ये लोग यूसुफ़ के हुज़ूर पहुँचे तो उसने अपने भाई को अपने पास अलग बुला लिया और उसे बता दिया कि “मैं तेरा वही भाई हूँ (जो खोया गया था), अब तू उन बातों का ग़म न कर जो ये लोग करते रहे हैं।”19
19. ग़ालिबन इस मुलाक़ात में बिन-यमीन ने सुनाया होगा कि उनके पीछे सौतेले भाइयों ने उससे क्या-क्या बद-सुलूकियाँ कीं और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने भाई को तसल्ली दी होगी कि अब तुम मेरे पास ही रहोगे, इन ज़ालिमों के पंजे में तुमको दोबारा नहीं जाने दूँगा। बईद नहीं कि इस मौक़े पर दोनों भाइयों में यह भी तय हो गया हो कि बिन-यमीन को मिस्र में रोक रखने के लिए क्या तदबीर की जाएगी जिससे वह परदा भी पड़ा रहे जो हज़रत यूसुफ (अलैहि०) मस्लहतन अभी डाले रखना चाहते थे।
فَلَمَّا جَهَّزَهُم بِجَهَازِهِمۡ جَعَلَ ٱلسِّقَايَةَ فِي رَحۡلِ أَخِيهِ ثُمَّ أَذَّنَ مُؤَذِّنٌ أَيَّتُهَا ٱلۡعِيرُ إِنَّكُمۡ لَسَٰرِقُونَ ۝ 61
(70) जब यूसुफ़ उन भाइयों का सामान लदवाने लगा तो उसने अपने भाई के सामान में अपना प्याला रख दिया। फिर एक पुकारनेवाले ने पुकारकर कहा, “ऐ क़ाफ़िलेवालो! तुम लोग चोर हो।”
ٱرۡجِعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَبِيكُمۡ فَقُولُواْ يَٰٓأَبَانَآ إِنَّ ٱبۡنَكَ سَرَقَ وَمَا شَهِدۡنَآ إِلَّا بِمَا عَلِمۡنَا وَمَا كُنَّا لِلۡغَيۡبِ حَٰفِظِينَ ۝ 62
(81) तुम जाकर अपने वालिद से कहो कि अब्बा-जान! आपके साहिबज़ादे ने चोरी की है। हमने उसे चोरी करते हुए नहीं देखा। जो कुछ हम मालूम हुआ है बस वही हम बयान कर रहे हैं, और ग़ैब की निगहबानी तो हम न कर सकते थे।
قَالُواْ وَأَقۡبَلُواْ عَلَيۡهِم مَّاذَا تَفۡقِدُونَ ۝ 63
(71) उन्होंने पलटकर पूछा, “तुम्हारी क्या चीज़ खोई गई?”
قَالُواْ نَفۡقِدُ صُوَاعَ ٱلۡمَلِكِ وَلِمَن جَآءَ بِهِۦ حِمۡلُ بَعِيرٖ وَأَنَا۠ بِهِۦ زَعِيمٞ ۝ 64
(72) सरकारी मुलाज़िमों ने कहा, “बादशाह का पैमाना हमको नहीं मिलता।” (और उनके जमादार ने कहा) “जो शख़्स लाकर देगा उसके लिए एक बारे-शुतर इनाम है, इसका मैं ज़िम्मा लेता हूँ।”
وَسۡـَٔلِ ٱلۡقَرۡيَةَ ٱلَّتِي كُنَّا فِيهَا وَٱلۡعِيرَ ٱلَّتِيٓ أَقۡبَلۡنَا فِيهَاۖ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 65
(82) आप उस बस्ती के लोगों से पूछ लीजिए जहाँ हम थे। उस क़ाफ़िले से दरयाफ़्त कर लीजिए जिसके साथ हम आए हैं। हम अपने बयान में बिलकुल सच्चे हैं।”
قَالُواْ تَٱللَّهِ لَقَدۡ عَلِمۡتُم مَّا جِئۡنَا لِنُفۡسِدَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا كُنَّا سَٰرِقِينَ ۝ 66
(73) उन भाइयों ने कहा, “ख़ुदा की क़सम! तुम लोग ख़ूब जानते हो कि हम इस मुल्क में फ़साद करने नहीं आए हैं और हम चोरियाँ करनेवाले लोग नहीं हैं।”
قَالَ بَلۡ سَوَّلَتۡ لَكُمۡ أَنفُسُكُمۡ أَمۡرٗاۖ فَصَبۡرٞ جَمِيلٌۖ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَأۡتِيَنِي بِهِمۡ جَمِيعًاۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 67
(83) बाप ने यह दास्तान सुनकर कहा, “दरअस्ल तुम्हारे नफ़्स ने तुम्हारे लिए एक और बड़ी बात को सहल बना दिया।23 अच्छा, इसपर भी सब्र करूँगा और बख़ूबी करूँगा। क्या बईद कि अल्लाह उन सबको मुझसे मिलाए, वह सब कुछ जानता है और उसके सब काम हिकमत पर मबनी हैं।”
23. 23. यानी तुम्हारे नज़दीक यह बावर कर लेना बहुत आसान है कि मेरा बेटा जिसके हुस्ने-सीरत से मैं ख़ूब वाक़िफ़ हूँ, एक प्याले की चोरी का मुर्तकिब हो सकता है। पहले तुम्हारे लिए अपने भाई को जान-बूझकर गुम कर देना और उसकी क़मीज़ पर झूठा ख़ून लगाकर ले आना बहुत आसान काम हो गया था। अब एक दूसरे भाई को वाक़ई चोर मान लेना और मुझे आकर उसकी ख़बर देना भी वैसा ही आसान हो गया।
قَالُواْ فَمَا جَزَٰٓؤُهُۥٓ إِن كُنتُمۡ كَٰذِبِينَ ۝ 68
(74) उन्होंने कहा, “अच्छा, अगर तुम्हारी बात झूठी निकली तो चोरी की क्या सज़ा है?”
وَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰٓأَسَفَىٰ عَلَىٰ يُوسُفَ وَٱبۡيَضَّتۡ عَيۡنَاهُ مِنَ ٱلۡحُزۡنِ فَهُوَ كَظِيمٞ ۝ 69
(84) फिर वह उनकी तरफ़ से मुँह फेरकर बैठ गया और कहने लगा कि “हाय यूसुफ़!” — वह दिल-ही-दिल में ग़म से घुटा जा रहा था और उसकी आँखें सफ़ेद पड़ गई थीं।
قَالُواْ جَزَٰٓؤُهُۥ مَن وُجِدَ فِي رَحۡلِهِۦ فَهُوَ جَزَٰٓؤُهُۥۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 70
(75) उन्होंने कहा, “इसकी सज़ा? जिसके सामान में से चीज़ निकले वह आप ही अपनी सज़ा में रख लिया जाए, हमारे यहाँ तो ऐसे ज़ालिमों को सज़ा देने का यही तरीक़ा है।”
فَبَدَأَ بِأَوۡعِيَتِهِمۡ قَبۡلَ وِعَآءِ أَخِيهِ ثُمَّ ٱسۡتَخۡرَجَهَا مِن وِعَآءِ أَخِيهِۚ كَذَٰلِكَ كِدۡنَا لِيُوسُفَۖ مَا كَانَ لِيَأۡخُذَ أَخَاهُ فِي دِينِ ٱلۡمَلِكِ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ نَرۡفَعُ دَرَجَٰتٖ مَّن نَّشَآءُۗ وَفَوۡقَ كُلِّ ذِي عِلۡمٍ عَلِيمٞ ۝ 71
(76) तब यूसुफ़ ने अपने भाई से पहले उनकी ख़ुरजियों की तलाशी लेनी शुरू की, फिर अपने भाई की ख़ुरजी से गुमशुदा चीज़ बरामद कर ली। — इस तरह हमने यूसुफ़ की ताईद अपनी तदबीर से की। उसका यह काम न था कि बादशाह के दीन (यानी मिस्र के शाही क़ानून) में अपने भाई को पकड़ता इल्ला यह कि अल्लाह ही ऐसा चाहे।20 हम जिसके दर्जे चाहते हैं बलंद कर देते हैं, और एक इल्म रखनेवाला ऐसा है जो हर साहिबे-इल्म से बालातर है।
20. आमतौर पर इस आयत का तर्जमा यह किया जाता है कि “यूसुफ़ बादशाह के क़ानून की रू से अपने भाई को न पकड़ सकता था।” लेकिन अगर इसके ये मानी लिए जाएँ तो बात बिलकुल मोहमल हो जाती है। बादशाह के कानून में चोर को न पकड़ सकने की आख़िर क्या वजह हो सकती है? क्या दुनिया में कभी कोई सल्तनत ऐसी भी रही है जिसका क़ानून चोर को गिरफ़्तार करने की इजाज़त न देता हो? लिहाज़ा सही बात यह है कि अल्लाह के नबी हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का यह काम न था कि बादशाह के क़ानून के मुताबिक़ अमल करे इसी लिए हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने भाइयों से उनके यहाँ का क़ानून पूछा और शरीअते-इबराहीमी के मुताबिक़ अपने भाई को पकड़ा।
قَالُواْ تَٱللَّهِ تَفۡتَؤُاْ تَذۡكُرُ يُوسُفَ حَتَّىٰ تَكُونَ حَرَضًا أَوۡ تَكُونَ مِنَ ٱلۡهَٰلِكِينَ ۝ 72
(85) — बेटों ने कहा, “ख़ुदा रा! आप तो बस यूसुफ़ ही को याद किए जाते हैं। नौबत यह आ गई है कि उसके ग़म में अपने-आपको घुला देंगे या अपनी जान हलाक कर डालेंगे।”
۞قَالُوٓاْ إِن يَسۡرِقۡ فَقَدۡ سَرَقَ أَخٞ لَّهُۥ مِن قَبۡلُۚ فَأَسَرَّهَا يُوسُفُ فِي نَفۡسِهِۦ وَلَمۡ يُبۡدِهَا لَهُمۡۚ قَالَ أَنتُمۡ شَرّٞ مَّكَانٗاۖ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا تَصِفُونَ ۝ 73
(77) उन भाइयों ने कहा, “यह चोरी करे तो कुछ ताज्जुब की बात भी नहीं, इससे पहले इसका भाई (यूसुफ़) भी चोरी कर चुका है।” यूसुफ़ उनकी यह बात सुनकर पी गया, हक़ीक़त उनपर न खोली, बस (ज़ेरे-लब) इतना कहकर रह गया कि “बड़े ही बुरे हो तुम लोग, (मेरे मुँह-दर-मुँह मुझपर) जो इलज़ाम तुम लगा रहे हो उसकी हक़ीक़त ख़ुदा ख़ूब जानता है।”
قَالَ إِنَّمَآ أَشۡكُواْ بَثِّي وَحُزۡنِيٓ إِلَى ٱللَّهِ وَأَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 74
(86) उसने कहा, “मैं अपनी परेशानी और अपने ग़म की फ़रियाद अल्लाह के सिवा किसी से नहीं करता, और अल्लाह से जैसा मैं वाक़िफ़ हूँ तुम नहीं हो।
قَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡعَزِيزُ إِنَّ لَهُۥٓ أَبٗا شَيۡخٗا كَبِيرٗا فَخُذۡ أَحَدَنَا مَكَانَهُۥٓۖ إِنَّا نَرَىٰكَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 75
(78) उन्होंने कहा, “ऐ सरदारे-जी-इक़तिदार (अज़ीज़)!21 इसका बाप बहुत बूढ़ा आदमी है, इसकी जगह आप हममें से किसी को रख लीजिए, हम आपको बड़ा ही नेक नफ़्स इनसान पाते हैं।”
21. यहाँ लफ़्ज़ 'अज़ीज़' हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के लिए जो इस्तेमाल हुआ है सिर्फ़ इसकी बिना पर मुफ़स्सिरीन ने क़ियास कर लिया कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) उसी मंसब पर मामूर हुए थे जिसपर उससे पहले ज़ुलेख़ा का शौहर मामूर था, लेकिन हम हाशिया-9 में वज़ाहत कर चुके हैं कि यह मिस्र में किसी ख़ास मंसब का नाम न था, बल्कि मह्ज़ 'साहिबे-इक़तिदार' के मानी में इस्तेमाल किया जाता था।
يَٰبَنِيَّ ٱذۡهَبُواْ فَتَحَسَّسُواْ مِن يُوسُفَ وَأَخِيهِ وَلَا تَاْيۡـَٔسُواْ مِن رَّوۡحِ ٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ لَا يَاْيۡـَٔسُ مِن رَّوۡحِ ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 76
(87) मेरे बच्चो! जाकर यूसुफ़ और उसके भाई की कुछ टोह लगाओ, अल्लाह की रहमत से मायूस न हो, उसकी रहमत से तो बस काफ़िर ही मायूस हुआ करते हैं।”
قَالَ مَعَاذَ ٱللَّهِ أَن نَّأۡخُذَ إِلَّا مَن وَجَدۡنَا مَتَٰعَنَا عِندَهُۥٓ إِنَّآ إِذٗا لَّظَٰلِمُونَ ۝ 77
(79) यूसुफ़ ने कहा, “पनाह बख़ुदा! दूसरे किसी शख़्स को हम कैसे रख सकते हैं? जिसके पास हमने अपना माल मशवरा पाया है22 उसको छोड़कर दूसरे को रखेंगे तो हम ज़ालिम होंगे।”
22. एहतियात मुलाहज़ा हो कि 'चोर' नहीं कहते, बल्कि कहते यह हैं कि “जिसके पास हमने अपना माल पाया है।” इसी को इस्तिलाहे-शरह में तौरिया 'कहते हैं,' यानी हक़ीक़त पर परदा डालना 'या' अम्रे-वाक़िआ को छिपाना'। जब किसी मज़लूम को ज़ालिम से बचाने या किसी बड़े मज़लिमा को दफ़ा करने की कोई सूरत इसके सिवा न हो कि कुछ ख़िलाफ़े-वाक़िआ बात कही जाए या कोई ख़िलाफ़े-हक़ीक़त हीला किया जाए तो ऐसी सूरत में एक परहेज़गार आदमी सरीह झूठ बोलने से इहतिराज़ करते हुए ऐसी बात कहने या ऐसी तदबीर करने की कोशिश करेगा जिससे हक़ीक़त को छिपाकर बदी को दफ़ा किया जा सके। अब देखिए कि इस सारे मामले में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने किस तरह जाइज़ तौरिया की शराइत पूरी की हैं। भाई की रज़ामन्दी से उसके सामान में प्याला रख दिया। मगर मुलाज़िमों से यह नहीं कहा कि उसपर चोरी का इलज़ाम लगाओ। जब सरकारी मुलाज़िम चोरी के इलज़ाम में उन लोगों को पकड़ लाए तो ख़ामोशी के साथ उठकर तलाशी ले ली। फिर अब जो उन भाइयों ने कहा कि बिन-यमीन की जगह हममें से किसी को रख लीजिए तो उसके जवाब में भी उन्हीं की बात उनपर उलट दी कि तुम्हारा अपना फ़तवा यह था कि जिसके सामान में से माल निकला है उसी को रख लिया जाए, सो अब तुम्हारे सामने बिन-यमीन के सामान हमारा माल निकला है और उसी को हम रखे लेते हैं, दूसरे को उसकी जगह कैसे रख सकते हैं?
فَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَيۡهِ قَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡعَزِيزُ مَسَّنَا وَأَهۡلَنَا ٱلضُّرُّ وَجِئۡنَا بِبِضَٰعَةٖ مُّزۡجَىٰةٖ فَأَوۡفِ لَنَا ٱلۡكَيۡلَ وَتَصَدَّقۡ عَلَيۡنَآۖ إِنَّ ٱللَّهَ يَجۡزِي ٱلۡمُتَصَدِّقِينَ ۝ 78
(88) जब ये लोग मिस्र जाकर यूसुफ़ की पेशी में दाख़िल हुए तो उन्होंने अर्ज़ किया कि “ऐ सरदारे-बाइक़तिदार! हम और हमारे अहलो-अयाल सख़्त मुसीबत में मुब्तला हैं, और हम कुछ हक़ीर-सी पूँजी लेकर आए हैं, आप हमें भरपूर ग़ल्ला इनायत फ़रमाएँ और हमको ख़ैरात दें, अल्लाह ख़ैरात देनेवालों को जज़ा देता है।
فَلَمَّا ٱسۡتَيۡـَٔسُواْ مِنۡهُ خَلَصُواْ نَجِيّٗاۖ قَالَ كَبِيرُهُمۡ أَلَمۡ تَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ أَبَاكُمۡ قَدۡ أَخَذَ عَلَيۡكُم مَّوۡثِقٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَمِن قَبۡلُ مَا فَرَّطتُمۡ فِي يُوسُفَۖ فَلَنۡ أَبۡرَحَ ٱلۡأَرۡضَ حَتَّىٰ يَأۡذَنَ لِيٓ أَبِيٓ أَوۡ يَحۡكُمَ ٱللَّهُ لِيۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 79
(80) जब वे यूसुफ़ से मायूस हो गए तो एक गोशे में जाकर आपस में मशवरा करने लगे। उनमें जो सबसे बड़ा था वह बोला, “तुम जानते नहीं हो कि तुम्हारे वालिद तुमसे ख़ुदा के नाम पर अह्द व पैमान ले चुके हैं? और इससे पहले यूसुफ़ के मामले में जो तुम कर चुके हो वह भी तुमको मालूम है। अब मैं तो यहाँ से हरगिज़ न जाऊँगा जब तक कि मेरे वालिद मुझे इजाज़त न दें, या फिर अल्लाह ही मेरे हक़ में कोई फ़ैसला फ़रमा दे कि वह सबसे बेहतर फ़ैसला करनेवाला है।
قَالَ هَلۡ عَلِمۡتُم مَّا فَعَلۡتُم بِيُوسُفَ وَأَخِيهِ إِذۡ أَنتُمۡ جَٰهِلُونَ ۝ 80
(89) (यह सुनकर यूसुफ़ से न रहा गया) उसने कहा, तुम्हें कुछ यह भी मालूम है कि तुमने यूसुफ़ और उसके भाई के साथ क्या किया था जबकि तुम नादान थे?
قَالُوٓاْ أَءِنَّكَ لَأَنتَ يُوسُفُۖ قَالَ أَنَا۠ يُوسُفُ وَهَٰذَآ أَخِيۖ قَدۡ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَآۖ إِنَّهُۥ مَن يَتَّقِ وَيَصۡبِرۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 81
(90) “वे चौंककर बोले, “हाएँ! क्या तुम यूसुफ़ हो?” उसने कहा, “हाँ, मैं युसुफ़ हूँ ये मेरा भाई है। अल्लाह ने हमपर एहसान फ़रमाया। हक़ीक़त यह है कि अगर कोई तक़वा और सब्र से काम ले तो अल्लाह के यहाँ ऐसे नेक लोगों का अज्र मारा नहीं जाता।”
وَرَفَعَ أَبَوَيۡهِ عَلَى ٱلۡعَرۡشِ وَخَرُّواْ لَهُۥ سُجَّدٗاۖ وَقَالَ يَٰٓأَبَتِ هَٰذَا تَأۡوِيلُ رُءۡيَٰيَ مِن قَبۡلُ قَدۡ جَعَلَهَا رَبِّي حَقّٗاۖ وَقَدۡ أَحۡسَنَ بِيٓ إِذۡ أَخۡرَجَنِي مِنَ ٱلسِّجۡنِ وَجَآءَ بِكُم مِّنَ ٱلۡبَدۡوِ مِنۢ بَعۡدِ أَن نَّزَغَ ٱلشَّيۡطَٰنُ بَيۡنِي وَبَيۡنَ إِخۡوَتِيٓۚ إِنَّ رَبِّي لَطِيفٞ لِّمَا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 82
(100) (शहर में दाख़िल होने के बाद) उसने अपने वालिदैन को उठाकर अपने पास तख़्त पर बिठाया और सब उसके आगे बेइख़्तियार सजदे में झुक गए।24 यूसुफ़ ने कहा, “अब्बा-जान! यह ताबीर है मेरे उस ख़ाब की जो मैंने पहले देखा था। मेरे रब ने उसे हक़ीक़त बना दिया। उसका एहसान है कि मुझे क़ैदख़ाने से निकाला, और आप लोगों को सहरा से लाकर मुझसे मिलाया, हालाँकि शैतान मेरे और मेरे भाइयों के दरमियान फ़साद डाल चुका था। वाक़िआ यह है कि मेरा रब ग़ैर-महसूस तदबीरों से अपनी मशीयत पूरी करता है, बेशक वह अलीम और हकीम है।
24. इस लफ़्ज़ 'सजदा' से बकसरत लोगों को ग़लत-फ़हमी हुई है, हत्ता कि एक गरोह ने तो इसी से इस्तिदलाल करके बादशाहों और पीरों के लिए सजदा-ए-तहीयह और सजदा-ए-ताज़ीमी का जवाज़ निकाल लिया। दूसरे लोगों को इस क़बाहत से बचने के लिए उसकी यह तौजीह करनी पड़ी कि अगली शरीअतों में सिर्फ़ सजदा-ए-इबादत ग़ैरुल्लाह के लिए हराम था, बाक़ी रहा वह सजदा जो इबादत के जज़्बे से ख़ाली हो तो वह ख़ुदा के सिवा दूसरों को भी किया जा सकता है, अलबत्ता शरीअते-मुहम्मदी में हर क़िस्म का सजदा ग़ैरुल्लाह के लिए हराम कर दिया गया। लेकिन सारी ग़लत-फ़हमियाँ दरअस्ल इस वजह से पैदा हुई हैं कि लफ़्ज़ ‘सजदा' को मौजूदा इस्लामी इस्तिलाह का हममानी समझ लिया गया, यानी हाथ, घुटने और पेशानी ज़मीन पर टिकाना। हालाँकि सजदा के अस्ल मानी मह्ज़ झुकने के हैं और यहाँ यह लफ़्ज़ इसी मफ़हूम में इस्तेमाल हुआ है।
۞رَبِّ قَدۡ ءَاتَيۡتَنِي مِنَ ٱلۡمُلۡكِ وَعَلَّمۡتَنِي مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ فَاطِرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ أَنتَ وَلِيِّۦ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ تَوَفَّنِي مُسۡلِمٗا وَأَلۡحِقۡنِي بِٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 83
(101) ऐ मेरे रब! तूने मुझे हुकूमत बख़्शी और मुझको बातों की तह तक पहुँचना सिखाया। ज़मीन व आसमान बनानेवाले! तू ही दुनिया और आख़िरत में मेरा सरपरस्त है, मेरा ख़ातिमा इस्लाम पर कर और अंजामे-कार मुझे सॉलिहीन के साथ मिला।”
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهِ إِلَيۡكَۖ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ أَجۡمَعُوٓاْ أَمۡرَهُمۡ وَهُمۡ يَمۡكُرُونَ ۝ 84
(102) (ऐ नबी!) यह क़िस्सा ग़ैब की ख़बरों में से है जो हम तुमपर वह्य कर रहे हैं, वरना तुम उस वक़्त मौजूद न थे जब यूसुफ़ के भाइयों ने आपस में इत्तिफ़ाक़ करके साज़िश की थी।
وَمَآ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ وَلَوۡ حَرَصۡتَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 85
(103) मगर तुम ख़ाह कितना ही चाहो इनमें से अकसर लोग मानकर देनेवाले नहीं हैं।
وَمَا تَسۡـَٔلُهُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 86
(104) हालाँकि तुम इस ख़िदमत पर उनसे कोई उजरत भी नहीं माँगते हो। यह तो एक नसीहत है जो दुनियावालों के लिए आम है।
وَكَأَيِّن مِّنۡ ءَايَةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ يَمُرُّونَ عَلَيۡهَا وَهُمۡ عَنۡهَا مُعۡرِضُونَ ۝ 87
(105) ज़मीन और आसमानों में कितनी ही निशानियाँ हैं जिनपर से ये लोग गुज़रते रहते हैं और ज़रा तवज्जुह नहीं करते।
وَمَا يُؤۡمِنُ أَكۡثَرُهُم بِٱللَّهِ إِلَّا وَهُم مُّشۡرِكُونَ ۝ 88
(106) इनमें से अकसर अल्लाह को मानते हैं मगर इस तरह कि उसके साथ दूसरों को शरीक ठहराते हैं।
أَفَأَمِنُوٓاْ أَن تَأۡتِيَهُمۡ غَٰشِيَةٞ مِّنۡ عَذَابِ ٱللَّهِ أَوۡ تَأۡتِيَهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 89
(107) क्या ये मुत्मइन हैं कि ख़ुदा के अज़ाब की कोई बला इन्हें दबोच न लेगी या बेख़बरी क़ियामत की घड़ी अचानक इनपर न आ जाएगी?
قُلۡ هَٰذِهِۦ سَبِيلِيٓ أَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِۚ عَلَىٰ بَصِيرَةٍ أَنَا۠ وَمَنِ ٱتَّبَعَنِيۖ وَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 90
(108) तुम इनसे साफ़ कह दो कि “मेरा रास्ता तो यह है, मैं अल्लाह की तरफ़ बुलाता हूँ, मैं ख़ुद भी पूरी रौशनी में अपना रास्ता देख रहा हूँ और मेरे साथी भी, और अल्लाह पाक है और शिर्क करनेवालों से मेरा कोई वास्ता नहीं।”
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِم مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰٓۗ أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۗ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 91
(109) (ऐ नबी!) तुमसे पहले हमने जो पैग़म्बर भेजे थे वे सब भी इनसान ही थे और इन्हीं बस्तियों के रहनेवालों में से थे, और उन्हीं की तरफ़ हम वह्य भेजते रहे हैं। फिर क्या ये लोग ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि उन क़ौमों का अंजाम इन्हें नज़र न आया जो इनसे पहले गुज़र चुकी है? यक़ीनन आख़िरत लोगों के लिए और ज़्यादा बेहतर है जिन्होंने (पैग़म्बरों की बात मानकर) तक़वा की रविश इख़्तियार की। क्या अब भी तुम लोग न समझोगे? (पहले पैग़म्बरों के साथ भी यही होता रहा है कि वे मुद्दतों नसीहत करते रहे और लोगों ने सुनकर जवाब न दिया)
حَتَّىٰٓ إِذَا ٱسۡتَيۡـَٔسَ ٱلرُّسُلُ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُمۡ قَدۡ كُذِبُواْ جَآءَهُمۡ نَصۡرُنَا فَنُجِّيَ مَن نَّشَآءُۖ وَلَا يُرَدُّ بَأۡسُنَا عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 92
(110) यहाँ तक कि जब पैग़म्बर लोगों से मायूस हो गए और लोगों ने भी समझ लिया कि उनसे झूठ बोला गया था, तो यकायक हमारी मदद पैग़म्बरों को पहुँच गई। फिर जब ऐसा हो जाता है तो हमारा क़ायदा यह है कि जिसे हम चाहते हैं बचा लेते और मुजरिमों पर से तो हमारा अज़ाब टाला ही नहीं जा सकता।
لَقَدۡ كَانَ فِي قَصَصِهِمۡ عِبۡرَةٞ لِّأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِۗ مَا كَانَ حَدِيثٗا يُفۡتَرَىٰ وَلَٰكِن تَصۡدِيقَ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَتَفۡصِيلَ كُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 93
(111) अगले लोगों के इन क़िस्सों में अक़्ल व होश रखनेवालों के लिए इबरत है। यह जो कुछ क़ुरआन में बयान किया जा रहा है ये बनावटी बातें नहीं हैं, बल्कि जो किताबें इससे पहले आई हुई हैं उन्हीं की तसदीक़ है और हर चीज़ ही तफ़सील25 और ईमान लानेवालों के लिए हिदायत और रहमत।
15. यानी हर उस चीज़ की तफ़सील जो इनसान की हिदायत व रहनुमाई के लिए ज़रूरी है। बाज़ लोग ‘हर चीज़ की तफ़सील' से मुराद ख़ाह-मख़ाह दुनिया भर की चीज़ों की तफ़सील ले लेते हैं और फिर उनको यह परेशानी पेश आती है कि क़ुरआन में जंगलात और तिब्ब और रियाज़ी और दूसरे उलूम व फ़ुनून के मुताल्लिक़ कोई तफ़सील नहीं मिलती और कुछ दूसरे लोग ज़बरदस्ती हर फ़न की तफ़सील क़ुरआन से निकालने लगते हैं।
وَرَٰوَدَتۡهُ ٱلَّتِي هُوَ فِي بَيۡتِهَا عَن نَّفۡسِهِۦ وَغَلَّقَتِ ٱلۡأَبۡوَٰبَ وَقَالَتۡ هَيۡتَ لَكَۚ قَالَ مَعَاذَ ٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ رَبِّيٓ أَحۡسَنَ مَثۡوَايَۖ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 94
(23) जिस औरत के घर में वह था वह उसपर डोरे डालने लगी और एक रोज़ दरवाज़ा बन्द करके बोली, “आ जा!” यूसुफ ने कहा, “ख़ुदा की पनाह! मेरे रब6 ने तो मुझे अच्छी मंज़िलत बख़्शी (और मैं यह काम करूँ!), ऐसे ज़ालिम कभी फ़लाह नहीं पाया करते।”
6. आम-तौर पर मुफ़स्सिरीन और मुतरजमीन ने यह समझा है कि यहाँ 'मेरे रब' का लफ़्ज़ हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने उस शख़्स के लिए इस्तेमाल किया है जिसकी मुलाज़मत में वे उस वक़्त थे और उनके इस जवाब का मतलब यह था कि मेरे आक़ा ने तो मुझे ऐसी अच्छी तरह रखा है, फिर मैं यह नमक-हरामी कैसे कर सकता हूँ कि उसकी बीवी से ज़िना करूँ। लेकिन यह बात एक नबी की शान से बहुत गिरी हुई है कि वह एक गुनाह से बाज़ रहने में अल्लाह तआला के बजाय किसी बन्दे का लिहाज़ करे। और क़ुरआन में इसकी कोई नज़ीर भी मौजूद नहीं है कि किसी नबी ने कभी ख़ुदा के सिवा किसी और को अपना रब कहा हो।
وَلَقَدۡ هَمَّتۡ بِهِۦۖ وَهَمَّ بِهَا لَوۡلَآ أَن رَّءَا بُرۡهَٰنَ رَبِّهِۦۚ كَذَٰلِكَ لِنَصۡرِفَ عَنۡهُ ٱلسُّوٓءَ وَٱلۡفَحۡشَآءَۚ إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 95
(24) वह उसकी तरफ़ बढ़ी और यूसुफ़ भी उसकी तरफ़ बढ़ता अगर अपने रब की बुरहान न देख लेता।7 ऐसा हुआ, ताकि हम उससे बदी और बेहयाई को दूर कर दें, दर-हक़ीक़त वह हमारे चुने हुए बंदों में से था।
7. 'बुरहान' के मानी हैं 'दलील और हुज्जत' के। रब की बुरहान से मुराद ख़ुदा की सुझाई हुई वह दलील है जिसकी बिना पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के ज़मीर ने उनके नफ़्स को इस बात का क़ायल किया कि इस औरत की दावते-ऐश क़ुबूल करना तुझे ज़ेबा नहीं है, और वह दलील पिछले फ़िक़रे में गुज़र चुकी है कि “मेरे रब ने तो मुझे यह मंज़िलत बख़्शी और मैं ऐसा बुरा काम करूँ! ऐसे ज़ालिमों को कभी फ़लाह नसीब नहीं हुआ करती।”
وَٱسۡتَبَقَا ٱلۡبَابَ وَقَدَّتۡ قَمِيصَهُۥ مِن دُبُرٖ وَأَلۡفَيَا سَيِّدَهَا لَدَا ٱلۡبَابِۚ قَالَتۡ مَا جَزَآءُ مَنۡ أَرَادَ بِأَهۡلِكَ سُوٓءًا إِلَّآ أَن يُسۡجَنَ أَوۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 96
(25) आख़िरकार यूसुफ़ और वह आगे-पीछे दरवाज़े की तरफ़ भागे और उसने पीछे से यूसुफ़ की क़मीस (खींचकर) फाड़ दी। दरवाज़े पर दोनों ने उसके शौहर को मौजूद पाया। उसे देखते ही औरत कहने लगी, क्या सज़ा है उस शख़्स की जो तेरी घरवाली पर नीयत ख़राब करे? इसके सिवा और क्या सज़ा हो सकती है कि वह क़ैद किया जाए या उसे सख़्त अज़ाब दिया जाए?
قَالَ هِيَ رَٰوَدَتۡنِي عَن نَّفۡسِيۚ وَشَهِدَ شَاهِدٞ مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن كَانَ قَمِيصُهُۥ قُدَّ مِن قُبُلٖ فَصَدَقَتۡ وَهُوَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 97
(26) यूसुफ़ ने कहा, “यही मुझे फाँसने की कोशिश कर रही थी।” उस औरत के अपने कुंबेवालों में से एक शख़्स ने (क़रीने की) शहादत पेश की कि “अगर यूसुफ़ की क़मीस आगे से फटी हो तो औरत सच्ची है और यह झूठा।
وَإِن كَانَ قَمِيصُهُۥ قُدَّ مِن دُبُرٖ فَكَذَبَتۡ وَهُوَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 98
(27) और अगर इसकी क़मीस पीछे से फटी है तो औरत झूठी है और यह सच्चा।8
8. मतलब यह है कि अगर यूसुफ़ (अलैहि०) की क़मीस सामने से फटी हो तो यह इस बात की सरीह अलामत है कि इक़दाम यूसुफ़ की जानिब से था और औरत अपने आपको बचाने के लिए कशमकश कर रही थी। लेकिन अगर यूसुफ़ (अलैहि०) की क़मीस पीछे से फटी है तो इससे साफ़ साबित होता है कि औरत उसके पीछे पड़ी हुई थी और यूसुफ़ उससे बचकर निकल जाना चाहता था। इसके अलावा क़रीने की एक और शहादत भी इस शहादत में छिपी हुई थी। वह यह कि इस शाहिद ने तवज्जोह सिर्फ़ हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की क़मीस की तरफ़ दिलाई। इससे साफ़ ज़ाहिर हो गया कि औरत के जिस्म या उसके लिबास पर तशद्दुद की कोई अलामत सिरे से पाई ही न जाती थी। हालाँकि अगर यह मुक़द्दमा इक़दामे-ज़िना-बिल-जब्र का होता तो औरत पर इसके खुले आसार पाए जाते।
فَلَمَّا رَءَا قَمِيصَهُۥ قُدَّ مِن دُبُرٖ قَالَ إِنَّهُۥ مِن كَيۡدِكُنَّۖ إِنَّ كَيۡدَكُنَّ عَظِيمٞ ۝ 99
(28) जब शौहर ने देखा कि यूसुफ़ की क़मीस पीछे से फटी है तो उसने कहा, “ये तुम औरतों की चालाकियाँ हैं, वाक़ई बड़े ग़ज़ब की होती हैं तुम्हारी चालें।
يُوسُفُ أَعۡرِضۡ عَنۡ هَٰذَاۚ وَٱسۡتَغۡفِرِي لِذَنۢبِكِۖ إِنَّكِ كُنتِ مِنَ ٱلۡخَاطِـِٔينَ ۝ 100
(29) यूसुफ़! इस मामले से दरगुज़र कर। और (ऐ औरत!) तू अपने क़ुसूर की माफ़ी माँग, तू ही अस्ल में ख़ताकार थी।”
۞وَقَالَ نِسۡوَةٞ فِي ٱلۡمَدِينَةِ ٱمۡرَأَتُ ٱلۡعَزِيزِ تُرَٰوِدُ فَتَىٰهَا عَن نَّفۡسِهِۦۖ قَدۡ شَغَفَهَا حُبًّاۖ إِنَّا لَنَرَىٰهَا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 101
(30) शहर की औरतें आपस में चर्चा करने लगीं कि “अज़ीज़9 की बीवी अपने नौजवान ग़ुलाम के पीछे पड़ी हुई है, महब्बत ने उसको बेक़ाबू कर रखा है हमारे नज़दीक तो वह सरीह ग़लती कर रही है।”
9. 'अज़ीज़' उस शख़्स का नाम न था, बल्कि मिस्र में किसी बड़े ज़ी-इक़तिदार आदमी के लिए इसतिलाह के तौर पर यह लक़ब इस्तेमाल होता था।
قَالُواْ تَٱللَّهِ لَقَدۡ ءَاثَرَكَ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا وَإِن كُنَّا لَخَٰطِـِٔينَ ۝ 102
(91) उन्होंने कहा, “बख़ुदा! कि तुमको अल्लाह ने हमपर फ़ज़ीलत बख़्शी और वाक़ई हम ख़ताकार थे।”
قَالَ لَا تَثۡرِيبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡيَوۡمَۖ يَغۡفِرُ ٱللَّهُ لَكُمۡۖ وَهُوَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 103
(92) आज तुमपर कोई गिरिफ़्त नहीं, अल्लाह तुम्हें माफ़ करे, वह सबसे बढ़कर रहम फ़रमानेवाला है।
ٱذۡهَبُواْ بِقَمِيصِي هَٰذَا فَأَلۡقُوهُ عَلَىٰ وَجۡهِ أَبِي يَأۡتِ بَصِيرٗا وَأۡتُونِي بِأَهۡلِكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 104
(93) जाओ, मेरी यह क़मीस ले जाओ और मेरे वालिद के मुँह पर डाल दो, उनकी बीनाई पलट आएगी, और अपने सब अहलो-अयाल को मेरे पास ले आओ।”
وَلَمَّا فَصَلَتِ ٱلۡعِيرُ قَالَ أَبُوهُمۡ إِنِّي لَأَجِدُ رِيحَ يُوسُفَۖ لَوۡلَآ أَن تُفَنِّدُونِ ۝ 105
(94) जब यह क़ाफ़िला (मिस्र से) रवाना हुआ तो उनके बाप ने (कनआन में) कहा, “मैं यूसुफ़ की ख़ुशबू महसूस कर रहा हूँ, तुम लोग कहीं यह न कहने लगो कि मैं बुढ़ापे में सठिया गया हूँ।”
قَالُواْ تَٱللَّهِ إِنَّكَ لَفِي ضَلَٰلِكَ ٱلۡقَدِيمِ ۝ 106
(95) घर के लोग बोले, “ख़ुदा की क़सम! आप अभी तक अपने उसी पुराने ख़ब्त में पड़े हुए हैं।”
فَلَمَّآ أَن جَآءَ ٱلۡبَشِيرُ أَلۡقَىٰهُ عَلَىٰ وَجۡهِهِۦ فَٱرۡتَدَّ بَصِيرٗاۖ قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكُمۡ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 107
(96) फिर जब ख़ुशख़बरी लानेवाला आया तो उसने यूसुफ़ की क़मीस याक़ूब के मुँह पर डाल दी और यकायक उसकी बीनाई औद कर आई। तब उसने कहा, “मैं तुमसे कहता न था? मैं अल्लाह की तरफ़ से वह कुछ जानता है जो तुम नहीं जानते।”
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا ٱسۡتَغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَآ إِنَّا كُنَّا خَٰطِـِٔينَ ۝ 108
(97) सब बोल उठे, “अब्बा-जान! आप हमारे गुनाहों की बख़शिश के लिए दुआ करें, वाक़ई हम ख़ताकार थे।”
قَالَ سَوۡفَ أَسۡتَغۡفِرُ لَكُمۡ رَبِّيٓۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 109
(98) उसने कहा, “मैं अपने रब से तुम्हारे लिए माफ़ी की दरख़ास्त करूँगा, वह बड़ा माफ करनेवाला और रहीम है।”
فَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَىٰ يُوسُفَ ءَاوَىٰٓ إِلَيۡهِ أَبَوَيۡهِ وَقَالَ ٱدۡخُلُواْ مِصۡرَ إِن شَآءَ ٱللَّهُ ءَامِنِينَ ۝ 110
(99) फिर जब ये लोग यूसुफ़ के पास पहुँचे तो उसने अपने वालिदैन को अपने साथ बिठा लिया और (अपने सब कुंबेवालों से) कहा, “चलो अब शहर में चलो, अल्लाह ने चाहा तो अम्न-चैन से रहोगे।”