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تَكَادُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ يَتَفَطَّرۡنَ مِن فَوۡقِهِنَّۚ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَيَسۡتَغۡفِرُونَ لِمَن فِي ٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ

42. अश-शूरा

(मक्का में उतरी, आयतें 53)

परिचय

नाम

आयत 38 के वाक्यांश “व अमरुहुम शूरा बैन-हुम' अर्थात् 'वे अपने मामले आपस के परामर्श (अश-शूरा) से चलाते हैं' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द 'शूरा' आया है।

उतरने का समय

इसकी विषय-वस्तु पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा-41 'हा-मीम अस-सजदा' के ठीक बाद उतरी होगी, क्योंकि यह एक तरह से बिल्कुल उसकी अनुपूरक दिखाई देती है। सूरा-41 (हा-मीम अस-सजदा) में क़ुरैश के सरदारों के अंधे-बहरे विरोध पर बड़ी गहरी चोटें की गई थीं। उस चेतावनी के तुरन्त बाद यह सूरा अवतरित की गई, जिसने समझाने-बुझाने का हक़ अदा कर दिया।

विषय और वार्ता

बात इस तरह आरंभ की गई है कि [मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर वह्य (ईश-प्रकाशना) का आना कोई निराली बात नहीं] ऐसी ही वह्य, इसी तरह के आदेश के साथ अल्लाह इससे पहले भी नबियों (उनपर ख़ुदा की दया और कृपा हो) पर निरन्तर भेजता रहा है। इसके बाद बताया गया है कि नबी सिर्फ़ ग़ाफ़िलों को चौंकाने और भटके हुओं को रास्ता बताने आया है। [वह खुदा के पैदा किए हुए लोगों के भाग्यों का मालिक नहीं बनाया गया है।] उसकी बात न माननेवालों की पकड़ करना और उन्हें अज़ाब देना या न देना अल्लाह का अपना काम है। फिर इस विषय के रहस्य को स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह ने सारे इंसानों को जन्म ही से सीधे रास्ते पर चलनेवाला क्यों न बना दिया और यह मतभेद की सामर्थ्य क्यों दे दी, जिसकी वजह से लोग विचार और कर्म के हर उलटे-सीधे रास्ते पर चल पड़ते हैं। इसके बाद यह बताया गया है कि जिस धर्म को मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं, वह वास्तव में है क्या? उसका पहला आधार यह है कि अल्लाह चूँकि जगत् और इंसान का पैदा करनेवाला, मालिक और वास्तविक संरक्षक है, इसलिए वही इंसान का शासक भी है और उसी का यह अधिकार है कि इंसान को दीन और शरीअत (धर्म और विधि-विधान अर्थात् धारणा और कर्म की प्रणाली) प्रदान करे। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक प्रभुत्त्व की तरह विधि-विधान सम्‍बन्‍धी प्रभुत्‍व भी अल्‍लाह के लिए विशिष्‍ट है। इसी आधार पर अल्‍लाह तआला ने आदिकालत से इंसान के लिए एक धर्म निर्धारित किया है। वह एक ही धर्म या जो हर युग में तमाम नबियों को दिया जाता रहा। कोई नबी भी अपने किसी अलग धर्म का प्रवर्तक नहीं था। वह धर्म हमेशा इस उद्देश्य के लिए भेजा गया है कि ज़मीन पर वही स्थापित, प्रचलित और लागू हो। पैग़म्‍बर इस धर्म के सिर्फ़ प्रचार पर नहीं, बल्कि उसे स्थापित करने की सेवा कार्य पर लगाए गए थे। मानव-जाति का मूल धर्म यही था, किन्‍तु नबियों के बाद हमेशा यही होता रहा कि स्‍वार्थी लोग उसके अन्‍दर अपने स्‍वेच्‍छाचार, अहंकार और आत्‍म-प्रदर्शन की भावना के कारण अपने स्‍वार्थ के लिए साम्प्रदायिकता खड़ी करके नए-नए धर्म निकालते रहे। अब मुहम्मद (सल्ल०) इसलिए भेजे गए है कि कृत्रिम पंथों और कृत्रिम धर्मों और इंसानों के गढ़े हुए धर्मों की जगह वही मूल धर्म लोगों के सामने प्रस्तुत करें और (पूरे जमाव के साथ) उसी को स्थापित करने की कोशिश करें। तुम लोगों को यह एहसास नहीं है कि अल्लाह के दीन को छोड़कर अल्लाह के अतिरिक्त दूसरों के बनाए हुए दीन (धर्म) और क़ानून को अपनाना अल्‍लाह के मुक़ाबले में कितना बड़ा दुस्‍साहास है। अल्‍लाह के नज़दीक यह सब से बुरा शिर्क और बड़ा संगीन अपराध है, जिसकी कड़ी सज़ा भुगतनी पड़ेगी। इस तरह दीन की एक स्पष्ट धारणा प्रस्तुत करने के बाद फ़रमाया गया है कि तुम लोगों को समझाकर सीधे रास्‍ते पर लाने के लिए जो बेहतर से बेहतर तरीक़ा सम्भव था, वह प्रयोग में लाया जा चुका। इसपर भी अगर तुम मार्ग न पाओ तो दुनिया में कोई चीज़ तुम्हें सीधे रास्ते पर नहीं ला सकती। इन यथार्थ तथ्यों को बयान करते हुए बीच-बीच में संक्षेप में तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) की दलीलें दी गई हैं और दुनियापरस्‍ती के नतीजों पर सचेत किया गया है। फिर वार्ता को समाप्त करते हुए दो महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं। एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) का अपनी समस्याओं और वार्ताओं से बिलकुल अनभिज्ञ रहना और फिर यकायक इन दोनों चीजों को लेकर दुनिया के सामने आ जाना, आप (सल्ल.) के नबी होने का स्पष्ट प्रमाण है। दूसरे यह कि अल्लाह ने यह शिक्षा तमाम नबियों की तरह आप (सल्ल.) को भी तीन तरीक़ों से दी है, एक वह्य (प्रकाशना), दूसरे परदे के पीछे से आवाज़ और तीसरे फ़रिश्तों के द्वारा सन्देश। यह स्पष्ट इसलिए किया गया कि विरोधी लोग यह आरोप न लगा सकें कि नबी (सल्ल०) अल्लाह से उसके सम्मुख होकर बात करने का दावा कर रहे हैं।

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تَكَادُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ يَتَفَطَّرۡنَ مِن فَوۡقِهِنَّۚ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَيَسۡتَغۡفِرُونَ لِمَن فِي ٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 1
(5) क़रीब है कि आसमान ऊपर से फट पड़े।2 फ़रिश्ते अपने रब की हम्द के साथ तसबीह कर रहे हैं और ज़मीनवालों के हक़ में दरगुज़र की दरख़ास्तें किए जाते हैं। आगाह रहो, हक़ीक़त में अल्लाह ग़फ़ूर व रहीम है।
2.  यानी यह कोई मामूली बात तो नहीं है कि आल्लाह की ख़ुदाई में किसी हैसियत से भी किसी मख़लूक़ को शरीक क़रार दिया जाए। यह ऐसी सख़्त बात है कि इसपर अगर आगमान फट पड़े तो कुछ बईद नहीं है।
وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَ ٱللَّهُ حَفِيظٌ عَلَيۡهِمۡ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٖ ۝ 2
(6) जिन लोगों ने उसको छोड़कर अपने कुछ दूसरे सरपरस्त3 बना रखे हैं, अल्लाह ही उनपर निगराँ है, तुम उनके हवालादार नहीं हो।
3. अस्ल में लफ़्ज ‘औलिया’ इस्तेमाल हुआ है जिसका मफ़हूम अरबी ज़बान में बहुत वसीअ है। माबूदाने-बातिल के मुताल्लिक़ गुमराह इनसानों के मुख़्तलिफ़ अक़ाइद और बहुत-से मुख़्तलिफ़ तर्ज़े-अमल हैं जिनको क़ुरआन मजीद में ‘अल्लाह के सिवा दूसरों को अपना वली बनाने’ से ताबीर किया गया है। क़ुरआन की रू से इनसान उस हस्ती को अपना वली बनाता है (1) जिसके कहने पर चले, जिसकी हिदायात पर अमल करे, और जिसके मुक़र्रर किए हुए तरीक़ों, रस्मों और क़वानीन व ज़वाबित की पैरवी करे (2) जिसकी रहनुमाई पर वह एतिमाद करे, और यह समझे कि वह उसे सही रास्ता बतानेवाला और ग़लती से बचानेवाला है (3) जिसके मुताल्लिक़ वह यह समझे कि मैं दुनिया में ख़ाह कुछ करता रहूँ, वह मुझे इसके बुरे नताइज से, और अगर ख़ुदा है और आख़िरत भी होनेवाली है, तो उसके अज़ाब से बचा लेगा, और (4) जिसके मुताल्लिक़ वह यह समझे कि वह दुनिया में फ़ौक़ुल-फ़ितरी तरीक़े से उसकी मदद करता है। आफ़त व मसाइब से उसकी हिफ़ाज़त करता है, उसे रोज़गार दिलवाता है, औलाद देता है, मुरादें बर लाता है, और दूसरी हर तरह की हाजतें पूरी करता है।
وَكَذَٰلِكَ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا لِّتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَا وَتُنذِرَ يَوۡمَ ٱلۡجَمۡعِ لَا رَيۡبَ فِيهِۚ فَرِيقٞ فِي ٱلۡجَنَّةِ وَفَرِيقٞ فِي ٱلسَّعِيرِ ۝ 3
(7) हाँ, इसी तरह (ऐ नबी!) यह कुरआने-अरबी हमने तुम्हारी तरफ़ वह्य किया है ताकि तुम बस्तियों के मरकज़ (शहरे-मक्का) और उसके गिर्दो-पेश रहनेवालों को ख़बरदार कर दो, और जमा होने के दिन से डरा दो जिसके आने में कोई शक नहीं। एक गरोह को जन्नत में जाना है और दूसरे गरोह को दोज़ख़ में।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَهُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن يُدۡخِلُ مَن يَشَآءُ فِي رَحۡمَتِهِۦۚ وَٱلظَّٰلِمُونَ مَا لَهُم مِّن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 4
(8) अगर अल्लाह चाहता तो इन सबको एक ही उम्मत बना देता, मगर वह जिसे चाहता है अपनी रहमत में दाख़िल करता है, और ज़ालिमों का न कोई वली है न मददगार।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَۖ فَٱللَّهُ هُوَ ٱلۡوَلِيُّ وَهُوَ يُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 5
(3) क्या (ये ऐसे नादान हैं कि) इन्होंने उसे छोड़कर दूसरे वली बना रखे हैं? वली तो अल्लाह ही है, वही मुर्दों को ज़िन्दा करता है, और वह हर चीज़ पर क़ादिर है।
وَمَا ٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِيهِ مِن شَيۡءٖ فَحُكۡمُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبِّي عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ أُنِيبُ ۝ 6
(10) तुम्हारे4 दरमियान जिस मामले में भी इख़्तिलाफ़ हो, उसका फ़ैसला करना अल्लाह का काम है। वही अल्लाह मेरा रब है, उसी पर मैंने भरोसा किया, और उसी की तरफ़ मैं रुजूअ करता हूँ।
4. यहाँ से आयत-12 के आख़िर तक पूरी इबारत अगरचे अल्लाह तआला की तरफ़ से वह्य है लेकिन इसमें मुतकल्लिम अल्लाह तआला नहीं है, बल्कि रसूल (सल्ल०) हैं। गोया अल्लाह-जल-ल शा-नहू अपने नबी को हिदायत दे रहा है कि तुम यह एलान करो। इसकी मिसाल सूरा-1 फ़ातिहा है जो है तो अल्लाह का कलाम, मगर बन्दे अपनी तरफ़ से उसको दुआ के तौर पर अल्लाह के हुज़ूर पेश करते हैं।
فَاطِرُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَمِنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ أَزۡوَٰجٗا يَذۡرَؤُكُمۡ فِيهِۚ لَيۡسَ كَمِثۡلِهِۦ شَيۡءٞۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ ۝ 7
(11) आसमानों और ज़मीन का बनानेवाला, जिसने तुम्हारी अपनी जिंस से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, और इसी तरह जानवरों में भी (उन्हीं के हमजिंस) जोड़े बनाए, और इस तरीक़े से वह तुम्हारी नस्लें फैलाता है। कायनात की कोई चीज़ उसके मुशाबेह नहीं, वह सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।
لَهُۥ مَقَالِيدُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّهُۥ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 8
(12) आसमानों और ज़मीन के ख़ज़ानों की कुंजियाँ उसी के पास हैं, जिसे चाहता है खुला रिज़्क़ देता है और जिसे चाहता है नपा-तुला है, उसे हर चीज़ का इल्म है।
۞شَرَعَ لَكُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا وَصَّىٰ بِهِۦ نُوحٗا وَٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ وَمَا وَصَّيۡنَا بِهِۦٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَىٰٓۖ أَنۡ أَقِيمُواْ ٱلدِّينَ وَلَا تَتَفَرَّقُواْ فِيهِۚ كَبُرَ عَلَى ٱلۡمُشۡرِكِينَ مَا تَدۡعُوهُمۡ إِلَيۡهِۚ ٱللَّهُ يَجۡتَبِيٓ إِلَيۡهِ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِيٓ إِلَيۡهِ مَن يُنِيبُ ۝ 9
(13) उसने तुम्हारे लिए दीन का वही तरीक़ा मुक़र्रर किया है, जिसका हुक्म उसने नूह को दिया था, और जिसे (ऐ मुहम्मद!) अब तुम्हारी तरफ़ हमने वह्य के ज़रिए से भेजा है, और मूसा और ईसा को दे चुके है, इस ताकीद के साथ कि क़ायम करो इस दीन को और इसमें मुतफ़र्रिक़ न हो जाओ। यही बात इन मुशरिकीन को सख़्त नागवार हुई है जिसकी तरफ़ (ऐ मुहम्मद!) तुम उन्हें दावत दे रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है अपना कर लेता है, और वह अपनी तरफ़ आने का रास्ता उसी की दिखाता है जो उसकी तरफ़ रुजूअ करे।
وَمَا تَفَرَّقُوٓاْ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى لَّقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُورِثُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ ۝ 10
(14) लोगों में जो तफ़रिक़ा रूनुमा हुआ वह इसके बाद हुआ कि उनके पास इल्म आ चुका था, और इस बिना पर हुआ कि वे आपस में एक-दूसरे पर ज़्यादती करना चाहते थे। अगर तेरा रब पहले ही यह न फ़रमा चुका होता कि एक वक़्ते-मुकर्रर तक फ़ैसला मुल्तवी रखा जाएगा तो उनका क़ज़िया चुका दिया गया होता। और हक़ीक़त यह है कि अगलों के बाद जो लोग क़िताब के वारिस बनाए गए वे उसकी तरफ़ से बड़े इज़तिराबअंगेज़ शक में पड़े हुए हैं।5
5. यानी बाद की नस्लों को यह इत्मीनान नहीं रहा है कि जो किताबें उनको पहुँची हैं वे किस हद तक अपनी सही सूरत में हैं और किस हद तक उनमें आमेज़िश हो चुकी है। वे यह भी यक़ीन के साथ नहीं जानते कि उनके अम्बिया क्या तालीम लाए थे। हर चीज़ उनके यहाँ मशकूक है और जेहनों में उलझन पैदा कर रही है।
سُورَةُ الشُّورَىٰ
42. अश-शूरा
فَلِذَٰلِكَ فَٱدۡعُۖ وَٱسۡتَقِمۡ كَمَآ أُمِرۡتَۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡۖ وَقُلۡ ءَامَنتُ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِن كِتَٰبٖۖ وَأُمِرۡتُ لِأَعۡدِلَ بَيۡنَكُمُۖ ٱللَّهُ رَبُّنَا وَرَبُّكُمۡۖ لَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡۖ لَا حُجَّةَ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُۖ ٱللَّهُ يَجۡمَعُ بَيۡنَنَاۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 11
(15) (चूँकि यह हालत पैदा हो चुकी है) इसलिए (ऐ मुहम्मद!) अब तुम उसी दीन की तरफ़ दावत दो, और जिस तरह तुम्हें हुक्म दिया गया है उसी पर मज़बूती के साथ क़ायम हो जाओ, और इन लोगों की ख़ाहिशात का इत्तिबाअ न करो, और इनसे कह दो कि “अल्लाह ने जो किताब भी नाज़िल की है मैं उसपर ईमान लाया, मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं तुम्हारे दरमियान इनसाफ़ करूँ। अल्लाह ही हमारा रब भी है और तुम्हारा रब भी। हमारे आमाल हमारे लिए हैं और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए। हमारे और तुम्हारे दरमियान कोई झगड़ा नहीं।6 अल्लाह एक रोज़ हम सबको जमा करेगा और उसी की तरफ़ सबको जाना है।”
6. यानी माक़ूल दलाइल से बात समझाने का जो हक़ था वह हमने अदा कर दिया। अब ख़ाह-मख़ाह तू-तू मैं-मैं करने से क्या हासिल? तुम अगर झगड़ा करो भी तो हम तुमसे झगड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلَّذِينَ يُحَآجُّونَ فِي ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا ٱسۡتُجِيبَ لَهُۥ حُجَّتُهُمۡ دَاحِضَةٌ عِندَ رَبِّهِمۡ وَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٞ وَلَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٌ ۝ 12
(16) अल्लाह की दावत पर लब्बैक कहे जाने के बाद जो लोग (लब्बैक कहनेवालों से) अल्लाह के मामले में झगड़े करते हैं, उनकी हुज्जतबाज़ी उनके रब के नज़दीक बातिल है, और उनपर उसका ग़ज़ब है और उनके लिए सख़्त अज़ाब है।
حمٓ
(1) हा० मीम०,
ٱللَّهُ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ وَٱلۡمِيزَانَۗ وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّ ٱلسَّاعَةَ قَرِيبٞ ۝ 13
(17) वह अल्लाह ही है जिसने हक़ के साथ यह किताब और मीज़ान नाज़िल की है।7 और तुम्हें क्या ख़बर, शायद कि फ़ैसले की घड़ी क़रीब ही आ लगी हो।
7. ‘मीज़ान’ से मुराद अल्लाह की शरीअत है जो तराज़ू की तरह तौलकर सही और ग़लत, हक़ और बातिल, ज़ुल्म और अद्ल और रास्ती और नारास्ती का फ़र्क़ वाज़ेह कर देती है।
عٓسٓقٓ ۝ 14
(2) ऐन० सीन० क़ाफ़०
يَسۡتَعۡجِلُ بِهَا ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِهَاۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مُشۡفِقُونَ مِنۡهَا وَيَعۡلَمُونَ أَنَّهَا ٱلۡحَقُّۗ أَلَآ إِنَّ ٱلَّذِينَ يُمَارُونَ فِي ٱلسَّاعَةِ لَفِي ضَلَٰلِۭ بَعِيدٍ ۝ 15
(18) जो लोग उसके आने पर ईमान नहीं रखते वे तो उसके लिए जल्दी मचाते हैं, मगर जो उसपर ईमान रखते हैं वे उससे डरते हैं और जानते हैं कि यक़ीनन वह आनेवाली है। ख़ूब सुन लो, जो लोग उस घड़ी के आने में शक डालनेवाली बहसें करते हैं वे गुमराही में बहुत दूर निकल गए हैं।
كَذَٰلِكَ يُوحِيٓ إِلَيۡكَ وَإِلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكَ ٱللَّهُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 16
इसी तरह अल्लाह ग़ालिब व हकीम तुम्हारी तरफ़ और तुमसे पहले गुज़रे हुए (रसूलों) की तरफ़ वह्य करता रहा है।1
1.  यानी जो बातें क़ुरआन में बयान की जा रही हैं यही बातें अल्लाह ने वह्य के ज़रिए से रसूल (सल्ल०) पर नाज़िल की हैं और पहले रसूलों पर भी वह यही बातें नाज़िल करता रहा है।
لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 17
(4) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ भी है उसी का है, वह बरतर और अज़ीम है।
ٱللَّهُ لَطِيفُۢ بِعِبَادِهِۦ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُۖ وَهُوَ ٱلۡقَوِيُّ ٱلۡعَزِيزُ ۝ 18
(19) अल्लाह अपने बन्दों पर बहुत मेहरबान है जिसे जो कुछ चाहता है देता है, और वह बड़ी क़ुव्वतवाला और ज़बरदस्त है।
مَن كَانَ يُرِيدُ حَرۡثَ ٱلۡأٓخِرَةِ نَزِدۡ لَهُۥ فِي حَرۡثِهِۦۖ وَمَن كَانَ يُرِيدُ حَرۡثَ ٱلدُّنۡيَا نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَا وَمَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِن نَّصِيبٍ ۝ 19
(20) जो कोई आख़िरत की खेती चाहता है उसकी खेती को हम बढ़ाते हैं, और जो दुनिया की खेती चाहता है उसे दुनिया ही में से देते हैं मगर आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं है।
أَمۡ لَهُمۡ شُرَكَٰٓؤُاْ شَرَعُواْ لَهُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا لَمۡ يَأۡذَنۢ بِهِ ٱللَّهُۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةُ ٱلۡفَصۡلِ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۗ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 20
(21) क्या ये लोग कुछ ऐसे शरीके-ख़ुदा रखते हैं जिन्होंने इनके लिए दीन की नौईयत रखनेवाला एक ऐसा तरीक़ा मुक़र्रर कर दिया है जिसका अल्लाह ने इज़्न नहीं दिया?8 अगर फ़ैसले की बात तय न हो गई होती तो इनका क़ज़िया चुका दिया गया होता। यक़ीनन इन ज़ालिमों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
8. इस आयत में ‘शुरकाउ’ से मुराद ज़ाहिर बात है कि ये शरीक नहीं है जिनसे लोग दुआएँ माँगते हैं या जिनकी नज़्र व नियाज़ चढ़ाते हैं या जिनके आगे पूजा-पाठ के मरासिम अदा करते हैं, बल्कि ला-मुहाला उनसे मुराद वे इनसान हैं जिनको लोगों ने शरीक फ़िल-हुक्म ठहरा लिया है, जिनके सिखाए हुए अफ़कार व अक़ाइद और नज़रियात और फ़लसफ़ों पर लोग ईमान लाते हैं, जिनकी दी हुई क़द्रों को मानते हैं, जिनके पेश किए हुए आख़लाक़ी उसूलों और तहज़ीब व सक़ाफ़त के मेयारों को क़ुबूल करते हैं, जिनके मुक़र्रर लिए हुए क़वानीन और तरीक़ों और ज़ाबितों को अपने मज़हबी मरासिम और इबादात में, अपनी शख़्सी ज़िन्दगी में, अपनी मुआशरत में, अपने तमद्दुन में, अपने कारोबार और लेन-देन में और अपनी सियासत और हुकूमत में इस तरह इख़्तियार करते हैं कि गोया यही वह शरीअत है जिसकी पैरवी उनको करनी चाहिए।
تَرَى ٱلظَّٰلِمِينَ مُشۡفِقِينَ مِمَّا كَسَبُواْ وَهُوَ وَاقِعُۢ بِهِمۡۗ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فِي رَوۡضَاتِ ٱلۡجَنَّاتِۖ لَهُم مَّا يَشَآءُونَ عِندَ رَبِّهِمۡۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَضۡلُ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 21
(22) तुम देखोगे कि ये ज़ालिम उस वक़्त अपने किए के अंजाम से डर रहे होंगे और वह इनपर आकर रहेगा। बख़िलाफ़ इसके जो लोग ईमान ले आए हैं और जिन्होंने नेक अमल किए हैं वे जन्नत के गुलिस्तानों में होंगे, जो कुछ भी वे चाहेंगे अपने रब के यहाँ पाएँगे, यही बड़ा फ़ज़्ल है।
ذَٰلِكَ ٱلَّذِي يُبَشِّرُ ٱللَّهُ عِبَادَهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِۗ قُل لَّآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًا إِلَّا ٱلۡمَوَدَّةَ فِي ٱلۡقُرۡبَىٰۗ وَمَن يَقۡتَرِفۡ حَسَنَةٗ نَّزِدۡ لَهُۥ فِيهَا حُسۡنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ شَكُورٌ ۝ 22
(23) यह है वह चीज़ जिसकी ख़ुशख़बरी अल्लाह अपने उन बन्दों को देता है जिन्होंने मान लिया और नेक अमल किए। (ऐ नबी!) इन लोगों से कह दो कि “मैं इस काम पर तुमसे किसी अज्र का तालिब नहीं हूँ, अलबत्ता क़राबत की मुहब्बत ज़रूर चाहता हूँ।”9 जो कोई भलाई कमाएगा हम उसके लिए इस भलाई में ख़ूबी का इज़ाफ़ा कर देंगे। बेशक अल्लाह बड़ा दरगुज़र करनेवाला ओर क़द्रदान है।
9. इस आयत की तीन तफ़सीरें की गई हैं (1) “मैं तुमसे इस काम पर कोई अज्र तलब नहीं करता, मगर यह ज़रूर चाहता हूँ कि तुम लोग (यानी अहले-कुरैश) कम-अज़-कम उस रिश्तेदारी का तो लिहाज़ करो जो मेरे और तुम्हारे दरमियान है। यह क्या सितम है कि सबसे बढ़कर तुम ही मेरी दुश्मनी पर तुल गए हो।” (2) “मैं तुमसे इस काम पर कोई अज्र इसके सिवा नहीं चाहता कि तुम्हारे अंदर अल्लाह के क़ुर्ब की चाहत पैदा हो जाए।” (3) तीसरी तफ़सीर जिन मुफ़स्सिरीन ने की है उनमें से बाज़ अक़ारिब से तमाम बनी-अब्दुल-मुत्तलिब मुराद लेते हैं और बाज़ उसे सिर्फ़ हज़रत अली (रज़ि०) व फ़ातिमा (रज़ि०) और उनकी औलाद तक महदूद रखते हैं। लेकिन मुतअद्दिद वुजूह से यह तफ़सीर किसी तरह भी क़ाबिले-क़ुबूल नहीं हो सकती। अव्वल तो जिस वक़्त मक्का मुअज़्ज़मा में। सूरा-42 शूरा नाज़िल हुई है उस वक़्त हज़रत अली (रज़ि०) व फ़ातिमा (रज़ि०) की शादी तक नहीं हुई थी, औलाद का क्या सवाल। और बनी-अब्दुल-मुत्तलिब में सब-के-सब नबी (सल्ल०) का साथ नहीं दे रहे थे, बल्कि उनमें से बाज़ खुल्लम-खुल्ला दुश्मनों के साथी थे, और अबू-लहब की अदावत को तो सारी दुनिया जानती है। दूसरे नबी (सल्ल०) के रिश्तेदार सिर्फ़ बनी-अब्दुल-मुत्तलिब ही न थे। आप (सल्ल०) की वालिदा माजिदा, आप (सल्ल०) के वालिद माजिद और आप (सल्ल०) की ज़ौजा मुहतरमा हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के वास्ते से कुरैश के तमाम घरानों में आपकी रिश्तेदारियाँ थीं। इन सब घरानों में आप (सल्ल०) के बेहतरीन हामी भी थे और बदतरीन दुश्मन भी। तीसरी बात, जो इन सबसे ज़्यादा अहम है, वह यह है कि एक नबी जिस बलन्द मक़ाम पर खड़ा होकर दावत-इलल्लाह की पुकार बलन्द करता है, उस मक़ाम से इस कारे-अज़ीम पर यह अज्र माँगना कि तुम मेरे रिश्तेदारों से मुहब्बत करो, इतनी गिरी हुई बात है कि कोई साहबे-ज़ौक़े-सलीम इसका तसव्वुर भी नहीं कर सकता कि अल्लाह ने अपने नबी को यह बात सिखाई होगी और नबी ने क़ुरैश के लोगों में खड़े होकर यह बात कही होगी। फिर यह बात और भी ज़्यादा बेमौक़ा नज़र आती है जब हम देखते हैं कि इस कलाम के मुख़ातब अहले-ईमान नहीं बल्कि कुफ़्फ़ार हैं। ऊपर में सारी तक़रीर उन्हीं से ख़िताब करते हुए चली आ रही है, और आगे भी रूए-सुख़न उन्हीं की तरफ़ है। इस सिलसिला-ए-कलाम में मुख़ालिफ़ीन से किसी नौईयत का अज्र तलब करने का आख़िर सवाल ही कहाँ पेदा होता है। अज्र तो उन लोगों से माँगा जाता है जिनकी निगाह में उस काम की कोई क़द्र हो जो किसी शख़्स ने उनके लिए अंजाम दिया हो।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗاۖ فَإِن يَشَإِ ٱللَّهُ يَخۡتِمۡ عَلَىٰ قَلۡبِكَۗ وَيَمۡحُ ٱللَّهُ ٱلۡبَٰطِلَ وَيُحِقُّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 23
(24) क्या ये लोग कहते हैं कि इस शख़्स ने अल्लाह पर झूठा बुहतान गढ़ लिया है? अगर अल्लाह चाहे तो तुम्हारे दिल पर मुह्‍र कर दे।10 वह बा़तिल को मिटा देता है और हक़ को अपने फ़रमानों से हक़ कर दिखाता है। वह सीनों के छिपे हुए राज़ जानता है।
10. मतलब यह है कि ऐ नबी, इन लोगों ने तुम्हें भी अपनी क़िमाश का आदमी समझ लिया है। जिस तरह वे ख़ुद अपनी अग़राज़ के लिए हर बड़े-से-बड़ा झूठ बोल जाते हैं, इन्होंने ख़याल किया कि तुम भी उसी तरह अपनी दुकान चमकाने के लिए एक झूठ गढ़ लाए हो। लेकिन यह अल्लाह की इनायत है कि उसने तुम्हारे दिल पर वह मुह्‍र नहीं लगाई है जो इनके दिलों पर लगा रखी है।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَقۡبَلُ ٱلتَّوۡبَةَ عَنۡ عِبَادِهِۦ وَيَعۡفُواْ عَنِ ٱلسَّيِّـَٔاتِ وَيَعۡلَمُ مَا تَفۡعَلُونَ ۝ 24
(25) वही है जो अपने बन्दों से तौबा क़ुबूल करता है और बुराइयों से दरगुज़र फ़रमाता है। हालाँकि तुम लोगों के सब अफ़आल का इल्म है।
وَيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مَا لَهُم مِّن مَّحِيصٖ ۝ 25
(35) और उस वक़्त हमारी आयात में झगड़े करनेवालों को पता चल जाए कि उनके लिए कोई जाए-पनाह नहीं है।
وَيَسۡتَجِيبُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَيَزِيدُهُم مِّن فَضۡلِهِۦۚ وَٱلۡكَٰفِرُونَ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞ ۝ 26
(26) वह ईमान लानेवालों और नेक अमल करनेवालों की दुआ क़ुबूल करता है और अपने फ़ज़्ल से उनको और ज़्यादा देता है। रहे इनकार करनेवाले, तो उनके लिए सख़्त सज़ा है।
فَمَآ أُوتِيتُم مِّن شَيۡءٖ فَمَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 27
(36) जो कुछ भी लोगों को दिया गया है वह मह्ज़ दुनिया की चंद-रोज़ा ज़िन्दगी का सरो-सामान है, और जो कुछ अल्लाह के यहाँ है वह बेहतर भी है और पायदार भी। वह उन लोगों के लिए है जो ईमान लाए हैं और अपने रब पर भरोसा करते हैं,
۞وَلَوۡ بَسَطَ ٱللَّهُ ٱلرِّزۡقَ لِعِبَادِهِۦ لَبَغَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِن يُنَزِّلُ بِقَدَرٖ مَّا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرُۢ بَصِيرٞ ۝ 28
(27) अगर अल्लाह अपने सब बन्दों को खुला रिज़्क़ दे देता तो वे ज़मीन में सरकशी का तूफ़ान बरपा कर देते, मगर वह एक हिसाब से जितना चाहता है नाज़िल करता है, यक़ीनन वह अपने बन्दों से बाख़बर है और उनपर निगाह रखता है।
وَٱلَّذِينَ يَجۡتَنِبُونَ كَبَٰٓئِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡفَوَٰحِشَ وَإِذَا مَا غَضِبُواْ هُمۡ يَغۡفِرُونَ ۝ 29
(37) जो बड़े-बड़े गुनाहों और बेहयाई के कामों से परहेज़ करते हैं और अगर ग़ुस्सा आ जाए तो दरगुज़र कर जाते हैं,
وَهُوَ ٱلَّذِي يُنَزِّلُ ٱلۡغَيۡثَ مِنۢ بَعۡدِ مَا قَنَطُواْ وَيَنشُرُ رَحۡمَتَهُۥۚ وَهُوَ ٱلۡوَلِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 30
(28) वही है जो लोगों के मायूस हो जाने के बाद मेंह बरसाता है और अपनी रहमत फैला देता है, और वही क़ाबिले-तारीफ़ वली है।
وَٱلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِرَبِّهِمۡ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَمۡرُهُمۡ شُورَىٰ بَيۡنَهُمۡ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 31
(38) जो अपने रब का हुक्म मानते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, अपने मामलात आपस के मश्वरे से चलाते हैं, हमने जो कुछ भी रिज़्क़ उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ خَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَثَّ فِيهِمَا مِن دَآبَّةٖۚ وَهُوَ عَلَىٰ جَمۡعِهِمۡ إِذَا يَشَآءُ قَدِيرٞ ۝ 32
(29) उसकी निशानियों में से है यह ज़मीन और आसमानों की पैदाइश, और ये जानदार मख़लूक़ात जो उसने दोनों जगह फैला रखी हैं। वह जब चाहे उन्हें इकट्ठा कर सकता है।
وَٱلَّذِينَ إِذَآ أَصَابَهُمُ ٱلۡبَغۡيُ هُمۡ يَنتَصِرُونَ ۝ 33
(39) और जब उनपर ज़्यादती की जाती है तो उसका मुक़ाबला करते हैं।
وَمَآ أَصَٰبَكُم مِّن مُّصِيبَةٖ فَبِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَيَعۡفُواْ عَن كَثِيرٖ ۝ 34
(30) तुम लोगों पर जो मुसीबत भी आई है, तुम्हारे अपने हाथों की कमाई से आई है,11 और बहुत-से क़ुसूरों से वह वैसे ही दरगुज़र कर जाता है।
11. इशारा है मक्का मुअज़्ज़मा के उस क़ह्त की तरफ़ जो उस ज़माने में बरपा था।
وَجَزَٰٓؤُاْ سَيِّئَةٖ سَيِّئَةٞ مِّثۡلُهَاۖ فَمَنۡ عَفَا وَأَصۡلَحَ فَأَجۡرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 35
(40) — बुराई12 का बदला वैसी ही बुराई है, फिर जो कोई माफ़ कर दे और इसलाह करे उसका अज्र अल्लाह के ज़िम्मे है, अल्लाह ज़ालिमों को पसन्द नहीं करता।
12. यहाँ से आयत 43 के आख़िर तक की इबारत आयते-मा-सबक़ की तशरीह है।
وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 36
(31) तुम ज़मीन में अपने ख़ुदा को आज़िज़ कर देनेवाले नहीं हो, और अल्लाह के मुक़ाबले में तुम कोई हामी व नासिर नहीं रखते।
وَلَمَنِ ٱنتَصَرَ بَعۡدَ ظُلۡمِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَا عَلَيۡهِم مِّن سَبِيلٍ ۝ 37
(41) और जो लोग ज़ुल्म होने के बाद बदला लें उनकी मलामत नहीं की जा सकती,
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِ ٱلۡجَوَارِ فِي ٱلۡبَحۡرِ كَٱلۡأَعۡلَٰمِ ۝ 38
(32) उसकी निशानियों में से हैं ये जहाज़ जो समुन्दर में पहाड़ों की तरह नज़र आते हैं।
إِنَّمَا ٱلسَّبِيلُ عَلَى ٱلَّذِينَ يَظۡلِمُونَ ٱلنَّاسَ وَيَبۡغُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 39
(42) मलामत के मुस्तहिक़ तो वे हैं जो दूसरों पर ज़ुल्म करते हैं और ज़मीन में नाहक़ ज़्यादतियाँ करते हैं। ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
وَلَمَن صَبَرَ وَغَفَرَ إِنَّ ذَٰلِكَ لَمِنۡ عَزۡمِ ٱلۡأُمُورِ ۝ 40
(43) अलबत्ता जो शख़्स सब्र से काम ले और दरगुज़र करे, तो यह बड़ी ऊलुल-अज़्मी के कामों में से है।
وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن وَلِيّٖ مِّنۢ بَعۡدِهِۦۗ وَتَرَى ٱلظَّٰلِمِينَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَ يَقُولُونَ هَلۡ إِلَىٰ مَرَدّٖ مِّن سَبِيلٖ ۝ 41
(44) जिसको अल्लाह ही गुमराही में फेंक दे उसका कोई सम्भालनेवाला अल्लाह के बाद नहीं है। तुम देखोगे कि ये ज़ालिम जब अज़ाब देखेंगे तो कहेंगे “अब पलटने की भी कोई सबील है?”
وَتَرَىٰهُمۡ يُعۡرَضُونَ عَلَيۡهَا خَٰشِعِينَ مِنَ ٱلذُّلِّ يَنظُرُونَ مِن طَرۡفٍ خَفِيّٖۗ وَقَالَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ ٱلۡخَٰسِرِينَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَأَهۡلِيهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَآ إِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ فِي عَذَابٖ مُّقِيمٖ ۝ 42
(45) और तुम देखोगे कि जहन्नम के सामने जब लाए जाएँगे तो ज़िल्लत के मारे झुके जा रहे होंगे और उसको नज़र बचा-बचाकर कनखियों से देखेंगे। उस वक़्त वे लोग जो ईमान लाए थे कहेंगे कि “वाक़ई अस्ल ज़ियाँकार वही हैं जिन्होंने आज क़ियामत के दिन अपने-आपको और अपने मुताल्लिक़ीन को ख़सारे में डाल दिया।” ख़बरदार रहो, ज़ालिम लोग मुस्तक़िल अज़ाब में होंगे
وَمَا كَانَ لَهُم مِّنۡ أَوۡلِيَآءَ يَنصُرُونَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِۗ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن سَبِيلٍ ۝ 43
(46) और उनके कोई हामी व सरपरस्त न होंगे जो अल्लाह के मुक़ाबले में उनकी मदद को आएँ। जिसे अल्लाह गुमराही में फेंक दे उसके लिए बचाव की कोई सबील नहीं।
ٱسۡتَجِيبُواْ لِرَبِّكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا مَرَدَّ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۚ مَا لَكُم مِّن مَّلۡجَإٖ يَوۡمَئِذٖ وَمَا لَكُم مِّن نَّكِيرٖ ۝ 44
(47) मान लो अपने रब की बात क़ब्ल इसके कि वह दिन आए जिसके टलने की कोई सूरत अल्लाह की तरफ़ से नहीं है, उस दिन तुम्हारे लिए कोई जाए-पनाह न होगी और न कोई तुम्हारे हाल को बदलने की कोशिश करनेवाला होगा।13
13. अस्ल अलफ़ाज़ हैं ‘मा लकुम मिन नकीर’ इस फ़िक़रे के कई मफ़हूम और भी हैं। एक यह कि तुम अपने करतूतों में से किसी का इनकार न कर सकोगे। दूसरे यह कि तुम भेस बदलकर कहीं छिप न सकोगे। तीसरे यह कि तुम्हारे साथ जो कुछ भी किया जाएगा उसपर तुम कोई एहतिजाज और इज़हारे-नाराज़ी न कर सकोगे। चौथे यह कि तुम्हारे बस में न होगा कि जिस हालत में तुम मुब्तला किए गए हो उसे बदल सको।
إِن يَشَأۡ يُسۡكِنِ ٱلرِّيحَ فَيَظۡلَلۡنَ رَوَاكِدَ عَلَىٰ ظَهۡرِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٍ ۝ 45
(33) अल्लाह जब चाहे हवा को साकिन कर दे और यह समुन्दर की पीठ पर खड़े के खड़े रह जाएँ। — इसमें बड़ी निशानियाँ हैं हर उस शख़्स के लिए जो कमाल दर्जा सब्र व शुक्र करनेवाला हो।
فَإِنۡ أَعۡرَضُواْ فَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظًاۖ إِنۡ عَلَيۡكَ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُۗ وَإِنَّآ إِذَآ أَذَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِنَّا رَحۡمَةٗ فَرِحَ بِهَاۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ فَإِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ كَفُورٞ ۝ 46
(48) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं तो (ऐ नबी!) हमने तुमको इनपर निगहबान बनाकर तो नहीं भेजा है। तुमपर तो सिर्फ़ बात पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है। इनसान का हाल यह है कि जब हम उसे अपनी रहमत का मज़ा चखाते हैं तो उसपर फूल जाता है, और अगर उसके अपने हाथों का किया-धरा किसी मुसीबत की शक्ल में उसपर उलट पड़ता है तो सख़्त नाशुक्रा बन जाता है।
لِّلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ يَهَبُ لِمَن يَشَآءُ إِنَٰثٗا وَيَهَبُ لِمَن يَشَآءُ ٱلذُّكُورَ ۝ 47
(49) अल्लाह ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है, जो कुछ चाहता है पैदा करता है, जिसे चाहता है लड़कियाँ देता है जिसे चाहता लड़के देता है,
أَوۡ يُوبِقۡهُنَّ بِمَا كَسَبُواْ وَيَعۡفُ عَن كَثِيرٖ ۝ 48
(34) या (उनपर सवार होनेवालों के) बहुत-से गुनाहों से दरगुज़र करते हुए उनके चंद ही करतूतों की पादाश में उन्हें डुबो दे,
أَوۡ يُزَوِّجُهُمۡ ذُكۡرَانٗا وَإِنَٰثٗاۖ وَيَجۡعَلُ مَن يَشَآءُ عَقِيمًاۚ إِنَّهُۥ عَلِيمٞ قَدِيرٞ ۝ 49
(50) जिसे चाहता है लड़के और लड़कियाँ मिला-जुलाकर देता है। और जिसे चाहता है बाँझ कर देता है। वह सब कुछ जानता और हर चीज़ पर क़ादिर है।
۞وَمَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُكَلِّمَهُ ٱللَّهُ إِلَّا وَحۡيًا أَوۡ مِن وَرَآيِٕ حِجَابٍ أَوۡ يُرۡسِلَ رَسُولٗا فَيُوحِيَ بِإِذۡنِهِۦ مَا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ عَلِيٌّ حَكِيمٞ ۝ 50
(51) किसी बशर का यह मक़ाम नहीं है कि अल्लाह उससे रू-ब-रू बात करे। उसकी बात या तो वह्य (इशारे14) के तौर पर होती है, या परदे के पीछे से,15 या फिर वह कोई पैग़ाम्बर (फ़रिश्ता) भेजता है और वह उसके हुक्म से जो कुछ वह चाहता है वह्य करता है,16 वह बरतर और हकीम है।
14. यहाँ ‘वह्य’ से मुराद है इलक़ा, इलहाम, दिल में कोई बात डाल देना, या ख़ाब में कुछ दिखा देना जैसे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को दिखाया गया।
15. मुराद यह है कि बन्दा एक आवाज़ सुने, मगर बोलनेवाला उसे नज़र न आए जिस तरह हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ हुआ कि तूर के दामन में एक दरख़्त से यकायक उन्हें आवाज़ आनी शुरू हुई मगर बोलनेवाला उनकी निगाह से ओझल था।
16. यह वह्य के आने की वह सूरत है जिसके ज़रिए से तमाम कुतुबे-आसमानी अम्बिया (अलैहि०) तक पहुँची हैं।
وَكَذَٰلِكَ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ رُوحٗا مِّنۡ أَمۡرِنَاۚ مَا كُنتَ تَدۡرِي مَا ٱلۡكِتَٰبُ وَلَا ٱلۡإِيمَٰنُ وَلَٰكِن جَعَلۡنَٰهُ نُورٗا نَّهۡدِي بِهِۦ مَن نَّشَآءُ مِنۡ عِبَادِنَاۚ وَإِنَّكَ لَتَهۡدِيٓ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 51
(52) और इसी तरह (ऐ नबी!) हमने अपने हुक्म से एक रूह तुम्हारी तरफ़ वह्य की है।17 तुम्हें कुछ पता न था कि किताब क्या होती है और ईमान क्या होता है, मगर उस रूह को हमने एक रौशनी बना दिया जिससे हम राह दिख़ाते हैं अपने बन्दों में से जिसे चाहते हैं। यक़ीनन तुम सीधे रास्ते की तरफ़ रहनुमाई कर रहे हो,
17. ‘इसी तरह’ से मुराद मह्ज़ आख़िरी तरीक़ा नहीं है, बल्कि वे तीनों तरीक़े है जो ऊपर की आयात में मज़कूर हुए हैं, और ‘रूह’ से मुराद वह्य या वह तालीम है जो वह्य के ज़रिए से हुज़ूर (सल्ल०) को दी गई।
صِرَٰطِ ٱللَّهِ ٱلَّذِي لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِلَى ٱللَّهِ تَصِيرُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 52
(53) उस ख़ुदा के रास्ते की तरफ़ जो ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का मालिक है। ख़बरदार रहो, सारे मामलात अल्लाह ही की तरफ़ रूजूअ करते हैं।