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سُورَةُ عَبَسَ

80. अ-ब-स

(मक्का में उतरी, आयतें 42)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'अ़-ब-स' (त्योरी चढ़ाई) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

टीकाकारों और हदीस के विद्वानों ने एकमत होकर इस सूरा के उतरने की वजह यह बताई है कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सभा में मक्का मुअज़्ज़मा के कुछ बड़े सरदार बैठे हुए थे और नबी (सल्ल०) उनको इस्लाम अपना लेने पर तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। इतने में इब्ने-उम्मे-मक्तूम नामक एक नेत्रहीन व्यक्ति नबी (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने आपसे इस्लाम के बारे में कुछ पूछना चाहा। नबी (सल्ल०) को उनका यह हस्तक्षेप बुरा लगा और आपने उनसे बेरुख़ी बरती। इसपर अल्लाह की ओर से यह सूरा उतरी। इस ऐतिहासिक घटना से इस सूरा के उतरने का समय आसानी से निश्चित हो जाता है। एक तो यह कि यह बात सिद्ध है कि हज़रत इब्ने-उम्मे-मक्तूम बिल्कुल आरंभिक काल के इस्लाम लानेवालों में से हैं। दूसरे यह कि हदीस की जिन रिवायतों में इस घटना का वर्णन हुआ है, उनमें से कुछ से मालूम होता है कि उस समय वे इस्लाम ला चुके थे और कुछ से मालूम होता है कि इस्लाम की ओर उनका झुकाव हो चुका था और सत्य की खोज में नबी (सल्ल०) के पास आए थे। तीसरे यह कि नबी (सल्ल०) की सभा में जो लोग उस समय बैठे थे, विभिन्न रिवायतों में उनके नामों का उल्लेख किया गया है। इस सूची में हमें उत्बा, शैबा, अबू-जहल, उमैया-बिन-ख़ल्फ़ और उबई-बिन-ख़ल्फ़ जैसे इस्लाम के घोर विरोधियों के नाम मिलते हैं। इससे मालूम होता है कि यह घटना उस समय घटी थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ इन लोगों का मेल-जोल अभी बाक़ी था और संघर्ष इतना नहीं बढ़ा था कि आपके यहाँ उनका आना-जाना और आपके साथ उनकी मुलाक़ातों का सिलसिला बन्द हो गया हो। ये सब बातें इसका प्रमाण हैं कि यह सूरा अति आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

प्रत्यक्ष रूप से इस सूरा में नबी (सल्ल०) के प्रति रोष व्यक्त किया गया है, लेकिन पूरी सूरा पर सामूहिक रूप से विचार किया जाए तो मालूम होता है कि वास्तव में रोष क़ुरैश के उन सरदारों पर व्यक्त किया गया है जो अपने गर्व, हठधर्मी, सत्य-विमुखता के आधार पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सत्य-प्रचार का तुच्छता के साथ खंडन कर रहे थे और [जहाँ तक नबी (सल्ल०) का ताल्लुक़ है, आपको सिर्फ़ प्रचार का सही तरीक़ा बताया गया है । आप (सल्ल०) ने नेत्रहीन के प्रति बेरुख़ी का और क़ुरैश के सरदारों के प्रति ध्यान देने का जो रवैया उस वक़्त अपनाया था, उस] का प्रेरक पूर्णत: निष्ठा और सत्य-सन्देश को आगे बढ़ाने की भावना थी, न कि बड़े लोगों का सम्मान और छोटे लोगों के अपमान का विचार। लेकिन अल्लाह ने आपको समझाया कि इस्लामी दावत का सही तरीक़ा यह नहीं है, बल्कि इस दावत की दृष्टि से आपके ध्यान देने के अस्ल हक़दार वे लोग हैं जिनमें सत्य अपनाने की तत्परता पाई जाती हो और आप और आपके उच्चस्तरीय आह्वान के पद से यह बात गिरी हुई है कि आप उसे उन अहंकारियों के सामने रखें जो अपनी बड़ाई के घमंड में यह समझते हों कि उनको आपकी नहीं, बल्कि आपको उनकी ज़रूरत है। यह सूरा के आरम्भ से आयत 16 तक का विषय है। इसके बाद आयत 17 से सीधे-सीधे रोष की दिशा उन काफ़िरों (इंकारियों) की ओर बदल जाती है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पैग़ाम को रद्द कर रहे थे।

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سُورَةُ عَبَسَ
80. अ.ब.स
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
عَبَسَ وَتَوَلَّىٰٓ
(1) तुर्श-रु हुआ और बेरुखी बरती
أَن جَآءَهُ ٱلۡأَعۡمَىٰ ۝ 1
(2) इस बात पर कि वह अँधा उसके पास आ गया1।
1. बाद के फ़िक़रों से मालूम होता है कि यह तुर्शरूई और बेरुख़ी बरतनेवाले ख़ुद नबी (सल्ल०) थे। जिन नाबीना का यहाँ ज़िक्र किया गया है वे हज़रत इब्ने-उम्मे-मकतूम (रज़ि०) थे जो हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के फूफीज़ाद भाई थे। नबी (सल्ल०) उस वक़्त कुफ़्फ़ारे-मक्का के बड़े-बड़े सरदारों को दीने-इस्लाम की दावत देने में मशग़ूल थे कि इतने में ये नाबीना हाज़िर हुए और इन्होंने कुछ सवालात करने चाहे। हुज़ूर (सल्ल०) को इस मौक़े पर उनकी यह मुदाख़लत नागवार गुज़री।
وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّهُۥ يَزَّكَّىٰٓ ۝ 2
(3) तुम्हें क्या ख़बर, शायद वह सुधर जाए
أَوۡ يَذَّكَّرُ فَتَنفَعَهُ ٱلذِّكۡرَىٰٓ ۝ 3
(4) या नसीहत पर ध्यान दे और नसीहत करना उसके लिए नाफ़े हो?
وَفَٰكِهَةٗ وَأَبّٗا ۝ 4
(31) और तरह-तरह के फल और चारे
أَمَّا مَنِ ٱسۡتَغۡنَىٰ ۝ 5
(5) जो शख़्स बेपरवाही बरतता है
فَأَنتَ لَهُۥ تَصَدَّىٰ ۝ 6
(6) उसकी तरफ़ तो तुम तवज्जुह करते हो,
مَّتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِأَنۡعَٰمِكُمۡ ۝ 7
(32) तुम्हारे लिए और तुम्हारे मवेशियों के लिए सामाने-ज़ीस्त के तौर पर
فَإِذَا جَآءَتِ ٱلصَّآخَّةُ ۝ 8
(33) आख़िरकार जब वह कान बहरे कर देनेवाली आवाज़ बलन्द होगी7
7. मुराद है आख़िरी नफ़ख़े-सूर की क़ियामत-खेज़ आवाज़ जिसके बलन्द होते ही तमाम मरे हुए इनसान जी उठेंगे।
يَوۡمَ يَفِرُّ ٱلۡمَرۡءُ مِنۡ أَخِيهِ ۝ 9
(34) – उस उस रोज़ आदमी अपने भाई
وَأُمِّهِۦ وَأَبِيهِ ۝ 10
(35) और अपनी माँ और अपने बाप
وَمَا عَلَيۡكَ أَلَّا يَزَّكَّىٰ ۝ 11
(7) हलाँकि की अगर वह न सुधरे तो तुम पर उसकी क्या ज़िम्मेदारी है?
وَصَٰحِبَتِهِۦ وَبَنِيهِ ۝ 12
(36) और अपनी बीवी और अपनी औलाद से भागेगा।
وَأَمَّا مَن جَآءَكَ يَسۡعَىٰ ۝ 13
(8) और जो ख़ुद तुम्हारे पास दौड़ा आता है
لِكُلِّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ يَوۡمَئِذٖ شَأۡنٞ يُغۡنِيهِ ۝ 14
(37) उनमें से हर शख़्स पर उस दिन ऐसा वक़्त आ पड़ेगा कि उसे अपने सिवा किसी का होश न होगा।
وَهُوَ يَخۡشَىٰ ۝ 15
(9) और डर रहा होता है,
وُجُوهٞ يَوۡمَئِذٖ مُّسۡفِرَةٞ ۝ 16
(38) कुछ चेहरे उस रोज़ दमक रहे होंगे,
فَأَنتَ عَنۡهُ تَلَهَّىٰ ۝ 17
(10) उससे तुम बेरुख़ी बरतते हो।
ضَاحِكَةٞ مُّسۡتَبۡشِرَةٞ ۝ 18
(39) हश्शाश-बश्शाश और ख़ुश व ख़ुर्रम होंगे।
كَلَّآ إِنَّهَا تَذۡكِرَةٞ ۝ 19
(11) हरगिज़ नहीं2, यह तो एक नसीहत है,
2. यानी ऐसा हरगिज़ न करो। ख़ुदा को भूले हुए और अपनी दुनयवी वजाहत पर फूले हुए लोगों को बेजा अहमियत न दो। न इस्लाम की तालीम ऐसी चीज़ है कि जो इससे मुँह मोड़े उसके सामने उसे ब-इलहाह पेश किया जाए और न तुम्हारी यह शान है कि इन मग़रूर लोगों को इस्लाम की तरफ़ लाने के लिए किसी ऐसे अन्दाज़ से कोशिश करो जिससे ये इस ग़लतफ़हमी में पड़ जाएँ कि तुम्हारी कोई ग़रज़ उनसे अटकी हुई है, ये मान लेंगे तो तुम्हारी दावत फ़रोग़ पा सकेगी वरना नाकाम हो जाएगी। हक़ इनसे उतना ही बेनियाज़ है जितने ये हक़ से बेनियाज़ हैं।
وَوُجُوهٞ يَوۡمَئِذٍ عَلَيۡهَا غَبَرَةٞ ۝ 20
(40) और कुछ चेहरों पर उस रोज़ ख़ाक उड़ रही होगी
تَرۡهَقُهَا قَتَرَةٌ ۝ 21
(41) और कलौंस छाई हुई होगी।
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَفَرَةُ ٱلۡفَجَرَةُ ۝ 22
(42) यही काफ़िर व फ़ाजिर लोग होंगे।
فَمَن شَآءَ ذَكَرَهُۥ ۝ 23
(12) जिसका जी चाहे इसे क़ुबूल करे।
فِي صُحُفٖ مُّكَرَّمَةٖ ۝ 24
(13) यह ऐसे सहीफ़ों में दर्ज है जो मुकर्रम हैं,
مَّرۡفُوعَةٖ مُّطَهَّرَةِۭ ۝ 25
(14) बलन्द मर्तबा हैं, पाकीज़ा3 हैं,
3. यानी हर क़िस्म की आमेज़िशों से पाक है। इनमें ख़ालिस हक़ की तालीम पेश की गई है। किसी नौइयत के बातिल और फ़ासिद अफ़कार व नज़रियात इनमें राह नहीं पा सके हैं।
بِأَيۡدِي سَفَرَةٖ ۝ 26
(15) मुअज्ज़ज़ और नेक
كِرَامِۭ بَرَرَةٖ ۝ 27
(16) कातिबों के हाथों में रहते हैं।4
4. इनसे मुराद वे फ़रिश्ते हैं जो क़ुरआन के इन सहीफ़ों को अल्लाह तआला की बराहे-रास्त हिदायत के मुताबिक़ लिख रहे थे, उनकी हिफ़ाज़त कर रहे थे, और रसूलुल्लाह (सल्ल०) तक उन्हें जूँ-का-तूँ पहुँचा रहे थे।
قُتِلَ ٱلۡإِنسَٰنُ مَآ أَكۡفَرَهُۥ ۝ 28
(17) लानत5 हो इनसान पर! कैसा सख़्त मुनकिरे-हक़ है यह!
5. यहाँ से इताब का रुख़ बराहे-रास्त उन कुफ़्फ़ार की तरफ़ फिरता है जो हक़ से बेनियाज़ी बरत रहे थे। इससे पहले आग़ाज़े-सूरा से आयत-16 तक ख़िताब नबी (सल्ल०) से था और इताब दर-परदा कुफ़्फ़ार पर फ़रमाया जा रहा था। उसका अन्दाज़े-बयान यह था कि ऐ नबी! एक तालिबे-हक़ को छोड़कर आप यह किन लोगों पर अपनी तवज्जोह सर्फ़ कर रहे हैं। ये तो दावते-हक़ के नुक़्ता-ए-नज़र से बिल्कुल बे-क़द्र व क़ीमत हैं। इनकी यह हैसियत नहीं है कि आप जैसा अज़ीमुल-क़द्र पैग़म्बर क़ुरआन जैसी बलन्द मर्तबा चीज़ को उनके आगे पेश करे।
مِنۡ أَيِّ شَيۡءٍ خَلَقَهُۥ ۝ 29
(18) किस चीज़ से अल्लाह ने इसे पैदा किया है?
مِن نُّطۡفَةٍ خَلَقَهُۥ فَقَدَّرَهُۥ ۝ 30
(19) नुत्फे की एक बूँद से अल्लाह ने इसे पैदा किया, फिर इसकी तक़दीर मुक़र्रर की,
ثُمَّ ٱلسَّبِيلَ يَسَّرَهُۥ ۝ 31
(20) फिर इसके लिए जिन्दगी की राह आसान की।
ثُمَّ أَمَاتَهُۥ فَأَقۡبَرَهُۥ ۝ 32
(21) फिर इसे मौत दी और कब्र में पहुँचाया।
ثُمَّ إِذَا شَآءَ أَنشَرَهُۥ ۝ 33
(22) फिर जब चाहे इसे दोबारा उठा-खड़ा कर दे।
كَلَّا لَمَّا يَقۡضِ مَآ أَمَرَهُۥ ۝ 34
(23) हरगिज़ नहीं, इसने वह फ़र्ज़ अदा नहीं किया जिसका अल्लाह ने इसे हुक्म दिया था।
فَلۡيَنظُرِ ٱلۡإِنسَٰنُ إِلَىٰ طَعَامِهِۦٓ ۝ 35
(24) फिर ज़रा इनसान अपना ख़ुराक का देखे।
أَنَّا صَبَبۡنَا ٱلۡمَآءَ صَبّٗا ۝ 36
(25) हमने ख़ूब पानी लुँढाया6,
6. इससे मुराद बारिश है।
ثُمَّ شَقَقۡنَا ٱلۡأَرۡضَ شَقّٗا ۝ 37
(26) फिर ज़मीन को अजीब तरह से फाड़ा,
فَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا حَبّٗا ۝ 38
(27) फिर उसके अन्दर उगाए ग़ल्ले
وَعِنَبٗا وَقَضۡبٗا ۝ 39
(28) और अंगूर और तरकारियाँ
وَزَيۡتُونٗا وَنَخۡلٗا ۝ 40
(29) और ज़ैतून और खजूरें
وَحَدَآئِقَ غُلۡبٗا ۝ 41
(30) और घने बाग़