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إِنَّكُمۡ لَفِي قَوۡلٖ مُّخۡتَلِفٖ

51. अज़-ज़ारियात

(मक्‍का में उतरी, आयतें 60)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'वज़-ज़ारियात' (क़सम है उन हवाओं को जो धूल उड़ानेवाली हैं) से लिया गया है। आशय यह है कि वह सूरा जिसका आरम्भ 'अज़ ज़ारियात' शब्द से होता है।

उतरने का समय

विषय वस्तुओं और वर्णन-शैली से मालूम होता है कि यह सूरा [भी उसी] कालखंड में उतरी थी, जिसमें सूरा-50, ‘क़ाफ़’ उतरी है।

विषय और वार्ता

इसका बड़ा भाग आख़िरत (परलोक) के विषय पर है और अन्त में तौहीद (एकेश्वरवाद) की ओर बुलाया गया है। इसके साथ लोगों को इस बात पर भी सचेत किया गया है कि नबियों (अलैहि०) की बात न मानना और अपनी अज्ञानतापूर्ण धारणाओं पर आग्रह करना स्वयं उन्हीं क़ौमों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ है जिन्होंने यह नीति अपनाई है। आख़िरत के बारे में जो बात इस सूरा के छोटे-छोटे, मगर अत्यंत अर्थपूर्ण वाक्यों में बयान की गई है, वह यह है कि मानव-जीवन के परिणामों के बारे में लोगों की विभिन्न और परस्पर विरोधी धारणाएँ स्वयं इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि इनमें से कोई धारणा भी ज्ञान पर आधारित नहीं है, बल्कि हर एक ने अटकलें दौड़ाकर अपनी जगह जो दृष्टिकोण बना लिया, उसी को वह अपनी धारणा बनाकर बैठ गया। इतनी बड़ी और महत्त्वपूर्ण मौलिक समस्या पर, जिसके बारे में आदमी की राय का ग़लत हो जाना उसकी पूरी ज़िन्दगी को ग़लत करके रख देता है, ज्ञान के बिना केवल अटकलों के आधार पर कोई धारणा बना लेना एक विनाशकारी मूर्खता है। ऐसी समस्या के बारे में सही राय क़ायम करने का बस एक ही रास्ता है और वह यह है कि इंसान को आख़िरत के बारे में जो ज्ञान अल्लाह की ओर से उसका नबो (ईशदूत) दे रहा है, उसपर वह गम्भीरतापूर्वक विचार करे और ज़मीन तथा आसमान की व्यवस्था और स्वयं अपने अस्तित्व पर दृष्टि डालकर खुली आँखों से देखे कि क्या उस ज्ञान के सही होने की गवाही हर ओर मौजूद नहीं है? इसके बाद बड़े संक्षिप्त शब्दों में एकेश्वरवाद की ओर बुलाते हुए कहा गया है कि तुम्हारे पैदा करनेवाले ने तुमको दूसरों को बन्दगी (भक्ति और आज्ञापालन) के लिए नहीं, बल्कि अपनी बन्दगी के लिए पैदा किया है। वह तुम्हारे बनावटी उपास्यों की तरह नहीं है जो तुमसे रोज़ी (आजीविका) लेते हैं और तुम्हारी सहायता के बिना जिनकी प्रभुता नहीं चल सकती। वह ऐसा उपास्य है जो सबको रोज़ी देता है, किसी से रोज़ी लेने का मुहताज नहीं, और जिसका प्रभुत्व स्वयं उसके अपने बल-बूते पर चल रहा है। इसी सिलसिले में यह भी बताया गया कि नबियों (अलैहि०) का मुक़ाबला जब भी किया गया है, बुद्धिसंगत आधार पर नहीं, बल्कि उसो दुराग्रह, हठधर्मी और अज्ञानतापूर्ण अहंकार के आधार पर किया गया है जो आज मुहम्मद (सल्ल०) के साथ बरता जा रहा है। फिर मुहम्मद (सल्ल०) को निर्देश दिया गया है कि इन सरकशों की ओर ध्यान न दें और अपने आमंत्रण और याद दिलाने का काम करते रहें, क्योंकि वह इन लोगों के लिए चाहे लाभप्रद न हो, किन्तु ईमानवालों के लिए लाभप्रद है।

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إِنَّكُمۡ لَفِي قَوۡلٖ مُّخۡتَلِفٖ ۝ 1
(8) (आख़िरत के बारे में) तुम्हारी बात एक-दूसरे से मुख़्तलिफ़ है।2
2. यानी जिस तरह आसमान के बादलों और तारों के झुरमुटों की शक्लें मुख़्तलिफ़ हैं और उनमें कोई मुताबक़त नहीं पाई जाती, उसी तरह आख़िरत के मुताल्लिक़ तुम लोग भाँत-भाँत की बोलियाँ बोल रहे हो और हर एक की बात दूसरे से मुख़्तलिफ़ है। यह इख़्तिलाफ़े-अक़वाल ख़ुद ही इस अम्र का सुबूत है कि वह्य व रिसालत से बेनियाज़ होकर इनसान ने अपने और इस दुनिया के अंजाम पर जब भी कोई राय क़ायम की है, इल्म के बग़ैर क़ायम की है। वरना अगर इनसान के पास इस मामले में फ़िल-वाक़े बराहे-रास्त इल्म का कोई ज़रिआ होता तो इतने मुख़्तलिफ़ और मुतज़ाद अक़ीदे पैदा न होते।
يُؤۡفَكُ عَنۡهُ مَنۡ أُفِكَ ۝ 2
(9) उससे वही बरगश्ता होता है जो हक़ से फिरा हुआ है।
قُتِلَ ٱلۡخَرَّٰصُونَ ۝ 3
(10) मारे गए क़ियास व गुमान से हुक्म लगानेवाले,
ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي غَمۡرَةٖ سَاهُونَ ۝ 4
(11) जो जहालत में ग़र्क़ और ग़फ़लत में मदहोश हैं।3
3. यानी उन्हें कुछ पता नहीं है कि अपने इन ग़लत अन्दाज़ों की वजह से वे किस अंजाम की तरफ़ चले जा रहे हैं हलाँकि आख़िरत के बारे में ग़लत राय क़ायम करके जो रास्ता भी इख़्तियार किया गया है वह तबाही की तरफ़ जाता है।
يَسۡـَٔلُونَ أَيَّانَ يَوۡمُ ٱلدِّينِ ۝ 5
(12) पूछते हैं, “आख़िर वह रोज़े-जज़ा कब आएगा?”
يَوۡمَ هُمۡ عَلَى ٱلنَّارِ يُفۡتَنُونَ ۝ 6
(13) वह उस रोज़ आएगा जब ये लोग आग पर तपाए जाएँगे।
قَالُوٓاْ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمٖ مُّجۡرِمِينَ ۝ 7
(32) उन्होंने कहा, “हम एक मुजरिम क़ौम की तरफ़ भेजे गए हैं10
10. मुराद है ‘क़ौमे-लूत।' उसके जराइम इस क़द्र बढ़ चुके थे कि सिर्फ़ 'मुजरिम क़ौम' का लफ़्ज़ ही यह बताने के लिए काफ़ी था कि इससे मुराद कौन-सी क़ौम है।
ذُوقُواْ فِتۡنَتَكُمۡ هَٰذَا ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 8
(14) (उनसे कहा जाएगा) “अब चखो मज़ा अपने फ़ितने का, यह वही चीज़ है जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे थे।”4
4. कुफ़्कार का यह पूछना कि “आख़िर वह रोज़े-जज़ा कब आएगा?” अपने अन्दर ख़ुद यह मफ़हूम रखता था कि उसके आने में देर क्यों लग रही है? जब हम उसका इनकार कर रहे हैं और उसके झुठलाने की सज़ा हमारे लिए लाज़िम हो चुकी है तो वह आ क्यों नहीं जाता?
لِنُرۡسِلَ عَلَيۡهِمۡ حِجَارَةٗ مِّن طِينٖ ۝ 9
(33) ताकि उसपर पकी हुई मिट्टी के पत्थर बरसा दें
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 10
(15) अलबत्ता मुत्तक़ी लोग उस रोज़ बाग़ों और चश्मों में होंगे,
مُّسَوَّمَةً عِندَ رَبِّكَ لِلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 11
(34) जो आपके रब के यहाँ हद से गुज़र जानेवालों के लिए निशानज़दा है”11
11. यानी एक-एक पत्थर पर आपके रब की तरफ़ से निशान लगा दिया गया है कि उसे किस मुजरिम की सरकोबी करनी है।
ءَاخِذِينَ مَآ ءَاتَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَبۡلَ ذَٰلِكَ مُحۡسِنِينَ ۝ 12
(16) जो कुछ उनका रब उन्हें देगा उसे ख़ुशी-ख़ुशी ले रहे होंगे। वे उस दिन के आने से पहले नेकूकार थे,
فَأَخۡرَجۡنَا مَن كَانَ فِيهَا مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 13
(35) — फिर हमने12 उन सब लोगों को निकाल लिया जो उस बस्ती में मोमिन थे,
12. बीच में यह क़िस्सा छोड़ दिया गया है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पास से यह फ़रिश्ते किस तरह हज़रत लूत (अलैहि०) के यहाँ पहुँचे और वहाँ उनके और क़ौमे-लूत के दरमियान क्या कुछ पेश आया।
كَانُواْ قَلِيلٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِ مَا يَهۡجَعُونَ ۝ 14
(17) रातों को कम ही सोते थे,
وَبِٱلۡأَسۡحَارِ هُمۡ يَسۡتَغۡفِرُونَ ۝ 15
(18) फिर वही रात के पिछले पहरों में माफ़ी माँगते थे,
وَفِيٓ أَمۡوَٰلِهِمۡ حَقّٞ لِّلسَّآئِلِ وَٱلۡمَحۡرُومِ ۝ 16
(19) और उनके मालों में हक़ था साइल और महरूम के लिए।5
5. ब-अलफ़ाज़े-दीगर, एक तरफ़ वे अपने रब का हक़ पहचानते और अदा करते थे, दूसरी तरफ़ बन्दों के साथ उनका मामला यह था कि जो कुछ भी अल्लाह ने उनको दिया था, ख़ाह वह थोड़ा हो या बहुत, उसमें वे सिर्फ़ अपना और अपने बाल-बच्चों ही का हक़ नहीं समझते थे, बल्कि उनको यह एहसास था कि हमारे इस माल में हर उस बन्दा-ए-ख़ुदा का हक़ है जो मदद का मुहताज हो।
فَمَا وَجَدۡنَا فِيهَا غَيۡرَ بَيۡتٖ مِّنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 17
(36) और वहाँ हमने एक घर के सिवा मुसलमानों का कोई घर न पाया।
وَفِي ٱلۡأَرۡضِ ءَايَٰتٞ لِّلۡمُوقِنِينَ ۝ 18
(20) ज़मीन में बहुत-सी निशानियाँ हैं यक़ीन लानेवालों के लिए,
وَتَرَكۡنَا فِيهَآ ءَايَةٗ لِّلَّذِينَ يَخَافُونَ ٱلۡعَذَابَ ٱلۡأَلِيمَ ۝ 19
(37) इसके बाद हमने वहाँ बस एक निशानी उन लोगों के लिए छोड़ दी जो दर्दनाक अज़ाब से डरते हों।13
13. इस निशानी से मुराद बुहैरा-ए-मुरदार है जिसका जुनूबी इलाक़ा आज भी एक अज़ीमुश्शान तबाही के आसार पेश कर रहा है।
وَفِيٓ أَنفُسِكُمۡۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ ۝ 20
(21) और ख़ुद तुम्हारे अपने वुजुद में। क्या तुमको सूझता नहीं?
وَفِي مُوسَىٰٓ إِذۡ أَرۡسَلۡنَٰهُ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 21
(38) और (तुम्हारे लिए निशानी है) मूसा के क़िस्से में। जब हमने उसे सरीह सनद के साथ फ़िरऔन के पास भेजा14
14. यानी ऐसे सरीह मोजिज़ात और ऐसी खुली-खुली अलामात के साथ भेजा जिनसे यह अम्र मुश्तबह न रहा था कि आप ख़ालिक़े-अर्ज व समाँ की तरफ़ से मामूर होकर आए हैं।
وَفِي ٱلسَّمَآءِ رِزۡقُكُمۡ وَمَا تُوعَدُونَ ۝ 22
(22) आसमान ही में है तुम्हारा रिज़्क़ भी और वह चीज़ भी जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है।6
6. 'आसमान’ से मुराद यहाँ आलमे-बाला है। ‘रिज़्क़’ से मुराद वह सब कुछ है जो दुनिया में इनसान को जीने और काम करने के लिए दिया जाता है और जिस चीज़ का वादा किया जा रहा है उससे मुराद क़ियामत, हश्र व नश्र, मुहासबा व बाज़पुर्स, जज़ा व सज़ा, और जन्नत व दोज़ख़ हैं जिनके रूनुमा होने का वादा तमाम कुतुबे-आसमानी में किया गया है और क़ुरआन में किया जा रहा है। इरशादे-इलाही का मतलब यह है कि आलमे-बाला ही से यह फ़ैसला होता है कि तुममें से किसको क्या कुछ दुनिया में दिया जाए, और वहीं से यह फ़ैसला भी होना है कि तुम्हें बाज़पुर्स और जज़ा-ए-आमाल के लिए कब बुलाया जाए।
سُورَةُ الذَّارِيَاتِ
51. अज़-ज़ारियात
فَتَوَلَّىٰ بِرُكۡنِهِۦ وَقَالَ سَٰحِرٌ أَوۡ مَجۡنُونٞ ۝ 23
(39) तो वह अपने बल-बूते पर अकड़ गया और बोला, “यह जादूगर है या मजनून है।”
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
فَأَخَذۡنَٰهُ وَجُنُودَهُۥ فَنَبَذۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡيَمِّ وَهُوَ مُلِيمٞ ۝ 24
(40) आख़िरकार हमने उसे और उसके लश्करों को पकड़ा और सबको समुन्दर में फेंक दिया और वह मलामत-ज़दा होकर रह गया।
وَٱلذَّٰرِيَٰتِ ذَرۡوٗا
(1) क़सम है उन हवाओं की जो गर्द उड़ानेवाली हैं,
وَفِي عَادٍ إِذۡ أَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمُ ٱلرِّيحَ ٱلۡعَقِيمَ ۝ 25
(41) और (तुम्हारे लिए निशानी है) आद में, जबकि हमने उनपर एक ऐसी बेख़ैर हवा भेज दी
فَٱلۡحَٰمِلَٰتِ وِقۡرٗا ۝ 26
(2) फिर पानी से लदे हुए बादल उठानेवाली हैं,
مَا تَذَرُ مِن شَيۡءٍ أَتَتۡ عَلَيۡهِ إِلَّا جَعَلَتۡهُ كَٱلرَّمِيمِ ۝ 27
(42) कि जिस चीज़ पर वह गुज़र गई उसे बोसीदा करके रख दिया।
وَفِي ثَمُودَ إِذۡ قِيلَ لَهُمۡ تَمَتَّعُواْ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 28
(43) और (तुम्हारे लिए निशानी है) समूद में, जब उनसे कहा गया था कि एक ख़ास वक़्त तक मज़े कर लो।
فَعَتَوۡاْ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِمۡ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ وَهُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 29
(44) मगर इस तंबीह पर भी उन्होंने अपने रब के हुक्म से सरताबी की। आख़िरकार उनके देखते-देखते एक अचानक टूट पड़नेवाले अज़ाब ने उनको आ लिया,
فَٱلۡجَٰرِيَٰتِ يُسۡرٗا ۝ 30
(3) फिर सुबुक रफ़्तारी के साथ चलनेवाली हैं,
فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مِن قِيَامٖ وَمَا كَانُواْ مُنتَصِرِينَ ۝ 31
(45) फिर न उनमें उठने की सकत थी और न वे अपना बचाव कर सकते थे।
فَٱلۡمُقَسِّمَٰتِ أَمۡرًا ۝ 32
(4) फिर एक बड़े काम (बारिश) की तक़सीम करनेवाली हैं!
وَقَوۡمَ نُوحٖ مِّن قَبۡلُۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 33
(46) और इन सबसे पहले हमने नूह की क़ौम को हलाक किया क्योंकि वे फ़ासिक़ लोग थे।
إِنَّمَا تُوعَدُونَ لَصَادِقٞ ۝ 34
(5) हक़ यह है कि जिस चीज़ का तुम्हें ख़ौफ़ दिलाया जा रहा है वह सच्ची है
وَإِنَّ ٱلدِّينَ لَوَٰقِعٞ ۝ 35
(6) और जज़ा-ए-आमाल ज़रूर पेश आनी है।1
1. यह है वह बात जिसपर क़सम खाई गई है। इस क़सम का मतलब यह है कि जिस बेनज़ीर नज़्म और बाक़ायदगी के साथ बारिश का यह अज़ीमुश्शान ज़ाबिता तुम्हारी आँखों के सामने चल रहा है, और जो हिकमत और मस्तहतें इसमें सरीह तौर पर कारफ़रमा नज़र आती हैं, वे इस बात पर गवाही दे रही हैं कि यह दुनिया कोई बेमक़सद और बेमानी घरौंदा नहीं है जिसमें लाखों करोड़ों बरस से एक बहुत बड़ा खेल बस यूँ ही अलल-टप हुए जा रहा हो, बल्कि यह दर-हक़ीक़त एक कमाल दरजे का हकीमाना निज़ाम है जिसमें हर काम किसी मक़सद और मस्लहत के तह्त हो रहा है। इस निज़ाम में यह मुमकिन नहीं है कि इनसान को ज़मीन में इख़्तियारात देकर बस यूँ ही छोड़ दिया जाए और कभी उससे हिसाब न लिया जाए कि उसने ये इख़्तियारात किस तरह इस्तेमाल किए।
وَٱلسَّمَآءَ بَنَيۡنَٰهَا بِأَيۡيْدٖ وَإِنَّا لَمُوسِعُونَ ۝ 36
(47) आसमान को हमने अपने ज़ोर से बनाया है और हम इसकी क़ुदरत रखते हैं।15
15. अस्ल अलफ़ाज़ हैं ‘व इन्ना लमूसिऊन'। ‘मूसेअ’ के मानी ताक़त व मक़दिरत रखनेवाले के भी हो सकते हैं और वसीअ करनेवाले के भी। पहले मानी के लिहाज़ से इस इरशाद का मतलब यह है कि यह आसमान हमने किसी की मदद से नहीं, बल्कि अपने जोर से बनाया है और इसकी तख़लीक़ हमारी मक़दिरत से बाहर न थी। फिर यह तसव्वुर तुम लोगों के दिमाग़ में आख़िर कैसे आ गया कि हम तुम्हें दोबारा पैदा न कर सकेंगे? दूसरे मानी के लिहाज़ से मतलब यह है कि इस अज़ीम कायनात को हम बस एक दफ़ा बनाकर नहीं रह गए हैं, बल्कि मुसलसल इसमें तौसीअ कर रहे है और हर आन इसमें हमारी तख़लीक़ के नए-नए करिश्मे रूनुमा हो रहे हैं। ऐसी ज़बरदस्त ख़ल्लाक़ हस्ती को आख़िर तुमने इआदा-ए-ख़ल्क़ से आजिज़ क्यों समझ रखा है?
وَٱلسَّمَآءِ ذَاتِ ٱلۡحُبُكِ ۝ 37
(7) क़सम है मुतफ़र्रिक़ शक्लोंवाले आसमान की!
وَٱلۡأَرۡضَ فَرَشۡنَٰهَا فَنِعۡمَ ٱلۡمَٰهِدُونَ ۝ 38
(48) ज़मीन को हमने बिछाया है और हम बड़े अच्छे हमवार करनेवाले हैं।
فَتَوَلَّ عَنۡهُمۡ فَمَآ أَنتَ بِمَلُومٖ ۝ 39
(54) पस (ऐ नबी!) इनसे रुख़ फेर लो, तुमपर कुछ मलामत नहीं।
وَمِن كُلِّ شَيۡءٍ خَلَقۡنَا زَوۡجَيۡنِ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 40
(49) और हर चीज़ के हमने जोड़े बनाए हैं,16 शायद कि तुम इससे सबक़ लो।17
16. यानी दुनिया की तमाम अशिया तज़वीज के उसूल पर बनाई गई है। यह सारा कारख़ाना -ए-आलम इस क़ायदे पर चल रहा है कि बाज़ चीज़ों का बाज़ चीजों से जोड़ लगता है और फिर उनका जोड़ लगने ही से तरह-तरह की तरकीबात वुजूद में आती है। यहाँ कोई शय भी ऐसी मुनफ़रिद नहीं है कि दूसरी कोई शय उसका जोड़ न हो, बल्कि हर चीज़ अपने जोड़े से मिलकर ही नतीजाख़ेज़ होती है।
17. यानी यह सबक़ कि दुनिया का जोड़ आख़िरत है जिसके बग़ैर दुनिया की यह ज़िन्दगी बेमानी हो जाती है।
وَذَكِّرۡ فَإِنَّ ٱلذِّكۡرَىٰ تَنفَعُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 41
अलबत्ता नसीहत करते रहो, क्योंकि नसीहत ईमान लानेवालों के लिए नाफ़े है।
فَفِرُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِۖ إِنِّي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 42
(50) पस दौड़ो अल्लाह की तरफ़, मैं तुम्हारे लिए उसकी तरफ़ से साफ़-साफ़ ख़बरदार करनेवाला हूँ।
وَمَا خَلَقۡتُ ٱلۡجِنَّ وَٱلۡإِنسَ إِلَّا لِيَعۡبُدُونِ ۝ 43
(56) मैंने जिन्न और इनसानों को इसके सिवा किसी काम के लिए पैदा नहीं किया है कि वे मेरी बन्दगी करें।20
20. यानी मैंने उनको दूसरों की बन्दगी के लिए नहीं, बल्कि अपनी बन्दगी के लिए पैदा किया है। मेरी बन्दगी तो उनको इसलिए करनी चाहिए कि मैं उनका ख़ालिक़ हूँ। दूसरे किसी ने जब उनको पैदा नहीं किया है तो उसको क्या हक़ पहुँचता है कि ये उसकी बन्दगी करें, और उनके लिए यह कैसे जाइज़ हो सकता है कि इनका ख़ालिक़ तो हूँ मैं और वे बन्दगी करते फिरें दूसरों की।
وَلَا تَجۡعَلُواْ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۖ إِنِّي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 44
(51) और न बनाओ अल्लाह के साथ कोई दूसरा माबूद, मैं तुम्हारे लिए उसकी तरफ़ से साफ़-साफ़ ख़बरदार करनेवाला हूँ।18
18. ये फ़िक़रे अगरचे अल्लाह ही का कलाम है मगर इनमें मुतकल्लिम अल्लाह तआला नहीं, बल्कि नबी (सल्ल०) हैं। गोया बात दरअस्ल यूँ है कि अल्लाह अपने नबी की ज़बान से ये कहलवा रहा है कि दौड़ो अल्लाह की तरफ़, मैं तुम्हें उसकी तरफ़ से ख़बरदार करता हूँ।
مَآ أُرِيدُ مِنۡهُم مِّن رِّزۡقٖ وَمَآ أُرِيدُ أَن يُطۡعِمُونِ ۝ 45
(57) मैं उनसे कोई रिज़्क़ नहीं चाहता और न यह चाहता हूँ कि वे मुझे खिलाएँ।
إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلرَّزَّاقُ ذُو ٱلۡقُوَّةِ ٱلۡمَتِينُ ۝ 46
(58) अल्लाह तो ख़ुद ही रज़्ज़ाक़ है, बड़ी क़ुव्वतवाला और ज़बरदस्त।
فَإِنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ ذَنُوبٗا مِّثۡلَ ذَنُوبِ أَصۡحَٰبِهِمۡ فَلَا يَسۡتَعۡجِلُونِ ۝ 47
(59) पस जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है।21 उनके हिस्से का भी वैसा ही अज़ाब़ तैयार है जैसा इन्हीं जैसे लोगों को उनके हिस्से का मिल चुका है, इसके लिए ये लोग मुझसे जल्दी न मचाएँ।
21. ‘ज़ुल्म’ से मुराद यहाँ हक़ीक़त और सदाक़त पर ज़ुल्म करना, और ख़ुद अपनी फ़ितरत पर ज़ुल्म करना है।
فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن يَوۡمِهِمُ ٱلَّذِي يُوعَدُونَ ۝ 48
(60) आख़िर को तबाही है कुफ़्र करनेवालों के लिए उस रोज़ जिसका इन्हें ख़ौफ़ दिलाया जा रहा है।
فَوَرَبِّ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ إِنَّهُۥ لَحَقّٞ مِّثۡلَ مَآ أَنَّكُمۡ تَنطِقُونَ ۝ 49
(23) पस क़सम है आसमान और ज़मीन के मालिक की! वह बात हक़ है, ऐसी ही यक़ीनी जैसे तुम बोल रहे हो।
هَلۡ أَتَىٰكَ حَدِيثُ ضَيۡفِ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ ۝ 50
(24) (ऐ नबी!) इबराहीम के मुअज़्ज़ज़ मेहमानों की हिकायत भी तुम्हें पहुँची है?
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَقَالُواْ سَلَٰمٗاۖ قَالَ سَلَٰمٞ قَوۡمٞ مُّنكَرُونَ ۝ 51
(25) जब वे उसके यहाँ आए तो कहा, “आपको सलाम है!” उसने कहा, “आप लोगों को भी सलाम है! — कुछ नाआशना से लोग हैं।”7
7. सियाक़ो-सबाक़ को देखते हुए इस फ़िक़रे के दो मानी हो सकते हैं। एक यह कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने ख़ुद उन मेहमानों से फ़रमाया कि “आप हज़रात से कभी पहले शर्फ़े-नियाज़ हासिल नहीं हुआ, आप शायद इस इलाक़े में नए-नए तशरीफ़ लाए हैं।” दूसरे यह कि उनके सलाम का जवाब देकर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपने दिल में कहा था घर में ज़ियाफ़त का इन्तिज़ाम करने के लिए जाते हुए अपने ख़ादिमों से फ़रमाया कि “ये कुछ अजनबी से लोग हैं, पहले कभी इस इलाक़े में इस शान और वज़अ-क़तअ के लोग देखने में नहीं आए।”
فَرَاغَ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ فَجَآءَ بِعِجۡلٖ سَمِينٖ ۝ 52
(26) फिर वह चुपके से अपने घरवालों के पास गया, और एक (भुना हुआ) मोटा-ताज़ा बछड़ा लाकर मेहमानों के आगे पेश किया।
فَقَرَّبَهُۥٓ إِلَيۡهِمۡ قَالَ أَلَا تَأۡكُلُونَ ۝ 53
(27) उसने कहा, आप हज़रात खाते नहीं?”
فَأَوۡجَسَ مِنۡهُمۡ خِيفَةٗۖ قَالُواْ لَا تَخَفۡۖ وَبَشَّرُوهُ بِغُلَٰمٍ عَلِيمٖ ۝ 54
(28) फिर वह अपने दिल में उनसे डरा। उन्होंने कहा, “डरिए नहीं”, और उसे एक ज़ी-इल्म लड़के की पैदाइश का मुज़दा सुनाया।8
8. सूरा-11 हूद में तसरीह है कि यह हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की पैदाइश का मुज़दा था।
فَأَقۡبَلَتِ ٱمۡرَأَتُهُۥ فِي صَرَّةٖ فَصَكَّتۡ وَجۡهَهَا وَقَالَتۡ عَجُوزٌ عَقِيمٞ ۝ 55
(29) यह सुनकर उसकी बीवी चीख़ती हुई आगे बढ़ी और उसने अपना मुँह पीट लिया और कहने लगी, “बूढी, बाँझ!’’9
9. यानी एक तो मैं बूढी, ऊपर से बाँझ। अब मेरे यहाँ बच्चा होगा? बाइबल का बयान है कि उस वक़्त हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की उम्र सौ साल और हज़रत सारा की उस 90 साल थी। (पैदाइश, 17:18)
قَالُواْ كَذَٰلِكِ قَالَ رَبُّكِۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 56
(30) उन्होंने कहा, “यही कुछ फ़रमाया है तेरे रब ने, वह हकीम है और सब कुछ जानता है।”
۞قَالَ فَمَا خَطۡبُكُمۡ أَيُّهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 57
(31) (इबराहीम) ने कहा, “ऐ फ़िरिस्तादगाने-इलाही! क्या मुहिम आपको दरपेश है?”
كَذَٰلِكَ مَآ أَتَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا قَالُواْ سَاحِرٌ أَوۡ مَجۡنُونٌ ۝ 58
(52) यूँ ही होता रहा है, इनसे पहले की क़ौमों के पास भी कोई रसूल ऐसा नहीं आया जिसे उन्होंने यह न कहा हो कि यह साहिर है या मजनून।
أَتَوَاصَوۡاْ بِهِۦۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٞ طَاغُونَ ۝ 59
(53) क्या इन सब ने आपस में इसपर कोई समझौता कर लिया है? नहीं, बल्कि ये सबसरकश लोग हैं।19
19. यानी हज़ारहा बरस तक हर ज़माने में मुख़्तलिफ़ मुल्कों और क़ौमों के लोगों का दावते-अम्बिया के मुक़ाबले में एक ही रवैया इख़्तियार करना कुछ इस बिना पर तो न हो सकता था कि एक कॉन्फ़्रेंस करके उन सब अगली और पिछली नस्लों ने आपस में यह तय कर लिया हो कि जब कोई नबी आकर यह दावत पेश करे तो उसका यह जवाब दिया जाए। दरअस्ल उनके रवैये की इस यकसानी की कोई वजह इसके सिवा नहीं है कि तुग़ियान व सरकशी इन सबका मुश्तरक वस्फ़ है।