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سُورَةُ الأَحۡقَافِ

46. अल-अहक़ाफ़

(मक्का में उतरी, आयतें 35)

परिचय

नाम    

आयत 21 के वाक्यांश 'इज़ अन-ज़-र क़ौमहू बिल अहक़ाफ़ि' (जबकि उसने अहक़ाफ़ में अपनी क़ौम को सावधान किया था) से लिया गया है।

उतरने का समय

एक ऐतिहासिक घटना के अनुसार जिसका उल्लेख आयत 29 से 32 में हुआ है कि यह सूरा सन् 10 नबवी के अन्त में या सन् 11 नबवी के आरंभ में उतरी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सन् 10 नबवी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पवित्र जीवन में अत्यन्त कठिनाई का वर्ष था। तीन वर्ष से क़ुरैश के सभी क़बीलों ने मिलकर बनी-हाशिम और मुसलमानों का पूर्ण सामाजिक बहिष्कार कर रखा था और नबी (सल्ल०) अपने घराने और अपने साथियों के साथ अबू-तालिब की घाटी में घिरकर रह गए थे। क़ुरैश के लोगों ने हर ओर से इस मुहल्ले की नाकाबन्दी कर रखी थी, जिससे गुज़रकर किसी प्रकार की रसद अन्दर न पहुँच सकती थी। लगातार तीन वर्ष के इस सामाजिक बहिष्कार ने मुसलमानों और बनी-हाशिम की कमर तोड़कर रख दी थी और उनपर ऐसे-ऐसे कठिन समय बीत गए थे, जिनमें अकसर घास और पत्ते खाने की नौबत आ जाती थी। किसी तरह यह घेराव इस वर्ष टूटा ही था कि नबी (सल्ल०) के चचा अबू-तालिब का, जो दस साल से आप के लिए ढाल बने हुए थे, देहान्त हो गया और इस घटना को घटित हुए मुश्किल से एक महीना हुआ था कि आप (सल्ल०) की जीवन संगिनी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) का भी देहान्त हो गया, जो नुबूवत के आरम्भ से लेकर उस समय तक आप (सल्ल०) के लिए शान्ति और सांत्वना का कारण बनी रही थीं। इन लगातार आघातों और कष्टों के कारण से नबी (सल्ल०) इस साल को 'आमुल हुज़्न' (रंज और दुख का साल) कहा करते थे। हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) और अबू-तालिब के इन्तिक़ाल के बाद मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले में और अधिक दुस्साहसी हो गए। पहले से अधिक आप (सल्ल०) को तंग करने लगे, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) का घर से बाहर निकलना भी कठिन हो गया। आख़िरकार आप (सल्ल०) इस इरादे से ताइफ़ गए कि बनी-सक़ीफ़ को इस्लाम की ओर बुलाएँ और अगर वे इस्लाम स्वीकार न करें तो उन्हें कम से कम इस बात पर तैयार करें कि वे आप (सल्ल०) को अपने यहाँ चैन से बैठकर काम करने का मौक़ा दे दें। मगर [वहाँ के बड़े लोगों ने] न सिर्फ़ यह कि आप (सल्ल०) की कोई बात न मानी, बल्कि आप (सल्ल०) को नोटिस दे दिया कि उनके शहर से निकल जाएँ। विवश होकर आप (सल्ल०) को ताइफ़ छोड़ देना पड़ा। जब आप (सल्ल०) वहाँ से निकलने लगे तो सक़ीफ़  के सरदारों ने अपने यहाँ के लफँगों को आप (सल्ल०) के पीछे लगा दिया। वे रास्ते के दोनों और आप (सल्ल०) पर व्यंग्‍य करते, गालियाँ देते और पत्थर मारते चले गए, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) घावों से चूर हो गए और आप (सल्ल०) की जूतियाँ ख़ून से भर गई। इसी हालत में आप (सल्ल०) ताइफ़ से बाहर एक बाग़ की दीवार की छाया में बैठ गए और अपने रब से [दुआ करने में लग गए।] टूटा दिल लेकर और दुखी होकर पलटे। जब आप क़र्नुल-मनाज़िल के क़रीब पहुँचे तो ऐसा महसूस हुआ कि आसमान पर एक बादल-सा छाया हुआ है। नज़र उठाकर देखा तो जिबरील (फ़रिश्ते) सामने थे। उन्होंने पुकारकर कहा, "आपकी क़ौम ने जो कुछ आपको उत्तर दिया है, अल्लाह ने उसे सुन लिया। अब यह पहाड़ों का प्रबंधक फ़रिश्ता अल्लाह ने भेजा है, आप जो आदेश देना चाहें, इसे दे सकते हैं।" फिर पहाड़ों के फ़रिश्ते ने आप (सल्ल०) को सलाम करके निवेदन किया, "आप कहें तो दोनों ओर से पहाड़ इन लोग पर उलट दूँ।" आप (सल्ल०) ने उत्तर दिया, "नहीं, बल्कि मैं आशा रखता हूँ कि अल्लाह उनकी नस्ल से ऐसे लोगों पैदा करेगा जो एक अल्लाह की, जिसका कोई साझीदार नहीं, बन्दगी करेंगे।" (हदीस : बुख़ारी)

इसके बाद आप (सल्ल०) कुछ दिन नख़ला नामक जगह पर जाकर ठहर गए। इन्हीं दिनों में एक रात को आप (सल्ल०) नमाज़ में क़ुरआन मजीद पढ़ रहे थे कि जिन्नों के एक गिरोह का उधर से गुज़र हुआ। उन्होंने क़ुरआन सुना, ईमान लाए, वापस जाकर अपनी क़ौम में इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया और अल्लाह ने अपने नबी (सल्ल०) को यह ख़ुशख़बरी सुनाई कि इंसान चाहे आपकी दावत से भाग रहे हों, मगर बहुत-से जिन्न उसके आसक्त हो गए हैं और वे उसे अपनी जाति में फैला रहे हैं।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय इस्लाम-विरोधियों को उनकी गुमराहियों के नतीजों से सचेत करना है जिनमें वे न केवल पड़े हुए थे, बल्कि बड़ी हठधर्मी और गर्व व अहंकार के साथ उनपर जमे हुए थे। उनकी दृष्टि में दुनिया की हैसियत केवल एक निरुद्देश्य खिलौने की थी और उसके अन्दर अपने आपको वे अनुत्तरदायी प्राणी समझ रहे थे। तौहीद की दावत (एकेश्वरवाद का बुलावा) उनके विचार में असत्य था। वे क़ुरआन के बारे में यह मानने को तैयार न थे कि यह जगत्-स्वामी की वाणी है। उनकी दृष्टि में इस्लाम के सत्य न होने का एक बड़ा प्रमाण यह था कि सिर्फ़ कुछ नौवजवान, कुछ ग़रीब लोग और कुछ ग़ुलाम ही उसपर ईमान लाए हैं। वे क़ियामत और मरने के बाद की ज़िंदगी और प्रतिदान और दण्ड की बातों को मनगढ़ंत कहानी समझते थे। इस सूरा में संक्षेप में इन्हीं गुमराहियों में से एक-एक का तर्कयुक्त खंडन किया गया है और इस्लाम विरोधियों को सचेत किया गया है कि तुम अगर क़ुरआन की दावत को रद्द कर दोगे, तो ख़ुद अपना ही अंजाम ख़राब करोगे।

 (व्याख्या के लिए देखिए : सूरा-39, अज़-ज़ुमर, टिप्पणी-1; सूरा-45, अल-जासिया, टिप्पणी-1; सूरा-32, अस-सजदा, टिप्पणी-1)

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سُورَةُ الأَحۡقَافِ
46. अल-अहक़ाफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा० मीम०।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ مِنَ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 1
(2) इस किताब का नुज़ूल अल्लाह ज़बरदस्त और दाना की तरफ़ से है।
مَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَمَّآ أُنذِرُواْ مُعۡرِضُونَ ۝ 2
(3) हमने ज़मीन और आसमानों को और उन सारी चीज़ों को जो उनके दरमियान हैं बरहक़ और एक मुद्दते-ख़ास के तअय्युन के साथ पैदा किया है। मगर ये काफ़िर लोग उस हक़ीक़त से मुँह मोड़े हुए हैं जिससे इनको ख़बरदार किया गया है।
قُلۡ أَرَءَيۡتُم مَّا تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَرُونِي مَاذَا خَلَقُواْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ لَهُمۡ شِرۡكٞ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِۖ ٱئۡتُونِي بِكِتَٰبٖ مِّن قَبۡلِ هَٰذَآ أَوۡ أَثَٰرَةٖ مِّنۡ عِلۡمٍ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 3
(4) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “कभी तुमने आँखें खोलकर देखा भी कि वे हस्तियाँ हैं क्या जिन्हें तुम ख़ुदा को छोड़कर पुकारते हो? ज़रा मुझे दिखाओ तो सही कि ज़मीन में उन्होंने क्या पैदा किया है या आसमानों की तख़लीक़ व तदबीर में उनका कोई हिस्सा है! इससे पहले आई हुई कोई किताब या इल्म का कोई बक़ीया (इन अक़ाइद के सुबूत में) तुम्हारे पास हो तो वही ले आओ अगर तुम सच्चे हो।”
وَمَنۡ أَضَلُّ مِمَّن يَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَن لَّا يَسۡتَجِيبُ لَهُۥٓ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَهُمۡ عَن دُعَآئِهِمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 4
(5) आख़िर उस शख़्स से ज़्यादा बहका हुआ इनसान और कौन होगा जो अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारे जो क़ियामत तक उसे जवाब नहीं दे सकते,1 बल्कि इससे भी बेख़बर हैं कि पुकारनेवाले उनको पुकार रहे हैं,
1. जवाब देने से मुराद किसी की दरख़ास्त पर फ़ैसला सादिर करना है। मतलब यह है कि इन माबूदों के पास वे इख़्तियारात ही नहीं हैं जिनकी बिना पर वे इनकी दुआओं और दरख़ास्तों पर कोई फ़ैसला सादिर कर सकें।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كَانَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ وَكَفَرۡتُم بِهِۦ وَشَهِدَ شَاهِدٞ مِّنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَلَىٰ مِثۡلِهِۦ فَـَٔامَنَ وَٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 5
(10) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “कभी तुमने सोचा भी कि अगर यह कलाम अल्लाह ही की तरफ़ से हुआ और तुमने इसका इनकार कर दिया (तो तुम्हारा क्या अंजाम होगा)? और इस जैसे एक कलाम पर तो बनी-इसराईल का एक गवाह शहादत भी दे चुका है। वह ईमान ले आया और तुम अपने घमण्ड में पड़े रहे।5 ऐसे ज़ालिमों को अल्लाह हिदायत नहीं दिया करता।”
5. यहाँ गवाह से मुराद कोई ख़ास शख़्स नहीं, बल्कि बनी-इसराईल का एक आम आदमी है। इरशादे-इलाही का मुद्दआ यह है कि क़ुरआन मजीद जो तालीम तुम्हारे सामने पेश कर रहा है यह कोई अनोखी चीज़ नहीं है जो दुनिया में पहली मर्तबा तुम्हारे ही सामने पेश की गई हो और तुम यह उज्र कर सको कि हम ये निराली बातें कैसे मान लें जो नौए-इनसानी के सामने कभी आई ही न थीं। इससे पहले यही तालीमात इसी तरह वह्य के ज़रिए से बनी-इसराईल के सामने तौरात और दूसरी कुतुबे-आसमानी की शक्ल में आ चुकी हैं, और उनका एक आम आदमी इनको मान चुका है।
وَإِذَا حُشِرَ ٱلنَّاسُ كَانُواْ لَهُمۡ أَعۡدَآءٗ وَكَانُواْ بِعِبَادَتِهِمۡ كَٰفِرِينَ ۝ 6
(6) और जब तमाम इनसान जमा किए जाएँगे उस वक़्त वे अपने पुकारनेवालों के दुश्मन और उनकी इबादत के मुनकिर होंगे।2
2. यानी वे साफ़-साफ़ कह देंगे कि न हमने इनसे कभी यह कहा था कि तुम मदद के लिए हमें पुकारा करो, हम तुम्हारी हाजत-रवाई करनेवाले हैं, और न हमें यह ख़बर कि ये लोग हमें पुकारा करते थे। इन्होंने ख़ुद ही हमें हाजत-रवा फ़र्ज़ कर लिया और ख़ुद ही हमको पुकारना शुरू कर दिया।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ هَٰذَا سِحۡرٞ مُّبِينٌ ۝ 7
(7) इन लोगों को जब हमारी साफ़-साफ़ आयात सुनाई जाती हैं और हक़ इनके सामने आ जाता है तो ये काफ़िर लोग उसके मुताल्लिक़ कहते हैं कि “यह तो खुला जादू है।”
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَوۡ كَانَ خَيۡرٗا مَّا سَبَقُونَآ إِلَيۡهِۚ وَإِذۡ لَمۡ يَهۡتَدُواْ بِهِۦ فَسَيَقُولُونَ هَٰذَآ إِفۡكٞ قَدِيمٞ ۝ 8
(11) जिन लोगों ने मानने से इनकार कर दिया है वे ईमान लानेवालों के मुताल्लिक़ कहते हैं कि अगर इस किताब को मान लेना कोई अच्छा काम होता तो ये लोग इस मामले में हमसे सबक़त न ले जा सकते थे।6 चूँकि इन्होंने उससे हिदायत न पाई इसलिए अब ये ज़रूर कहेंगे कि यह तो पूराना झूठ है।
6. उनका मतलब यह था कि इस क़ुरआन पर चन्द नासमझ लोग ईमान ले आए हैं, वरना अगर यह कोई अच्छा काम था तो हम जैसे दानिशवर लोग इसे मानने में पीछे कैसे रह सकते थे।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ إِنِ ٱفۡتَرَيۡتُهُۥ فَلَا تَمۡلِكُونَ لِي مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۖ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَا تُفِيضُونَ فِيهِۚ كَفَىٰ بِهِۦ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۖ وَهُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 9
(8) क्या उनका कहना यह है कि रसूल ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है? इनसे कहो, “अगर मैंने इसे ख़ुद गढ़ लिया है तो तुम मुझे ख़ुदा की पकड़ से कुछ भी न बचा सकोगे, जो बातें तुम बनाते हो अल्लाह उनको ख़ूब जानता है, मेरे और तुम्हारे दरमियान वही गवाही देने के लिए काफ़ी है, और वह बड़ा दरगुज़र करनेवाला और रहीम है।”3
3. इस मक़ाम पर यह फ़िक़रा दो मानी दे रहा है। एक यह कि फ़िल-वाक़े यह अल्लाह का रहम और उसका दरगुज़र ही है जिसकी वजह से वे लोग ज़मीन में साँस ले रहे हैं जिन्हें ख़ुदा के कलाम को इफ़तिरा क़रार देने में कोई बाक नहीं, वरना कोई बेरहम और सख़्तगीर ख़ुदा इस कायनात का मालिक होता तो ऐसी जसारतें करनेवालों को एक साँस के बाद दूसरा साँस लेना नसीब न होता। दूसरा मतलब इस फ़िक़रे का यह है कि ज़ालिमो! अब भी इस हठधर्मी से बाज़ आ जाओ तो ख़ुदा की रहमत का दरवाज़ा तुम्हारे लिए खुला हुआ है, और जो कुछ तुमने अब तक किया है माफ़ हो सकता है।
وَمِن قَبۡلِهِۦ كِتَٰبُ مُوسَىٰٓ إِمَامٗا وَرَحۡمَةٗۚ وَهَٰذَا كِتَٰبٞ مُّصَدِّقٞ لِّسَانًا عَرَبِيّٗا لِّيُنذِرَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 10
(12) हालाँकि इससे पहले मूसा की किताब रहनुमा और रहमत बनकर आ चुकी है, और यह किताब उसकी तसदीक़ करनेवाली ज़बाने-अरबी में आई है ताकि ज़ालिमों को मुतनब्बेह कर दे और नेक रविश इख़्तियार करनेवालों को बशारत दे दे।
قُلۡ مَا كُنتُ بِدۡعٗا مِّنَ ٱلرُّسُلِ وَمَآ أَدۡرِي مَا يُفۡعَلُ بِي وَلَا بِكُمۡۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ وَمَآ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 11
(9) इनसे कहो, “मैं कोई निराला रसूल तो नहीं हूँ,4 मैं नहीं जानता कि कल तुम्हारे साथ क्या होना है और मेरे साथ क्या, मैं तो सिर्फ़ उस वह्य की पैरवी करता हूँ जो मेरे पास भेजी जाती है और मैं एक साफ़-साफ़ ख़बरदार का देनेवाले के सिवा और कुछ नहीं हूँ।”
4. यानी जिस तरह पहले सब रसूल इनसान ही होते थे और ख़ुदाई सिफ़ात व इख़्तियारात में उनका कोई हिस्सा नहीं होता था, वैसा ही रसूल मैं भी हूँ।
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا لِتَأۡفِكَنَا عَنۡ ءَالِهَتِنَا فَأۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 12
(22) उन्होंने कहा, क्या तू इसलिए आया है कि हमें बहकाकर हमारे माबूदों से बरगश्ता कर दे? अच्छा तो ले आ अपना वह अज़ाब जिससे तू हम डराता है अगर वाक़ई तू सच्चा है।”
إِنَّ ٱلَّذِينَ قَالُواْ رَبُّنَا ٱللَّهُ ثُمَّ ٱسۡتَقَٰمُواْ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 13
(13) यक़ीनन जिन लोगों ने कह दिया कि अल्लाह ही हमारा रब है, फिर उसपर जम गए, उनके लिए न कोई ख़ौफ़ है और न वे ग़मगीन होंगे।
قَالَ إِنَّمَا ٱلۡعِلۡمُ عِندَ ٱللَّهِ وَأُبَلِّغُكُم مَّآ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦ وَلَٰكِنِّيٓ أَرَىٰكُمۡ قَوۡمٗا تَجۡهَلُونَ ۝ 14
(23) उसने कहा, “इसका इल्म तो अल्लाह को है,7 और मैं सिर्फ़ वह पैग़ाम तुम्हें पहुँचा रहा हूँ जिसे देकर मुझे भेजा गया है। मगर मैं देख रहा हूँ कि तुम लोग जहालत बरत रहे हो।”
7. यानी इस बात का इल्म कि तुमपर अज़ाब कब भेजा जाए और कब तक तुम्हें मुहलत दी जाए।
أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ خَٰلِدِينَ فِيهَا جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 15
(14) ऐसे लोग जन्नत में जानेवाले हैं जहाँ वे हमेशा रहेंगे, अपने उन आमाल के बदले जो वे दुनिया में करते रहे हैं।
فَلَمَّا رَأَوۡهُ عَارِضٗا مُّسۡتَقۡبِلَ أَوۡدِيَتِهِمۡ قَالُواْ هَٰذَا عَارِضٞ مُّمۡطِرُنَاۚ بَلۡ هُوَ مَا ٱسۡتَعۡجَلۡتُم بِهِۦۖ رِيحٞ فِيهَا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 16
(24) फिर जब उन्होंने उस अज़ाब को अपनी वादियों की तरफ़ आते देखा तो कहने लगे, “यह बादल है जो हमको सैराब कर देगा।” — नहीं,8 बल्कि यह वही चीज़ है जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे थे। यह हवा का तूफ़ान है जिसमें दर्दनाक अज़ाब चला आ रहा है,
8. यहाँ इस अम्र की कोई तसरीह नहीं है कि उनको यह जवाब किसने दिया। कलाम के अंदाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मुतरश्शेह होता है कि यह वह जवाब था जो अस्ल सूरते-हाल ने अमलन उनको दिया। वे समझते थे कि यह बादल है जो उनकी वादियों को सैराब करने आया है, और हक़ीक़त में था वह हवा का तूफ़ान जो उन्हें तबाह व बरबाद करने के लिए बढ़ा चला आ रहा था।
وَوَصَّيۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ بِوَٰلِدَيۡهِ إِحۡسَٰنًاۖ حَمَلَتۡهُ أُمُّهُۥ كُرۡهٗا وَوَضَعَتۡهُ كُرۡهٗاۖ وَحَمۡلُهُۥ وَفِصَٰلُهُۥ ثَلَٰثُونَ شَهۡرًاۚ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ أَشُدَّهُۥ وَبَلَغَ أَرۡبَعِينَ سَنَةٗ قَالَ رَبِّ أَوۡزِعۡنِيٓ أَنۡ أَشۡكُرَ نِعۡمَتَكَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتَ عَلَيَّ وَعَلَىٰ وَٰلِدَيَّ وَأَنۡ أَعۡمَلَ صَٰلِحٗا تَرۡضَىٰهُ وَأَصۡلِحۡ لِي فِي ذُرِّيَّتِيٓۖ إِنِّي تُبۡتُ إِلَيۡكَ وَإِنِّي مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 17
(15) हमने इनसान को हिदायत की कि वह अपने वालिदैन के साथ नेक बरताव करे। उसकी माँ ने मशक़्क़त उठाकर उसे पेट में रखा और मशक़्क़त उठाकर ही उसको जना, और उसके हम्ल और दूध छुड़ाने में तीस महीने लग गए। यहाँ तक कि जब वह अपनी पूरी ताक़त को पहुँचा और चालीस साल का हो गया तो उसने कहा, “ऐ मेरे रब! मुझे तौफ़ीक़ दे कि मैं तेरी उन नेमतों का शुक्र अदा करूँ जो तूने मुझे और मेरे वालिदैन को अता फ़रमाईं, और ऐसा नेक अमल करूँ जिससे तू राज़ी हो, और मेरी औलाद को भी नेक बनाकर मुझे सुख दे, मैं तेरे हुज़ूर तौबा करता हूँ और ताबे-फ़रमान (मुस्लिम) बन्दों में से हूँ।”
تُدَمِّرُ كُلَّ شَيۡءِۭ بِأَمۡرِ رَبِّهَا فَأَصۡبَحُواْ لَا يُرَىٰٓ إِلَّا مَسَٰكِنُهُمۡۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 18
(25) अपने रब के हुक्म से हर चीज़ को तबाह कर डालेगा।” आख़िरकार उनका हाल यह हुआ कि उनके रहने की जगहों के सिवा वहाँ कुछ नज़र न आता था। इस तरह हम मुजरिमों को बदला दिया करते हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ نَتَقَبَّلُ عَنۡهُمۡ أَحۡسَنَ مَا عَمِلُواْ وَنَتَجَاوَزُ عَن سَيِّـَٔاتِهِمۡ فِيٓ أَصۡحَٰبِ ٱلۡجَنَّةِۖ وَعۡدَ ٱلصِّدۡقِ ٱلَّذِي كَانُواْ يُوعَدُونَ ۝ 19
(16) इस तरह के लोगों से हम उनके बेहतरीन आमाल को क़ुबूल करते हैं और उनकी बुराइयों से दरगुज़र कर जाते हैं। ये जन्नती लोगों में शामिल होंगे उस सच्चे वादे के मुताबिक़ जो उनसे किया जाता रहा है।
وَلَقَدۡ مَكَّنَّٰهُمۡ فِيمَآ إِن مَّكَّنَّٰكُمۡ فِيهِ وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ سَمۡعٗا وَأَبۡصَٰرٗا وَأَفۡـِٔدَةٗ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُمۡ سَمۡعُهُمۡ وَلَآ أَبۡصَٰرُهُمۡ وَلَآ أَفۡـِٔدَتُهُم مِّن شَيۡءٍ إِذۡ كَانُواْ يَجۡحَدُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 20
(26) उनको हमने वह कुछ दिया था जो तुम लोगों को नहीं दिया है। उनको हमने कान, आँखें और दिल, सब कुछ दे रखे थे, मगर न वे कान उनके किसी काम आए, न आँखें, न दिल, क्योंकि वे अल्लाह की आयात का इनकार करते थे, और उसी चीज़ के फेर में वे आ गए जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَلَمۡ يَعۡيَ بِخَلۡقِهِنَّ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يُحۡـِۧيَ ٱلۡمَوۡتَىٰۚ بَلَىٰٓۚ إِنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 21
(33) और क्या इन लोगों को यह सुझाई नहीं देता कि जिस ख़ुदा ने ये ज़मीन और आसमान पैदा किए और उनको बनाते हुए वह न थका, वह ज़रूर इसपर क़ादिर है कि मुर्दों को जिला उठाए? क्यों नहीं, यक़ीनन वह हर चीज़ की क़ुदरत रखता है।
وَٱلَّذِي قَالَ لِوَٰلِدَيۡهِ أُفّٖ لَّكُمَآ أَتَعِدَانِنِيٓ أَنۡ أُخۡرَجَ وَقَدۡ خَلَتِ ٱلۡقُرُونُ مِن قَبۡلِي وَهُمَا يَسۡتَغِيثَانِ ٱللَّهَ وَيۡلَكَ ءَامِنۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ فَيَقُولُ مَا هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 22
(17) और जिस शख़्स ने अपने वालिदैन से कहा, “उफ़! तंग कर दिया तुमने, क्या तुम मुझे यह ख़ौफ़ दिलाते हो कि मैं मरने के बाद क़ब्र से निकाला जाऊँगा? हालाँकि मुझसे पहले बहुत-सी नस्लें गुज़र चुकी हैं (उनमें से तो कोई उठकर न आया)।” माँ और बाप अल्लाह की दुहाई देकर कहते हैं, “अरे बदनसीब! मान जा, अल्लाह का वादा सच्चा है।” मगर वह कहता है, “ये सब अगले वक़्तों की फ़रसूदा कहानियाँ हैं।”
وَلَقَدۡ أَهۡلَكۡنَا مَا حَوۡلَكُم مِّنَ ٱلۡقُرَىٰ وَصَرَّفۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 23
(27) तुम्हारे गिर्दो-पेश के इलाक़ों में बहुत-सी बस्तियों को हम हलाक कर चुके हैं। हमने अपनी आयात भेजकर बार-बार तरह-तरह से उनको समझाया, शायद कि वे बाज़ आ जाएँ।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ حَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلُ فِيٓ أُمَمٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِم مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 24
(18) ये लोग हैं जिनपर अज़ाब का फ़ैसला चस्पाँ हो चुका है। इनसे पहले जिन्नों और इनसानों के जो टोले (इसी क़िमाश के) हो गुज़रे हैं उन्हीं में ये भी जा शामिल होंगे। बेशक ये घाटे में रह जानेवाले लोग हैं।
وَيَوۡمَ يُعۡرَضُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَلَى ٱلنَّارِ أَلَيۡسَ هَٰذَا بِٱلۡحَقِّۖ قَالُواْ بَلَىٰ وَرَبِّنَاۚ قَالَ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 25
(34) जिस रोज़ ये काफ़िर आग के सामने लाए जाएँगे, उस वक़्त इनसे पूछा जाएगा, “क्या यह हक़ नहीं है?” ये कहेंगे “हाँ, हमारे रब की कसम! (यह वाकई हक़ है)।” अल्लाह फ़रमाएगा, अच्छा तो अब अज़ाब का मज़ा चखो अपने उस इनकार की पादाश में जो तुम करते थे।”
فَلَوۡلَا نَصَرَهُمُ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ قُرۡبَانًا ءَالِهَةَۢۖ بَلۡ ضَلُّواْ عَنۡهُمۡۚ وَذَٰلِكَ إِفۡكُهُمۡ وَمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 26
(28) फिर क्यों न उन हस्तियों ने उनकी मदद की जिन्हें अल्लाह को छोड़कर उन्होंने तक़र्रुब इलल्लाह का ज़रिआ समझते हुए माबूद बना लिया था?9 बल्कि वे तो इनसे खोए गए और यह था उनके झूठ और उन बनावटी अक़ीदों का अंजाम जो उन्होंने गढ़ रखे थे।
9. यानी उन हस्तियों के साथ अक़ीदत की इबतिदा तो उन्होंने इस ख़याल से की थी कि ये ख़ुदा के मक़बूल बन्दे हैं, इनके वसीले से ख़ुदा के यहाँ हमारी रसाई होगी। मगर बढ़ते-बढ़ते उन्होंने ख़ुद उन्हीं हस्तियों को माबूद बना लिया, उन्हीं को मदद के लिए पुकारने लगे, और उन्हीं से दुआएँ माँगने लगे, और उन्हीं के मुताल्लिक़ यह समझ लिया कि ये साहिबे-तसर्रुफ़ हैं, हमारी फ़रियादरसी व मुशकिल-कुशाई यही करेंगे। इस गुमराही से उनको निकालने के लिए अल्लाह तआला ने अपनी आयात अपने रसूलों के ज़रिए से भेजकर तरह-तरह से उनको समझाने की कोशिश की, मगर वे अपने इन झूठे ख़ुदाओं की बन्दगी पर अड़े रहे और इसरार किए चले गए कि हम अल्लाह के बजाय इन्हीं का दामन थामे रहेंगे। अब बताओ, उन मुशरिकों पर जब उनकी गुमराही की वजह से अल्लाह का अज़ाब आया तो उनके वे फ़रियादरस और मुशकिल-कुशा माबूद कहाँ मर रहे थे? क्यों न इस बुरे वक़्त में वे उनकी दस्तगीरी को आए?
وَلِكُلّٖ دَرَجَٰتٞ مِّمَّا عَمِلُواْۖ وَلِيُوَفِّيَهُمۡ أَعۡمَٰلَهُمۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 27
(19) दोनों गरोहों में से हर एक के दरजे उनके आमाल के लिहाज़ से हैं ताकि अल्लाह उनके किए का पूरा-पूरा बदला उनको दे। उनपर ज़ुल्म हरगिज़ न किया जाएगा।
فَٱصۡبِرۡ كَمَا صَبَرَ أُوْلُواْ ٱلۡعَزۡمِ مِنَ ٱلرُّسُلِ وَلَا تَسۡتَعۡجِل لَّهُمۡۚ كَأَنَّهُمۡ يَوۡمَ يَرَوۡنَ مَا يُوعَدُونَ لَمۡ يَلۡبَثُوٓاْ إِلَّا سَاعَةٗ مِّن نَّهَارِۭۚ بَلَٰغٞۚ فَهَلۡ يُهۡلَكُ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 28
(35) पस (ऐ नबी!) सब्र करो जिस तरह ऊलुल-अज़्म रसूलों ने सब्र किया है, और इनके मामले में जल्दी न करो। जिस रोज़ ये लोग उस चीज़ को देख लेंगे जिसका इन्हें ख़ौफ़ दिलाया जा रहा है तो इन्हें यूँ मालूम होगा कि जैसे दुनिया में दिन की एक घड़ी-भर से ज़्यादा नहीं रहे थे। बात पहुँच दी गई, अब क्या नाफ़रमान लोगों के सिवा और कोई हलाक होगा?
وَإِذۡ صَرَفۡنَآ إِلَيۡكَ نَفَرٗا مِّنَ ٱلۡجِنِّ يَسۡتَمِعُونَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَلَمَّا حَضَرُوهُ قَالُوٓاْ أَنصِتُواْۖ فَلَمَّا قُضِيَ وَلَّوۡاْ إِلَىٰ قَوۡمِهِم مُّنذِرِينَ ۝ 29
(29) (और वह वाक़िआ भी क़ाबिले-ज़िक्र है) जब हम जिन्नों के एक गरोह को तुम्हारी तरफ़ ले आए थे ताकि क़ुरआन सुने।10 जब वे उस जगह पहुँचे। (जहाँ तुम क़ुरआन पढ़ रहे थे) तो उन्होंने आपस में कहा, “ख़ामोश हो जाओ।” फिर जब वह पढ़ा जा चुका तो वे ख़बरदार करनेवाले बनकर अपनी क़ौम की तरफ़ पलटे।
10. यह ज़िक्र उस वाक़िए का है जो ताइफ़ के सफ़र से मक्का वापस होते हुए रास्ते में पेश आया था। नमाज़ में आप (सल्ल०) क़ुरआन की तिलावत फ़रमा रहे थे कि जिन्नों के एक गरोह का उधर से गुज़र हुआ, और वह आप (सल्ल०) की क़िरअत सुनने के लिए ठहर गया। इसके बारे में तमाम रिवायात इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इस मौक़े पर जिन्न हुज़ूर (सल्ल०) के सामने नहीं आए थे, न आप (सल्ल०) ने उनकी आमद को महसूस फ़रमाया था, बल्कि बाद में अल्लाह तआता ने वह्य के ज़रिए से आप (सल्ल०) को उनके आने और क़ुरआन सुनने की ख़बर दी।
وَيَوۡمَ يُعۡرَضُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَلَى ٱلنَّارِ أَذۡهَبۡتُمۡ طَيِّبَٰتِكُمۡ فِي حَيَاتِكُمُ ٱلدُّنۡيَا وَٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهَا فَٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَوۡنَ عَذَابَ ٱلۡهُونِ بِمَا كُنتُمۡ تَسۡتَكۡبِرُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَبِمَا كُنتُمۡ تَفۡسُقُونَ ۝ 30
(20) फिर जब ये काफ़िर आग के सामने ला खड़े किए जाएँगे तो उनसे कहा जाएगा, “तुम अपने हिस्से की नेमतें अपनी दुनिया की ज़िन्दगी में ख़त्म कर चुके और उनका लुत्फ़ तुमने उठा लिया, अब जो तकब्बुर तुम ज़मीन में किसी हक़ के बग़ैर करते रहे और जो नाफ़रमानियाँ तुमने कीं उनकी पादाश में आज तुमको ज़िल्लत का अज़ाब दिया जाएगा।
قَالُواْ يَٰقَوۡمَنَآ إِنَّا سَمِعۡنَا كِتَٰبًا أُنزِلَ مِنۢ بَعۡدِ مُوسَىٰ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ وَإِلَىٰ طَرِيقٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 31
(30) उन्होंने जाकर कहा, “ऐ हमारी क़ौम के लोगो! हमने एक किताब सुनी है जो मूसा के बाद नाज़िल की गई है, तसदीक़ करनेवाली है अपने से पहले आई हुई किताबों की, रहनुमाई करती है हक़ और राहे-रास्त की तरफ़।11
11. इससे मालूम हुआ कि ये जिन्न पहले से हज़रत मूसा (अलैहि०) और कुतुबे-आसमानी पर ईमान लाए हुए थे। क़ुरआन सुनने के बाद उन्होंने महसूस किया कि यह वही तालीम है जो पिछले अम्बिया देते चले आ रहे हैं, इसलिए वे इस किताब और इसके लानेवाले रसूलुल्लाह (सल्ल०) पर भी ईमान ले आए।
۞وَٱذۡكُرۡ أَخَا عَادٍ إِذۡ أَنذَرَ قَوۡمَهُۥ بِٱلۡأَحۡقَافِ وَقَدۡ خَلَتِ ٱلنُّذُرُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَمِنۡ خَلۡفِهِۦٓ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 32
(21) ज़रा इन्हें आद के भाई (हूद) का क़िस्सा सुनाओ जब कि उसने अहक़ाफ़ में अपनी क़ौम को ख़बरदार किया था — और ऐसे ख़बरदार करनेवाले उससे पहले भी गुज़र चुके थे और उसके बाद भी आते रहे — कि “अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो, मुझे तुम्हारे हक़ में एक बड़े हौलनाक दिन के अज़ाब का अंदेशा है।”
يَٰقَوۡمَنَآ أَجِيبُواْ دَاعِيَ ٱللَّهِ وَءَامِنُواْ بِهِۦ يَغۡفِرۡ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمۡ وَيُجِرۡكُم مِّنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 33
(31) ऐ हमारी क़ौम के लोगो! अल्लाह की तरफ़ बुलानेवाले की दावत क़ुबूल कर लो और उसपर ईमान ले आओ, अल्लाह तुम्हारे गुनाहों से दरगुज़र फ़रमाएगा और तुम्हें अज़ाबे-अलीम से बचा देगा।”
وَمَن لَّا يُجِبۡ دَاعِيَ ٱللَّهِ فَلَيۡسَ بِمُعۡجِزٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَيۡسَ لَهُۥ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءُۚ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 34
(32) और जो कोई अल्लाह के दाई की बात न माने वह न ज़मीन में ख़ुद कोई बल-बूता रखता है कि अल्लाह को ज़िच कर दे, और न उसके कोई ऐसे हामी व सरपरस्त हैं कि अल्लाह से उसको बचा लें। ऐसे लोग खुली गुमराही में पड़े हुए हैं।