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وَأَقِيمُواْ ٱلۡوَزۡنَ بِٱلۡقِسۡطِ وَلَا تُخۡسِرُواْ ٱلۡمِيزَانَ

55. अर-रहमान

(मक्का में उतरी, आयतें 78)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द को इस सूरा का नाम दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जो शब्द ‘अर-रहमान' (कृपाशील) से आरम्भ होती है। यह नाम इस सूरा की विषय-वस्तु से भी गहरा सम्बन्ध रखता है, बयोंकि इसमें शुरू से आख़िर तक अल्लाह की दयालुता के गुणसूचक प्रतीकों और परिणामों का उल्लेख किया गया है।

उतरने का समय

विद्वान टीकाकार आम तौर से इस सूरा को मक्की कहते हैं। यद्यपि कुछ उल्लेखों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), इक्रिमा (रज़ि०) और क़तादा (रज़ि०) से यह कथन उद्धृत है कि यह सूरा मदनी है, लेकिन एक तो इन्हीं महानुभावों से कुछ दूसरे उल्लेखों में इसके विपरीत भी उदधृत है। दूसरे इसकी विषय-वस्तु मदनी सूरतों की अपेक्षा मक्की सूरतों से अधिक मिलती-जुलती है, बल्कि अपनी विषय वस्तु की दृष्टि से यह मक्का के भी आरम्भिक काल की मालूम होती है। और साथ ही कई विश्वसनीय उल्लेखों से इसका प्रमाण मिलता है कि यह मक्का मुअज़्ज़मा में ही हिजरत से कई साल पहले उतरी थी।

विषय और वार्ता

क़ुरआन मजीद की एकमात्र यही सूरा है जिसमें इंसान के साथ, ज़मीन के दूसरे स्वतन्त्र प्राणी, जिन्नों को भी सीधे तौर पर सम्बोधित किया गया है। यद्यपि क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर ऐसे विवरण मौजूद हैं जिनसे मालूम होता है कि इंसानों की तरह जिन्न भी एक स्वतन्त्र और उत्तरदायी प्राणी हैं और उनमें भी इंसानों ही की तरह काफ़िर (इंकारी) और मोमिन (ईमानवाले) और आज्ञाकारी तथा अवज्ञाकारी पाए जाते हैं और उनमें भी ऐसे गिरोह मौजूद हैं जो नबियों और आसमानी किताबों (ईश्वरीय ग्रन्थों) पर ईमान लाए हैं, लेकिन यह सूरा निश्चित रूप से इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और क़ुरआन की दावत (आह्‍वान) जिन्नों और इंसानों दोनों के लिए है और नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी केवल ईसानों तक ही सीमित नहीं है। सूरा के आरम्भ में तो सम्बोधन इंसानों से ही है, क्योंकि ज़मीन में खिलाफ़त (आधिपत्य) उन्हीं को प्राप्त है, अल्लाह के रसूल उन्हीं में से आए हैं और अल्लाह की किताबें उन्हीं की भाषाओं में उतारी गई हैं। लेकिन आगे चलकर आयत 13 से इंसान और जिन्न दोनों को समान रूप से सम्बोधित किया गया है और एक ही दावत (आमंत्रण) दोनों के सामने पेश की गई है। सूरा की वार्ताएँ छोटे-छोटे वाक्यों में एक विशेष क्रम से पेश हुई हैं।

आयत 1 से 4 तक यह विषय वर्णन किया गया है कि इस क़ुरआन की शिक्षा अल्लाह की ओर से है और यह ठीक उसकी रहमत (दयालुता) का तक़ाज़ा है कि वह इस शिक्षा से तमाम इंसानों के मार्गदर्शन का प्रबंध करे। आयत 5-6 में बताया गया है कि जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था अल्लाह के शासन के अन्तर्गत चल रही है और जमीन एवं आसमान की हर चीज़ उसके आदेश के अधीन है। आयत 7 से 9 में एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बताया गया है कि अल्लाह ने जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं प्रणाली को ठीक-ठीक सन्तुलन के साथ न्याय पर क़ायम किया है और इस व्यवस्था की प्रकृति यह चाहती है कि इसमें रहनेवाले अपने अधिकार की सीमाओं में भी न्याय ही पर क़ायम रहें और सन्तुलन न बिगाड़ें। आयत 10 से 25 तक अल्लाह की सामर्थ्य के चमत्कार और कौशल को बयान करने के साथ-साथ उसकी उन नेमतों की ओर इशारे किए गए हैं जिनसे इंसान और जिन्न लाभ उठा रहे हैं। आयत 26 से 30 तक इंसान और जिन्न दोनों को यह हक़ीक़त याद दिलाई गई है कि इस जगत् में एक अल्लाह के सिवा कोई अक्षय और अमर नहीं है, और छोटे से बड़े तक कोई अस्तित्त्ववान ऐसा नहीं जो अपने अस्तित्त्व और अस्तित्त्वगत आवश्यकताओं के लिए अल्लाह का मुहताज न हो। आयत 31 से 36 तक इन दोनों गिरोहों को सचेत किया गया है कि शीघ्र ही वह समय आनेवाला है जब तुमसे कड़ी पूछ-गच्छ की जाएगी। इस पूछ-गछ से बचकर तुम कहीं नहीं जा सकते। आयत 37-38 में बताया गया है कि यह कड़ी पूछ-गच्छ क़ियामत के दिन होनेवाली है। आयत 39 से 45 तक अपराधी इंसानों और जिन्नों का अंजाम बताया गया है और आयत 46 से सूरा के अन्त तक विस्तारपूर्वक उन इनामों का उल्लेख हुआ है जो आख़िरत में नेक इंसानों और जिन्नों को प्रदान किए जाएंगे।

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وَأَقِيمُواْ ٱلۡوَزۡنَ بِٱلۡقِسۡطِ وَلَا تُخۡسِرُواْ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 1
(9) इनसाफ़ के साथ ठीक-ठीक तौलो और तराज़ू में डंडी न मारो।3
3. यानी चूँकि तुम एक मुतवाज़िन कायनात में रहते हो जिसका सारा निज़ाम अद्ल पर क़ायम किया गया है इसलिए तुम्हें भी अद्ल पर क़ायम होना चाहिए। जिस दायरे में तुम्हें इख़्तियार दिया गया है उसमें अगर तुम बेइनसाफ़ी करोगे तो यह फ़ितरते-कायनात से तुम्हारी बग़ावत होगी।
وَٱلۡأَرۡضَ وَضَعَهَا لِلۡأَنَامِ ۝ 2
(10) ज़मीन को उसने सब मख़लूक़ात के लिए बनाया।
فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَٱلنَّخۡلُ ذَاتُ ٱلۡأَكۡمَامِ ۝ 3
(11) इसमें हर तरह के बकसरत लज़ीज़ फल हैं। खजूर के दरख़्त हैं जिनके फल ग़िलाफ़ों में लिपटे हुए हैं।
وَٱلۡحَبُّ ذُو ٱلۡعَصۡفِ وَٱلرَّيۡحَانُ ۝ 4
(12) तरह-तरह के ग़ल्ले हैं जिनमें भूसा भी होता है और दाना भी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 5
(13) (पस ऐ जिन्न व इंस!) तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे?4
4. अस्ल में लफ़्ज ‘आला’ इस्तेमाल हुआ है जिसे आगे की आयतों में बार-बार दोहराया गया है और हमने मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर इसका मफ़हूम मुख़्तलिफ़ अलफ़ाज़ में अदा किया है। इसके मानी नेमतों के भी हैं, कमालाते-क़ुदरत के भी और औसाफ़े-हमीदा के भी। हर मक़ाम पर इसका वह मफ़हूम लिया जाएगा जो सियाक़ व सबाक़ से मुनासबत रखता हो।
يُرۡسَلُ عَلَيۡكُمَا شُوَاظٞ مِّن نَّارٖ وَنُحَاسٞ فَلَا تَنتَصِرَانِ ۝ 6
(35) (भागने की कोशिश करोगे तो) तुमपर आग का शोला और धुआँ छोड़ दिया जाएगा जिसका तुम मुक़ाबला न कर सकोगे।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ كَٱلۡفَخَّارِ ۝ 7
(14) इनसान को उसने ठीकरी जैसे सूखे सड़े गारे से बनाया
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 8
(36) (ऐ जिन्न व इंस!) तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों का इनकार करोगे?
وَخَلَقَ ٱلۡجَآنَّ مِن مَّارِجٖ مِّن نَّارٖ ۝ 9
(15) और जिन्न को आग की लपट से पैदा किया।
فَإِذَا ٱنشَقَّتِ ٱلسَّمَآءُ فَكَانَتۡ وَرۡدَةٗ كَٱلدِّهَانِ ۝ 10
(37) फिर (क्या बनेगी उस वक़्त) जब आसमान फटेगा10 और लाल चमड़े की तरह सुर्ख़ हो जाएगा?
10. 'आसमान के फटने' से मुराद है बन्दिशे-अफ़लाक का खुल जाना, निज़ामे-आलम का दरहम-बरहम हो जाना, सितारों और सप्यारों का बिखर जाना।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 11
(16) पस (ऐ जिन्न व इंस!) तुम अपने रब के किन-किन अजायबे-क़ुदरत को झुठलाओगे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 12
(38) ऐ जिन्न व इंस! (उस वक़्त) तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को झुठलाओगे?
رَبُّ ٱلۡمَشۡرِقَيۡنِ وَرَبُّ ٱلۡمَغۡرِبَيۡنِ ۝ 13
(17) दोनों मशरिक़ और दोनों मग़रिब,5 सबका मालिक व परवरदिगार वही है।
5. दो मशरिक़ों और दो मग़रिबों से मुराद जाड़े के छोटे-से-छोटे दिन और गर्मी के बड़े-से-बड़े दिन के मशरिक़ व मग़रिब भी हो सकते हैं, और ज़मीन के दोनों निस्फ़ कुर्रों के मशरिक़ व मग़रिब भी।
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يُسۡـَٔلُ عَن ذَنۢبِهِۦٓ إِنسٞ وَلَا جَآنّٞ ۝ 14
(39) उस रोज़ किसी इनसान और किसी जिन्न से उसका गुनाह पूछने की ज़रूरत न होगी,
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 15
(18) पस (ऐ जिन्न व इंस!) तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को झुठलाओगे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 16
(40) फिर (देख लिया जाएगा कि) तुम दोनों गरोह अपने रब के किन-किन एहसानात का इनकार करते हो।
مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ يَلۡتَقِيَانِ ۝ 17
(19) दो समुन्दरों को उसने छोड़ दिया कि बाहम मिल जाएँ,
يُعۡرَفُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ بِسِيمَٰهُمۡ فَيُؤۡخَذُ بِٱلنَّوَٰصِي وَٱلۡأَقۡدَامِ ۝ 18
(41) मुजरिम वहाँ अपने चेहरों से पहचान लिए जाएँगे और उन्हें पेशानी के बाल और पाँव पकड़-पकड़कर घसीटा जाएगा।
بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٞ لَّا يَبۡغِيَانِ ۝ 19
(20) फिर भी उनके दरमियान एक परदा हाइल है जिससे वे तजावुज़ नहीं करते।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 20
(42) (उस वक़्त) तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को झुठलाओगे?
سُورَةُ الرَّحۡمَٰن
55. अर-रहमान
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 21
(21) पस (ऐ जिन्न व इंस!) तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन करिश्मों को झुठलाओगे?
فِيهِنَّ خَيۡرَٰتٌ حِسَانٞ ۝ 22
(70) उन नेमतों के दरमियान ख़ूबसीरत और ख़ूबसूरत बीवियाँ।
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي يُكَذِّبُ بِهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 23
(43) (उस वक़्त कहा जाएगा) “यह वही जहन्नम है जिसको मुजरिमीन झूठ क़रार दिया करते थे।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَخۡرُجُ مِنۡهُمَا ٱللُّؤۡلُؤُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 24
(22) इन समुन्दरों से मोती और मूँगे निकलते हैं।
يَطُوفُونَ بَيۡنَهَا وَبَيۡنَ حَمِيمٍ ءَانٖ ۝ 25
(44) उसी जहन्नम और खौलते हुए पानी के दरमियान वे गरदिश करते रहेंगे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 26
(71) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
ٱلرَّحۡمَٰنُ
(1) निहायत मेहरबान (ख़ुदा) ने
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 27
(23) पस ऐ जिन्न व इंस, तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन कमालात को झुठलाओगे?
حُورٞ مَّقۡصُورَٰتٞ فِي ٱلۡخِيَامِ ۝ 28
(72) ख़ेमों में ठहराई हुई हूरें।16
16. 'ख़ेमों' से मुराद ग़ालिबन उस तरह के ख़ेमे हैं जैसे उमरा व रऊसा के लिए सैरगाहों में लगाए जाते हैं। उन सैरगाहों में जगह-जगह ख़ेमे लगे होंगे जिनमें हूरें उनके लिए लुत्फ़ व लज़्ज़त का सामान फ़राहम करेंगी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 29
(45) फिर अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को तुम झुठलाओगे?
عَلَّمَ ٱلۡقُرۡءَانَ ۝ 30
(2) इस क़ुरआन की तालीम दी है।
وَلَهُ ٱلۡجَوَارِ ٱلۡمُنشَـَٔاتُ فِي ٱلۡبَحۡرِ كَٱلۡأَعۡلَٰمِ ۝ 31
(24) और ये जहाज़ उसी के हैं जो समुन्दर में पहाड़ों की तरह ऊँचे उठे हुए हैं।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 32
(73) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
وَلِمَنۡ خَافَ مَقَامَ رَبِّهِۦ جَنَّتَانِ ۝ 33
(46) और हर उस शख़्स के लिए जो अपने रब के हुज़ूर पेश होने का ख़ौफ़ रखता हो,11 दो बाग़ हैं,
11. यानी जिसने दुनिया में ख़ुदा से डरते हुए जिन्दगी बसर की हो और यह समझते हुए काम किया हो कि एक रोज़ मुझे अपने रब के सामने खड़ा होना और अपने आमाल का हिसाब देना है।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ ۝ 34
(3) उसी ने इनसान को पैदा किया
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 35
(25) पस (ऐ जिन्न व इंस!) तुम अपने रब के किन-किन एहसानात को झुठलाओगे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 36
(47 ) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 37
(74) इन जन्नतियों से पहले कभी किसी इनसान या जिन्न ने उनको न छुआ होगा।
عَلَّمَهُ ٱلۡبَيَانَ ۝ 38
(4) और उसे बोलना सिखाया।
كُلُّ مَنۡ عَلَيۡهَا فَانٖ ۝ 39
(26) हर चीज़ जो इस ज़मीन पर है फ़ना हो जानेवाली है
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 40
(75) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
ٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ بِحُسۡبَانٖ ۝ 41
(5) सूरज और चाँद एक हिसाब के पाबन्द हैं
وَيَبۡقَىٰ وَجۡهُ رَبِّكَ ذُو ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 42
(27) और सिर्फ़ तेरे रब की जलीलो-करीम ज़ात ही बाक़ी रहनेवाली है।
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ رَفۡرَفٍ خُضۡرٖ وَعَبۡقَرِيٍّ حِسَانٖ ۝ 43
(76) वे जन्नती सब्ज़ क़ालीनों और नफ़ीस व नादिर फ़र्शों पर तकिए लगा के बैठेंगे।
ذَوَاتَآ أَفۡنَانٖ ۝ 44
(48) हरी-भरी डालियों से भरपूर,
وَٱلنَّجۡمُ وَٱلشَّجَرُ يَسۡجُدَانِ ۝ 45
(6) और तारे और दरख़्त सब सजदारेज़ हैं।1
1. यानी ताबे-फ़रमान हैं, अल्लाह के हुक्म से बाल बराबर सरताबी नहीं कर सकते।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 46
(28) पस (ऐ जिन्न व इंस!) तुम अपने रब के किन-किन कमालात को झुठलाओगे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 47
(77) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 48
(49) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
وَٱلسَّمَآءَ رَفَعَهَا وَوَضَعَ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 49
(7) आसमान को उसने बलन्द किया और मीज़ान क़ायम कर दी।2
2. क़रीब-क़रीब तमाम मुफ़स्सिरीन ने यहाँ मीज़ान (तराज़ू) से मुराद अद्ल लिया है, और मीज़ान क़ायम करने का मतलब यह बयान किया है कि अल्लाह तआला ने कायनात के इस पूरे निज़ाम को अद्ल पर क़ायम किया है।
يَسۡـَٔلُهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ كُلَّ يَوۡمٍ هُوَ فِي شَأۡنٖ ۝ 50
(29) ज़मीन और आसमानों में जो भी हैं सब अपनी हाजतें उसी से माँग रहे हैं। हर आन वह नई शान में है।6
6. यानी हर वक़्त इस कारगाहे-आलम में उसकी कारफ़रमाई का एक लामुतनाही सिलसिला जारी है और वह बेहद व हिसाब चीज़ें नई-से-नई बजा और शक्ल और औसाफ़ के साथ पैदा कर रहा है। उसकी दुनिया कभी एक हाल पर नहीं रहती। हर लम्हा उसके हालात बदलते रहते हैं और उसका ख़ालिक़ हर बार उसे एक नई सूरत से तरतीब देता है जो पिछली तमाम सूरतों से मुख़्तलिफ़ होती है।
فِيهِمَا عَيۡنَانِ تَجۡرِيَانِ ۝ 51
(50) दोनों बाग़ों में दो चश्मे रवाँ।
تَبَٰرَكَ ٱسۡمُ رَبِّكَ ذِي ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 52
(78) बड़ी बरकतवाला है तेरे रब्बे-जलील व करीम का नाम।
أَلَّا تَطۡغَوۡاْ فِي ٱلۡمِيزَانِ ۝ 53
(8) इसका तक़ाज़ा यह है कि तुम मीज़ान में ख़लल न डालो,
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 54
(30) पस (ऐ जिन्न व इंस!) तुम अपने रब के किन-किन सिफ़ाते-हमीदा को झुठलाओगे?
سَنَفۡرُغُ لَكُمۡ أَيُّهَ ٱلثَّقَلَانِ ۝ 55
(31) ऐ ज़मीन के बोझो!7 अन-क़रीब, हम तुमसे बाज़पुर्स करने के लिए फ़ारिग़ हुए जाते हैं,8
7. अस्ल में लफ़्ज़ 'स-क़-लान’ इस्सोमाल हुआ है। सक़ल उस बार को कहते हैं जो सवारी पर लदा हुआ हो। स-क़-लान का लफ़्ज़ी तर्जमा होगा 'दो लदे हुए बोझ’। इस जगह यह लफ़्ज़ जिन्न व इंस के लिए इस्तेमाल किया गया है क्योंकि ये दोनों ज़मीन पर लदे हुए हैं, और चूँकि ख़िताब उन जिन्नों और इनसानों से हो रहा है जो अपने रब की इताअत व बन्दगी से मुनहरिफ़ हैं इसलिए उनको “ऐ ज़मीन के बोझो।” कहकर ख़िताब फ़रमाया गया है, गोया ख़ालिक़ अपनी मख़लूक़ के इन दोनों नालाइक़ गरोहों से फ़रमा रहा है कि ऐ वो लोगो, जो मेरी ज़मीन पर बार बने हुए हो! अन-क़रीब मैं तुम्हारी ख़बर लेने के लिए फ़ारिग़ हुआ जाता हूँ।
8. इसका यह मतलब नहीं है कि इस वक़्त अल्लाह तआला ऐसा मशग़ूल है कि उसे इन नाफ़रमानों से बाज़पुर्स करने की फ़ुर्सत नहीं मिलती, बल्कि इसका मतलब दरअस्ल यह है कि अल्लाह तआला ने एक ख़ास औक़ातनामा मुकर्रर कर रखा है। जिसके मुताबिक़ अभी इनसानों और जिन्नों से आख़िरी बाज़पुर्स करने का वक़्त नहीं आया है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 56
(51) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 57
(32) (फिर देख लेंगे कि) तुम अपने रब के किन-किन एहसानात को झुठलाते हो।
فِيهِمَا مِن كُلِّ فَٰكِهَةٖ زَوۡجَانِ ۝ 58
(52) दोनों बाग़ों में हर फल की दो किस्में12
12. इसका एक मतलब यह हो सकता है कि दोनों बाग़ों के फलों की शान निराली होगी। एक बाग़ में जाएगा तो एक शान के फल उसकी डालियों में लदे हुए होंगे। दूसरे बाग़ में जाएगा तो उसके फलों की शान कुछ और ही होगी। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि उनमें से हर बाग़ में एक क़िस्म के फल मारूफ़ होंगे जिनसे वह दुनिया में भी आशना था, ख़ाह मज़े में वे दुनिया के फलों से कितने ही फ़ाइक़ हों, और दूसरी क़िस्म के फल नादिर होंगे जो दुनिया में कभी उसके ख़ाब व ख़याल में भी न आए थे।
يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ إِنِ ٱسۡتَطَعۡتُمۡ أَن تَنفُذُواْ مِنۡ أَقۡطَارِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ فَٱنفُذُواْۚ لَا تَنفُذُونَ إِلَّا بِسُلۡطَٰنٖ ۝ 59
(33) ऐ गरोहे-जिन्न व इंस, अगर तुम ज़मीन व आसमानों की सरहदों से निकलकर भाग सकते हो तो भाग देखो। नहीं भाग सकते। उसके लिए बड़ा ज़ोर चाहिए।9
9. 'ज़मीन और आसमानों' से मुराद है कायनात, या ब-अलफ़ाज़े-दीगर ख़ुदा की ख़ुदाई। आयत का मतलब यह है कि ख़ुदा की गिरिफ़्त से बच निकलना तुम्हारे बस में नहीं है। जिस बाज़पुर्स की तुम्हें ख़बर दी जा रही है उसका वक़्त आने पर तुम ख़ाह किसी जगह भी हो, बहरहाल पकड़ लाए जाओगे। उससे बचने के लिए तुम्हें अल्लाह की ख़ुदाई से भाग निकलना होगा और इसका बलबूता तुममें नहीं है। अगर ऐसा घमण्ड तुम अपने दिल में रखते हो तो अपना ज़ोर लगाकर देख लो।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 60
(53) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 61
(34) अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को तुम झुठलाओगे?
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ فُرُشِۭ بَطَآئِنُهَا مِنۡ إِسۡتَبۡرَقٖۚ وَجَنَى ٱلۡجَنَّتَيۡنِ دَانٖ ۝ 62
(54) जन्नती लोग ऐसे फ़र्शों पर तकिए लगा के बैठेंगे जिनके अस्तर दबीज़ रेशम के होंगे, और बाग़ों की डालियाँ फलों से झुकी पड़ रही होंगी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 63
(55) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
فِيهِنَّ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 64
(58) इन नेमतों के दरमियान शरमीली निगाहों वालियाँ13 होंगी जिन्हें इन जन्नतियों से पहले कभी किसी इनसान या जिन्न ने न छुआ होगा।14
13. यह औरत की अस्ल ख़ूबी है कि वह बेशर्म और बेबाक न हो, बल्कि नज़र में हया रखती हो। इसी लिए अल्लाह तआला ने जन्नत की नेमतों के दरमियान औरतों का ज़िक्र करते हुए सबसे पहले उनके हुस्न व जमाल की नहीं, बल्कि उनकी हयादारी और इफ़्फ़त मआबी की तारीफ़ फ़रमाई है। हसीन औरतें तो मख़लूत कलबों और फ़िल्मी निगारख़ानों में भी जमा हो जाती हैं, और हुस्न व जमाल के मुक़ाबलों में तो छाँट-छाँटकर एक-से-एक हसीन औरत लाई जाती है, मगर बदज़ौक़ और बद-क़वारह आदमी ही उनसे दिलचस्पी ले सकता है। किसी शरीफ़ आदमी को वह हुस्न अपील नहीं कर सकता जो हर बद-नज़र को दावते-नज़ारा दे और हर आग़ोश की ज़ीनत बनने के लिए तैयार हो।
14. इससे मालूम हुआ कि जन्नत में नेक इनसानों की तरह नेक जिन्न भी दाख़िल होंगे। इनसानों के लिए इनसान औरतें होंगी और जिन्नों के लिए जिन्न औरतें। और ख़ुदा की क़ुदरत से वे सब कुँवारी बना दी जाएँगी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 65
(57) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
كَأَنَّهُنَّ ٱلۡيَاقُوتُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 66
(58) ऐसी ख़ूबसूरत जैसे हीरे और मोती।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 67
(59) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
هَلۡ جَزَآءُ ٱلۡإِحۡسَٰنِ إِلَّا ٱلۡإِحۡسَٰنُ ۝ 68
(60) नेकी का बदला नेकी के सिवा और क्या हो सकता है!
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 69
(61) फिर (ऐ जिन्न व इंस!) अपने रब के किन-किन औसाफ़े-हमीदा का तुम इनकार करोगे?
وَمِن دُونِهِمَا جَنَّتَانِ ۝ 70
(62) और उन दो बाग़ों के अलावा दो बाग़15 और होंगे।
15. ग़ालिबन पहले दो बाग़ क़ियामगाह होंगे और दूसरे दो बाग़ तफ़रीहगाह।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 71
(63) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
مُدۡهَآمَّتَانِ ۝ 72
(64) घने सरसब्ज़ व शादाब बाग़।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 73
(65) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا عَيۡنَانِ نَضَّاخَتَانِ ۝ 74
(66) दोनों बाग़ों में दो चश्मे फ़व्वारों की तरह उबलते हुए।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 75
(67) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا فَٰكِهَةٞ وَنَخۡلٞ وَرُمَّانٞ ۝ 76
(68) उनमें बकसरत फल और खजूर और अनार।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 77
(69) अपने रब के किन-किन इनामात को तुम झुठलाओगे?