47. मुहम्मद
(मदीना में उतरी, आयतें 38)
परिचय
नाम
आयत 2 के वाक्यांश ‘व आमिनू बिमा नुज़्ज़ि-ल अला मुहम्मदिन' (उस चीज़ को मान लिया जो मुहम्मद पर उतरी है) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें मुहम्मद (सल्ल०) का शुभ नाम आया है। इसके अतिरिक्त इसका एक और मशहूर नाम क़िताल' (युद्ध) भी है जो आयत 20 के वाक्यांश ‘व जुकि-र फ़ीहल क़िताल' (जिसमें युद्ध का उल्लेख था) से लिया गया है।
इसकी विषय-वस्तुएँ इस बात की गवाही देती हैं कि यह हिजरत के बाद मदीना में उस समय उतरी थी, जब युद्ध का आदेश तो दिया जा चुका था, लेकिन व्यावहारिक रूप से अभी युद्ध शुरू नहीं हुआ था। इसका विस्तृत प्रमाण आगे टिप्पणी 8 में मिलेगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जिस कालखंड में यह सूरा उतरी है, उस समय परिस्थिति यह थी कि मक्का मुअज़्ज़मा में विशेष रूप से और अरब भू-भाग में सामान्य रूप से हर जगह मुसलमानों को ज़ुल्म और अत्याचार का निशाना बनाया जा रहा था और उनका जीना दूभर कर दिया गया था। मुसलमान हर ओर से सिमटकर मदीना तय्यिबा के शान्ति-गृह में इकट्ठा हो गए थे, मगर क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी यहाँ भी उनको चैन से बैठने देने के लिए तैयार न थे। मदीने की छोटी-सी बस्ती हर ओर से शत्रुओं के घेरे में थी और वे उसे मिटा देने पर तुले हुए थे। मुसलमानों के लिए ऐसी स्थिति में दो ही रास्ते शेष बचे थे। या तो वे सत्य-धर्म की ओर बुलावे और उसके प्रचार-प्रसार ही से नहीं, बल्कि उसके अनुपालन तक से हाथ खींचकर अज्ञानता के आगे हथियार डाल दें। या फिर मरने-मारने के लिए उठ खड़े हों और सिर-धड़ की बाज़ी लगाकर हमेशा के लिए इस बात का फ़ैसला कर दें कि अरब भू-भाग में इस्लाम को रहना है या अज्ञान को। अल्लाह ने इस अवसर पर मुसलमानों को उसी दृढ़ संकल्प और साहस का रास्ता दिखाया जो ईमानवालों के लिए एक ही राह है। उसने पहले सूरा-22 हज (आयत 39) में उनको युद्ध की अनुज्ञा दी, फिर सूरा-2 बक़रा (आयत 190) में इसका आदेश दे दिया। मगर उस समय हर व्यक्ति जानता था कि इन परिस्थितियों में युद्ध का अर्थ क्या है। मदीना में ईमानवालों का एक मुट्ठी भर जन-समूह था, जो पूरे एक हज़ार सैनिक भी जुटा पाने की क्षमता न रखता था, और उससे कहा जा रहा था कि सम्पूर्ण अरब के अज्ञान से टकरा जाने के लिए खड़ा हो जाए। फिर युद्ध के लिए जिन साधनों की जरूरत थी, एक ऐसी बस्ती अपना पेट काटकर भी मुश्किल से वह जुटा सकती थी, जिसके अंदर सैकड़ों बे-घर-बार के मुहाजिर (हिजरत करनेवाले) अभी पूरी तरह से बसे भी न थे और चारों ओर से अरबवालों ने आर्थिक बहिष्कार करके उसकी कमर तोड़ रखी थी।
विषय और वार्ता
इसका विषय ईमानवालों को युद्ध के लिए तैयार करना और उनको इस सम्बन्ध में आरंभिक आदेश देना है। इसी पहलू से इसका नाम सूरा क़िताल (युद्ध) भी रखा गया है। इसमें क्रमश: नीचे की ये वार्ताएँ प्रस्तुत की गई हैं :
आरंभ में बताया गया है कि इस समय दो गिरोहों के बीच मुक़ाबला आ पड़ा है। एक गिरोह [सत्य के इंकारियों और अल्लाह के दुश्मनों का है। दूसरा गिरोह सत्य के माननेवालों का है।] अब अल्लाह का दो-टूक फ़ैसला यह है कि पहले गिरोह की तमाम कोशिशों और क्रिया-कलापों को उसने अकारथ कर दिया और दूसरे गिरोह की परिस्थितियाँ ठीक कर दीं। इसके बाद मुसलमानों को युद्ध सम्बन्धी प्रारम्भिक आदेश दिए गए हैं। उनको अल्लाह की सहायता और मार्गदर्शन का विश्वास दिलाया गया है। उनको अल्लाह की राह में क़ुर्बानियाँ करने पर बेहतरीन बदला पाने की आशा दिलाई गई है। फिर इस्लाम के शत्रुओं के बारे में बताया गया है कि वे अल्लाह के समर्थन और मार्गदर्शन से वंचित हैं। उनकी कोई चाल ईमानवालों के मुक़ाबले में सफल न होगी और वे इस दुनिया में भी और आख़िरत (परलोक) में भी बहुत बुरा अंजाम देखेंगे। इसके बाद वार्ता का रुख़ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की ओर फिर जाता है जो लड़ाई का हुक्म आने से पहले तो बड़े मुसलमान बने फिरते थे, मगर यह हुक्म आ जाने के बाद अपनी कुशल-क्षेम की चिन्ता में इस्लाम विरोधियों से सांँठ-गाँठ करने लगे थे। उनको साफ़-साफ़ सचेत किया गया है कि अल्लाह और उसके दीन के मामले में निफ़ाक़ (कपट) अपनानेवालों का कोई कर्म भी अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य नहीं है। फिर मुसलमानों को उभारा गया है कि वे अपनी अल्प संख्या और साधनहीनता और इस्लाम-विरोधियों की अधिक संख्या और उनके साज-सामान की अधिकता देखकर साहस न छोड़ें, उनके आगे समझौते की पेशकश करके कमज़ोरी प्रकट न करें जिससे उनके दुस्साहस इस्लाम और मुसलमानों के मुक़ाबले में और अधिक बढ़ जाएँ। बल्कि अल्लाह के भरोसे पर उठें और कुफ़्र (अधर्म) के उस पहाड़ से टकरा जाएँ। अल्लाह मुसलमानों के साथ है। अन्त में मुसलमानों को अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने की दावत (आमंत्रण) दी गई है। यद्यपि उस समय मुसलमानों की आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी किन्तु सामने समस्या यह खड़ी थी कि अरब में इस्लाम और मुसलमानों को ज़िन्दा रहना है या नहीं। इसलिए मुसलमानों से कहा गया कि इस समय जो व्यक्ति भी कंजूसी से काम लेगा, वह वास्तव में अल्लाह का कुछ न बिगाड़ेगा, बल्कि स्वयं अपने आप ही को तबाही के ख़तरे में डाल लेगा।
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إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَتَمَتَّعُونَ وَيَأۡكُلُونَ كَمَا تَأۡكُلُ ٱلۡأَنۡعَٰمُ وَٱلنَّارُ مَثۡوٗى لَّهُمۡ 2
(12) ईमान लानेवालों और नेक अमल करनेवालों को अल्लाह उन जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती हैं, और कुफ़ करनेवाले बस दुनिया की चन्द रोज़ा ज़िन्दगी के मज़े लूट रहे हैं, जानवरों की तरह खा-पी रहे हैं, और उनका आख़िरी ठिकाना जहन्नम है।
وَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ هِيَ أَشَدُّ قُوَّةٗ مِّن قَرۡيَتِكَ ٱلَّتِيٓ أَخۡرَجَتۡكَ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡ فَلَا نَاصِرَ لَهُمۡ 3
(13) (ऐ नबी!) कितनी ही बस्तियाँ ऐसी गुज़र चुकी हैं जो तुम्हारी उस बस्ती से बहुत ज़्यादा ज़ोरआवर थीं जिसने तुम्हें निकाल दिया है।6 उन्हें हमने इसतरह हलाक कर दिया कि कोई उनका बचानेवाला न था।
6. यानी मक्का, जहाँ से क़ुरैश ने हुज़ूर (सल्ल०) को हिजरत पर मजबूर कर दिया था।
مَّثَلُ ٱلۡجَنَّةِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۖ فِيهَآ أَنۡهَٰرٞ مِّن مَّآءٍ غَيۡرِ ءَاسِنٖ وَأَنۡهَٰرٞ مِّن لَّبَنٖ لَّمۡ يَتَغَيَّرۡ طَعۡمُهُۥ وَأَنۡهَٰرٞ مِّنۡ خَمۡرٖ لَّذَّةٖ لِّلشَّٰرِبِينَ وَأَنۡهَٰرٞ مِّنۡ عَسَلٖ مُّصَفّٗىۖ وَلَهُمۡ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَمَغۡفِرَةٞ مِّن رَّبِّهِمۡۖ كَمَنۡ هُوَ خَٰلِدٞ فِي ٱلنَّارِ وَسُقُواْ مَآءً حَمِيمٗا فَقَطَّعَ أَمۡعَآءَهُمۡ 7
(15) परहेज़गार लोगों के लिए जिस जन्नत का वादा किया गया है उसकी शान तो यह है कि उसमें नहरें बह रही होंगी निथरे हुए पानी की, नहरें बह रही होंगी ऐसे दूध की जिसके मज़े में ज़रा फ़र्क़ न आया होगा, नहरें बह रही होंगी ऐसी शराब की जो पीनेवालों के लिए लज़ीज़ होंगी, नहरें बह रही होंगी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ शह्द की।7 उसमें उनके लिए हर तरह के फल होंगे और उनके रब की तरफ़ से बख़शिश। (क्या वह शख़्स जिसके हिस्से में यह जन्नत आनेवाली है) उन लोगों की तरह हो सकता है जो जहन्नम में हमेशा रहेंगे और जिन्हें ऐसा गर्म पानी पिलाया जाएगा जो उनकी आँते तक काट देगा?
7. हदीस में इसकी तशरीह यह आई है कि वह दूध जानवरों के थनों से निकला हुआ न होगा, वह शराब फलों को सड़ाकर कशीद की हुई न होगी, वह शह्द मक्खियों के पेट से निकला हुआ न होगा, बल्कि ये सारी चीज़ें क़ुदरती चश्मों की शक्ल में बहेंगी।
فَإِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَضَرۡبَ ٱلرِّقَابِ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَثۡخَنتُمُوهُمۡ فَشُدُّواْ ٱلۡوَثَاقَ فَإِمَّا مَنَّۢا بَعۡدُ وَإِمَّا فِدَآءً حَتَّىٰ تَضَعَ ٱلۡحَرۡبُ أَوۡزَارَهَاۚ ذَٰلِكَۖ وَلَوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ لَٱنتَصَرَ مِنۡهُمۡ وَلَٰكِن لِّيَبۡلُوَاْ بَعۡضَكُم بِبَعۡضٖۗ وَٱلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَلَن يُضِلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ 8
(4) पस जब इन काफ़िरों से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो तब क़ैदियों को मज़बूत बाँधो, इसके बाद (तुम्हें इख़्तियार है) एहसान करो या फ़िदये का मामला कर लो, ताकि लड़ाई अपने हथियार डाल दे।2 यह है तुम्हारे करने का काम। अल्लाह चाहता तो ख़ुद ही उनसे निमट लेता, मगर (यह तरीक़ा उसने इसलिए इख़्तियार किया है) ताकि तुम लोगों को एक-दूसरे के ज़रिए से आज़माए2 और जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएँगे अल्लाह उनके आमाल को हरगिज़ ज़ाया न करेगा।
1. इस आयत के अलफ़ाज़ से भी, और जिस सियाक़ व सबाक़ में यह आई है उससे भी यह बात साफ़ मालूम होती है कि यह लड़ाई का हुक्म आ जाने के बाद और लड़ाई शुरू होने से पहले नाज़िल हुई है। ‘जब काफ़िरों से तुम्हारी मुठभेड़ हो’ के अलफ़ाज इसपर दलालत करते हैं कि अभी मुठभेड़ हुई नहीं है और इसके होने से पहले वह हिदायत दी जा रही है कि जब वह हो तो मुसलमानों को सबसे पहले अपनी तवज्जोह दुश्मन की जंगी ताक़त अच्छी तरह तोड़ देने पर सर्फ़ करनी चाहिए। इसके बाद जिन लोगों को गिरफ़्तार किया जाए उनके मामले में मुसलमानों को यह भी इख़्तियार है कि फ़िदया लेकर या अपने क़ैदियों का तबादला करके उन्हें छोड़ दें और यह इख़्तियार भी है कि क़ैद में रखकर उनसे एहसान का बरताव करें, या मुनासिब हो तो एहसान के तौर पर उन्हें रिहा कर दें।
2. यानी अल्लाह तआला को अगर मह्ज़ बातिल-परस्तों की सरकोबी ही करनी होती तो वह इस काम के लिए तुम्हारा मुहताज न था। यह काम तो उसका एक ज़लज़ला या एक तूफ़ान चश्मेज़दन में कर सकता था। मगर उसके पेशे-नज़र तो यह है कि इनसानों में से जो हक़-परस्त हों वे बातिल-परस्तों से टकराएँ और उनके मुक़ाबले में जिहाद करें ताकि जिसके अन्दर जो कुछ औसाफ़ हैं वे इस इमतिहान से निखरकर पूरी तरह नुमायाँ हो जाएँ और हर एक अपने किरदार के लिहाज़ से जिस मक़ाम और मरतबे का मुस्तहिक़ हो वह उसको दिया जाए।
فَهَلۡ عَسَيۡتُمۡ إِن تَوَلَّيۡتُمۡ أَن تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَتُقَطِّعُوٓاْ أَرۡحَامَكُمۡ 9
(22) अब क्या तुम उलटे मुँह फिर गए तो ज़मीन में फिर फ़साद बरपा करोगे और आपस में एक-दूसरे के गले काटोगे?11
11. इस इरशाद का मतलब यह है कि अगर इस वक़्त तुम इस्लाम की मुदाफ़अत से जी चुराते हो और इस अज़ीमुश्शान इसलाही इंक़िलाब के लिए जान व माल की बाज़ी लगाने से मुँह मोड़ते हो जिसकी कोशिश मुहम्मद (सल्ल०) और अहले-ईमान कर रहे हैं, तो इसका नतीजा आख़िर इसके सिवा और क्या हो सकता है कि तुम फिर उसी जाहिलियत के निज़ाम की तरफ़ पलट जाओ जिसमें तुम लोग सदियों से एक-दूसरे के गले काटते रहे हो, अपनी औलाद तक को ज़िन्दा दफ़न कर रहे हो, और ख़ुदा की ज़मीन को ज़ुल्म व फ़साद से भरते रहे हो।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُ إِلَيۡكَ حَتَّىٰٓ إِذَا خَرَجُواْ مِنۡ عِندِكَ قَالُواْ لِلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ مَاذَا قَالَ ءَانِفًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَهۡوَآءَهُمۡ 10
(16) इनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जो कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं और फिर जब तुम्हारे पास से निकलते हैं तो उन लोगों से जिन्हें इल्म की नेमत बख़्शी गई है पूछते हैं कि अभी-अभी इन्होंने क्या कहा था?8 ये वे लोग हैं। जिनके दिलों पर अल्लाह ने ठप्पा लगा दिया है और ये अपनी ख़ाहिशात के पैरौ बने हुए हैं।
8. यह उन कुफ़्फ़ार व मुनाफ़िक़ीन और मुनकिरीने-अहले-किताब का ज़िक्र है जो नबी (सल्ल०) की मजलिस में आकर बैठते थे और आप (सल्ल०) के इरशादात या क़ुरआन मजीद की आयात सुनते थे, मगर चूँकि उनका दिल इन मज़ामीन से दूर था जो आप (सल्ल०) की ज़बाने-मुबारक से अदा होते थे, इसलिए सब कुछ सुनकर भी वे कुछ न सुनते थे और बाहर निकलकर मुसलमानों से पूछते थे कि अभी-अभी आप (सल्ल०) क्या फ़रमा रहे थे।
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ تُدۡعَوۡنَ لِتُنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَمِنكُم مَّن يَبۡخَلُۖ وَمَن يَبۡخَلۡ فَإِنَّمَا يَبۡخَلُ عَن نَّفۡسِهِۦۚ وَٱللَّهُ ٱلۡغَنِيُّ وَأَنتُمُ ٱلۡفُقَرَآءُۚ وَإِن تَتَوَلَّوۡاْ يَسۡتَبۡدِلۡ قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُونُوٓاْ أَمۡثَٰلَكُم 17
(38) देखो, तुम लोगों को दावत दी जा रही है कि अल्लाह की राह में माल ख़र्च करो। इसपर तुममें से कुछ लोग हैं जो बुख़्ल कर रहे हैं, हालाँकि जो बुख़्ल करता है वह दर-हक़ीक़त अपने-आप ही से बु़ख़्ल कर रहा है। अल्लाह तो ग़नी है, तुम ही उसके मुहताज हो। अगर तुम मुँह मोड़ोगे तो अल्लाह तुम्हारी जगह किसी और क़ौम को ले आएगा और वे तुम जैसे न होंगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَنصُرُواْ ٱللَّهَ يَنصُرۡكُمۡ وَيُثَبِّتۡ أَقۡدَامَكُمۡ 20
(7) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हारे क़दम मज़बूत जमा देगा।
4. ‘अल्लाह की मदद करने' से मुराद अल्लाह का कलिमा बलन्द करने और हक़ को सरबलन्द करने के काम में हिस्सा लेना है।
فَٱعۡلَمۡ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱللَّهُ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۢبِكَ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مُتَقَلَّبَكُمۡ وَمَثۡوَىٰكُمۡ 21
(19) पस (ऐ नबी!) ख़ूब जान लो कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत का मुस्तहिक़ नहीं है, और माफ़ी माँगो अपने क़ुसूर के लिए भी और मोमिन मर्दों और औरतों के लिए भी।9 अल्लाह तुम्हारी सरगर्मियों को भी जानता है और तुम्हारे ठिकाने से भी वाक़िफ़ है।
9. इस्लाम ने जो अख़लाक़ इनसान को सिखाए हैं, उनमें से एक यह भी है कि बन्दा अपने रब की बन्दगी व इबादत बजा लाने में, और उसके दीन की ख़ातिर जान लड़ाने में, ख़ाह अपनी हद तक कितनी ही कोशिश करता रहा हो, उसको कभी इस ज़अम में मुब्तला न होना चाहिए कि जो कुछ मुझे करना चाहिए था वह मैंने कर दिया है, बल्कि उसे हमेशा यही समझते रहना चाहिए कि मेरे मालिक का मुझपर जो हक़ था वह मैं अदा नहीं कर सका हूँ। और हर वक़्त अपने क़ुसूरों का एतिराफ़ करके अल्लाह से यही दुआ करते रहना चाहिए कि तेरी ख़िदमत में जो कुछ भी कोताही मुझसे हुई है उससे दरगुज़र फ़रमा। यही अस्ल रूह है अल्लाह तआला के उस इरशाद की कि “ऐ नबी! अपने क़ुसूर की माफ़ी माँगो।”
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لِلَّذِينَ كَرِهُواْ مَا نَزَّلَ ٱللَّهُ سَنُطِيعُكُمۡ فِي بَعۡضِ ٱلۡأَمۡرِۖ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِسۡرَارَهُمۡ 22
(26) इसी लिए उन्होंने अल्लाह के नाज़िल-करदा दीन को नापसन्द करनेवालों से कह दिया कि बाज़ मामलात में हम तुम्हारी मानेंगे।12 अल्लाह उनकी ये ख़ुफ़िया बातें ख़ूब जानता है।
12. यानी ईमान का इक़रार करने और मुसलमानों के गरोह में शामिल हो जाने के बावजूद वे अन्दर-ही-अन्दर दुश्मनाने-इस्लाम से साज़-बाज़ करते रहे और उनसे वादे करते रहे कि बाज़ मामलात में हम तुम्हारा साथ देंगे।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَوۡلَا نُزِّلَتۡ سُورَةٞۖ فَإِذَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ مُّحۡكَمَةٞ وَذُكِرَ فِيهَا ٱلۡقِتَالُ رَأَيۡتَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ نَظَرَ ٱلۡمَغۡشِيِّ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡمَوۡتِۖ فَأَوۡلَىٰ لَهُمۡ 23
(20) जो लोग ईमान लाए हैं10 वे कह रहे थे कि कोई सूरा क्यों नहीं नाज़िल की जाती (जिसमें जंग का हुक्म दिया जाए)। मगर जब एक पुख़्ता सूरा नाज़िल कर दी गई जिसमें जंग का ज़िक्र था तो तुमने देखा कि जिनके दिलों में बीमारी थी वे तुम्हारी तरफ़ इस तरह देख रहे हैं जैसे किसी पर मौत छा गई हो। अफ़सोस उनके हाल पर!
10. मतलब यह है कि जो लोग सच्चे मुसलमान थे वे तो हुक्मे-क़िताल के लिए बेताब थे, लेकिन जो लोग ईमान के बग़ैर मुसलमानों के गरोह में शामिल हो गए थे, हुक्मे-क़िताल आते ही उनकी जान पर बन गई।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمُ ٱتَّبَعُواْ مَآ أَسۡخَطَ ٱللَّهَ وَكَرِهُواْ رِضۡوَٰنَهُۥ فَأَحۡبَطَ أَعۡمَٰلَهُمۡ 25
(28) यह इसी लिए तो होगा कि उन्होंने उस तरीक़े की पैरवी की जो अल्लाह को नाराज़ करनेवाला है और उसकी रिज़ा का रास्ता इख़्तियार करना पसन्द न किया। इसी बिना पर उसने इनके सब आमाल ज़ाया कर दिए।13
13. ‘आमाल’ से मुराद वो तमाम आमाल हैं जो मुसलमान बनकर वे अंजाम देते रहे। उनकी नमाज़ें, उनके रोज़े, उनकी ज़कात, ग़रज़ वे तमाम इबादात और वे सारी नेकियाँ जो अपनी ज़ाहिरी शक्ल के एतिबार से आमाले-ख़ैर में शुमार होती हैं, इस बिना पर ज़ाया हो गईं कि उन्होंने मुसलमान होते हुए भी अल्लाह और उसके दीन और मिल्लते-इस्लामिया के साथ इख़लास व वफ़ादारी का रवैया इख़्तियार न किया, बल्कि मह्ज़ अपने दुनयवी मफ़ाद के लिए दुश्मनाने-दीन के साथ साज-बाज़ करते रहे और अल्लाह की राह में जिहाद का मौक़ा आते ही अपने-आपको ख़तरात से बचाने की फ़िक्र में लग गए।
۞أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ دَمَّرَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡۖ وَلِلۡكَٰفِرِينَ أَمۡثَٰلُهَا 30
(10) क्या वे ज़मीन में चले-फिरे न थे कि उन लोगों का अंजाम देखते जो उनसे पहले गुज़र चुके हैं? अल्लाह ने उनका सब कुछ उनपर उलट दिया, और ऐसे ही नताइज इन काफ़िरों के लिए मुक़द्दर हैं।5
5. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि जिस तबाही से वे काफ़िर दोचार हुए वैसी ही तबाही अब इन काफ़िरों के लिए मुक़द्दर है जो मुहम्मद (सल्ल०) की दावत को नहीं मान रहे हैं। दूसरा मतलब यह है कि उन लोगों की तबाही सिर्फ़ दुनिया के अज़ाब पर ख़त्म नहीं हो गई है, बल्कि यही तबाही उनके लिए आख़िरत में भी मुक़द्दर है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَشَآقُّواْ ٱلرَّسُولَ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡهُدَىٰ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗا وَسَيُحۡبِطُ أَعۡمَٰلَهُمۡ 33
(32) जिन लोगों ने कुफ़्र किया और अल्लाह की राह से रोका और रसूल से झगड़ा किया जबकि उनपर राहे-रास्त वाज़ेह हो चुकी थी, दर-हक़ीक़त वे अल्लाह का कोई नुक़सान भी नहीं कर सकते, बल्कि अल्लाह ही उनका सब किया कराया ग़ारत कर देगा।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَلَا تُبۡطِلُوٓاْ أَعۡمَٰلَكُمۡ 34
(33) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! तुम अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो और अपने आमाल को बरबाद न कर लो।14
14. बअलफाज़े-दीगर आमाल के नाफ़े और नतीजाख़ेज़ होने का सारा इनहिसार अल्लाह और उसके रसूल की इताअत पर है। इताअत से मुनहरिफ़ हो जाने के बाद कोई अमल भी अमले-ख़ैर नहीं रहता कि आदमी उसपर कोई अज्र पाने का मुस्तहिक़ हो सके।
فَلَا تَهِنُواْ وَتَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱلسَّلۡمِ وَأَنتُمُ ٱلۡأَعۡلَوۡنَ وَٱللَّهُ مَعَكُمۡ وَلَن يَتِرَكُمۡ أَعۡمَٰلَكُمۡ 36
(35) पस तुम बोदे न बनो और सुल्ह की दरख़ास्त न करो।15 तुम ही ग़ालिब रहनेवाले हो। अल्लाह तुम्हारे साथ है और तुम्हारे आमाल को वह हरगिज़ ज़ाया न करेगा।
15. यहाँ यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि यह इरशाद उस जमाने में फ़रमाया गया है जब सिर्फ़ मदीने की छोटी-सी बस्ती में चन्द सौ मुहाजिरीन व अंसार की एक मुट्ठी-भर जमीअत इस्लाम की अलमबरदारी कर रही थी और उसका मुक़ाबला मह्ज़ कुरैश के ताक़तवर क़बीले ही से नहीं, बल्कि पूरे मुल्के-अरब के कुफ़्फ़ार व मुशरिकीन से था। इस हालत में फ़रमाया जा रहा है कि हिम्मत हारकर इन दुश्मनों से सुलह की दराख़ास्त न करने लगो, बल्कि सर-धढ़ की बाज़ी लगा देने के लिए तैयार हो जाओ।
إِنَّمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا لَعِبٞ وَلَهۡوٞۚ وَإِن تُؤۡمِنُواْ وَتَتَّقُواْ يُؤۡتِكُمۡ أُجُورَكُمۡ وَلَا يَسۡـَٔلۡكُمۡ أَمۡوَٰلَكُمۡ 37
(36) यह दुनिया की जिन्दगी तो एक खेल और तमाशा है। अगर तुम ईमान रखो और तक़वा की रविश पर चलते रहो तो अल्लाह तुम्हारे अज्र तुमको देगा और वह तुम्हारे माल तुमसे न माँगेगा।16
16. यानी वह ग़नी है, उसको अपनी ज़ात के लिए तुमसे लेने की कुछ ज़रूरत नहीं है। अगर वह अपनी राह में तुमसे कुछ ख़र्च करने के लिए कहता है तो वह अपने लिए नहीं, बल्कि तुम्हारी ही भलाई के लिए कहता है।