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فَقَدۡ كَذَّبُواْ فَسَيَأۡتِيهِمۡ أَنۢبَٰٓؤُاْ مَا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ

26. अश-शुअरा 

(मक्का में उतरी-आयतें 227)

परिचय

नाम

आयत 224 वश-शुअराउ यत्तबिउहुमुल ग़ावून' अर्थात् रहे कवि (शुअरा), तो उनके पीछे बहके हुए लोग चला करते है" से उद्धृत है।

उतरने का समय 

विषय-वस्तु और वर्णन-शैली से महसूस होता है और रिवायतें भी इसकी पुष्टि करती हैं कि इस सूरा के उत्तरने का समय मक्का का मध्यकाल है।

विषय और वार्ताएँ

भाषण की पृष्ठभूमि यह है कि मक्का के विधर्मी नबी (सल्ल०) के प्रचार करने और उपदेश का मुक़ाबला लगातार विरोध और इंकार से कर रहे थे और इसके लिए तरह-तरह के बहाने गढ़े चले जाते थे। नबी (सल्ल०) उन लोगों को उचित प्रमाणों के साथ उनकी धारणाओं की ग़लती और तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत की सच्चाई समझाने की कोशिश करते-करते थके जाते हैं, मगर वे हठधर्मी के नित नए रूप अपनाते हुए न थकते थे। यही चीज़ प्यारे नबी (सल्ल०) के लिए आत्म-विदारक बनी हुई थी और इस ग़म में आपकी जान घुली जाती थी। इन परिस्थितियों में यह सूरा उतरी।

वार्ता का आरंभ इस तरह होता है कि तुम इनके पीछे अपनी जान क्यों घुलाते हो? इनके ईमान न लाने का कारण यह नहीं है कि इन्होंने कोई निशानी नहीं देखी है, बल्कि इसका कारण यह है कि ये हठधर्म हैं, समझाने से मानना नहीं चाहते।

इस प्रस्तावना के बाद आयत 191 तक जो विषय लगातार वर्णित हुआ है वह यह है कि सत्य की चाह रखनेवाले लोगों के लिए तो अल्लाह की ज़मीन पर हर ओर निशानियाँ-ही-निशानियाँ फैली हुई हैं जिन्हें देखकर वे सत्य को पहचान सकते हैं। लेकिन हठधर्मी लोग कभी किसी चीज़ को देखकर भी ईमान नहीं लाए हैं, यहाँ तक कि अल्लाह के अज़ाब ने आकर उनको पकड़ में ले लिया है। इसी संदर्भ से इतिहास की सात क़ौमों के हालात पेश किए गए हैं, जिन्होंने उसी हठधर्मी से काम लिया था जिससे मक्का के काफ़िर (इंकारी) काम ले रहे थे और इस ऐतिहासिक वर्णन के सिलसिले में कुछ बातें मन में बिठाई गई हैं।

एक यह कि निशानियाँ दो प्रकार की हैं। एक प्रकार की निशानियाँ वे हैं जो अल्लाह की ज़मीन पर हर ओर फैली हुई हैं, जिन्हें देखकर हर बुद्धिवाला व्यक्ति जाँच कर सकता है कि नबी जिस चीज़ की ओर बुला रहा है, वह सत्य है या नहीं। दूसरे प्रकार की निशानियों वे हैं जो [तबाह कर दी जानेवाली क़ौमों] ने देखी। अब यह निर्णय करना स्वयं इंकारियों का अपना काम है कि वे किस प्रकार की निशानी देखना चाहते हैं।

दूसरे यह कि हर युग में काफ़िरों (इंकारियों) की मानसिकता एक जैसी रही है। उनके तर्क एक ही तरह के थे, उनकी आपत्तियाँ एक जैसी थी और अन्तत: उनका अंजाम भी एक जैसा ही रहा। इसके विपरीत हर समय में नबियों की शिक्षा एक थी। अपने विरोधियों के मुक़ाबले में उनके प्रमाण और तर्क की शैली एक थी और इन सबके साथ अल्लाह की रहमत का मामला भी एक था। ये दोनों नमूने इतिहास में मौजूद है। विधर्मी खुद देख सकते हैं कि उनका अपना चित्र किस नमूने से मिलता है।

तीसरी बात जो बार-बार दोहराई गई है वह यह है कि अल्लाह प्रभावशाली, सामर्थ्यवान और शक्तिशाली भी है और दयावान भी। अब यह बात लोगों को स्वयं ही तय करनी चाहिए कि वे अपने आपको उसकी दया का अधिकारी बनाते हैं या क़हर (प्रकोप) का। आयत 192 से सूरा के अंत तक में इस वार्ता को समेटते हुए कहा गया है कि तुम लोग अगर निशानियाँ ही देखना चाहते हो तो आख़िर वह भयानक निशानियाँ देखने पर आग्रह क्यों करते हो जो तबाह होनेवाली क़ौमों ने देखी हैं। इस क़ुरआन को देखो जो तुम्हारी अपनी भाषा में है, मुहम्मद (सल्ल०) को देखो, उनके साथियों को देखो। क्या यह वाणी किसी शैतान या जिन्न की वाणी हो सकती है? क्या इस वाणी का पेश करनेवाला तुम्हें काहिन नज़र आता है? क्या मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथी तुम्हें वैसे हो नज़र आते हैं जैसे कवि और उनके जैसे लोग हुआ करते हैं? [अगर नहीं, जैसा कि ख़ुद तुम्हारे दिल गवाही दे रहे होंगे] तो फिर यह भी जान लो कि तुम ज़ुल्म कर रहे हो और ज़ालिमों का-सा अंजाम देखकर रहोगे ।

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فَقَدۡ كَذَّبُواْ فَسَيَأۡتِيهِمۡ أَنۢبَٰٓؤُاْ مَا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 1
(6) अब जबकि ये झुठला चुके हैं, अन-क़रीब इनको इस चीज़ की हक़ीक़त (अलग-अलग तरीक़ों से) मालूम हो जाएगी जिसका ये मज़ाक़ उड़ाते रहे हैं।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ كَمۡ أَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ زَوۡجٖ كَرِيمٍ ۝ 2
(7) और क्या इन्होंने कभी ज़मीन पर निगाह नहीं डाली कि हमने कितनी कसीर मिक़दार में हर तरह की उम्दा नबातात उसमें पैदा की हैं?
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 3
(8) यक़ीनन इसमें एक निशानी है,3 मगर इनमें से अकसर माननेवाले नहीं।
3. यानी जुस्तजू-ए-हक़ के लिए किसी को निशानी की ज़रूरत हो तो कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं। आँखें खोलकर ज़रा इस ज़मीन ही की रुएदगी को देख ले, उसे मालूम हो जाएगा कि निज़ामे-कायनात की जो हक़ीक़त (तौहीद) अम्बिया (अलैहि०) पेश करते हैं वह सही है, या वे नज़रियात जो मुशरिकीन या मुनकिरीने-ख़ुदा बयान करते हैं।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 4
(9) और वास्तविकता यह है कि तेरा रब प्रभुत्वशाली भी है और दयावान् भी।4
4. यानी उसकी क़ुदरत तो ऐसी ज़बरदस्त है कि किसी को सज़ा देना चाहे तो पल-भर में मिटाकर रख दे। मगर इसके बावजूद यह सरासर उसका रहम है कि सज़ा देने में जल्दी नहीं करता। बरसों और सदियों ढील देता है, सोचने और समझने और संभलने की मुहलत दिए जाता है, और उम्र भर की नाफ़रमानियों को एक तौबा पर माफ़ कर देने के लिए तैयार रहता है।
وَإِذۡ نَادَىٰ رَبُّكَ مُوسَىٰٓ أَنِ ٱئۡتِ ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 5
(10) इन्हें उस वक़्त का क़िस्सा सुनाओ जबकि तुम्हारे रब ने मूसा को पुकारा, ‘‘ज़ालिम क़ौम के पास जा
قَوۡمَ فِرۡعَوۡنَۚ أَلَا يَتَّقُونَ ۝ 6
(11) — फ़िरऔन की क़ौम के पास— क्या वे नहीं डरते?”
قَالَ رَبِّ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يُكَذِّبُونِ ۝ 7
(12) उसने अर्ज़ किया, “ऐ मेरे रब, मुझे ख़ौफ़ है कि वे मुझे झुठला देंगे।
وَيَضِيقُ صَدۡرِي وَلَا يَنطَلِقُ لِسَانِي فَأَرۡسِلۡ إِلَىٰ هَٰرُونَ ۝ 8
(13) मेरा सीना घुटता है और मेरी ज़बान नहीं चलती। आप हारून की तरफ़ रिसालत भेजें।
وَلَهُمۡ عَلَيَّ ذَنۢبٞ فَأَخَافُ أَن يَقۡتُلُونِ ۝ 9
(14) और मुझपर उनके यहाँ एक जुर्म का इलज़ाम भी है, इसलिए मैं डरता हूँ कि वे मुझे क़त्ल कर देंगे।”
قَالَ كَلَّاۖ فَٱذۡهَبَا بِـَٔايَٰتِنَآۖ إِنَّا مَعَكُم مُّسۡتَمِعُونَ ۝ 10
(15) फ़रमाया, “हरगिज़ नहीं, तुम दोनों जाओ हमारी निशानियाँ लेकर, हम तुम्हारे साथ सब कुछ सुनते रहेंगे।
فَأۡتِيَا فِرۡعَوۡنَ فَقُولَآ إِنَّا رَسُولُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 11
(16) फ़िरऔन के पास जाओ और उससे कहो, हमें रब्बुल-आलमीन ने इसलिए भेजा है
سُورَةُ الشُّعَرَاءِ
26. अश-शुअरा
أَنۡ أَرۡسِلۡ مَعَنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 12
(17) कि तू बनी-इसराईल को हमारे साथ जाने दे।”
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قَالَ أَلَمۡ نُرَبِّكَ فِينَا وَلِيدٗا وَلَبِثۡتَ فِينَا مِنۡ عُمُرِكَ سِنِينَ ۝ 13
(18) फ़िरऔन ने कहा, “क्या हमने तुझको अपने यहाँ बच्चा-सा नहीं पाला था? तूने अपनी उम्र के कई साल हमारे यहाँ गुज़ारे,
طسٓمٓ
(1) ता० सीम० मीम०।
وَفَعَلۡتَ فَعۡلَتَكَ ٱلَّتِي فَعَلۡتَ وَأَنتَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 14
(19) और उसके बाद कर गया जो कुछ कि कर गया, तू बड़ा एहसान फ़रामोश आदमी है।”
يُرِيدُ أَن يُخۡرِجَكُم مِّنۡ أَرۡضِكُم بِسِحۡرِهِۦ فَمَاذَا تَأۡمُرُونَ ۝ 15
(35) चाहता है कि अपने जादू के ज़ोर से तुमको तुम्हारे मुल्क से निकाल दे।7 अब बताओ तुम क्या हुक्म देते हो?”
7. दोनों मोजिज़ों की अज़मत का अन्दाज़ा इससे किया जा सकता है कि एक लम्हे पहले वह अपनी रइयत के एक फ़र्द को भरे दरबार में रिसालत की बातें और बनी-इसराईल की रिहाई का मुतालबा करते देखकर पागल क़रार दे रहा था और उसे धमकी दे रहा था कि अगर तूने मेरे सिवा किसी को माबूद माना तो जेल में सड़ा-सड़ाकर मार दूँगा, या अब इन निशानियों को देखते ही उसपर ऐसी हैबत तारी हुई कि उसे अपनी बादशाही और अपना मुल्क छिनने का ख़तरा लाहिक़ हो गया।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 16
(2) ये किताबे-मुबीन की आयात हैं।1
1. यानी उस किताब की आयात जो अपना मुद्दुआ साफ़-साफ़ खोलकर बयान करती है। जिसे पढ़कर या सुनकर हर शख़्स समझ सकता है कि वह किस चीज़़ की तरफ़ बुलाती है, किस चीज़ से रोकती है, किसे हक़ कहती है और किसे बातिल ठहराती है। मानना या न मानना अलग बात है, मगर कोई शख़्स यह बहाना कभी नहीं बना सकता कि उस किताब की तालीम उसकी समझ में नहीं आई और वह उससे यह मालूम ही न कर सका कि वह उसको क्या चीज़़ छोड़ने और क्या इख़्तियार करने की दावत दे रही है।
قَالَ فَعَلۡتُهَآ إِذٗا وَأَنَا۠ مِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 17
(20) मूसा ने जवाब दिया, “उस वक़्त वह काम मैंने नादानिस्तगी में कर दिया था।
قَالُوٓاْ أَرۡجِهۡ وَأَخَاهُ وَٱبۡعَثۡ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 18
(36) उन्होंने कहा, “उसे और उसके भाई को रोक लीजिए और शहरों में हरकारे भेज दीजिए
لَعَلَّكَ بَٰخِعٞ نَّفۡسَكَ أَلَّا يَكُونُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 19
(3) ऐ नबी, शायद तुम इस ग़म में अपनी जान खो दोगे कि ये लोग ईमान नहीं लाते।
فَفَرَرۡتُ مِنكُمۡ لَمَّا خِفۡتُكُمۡ فَوَهَبَ لِي رَبِّي حُكۡمٗا وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 20
(21) फिर मैं तुम्हारे डर से भाग गया। उसके बाद मेरे रब ने मुझको हुक्म अता किया और मुझे रसूलों में शामिल फ़रमा लिया।
يَأۡتُوكَ بِكُلِّ سَحَّارٍ عَلِيمٖ ۝ 21
(37) कि हर सियाने जादूगर को आपके पास ले आएँ।”
إِن نَّشَأۡ نُنَزِّلۡ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ ءَايَةٗ فَظَلَّتۡ أَعۡنَٰقُهُمۡ لَهَا خَٰضِعِينَ ۝ 22
(4) हम चाहें तो आसमान से ऐसी निशानी नाज़िल कर सकते हैं कि इनकी गर्दनें उसके आगे झुक जाएँ।2
2. यानी कोई ऐसी निशानी नाज़िल कर देना जो तमाम कुफ़्फ़ार को ईमान और इताअत की रविश इख़्तियार करने के लिए मज़बूर कर दे, अल्लाह के लिए कुछ भी मुशकिल नहीं है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो इसकी वजह यह नहीं है कि यह काम उसकी क़ुदरत से बाहर है, बल्कि इसकी वजह यह है कि इस तरह का जबरी ईमान उसको मतलूब नहीं है।
وَتِلۡكَ نِعۡمَةٞ تَمُنُّهَا عَلَيَّ أَنۡ عَبَّدتَّ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 23
(22) रहा तेरा एहसान, जो तूने मुझपर जताया है, तो उसकी हक़ीक़त यह है कि तूने बनी-इसराईल को ग़ुलाम बना लिया था।”5
5. यानी तेरे घर में परवरिश के लिए मैं क्यों आता अगर तूने बनी-इसराईल पर ज़ुल्म न ढाया होता? तेरे ज़ुल्म ही की वजह से तो मेरी माँ ने मुझे टोकरी में डालकर दरिया में बहाया था, वरना क्या मेरी परवरिश के लिए मेरा अपना घर मौजूद न था? इसलिए इस परवरिश का एहसान जताना तुझे ज़ेब नहीं देता।
وَأَزۡلَفۡنَا ثَمَّ ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 24
(64) उसी जगह पर हम दूसरे गिरोह को भी क़रीब ले आए।
فَجُمِعَ ٱلسَّحَرَةُ لِمِيقَٰتِ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 25
(38) चुनाँचे एक रोज़ मुक़र्रर वक़्त पर जादूगर इकट्ठे कर लिए गए
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن ذِكۡرٖ مِّنَ ٱلرَّحۡمَٰنِ مُحۡدَثٍ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهُ مُعۡرِضِينَ ۝ 26
(5) इन लोगों के पास रहमान की तरफ़ से जो नई नसीहत भी आती है ये उससे मुँह मोड़ लेते हैं।
قَالَ فِرۡعَوۡنُ وَمَا رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 27
(23) फ़िरऔन ने कहा, “और यह रब्बुल-आलमीन क्या होता है?”
وَأَنجَيۡنَا مُوسَىٰ وَمَن مَّعَهُۥٓ أَجۡمَعِينَ ۝ 28
(65) मूसा और उन सब लोगों को जो उसके साथ थे, हमने बचा लिया,
وَقِيلَ لِلنَّاسِ هَلۡ أَنتُم مُّجۡتَمِعُونَ ۝ 29
(39) और लोगों से कहा गया, “तुम इजतिमा में चलोगे?
قَالَ رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَآۖ إِن كُنتُم مُّوقِنِينَ ۝ 30
(24) मूसा ने जवाब दिया, “आसमानों और ज़मीन का रब, और उन सब चीज़ों का रब जो आसमान और ज़मीन के दरमियान हैं, अगर तुम यक़ीन लानेवाले हो।”
ثُمَّ أَغۡرَقۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 31
(66) और दूसरों को ग़र्क़ दिया।
لَعَلَّنَا نَتَّبِعُ ٱلسَّحَرَةَ إِن كَانُواْ هُمُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 32
(40) शायद कि हम जादूगरों के दीन ही पर रह जाएँ, अगर वे ग़ालिब रहे।”8
8. यानी सिर्फ़ एलान व इश्तिहार ही पर इक्तिफ़ा नहीं किया गया बल्कि आदमी इस ग़रज़ के लिए छोड़े गए कि लोगों को उकसा-उकसाकर यह मुक़ाबला देखने के लिए लाएँ। इससे मालूम होता है कि भरे दरबार में जो मोजिज़े हज़रत मूसा (अलैहि०) ने दिखाए थे उनकी ख़बर आम लोगों में फैल चुकी थी और फ़िरऔन को यह अन्देशा हो गया था कि इससे बाशिन्दे मुतास्सिर होते चले जा रहे हैं। जिन हाज़िरीने-दरबार ने हज़रत मूसा (अलैहि०) का मोजिज़ा देखा था और बाहर जिन लोगों तक उसकी मोतबर ख़बरें पहुँची थीं उनके अक़ीदे अपने दीने-आबाई पर से मुतज़लज़ल हुए जा रहे थे, और अब उनके दीन का दारोमदार बस इसपर रह गया था कि किसी तरह जादूगर भी वे काम कर दिखाएँ जो मूसा (अलैहि०) ने किया है। फ़िरऔन और उसके आयाने-सल्तनत इसे ख़ुद एक फ़ैसलाकुन मुक़ाबला समझ रहे थे। उनके अपने भेजे हुए आदमी अवामुन्नास के ज़ेहन में यह बात बिठाते फिरते थे कि अगर जादूगर कामयाब हो गए तो हम मूसा के दीन में जाने से बच जाएँगे, वरना हमारे दीन व ईमान की ख़ैर नहीं है।
قَالَ لِمَنۡ حَوۡلَهُۥٓ أَلَا تَسۡتَمِعُونَ ۝ 33
(25) फ़िरऔन ने अपने आस-पास के लोगों से कहा, “सुनते हो?”
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 34
(67) इस वाक़िए में एक निशानी है, मगर इन लोगों में से अकसर माननेवाले नहीं हैं।
فَلَمَّا جَآءَ ٱلسَّحَرَةُ قَالُواْ لِفِرۡعَوۡنَ أَئِنَّ لَنَا لَأَجۡرًا إِن كُنَّا نَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 35
(41) जब जादूगर मैदान में आए तो उन्होंने फ़िरऔन से कहा, “हमें इनाम तो मिलेगा अगर हम ग़ालिब रहे?”
قَالَ رَبُّكُمۡ وَرَبُّ ءَابَآئِكُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 36
(26) मूसा ने कहा, “तुम्हारा रब भी और तुम्हारे उन आबाओ-अज्दाद का रब भी जो गुज़र चुके हैं।”
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 37
(68) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहीम भी।
۞قَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ لَكَ وَٱتَّبَعَكَ ٱلۡأَرۡذَلُونَ ۝ 38
(111) उन्होंने जवाब दिया, “क्या हम तुझे मान लें, हालाँकि तेरी पैरवी रज़ील तरीन लोगों ने इख़्तियार की है?”
قَالَ نَعَمۡ وَإِنَّكُمۡ إِذٗا لَّمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 39
(42) उसने कहा, “हाँ, और तुम तो उस वक़्त मुक़र्रबीन में शामिल हो जाओगे।”
قَالَ إِنَّ رَسُولَكُمُ ٱلَّذِيٓ أُرۡسِلَ إِلَيۡكُمۡ لَمَجۡنُونٞ ۝ 40
(27) फ़िरऔन ने (हाज़िरीन से) कहा, “तुम्हारे ये पैग़म्बर साहब, जो तुम्हारी तरफ़ भेजे गए हैं, बिलकुल ही पागल मालूम होते हैं।”
وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 41
(69) और इन्हें इबराहीम का क़िस्सा सुनाओ
قَالَ وَمَا عِلۡمِي بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 42
(112) नूह ने कहा, “मैं क्या जानूँ कि उनके अमल कैसे हैं?
قَالَ لَهُم مُّوسَىٰٓ أَلۡقُواْ مَآ أَنتُم مُّلۡقُونَ ۝ 43
(43) मूसा ने कहा, “फेंको जो तुम्हें फेंकना है।"
قَالَ رَبُّ ٱلۡمَشۡرِقِ وَٱلۡمَغۡرِبِ وَمَا بَيۡنَهُمَآۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 44
(28) मूसा ने कहा, “मशरिक़ व मग़रिब और जो कुछ उनके दरमियान है सबका रब, अगर आप लोग कुछ अक़्ल रखते हैं।”
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَا تَعۡبُدُونَ ۝ 45
(70) जबकि उसने अपने बाप और अपने क़ौमवालों से पूछा था कि “ये क्या चीज़़ें हैं जिनको तुम पूजते हो?”
إِنۡ حِسَابُهُمۡ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّيۖ لَوۡ تَشۡعُرُونَ ۝ 46
(113) उनका हिसाब तो मेरे रब के ज़िम्मे है। काश, तुम कुछ शुऊर से काम लो!
فَأَلۡقَوۡاْ حِبَالَهُمۡ وَعِصِيَّهُمۡ وَقَالُواْ بِعِزَّةِ فِرۡعَوۡنَ إِنَّا لَنَحۡنُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 47
(44) उन्होंने फ़ौरन अपनी रस्सियाँ और लाठियाँ फेंक दीं और बोले, “फ़िरऔन के इक़बाल से हम ही ग़ालिब रहेंगे।”
قَالَ لَئِنِ ٱتَّخَذۡتَ إِلَٰهًا غَيۡرِي لَأَجۡعَلَنَّكَ مِنَ ٱلۡمَسۡجُونِينَ ۝ 48
(29) फ़िरऔन ने कहा, “अगर तूने मेरे सिवा किसी और को माबूद माना तो तुझे भी उन लोगों में शामिल कर दूँगा जो क़ैदख़ानों में पड़े सड़ रहे हैं।”
قَالُواْ نَعۡبُدُ أَصۡنَامٗا فَنَظَلُّ لَهَا عَٰكِفِينَ ۝ 49
(71) उन्होंने जवाब दिया, “कुछ बुत हैं जिनकी हम पूजा करते हैं और उन्हीं की सेवा में हम लगे रहते हैं।”
وَمَآ أَنَا۠ بِطَارِدِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 50
(114) मेरा यह काम नहीं है कि जो ईमान लाएँ उनको मैं घुतकार दूँ।
فَأَلۡقَىٰ مُوسَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ تَلۡقَفُ مَا يَأۡفِكُونَ ۝ 51
(45) फिर मूसा ने अपना असा फेंका तो यकायक वह उनके झूठे करिश्मों को हड़प करता चला जा रहा था।
قَالَ هَلۡ يَسۡمَعُونَكُمۡ إِذۡ تَدۡعُونَ ۝ 52
(72) उसने पूछा, “क्या ये तुम्हारी सुनते हैं जब तुम इन्हें पुकारते हो?
قَالَ أَوَلَوۡ جِئۡتُكَ بِشَيۡءٖ مُّبِينٖ ۝ 53
(30) मूसा ने कहा, “अगरचे मैं ले आऊँ तेरे सामने एक सरीह चीज़ भी?”
إِنۡ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 54
(115) मैं तो बस एक साफ़-साफ़ मुतनब्बेह कर देनेवाला आदमी हूँ।”
فَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سَٰجِدِينَ ۝ 55
(46) इसपर सारे जादूगर बेइख़्तियार सजदे में गिर पड़े
قَالَ فَأۡتِ بِهِۦٓ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 56
(31) फ़िरऔन ने कहा, “अच्छा तो ले आ, अगर तू सच्चा है।”
أَوۡ يَنفَعُونَكُمۡ أَوۡ يَضُرُّونَ ۝ 57
(73) या ये तुम्हें कुछ नफ़ा या नुक़सान पहुँचाते हैं?”
قَالُواْ لَئِن لَّمۡ تَنتَهِ يَٰنُوحُ لَتَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمَرۡجُومِينَ ۝ 58
(116) उन्होंने कहा, “ऐ नूह, अगर तू बाज़ न आया तो फिटकारे हुए लोगों में शामिल होकर रहेगा।”
قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 59
(47) और बोल उठे कि “मान गए हम रब्बुल-आलमीन को
فَأَلۡقَىٰ عَصَاهُ فَإِذَا هِيَ ثُعۡبَانٞ مُّبِينٞ ۝ 60
(32) (उसकी ज़बान से यह बात निकलते ही) मूसा ने अपना असा फेंका और यकायक वह एक सरीह अज़दहा था।
قَالُواْ بَلۡ وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا كَذَٰلِكَ يَفۡعَلُونَ ۝ 61
(74) उन्होंने जवाब दिया “नहीं, बल्कि हमने अपने बाप-दादा को ऐसा ही करते पाया है।”
قَالَ رَبِّ إِنَّ قَوۡمِي كَذَّبُونِ ۝ 62
(117) नूह ने दुआ की, “ऐ मेरे रब मेरी क़ौम ने मुझे झुठला दिया।
رَبِّ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 63
(48)— मूसा और हारून के रब को।”
وَنَزَعَ يَدَهُۥ فَإِذَا هِيَ بَيۡضَآءُ لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 64
(33) फिर उसने अपना हाथ (बग़ल से) खींचा और वह सब देखनेवालों के सामने चमक रहा था।6
6. जूँ ही हज़रत मूसा ने बग़ल से हाथ निकाला यकायक सारा माहौल जगमगा उठा और यूँ महसूस हुआ जैसे सूरज निकल आया है।
قَالَ أَفَرَءَيۡتُم مَّا كُنتُمۡ تَعۡبُدُونَ ۝ 65
(75) इसपर इबराहीम ने कहा, “कभी तुमने (ऑंखें खोलकर) उन चीज़़ों को देखा भी
فَٱفۡتَحۡ بَيۡنِي وَبَيۡنَهُمۡ فَتۡحٗا وَنَجِّنِي وَمَن مَّعِيَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 66
(118) अब मेरे और उनके बीच दोटूक फ़ैसला कर दे और मुझे और जो मोमिन मेरे साथ हैं उनको नजात दे।”
قَالَ ءَامَنتُمۡ لَهُۥ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّهُۥ لَكَبِيرُكُمُ ٱلَّذِي عَلَّمَكُمُ ٱلسِّحۡرَ فَلَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَۚ لَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ وَلَأُصَلِّبَنَّكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 67
(49) फ़िरऔन ने कहा, “तुम मूसा की बात मान गए इससे पहले कि मैं तुम्हें इजाज़त देता! ज़रूर यह तुम्हारा बड़ा है, जिसने तुम्हें जादू सिखाया है। अच्छा, अभी तुम्हें मालूम हुआ जाता है; मैं तुम्हारे हाथ-पाँव मुख़ालिफ़ सम्तों से कटवाऊँगा और तुम सबको सूली चढ़ा दूँगा।”
قَالَ لِلۡمَلَإِ حَوۡلَهُۥٓ إِنَّ هَٰذَا لَسَٰحِرٌ عَلِيمٞ ۝ 68
(34) फ़िरऔन अपने गिर्दो-पेश के सरदारों से बोला, “यह आदमी यक़ीनन एक माहिर जादूगर है।
أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُمُ ٱلۡأَقۡدَمُونَ ۝ 69
(76) जिनकी बन्दगी तुम और तुम्हारे पिछले बाप-दादा बजा लाते रहे?
فَأَنجَيۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 70
(119) आख़िरकार हमने उसको और उसके साथियों को एक भरी हुई कश्ती में बचा लिया।12
12. ‘भरी हुई कश्ती’ से मुराद यह है कि वह कश्ती ईमान लानेवाले इनसानों और सारे जानवरों से भर गई थी जिनका एक-एक जोड़ा साथ रख लेने की हिदायत फ़रमाई गई थी। सूरा-11 (हूद), आयत-40 में इसका ज़िक्र गुज़र चुका है।
قَالُواْ لَا ضَيۡرَۖ إِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا مُنقَلِبُونَ ۝ 71
(50) उन्होंने जवाब दिया, “कुछ परवाह नहीं, हम अपने रब के हुज़ूर पहुँच जाएँगे।
فَإِنَّهُمۡ عَدُوّٞ لِّيٓ إِلَّا رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 72
(77) मेरे तो ये सब दुश्मन हैं, बजुज़ एक रब्बुल-आलमीन के
ثُمَّ أَغۡرَقۡنَا بَعۡدُ ٱلۡبَاقِينَ ۝ 73
(120) और उसके बाद बाक़ी लोगों को ग़र्क़ कर दिया।
إِنَّا نَطۡمَعُ أَن يَغۡفِرَ لَنَا رَبُّنَا خَطَٰيَٰنَآ أَن كُنَّآ أَوَّلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 74
(51) और हमें उम्मीद है कि हमारा रब हमारे गुनाह माफ़ कर देगा, क्योंकि सबसे पहले हम ईमान लाए हैं।”
ٱلَّذِي خَلَقَنِي فَهُوَ يَهۡدِينِ ۝ 75
(78) जिसने मुझे पैदा किया, फिर वही मेरी रहनुमाई फ़रमाता है।
۞وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَسۡرِ بِعِبَادِيٓ إِنَّكُم مُّتَّبَعُونَ ۝ 76
(52) हमने9 मूसा को वह्य भेजी कि “रातों-रात मेरे बन्दों को लेकर निकल जाओ, तुम्हारा पीछा किया जाएगा।”
9. अब एक तवील ज़माने के वाक़िआत को छोड़कर उस वक़्त का ज़िक्र किया जा रहा है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) को मिस्र से हिजरत करने का हुक्म दिया गया।
وَٱلَّذِي هُوَ يُطۡعِمُنِي وَيَسۡقِينِ ۝ 77
(79) जो मुझे खिलाता और पिलाता है
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 78
(121) यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से अकसर लोग माननेवाले नहीं।
فَأَرۡسَلَ فِرۡعَوۡنُ فِي ٱلۡمَدَآئِنِ حَٰشِرِينَ ۝ 79
(53) इसपर फ़िरऔन ने (फ़ौजें जमा करने के लिए) शहरों में नक़ीब भेज दिए
وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابُ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 80
(156) उसको हरगिज़ न छेड़ना वरना एक बड़े दिन का अज़ाब तुमको आ लेगा।”
وَإِذَا مَرِضۡتُ فَهُوَ يَشۡفِينِ ۝ 81
(80) और जब बीमार हो जाता हूँ तो वही मुझे शिफ़ा देता है।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 82
(122) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहीम भी।
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ لَشِرۡذِمَةٞ قَلِيلُونَ ۝ 83
(54) (और कहला भेजा) कि “ये कुछ मुट्ठी भर लोग हैं,
وَٱلَّذِي يُمِيتُنِي ثُمَّ يُحۡيِينِ ۝ 84
(81) जो मुझे मौत देगा और फिर दोबारा मुझको ज़िन्दगी बख़्शेगा।
فَعَقَرُوهَا فَأَصۡبَحُواْ نَٰدِمِينَ ۝ 85
(157) मगर उन्होंने उसकी कूचें काट दीं और आख़िरकार पछताते रह गए।
كَذَّبَتۡ عَادٌ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 86
(123) आद ने रसूलों को झुठलाया।
وَإِنَّهُمۡ لَنَا لَغَآئِظُونَ ۝ 87
(55) और इन्होंने हमको बहुत नाराज़ किया है,
فَأَخَذَهُمُ ٱلۡعَذَابُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 88
(158) अज़ाब ने उन्हें आ लिया। यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से ज़्यादातर माननेवाले नहीं।
وَٱلَّذِيٓ أَطۡمَعُ أَن يَغۡفِرَ لِي خَطِيٓـَٔتِي يَوۡمَ ٱلدِّينِ ۝ 89
(82) और जिससे मैं उम्मीद रखता हूँ कि रोज़े-जज़ा वह मेरी ख़ता माफ़ फ़रमा देगा।”
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ هُودٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 90
(124) याद करो जबकि उनके भाई हूद ने उनसे कहा था, “क्या तुम डरते नहीं?
وَإِنَّا لَجَمِيعٌ حَٰذِرُونَ ۝ 91
(56) और हम एक ऐसी जमाअत हैं जिसकी शेवा हर वक़्त चैकन्ना रहना है।”
رَبِّ هَبۡ لِي حُكۡمٗا وَأَلۡحِقۡنِي بِٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 92
(83) (इसके बाद इबराहीम ने दुआ की), “ऐ मेरे रब, मुझे हुक्म अता कर। और मुझको सॉलेहों के साथ मिला।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 93
(159) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहीम भी।
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 94
(125) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।
فَأَخۡرَجۡنَٰهُم مِّن جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 95
(57) इस तरह हम उन्हें उनके बाग़ों और चश्मों
كَذَّبَتۡ قَوۡمُ لُوطٍ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 96
(160) लूत की क़ौम ने रसूलों को झुठलाया।
وَٱجۡعَل لِّي لِسَانَ صِدۡقٖ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 97
(84) और बाद के आनेवालों में मुझको सच्ची नामवरी अता कर।
وَكُنُوزٖ وَمَقَامٖ كَرِيمٖ ۝ 98
(58) और ख़ज़ानों और उनकी बेहतरीन क़ियामगाहों से निकाल लाए।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 99
(126) लिहाज़ा तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ لُوطٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 100
(161) याद करो जबकि उनके भाई लूत ने उनसे कहा था, “क्या तुम डरते नहीं ?
وَٱجۡعَلۡنِي مِن وَرَثَةِ جَنَّةِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 101
(85) और मुझे जन्नते-नईम के वारिसों में शामिल कर।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 102
(127) मैं इस काम पर तुमसे किसी अज्र का तालिब नहीं हूँ। मेरा अज्र तो रब्बुल-आलमीन के ज़िम्मे है।
كَذَٰلِكَۖ وَأَوۡرَثۡنَٰهَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 103
(59) यह तो हुआ उनके साथ, और (दूसरी तरफ़) बनी-इसराईल को हमने इन सब चीज़ों का वारिस कर दिया।
وَٱغۡفِرۡ لِأَبِيٓ إِنَّهُۥ كَانَ مِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 104
(86) और मेरे बाप को माफ़ कर दे कि बेशक वह गुमराह लोगों में से है
أَتَبۡنُونَ بِكُلِّ رِيعٍ ءَايَةٗ تَعۡبَثُونَ ۝ 105
(128) यह तुम्हारा क्या हाल है कि हर ऊँचे मक़ाम पर ला-हासिल एक यादगार इमारत बना डालते हो,
فَأَتۡبَعُوهُم مُّشۡرِقِينَ ۝ 106
(60) सुबह होते ही ये लोग उनके तआक़ुब चल पड़े।
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 107
(162) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।
وَلَا تُخۡزِنِي يَوۡمَ يُبۡعَثُونَ ۝ 108
(87) और मुझे उस दिन रुसवा न कर जबकि सब लोग ज़िन्दा करके उठाए जाएँगे
وَتَتَّخِذُونَ مَصَانِعَ لَعَلَّكُمۡ تَخۡلُدُونَ ۝ 109
(129) और बड़े-बड़े क़स्र तामीर करते हो गोया तुम्हें हमेशा रहना है।
فَلَمَّا تَرَٰٓءَا ٱلۡجَمۡعَانِ قَالَ أَصۡحَٰبُ مُوسَىٰٓ إِنَّا لَمُدۡرَكُونَ ۝ 110
(61) जब दोनों गरोहों का आमना-सामना हुआ तो मूसा के साथी चीख़ उठे कि “हम तो पकड़े गए।”
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 111
(163) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
يَوۡمَ لَا يَنفَعُ مَالٞ وَلَا بَنُونَ ۝ 112
(88) जबकि न माल कोई फ़ायदा देगा न औलाद,
وَإِذَا بَطَشۡتُم بَطَشۡتُمۡ جَبَّارِينَ ۝ 113
(130) और जब किसी पर हाथ डालते हो तो इन्तिहाई जब्बार बनकर डालते हो।
قَالَ كَلَّآۖ إِنَّ مَعِيَ رَبِّي سَيَهۡدِينِ ۝ 114
(62) मूसा ने कहा, “हरगिज़ नहीं! मेरे साथ मेरा रब है। वह ज़रूर मेरी रहनुमाई फ़रमाएगा।”
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 115
(164) मैं इस काम पर तुमसे किसी अज्र का तालिब नहीं हूँ, मेरा अज्र तो रब्बुल-आलमीन के ज़िम्मे है।
فَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنِ ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡبَحۡرَۖ فَٱنفَلَقَ فَكَانَ كُلُّ فِرۡقٖ كَٱلطَّوۡدِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 116
(63) हमने मूसा को वह्य के ज़रिए से हुक्म दिया कि “मार अपना असा समुन्दर पर।” यकायक समुन्दर फट गया और उसका हर टुकड़ा एक अज़ीमुश्शान पहाड़ की तरह हो गया।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 117
(131) पस तुम लोग अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
إِلَّا مَنۡ أَتَى ٱللَّهَ بِقَلۡبٖ سَلِيمٖ ۝ 118
(89) सिवाय इसके कि कोई शख़्स क़ल्बे-सलीम लिए हुए अल्लाह के हुज़ूर हाज़िर हो।”
أَتَأۡتُونَ ٱلذُّكۡرَانَ مِنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 119
(165) क्या तुम दुनिया की मख़लूक़ में से मर्दों के पास जाते हो
وَأُزۡلِفَتِ ٱلۡجَنَّةُ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 120
(90) (उस रोज़10) जन्नत परहेज़गारों के क़रीब ले आई जाएगी।
10. यहाँ से आयत 102 तक की इबारत हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के क़ौल का हिस्सा नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला की तरफ़ से उसपर इज़ाफ़ा है।
وَٱتَّقُواْ ٱلَّذِيٓ أَمَدَّكُم بِمَا تَعۡلَمُونَ ۝ 121
(132) डरो उससे जिसने वह कुछ तुम्हें दिया है, जो तुम जानते हो।
وَتَذَرُونَ مَا خَلَقَ لَكُمۡ رَبُّكُم مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٌ عَادُونَ ۝ 122
(166) और तुम्हारी बीवियों में तुम्हारे रब ने तुम्हारे लिए जो कुछ पैदा किया है, उसे छोड़ देते हो? बल्कि तुम लोग तो हद से ही गुज़र गए हो।”
أَمَدَّكُم بِأَنۡعَٰمٖ وَبَنِينَ ۝ 123
(133) तुम्हें जानवर दिए, औलादें दीं,
وَبُرِّزَتِ ٱلۡجَحِيمُ لِلۡغَاوِينَ ۝ 124
(91) और दोज़ख़ बहके हुए लोगों के सामने खोल दी जाएगी
قَالُواْ لَئِن لَّمۡ تَنتَهِ يَٰلُوطُ لَتَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُخۡرَجِينَ ۝ 125
(167) उन्होंने कहा, “ऐ लूत, अगर तू ये बातें करने से बाज़ न आया तो जो लोग हमारी बस्तियों से निकाले गए हैं उनमें तू भी शामिल होकर रहेगा।”
وَقِيلَ لَهُمۡ أَيۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡبُدُونَ ۝ 126
(92) और उनसे पूछा जाएगा कि “अब कहाँ हैं वे जिनकी तुम ख़ुदा को छोड़कर इबादत किया करते थे?
وَجَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 127
(134) बाग़ दिए और चश्मे दिए।
قَالَ إِنِّي لِعَمَلِكُم مِّنَ ٱلۡقَالِينَ ۝ 128
(168) उसने कहा, “तुम्हारे करतूतों पर जो लोग कुढ़ रहे हैं मैं उनमें शामिल हूँ।
مِن دُونِ ٱللَّهِ هَلۡ يَنصُرُونَكُمۡ أَوۡ يَنتَصِرُونَ ۝ 129
(93) क्या वे तुम्हारी कुछ मदद कर रहे हैं या ख़ुद अपना बचाव कर सकते हैं?”
إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 130
(135) मुझे तुम्हारे हक़ में एक बड़े दिन के अज़ाब का डर है।”
وَإِنَّهُۥ لَفِي زُبُرِ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 131
(196) और अगले लोगों की किताबों में भी यह मौजूद है।18
18. यानी यही ज़िक्र और यही तंज़ील और यही इलाही तालीम साबिक़ आसमानी कुतुब में भी मौजूद है।
رَبِّ نَجِّنِي وَأَهۡلِي مِمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 132
(169) ऐ परवरदिगार, मेरे और मेरे अहलो-अयाल को इनकी बदकिरदारियों से नजात दे।”
فَكُبۡكِبُواْ فِيهَا هُمۡ وَٱلۡغَاوُۥنَ ۝ 133
(94) फिर वे माबूद और ये बहके हुए लोग,
قَالُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡنَآ أَوَعَظۡتَ أَمۡ لَمۡ تَكُن مِّنَ ٱلۡوَٰعِظِينَ ۝ 134
(136) उन्होंने जवाब दिया, “तू नसीहत कर या न कर, हमारे लिए सब यकसाँ है।
أَوَلَمۡ يَكُن لَّهُمۡ ءَايَةً أَن يَعۡلَمَهُۥ عُلَمَٰٓؤُاْ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 135
(197) क्या इन (अहले-मक्का) के लिए यह कोई निशानी नहीं है कि इसे उलमा-ए-बनी-इसराईल जानते हैं?19
19. यानी उलमा-ए-बनी-इसराईल इस बात से वाक़िफ़ हैं कि जो तालीम क़ुरआन मजीद में दी गई है वह ठीक वही तालीम है जो साबिक़ कुतुबे-आसमानी किताबों में दी गई थी। वे यह नहीं कह सकते कि पिछली किताबों की तालीम इससे मुख़्तलिफ़ थी।
فَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ أَجۡمَعِينَ ۝ 136
(170) आख़िरकार हमने उसे और उसके सब अहलो-अयाल को बचा लिया,
وَجُنُودُ إِبۡلِيسَ أَجۡمَعُونَ ۝ 137
(95) और इबलीस के लप्रकर सब-के-सब उसमें ऊपर तले धकेल दिए जाएँगे।
إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا خُلُقُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 138
(137) ये बातें तो यूँ ही होती चली आई है।
وَلَوۡ نَزَّلۡنَٰهُ عَلَىٰ بَعۡضِ ٱلۡأَعۡجَمِينَ ۝ 139
(198) (लेकिन इनकी हठधर्मी का हाल तो यह है कि) अगर हम इसे अजमी पर भी नाज़िल कर देते
قَالُواْ وَهُمۡ فِيهَا يَخۡتَصِمُونَ ۝ 140
(96) वहाँ ये सब आपस में झगड़ेंगे और ये बहके हुए लोग (अपने माबूदों से) कहेंगे
وَمَا نَحۡنُ بِمُعَذَّبِينَ ۝ 141
(138) और हम अज़ाब में मुब्तला होनेवाले नहीं हैं।”
إِلَّا عَجُوزٗا فِي ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 142
(171) सिवाय एक बुढ़िया के जो पीछे रह जानेवालों में थी।13
13. इससे मुराद हज़रत लूत (अलैहि०) की बीवी है।
فَقَرَأَهُۥ عَلَيۡهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ مُؤۡمِنِينَ ۝ 143
(199) और यह (फ़सीह अरबी कलाम) वह इनको पढ़कर20 सुनाता तब भी ये न मानते।
20. यानी यह अहले-हक़ के दिलों की तरह तस्कीने-रूह और शिफ़ा-ए-क़ल्ब बनकर उनके अन्दर नहीं उतरता, बल्कि एक गर्म लोहे की सलाख़ बनकर इस तरह गुज़रता है कि वे सीख़ पा हो जाते हैं और इसके मज़ामीन पर ग़ौर करने के बजाय इसकी तरदीद के लिए हरबे ढूँढ़ने लगते हैं।
تَٱللَّهِ إِن كُنَّا لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 144
(97) कि “ख़ुदा की क़सम, हम तो खुली गुमराही में मुब्तला थे
فَكَذَّبُوهُ فَأَهۡلَكۡنَٰهُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 145
(139) आख़िरकार उन्होंने उसे झुठला दिया और हमने उनको हलाक कर दिया। यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से अकसर लोग माननेवाले नहीं हैं।
ثُمَّ دَمَّرۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 146
(172) फिर बाक़ी लोगों को हमने तबाह कर दिया
إِذۡ نُسَوِّيكُم بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 147
(98) जबकि तुमको रब्बुल-आलमीन की बराबरी का दर्जा दे रहे थे।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 148
(140) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहीम भी।
وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِم مَّطَرٗاۖ فَسَآءَ مَطَرُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 149
(173) और उनपर बरसाई एक बरसात, बड़ी ही बुरी बारिश थी जो उन डराए जानेवालों पर नाज़िल हुई।
كَذَٰلِكَ سَلَكۡنَٰهُ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 150
(200) इसी तरह हमने इस (ज़िक्र) को मुजरिमों के दिलों में गुज़ारा है।
وَمَآ أَضَلَّنَآ إِلَّا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 151
(99) और वे मुजरिम लोग ही थे जिन्होंने हमको इस गुमराही में डाला।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 152
(174) यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से ज़्यादातर माननेवाले नहीं।
كَذَّبَتۡ ثَمُودُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 153
(141) समूद ने रसूलों को झुठलाया
لَا يُؤۡمِنُونَ بِهِۦ حَتَّىٰ يَرَوُاْ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 154
(201) वे इसपर ईमान नहीं लाते जब तक कि अज़ाबे-अलीम न देख लें।
فَمَا لَنَا مِن شَٰفِعِينَ ۝ 155
(100) अब न हमारा कोई सिफ़ारिशी है
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 156
(175) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहीम भी।
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ صَٰلِحٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 157
(142) याद करो जबकि उनके भाई सॉलेह ने उनसे कहा, “क्या तुम डरते नहीं?
فَيَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 158
(202) फिर जब वह बेख़बरी में उनपर आ पड़ता है
وَلَا صَدِيقٍ حَمِيمٖ ۝ 159
(101) और न कोई जिगरी दोस्त।
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 160
(143) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।
فَيَقُولُواْ هَلۡ نَحۡنُ مُنظَرُونَ ۝ 161
(203) उस वक़्त वे कहते हैं कि अब हमें कुछ मुहलत मिल सकती है?”
كَذَّبَ أَصۡحَٰبُ لۡـَٔيۡكَةِ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 162
(176) 'असहाबुल-ऐका'14 ने रसूलों को झुठलाया।
14. 'अल-ऐका' वालों का मुख़्तसर ज़िक्र सूरा-15 (अल-हिज्र), आयत 78-84 में किया जा चुका है।
فَلَوۡ أَنَّ لَنَا كَرَّةٗ فَنَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 163
(102) काश, हमें एक बार फिर पलटने का मौक़ा मिल जाए तो हम मोमिन हों।”
أَفَبِعَذَابِنَا يَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 164
(204) तो क्या ये लोग हमारे अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं?
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ شُعَيۡبٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 165
(177) याद करो जबकि शुऐब ने उनसे कहा था, “क्या तुम डरते नहीं?
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 166
(144) लिहाज़ा तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
أَفَرَءَيۡتَ إِن مَّتَّعۡنَٰهُمۡ سِنِينَ ۝ 167
(205) तुमने कुछ ग़ौर किया, अगर हम इन्हें बरसों तक ऐश करने की मुहलत भी दे दें
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 168
(103) यक़ीनन इसमें एक बड़ी निशानी है,11 मगर इनमें से अकसर लोग ईमान लानेवाले नहीं।
11. यानी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के क़िस्से में।
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 169
(178) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 170
(145) मैं इस काम पर तुमसे किसी अज्र का तालिब नहीं हूँ, मेरा अज्र तो रब्बुल-आलमीन के ज़िम्मे है।
ثُمَّ جَآءَهُم مَّا كَانُواْ يُوعَدُونَ ۝ 171
(206) और फिर वही चीज़़ इनपर आ जाए जिससे इन्हें डराया जा रहा है
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 172
(179) लिहाज़ा तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
أَتُتۡرَكُونَ فِي مَا هَٰهُنَآ ءَامِنِينَ ۝ 173
(146) क्या तुम उन सब चीज़ों के दरमियान, जो यहाँ हैं, बस यूँ ही इत्मीनान से रहने दिए जाओगे?
مَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يُمَتَّعُونَ ۝ 174
(207) तो वह सामाने-ज़ीस्त जो इनको मिला हुआ है इनके किस काम आएगा?
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 175
(180) मैं इस काम पर तुमसे किसी अज्र का तालिब नहीं हूँ, मेरा अज्र तो रब्बुल-आलमीन के ज़िम्मे है।
فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 176
(147) इन बाग़ों और चश्मों में?
۞أَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَلَا تَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُخۡسِرِينَ ۝ 177
(181) पैमाने ठीक भरो और किसी को घाटा न दो।
وَمَآ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةٍ إِلَّا لَهَا مُنذِرُونَ ۝ 178
(208) (देखो) हमने कभी किसी बस्ती को इसके बग़ैर हलाक नहीं किया कि उसके लिए ख़बरदार करनेवाले
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 179
(104) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहीम भी।
وَزُرُوعٖ وَنَخۡلٖ طَلۡعُهَا هَضِيمٞ ۝ 180
(148) इन खेतों और नख़लिस्तानों में जिनके ख़ोशे रस भरे हैं?
وَزِنُواْ بِٱلۡقِسۡطَاسِ ٱلۡمُسۡتَقِيمِ ۝ 181
(182) सही तराज़ू से तौलो
كَذَّبَتۡ قَوۡمُ نُوحٍ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 182
(105) नूह के लोगों ने रसूलों को झुठलाया।
وَتَنۡحِتُونَ مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتٗا فَٰرِهِينَ ۝ 183
(149) तुम पहाड़ खोद-खोदकर फ़ख़रिया उनमें इमारतें बनाते हो।
ذِكۡرَىٰ وَمَا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 184
(209) हक़्क़े-नसीहत अदा करने को मौजूद थे और हम ज़ालिम न थे।
وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 185
(183) और लोगों को उनकी चीज़ें कम न दो। ज़मीन में फ़साद न फैलाते फिरो
إِذۡ قَالَ لَهُمۡ أَخُوهُمۡ نُوحٌ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 186
(106) याद करो जबकि उनके भाई नूह ने उनसे कहा था, “क्या तुम डरते नहीं हो?
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 187
(150) अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
وَٱتَّقُواْ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ وَٱلۡجِبِلَّةَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 188
(184) और उस ज़ात का ख़ौफ़ करो जिसने तुम्हें और गुज़श्ता नस्लों को पैदा किया है।”
إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 189
(107) मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ,
وَلَا تُطِيعُوٓاْ أَمۡرَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 190
(151) उन बे-लगाम लोगों की इताअत न करो
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 191
(108) इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत करो।
قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مِنَ ٱلۡمُسَحَّرِينَ ۝ 192
(185) उन्होंने कहा, “तू तो बस एक सेहरज़दा आदमी है,
ٱلَّذِينَ يُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا يُصۡلِحُونَ ۝ 193
(152) जो ज़मीन में फ़साद बरबा करते हैं और कोई इस्लाह नहीं करते।”
وَمَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَىٰ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 194
(109) मैं इस काम पर तुमसे किसी अज्र का तालिब नहीं हूँ। मेरा अज्र तो रब्बुल-आलमीन के ज़िम्मे है।
وَمَآ أَنتَ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَإِن نَّظُنُّكَ لَمِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 195
(186) और तू कुछ नहीं है मगर एक इनसान हम ही जैसा, और हम तो तुझे बिलकुल झूठा समझते हैं।
قَالُوٓاْ إِنَّمَآ أَنتَ مِنَ ٱلۡمُسَحَّرِينَ ۝ 196
(153) उन्होंने जवाब दिया, “तू तो बस एक सेहरज़दा आदमी है।
فَأَسۡقِطۡ عَلَيۡنَا كِسَفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 197
(187) अगर तू सच्चा है तो हमपर आसमान का कोई टुकड़ा गिरा दे।”
مَآ أَنتَ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا فَأۡتِ بِـَٔايَةٍ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 198
(154) तू हम जैसे एक इनसान के सिवा और क्या है। ला कोई निशानी अगर तू सच्चा है।”
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 199
(110) तो तुम अल्लाह से डरो और (बेखटके) मेरी इताअत करो।”
قَالَ رَبِّيٓ أَعۡلَمُ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 200
(188) शुऐब ने कहा, “मेरा रब जानता है जो कुछ तुम कर रहे हो।”
قَالَ هَٰذِهِۦ نَاقَةٞ لَّهَا شِرۡبٞ وَلَكُمۡ شِرۡبُ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 201
(155) सॉलेह ने कहा, “यह ऊँटनी है। एक दिन इसके पीने का है और एक दिन तुम सबके पानी लेने का।
فَكَذَّبُوهُ فَأَخَذَهُمۡ عَذَابُ يَوۡمِ ٱلظُّلَّةِۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٍ ۝ 202
(189) उन्होंने उसे झुठला दिया, आख़िरकार छतरी वाले दिन का अज़ाब उनपर आ गया15, और वह बड़े ही ख़ौफ़नाक दिन का अज़ाब था।
15. इन अलफ़ाज़ से जो बात समझ में आती है वह यह है कि उन लोगों ने चूँकि आसमानी अज़ाब माँगा था, इसलिए अल्लाह तआला ने उनपर एक बादल भेज दिया और वह छतरी की तरह उनपर उस वक़्त तक छाया रहा जब तक बाराने-अज़ाब ने उनको बिलकुल तबाह न कर दिया। यह बात भी निगाह में रहे कि हज़रत शुऐब (अलैहि०) मदयन की तरफ़ भी भेजे गए थे और अल-ऐका की तरफ़ भी दोनों क़ौमों पर अज़ाब दो मुख़्तलिफ़ शक्लों में आया।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗۖ وَمَا كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 203
(190) यक़ीनन इसमें एक निशानी है, मगर इनमें से अकसर माननेवाले नहीं।
وَإِنَّ رَبَّكَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 204
(191) और हक़ीक़त यह है कि तेरा रब ज़बरदस्त भी है और रहीम भी।
إِلَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَذَكَرُواْ ٱللَّهَ كَثِيرٗا وَٱنتَصَرُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا ظُلِمُواْۗ وَسَيَعۡلَمُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَيَّ مُنقَلَبٖ يَنقَلِبُونَ ۝ 205
(227)—बजुज़ उन लोगों के जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए और अल्लाह को कसरत से याद किया और जब उनपर ज़ुल्म किया गया तो सिर्फ़ बदला ले लिया25—और ज़ुल्म करनेवालों को जल्द ही मालूम हो जाएगा कि वे किस अंजाम से दोचार होते हैं।26
25. यहाँ शुअरा की उस आम मज़म्मत से जो ऊपर बयान हुई, उन शुअरा को मुस्तस्ना किया गया है जो चार ख़ुसूसियात के हामिल हों। अव्वल यह कि वे मोमिन हों, दूसरे यह कि अपनी अमली ज़िन्दगी में नेक हों, तीसरे यह कि अल्लाह को कसरत से याद करनेवाले हों, और चौथे यह कि वे ज़ाती अग़राज़ के लिए तो किसी की हज्व न करें, अलबत्ता जब ज़ालिमों के मुक़ाबले में हक़ की हिमायत की ज़रूरत पेश आए तो फिर ज़बान से वही काम लें जो एक मुजाहिद तीर व शमशीर से लेता है।
26. ज़ुल्म करनेवालों से मुराद यहाँ वे लोग हैं जो हक़ को नीचा दिखाने के लिए बिलकुल हठधर्मी की राह से नबी (सल्ल०) पर शाइरी और कहानत और साहिरी और जुनून की तोहमतें लगाते फिरते थे, ताकि न वाक़िफ़ लोग आपकी दावत से बदगुमान हों और आपकी तालीम की तरफ़ तवज्जोह न दें।
وَإِنَّهُۥ لَتَنزِيلُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 206
(192) यह रब्बुल-आलमीन की नाज़िल करदा चीज़ है।16
16. यानी यह क़ुरआन जिसकी आयात सुनाई जा रही हैं।
نَزَلَ بِهِ ٱلرُّوحُ ٱلۡأَمِينُ ۝ 207
(193) इसे लेकर तेरे दिल पर अमानतदार रूह17 उतरी है
17. मुराद है हज़रत जिबरील (अलैहि०)।
عَلَىٰ قَلۡبِكَ لِتَكُونَ مِنَ ٱلۡمُنذِرِينَ ۝ 208
(194) ताकि तू उन लोगों में शामिल हो जो (ख़ुदा की तरफ़ से ख़ल्क़े-ख़ुदा को) मुतनब्बेह करनेवाले हैं,
بِلِسَانٍ عَرَبِيّٖ مُّبِينٖ ۝ 209
(195) साफ़-साफ़ अरबी ज़बान में।
وَمَا تَنَزَّلَتۡ بِهِ ٱلشَّيَٰطِينُ ۝ 210
(210) इस (किताबे-मुबीन) को शैतान लेकर नहीं उतरे हैं,
وَمَا يَنۢبَغِي لَهُمۡ وَمَا يَسۡتَطِيعُونَ ۝ 211
(211) न यह काम उनको सजता है, और न वे ऐसा कर ही सकते हैं।
إِنَّهُمۡ عَنِ ٱلسَّمۡعِ لَمَعۡزُولُونَ ۝ 212
(212) वे तो इसके सुनने तक से दूर रखे गए हैं।21
21. यानी जिस वक़्त यह क़ुरआन रसूलुल्लाह (सल्ल०) पर नाज़िल हो रहा होता है उस वक़्त शयातीन इसे सुन भी नहीं सकते, यह तो बहुत दूर की बात है कि उन्हें यह मालूम हो सके कि आप पर क्या चीज़़ नाज़िल हो रही है।
فَلَا تَدۡعُ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتَكُونَ مِنَ ٱلۡمُعَذَّبِينَ ۝ 213
(213) पस ऐ नबी, अल्लाह के साथ किसी दूसरे माबूद को न पुकारो, वरना तुम भी सज़ा पानेवालों में शामिल हो जाओगे।
وَأَنذِرۡ عَشِيرَتَكَ ٱلۡأَقۡرَبِينَ ۝ 214
(214) अपने सबसे क़रीबी रिश्तेदारों को डराओ,
وَٱخۡفِضۡ جَنَاحَكَ لِمَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 215
(215) और ईमान लानेवालों में से जो लोग तुम्हारी पैरवी इख़्तियार कर लें उनके साथ तवाज़ो से पेश आओ,
فَإِنۡ عَصَوۡكَ فَقُلۡ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 216
(216) लेकिन अगर वे तुम्हारी नाफ़रमानी करें तो उनसे कह दो कि जो कुछ तुम करते हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।
وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 217
(217) और उस ज़बरदस्त और रहीम पर तवक्कुल करो
ٱلَّذِي يَرَىٰكَ حِينَ تَقُومُ ۝ 218
(218) जो तुम्हें उस वक़्त देख रहा होता है जब तुम उठते हो,22
22. उठने से मुराद रातों को नमाज़ के लिए उठना भी हो सकता है और फ़रीज़ा-ए-रिसालत अदा करने के लिए उठना भी।
وَتَقَلُّبَكَ فِي ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 219
(219) और सजदागुज़ार लोगों में तुम्हारी नक़्लो-हरकत पर निगाह रखता है।
إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 220
(220) वह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
هَلۡ أُنَبِّئُكُمۡ عَلَىٰ مَن تَنَزَّلُ ٱلشَّيَٰطِينُ ۝ 221
(221) लोगो, क्या मैं तुम्हें बताऊँ कि शयातीन किसपर उतरा करते हैं?
تَنَزَّلُ عَلَىٰ كُلِّ أَفَّاكٍ أَثِيمٖ ۝ 222
(222) वे हर जालसाज़, बदकार पर उतरा करते हैं।
يُلۡقُونَ ٱلسَّمۡعَ وَأَكۡثَرُهُمۡ كَٰذِبُونَ ۝ 223
(223) सुनी-सुनाई बातें कानों में फूँकते हैं और उनमें से अकसर झूठे होते हैं।23
23. यह कुफ़्फ़ारे-मक्का के इस इलज़ाम का जवाब है कि वे हुज़ूर (सल्ल०) को काहिन कहते थे।
وَٱلشُّعَرَآءُ يَتَّبِعُهُمُ ٱلۡغَاوُۥنَ ۝ 224
(224) रहे शुअरा, तो उनके पीछे बहके हुए लोग चला करते हैं।24
24. यह भी उनके इस इलज़ाम का जवाब है कि वे हुज़ूर (सल्ल०) को शाइर कहते थे।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّهُمۡ فِي كُلِّ وَادٖ يَهِيمُونَ ۝ 225
(225) क्या तुम देखते नहीं हो कि वे हर वादी में भटकते हैं
وَأَنَّهُمۡ يَقُولُونَ مَا لَا يَفۡعَلُونَ ۝ 226
(226) और ऐसी बातें कहते हैं जो करते नहीं हैं—