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سُورَةُ النَّجۡمِ

53. अन-नज्म

(मक्का में उतरी, आयतें 62)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द ‘वन-नज्म' (क़सम है तारे की) से लिया गया है और केवल प्रतीक के रूप में इसे इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हजरत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि "पहली सूरा, जिसमें सजदे की आयत उतरी, अन-नज्म है।" साथ ही यह कि यह क़ुरआन मजीद की वह पहली सूरा है जिसे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) क़ुरैश के एक जन-समूह में (और इब्‍ने-मर्दूया की रिवायत के अनुसार काबा में) सुनाया था। जन-समूह में काफ़िर और मोमिन सब मौजूद थे। आख़िर में जब आपने सजदे की आयत पढ़कर सजदा किया तो तमाम उपस्थित लोग आप (सल्ल०) के साथ सजदे में गिर गए और बहुदेववादियों के वे बड़े-बड़े सरदार तक, जो विरोध में आगे-आगे थे, सजदा किए बिना न रह सके। इब्‍ने-सअद का बयान है कि इससे पहले रजब सन् 05 नबवी में सहाबा किराम की एक छोटी-सी जमाअत हबशा की ओर हिजरत कर चुकी थी। फिर जब उसी साल रमज़ान में यह घटना घटित हुई तो हबशा के मुहाजिरों तक यह क़िस्सा इस रूप में पहुँचा कि मक्का के इस्लाम-विरोधी मुसलमान हो गए हैं। इस ख़बर को सुनकर उनमें से कुछ लोग शव्वाल सन् 05 नबवी में मक्का वापस आ गए, मगर यहाँ आकर मालूम हुआ कि ज़ुल्म की चक्की उसी तरह चल रही है जिस तरह पहले चल रही थी। अन्ततः हबशा को दूसरी हिजरत घटित हुई जिसमें पहली हिजरत से भी अधिक लोग मक्का छोड़कर चले गए। इस तरह यह बात लगभग निश्चित रूप से मालूम हो जाती है कि यह सूरा रमज़ान 05 नबवी में उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

उतरने के समय के इस विवरण से मालूम हो जाता है कि वे परिस्थितियाँ क्या थीं जिनमें यह सूरा उतरी। [मक्का के इस्लाम-विरोधियों की बराबर यह कोशिश रहती थी कि] ईश्वरीय वाणी को न ख़ुद सुनें, न किसी को सुनने दें और उसके विरुद्ध तरह-तरह की भ्रामक बातें फैलाकर सिर्फ़ अपने झूठे प्रोपगंडे के बल पर आप (सल्ल०) की दावत (आह्‍वान) को दबा दें। इन्हीं परिस्थितियों में एक दिन पवित्र हरम (काबा) में जब यह घटना घटी कि नबी (सल्ल०) की ज़बान से इस सूरा नज्म को सुनकर आप (सल्ल०) के साथ क़ुरैश के इस्लाम विरोधी भी सजदे में गिर गए, तो बाद में उन्हें बड़ी परेशानी हुई कि यह हमसे क्या कमज़ोरी ज़ाहिर हुई। और लोगों ने भी इसके कारण उनपर चोटें करनी शुरू कर दी कि दूसरों को तो इस वाणी को सुनने से मना करते थे, आज ख़ुद उसे न सिर्फ़ यह कि कान लगाकर सुना, बल्कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ सजदे में भी गिर गए। अन्तत: उन्होंने यह बात बनाकर अपना पीछा छुड़ाया कि साहब! हमारे कानों ने तो "अब तनिक बताओ तुमने कभी इस 'लात' और 'उज़्ज़ा' और तीसरी एक देवी 'मनात' की वास्तविकता पर कुछ विचार भी किया है?" के बाद मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से ये शब्द सुने थे, "ये ऊच्च कोटी की देवियाँ हैं और इनकी सिफ़ारिश की अवश्य आशा की जा सकती है।" इसलिए हमने समझा कि मुहम्मद (सल्ल०) हमारे तरीक़े पर वापस आ गए हैं, हालाँकि कोई पागल आदमी ही यह सोच सकता था कि इस पूरी सूरा के संदर्भ में उन वाक्यों की भी कोई जगह हो सकती है जो उनका दावा था कि उनके कानों ने सुने हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखें, सूरा-22 अल-हज्ज, टिप्पणी 96-101)

विषय और वार्ता

व्याख्यान का विषय मक्का के इस्लाम-विरोधियों को उस नीति की ग़लती पर सावधान करना है जो वे क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के सिलसिले में अपनाए हुए थे। वार्ता इस तरह आरंभ हुई है कि मुहम्मद (सल्ल०) बहके और भटके हुए आदमी नहीं हैं, जैसा कि तुम उनके बारे में प्रचार करते फिर रहे हो और न इस्लाम की यह शिक्षा और आमंत्रण उन्होंने स्वयं अपने दिल से घड़ा है, जैसा कि तुम अपनी दृष्टि में समझे बैठे हो, बल्कि जो कुछ वे पेश कर रहे हैं, वह विशुद्ध वह्य (प्रकाशना) है जो उनपर अवतरित की जाती है। जिन सच्चाइयों को वे तुम्हारे सामने बयान करते हैं, वे उनकी अपनी कल्पना और अन्दाज़े की उपज नहीं हैं, बल्कि उनकी आँखों देखी सच्चाइयाँ हैं। इसके बाद क्रमश: तीन विषय लिए गए हैं—

एक, यह कि सुननेवालों को समझाया गया है कि जिस दीन (धर्म) का तुम अनुसरण कर रहे हो, उसका आधार केवल अटकल और मनमानी कल्पनाओं पर स्थिर है। तुमने जो अक़ीदे (धारणाएँ) अपना रखे हैं, उनमें से कोई अक़ीदा भी किसी ज्ञान और प्रमाण पर आधारित नहीं है, बल्कि कुछ इच्छाएँ हैं जिनके लिए तुम कुछ कतिपय अंधविश्वासों को सच्चाई समझ बैठे हो। यह एक बहुत बड़ी बुनियादी ग़लती है जिसमें तुम लोग पड़े हुए हो। इस ग़लती में तुम्हारे पड़ने का मूल कारण यह है कि तुम्हें आख़िरत की कोई चिन्ता नहीं है, बस दुनिया ही तुम्हारी अभीष्ट बनी हुई है, इसलिए तुम्हें सत्य के ज्ञान की कोई चाह नहीं है।

दूसरा, यह कि लोगों को यह बताया गया है कि अल्लाह ही सम्पूर्ण जगत् का मालिक एवं सर्वाधिकारी है। सीधे रास्ते पर वह है जो उसके रास्ते पर हो और गुमराह वह जो उसकी राह से हटा हुआ हो।हर एक के कर्म को वह जानता है और उसके यहाँ अनिवार्य रूप से बुराई का बदला बुरा और भलाई का बदला भला मिलकर रहना है।

तीसरा, यह कि सत्य धर्म के उन कुछ आधारभूत तथ्यों को लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया है जो क़ुरआन मजीद के अवतरण से सैकड़ों वर्ष पहले हज़रत इबराहीम और हज़रत मूसा (अलैहि०) पर अवतरित धर्म-ग्रंथों में बयान हो चुके थे, ताकि उनको मालूम हो जाए कि ये वे आधारभूत तथ्य हैं जो हमेशा से अल्लाह के नबी बयान करते चले आए हैं।

इन वार्ताओं के बाद अभिभाषण को इस बात पर समाप्त किया गया है कि फ़ैसले की घड़ी क़रीब आ लगी है जिसे कोई टालनेवाला नहीं है। उस घड़ी के आने से पहले मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरआन मजीद के द्वारा तुम लोगों को उसी तरह सचेत किया जा रहा है, जिस तरह पहले लोगों को सचेत किया गया था। अब क्या यही वह बात है जो तुम्हें अनोखी लगी है, जिसकी तुम हँसी उड़ाते हो?

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سُورَةُ النَّجۡمِ
53. अन-नज्म
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلنَّجۡمِ إِذَا هَوَىٰ
(1) क़सम है तारे की जब कि वह ग़ुरुब हुआ!1
1. यानी जब आख़िरी तारा ग़ुरूब होकर सुबहे-रौशन नमूदार हो गई।
مَا ضَلَّ صَاحِبُكُمۡ وَمَا غَوَىٰ ۝ 1
(2) तुम्हारा राफ़ीक़ न भटका है न बहका है।2
2. ‘रफ़ीक़’ से मुराद रसूलुल्लाह (सल्ल०) हैं क्योंकि आप (सल्ल०) कुफ़्फ़ारे-मक्का के लिए कोई अजनबी न थे, बल्कि उन्हीं के दरमियान पैदा हुए और बच्चे से जवान और जवानी से अधेड़ उम्र को पहुँचे। मतलब यह है कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) तुम्हारे जाने-पहचाने आदमी हैं। यह बात सुब्हे-रौशन की तरह नुमायाँ है कि वे बहके और भटके हुए आदमी नहीं हैं।
وَمَا يَنطِقُ عَنِ ٱلۡهَوَىٰٓ ۝ 2
(3) वह अपनी ख़ाहिशे-नफ़्स से नहीं बोलता,
إِنۡ هُوَ إِلَّا وَحۡيٞ يُوحَىٰ ۝ 3
(4) यह तो एक प्रकाशना है जो उसपर उतारी जाती है। यह तो एक वह्य है जो उसपर नाज़िल की जाती है।
عَلَّمَهُۥ شَدِيدُ ٱلۡقُوَىٰ ۝ 4
(5) उसे ज़बरदस्त क़ुव्वतवाले ने तालीम दी है।
ذُو مِرَّةٖ فَٱسۡتَوَىٰ ۝ 5
(6) जो बड़ा साहिबे-हिकमत है।3
3. इससे मुराद अल्लाह तआला नहीं है, बल्कि जिबरील (अलेहि०) हैं जैसा कि आगे के मज़मून से ख़ुद ज़ाहिर हो रहा है।
وَهُوَ بِٱلۡأُفُقِ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 6
(7) वह सामने आ खड़ा हुआ जबकि वह बालाई उफ़ुक़ पर था,4
4. ‘उफ़ुक़’ से मुराद है आसमान का वह मशरिक़ी किनारा जहाँ से सूरज तुलूअ होता है और दिन की रौशनी फैलती है। मुराद यह है कि पहली मर्तबा जिबरील (अलैहि०) जब नबी (सल्ल०) को नजर आए उस वक़्त वे आसमान के मशरिक़ी किनारे से नमूदार हुए थे।
ثُمَّ دَنَا فَتَدَلَّىٰ ۝ 7
(8) फिर क़रीब आया और ऊपर मुअल्लक़ हो गया,
فَكَانَ قَابَ قَوۡسَيۡنِ أَوۡ أَدۡنَىٰ ۝ 8
(9) यहाँ तक कि दो कमानों के बराबर या उससे कुछ कम फ़ासला रह गया।5
5. यानी आसमान के बालाई मशरिक़ी किनारे से नमूदार होने के बाद जिबरील (अलैहि०) ने रसूलुल्लाह (सल्ल०) की तरफ़ आगे बढ़ना शुरू किया यहाँ तक कि बढ़ते-बढ़ते वे आप (सल्ल०) के ऊपर आकर फ़िज़ा में मुअल्लक़ हो गए, फिर वे आप (सल्ल०) की तरफ़ झुके और इस क़दर क़रीब हो गए कि आप (सल्ल०) के और उनके दरमियान सिर्फ़ दो कमानों के बराबर या कुछ कम फ़ासला रह गया। चूँकि तमाम कमानें यकसाँ नहीं होती इसलिए फ़ासले का अन्दाजा बताने के लिए फ़रमाया कि दो कमानों के बराबर या कुछ कम फ़ासला रह गया।
فَأَوۡحَىٰٓ إِلَىٰ عَبۡدِهِۦ مَآ أَوۡحَىٰ ۝ 9
(10) तब उसने अल्लाह के बन्दे को वह्य पहुँचाई जो वह्य भी उसे पहुँचानी थी।
مَا كَذَبَ ٱلۡفُؤَادُ مَا رَأَىٰٓ ۝ 10
(11) नज़र ने जो कुछ देखा, दिल ने उसमें झूठ न मिलाया।6
6. यानी यह मुशाहदा जो दिन की रौशनी में और पूरी बेदारी की हालत में खुली आँखों से मुहम्मद (सल्ल०) को हुआ उसपर उनके दिल ने यह नहीं कहा कि वह नज़र का धोखा है, या यह कोई जिन्न या शैतान है जो मुझे नज़र आ रहा है, या मेरे सामने कोई ख़याली सूरत आ गई है और मैं जागते में कोई ख़ाब देख रहा है। बल्कि उनके दिल ने ठीक-ठीक वही कुछ समझा जो उनकी आँखें देख रही थी। उन्हें इस अम्र में कोई शक लाहिक़ नहीं हुआ कि फ़िल-वाक़े ये जिबरील हैं और जो पैग़ाम ये पहुँचा रहे हैं वह वाक़ई ख़ुदा की तरफ़ से वह्य है।
أَفَتُمَٰرُونَهُۥ عَلَىٰ مَا يَرَىٰ ۝ 11
(12) अब क्या तुम उस चीज़ पर उससे झगड़ते हो जिसे वह आँखों से देखता है?
وَلَقَدۡ رَءَاهُ نَزۡلَةً أُخۡرَىٰ ۝ 12
(13) और एक मर्तबा फिर उसने
عِندَ سِدۡرَةِ ٱلۡمُنتَهَىٰ ۝ 13
(14) ‘सिद-रतुल-मुन्तहा’7 के पास उसको उतरते देखा
7. 'सिदरा' अरबी जबान में बेरी के दरख़्त को कहते हैं, और 'मुन्तहा' के मानी हैं ‘आख़िरी सिरा’। ‘सिदरतुल-मुनतहा’ के लुग़वी मानी हैं 'वह बेरी का दरख़्त जो आख़िरी या इन्तिहाई सिरे पर वाक़े है’। हमारे लिए यह जानना मुशकिल है कि इस आलमे-माद्दी की आख़िरी सरहद पर यह बेरी का दरख़्त कैसा है और उसकी हक़ीक़ी नौईयत व कैफ़ियत क्या है। ये कायनाते-ख़ुदावन्दी के वे असरार हैं जिन तक हमारी फ़ह्म की रसाई नहीं है। बहरहाल वह कोई ऐसी ही चीज़ है जिसके लिए इनसानी ज़बान के अलफ़ाज़ में ‘सिदरा’ से मौज़ूँ लफ़्ज़ अल्लाह तआला के नज़दीक और कोई न था।
إِذۡ يَغۡشَى ٱلسِّدۡرَةَ مَا يَغۡشَىٰ ۝ 14
(16) उस वक़्त सिदरा पर छा रहा था जो कुछ कि छा रहा था।
عِندَهَا جَنَّةُ ٱلۡمَأۡوَىٰٓ ۝ 15
(15) जहाँ पास ही जन्नतुल-मावा है।
مَا زَاغَ ٱلۡبَصَرُ وَمَا طَغَىٰ ۝ 16
(17) निगाह न चुँधियाई न हद से मुतजाविज़ हुई,
لَقَدۡ رَأَىٰ مِنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِ ٱلۡكُبۡرَىٰٓ ۝ 17
(18) और उसने अपने रब की बड़ी-बड़ी निशानियाँ देखीं।8
8. यह आयत इस अम्र की तसरीह करती है कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने अल्लाह तआला को नहीं, बल्कि उसकी अजीमुश्शान निशानियों को देखा था। और चूँकि सियाक़ व सबाक़ की रू से यह दूसरी मुलाक़ात भी उसी हस्ती से हुई थी जिससे पहली मुलाक़ात हुई, इसलिए ला-मुहाला यह मानना पड़ेगा कि उफ़ुक़े-आला पर जिसको आप (सल्ल०) ने पहली मर्तबा देखा था वह भी अल्लाह न था, और दूसरी मर्तबा सिद-रतुल-मुनाहा के पास जिसको देखा वह भी अल्लाह न था। अगर आप (सल्ल०) ने इन मवाक़े में से किसी मौक़े पर अल्लाह जल-ल-शानुहू को देखा होता तो यह इतनी बड़ी बात थी कि यहाँ ज़रूर उसकी तसरीह कर दी जाती।
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱللَّٰتَ وَٱلۡعُزَّىٰ ۝ 18
(19) अब ज़रा बताओ, तुमने कभी इस लात, और उस उज़्ज़ा,
وَمَنَوٰةَ ٱلثَّالِثَةَ ٱلۡأُخۡرَىٰٓ ۝ 19
(20) और तीसरी एक देवी मनात की हक़ीक़त पर कुछ ग़ौर भी किया है।9
9. मतलब यह है कि जो तालीम मुहम्मद (सल्ल०) तुमको दे रहे है उसको तो तुम लोग गुमराही और बदराही क़रार देते हो, हालाँकि यह इल्म उनको अल्लाह तआला की तरफ़ से दिया जा रहा है और अल्लाह उनको आँखों से वे हक़ाइक़ दिखा चुका है जिनकी शहादत वे तुम्हारे सामने दे रहे हैं। अब ज़रा तुम ख़ुद देखो कि जिन अक़ाइद की पैरवी पर तुम इसरार किए चले जा रहे हो ये किस क़दर ग़ैर-माक़ूल हैं, और उनके मुक़ाबले में जो शख़्स तुम्हें सीधा रास्ता बता रहा है उसकी मुख़ालफ़त करके आख़िर तुम किसका नुक़सान कर रहे हो।
وَأَعۡطَىٰ قَلِيلٗا وَأَكۡدَىٰٓ ۝ 20
(34) और थोड़ा-सा देकर रुक गया?14
14. इशारा है वलीद-बिन-मुग़ीरा की तरफ़ जो कुरैश के बड़े सरदारों में से एक था। यह शख़्स पहले रसूलुल्लाह (सल्ल०) की दावत क़ुबूल करने पर आमादा हो गया था। मगर जब उसके एक मुशरिक दोस्त को मालूम हुआ कि वह मुसलमान होने का इरादा कर रहा है तो उसने कहा कि तुम दीने-आबाई को न छोड़ो, अगर तुम्हें अज़ाबे-आख़िरत का ख़तरा है तो मुझे इतनी रक़म दे दो, मैं ज़िम्मा लेता हूँ कि तुम्हारे बदले वहाँ का अज़ाब मैं भुगत लूँगा। वलीद ने यह बात मान ली और ख़ुदा की राह पर आते-आते उससे फिर गया, मगर जो रक़म उसने अपने मुशरिक दोस्त को देनी तय की थी वह भी बस थोड़ी-सी दी और बाक़ी रोक ली।
أَلَكُمُ ٱلذَّكَرُ وَلَهُ ٱلۡأُنثَىٰ ۝ 21
(21) क्या बेटे तुम्हारे लिए हैं और बेटियाँ ख़ुदा के लिए?10
10. यानी इन देवियों को तुमने अल्लाह रब्बुल-आलमीन की बेटियाँ क़रार दे लिया और यह बेहूदा अक़ीदा ईजाद करते वक़्त तुमने यह भी न सोचा कि अपने लिए तो तुम बेटी की पैदाइश को ज़िल्लत समझते हो और चाहते हो कि तुम्हें औलादे-नरीना मिले, मगर अल्लाह के लिए तुम औलाद भी तजवीज़ करते हो तो बटियाँ?
أَعِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلۡغَيۡبِ فَهُوَ يَرَىٰٓ ۝ 22
(35) क्या उसके पास ग़ैब का इल्म है कि वह हक़ीक़त को देख रहा है?
تِلۡكَ إِذٗا قِسۡمَةٞ ضِيزَىٰٓ ۝ 23
(22) यह तो फिर बड़ी धांधली की तक़सीम हुई!
أَمۡ لَمۡ يُنَبَّأۡ بِمَا فِي صُحُفِ مُوسَىٰ ۝ 24
(36) क्या उसे उन बातों की कोई ख़बर नहीं पहुँची जो मूसा के सहीफ़ों और उस इबराहीम के सहीफ़ों में बयान हुई हैं
إِنۡ هِيَ إِلَّآ أَسۡمَآءٞ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٍۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَمَا تَهۡوَى ٱلۡأَنفُسُۖ وَلَقَدۡ جَآءَهُم مِّن رَّبِّهِمُ ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 25
(23) दरअस्ल ये कुछ नहीं हैं मगर बस चन्द नाम जो तुमने और तुम्हारे बाप दादा ने रख लिए हैं। अल्लाह ने इनके लिए कोई सनद नाज़िल नहीं की। हक़ीक़त यह है कि लोग मह्ज़ वहम व गुमान की पैरवी कर रहे हैं और ख़ाहिशाते-नफ़्स के मुरीद बने हुए हैं। हलाँकि उनके रब की तरफ़ से उनके पास हिदायत आ चुकी है।
وَإِبۡرَٰهِيمَ ٱلَّذِي وَفَّىٰٓ ۝ 26
(37) जिसने वफ़ा का हक़ अदा कर दिया?15
15. आगे उन तालीमात का ख़ुलासा बयान किया जा रहा है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सहीफ़ों में नाज़िल हुई थीं।
أَمۡ لِلۡإِنسَٰنِ مَا تَمَنَّىٰ ۝ 27
(24) क्या इनसान जो कुछ चाहे उसके लिए वही हक़ है?11
11. इस आयत का दूसरा मतलब यह भी लिया जा सकता है कि क्या इनसान को यह हक़ है कि जिसको चाहे माबूद बना ले? और एक तीसरा मतलब यह भी लिया जा सकता है कि क्या इनसान इन माबूदों से अपनी मुरादें पा लेने की जो तमन्ना रखता है वह कभी पूरी हो सकती हैं?
أَلَّا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰ ۝ 28
(38) यह कि कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा,16
16. यानी हर शख़्स ख़ुद अपने फ़ेल का जिम्मेदार है। एक शख़्स की ज़िम्मेदारी दूसरे पर नहीं डाली जा सकती। कोई शख़्स अगर चाहे भी तो किसी दूसरे शख़्स के फ़ेल की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं ले सकता, न अस्ल मुजरिम को इस बिना पर छोड़ा जा सकता है कि उसकी जगह सज़ा भुगतने के लिए कोई और आदमी अपने-आपको पेश कर रहा है।
فَلِلَّهِ ٱلۡأٓخِرَةُ وَٱلۡأُولَىٰ ۝ 29
(25) दुनिया और आख़िरत का मालिक तो अल्लाह ही है।
وَأَن لَّيۡسَ لِلۡإِنسَٰنِ إِلَّا مَا سَعَىٰ ۝ 30
(39) और यह कि इनसान के लिए कुछ नहीं है मगर वह जिसकी उसने सई की है,17
17. यानी हर शख़्स जो कुछ भी पाएगा अपने अमल का फल पाएगा। एक शख़्स के अमल का फल दूसरे को नहीं मिल सकता। और कोई शख़्स सई व अमल के बग़ैर कुछ नहीं पा सकता।
۞وَكَم مِّن مَّلَكٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ لَا تُغۡنِي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـًٔا إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ أَن يَأۡذَنَ ٱللَّهُ لِمَن يَشَآءُ وَيَرۡضَىٰٓ ۝ 31
(26) आसमानों में कितने ही फ़रिश्ते मौजूद हैं, उनकी शफ़ाअत कुछ भी काम नहीं आ सकती जब तक कि अल्लाह किसी ऐसे शख़्स के हक़ में उसकी इजाज़त न दे जिसके लिए वह कोई अर्ज़दाश्त सुनना चाहे और उसको पसन्द करे।
وَأَنَّ سَعۡيَهُۥ سَوۡفَ يُرَىٰ ۝ 32
(40) और यह कि उसकी सई अन-क़रीब देखी जाएगी
إِنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ لَيُسَمُّونَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ تَسۡمِيَةَ ٱلۡأُنثَىٰ ۝ 33
(27) मगर जो लोग आख़िरत को नहीं मानते वे फ़रिश्तों को देवियों के नामों से मौसूम करते हैं,
ثُمَّ يُجۡزَىٰهُ ٱلۡجَزَآءَ ٱلۡأَوۡفَىٰ ۝ 34
(41 ) कि उसकी पूरी जज़ा उसे दी जाएगी,
وَأَنَّ إِلَىٰ رَبِّكَ ٱلۡمُنتَهَىٰ ۝ 35
(42) और यह कि आख़िरकार पहुँचना तेरे रब ही के पास है,
وَمَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّۖ وَإِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغۡنِي مِنَ ٱلۡحَقِّ شَيۡـٔٗا ۝ 36
(28) हालाँकि इस मामले का कोई इल्म उन्हें हासिल नहीं है, वे मह्ज़ गुमान की पैरवी कर रहे है, और गुमान हक़ की जगह कुछ भी काम नहीं दे सकता।
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَضۡحَكَ وَأَبۡكَىٰ ۝ 37
(43) और यह कि उसी ने हँसाया और उसी के रुलाया,18
18. यानी ख़ुशी और ग़म, दोनों के असबाब उसी की तरफ़ से हैं। अच्छी और बुरी क़िस्मत का सरे-रिश्ता उसी के हाथ में है। कोई दूसरी हस्ती इस कायनात में ऐसी नहीं है जो क़िस्मतों के बनाने और बिगाड़ने में किसी क़िस्म का दख़्ल रखती हो।
فَأَعۡرِضۡ عَن مَّن تَوَلَّىٰ عَن ذِكۡرِنَا وَلَمۡ يُرِدۡ إِلَّا ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا ۝ 38
(29) पस (ऐ नबी!) जो शख़्स हमारे ज़िक्र से मुँह फ़ेरता है, और दुनिया की ज़िन्दगी के सिवा जिसे कुछ मतलूब नहीं है, उसे उसके हाल पर छोड़ दो।12
12. 12. यह जुमला-ए-मोअतरिज़ा है जो सिलसिला-ए-कलाम को बीच में तोड़कर पिछली बात की तशरीह के तौर पर इरशाद फ़रमाया गया है।
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَمَاتَ وَأَحۡيَا ۝ 39
(44) और यह कि उसी ने मौत दी और उसी ने जिन्दगी बख़्शी,
ذَٰلِكَ مَبۡلَغُهُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِمَنِ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 40
(30) इन लोगों का मबलग़े-इल्म बस यही कुछ है, यह बात तेरा रब ही ज़्यादा जानता है कि उसके रास्ते से कौन भटक गया है और कौन सीधे रास्ते पर है,
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ بِمَا عَمِلُواْ وَيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ بِٱلۡحُسۡنَى ۝ 41
(31) और ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का मालिक अल्लाह ही है, — ताकि अल्लाह13 बुराई करनेवालों को उनके अमल का बदला दे और उन लोगों को अच्छी जज़ा से नवाज़े जिन्होंने नेक रवैया इख़्तियार किया है,
13. यहाँ से फिर वही सिलसिला-ए-कलाम शुरू हो जाता है जो ऊपर से चला आ रहा था। गोया जुमला-ए-मोतरिज़ा को छोड़कर सिलसिला-ए-इबारत यूँ है, “उसे उसके हाल पर छोड़ दो ताकि अल्लाह बुराई करनेवालों को उनके अमल का बदला दे।”
وَأَنَّهُۥ خَلَقَ ٱلزَّوۡجَيۡنِ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰ ۝ 42
(45) और यह कि उसी ने नर और मादा का जोड़ा पैदा किया,
مِن نُّطۡفَةٍ إِذَا تُمۡنَىٰ ۝ 43
(46) एक बूँद से जब वह टपकाई जाती है,
ٱلَّذِينَ يَجۡتَنِبُونَ كَبَٰٓئِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡفَوَٰحِشَ إِلَّا ٱللَّمَمَۚ إِنَّ رَبَّكَ وَٰسِعُ ٱلۡمَغۡفِرَةِۚ هُوَ أَعۡلَمُ بِكُمۡ إِذۡ أَنشَأَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ وَإِذۡ أَنتُمۡ أَجِنَّةٞ فِي بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡۖ فَلَا تُزَكُّوٓاْ أَنفُسَكُمۡۖ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَنِ ٱتَّقَىٰٓ ۝ 44
(32) जो बड़े-बड़े गुनाहों और खुले-खुले क़बीह अफ़आल से परहेज़ करते हैं, इल्ला यह कि कुछ क़ुसूर उनसे सरज़द हो जाएँ। बिला-शुबह तेरे रब का दामने-मग़फ़िरत बहुत वसीअ है। वह तुम्हें उस वक़्त से ख़ूब जानता है जब उसने ज़मीन से तुम्हें पैदा किया और जब तुम अपनी माँओं के पेटों में अभी जनीन ही थे। पस अपने नफ़्स की पाकी के दावे न करो, वही बेहतर जानता है कि वाक़ई मुत्तक़ी कौन है।
وَأَنَّ عَلَيۡهِ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُخۡرَىٰ ۝ 45
(47) और यह कि दूसरी जिन्दगी बख़्शना भी उसी के ज़िम्मे है,
أَفَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي تَوَلَّىٰ ۝ 46
(33) फिर (ऐ नबी!) तुमने उस शख़्स को भी देखा जो राहे-ख़ुदा से फिर गया
وَأَنَّهُۥ هُوَ أَغۡنَىٰ وَأَقۡنَىٰ ۝ 47
(48) और यह कि उसी ने ग़नी किया और जायदाद बख़्शी,
وَأَنَّهُۥ هُوَ رَبُّ ٱلشِّعۡرَىٰ ۝ 48
और यह कि वही शिअरा का रब है,19
19. ‘शिअरा’ आसमान का रौशनतरीन तारा है। मिस्र और अरब के लोग यह अक़ीदा रखते थे कि यह तारा इनसानों की क़िस्मत पर असरअंदाज़ होता है। इस बिना पर यह उनके माबूदों में शामिल था।
وَأَنَّهُۥٓ أَهۡلَكَ عَادًا ٱلۡأُولَىٰ ۝ 49
(50) और यह कि उसी ने आदे-ऊला को हलाक किया,
وَثَمُودَاْ فَمَآ أَبۡقَىٰ ۝ 50
(51) और सूमद को ऐसा मिटाया कि उनमें से किसी को बाक़ी न छोड़ा,
وَقَوۡمَ نُوحٖ مِّن قَبۡلُۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ هُمۡ أَظۡلَمَ وَأَطۡغَىٰ ۝ 51
(52) और इनसे पहले क़ौमे-नूह को तबाह किया क्योंकि वे थे ही सख़्त ज़ालिम व सरकश लोग,
وَٱلۡمُؤۡتَفِكَةَ أَهۡوَىٰ ۝ 52
(53) और औंधी गिरनेवाली बस्तियों को उठा फेंका,
فَغَشَّىٰهَا مَا غَشَّىٰ ۝ 53
(54) फिर छा दिया उनपर वह कुछ जो (तुम जानते ही हो कि) क्या छा दिया।20
20. 'औंधी गिरनेवाली बस्तियों' से मुराद क़ौमे-लूत की बस्तियाँ है। और छा दिया उनपर जो कुछ छा दिया' से मुराद ग़ालिब़न बहरे-मुरदार का पानी है जो उनकी बस्तियों के ज़मीन में धँस जाने के बाद उनपर फैल गया था और आज तक वह इस इलाक़े पर छाया हुआ है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكَ تَتَمَارَىٰ ۝ 54
(55) पस (ऐ इनसान!) अपने रब की किन-किन नेमतों में तू शक करेगा?
هَٰذَا نَذِيرٞ مِّنَ ٱلنُّذُرِ ٱلۡأُولَىٰٓ ۝ 55
(56) यह एक तंबीह है पहले आई हुई तंबीहात में से।
أَزِفَتِ ٱلۡأٓزِفَةُ ۝ 56
(57) आनेवाली घड़ी क़रीब आ लगी है,
لَيۡسَ لَهَا مِن دُونِ ٱللَّهِ كَاشِفَةٌ ۝ 57
(58) अल्लाह के सिवा कोई उसको हटानेवाला नहीं।
أَفَمِنۡ هَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ تَعۡجَبُونَ ۝ 58
(59) अब क्या यही वे बातें हैं जिनपर तुम इज़हारे-ताज्जुब करते हो?
وَتَضۡحَكُونَ وَلَا تَبۡكُونَ ۝ 59
(60) हँसते हो और रोते नहीं हो?
وَأَنتُمۡ سَٰمِدُونَ ۝ 60
(61) और गा-बजाकर उन्हें टालते हो?
فَٱسۡجُدُواْۤ لِلَّهِۤ وَٱعۡبُدُواْ۩ ۝ 61
(62) झुक जाओ अल्लाह के आगे और बन्दगी बजा लाओ।