(मदीना में उतरी, कुल आयतें 176)
परिचय
उतरने का समय और विषय
इस सूरा में बहुत से व्याख्यान है जो शायद सन् 03 हि० के अन्त से लेकर सन् 04 हि० के अन्त या सन् 05 हि० के आरंभ तक अलग-अलग समय में उतरे हैं। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस जगह से किस जगह तक की आयतें एक व्याख्यान क्रम के रूप में उतरी थीं और उनके उतरने का ठीक समय क्या है, लेकिन कुछ आदेश और घटनाओं की ओर कुछ संकेत ऐसे हैं जिनके उतरने की तारीख़ें हमें रिवायतों (उल्लेखों) से मालूम हो जाती हैं, इसलिए उनकी मदद से हम इन अलग-अलग व्याख्यानों की एक सरसरी-सी हदबन्दी कर सकते हैं जिनमें ये आदेश और ये संकेत आए हुए है।
जैसे हमें मालूम है कि विरासत के बंटवारे और यतीमों (अनाथों) के अधिकारों के बारे में आदेश उहुद की लड़ाई के बाद आए थे, जबकि मुसलमानों के सत्तर आदमी शहीद हो गए इस कारण हम सोच सकते हैं कि शुरू के चार रुकूअ और पाँचवें रुकूअ की पहली तीन आयतें उसी समय में उतरी होंगी। रिवायतों में 'सलाते खौफ़' (ठीक लड़ाई की स्थिति में नमाज़ पढ़ने) का उल्लेख हमें 'ज़ातुर्रिक़ाअ' की लड़ाई में मिलता है जो सन् 04 हि० में हुई। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी के क़रीब के समय में वह भाषण आया होगा जिसमें इस नमाज़ का तरीक़ा बताया गया है । (रुकूअ 15) मदीना से बनी-नज़ीर का निकाला जाना रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में हुआ, इसलिए प्रबल संभावना यह है कि वह भाषण इससे पहले क़रीबी समय ही में उतरा होगा जिसमें यहूदियों को अंतिम चेतावनी दी गई है कि 'ईमान ले आओ, इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें।'
पानी न मिलने पर 'तयम्मुम' की इजाज़त बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर दी गई थी जो 05 हि० में हुई। इसलिए वह भाषण जिसमें तयम्मुम का उल्लेख है, उसी के निकटवर्ती काल का समझना चाहिए। (रुकूअ 7)
उतरने के कारण और वार्ताएँ
इस तरह कुल मिलाकर सूरा के उतरने का समय मालूम हो जाने के बाद हमें उस समय के इतिहास पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए ताकि सूरा के विषय को समझने में सहायता ली जा सके।
नबी (सल्ल.) के सामने उस समय जो काम था उसे तीन बड़े-बड़े विभागों में बाँटा जा सकता है। एक उस नए संगठित इस्लामी समाज का विकास जिसकी बुनियाद हिजरत के साथ ही मदीना तैयबा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पड़ चुकी थी। दूसरे उस संघर्ष का मुक़ाबला जो अरब के मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों), यहूदी क़बीलों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की सुधार-विरोधी शक्तियों के साथ ज़ोर-शोर से चल रहा था। तीसरे इस्लाम की दावत को इन विरोधी शक्तियों के विरोध के बावजूद फैलाना। अल्लाह की ओर से इस अवसर पर जितने व्याख्यान आए, वे सब इन्हीं तीनों विभागों में बंटे हुए हैं।
इस्लामी समाज को संगठित करने के लिए सूरा बक़रा में जो आदेश दिए गए थे, अब यह समाज उससे अधिक आदेश की माँग कर रहा था। इसलिए सूरा निसा के इन व्याख्यानों में अधिक विस्तार में बताया गया कि मुसलमान अपने सामूहिक जीवन को इस्लामी तरीक़े पर किस तरह ठीक करें। किताबवालों के नैतिक और धार्मिक रवैए पर आलोचना करके मुसलमानों को सावधान किया गया कि अपने से पहले की उम्मतों (समुदायों) के पद-चिन्हों पर चलने से बचें। मुनाफ़िक़ों के तरीक़ों की आलोचना करके सच्ची ईमानदारी के तक़ाज़े स्पष्ट किए गए।
सुधार-विरोधी शक्तियों से जो संघर्ष चल रहा था उसने उहुद की लड़ाई के बाद अधिक गंभीर रूप ले लिया था। इन परिस्थितियों में अल्लाह ने एक ओर उत्साहवर्द्धक भाषणों के द्वारा मुसलमानों को मुक़ाबले के लिए उभारा और दूसरी ओर युद्ध की स्थिति में काम करने के लिए उन्हें विभिन्न आवश्यक आदेश दिए। मुसलमानों को बार-बार लड़ाइयों और झड़पों में जाना पड़ता था, और अक्सर ऐसे रास्तों से गुज़रना होता था जहाँ पानी नहीं मिल सकता था। इजाज़त दी गई कि पानी न मिले तो ग़ुस्ल (स्नान) और ‘वुज़ू’ (नमाज़ से हाथ-पैर और मुँह आदि धोने की प्रक्रिया) दोनों के बजाय ‘तयम्मुम' कर लिया जाए। साथ ही, ऐसी स्थिति में नमाज़ को संक्षिप्त करने की भी इजाज़त दे दी गई और जहाँ ख़तरा सिर पर हो, वहाँ सलाते-खौफ़ (डर की स्थिति में नमाज़) अदा करने का तरीक़ा बताया गया। अरब के अलग-अलग क्षेत्रों में जो मुसलमान विरोधी क़बीलों के बीच में बिखरे हुए थे (उनके बारे में) सविस्तार आदेश दिए गए।
यहूदियों के सख़्त दुश्मनी भरे और साज़िशी रवैये और उनके वादों के बार-बार तोड़ने पर उनकी कड़ी पकड़ की गई और उन्हें स्पष्ट शब्दों में अंतिम चेतावनी दे दी गई।
मुनाफ़िक़ों के अलग-अलग गिरोह अलग-अलग रवैये अपनाए हुए थे। इन सबको अलग-अलग वर्गों में बाँटकर हर वर्ग के मुनाफ़िक़ों के बारे में बता दिया गया कि उनके साथ यह बर्ताव होना चाहिए।
ऐसे तटस्थ क़बीले, जिनके साथ समझौते हुए थे, उनके साथ जो रवैया मुसलमानों का होना चाहिए था उसको भी स्पष्ट किया गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुसलमान का अपना चरित्र कलंक रहित हो, क्योंकि इस संघर्ष में यह मुट्ठी भर जमाअत अगर जीत सकती थी तो अपने अच्छे चरित्र ही के बल पर जीत सकती थी। इसलिए मुसलमानों को अच्छे से अच्छे चरित्र की शिक्षा दी गई और जो कमज़ोरी भी उनकी जमाअत में ज़ाहिर हुई, उसपर कड़ी पकड़ की गई। इस्लामी सुधार आह्वान को स्पष्ट करने के अलावा यहूदियों, ईसाइयों और मुशरिकों, तीनों गिरोहों के ग़लत धार्मिक विचारों और बुरे चरित्र एवं आचरण पर इस सूरा में आलोचना करके उनको सच्चे दीन (धर्म) की ओर दावत दी गई है।
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لِّلرِّجَالِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٞ مِّمَّا تَرَكَ ٱلۡوَٰلِدَانِ وَٱلۡأَقۡرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنۡهُ أَوۡ كَثُرَۚ نَصِيبٗا مَّفۡرُوضٗا 1
(7) मर्दों के लिए उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और क़रीबी रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, और औरतों के लिए भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और क़रीबी रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, ख़ाह थोड़ा हो या बहुत6, और यह हिस्सा (अल्लाह की तरफ़ से) मुक़र्रर है।
6. इस आयत में वाज़ेह तौर पर पाँच क़ानूनी हुक्म दिए गए हैं – एक, यह कि मीरास सिर्फ़ मर्दों ही का हिस्सा नहीं है, बल्कि औरतें भी इसकी हक़दार हैं। दूसरे, यह कि मीरास बहरहाल तक़सीम होनी चाहिए ख़ाह वह कितनी ही कम हो। तीसरे, आयत में मैयित के छोड़े हुए पूरे माल को क़ाबिले-तक़सीम क़रार दिया गया है और इसमें मनक़ूला और ग़ैर-मनक़ूला, ज़रई या ग़ैर-ज़रई, आबाई या ग़ैर-आबाई की कोई तफ़रीक़ नहीं की गई है। चौथे, इससे मालूम होता है कि मूरिस की जिन्दगी में कोई हक्क़े-मीरास पैदा नहीं होता, बल्कि मीरास का हक़ उस वक़्त पैदा होता है जब मूरिस कोई माल छोड़कर मरा हो। पाँचवें, उससे यह क़ायदा भी निकलता है कि क़रीबतर रिश्तेदार की मौजूदगी में बईदतर रिश्तेदार मीरास न पाएगा। आगे इसी क़ायदे की तसरीह आयत नम्बर 11 के आख़िर और आयत नम्बर 33 में की गई है।
وَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تُقۡسِطُواْ فِي ٱلۡيَتَٰمَىٰ فَٱنكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ مَثۡنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تَعۡدِلُواْ فَوَٰحِدَةً أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَعُولُواْ 5
(3) और अगर तुमको अंदेशा हो कि यतीमों के साथ इनसाफ़ न कर सकोगे जो औरतें तुमको पसंद आएँ उनमें से दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से निकाह कर लो।1 लेकिन अगर तुम्हें अंदेशा हो कि उनके साथ अदल न कर सकोगे तो फिर एक ही बीवी करो2 या उन औरतों को ज़ौजियत में लाओ जो तुम्हारे क़ब्ज़े में आयी हैं,3 बेनसाफ़ी से बचने के लिए यह ज़्यादा क़रीने-सवाब है।
1. मलहूज़ रहे कि यह आयत एक से ज़ाइद बीवियाँ करने की इजज़ाजत देने के लिए नहीं आई थी क्योंकि इसके नुज़ूल से पहले ही यह फ़ेल जाइज़ था और ख़ुद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की एक से ज़ाइद बीवियाँ उस वक़्त मौजूद थीं। दर-अस्ल यह इसलिए नाज़िल हुई थी कि लड़ाइयों में शहीद होनेवालों के जो बच्चे यतीम रह गए थे उनके मसले को हल करने के लिए फ़रमाया गया कि अगर इन यतीमों के हुकूक़ तुम वैसे अदा नहीं कर सकते तो उन औरतों से निकाह कर लो जिनके साथ यतीम बच्चे हैं।
2. इस बात पर फ़ुक़हा-ए-उम्मत का इजमा है कि इस आयत की रू से तअद्दुदे-इज़दिवाज को महदूद किया गया है और बयक-वक़्त चार से ज़्यादा बीवियाँ रखने को ममनूअ कर दिया गया है। नीज़ यह आयत तअद्दुदे-इज़दिवाज़ के जवाज़ को अद्ल की शर्त से मशरूत करती है। जो शख़्स अद्ल की शर्त पूरी नहीं करता मगर एक से ज़्यादा बीवियाँ करने की इजाज़त से फ़ायदा उठाता है, वह अल्लाह के साथ दग़ाबाज़ी करता है। हुकूमते-इस्लामी की अदालतों को हक़ हासिल है कि जिस बीवी या जिन बीवियों के साथ वह इनसाफ़ न कर रहा हो उनकी दादरसी करें। बाज़ लोग अहले-मग़रिब के नज़रियात से मग़लूब व मरऊब होकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि क़ुरआन का अस्ल मक़सद तअद्दुदे-इज़दिवाज के तरीक़े को (जो मग़रिबी नुक़्ता-ए-नज़र से फ़िल-अस्ल बुरा तरीक़ा है) मिटा देना था। लेकिन इस क़िस्म की बातें दरअस्ल मह्ज़ ज़ेहनी ग़ुलामी का नतीजा हैं। तअद्दुदे-इज़दिवाज का फ़ी-नफ़सिही एक बुराई होना बजाय ख़ुद नाक़ाबिले-तसलीम है, क्योंकि बाज़ हालात में यह चीज़ एक तमद्दुनी व अख़लाक़ी ज़रूरत बन जाती है। क़ुरआन ने सरीह अलफ़ाज़ में इसको जाइज़ ठहराया है और इशारतन व किनायतन भी इसकी मज़म्मत में कोई ऐसा लफ़्ज़ इस्तेमाल नहीं किया है जिससे मालूम हो कि फ़िलवाक़े वह इसे मसदूद करना चाहता था।
3. लौंडियाँ मुराद हैं, यानी वे औरतें जो जंग में गिरिफ़्तार होकर आई हों और असीराने-जंग का तबादला न होने की सूरत में हुकूमत की तरफ़ से लोगों में तक़सीम कर दी गई हों।
يُوصِيكُمُ ٱللَّهُ فِيٓ أَوۡلَٰدِكُمۡۖ لِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۚ فَإِن كُنَّ نِسَآءٗ فَوۡقَ ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَۖ وَإِن كَانَتۡ وَٰحِدَةٗ فَلَهَا ٱلنِّصۡفُۚ وَلِأَبَوَيۡهِ لِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ إِن كَانَ لَهُۥ وَلَدٞۚ فَإِن لَّمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلَدٞ وَوَرِثَهُۥٓ أَبَوَاهُ فَلِأُمِّهِ ٱلثُّلُثُۚ فَإِن كَانَ لَهُۥٓ إِخۡوَةٞ فَلِأُمِّهِ ٱلسُّدُسُۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِي بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍۗ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ لَا تَدۡرُونَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ لَكُمۡ نَفۡعٗاۚ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا 7
(11) तुम्हारी औलाद के बारे में अल्लाह तुम्हें हिदायत करता है कि मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।7 अगर (मैयित की वारिस) दो से ज़्यादा लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके का दो-तिहाई दिया जाए।8 और अगर एक ही लड़की वारिस हो तो आधा तरका उसका है। अगर मैयित साहिबे-औलाद हो तो उसके वालिदैन में से हर एक को तरके का छठा हिस्सा मिलना चाहिए।9 और अगर वह साहिबे-औलाद न हो और वालिदैन ही उसके वारिस हों तो माँ को तीसरा हिस्सा दिया जाए।10 और अगर मैयित के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे हिस्से की हक़दार होगी।11 (ये सब हिस्से और उस वक़्त निकले जाएँगे) जबकि वसीयत जो मैयित ने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़, जो उसपर हो अदा कर दिया जाए।12 तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी औलाद में से कौन बलिहाज़े-नफ़ा तुमसे क़रीबतर है। ये हिस्से अल्लाह ने मुक़र्रर कर दिए हैं, और अल्लाह यक़ीनन सब हक़ीकतों से वाक़िफ़ और सारी मस्लहतों का जाननेवाला है।
7. चूँकि शरीअत ने ख़ानदानी ज़िन्दगी में मर्द पर ज़्यादा मआशी ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला है और औरत को बहुत-सी मआशी ज़िम्मेदारियों के बार से सुबुकदोश रखा है, लिहाज़ा इनसाफ़ का तक़ाज़ा यही था कि मीरास में औरत का हिस्सा मर्द की बनिस्बत कम रखा जाता।
8. यही हुक्म दो लड़कियों का भी है। मतलब यह है कि अगर किसी शख़्स का वारिस कोई लड़का न हो, बल्कि सिर्फ़ लड़कियाँ ही लड़कियाँ हों, तो ख़ाह दो लड़कियाँ हों या दो से ज़ाइद, बहरहाल उसके कुल तरके का 2/3 हिस्सा उन लड़कियों में तक़सीम होगा, और बाक़ी 1/3 दूसरे वारिसों में। लेकिन अगर मैयित का सिर्फ़ एक लड़का हो तो इसपर इजमाअ है कि दूसरे वारिसों की ग़ैर-मौजूदगी में वह कुल माल का वारिस होगा, और दूसरे वारिस मौजूद हों तो उनका हिस्सा देने के बाद बाक़ी सब माल उसे मिलेगा।
9. यानी मैयित के साहिबे-औलाद होने की सूरत में बहरहाल मैयित के वालिदैन में से हर एक 1/6 का हक़दार होगा, ख़ाह मैयित की वारिस सिर्फ़ बेटियाँ हों, या सिर्फ़ बेटे हों, या बेटे और बेटियाँ हों, या एक बेटा या एक बेटी। रहे बाक़ी 2/3 तो उनमें दूसरे वारिस शरीक होंगे।
10. माँ-बाप के सिवा कोई और वारिस न हो तो बाक़ी 2/3 बाप को मिलेगा। वरना 2/3 में बाप और दूसरे वारिस शरीक होंगे।
11. भाई-बहन होने की सूरत में माँ का हिस्सा 1/3 के बजाय 1/6 कर दिया गया है। इस तरह माँ के हिस्से में से जो 1/6 लिया गया है वह बाप के हिस्से में डाला जाएगा, क्योंकि उस सूरत में बाप की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। यह वाज़ेह रहे कि मैयित के वालिदैन अगर जिन्दा हों तो उसके बहन-भाइयों को हिस्सा नहीं पहँचता।
12. वसीयत का ज़िक्र अगरचे क़र्ज़ से पहले किया गया है लेकिन उम्मत का इसपर इजमाअ है कि क़र्ज़ वसीयत पर मुक़द्दम है। यानी अगर मैयित के ज़िम्मे क़र्ज़ हो तो सबसे पहले मैयित के तरके में से वह अदा किया जाएगा, फिर वसीयत पूरा की जाएगी और उसके बाद विरासत तक़सीम होगी।
وَٱبۡتَلُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغُواْ ٱلنِّكَاحَ فَإِنۡ ءَانَسۡتُم مِّنۡهُمۡ رُشۡدٗا فَٱدۡفَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَأۡكُلُوهَآ إِسۡرَافٗا وَبِدَارًا أَن يَكۡبَرُواْۚ وَمَن كَانَ غَنِيّٗا فَلۡيَسۡتَعۡفِفۡۖ وَمَن كَانَ فَقِيرٗا فَلۡيَأۡكُلۡ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِذَا دَفَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡ فَأَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبٗا 10
(6) और यतीमों की आज़माइश करते रहो यहाँ तक कि वे निकाह के क़ाबिल उम्र को पहुँच जाएँ।4 फिर अगर तुम उनके अन्दर अहलियत पाओ तो उनके माल उनके हवाले कर दो। ऐसा कभी न करना कि हद्दे-इनसाफ़ से तजावुज़ करके इस ख़ौफ़ से उनके माल जल्दी-जल्दी खा जाओ कि वे बड़े होकर अपने हक़ का मुतालबा करेंगे। यतीम का जो सरपरस्त मालदार हो वह परहेज़गारी से काम ले और जो ग़रीब हो वह मारूफ़ तरीक़े से खाए।5 फिर जब उनके माल उनके हवाले करने लगो तो लोगों को उसपर गवाह बना लो, और हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है।
4. यानी जब वे सिने-बुलूग़ के क़रीब पहुँच रहे हों तो देखते रहो कि उनका अक़्ली नश्व व नुमा कैसा है और उनमें अपने मामलात को ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारी पर चलाने की सलाहियत किस हद तक पैदा हो रही है।
5. यानी अपना हक़्क़ुल-ख़िदमत इस हद तक ले कि हर ग़ैर-जानिबदार माक़ूल आदमी उसको मुनासिब तसलीम करे। नीज़ यह कि जो कुछ भी हक़्क़ुल-ख़िदमत वह ले चोरी-छिपे न ले, बल्कि अलानिया मुतअय्यन करके ले और उसका हिसाब रखे।
۞وَلَكُمۡ نِصۡفُ مَا تَرَكَ أَزۡوَٰجُكُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهُنَّ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَهُنَّ وَلَدٞ فَلَكُمُ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡنَۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِينَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۚ وَلَهُنَّ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡتُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّكُمۡ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَكُمۡ وَلَدٞ فَلَهُنَّ ٱلثُّمُنُ مِمَّا تَرَكۡتُمۚ مِّنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ تُوصُونَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۗ وَإِن كَانَ رَجُلٞ يُورَثُ كَلَٰلَةً أَوِ ٱمۡرَأَةٞ وَلَهُۥٓ أَخٌ أَوۡ أُخۡتٞ فَلِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُۚ فَإِن كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِن ذَٰلِكَ فَهُمۡ شُرَكَآءُ فِي ٱلثُّلُثِۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصَىٰ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍ غَيۡرَ مُضَآرّٖۚ وَصِيَّةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَلِيمٞ 11
(12) और तुम्हारी बीवियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका आधा हिस्सा तुम्हें मिलेगा अगर वे बेऔलाद हों, वरना औलाद होने की सूरत में तरके का एक-चौथाई हिस्सा तुम्हारा है, जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। और वे तुम्हारे तरके में से चौथाई की हक़दार होंगी अगर तुम बेऔलाद हों, वरना साहिबे-औलाद होने की सूरत में उनका हिस्सा आठवाँ13 होगा, बाद इसके कि जो वसीयत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए और जो क़र्ज़ तुमने छोड़ा हो वह अदा कर दिया जाए।
और अगर वह मर्द या औरत (जिसकी मीरास तक़सीम तलब है) बेऔलाद भी हो और उसके माँ-बाप भी जिन्दा न हों, मगर उसका एक भाई या एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन हर एक को छठा हिस्सा मिलेगा, और भाई-बहन एक से ज़्यादा हों तो कुल तरके के एक तिहाई में वे सब शरीक होंगे,14 जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो मैयित ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए, बशर्ते कि वह ज़रर–रसाँ15 न हो। यह हुक्म है अल्लाह की तरफ़ से, और अल्लाह दाना व बीना और नर्मख़ू है।
13. यानी ख़ाह एक बीवी हो या कई बीवियाँ, औलाद होने की सूरत में वह 1/8 की और औलाद न होने की सूरत में 1/4 की हिस्सेदार होंगी और ये 1 / 4 = सब बीवियों में बराबरी के साथ तक़सीम किया जाएगा।
14. इस आयत के मुताल्लिक़ मुफ़स्सिरीन का इजमाअ है कि इसमें भाई और बहन से मुराद अख़याफ़ी भाई और बहन हैं यानी जो मैयित के साथ सिर्फ़ माँ तरफ़ से रिश्ता रखते हों और बाप उनका दूसरा हो। रहे सगे भाई-बहन, और सौतेले भाई-बहन जो बाप की तरफ़ से मैयित के साथ रिश्ता रखते हों, उनका हुक्म इसी सूरा की आख़िरी आयत में इरशाद हुआ है।
15. वसीयत में ज़रर-रिसानी यह है कि ऐसे तौर पर वसीयत की जाए जिससे मुस्तहिक़ रिश्तेदारों के हुकूक़ तल्फ़ होते हों और क़र्ज़ में ज़रर-रिसानी यह है कि मह्ज़ हक़दारों को महरूम करने के लिए आदमी ख़ाह-मख़ाह अपने ऊपर ऐसे क़र्ज़ का इक़रार करे जो उसने फ़िल-वाले न लिया हो, या और कोई ऐसी चाल चले जिससे मक़सूद यह हो कि हक़दार मीरास से महरूम हो जाएँ।
وَمَن لَّمۡ يَسۡتَطِعۡ مِنكُمۡ طَوۡلًا أَن يَنكِحَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ فَمِن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن فَتَيَٰتِكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِكُمۚ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ فَٱنكِحُوهُنَّ بِإِذۡنِ أَهۡلِهِنَّ وَءَاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِ مُحۡصَنَٰتٍ غَيۡرَ مُسَٰفِحَٰتٖ وَلَا مُتَّخِذَٰتِ أَخۡدَانٖۚ فَإِذَآ أُحۡصِنَّ فَإِنۡ أَتَيۡنَ بِفَٰحِشَةٖ فَعَلَيۡهِنَّ نِصۡفُ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ مِنَ ٱلۡعَذَابِۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَشِيَ ٱلۡعَنَتَ مِنكُمۡۚ وَأَن تَصۡبِرُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 18
(25) और जो शख़्स तुममे से इतनी मक़दिरत न रखता हो कि ख़ानदानी मुसलमान औरतों (मुहसनात) से निकाह कर सके, उसे चाहिए कि तुम्हारी उन लौडियों में से किसी के साथ निकाह कर ले जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों और मोमिना हो। अल्लाह तुम्हारे ईमानों का हाल ख़ूब जानता है, तुम सब एक ही गरोह के लोग हो, लिहाज़ा उनके सरपरस्तों की इजाज़त से उनके साथ निकाह कर लो और मारूफ़ तरीक़े से उनके मह्र अदा कर दो, ताकि वे हिसारे-निकाह में महफ़ूज़ (मुहसनात) होकर रहें, आज़ाद शहवतरानी न करती फिरें और न चोरी-छिपे आशनाइयाँ करें। फिर जब वे हिसारे-निकाह में महफ़ूज़ हो जाएँ और उसके बाद किसी बदचलनी की मुर्तक़िब हों तो उनपर उस सज़ा के बनिस्बत आधी सज़ा है जो ख़ानदानी औरतों (मुहसनात) के लिए मुक़र्रर है31 यह सहूलत तुममें से उन लोगों के लिए पैदा की गई है जिनको शादी न करने से बन्दे-तक़वा के टूट जाने का अंदेशा हो। लेकिन अगर तुम सब्र करो तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है, और अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
31. इस रुकू में लफ़्ज़ मुहसनात दो मुख़्तलिफ मानी में इस्तेमाल किया गया है। एक 'शादीशुदा औरतें' जिनको शौहर की हिफ़ाज़त हासिल हो। दूसरे 'ख़ानदानी औरतें' जिनको ख़ानदान की हिफ़ाज़त हासिल हो, अगरचे वे शादीशुदा न हो। आयत 24 में 'मुहसनात' का लफ़्ज़ लौंडी के बिल-मुक़ाबिल ग़ैर-शादीशुदा ख़ानदानी औरतों के लिए इस्तेमाल हुआ है जैसा कि आयत के मज़मून से साफ़ ज़ाहिर है। बख़िलाफ़ इसके लौंडियों के लिए मुहसनात का लफ़्ज़ पहले मानी में इस्तेमाल हुआ है और साफ़ अलफ़ाज़ में फ़रमाया है कि जब उन्हें निकाह की हिफ़ाज़त हासिल हो जाए (फ़-इज़ा उहसिन-न) तब उनके लिए ज़िना के इरतिकाब पर उस सज़ा की निस्फ़ सज़ा है जो मुहसनात (ग़ैर-शादीशुदा ख़ानदानी औरतों) के लिए है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً عَن تَرَاضٖ مِّنكُمۡۚ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا 24
(29) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो। आपस में एक-दूसरे के माल बातिल तरीक़ों से न खाओ, लेन-देन होना चाहिए आपस की रज़ामन्दी से।32 और अपने-आपको क़त्ल न करो।33 यक़ीन मानो कि अल्लाह तुम्हारे ऊपर मेहरबान है।
32. 'बातिल तरीक़ों से' मुराद वे तमाम तरीक़े हैं जो ख़िलाफ़े-हक़ हों और शरअन व अख़लाक़न नाजाइज़ हों। ‘आपस की रज़ामन्दी' से मुराद आज़ादाना और जानी-बूझी रज़ामन्दी है। किसी दबाव या धोखे और फ़रेब पर मब्नी रज़ामन्दी का नाम रज़ामन्दी नहीं है।
33. यह फ़िक़रा पिछले फ़िक़रे का ततिम्मा भी हो सकता है और ख़ुद एक मुस्तक़िल फ़िक़रा भी। अगर पिछले फ़िक़रे का ततिम्मा समझा जाए तो इसका मतलब यह है कि दूसरों का माल नाजाइज़ तौर पर खाना ख़ुद अपने-आपको हलाकत में डालना है। और अगर इसे मुस्तक़िल फ़िक़रा समझा जाए तो इसके दो मानी है, एक यह कि एक-दूसरे को क़त्ल न करो। दूसरे यह कि ख़ुदकुशी न करो।
ٱلرِّجَالُ قَوَّٰمُونَ عَلَى ٱلنِّسَآءِ بِمَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ وَبِمَآ أَنفَقُواْ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡۚ فَٱلصَّٰلِحَٰتُ قَٰنِتَٰتٌ حَٰفِظَٰتٞ لِّلۡغَيۡبِ بِمَا حَفِظَ ٱللَّهُۚ وَٱلَّٰتِي تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهۡجُرُوهُنَّ فِي ٱلۡمَضَاجِعِ وَٱضۡرِبُوهُنَّۖ فَإِنۡ أَطَعۡنَكُمۡ فَلَا تَبۡغُواْ عَلَيۡهِنَّ سَبِيلًاۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيّٗا كَبِيرٗا 29
(34) मर्द औरतों पर क़व्वाम हैं,35 इस बिना पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर फ़ज़ीलत दी है, और इस बिना पर कि मर्द अपने माल ख़र्च करते हैं। पस जो सॉलेह औरतें हैं वे इताअत शिआर होती हैं और मर्दों के पीछे अल्लाह की हिफ़ाज़त व निगरानी में उनके हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त करती हैं। और जिन औरतों से तुम्हें सरकशी का अदेशा हो उन्हें समझाओ, ख़ाबगाही में उनसे अलाहिदा रहो और मारो,36 फिर अगर वे तुम्हारी मुतीअ हो जाएँ-ख़ाह-मख़ाह उनपर दस्तदराज़ी के लिए बहाने तलाश न करो, यक़ीन रखो कि ऊपर अल्लाह मौजूद है जो बड़ा और बालातर है।
35. 'क़व्वाम' उस शख़्स को कहते हैं जो किसी फ़र्द या इदारे या निज़ाम के मामलात को दुरुस्त हालत में चलाने और उसकी हिफ़ाज़त व निगहबानी करने और उसकी ज़रूरियात मुहैया करने का ज़िम्मेदार हो।
36. यह मतलब नहीं है कि तीनों काम बयक-वक़्त कर डाले जाएँ, बल्कि मतलब यह है कि सरकशी की हालत में इन तीनों तदबीरों की इजाज़त है। अब रहा इनपर अमल दरामद, तो बहरहाल इसमें और क़ुसूर और सज़ा के दरमियान तनासुब होना चाहिए, और जहाँ हलकी तदबीर से इस्लाह हो सकती हो वहाँ सख़्त तदबीर से काम न लेना चाहिए। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बीवियों के मारने की जब कभी इजाज़त दी है तो बादिले-नाख़ास्ता दी है और फिर भी उसे नापसन्द ही फ़रमाया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡرَبُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنتُمۡ سُكَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَعۡلَمُواْ مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّىٰ تَغۡتَسِلُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا 30
(43) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब तुम नशे की हालत में हो तो नमाज़ के क़रीब न जाओ।39 नमाज़ उस वक़्त पढ़नी चाहिए जब तुम जानो कि क्या कह रहे हो। और इसी तरह जनाबत की हालत में भी नमाज़ के क़रीब न जाओ जब तक कि ग़ुस्ल न कर लो, इल्ला यह कि रास्ते से गुज़रते हो।42 और अगर कभी ऐसा हो कि तुम बीमार हो, या सफ़र में हो, या तुममें से कोई शख़्स रफ़ए-हाजत करके आए, या तुमने औरतों को लम्स किया हो43 और फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से काम लो और उससे अपने चेहरों और हाथों पर मसह कर लो44, बेशक अल्लाह नर्मी से काम लेनेवाला और बख़शिश फ़रमानेवाला है।
39. यह शराब के मुताल्लिक़ दूसरा हुक्म है। पहला हुक्म वह था जो सूरा-2 बक़रा, आयत-219 में गुज़र चुका है।
40. यानी नमाज़ में आदमी को इतना होश रहना चाहिए कि वह यह जाने कि वह क्या चीज़ अपनी ज़बान से अदा कर रहा है। ऐसा न हो कि वह खड़ा तो हो नमाज़ पढ़ने और शुरू कर दे कोई ग़ज़ल।
41. 'जनाबत' से मुराद वह नजासत है जो मुबाशरत से या ख़ाब में माद्दा ख़ारिज होने से लाहिक़ होती है।
42. फ़ुक़हा और मुफ़स्सिरीन में से एक गरोह ने इस आयत का मफ़हूम यह समझा है कि जनाबत की हालत में मस्जिद में न जाना चाहिए, इल्ला यह कि किसी काम के लिए मस्जिद में से गुज़रना हो। दूसरा गरोह इससे सफ़र मुराद लेता है। यानी अगर आदमी हालते-सफ़र में हो और जनाबत लाहिक़ हो जाए तो तयम्मुम किया जा सकता है।
43. इस अम्र में इख़्तिलाफ़ है कि 'लम्स' यानी छूने से क्या मुराद है। मुतअद्दिद अइम्मा की राय है कि इससे मुराद मुबाशरत है और इसी राय को इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके असहाब ने इख़्तियार किया है। बख़िलाफ़ इसके बाज़ दूसरे फ़ुक़हा के नज़दीक इससे मुराद छूना या हाथ लगाना है, और इसी राय को इमाम शाफ़िई (रह०) ने इख़्तियार किया है। इमाम मालिक (रह०) की राय है कि अगर औरत या मर्द एक-दूसरे को जज़्बाते-शहवानी के साथ हाथ लगाएँ तो उनका वुज़ू साक़ित हो जाएगा, लेकिन अगर जज़्बाते-शहवानी के बग़ैर एक का जिस्म दूसरे से मस हो जाए तो इसमें कोई मुज़ाइक़ा नहीं।
44. हुक्म की तफ़सीली सूरत यह है कि अगर आदमी बेवुज़ू है या उसे ग़ुस्ल की हाजत है और पानी नहीं मिलता तो तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ सकता है। अगर मरीज़ है और ग़ुस्ल या वुज़ू करने से उसको नुक़सान का अंदेशा है तो पानी मौजूद होने के बावजूद तयम्मुम की इजाज़त से फ़ायदा उठा सकता है।
مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَيَقُولُونَ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَٱسۡمَعۡ غَيۡرَ مُسۡمَعٖ وَرَٰعِنَا لَيَّۢا بِأَلۡسِنَتِهِمۡ وَطَعۡنٗا فِي ٱلدِّينِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَا وَٱسۡمَعۡ وَٱنظُرۡنَا لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَقۡوَمَ وَلَٰكِن لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا 33
(46) जिन लोगों ने यहूदियत का तरीक़ा इख़्तियार किया है उनमें कुछ लोग हैं जो अलफ़ाज़ को उनके महल से फेर देते हैं,45 और दीने-हक़ के ख़िलाफ़ नैश-ज़नी करने के लिए अपनी ज़बानों को तोड़-मोड़कर कहते हैं, “समिअना व असैना”46 और “इस-मअ ग़ै-र मुस्मइन”47 और “राइना”48 हालाँकि अगर वे कहते “समिअना व अतअना” और “इस-मअ” और “उनज़ुरना” तो यह उन्हीं के लिए बेहतर था और ज़्यादा रास्त-बाज़ी का तरीक़ा था। मगर उनपर तो उनकी बातिल-परस्ती की बदौलत अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है। इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
45. इसके तीन मतलब हैं— एक यह कि किताबुल्लाह के अलफ़ाज़ में रद्दो-बदल करते हैं। दूसरे यह कि अपनी तावीलात से आयाते-किताब के मानी कुछ-से-कुछ बना देते हैं। तीसरे यह कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप (सल्ल) के पैरुओं की सोहबत में आकर उनकी बातें सुनते हैं और वापस जाकर लोगों के सामने ग़लत तरीक़े से रिवायत करते हैं, बात कुछ कही जाती है और वे उसे अपनी शरारत से कुछ-का-कुछ बनाकर लोगों में मशहूर कर देते हैं।
46. यानी जब उन्हें ख़ुदा के अहकाम सुनाए जाते हैं तो ज़ोर से कहते हैं 'समिअना' (हमने सुन लिया) और आहिस्ता से कहते हैं 'असैना' (हमने क़बूल नहीं किया) या 'अतअना' (हमने क़ुबूल किया) का तलफ़्फ़ुज़ इस अन्दाज़ से ज़बान को लचका देकर अदा करते हैं कि 'असैना' बन जाता है।
47. यानी दौराने-गुफ़्तगू में जब वे कोई बात मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहना चाहते हैं तो कहते हैं 'इस-मअ' (सुनिए) और फिर साथ ही ‘ग़ै-र-मुस्मइन’ भी कहते हैं जो ज़ू- मानी है। इसका एक मतलब यह है कि आप ऐसे मोहतरम हैं कि आपको कोई बात ख़िलाफ़े-मरज़ी नहीं सुनाई जा सकती। दूसरा मतलब यह है कि तुम इस क़ाबिल नहीं हो कि तुम्हें कोई कुछ सुनाए। एक और मतलब यह है कि ख़ुदा करे तुम बहरे हो जाओ।
48. इसकी तशरीह सूरा-2 बक़रा हाशिया-36 में गुज़र चुकी है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡجِبۡتِ وَٱلطَّٰغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ هَٰٓؤُلَآءِ أَهۡدَىٰ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ سَبِيلًا 38
(51) क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा दिया गया है और उनका हाल यह है कि जिब्त49 और ताग़ूत50 को मानते हैं और काफ़िरों के मुताल्लिक़ कहते हैं कि ईमान लानेवालों से तो यही ज़्यादा सही रास्ते पर हैं।51
49. 'जिब्त' के अस्ली मानी बेहक़ीक़त, बेअस्ल और बेफ़ायदा चीज़ के हैं। इस्लाम की ज़बान में जादू, कहानत (ज्योतिष), फ़ालगीरी, टोने-टोटके, शगुन और मुहूर्त और तमाम दूसरी वहमी व ख़याली बातों को 'जिब्त' से ताबीर किया गया है।
50. तशरीह के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-2 बक़रा, हाशिया-91।
51. यहाँ काफ़िरों से मुराद मुशरिकीने-अरब हैं।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تُؤَدُّواْ ٱلۡأَمَٰنَٰتِ إِلَىٰٓ أَهۡلِهَا وَإِذَا حَكَمۡتُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ أَن تَحۡكُمُواْ بِٱلۡعَدۡلِۚ إِنَّ ٱللَّهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا 45
(58) (मुसलमानो!) अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानते अहले-अमानत के सिपुर्द करो, और जब लोगों के दरमियान फ़ैसला करो तो अद्ल के साथ करो,53 अल्लाह तुमको निहायत उमदा नसीहत करता है और यक़ीनन अल्लाह सब कुछ सुनता और देखता है।
53. यानी तुम उन बुराइयों से बचे रहना जिनमें बनी-इसराईल मुब्तला हो गए हैं। बनी-इसराईल की बुनियादी ग़लतियों में से एक यह थी कि उन्होंने अपने इनहितात के ज़माने में अमानतें, यानी ज़िम्मेदारी के मनसब और मज़हबी पेशवाई और क़ौमी सरदारी के मर्तबे ऐसे लोगों को देने शुरू कर दिए जो नाअहल, कमज़र्फ़, बदअख़लाक़, बददियानत और बदकार थे। नतीजा यह हुआ कि बुरे लोगों की क़ियादत से सारी क़ौम खराब होती चली गई। मुसलमानों को हिदायत की जा रही है कि तुम ऐसा न करना। बनी-इसराईल की दूसरी बड़ी कमज़ोरी यह थी कि वे इनसाफ़ की रूह से ख़ाली हो गए थे। वे शख़्सी और क़ौमी अग़राज़ के लिए बेतकल्लुफ़ ईमान निगल जाते थे। सरीह हठधर्मी बरत जाते थे। इनसाफ़ के गले पर छुरी फेरने में उन्हें ज़रा ताम्मुल न होता था। अल्लाह तआला मुसलमानों को हिदायत करता है कि तुम कहीं बेइनसाफ़ न बन जाना। ख़ाह किसी से दोस्ती हो या दुश्मनी, बहरहाल बात जब कहो इनसाफ़ की कहो और फ़ैसला जब करो अद्ल के साथ करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَٰزَعۡتُمۡ فِي شَيۡءٖ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلًا 46
(59) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और उन लोगों की जो तुममें से साहिबे-अम्र हों, फिर अगर तुम्हारे दरमियान किसी मामले में निज़ाअ हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ फेर दो54 अगर तुम वाक़ई अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान रखते हो। यही एक सही तरीक़े-कार है और अंजाम के एतिबार से भी बेहतर है।
54. यह आयत इस्लाम के पूरे मज़हबी, तमद्दुनी और सियासी निज़ाम की बुनियाद और इस्लामी रियासत के दस्तूर की अव्वलीन दफ़अ है। इसमें हस्बे-ज़ैल चार उसूल मुस्तक़िल तौर पर क़ायम कर दिए गए हैं— (1) इस्लामी निज़ाम में मुताअ अल्लाह तआला है। एक मुसलमान सबसे पहले बन्दा-ए-ख़ुदा है, बाक़ी जो कुछ भी है उसके बाद है। (2) इस्लामी निज़ाम की दूसरी बुनियाद रसूल की इताअत है। (3) मज़कूरा बाला दोनों इताअतों के बाद और उनके मातहत तीसरी इताअत उन ‘ऊलुल-अम्र' की है जो ख़ुद मुसलमानों में से हों। 'ऊलुल-अम्र' के मफ़हूम में वे सब लोग शामिल हैं जो मुसलमानों के इजतिमाई मामलात के सरबराहकार हों, ख़ाह वे उलमा हों, या सियासी रहनुमाई करनेवाले लीडर हों, या मुल्की इन्तिज़ाम करनेवाले हुक्काम, या अदालती फ़ैसले करनेवाले जज, या तमद्दुनी व मुआशरती अम्र में क़बीलों और बस्तियों और महलों की सरबराही करनेवाले शुयूख़ और सरदार। (4) ख़ुदा का हुक्म और रसूल का तरीक़ा बुनियादी क़ानून और आख़िरी सनद है। मुसलमानों के दरमियान या हुकूमत और रिआया के दरमियान जिस मसले में भी निज़ाअ होगी उसमें फ़ैसले के लिए क़ुरआन और सुन्नत की तरफ़ रुजूअ किया जाएगा और जो फ़ैसला वहाँ से हासिल होगा उसके सामने सब सरे-तसलीम ख़म कर देंगे।
وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٍ أَن يَقۡتُلَ مُؤۡمِنًا إِلَّا خَطَـٔٗاۚ وَمَن قَتَلَ مُؤۡمِنًا خَطَـٔٗا فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖ وَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَصَّدَّقُواْۚ فَإِن كَانَ مِن قَوۡمٍ عَدُوّٖ لَّكُمۡ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ وَإِن كَانَ مِن قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞ فَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ وَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ شَهۡرَيۡنِ مُتَتَابِعَيۡنِ تَوۡبَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا 79
(92) किसी मोमिन का यह काम नहीं है कि दूसरे मोमिन को क़त्ल करे, इल्ला यह कि उससे चूक हो जाए। और जो शख़्स किसी मोमिन को गलती से क़त्ल कर दे तो उसका कफ़्फ़ारा यह है कि एक मोमिन को ग़ुलामी से आज़ाद करे64 और मक़तूल के वारिसों को ख़ूँबहा65 दे, इल्ला यह कि वे ख़ूँबहा माफ़ कर दें। लेकिन अगर वह मुसलमान मक़तूल किसी ऐसी क़ौम से था जिससे तुम्हारी दुश्मनी हो तो उसका कफ़्फ़ारा एक मोमिन ग़ुलाम आज़ाद करना है और अगर वह किसी ऐसी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम का फ़र्द था जिससे तुम्हारा मुआहदा हो तो उसके वारिसों को ख़ूँबहा दिया जाएगा और एक मोमिन ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा।66 फिर जो ग़ुलाम न पाए वह पै-दर-पै दो महीने के रोज़े रखे।67 यह इस गुनाह पर अल्लाह से तौबा करने का तरीक़ा है68, और अल्लाह अलीम व दाना है।
64 चूँकि मक़तूल मोमिन था इसलिए उसके क़त्ल का कफ़्फ़ारा एक मोमिन ग़ुलाम की आज़ादी क़रार दिया गया है।
65. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ख़ूँबहा की मिक़दार सौ ऊँट, या दो सौ गायें, या दो हज़ार बकरियाँ मुक़र्रर फ़रमाई है। अगर दूसरी किसी शक्ल में कोई शख़्स ख़ूँबहा देना चाहे तो उसकी मिक़दार इन्हीं चीज़ों की बाज़ारी क़ीमत के लिहाज़ से मुअय्यन की जाएगी। मसलन नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में नक़द ख़ूँबहा देनेवालों के लिए 8 सौ दीनार या 8 हज़ार दिरहम मुक़र्रर थे। जब हज़रत उमर (रज़ि०) का ज़माना आया तो उन्होंने फ़रमाया कि ऊँटों की क़ीमत अब चढ़ गई है, लिहाज़ा अब सोने के सिक्के में एक हज़ार दीनार, या चाँदी के सिक्के में 12 हज़ार दिरहम ख़ूँबहा दिलवाया जाएगा। मगर वाज़ेह रहे कि ख़ूँबहा की यह मिक़दार जो मुक़र्रर की गई है क़त्ले-अम्द की सूरत के लिए नहीं है, बल्कि क़त्ले-ख़ता की सूरत के लिए है।
66. इस आयत के अहकाम का खुलासा यह है— अगर मक़तूल दारुल-इस्लाम का बाशिन्दा हो तो उसके क़ातिल को ख़ूँबहा भी देना होगा और ख़ुदा से अपने क़ुसूर की माफ़ी माँगने के लिए एक ग़ुलाम भी आज़ाद करना होगा। अगर वह दारुल-हरब का बाशिन्दा हो तो क़ातिल को सिर्फ़ ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। उसका ख़ूँबहा कुछ नहीं है। अगर वह किसी ऐसे दारुल-कुफ़्र का बाशिन्दा हो जिससे इस्लामी हुकूमत का मुआहदा है तो क़ातिल को एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा और इसके अलावा ख़ूँबहा भी देना होगा। लेकिन ख़ूँबहा की मिक़दार वही होगी जितनी उस मुआहदे-क़ौम के किसी ग़ैर-मुस्लिम फ़र्द को क़त्ल कर देने की सूरत में अज़ रू-ए-मुआहदा दी जानी चाहिए।
67. यानी रोज़े मुसलसल रखे जाएँ, बीच में नाग़ा न हो। अगर कोई शख़्स उज़्रे-शरई के बग़ैर एक रोज़ा भी बीच में छोड़ दे तो अज़ सरे-नौ रोज़ों का सिलसिला शुरू करना पड़ेगा।
68. यानी यह 'जुर्माना' नहीं बल्कि 'तौबा' और 'कफ़्फ़ारा' है। जुर्माने में नदामत और शर्मसारी और इस्लाहे-नफ़्स की कोई रूह नहीं होती बल्कि उमूमन वह सख़्त नागवारी के साथ मजबूरन दिया जाता है और बेज़ारी व तल्ख़ी अपने पीछे छोड़ जाता है। बरअक्स इसके अल्लाह तआला चाहता है कि जिस बन्दे से ख़ता हुई है वह इबादत और कारे-ख़ैर और अदा-ए-हुक़ूक़ के ज़रिए से उसका असर अपनी रूह पर से धो दे और शर्मसारी व नदामत के साथ अल्लाह की तरफ़ रुजूअ करे, ताकि न सिर्फ़ यह गुनाह माफ़ हो, बल्कि आइन्दा के लिए उसका नफ़्स ऐसी ग़लतियों के इआदे से भी महफ़ूज़ रहे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَتَبَيَّنُواْ وَلَا تَقُولُواْ لِمَنۡ أَلۡقَىٰٓ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَٰمَ لَسۡتَ مُؤۡمِنٗا تَبۡتَغُونَ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ مَغَانِمُ كَثِيرَةٞۚ كَذَٰلِكَ كُنتُم مِّن قَبۡلُ فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ فَتَبَيَّنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا 81
(94) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब तुम अल्लाह की राह में जिहाद के लिए निकलो तो दोस्त- दुश्मन में तमीज़ करो और जो तुम्हारी तरफ़ सलाम से तक़दीम करे उसे फ़ौरन न कह दो कि तू मोमिन नहीं है। अगर तुम दुनियवी फ़ायदा चाहते हो तो अल्लाह के पास तुम्हारे लिए बहुत-से अमवाले-ग़नीमत हैं। आख़िर इसी हालत में तुम ख़ुद भी तो इससे पहले मुब्तला रह चुके हो, फिर अल्लाह ने तुमपर एहसान किया, लिहाज़ा तहक़ीक़ से काम लो,69 जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है।
69. इबतिदा-ए-इस्लाम में 'अस्सलामु अलैकुम' का लफ़्ज़ मुसलमानों के लिए शिआर व अलामत की हैसियत रखता था और एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को देखकर यह लफ़्ज़ इस मानी में इस्तेमाल करता था कि मैं तुम्हारे ही गरोह का आदमी हूँ, दोस्त और ख़ैरख़ाह हूँ, दुश्मन नहीं हूँ। ख़ुसूसियत के साथ उस ज़माने में इस शिआर की अहमियत इस वजह से और भी ज़्यादा थी कि उस वक़्त अरब के नव-मुस्लिमों और काफ़िरों के दरमियान लिबास, ज़बान और किसी दूसरी चीज़ में कोई नुमायाँ इमतियाज़ न था जिसकी वजह से एक मुसलमान सरसरी नज़र में दूसरे मुसलमान को पहचान सकता हो। लेकिन लड़ाइयों के मौक़े पर एक पेचीदगी यह पेश आती थी कि मुसलमान जब किसी दुश्मन गरोह पर हमला करते और वहाँ कोई मुसलमान इस लपेट में आ जाता तो वह हमलाआवर मुसलमानों को यह बताने के लिए कि वह भी उनका दीनी भाई है 'अस्सलामु अलैकुम' या 'ला इला-ह इल्लल्लाह' पुकारता था, मगर मुसलमानों को उसपर यह शुब्ह होता था कि यह कोई काफ़िर है जो मह्ज़ जान बचाने के लिए हीला कर रहा है, इसलिए बसा-औक़ात वे उसे क़त्ल कर बैठते थे। आयत का मंशा यह है कि जो शख़्स अपने-आपको मुसलमान की हैसियत से पेश कर रहा है उसके मुताल्लिक़ तुम्हें सरसरी तौर पर यह फ़ैसला कर देने का हक़ नहीं है कि वह मह्ज़ जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा है। हो सकता है कि वह सच्चा हो और हो सकता है कि झूठा हो। हक़ीक़त तो तहक़ीक़ ही से मालूम हो सकती है। तहक़ीक़ के बग़ैर छोड़ देने में अगर यह इमकान है कि एक काफ़िर झूठ बोलकर जान बचा ले जाए, तो क़त्ल कर देने में इसका इमकान भी है कि एक मोमिन बेगुनाह तुम्हारे हाथ से मारा जाए।
۞وَٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗا وَبِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡجَارِ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡجَارِ ٱلۡجُنُبِ وَٱلصَّاحِبِ بِٱلۡجَنۢبِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ مُخۡتَالٗا فَخُورًا 89
(36) और तुम सब अल्लाह की बन्दगी करो, उसके साथ किसी को शरीक न बनाओ, माँ-बाप के साथ नेक बरताव करो, क़राबतदारों और यतीमों और मिसकीनों के साथ हुस्ने-सुलूक से पेश आओ, और पड़ोसी रिश्तेदार से, अजनबी हमसाए से, पहलू के साथी38 और मुसाफ़िर से, और उन लौंडी, गुलामों से, जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों, एहसान का मामला रखो, यक़ीन जानो अल्लाह किसी ऐसे शख़्स को पसन्द नहीं करता जो अपने पिन्दार में मग़रूर हो और अपनी बड़ाई पर फ़ख्र करे।
38. इससे मुराद हमनशीन दोस्त भी है और ऐसा शख़्स भी जिससे कहीं किसी वक़्त आदमी का साथ हो जाए। मसलन आप बाज़ार में जा रहे हों और कोई शख़्स आपके साथ रास्ता चल रहा हो, या किसी दुकान पर आप सौदा ख़रीद रहे हों और कोई दूसरा ख़रीदार भी आपके पास बैठा हो, या सफ़र के दौरान में कोई शख़्स आपका हम-सफ़र हो। यह आरज़ी हमसायगी भी हर मुहज़्ज़ब और शरीफ़ इनसान पर एक हक़ आयद करती है जिसका तक़ाज़ा यह है कि वह हत्तल-इमकान उसके साथ नेक बरताव करे और उसे तकलीफ़ देने से मुज्तनिब रहे।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمۡ أُمَّهَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُمۡ وَعَمَّٰتُكُمۡ وَخَٰلَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُ ٱلۡأَخِ وَبَنَاتُ ٱلۡأُخۡتِ وَأُمَّهَٰتُكُمُ ٱلَّٰتِيٓ أَرۡضَعۡنَكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُم مِّنَ ٱلرَّضَٰعَةِ وَأُمَّهَٰتُ نِسَآئِكُمۡ وَرَبَٰٓئِبُكُمُ ٱلَّٰتِي فِي حُجُورِكُم مِّن نِّسَآئِكُمُ ٱلَّٰتِي دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَإِن لَّمۡ تَكُونُواْ دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ وَحَلَٰٓئِلُ أَبۡنَآئِكُمُ ٱلَّذِينَ مِنۡ أَصۡلَٰبِكُمۡ وَأَن تَجۡمَعُواْ بَيۡنَ ٱلۡأُخۡتَيۡنِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 94
(23) तुमपर हराम की गईं तुम्हारी माएँ, बेटियाँ, बहनें, फूफियाँ, ख़ालाएँ, भतीजियाँ, भाँजियाँ और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुमको दूध पिलाया हो, और तुम्हारी दूध-शरीक बहनें12, और तुम्हारी बीवियों की लड़कियाँ जिन्होंने तुम्हारी गोदों में परवरिश पाई हैं।26 —उन बीवियों की लड़कियाँ जिनसे तुम्हारा ताल्लुक़े-ज़न व शौ हो चुका हो। वरना अगर (सिर्फ़ निकाह हुआ हो और) ताल्लुक़े-ज़न व शौ हुआ हो तो (उन्हें छोड़कर उनकी लड़कियों से निकाह कर लेने में) तुमपर कोई मुवाख़ज़ा नहीं है। — और तुम्हारे उन बेटों की बीवियाँ जो तुम्हारे सुल्ब से हों।27” और यह भी तुमपर हराम किया गया है कि एक निकाह में दो बहनों को जमा करो,28 मगर जो पहले हो गया सो हो गया, अल्लाह बख़्शनेवाला और रह्म करनेवाला है।29
21. माँ का इतलाक़ सगी और सौतेली दोनों क़िस्म की माँओं पर होता है, इसलिए दोनों हराम हैं। नीज़ इसी हुक्म में बाप की माँ और माँ की माँ भी शामिल हैं।
22. बेटी के हुक्म में पोती और नवासी भी शामिल हैं।
23. सगी बहन और माँ-शरीक बहन और बाप-शरीक बहन तीनों इस हुक्म में यकसाँ हैं।
24. इन सब रिश्तों में भी सगे और सौतेले के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है।
25. इस अम्र पर उम्मत में इत्तिफ़ाक़ है कि एक लड़के या लड़की ने जिस औरत का दूध पिया हो उसके लिए वह औरत माँ के हुक्म में और उसका शौहर बाप के हुक्म में है, और तमाम वे रिश्ते जो हक़ीक़ी माँ और बाप के ताल्लुक़ से हराम होते हैं, रज़ाई माँ और बाप के ताल्लुक़ से भी हराम हो जाते हैं। उस बच्चे के लिए रज़ाई माँ का सिर्फ़ वही बच्चा हराम नहीं है जिसके साथ उसने दूध पिलाया हो, बल्कि उसकी सारी औलाद उसके सगे भाई-बहनों की तरह हैं और उनके बच्चे उसके लिए सगे भाँजों-भतीजों की तरह हैं।
26. ऐसी लड़की का हराम होना इस शर्त पर मौकूफ़ नहीं है कि उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो। फ़ुक़हाए-उम्मत का इस बात पर तक़रीबन इजमाअ है कि सौतेली बेटी आदमी पर बहरहाल हराम है, ख़ाह उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो या न पाई हो।
27. बेटे ही की तरह पोते और नवासे की बीवी भी दादा और नाना पर हराम है।
28. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हिदायत है कि ख़ाला और भाँजी और फूफी और भतीजी को भी एक साथ निकाह में रखना हराम है। इस मामले में यह उसूल समझ लेना चाहिए कि ऐसी दो औरतों को जमा करना बहरहाल हराम है जिनमें से कोई एक अगर मर्द होती तो उसका निकाह दूसरी से हराम होता।
29. यानी इसपर बाज़पुर्स न होगी मगर जिस शख़्स ने हालते-कुफ़्र में दो बहनों को निकाह में जमा कर रखा हो उसे इस्लाम लाने के बाद एक को रखना और एक को छोड़ना होगा।
۞وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۖ كِتَٰبَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡۚ وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَآءَ ذَٰلِكُمۡ أَن تَبۡتَغُواْ بِأَمۡوَٰلِكُم مُّحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَۚ فَمَا ٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهِۦ مِنۡهُنَّ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا تَرَٰضَيۡتُم بِهِۦ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡفَرِيضَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا 97
(24) और वे औरतें भी तुमपर हराम हैं जो किसी दूसरे के निकाह में हों (मुहसनात), अलबत्ता ऐसी औरतें इससे मुस्तसना हैं जो (जंग में ) तुम्हारे हाथ आएँ।30 “यह अल्लाह का क़ानून है जिसकी पाबन्दी तुमपर लाज़िम कर दी गई है।
इनके मासिवा जितनी औरतें हैं उन्हें अपने अमवाल के ज़रिए हासिल करना तुम्हारे लिए हलाल कर दिया गया है, बशर्ते कि हिसारे-निकाह में उनको महफ़ूज़ करो, न यह कि आज़ाद शहवतरानी करने लगो। फिर जो इज़दिवाजी ज़िन्दगी का लुत्फ़ तुम उनसे उठाओ उसके बदले उनके मह्र बतौर फ़र्ज़ के अदा करो, अलबत्ता मह्र की क़रारदाद हो जाने के बाद आपस की रज़ामन्दी से तुम्हारे दरमियान अगर कोई समझौता हो जाए तो उसमें कोई हरज नहीं, अल्लाह अलीम और दाना है।
30. यानी जो औरतें जंग में पकड़ी हुई आएँ और उनके काफ़िर शौहर दारुल-हर्ब में मौजूद हों वे हराम नहीं हैं, क्योंकि दारुल-हर्ब से दारुल-इस्लाम में आने के बाद उनके निकाह टूट गए।
وَلَأُضِلَّنَّهُمۡ وَلَأُمَنِّيَنَّهُمۡ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُبَتِّكُنَّ ءَاذَانَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلۡقَ ٱللَّهِۚ وَمَن يَتَّخِذِ ٱلشَّيۡطَٰنَ وَلِيّٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ فَقَدۡ خَسِرَ خُسۡرَانٗا مُّبِينٗا 112
(119) मैं उन्हें बहकाऊँगा, मैं उन्हें आरज़ुओं में उलझाऊँगा, मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से जानवरों के कान फाड़ेंगे78 और मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से ख़ुदाई साख़्त में रद्दोबदल करेंगे।”79 इस शैतान को जिसने अल्लाह के बजाय अपना वली व सरपरस्त बना लिया वह सरीह नुक़सान में पड़ गया।
78. अहले-अरब की तवह्हुमात में से एक की तरफ़ इशारा है। उनके यहाँ क़ायदा था कि जब ऊँटनी पाँच या दस बच्चे जन लेती तो उसके कान फाड़कर उसे अपने देवता के नाम छोड़ देते और उससे काम लेना हराम समझते थे। इसी तरह जिस ऊँट के नुत्फ़े से दस बच्चे हो जाते तो उसे भी देवता के नाम पर पुण्य कर दिया जाता था, और कान चीरना इस बात की अलामत था कि यह पुण्य किया हुआ जानवर है।
79. ख़ुदाई साख़्त में रद्दो-बदल करने का मतलब अशया की पैदाइशी बनावट में रद्दो-बदल करना नहीं है, बल्कि दरअस्ल इस जगह जिस रद्दो-बदल को शैतानी फ़ेल करार दिया गया है वह यह है कि इनसान किसी चीज़ से वह काम ले जिसके लिए ख़ुदा ने उसे पैदा नहीं किया है, और किसी चीज़ से वह काम न ले जिसके लिए ख़ुदा ने उसे पैदा किया है। ब-अलफ़ाज़े-दीगर वे तमाम अफ़आल जो इनसान अपनी और अशया की फ़ितरत के ख़िलाफ़ करता है, और वे तमाम सूरतें जो मंशा-ए-फ़ितरत से गुरेज़ के लिए इख़्तियार करता है, इस आयत की रू से शैतान की गुमराहकुन तहरीकात का नतीजा हैं। मसलन अमले-क़ौमे-लूत, ज़ब्ते-विलादत, रहबानियत, ब्रह्मचर्य, मर्दों और औरतों को बाँझ बनाना, मर्दों को ख़ाजासरा बनाना, औरतों को उनकी उन ख़िदमात से मुनहरिफ़ करना जो फ़ितरत ने उनके सिपुर्द की हैं और उन्हें तमद्दुन के उन शोबों में घसीट लाना जिनके लिए मर्द पैदा किया गया है।
وَيَسۡتَفۡتُونَكَ فِي ٱلنِّسَآءِۖ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِيهِنَّ وَمَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ فِي يَتَٰمَى ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا تُؤۡتُونَهُنَّ مَا كُتِبَ لَهُنَّ وَتَرۡغَبُونَ أَن تَنكِحُوهُنَّ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلۡوِلۡدَٰنِ وَأَن تَقُومُواْ لِلۡيَتَٰمَىٰ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِهِۦ عَلِيمٗا 127
(127) लोग तुमसे औरतों के बारे में फ़तवा पूछते हैं।80 कहो, “अल्लाह तुम्हें उनके मामले में फ़तवा देता है, और साथ ही वे अहकाम भी याद दिलाता है जो पहले से तुमको इस किताब में सुनाए जा रहे हैं। यानी वे अहकाम जो उन यतीम लड़कियों के मुताल्लिक़ हैं जिनके हक़ तुम अदा नहीं करते और जिनके निकाह करने से तुम बाज़ रहते हो (या लालच की बिना पर तुम ख़ुदा उनसे निकाह कर लेना चाहते हो81) और वे अहकाम जो उन बच्चों के मुताल्लिक़ हैं जो बेचारे कोई ज़ोर नहीं रखते। अल्लाह तुम्हें हिदायत करता है कि यतीमों के साथ इनसाफ़ पर क़ायम रहो, और जो भलाई तुम करोगे वह अल्लाह के इल्म से छिपी न रह जाएगी।”
80. यह तसरीह नहीं फ़रमाई गई कि वे क्या फ़तवा पूछते थे। लेकिन आयात 128 से 130 में जो फ़तवा दिया गया है उससे सवाल की नौइयत समझ में आ जाती है।
81. 'तर-ग़-बू-न अन तनकिहू हुन-न' का मतलब यह भी हो सकता है कि ‘तुम उनसे निकाह करने की रग़बत रखते हो' और यह भी हो सकता है कि 'तुम निकाह करना पसन्द नहीं करते’।
وَإِنِ ٱمۡرَأَةٌ خَافَتۡ مِنۢ بَعۡلِهَا نُشُوزًا أَوۡ إِعۡرَاضٗا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَآ أَن يُصۡلِحَا بَيۡنَهُمَا صُلۡحٗاۚ وَٱلصُّلۡحُ خَيۡرٞۗ وَأُحۡضِرَتِ ٱلۡأَنفُسُ ٱلشُّحَّۚ وَإِن تُحۡسِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا 129
(128) अगर किसी82 औरत को अपने शौहर से बदसुलूकी या बेरुख़ी का ख़तरा हो तो कोई मुज़ायक़ा नहीं कि मियाँ और बीवी (कुछ हुक़ूक़ की कमी-बेशी पर) आपस में सुलह कर लें।83 सुलह बहरहाल बेहतर है। नफ़्स तंगदिली की तरफ़ जल्दी माइल हो जाते हैं, लेकिन अगर तुम लोग एहसान से पेश आओ और ख़ुदातरसी से काम लो, तो यक़ीन रखो कि अल्लाह तुम्हारे इस तर्ज़े-अमल से बेख़बर न होगा।
82. यहाँ से लोगों के सवाल का जवाब शुरू होता है। सवाल यह था कि एक से ज़ाइद बीवियाँ होने की सूरत में अद्ल का जो हुक्म दिया गया है उसपर किस तरह अमल किया जाए जबकि एक बीवी दायमुल-मर्ज़ है या ताल्लुक़े-ज़नो-शौ के क़ाबिल नहीं रही है। क्या इस सूरत में भी उसपर लाज़िम है कि दोनों से मुहब्बत रखे, जिस्मानी ताल्लुक़ में भी यकसानी बरते? और अगर वह ऐसा न करे तो क्या अद्ल की शर्त का तकाज़ा यह है कि वह दूसरी शादी करने के लिए पहली बीवी को छोड़ दे? नीज़ यह कि अगर पहली बीवी ख़ुद जुदा न होना चाहे तो क्या ज़ौजैन में इस क़िस्म का मामला हो सकता है कि जो बीवी ग़ैर-मरग़ूब हो चुकी है वह अपने बाज़ हुक़ूक़ से ख़ुद दस्तबरदार होकर शौहर को तलाक़ से बाज़ रहने पर राज़ी कर ले? क्या ऐसा करना अद्ल की शर्त के ख़िलाफ़ तो न होगा?
83. यानी तलाक़ व जुदाई से बेहतर है कि इस तरह बाहम मुसालहत करके एक औरत उसी शौहर के साथ रहे जिसके साथ वह उम्र का एक हिस्सा गुज़ार चुकी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِي نَزَّلَ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِن قَبۡلُۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا 132
(136) ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो। ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो अल्लाह ने अपने रसूल पर नाज़िल की है और हर उस किताब पर जो इससे पहले वह नाज़िल कर चुका है।85 जिसने अल्लाह और उसके मलाइका और उसकी किताबों और उसके रसूलों और रोज़ो-आख़िरत से कुफ़्र किया86 वह गुमराही में भटककर बहुत दूर निकल गया।
85. ईमान लानेवालों से कहना कि ईमान लाओ बज़ाहिर अजीब मालूम होता है। लेकिन दरअस्ल यहाँ लफ़्ज़ ईमान दो अलग मानों में इस्तेमाल हुआ है। ईमान लाने का एक मतलब यह है कि आदमी इनकार के बजाय इक़रार की राह इख़्तियार करे, न माननेवालों से अलग होकर माननेवालों में शामिल हो जाए। और इसका दूसरा मतलब यह है कि आदमी जिस चीज़ को माने उसे सच्चे दिल से माने, पूरी संजीदगी और ख़ुलूस के साथ माने। आयत में ख़िताब उन तमाम मुसलमानों से है जो पहले मानी के लिहाज़ से 'माननेवालों' में शुमार होते हैं। और उनसे मुतालबा यह किया गया है कि दूसरे मानी के लिहाज़ से सच्चे मोमिन बनें।
86. कुफ़्र करने के भी दो मतलब हैं। एक यह कि आदमी साफ़-साफ़ इनकार कर दे दूसरे यह कि ज़बान से तो माने मगर दिल से न माने, या अपने रवैये से साबित कर दे कि वह जिस चीज़ को मानने का दावा कर रहा है फ़िल–वाक़े उसे नहीं मानता।
وَقَوۡلِهِمۡ إِنَّا قَتَلۡنَا ٱلۡمَسِيحَ عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ رَسُولَ ٱللَّهِ وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ لَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُۚ مَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍ إِلَّا ٱتِّبَاعَ ٱلظَّنِّۚ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينَۢا 146
(157) और ख़ुद कहा कि हमने मसीह, ईसा इब्ने-मरयम, रसूलुल्लाह को क़त्ल कर दिया है।92 हालाँकि फ़िल–वाक़े इन्होंने न उसको क़त्ल किया और न सलीब पर चढ़ाया, बल्कि मामला उनके लिए मुश्तबह कर दिया गया।93 और जिन लोगों ने इसके बारे में इख़्तिलाफ़ किया है वे भी दरअस्ल शक में मुब्तला हैं, इनके पास इस मामले में कोई इल्म नहीं है, मह्ज़ गुमान ही की पैरवी है। उन्होंने मसीह को यक़ीनन कत्ल नहीं किया,
92. यानी जुरअते-मुजरिमाना इतनी बढ़ी हुई थी कि रसूल को रसूल जानते थे और फिर उसके क़त्ल का इक़दाम किया और फ़ख़्रिया कहा कि हमने अल्लाह के रसूल को क़त्ल किया है। इस मौक़े पर अगर सूरा-19 मरयम, रुकूअ 2, हमारे हवाशी के साथ पढ़ लिया जाए तो मालूम हो जाएगा कि बनी-इसराईल हज़रत ईसा (अलैहि०) को फ़िल-वाक़े रसूल जानते थे और इसके बावजूद उन्होंने अपने नज़दीक उन्हें सलीब दी।
93. यह आयत तसरीह करती है कि हज़रत मसीह (अलैहि०) सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले ही उठा लिए गए थे और यह कि मसीहियों और यहूदियों, दोनों का यह ख़याल कि मसीह ने सलीब पर जान दी, मह्ज़ ग़लतफ़हमी पर मबनी है। क़ब्ल इसके कि यहूदी आपको सलीब पर चढ़ाते अल्लाह तआला ने किसी वक़्त आँ-जनाब को उठा लिया और बाद में यहूदियों ने जिस शख़्स को सलीब पर चढ़ाया वह कोई और शख़्स था जिसको न मालूम किस वजह से उन लोगों ने ईसा इब्ने-मरयम समझ लिया।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ وَلَا تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ إِنَّمَا ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ رَسُولُ ٱللَّهِ وَكَلِمَتُهُۥٓ أَلۡقَىٰهَآ إِلَىٰ مَرۡيَمَ وَرُوحٞ مِّنۡهُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۖ وَلَا تَقُولُواْ ثَلَٰثَةٌۚ ٱنتَهُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ إِنَّمَا ٱللَّهُ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ سُبۡحَٰنَهُۥٓ أَن يَكُونَ لَهُۥ وَلَدٞۘ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا 170
(171) ऐ अहले-किताब! अपने दीन में ग़ुलू न करो98 और अल्लाह की तरफ़ हक़ के सिवा कोई बात मंसूब न करो। मसीह ईसा इब्ने-मरयम इसके सिवा कुछ न था कि अल्लाह का एक रसूल था और एक फ़रमान था जो अल्लाह ने मरयम की तरफ़ भेजा,99 और एक रूह थी अल्लाह की तरफ़ से 100 (जिसने मरयम के रहिम में बच्चे की शक्ल इख़्तियार की)। पस तुम अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और न कहो कि ‘तीन’ हैं। बाज़ आ जाओ, यह तुम्हारे ही लिए बेहतर है। अल्लाह तो बस एक ही ख़ुदा है। वह पाक है इससे कि कोई उसका बेटा हो।102 ज़मीन और आसमानों की सारी चीज़ें उसकी मिल्क हैं, और उनकी किफ़ालत व ख़बरगीरी के लिए बस वही काफ़ी है।
98. यहाँ अहले-किताब से मुराद ईसाई हैं और 'ग़ुलू' के मानी हैं किसी चीज़ की ताईद व हिमायत में हद से गुज़र जाना। यहूदियों का जुर्म तो यह था कि वे मसीह के इनकार और मुख़ालफ़त में हद से गुज़र गए, और ईसाइयों का जुर्म यह है कि वे मसीह की अक़ीदत और महब्बत में हद से गुज़र गए और उनको अल्लाह का बेटा, बल्कि ख़ुद अल्लाह क़रार दे दिया।
99. अस्ल में लफ़्ज़ 'कलिमा' इस्तेमाल हुआ है। मरयम की तरफ़ कलिमा भेजने का मतलब यह है कि अल्लाह ने हज़रत मरयम (अलैहि०) के रहिम पर यह फ़रमान नाज़िल किया कि किसी मर्द के नुत्फ़े से सैराब हुए बग़ैर हमल का इसतिक़रार क़ुबूल कर ले। ईसाइयों ने पहले लफ़्ज़ कलिमा को 'कलाम’'या 'नुत्क़' का हममानी समझ लिया, फिर उस कलाम व नुत्क़ से अल्लाह तआला की ज़ाती सिफ़ते-कलाम मुराद ले ली, फिर यह क़ियास क़ायम किया कि अल्लाह की इस ज़ाती सिफ़त ने मरयम (अलैहि०) के बत्न में दाख़िल होकर वह जिस्मानी सूरत इख़्तियार की जो मसीह की शक्ल में ज़ाहिर हुई। इस तरह ईसाइयों में मसीह की उलूहियत का फ़ासिद अक़ीदा पैदा हुआ और इस ग़लत तसव्वुर ने जड़ पकड़ ली कि ख़ुदा ने ख़ुद अपने-आपको या अपनी अज़ली सिफ़ात में नुक़्त व कलाम की सिफ़त को मसीह की शक्ल में ज़ाहिर किया है।
100. यहाँ ख़ुद मसीह को 'रूहुम-मिन्हु' (ख़ुदा की तरफ़ से एक रूह) कहा गया है, और सूरा-2 बक़रा, आयत-87 में इस मज़मून को यूँ अदा किया गया है कि “हमने पाक रूह से मसीह की मदद की।” दोनों इबारतों का मतलब यह है कि अल्लाह ने मसीह (अलैहि०) को वह पाकीज़ा रूह अता की थी जो बदी से नाआशना थी, सरासर हक़्क़ानियत और रास्तबाज़ी थी, और अज़ सर ता पा फ़ज़ीलते-अख़लाक़ थी। ईसाइयों ने इसमें ग़ुलू किया। 'रूहुम-मिनल्लाहि' को ख़ुद अल्लाह की रूह क़रार दे लिया और रूहुल-क़ुदुस का मतलब यह लिया कि वह अल्लाह तआला की अपनी रूहे-मुक़द्दस थी जो मसीह के अन्दर हुलूल कर गई थी। इस तरह अल्लाह और मसीह के साथ एक तीसरा ख़ुदा रूहुल-क़ुदुस का बना डाला गया।
101. यानी तीन ख़ुदाओं के अक़ीदे को छोड़ दो ख़ाह वह किसी शक्ल के अन्दर पाया जाता हो। हक़ीक़त यह है कि ईसाई बयक-वक़्त तौहीद को भी मानते हैं और तसलीस को भी। मसीह (अलैहि०) के सरीह अक़वाल जो अनाजील में मिलते हैं उनकी बिना पर कोई ईसाई इससे इनकार नहीं कर सकता कि अल्लाह बस एक ही अल्लाह है और उसके सिवा कोई दूसरा अल्लाह नहीं है। उनके लिए यह तसलीम किए बग़ैर चारा नहीं कि तौहीद अस्ल दीन है। मगर उसके बावजूद ज़ाते-मसीह में ग़ुलू के बाइस वे तसलीस के भी क़ाइल हैं और आज तक यह फ़ैसला न कर सके कि इन दो मुतज़ाद अकीदों को एक साथ कैसे निबाहें।
102. यह ईसाइयों के चौथे ग़ुलू की तरदीद है। ईसाई रिवायात अगर सही भी हों तो उनसे (ख़ुसूसन पहली तीन इंजीलों से) ज़्यादा-से-ज़्यादा बस इतना ही साबित होता है कि मसीह (अलैहि) ने अल्लाह और बन्दों के ताल्लुक़ को बाप और औलाद के ताल्लुक़ से तशबीह दी थी और 'बाप' का लफ़्ज़ ख़ुदा के लिए वे मह्ज़ मजाज़ और इसतिआरे के तौर पर इस्तेमाल करते थे। यह तन्हा मसीह ही की कोई ख़ुसूसियत नहीं है। क़दीम-तरीन ज़माने से बनी-इसराईल अल्लाह के लिए बाप का लफ़्ज़ बोलते चले आ रहे थे और इसकी ब-कसरत मिसालें बाइबल के पुराने अहदनामे में मौजूद हैं। मसीह (अलैहि०) ने यह लफ़्ज़ अपनी क़ौम के मुहावरे के मुताबिक़ ही इस्तेमाल किया था और वह अल्लाह को अपना ही नहीं, बल्कि सब इनसानों का बाप कहते थे। लेकिन ईसाइयों ने यहाँ फिर ग़ुलू से काम लिया और मसीह (अलैहि०) को अल्लाह का इकलौता बेटा क़रार दे दिया।
يَسۡتَفۡتُونَكَ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِي ٱلۡكَلَٰلَةِۚ إِنِ ٱمۡرُؤٌاْ هَلَكَ لَيۡسَ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَهُۥٓ أُخۡتٞ فَلَهَا نِصۡفُ مَا تَرَكَۚ وَهُوَ يَرِثُهَآ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهَا وَلَدٞۚ فَإِن كَانَتَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُمَا ٱلثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَۚ وَإِن كَانُوٓاْ إِخۡوَةٗ رِّجَالٗا وَنِسَآءٗ فَلِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۗ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ أَن تَضِلُّواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ 171
(176) (ऐ नबी!) लोग तुमसे कलाला103 के मामले में फ़तवा पूछते हैं। अल्लाह तुम्हें फ़तवा देता है। अगर कोई शख़्स बेऔलाद मर जाए और उसकी एक बहन104 हो तो वह उसके तरके में से निस्फ़ पाएगी, और अगर बहन बेऔलाद मरे तो भाई उसका वारिस105 होगा। अगर मैयित की वारिस दो बहनें हों तो वे तरके में से दो तिहाई की हक़दार होंगी,106 और अगर कई भाई-बहनें हों तो औरतों का इकहरा और मर्दों का दोहरा हिस्सा होगा। अल्लाह तुम्हारे लिए अहकाम की तौज़ीह करता है ताकि तुम भटकते न फिरो, और अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखता है।
103. 'कलाला' के मानी में इख़्तिलाफ़ है। बाज़ की राय में कलाला वह शख़्स है जो ला-वलद भी हो और जिसके बाप और दादा भी ज़िन्दा न हों। और बाज़ के नजदीक मह्ज़ ला-वलद मरनेवाले को कलाला कहा जाता है। लेकिन अइम्मा-ए-फ़ुक़हा ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की इस राय को तसलीम कर लिया है कि इसका इतलाक़ पहली सूरत पर ही होता है। और ख़ुद क़ुरआन से भी इसकी ताईद होती है। क्योंकि यहाँ कलाला की बहन को निस्फ़ तरके का वारिस क़रार दिया गया है। हालाँकि अगर कलाला का बाप ज़िन्दा हो तो बहन को सिरे से कोई हिस्सा पहुँचता ही नहीं।
104. यहाँ उन भाई-बहनों की मीरास का ज़िक्र हो रहा है जो मैयित के साथ माँ और बाप दोनों में, या सिर्फ़ बाप में मुश्तरक हों। हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) ने एक मर्तबा एक ख़ुतबे में इस मानी की तसरीह की थी और सहाबा में से किसी ने इससे इख़्तिलाफ़ न किया, इस बिना पर यह मुजमा अलैह मसला है।
105. यानी भाई उसके पूरे माल का वारिस होगा अगर कोई और साहिबे-फ़रीज़ा न हो। और अगर कोई साहिबे-फ़रीज़ा मौजूद हो, मसलन शौहर, तो उसका हिस्सा अदा करने के बाद बाक़ी तमाम तरका भाई को मिलेगा।
106. यही हुक्म दो से ज़ाइद बहनों का भी है।