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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

(मदीना में उतरी, कुल आयतें 176)

परिचय

उतरने का समय और विषय

इस सूरा में बहुत से व्याख्यान है जो शायद सन् 03 हि० के अन्त से लेकर सन् 04 हि० के अन्त या सन् 05 हि० के आरंभ तक अलग-अलग समय में उतरे हैं। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस जगह से किस जगह तक की आयतें एक व्याख्यान क्रम के रूप में उतरी थीं और उनके उतरने का ठीक समय क्या है, लेकिन कुछ आदेश और घटनाओं की ओर कुछ संकेत ऐसे हैं जिनके उतरने की तारीख़ें हमें रिवायतों (उल्लेखों) से मालूम हो जाती हैं, इसलिए उनकी मदद से हम इन अलग-अलग व्याख्यानों की एक सरसरी-सी हदबन्दी कर सकते हैं जिनमें ये आदेश और ये संकेत आए हुए है।

जैसे हमें मालूम है कि विरासत के बंटवारे और यतीमों (अनाथों) के अधिकारों के बारे में आदेश उहुद की लड़ाई के बाद आए थे, जबकि मुसलमानों के सत्तर आदमी शहीद हो गए इस कारण हम सोच सकते हैं कि शुरू के चार रुकूअ और पाँचवें रुकूअ की पहली तीन आयतें उसी समय में उतरी होंगी। रिवायतों में 'सलाते खौफ़' (ठीक लड़ाई की स्थिति में नमाज़ पढ़ने) का उल्लेख हमें 'ज़ातुर्रिक़ाअ' की लड़ाई में मिलता है जो सन् 04 हि० में हुई। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी के क़रीब के समय में वह भाषण आया होगा जिसमें इस नमाज़ का तरीक़ा बताया गया है । (रुकूअ 15) मदीना से बनी-नज़ीर का निकाला जाना रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में हुआ, इसलिए प्रबल संभावना यह है कि वह भाषण इससे पहले क़रीबी समय ही में उतरा होगा जिसमें यहूदियों को अंतिम चेतावनी दी गई है कि 'ईमान ले आओ, इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें।'

पानी न मिलने पर 'तयम्मुम' की इजाज़त बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर दी गई थी जो 05 हि० में हुई। इसलिए वह भाषण जिसमें तयम्मुम का उल्लेख है, उसी के निकटवर्ती काल का समझना चाहिए। (रुकूअ 7)

उतरने के कारण और वार्ताएँ

इस तरह कुल मिलाकर सूरा के उतरने का समय मालूम हो जाने के बाद हमें उस समय के इतिहास पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए ताकि सूरा के विषय को समझने में सहायता ली जा सके।

नबी (सल्ल.) के सामने उस समय जो काम था उसे तीन बड़े-बड़े विभागों में बाँटा जा सकता है। एक उस नए संगठित इस्लामी समाज का विकास जिसकी बुनियाद हिजरत के साथ ही मदीना तैयबा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पड़ चुकी थी। दूसरे उस संघर्ष का मुक़ाबला जो अरब के मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों), यहूदी क़बीलों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की सुधार-विरोधी शक्तियों के साथ ज़ोर-शोर से चल रहा था। तीसरे इस्लाम की दावत को इन विरोधी शक्तियों के विरोध के बावजूद फैलाना। अल्लाह की ओर से इस अवसर पर जितने व्याख्यान आए, वे सब इन्हीं तीनों विभागों में बंटे हुए हैं।

इस्लामी समाज को संगठित करने के लिए सूरा बक़रा में जो आदेश दिए गए थे, अब यह समाज उससे अधिक आदेश की माँग कर रहा था। इसलिए सूरा निसा के इन व्याख्यानों में अधिक विस्तार में बताया गया कि मुसलमान अपने सामूहिक जीवन को इस्लामी तरीक़े पर किस तरह ठीक करें। किताबवालों के नैतिक और धार्मिक रवैए पर आलोचना करके मुसलमानों को सावधान किया गया कि अपने से पहले की उम्मतों (समुदायों) के पद-चिन्हों पर चलने से बचें। मुनाफ़िक़ों के तरीक़ों की आलोचना करके सच्ची ईमानदारी के तक़ाज़े स्पष्ट किए गए।

सुधार-विरोधी शक्तियों से जो संघर्ष चल रहा था उसने उहुद की लड़ाई के बाद अधिक गंभीर रूप ले लिया था। इन परिस्थितियों में अल्लाह ने एक ओर उत्साहवर्द्धक भाषणों के द्वारा मुसलमानों को मुक़ाबले के लिए उभारा और दूसरी ओर युद्ध की स्थिति में काम करने के लिए उन्हें विभिन्न आवश्यक आदेश दिए। मुसलमानों को बार-बार लड़ाइयों और झड़पों में जाना पड़ता था, और अक्सर ऐसे रास्तों से गुज़रना होता था जहाँ पानी नहीं मिल सकता था। इजाज़त दी गई कि पानी न मिले तो ग़ुस्ल (स्‍नान) और ‘वुज़ू’ (नमाज़ से हाथ-पैर और मुँह आदि धोने की प्रक्रिया) दोनों के बजाय ‘तयम्मुम' कर लिया जाए। साथ ही, ऐसी स्थिति में नमाज़ को संक्षिप्त करने की भी इजाज़त दे दी गई और जहाँ ख़तरा सिर पर हो, वहाँ सलाते-खौफ़ (डर की स्थिति में नमाज़) अदा करने का तरीक़ा बताया गया। अरब के अलग-अलग क्षेत्रों में जो मुसलमान विरोधी क़बीलों के बीच में बिखरे हुए थे (उनके बारे में) सविस्तार आदेश दिए गए।

यहूदियों के सख़्त दुश्मनी भरे और साज़िशी रवैये और उनके वादों के बार-बार तोड़ने पर उनकी कड़ी पकड़ की गई और उन्हें स्पष्ट शब्दों में अंतिम चेतावनी दे दी गई।

मुनाफ़िक़ों के अलग-अलग गिरोह अलग-अलग रवैये अपनाए हुए थे। इन सबको अलग-अलग वर्गों में बाँटकर हर वर्ग के मुनाफ़िक़ों के बारे में बता दिया गया कि उनके साथ यह बर्ताव होना चाहिए।

ऐसे तटस्थ क़बीले, जिनके साथ समझौते हुए थे, उनके साथ जो रवैया मुसलमानों का होना चाहिए था उसको भी स्पष्ट किया गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुसलमान का अपना चरित्र कलंक रहित हो, क्योंकि इस संघर्ष में यह मुट्ठी भर जमाअत अगर जीत सकती थी तो अपने अच्छे चरित्र ही के बल पर जीत सकती थी। इसलिए मुसलमानों को अच्छे से अच्छे चरित्र की शिक्षा दी गई और जो कमज़ोरी भी उनकी जमाअत में ज़ाहिर हुई, उसपर कड़ी पकड़ की गई। इस्लामी सुधार आह्वान को स्पष्ट करने के अलावा यहूदियों, ईसाइयों और मुशरिकों, तीनों गिरोहों के ग़लत धार्मिक विचारों और बुरे चरित्र एवं आचरण पर इस सूरा में आलोचना करके उनको सच्‍चे दीन (धर्म) की ओर दावत दी गई है।

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
4. सूरा अन-निसा
لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنۡهُ أَوۡ كَثُرَۚ نَصِيبٗا مَّفۡرُوضٗا ۝ 1
(7) मर्दों के लिए उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और क़रीबी रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, और औरतों के लिए भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और क़रीबी रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, ख़ाह थोड़ा हो या बहुत6, और यह हिस्सा (अल्लाह की तरफ़ से) मुक़र्रर है।
6. इस आयत में वाज़ेह तौर पर पाँच क़ानूनी हुक्म दिए गए हैं – एक, यह कि मीरास सिर्फ़ मर्दों ही का हिस्सा नहीं है, बल्कि औरतें भी इसकी हक़दार हैं। दूसरे, यह कि मीरास बहरहाल तक़सीम होनी चाहिए ख़ाह वह कितनी ही कम हो। तीसरे, आयत में मैयित के छोड़े हुए पूरे माल को क़ाबिले-तक़सीम क़रार दिया गया है और इसमें मनक़ूला और ग़ैर-मनक़ूला, ज़रई या ग़ैर-ज़रई, आबाई या ग़ैर-आबाई की कोई तफ़रीक़ नहीं की गई है। चौथे, इससे मालूम होता है कि मूरिस की जिन्दगी में कोई हक्क़े-मीरास पैदा नहीं होता, बल्कि मीरास का हक़ उस वक़्त पैदा होता है जब मूरिस कोई माल छोड़कर मरा हो। पाँचवें, उससे यह क़ायदा भी निकलता है कि क़रीबतर रिश्तेदार की मौजूदगी में बईदतर रिश्तेदार मीरास न पाएगा। आगे इसी क़ायदे की तसरीह आयत नम्बर 11 के आख़िर और आयत नम्बर 33 में की गई है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ وَخَلَقَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا وَبَثَّ مِنۡهُمَا رِجَالٗا كَثِيرٗا وَنِسَآءٗۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِي تَسَآءَلُونَ بِهِۦ وَٱلۡأَرۡحَامَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَيۡكُمۡ رَقِيبٗا
(1) लोगो! अपने रब से डरो जिसने तुमको एक जान से पैदा किया और उसी जान से उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत मर्द व औरत दुनिया में फैला दिए। उस ख़ुदा से डरो जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो, और रिश्ते व क़राबत के ताल्लुक़ात को बिगाड़ने से परहेज़ करो। यक़ीन जानो कि अल्लाह तुमपर निगरानी कर रहा है।
وَإِذَا حَضَرَ ٱلۡقِسۡمَةَ أُوْلُواْ ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينُ فَٱرۡزُقُوهُم مِّنۡهُ وَقُولُواْ لَهُمۡ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا ۝ 2
(8) और जब तक़सीम के मौक़े पर कुंबे के लोग और यतीम और मिसकीन आएँ तो उस माल में से उनको भी कुछ दो और उनके साथ भले मानुसों की-सी बात करो।
وَءَاتُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰٓ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَتَبَدَّلُواْ ٱلۡخَبِيثَ بِٱلطَّيِّبِۖ وَلَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَهُمۡ إِلَىٰٓ أَمۡوَٰلِكُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ حُوبٗا كَبِيرٗا ۝ 3
(2) यतीमों के माल उनको वापस दो, अच्छे माल को बुरे माल से न बदल लो और उनके माल अपने माल के साथ मिलाकर न खा जाओ, यह बहुत बड़ा गुनाह है।
وَلۡيَخۡشَ ٱلَّذِينَ لَوۡ تَرَكُواْ مِنۡ خَلۡفِهِمۡ ذُرِّيَّةٗ ضِعَٰفًا خَافُواْ عَلَيۡهِمۡ فَلۡيَتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلۡيَقُولُواْ قَوۡلٗا سَدِيدًا ۝ 4
(9) लोगों को इस बात का ख़याल करके डरना चाहिए कि अगर वे ख़ुद अपने पीछे बेबस औलाद छोड़ते, तो मरते वक़्त उन्हें अपने बच्चों के हक़ में कैसे कुछ अंदेशे लाहिक़ होते। पस चाहिए कि वे ख़ुदा का ख़ौफ़ करें और रास्ती की बात करें।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تُقۡسِطُواْ فِي ٱلۡيَتَٰمَىٰ فَٱنكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ مَثۡنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تَعۡدِلُواْ فَوَٰحِدَةً أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَعُولُواْ ۝ 5
(3) और अगर तुमको अंदेशा हो कि यतीमों के साथ इनसाफ़ न कर सकोगे जो औरतें तुमको पसंद आएँ उनमें से दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से निकाह कर लो।1 लेकिन अगर तुम्हें अंदेशा हो कि उनके साथ अदल न कर सकोगे तो फिर एक ही बीवी करो2 या उन औरतों को ज़ौजियत में लाओ जो तुम्हारे क़ब्ज़े में आयी हैं,3 बेनसाफ़ी से बचने के लिए यह ज़्यादा क़रीने-सवाब है।
1. मलहूज़ रहे कि यह आयत एक से ज़ाइद बीवियाँ करने की इजज़ाजत देने के लिए नहीं आई थी क्योंकि इसके नुज़ूल से पहले ही यह फ़ेल जाइज़ था और ख़ुद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की एक से ज़ाइद बीवियाँ उस वक़्त मौजूद थीं। दर-अस्ल यह इसलिए नाज़िल हुई थी कि लड़ाइयों में शहीद होनेवालों के जो बच्चे यतीम रह गए थे उनके मसले को हल करने के लिए फ़रमाया गया कि अगर इन यतीमों के हुकूक़ तुम वैसे अदा नहीं कर सकते तो उन औरतों से निकाह कर लो जिनके साथ यतीम बच्चे हैं।
2. इस बात पर फ़ुक़हा-ए-उम्मत का इजमा है कि इस आयत की रू से तअद्दुदे-इज़दिवाज को महदूद किया गया है और बयक-वक़्त चार से ज़्यादा बीवियाँ रखने को ममनूअ कर दिया गया है। नीज़ यह आयत तअद्दुदे-इज़दिवाज़ के जवाज़ को अद्ल की शर्त से मशरूत करती है। जो शख़्स अद्ल की शर्त पूरी नहीं करता मगर एक से ज़्यादा बीवियाँ करने की इजाज़त से फ़ायदा उठाता है, वह अल्लाह के साथ दग़ाबाज़ी करता है। हुकूमते-इस्लामी की अदालतों को हक़ हासिल है कि जिस बीवी या जिन बीवियों के साथ वह इनसाफ़ न कर रहा हो उनकी दादरसी करें। बाज़ लोग अहले-मग़रिब के नज़रियात से मग़लूब व मरऊब होकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि क़ुरआन का अस्ल मक़सद तअद्दुदे-इज़दिवाज के तरीक़े को (जो मग़रिबी नुक़्ता-ए-नज़र से फ़िल-अस्ल बुरा तरीक़ा है) मिटा देना था। लेकिन इस क़िस्म की बातें दरअस्ल मह्ज़ ज़ेहनी ग़ुलामी का नतीजा हैं। तअद्दुदे-इज़दिवाज का फ़ी-नफ़सिही एक बुराई होना बजाय ख़ुद नाक़ाबिले-तसलीम है, क्योंकि बाज़ हालात में यह चीज़ एक तमद्दुनी व अख़लाक़ी ज़रूरत बन जाती है। क़ुरआन ने सरीह अलफ़ाज़ में इसको जाइज़ ठहराया है और इशारतन व किनायतन भी इसकी मज़म्मत में कोई ऐसा लफ़्ज़ इस्तेमाल नहीं किया है जिससे मालूम हो कि फ़िलवाक़े वह इसे मसदूद करना चाहता था।
3. लौंडियाँ मुराद हैं, यानी वे औरतें जो जंग में गिरिफ़्तार होकर आई हों और असीराने-जंग का तबादला न होने की सूरत में हुकूमत की तरफ़ से लोगों में तक़सीम कर दी गई हों।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ أَمۡوَٰلَ ٱلۡيَتَٰمَىٰ ظُلۡمًا إِنَّمَا يَأۡكُلُونَ فِي بُطُونِهِمۡ نَارٗاۖ وَسَيَصۡلَوۡنَ سَعِيرٗا ۝ 6
(10) जो लोग ज़ुल्म के साथ यतीमों के माल खाते हैं, दर-हक़ीक़त वे अपने पेट आग से भरते हैं और वे ज़रूर जहन्नम की भड़कती हुई आग में झोंके जाएँगे।
يُوصِيكُمُ ٱللَّهُ فِيٓ أَوۡلَٰدِكُمۡۖ لِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۚ فَإِن كُنَّ نِسَآءٗ فَوۡقَ ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَۖ وَإِن كَانَتۡ وَٰحِدَةٗ فَلَهَا ٱلنِّصۡفُۚ وَلِأَبَوَيۡهِ لِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ إِن كَانَ لَهُۥ وَلَدٞۚ فَإِن لَّمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلَدٞ وَوَرِثَهُۥٓ أَبَوَاهُ فَلِأُمِّهِ ٱلثُّلُثُۚ فَإِن كَانَ لَهُۥٓ إِخۡوَةٞ فَلِأُمِّهِ ٱلسُّدُسُۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِي بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍۗ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ لَا تَدۡرُونَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ لَكُمۡ نَفۡعٗاۚ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 7
(11) तुम्हारी औलाद के बारे में अल्लाह तुम्हें हिदायत करता है कि मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।7 अगर (मैयित की वारिस) दो से ज़्यादा लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके का दो-तिहाई दिया जाए।8 और अगर एक ही लड़की वारिस हो तो आधा तरका उसका है। अगर मैयित साहिबे-औलाद हो तो उसके वालिदैन में से हर एक को तरके का छठा हिस्सा मिलना चाहिए।9 और अगर वह साहिबे-औलाद न हो और वालिदैन ही उसके वारिस हों तो माँ को तीसरा हिस्सा दिया जाए।10 और अगर मैयित के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे हिस्से की हक़दार होगी।11 (ये सब हिस्से और उस वक़्त निकले जाएँगे) जबकि वसीयत जो मैयित ने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़, जो उसपर हो अदा कर दिया जाए।12 तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी औलाद में से कौन बलिहाज़े-नफ़ा तुमसे क़रीबतर है। ये हिस्से अल्लाह ने मुक़र्रर कर दिए हैं, और अल्लाह यक़ीनन सब हक़ीकतों से वाक़िफ़ और सारी मस्लहतों का जाननेवाला है।
7. चूँकि शरीअत ने ख़ानदानी ज़िन्दगी में मर्द पर ज़्यादा मआशी ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला है और औरत को बहुत-सी मआशी ज़िम्मेदारियों के बार से सुबुकदोश रखा है, लिहाज़ा इनसाफ़ का तक़ाज़ा यही था कि मीरास में औरत का हिस्सा मर्द की बनिस्बत कम रखा जाता।
8. यही हुक्म दो लड़कियों का भी है। मतलब यह है कि अगर किसी शख़्स का वारिस कोई लड़का न हो, बल्कि सिर्फ़ लड़कियाँ ही लड़कियाँ हों, तो ख़ाह दो लड़कियाँ हों या दो से ज़ाइद, बहरहाल उसके कुल तरके का 2/3 हिस्सा उन लड़कियों में तक़सीम होगा, और बाक़ी 1/3 दूसरे वारिसों में। लेकिन अगर मैयित का सिर्फ़ एक लड़का हो तो इसपर इजमाअ है कि दूसरे वारिसों की ग़ैर-मौजूदगी में वह कुल माल का वारिस होगा, और दूसरे वारिस मौजूद हों तो उनका हिस्सा देने के बाद बाक़ी सब माल उसे मिलेगा।
9. यानी मैयित के साहिबे-औलाद होने की सूरत में बहरहाल मैयित के वालिदैन में से हर एक 1/6 का हक़दार होगा, ख़ाह मैयित की वारिस सिर्फ़ बेटियाँ हों, या सिर्फ़ बेटे हों, या बेटे और बेटियाँ हों, या एक बेटा या एक बेटी। रहे बाक़ी 2/3 तो उनमें दूसरे वारिस शरीक होंगे।
10. माँ-बाप के सिवा कोई और वारिस न हो तो बाक़ी 2/3 बाप को मिलेगा। वरना 2/3 में बाप और दूसरे वारिस शरीक होंगे।
11. भाई-बहन होने की सूरत में माँ का हिस्सा 1/3 के बजाय 1/6 कर दिया गया है। इस तरह माँ के हिस्से में से जो 1/6 लिया गया है वह बाप के हिस्से में डाला जाएगा, क्योंकि उस सूरत में बाप की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। यह वाज़ेह रहे कि मैयित के वालिदैन अगर जिन्दा हों तो उसके बहन-भाइयों को हिस्सा नहीं पहँचता।
12. वसीयत का ज़िक्र अगरचे क़र्ज़ से पहले किया गया है लेकिन उम्मत का इसपर इजमाअ है कि क़र्ज़ वसीयत पर मुक़द्दम है। यानी अगर मैयित के ज़िम्मे क़र्ज़ हो तो सबसे पहले मैयित के तरके में से वह अदा किया जाएगा, फिर वसीयत पूरा की जाएगी और उसके बाद विरासत तक़सीम होगी।
وَءَاتُواْ ٱلنِّسَآءَ صَدُقَٰتِهِنَّ نِحۡلَةٗۚ فَإِن طِبۡنَ لَكُمۡ عَن شَيۡءٖ مِّنۡهُ نَفۡسٗا فَكُلُوهُ هَنِيٓـٔٗا مَّرِيٓـٔٗا ۝ 8
(4) औरतों के मह्‍र ख़ुशदिली के साथ (फ़र्ज़ जानते हुए) अदा करो, अलबत्ता अगर वे ख़ुद अपनी ख़ुशी से मह्‍र का कोई हिस्सा तुम्हें माफ़ कर दें तो उसे तुम मज़े से खा सकते हो।
وَلَا تُؤۡتُواْ ٱلسُّفَهَآءَ أَمۡوَٰلَكُمُ ٱلَّتِي جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمۡ قِيَٰمٗا وَٱرۡزُقُوهُمۡ فِيهَا وَٱكۡسُوهُمۡ وَقُولُواْ لَهُمۡ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا ۝ 9
(5) और अपने वे माल, जिन्हें अल्लाह ने तुम्हारे लिए क़ियामे-ज़िन्दगी का ज़रिआ बनाया है, नादान लोगों के हवाले न करो, अलबत्ता उन्हें खाने और पहनने के लिए दो और उन्हें नेक हिदायत करो।
وَٱبۡتَلُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغُواْ ٱلنِّكَاحَ فَإِنۡ ءَانَسۡتُم مِّنۡهُمۡ رُشۡدٗا فَٱدۡفَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَأۡكُلُوهَآ إِسۡرَافٗا وَبِدَارًا أَن يَكۡبَرُواْۚ وَمَن كَانَ غَنِيّٗا فَلۡيَسۡتَعۡفِفۡۖ وَمَن كَانَ فَقِيرٗا فَلۡيَأۡكُلۡ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِذَا دَفَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡ فَأَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبٗا ۝ 10
(6) और यतीमों की आज़माइश करते रहो यहाँ तक कि वे निकाह के क़ाबिल उम्र को पहुँच जाएँ।4 फिर अगर तुम उनके अन्दर अहलियत पाओ तो उनके माल उनके हवाले कर दो। ऐसा कभी न करना कि हद्दे-इनसाफ़ से तजावुज़ करके इस ख़ौफ़ से उनके माल जल्दी-जल्दी खा जाओ कि वे बड़े होकर अपने हक़ का मुतालबा करेंगे। यतीम का जो सरपरस्त मालदार हो वह परहेज़गारी से काम ले और जो ग़रीब हो वह मारूफ़ तरीक़े से खाए।5 फिर जब उनके माल उनके हवाले करने लगो तो लोगों को उसपर गवाह बना लो, और हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है।
4. यानी जब वे सिने-बुलूग़ के क़रीब पहुँच रहे हों तो देखते रहो कि उनका अक़्ली नश्व व नुमा कैसा है और उनमें अपने मामलात को ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारी पर चलाने की सलाहियत किस हद तक पैदा हो रही है।
5. यानी अपना हक़्क़ुल-ख़िदमत इस हद तक ले कि हर ग़ैर-जानिबदार माक़ूल आदमी उसको मुनासिब तसलीम करे। नीज़ यह कि जो कुछ भी हक़्क़ुल-ख़िदमत वह ले चोरी-छिपे न ले, बल्कि अलानिया मुतअय्यन करके ले और उसका हिसाब रखे।
۞وَلَكُمۡ نِصۡفُ مَا تَرَكَ أَزۡوَٰجُكُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهُنَّ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَهُنَّ وَلَدٞ فَلَكُمُ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡنَۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِينَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۚ وَلَهُنَّ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡتُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّكُمۡ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَكُمۡ وَلَدٞ فَلَهُنَّ ٱلثُّمُنُ مِمَّا تَرَكۡتُمۚ مِّنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ تُوصُونَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۗ وَإِن كَانَ رَجُلٞ يُورَثُ كَلَٰلَةً أَوِ ٱمۡرَأَةٞ وَلَهُۥٓ أَخٌ أَوۡ أُخۡتٞ فَلِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُۚ فَإِن كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِن ذَٰلِكَ فَهُمۡ شُرَكَآءُ فِي ٱلثُّلُثِۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصَىٰ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍ غَيۡرَ مُضَآرّٖۚ وَصِيَّةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَلِيمٞ ۝ 11
(12) और तुम्हारी बीवियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका आधा हिस्सा तुम्हें मिलेगा अगर वे बेऔलाद हों, वरना औलाद होने की सूरत में तरके का एक-चौथाई हिस्सा तुम्हारा है, जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। और वे तुम्हारे तरके में से चौथाई की हक़दार होंगी अगर तुम बेऔलाद हों, वरना साहिबे-औलाद होने की सूरत में उनका हिस्सा आठवाँ13 होगा, बाद इसके कि जो वसीयत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए और जो क़र्ज़ तुमने छोड़ा हो वह अदा कर दिया जाए। और अगर वह मर्द या औरत (जिसकी मीरास तक़सीम तलब है) बेऔलाद भी हो और उसके माँ-बाप भी जिन्दा न हों, मगर उसका एक भाई या एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन हर एक को छठा हिस्सा मिलेगा, और भाई-बहन एक से ज़्यादा हों तो कुल तरके के एक तिहाई में वे सब शरीक होंगे,14 जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो मैयित ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए, बशर्ते कि वह ज़रर–रसाँ15 न हो। यह हुक्म है अल्लाह की तरफ़ से, और अल्लाह दाना व बीना और नर्मख़ू है।
13. यानी ख़ाह एक बीवी हो या कई बीवियाँ, औलाद होने की सूरत में वह 1/8 की और औलाद न होने की सूरत में 1/4 की हिस्सेदार होंगी और ये 1 / 4 = सब बीवियों में बराबरी के साथ तक़सीम किया जाएगा।
14. इस आयत के मुताल्लिक़ मुफ़स्सिरीन का इजमाअ है कि इसमें भाई और बहन से मुराद अख़याफ़ी भाई और बहन हैं यानी जो मैयित के साथ सिर्फ़ माँ तरफ़ से रिश्ता रखते हों और बाप उनका दूसरा हो। रहे सगे भाई-बहन, और सौतेले भाई-बहन जो बाप की तरफ़ से मैयित के साथ रिश्ता रखते हों, उनका हुक्म इसी सूरा की आख़िरी आयत में इरशाद हुआ है।
15. वसीयत में ज़रर-रिसानी यह है कि ऐसे तौर पर वसीयत की जाए जिससे मुस्तहिक़ रिश्तेदारों के हुकूक़ तल्फ़ होते हों और क़र्ज़ में ज़रर-रिसानी यह है कि मह्ज़ हक़दारों को महरूम करने के लिए आदमी ख़ाह-मख़ाह अपने ऊपर ऐसे क़र्ज़ का इक़रार करे जो उसने फ़िल-वाले न लिया हो, या और कोई ऐसी चाल चले जिससे मक़सूद यह हो कि हक़दार मीरास से महरूम हो जाएँ।
سُورَةُ النِّسَاءِ
4. सूरा अन-निसा
تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِۚ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 12
(13) ये अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं। जो अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करेगा, उसे अल्लाह ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा, जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और इन बाग़ों में वह हमेशा रहेगा, और यही बड़ी कामयाबी है।
وَإِنۡ أَرَدتُّمُ ٱسۡتِبۡدَالَ زَوۡجٖ مَّكَانَ زَوۡجٖ وَءَاتَيۡتُمۡ إِحۡدَىٰهُنَّ قِنطَارٗا فَلَا تَأۡخُذُواْ مِنۡهُ شَيۡـًٔاۚ أَتَأۡخُذُونَهُۥ بُهۡتَٰنٗا وَإِثۡمٗا مُّبِينٗا ۝ 13
(20) और अगर तुम एक बीवी की जगह दूसरी बीवी ले आने का इरादा ही कर लो तो ख़ाह तुमने उसे ढेर-सा माल ही क्यों न दिया हो, उसमें से कुछ वापस न लेना। क्या तुम उसे बुहतान लगाकर और सरीह ज़ुल्म करके वापस लोगे?
وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَتَعَدَّ حُدُودَهُۥ يُدۡخِلۡهُ نَارًا خَٰلِدٗا فِيهَا وَلَهُۥ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 14
(14) और जो अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करेगा और उसकी मुक़र्रर की हुई हदों से तजावुज़ कर जाएगा उसे अल्लाह आग में डालेगा जिसमें वह हमेशा रहेगा और उसके लिए रुसवाकुन सज़ा है।
وَكَيۡفَ تَأۡخُذُونَهُۥ وَقَدۡ أَفۡضَىٰ بَعۡضُكُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ وَأَخَذۡنَ مِنكُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا ۝ 15
(21) और आख़िर तुम उसे किस तरह ले लोगे जब कि तुम एक-दूसरे से लुत्फ़अंदोज़ हो चुके हो और वे तुमसे पुख़्ता अह्द ले चुकी हैं?
وَٱلَّٰتِي يَأۡتِينَ ٱلۡفَٰحِشَةَ مِن نِّسَآئِكُمۡ فَٱسۡتَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِنَّ أَرۡبَعَةٗ مِّنكُمۡۖ فَإِن شَهِدُواْ فَأَمۡسِكُوهُنَّ فِي ٱلۡبُيُوتِ حَتَّىٰ يَتَوَفَّىٰهُنَّ ٱلۡمَوۡتُ أَوۡ يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لَهُنَّ سَبِيلٗا ۝ 16
(15) तुम्हारी औरतों में से जो बदकारी की मुर्तकिब हों उनपर अपने में से चार आदमियों की गवाही लो, और अगर चार आदमी गवाही दे दें तो उनको घरों ¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬¬में बन्द रखो, यहाँ तक कि उन्हें मौत आ जाए या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता निकाल दे।
وَلَا تَنكِحُواْ مَا نَكَحَ ءَابَآؤُكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۚ إِنَّهُۥ كَانَ فَٰحِشَةٗ وَمَقۡتٗا وَسَآءَ سَبِيلًا ۝ 17
(22) और जिन औरतों से तुम्हारे बाप निकाह कर चुके हों उनसे हरगिज़ निकाह न करो, मगर जो पहले हो चुका सो हो चुका।19 दर-हक़ीक़त यह एक बेहयाई का फ़ेल है, नापसन्दीदा है और बुरा चलन है।20
19. इसका यह मतलब नहीं है कि ज़माना-ए-जाहिलियत में जिसने सौतेली माँ से निकाह कर लिया था वह इस हुक्म के आने के बाद भी उसे ज़ौजियत में रख सकता है, बल्कि मतलब यह है कि पहले जो इस तरह के निकाह किए गए थे उनसे पैदा होनेवाली औलाद अब यह हुक्म आने के बाद हरामी क़रार न पाएगी और न अपने बापों के माल में इनका हक्क़े-विरासत साक़ित हो जाएगा।
20. इस्लामी क़ानून में यह फ़ेल फ़ौजदारी जुर्म और क़ाबिले-दस्त-अंदाज़ि-ए पुलिस है।
وَمَن لَّمۡ يَسۡتَطِعۡ مِنكُمۡ طَوۡلًا أَن يَنكِحَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ فَمِن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن فَتَيَٰتِكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِكُمۚ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ فَٱنكِحُوهُنَّ بِإِذۡنِ أَهۡلِهِنَّ وَءَاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِ مُحۡصَنَٰتٍ غَيۡرَ مُسَٰفِحَٰتٖ وَلَا مُتَّخِذَٰتِ أَخۡدَانٖۚ فَإِذَآ أُحۡصِنَّ فَإِنۡ أَتَيۡنَ بِفَٰحِشَةٖ فَعَلَيۡهِنَّ نِصۡفُ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ مِنَ ٱلۡعَذَابِۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَشِيَ ٱلۡعَنَتَ مِنكُمۡۚ وَأَن تَصۡبِرُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 18
(25) और जो शख़्स तुममे से इतनी मक़दिरत न रखता हो कि ख़ानदानी मुसलमान औरतों (मुहसनात) से निकाह कर सके, उसे चाहिए कि तुम्हारी उन लौडियों में से किसी के साथ निकाह कर ले जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों और मोमिना हो। अल्लाह तुम्हारे ईमानों का हाल ख़ूब जानता है, तुम सब एक ही गरोह के लोग हो, लिहाज़ा उनके सरपरस्तों की इजाज़त से उनके साथ निकाह कर लो और मारूफ़ तरीक़े से उनके मह्‍र अदा कर दो, ताकि वे हिसारे-निकाह में महफ़ूज़ (मुहसनात) होकर रहें, आज़ाद शहवतरानी न करती फिरें और न चोरी-छिपे आशनाइयाँ करें। फिर जब वे हिसारे-निकाह में महफ़ूज़ हो जाएँ और उसके बाद किसी बदचलनी की मुर्तक़िब हों तो उनपर उस सज़ा के बनिस्बत आधी सज़ा है जो ख़ानदानी औरतों (मुहसनात) के लिए मुक़र्रर है31 यह सहूलत तुममें से उन लोगों के लिए पैदा की गई है जिनको शादी न करने से बन्दे-तक़वा के टूट जाने का अंदेशा हो। लेकिन अगर तुम सब्र करो तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है, और अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
31. इस रुकू में लफ़्ज़ मुहसनात दो मुख़्तलिफ मानी में इस्तेमाल किया गया है। एक 'शादीशुदा औरतें' जिनको शौहर की हिफ़ाज़त हासिल हो। दूसरे 'ख़ानदानी औरतें' जिनको ख़ानदान की हिफ़ाज़त हासिल हो, अगरचे वे शादीशुदा न हो। आयत 24 में 'मुहसनात' का लफ़्ज़ लौंडी के बिल-मुक़ाबिल ग़ैर-शादीशुदा ख़ानदानी औरतों के लिए इस्तेमाल हुआ है जैसा कि आयत के मज़मून से साफ़ ज़ाहिर है। बख़िलाफ़ इसके लौंडियों के लिए मुहसनात का लफ़्ज़ पहले मानी में इस्तेमाल हुआ है और साफ़ अलफ़ाज़ में फ़रमाया है कि जब उन्हें निकाह की हिफ़ाज़त हासिल हो जाए (फ़-इज़ा उहसिन-न) तब उनके लिए ज़िना के इरतिकाब पर उस सज़ा की निस्फ़ सज़ा है जो मुहसनात (ग़ैर-शादीशुदा ख़ानदानी औरतों) के लिए है।
وَٱلَّذَانِ يَأۡتِيَٰنِهَا مِنكُمۡ فَـَٔاذُوهُمَاۖ فَإِن تَابَا وَأَصۡلَحَا فَأَعۡرِضُواْ عَنۡهُمَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ تَوَّابٗا رَّحِيمًا ۝ 19
(16) और तुममें से जो इस फ़ेल का इरतिकाब करें उन दोनों को तकलीफ़ दो, फिर अगर वे तौबा करें और अपनी इस्लाह कर लें तो उन्हें छोड़ दो कि अल्लाह बहुत तौबा क़ुबूल करनेवाला और रम फ़रमानेवाला है।16
16. यह ज़िना के मुताल्लिक़ इबतिदाई हुक्म था। बाद में सूरा-24 नूर की वह आयत नाज़िल हुई जिसमें मर्द और औरत दोनों के लिए एक ही हुक्म दिया गया कि उन्हें सौ-सौ कोड़े लगाए जाएँ।
يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُبَيِّنَ لَكُمۡ وَيَهۡدِيَكُمۡ سُنَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَيَتُوبَ عَلَيۡكُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 20
(26) अल्लाह चाहता है कि तुमपर उन तरीक़ों को वाज़ेह करे और उन्हीं तरीक़ों पर तुम्हें चलाए जिनकी पैरवी तुमसे पहले गुज़रे हुए सुलहा करते थे। वह अपनी रहमत के साथ तुम्हारी तरफ़ मुतवज्जेह होने का इरादा रखता है, और वह अलीम भी है और दाना भी।
إِنَّمَا ٱلتَّوۡبَةُ عَلَى ٱللَّهِ لِلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسُّوٓءَ بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ يَتُوبُونَ مِن قَرِيبٖ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَتُوبُ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 21
(17) हाँ, यह जान लो कि अल्लाह पर तौबा की क़ुबूलियत का हक़ उन्हीं लोगों के लिए है, जो नादानी की वजह से कोई बुरा फ़ेल कर गुज़रते हैं और उसके बाद जल्दी ही तौबा कर लेते हैं। ऐसे लोगों पर अल्लाह अपनी नज़रे-इनायत से फिर मुतवज्जेह हो जाता है, और अल्लाह सारी बातों की ख़बर रखनेवाला और हकीम व दाना है।
وَٱللَّهُ يُرِيدُ أَن يَتُوبَ عَلَيۡكُمۡ وَيُرِيدُ ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلشَّهَوَٰتِ أَن تَمِيلُواْ مَيۡلًا عَظِيمٗا ۝ 22
(27) हाँ, अल्लाह तो तुमपर रहमत के साथ तवज्जुह करना चाहता है मगर जो लोग ख़ुद अपनी ख़ाहिशाते-नफ़्स की पैरवी कर रहे हैं, वे चाहते हैं कि तुम राहे-रास्त से हटकर दूर निकल जाओ।
يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُخَفِّفَ عَنكُمۡۚ وَخُلِقَ ٱلۡإِنسَٰنُ ضَعِيفٗا ۝ 23
(28) अल्लाह तुमपर से पाबन्दियों को हलका करना चाहता है क्योंकि इनसान कमज़ोर पैदा किया गया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً عَن تَرَاضٖ مِّنكُمۡۚ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا ۝ 24
(29) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो। आपस में एक-दूसरे के माल बातिल तरीक़ों से न खाओ, लेन-देन होना चाहिए आपस की रज़ामन्दी से।32 और अपने-आपको क़त्ल न करो।33 यक़ीन मानो कि अल्लाह तुम्हारे ऊपर मेहरबान है।
32. 'बातिल तरीक़ों से' मुराद वे तमाम तरीक़े हैं जो ख़िलाफ़े-हक़ हों और शरअन व अख़लाक़न नाजाइज़ हों। ‘आपस की रज़ामन्दी' से मुराद आज़ादाना और जानी-बूझी रज़ामन्दी है। किसी दबाव या धोखे और फ़रेब पर मब्नी रज़ामन्दी का नाम रज़ामन्दी नहीं है।
33. यह फ़िक़रा पिछले फ़िक़रे का ततिम्मा भी हो सकता है और ख़ुद एक मुस्तक़िल फ़िक़रा भी। अगर पिछले फ़िक़रे का ततिम्मा समझा जाए तो इसका मतलब यह है कि दूसरों का माल नाजाइज़ तौर पर खाना ख़ुद अपने-आपको हलाकत में डालना है। और अगर इसे मुस्तक़िल फ़िक़रा समझा जाए तो इसके दो मानी है, एक यह कि एक-दूसरे को क़त्ल न करो। दूसरे यह कि ख़ुदकुशी न करो।
وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ عُدۡوَٰنٗا وَظُلۡمٗا فَسَوۡفَ نُصۡلِيهِ نَارٗاۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرًا ۝ 25
(30) जो शख़्स ज़ुल्म व ज़्यादती के साथ ऐसा करेगा उसको हम ज़मा आग में झोंकेंगे, और यह अल्लाह के लिए कोई मुशकिल काम नहीं है।
إِن تَجۡتَنِبُواْ كَبَآئِرَ مَا تُنۡهَوۡنَ عَنۡهُ نُكَفِّرۡ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَنُدۡخِلۡكُم مُّدۡخَلٗا كَرِيمٗا ۝ 26
(31) अगर तुम उन बड़े-बड़े गुनाहों से परहेज़ करते रहो जिनसे तुम्हें मना किया रहा है तो तुम्हारी छोटी-मोटी बुराइयों को हम तुम्हारे हिसाब से साक़ित कर देंगे और तुमको इज़्ज़त की जगह दाख़िल करेंगे।
وَلَا تَتَمَنَّوۡاْ مَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بِهِۦ بَعۡضَكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا ٱكۡتَسَبُواْۖ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا ٱكۡتَسَبۡنَۚ وَسۡـَٔلُواْ ٱللَّهَ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 27
(32) और जो कुछ अल्लाह ने तुममें से किसी को दूसरों के मुक़ाबले में ज़्यादा दिया है उसकी तमन्ना न करो। जो कछ मर्दों ने कमाया है उसके मुताबिक़ उनका हिस्सा है और जो कुछ औरतों ने कमाया है उसके मुताबिक़ उनका हिस्सा। हाँ, अल्लाह से उसके फ़ज़्ल की दुआ माँगते रहो, यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखता है।
وَلِكُلّٖ جَعَلۡنَا مَوَٰلِيَ مِمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَۚ وَٱلَّذِينَ عَقَدَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ فَـَٔاتُوهُمۡ نَصِيبَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدًا ۝ 28
(33) और हमने हर उस तरके के हक़दार मुक़र्रर कर दिए हैं जो वालिदैन और क़रीबी रिश्तेदार छोड़ें। अब रहे वे लोग जिनसे तुम्हारे अह्दो-पैमान हों तो उनका हिस्सा उन्हें दो, यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ पर निगराँ है।34
34. अहले-अरब का क़ायदा था कि जिन लोगों के दरमियान दोस्ती और भाई-चारे के अह्दो-पैमान हो जाते थे वे एक-दूसरे की मीरास के हक़दार बन जाते थे। इसी तरह जिसे बेटा बना लिया जाता था वह भी मुँहबोले बाप का वारिस क़रार पाता था। इस आयत में जाहिलियत के इस तरीक़े को मंसूख़ करते हुए इरशाद फ़रमाया गया है कि विरासत तो उसी क़ायदे के मुताबिक़ रिश्तेदारों में तक़सीम होनी चाहिए जो हमने मुक़र्रर कर दिया है, अलबत्ता जिन लोगों से तुम्हारे अह्दो-पैमान हों उनको अपनी ज़िन्दगी में तुम जो चाहो दे सकते हो।
ٱلرِّجَالُ قَوَّٰمُونَ عَلَى ٱلنِّسَآءِ بِمَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ وَبِمَآ أَنفَقُواْ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡۚ فَٱلصَّٰلِحَٰتُ قَٰنِتَٰتٌ حَٰفِظَٰتٞ لِّلۡغَيۡبِ بِمَا حَفِظَ ٱللَّهُۚ وَٱلَّٰتِي تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهۡجُرُوهُنَّ فِي ٱلۡمَضَاجِعِ وَٱضۡرِبُوهُنَّۖ فَإِنۡ أَطَعۡنَكُمۡ فَلَا تَبۡغُواْ عَلَيۡهِنَّ سَبِيلًاۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيّٗا كَبِيرٗا ۝ 29
(34) मर्द औरतों पर क़व्वाम हैं,35 इस बिना पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर फ़ज़ीलत दी है, और इस बिना पर कि मर्द अपने माल ख़र्च करते हैं। पस जो सॉलेह औरतें हैं वे इताअत शिआर होती हैं और मर्दों के पीछे अल्लाह की हिफ़ाज़त व निगरानी में उनके हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त करती हैं। और जिन औरतों से तुम्हें सरकशी का अदेशा हो उन्हें समझाओ, ख़ाबगाही में उनसे अलाहिदा रहो और मारो,36 फिर अगर वे तुम्हारी मुतीअ हो जाएँ-ख़ाह-मख़ाह उनपर दस्तदराज़ी के लिए बहाने तलाश न करो, यक़ीन रखो कि ऊपर अल्लाह मौजूद है जो बड़ा और बालातर है।
35. 'क़व्वाम' उस शख़्स को कहते हैं जो किसी फ़र्द या इदारे या निज़ाम के मामलात को दुरुस्त हालत में चलाने और उसकी हिफ़ाज़त व निगहबानी करने और उसकी ज़रूरियात मुहैया करने का ज़िम्मेदार हो।
36. यह मतलब नहीं है कि तीनों काम बयक-वक़्त कर डाले जाएँ, बल्कि मतलब यह है कि सरकशी की हालत में इन तीनों तदबीरों की इजाज़त है। अब रहा इनपर अमल दरामद, तो बहरहाल इसमें और क़ुसूर और सज़ा के दरमियान तनासुब होना चाहिए, और जहाँ हलकी तदबीर से इस्लाह हो सकती हो वहाँ सख़्त तदबीर से काम न लेना चाहिए। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बीवियों के मारने की जब कभी इजाज़त दी है तो बादिले-नाख़ास्ता दी है और फिर भी उसे नापसन्द ही फ़रमाया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡرَبُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنتُمۡ سُكَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَعۡلَمُواْ مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّىٰ تَغۡتَسِلُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا ۝ 30
(43) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब तुम नशे की हालत में हो तो नमाज़ के क़रीब न जाओ।39 नमाज़ उस वक़्त पढ़नी चाहिए जब तुम जानो कि क्या कह रहे हो। और इसी तरह जनाबत की हालत में भी नमाज़ के क़रीब न जाओ जब तक कि ग़ुस्ल न कर लो, इल्ला यह कि रास्ते से गुज़रते हो।42 और अगर कभी ऐसा हो कि तुम बीमार हो, या सफ़र में हो, या तुममें से कोई शख़्स रफ़ए-हाजत करके आए, या तुमने औरतों को लम्स किया हो43 और फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से काम लो और उससे अपने चेहरों और हाथों पर मसह कर लो44, बेशक अल्लाह नर्मी से काम लेनेवाला और बख़शिश फ़रमानेवाला है।
39. यह शराब के मुताल्लिक़ दूसरा हुक्म है। पहला हुक्म वह था जो सूरा-2 बक़रा, आयत-219 में गुज़र चुका है।
40. यानी नमाज़ में आदमी को इतना होश रहना चाहिए कि वह यह जाने कि वह क्या चीज़ अपनी ज़बान से अदा कर रहा है। ऐसा न हो कि वह खड़ा तो हो नमाज़ पढ़ने और शुरू कर दे कोई ग़ज़ल।
41. 'जनाबत' से मुराद वह नजासत है जो मुबाशरत से या ख़ाब में माद्दा ख़ारिज होने से लाहिक़ होती है।
42. फ़ुक़हा और मुफ़स्सिरीन में से एक गरोह ने इस आयत का मफ़हूम यह समझा है कि जनाबत की हालत में मस्जिद में न जाना चाहिए, इल्ला यह कि किसी काम के लिए मस्जिद में से गुज़रना हो। दूसरा गरोह इससे सफ़र मुराद लेता है। यानी अगर आदमी हालते-सफ़र में हो और जनाबत लाहिक़ हो जाए तो तयम्मुम किया जा सकता है।
43. इस अम्र में इख़्तिलाफ़ है कि 'लम्स' यानी छूने से क्या मुराद है। मुतअद्दिद अइम्मा की राय है कि इससे मुराद मुबाशरत है और इसी राय को इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके असहाब ने इख़्तियार किया है। बख़िलाफ़ इसके बाज़ दूसरे फ़ुक़हा के नज़दीक इससे मुराद छूना या हाथ लगाना है, और इसी राय को इमाम शाफ़िई (रह०) ने इख़्तियार किया है। इमाम मालिक (रह०) की राय है कि अगर औरत या मर्द एक-दूसरे को जज़्बाते-शहवानी के साथ हाथ लगाएँ तो उनका वुज़ू साक़ित हो जाएगा, लेकिन अगर जज़्बाते-शहवानी के बग़ैर एक का जिस्म दूसरे से मस हो जाए तो इसमें कोई मुज़ाइक़ा नहीं।
44. हुक्म की तफ़सीली सूरत यह है कि अगर आदमी बेवुज़ू है या उसे ग़ुस्ल की हाजत है और पानी नहीं मिलता तो तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ सकता है। अगर मरीज़ है और ग़ुस्ल या वुज़ू करने से उसको नुक़सान का अंदेशा है तो पानी मौजूद होने के बावजूद तयम्मुम की इजाज़त से फ़ायदा उठा सकता है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يَشۡتَرُونَ ٱلضَّلَٰلَةَ وَيُرِيدُونَ أَن تَضِلُّواْ ٱلسَّبِيلَ ۝ 31
(44) तुमने उन लोगों को भी देखा जिन्हें किताब के इल्म का कुछ हिस्सा। दिया गया है? वे ख़ुद जलालत के ख़रीदार बने हुए हैं और चाहते हैं कि तुम भी राह गुम कर दो।
وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِأَعۡدَآئِكُمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَلِيّٗا وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ نَصِيرٗا ۝ 32
(45) अल्लाह तुम्हारे दुश्मनों को ख़ूब जानता है और हिमायत और मददगारी के लिए अल्लाह ही काफ़ी है।
مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَيَقُولُونَ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَٱسۡمَعۡ غَيۡرَ مُسۡمَعٖ وَرَٰعِنَا لَيَّۢا بِأَلۡسِنَتِهِمۡ وَطَعۡنٗا فِي ٱلدِّينِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَا وَٱسۡمَعۡ وَٱنظُرۡنَا لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَقۡوَمَ وَلَٰكِن لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 33
(46) जिन लोगों ने यहूदियत का तरीक़ा इख़्तियार किया है उनमें कुछ लोग हैं जो अलफ़ाज़ को उनके महल से फेर देते हैं,45 और दीने-हक़ के ख़िलाफ़ नैश-ज़नी करने के लिए अपनी ज़बानों को तोड़-मोड़कर कहते हैं, “समिअना व असैना”46 और “इस-मअ ग़ै-र मुस्मइन”47 और “राइना”48 हालाँकि अगर वे कहते “समिअना व अतअना” और “इस-मअ” और “उनज़ुरना” तो यह उन्हीं के लिए बेहतर था और ज़्यादा रास्त-बाज़ी का तरीक़ा था। मगर उनपर तो उनकी बातिल-परस्ती की बदौलत अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है। इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
45. इसके तीन मतलब हैं— एक यह कि किताबुल्लाह के अलफ़ाज़ में रद्दो-बदल करते हैं। दूसरे यह कि अपनी तावीलात से आयाते-किताब के मानी कुछ-से-कुछ बना देते हैं। तीसरे यह कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप (सल्ल) के पैरुओं की सोहबत में आकर उनकी बातें सुनते हैं और वापस जाकर लोगों के सामने ग़लत तरीक़े से रिवायत करते हैं, बात कुछ कही जाती है और वे उसे अपनी शरारत से कुछ-का-कुछ बनाकर लोगों में मशहूर कर देते हैं।
46. यानी जब उन्हें ख़ुदा के अहकाम सुनाए जाते हैं तो ज़ोर से कहते हैं 'समिअना' (हमने सुन लिया) और आहिस्ता से कहते हैं 'असैना' (हमने क़बूल नहीं किया) या 'अतअना' (हमने क़ुबूल किया) का तलफ़्फ़ुज़ इस अन्दाज़ से ज़बान को लचका देकर अदा करते हैं कि 'असैना' बन जाता है।
47. यानी दौराने-गुफ़्तगू में जब वे कोई बात मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहना चाहते हैं तो कहते हैं 'इस-मअ' (सुनिए) और फिर साथ ही ‘ग़ै-र-मुस्मइन’ भी कहते हैं जो ज़ू- मानी है। इसका एक मतलब यह है कि आप ऐसे मोहतरम हैं कि आपको कोई बात ख़िलाफ़े-मरज़ी नहीं सुनाई जा सकती। दूसरा मतलब यह है कि तुम इस क़ाबिल नहीं हो कि तुम्हें कोई कुछ सुनाए। एक और मतलब यह है कि ख़ुदा करे तुम बहरे हो जाओ।
48. इसकी तशरीह सूरा-2 बक़रा हाशिया-36 में गुज़र चुकी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ ءَامِنُواْ بِمَا نَزَّلۡنَا مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَكُم مِّن قَبۡلِ أَن نَّطۡمِسَ وُجُوهٗا فَنَرُدَّهَا عَلَىٰٓ أَدۡبَارِهَآ أَوۡ نَلۡعَنَهُمۡ كَمَا لَعَنَّآ أَصۡحَٰبَ ٱلسَّبۡتِۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ مَفۡعُولًا ۝ 34
(47) ऐ वे लोगो, जिन्हें किताब दी गई थी! मान लो इस किताब को जो हमने अब नाज़िल की है और जो उस किताब की तसदीक़ व ताईद करती है जो तुम्हारे पास पहले से मौजूद थी। इसपर ईमान ले आओ क़ब्ल इसके कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें या उनको उसी तरह लानतज़दा कर दें जिस तरह सब्तवालों के साथ हमने किया था, और याद रखो कि अल्लाह का हुक्म नाफ़िज़ होकर रहता है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغۡفِرُ أَن يُشۡرَكَ بِهِۦ وَيَغۡفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱفۡتَرَىٰٓ إِثۡمًا عَظِيمًا ۝ 35
(48) अल्लाह बस शिर्क ही को माफ़ नहीं करता, इसके मासिवा दूसरे जिस क़द्र गुनाह हैं, वह जिसके लिए चाहता है माफ़ कर देता है। अल्लाह के साथ जिसने किसी और को शरीक ठहराया उसने तो बहुत ही बड़ा झूठ तसनीफ़ किया, और बड़े सख़्त गुनाह की बात की।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يُزَكُّونَ أَنفُسَهُمۚ بَلِ ٱللَّهُ يُزَكِّي مَن يَشَآءُ وَلَا يُظۡلَمُونَ فَتِيلًا ۝ 36
(49) तुमने उन लोगों को भी देखा जो बहुत अपनी पाकीज़गी-ए-नफ़्स का दम भरते हैं? हालाँकि पाकीज़गी तो अल्लाह ही जिसे चाहता है अता करता है, और (इन्हें जो पाकीज़गी नहीं मिलती तो दर-हक़ीक़त) इनपर ज़र्रा बराबर ज़ुल्म नहीं किया जाता।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۖ وَكَفَىٰ بِهِۦٓ إِثۡمٗا مُّبِينًا ۝ 37
(50) देखो तो सही, ये अल्लाह पर भी झूठे इफ़तिरा गढ़ने से नहीं चूकते और इनके सरीहन गुनाहगार होने के लिए यही एक गुनाह काफ़ी है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡجِبۡتِ وَٱلطَّٰغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ هَٰٓؤُلَآءِ أَهۡدَىٰ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ سَبِيلًا ۝ 38
(51) क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा दिया गया है और उनका हाल यह है कि जिब्त49 और ताग़ूत50 को मानते हैं और काफ़िरों के मुताल्लिक़ कहते हैं कि ईमान लानेवालों से तो यही ज़्यादा सही रास्ते पर हैं।51
49. 'जिब्त' के अस्ली मानी बेहक़ीक़त, बेअस्ल और बेफ़ायदा चीज़ के हैं। इस्लाम की ज़बान में जादू, कहानत (ज्योतिष), फ़ालगीरी, टोने-टोटके, शगुन और मुहूर्त और तमाम दूसरी वहमी व ख़याली बातों को 'जिब्त' से ताबीर किया गया है।
50. तशरीह के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-2 बक़रा, हाशिया-91।
51. यहाँ काफ़िरों से मुराद मुशरिकीने-अरब हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُۖ وَمَن يَلۡعَنِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ نَصِيرًا ۝ 39
(52) ऐसे ही लोग हैं जिनपर अल्लाह ने लानत की है, और जिसपर अल्लाह लानत कर दे, फिर तुम उसका कोई मददगार नहीं पाओगे।
أَمۡ لَهُمۡ نَصِيبٞ مِّنَ ٱلۡمُلۡكِ فَإِذٗا لَّا يُؤۡتُونَ ٱلنَّاسَ نَقِيرًا ۝ 40
(53) क्या हुकूमत में उनका कोई हिस्सा है? अगर ऐसा होता तो ये दूसरों को एक फूटी कौड़ी तक न देते।
أَمۡ يَحۡسُدُونَ ٱلنَّاسَ عَلَىٰ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۖ فَقَدۡ ءَاتَيۡنَآ ءَالَ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَءَاتَيۡنَٰهُم مُّلۡكًا عَظِيمٗا ۝ 41
(54) फिर क्या ये दूसरों से इसलिए हसद करते हैं कि अल्लाह ने उन्हें अपने फ़ज़्ल से नवाज़ दिया? अगर यह बात है तो इन्हें मालूम हो कि हमने तो इबराहीम की औलाद को किताब और हिकमत अता की और मुल्के-अज़ीम बख़्श दिया,
فَمِنۡهُم مَّنۡ ءَامَنَ بِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن صَدَّ عَنۡهُۚ وَكَفَىٰ بِجَهَنَّمَ سَعِيرًا ۝ 42
(55) मगर उनमें से कोई उसपर ईमान लाया और कोई उससे मुँह मोड़ गया, और मुँह मोड़नेवालों के लिए तो बस जहन्नम की भड़कती हुई आग ही काफ़ी है।52
52. याद रहे कि यहाँ जवाब बनी-इसराईल की हासिदाना बातों का दिया जा रहा है। इस जवाब का मतलब यह है कि तुम लोग आख़िर जलते किस बात पर हो? तुम भी इबराहीम (अलैहि०) की औलाद हो और ये बनी-इसमाईल भी इबराहीम (अलैहि०) ही की औलाद हैं। इबराहीम (अलैहि०) से दुनिया की इमामत का जो वादा हमने किया था वह आले-इबराहीम में से सिर्फ़ उन लोगों के लिए था जो हमारी भेजी हुई किताब और हिकमत की पैरवी करें। यह किताब और हिकमत पहले हमने तुम्हारे पास भेजी थी मगर तुम्हारी अपनी नालायक़ी थी कि तुम इससे मुँह मोड़ गए। अब वही चीज़ हमने बनी-इसमाईल को दी है। और यह उनकी ख़ुशनसीबी है कि वे इसपर ईमान ले आए हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِنَا سَوۡفَ نُصۡلِيهِمۡ نَارٗا كُلَّمَا نَضِجَتۡ جُلُودُهُم بَدَّلۡنَٰهُمۡ جُلُودًا غَيۡرَهَا لِيَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 43
(56) जिन लोगों ने हमारी आयात को मानने से इनकार कर दिया है उन्हें बिलयक़ीन हम आग में झोंकेंगे और जब उनके बदन की खाल गल जाएगी तो उसकी जगह दूसरी खाल पैदा कर देंगे ताकि वे ख़ूब अज़ाब का मज़ा चखें, अल्लाह बड़ी क़ुदरत रखता है, अपने फ़ैसलों को अमल में लाने की हिकमत ख़ूब जानता है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَنُدۡخِلُهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ لَّهُمۡ فِيهَآ أَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞۖ وَنُدۡخِلُهُمۡ ظِلّٗا ظَلِيلًا ۝ 44
(57) और जिन लोगों ने हमारी आयात को मान लिया और नेक अमल किए उनको हम ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, जहाँ वे हमेशा-हमेशा रहेंगे और उनको पाकीज़ा बीवियाँ मिलेंगी और उन्हें हम घनी छाँव में रखेंगे।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تُؤَدُّواْ ٱلۡأَمَٰنَٰتِ إِلَىٰٓ أَهۡلِهَا وَإِذَا حَكَمۡتُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ أَن تَحۡكُمُواْ بِٱلۡعَدۡلِۚ إِنَّ ٱللَّهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا ۝ 45
(58) (मुसलमानो!) अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानते अहले-अमानत के सिपुर्द करो, और जब लोगों के दरमियान फ़ैसला करो तो अद्ल के साथ करो,53 अल्लाह तुमको निहायत उमदा नसीहत करता है और यक़ीनन अल्लाह सब कुछ सुनता और देखता है।
53. यानी तुम उन बुराइयों से बचे रहना जिनमें बनी-इसराईल मुब्तला हो गए हैं। बनी-इसराईल की बुनियादी ग़लतियों में से एक यह थी कि उन्होंने अपने इनहितात के ज़माने में अमानतें, यानी ज़िम्मेदारी के मनसब और मज़हबी पेशवाई और क़ौमी सरदारी के मर्तबे ऐसे लोगों को देने शुरू कर दिए जो नाअहल, कमज़र्फ़, बदअख़लाक़, बददियानत और बदकार थे। नतीजा यह हुआ कि बुरे लोगों की क़ियादत से सारी क़ौम खराब होती चली गई। मुसलमानों को हिदायत की जा रही है कि तुम ऐसा न करना। बनी-इसराईल की दूसरी बड़ी कमज़ोरी यह थी कि वे इनसाफ़ की रूह से ख़ाली हो गए थे। वे शख़्सी और क़ौमी अग़राज़ के लिए बेतकल्लुफ़ ईमान निगल जाते थे। सरीह हठधर्मी बरत जाते थे। इनसाफ़ के गले पर छुरी फेरने में उन्हें ज़रा ताम्मुल न होता था। अल्लाह तआला मुसलमानों को हिदायत करता है कि तुम कहीं बेइनसाफ़ न बन जाना। ख़ाह किसी से दोस्ती हो या दुश्मनी, बहरहाल बात जब कहो इनसाफ़ की कहो और फ़ैसला जब करो अद्ल के साथ करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَٰزَعۡتُمۡ فِي شَيۡءٖ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلًا ۝ 46
(59) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और उन लोगों की जो तुममें से साहिबे-अम्र हों, फिर अगर तुम्हारे दरमियान किसी मामले में निज़ाअ हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ फेर दो54 अगर तुम वाक़ई अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान रखते हो। यही एक सही तरीक़े-कार है और अंजाम के एतिबार से भी बेहतर है।
54. यह आयत इस्लाम के पूरे मज़हबी, तमद्दुनी और सियासी निज़ाम की बुनियाद और इस्लामी रियासत के दस्तूर की अव्वलीन दफ़अ है। इसमें हस्बे-ज़ैल चार उसूल मुस्तक़िल तौर पर क़ायम कर दिए गए हैं— (1) इस्लामी निज़ाम में मुताअ अल्लाह तआला है। एक मुसलमान सबसे पहले बन्दा-ए-ख़ुदा है, बाक़ी जो कुछ भी है उसके बाद है। (2) इस्लामी निज़ाम की दूसरी बुनियाद रसूल की इताअत है। (3) मज़कूरा बाला दोनों इताअतों के बाद और उनके मातहत तीसरी इताअत उन ‘ऊलुल-अम्र' की है जो ख़ुद मुसलमानों में से हों। 'ऊलुल-अम्र' के मफ़हूम में वे सब लोग शामिल हैं जो मुसलमानों के इजतिमाई मामलात के सरबराहकार हों, ख़ाह वे उलमा हों, या सियासी रहनुमाई करनेवाले लीडर हों, या मुल्की इन्तिज़ाम करनेवाले हुक्काम, या अदालती फ़ैसले करनेवाले जज, या तमद्दुनी व मुआशरती अम्र में क़बीलों और बस्तियों और महलों की सरबराही करनेवाले शुयूख़ और सरदार। (4) ख़ुदा का हुक्म और रसूल का तरीक़ा बुनियादी क़ानून और आख़िरी सनद है। मुसलमानों के दरमियान या हुकूमत और रिआया के दरमियान जिस मसले में भी निज़ाअ होगी उसमें फ़ैसले के लिए क़ुरआन और सुन्नत की तरफ़ रुजूअ किया जाएगा और जो फ़ैसला वहाँ से हासिल होगा उसके सामने सब सरे-तसलीम ख़म कर देंगे।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يَزۡعُمُونَ أَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَ يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُوٓاْ إِلَى ٱلطَّٰغُوتِ وَقَدۡ أُمِرُوٓاْ أَن يَكۡفُرُواْ بِهِۦۖ وَيُرِيدُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَن يُضِلَّهُمۡ ضَلَٰلَۢا بَعِيدٗا ۝ 47
(60) (ऐ नबी!) तुमने देखा नहीं उन लोगों को जो दावा तो करते हैं कि हम ईमान लाए हैं उस किताब पर जो तुम्हारी तरफ़ नाज़िल की गई है, मगर चाहते ये हैं कि मामलात का फ़ैसला कराने के लिए ताग़ूत की तरफ़ रुजूअ करें, हलाँकि उन्हें ताग़ूत से कुफ़्र करने का हुक्म दिया गया था।55 — शैतान उन्हें भटकाकर राहे-रास्त से बहुत दूर ले जाना चाहता है।
55. यहाँ सरीह तौर पर 'ताग़ूत' से मुराद वह हाकिम है जो क़ानूने-इलाही के सिवा किसी दूसरे क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करता हो, और वह निज़ामे-अदालत है जो न तो अल्लाह के इक़तिदारे-आला का मुतीअ हो और न अल्लाह की किताब को आखिरी सनद मानता हो।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ رَأَيۡتَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ يَصُدُّونَ عَنكَ صُدُودٗا ۝ 48
(61)और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस चीज़ की तरफ़ जो अल्लाह ने नाज़िल की है और आओ रसूल की तरफ़ तो इन मुनाफ़िकों को तुम देखते हो कि ये तुम्हारी तरफ़ आने से कतराते हैं।
فَكَيۡفَ إِذَآ أَصَٰبَتۡهُم مُّصِيبَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ ثُمَّ جَآءُوكَ يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ إِنۡ أَرَدۡنَآ إِلَّآ إِحۡسَٰنٗا وَتَوۡفِيقًا ۝ 49
(62) फिर उस वक़्त क्या होता है जब इनके अपने हाथों की लाई हुई मुसीबत इनपर आ पड़ती है? उस वक़्त ये तुम्हारे पास क़समें खाते हुए आते हैं और कहते हैं कि अल्लाह की क़सम! हम तो सिर्फ़ भलाई चाहते थे और हमारी नीयत तो यह थी कि फ़रीक़ैन में किसी तरह मुवाफ़क़त हो जाए।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ مَا فِي قُلُوبِهِمۡ فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَعِظۡهُمۡ وَقُل لَّهُمۡ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ قَوۡلَۢا بَلِيغٗا ۝ 50
(63) — अल्लाह जानता है जो कुछ उनके दिलों में है, उनसे तअर्रुज़ मत करो, उन्हें समझाओ और ऐसी नसीहत करो जो उनके दिलों में उतर जाए।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا لِيُطَاعَ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ إِذ ظَّلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ جَآءُوكَ فَٱسۡتَغۡفَرُواْ ٱللَّهَ وَٱسۡتَغۡفَرَ لَهُمُ ٱلرَّسُولُ لَوَجَدُواْ ٱللَّهَ تَوَّابٗا رَّحِيمٗا ۝ 51
(64) (उन्हें बताओ कि) हमने जो रसूल भी भेजा है इसी लिए भेजा है कि इज़्ने-ख़ुदावन्दी की बिना पर उसकी इताअत की जाए। अगर उन्होंने यह तरीक़ा इख़्तियार किया होता कि जब ये अपने नफ़्स पर ज़ुल्म कर बैठे थे तो तुम्हारे पास आ जाते और अल्लाह से माफ़ी माँगते, और रसूल भी उनके लिए माफ़ी की दरखास्त करता, तो यक़ीनन अल्लाह को बख़्शनेवाला और रहम करनेवाला पाते।
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ حَرَجٗا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمٗا ۝ 52
(65) नहीं, (ऐ मुहम्मद!) तुम्हारे रब की कसम! ये कभी मोमिन नहीं हो सकते जब तक कि अपने बाहमी इख़्तिलाफ़ात में ये तुमका फ़ैसला करनेवाला न मान लें, फिर जो कुछ तुम फ़ैसला करो उसपर दिलों में भी कोई तंगी न महसूस करें, बल्कि सर-ब-सर तसलीम कर लें।
وَلَوۡ أَنَّا كَتَبۡنَا عَلَيۡهِمۡ أَنِ ٱقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ أَوِ ٱخۡرُجُواْ مِن دِيَٰرِكُم مَّا فَعَلُوهُ إِلَّا قَلِيلٞ مِّنۡهُمۡۖ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ فَعَلُواْ مَا يُوعَظُونَ بِهِۦ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَشَدَّ تَثۡبِيتٗا ۝ 53
(66) अगर हमने उन्हें हुक्म दिया होता कि अपने-आपको हलाक कर दो या अपने घरों से निकल जाओ तो उनमें से कम ही आदमी इसपर अमल करते। हालाँकि जो नसीहत उन्हें की जाती है अगर उसपर अमल करते तो यह उनके लिए ज़्यादा बेहतरी और ज़्यादा साबित-क़दमी का मूजिब होता,
وَإِذٗا لَّأٓتَيۡنَٰهُم مِّن لَّدُنَّآ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 54
(67) और जब ये ऐसा करते तो हम उन्हें अपनी तरफ़ से बहुत बड़ा अज्र देते
وَلَهَدَيۡنَٰهُمۡ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 55
(68) और उन्हें सीधा रास्ता दिखा देते।
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَعَ ٱلَّذِينَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ وَٱلصِّدِّيقِينَ وَٱلشُّهَدَآءِ وَٱلصَّٰلِحِينَۚ وَحَسُنَ أُوْلَٰٓئِكَ رَفِيقٗا ۝ 56
(69) जो लोग अल्लाह और रसूल की इताअत करेंगे वे उन लोगों के साथ होंगे जिनपर अल्लाह ने इनाम फ़रमाया है यानी अम्बिया और सिद्दीक़ीन और शोहदा और सॉलिहीन।56 कैसे अच्छे हैं ये रफ़ीक़ जो किसी को मयस्सर आएँ।
56. इसका मतलब यह है कि आख़िरत में वे इन लोगों के साथ होंगे। यह मतलब नहीं है कि इनमें से कोई अपने इस फ़ेल की बदौलत नबी भी बन जाएगा।
ذَٰلِكَ ٱلۡفَضۡلُ مِنَ ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ عَلِيمٗا ۝ 57
(70) यह हक़ीक़ी फ़ज़्ल है जो अल्लाह की तरफ़ से मिलता है और हक़ीक़त जानने के लिए बस अल्लाह ही का इल्म काफ़ी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ خُذُواْ حِذۡرَكُمۡ فَٱنفِرُواْ ثُبَاتٍ أَوِ ٱنفِرُواْ جَمِيعٗا ۝ 58
(71) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! मुक़ाबले के लिए हर वक़्त तैयार रहो, फिर जैसा मौक़ा हो अलग-अलग दस्तों की शक्ल में निकलो या इकट्ठे होकर।57
57. वाज़ेह रहे कि यह फ़रमान उस ज़माने में नाज़िल हुआ था जब उहुद की शिकस्त की वजह से अतराफ़ व नवाह के क़बाइल की हिम्मतें बढ़ गई थी और मुसलमान हर तरफ़ से ख़तरात में घिर गए थे।
وَإِنَّ مِنكُمۡ لَمَن لَّيُبَطِّئَنَّ فَإِنۡ أَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةٞ قَالَ قَدۡ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيَّ إِذۡ لَمۡ أَكُن مَّعَهُمۡ شَهِيدٗا ۝ 59
(72) हाँ, तुममें कोई आदमी ऐसा भी है जो लड़ाई से जी चुराता है, अगर तुमपर कोई मुसीबत आए तो कहता है अल्लाह ने मुझपर बड़ा फ़ज़्ल किया कि मैं इन लोगों के साथ न गया,
وَلَئِنۡ أَصَٰبَكُمۡ فَضۡلٞ مِّنَ ٱللَّهِ لَيَقُولَنَّ كَأَن لَّمۡ تَكُنۢ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُۥ مَوَدَّةٞ يَٰلَيۡتَنِي كُنتُ مَعَهُمۡ فَأَفُوزَ فَوۡزًا عَظِيمٗا ۝ 60
(73) और अगर अल्लाह की तरफ़ से तुमपर फ़ज़्ल हो तो कहता है — और इस तरह कहता है कि गोया तुम्हारे और उसके दरमियान मुहब्बत का तो कोई ताल्लुक़ था ही नहीं — कि काश मैं भी उनके साथ होता तो बड़ा काम बन जाता!
۞فَلۡيُقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ يَشۡرُونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا بِٱلۡأٓخِرَةِۚ وَمَن يُقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَيُقۡتَلۡ أَوۡ يَغۡلِبۡ فَسَوۡفَ نُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 61
(74) (ऐसे लोगों को मालूम हो कि) अल्लाह की राह में लड़ना चाहिए उन लोगों को जो आख़िरत के बदले दुनिया की ज़िन्दगी को फ़रोख़्त कर दें, फिर जो अल्लाह की राह में लड़ेगा और मारा जाएगा या ग़ालिब रहेगा उसे ज़रूर हम अज़्रे-अज़ीम अता करेंगे।
وَمَا لَكُمۡ لَا تُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلرِّجَالِ وَٱلنِّسَآءِ وَٱلۡوِلۡدَٰنِ ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَآ أَخۡرِجۡنَا مِنۡ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلظَّالِمِ أَهۡلُهَا وَٱجۡعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ وَلِيّٗا وَٱجۡعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ نَصِيرًا ۝ 62
(75) आख़िर क्या वजह है कि तुम अल्लाह की राह में उन बेबस मर्दों, औरतों और बच्चों की ख़ातिर न लड़ो जो कमज़ोर पाकर दबा लिए गए हैं और फ़रियाद कर रहे हैं कि ख़ुदाया! हमको इस बस्ती से निकाल जिसके बाशिन्दे ज़ालिम हैं, और अपनी तरफ़ से हमारा कोई हामी व मददगार पैदा कर दे।58
58. इशारा है उन मज़लूम बच्चों, औरतों और मर्दों की तरफ़ जो मक्का में और अरब के दूसरे क़बाइल में इस्लाम क़ुबूल कर चुके थे, मगर न हिजरत पर क़ादिर थे और न अपने-आपको ज़ुल्म से बचा सकते थे। ये ग़रीब तरह-तरह से तख़्ता-ए–मश्क़े-सितम बनाए जा रहे थे और दुआएँ माँगते थे कि कोई इन्हें इस ज़ुल्म स बचाए।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱلطَّٰغُوتِ فَقَٰتِلُوٓاْ أَوۡلِيَآءَ ٱلشَّيۡطَٰنِۖ إِنَّ كَيۡدَ ٱلشَّيۡطَٰنِ كَانَ ضَعِيفًا ۝ 63
(76) जिन लोगों ने ईमान का रास्ता इख़्तियार किया है, वे अल्लाह की राह में लड़ते हैं और जिन्होंने कुफ़्र का रास्ता इख़्तियार किया है वे ताग़ूत की राह में लड़ते हैं, पस शैतान के साथियों से लड़ो और यक़ीन जानो कि शैतान की चालें हक़ीक़त में निहायत कमज़ोर हैं।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ قِيلَ لَهُمۡ كُفُّوٓاْ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقِتَالُ إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ يَخۡشَوۡنَ ٱلنَّاسَ كَخَشۡيَةِ ٱللَّهِ أَوۡ أَشَدَّ خَشۡيَةٗۚ وَقَالُواْ رَبَّنَا لِمَ كَتَبۡتَ عَلَيۡنَا ٱلۡقِتَالَ لَوۡلَآ أَخَّرۡتَنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖۗ قُلۡ مَتَٰعُ ٱلدُّنۡيَا قَلِيلٞ وَٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّمَنِ ٱتَّقَىٰ وَلَا تُظۡلَمُونَ فَتِيلًا ۝ 64
(77) तुमने उन लागों को भी देखा जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? अब जो उन्हें लड़ाई का हुक्म दिया गया तो उनमें से एक फ़रीक़ का हाल यह है कि लोगों से ऐसा डर रहे हैं जैसा ख़ुदा से डरना चाहिए या कुछ उससे भी बढ़कर। कहते हैं, “ख़ुदाया! यह हमपर लड़ाई का हुक्म क्यों लिख दिया? क्यों न हमें अभी कुछ और मुहलत दो?” इनसे कहो, “दुनिया का सरमायए-ज़िन्दगी थोड़ा है, और आख़िरत एक ख़ुदातरस इनसान के लिए ज़्यादा बेहतर है, और तुमपर ज़ुल्म एक शम्मा बराबर भी न किया जाएगा।”59
59. यानी अगर तुम ख़ुदा के दीन की ख़िदमत बजा लाओगे और उसकी राह में जाँफ़िशानी दिखाओगे तो यह मुमकिन नहीं है कि अल्लाह के यहाँ तुम्हारा अज्र ज़ाया हो जाए।
أَيۡنَمَا تَكُونُواْ يُدۡرِككُّمُ ٱلۡمَوۡتُ وَلَوۡ كُنتُمۡ فِي بُرُوجٖ مُّشَيَّدَةٖۗ وَإِن تُصِبۡهُمۡ حَسَنَةٞ يَقُولُواْ هَٰذِهِۦ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةٞ يَقُولُواْ هَٰذِهِۦ مِنۡ عِندِكَۚ قُلۡ كُلّٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ فَمَالِ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلۡقَوۡمِ لَا يَكَادُونَ يَفۡقَهُونَ حَدِيثٗا ۝ 65
(78) रही मौत, तो जहाँ भी तुम हो वह बहरहाल तुम्हें आकर रहेगी ख़ाह तुम कैसी ही मज़बूत इमारतों में हो।” अगर उन्हें कोई फ़ायदा पहुँचता है तो कहते हैं, यह अल्लाह की तरफ़ से है, और अगर कोई नुक़सान पहुँचता है तो कहते हैं कि ऐ नबी! यह आपकी बदौलत है। कहो, “सब कुछ अल्लाह ही की तरफ़ से है। आख़िर इन लोगों को क्या हो गया है कि कोई बात उनकी समझ में नहीं आती।
مَّآ أَصَابَكَ مِنۡ حَسَنَةٖ فَمِنَ ٱللَّهِۖ وَمَآ أَصَابَكَ مِن سَيِّئَةٖ فَمِن نَّفۡسِكَۚ وَأَرۡسَلۡنَٰكَ لِلنَّاسِ رَسُولٗاۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدٗا ۝ 66
(79) (ऐ इनसान!) तुझे जो भलाई भी हासिल होती है अल्लाह की इनायत से होती है। और जो मुसीबत तुझपर आती है वह तेरे अपने कस्ब व अमल की बदौलत है। (ऐ मुहम्मद!) हमने तुमको लोगों के लिए रसूल बनाकर भेजा है और उसपर ख़ुदा की गवाही काफ़ी है।
مَّن يُطِعِ ٱلرَّسُولَ فَقَدۡ أَطَاعَ ٱللَّهَۖ وَمَن تَوَلَّىٰ فَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظٗا ۝ 67
(80) जिसने रसूल की इताअत की उसने दरअस्ल ख़ुदा की इताअत की। और जो मुँह मोड़ गया, तो बहरहाल हमने तुम्हें उन लोगों पर पासबान बनाकर तो नहीं भेजा है।
وَيَقُولُونَ طَاعَةٞ فَإِذَا بَرَزُواْ مِنۡ عِندِكَ بَيَّتَ طَآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ غَيۡرَ ٱلَّذِي تَقُولُۖ وَٱللَّهُ يَكۡتُبُ مَا يُبَيِّتُونَۖ فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلًا ۝ 68
(81) वे मुँह पर कहते हैं कि हम मुतीए-फ़रमान हैं। मगर जब तुम्हारे पास से निकलते हैं तो उनमें से एक गरोह रातों को जमा होकर तुम्हारी बातों के ख़िलाफ़ मश्वरे करता है। अल्लाह उनकी ये सारी सरगोशियाँ लिख रहा है। तुम उनकी परवाह न करो और अल्लाह पर भरोसा रखो, वही भरोसे के लिए काफ़ी है।
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلۡقُرۡءَانَۚ وَلَوۡ كَانَ مِنۡ عِندِ غَيۡرِ ٱللَّهِ لَوَجَدُواْ فِيهِ ٱخۡتِلَٰفٗا كَثِيرٗا ۝ 69
(82) क्या ये लोग क़ुरआन पर ग़ौर नहीं करते? अगर यह अल्लाह के सिवा किसी और की तरफ़ से होता तो इसमें बहुत कुछ इख़्तिलाफ़ बयानी पाई जाती।60
60. यह कलाम तो ख़ुद शहादत दे रहा है कि यह अल्लाह के सिवा किसी दूसरे का कलाम हो नहीं सकता। कोई इनसान इस बात पर क़ादिर नहीं है कि सालहा-साल तक वह मुख़्तलिफ़ हालात में, मुख़्तलिफ़ मवाक़े पर, मुख़्तलिफ़ मज़ामीन पर तक़रीरें करता रहे और अव्वल से आख़िर तक उसकी सारी तक़रीरें ऐसा हमवार, यक रंग, मुतनासिब मजमूआ बन जाएँ जिसका कोई जुज़ दूसरे जुज़ से मुतसादिम न हो। जिसमें तब्दीलि-ए-राय का कहीं निशान तक न मिले, जिसमें मुतकल्लिम के नफ़्स की मुख़्तलिफ़ कैफ़ियात अपने मुख़्तलिफ़ रंग न दिखाएँ, और जिसपर कभी नज़रे-सानी तक की ज़रूरत न पेश आए।
وَإِذَا جَآءَهُمۡ أَمۡرٞ مِّنَ ٱلۡأَمۡنِ أَوِ ٱلۡخَوۡفِ أَذَاعُواْ بِهِۦۖ وَلَوۡ رَدُّوهُ إِلَى ٱلرَّسُولِ وَإِلَىٰٓ أُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنۡهُمۡ لَعَلِمَهُ ٱلَّذِينَ يَسۡتَنۢبِطُونَهُۥ مِنۡهُمۡۗ وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ لَٱتَّبَعۡتُمُ ٱلشَّيۡطَٰنَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 70
(83) ये लोग जहाँ कोई इत्मीनानबख़्श या ख़ौफ़नाक ख़बर सुन पाते हैं उसे लेकर फैला देते हैं, हालाँकि अगर ये उसे रसूल और अपनी जमाअत के ज़िम्मेदार असहाब तक पहुँचाएँ तो वह ऐसे लोगों के इल्म में आ जाए जो इनके दरमियान इस बात की सलाहियत रखते हैं कि उससे सही नतीजा अख़्ज़ कर सकें।61 तुम लोगों पर अल्लाह की मेहरबानी और रहमत न होती तो (तुम्हारी कमज़ोरियाँ ऐसी थीं कि) मादूदे-चंद के सिवा तुम सब शैतान के पीछे लग गए होते।
61. वह चूँकि हँगामे का मौक़ा था इसलिए हर तरफ़ अफ़वाहें उड़ रही थीं। कभी ख़तरे की बेबुनियाद मुबालग़ा आमेज़ इत्तिलाएँ आतीं और उनसे यकायक मदीना और उसके अतराफ़ में परेशानी फैल जाती। कभी कोई चालाक दुश्मन किसी वाक़ई ख़तरे को छिपाने के लिए इत्मीनानबख़्श ख़बरें भेज देता और लोग उन्हें सुनकर ग़फ़लत में मुब्तला हो जाते। आम लोगों को अन्दाज़ा न था कि इस क़िस्म की ग़ैर-ज़िम्मेदाराना अफ़वाहें फैलाने के नताइज किस क़दर दूर-रस होते हैं। उनके कान में जहाँ कोई भनक पड़ जाती उसे लेकर जगह-जगह फूँकते फिरते थे। उन्हीं लोगों को इस आयत में सरज़निश की गई है और उन्हें सख़्ती के साथ मुतनब्बेह फ़रमाया गया है कि अफ़वाहें फैलाने से बाज़ रहें और हर ख़बर जो उनको पहुँचे उसे ज़िम्मेदार लोगों तक पहुँचाकर ख़ामोश हो जाएँ।
فَقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ لَا تُكَلَّفُ إِلَّا نَفۡسَكَۚ وَحَرِّضِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَكُفَّ بَأۡسَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ وَٱللَّهُ أَشَدُّ بَأۡسٗا وَأَشَدُّ تَنكِيلٗا ۝ 71
(84) पस (ऐ नबी!) तुम अल्लाह की राह में लड़ो, तुम अपनी ज़ात के सिवा किसी और के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो। अलबत्ता अहले-ईमान को लड़ने के लिए उकसाओ, बईद नहीं कि अल्लाह काफ़िरों का ज़ोर तोड़ दे, अल्लाह का ज़ोर सबसे ज़्यादा ज़रबदस्त और उसकी सज़ा सबसे ज़्यादा सख़्त है।
مَّن يَشۡفَعۡ شَفَٰعَةً حَسَنَةٗ يَكُن لَّهُۥ نَصِيبٞ مِّنۡهَاۖ وَمَن يَشۡفَعۡ شَفَٰعَةٗ سَيِّئَةٗ يَكُن لَّهُۥ كِفۡلٞ مِّنۡهَاۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ مُّقِيتٗا ۝ 72
(85) जो भलाई की सिफ़ारिश करेगा वह उसमें से हिस्सा पाएगा और जो बुराई की सिफ़ारिश करेगा वह उसमें से हिस्सा पाएगा, और अल्लाह हर चीज़ पर नज़र रखनेवाला है।
وَإِذَا حُيِّيتُم بِتَحِيَّةٖ فَحَيُّواْ بِأَحۡسَنَ مِنۡهَآ أَوۡ رُدُّوهَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَسِيبًا ۝ 73
(86) और जब कोई एहतिराम के साथ तुम्हें सलाम करे तो उसको उससे बेहतर तरीक़े के साथ जवाब दो या कम-अज़-कम उसी तरह, अल्लाह हर चीज़ का हिसाब लेनेवाला है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ لَيَجۡمَعَنَّكُمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا رَيۡبَ فِيهِۗ وَمَنۡ أَصۡدَقُ مِنَ ٱللَّهِ حَدِيثٗا ۝ 74
(87) अल्लाह वह है जिसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, वह तुम सबको उस क़ियामत के दिन जमा करेगा जिसके आने में कोई शुब्ह नहीं, और अल्लाह की बात से बढ़कर सच्ची बात और किसकी हो सकती है।
۞فَمَا لَكُمۡ فِي ٱلۡمُنَٰفِقِينَ فِئَتَيۡنِ وَٱللَّهُ أَرۡكَسَهُم بِمَا كَسَبُوٓاْۚ أَتُرِيدُونَ أَن تَهۡدُواْ مَنۡ أَضَلَّ ٱللَّهُۖ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ سَبِيلٗا ۝ 75
(88) फिर यह तुम्हें क्या हो गया है कि मुनाफ़िक़ीन के बारे में तुम्हारे दरमियान दो रायें पाई जाती हैं, हालाँकि जो बुराइयाँ उन्होंने कमाई हैं उनकी बदौलत अल्लाह उन्हें उलटा फेर चुका है। क्या तुम चाहते हो कि जिसे अल्लाह ने हिदायत नहीं बख़्शी उसे तुम हिदायत बख़्श दो? हालाँकि जिसको अल्लाह ने रास्ते से भटका दिया उसके लिए तुम कोई रास्ता नहीं पा सकते।
وَدُّواْ لَوۡ تَكۡفُرُونَ كَمَا كَفَرُواْ فَتَكُونُونَ سَوَآءٗۖ فَلَا تَتَّخِذُواْ مِنۡهُمۡ أَوۡلِيَآءَ حَتَّىٰ يُهَاجِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَخُذُوهُمۡ وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ وَجَدتُّمُوهُمۡۖ وَلَا تَتَّخِذُواْ مِنۡهُمۡ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرًا ۝ 76
(89) वे तो यह चाहते हैं कि जिस तरह वे ख़ुद काफ़िर हैं उसी तरह तुम भी काफ़िर हो जाओ ताकि तुम और वे सब यकसाँ हो जाएँ। लिहाज़ा उनमें से किसी को अपना दोस्त न बनाओ जब तक कि वे अल्लाह की राह में हिजरत करके न आ जाएँ, और अगर वे हिजरत से बाज़ रहें तो जहाँ पाओ उन्हें पकड़ लो और क़त्ल करो62 और उनमें से किसी को अपना दोस्त और मददगार न बनाओ।
62. यह हुक्म उन मुनाफ़िक़ मुसलमानों का है जो बरसरे-जंग काफ़िर क़ौम से ताल्लुक़ रखते हों और इस्लामी हुकूमत के ख़िलाफ़ मुआनिदाना कार्रवाइयों में अमलन हिस्सा लें।
إِلَّا ٱلَّذِينَ يَصِلُونَ إِلَىٰ قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٌ أَوۡ جَآءُوكُمۡ حَصِرَتۡ صُدُورُهُمۡ أَن يُقَٰتِلُوكُمۡ أَوۡ يُقَٰتِلُواْ قَوۡمَهُمۡۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَسَلَّطَهُمۡ عَلَيۡكُمۡ فَلَقَٰتَلُوكُمۡۚ فَإِنِ ٱعۡتَزَلُوكُمۡ فَلَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ وَأَلۡقَوۡاْ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَمَ فَمَا جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمۡ عَلَيۡهِمۡ سَبِيلٗا ۝ 77
(90) अलबत्ता वे मुनाफ़िक़ इस हुक्म से मुस्तसना है जो किसी ऐसी क़ौम से जा मिलें जिसके साथ तुम्हारा मुआहदा है।63 इसी तरह वे मुनाफ़िक़ भी मुस्तसना हैं जो तुम्हारे पास आते हैं और लड़ाई से दिल-बरदाश्ता हैं, न तुमसे लड़ना चाहते हैं न अपनी क़ौम से। अल्लाह चाहता तो उनको तुमपर मुसल्लत कर देता और वे भी तुमसे लड़ते। लिहाज़ा अगर वे तुमसे किनाराकश हो जाएँ और लड़ने से बाज़ रहें और तुम्हारी तरफ़ सुलह व आशती का हाथ बढ़ाएँ तो अल्लाह ने तुम्हारे लिए उनपर दस्त-दराज़ी की कोई सबील नहीं रखी है।
63. इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसे मुनाफ़िकों को दोस्त और मददगार बनाया जा सकता है, बल्कि इसका मतलब यह है कि उनको पकड़ा और मारा नहीं जा सकता क्योंकि वे ऐसी क़ौम से जा मिले हैं जिससे इस्लामी हुकूमत का मुआहदा है।
سَتَجِدُونَ ءَاخَرِينَ يُرِيدُونَ أَن يَأۡمَنُوكُمۡ وَيَأۡمَنُواْ قَوۡمَهُمۡ كُلَّ مَا رُدُّوٓاْ إِلَى ٱلۡفِتۡنَةِ أُرۡكِسُواْ فِيهَاۚ فَإِن لَّمۡ يَعۡتَزِلُوكُمۡ وَيُلۡقُوٓاْ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَمَ وَيَكُفُّوٓاْ أَيۡدِيَهُمۡ فَخُذُوهُمۡ وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ ثَقِفۡتُمُوهُمۡۚ وَأُوْلَٰٓئِكُمۡ جَعَلۡنَا لَكُمۡ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينٗا ۝ 78
(91) एक और क़िस्म के मुनाफ़िक़ तुम्हें ऐसे मिलेंगे जो चाहते हैं कि तुमसे भी अम्न में रहें और अपनी क़ौम से भी, मगर जब कभी फ़ितने का मौक़ा पाएँगे, उसमें कूद पड़ेंगे। ऐसे लोग अगर तुम्हारे मुक़ाबले से बाज़ न रहें और सुलह व सलामती तुम्हारे आगे पेश न करें और अपने हाथ न रोकें तो जहाँ वे मिलें उन्हें पकड़ो और मारो, उनपर हाथ उठाने के लिए हमने तुम्हें खुली हुज्जत दे दी है।
وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٍ أَن يَقۡتُلَ مُؤۡمِنًا إِلَّا خَطَـٔٗاۚ وَمَن قَتَلَ مُؤۡمِنًا خَطَـٔٗا فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖ وَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَصَّدَّقُواْۚ فَإِن كَانَ مِن قَوۡمٍ عَدُوّٖ لَّكُمۡ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ وَإِن كَانَ مِن قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞ فَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ وَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ شَهۡرَيۡنِ مُتَتَابِعَيۡنِ تَوۡبَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 79
(92) किसी मोमिन का यह काम नहीं है कि दूसरे मोमिन को क़त्ल करे, इल्ला यह कि उससे चूक हो जाए। और जो शख़्स किसी मोमिन को गलती से क़त्ल कर दे तो उसका कफ़्फ़ारा यह है कि एक मोमिन को ग़ुलामी से आज़ाद करे64 और मक़तूल के वारिसों को ख़ूँबहा65 दे, इल्ला यह कि वे ख़ूँबहा माफ़ कर दें। लेकिन अगर वह मुसलमान मक़तूल किसी ऐसी क़ौम से था जिससे तुम्हारी दुश्मनी हो तो उसका कफ़्फ़ारा एक मोमिन ग़ुलाम आज़ाद करना है और अगर वह किसी ऐसी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम का फ़र्द था जिससे तुम्हारा मुआहदा हो तो उसके वारिसों को ख़ूँबहा दिया जाएगा और एक मोमिन ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा।66 फिर जो ग़ुलाम न पाए वह पै-दर-पै दो महीने के रोज़े रखे।67 यह इस गुनाह पर अल्लाह से तौबा करने का तरीक़ा है68, और अल्लाह अलीम व दाना है।
64 चूँकि मक़तूल मोमिन था इसलिए उसके क़त्ल का कफ़्फ़ारा एक मोमिन ग़ुलाम की आज़ादी क़रार दिया गया है।
65. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ख़ूँबहा की मिक़दार सौ ऊँट, या दो सौ गायें, या दो हज़ार बकरियाँ मुक़र्रर फ़रमाई है। अगर दूसरी किसी शक्ल में कोई शख़्स ख़ूँबहा देना चाहे तो उसकी मिक़दार इन्हीं चीज़ों की बाज़ारी क़ीमत के लिहाज़ से मुअय्यन की जाएगी। मसलन नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में नक़द ख़ूँबहा देनेवालों के लिए 8 सौ दीनार या 8 हज़ार दिरहम मुक़र्रर थे। जब हज़रत उमर (रज़ि०) का ज़माना आया तो उन्होंने फ़रमाया कि ऊँटों की क़ीमत अब चढ़ गई है, लिहाज़ा अब सोने के सिक्के में एक हज़ार दीनार, या चाँदी के सिक्के में 12 हज़ार दिरहम ख़ूँबहा दिलवाया जाएगा। मगर वाज़ेह रहे कि ख़ूँबहा की यह मिक़दार जो मुक़र्रर की गई है क़त्ले-अम्द की सूरत के लिए नहीं है, बल्कि क़त्ले-ख़ता की सूरत के लिए है।
66. इस आयत के अहकाम का खुलासा यह है— अगर मक़तूल दारुल-इस्लाम का बाशिन्दा हो तो उसके क़ातिल को ख़ूँबहा भी देना होगा और ख़ुदा से अपने क़ुसूर की माफ़ी माँगने के लिए एक ग़ुलाम भी आज़ाद करना होगा। अगर वह दारुल-हरब का बाशिन्दा हो तो क़ातिल को सिर्फ़ ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। उसका ख़ूँबहा कुछ नहीं है। अगर वह किसी ऐसे दारुल-कुफ़्र का बाशिन्दा हो जिससे इस्लामी हुकूमत का मुआहदा है तो क़ातिल को एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा और इसके अलावा ख़ूँबहा भी देना होगा। लेकिन ख़ूँबहा की मिक़दार वही होगी जितनी उस मुआहदे-क़ौम के किसी ग़ैर-मुस्लिम फ़र्द को क़त्ल कर देने की सूरत में अज़ रू-ए-मुआहदा दी जानी चाहिए।
67. यानी रोज़े मुसलसल रखे जाएँ, बीच में नाग़ा न हो। अगर कोई शख़्स उज़्रे-शरई के बग़ैर एक रोज़ा भी बीच में छोड़ दे तो अज़ सरे-नौ रोज़ों का सिलसिला शुरू करना पड़ेगा।
68. यानी यह 'जुर्माना' नहीं बल्कि 'तौबा' और 'कफ़्फ़ारा' है। जुर्माने में नदामत और शर्मसारी और इस्लाहे-नफ़्स की कोई रूह नहीं होती बल्कि उमूमन वह सख़्त नागवारी के साथ मजबूरन दिया जाता है और बेज़ारी व तल्ख़ी अपने पीछे छोड़ जाता है। बरअक्स इसके अल्लाह तआला चाहता है कि जिस बन्दे से ख़ता हुई है वह इबादत और कारे-ख़ैर और अदा-ए-हुक़ूक़ के ज़रिए से उसका असर अपनी रूह पर से धो दे और शर्मसारी व नदामत के साथ अल्लाह की तरफ़ रुजूअ करे, ताकि न सिर्फ़ यह गुनाह माफ़ हो, बल्कि आइन्दा के लिए उसका नफ़्स ऐसी ग़लतियों के इआदे से भी महफ़ूज़ रहे।
وَمَن يَقۡتُلۡ مُؤۡمِنٗا مُّتَعَمِّدٗا فَجَزَآؤُهُۥ جَهَنَّمُ خَٰلِدٗا فِيهَا وَغَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ وَلَعَنَهُۥ وَأَعَدَّ لَهُۥ عَذَابًا عَظِيمٗا ۝ 80
(93) रहा वह शख़्स जो किसी मोमिन को जान-बूझकर क़त्ल करे तो उसकी सज़ा जहन्नम है जिसमें वह हमेशा रहेगा। उसपर अल्लाह का ग़ज़ब और उसकी लानत है, और अल्लाह ने उसके लिए सख़्त अज़ाब मुहैया कर रखा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَتَبَيَّنُواْ وَلَا تَقُولُواْ لِمَنۡ أَلۡقَىٰٓ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَٰمَ لَسۡتَ مُؤۡمِنٗا تَبۡتَغُونَ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ مَغَانِمُ كَثِيرَةٞۚ كَذَٰلِكَ كُنتُم مِّن قَبۡلُ فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ فَتَبَيَّنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 81
(94) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब तुम अल्लाह की राह में जिहाद के लिए निकलो तो दोस्त- दुश्मन में तमीज़ करो और जो तुम्हारी तरफ़ सलाम से तक़दीम करे उसे फ़ौरन न कह दो कि तू मोमिन नहीं है। अगर तुम दुनियवी फ़ायदा चाहते हो तो अल्लाह के पास तुम्हारे लिए बहुत-से अमवाले-ग़नीमत हैं। आख़िर इसी हालत में तुम ख़ुद भी तो इससे पहले मुब्तला रह चुके हो, फिर अल्लाह ने तुमपर एहसान किया, लिहाज़ा तहक़ीक़ से काम लो,69 जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है।
69. इबतिदा-ए-इस्लाम में 'अस्सलामु अलैकुम' का लफ़्ज़ मुसलमानों के लिए शिआर व अलामत की हैसियत रखता था और एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को देखकर यह लफ़्ज़ इस मानी में इस्तेमाल करता था कि मैं तुम्हारे ही गरोह का आदमी हूँ, दोस्त और ख़ैरख़ाह हूँ, दुश्मन नहीं हूँ। ख़ुसूसियत के साथ उस ज़माने में इस शिआर की अहमियत इस वजह से और भी ज़्यादा थी कि उस वक़्त अरब के नव-मुस्लिमों और काफ़िरों के दरमियान लिबास, ज़बान और किसी दूसरी चीज़ में कोई नुमायाँ इमतियाज़ न था जिसकी वजह से एक मुसलमान सरसरी नज़र में दूसरे मुसलमान को पहचान सकता हो। लेकिन लड़ाइयों के मौक़े पर एक पेचीदगी यह पेश आती थी कि मुसलमान जब किसी दुश्मन गरोह पर हमला करते और वहाँ कोई मुसलमान इस लपेट में आ जाता तो वह हमलाआवर मुसलमानों को यह बताने के लिए कि वह भी उनका दीनी भाई है 'अस्सलामु अलैकुम' या 'ला इला-ह इल्लल्लाह' पुकारता था, मगर मुसलमानों को उसपर यह शुब्ह होता था कि यह कोई काफ़िर है जो मह्ज़ जान बचाने के लिए हीला कर रहा है, इसलिए बसा-औक़ात वे उसे क़त्ल कर बैठते थे। आयत का मंशा यह है कि जो शख़्स अपने-आपको मुसलमान की हैसियत से पेश कर रहा है उसके मुताल्लिक़ तुम्हें सरसरी तौर पर यह फ़ैसला कर देने का हक़ नहीं है कि वह मह्ज़ जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा है। हो सकता है कि वह सच्चा हो और हो सकता है कि झूठा हो। हक़ीक़त तो तहक़ीक़ ही से मालूम हो सकती है। तहक़ीक़ के बग़ैर छोड़ देने में अगर यह इमकान है कि एक काफ़िर झूठ बोलकर जान बचा ले जाए, तो क़त्ल कर देने में इसका इमकान भी है कि एक मोमिन बेगुनाह तुम्हारे हाथ से मारा जाए।
لَّا يَسۡتَوِي ٱلۡقَٰعِدُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ غَيۡرُ أُوْلِي ٱلضَّرَرِ وَٱلۡمُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۚ فَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ عَلَى ٱلۡقَٰعِدِينَ دَرَجَةٗۚ وَكُلّٗا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَفَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ عَلَى ٱلۡقَٰعِدِينَ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 82
(95) मुसलमानों में से वे लोग जो किसी माज़ूरी के बग़ैर घर बैठे रहते हैं और वे जो अल्लाह की राह में जान व माल से जिहाद करते है, दोनों की हैसियत यकसाँ नहीं है। अल्लाह ने बैठनेवालों की बनिस्बत जान व माल से जिहाद करनेवालों का दर्जा बड़ा रखा है। अगरचे हर एक के लिए अल्लाह ने भलाई ही का वादा फ़रमाया है, मगर उसके यहाँ मुजाहिदों की ख़िदमात का मुआवज़ा बैठनेवालों से बहुत ज़्यादा है,
دَرَجَٰتٖ مِّنۡهُ وَمَغۡفِرَةٗ وَرَحۡمَةٗۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمًا ۝ 83
(96) उनके लिए अल्लाह की तरफ़ से बड़े दर्जे हैं और मग़फ़िरत और रहमत है, और अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَفَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِيٓ أَنفُسِهِمۡ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمۡۖ قَالُواْ كُنَّا مُسۡتَضۡعَفِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ قَالُوٓاْ أَلَمۡ تَكُنۡ أَرۡضُ ٱللَّهِ وَٰسِعَةٗ فَتُهَاجِرُواْ فِيهَاۚ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا ۝ 84
(97) जो लोग अपने नफ़्स पर ज़ुल्म कर रहे थे70 उनकी रूहें जब फ़रिश्तों ने क़ब्ज़ कीं तो उनसे पूछा कि यह तुम किस हाल में मुब्तला थे? उन्होंने जवाब दिया कि हम ज़मीन में कमज़ोर और मजबूर थे। फ़रिश्तों ने कहा, “क्या ख़ुदा की ज़मीन वसीअ न थी कि तुम उसमें हिजरत करते?” ये वे लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है, और वह बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
70. मुराद वे लोग हैं जो इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी बिला किसी मजबूरी व माज़ूरी के अपनी काफ़िर क़ौम ही के दरमियान मुक़ीम थे और नीम मुसलिमाना और नीम काफ़िराना ज़िन्दगी बसर करने पर राज़ी थे, दरआँ-हाले कि एक दारुल-इस्लाम मुहैया हो चुका था जिसकी तरफ़ हिजरत करके अपने दीन व एतिक़ाद के मुताबिक़ पूरी इस्लामी ज़िन्दगी बसर करना उनके लिए मुमकिन हो गया था और दारुल-इस्लाम की तरफ़ से उनको यह दावत भी दी जा चुकी थी कि अपने ईमान को बचाने के लिए वे उसकी तरफ़ हिजरत कर आएँ।
إِلَّا ٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلرِّجَالِ وَٱلنِّسَآءِ وَٱلۡوِلۡدَٰنِ لَا يَسۡتَطِيعُونَ حِيلَةٗ وَلَا يَهۡتَدُونَ سَبِيلٗا ۝ 85
(98) हाँ जो मर्द, औरतें और बच्चे वाक़ई बेबस हैं और निकलने का कोई रास्ता और ज़रिआ नहीं पाते,
فَأُوْلَٰٓئِكَ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَعۡفُوَ عَنۡهُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَفُوًّا غَفُورٗا ۝ 86
(99) बईद नहीं कि अल्लाह उन्हें माफ़ कर दे। अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और दरगुज़र फ़रमानेवाला है।
۞وَمَن يُهَاجِرۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ يَجِدۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُرَٰغَمٗا كَثِيرٗا وَسَعَةٗۚ وَمَن يَخۡرُجۡ مِنۢ بَيۡتِهِۦ مُهَاجِرًا إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ ثُمَّ يُدۡرِكۡهُ ٱلۡمَوۡتُ فَقَدۡ وَقَعَ أَجۡرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 87
(100) जो कोई अल्लाह की राह में हिजरत करेगा वह ज़मीन में पनाह लेने के लिए बहुत जगह और बसर औक़ात के लिए बड़ी गुंजाइश पाएगा, और जो अपने घर से अल्लाह और रसूल की तरफ़ हिजरत के लिए निकले, फिर रास्ते ही में उसे मौत आ जाए तो उसका अज्र अल्लाह के ज़िम्मे वाजिब हो गया, अल्लाह बहुत बख़शिश फ़रमानेवाला और रहीम है।71
71. 71. यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिए कि जो शख़्स अल्लाह के दीन पर ईमान लाया हो उसके लिए निज़ामे-कुफ़्र के तहत ज़िन्दगी बसर करना सिर्फ़ दो ही सूरतों में जाइज़ हो सकता है। एक यह कि वह इस्लाम को उस सरज़मीन में ग़ालिब करने और निज़ामे-कुफ़्र को निज़ामे-इस्लाम में तबदील करने की जिद्दो-जुहद करता रहे जिस तरह अम्बिया (अलैहि०) और उनके इबतिदाई पैरौ करते रहे हैं। दूसरे यह कि वह दर-हक़ीक़त वहाँ से निकलने की कोई राह न पाता हो और सख़्त नफ़रत व बेज़ारी के साथ वहाँ मजबूराना क़ियाम रखता हो।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ شِقَاقَ بَيۡنِهِمَا فَٱبۡعَثُواْ حَكَمٗا مِّنۡ أَهۡلِهِۦ وَحَكَمٗا مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن يُرِيدَآ إِصۡلَٰحٗا يُوَفِّقِ ٱللَّهُ بَيۡنَهُمَآۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا خَبِيرٗا ۝ 88
(35) और अगर तुम लोगों को कहीं मियाँ और बीवी के ताल्लुक़ात बिगड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम मर्द के रिश्तेदारों में से और एक औरत के रिश्तेदारों में से मुक़र्रर करो, वे दोनों37 इस्लाह करना चाहेंगे तो अल्लाह उनके दरमियान मुवाफ़क़त की सूरत निकाल देगा, अल्लाह सब कुछ जानता है और बाख़बर है।
37. 'दोनों' से मुराद सालिस भी हैं और ज़ौजैन भी। हर झगड़े में सुलह होने का इमकान है बशर्ते कि फ़रीक़ैन भी सुलहपसन्द हों और बीचवाले भी चाहते हों कि फ़रीक़ैन में किसी तरह सुलह-सफ़ाई हो जाए।
۞وَٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗا وَبِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡجَارِ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡجَارِ ٱلۡجُنُبِ وَٱلصَّاحِبِ بِٱلۡجَنۢبِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ مُخۡتَالٗا فَخُورًا ۝ 89
(36) और तुम सब अल्लाह की बन्दगी करो, उसके साथ किसी को शरीक न बनाओ, माँ-बाप के साथ नेक बरताव करो, क़राबतदारों और यतीमों और मिसकीनों के साथ हुस्ने-सुलूक से पेश आओ, और पड़ोसी रिश्तेदार से, अजनबी हमसाए से, पहलू के साथी38 और मुसाफ़िर से, और उन लौंडी, गुलामों से, जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों, एहसान का मामला रखो, यक़ीन जानो अल्लाह किसी ऐसे शख़्स को पसन्द नहीं करता जो अपने पिन्दार में मग़रूर हो और अपनी बड़ाई पर फ़ख्र करे।
38. इससे मुराद हमनशीन दोस्त भी है और ऐसा शख़्स भी जिससे कहीं किसी वक़्त आदमी का साथ हो जाए। मसलन आप बाज़ार में जा रहे हों और कोई शख़्स आपके साथ रास्ता चल रहा हो, या किसी दुकान पर आप सौदा ख़रीद रहे हों और कोई दूसरा ख़रीदार भी आपके पास बैठा हो, या सफ़र के दौरान में कोई शख़्स आपका हम-सफ़र हो। यह आरज़ी हमसायगी भी हर मुहज़्ज़ब और शरीफ़ इनसान पर एक हक़ आयद करती है जिसका तक़ाज़ा यह है कि वह हत्तल-इमकान उसके साथ नेक बरताव करे और उसे तकलीफ़ देने से मुज्तनिब रहे।
ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ وَيَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبُخۡلِ وَيَكۡتُمُونَ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 90
(37) और ऐसे लोग भी अल्लाह को पसन्द नहीं हैं जो कंजूसी करते हैं और दूसरों को भी कंजूसी की हिदायत करते हैं। और जो कुछ अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल से उन्हें दिया है उसे छिपाते हैं। ऐसे काफ़िरे-नेमत लोगों के लिए हमने रुसवाकुन अज़ाब मुहैया कर रखा है।
وَٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ رِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَلَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَلَا بِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۗ وَمَن يَكُنِ ٱلشَّيۡطَٰنُ لَهُۥ قَرِينٗا فَسَآءَ قَرِينٗا ۝ 91
(38) और वे लोग भी अल्लाह को नापसन्द है जो अपने माल मह्ज़ लोगों को दिखाने के लिए ख़र्च करते हैं और दर-हक़ीक़त न अल्लाह पर ईमान रखते हैं, न रोज़े-आख़िर पर। सच यह है कि शैतान जिसका रफ़ीक़ हआ उसे बहुत ही बुरी रिफ़ाक़त मुयस्सर आई।
وَمَاذَا عَلَيۡهِمۡ لَوۡ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَأَنفَقُواْ مِمَّا رَزَقَهُمُ ٱللَّهُۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِهِمۡ عَلِيمًا ۝ 92
(39) आख़िर इन लोगों पर क्या आफ़त आ जाती अगर ये अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान रखते और जो कुछ अल्लाह ने दिया है उसमें से ख़र्च करते! अगर ये ऐसा करते तो अल्लाह से उनकी नेकी का हाल छिपा न रह जाता।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَظۡلِمُ مِثۡقَالَ ذَرَّةٖۖ وَإِن تَكُ حَسَنَةٗ يُضَٰعِفۡهَا وَيُؤۡتِ مِن لَّدُنۡهُ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 93
(40) अल्लाह किसी पर ज़र्रा बराबर भी ज़ुल्म नहीं करता। अगर कोई एक नेकी करे तो अल्लाह उसे दोचंद करता है और फिर अपनी तरफ़ से बड़ा अज्र अता फ़रमाता है।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمۡ أُمَّهَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُمۡ وَعَمَّٰتُكُمۡ وَخَٰلَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُ ٱلۡأَخِ وَبَنَاتُ ٱلۡأُخۡتِ وَأُمَّهَٰتُكُمُ ٱلَّٰتِيٓ أَرۡضَعۡنَكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُم مِّنَ ٱلرَّضَٰعَةِ وَأُمَّهَٰتُ نِسَآئِكُمۡ وَرَبَٰٓئِبُكُمُ ٱلَّٰتِي فِي حُجُورِكُم مِّن نِّسَآئِكُمُ ٱلَّٰتِي دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَإِن لَّمۡ تَكُونُواْ دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ وَحَلَٰٓئِلُ أَبۡنَآئِكُمُ ٱلَّذِينَ مِنۡ أَصۡلَٰبِكُمۡ وَأَن تَجۡمَعُواْ بَيۡنَ ٱلۡأُخۡتَيۡنِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 94
(23) तुमपर हराम की गईं तुम्हारी माएँ, बेटियाँ, बहनें, फूफियाँ, ख़ालाएँ, भतीजियाँ, भाँजियाँ और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुमको दूध पिलाया हो, और तुम्हारी दूध-शरीक बहनें12, और तुम्हारी बीवियों की लड़कियाँ जिन्होंने तुम्हारी गोदों में परवरिश पाई हैं।26 —उन बीवियों की लड़कियाँ जिनसे तुम्हारा ताल्लुक़े-ज़न व शौ हो चुका हो। वरना अगर (सिर्फ़ निकाह हुआ हो और) ताल्लुक़े-ज़न व शौ हुआ हो तो (उन्हें छोड़कर उनकी लड़कियों से निकाह कर लेने में) तुमपर कोई मुवाख़ज़ा नहीं है। — और तुम्हारे उन बेटों की बीवियाँ जो तुम्हारे सुल्ब से हों।27” और यह भी तुमपर हराम किया गया है कि एक निकाह में दो बहनों को जमा करो,28 मगर जो पहले हो गया सो हो गया, अल्लाह बख़्शनेवाला और रह्म करनेवाला है।29
21. माँ का इतलाक़ सगी और सौतेली दोनों क़िस्म की माँओं पर होता है, इसलिए दोनों हराम हैं। नीज़ इसी हुक्म में बाप की माँ और माँ की माँ भी शामिल हैं।
22. बेटी के हुक्म में पोती और नवासी भी शामिल हैं।
23. सगी बहन और माँ-शरीक बहन और बाप-शरीक बहन तीनों इस हुक्म में यकसाँ हैं।
24. इन सब रिश्तों में भी सगे और सौतेले के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है।
25. इस अम्र पर उम्मत में इत्तिफ़ाक़ है कि एक लड़के या लड़की ने जिस औरत का दूध पिया हो उसके लिए वह औरत माँ के हुक्म में और उसका शौहर बाप के हुक्म में है, और तमाम वे रिश्ते जो हक़ीक़ी माँ और बाप के ताल्लुक़ से हराम होते हैं, रज़ाई माँ और बाप के ताल्लुक़ से भी हराम हो जाते हैं। उस बच्चे के लिए रज़ाई माँ का सिर्फ़ वही बच्चा हराम नहीं है जिसके साथ उसने दूध पिलाया हो, बल्कि उसकी सारी औलाद उसके सगे भाई-बहनों की तरह हैं और उनके बच्चे उसके लिए सगे भाँजों-भतीजों की तरह हैं।
26. ऐसी लड़की का हराम होना इस शर्त पर मौकूफ़ नहीं है कि उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो। फ़ुक़हाए-उम्मत का इस बात पर तक़रीबन इजमाअ है कि सौतेली बेटी आदमी पर बहरहाल हराम है, ख़ाह उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो या न पाई हो।
27. बेटे ही की तरह पोते और नवासे की बीवी भी दादा और नाना पर हराम है।
28. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हिदायत है कि ख़ाला और भाँजी और फूफी और भतीजी को भी एक साथ निकाह में रखना हराम है। इस मामले में यह उसूल समझ लेना चाहिए कि ऐसी दो औरतों को जमा करना बहरहाल हराम है जिनमें से कोई एक अगर मर्द होती तो उसका निकाह दूसरी से हराम होता।
29. यानी इसपर बाज़पुर्स न होगी मगर जिस शख़्स ने हालते-कुफ़्र में दो बहनों को निकाह में जमा कर रखा हो उसे इस्लाम लाने के बाद एक को रखना और एक को छोड़ना होगा।
فَكَيۡفَ إِذَا جِئۡنَا مِن كُلِّ أُمَّةِۭ بِشَهِيدٖ وَجِئۡنَا بِكَ عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِ شَهِيدٗا ۝ 95
(41) फिर सोचो कि उस वक़्त ये क्या करेंगे जब हम हर उम्मत में से एक गवाह लाएँगे और इन लोगों पर तुम्हें (यानी मुहम्मद सल्ल० को) गवाह की हैसियत से खड़ा करेंगे।
يَوۡمَئِذٖ يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَعَصَوُاْ ٱلرَّسُولَ لَوۡ تُسَوَّىٰ بِهِمُ ٱلۡأَرۡضُ وَلَا يَكۡتُمُونَ ٱللَّهَ حَدِيثٗا ۝ 96
(42) उस वक़्त वे सब लोग जिन्होंने रसूल की बात न मानी और उसकी नाफ़रमानी करते रहे, तमन्ना करेंगे कि काश ज़मीन फट जाए और वे उसमें समा जाएँ। वहाँ ये अपनी कोई बात अल्लाह से न छिपा सकेंगे।
۞وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۖ كِتَٰبَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡۚ وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَآءَ ذَٰلِكُمۡ أَن تَبۡتَغُواْ بِأَمۡوَٰلِكُم مُّحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَۚ فَمَا ٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهِۦ مِنۡهُنَّ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا تَرَٰضَيۡتُم بِهِۦ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡفَرِيضَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 97
(24) और वे औरतें भी तुमपर हराम हैं जो किसी दूसरे के निकाह में हों (मुहसनात), अलबत्ता ऐसी औरतें इससे मुस्तसना हैं जो (जंग में ) तुम्हारे हाथ आएँ।30 “यह अल्लाह का क़ानून है जिसकी पाबन्दी तुमपर लाज़िम कर दी गई है। इनके मासिवा जितनी औरतें हैं उन्हें अपने अमवाल के ज़रिए हासिल करना तुम्हारे लिए हलाल कर दिया गया है, बशर्ते कि हिसारे-निकाह में उनको महफ़ूज़ करो, न यह कि आज़ाद शहवतरानी करने लगो। फिर जो इज़दिवाजी ज़िन्दगी का लुत्फ़ तुम उनसे उठाओ उसके बदले उनके मह्‍र बतौर फ़र्ज़ के अदा करो, अलबत्ता मह्‍र की क़रारदाद हो जाने के बाद आपस की रज़ामन्दी से तुम्हारे दरमियान अगर कोई समझौता हो जाए तो उसमें कोई हरज नहीं, अल्लाह अलीम और दाना है।
30. यानी जो औरतें जंग में पकड़ी हुई आएँ और उनके काफ़िर शौहर दारुल-हर्ब में मौजूद हों वे हराम नहीं हैं, क्योंकि दारुल-हर्ब से दारुल-इस्लाम में आने के बाद उनके निकाह टूट गए।
وَإِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَقۡصُرُواْ مِنَ ٱلصَّلَوٰةِ إِنۡ خِفۡتُمۡ أَن يَفۡتِنَكُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْۚ إِنَّ ٱلۡكَٰفِرِينَ كَانُواْ لَكُمۡ عَدُوّٗا مُّبِينٗا ۝ 98
(101) और जब तुम लोग सफ़र के लिए निकलो तो कोई मुज़ायक़ा नहीं अगर नमाज़ में इख़्तिसार कर दो72 (ख़ुसूसन) जबकि तुम्हें अंदेशा हो कि काफ़िर तुम्हें सताएँगे क्योंकि वे खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी दुश्मनी पर तुले हुए हैं।
72. ज़मानए-अम्न के सफ़र में क़स्र यह है कि जिन औक़ात की नमाज़ में चार रकअतें फ़र्ज़ हैं उनमें दो रकअतें पढ़ी जाएँ। और हालते-जंग में क़स्र के लिए कोई हद मुक़र्रर नहीं है। जंगी हालात जिस तरह भी इजाज़त दें, नमाज़ पढ़ी जाए।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكَ وَرَحۡمَتُهُۥ لَهَمَّت طَّآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ أَن يُضِلُّوكَ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡۖ وَمَا يَضُرُّونَكَ مِن شَيۡءٖۚ وَأَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمۡ تَكُن تَعۡلَمُۚ وَكَانَ فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكَ عَظِيمٗا ۝ 99
(113) (ऐ नबी!) अगर अल्लाह का फ़ज़्ल तुमपर न होता और उसकी रहमत तुम्हारे शामिले-हाल न होती तो इनमें से एक गरोह ने तुम्हें ग़लतफ़हमी में मुब्तला करने का फ़ैसला कर ही लिया था, हलाँकि दरहक़ीक़त वे ख़ुद अपने सिवा किसी को ग़लतफ़हमी में मुब्तला नहीं कर रहे थे और तुम्हारा कोई नुक़सान न कर सकते थे।75 अल्लाह ने तुमपर किताब और हिकमत नाज़िल की है और तुमको वह कुछ बताया है जो तुम्हें मालूम न था, और उसका फ़ज़्ल तुमपर बहुत है।
75. यानी अगर वे ग़लत रूदाद और शहादतें पेश करके तुम्हें ग़लतफ़हमी में मुब्तला करने में कामयाब हो भी जाते और अपने हक़ में इनसाफ़ के ख़िलाफ़ फ़ैसला हासिल कर लेते तो नुक़सान उन्हीं का था, तुम्हारा कुछ भी न बिगड़ता। क्योंकि अल्लाह के नज़दीक मुजरिम वे होते न कि तुम। जो शख़्स हाकिम को धोखा देकर अपने हक़ में ग़लत फ़ैसला हासिल करता है वह दरअस्ल ख़ुद अपने-आपको इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला करता है कि इन तदबीरों से हक़ उसके साथ हो गया, हलाँकि फ़िल-वाक़े अल्लाह के नज़दीक हक़ जिसका है उसी का रहता है और हाकिमे-अदालत की किसी ग़लतफ़हमी की बिना पर फ़ैसला कर देने से हक़ीक़त पर कोई असर नहीं पड़ता।
وَإِذَا كُنتَ فِيهِمۡ فَأَقَمۡتَ لَهُمُ ٱلصَّلَوٰةَ فَلۡتَقُمۡ طَآئِفَةٞ مِّنۡهُم مَّعَكَ وَلۡيَأۡخُذُوٓاْ أَسۡلِحَتَهُمۡۖ فَإِذَا سَجَدُواْ فَلۡيَكُونُواْ مِن وَرَآئِكُمۡ وَلۡتَأۡتِ طَآئِفَةٌ أُخۡرَىٰ لَمۡ يُصَلُّواْ فَلۡيُصَلُّواْ مَعَكَ وَلۡيَأۡخُذُواْ حِذۡرَهُمۡ وَأَسۡلِحَتَهُمۡۗ وَدَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ تَغۡفُلُونَ عَنۡ أَسۡلِحَتِكُمۡ وَأَمۡتِعَتِكُمۡ فَيَمِيلُونَ عَلَيۡكُم مَّيۡلَةٗ وَٰحِدَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِن كَانَ بِكُمۡ أَذٗى مِّن مَّطَرٍ أَوۡ كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَن تَضَعُوٓاْ أَسۡلِحَتَكُمۡۖ وَخُذُواْ حِذۡرَكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ أَعَدَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 100
(102) और (ऐ नबी!) जब तुम मुसलमानों के दरमियान हो और (हालाते-जंग में) उन्हें नमाज़ पढ़ाने खड़े हो तो चाहिए कि उनमें से एक गरोह तुम्हारे साथ खड़ा हो और अपने अस्लहे लिए रहे, फिर जब वह सजदा कर ले तो पीछे चला जाए और दूसरा गरोह जिसने अभी नमाज़ नहीं पढ़ी है आकर तुम्हारे साथ पढ़े और वह भी चौकन्ना रहे और अपने अस्लहे लिए रहे,73 क्योंकि कुफ्फ़ार इस ताक में हैं कि तुम अपने हथियारों और अपने सामान की तरफ़ से ज़रा ग़ाफ़िल हो तो वे तुमपर यकबारगी टूट पड़ें। अलबत्ता अगर तुम बारिश की वजह से तकलीफ़ महसूस करो या बीमार हो तो अस्लहा रख देने में मुज़ायक़ा नहीं, मगर फिर भी चौकन्ने रहो। यक़ीन रखो कि अल्लाह ने काफ़िरों के लिए रुसवाकुन अज़ाब मुहैया कर रखा है।
73. सलाते-ख़ौफ़ का यह हुक्म उस सूरत के लिए है जबकि दुश्मन के हमले का ख़तरा तो हो मगर अमलन मार्का-ए-क़िताल गर्म न हो।
۞لَّا خَيۡرَ فِي كَثِيرٖ مِّن نَّجۡوَىٰهُمۡ إِلَّا مَنۡ أَمَرَ بِصَدَقَةٍ أَوۡ مَعۡرُوفٍ أَوۡ إِصۡلَٰحِۭ بَيۡنَ ٱلنَّاسِۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِ فَسَوۡفَ نُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 101
(114) लोगों की ख़ुफ़िया सरगोशियों में अकसर व बेशतर कोई भलाई नहीं होती। हाँ, अगर कोई पोशीदा तौर पर सदक़ा व ख़ैरात की तलक़ीन करे या किसी नेक काम के लिए या लोगों के मामलात में इसलाह करने के लिए किसी से कुछ कहे तो यह अलबत्ता भली बात है, और जो कोई अल्लाह की रिज़ाजूई के लिए ऐसा करेगा उसे हम बड़ा अज्र अता करेंगे।
فَإِذَا قَضَيۡتُمُ ٱلصَّلَوٰةَ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ قِيَٰمٗا وَقُعُودٗا وَعَلَىٰ جُنُوبِكُمۡۚ فَإِذَا ٱطۡمَأۡنَنتُمۡ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَۚ إِنَّ ٱلصَّلَوٰةَ كَانَتۡ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ كِتَٰبٗا مَّوۡقُوتٗا ۝ 102
(103) फिर जब नमाज़ से फ़ारिग़ हो जाओ तो खड़े और बैठे और लेटे, हर हाल में अल्लाह को याद करते रहो। और जब इत्मीनान नसीब हो जाए तो पूरी नमाज़ पढ़ो। नमाज़ दर-हक़ीक़त ऐसा फ़र्ज़ है जो पाबन्दी-ए-वक़्त के साथ अहले-ईमान पर लाज़िम किया गया है।
وَلَا تَهِنُواْ فِي ٱبۡتِغَآءِ ٱلۡقَوۡمِۖ إِن تَكُونُواْ تَأۡلَمُونَ فَإِنَّهُمۡ يَأۡلَمُونَ كَمَا تَأۡلَمُونَۖ وَتَرۡجُونَ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا يَرۡجُونَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمًا ۝ 103
(104) इस गरोह के तआक़ुब में कमज़ोरी न दिखाओ। अगर तुम तकलीफ़ उठा रहे हो तो तुम्हारी तरह वे भी तकलीफ़ उठा रहे हैं। और तुम अल्लाह से उस चीज़ के उम्मीदवार हो जिसके वे उम्मीदवार नहीं हैं। अल्लाह सब कुछ जानता है और वह हकीम व दाना है।
وَمَن يُشَاقِقِ ٱلرَّسُولَ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُ ٱلۡهُدَىٰ وَيَتَّبِعۡ غَيۡرَ سَبِيلِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ نُوَلِّهِۦ مَا تَوَلَّىٰ وَنُصۡلِهِۦ جَهَنَّمَۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرًا ۝ 104
(115) मगर जो शख़्स रसूल की मुख़ालफ़त पर कमरबस्ता हो और अहले-ईमान की रविश के सिवा किसी और रविश पर चले, दरआँ-हाले कि उसपर राहे-रास्त वाज़ेह हो चुकी हो, तो उसको हम उसी तरफ़ चलाएँगे जिधर वह ख़ुद फिर गया और उसे जहन्नम में झोंकेंगे जो बदतरीन जाए-क़रार है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغۡفِرُ أَن يُشۡرَكَ بِهِۦ وَيَغۡفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 105
(116) अल्लाह के यहाँ बस शिर्क ही की बख़शिश नहीं है, इसके सिवा और सब कुछ माफ़ हो सकता है जिसे वह माफ़ करना चाहे। जिसने अल्लाह के साथ किसी को शरीक ठहराया, वह तो गुमराही में बहुत दूर निकल गया।
إِنَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ لِتَحۡكُمَ بَيۡنَ ٱلنَّاسِ بِمَآ أَرَىٰكَ ٱللَّهُۚ وَلَا تَكُن لِّلۡخَآئِنِينَ خَصِيمٗا ۝ 106
(105) (ऐ नबी!) हमने यह किताब हक़ के साथ तुम्हारी तरफ़ नाज़िल की है। ताकि जो राहे-रास्त अल्लाह ने तुम्हें दिखाई है उसके मुताबिक़ लोगों के दरमियान फ़ैसला करो। तुम बददियानत लोगों की तरफ़ से झगड़नेवाले न बनो,
وَٱسۡتَغۡفِرِ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 107
(106) और अल्लाह से दरगुज़र की दरखास्त करो, वह बड़ा दरगुज़र फ़रमानेवाला और रहीम है।
إِن يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦٓ إِلَّآ إِنَٰثٗا وَإِن يَدۡعُونَ إِلَّا شَيۡطَٰنٗا مَّرِيدٗا ۝ 108
(117) वे अल्लाह को छोड़कर देवियों को माबूद बनाते हैं। वे उस बाग़ी शैतान को माबूद बनाते हैं,76
76. शैतान को इस मानी में तो कोई भी माबूद नहीं बनाता कि उसके आगे मरासिमे- परस्तिश अदा करता हो और उसको उलूहियत का दरजा देता हो। अलबत्ता उसे माबूद बनाने की सूरत यह है कि आदमी अपने नफ़्स की बागें शैतान के हाथ में दे देता है और जिधर-जिधर वह चलाता है उधर चलता है। गोया कि यह उसका बन्दा है और वह इसका ख़ुदा। इससे मालूम हुआ कि बे-चूनो-चरा इताअत और अंधी पैरवी करने का नाम भी 'इबादत' है, और जो शख़्स इस तरह की इताअत करता है वह दरअस्ल उस शख़्स की इबादत बजा लाता है जिसे अल्लाह को छोड़कर उसने अपना मुताअ बनाया हो।
وَلَا تُجَٰدِلۡ عَنِ ٱلَّذِينَ يَخۡتَانُونَ أَنفُسَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ خَوَّانًا أَثِيمٗا ۝ 109
(107) जो लोग अपने नफ़्स से खियानत करते हैं74 तुम उनकी हिमायत न करो। अल्लाह को ऐसा शख़्स पसन्द नहीं है जो ख़ियानतकार और मासियत-पेशा हो।
74. जो शख़्स दूसरों के साथ ख़ियानत करता है वह दरअस्ल सबसे पहले ख़ुद अपने नफ़्स के साथ ख़ियानत करता है।
لَّعَنَهُ ٱللَّهُۘ وَقَالَ لَأَتَّخِذَنَّ مِنۡ عِبَادِكَ نَصِيبٗا مَّفۡرُوضٗا ۝ 110
(118) जिसको अल्लाह ने लानत-ज़दा किया है। (वे उस शैतान की इताअत कर रहे हैं) जिसने अल्लाह से कहा था कि “मैं तेरे बन्दों से एक मुक़र्रर हिस्सा लेकर रहूँगा,77
77. यानी उनके औक़ात में, उनकी मेहनतों और कोशिशों में, उनकी क़ुव्वतों और क़ाबिलियतों में, उनके माल और उनकी औलाद में अपना हिस्सा लगाऊँगा और उनको फ़रेब देकर ऐसा परचाऊँगा कि वे इन सारी चीज़ों का एक मुअतदबा हिस्सा मेरी राह में सर्फ़ करेंगे।
يَسۡتَخۡفُونَ مِنَ ٱلنَّاسِ وَلَا يَسۡتَخۡفُونَ مِنَ ٱللَّهِ وَهُوَ مَعَهُمۡ إِذۡ يُبَيِّتُونَ مَا لَا يَرۡضَىٰ مِنَ ٱلۡقَوۡلِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطًا ۝ 111
(108) ये लोग इनसानों से अपनी हरकात छिपा सकते हैं मगर ख़ुदा से नहीं छिपा सकते। वह तो उस वक़्त भी इनके साथ होता है जब ये रातों को छिपकर उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मश्वरे करते हैं। इनके सारे आमाल पर अल्लाह मुहीत है।
وَلَأُضِلَّنَّهُمۡ وَلَأُمَنِّيَنَّهُمۡ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُبَتِّكُنَّ ءَاذَانَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلۡقَ ٱللَّهِۚ وَمَن يَتَّخِذِ ٱلشَّيۡطَٰنَ وَلِيّٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ فَقَدۡ خَسِرَ خُسۡرَانٗا مُّبِينٗا ۝ 112
(119) मैं उन्हें बहकाऊँगा, मैं उन्हें आरज़ुओं में उलझाऊँगा, मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से जानवरों के कान फाड़ेंगे78 और मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से ख़ुदाई साख़्त में रद्दोबदल करेंगे।”79 इस शैतान को जिसने अल्लाह के बजाय अपना वली व सरपरस्त बना लिया वह सरीह नुक़सान में पड़ गया।
78. अहले-अरब की तवह्हुमात में से एक की तरफ़ इशारा है। उनके यहाँ क़ायदा था कि जब ऊँटनी पाँच या दस बच्चे जन लेती तो उसके कान फाड़कर उसे अपने देवता के नाम छोड़ देते और उससे काम लेना हराम समझते थे। इसी तरह जिस ऊँट के नुत्फ़े से दस बच्चे हो जाते तो उसे भी देवता के नाम पर पुण्य कर दिया जाता था, और कान चीरना इस बात की अलामत था कि यह पुण्य किया हुआ जानवर है।
79. ख़ुदाई साख़्त में रद्दो-बदल करने का मतलब अशया की पैदाइशी बनावट में रद्दो-बदल करना नहीं है, बल्कि दरअस्ल इस जगह जिस रद्दो-बदल को शैतानी फ़ेल करार दिया गया है वह यह है कि इनसान किसी चीज़ से वह काम ले जिसके लिए ख़ुदा ने उसे पैदा नहीं किया है, और किसी चीज़ से वह काम न ले जिसके लिए ख़ुदा ने उसे पैदा किया है। ब-अलफ़ाज़े-दीगर वे तमाम अफ़आल जो इनसान अपनी और अशया की फ़ितरत के ख़िलाफ़ करता है, और वे तमाम सूरतें जो मंशा-ए-फ़ितरत से गुरेज़ के लिए इख़्तियार करता है, इस आयत की रू से शैतान की गुमराहकुन तहरीकात का नतीजा हैं। मसलन अमले-क़ौमे-लूत, ज़ब्ते-विलादत, रहबानियत, ब्रह्मचर्य, मर्दों और औरतों को बाँझ बनाना, मर्दों को ख़ाजासरा बनाना, औरतों को उनकी उन ख़िदमात से मुनहरिफ़ करना जो फ़ितरत ने उनके सिपुर्द की हैं और उन्हें तमद्दुन के उन शोबों में घसीट लाना जिनके लिए मर्द पैदा किया गया है।
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ جَٰدَلۡتُمۡ عَنۡهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَمَن يُجَٰدِلُ ٱللَّهَ عَنۡهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَم مَّن يَكُونُ عَلَيۡهِمۡ وَكِيلٗا ۝ 113
(109) हाँ, तुम लोगों ने इन मुजरिमों की तरफ़ से दुनिया की ज़िन्दगी में तो झगड़ा कर लिया, मगर क़ियामत के रोज़ इनके लिए अल्लाह से कौन झगड़ा करेगा? आख़िर वहाँ कौन उनका वकील होगा?
يَعِدُهُمۡ وَيُمَنِّيهِمۡۖ وَمَا يَعِدُهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ إِلَّا غُرُورًا ۝ 114
(120) वह इन लोगों से वादे करता है और इन्हें उम्मीदें दिलाता है, मगर शैतान के सारे वादे बजुज़ फ़रेब के और कुछ नहीं हैं।
وَمَن يَعۡمَلۡ سُوٓءًا أَوۡ يَظۡلِمۡ نَفۡسَهُۥ ثُمَّ يَسۡتَغۡفِرِ ٱللَّهَ يَجِدِ ٱللَّهَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 115
(110) अगर कोई शख़्स बुरा फ़ेल कर गुज़रे या अपने नफ़्स पर ज़ुल्म कर जाए और इसके बाद अल्लाह से दरगुज़र की दरख़ास्त करे तो अल्लाह को दरगुज़र करनेवाला और रहीम पाएगा।
أُوْلَٰٓئِكَ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُ وَلَا يَجِدُونَ عَنۡهَا مَحِيصٗا ۝ 116
(121) इन लोगों का ठिकाना जहन्नम है जिससे ख़लासी की कोई सूरत ये न पाएँगे।
وَمَن يَكۡسِبۡ إِثۡمٗا فَإِنَّمَا يَكۡسِبُهُۥ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 117
(111 ) मगर जो बुराई कमा ले तो उसकी यह कमाई उसी के लिए वबाल होगी, अल्लाह को सब बातों की ख़बर है और वह हकीम व दाना है।
وَمَن يَكۡسِبۡ خَطِيٓـَٔةً أَوۡ إِثۡمٗا ثُمَّ يَرۡمِ بِهِۦ بَرِيٓـٔٗا فَقَدِ ٱحۡتَمَلَ بُهۡتَٰنٗا وَإِثۡمٗا مُّبِينٗا ۝ 118
(112) फिर जिसने कोई ख़ता या गुनाह करके उसका इलज़ाम किसी बेगुनाह पर थोप दिया, उसने तो बड़े बुहतान और सरीह गुनाह का बार समेट लिया।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَنُدۡخِلُهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٗاۚ وَمَنۡ أَصۡدَقُ مِنَ ٱللَّهِ قِيلٗا ۝ 119
(122) रहे वे लोग जो ईमान ले आएँ और नेक अमल करें, तो उन्हें हम ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, वे वहाँ हमेशा-हमेशा रहेंगे। यह अल्लाह का सच्चा वादा है, और अल्लाह से बढ़कर कौन अपनी बात में सच्चा होगा।
لَّيۡسَ بِأَمَانِيِّكُمۡ وَلَآ أَمَانِيِّ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِۗ مَن يَعۡمَلۡ سُوٓءٗا يُجۡزَ بِهِۦ وَلَا يَجِدۡ لَهُۥ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 120
(123) अंजामे-कार न तुम्हारी आरज़ुओं पर मौक़ूफ़ है न अहले-किताब की आरज़ुओं पर। जो भी बुराई करेगा, उसका फल पाएगा और अल्लाह के मुक़ाबले में अपने लिए कोई हामी व मददगार न पा सकेगा।
وَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ وَلَا يُظۡلَمُونَ نَقِيرٗا ۝ 121
(124) और जो नेक अमल करेगा, ख़ाह मर्द हो या औरत, बशर्ते कि हो वह मोमिन, तो ऐसे ही लोग जन्नत में दाख़िल होंगे और उनकी ज़र्रा बराबर हक़-तलफ़ी न होने पाएगी।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَلَقَدۡ وَصَّيۡنَا ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَإِيَّاكُمۡ أَنِ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ وَإِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَنِيًّا حَمِيدٗا ۝ 122
(131) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब अल्लाह ही का है। तुमसे पहले जिनको हमने किताब दी थी उन्हें भी यही हिदायत की थी और अब तुमको भी यही हिदायत करते हैं कि ख़ुदा से डरते हुए काम करो। लेकिन अगर तुम नहीं मानते तो न मानो, आसमान व ज़मीन की सारी चीज़ों का मालिक अल्लाह ही है और वह बेनियाज़ है, हर तारीफ़ का मुस्तहिक़।
وَمَنۡ أَحۡسَنُ دِينٗا مِّمَّنۡ أَسۡلَمَ وَجۡهَهُۥ لِلَّهِ وَهُوَ مُحۡسِنٞ وَٱتَّبَعَ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۗ وَٱتَّخَذَ ٱللَّهُ إِبۡرَٰهِيمَ خَلِيلٗا ۝ 123
(125) उस शख़्स से बेहतर और किसका तरीक़े-ज़िन्दगी हो सकता है, जिसने अल्लाह के आगे सरे-तसलीम ख़म कर दिया और अपना रवैया नेक रखा और यकसू होकर इबराहीम के तरीक़े की पैरवी की, उस इबराहीम के तरीक़े की जिसे अल्लाह ने अपना दोस्त बना लिया था।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلًا ۝ 124
(132) हाँ, अल्लाह ही मालिक है उन सब चीज़ों का जो आसमानों में हैं और जो ज़मीन में हैं, और कारसाज़ी के लिए बस वही काफ़ी है।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٖ مُّحِيطٗا ۝ 125
(126) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह का है और अल्लाह हर चीज़ पर मुहीत है।
إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ أَيُّهَا ٱلنَّاسُ وَيَأۡتِ بِـَٔاخَرِينَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ ذَٰلِكَ قَدِيرٗا ۝ 126
(133) अगर वह चाहे तो तुम लोगों को हटाकर तुम्हारी जगह दूसरों को ले आए, और वह इसकी पूरी क़ुदरत रखता है।
وَيَسۡتَفۡتُونَكَ فِي ٱلنِّسَآءِۖ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِيهِنَّ وَمَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ فِي يَتَٰمَى ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا تُؤۡتُونَهُنَّ مَا كُتِبَ لَهُنَّ وَتَرۡغَبُونَ أَن تَنكِحُوهُنَّ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلۡوِلۡدَٰنِ وَأَن تَقُومُواْ لِلۡيَتَٰمَىٰ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِهِۦ عَلِيمٗا ۝ 127
(127) लोग तुमसे औरतों के बारे में फ़तवा पूछते हैं।80 कहो, “अल्लाह तुम्हें उनके मामले में फ़तवा देता है, और साथ ही वे अहकाम भी याद दिलाता है जो पहले से तुमको इस किताब में सुनाए जा रहे हैं। यानी वे अहकाम जो उन यतीम लड़कियों के मुताल्लिक़ हैं जिनके हक़ तुम अदा नहीं करते और जिनके निकाह करने से तुम बाज़ रहते हो (या लालच की बिना पर तुम ख़ुदा उनसे निकाह कर लेना चाहते हो81) और वे अहकाम जो उन बच्चों के मुताल्लिक़ हैं जो बेचारे कोई ज़ोर नहीं रखते। अल्लाह तुम्हें हिदायत करता है कि यतीमों के साथ इनसाफ़ पर क़ायम रहो, और जो भलाई तुम करोगे वह अल्लाह के इल्म से छिपी न रह जाएगी।”
80. यह तसरीह नहीं फ़रमाई गई कि वे क्या फ़तवा पूछते थे। लेकिन आयात 128 से 130 में जो फ़तवा दिया गया है उससे सवाल की नौइयत समझ में आ जाती है।
81. 'तर-ग़-बू-न अन तनकिहू हुन-न' का मतलब यह भी हो सकता है कि ‘तुम उनसे निकाह करने की रग़बत रखते हो' और यह भी हो सकता है कि 'तुम निकाह करना पसन्द नहीं करते’।
مَّن كَانَ يُرِيدُ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ ثَوَابُ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا ۝ 128
(134) जो शख़्स मह्ज़ सवाबे-दुनिया का तालिब हो उसे मालूम होना चाहिए कि अल्लाह के पास सवाबे-दुनिया भी है और सवाबे-आख़िरत भी, अल्लाह समीअ व बसीर है।
وَإِنِ ٱمۡرَأَةٌ خَافَتۡ مِنۢ بَعۡلِهَا نُشُوزًا أَوۡ إِعۡرَاضٗا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَآ أَن يُصۡلِحَا بَيۡنَهُمَا صُلۡحٗاۚ وَٱلصُّلۡحُ خَيۡرٞۗ وَأُحۡضِرَتِ ٱلۡأَنفُسُ ٱلشُّحَّۚ وَإِن تُحۡسِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 129
(128) अगर किसी82 औरत को अपने शौहर से बदसुलूकी या बेरुख़ी का ख़तरा हो तो कोई मुज़ायक़ा नहीं कि मियाँ और बीवी (कुछ हुक़ूक़ की कमी-बेशी पर) आपस में सुलह कर लें।83 सुलह बहरहाल बेहतर है। नफ़्स तंगदिली की तरफ़ जल्दी माइल हो जाते हैं, लेकिन अगर तुम लोग एहसान से पेश आओ और ख़ुदातरसी से काम लो, तो यक़ीन रखो कि अल्लाह तुम्हारे इस तर्ज़े-अमल से बेख़बर न होगा।
82. यहाँ से लोगों के सवाल का जवाब शुरू होता है। सवाल यह था कि एक से ज़ाइद बीवियाँ होने की सूरत में अद्ल का जो हुक्म दिया गया है उसपर किस तरह अमल किया जाए जबकि एक बीवी दायमुल-मर्ज़ है या ताल्लुक़े-ज़नो-शौ के क़ाबिल नहीं रही है। क्या इस सूरत में भी उसपर लाज़िम है कि दोनों से मुहब्बत रखे, जिस्मानी ताल्लुक़ में भी यकसानी बरते? और अगर वह ऐसा न करे तो क्या अद्ल की शर्त का तकाज़ा यह है कि वह दूसरी शादी करने के लिए पहली बीवी को छोड़ दे? नीज़ यह कि अगर पहली बीवी ख़ुद जुदा न होना चाहे तो क्या ज़ौजैन में इस क़िस्म का मामला हो सकता है कि जो बीवी ग़ैर-मरग़ूब हो चुकी है वह अपने बाज़ हुक़ूक़ से ख़ुद दस्तबरदार होकर शौहर को तलाक़ से बाज़ रहने पर राज़ी कर ले? क्या ऐसा करना अद्ल की शर्त के ख़िलाफ़ तो न होगा?
83. यानी तलाक़ व जुदाई से बेहतर है कि इस तरह बाहम मुसालहत करके एक औरत उसी शौहर के साथ रहे जिसके साथ वह उम्र का एक हिस्सा गुज़ार चुकी है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُواْ قَوَّٰمِينَ بِٱلۡقِسۡطِ شُهَدَآءَ لِلَّهِ وَلَوۡ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَوِ ٱلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَۚ إِن يَكُنۡ غَنِيًّا أَوۡ فَقِيرٗا فَٱللَّهُ أَوۡلَىٰ بِهِمَاۖ فَلَا تَتَّبِعُواْ ٱلۡهَوَىٰٓ أَن تَعۡدِلُواْۚ وَإِن تَلۡوُۥٓاْ أَوۡ تُعۡرِضُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 130
(135) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! इनसाफ़ के अलमबरदार और ख़ुदा-वास्ते के गवाह बनो, अगरचे तुम्हारे इनसाफ़ और तुम्हारी गवाही की ज़द ख़ुद तुम्हारी अपनी ज़ात पर या तुम्हारे वालिदैन और रिश्तेदारों पर ही क्यों न पड़ती हो। फ़रीक़े-मामला ख़ाह मालदार हो या ग़रीब, अल्लाह तुमसे ज़्यादा उनका ख़ैरख़ाह है। लिहाज़ा अपनी ख़ाहिशे-नफ़्स की पैरवी में अद्ल से बाज़ न रहो। और अगर तुमने लगी-लिपटी बात कही या सच्चाई से पहलू बचाया तो जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
وَلَن تَسۡتَطِيعُوٓاْ أَن تَعۡدِلُواْ بَيۡنَ ٱلنِّسَآءِ وَلَوۡ حَرَصۡتُمۡۖ فَلَا تَمِيلُواْ كُلَّ ٱلۡمَيۡلِ فَتَذَرُوهَا كَٱلۡمُعَلَّقَةِۚ وَإِن تُصۡلِحُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 131
(129) बीवियों के दरमियान पूरा-पूरा अद्ल करना तुम्हारे बस में नहीं है। तुम चाहो भी तो उसपर क़ादिर नहीं हो सकते। लिहाज़ा (क़ानूने-इलाही का मंशा पूरा करने के लिए यह काफ़ी है कि) एक बीवी की तरफ़ इस तरह न झुक जाओ कि दूसरी को उधर लटकता छोड़ दो।84 अगर तुम अपना तर्ज़े-अमल दुरुस्त रखो और अल्लाह से डरते रहो तो अल्लाह चश्मपोशी करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
84. इस आयत से बाज़ लोग यह नतीजा निकाल बैठे हैं कि क़ुरआन एक तरफ़ अद्ल की शर्त के साथ तअद्दुदे-इज़दिवाज की इजाज़त देता है और दूसरी तरफ़ अद्ल को नामुमकिन क़रार देकर उस इजाज़त को अमलन मंसूख़ कर देता है। लेकिन दर-हक़ीक़त ऐसा नतीजा निकालने के लिए इस आयत में कोई गुंजाइश नहीं है। अगर सिर्फ़ इतना ही कहने पर इक्तिफ़ा किया गया होता कि “तुम औरतों के दरमियान अद्ल नहीं कर सकते”, तो यह नतीजा निकाला जा सकता था, मगर उसके बाद ही जो यह फ़रमाया गया कि “लिहाज़ा एक बीवी की तरफ़ बिलकुल न झुक पड़ो,” इस फ़िक़रे ने कोई मौक़ा उस मतलब के लिए बाक़ी नहीं छोड़ा जो मसीही यूरोप की तक़लीद करनेवाले हज़रात इससे निकालना चाहते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِي نَزَّلَ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِن قَبۡلُۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 132
(136) ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो। ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो अल्लाह ने अपने रसूल पर नाज़िल की है और हर उस किताब पर जो इससे पहले वह नाज़िल कर चुका है।85 जिसने अल्लाह और उसके मलाइका और उसकी किताबों और उसके रसूलों और रोज़ो-आख़िरत से कुफ़्र किया86 वह गुमराही में भटककर बहुत दूर निकल गया।
85. ईमान लानेवालों से कहना कि ईमान लाओ बज़ाहिर अजीब मालूम होता है। लेकिन दरअस्ल यहाँ लफ़्ज़ ईमान दो अलग मानों में इस्तेमाल हुआ है। ईमान लाने का एक मतलब यह है कि आदमी इनकार के बजाय इक़रार की राह इख़्तियार करे, न माननेवालों से अलग होकर माननेवालों में शामिल हो जाए। और इसका दूसरा मतलब यह है कि आदमी जिस चीज़ को माने उसे सच्चे दिल से माने, पूरी संजीदगी और ख़ुलूस के साथ माने। आयत में ख़िताब उन तमाम मुसलमानों से है जो पहले मानी के लिहाज़ से 'माननेवालों' में शुमार होते हैं। और उनसे मुतालबा यह किया गया है कि दूसरे मानी के लिहाज़ से सच्चे मोमिन बनें।
86. कुफ़्र करने के भी दो मतलब हैं। एक यह कि आदमी साफ़-साफ़ इनकार कर दे दूसरे यह कि ज़बान से तो माने मगर दिल से न माने, या अपने रवैये से साबित कर दे कि वह जिस चीज़ को मानने का दावा कर रहा है फ़िल–वाक़े उसे नहीं मानता।
وَإِن يَتَفَرَّقَا يُغۡنِ ٱللَّهُ كُلّٗا مِّن سَعَتِهِۦۚ وَكَانَ ٱللَّهُ وَٰسِعًا حَكِيمٗا ۝ 133
(130) लेकिन अगर ज़ौजैन एक-दूसरे से अलग ही हो जाएँ, तो अल्लाह अपनी वसीअ क़ुदरत से हर एक को दूसरे की मुहताजी से बेनियाज़ कर देगा। अल्लाह का दामन बहुत कुशादा है और वह दाना व बीना है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ٱزۡدَادُواْ كُفۡرٗا لَّمۡ يَكُنِ ٱللَّهُ لِيَغۡفِرَ لَهُمۡ وَلَا لِيَهۡدِيَهُمۡ سَبِيلَۢا ۝ 134
(137) रहे वे लोग जो ईमान लाए, फिर कुफ़्र किया, फिर ईमान लाए, फिर कुफ़्र किया, फिर अपने कुफ़्र में बढ़ते चले गए, तो अल्लाह हरगिज़ उनको माफ़ न करेगा और न कभी उनको राहे-रास्त दिखाएगा।
بَشِّرِ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ بِأَنَّ لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمًا ۝ 135
(138) और जो मुनाफ़िक़ अहले-ईमान को छोड़कर काफ़िरों को अपना रफ़ीक़ बनाते हैं,
ٱلَّذِينَ يَتَّخِذُونَ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ أَيَبۡتَغُونَ عِندَهُمُ ٱلۡعِزَّةَ فَإِنَّ ٱلۡعِزَّةَ لِلَّهِ جَمِيعٗا ۝ 136
(139) उन्हें यह मुज़्दा सुना दो कि उनके लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है। क्या ये लोग इज़्ज़त की तलब में उनके पास जाते हैं? हालाँकि इज़्ज़त तो सारी-की-सारी अल्लाह ही के लिए है।
وَقَدۡ نَزَّلَ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ أَنۡ إِذَا سَمِعۡتُمۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ يُكۡفَرُ بِهَا وَيُسۡتَهۡزَأُ بِهَا فَلَا تَقۡعُدُواْ مَعَهُمۡ حَتَّىٰ يَخُوضُواْ فِي حَدِيثٍ غَيۡرِهِۦٓ إِنَّكُمۡ إِذٗا مِّثۡلُهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ جَامِعُ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡكَٰفِرِينَ فِي جَهَنَّمَ جَمِيعًا ۝ 137
(140) अल्लाह इस किताब में तुमको पहले ही हुक्म दे चुका है कि जहाँ तुम सुनो कि अल्लाह की आयात के ख़िलाफ़ कुफ़्र बका जा रहा है और उनका मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है, वहाँ न बैठो जब तक कि लोग किसी दूसरी बात में न लग जाएँ। अब अगर तुम ऐसा करते हो तो तुम भी उन्हीं की तरह हो। यक़ीन जानो कि अल्लाह मुनाफ़िक़ों और काफ़िरों को जहन्नम में जगह जमा करनेवाला है।
مُّذَبۡذَبِينَ بَيۡنَ ذَٰلِكَ لَآ إِلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِ وَلَآ إِلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِۚ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ سَبِيلٗا ۝ 138
(143) कुफ़्र व ईमान के दरमियान डाँवाडोल हैं। न इस तरफ़ हैं न पूरे उस तरफ़। जिसे अल्लाह ने भटका दिया हो उसके लिए न कोई रास्ता नहीं पा सकते।87
87. यानी जिसने ख़ुदा के कलाम और उसके रसूल की सीरत से हिदायत न पाई हो जिसको सच्चाई से मुनहरिफ़ और बातिल-परस्ती की तरफ़ राग़िब देखकर अल्लाह ने भी उसी तरफ़ फेर दिया हो जिस तरफ़ वह ख़ुद फिरना चाहता था। और जिसकी ज़लालत-तलबी की वजह से ख़ुदा ने उसपर हिदायत के दरवाज़े बन्द और सिर्फ़ ज़लालत ही के रास्ते खोल दिए हों, ऐसे शख़्स को राहे-रास्त दिखाना दर-हक़ीक़त किसी इनसान के बस का काम नहीं है।
ٱلَّذِينَ يَتَرَبَّصُونَ بِكُمۡ فَإِن كَانَ لَكُمۡ فَتۡحٞ مِّنَ ٱللَّهِ قَالُوٓاْ أَلَمۡ نَكُن مَّعَكُمۡ وَإِن كَانَ لِلۡكَٰفِرِينَ نَصِيبٞ قَالُوٓاْ أَلَمۡ نَسۡتَحۡوِذۡ عَلَيۡكُمۡ وَنَمۡنَعۡكُم مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ فَٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَلَن يَجۡعَلَ ٱللَّهُ لِلۡكَٰفِرِينَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ سَبِيلًا ۝ 139
(141) ये मुनाफ़िक़ तुम्हारे मामले में इन्तिज़ार कर रहे हैं। (कि ऊँट किस करवट बैठता है)। अगर अल्लाह की तरफ़ से फ़त्‌ह तुम्हारी हुई तो आकर कहेंगे क्या हम तुम्हारे साथ न थे? अगर काफ़िरों का पल्ला भारी रहा तो उनसे कहेंगे कि क्या हम तुम्हारे ख़िलाफ़ लड़ने पर क़ादिर न थे फिर भी हमने तुमको मुसलमानों से बचाया? बस अल्लाह ही तुम्हारे और उनके मामले का फ़ैसला क़ियामत के रोज़ करेगा और (इस फ़ैसले में) सल्लाह ने काफ़िरों के लिए मुसलमानों पर ग़ालिब आने की हरगिज़ कोई सबील नहीं रखी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۚ أَتُرِيدُونَ أَن تَجۡعَلُواْ لِلَّهِ عَلَيۡكُمۡ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينًا ۝ 140
(144) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! मोमिनों को छोड़कर काफ़िरों को अपना रफ़ीक़ न बनाओ। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह को अपने ख़िलाफ़ सरीह हुज्जत दे दो?
إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ يُخَٰدِعُونَ ٱللَّهَ وَهُوَ خَٰدِعُهُمۡ وَإِذَا قَامُوٓاْ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ قَامُواْ كُسَالَىٰ يُرَآءُونَ ٱلنَّاسَ وَلَا يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 141
(142) ये मुनाफ़िक़ अल्लाह के साथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं, हालाँकि हक़ीक़त अल्लाह ही ने इन्हें धोखे में डाल रखा है। जब नमाज़ के लिए उठते हैं तो कसमसाते हुए मह्ज़ लोगों को दिखाने की ख़ातिर उठते हैं और ख़ुदा को कम ही याद करते हैं।
إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ فِي ٱلدَّرۡكِ ٱلۡأَسۡفَلِ مِنَ ٱلنَّارِ وَلَن تَجِدَ لَهُمۡ نَصِيرًا ۝ 142
(145) यक़ीन जानो कि मुनाफ़िक़ जहन्नम के सबसे नीचे तबक़े में जाएँगे और तुम किसी को उनका मददगार न पाओगे।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ وَأَصۡلَحُواْ وَٱعۡتَصَمُواْ بِٱللَّهِ وَأَخۡلَصُواْ دِينَهُمۡ لِلَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَعَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَسَوۡفَ يُؤۡتِ ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 143
(146) अलबत्ता जो उनमें से ताइब हो जाएँ और अपने तर्ज़े-अमल की इसलाह कर लें और अल्लाह का दामन थाम लें और अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस कर दें, ऐसे लोग मोमिनों के साथ हैं और अल्लाह मोमिनों को ज़रूर अज़्रे-अज़ीम अता फ़रमाएगा।
مَّا يَفۡعَلُ ٱللَّهُ بِعَذَابِكُمۡ إِن شَكَرۡتُمۡ وَءَامَنتُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ شَاكِرًا عَلِيمٗا ۝ 144
(147) आख़िर अल्लाह को क्या पड़ी है कि तुम्हें ख़ाह-मख़ाह सज़ा दे अगर तुम शुक्रगुज़ार बन्दे बने रहो और ईमान की रविश पर चलो। अल्लाह बड़ा क़द्रदान88 है और सबके हाल से वाकिफ़ है।
88. शुक्र जब बन्दे की तरफ़ से हो तो एहसान-मन्दी के मानी में होता है और जब अल्लाह की तरफ़ से हो तो क़द्रदानी के मानी में है।
۞لَّا يُحِبُّ ٱللَّهُ ٱلۡجَهۡرَ بِٱلسُّوٓءِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ إِلَّا مَن ظُلِمَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ سَمِيعًا عَلِيمًا ۝ 145
(148) अल्लाह इसको पसन्द नहीं करता कि आदमी बदगोई पर ज़बान खोले, इल्ला यह कि किसी पर ज़ुल्म किया गया हो,89 और अल्लाह सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।
89. यानी मज़लूम को हक़ पहुँचता है कि ज़ालिम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए।
وَقَوۡلِهِمۡ إِنَّا قَتَلۡنَا ٱلۡمَسِيحَ عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ رَسُولَ ٱللَّهِ وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ لَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُۚ مَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍ إِلَّا ٱتِّبَاعَ ٱلظَّنِّۚ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينَۢا ۝ 146
(157) और ख़ुद कहा कि हमने मसीह, ईसा इब्ने-मरयम, रसूलुल्लाह को क़त्ल कर दिया है।92 हालाँकि फ़िल–वाक़े इन्होंने न उसको क़त्ल किया और न सलीब पर चढ़ाया, बल्कि मामला उनके लिए मुश्तबह कर दिया गया।93 और जिन लोगों ने इसके बारे में इख़्तिलाफ़ किया है वे भी दरअस्ल शक में मुब्तला हैं, इनके पास इस मामले में कोई इल्म नहीं है, मह्ज़ गुमान ही की पैरवी है। उन्होंने मसीह को यक़ीनन कत्ल नहीं किया,
92. यानी जुरअते-मुजरिमाना इतनी बढ़ी हुई थी कि रसूल को रसूल जानते थे और फिर उसके क़त्ल का इक़दाम किया और फ़ख़्रिया कहा कि हमने अल्लाह के रसूल को क़त्ल किया है। इस मौक़े पर अगर सूरा-19 मरयम, रुकूअ 2, हमारे हवाशी के साथ पढ़ लिया जाए तो मालूम हो जाएगा कि बनी-इसराईल हज़रत ईसा (अलैहि०) को फ़िल-वाक़े रसूल जानते थे और इसके बावजूद उन्होंने अपने नज़दीक उन्हें सलीब दी।
93. यह आयत तसरीह करती है कि हज़रत मसीह (अलैहि०) सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले ही उठा लिए गए थे और यह कि मसीहियों और यहूदियों, दोनों का यह ख़याल कि मसीह ने सलीब पर जान दी, मह्ज़ ग़लतफ़हमी पर मबनी है। क़ब्ल इसके कि यहूदी आपको सलीब पर चढ़ाते अल्लाह तआला ने किसी वक़्त आँ-जनाब को उठा लिया और बाद में यहूदियों ने जिस शख़्स को सलीब पर चढ़ाया वह कोई और शख़्स था जिसको न मालूम किस वजह से उन लोगों ने ईसा इब्ने-मरयम समझ लिया।
إِن تُبۡدُواْ خَيۡرًا أَوۡ تُخۡفُوهُ أَوۡ تَعۡفُواْ عَن سُوٓءٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوّٗا قَدِيرًا ۝ 147
(149) (मज़लूम होने की सूरत में अगरचे तुमको बदगोई का हक़ है) लेकिन अगर तुम ज़ाहिर व बातिन में भलाई ही किए जाओ, या कम-अज़-कम बुराई से दरगुज़र करो, तो अल्लाह (की सिफ़त भी यही है कि वह) बड़ा माफ़ करनेवाला है, (हालाँकि सज़ा देने पर) पूरी क़ुदरत रखता है।
بَل رَّفَعَهُ ٱللَّهُ إِلَيۡهِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 148
(158) बल्कि अल्लाह ने उसको अपनी तरफ़ उठा लिया, अल्लाह जबरदस्त ताक़त रखनेवाला और हकीम है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡفُرُونَ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَيُرِيدُونَ أَن يُفَرِّقُواْ بَيۡنَ ٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَيَقُولُونَ نُؤۡمِنُ بِبَعۡضٖ وَنَكۡفُرُ بِبَعۡضٖ وَيُرِيدُونَ أَن يَتَّخِذُواْ بَيۡنَ ذَٰلِكَ سَبِيلًا ۝ 149
(150) जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों से कुफ़्र करते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह और उसके रसूलों के दरमियान तफ़रीक़ करें, और कहते हैं कि हमकिसी को मानेंगे और किसी को न मानेंगे, और कुफ़्र व ईमान के बीच में एक राह निकालने का इरादा रखते हैं,
وَإِن مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ إِلَّا لَيُؤۡمِنَنَّ بِهِۦ قَبۡلَ مَوۡتِهِۦۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَكُونُ عَلَيۡهِمۡ شَهِيدٗا ۝ 150
(159) और अहले-किताब में से कोई ऐसा न होगा जो उसकी मौत से पहले उसपर ईमान न ले आएगा94 और क़ियामत के रोज़ वह उनपर गवाही देगा।
94. इस फ़िक़रे के दो मानी बयान किए गए हैं और अलफ़ाज़ में दोनों का यकसाँ एहतिमाल है। एक मानी वह जो हमने तर्जमे में इख़्तियार किए हैं। दूसरे यह कि 'अहले-किताब में से कोई ऐसा नहीं जो अपनी मौत से पहले मसीह पर ईमान न ले आए’।
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ حَقّٗاۚ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 151
(151) वे सब पक्के काफ़िर हैं और ऐसे काफ़िरों के लिए हमने वह सज़ा मुहैया कर रखी है जो उन्हें ज़लीलो-ख़ार कर देनेवाली होगी।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦ وَلَمۡ يُفَرِّقُواْ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ أُوْلَٰٓئِكَ سَوۡفَ يُؤۡتِيهِمۡ أُجُورَهُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 152
(152) — बख़िलाफ़ इसके जो लोग अल्लाह और उसके तमाम रसूलों को मानें और उनके दरमियान तफ़रीक़ न करें, उनको हम ज़रूर उनके अज्र अता करेंगे, और अल्लाह बड़ा दरगुज़र फ़रमानेवाला और रहम करनेवाला है।
فَبِظُلۡمٖ مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ طَيِّبَٰتٍ أُحِلَّتۡ لَهُمۡ وَبِصَدِّهِمۡ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ كَثِيرٗا ۝ 153
(160) गरज़ इन यहूदियों के इसी ज़ालिमाना रवैये की बिना पर और इस बिना पर कि ये ब-कसरत अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं,
يَسۡـَٔلُكَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ أَن تُنَزِّلَ عَلَيۡهِمۡ كِتَٰبٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِۚ فَقَدۡ سَأَلُواْ مُوسَىٰٓ أَكۡبَرَ مِن ذَٰلِكَ فَقَالُوٓاْ أَرِنَا ٱللَّهَ جَهۡرَةٗ فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ بِظُلۡمِهِمۡۚ ثُمَّ ٱتَّخَذُواْ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ فَعَفَوۡنَا عَن ذَٰلِكَۚ وَءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ سُلۡطَٰنٗا مُّبِينٗا ۝ 154
(153) (ऐ नबी!) ये अहले-किताब अगर आज तुमसे मुतालबा कर रहे हैं कि आसमान से कोई तहरीर उनपर नाज़िल कराओ तो इससे बढ़-चढ़कर मुजरिमाना मुतालबे ये पहले मूसा से कर चुके हैं। उससे तो इन्होंने कहा था कि हमें ख़ुदा को अलानिया दिखा दो और इसी सरकशी की वजह से यकायक इनपर बिजली टूट पड़ी थी। फिर इन्होंने बछड़े को अपना माबूद बना लिया, हालाँकि ये खुली-खुली निशानियाँ देख चुके थे। इसपर भी हमने इनसे दरगुज़र किया। हमने मूसा को सरीह फ़रमान अता किया
وَأَخۡذِهِمُ ٱلرِّبَوٰاْ وَقَدۡ نُهُواْ عَنۡهُ وَأَكۡلِهِمۡ أَمۡوَٰلَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡبَٰطِلِۚ وَأَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ مِنۡهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 155
(161) और सूद लेते हैं जिससे इन्हें मना किया गया था, लोगों के माल नाजाइज़ तरीक़ों से खाते हैं, हमने बहुत-सी वे पाक चीज़ें इनके लिए हराम कर दीं जो पहले इनके लिए हलाल थीं,95 और जो लोग उनमें से काफ़िर हैं उनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।
95. ग़ालिबन यह उसी मज़मून की तरफ़ इशारा है जो आगे सूरा-6 अनआम. आयत-146 में आनेवाला है। यानी यह कि बनी-इसराईल पर तमाम वे जानवर हराम कर दिए गए जिनके नाख़ुन होते हैं, और उनपर गाय और बकरी की चर्बी भी हराम कर दी गई। इसके अलावा मुमकिन है कि इशारा उन दूसरी पाबन्दियों और सख़्तियों की तरफ़ भी हो जो यहूदी फ़िक़्ह में पाई जाती हैं। किसी गरोह के लिए दायरा-ए-ज़िन्दगी को तंग कर दिया जाना फ़िल-वाक़े उसके हक़ में एक तरह की सज़ा ही है।
وَرَفَعۡنَا فَوۡقَهُمُ ٱلطُّورَ بِمِيثَٰقِهِمۡ وَقُلۡنَا لَهُمُ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا وَقُلۡنَا لَهُمۡ لَا تَعۡدُواْ فِي ٱلسَّبۡتِ وَأَخَذۡنَا مِنۡهُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا ۝ 156
(154) और इन लोगों पर तूर को उठाकर इनसे (इस फ़रमान की इताअत का) अह्द लिया। हमने इनको हुक्म दिया कि दरवाज़े में सजदारेज़ होते हुए दाख़िल हों।90 हमने इनसे कहा कि सब्त का क़ानून न तोड़ो और इसपर इनसे पुख़्ता अद्द लिया।
90. इसका ज़िक्र सूरा-2 बकरा, आयात—58, 59 में गुज़र चुका है।
وَلَيۡسَتِ ٱلتَّوۡبَةُ لِلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ حَتَّىٰٓ إِذَا حَضَرَ أَحَدَهُمُ ٱلۡمَوۡتُ قَالَ إِنِّي تُبۡتُ ٱلۡـَٰٔنَ وَلَا ٱلَّذِينَ يَمُوتُونَ وَهُمۡ كُفَّارٌۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 157
(18) मगर तौबा उन लोगों के लिए नहीं है जो बुरे काम किए चले जाते हैं, यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मौत का वक़्त आ जाता है उस वक़्त वह कहता है कि अब मैंने तौबा की। और इसी तरह तौबा उन लोगों के लिए भी नहीं है जो मरते दम तक काफ़िर रहें। ऐसे लोगों के लिए तो हमने दर्दनाक सज़ा तैयार कर रखी है।
لَّٰكِنِ ٱلرَّٰسِخُونَ فِي ٱلۡعِلۡمِ مِنۡهُمۡ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ يُؤۡمِنُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَۚ وَٱلۡمُقِيمِينَ ٱلصَّلَوٰةَۚ وَٱلۡمُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ أُوْلَٰٓئِكَ سَنُؤۡتِيهِمۡ أَجۡرًا عَظِيمًا ۝ 158
(162) मगर इनमें से जो लोग पुख़्ता इल्म रखनेवाले हैं और ईमानदार हैं वे सब उस तालीम पर ईमान लाते हैं जो (ऐ नबी!) तुम्हारी तरफ़ नाज़िल की गई है और जो तुमसे पहले नाज़िल की गई थी। इस तरह के ईमान लानेवाले और नमाज़ व ज़कात की पाबन्दी करनेवाले और अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर सच्चा अक़ीदा रखनेवाले लोगों को हम ज़रूर अज़्रे-अज़ीम अता करेंगे।
فَبِمَا نَقۡضِهِم مِّيثَٰقَهُمۡ وَكُفۡرِهِم بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَقَتۡلِهِمُ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَقَوۡلِهِمۡ قُلُوبُنَا غُلۡفُۢۚ بَلۡ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَيۡهَا بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 159
(155) आख़िरकार इनकी अह्दशिकनी की वजह से, और इस वजह से कि इन्होंने अल्लाह की आयात को झुठलाया, और मुतअद्दिद पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल किया, और यहाँ तक कहा कि हमारे दिल ग़िलाफ़ों में महफ़ूज़ हैं।91 हालाँकि दरहक़ीक़त इनकी बातिल परस्ती के सबब से अल्लाह ने इनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया है और इसी वजह से ये बहुत कम ईमान लाते हैं।
91. यानी तुम ख़ाह कुछ कहो, हमारे दिलों पर इसका कोई असर नहीं पड़ सकता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَرِثُواْ ٱلنِّسَآءَ كَرۡهٗاۖ وَلَا تَعۡضُلُوهُنَّ لِتَذۡهَبُواْ بِبَعۡضِ مَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ إِلَّآ أَن يَأۡتِينَ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖۚ وَعَاشِرُوهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِن كَرِهۡتُمُوهُنَّ فَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـٔٗا وَيَجۡعَلَ ٱللَّهُ فِيهِ خَيۡرٗا كَثِيرٗا ۝ 160
(19) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! तुम्हारे लिए यह हलाल नहीं है कि ज़बरदस्ती औरतों के वारिस बन बैठो।17 और न यह हलाल है कि उन्हें तंग करके उस मह्‍र का कुछ हिस्सा उड़ा लेने की कोशिश करो जो तुम उन्हें दे चुके हो। हाँ, अगर वे किसी सरीह बदचलनी की मुर्तक़िब हों (तो ज़रूर तुम्हें तंग करने का हक़ है)। उनके साथ भले तरीक़े से ज़िन्दगी बसर करो। अगर वे तुम्हें नापसन्द हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो।
17. इससे मुराद यह है कि शौहर के मरने के बाद उसके ख़ानदानवाले उसकी बेवा को मैयित की मीरास समझकर उसके वली वारिस न बन बैठें। औरत का शौहर जब मर गया तो वह आज़ाद है। इद्दत गुज़ारकर जहाँ चाहे जाए और जिससे चाहे निकाह कर ले।
18. माल उड़ाने के लिए नहीं बल्कि बदचलनी की सज़ा देने के लिए।
۞إِنَّآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ كَمَآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ نُوحٖ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ مِنۢ بَعۡدِهِۦۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَعِيسَىٰ وَأَيُّوبَ وَيُونُسَ وَهَٰرُونَ وَسُلَيۡمَٰنَۚ وَءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ زَبُورٗا ۝ 161
(163) (ऐ नबी!) हमने तुम्हारी तरफ़ उसी तरह वह्य भेजी है जिस तरह नूह और उसके बाद के पैग़म्बरों की तरफ़ भेजी थी। हमने इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और औलादे-याक़ूब, ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान की तरफ़ वह्य भेजी। हमने दाऊद को 'ज़बूर' दी।
وَبِكُفۡرِهِمۡ وَقَوۡلِهِمۡ عَلَىٰ مَرۡيَمَ بُهۡتَٰنًا عَظِيمٗا ۝ 162
(156) — फिर अपने कुफ़्र में ये इतने बढ़े कि मरयम पर सख़्त बुहतान लगाया,
وَرُسُلٗا قَدۡ قَصَصۡنَٰهُمۡ عَلَيۡكَ مِن قَبۡلُ وَرُسُلٗا لَّمۡ نَقۡصُصۡهُمۡ عَلَيۡكَۚ وَكَلَّمَ ٱللَّهُ مُوسَىٰ تَكۡلِيمٗا ۝ 163
(164) हमने उन रसूलों पर भी वह्य नाज़िल की जिनका ज़िक्र हम इससे पहले तुमसे कर चुके हैं और उन रसूलों पर भी जिनका ज़िक्र तुमसे नहीं किया। हमने मूसा से इस तरह गुफ़्तगू की जिस तरह गुफ़्तगू की जाती है।
رُّسُلٗا مُّبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَى ٱللَّهِ حُجَّةُۢ بَعۡدَ ٱلرُّسُلِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 164
(165) ये सारे रसूल ख़ुशख़बरी देनेवाले और डरानेवाले बनाकर भेजे गए थे, ताकि उनको मबऊस कर देने के बाद लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में कोई हुज्जत न रहे96 और अल्लाह बहरहाल ग़ालिब रहनेवाला और हकीम व दाना है।
96. यानी उन तमाम पैग़म्बरों के भेजने की एक ही ग़रज़ थी और वह यह थी कि अल्लाह तआला नौए-इनसानी पर इतमामे-हुज्जत करना चाहता है ताकि आख़िरी अदालत के मौक़े पर कोई गुमराह मुजरिम उसके सामने यह उज़्र पेश न कर सके कि हम नावाक़िफ़ थे और आपने हमें हक़ीक़ते-हाल से आगाह करने का कोई इन्तिज़ाम नहीं किया था।
لَّٰكِنِ ٱللَّهُ يَشۡهَدُ بِمَآ أَنزَلَ إِلَيۡكَۖ أَنزَلَهُۥ بِعِلۡمِهِۦۖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَشۡهَدُونَۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدًا ۝ 165
(166) (लोग नहीं मानते तो न मानें) मगर अल्लाह गवाही देता है कि (ऐ नबी!) जो कुछ उसने तुमपर नाज़िल किया है अपने इल्म से नाज़िल किया है और इसपर मलाइका भी गवाह हैं, अगरचे अल्लाह का गवाह होना बिलकुल किफ़ायत करता है।
إِلَّا طَرِيقَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا ۝ 166
(169) और उन्हें कोई रास्ता जहन्नम के रास्ते के सिवा न दिखाएगा जिसमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह के लिए यह कोई मुशकिल काम नहीं है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ قَدۡ ضَلُّواْ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا ۝ 167
(167) जो लोग इसको मानने से ख़ुद इनकार करते हैं और दूसरों को ख़ुदा के रास्ते से रोकते हैं वे यक़ीनन गुमराही में हक़ से बहुत दूर निकल गए हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُمُ ٱلرَّسُولُ بِٱلۡحَقِّ مِن رَّبِّكُمۡ فَـَٔامِنُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ وَإِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 168
(170) लोगो! यह रसूल तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से हक़ लेकर आ गया है, ईमान ले आओ, तुम्हारे ही लिए बेहतर है, और अगर इनकार करते हो तो जान लो कि आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब अल्लाह का है और अल्लाह अलीम भी है और हकीम भी।97
97. यानी तुम्हारा ख़ुदा न तो बेख़बर है कि उसकी सल्तनत में रहते हुए तुम शरारतें करो और उसे मालूम न हो, और न वह नादान है कि उसे अपने फ़रामीन की ख़िलाफ़वर्ज़ी करनेवालों से निमटने का तरीक़ा न आता हो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَظَلَمُواْ لَمۡ يَكُنِ ٱللَّهُ لِيَغۡفِرَ لَهُمۡ وَلَا لِيَهۡدِيَهُمۡ طَرِيقًا ۝ 169
(168) इस तरह जिन लोगों ने कुफ़्र व बग़ावत का तरीक़ा इख़्तियार किया और ज़ुल्म व सितम पर उतर आए, अल्लाह उनको हरगिज़ माफ़ न करेगा
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ وَلَا تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ إِنَّمَا ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ رَسُولُ ٱللَّهِ وَكَلِمَتُهُۥٓ أَلۡقَىٰهَآ إِلَىٰ مَرۡيَمَ وَرُوحٞ مِّنۡهُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۖ وَلَا تَقُولُواْ ثَلَٰثَةٌۚ ٱنتَهُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ إِنَّمَا ٱللَّهُ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ سُبۡحَٰنَهُۥٓ أَن يَكُونَ لَهُۥ وَلَدٞۘ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا ۝ 170
(171) ऐ अहले-किताब! अपने दीन में ग़ुलू न करो98 और अल्लाह की तरफ़ हक़ के सिवा कोई बात मंसूब न करो। मसीह ईसा इब्ने-मरयम इसके सिवा कुछ न था कि अल्लाह का एक रसूल था और एक फ़रमान था जो अल्लाह ने मरयम की तरफ़ भेजा,99 और एक रूह थी अल्लाह की तरफ़ से 100 (जिसने मरयम के रहिम में बच्चे की शक्ल इख़्तियार की)। पस तुम अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और न कहो कि ‘तीन’ हैं। बाज़ आ जाओ, यह तुम्हारे ही लिए बेहतर है। अल्लाह तो बस एक ही ख़ुदा है। वह पाक है इससे कि कोई उसका बेटा हो।102 ज़मीन और आसमानों की सारी चीज़ें उसकी मिल्क हैं, और उनकी किफ़ालत व ख़बरगीरी के लिए बस वही काफ़ी है।
98. यहाँ अहले-किताब से मुराद ईसाई हैं और 'ग़ुलू' के मानी हैं किसी चीज़ की ताईद व हिमायत में हद से गुज़र जाना। यहूदियों का जुर्म तो यह था कि वे मसीह के इनकार और मुख़ालफ़त में हद से गुज़र गए, और ईसाइयों का जुर्म यह है कि वे मसीह की अक़ीदत और महब्बत में हद से गुज़र गए और उनको अल्लाह का बेटा, बल्कि ख़ुद अल्लाह क़रार दे दिया।
99. अस्ल में लफ़्ज़ 'कलिमा' इस्तेमाल हुआ है। मरयम की तरफ़ कलिमा भेजने का मतलब यह है कि अल्लाह ने हज़रत मरयम (अलैहि०) के रहिम पर यह फ़रमान नाज़िल किया कि किसी मर्द के नुत्फ़े से सैराब हुए बग़ैर हमल का इसतिक़रार क़ुबूल कर ले। ईसाइयों ने पहले लफ़्ज़ कलिमा को 'कलाम’'या 'नुत्क़' का हममानी समझ लिया, फिर उस कलाम व नुत्क़ से अल्लाह तआला की ज़ाती सिफ़ते-कलाम मुराद ले ली, फिर यह क़ियास क़ायम किया कि अल्लाह की इस ज़ाती सिफ़त ने मरयम (अलैहि०) के बत्न में दाख़िल होकर वह जिस्मानी सूरत इख़्तियार की जो मसीह की शक्ल में ज़ाहिर हुई। इस तरह ईसाइयों में मसीह की उलूहियत का फ़ासिद अक़ीदा पैदा हुआ और इस ग़लत तसव्वुर ने जड़ पकड़ ली कि ख़ुदा ने ख़ुद अपने-आपको या अपनी अज़ली सिफ़ात में नुक़्त व कलाम की सिफ़त को मसीह की शक्ल में ज़ाहिर किया है।
100. यहाँ ख़ुद मसीह को 'रूहुम-मिन्हु' (ख़ुदा की तरफ़ से एक रूह) कहा गया है, और सूरा-2 बक़रा, आयत-87 में इस मज़मून को यूँ अदा किया गया है कि “हमने पाक रूह से मसीह की मदद की।” दोनों इबारतों का मतलब यह है कि अल्लाह ने मसीह (अलैहि०) को वह पाकीज़ा रूह अता की थी जो बदी से नाआशना थी, सरासर हक़्क़ानियत और रास्तबाज़ी थी, और अज़ सर ता पा फ़ज़ीलते-अख़लाक़ थी। ईसाइयों ने इसमें ग़ुलू किया। 'रूहुम-मिनल्लाहि' को ख़ुद अल्लाह की रूह क़रार दे लिया और रूहुल-क़ुदुस का मतलब यह लिया कि वह अल्लाह तआला की अपनी रूहे-मुक़द्दस थी जो मसीह के अन्दर हुलूल कर गई थी। इस तरह अल्लाह और मसीह के साथ एक तीसरा ख़ुदा रूहुल-क़ुदुस का बना डाला गया।
101. यानी तीन ख़ुदाओं के अक़ीदे को छोड़ दो ख़ाह वह किसी शक्ल के अन्दर पाया जाता हो। हक़ीक़त यह है कि ईसाई बयक-वक़्त तौहीद को भी मानते हैं और तसलीस को भी। मसीह (अलैहि०) के सरीह अक़वाल जो अनाजील में मिलते हैं उनकी बिना पर कोई ईसाई इससे इनकार नहीं कर सकता कि अल्लाह बस एक ही अल्लाह है और उसके सिवा कोई दूसरा अल्लाह नहीं है। उनके लिए यह तसलीम किए बग़ैर चारा नहीं कि तौहीद अस्ल दीन है। मगर उसके बावजूद ज़ाते-मसीह में ग़ुलू के बाइस वे तसलीस के भी क़ाइल हैं और आज तक यह फ़ैसला न कर सके कि इन दो मुतज़ाद अकीदों को एक साथ कैसे निबाहें।
102. यह ईसाइयों के चौथे ग़ुलू की तरदीद है। ईसाई रिवायात अगर सही भी हों तो उनसे (ख़ुसूसन पहली तीन इंजीलों से) ज़्यादा-से-ज़्यादा बस इतना ही साबित होता है कि मसीह (अलैहि) ने अल्लाह और बन्दों के ताल्लुक़ को बाप और औलाद के ताल्लुक़ से तशबीह दी थी और 'बाप' का लफ़्ज़ ख़ुदा के लिए वे मह्ज़ मजाज़ और इसतिआरे के तौर पर इस्तेमाल करते थे। यह तन्हा मसीह ही की कोई ख़ुसूसियत नहीं है। क़दीम-तरीन ज़माने से बनी-इसराईल अल्लाह के लिए बाप का लफ़्ज़ बोलते चले आ रहे थे और इसकी ब-कसरत मिसालें बाइबल के पुराने अहदनामे में मौजूद हैं। मसीह (अलैहि०) ने यह लफ़्ज़ अपनी क़ौम के मुहावरे के मुताबिक़ ही इस्तेमाल किया था और वह अल्लाह को अपना ही नहीं, बल्कि सब इनसानों का बाप कहते थे। लेकिन ईसाइयों ने यहाँ फिर ग़ुलू से काम लिया और मसीह (अलैहि०) को अल्लाह का इकलौता बेटा क़रार दे दिया।
يَسۡتَفۡتُونَكَ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِي ٱلۡكَلَٰلَةِۚ إِنِ ٱمۡرُؤٌاْ هَلَكَ لَيۡسَ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَهُۥٓ أُخۡتٞ فَلَهَا نِصۡفُ مَا تَرَكَۚ وَهُوَ يَرِثُهَآ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهَا وَلَدٞۚ فَإِن كَانَتَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُمَا ٱلثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَۚ وَإِن كَانُوٓاْ إِخۡوَةٗ رِّجَالٗا وَنِسَآءٗ فَلِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۗ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ أَن تَضِلُّواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 171
(176) (ऐ नबी!) लोग तुमसे कलाला103 के मामले में फ़तवा पूछते हैं। अल्लाह तुम्हें फ़तवा देता है। अगर कोई शख़्स बेऔलाद मर जाए और उसकी एक बहन104 हो तो वह उसके तरके में से निस्फ़ पाएगी, और अगर बहन बेऔलाद मरे तो भाई उसका वारिस105 होगा। अगर मैयित की वारिस दो बहनें हों तो वे तरके में से दो तिहाई की हक़दार होंगी,106 और अगर कई भाई-बहनें हों तो औरतों का इकहरा और मर्दों का दोहरा हिस्सा होगा। अल्लाह तुम्हारे लिए अहकाम की तौज़ीह करता है ताकि तुम भटकते न फिरो, और अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखता है।
103. 'कलाला' के मानी में इख़्तिलाफ़ है। बाज़ की राय में कलाला वह शख़्स है जो ला-वलद भी हो और जिसके बाप और दादा भी ज़िन्दा न हों। और बाज़ के नजदीक मह्ज़ ला-वलद मरनेवाले को कलाला कहा जाता है। लेकिन अइम्मा-ए-फ़ुक़हा ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की इस राय को तसलीम कर लिया है कि इसका इतलाक़ पहली सूरत पर ही होता है। और ख़ुद क़ुरआन से भी इसकी ताईद होती है। क्योंकि यहाँ कलाला की बहन को निस्फ़ तरके का वारिस क़रार दिया गया है। हालाँकि अगर कलाला का बाप ज़िन्दा हो तो बहन को सिरे से कोई हिस्सा पहुँचता ही नहीं।
104. यहाँ उन भाई-बहनों की मीरास का ज़िक्र हो रहा है जो मैयित के साथ माँ और बाप दोनों में, या सिर्फ़ बाप में मुश्तरक हों। हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) ने एक मर्तबा एक ख़ुतबे में इस मानी की तसरीह की थी और सहाबा में से किसी ने इससे इख़्तिलाफ़ न किया, इस बिना पर यह मुजमा अलैह मसला है।
105. यानी भाई उसके पूरे माल का वारिस होगा अगर कोई और साहिबे-फ़रीज़ा न हो। और अगर कोई साहिबे-फ़रीज़ा मौजूद हो, मसलन शौहर, तो उसका हिस्सा अदा करने के बाद बाक़ी तमाम तरका भाई को मिलेगा।
106. यही हुक्म दो से ज़ाइद बहनों का भी है।
لَّن يَسۡتَنكِفَ ٱلۡمَسِيحُ أَن يَكُونَ عَبۡدٗا لِّلَّهِ وَلَا ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ ٱلۡمُقَرَّبُونَۚ وَمَن يَسۡتَنكِفۡ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَيَسۡتَكۡبِرۡ فَسَيَحۡشُرُهُمۡ إِلَيۡهِ جَمِيعٗا ۝ 172
(172) मसीह ने कभी इस बात को आर नहीं समझा कि वह अल्लाह का एक बन्दा हो, और न मुक़र्रबतरीन फ़रिश्ते इसको अपने लिए आर समझते हैं। अगर कोई अल्लाह की बन्दगी को अपने लिए आर समझता है और तकब्बुर करता है तो एक वक़्त आएगा जब अल्लाह सबको घेरकर अपने सामने हाज़िर करेगा।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَيُوَفِّيهِمۡ أُجُورَهُمۡ وَيَزِيدُهُم مِّن فَضۡلِهِۦۖ وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱسۡتَنكَفُواْ وَٱسۡتَكۡبَرُواْ فَيُعَذِّبُهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا وَلَا يَجِدُونَ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 173
(173) उस वक़्त वे लोग जिन्होंने ईमान लाकर नेक तर्ज़े-अमल इख़्तियार किया है अपने अज्र पूरे-पूरे पाएँगे और अल्लाह अपने फ़ज़्ल से उनको मज़ीद अज्र अता फ़रमाएगा, और जिन लोगों ने बन्दगी को आर समझा और तकब्बुर किया है उनको अल्लाह दर्दनाक सज़ा देगा और अल्लाह के सिवा जिन-जिनकी सरपरस्ती व मददगारी पर वे भरोसा रखते हैं उनमें से किसी को भी वे वहाँ न पाएँगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ قَدۡ جَآءَكُم بُرۡهَٰنٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ نُورٗا مُّبِينٗا ۝ 174
(174) लोगो! तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे पास दलीले-रौशन आ गई है। और हमने तुम्हारी तरफ़ ऐसी रौशनी भेज दी है जो तुम्हें साफ़-साफ़ रास्ता दिखानेवाली है।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَٱعۡتَصَمُواْ بِهِۦ فَسَيُدۡخِلُهُمۡ فِي رَحۡمَةٖ مِّنۡهُ وَفَضۡلٖ وَيَهۡدِيهِمۡ إِلَيۡهِ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 175
(175) अब जो लोग अल्लाह की बात मान लेंगे और उसकी पनाह ढूँढ़ेंगे उनको अल्लाह अपनी रहमत और अपने फ़ज़्ल व करम के दामन में ले लेगा और अपनी तरफ़ आने का सीधा रास्ता उनको दिखा देगा।