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سُورَةُ طه

20. ता० हा०

(मक्‍का में उतरी-आयतें 135)

परिचय

उतरने का समय

इस सूरा के उतरने का समय सूरा-19 मरयम के समय के निकट ही का है। संभव है कि यह हबशा की ओर हिजरत के समय में या उसके बाद उतरी हो। बहरहाल यह बात निश्चित है कि हज़रत उमर (रजि०) के इस्लाम स्वीकार करने से पहले यह उतर चुकी थी। [क्योकि अपनी बहन फ़तिमा-बिन्ते-ख़त्ताब (रज़ि०) के घर पर यही सूरा ता० हा० पढ़कर वे मुसलमान हुए थे] और यह हबशा की हिजरत से थोड़े समय के बाद ही की घटना है।

विषय और वार्ता

सूरा का आरंभ इस तरह होता है कि ऐ मुहम्मद ! यह क़ुरआन तुमपर कुछ इसलिए नहीं उतारा गया है कि यों ही बैठे-बिठाए तुमको एक मुसीबत में डाल दिया जाए। तुमसे यह माँग नहीं है कि हठधर्म लोगों के दिलों में ईमान पैदा करके दिखाओ। यह तो बस एक नसीहत और याददिहानी है, ताकि जिसके मन में अल्लाह का डर हो वह सुनकर सीधा हो जाए।

इस भूमिका के बाद यकायक हज़रत मूसा (अलैहि०) का किस्सा छेड़ दिया गया है। जिस वातावरण में यह किस्सा सुनाया गया है, उसके हालात से मिल-जुलकर यह मक्कावालों से कुछ और बातें करता नज़र आता है जो उसके शब्दों से नहीं, बल्कि उसके सार-संदर्भ से प्रकट हो रही हैं। इन बातों की व्याख्या से पहले यह बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि अरब में भारी तादाद में यहूदियों की उपस्थिति और अरबवालों पर यहूदियों की ज्ञानात्मक तथा मानसिक श्रेष्ठता के कारण, साथ ही रूम और हब्शा और ईसाई राज्यों के प्रभाव से भी, अरबों में सामान्य रूप से हज़रत मूसा (अलैहि०) को अल्लाह का नबी माना जाता था। इस वास्तविकता को नज़र में रखने के बाद अब देखिए कि वे बातें क्या हैं जो इस किस्से के संदर्भ से मक्कावालों को जताई गई हैं:

  1. अल्लाह किसी को नुबूवत (किसी सामान्य घोषणा के साथ प्रदान नहीं किया करता। नुबूवत तो जिसको भी दी गई है, कुछ इसी तरह रहस्य में रखकर दी गई है, जैसे हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी गई थी। अब तुम्हें क्यों इस बात पर अचंभा है कि मुहम्मद (सल्ल०) यकायक नबी बनकर तुम्हारे सामने आ गए।
  2. जो बात आज मुहम्मद (सल्ल०) प्रस्तुत कर रहे हैं (यानी तौहीद और आख़िरत) ठीक वही बात नुबूवत के पद पर आसीन करते समय अल्लाह ने मूसा (अलैहि०) को सिखाई थी।
  3. फिर जिस तरह आज मुहम्मद (सल्ल०) को बिना किसी सरो-सामान और सेना के अकेले क़ुरैश के मुक़ाबले में सत्य की दावत का ध्वजावाहक बनाकर खड़ा कर दिया गया है, ठीक उसी तरह मूसा (अलैहि०) भी यकायक इतने बड़े काम पर लगा दिए गए थे कि जाकर फ़िरऔन जैसे सरकश बादशाह को सरकशी से रुक जाने को कहें। कोई फ़ौज उनके साथ नहीं भेजी गई थी।
  4. जो आपत्ति, सन्देह और आरोप, धोखाधड़ी और अत्याचार के हथकंडे मक्कावाले आज मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में इस्तेमाल कर रहे हैं, उनसे बढ़-चढ़कर वही सब हथियार फ़िरऔन ने मूसा (अलैहि०) के मुक़ाबले में इस्तेमाल किए थे। फिर देख लो कि किस तरह वह अपनी तमाम चालों में विफल हुआ और अन्तत: कौन प्रभावी होकर रहा । इस सिलसिले में स्वयं मुसलमानों को भी एक निश्शब्द तसल्ली दी गई है कि अपनी बेसरो-सामानी के बावजूद तुम ही प्रभावी रहोगे। इसी के साथ मुसलमानों के सामने मिस्र के जादूगरों का नमूना भी पेश किया गया है कि जब सत्य उनपर खुल गया तो वे बे-धड़क उसपर ईमान ले आए, और फिर फ़िरऔन के प्रतिशोध का डर उन्हें बाल-बराबर भी ईमान के रास्ते से न हटा सका।
  5. अन्त में बनी-इसराईल के इतिहास से एक गवाही पेश करते हुए यह भी बताया गया है कि देवताओं और उपास्यों के गढ़े जाने का आरंभ किस हास्यास्पद ढंग से हुआ करता है और यह कि अल्लाह के नबी इस घिनौनी चीज़ का नामो-निशान तक बाक़ी रखने के कभी पक्षधर नहीं रहे हैं। अत: आज इस शिर्क और बुतपरस्ती का जो विरोध मुहम्मद (सल्ल०) कर रहे हैं, वह नुबूवत के इतिहास में कोई पहली घटना नहीं है।

इस तरह मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा सुनाकर उन तमाम बातों पर रौशनी डाली गई है जो उस समय उनकी और नबी (सल्ल.) के आपसी संघर्ष से ताल्लुक रखती थीं। इसके बाद एक संक्षिप्त उपदेश दिया गया है कि बहरहाल यह क़ुरआन एक उपदेश और याददिहानी है, इसपर कान धरोगे तो अपना ही भला करोगे, न मानोगे तो स्वयं बुरा अंजाम देखोगे।

फिर आदम (अलैहि०) का क़िस्सा बयान करके यह बात समझाई गई है कि जिस नीति पर तुम लोग जा रहे हो, यह वास्तव में शैतान की पैरवी है। ग़लती और उसपर हठ अपने पाँवों पर आप कुल्हाड़ी मारना है, जिसका नुक़सान आदमी को ख़ुद ही भुगतना पड़ेगा, किसी दूसरे का कुछ न बिगड़ेगा।

अन्त में नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को समझया गया है कि अल्लाह किसी क़ौम को उसके कुफ़्र और इंकार पर तुरन्त नहीं पकड़ता, बल्कि संभलने के लिए काफ़ी मोहलत देता है। इसलिए घबराओ नहीं, सब के साथ इन लोगों की ज़्यादतियों को सहन करते चले जाओ और उपदेश का हक़ अदा करते रहो।

इसी सिलसिले में नमाज़ की ताक़ीद की गई है ताकि ईमानवालों में धैर्य, सहनशीलता, अल्लाह पर भरोसा, उसके फ़ैसले पर इत्मीनान और अपना जाइज़ा लेने के लिए वे गुण पैदा हों जो कि सत्य की ओर आह्वान का काम करने के लिए अपेक्षित हैं।

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سُورَةُ طه
20. ता० हा०
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
طه
(1) ता० हा०,
مَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡقُرۡءَانَ لِتَشۡقَىٰٓ ۝ 1
(2) हमने यह क़ुरआन तुमपर इसलिए नाज़िल नहीं किया है कि तुम मुसीबत में पड़ जाओ।
إِلَّا تَذۡكِرَةٗ لِّمَن يَخۡشَىٰ ۝ 2
(3) यह तो एक याददिहानी है हर उस शख़्स के लिए जो डरे।1
1. यानी ऐ नबी! इस क़ुरआन को नाज़िल करके हम कोई अनहोना काम तुमसे नहीं लेना चाहते। तुम्हारे सिपुर्द यह ख़िदमत नहीं की गई है कि जो लोग नहीं मानना चाहते उनको मनवाकर छोड़ो और जिनके दिल ईमान के लिए बन्द हो चुके हैं उनके अन्दर ईमान उतारकर ही रहो। यह तो बस एक तज़कीर और याददिहानी है और इसलिए भेजी गई है कि जिसके दिल में ख़ुदा का ख़ौफ़ हो वह इसे सुनकर होश में आ जाए।
تَنزِيلٗا مِّمَّنۡ خَلَقَ ٱلۡأَرۡضَ وَٱلسَّمَٰوَٰتِ ٱلۡعُلَى ۝ 3
(4) नाज़िल किया गया है उस ज़ात की तरफ़ से जिसने पैदा किया है ज़मीन को और बलन्द आसमानों को।
ٱلرَّحۡمَٰنُ عَلَى ٱلۡعَرۡشِ ٱسۡتَوَىٰ ۝ 4
(5) वह रहमान (कायनात के) तख़्ते-सल्तनत पर जलवा-फ़रमा है।
لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا وَمَا تَحۡتَ ٱلثَّرَىٰ ۝ 5
(6) मालिक है उन सब चीज़ों का जो आसमानों और ज़मीन में हैं और जो ज़मीन व आसमान के दरमियान हैं और जो मिट्टी के नीचे हैं।
وَإِن تَجۡهَرۡ بِٱلۡقَوۡلِ فَإِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلسِّرَّ وَأَخۡفَى ۝ 6
(7) तुम चाहे अपनी बात पुकारकर कहो, वह तो चुपके से कही हुई बात, बल्कि उससे मख़फ़ीतर बात भी जानता है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ لَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰ ۝ 7
(3) वह अल्लाह है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं, उसके लिए बेहतरीन नाम हैं।
وَهَلۡ أَتَىٰكَ حَدِيثُ مُوسَىٰٓ ۝ 8
(9) और तुम्हें कुछ मूसा की ख़बर भी पहुँची है?
إِذۡ رَءَا نَارٗا فَقَالَ لِأَهۡلِهِ ٱمۡكُثُوٓاْ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا لَّعَلِّيٓ ءَاتِيكُم مِّنۡهَا بِقَبَسٍ أَوۡ أَجِدُ عَلَى ٱلنَّارِ هُدٗى ۝ 9
(10) जबकि उसने एक आग देखी2 और अपने घरवालों से कहा कि “ज़रा ठहरो, मैंने एक आग देखी है। शायद कि तुम्हारे लिए एक-आध अंगारा ले आऊँ, या उस आग पर (रास्ते के मुताल्लिक़) कोई रहनुमाई मिल जाए।”3
2. यह उस वक़्त का क़िस्सा है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) चंद साल मदयन में जलावतनी की ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद अपनी बीवी को (जिनसे मदयन ही में शादी हुई थी) लेकर मिस्र की तरफ़ वापस जा रहे थे।
3. ऐसा महसूस होता है कि यह रात का वक़्त और जाड़े का ज़माना था। हज़रत मूसा (अलैहि०) जज़ीरा नुमाए-सीना के जुनूबी इलाक़े से गुज़र रहे थे। दूर से एक आग देखकर उन्होंने ख़याल किया कि या तो वहाँ से थोड़ी-सी आग मिल जाएगी ताकि बाल-बच्चों को रात-भर गर्म रखने का बन्दोबस्त हो जाए, या कम-अज़-कम वहाँ से यह पता चल जाए कि आगे रास्ता किधर है। ख़याल किया था दुनिया का रास्ता मिलने का और वहाँ मिल गया उक़बा का रास्ता।
فَلَمَّآ أَتَىٰهَا نُودِيَ يَٰمُوسَىٰٓ ۝ 10
(11) वहाँ पहुँचा तो पुकारा गया, “ऐ मूसा!
إِنِّيٓ أَنَا۠ رَبُّكَ فَٱخۡلَعۡ نَعۡلَيۡكَ إِنَّكَ بِٱلۡوَادِ ٱلۡمُقَدَّسِ طُوٗى ۝ 11
(12) मैं ही तेरा रब हूँ, जूतियाँ उतार दे। तू वादी-ए-मुक़द्दस तुवा में है
وَأَنَا ٱخۡتَرۡتُكَ فَٱسۡتَمِعۡ لِمَا يُوحَىٰٓ ۝ 12
(13) और मैंने तुझको चुन लिया है, सुन जो कुछ वह्य किया जाता है।
إِنَّنِيٓ أَنَا ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱعۡبُدۡنِي وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ لِذِكۡرِيٓ ۝ 13
(14) मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, पस तू मेरी बन्दगी कर और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ायम कर।
إِنَّ ٱلسَّاعَةَ ءَاتِيَةٌ أَكَادُ أُخۡفِيهَا لِتُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا تَسۡعَىٰ ۝ 14
(15) क़ियामत की घड़ी ज़रूर आनेवाली है। मैं उसका वक़्त मख़फ़ी रखना चाहता हूँ, ताकि हर मुतनफ़्फ़िस अपनी सई के मुताबिक़ बदला पाए।
فَلَا يَصُدَّنَّكَ عَنۡهَا مَن لَّا يُؤۡمِنُ بِهَا وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ فَتَرۡدَىٰ ۝ 15
(16) पस कोई ऐसा शख़्स जो इसपर ईमान नहीं लाता और अपनी ख़ाहिशे-नफ़्स का बन्दा बन गया है तुझको उस घड़ी की फ़िक्र से न रोक दे, वरना तू हलाकत में पड़ जाएगा।
وَمَا تِلۡكَ بِيَمِينِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 16
(17) और ऐ मूसा! यह तेरे हाथ में क्या है?”
قَالَ هِيَ عَصَايَ أَتَوَكَّؤُاْ عَلَيۡهَا وَأَهُشُّ بِهَا عَلَىٰ غَنَمِي وَلِيَ فِيهَا مَـَٔارِبُ أُخۡرَىٰ ۝ 17
(18) मूसा ने जवाब दिया, “यह मेरी लाठी है, इसपर टेक लगाकर चलता हूँ, इससे अपनी बकरियों के लिए पत्ते झाड़ता हूँ, और भी बहुत-से काम हैं जो इससे लेता हूँ।”
قَالَ أَلۡقِهَا يَٰمُوسَىٰ ۝ 18
(19) फ़रमाया, “फेंक दे इसको मूसा!
فَأَلۡقَىٰهَا فَإِذَا هِيَ حَيَّةٞ تَسۡعَىٰ ۝ 19
(20) “उसने फेंक दिया और यकायक वह एक साँप थी जो दौड़ रहा था।
قَالَ خُذۡهَا وَلَا تَخَفۡۖ سَنُعِيدُهَا سِيرَتَهَا ٱلۡأُولَىٰ ۝ 20
(21) फ़रमाया, “पकड़ ले इसको और डर नहीं, हम इसे फिर वैसा ही कर देंगे जैसी यह थी।
وَٱضۡمُمۡ يَدَكَ إِلَىٰ جَنَاحِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٍ ءَايَةً أُخۡرَىٰ ۝ 21
(22) और ज़रा अपना हाथ अपनी बग़ल में दबा, चमकता हुआ निकलेगा बग़ैर किसी तकलीफ़ के।4 यह दूसरी निशानी है
4. यानी रौशन ऐसा होगा जैसे सूरज, मगर तुम्हें उससे कोई तकलीफ़ न होगी।
لِنُرِيَكَ مِنۡ ءَايَٰتِنَا ٱلۡكُبۡرَى ۝ 22
(23) इसलिए कि हम तुझे अपनी बड़ी निशानियाँ दिखानेवाले हैं।
ٱذۡهَبۡ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ إِنَّهُۥ طَغَىٰ ۝ 23
(24) अब तू फ़िरऔन के पास जा, वह सरकश हो गया है।
قَالَ رَبِّ ٱشۡرَحۡ لِي صَدۡرِي ۝ 24
(25) मूसा ने अर्ज़ किया, “परवरदिगार! मेरा सीना खोल दे,
وَيَسِّرۡ لِيٓ أَمۡرِي ۝ 25
(26) और मेरे काम को मेरे लिए आसान कर दे,
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَسَلَكَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّن نَّبَاتٖ شَتَّىٰ ۝ 26
(53) — वही11 जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन का फ़र्श बिछाया और उसमें तुम्हारे चलने को रास्ते बनाए, और ऊपर से पानी बरसाया, फिर उसके ज़रिए से मुख़्तलिफ़ अक़साम की पैदावार निकाली।
11. अन्दाजे-कलाम से साफ़ महसूस होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) का जवाब 'न भूलता है' पर ख़त्म हो गया, और यहाँ से आयत-55 तक की पूरी इबारत अल्लाह तआला की तरफ़ से बतौर शरहो-तज़कीर इरशाद हुई है।
كُلُواْ وَٱرۡعَوۡاْ أَنۡعَٰمَكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلنُّهَىٰ ۝ 27
(54) खाओ और अपने जानवरों को भी चराओ। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं अक़्ल रखनेवालों के लिए।
۞مِنۡهَا خَلَقۡنَٰكُمۡ وَفِيهَا نُعِيدُكُمۡ وَمِنۡهَا نُخۡرِجُكُمۡ تَارَةً أُخۡرَىٰ ۝ 28
(55) इसी ज़मीन से हमने तुमको पैदा किया है, इसी में हम तुम्हें वापस ले जाएँगे और इसी से तुमको दोबारा निकालेंगे।
وَلَقَدۡ أَرَيۡنَٰهُ ءَايَٰتِنَا كُلَّهَا فَكَذَّبَ وَأَبَىٰ ۝ 29
(56) हमने फ़िरऔन को अपनी सब ही निशानियाँ दिखाईं मगर वह झुठलाए चला गया और न माना।
قَالَ أَجِئۡتَنَا لِتُخۡرِجَنَا مِنۡ أَرۡضِنَا بِسِحۡرِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 30
(57) कहने लगा, “ऐ मूसा! क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि अपने जादू के ज़ोर से हमको हमारे मुल्क से निकाल बाहर करे?
فَلَنَأۡتِيَنَّكَ بِسِحۡرٖ مِّثۡلِهِۦ فَٱجۡعَلۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكَ مَوۡعِدٗا لَّا نُخۡلِفُهُۥ نَحۡنُ وَلَآ أَنتَ مَكَانٗا سُوٗى ۝ 31
(58) अच्छा, हम भी तेरे मुक़ाबले में वैसा ही जादू लाते हैं। तय कर ले, कब और कहाँ मुक़ाबला करना है। न हम इस क़रारदाद से फिरेंगे, न तू फिरयो। खुले मैदान में सामने आ जा।”
قَالَ مَوۡعِدُكُمۡ يَوۡمُ ٱلزِّينَةِ وَأَن يُحۡشَرَ ٱلنَّاسُ ضُحٗى ۝ 32
(59) मूसा ने कहा, “जश्न का दिन तय हुआ, और दिन चढ़े लोग जमा हों।”12
12. फ़िरऔन का मुद्दआ यह था कि एक दफ़ा जादूगरों से लाठियों और रस्सियों के साँप बनवाकर दिखा दूँ तो मूसा के मोजिज़े का जो असर लोगों के दिलों पर हुआ है वह दूर हो जाएगा। यह हज़रत मूसा (अलैहि०) की मुँह-माँगी मुराद थी। उन्होंने फ़रमाया कि अलग कोई दिन और जगह मुक़र्रर करने की क्या ज़रूरत है। जश्न का दिन क़रीब है, जिसमें तमाम मुल्क के लोग दारुस-सल्तनत में खिंचकर आ जाते हैं। वहीं मेले के मैदान में मुक़ाबला हो जाए ताकि सारी क़ौम देख ले। और वक़्त भी दिन की पूरी रौशनी का होना चाहिए ताकि शक व शुब्हे के लिए कोई गुंजाइश न रहे।
فَتَوَلَّىٰ فِرۡعَوۡنُ فَجَمَعَ كَيۡدَهُۥ ثُمَّ أَتَىٰ ۝ 33
(60) फिरऔन ने पलटकर अपने सार हथकंडे जमा किए और मुक़ाबले में आ गया।
قَالَ لَهُم مُّوسَىٰ وَيۡلَكُمۡ لَا تَفۡتَرُواْ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا فَيُسۡحِتَكُم بِعَذَابٖۖ وَقَدۡ خَابَ مَنِ ٱفۡتَرَىٰ ۝ 34
(61) मूसा ने (ऐन मौक़े पर गरोहे-मुक़ाबिल का मुख़ातब करके) कहा, “शामत के मारो, न झूठी तुहमतें बाँधो अल्लाह पर13 वरना वह एक सख़्त अज़ाब से तुम्हारा सत्यानाश कर देगा। झूठ जिसने भी गढ़ा वह नामुराद हुआ।”
13. 13. यानी इस मोजिज़े को जादू और उसके दिखानेवाले पैग़म्बर को साहिरे-कज़्ज़ाब न क़रार दो।
فَتَنَٰزَعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّجۡوَىٰ ۝ 35
(62) यह सुनकर उनके दरमियान इख़्तिलाफ़े-राय हो गया और चुपके-चुपके बाहम मश्वरा करने लगे।14
14. इससे मालूम होता है कि वे लोग अपने दिलों में अपनी कमज़ोरी को ख़ुद महसूस कर रहे थे। उनको मालूम था कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन के दरबार में जो कुछ दिखाया था वह जादू नहीं था। वे पहले ही से इस मुक़ाबले में डरते और हिचकिचाते हुए आए थे, और जब ऐन मौक़े पर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनको ललकारकर मुतनब्बेह किया तो उनका अज़्म यकायक मुतज़लज़ल हो गया। उनका इख़्तिलाफ़े-राय इस अम्र में हुआ होगा कि आया इस बड़े त्यौहार के मौक़े पर, जबकि पूरे मुल्क से आए हुए आदमी इकट्ठे हैं, खुले मैदान और दिन की पूरी रौशनी में यह मुक़ाबला करना ठीक है या नहीं। अगर यहाँ हम शिकस्त खा गए और सबके सामने जादू और मोजिज़े का फ़र्क़ खुल गया तो फिर बात सम्भाले न सम्भल सकेगी।
قَالُوٓاْ إِنۡ هَٰذَٰنِ لَسَٰحِرَٰنِ يُرِيدَانِ أَن يُخۡرِجَاكُم مِّنۡ أَرۡضِكُم بِسِحۡرِهِمَا وَيَذۡهَبَا بِطَرِيقَتِكُمُ ٱلۡمُثۡلَىٰ ۝ 36
(63) आख़िरकार कुछ लोगों ने कहा कि “ये दोनों तो मह्ज़ जादूगर हैं। इनका मक़सद यह है कि अपने जादू के ज़ोर से तुमको तुम्हारी ज़मीन से बेदख़ल कर दें और तुम्हारे मिसाली तरीक़े-जिन्दगी का ख़ातिमा कर दें।
فَأَجۡمِعُواْ كَيۡدَكُمۡ ثُمَّ ٱئۡتُواْ صَفّٗاۚ وَقَدۡ أَفۡلَحَ ٱلۡيَوۡمَ مَنِ ٱسۡتَعۡلَىٰ ۝ 37
(64) अपनी सारी तदबीरें आज इकट्ठी कर लो। और ऐका करके मैदान में आओ। बस यह समझ लो कि आज जो ग़ालिब रहा वही जीत गया।”
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِمَّآ أَن تُلۡقِيَ وَإِمَّآ أَن نَّكُونَ أَوَّلَ مَنۡ أَلۡقَىٰ ۝ 38
(65) जादूगर बोले, “मूसा, तुम फेंकते हो या पहले हम फेंकें?”
قَالَ بَلۡ أَلۡقُواْۖ فَإِذَا حِبَالُهُمۡ وَعِصِيُّهُمۡ يُخَيَّلُ إِلَيۡهِ مِن سِحۡرِهِمۡ أَنَّهَا تَسۡعَىٰ ۝ 39
(66) मूसा ने कहा, “नहीं, तुम ही फेंको।” यकायक उनकी रस्सियाँ और उनकी लाठियाँ उनके जादू के ज़ोर से मूसा को दौड़ती हुई महसूस होने लगीं,
فَأَوۡجَسَ فِي نَفۡسِهِۦ خِيفَةٗ مُّوسَىٰ ۝ 40
(67) और मूसा अपने दिल में डर गया।15
15. यानी ज्यों ही हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से ‘फेंको' का लफ़्ज़ निकला, जादूगरों ने यकबारगी अपनी लाठियाँ और रस्सियाँ उनकी तरफ़ फेंक दीं और अचानक उनको यह नज़र आया कि सैकड़ों साँप दौड़ते हुए उनकी तरफ़ चले आ रहे हैं। इस मंज़र से फ़ौरी तौर पर अगर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने एक दहशत अपने अन्दर महसूस की हो तो यह कोई अजीब बात नहीं है। इनसान बहरहाल इनसान ही होता है। ख़ाह पैग़म्बर ही क्यों न हो, इनसानियत के तक़ाज़े उससे मुनफ़क नहीं हो सकते। इस मक़ाम पर यह बात लाइके-ज़िक्र है कि क़ुरआन यहाँ इस अम्र की तसदीक़ कर रहा है कि आम इनसानों की तरह पैग़म्बर भी जादू से मुतास्सिर हो सकता है अगरचे जादू उसकी नुबूवत के काम में ख़लल नहीं डाल सकता मगर उसके इनसानी क़ुवा पर असर ज़रूर डाल सकता है। इससे उन लोगों के ख़याल की ग़लती खुल जाती है जो अहादीस में नबी (सल्ल०) पर जादू का असर होने की रिवायात पढ़कर न सिर्फ़ उन रिवायात की तकज़ीब करते हैं, बल्कि इससे आगे बढ़कर तमाम हदीसों को नाक़ाबिले-एतिबार ठहराने लगते हैं।
قُلۡنَا لَا تَخَفۡ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 41
(88) हमने कहा, “मत डर, तू ही ग़ालिब रहेगा।
وَأَلۡقِ مَا فِي يَمِينِكَ تَلۡقَفۡ مَا صَنَعُوٓاْۖ إِنَّمَا صَنَعُواْ كَيۡدُ سَٰحِرٖۖ وَلَا يُفۡلِحُ ٱلسَّاحِرُ حَيۡثُ أَتَىٰ ۝ 42
(69) फेंक जो कुछ तेरे हाथ में है, अभी इनकी सारी बनावटी चीज़ों को निगले जाता है। ये जो कुछ बनाकर लाए हैं यह तो जादूगर का फ़रेब है, और जादूगर कभी कामयाब नहीं हो सकता, ख़ाह किसी शान से वह आए।”
فَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سُجَّدٗا قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ هَٰرُونَ وَمُوسَىٰ ۝ 43
(70) आख़िर को यही हुआ कि सारे जादूगर सजदे में गिरा दिए गए16 और पुकार उठे, “मान लिया हमने हारून और मूसा के रब को।”
16. यानी जब उन्होंने असा-ए-मूसा का कारनामा देखा तो उन्हें फ़ौरन यक़ीन आ गया यह यक़ीनन मोजिज़ा है, उनके फ़न की चीज़ हरगिज़ नहीं है। इसलिए वे इस तरह यकबारगी और बेसाख़्ता सजदे में गिरे जैसे किसी ने उठा-उठाकर उनको गिरा दिया हो।
قَالَ ءَامَنتُمۡ لَهُۥ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّهُۥ لَكَبِيرُكُمُ ٱلَّذِي عَلَّمَكُمُ ٱلسِّحۡرَۖ فَلَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ وَلَأُصَلِّبَنَّكُمۡ فِي جُذُوعِ ٱلنَّخۡلِ وَلَتَعۡلَمُنَّ أَيُّنَآ أَشَدُّ عَذَابٗا وَأَبۡقَىٰ ۝ 44
(71) फ़िरऔन ने कहा, “तुम इसपर ईमान ले आए, क़ब्ल इसके कि मैं तुम्हें इसकी इजाज़त देता? मालूम हो गया कि यह तुम्हारा गुरु है जिसने तुम्हें जादूगरी सिखाई थी। अच्छा, अब मैं तुम्हारे हाथ-पाँव मुख़ालिफ़ सम्तों से कटवाता हूँ और खजूर के तनों पर तुमको सूली देता हूँ। फिर तुम्हें पता चल जाएगा कि हम दोनों में से किसका अज़ाब ज़्यादा सख़्त और देरपा है।” (यानी मैं तुम्हें ज़्यादा सख़्त सज़ा दे सकता या मूसा)।
قَالُواْ لَن نُّؤۡثِرَكَ عَلَىٰ مَا جَآءَنَا مِنَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلَّذِي فَطَرَنَاۖ فَٱقۡضِ مَآ أَنتَ قَاضٍۖ إِنَّمَا تَقۡضِي هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَآ ۝ 45
(72) जादूगरों ने जवाब दिया, “क़सम है उस ज़ात की जिसने हमें पैदा किया है! यह हरगिज़ नहीं हो सकता कि हम रौशन निशानियाँ सामने आ जाने के बाद भी (सदाक़त पर) तुझे तरजीह दें। तू जो कुछ करना चाहे कर ले। तू ज़्यादा-से-ज़्यादा बस इसी दुनिया की ज़िन्दगी का फ़ैसला कर सकता है।
إِنَّآ ءَامَنَّا بِرَبِّنَا لِيَغۡفِرَ لَنَا خَطَٰيَٰنَا وَمَآ أَكۡرَهۡتَنَا عَلَيۡهِ مِنَ ٱلسِّحۡرِۗ وَٱللَّهُ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰٓ ۝ 46
(73) हम तो अपने रब पर ईमान ले आए, ताकि वह हमारी ख़ताएँ माफ़ कर दे और इस जादूगरी से, जिसपर तूने हमें मजबूर किया था, दरगुज़र फ़रमाए। अल्लाह ही अच्छा है और वही बाक़ी रहनेवाला है।”
إِنَّهُۥ مَن يَأۡتِ رَبَّهُۥ مُجۡرِمٗا فَإِنَّ لَهُۥ جَهَنَّمَ لَا يَمُوتُ فِيهَا وَلَا يَحۡيَىٰ ۝ 47
(74) — हक़ीक़त17 यह है कि जो मुजरिम बनकर अपने रब के हुज़ूर हाज़िर होगा उसके लिए जहन्नम है जिसमें वह न जिएगा, न मरेगा।
17. यह जादूगरों के क़ौल पर अल्लाह तआला का अपना इज़ाफ़ा है। अन्दाज़े कलाम ख़ुद बता रहा है कि यह इबारत जादूगरों के क़ौल का हिस्सा नहीं है।
وَمَن يَأۡتِهِۦ مُؤۡمِنٗا قَدۡ عَمِلَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلدَّرَجَٰتُ ٱلۡعُلَىٰ ۝ 48
(75) और जो उसके हुज़ूर मोमिन की हैसियत से हाज़िर होगा जिसने नेक अमल किए होंगे, ऐसे सब लोगों के लिए बलन्द दरजे हैं,
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ مَن تَزَكَّىٰ ۝ 49
(76) सदाबहार बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, उनमें वे हमेशा रहेंगे। यह जज़ा है उस शख़्स की जो पाकीज़गी इख़्तियार करे।
وَلَقَدۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَسۡرِ بِعِبَادِي فَٱضۡرِبۡ لَهُمۡ طَرِيقٗا فِي ٱلۡبَحۡرِ يَبَسٗا لَّا تَخَٰفُ دَرَكٗا وَلَا تَخۡشَىٰ ۝ 50
(77) हमने मूसा18 पर वह्य की कि अब रातों-रात मेरे बन्दों को लेकर चल पड़, और उनके लिए समुन्दर में से सूखी सड़क बना ले, तुझे किसी के तआकुब का ज़रा ख़ौफ़ न हो और न (समुन्दर के बीच से गुज़रते हुए) डर लगे।
18. बीच में उन हालात की तफ़सील छोड़ दी गई है जो इसके बाद मिस्र के तवील ज़माना-ए-क़ियाम में पेश आए। अब उस वक़्त का ज़िक्र शुरू होता है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) को हुक्म हुआ कि बनी-इसराईल को लेकर मिस्र से निकल खड़े हों।
فَأَتۡبَعَهُمۡ فِرۡعَوۡنُ بِجُنُودِهِۦ فَغَشِيَهُم مِّنَ ٱلۡيَمِّ مَا غَشِيَهُمۡ ۝ 51
(78) पीछे से फ़िरऔन अपने लश्कर लेकर पहुँचा, और फिर समुन्दर उनपर छा गया जैसा कि छा जाने का हक़ था।
وَأَضَلَّ فِرۡعَوۡنُ قَوۡمَهُۥ وَمَا هَدَىٰ ۝ 52
(79) फ़िरऔन ने अपनी क़ौम को गुमराह ही किया था, कोई सही रहनुमाई नहीं की थी।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ قَدۡ أَنجَيۡنَٰكُم مِّنۡ عَدُوِّكُمۡ وَوَٰعَدۡنَٰكُمۡ جَانِبَ ٱلطُّورِ ٱلۡأَيۡمَنَ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰ ۝ 53
(80) ऐ बनी-इसराईल!19 हमने तुमको तुम्हारे दुश्मन से नजात दी, और तूर के दाईं जानिब तुम्हारी हाज़िरी के लिए वक़्त मुकर्रर किया और तुमपर 'मन्न व सलवा’ उतारा
19. समुन्दर को उबूर करने से लेकर कोहे-सीना के दामन में पहुँचने तक की दास्तान बीच में छोड़ दी गई है। उसकी तफ़सीलात सूरा-7 आराफ़, आयत-130 से 147 में गुज़र चुकी है।
كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ وَلَا تَطۡغَوۡاْ فِيهِ فَيَحِلَّ عَلَيۡكُمۡ غَضَبِيۖ وَمَن يَحۡلِلۡ عَلَيۡهِ غَضَبِي فَقَدۡ هَوَىٰ ۝ 54
(81) — खाओ हमारा दिया हुआ पाक रिज़्क़ और उसे खाकर सरकशी न करो, वरना तुमपर मेरा ग़ज़ब टूट पड़ेगा। और जिसपर मेरा ग़ज़ब टूटा वह फिर गिरकर ही रहा।
فَرَجَعَ مُوسَىٰٓ إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ غَضۡبَٰنَ أَسِفٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ أَلَمۡ يَعِدۡكُمۡ رَبُّكُمۡ وَعۡدًا حَسَنًاۚ أَفَطَالَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡعَهۡدُ أَمۡ أَرَدتُّمۡ أَن يَحِلَّ عَلَيۡكُمۡ غَضَبٞ مِّن رَّبِّكُمۡ فَأَخۡلَفۡتُم مَّوۡعِدِي ۝ 55
(86) मूसा सख़्त ग़ुस्से और रंज की हालत में अपनी क़ौम की तरफ़ पलटा। जाकर उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! क्या तुम्हारे रब ने तुमसे अच्छे वादे नहीं किए थे?22 क्या तुम्हें दिन लग गए हैं? या तुम अपने रब का ग़ज़ब ही अपने ऊपर लाना चाहते थे कि तुमने मुझसे वादाख़िलाफ़ी की?”
22. यानी आजतक तुम्हारे रब ने तुम्हारे साथ जितनी भी भलाइयों का वादा किया है वे सब तुम्हें हासिल होती रही हैं, तुम्हें मिस्र से बख़ैरियत निकाला, ग़ुलामी से नजात दी, तुम्हारे दुश्मन को तहस-नहस कर दिया, तुम्हारे लिए इन सहराओं और पहाड़ी इलाक़ों में साये और ख़ुराक का बन्दोबस्त किया था, क्या ये सारे अच्छे वादे पूरे नहीं हुए? उसने अब तुम्हें शरीअत, और हिदायत नामा अता करनेका जो वादा किया था, क्या तुम्हारे नज़दीक वह किसी ख़ैर और भलाई का वादा न था?
وَإِنِّي لَغَفَّارٞ لِّمَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا ثُمَّ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 56
(82) अलबत्ता जो तौबा कर ले और ईमान लाए और नेक अमल करे, फिर सीधा चलता रहे उसके लिए मैं बहुत दरगुज़रकरनेवाला हूँ।
قَالُواْ مَآ أَخۡلَفۡنَا مَوۡعِدَكَ بِمَلۡكِنَا وَلَٰكِنَّا حُمِّلۡنَآ أَوۡزَارٗا مِّن زِينَةِ ٱلۡقَوۡمِ فَقَذَفۡنَٰهَا فَكَذَٰلِكَ أَلۡقَى ٱلسَّامِرِيُّ ۝ 57
(87) उन्होंने जवाब दिया, “हमने आपसे वादाख़िलाफ़ी कुछ अपने इख़्तियार से नहीं की, मामला यह हुआ कि लोगों के ज़ेवरात के बोझ से हम लद गए थे और हमने बस उनको फेंक दिया था।”23
23. यह उन लोगों का उज़्र था जो सामिरी के फ़ितने में मुब्तला हुए। उनका कहना यह था कि हमने ज़ेवरात फेंक दिए थे। न हमारी कोई नीयत बछड़ा बनाने की थी, न हमें मालूम था कि क्या बननेवाला है। उसके बाद जो मामला पेश आया वह था ही कुछ ऐसा कि उसे देखकर हम बेइख़्तियार शिर्क में मुब्तला हो गए।
۞وَمَآ أَعۡجَلَكَ عَن قَوۡمِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 58
(83) और क्या चीज़ तुम्हें अपनी क़ौम से पहले ले आई, मूसा?20
20. अब उस मौक़े का ज़िक्र शुरू होता है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) तूर के दामन में बनी- इसराईल को छोड़कर शरीअत के अहकाम लेने के लिए कोहे-तूर पर तशरीफ़ ले गए थे। अल्लाह तआला के इस इरशाद से मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अपनी क़ौम को रास्ते ही में छोड़कर अपने रब की मुलाक़ात के शौक़ में आगे चले गए थे।
فَأَخۡرَجَ لَهُمۡ عِجۡلٗا جَسَدٗا لَّهُۥ خُوَارٞ فَقَالُواْ هَٰذَآ إِلَٰهُكُمۡ وَإِلَٰهُ مُوسَىٰ فَنَسِيَ ۝ 59
(88) फिर इसी तरह सामिरी ने भी कुछ डाला और उनके लिए एक बछड़े की मूरत बनाकर निकाल लाया, जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। लोग पुकार उठे, “यही है तुम्हारा ख़ुदा और मूसा का ख़ुदा, मूसा इसे भूल गया।”
24. यहाँ से आयत-91 के आख़िर तक की इबारत पर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि क़ौम का जवाब ‘फेंक दिया था' पर ख़त्म हो गया और बाद की तफ़सील अल्लाह तआला ख़ुद बता रहा है।
قَالَ هُمۡ أُوْلَآءِ عَلَىٰٓ أَثَرِي وَعَجِلۡتُ إِلَيۡكَ رَبِّ لِتَرۡضَىٰ ۝ 60
(84) उसने अर्ज़ किया, “वे बस मेरे पीछे आ ही रहे हैं। मैं जल्दी करके तेरे हुज़ूर आ गया हूँ, ऐ मेरे रब! ताकि तू मुझसे ख़ुश हो जाए।”
أَفَلَا يَرَوۡنَ أَلَّا يَرۡجِعُ إِلَيۡهِمۡ قَوۡلٗا وَلَا يَمۡلِكُ لَهُمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗا ۝ 61
(89) क्या वे देखते न थे कि न वह उनकी बात का जवाब देता है और न उनके नफ़े व नुक़सान का कुछ इख़्तियार रखता है?
قَالَ فَإِنَّا قَدۡ فَتَنَّا قَوۡمَكَ مِنۢ بَعۡدِكَ وَأَضَلَّهُمُ ٱلسَّامِرِيُّ ۝ 62
(85) फ़रमाया, “अच्छा तो सुनो, हमने तुम्हारे पीछे तुम्हारी क़ौम को आज़माइश में डाल दिया और सामिरी ने उन्हें गुमराह कर डाला।”21
21. यानी सोने का बछड़ा बनाकर उन्हें उसकी परस्तिश में लगा दिया।
وَلَقَدۡ قَالَ لَهُمۡ هَٰرُونُ مِن قَبۡلُ يَٰقَوۡمِ إِنَّمَا فُتِنتُم بِهِۦۖ وَإِنَّ رَبَّكُمُ ٱلرَّحۡمَٰنُ فَٱتَّبِعُونِي وَأَطِيعُوٓاْ أَمۡرِي ۝ 63
(90) हारून (मूसा के आने से) पहले ही उनसे कह चुका था कि “लोगो! तुम इसकी वजह से फ़ितने में पड़ गए हो, तुम्हारा रब तो रहमान है, पस तुम मेरी पैरवी करो और मेरी बात मानो।”
قَالُواْ لَن نَّبۡرَحَ عَلَيۡهِ عَٰكِفِينَ حَتَّىٰ يَرۡجِعَ إِلَيۡنَا مُوسَىٰ ۝ 64
(91) मगर उन्होंने उससे कह दिया कि “हम तो इसी की परस्तिश करते रहेंगे जब तक कि मूसा हमारे पास वापस न आ जाए।”
قَالَ يَٰهَٰرُونُ مَا مَنَعَكَ إِذۡ رَأَيۡتَهُمۡ ضَلُّوٓاْ ۝ 65
(92) मूसा (क़ौम को डाँटने के बाद हारून की तरफ़ पलटा और) बोला, “हारून! तुमने जब देखा था कि ये गुमराह हो रहे हैं तो किस चीज़ ने तुम्हारा हाथ पकड़ा था
قَالَ فَٱذۡهَبۡ فَإِنَّ لَكَ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ أَن تَقُولَ لَا مِسَاسَۖ وَإِنَّ لَكَ مَوۡعِدٗا لَّن تُخۡلَفَهُۥۖ وَٱنظُرۡ إِلَىٰٓ إِلَٰهِكَ ٱلَّذِي ظَلۡتَ عَلَيۡهِ عَاكِفٗاۖ لَّنُحَرِّقَنَّهُۥ ثُمَّ لَنَنسِفَنَّهُۥ فِي ٱلۡيَمِّ نَسۡفًا ۝ 66
(97) मूसा ने कहा, “अच्छा तो जा, अब ज़िन्दगी-भर तुझे यही पुकारते रहना है कि मुझे न छूना।28 और तेरे लिए बाज़पुर्स का एक वक़्त मुक़र्रर है जो तुझसे हरगिज़ न टलेगा। और देख अपने इस ख़ुदा को जिसपर तू रीझा हुआ था, अब हम इसे जला डालेंगे और रेज़ा-रेज़ा करके दरिया में बहा देंगे।
28. यानी सिर्फ़ यही नहीं कि ज़िन्दगी-भर के लिए मुआशरे से उसके ताल्लुक़ात तोड़ दिए गए और उसे अछूत बनाकर रख दिया गया, बल्कि यह ज़िम्मेदारी भी उसी पर डाली गई कि हर शख़्स को वह ख़ुद अपने अछूतपन से आगाह करे और दूर ही से लोगों को मुत्तला करता रहे कि मैं अछूत हूँ, मुझे हाथ न लगाना।
أَلَّا تَتَّبِعَنِۖ أَفَعَصَيۡتَ أَمۡرِي ۝ 67
(93) कि मेरे तरीक़े पर अमल न करो? क्या तुमने ख़िलाफ़वीं की?25
25. 'हुक्म' से मुराद वह हुक्म है जो पहाड़ पर जाते वक़्त और अपनी जगह हज़रत हारून (अलैहि०) को बनी-इसराईल की सरदारी सौंपते वक़्त हज़रत मूसा (अलैहि०) ने दिया था। सूरा-7 आराफ़, आयत-142 में यह बात गुज़र चुकी है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जाते हुए अपने भाई हारून (अलैहि०) से कहा कि तुम मेरी क़ौम में मेरी जानशीनी करो और देखो, इसलाह करना, मुफ़सिदों के तरीक़े की पैरवी न करना।
إِنَّمَآ إِلَٰهُكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ وَسِعَ كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمٗا ۝ 68
(98) लोगो! तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही अल्लाह है जिसके सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है, हर चीज़ पर उसका इल्म हावी है।”
قَالَ يَبۡنَؤُمَّ لَا تَأۡخُذۡ بِلِحۡيَتِي وَلَا بِرَأۡسِيٓۖ إِنِّي خَشِيتُ أَن تَقُولَ فَرَّقۡتَ بَيۡنَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَلَمۡ تَرۡقُبۡ قَوۡلِي ۝ 69
(94) हारून ने जवाब दिया, “ऐ मेरी माँ के बेट! मेरी दाढ़ी न पकड़, न मेरे सिर के बाल खींच, मुझे इस बात का डर था कि तू आकर कहेगा कि तुमने बनी-इसराईल में फूट डाल दी और मेरी बात का पास न किया।”26
26. हज़रत हारून (अलैहि०) के इस जवाब का यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि क़ौम का मुज्तमअ रहना उसके राहे-रास्त पर रहने से ज़्यादा अहमियत रखता है, और इत्तिहाद चाहे वह शिर्क ही पर क्यों न हो, इफ़तिराक़ से बेहतर है। इस आयत का यह मतलब अगर कोई शख़्स लेगा तो क़ुरआन से हिदायत के बजाय गुमराही अख़्ज़ करेगा। हज़रत हारून (अलैहि०) की पूरी बात समझने के लिए इस आयत को सूरा-7 आराफ़ की आयत-150 के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिए जहाँ हज़रत हारून (अलैहि०) फ़रमाते हैं कि “मेरी माँ के बेटे! इन लोगों ने मुझे दबा लिया और क़रीब था कि मुझे मार डालते। पस तू दुश्मनों को मुझपर हँसने का मौक़ा न दे और इस ज़ालिम गरोह में मुझे शुमार न कर।” अब इससे सूरते-वाक़िआ की यह तस्वीर सामने आती है कि हज़रत हारून (अलैहि०) ने लोगों को इस गुमराही से रोकने की पूरी कोशिश की, मगर उन्होंने आँ जनाब के ख़िलाफ़ फ़साद खड़ा कर दिया और आपको मार डालने पर तुल गए। मजबूरन आप इस अंदेशे से ख़ामोश हो गए कि कहीं हज़रत मूसा (अलैहि०) के आने से पहले यहाँ ख़ानाजंगी बरपा न हो जाए और वे बाद में आकर शिकायत करें कि तुम अगर सूरते-हाल से उहदाबर-आ न हो सकते थे तो तुमने हालात को इस हद तक क्यों बिगड़ जाने दिया? मेरे आने का इन्तिज़ार क्यों न किया?
كَذَٰلِكَ نَقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ مَا قَدۡ سَبَقَۚ وَقَدۡ ءَاتَيۡنَٰكَ مِن لَّدُنَّا ذِكۡرٗا ۝ 70
(99) (ऐ नबी!) इस तरह हम पिछले गुज़रे हुए हालात की ख़बरें तुमको सुनाते हैं, और हमने ख़ास अपने यहाँ से तुमको एक 'ज़िक्र' (दर्से-नसीहत) अता किया है।
قَالَ فَمَا خَطۡبُكَ يَٰسَٰمِرِيُّ ۝ 71
(95) मूसा ने कहा, “और सामिर, तेरा क्या मामला है?”
مَّنۡ أَعۡرَضَ عَنۡهُ فَإِنَّهُۥ يَحۡمِلُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وِزۡرًا ۝ 72
(100) जो कोई इससे मुँह मोड़ेगा वह क़ियामत के रोज़ सख़्त बारे-गुनाह उठाएगा,
قَالَ بَصُرۡتُ بِمَا لَمۡ يَبۡصُرُواْ بِهِۦ فَقَبَضۡتُ قَبۡضَةٗ مِّنۡ أَثَرِ ٱلرَّسُولِ فَنَبَذۡتُهَا وَكَذَٰلِكَ سَوَّلَتۡ لِي نَفۡسِي ۝ 73
(96) उसने जवाब दिया, “मैंने वह चीज़ देखी जो इन लोगों को नज़र न आई, पस मैने रसूल के नक़्शे-क़दम से एक मुट्ठी उठा ली और उसको डाल दिया। मेरे नफ़्स नें मुझे कुछ ऐसा ही सुझाया।”27
27. 'रसूल' से मुराद ग़ालिबन यहाँ ख़ुद हज़रत मूसा (अलैहि०) हैं। सामिरी एक मक्कार शख़्स था, उसने हज़रत मूसा (अलैहि०) को भी अपने मक्र के जाल में फाँसना चाहा और उनसे कहा कि हज़रत यह आप ही के ख़ाके-पा की बरकत है कि मैंने जब उसे गले हुए सोने में डाला तो इस शान का बछड़ा उससे बरामद हुआ।
خَٰلِدِينَ فِيهِۖ وَسَآءَ لَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ حِمۡلٗا ۝ 74
(101) और ऐसे सब लोग हमेशा इसके वबाल में गिरफ़्तार रहेंगे, और क़ियामत के दिन उनके लिए (इस जुर्म की ज़िम्मेदारी का बोझ) बड़ा तकलीफ़देह बोझ होगा।
يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ وَنَحۡشُرُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ يَوۡمَئِذٖ زُرۡقٗا ۝ 75
(102) उस दिन जबकि सूर फूँका जाएगा और हम मुजरिमों को इस हाल में घेर लाएँगे कि उनकी आँखें (दहशत के मारे) पथराई हुई होंगी,
يَتَخَٰفَتُونَ بَيۡنَهُمۡ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا عَشۡرٗا ۝ 76
(103) आपस में चुपके-चुपके कहेंगे कि “दुनिया में मुशकिल ही से तुमने कोई दस दिन गुज़ारे होंगे”
وَأَنَّكَ لَا تَظۡمَؤُاْ فِيهَا وَلَا تَضۡحَىٰ ۝ 77
(119) न प्यास और धूप तुम्हें सताती है।”
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَقُولُونَ إِذۡ يَقُولُ أَمۡثَلُهُمۡ طَرِيقَةً إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا يَوۡمٗا ۝ 78
(104) — हमें ख़ूब मालूम है कि वे क्या बातें कर रहे होंगे। (हम यह भी जानते हैं कि) उस वक़्त उनमें से जो ज़्यादा-से-ज़्यादा मुहतात अंदाज़ा लगानेवाला होगा वह कहेगा कि नहीं, तुम्हारी दुनिया की जिन्दगी बस एक दिन की ज़िन्दगी थी।
فَوَسۡوَسَ إِلَيۡهِ ٱلشَّيۡطَٰنُ قَالَ يَٰٓـَٔادَمُ هَلۡ أَدُلُّكَ عَلَىٰ شَجَرَةِ ٱلۡخُلۡدِ وَمُلۡكٖ لَّا يَبۡلَىٰ ۝ 79
(120) लेकिन शैतान ने उसको फुसलाया, कहने लगा, “आदम! बताऊँ तुम्हें वह दरख़्त जिससे अबदी ज़िन्दगी और लाज़वाल सल्तनत हासिल होती है?”
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡجِبَالِ فَقُلۡ يَنسِفُهَا رَبِّي نَسۡفٗا ۝ 80
(105) — ये लोग तुमसे पूछते हैं कि आख़िर उस दिन ये पहाड़ कहाँ चले जाएँगे? कहो कि “मेरा रब उनको धूल बनाकर उड़ा देगा
فَأَكَلَا مِنۡهَا فَبَدَتۡ لَهُمَا سَوۡءَٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخۡصِفَانِ عَلَيۡهِمَا مِن وَرَقِ ٱلۡجَنَّةِۚ وَعَصَىٰٓ ءَادَمُ رَبَّهُۥ فَغَوَىٰ ۝ 81
(121) आख़िरकार दोनों (मियाँ-बीवी) उस दरख़्त का फल खा गए। नतीजा यह हुआ कि फ़ौरन ही उनके सतर एक-दूसरे के आगे खुल गए और लगे दोनों अपने-आपको जन्नत के पत्तों से ढाँकने।33 आदम ने अपने रब की नाफ़रमानी की और राहे-रास्त से भटक गया।
33. ब-अलफ़ाज़े-दीगर नाफ़रमानी का सुदूर होते ही वे आसाइशें उनसे छीन ली गईं जो सरकारी इन्तिज़ाम से उनको मुहैया की जाती थीं, और इसका अव्वलीन सरकारी लिबास छिन जाने की शक्ल में हुआ। ग़िज़ा-पानी और मसकन से महरूमी की नौबत तो बाद को ही आनी थी।
فَيَذَرُهَا قَاعٗا صَفۡصَفٗا ۝ 82
(106) और ज़मीन को ऐसा हमवार चटियल मैदान बना देगा
ثُمَّ ٱجۡتَبَٰهُ رَبُّهُۥ فَتَابَ عَلَيۡهِ وَهَدَىٰ ۝ 83
(122) फिर उसके रब ने उसे बरगुज़ीदा किया और उसकी तौबा क़ुबूल कर ली और उसे हिदायत बख़्शी34
34. यानी शैतान की तरह राँदा-ए-दरगाह न कर दिया, बल्कि जब वह नादिम व शर्मसार होकर ताइब हो गया तो अल्लाह ने उसके साथ यह मेहरबानी का सुलूक किया।
وَقَالُواْ لَوۡلَا يَأۡتِينَا بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّهِۦٓۚ أَوَلَمۡ تَأۡتِهِم بَيِّنَةُ مَا فِي ٱلصُّحُفِ ٱلۡأُولَىٰ ۝ 84
(133) वे कहते हैं कि यह शख़्स अपने रब की तरफ़ से कोई निशानी (मोजिज़ा) क्यों नहीं लाता? और क्या उनके पास अगले सहीफ़ों की तमाम तालीमात का बयाने-वाज़ेह नहीं आ गया?39
39. यानी क्या यह कोई कम मोजिज़ा है कि इन्हीं में से एक उम्मी शख़्स ने वह किताब पेश की है जिसमें शुरू से अब तक की तमाम कुतुबे-आसमानी के मज़ामीन और तालीमात का इत्र निकालकर रख दिया गया है। इनसान की हिदायत व रहनुमाई के लिए उन किताबों में जो कुछ था, वह सब न सिर्फ़ यह कि इसमें जमा कर दिया गया, बल्कि उसको ऐसा खोलकर वाज़ेह भी कर दिया गया कि सहरा-नशीन बद्दू तक उसको समझकर फ़ायदा उठा सकते हैं।
قَالَ ٱهۡبِطَا مِنۡهَا جَمِيعَۢاۖ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ فَإِمَّا يَأۡتِيَنَّكُم مِّنِّي هُدٗى فَمَنِ ٱتَّبَعَ هُدَايَ فَلَا يَضِلُّ وَلَا يَشۡقَىٰ ۝ 85
(123) और फ़रमाया, “तुम दोनों फ़रीक़, (यानी इनसान और शैतान) यहाँ से उतार जाओ। तुम एक-दूसरे के दुश्मन रहोगे। अब अगर मेरी तरफ़ से तुम्हें काई हिदायत पहुँचे तो जो कोई मेरी इस हिदायत की पैरवी करेगा वह न भटकेगा, न बदबख़्ती में मुब्तला होगा।
وَلَوۡ أَنَّآ أَهۡلَكۡنَٰهُم بِعَذَابٖ مِّن قَبۡلِهِۦ لَقَالُواْ رَبَّنَا لَوۡلَآ أَرۡسَلۡتَ إِلَيۡنَا رَسُولٗا فَنَتَّبِعَ ءَايَٰتِكَ مِن قَبۡلِ أَن نَّذِلَّ وَنَخۡزَىٰ ۝ 86
(134) अगर हम इसके आने से पहले उनको किसी अज़ाब से हलाक कर देते तो फिर यही लोग कहते कि ऐ हमारे परवरदिगार! तूने हमारे पास कोई रसूल क्यों न भेजा कि ज़लील व रुसवा होने से पहले ही हम तेरी आयात की पैरवी इख़्तियार कर लेते?
وَمَنۡ أَعۡرَضَ عَن ذِكۡرِي فَإِنَّ لَهُۥ مَعِيشَةٗ ضَنكٗا وَنَحۡشُرُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَعۡمَىٰ ۝ 87
(124) और जो मेरे 'ज़िक्र' (दर्से-नसीहत) से मुँह मोड़ेगा उसके लिए दुनिया में तंग ज़िन्दगी होगी35 और क़ियामत के रोज़ हम उसे अंधा उठाएँगे।
35. दुनिया में तंग जिन्दगी होने का मतलब यह नहीं है कि उसे तंगदस्ती लाहिक़ होगी, बल्कि इसका मतलब यह है कि यहाँ उसे चैन नसीब न होगा। करोड़पति भी होगा तो बेचैन रहेगा। हफ़्त इक़लीम का फ़रमाँरवा भी होगा तो बेकली और बेइत्मीनानी से नजात न पाएगा। उसकी दुनयवी कामयाबियाँ हज़ारों क़िस्म की नाजाइज़ तदबीरों का नतीजा होंगी जिनकी वजह से अपने ज़मीर से लेकर गिर्दो-पेश के पूरे इजतिमाई माहौल तक हर चीज़ के साथ उसकी पैहम कशमकश जारी रहेगी जो उसे कभी अम्न व इत्मीनान और सच्ची मसर्रत से बहरामन्द न होने देगी।
لَّا تَرَىٰ فِيهَا عِوَجٗا وَلَآ أَمۡتٗا ۝ 88
(107) कि इसमें तुम कोई बल और सिलवट न देखोगे।
قُلۡ كُلّٞ مُّتَرَبِّصٞ فَتَرَبَّصُواْۖ فَسَتَعۡلَمُونَ مَنۡ أَصۡحَٰبُ ٱلصِّرَٰطِ ٱلسَّوِيِّ وَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 89
(135) (ऐ नबी!) इनसे कहो, हर एक अंजामे-कार के इन्तिज़ार में है, पस अब मुन्तज़िर रहो, अन-क़रीब तुम्हें मालूम हो जाएगा कि कौन सीधी राह चलनेवाले हैं और कौन हिदायत-याफ़्ता हैं।
قَالَ رَبِّ لِمَ حَشَرۡتَنِيٓ أَعۡمَىٰ وَقَدۡ كُنتُ بَصِيرٗا ۝ 90
(125) — वह कहेगा, “परवरदिगार! दुनिया में तो मैं आँखोंवाला था, यहाँ मुझे अंधा क्यों उठाया?”
قَالَ كَذَٰلِكَ أَتَتۡكَ ءَايَٰتُنَا فَنَسِيتَهَاۖ وَكَذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمَ تُنسَىٰ ۝ 91
(126) अल्लाह तआला फ़रमाएगा, “हाँ, इसी तरह तो हमारी आयात को, जबकि वे तेरे पास आई थीं, तूने भुला दिया था। उसी तरह आज तू भुलाया जा रहा है।”
يَوۡمَئِذٖ يَتَّبِعُونَ ٱلدَّاعِيَ لَا عِوَجَ لَهُۥۖ وَخَشَعَتِ ٱلۡأَصۡوَاتُ لِلرَّحۡمَٰنِ فَلَا تَسۡمَعُ إِلَّا هَمۡسٗا ۝ 92
(108) उस रोज़ सब लोग मुनादी की पुकार पर सीधे चले आएँगे, कोई ज़रा अकड़ न दिखा सकेगा। और आवाजें रहमान के आगे दब जाएँगी, एक सरसराहट के सिवा तुम कुछ न सुनोगे।
وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي مَنۡ أَسۡرَفَ وَلَمۡ يُؤۡمِنۢ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦۚ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَشَدُّ وَأَبۡقَىٰٓ ۝ 93
(127) — इस तरह हम हद से गुज़रनेवाले और अपने रब की आयात न माननेवाले को (दुनिया में) बदला देते हैं, और आख़िरत का अज़ाब ज़्यादा सख़्त और ज़्यादा देरपा है।
يَوۡمَئِذٖ لَّا تَنفَعُ ٱلشَّفَٰعَةُ إِلَّا مَنۡ أَذِنَ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَرَضِيَ لَهُۥ قَوۡلٗا ۝ 94
(109) उस रोज़ शफ़ाअत कारगर न होगी, इल्ला यह कि किसी को रहमान इसकी इजाज़त दे और उसकी बात सुनना पसन्द करे।
أَفَلَمۡ يَهۡدِ لَهُمۡ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ يَمۡشُونَ فِي مَسَٰكِنِهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلنُّهَىٰ ۝ 95
(128) फिर क्या इन लोगों को (तारीख़ के इस सबक़ से) कोई हिदायत न मिली कि इनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं जिनकी (बरबादशुदा) बस्तियों में आज ये चलते-फिरते हैं? दर-हक़ीक़त इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ले-सलीम रखनेवाले हैं।
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَلَا يُحِيطُونَ بِهِۦ عِلۡمٗا ۝ 96
(110) — वह लोगों को अगला-पिछला सब हाल जानता है और दूसरों को इसका पूरा इल्म नहीं है।
۞وَعَنَتِ ٱلۡوُجُوهُ لِلۡحَيِّ ٱلۡقَيُّومِۖ وَقَدۡ خَابَ مَنۡ حَمَلَ ظُلۡمٗا ۝ 97
(111) — लोगों के सिर उस हय्यो-क़य्यूम के आगे झुक जाएँगे। नामुराद होगा जो उस वक़्त किसी ज़ुल्म का बारे-गुनाह उठाए हुए हो।
وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَكَانَ لِزَامٗا وَأَجَلٞ مُّسَمّٗى ۝ 98
(129) अगर तेरे रब की तरफ़ से पहले एक बात तय न कर दी गई होती और मुहलत की एक मुद्दत मुक़र्रर न की जा चुकी होती तो ज़रूर इनका भी फ़ैसला चुका दिया जाता।
فَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ قَبۡلَ طُلُوعِ ٱلشَّمۡسِ وَقَبۡلَ غُرُوبِهَاۖ وَمِنۡ ءَانَآيِٕ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡ وَأَطۡرَافَ ٱلنَّهَارِ لَعَلَّكَ تَرۡضَىٰ ۝ 99
(130) पस (ऐ नबी!) जो बातें ये लोग बनाते हैं उनपर सब्र करो, और अपने रब की हम्द व सना के साथ उसकी तसबीह करो, सूरज निकलने से पहले और ग़ुरूब होने से पहले, और रात के औक़ात में भी तसबीह को और दिन के किनारों पर भी,36 शायद कि तुम राज़ी हो जाओ।37
36. 'रब की हम्द व सना के साथ उसकी तसबीह' करने से मुराद नमाज़ है। उसने औक़ात की तरफ़ यहाँ भी साफ़ इशारा कर दिया गया है। सूरज निकलने से पहले फ़ज्र की नमाज़, सूरज ग़ुरूब होने से पहले अस्र की नमाज़ और रात के औक़ात में इशा और तहज्जुद की नमाज़। रहे दिन के किनारे, तो वे तीन ही हो सकते हैं, एक किनारा सुबह है, दूसरा किनारा ज़वाले-आफ़ताब और तीसरा किनारा शाम। लिहाज़ा दिन के किनारों से मुराद फ़ज़्र, ज़ुहर और मग़रिब की नमाज़ ही हो सकती है।
37. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि तुम अपनी मौजूदा हालत पर राज़ी हो जाओ जिसमें अपने मिशन की ख़ातिर तुम्हें तरह-तरह की नागवार बातें सहनी पड़ रही हैं। दूसरा मतलब यह है कि तुम ज़रा यह काम करके तो देखो, इसका नतीजा वह कुछ सामने आएगा जिससे तुम्हारा दिल ख़ुश हो जाएगा।
وَلَا تَمُدَّنَّ عَيۡنَيۡكَ إِلَىٰ مَا مَتَّعۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّنۡهُمۡ زَهۡرَةَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا لِنَفۡتِنَهُمۡ فِيهِۚ وَرِزۡقُ رَبِّكَ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰ ۝ 100
(231) और निगाह उठाकर भी न देखो दुनयवी ज़िन्दगी की उस शान व शौकत को जो हमने इनमें से मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लोगों को दे रखी है। वह तो हमने उन्हें आज़माइश में डालने के लिए दी है, और तेरे रब का दिया हुआ रिज़्क़े-हलाल38 ही बेहतर और पाइन्दातर है।
38. रिज़्क़ का तर्जमा हमने 'रिज़्क़े-हलाल' किया है, क्योंकि अल्लाह तआला ने कहीं भी हराम माल को 'रिज़्क़े-रब' से ताबीर नहीं फ़रमाया है।
وَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَا يَخَافُ ظُلۡمٗا وَلَا هَضۡمٗا ۝ 101
(112) और किसी ज़ुल्म या हक़-तलफ़ी का ख़तरा न होगा उस शख़्स को, जो नेक अमल करे और इसके साथ वह मोमिन भी हो।
وَأۡمُرۡ أَهۡلَكَ بِٱلصَّلَوٰةِ وَٱصۡطَبِرۡ عَلَيۡهَاۖ لَا نَسۡـَٔلُكَ رِزۡقٗاۖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكَۗ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلتَّقۡوَىٰ ۝ 102
(132) अपने अहलो-अयाल को नमाज़ की तलक़ीन करो और ख़ुद भी इसके पाबन्द रहो। हम तुमसे कोई रिज़्क़ नहीं चाहते। रिज़्क़ तो हम ही तुम्हें दे रहे हैं। और अंजाम की भलाई तक़वा ही के लिए है।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا وَصَرَّفۡنَا فِيهِ مِنَ ٱلۡوَعِيدِ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ أَوۡ يُحۡدِثُ لَهُمۡ ذِكۡرٗا ۝ 103
(113) और (ऐ नबी!) इसी तरह हमने इसे क़ुरआने-अरबी बनाकर नाज़िल किया है29 और इसमें तरह-तरह से तंबीहात की हैं शायद कि ये लोग कजरवी से बचें या उनमें कुछ होश के आसार इसकी बदौलत पैदा हों।
29. यानी ऐसे ही मज़ामीन और तालीमात और नसाइह से लबरेज़। इसका इशारा उन तमाम मज़ामीन की तरफ़ है जो क़ुरआन में बयान हुए हैं।
فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡحَقُّۗ وَلَا تَعۡجَلۡ بِٱلۡقُرۡءَانِ مِن قَبۡلِ أَن يُقۡضَىٰٓ إِلَيۡكَ وَحۡيُهُۥۖ وَقُل رَّبِّ زِدۡنِي عِلۡمٗا ۝ 104
(114) पस बाला व बरतर है अल्लाह, पादशाहे-हक़ीक़ी!30 और देखो क़ुरआन पढ़ने में जल्दी न किया करो जब तक कि तुम्हारी तरफ़ उसकी वह्य तकमील को न पहुँच जाए, और दुआ करो कि ऐ परवरदिगार! मुझे मज़ीद इल्म अता कर।31
30. इस तरह के फ़िक़रे क़ुरआन में बिल-उमूम एक तक़रीर को ख़त्म करते हुए इरशाद फ़रमाए जाते हैं, और मक़सूद यह होता है कि कलाम का ख़ातिमा अल्लाह तआला की हम्द व सना पर हो। अन्दाज़े-बयाँ और सियाक़ व सबाक़ पर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि यहाँ एक तक़रीर ख़त्म हो गई और 'व ल-क़द अहिदना इला आ-द-म' से दूसरी तक़रीर शुरू होती है।
31. इन अलफ़ाज़ से साफ़ महसूस हो रहा है कि नबी (सल्ल०) वह्य का पैग़ाम वुसूल करने के दौरान में उसे याद करने और ज़बान से दोहराने की कोशिश फ़रमा रहे होंगे जिसकी वजह से पैग़ाम की समाअत पर तवज्जुह पूरी तरह मरकूज़ न हो रही होगी। इस कैफ़ियत को देखकर आप (सल्ल०) को हिदायत की गई कि आप नुज़ूले-वह्य के वक़्त उसे याद करने की कोशिश न फ़रमाया करें।
وَلَقَدۡ عَهِدۡنَآ إِلَىٰٓ ءَادَمَ مِن قَبۡلُ فَنَسِيَ وَلَمۡ نَجِدۡ لَهُۥ عَزۡمٗا ۝ 105
(115) हमने इससे पहले आदम को एक हुक्म दिया था, मगर वह भूल गया और हमने उसमें अज़्म न पाया।32
32. मालूम हुआ कि बाद में आदम (अलैहि०) से इस हुक्म की जो ख़िलाफ़वर्ज़ी हुई वह दानिस्ता सरकशी की बिना पर नहीं, बल्कि ग़फ़लत और भूल में पड़ जाने और अज़्म व इरादे की कमज़ोरी में मुब्तला हो जाने की वजह से थी।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰ ۝ 106
(116) याद करो वह वक़्त जबकि हमने फ़रिश्तों में कहा था कि आदम को सजदा करो। वे सब तो सजदा कर गए, मगर एक इबलीस था कि इनकार कर बैठा।
وَٱحۡلُلۡ عُقۡدَةٗ مِّن لِّسَانِي ۝ 107
(27) और मेरी ज़बान की गिरह सुलझा दे
فَقُلۡنَا يَٰٓـَٔادَمُ إِنَّ هَٰذَا عَدُوّٞ لَّكَ وَلِزَوۡجِكَ فَلَا يُخۡرِجَنَّكُمَا مِنَ ٱلۡجَنَّةِ فَتَشۡقَىٰٓ ۝ 108
(117) इसपर हमने आदम से कहा कि “देखो, यह तुम्हारा और तुम्हारी बीवी का दुश्मन है, ऐसा न हो कि यह तुम्हें जन्नत से निकलवा दे और तुम मुसीबत में पड़ जाओ।
يَفۡقَهُواْ قَوۡلِي ۝ 109
(28) ताकि लोग मेरी बात समझ सकें,
إِنَّ لَكَ أَلَّا تَجُوعَ فِيهَا وَلَا تَعۡرَىٰ ۝ 110
(118) यहाँ तो तुम्हें ये आसाइशें हासिल हैं कि न भूखे-नंगे रहते हो
وَٱجۡعَل لِّي وَزِيرٗا مِّنۡ أَهۡلِي ۝ 111
(29) और मेरे लिए अपने कुंबे से एक वज़ीर मुक़र्रर कर दे।
هَٰرُونَ أَخِي ۝ 112
(30) हारून, जो मेरा भाई है
ٱشۡدُدۡ بِهِۦٓ أَزۡرِي ۝ 113
(31) उसके ज़रिए से मेरा हाथ मज़बूत कर
وَأَشۡرِكۡهُ فِيٓ أَمۡرِي ۝ 114
(32) और उसको मेरे काम में शरीक कर दे।
كَيۡ نُسَبِّحَكَ كَثِيرٗا ۝ 115
(33) ताकि हम ख़ूब तेरी पाकी बयान करें
وَنَذۡكُرَكَ كَثِيرًا ۝ 116
(34) और ख़ूब तेरा चर्चा करें।
إِنَّكَ كُنتَ بِنَا بَصِيرٗا ۝ 117
(35) तू हमेशा हमारे हाल पर निगराँ रहा है।”
قَالَ قَدۡ أُوتِيتَ سُؤۡلَكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 118
(36) फ़रमाया, “दिया गया जो तूने माँगा ऐ मूसा!
وَلَقَدۡ مَنَنَّا عَلَيۡكَ مَرَّةً أُخۡرَىٰٓ ۝ 119
(37) हमने फिर एक मर्तबा तुझपर एहसान किया।
إِذۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ أُمِّكَ مَا يُوحَىٰٓ ۝ 120
(38) याद कर वह वक़्त जबकि हमने तेरी माँ को इशारा किया,
أَنِ ٱقۡذِفِيهِ فِي ٱلتَّابُوتِ فَٱقۡذِفِيهِ فِي ٱلۡيَمِّ فَلۡيُلۡقِهِ ٱلۡيَمُّ بِٱلسَّاحِلِ يَأۡخُذۡهُ عَدُوّٞ لِّي وَعَدُوّٞ لَّهُۥۚ وَأَلۡقَيۡتُ عَلَيۡكَ مَحَبَّةٗ مِّنِّي وَلِتُصۡنَعَ عَلَىٰ عَيۡنِيٓ ۝ 121
(39) ऐसा इशारा जो वह्य के ज़रिए से ही किया जाता है कि इस बच्चे को संदूक़ में रख दे और संदूक़ को दरिया में छोड़ दे। दरिया उसे साहिल पर फेंक देगा और उसे मेरा दुश्मन और उस बच्चे का दुश्मन उठा लेगा। मैंने अपनी तरफ़ से तुझपर महब्बत तारी कर दी और ऐसा इन्तिज़ाम किया कि तू मेरी निगरानी में पाला जाए।
إِذۡ تَمۡشِيٓ أُخۡتُكَ فَتَقُولُ هَلۡ أَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ مَن يَكۡفُلُهُۥۖ فَرَجَعۡنَٰكَ إِلَىٰٓ أُمِّكَ كَيۡ تَقَرَّ عَيۡنُهَا وَلَا تَحۡزَنَۚ وَقَتَلۡتَ نَفۡسٗا فَنَجَّيۡنَٰكَ مِنَ ٱلۡغَمِّ وَفَتَنَّٰكَ فُتُونٗاۚ فَلَبِثۡتَ سِنِينَ فِيٓ أَهۡلِ مَدۡيَنَ ثُمَّ جِئۡتَ عَلَىٰ قَدَرٖ يَٰمُوسَىٰ ۝ 122
(40) याद कर जबकि तेरी बहन चल रही थी, फिर जाकर कहती है, मैं तुम्हें उसका पता दूँ जो इस बच्चे की परवरिश अच्छी तरह करे?5 इस तरह हमने तुझे फिर तेरी माँ के पास पहुँचा दिया ताकि उसकी आँख ठडी रहे और वह रंजीदा न हो। और (यह भी याद कर कि) तूने एक शख़्स को क़त्ल कर दिया था, हमने तुझे उस फंदे से निकाला और तुझे मुख़्तलिफ़ आज़माइशों से गुज़ारा और तू मदयन के लोगों में कई साल ठहरा रहा। फिर अब ठीक अपने वक़्त पर तू आ गया है ऐ मूसा।
5. यानी दरिया के किनारे टोकरी के साथ चल रही थी। फिर जब फ़िरऔन के घरवालों ने बच्चे को उठा लिया और वहाँ उसके लिए अन्ना की तलाश हुई तो हज़रत मूसा (अलैहि०) की बहन ने जाकर उनसे यह बात कही।
وَٱصۡطَنَعۡتُكَ لِنَفۡسِي ۝ 123
(41) मैंने तुझको अपने काम का बना लिया है।
ٱذۡهَبۡ أَنتَ وَأَخُوكَ بِـَٔايَٰتِي وَلَا تَنِيَا فِي ذِكۡرِي ۝ 124
(42) जा, तू और तेरा भाई मेरी निशानियों के साथ। और देखो, तुम मेरी याद में तक़सीर न करना।
ٱذۡهَبَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ إِنَّهُۥ طَغَىٰ ۝ 125
(43) जाओ, तुम दोनों फ़िरऔन के पास कि वह सरकश हो गया है।
فَقُولَا لَهُۥ قَوۡلٗا لَّيِّنٗا لَّعَلَّهُۥ يَتَذَكَّرُ أَوۡ يَخۡشَىٰ ۝ 126
(44) उससे नरमी के साथ बात करना, शायद कि वह नसीहत क़ुबूल करे या डर जाए।”
قَالَا رَبَّنَآ إِنَّنَا نَخَافُ أَن يَفۡرُطَ عَلَيۡنَآ أَوۡ أَن يَطۡغَىٰ ۝ 127
(45) दोनों ने अर्ज़ किया,6 “परवरदिगार! हमें अंदेशा है कि वह हमपर ज़्यादती करेगा या पिल पड़ेगा।”
6. यह उस वक़्त की बात है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मिस्र पहुँच गए और हज़रत हारून (अलैहि०) अमलन उनके शरीके-कार हो गए, उस वक़्त फ़िरऔन के पास जाने से पहले दोनों ने अल्लाह तआला के हुज़ूर यह गुज़ारिश की होगी।
قَالَ لَا تَخَافَآۖ إِنَّنِي مَعَكُمَآ أَسۡمَعُ وَأَرَىٰ ۝ 128
(46) फ़रमाया, “डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ, सब कुछ सुन रहा हूँ और देख रहा हूँ।
فَأۡتِيَاهُ فَقُولَآ إِنَّا رَسُولَا رَبِّكَ فَأَرۡسِلۡ مَعَنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَلَا تُعَذِّبۡهُمۡۖ قَدۡ جِئۡنَٰكَ بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكَۖ وَٱلسَّلَٰمُ عَلَىٰ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 129
(47) जाओ उसके पास और कहो कि हम तेरे रब के फ़िरिस्तादे हैं। बनी-इसराईल को हमारे साथ जाने के लिए छोड़ दे और उनको तकलीफ़ न दे। हम तेरे पास तेरे रब की निशानी लेकर आए हैं, और सलामती है उसके लिए जो राहे-रास्त की पैरवी करे।
إِنَّا قَدۡ أُوحِيَ إِلَيۡنَآ أَنَّ ٱلۡعَذَابَ عَلَىٰ مَن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 130
(48) हमको वह्य से बताया गया है कि अज़ाब है उसके लिए जो झुठलाए और मुँह मोड़े।”
قَالَ فَمَن رَّبُّكُمَا يَٰمُوسَىٰ ۝ 131
(49) फ़िरऔन ने कहा,7 “अच्छा तो फिर तुम दोनों का रब कौन है ऐ मूसा?”
7. अब उस वक़्त का क़िस्सा शुरू होता है जब दोनों भाई फ़िरऔन के यहाँ पहुँचे।
قَالَ رَبُّنَا ٱلَّذِيٓ أَعۡطَىٰ كُلَّ شَيۡءٍ خَلۡقَهُۥ ثُمَّ هَدَىٰ ۝ 132
(50) मूसा ने जवाब दिया, “हमारा रब वह है जिसने हर चीज़ को उसकी साख़्त बख़्शी, फिर उसको रास्ता बताया।”8
8. यानी दुनिया की हर शय जैसी भी बनी हुई है, उसी के बनाने से बनी है। फिर उसने ऐसा नहीं किया कि हर चीज़ को उसकी मख़सूस बनावट देकर यूँ ही छोड़ दिया हो। बल्कि उसके बाद वही उन सब चीज़ों की रहनुमाई भी करता है। दुनिया की कोई चीज़ ऐसी नहीं है जिसे अपनी साख़्त से काम लेने और अपने मक़सदे-तख़लीक़ को पूरा करने का तरीक़ा उसने न सिखाया हो। कान को सुनना और आँख को देखना, मछली को तैरना और चिड़िया को उड़ना उसी ने सिखाया है। वह हर चीज़ का सिर्फ़ ख़ालिक़ ही नहीं, हादी और मुअल्लिम भी है।
قَالَ فَمَا بَالُ ٱلۡقُرُونِ ٱلۡأُولَىٰ ۝ 133
(51) फ़िरऔन बोला, “और पहले जो नस्लें गुज़र चुकी हैं उनकी फिर क्या हालत थी?”9
9. यानी अगर बात यही है कि रब सिर्फ़ वही एक ख़ुदा है तो यह हम सब के बाप-दादा जो सदहा बरस से नस्ल-दर-नस्ल दूसरे बहुत-से माबूदों की बन्दगी करते चले आ रहे हैं, उनकी तुम्हारे नज़दीक क्या पोज़ीशन है? क्या वे सब अज़ाब के मुस्तहिक़ थे? क्या उन सबकी अक़लें मारी गई थीं?
قَالَ عِلۡمُهَا عِندَ رَبِّي فِي كِتَٰبٖۖ لَّا يَضِلُّ رَبِّي وَلَا يَنسَى ۝ 134
(52) मूसा ने कहा, “उसका इल्म मेरे रब के पास एक नविश्ते में महफ़ूज़ है। मेरा रब न चूकता है न भूलता है।10
10. फ़िरऔन के सवाल का मक़सद, सामिईन के, और उनके तवस्सुत से पूरी कौम के दिलों में तास्सुब की आग भड़काना था। हज़रत मूसा (अलैहि०) के इस जवाब ने उसके सारे ज़हरीले दाँत तोड़ दिए कि वे लोग जैसे कुछ भी थे, अपना काम करके ख़ुदा के यहाँ जा चुके हैं। उनकी एक-एक हरकत और उसके मुहर्रिकात को ख़ुदा जानता है। उनसे जो कुछ भी मामला ख़ुदा को करना है उसको वही जानता है।