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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

 34. सबा

(मक्का में उतरी, आयतें 54)

 

परिचय

नाम

आयत 15 के वाक्यांश 'ल-क़द का-न लि स-ब-इन फ़ी मस्कनिहिम आय:'(सबा के लिए उनके अपने निवास स्थान ही में एक निशानी मौजूद थी) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि वह सूरा जिसमें सबा का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

इसके उतरने का ठीक समय किसी विश्वस्त उल्लेख से मालूम नहीं होता। अलबत्ता वर्णनशैली से ऐसा लगता है कि या तो वह मक्का का मध्यकाल है या आरंभिक काल और अगर मध्यकाल है तो शायद उसका आरंभिक समय है, जबकि ज़ुल्म और अत्याचारों में उग्रता न आई थी।

विषय और वार्ता

इस सूरा में विधर्मियों के उन आक्षेपों का उत्तर दिया गया है जो वे नबी (सल्ल०) की 'तौहीद' (एकेश्वरवाद)और आख़िरत' (परलोकवाद) की दावत पर और ख़ुद आपकी पैग़म्बरी पर अधिकतर व्यंग्य एवं उपहास और अश्लील आरोपों के रूप में पेश करते थे। उन आक्षेपों का उत्तर कहीं तो उनको नक़ल करके दिया गया है और कहीं व्याख्यान से स्वयं यह स्पष्ट हो जाता है कि यह किस आक्षेप का उत्तर है। उत्तर अधिकतर स्थानों पर समझाने-बुझाने, याद दिलाने और तर्क देकर मन में उतारने की शैली में हैं, लेकिन कहीं-कहीं विधर्मियों को उनकी हठधर्मी के बुरे अंजाम से डराया भी गया है। इसी सिलसिले में हज़रत दाऊद (अलैहि०), हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और सबा क़ौम के वृत्तान्त इस उद्देश्य के लिए बयान किए गए हैं कि तुम्हारे सामने इतिहास की ये दोनों मिसालें मौजूद हैं । इन दोनों मिसालों को सामने रखकर स्वयं राय क़ायम कर लो कि तौहीद और आख़िरत के विश्वास और नेमत के प्रति कृतज्ञता-प्रदर्शन से जो जीवन बनता है, वह ज़्यादा बेहतर है या वह जीवन जो कुफ्र और शिर्क और आख़िरत के इंकार और दुनियापरस्ती की बुनियाद पर निर्मित है।

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
34. सबा
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلۡأٓخِرَةِۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ
(1) हम्द उस ख़ुदा के लिए है जो आसमानों और ज़मीन की हर चीज़ का मालिक है और आख़िरत में भी उसी के लिए हम्द है। वह दाना और बाख़बर है।
فَأَعۡرَضُواْ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ سَيۡلَ ٱلۡعَرِمِ وَبَدَّلۡنَٰهُم بِجَنَّتَيۡهِمۡ جَنَّتَيۡنِ ذَوَاتَيۡ أُكُلٍ خَمۡطٖ وَأَثۡلٖ وَشَيۡءٖ مِّن سِدۡرٖ قَلِيلٖ ۝ 1
(16) मगर वे मुँह मोड़ गए। आख़िरकार हमने उनपर बन्द-तोड़ सैलाब भेज दिया और उनके पिछले दो बाग़ों की जगह दो और बाग़ उन्हें दिए जिनमें कड़वे-कसैले फल और झाऊ के दरख़्त थे और कुछ थोड़ी-सी बेरियाँ।
يَعۡلَمُ مَا يَلِجُ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا يَخۡرُجُ مِنۡهَا وَمَا يَنزِلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا يَعۡرُجُ فِيهَاۚ وَهُوَ ٱلرَّحِيمُ ٱلۡغَفُورُ ۝ 2
(2) जो कुछ ज़मीन में जाता है और जो कुछ उससे निकलता है और जो कुछ आसमान से उतरता है और जो कुछ उसमें चढ़ता है, हर चीज़ को वह जानता है, वह रहीम और ग़फ़ूर है।
ذَٰلِكَ جَزَيۡنَٰهُم بِمَا كَفَرُواْۖ وَهَلۡ نُجَٰزِيٓ إِلَّا ٱلۡكَفُورَ ۝ 3
(17) यह था उनके कुफ़्र का बदला जो हमने उनको दिया, और नाशुक्रे इनसान के सिवा ऐसा बदला हम और किसी को नहीं देते।
وَجَعَلۡنَا بَيۡنَهُمۡ وَبَيۡنَ ٱلۡقُرَى ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَا قُرٗى ظَٰهِرَةٗ وَقَدَّرۡنَا فِيهَا ٱلسَّيۡرَۖ سِيرُواْ فِيهَا لَيَالِيَ وَأَيَّامًا ءَامِنِينَ ۝ 4
(18) और हमने उनके और उन बस्तियों के दरमियान, जिनको हमने बरकत अता की थी, नुमायाँ बस्तियाँ बसा दी थीं और उनमें सफ़र की मसाफ़तें एक अंदाज़े पर रख दी थीं।4 चलो-फिरो इन रास्तों में रात-दिन पूरे अम्न के साथ।
4. ‘बरकरावाली बस्तियों’ से मुराद शाम व फ़िलस्तीन का इलाक़ा है। ‘नुमायाँ बस्तियों’ से मुराद ऐसी बस्तियाँ है जो शाहराहे-आम पर वाक़े हों, गोशों में छिपी हुई न हों। और सफ़र की मसाफ़तों को एक अंदाजे पर रखने से मुराद यह है कि यमन से शाम तक का पूरा सफ़र मुसलसल आबाद इलाक़े में तय होता था जिसकी हर मंज़िल से दूसरी मंज़िल की मसाफ़त मालूम व मुतय्यन थी।
فَقَالُواْ رَبَّنَا بَٰعِدۡ بَيۡنَ أَسۡفَارِنَا وَظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَحَادِيثَ وَمَزَّقۡنَٰهُمۡ كُلَّ مُمَزَّقٍۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٖ ۝ 5
(19) मगर उन्होंने कहा, “ऐ हमारे रब! हमारे सफ़र की मसाफ़तें लम्बी कर दे।5 उन्होंने अपने ऊपर आप ज़ुल्म किया। आख़िरकार हमने इन्हें अफ़साना बनाकर रख दिया और उन्हें बिलकुल तितर-बितर कर डाला। यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं हर उस शख़्स के लिए जो बड़ा साबिर व शाकिर हो।
5. ज़रूरी नहीं है कि उन्होंने ज़बान ही से यह दुआ की हो। बसा-औक़ात आदमी अमल ऐसा करता है जिससे मालूम होता है कि गोया वह अपने ख़ुदा से यह कह रहा है कि यह नेमत जो तूने मुझे दी है मैं इसके क़ाबिल नहीं हूँ। आयत के अलफ़ाज़ से यह बात साफ़ मुतरश्शेह होती है कि वह क़ौम अपनी आबादी की कसरत को अपने लिए मुसीबत समझ रही थी और यह चाहती थी कि आबादी इतनी घट जाए कि सफ़र की मंज़िलें दूर-दूर हो जाएँ।
وَلَقَدۡ صَدَّقَ عَلَيۡهِمۡ إِبۡلِيسُ ظَنَّهُۥ فَٱتَّبَعُوهُ إِلَّا فَرِيقٗا مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 6
(20) उनके मामले में इबलीस ने अपना गुमान सही पाया और उन्होंने उसी की पैरवी की, बजुज़ एक थोड़े-से गरोह के जो मोमिन था।
وَمَا كَانَ لَهُۥ عَلَيۡهِم مِّن سُلۡطَٰنٍ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يُؤۡمِنُ بِٱلۡأٓخِرَةِ مِمَّنۡ هُوَ مِنۡهَا فِي شَكّٖۗ وَرَبُّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَفِيظٞ ۝ 7
(21) इबलीस को उनपर कोई इक़तिदार हासिल न था, मगर जो कुछ हुआ वह इसलिए हुआ कि हम यह देखना चाहते थे कि कौन आख़िरत का माननेवाला है और कौन उसकी तरफ़ से शक में पड़ा हुआ है। तेरा रब हर चीज़ पर निगराँ है।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ لَا يَمۡلِكُونَ مِثۡقَالَ ذَرَّةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا لَهُمۡ فِيهِمَا مِن شِرۡكٖ وَمَا لَهُۥ مِنۡهُم مِّن ظَهِيرٖ ۝ 8
(22) (ऐ नबी! इन मुशरिकीन से) कहो कि “पुकार देखो अपने उन माबूदों को जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा अपना माबूद समझे बैठे हो। वे न आसमान में किसी ज़र्रा बराबर चीज़ के मालिक हैं न ज़मीन में। वे आसमान व ज़मीन की मिलकियत में शरीक भी नहीं हैं। उनमें से कोई अल्लाह का मददगार भी नहीं है।
وَلَا تَنفَعُ ٱلشَّفَٰعَةُ عِندَهُۥٓ إِلَّا لِمَنۡ أَذِنَ لَهُۥۚ حَتَّىٰٓ إِذَا فُزِّعَ عَن قُلُوبِهِمۡ قَالُواْ مَاذَا قَالَ رَبُّكُمۡۖ قَالُواْ ٱلۡحَقَّۖ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 9
(23) और अल्लाह के हुज़ूर कोई शफ़ाअत भी किसी के लिए नाफ़े नहीं हो सकती बजुज़ उस शख़्स के जिसके लिए अल्लाह ने सिफ़ारिश की इजाज़त दी हो। हत्ता कि जब लोगों के दिलों से घबराहट दूर होगी तो वे (सिफ़ारिश करनेवालों से) पूछेंगे कि तुम्हारे रब ने क्या जवाब दिया? वे कहेंगे कि ठीक जवाब मिला है और वह बुज़ुर्ग व बरतर है।”
۞قُلۡ مَن يَرۡزُقُكُم مِّنَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قُلِ ٱللَّهُۖ وَإِنَّآ أَوۡ إِيَّاكُمۡ لَعَلَىٰ هُدًى أَوۡ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 10
(24) (ऐ नबी!) इनसे पूछो, “कौन तुमको आसमानों और ज़मीन से रिज़्क़ देता है?” कहो, “अल्लाह! अब ला-मुहाला हममें और तुममें से कोई एक ही हिदायत पर है या खुली गुमराही में पड़ा हुआ है।”
قُل لَّا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّآ أَجۡرَمۡنَا وَلَا نُسۡـَٔلُ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 11
(25) इनसे कहो, “जो क़ुसूर हमने किया हो उसकी कोई बाज़पुर्स तुमसे न होगी और जो कुछ तुम कर रहे हो उसकी कोई जवाब-तलबी हम से नहीं की जाएगी।”
قُلۡ يَجۡمَعُ بَيۡنَنَا رَبُّنَا ثُمَّ يَفۡتَحُ بَيۡنَنَا بِٱلۡحَقِّ وَهُوَ ٱلۡفَتَّاحُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 12
(26) कहो, “हमारा रब हमको जमा करेगा, फिर हमारे दरमियान ठीक-ठीक फ़ैसला कर देगा। वह ऐसा ज़बरदस्त हाकिम है जो सब कुछ जानता है।”
قُلۡ أَرُونِيَ ٱلَّذِينَ أَلۡحَقۡتُم بِهِۦ شُرَكَآءَۖ كَلَّاۚ بَلۡ هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 13
(27) इनसे कहो, “ज़रा मुझे दिखाओ तो सही वे कौन हस्तियाँ हैं जिन्हें तुमने उसके साथ शरीक लगा रखा है। हरगिज़ नहीं, ज़बरदस्त और दाना तो बस वह अल्लाह ही है।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا كَآفَّةٗ لِّلنَّاسِ بَشِيرٗا وَنَذِيرٗا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 14
(28) और (ऐ नबी!) हमने तुमको तमाम ही इनसानों के लिए बशीर व नज़ीर बनाकर भेजा है, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 15
(29) ये लोग तुमसे कहते हैं कि “वह (क़ियामत का) वादा कब पूरा होगा अगर तुम सच्चे हो?”
سُورَةُ سَبَإٍ
34. सबा
قُل لَّكُم مِّيعَادُ يَوۡمٖ لَّا تَسۡتَـٔۡخِرُونَ عَنۡهُ سَاعَةٗ وَلَا تَسۡتَقۡدِمُونَ ۝ 16
(30) कहो, “तुम्हारे लिए एक ऐसे दिन की मीआद मुक़र्रर है जिसके आने में न एक घड़ी-भर की ताख़ीर तुम कर सकते हो और न एक घड़ी-भर पहले उसे ला सकते हो।”
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن نُّؤۡمِنَ بِهَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ وَلَا بِٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِۗ وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلظَّٰلِمُونَ مَوۡقُوفُونَ عِندَ رَبِّهِمۡ يَرۡجِعُ بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٍ ٱلۡقَوۡلَ يَقُولُ ٱلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ لَوۡلَآ أَنتُمۡ لَكُنَّا مُؤۡمِنِينَ ۝ 17
(31) ये काफ़िर कहते हैं कि “हम हरगिज़ इस क़ुरआन को न मानेंगे और न इससे पहले आई हुई किसी किताब को तसलीम करेंगे।” काश, तुम देखो इनका हाल उस वक़्त जब ये ज़ालिम अपने रब के हुज़ूर खड़े होंगे! उस वक़्त ये एक-दूसरे पर इलज़ाम धरेंगे। जो लोग दुनिया में दबाकर रखे गए थे वे बड़े बननेवालों से कहेंगे कि “अगर तुम न होते तो हम मोमिन होते।”
قَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُوٓاْ أَنَحۡنُ صَدَدۡنَٰكُمۡ عَنِ ٱلۡهُدَىٰ بَعۡدَ إِذۡ جَآءَكُمۖ بَلۡ كُنتُم مُّجۡرِمِينَ ۝ 18
(32) वे बड़े बननेवाले इन दबे हुए लोगों को जवाब देंगे, “क्या हमने तुम्हें उस हिदायत से रोका था जो तुम्हारे पास आई थी? नहीं, बल्कि तुम ख़ुद मुजरिम थे।”
وَقَالَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتُضۡعِفُواْ لِلَّذِينَ ٱسۡتَكۡبَرُواْ بَلۡ مَكۡرُ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ إِذۡ تَأۡمُرُونَنَآ أَن نَّكۡفُرَ بِٱللَّهِ وَنَجۡعَلَ لَهُۥٓ أَندَادٗاۚ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّدَامَةَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَۚ وَجَعَلۡنَا ٱلۡأَغۡلَٰلَ فِيٓ أَعۡنَاقِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ هَلۡ يُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 19
(33) वे दबे हुए लोग उन बड़े बननेवालों से कहेंगे, “नहीं बल्कि शब व रोज़ की मक्कारी थी जब तुम हमसे कहते थे कि हम अल्लाह से कुफ़्र करें और दूसरों को उसका हमसर ठहराएँ।” आख़िरकार जब ये लोग अज़ाब देखेंगे तो अपने दिलों में पछताएँगे और हम इन मुनकिरीन के गलों में तौक़ डाल देंगे। क्या लोगों को इसके सिवा और कोई बदला दिया जा सकता है कि जैसे आमाल उनके थे वैसी ही जज़ा वे पाएँ?
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّذِيرٍ إِلَّا قَالَ مُتۡرَفُوهَآ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 20
(34) कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने किसी बस्ती में एक ख़बरदार करनेवाला भेजा हो और उस बस्ती के खाते-पीते लोगों ने यह न कहा हो कि “जो पैग़ाम तुम लेकर आए हो उसको हम नहीं मानते।”
وَقَالُواْ نَحۡنُ أَكۡثَرُ أَمۡوَٰلٗا وَأَوۡلَٰدٗا وَمَا نَحۡنُ بِمُعَذَّبِينَ ۝ 21
(35) उन्होंने हमेशा यही कहा कि “हम तुमसे ज़्यादा माल और औलाद रखते हैं और हम हरगिज़ सज़ा पानेवाले नहीं हैं।”
قُلۡ إِن ضَلَلۡتُ فَإِنَّمَآ أَضِلُّ عَلَىٰ نَفۡسِيۖ وَإِنِ ٱهۡتَدَيۡتُ فَبِمَا يُوحِيٓ إِلَيَّ رَبِّيٓۚ إِنَّهُۥ سَمِيعٞ قَرِيبٞ ۝ 22
(50) कहो, “अगर मैं गुमराह हो गया हूँ तो मेरी गुमराही का वबाल मुझपर है, और अगर मैं हिदायत पर हूँ तो उस वह्य की बिना पर हूँ जो मेरा रब मेरे ऊपर नाज़िल करता है, वह सब कुछ सुनता है और क़रीब ही है।”
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 23
(36) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “मेरा रब जिसे चाहता है कुशादा रिज़्क़ देता है और जिसे चाहता है नपा-तुला अता करता है, मगर अकसर लोग इसकी हकीक़त नहीं जानते।”
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ فَزِعُواْ فَلَا فَوۡتَ وَأُخِذُواْ مِن مَّكَانٖ قَرِيبٖ ۝ 24
(51) काश तुम देखो इन्हें उस वक़्त जब ये लोग घबराए फिर रहे होंगे, और कहीं बचकर न जा सकेंगे, बल्कि क़रीब ही से पकड़ लिए जाएँगे!
وَمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُم بِٱلَّتِي تُقَرِّبُكُمۡ عِندَنَا زُلۡفَىٰٓ إِلَّا مَنۡ ءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ جَزَآءُ ٱلضِّعۡفِ بِمَا عَمِلُواْ وَهُمۡ فِي ٱلۡغُرُفَٰتِ ءَامِنُونَ ۝ 25
(37) ये तुम्हारी दौलत और तुम्हारी औलाद नहीं है जो तुम्हें हम से क़रीब करती हो। हाँ, मगर जो ईमान लाए और नेक अमल करे। यही लोग हैं जिनके लिए उनके अमल की दोहरी जज़ा है, और वे बलन्द व बाला इमारतों में इत्मीनान से रहेंगे।
وَقَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِهِۦ وَأَنَّىٰ لَهُمُ ٱلتَّنَاوُشُ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ ۝ 26
(52) उस वक़्त ये कहेंगे कि हम उसपर ईमान ले आए। हालाँकि अब दूर निकली हुई चीज़ कहाँ हाथ आ सकती है।
وَقَدۡ كَفَرُواْ بِهِۦ مِن قَبۡلُۖ وَيَقۡذِفُونَ بِٱلۡغَيۡبِ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ ۝ 27
(53) इससे पहले ये कुफ़्र कर चुके थे और बिला तहक़ीक दूर-दूर की कौड़ियाँ लाया करते थे।
وَٱلَّذِينَ يَسۡعَوۡنَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ٱلۡعَذَابِ مُحۡضَرُونَ ۝ 28
(38) रहे वे लोग जो हमारी आयात को नीचा दिखाने के लिए दौड़-धूप करते हैं तो वे अज़ाब में मुब्तला होंगे।
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ وَيَقۡدِرُ لَهُۥۚ وَمَآ أَنفَقۡتُم مِّن شَيۡءٖ فَهُوَ يُخۡلِفُهُۥۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 29
(39) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “मेरा रब अपने बन्दों में से जिसे चाहता है खुला रिज़्क़ देता है और जिसे चाहता है नपा-तुला देता है। जो कुछ तुम ख़र्च कर देते हो उसकी जगह वही तुमको और देता है। वह सब राज़िक़ों से बेहतर राज़िक़ है।”
وَحِيلَ بَيۡنَهُمۡ وَبَيۡنَ مَا يَشۡتَهُونَ كَمَا فُعِلَ بِأَشۡيَاعِهِم مِّن قَبۡلُۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ فِي شَكّٖ مُّرِيبِۭ ۝ 30
(54) उस वक़्त जिस चीज़ की ये तमन्ना कर रहे होंगे उससे महरूम कर दिए जाएँगे जिस तरह इनके पेशरौ हम-मशरब महरूम हो चुके होंगे। ये बड़े गुमराहकुन शक में पड़े हुए थे।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ يَقُولُ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ أَهَٰٓؤُلَآءِ إِيَّاكُمۡ كَانُواْ يَعۡبُدُونَ ۝ 31
(40) और जिस दिन वह तमाम इनसानों को जमा करेगा फिर फ़रिश्तों से पूछेगा. “क्या ये लोग तुम्हारी ही इबादत किया करते थे?”
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ أَنتَ وَلِيُّنَا مِن دُونِهِمۖ بَلۡ كَانُواْ يَعۡبُدُونَ ٱلۡجِنَّۖ أَكۡثَرُهُم بِهِم مُّؤۡمِنُونَ ۝ 32
(41) तो वे जवाब देंगे| कि “पाक है आपकी ज़ात, हमारा ताल्लुक़ तो आपसे है न कि इन लोगों से। दरअस्ल ये हमारी नहीं बल्कि जिन्नों की इबादत करते थे, इनमें से अकसर उन्हीं पर ईमान लाए हुए थे।”6
6. चूँकि मुशरिकीने-अरब फ़रिश्तों को माबूद क़रार देते थे इसलिए अल्लाह तआला ने बताया है कि क़ियामत के रोज़ जब फ़रिश्तों से पूछा जाएगा तो वे जवाब देंगे कि दरअस्ल ये हमारी नहीं, बल्कि हमारा नाम लेकर शयातीन की बन्दगी कर रहे थे, क्योंकि शयातीन ही ने इनको यह रास्ता दिखाया था कि ख़ुदा को छोड़कर दूसरों को अपना हाजत-रवा समझो और उनके आगे नज़्र व नियाज़ पेश करो।
فَٱلۡيَوۡمَ لَا يَمۡلِكُ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٖ نَّفۡعٗا وَلَا ضَرّٗا وَنَقُولُ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلنَّارِ ٱلَّتِي كُنتُم بِهَا تُكَذِّبُونَ ۝ 33
(42) (उस वक़्त हम कहेंगे कि) आज तुममें से कोई न किसी को फ़ायदा पहुँचा सकता है न नुक़सान। और ज़ालिमों से हम कह देंगे कि अब चखो उस अज़ाबे-जहन्नम का मज़ा जिसे तुम झुठलाया करते थे।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالُواْ مَا هَٰذَآ إِلَّا رَجُلٞ يُرِيدُ أَن يَصُدَّكُمۡ عَمَّا كَانَ يَعۡبُدُ ءَابَآؤُكُمۡ وَقَالُواْ مَا هَٰذَآ إِلَّآ إِفۡكٞ مُّفۡتَرٗىۚ وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 34
(43) इन लोगों को जब हमारी साफ़-साफ़ आयतें सुनाई जाती हैं तो ये कहते हैं कि “यह शख़्स तो बस यह चाहता है कि तुमको उन माबूदों से बरगश्ता कर दे जिनकी इबादत तुम्हारे बाप-दादा करते आए हैं।” और कहते हैं कि “यह (क़ुरआन) मह्ज़ एक झूठ है गढ़ा हुआ।” इन काफ़िरों के सामने जब हक़ आया तो इन्होंने कह दिया कि “यह तो सरीह जादू है।”
وَمَآ ءَاتَيۡنَٰهُم مِّن كُتُبٖ يَدۡرُسُونَهَاۖ وَمَآ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمۡ قَبۡلَكَ مِن نَّذِيرٖ ۝ 35
(44) हालाँकि न हमने इन लोगों को पहले कोई किताब दी थी कि ये उसे पढ़ते हों और न तुमसे पहले इनकी तरफ़ कोई मुतनब्बेह करनेवाला भेजा था।
وَكَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَمَا بَلَغُواْ مِعۡشَارَ مَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ فَكَذَّبُواْ رُسُلِيۖ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 36
(45) इनसे पहले गुज़रे हुए लोग झुठला चुके हैं। जो कुछ हमने उन्हें दिया था उसके उशरे-अशीर को भी ये नहीं पहुँचे हैं। मगर जब उन्होंने मेरे रसूलों को झुठलाया तो देख लो कि मेरी सज़ा कैसी सख़्त थी।
۞قُلۡ إِنَّمَآ أَعِظُكُم بِوَٰحِدَةٍۖ أَن تَقُومُواْ لِلَّهِ مَثۡنَىٰ وَفُرَٰدَىٰ ثُمَّ تَتَفَكَّرُواْۚ مَا بِصَاحِبِكُم مِّن جِنَّةٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا نَذِيرٞ لَّكُم بَيۡنَ يَدَيۡ عَذَابٖ شَدِيدٖ ۝ 37
(46) (ऐ नबी!) इनसे कहो कि “मैं तुम्हें बस एक बात की नसीहत करता हूँ। ख़ुदा के लिए तुम अकेले-अकेले और दो-दो मिलकर अपना दिमाग़ लड़ाओ और सोचो, तुम्हारे साहब7 में आख़िर कौन-सी बात है जो जुनून की हो? वह तो एक सख़्त अज़ाब की आमद से पहले तुमको मुतनब्बेह करनेवाला है।”
7. मुराद हैं रसूल (सल्ल०)। आप (सल्ल०) के लिए उनके ‘साहब’ का लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि आप (सल्ल०) उनके लिए अजनबी न थे, बल्कि उन्हीं के शहर के बाशिन्दे और उन्हीं के हम-क़बीला थे।
قُلۡ مَا سَأَلۡتُكُم مِّنۡ أَجۡرٖ فَهُوَ لَكُمۡۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٞ ۝ 38
(47) इनसे कहो, “अगर मैंने तुमसे कोई अज्र माँगा है तो वह तुम ही को मुबारक रहे। मेरा अज्र तो अल्लाह के ज़िम्मे है और वह हर चीज़ पर गवाह है।”
قُلۡ إِنَّ رَبِّي يَقۡذِفُ بِٱلۡحَقِّ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 39
(48) इनसे कहो, “मेरा रब (मुझपर) हक़ का इलक़ा करता है और वह तमाम पोशीदा हक़ीक़तों का जाननेवाला है।”
قُلۡ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَمَا يُبۡدِئُ ٱلۡبَٰطِلُ وَمَا يُعِيدُ ۝ 40
(49) कहो, “हक़ आ गया और अब बातिल के लिए कुछ नहीं हो सकता।”
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَا تَأۡتِينَا ٱلسَّاعَةُۖ قُلۡ بَلَىٰ وَرَبِّي لَتَأۡتِيَنَّكُمۡ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِۖ لَا يَعۡزُبُ عَنۡهُ مِثۡقَالُ ذَرَّةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَلَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَآ أَصۡغَرُ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡبَرُ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 41
(3) मुनकिरीन कहते हैं “क्या बात है कि क़ियामत हमपर नहीं आ रही है।” कहो, “क़सम है मेरे आलिमुल-ग़ैब परवरदिगार की! वह तुमपर आकर रहेगी। उससे ज़र्रा बराबर कोई चीज़ न आसमानों में छिपी हुई है न ज़मीन में। न ज़र्रे से बड़ी और न उससे छोटी। सब कुछ एक नुमायाँ दफ़्तर में दर्ज है।”
لِّيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 42
(4) और यह क़ियामत इसलिए आएगी कि जज़ा दे अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए हैं और नेक अमल करते रहे हैं। उनके लिए मग़फ़िरत है और रिज़्क़े-करीम।
وَٱلَّذِينَ سَعَوۡ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مِّن رِّجۡزٍ أَلِيمٞ ۝ 43
(5) और जिन लोगों ने हमारी आयात को नीचा दिखाने के लिए ज़ोर लगाया है, उनके लिए बदतरीन क़िस्म का दर्दनाक अज़ाब है।
وَيَرَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ هُوَ ٱلۡحَقَّ وَيَهۡدِيٓ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَمِيدِ ۝ 44
(6) (ऐ नबी!) इल्म रखनेवाले ख़ूब जानते हैं कि जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर नाज़िल किया गया है वह सरासर हक़ है और ख़ुदा-ए-अज़ीज़ व हमीद का रास्ता दिखाता है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ هَلۡ نَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ رَجُلٖ يُنَبِّئُكُمۡ إِذَا مُزِّقۡتُمۡ كُلَّ مُمَزَّقٍ إِنَّكُمۡ لَفِي خَلۡقٖ جَدِيدٍ ۝ 45
(7) मुनकिरीन लोगों से कहते हैं, “हम बताएँ तुम्हें ऐसा शख़्स जो ख़बर देता है कि जब तुम्हारे जिस्म का ज़र्रा-ज़र्रा मुन्तशिर हो चुका होगा उस वक़्त तुम नए सिरे से पैदा कर दिए जाओगे?
أَفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَم بِهِۦ جِنَّةُۢۗ بَلِ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ فِي ٱلۡعَذَابِ وَٱلضَّلَٰلِ ٱلۡبَعِيدِ ۝ 46
(8) न मालूम यह शख़्स अल्लाह के नाम से झूठ गढ़ता है या इसे जुनून लाहिक़ है।” नहीं, बल्कि जो लोग आख़िरत को नहीं मानते वे अज़ाब में मुब्तला होनेवाले हैं और वही बुरी तरह बहके हुए हैं।
أَفَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَىٰ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِن نَّشَأۡ نَخۡسِفۡ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضَ أَوۡ نُسۡقِطۡ عَلَيۡهِمۡ كِسَفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّكُلِّ عَبۡدٖ مُّنِيبٖ ۝ 47
(9) क्या इन्होंने कभी उस आसमान और ज़मीन को नहीं देखा जो इन्हें आगे और पीछे से घेरे हुए है? हम चाहें तो इन्हें ज़मीन में फँसा दें, या आसमान के कुछ टुकड़े इनपर गिरा दें। दर-हक़ीकत इसमें एक निशानी है हर उस बन्दे के लिए जो ख़ुदा की तरफ़ रुजूअ करनेवाला हो।
۞وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ مِنَّا فَضۡلٗاۖ يَٰجِبَالُ أَوِّبِي مَعَهُۥ وَٱلطَّيۡرَۖ وَأَلَنَّا لَهُ ٱلۡحَدِيدَ ۝ 48
(10) हमने दाऊद को अपने यहाँ से बड़ा फ़ज़्ल अता किया था। (हमने हुक्म दिया कि) ऐ पहाड़ो! उसके साथ हम-आहंगी करो (और वही हुक्म हमने) परिन्दों को दिया। हमने लोहे को उसके लिए नर्म कर दिया
أَنِ ٱعۡمَلۡ سَٰبِغَٰتٖ وَقَدِّرۡ فِي ٱلسَّرۡدِۖ وَٱعۡمَلُواْ صَٰلِحًاۖ إِنِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 49
(11) इस हिदायत के साथ कि ज़िरहें बना और उनके हल्क़े ठीक अन्दाज़े पर रख। (ऐ आले-दाऊद!) नेक अमल करो, जो कुछ तुम करते हो उसको मैं देख रहा हूँ।
وَلِسُلَيۡمَٰنَ ٱلرِّيحَ غُدُوُّهَا شَهۡرٞ وَرَوَاحُهَا شَهۡرٞۖ وَأَسَلۡنَا لَهُۥ عَيۡنَ ٱلۡقِطۡرِۖ وَمِنَ ٱلۡجِنِّ مَن يَعۡمَلُ بَيۡنَ يَدَيۡهِ بِإِذۡنِ رَبِّهِۦۖ وَمَن يَزِغۡ مِنۡهُمۡ عَنۡ أَمۡرِنَا نُذِقۡهُ مِنۡ عَذَابِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 50
(12) और सुलैमान के लिए हमने हवा को मुसख़्ख़र कर दिया, सुबह के वक़्त उसका चलना एक महीने की राह तक और शाम के वक़्त उसका चलना एक महीने की राह तक। हमने उसके लिए पिघले हुए ताँबे का चश्मा बहा दिया और ऐसे जिन्न उसके ताबे कर दिए जो अपने रब के हुक्म से उसके आगे काम करते थे। उनमें से जो हमारे हुक्म से सरताबी करता उसको हम भड़कती हुई आग का मज़ा चखाते।
يَعۡمَلُونَ لَهُۥ مَا يَشَآءُ مِن مَّحَٰرِيبَ وَتَمَٰثِيلَ وَجِفَانٖ كَٱلۡجَوَابِ وَقُدُورٖ رَّاسِيَٰتٍۚ ٱعۡمَلُوٓاْ ءَالَ دَاوُۥدَ شُكۡرٗاۚ وَقَلِيلٞ مِّنۡ عِبَادِيَ ٱلشَّكُورُ ۝ 51
(13) वे उसके लिए बनाते थे जो कुछ वह चाहता, ऊँची इमारतें, तसवीरें,1 बड़े-बड़े हौज़ जैसे लगन और अपनी जगह से न हटनेवाली भारी देगें। — ऐ आले-दाऊद, अमल करो शुक्र के तरीक़े पर,2 मेरे बन्दों में काम ही शुक्रगुज़ार है।
1. तसवीर के लिए ज़रूरी नहीं है कि वह इनसान या हैवान ही की हो। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) शरीअते-मूसवी के पैरौ थे और हज़रत मूसा (अलैहि०) की शरीअत में जानदार की तसवीर बनाना उसी तरह हराम था जिस तरह रसूलुल्लाह (सल्ल०) की शरीअत में है।
2. यानी शुक्रगुज़ार बन्दों की तरह काम करो।
فَلَمَّا قَضَيۡنَا عَلَيۡهِ ٱلۡمَوۡتَ مَا دَلَّهُمۡ عَلَىٰ مَوۡتِهِۦٓ إِلَّا دَآبَّةُ ٱلۡأَرۡضِ تَأۡكُلُ مِنسَأَتَهُۥۖ فَلَمَّا خَرَّ تَبَيَّنَتِ ٱلۡجِنُّ أَن لَّوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ٱلۡغَيۡبَ مَا لَبِثُواْ فِي ٱلۡعَذَابِ ٱلۡمُهِينِ ۝ 52
(14) फिर जब सुलैमान पर हमने मौत का फ़ैसला नाफ़िज़ किया तो जिन्नों को उसकी मौत का पता देने वाली कोई चीज़ उसके घुन के सिवा न थी जो उसके असा को खा रहा था। इस तरह जब सुलैमान गिर पड़ा तो जिन्नों पर यह बात खुल गई कि अगर वे ग़ैब के जाननेवाले होते तो इस ज़िल्लत के अज़ाब में मुब्तला न रहते।
لَقَدۡ كَانَ لِسَبَإٖ فِي مَسۡكَنِهِمۡ ءَايَةٞۖ جَنَّتَانِ عَن يَمِينٖ وَشِمَالٖۖ كُلُواْ مِن رِّزۡقِ رَبِّكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لَهُۥۚ بَلۡدَةٞ طَيِّبَةٞ وَرَبٌّ غَفُورٞ ۝ 53
(15) सबा के लिए उनके अपने मसकन में ही एक निशानी मौजूद थी, दो बाग़ दाएँ और बाएँ।3 खाओ अपने रब का रिज़्क़ और शुक्र बजा लाओ उसका, मुल्क है उम्दा व पाकीज़ा और परवरदिगार है बख़शिश फ़रमानेवाला,
3. इसका मतलब यह नहीं है कि पूरे मुल्क में बस दो ही बाग़ थे, बल्कि इससे मुराद यह है कि सबा की पूरी सरज़मीन गुलज़ार बनी हुई थी। आदमी जहाँ भी खड़ा होता उसे अपनी दाईं जानिब भी बाग़ नज़र आता और बाईं जानिब भी।