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ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰٓ إِلَى ٱلسَّمَآءِ وَهِيَ دُخَانٞ فَقَالَ لَهَا وَلِلۡأَرۡضِ ٱئۡتِيَا طَوۡعًا أَوۡ كَرۡهٗا قَالَتَآ أَتَيۡنَا طَآئِعِينَ

41. हा-मीम अस-सजदा

(मक्‍का में उतरीं, आयतें 54)

परिचय

नाम

सूरा का नाम दो शब्दों को जोड़कर बना है एक हा-मीम, दूसरा अस-सजदा। अर्थ यह है कि वह सूरा जिसकी शुरुआत हा-मीम से होती है और जिसमें एक जगह सजदे की आयत आई है।

उतरने का समय

विश्वस्त रिवायतों के अनुसार इसके उतरने का समय हज़रत हमज़ा (रज़ि०) के ईमान लाने के बाद और हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने से पहले है। मशहूर ताबिई मुहम्मद-बिन-काब अल-क़रज़ी [रिवायत करते हैं कि] एक बार क़ुरैश के कुछ सरदार मस्जिदे-हराम (काबा) में महफ़िल जमाए बैठे थे और मस्जिद के एक दूसरे कोने में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल०) अकेले मौजूद थे। उत्बा-बिन-रबीआ ने क़ुरैश के सरदारों [के मश्‍वरे से नबी (सल्ल०) के पास जाकर] कहा, "भतीजे ! यह काम जो तुमने शुरू किया है, इससे अगर तुम्हारा उद्देश्य धन प्राप्त करना है, तो हम सब मिलकर तुमको इतना कुछ दिए देते हैं कि तुम हममें सबसे अधिक धनवान हो जाओ। अगर इससे अपनी बड़ाई चाहते हो तो हम तुम्हें अपना सरदार बनाए लेते हैं, अगर बादशाही चाहते हो तो हम तुम्हें अपना बादशाह बना लेते हैं, और अगर तुमपर कोई जिन्न आता है तो हम अपने ख़र्च पर तुम्हारा इलाज कराते हैं।" उतबा ये बातें करता रहा और नबी (सल्ल०) चुपचाप सुनते रहे। फिर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अबुल-वलीद! आपको जो कुछ कहना था, कह चुके?" उसने कहा, "हाँ।" आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा, अब मेरी सुनो।" इसके बाद आप (सल्ल०) ने 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' (अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है) पढ़कर इसी सूरा को पढ़ना शुरू किया और उतबा अपने दोनों हाथ पीछे ज़मीन पर टेके ध्यान से सुनता रहा। सजदे की आयत (38) पर पहुँचकर आप (सल्ल०) ने सजदा किया और फिर सिर उठाकर फ़रमाया, “ऐ अबुल-वलीद ! मेरा जवाब आपने सुन लिया। अब आप जानें और आप का काम।" उतबा उठकर क़ुरैश के सरदारों के पास वापस आया और उनसे कहा, "ख़ुदा की क़सम! मैंने ऐसा कलाम (वाणी) सुना कि कभी इससे पहले न सुना था। ख़ुदा की क़सम ! न यह शेर (कविता) है, न सेहर (जादू) है, न कहानत (ज्योतिष विद्या)। ऐ क़ुरैश के सरदारो ! मेरी बात मानो और उस आदमी को उसके हाल  पर छोड़ दो। मैं समझता हूँ कि यह वाणी कुछ रंग लाकर रहेगी।" क़ुरैश के सरदार उसकी यह बात सुनते ही बोल ठटे, “वलीद के बाप! आख़िर उसका जादू तुम पर भी चल गया।‘’ (इब्‍ने-हिशाम, भाग 1, पृ० 313-314)

विषय और वार्ता

उतबा की इस बातचीत के जवाब में जो व्याख्यान अल्लाह की ओर से उतरा, उसमें उन बेहूदा बातों की ओर सिरे से कोई ध्यान नहीं दिया गया जो उसने नबी (सल्ल.) से कही थीं, और केवल उस विरोध को वार्ता का विषय बनाया गया है जो क़ुरआन मजीद के पैग़ाम को नीचा दिखाने के लिए मक्का के विधर्मियों की ओर से उस समय अत्यन्त हठधर्मी और दुराचार के साथ किया जा रहा था। इस अंधे और बहरे विरोध के उत्तर में जो कुछ फ़रमाया गया है, उसका सारांश यह है-

(1) यह अल्लाह की उतारी हुई वाणी है और अरबी भाषा में है। अज्ञानी लोग इसके अंदर ज्ञान का कोई प्रकाश नहीं पाते, मगर समझ-बूझ रखनेवाले उस प्रकाश को देख भी रहे हैं और उससे फ़ायदा भी उठा रहे हैं।

(2) तुमने अगर अपने दिलों पर गिलाफ़ (आवरण) चढ़ा लिए हैं और अपने कान बहरे कर लिए हैं, तो नबी के सुपुर्द यह काम नहीं है कि [वह ज़बरदस्ती तुम्हें अपनी बात सुना और समझा दे। वह तो] सुननेवालों ही को सुना सकता है और समझनेवालों ही को समझा सकता है।

(3) तुम चाहे अपनी आँखें और कान बन्द कर लो और अपने दिलों पर परदा डाल लो, लेकिन सत्य यही है कि तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही है, और तुम किसी दूसरे के बन्दे नहीं हो।

(4) तुम्हें कुछ एहसास भी है कि यह शिर्क (बहुदेववाद) और कुफ़्र (इंकार) की नीति तुम किसके साथ अपना रहे हो? उस ख़ुदा के साथ जो तुम्हारा और सम्पूर्ण सृष्टि का पैदा करनेवाला, मालिक और रोज़ी देनेवाला है। उसका साझीदार तुम उसकी तुच्छ मख़्लूक़ात (सृष्ट चीज़ों) को बनाते हो?

(5) अच्छा, नहीं मानते तो ख़बरदार हो जाओ कि तुमपर उसी तरह का अज़ाब टूट पड़ने को तैयार है जैसा आद और समूद जातियों पर आया था।

(6) बड़ा ही अभागा है वह इंसान जिसके साथ ऐसे जिन्नों और इंसानों में से शैतान लग जाएँ जो उसकी मूर्खताओं को उसके सामने सुन्दर बनाकर पेश करें। इस तरह के नादान लोग आज तो यहाँ एक-दूसरे को बढ़ावे-चढ़ावे दे रहे हैं, लेकिन क़ियामत के दिन इनमें से हर एक कहेगा कि जिन लोगों ने मुझे बहकाया था, वे मेरे हाथ लग जाएँ तो उन्हें पाँव तले रौंद डालूँ।

(7) यह क़ुरआन एक अटल किताब है। इसे तुम अपनी घटिया चालों और अपने झूठ के हथियारों से हरा नहीं सकते।

(8) तुम कहते हो कि यह क़ुरआन किसी अजमी (गैर-अरबी) भाषा में आना चाहिए था, लेकिन अगर अजमी भाषा में उसे भेजते तो तुम ही लोग कहते कि यह भी विचित्र उपहास है, अरब क़ौम के मार्गदर्शन के लिए अजमी भाषा में वार्तालाप किया जा रहा है । इसका अर्थ यह है कि तुम्हें वास्तव में मार्गदर्शन अभीष्ट ही नहीं है।

(9) कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर वास्तव में सत्य यही सिद्ध हुआ कि यह क़ुरआन अल्लाह की ओर से है तो इसका इंकार करके तुम किस अंजाम का सामना करोगे।

(10) आज तुम नहीं मान रहे हो, मगर बहुत जल्द तुम अपनी आँखों से देख लोगे कि इस क़ुरआन की दावत (पैग़ाम) पूरी दुनिया पर छा गई है और तुम स्वयं उससे पराजित हो चुके हो।

विरोधियों को यह उत्तर देने के साथ उन समस्याओं की ओर भी ध्यान दिया गया है जो इस कठिन रुकावटों के माहौल में ईमानवालों के और ख़ुद नबी (सल्ल०) के सामने थीं। ईमानवालों को यह कहकर हिम्मत बंधाई गई कि तुम वास्तव में बेसहारा नहीं हो, बल्कि जो आदमी ईमान की राह पर मज़बूती से जम जाता है, अल्लाह के फ़रिश्ते उसपर उतरते हैं और दुनिया से लेकर आख़िरत तक उसका साथ देते हैं। नबी (सल्ल०) को बताया गया कि [दावत की राह में रुकावट बनी चट्टानें देखने में बड़ी कठोर नज़र आती हैं, किन्तु अच्छे चरित्र और सुशीलता का हथियार वह हथियार है जो उन्हें तोड़कर और पिघलाकर रख देगा। सब्र के साथ उससे काम लो, और जब कभी शैतान उत्तेजना पैदा करके किसी दूसरे हथियार से काम लेने पर उकसाए. तो अल्लाह से पनाह माँगो।

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ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰٓ إِلَى ٱلسَّمَآءِ وَهِيَ دُخَانٞ فَقَالَ لَهَا وَلِلۡأَرۡضِ ٱئۡتِيَا طَوۡعًا أَوۡ كَرۡهٗا قَالَتَآ أَتَيۡنَا طَآئِعِينَ ۝ 1
(11) फिर वह आसमान की तरफ़ मुतवज्जेह2 हुआ जो उस वक़्त मह्ज़ धुआँ था। उसने आसमान और ज़मीन से कहा, “वजूद में आ जाओ, ख़ाह तुम चाहो या न चाहो।” दोनों ने कहा, “हम आ गए फ़रमाँबरदारों की तरह।”
2. यह मतलब नहीं है कि ज़मीन बनाने के बाद और उसमें आबादी का इन्तिज़ाम करने के बाद उसने आसमान बनाए। यहाँ फिर का लफ़्ज़ ज़मानी तरतीब के लिए नहीं बयानी तरतीब के लिए इस्तेमाल हुआ है। बाद के फ़िक़रे से यह बात वाज़ेह हो जाती है।
فَقَضَىٰهُنَّ سَبۡعَ سَمَٰوَاتٖ فِي يَوۡمَيۡنِ وَأَوۡحَىٰ فِي كُلِّ سَمَآءٍ أَمۡرَهَاۚ وَزَيَّنَّا ٱلسَّمَآءَ ٱلدُّنۡيَا بِمَصَٰبِيحَ وَحِفۡظٗاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 2
(12) तब उसने दो दिन के अन्दर सात आसमान बना दिए, और हर आसमान में उसका क़ानून वह्य कर दिया। और आसमाने-दुनिया को हमने चराग़ों से आरास्ता किया और उसे ख़ूब महफ़ूज़ कर दिया। ये सब कुछ एक ज़बरदस्त अलीम हस्ती का मंसूबा है।
فَإِنۡ أَعۡرَضُواْ فَقُلۡ أَنذَرۡتُكُمۡ صَٰعِقَةٗ مِّثۡلَ صَٰعِقَةِ عَادٖ وَثَمُودَ ۝ 3
(13) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं तो इनसे कह दो कि मैं तुमको उसी तरह के एक अचानक टूट पड़नेवाले अज़ाब से डराता हूँ जैसे आद और समूद पर नाज़िल हुआ था।
إِذۡ جَآءَتۡهُمُ ٱلرُّسُلُ مِنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَۖ قَالُواْ لَوۡ شَآءَ رَبُّنَا لَأَنزَلَ مَلَٰٓئِكَةٗ فَإِنَّا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 4
(14) जब ख़ुदा के रसूल उनके पास आगे और पीछे, हर तरफ़ में आए और उन्हें समझाया कि अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो — उन्होंने कहा, “हमारा रब चाहता तो फ़रिश्ते भेजता, लिहाज़ा हम उस बात को नहीं मानते जिसके लिए तुम भेजे गए हो।”
فَأَمَّا عَادٞ فَٱسۡتَكۡبَرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَقَالُواْ مَنۡ أَشَدُّ مِنَّا قُوَّةًۖ أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ ٱلَّذِي خَلَقَهُمۡ هُوَ أَشَدُّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗۖ وَكَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَجۡحَدُونَ ۝ 5
(15) आद का हाल यह था कि वे ज़मीन में किसी हक़ के बग़ैर बड़े बन बैठे और कहने लगे, “कौन है हमसे ज़्यादा ज़ोरआवर?” उनको यह न सूझा कि जिस ख़ुदा ने उनको पैदा किया वह उनसे ज़्यादा ज़ोरआवर है! वे हमारी आयात का इनकार ही करते रहे,
فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِيحٗا صَرۡصَرٗا فِيٓ أَيَّامٖ نَّحِسَاتٖ لِّنُذِيقَهُمۡ عَذَابَ ٱلۡخِزۡيِ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَخۡزَىٰۖ وَهُمۡ لَا يُنصَرُونَ ۝ 6
(16) आख़िरकार हमने चंद मनहूस दिनों में सख़्त तूफ़ानी हवा उनपर भेज दी ताकि उन्हें दुनिया ही की ज़िन्दगी में ज़िल्लत व रुसवाई के अज़ाब का मज़ा चखा दें, और आख़िरत का अज़ाब तो उससे भी ज़्यादा रुसवाकुन है, वहाँ कोई उनकी मदद करनेवाला न होगा।
وَأَمَّا ثَمُودُ فَهَدَيۡنَٰهُمۡ فَٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡعَمَىٰ عَلَى ٱلۡهُدَىٰ فَأَخَذَتۡهُمۡ صَٰعِقَةُ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡهُونِ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 7
(17) रहे समूद, तो उनके सामने हमने राहे-रास्त पेश की मगर उन्होंने रास्ता देखने के बजाय अंधा बना रहना ही पसन्द किया। आख़िर उनके करतूतों की बदौलत ज़िल्लत का अज़ाब उनपर टूट पड़ा
وَنَجَّيۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 8
(18) और हमने उन लोगों को बचा लिया जो ईमान लाए थे और गुमराही व बदअमली से परहेज़ करते थे।
وَيَوۡمَ يُحۡشَرُ أَعۡدَآءُ ٱللَّهِ إِلَى ٱلنَّارِ فَهُمۡ يُوزَعُونَ ۝ 9
(19) और ज़रा उस वक़्त का ख़याल करो जब अल्लाह के ये दुश्मन दोज़ख़ की तरफ़ जाने के लिए घर लाए जाएँगे।3
3. अस्ल मुद्दआ यह कहना है कि जब वे अल्लाह की अदालत में पेश होने के लिए घेर लाए जाएँगे लेकिन इस मज़मून को इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है कि दोज़ख़ की तरफ़ जाने के लिए घेर लाए जाएँगे। क्योंकि उनका अंजाम आख़िरकार दोज़ख़ ही में जाना है।
حَتَّىٰٓ إِذَا مَا جَآءُوهَا شَهِدَ عَلَيۡهِمۡ سَمۡعُهُمۡ وَأَبۡصَٰرُهُمۡ وَجُلُودُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 10
(20) उनके अगलों को पिछलों के आने तक रोक रखा जाएगा,4 फिर जब सब वहाँ पहुँच जाएँगे तो उनके कान और उनकी आँखें और उनके जिस्म की खालें उनपर गवाही देंगी कि ये दुनिया में क्या कुछ करते रहे हैं।
4. यानी ऐसा नहीं होगा कि एक-एक नस्ल और एक-एक पुश्त का हिसाब करके उसका फ़ैसला यके-बाद-दीगरे किया जाता रहे, बल्कि तमाम अगली पिछली नस्लें बयक-वक़्त जमा की जाएँगी और उन सब का इकठ्टा हिसाब किया जाएगा क्योंकि हर बाद की नस्ल के नेक या बद होने में उससे पहले गुज़री हुई नस्ल की छोड़ी हुई दीनी और अख़लाक़ी मीरास का हिस्सा शामिल होता है।
فَلَنُذِيقَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَذَابٗا شَدِيدٗا وَلَنَجۡزِيَنَّهُمۡ أَسۡوَأَ ٱلَّذِي كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 11
(27) इन काफ़िरों को हम सख़्त अज़ाब का मज़ा चखाकर रहेंगे और जो बदतरीन हरकात ये करते रहे हैं उनका पूरा-पूरा बदला इन्हें देंगे।
وَقَالُواْ لِجُلُودِهِمۡ لِمَ شَهِدتُّمۡ عَلَيۡنَاۖ قَالُوٓاْ أَنطَقَنَا ٱللَّهُ ٱلَّذِيٓ أَنطَقَ كُلَّ شَيۡءٖۚ وَهُوَ خَلَقَكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 12
(21) वे अपने जिस्म की खालों से कहेंगे, “तुमने हमारे ख़िलाफ़ क्यों गवाही दी?” वे जवाब देंगी, “हमें उसी ख़ुदा ने गोयाई दी है जिसने हर चीज़ को गोया कर दिया है। उसी ने तुमको पहली मर्तबा पैदा किया था और अब उसी की तरफ़ तुम वापस लाए जा रहे हो।
ذَٰلِكَ جَزَآءُ أَعۡدَآءِ ٱللَّهِ ٱلنَّارُۖ لَهُمۡ فِيهَا دَارُ ٱلۡخُلۡدِ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَجۡحَدُونَ ۝ 13
(28) वह दोज़ख़ है जो अल्लाह के दुश्मनों को बदले में मिलेगी। उसी में हमेशा-हमेशा के लिए उनका घर होगा। यह है सज़ा उस जुर्म की कि वे हमारी आयात का इनकार करते रहे।
وَمَا كُنتُمۡ تَسۡتَتِرُونَ أَن يَشۡهَدَ عَلَيۡكُمۡ سَمۡعُكُمۡ وَلَآ أَبۡصَٰرُكُمۡ وَلَا جُلُودُكُمۡ وَلَٰكِن ظَنَنتُمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَا يَعۡلَمُ كَثِيرٗا مِّمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 14
(22) तुम दुनिया में जराइम करते वक़्त जब छिपते थे तो तुम्हें यह ख़याल न था कि कभी तुम्हारे अपने कान और तुम्हारी आँखें और तुम्हारे जिस्म की खालें तुमपर गवाही देंगी, बल्कि तुमने तो यह समझा था कि तुम्हारे बहुत-से आमाल की अल्लाह को भी ख़बर नहीं है।
وَذَٰلِكُمۡ ظَنُّكُمُ ٱلَّذِي ظَنَنتُم بِرَبِّكُمۡ أَرۡدَىٰكُمۡ فَأَصۡبَحۡتُم مِّنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 15
(23) तुम्हारा यही गुमान जो तुमने अपने रब के साथ किया था, तुम्हें ले डूबा और उसी की बदौलत तुम ख़सारे में पड़ गए।”
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ رَبَّنَآ أَرِنَا ٱلَّذَيۡنِ أَضَلَّانَا مِنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ نَجۡعَلۡهُمَا تَحۡتَ أَقۡدَامِنَا لِيَكُونَا مِنَ ٱلۡأَسۡفَلِينَ ۝ 16
(29) वहाँ ये काफ़िर कहेंगे कि “ऐ हमारे रब! ज़रा हमें दिखा दे उन जिन्नों और इनसानों को जिन्होंने हमें गुमराह किया था, हम उन्हें पाँव तले रौंद डालेंगे ताकि वे ख़ूब जलील व ख़ार हों।”
فَإِن يَصۡبِرُواْ فَٱلنَّارُ مَثۡوٗى لَّهُمۡۖ وَإِن يَسۡتَعۡتِبُواْ فَمَا هُم مِّنَ ٱلۡمُعۡتَبِينَ ۝ 17
(24) इस हालत में वे सब्र करें (या न करें) आग ही उनका ठिकाना होगी, और अगर रुजूअ का मौक़ा चाहेंगे तो कोई मौक़ा उन्हें न दिया जाएगा।
۞وَقَيَّضۡنَا لَهُمۡ قُرَنَآءَ فَزَيَّنُواْ لَهُم مَّا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَحَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلُ فِيٓ أُمَمٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِم مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 18
(25) हमने उनपर ऐसे साथी मुसल्लत कर दिए थे जो उन्हें आगे और पीछे हर चीज़ ख़ुशनुमा बनाकर दिखाते थे, आख़िरकार उनपर भी वही फ़ैसला-ए-अज़ाब चस्पाँ होकर रहा जो उनसे पहले गुज़रे हुए, जिन्नों और इनसानों के गरोहों पर चस्पाँ हो चुका था, यक़ीनन वे ख़सारे में रह जानेवाले थे।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَا تَسۡمَعُواْ لِهَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ وَٱلۡغَوۡاْ فِيهِ لَعَلَّكُمۡ تَغۡلِبُونَ ۝ 19
(26) ये मुनकिरीने-हक़ कहते हैं, “इस क़ुरआन को हरगिज़ न सुनो और जब यह सुनाया जाए तो इसमें ख़लल डालो, शायद कि इसी तरह तुम ग़ालिब आ जाओ।”
مَّا يُقَالُ لَكَ إِلَّا مَا قَدۡ قِيلَ لِلرُّسُلِ مِن قَبۡلِكَۚ إِنَّ رَبَّكَ لَذُو مَغۡفِرَةٖ وَذُو عِقَابٍ أَلِيمٖ ۝ 20
(43) (ऐ नबी!) तुमको जो कुछ कहा जा रहा है उसमें कोई चीज़ भी ऐसी नहीं है जो तुमसे पहले गुज़रे हुए रसूलों को न कही जा चुकी हो। बेशक तुम्हारा रब बड़ा दरगुज़र करनेवाला है, और इसके साथ बड़ी दर्दनाक सज़ा देनेवाला भी है।
وَلَوۡ جَعَلۡنَٰهُ قُرۡءَانًا أَعۡجَمِيّٗا لَّقَالُواْ لَوۡلَا فُصِّلَتۡ ءَايَٰتُهُۥٓۖ ءَا۬عۡجَمِيّٞ وَعَرَبِيّٞۗ قُلۡ هُوَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ هُدٗى وَشِفَآءٞۚ وَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ فِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٞ وَهُوَ عَلَيۡهِمۡ عَمًىۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُنَادَوۡنَ مِن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ ۝ 21
(44) अगर हम इसको अजमी क़ुरआन बनाकर भेजते तो ये लोग कहते, “क्यों न इसकी आयात खोलकर बयान की गईं? क्या ही अजीब बात है कि कलाम अजमी है और मुख़ातब अरबी!’’8 इनसे कहो, “यह क़ुरआन ईमान लानेवालों के लिए तो हिदायत और शिफ़ा है, मगर जो लोग ईमान नहीं लाते उनके लिए यह कानों की डाट और आँखों की पट्टी है।” उनका हाल तो ऐसा जैसे उनको दूर से पुकारा जा रहा हो।
8. यह उस हठधर्मी का एक नमूना है जिससे नबी (सल्ल०) का मुक़ाबला किया जा रहा था। कुफ़्फ़ार कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) अरब हैं। ये अगर अरबी में क़ुरआन पेश करते हैं तो कैसे बावर किया जा सकता है कि यह कलाम इन्होंने ख़ुद नहीं गढ़ लिया है, बल्कि इनपर ख़ुदा ने नाज़िल किया है। इस कलाम को अल्लाह का नाज़िल किया हुआ कलाम तो उस वक़्त माना जा सकता था जब ये किसी ऐसी ज़बान में यकायक धुआँधार तक़रीर करना शुरू कर देते, जिसे वे नहीं जानते, मसलन फ़ारसी या रोमी या यूनानी। इसपर अल्लाह तआला फ़रमाता है कि अब इनकी अपनी ज़बान में क़ुरआन भेजा गया है जिसे ये समझ सकें तो इनको यह एतिराज़ है कि एक अरब के ज़रिए से अरबी ज़बान में यह कलाम क्यों नाज़िल किया गया? लेकिन अगर किसी दूसरी ज़बान में यह भेजा जाता तो उस वक़्त ये लोग एतिराज़ करते कि यह मामला भी ख़ूब है! अरब क़ौम में एक अरब को रसूल बनाकर भेजा गया है, मगर कलाम उसपर ऐसी ज़बान में नाज़िल किया गया है जिसे न रसूल समझता है न क़ौम।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ فَٱخۡتُلِفَ فِيهِۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّهُمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ ۝ 22
(45) इससे पहले हमने मूसा को किताब दी थी और उसके मामले में भी यही इख़्तिलाफ़ हुआ था। अगर तेरे रब ने पहले ही एक बात तय न कर दी होती तो इन इख़्तिलाफ़ करनेवालों के दरमियान फ़ैसला चुका दिया जाता। और हक़ीक़त यह है कि ये लोग उसकी तरफ़ से सख़्त इज़तिराबअंगेज़ शक में पड़े हुए हैं।
مَّنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ أَسَآءَ فَعَلَيۡهَاۗ وَمَا رَبُّكَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 23
(46) जो कोई नेक अमल करेगा अपने ही लिए अच्छा करेगा, जो बदी करेगा उसका वबाल उसी पर होगा, और तेरा रब अपने बन्दों के हक़ में ज़ालिम नहीं है।
۞إِلَيۡهِ يُرَدُّ عِلۡمُ ٱلسَّاعَةِۚ وَمَا تَخۡرُجُ مِن ثَمَرَٰتٖ مِّنۡ أَكۡمَامِهَا وَمَا تَحۡمِلُ مِنۡ أُنثَىٰ وَلَا تَضَعُ إِلَّا بِعِلۡمِهِۦۚ وَيَوۡمَ يُنَادِيهِمۡ أَيۡنَ شُرَكَآءِي قَالُوٓاْ ءَاذَنَّٰكَ مَامِنَّا مِن شَهِيدٖ ۝ 24
(47) उस साअत9 का इल्म अल्लाह ही की तरफ़ राजेअ होता है, वहीं उन सारे फलों को जानता है जो अपने शगूफ़ों में से निकलते हैं, उसी को मालूम है कि कौन-सी मादा हामिला हुई है और किसने बच्चा जना है। फिर जिस रोज़ वह इन लोगों को पुकारेगा कि कहाँ है मेरे वे शरीक? ये कहेंगे, “हम अर्ज़ कर चुके हैं, आज हम में से कोई इसकी गवाही देनेवाला नहीं है।”
9. मुराद है क़ियामत।
وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَدۡعُونَ مِن قَبۡلُۖ وَظَنُّواْ مَا لَهُم مِّن مَّحِيصٖ ۝ 25
(48) उस वक़्त वे सारे माबूद इनसे गुम हो जाएँगे जिन्हें ये इससे पहले पुकारते थे, और ये लोग समझ लेंगे कि इनके लिए अब कोई जाए-पनाह नहीं है।
لَّا يَسۡـَٔمُ ٱلۡإِنسَٰنُ مِن دُعَآءِ ٱلۡخَيۡرِ وَإِن مَّسَّهُ ٱلشَّرُّ فَيَـُٔوسٞ قَنُوطٞ ۝ 26
(49) इनसान कभी भलाई की दुआ माँगते नहीं थकता, और जब कोई आफ़त इसपर आ जाती है तो मायूस व दिल शिकस्ता हो जाता है,
وَلَئِنۡ أَذَقۡنَٰهُ رَحۡمَةٗ مِّنَّا مِنۢ بَعۡدِ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُ لَيَقُولَنَّ هَٰذَا لِي وَمَآ أَظُنُّ ٱلسَّاعَةَ قَآئِمَةٗ وَلَئِن رُّجِعۡتُ إِلَىٰ رَبِّيٓ إِنَّ لِي عِندَهُۥ لَلۡحُسۡنَىٰۚ فَلَنُنَبِّئَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِمَا عَمِلُواْ وَلَنُذِيقَنَّهُم مِّنۡ عَذَابٍ غَلِيظٖ ۝ 27
(50) मगर ज्यों ही कि सख़्त वक़्त गुज़र जाने के बाद हम उसे अपनी रहमत का मज़ा चख़ाते हैं, यह कहता है कि “मैं इसी का मुस्तहिक़ हूँ, और मैं नहीं समझता कि क़ियामत कभी आएगी, लेकिन अगर वाक़ई मैं अपने रब की तरफ़ पलटाया गया तो वहाँ भी मज़े करूँगा|” हालाँकि कुफ़्र करनेवालों को लाज़िमन हम बताकर रहेंगे कि वे क्या करके आए है और उन्हें हम बड़े गन्दे अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
وَإِذَآ أَنۡعَمۡنَا عَلَى ٱلۡإِنسَٰنِ أَعۡرَضَ وَنَـَٔا بِجَانِبِهِۦ وَإِذَا مَسَّهُ ٱلشَّرُّ فَذُو دُعَآءٍ عَرِيضٖ ۝ 28
(51) इनसान को जब हम नेमत देते हैं तो वह मुँह फेरता है और अकड़ जाता है। और जब उसे कोई आफ़त छू जाती है तो लम्बी-चौड़ी दुआएँ करने लगता है।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كَانَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ ثُمَّ كَفَرۡتُم بِهِۦ مَنۡ أَضَلُّ مِمَّنۡ هُوَ فِي شِقَاقِۭ بَعِيدٖ ۝ 29
(52) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर वाक़ई यर क़ुरआन ख़ुदा ही की तरफ़ से हुआ और तुम इसका इनकार करते रहे तो उस शख़्स से बढ़कर भटका हुआ और कौन होगा जो इसकी मुख़ालफ़त में दूर तक निकल गया हो?”
سَنُرِيهِمۡ ءَايَٰتِنَا فِي ٱلۡأٓفَاقِ وَفِيٓ أَنفُسِهِمۡ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَهُمۡ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّۗ أَوَلَمۡ يَكۡفِ بِرَبِّكَ أَنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 30
(53) अन-क़रीब हम इनको अपनी निशानियाँ आफ़ाक़ में भी दिखाएँगे और इनके अपने नफ़्स में भी यहाँ तक कि इनपर यह बात खुल जाएगी कि यह क़ुरआन वाक़ई बरहक़ है। क्या यह बात काफ़ी नहीं है कि तेरा रब हर चीज़ का शाहिद है?
أَلَآ إِنَّهُمۡ فِي مِرۡيَةٖ مِّن لِّقَآءِ رَبِّهِمۡۗ أَلَآ إِنَّهُۥ بِكُلِّ شَيۡءٖ مُّحِيطُۢ ۝ 31
(54) आगाह रहो, ये लोग अपने रब की मुलाक़ात में शक रखते है, सुन रखो, वह हर चीज़ पर मुहीत है।10
10. यानी कोई चीज़ न उसकी गिरिफ़्त से बाहर है न उसके इल्म से मख़फ़ी।
سُورَةُ فُصِّلَتۡ
41. हा० मीम० अस-सजदा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा० मीम०,
تَنزِيلٞ مِّنَ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 32
(2) यह ख़ुदा-ए-रहमान व रहीम की तरफ़ से नाज़िल-करदा चीज़ है,
كِتَٰبٞ فُصِّلَتۡ ءَايَٰتُهُۥ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا لِّقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 33
(1) एक ऐसी किताब जिसकी आयात ख़ूब खोलकर बयान की गई हैं, अरबी ज़बान का क़ुरआन, उन लोगों के लिए जो इल्म रखते हैं,
بَشِيرٗا وَنَذِيرٗا فَأَعۡرَضَ أَكۡثَرُهُمۡ فَهُمۡ لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 34
(4) बशारत देनेवाला और डरा देनेवाला। मगर इन लोगों में से अकसर ने इससे रूगरदानी की और वे सुनकर नहीं देते।
وَقَالُواْ قُلُوبُنَا فِيٓ أَكِنَّةٖ مِّمَّا تَدۡعُونَآ إِلَيۡهِ وَفِيٓ ءَاذَانِنَا وَقۡرٞ وَمِنۢ بَيۡنِنَا وَبَيۡنِكَ حِجَابٞ فَٱعۡمَلۡ إِنَّنَا عَٰمِلُونَ ۝ 35
(5) कहते हैं, “जिस चीज़ की तरफ़ तू हमें बुला रहा है उसके लिए हमारे दिलों पर ग़िलाफ़ चढ़े हुए हैं, हमारे कान बहरे हो गए हैं, और हमारे और तेरे दरमियान एक हिजाब हाइल हो गया है। तू अपना काम कर, हम अपना काम किए जाएँगे।”
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَٱسۡتَقِيمُوٓاْ إِلَيۡهِ وَٱسۡتَغۡفِرُوهُۗ وَوَيۡلٞ لِّلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 36
(6) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “मैं तो एक बशर हूँ तुम जैसा। मुझे वह्य के ज़रिए से बताया जाता है कि तुम्हारा ख़ुदा तो बस एक ही ख़ुदा है, लिहाज़ा तुम सीधे उसी का रुख़ इख़्तियार करो और उससे माफ़ी चाहो।
ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 37
(7) तबाही है उन मुशरिकों के लिए जो ज़कात नहीं देते और आख़िरत के मुनकिर हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ قَالُواْ رَبُّنَا ٱللَّهُ ثُمَّ ٱسۡتَقَٰمُواْ تَتَنَزَّلُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَلَّا تَخَافُواْ وَلَا تَحۡزَنُواْ وَأَبۡشِرُواْ بِٱلۡجَنَّةِ ٱلَّتِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 38
(30) जिन लोगों ने कहा कि अल्लाह हमारा रब है और फिर वे उसपर साबित क़दम रहे,5 यक़ीनन उनपर फ़रिश्ते नाज़िल होते हैं और उनसे कहते है कि “न डरो, न ग़म करो, और ख़ुश हो जाओ उस जन्नत की बशारत से जिसका तुमसे वादा किया गया है।
5. यानी मह्ज़ इत्तिफ़ाक़न कभी अल्लाह को अपना रब कहकर नहीं रह गए, और न इस ग़लती में मुब्तला हुए कि अल्लाह को अपना रब कहते भी जाएँ और साथ-साथ दूसरों को अपना रब बनाते भी जाएँ, बल्कि एक मर्तबा यह अक़ीदा क़ुबूल कर लेने के बाद फिर सारी उम्र इसपर क़ायम रहे, इसके ख़िलाफ़ कोई दूसरा अक़ीदा इख़्तियार न किया, न इस अक़ीदे के साथ किसी बातिल अक़ीदे की आमेज़िश की, और अपनी अमली ज़िन्दगी में भी अक़ीदा-ए-तौहीद के तक़ाज़ों को पूरा करते रहे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُمۡ أَجۡرٌ غَيۡرُ مَمۡنُونٖ ۝ 39
(8) रहे वे लोग जिन्होंने मान लिया और नेक आमाल किए, उनके लिए यक़ीनन ऐसा अज्र है जिसका सिलसिला कभी टूटनेवाला नहीं है।
نَحۡنُ أَوۡلِيَآؤُكُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِۖ وَلَكُمۡ فِيهَا مَا تَشۡتَهِيٓ أَنفُسُكُمۡ وَلَكُمۡ فِيهَا مَا تَدَّعُونَ ۝ 40
(31) हम इस दुनिया की ज़िदगी में भी तुम्हारे साथी हैं और आख़िरत में भी। वहाँ जो कुछ तुम चाहोगे तुम्हें मिलेगा और हर चीज़ जिसकी तुम तमन्ना करोगे वह तुम्हारी होगी, यह है सामाने-ज़ियाफ़त
۞قُلۡ أَئِنَّكُمۡ لَتَكۡفُرُونَ بِٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَرۡضَ فِي يَوۡمَيۡنِ وَتَجۡعَلُونَ لَهُۥٓ أَندَادٗاۚ ذَٰلِكَ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 41
(9) (ऐ नबी!) इनसे कहो, “क्या तुम उस ख़ुदा से कुफ़्र करते हो और दूसरों को उसका हमसर ठहराते हो जिसने ज़मीन को दो दिनों में बना दिया? वही तो सारे जहानवालों का रब है।
نُزُلٗا مِّنۡ غَفُورٖ رَّحِيمٖ ۝ 42
(32) उस हस्ती की तरफ़ से जो ग़फ़ूर और रहीम है।”
وَجَعَلَ فِيهَا رَوَٰسِيَ مِن فَوۡقِهَا وَبَٰرَكَ فِيهَا وَقَدَّرَ فِيهَآ أَقۡوَٰتَهَا فِيٓ أَرۡبَعَةِ أَيَّامٖ سَوَآءٗ لِّلسَّآئِلِينَ ۝ 43
(10) उसने (ज़मीन को वुजूद में लाने के बाद) ऊपर से उसपर पहाड़ जमा दिए और उसमें बरकतें रख दीं और उसके अन्दर सब माँगनेवालों के लिए1 हर एक की तलब व हाजत के मुताबिक़ ठीक अन्दाज़े से ख़ूराक का सामान मुहैया कर दिया। ये सब काम चार दिन में हो गए।
1. यानी उन तमाम मख़लूक़ात के लिए जो ख़ूराक की तालिब थीं।
وَمَنۡ أَحۡسَنُ قَوۡلٗا مِّمَّن دَعَآ إِلَى ٱللَّهِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا وَقَالَ إِنَّنِي مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 44
(33) और उस शख़्स की बात से अच्छी बात और किसकी होगी जिसने अल्लाह की तरफ़ बुलाया और नेक अमल किया और कहा कि मैं मुसलमान हूँ।
وَلَا تَسۡتَوِي ٱلۡحَسَنَةُ وَلَا ٱلسَّيِّئَةُۚ ٱدۡفَعۡ بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ فَإِذَا ٱلَّذِي بَيۡنَكَ وَبَيۡنَهُۥ عَدَٰوَةٞ كَأَنَّهُۥ وَلِيٌّ حَمِيمٞ ۝ 45
(34) और (ऐ नबी!) नेकी और बदी यकसाँ नहीं हैं। तुम बदी को उस नेकी से दफ़ा करो जो बेहतरीन हो। तुम देखोगे कि तुम्हारे साथ जिसकी अदावत पड़ी हुई थी वह जिगरी दोस्त बन गया है।
وَمَا يُلَقَّىٰهَآ إِلَّا ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَمَا يُلَقَّىٰهَآ إِلَّا ذُو حَظٍّ عَظِيمٖ ۝ 46
(35) यह सिफ़त नसीब नहीं होती मगर उन लोगों को जो सब्र करते हैं, और यह मक़ाम हासिल नहीं होता, मगर उन लोगों को जो बड़े नसीबेवाले हैं।
وَإِمَّا يَنزَغَنَّكَ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ نَزۡغٞ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 47
(36) और अगर तुम शैतान की तरफ़ से कोई उकसाहट महसूस करो तो अल्लाह की पनाह माँग लो,6 वह सब कुछ सुनता और जानता है।
6. ‘शैतान की उकसाहट’ से मुराद है ग़ुस्सा दिलाना। जब आदमी यह महसूस करे कि गालियाँ देनेवाले और इलज़ाम-तराशियाँ करनेवाले मुख़ालिफीन की बातों पर दिल में ग़ुस्सा पैदा हो रहा है और तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने पर तबीयत आमादा हो रही है तो वह फ़ौरन यह समझ ले कि यह शैतान है जो उसको अपने ग़ैर शरीफ़ मुख़ालिफ़ीन की सतह पर उतर आने के लिए उकसा रहा है।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِ ٱلَّيۡلُ وَٱلنَّهَارُ وَٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُۚ لَا تَسۡجُدُواْ لِلشَّمۡسِ وَلَا لِلۡقَمَرِ وَٱسۡجُدُواْۤ لِلَّهِۤ ٱلَّذِي خَلَقَهُنَّ إِن كُنتُمۡ إِيَّاهُ تَعۡبُدُونَ ۝ 48
(37) अल्लाह की निशानियों में से हैं ये रात और दिन और सूरज और चाँद। सूरज और चाँद को सजदा न करो, बल्कि उस ख़ुदा को सजदा करो जिसने इन्हें पैदा किया है अगर फ़िल-वाक़े तुम उसी की इबादत करनेवाले हो।
فَإِنِ ٱسۡتَكۡبَرُواْ فَٱلَّذِينَ عِندَ رَبِّكَ يُسَبِّحُونَ لَهُۥ بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَهُمۡ لَا يَسۡـَٔمُونَ۩ ۝ 49
(38) लेकिन अगर ये लोग ग़ुरूर में आकर अपनी ही बात पर अड़े रहें तो परवाह नहीं, जो फ़रिश्ते तेरे रब के मुक़र्रब हैं वो शब व रोज़ उसकी तसबीह कर रहे है और कभी नहीं थकते।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنَّكَ تَرَى ٱلۡأَرۡضَ خَٰشِعَةٗ فَإِذَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهَا ٱلۡمَآءَ ٱهۡتَزَّتۡ وَرَبَتۡۚ إِنَّ ٱلَّذِيٓ أَحۡيَاهَا لَمُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰٓۚ إِنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 50
(39) और अल्लाह की निशानियों में से एक यह है कि तुम देखते हो ज़मीन सूनी पड़ी हुई है, फिर ज्यों ही कि हमने उसपर पानी बरसाया, यकायक वह फबक उठती है और फूल जाती है। यक़ीनन जो ख़ुदा इस मरी हुई ज़मीन को जिला उठाता है वह मुर्दों को भी ज़िन्दगी बख़्शनेवाला है। यक़ीनन वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُلۡحِدُونَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا لَا يَخۡفَوۡنَ عَلَيۡنَآۗ أَفَمَن يُلۡقَىٰ فِي ٱلنَّارِ خَيۡرٌ أَم مَّن يَأۡتِيٓ ءَامِنٗا يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ ٱعۡمَلُواْ مَا شِئۡتُمۡ إِنَّهُۥ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 51
(40) जो लोग हमारी आयात को उलटे मानी पहनाते हैं वे हमसे कुछ छिपे हुए नहीं हैं। ख़ुद ही सोच लो कि आया वह शख़्स बेहतर है जो आग में झोंका जानेवाला है या वह जो क़ियामत के रोज़ अम्न की हालत में हाज़िर होगा? करते रहो जो कुछ तुम चाहो, तुम्हारी सारी हरकतों को अल्लाह देख रहा है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِٱلذِّكۡرِ لَمَّا جَآءَهُمۡۖ وَإِنَّهُۥ لَكِتَٰبٌ عَزِيزٞ ۝ 52
(41) ये वे लोग हैं जिनके सामने कलामे-नसीहत आया तो इन्होंने उसे मानने से इनकार कर दिया। मगर हक़ीक़त यह है कि यह एक ज़बरदस्त किताब है।
لَّا يَأۡتِيهِ ٱلۡبَٰطِلُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَلَا مِنۡ خَلۡفِهِۦۖ تَنزِيلٞ مِّنۡ حَكِيمٍ حَمِيدٖ ۝ 53
(42) बातिल न सामने से इसपर आ सकता है न पीछे से,7 यह एक हकीम व हमीद की नाज़िल-करदा चीज़ है।
7. सामने से न आ सकने का मतलब यह है कि क़ुरआन पर बराहे-रास्त हमला करके अगर कोई शख़्स उसकी किसी बात को ग़लत और किसी तालीम को बातिल व फ़ासिद साबित करना चाहे तो इसमें कामयाब नहीं हो सकता। पीछे से न आ सकने का मतलब यह है कि क़ियामत तक कभी कोई हक़ीक़त व सदाक़त ऐसी मुनकशिफ़ नहीं हो सकती जो क़ुरआन के पेश-करदा हक़ाइक़ के ख़िलाफ़ हो, कोई इल्म ऐसा नहीं आ सकता जो फ़िल-वाक़े ‘इल्म’ हो और क़ुरआन बयान-करदा इल्म की तरदीद करता हो, कोई तजरिबा और मुशाहदा ऐसा नहीं हो सकता जो यह साबित कर दे कि क़ुरआन ने अक़ाइद, अख़लाक़, क़ानून, तहज़ीब व तमद्दुन, मईशत व मुआशरत और सियासते-मुदुन के बाब में इनसान को जो रहनुमाई दी है वह ग़लत है।