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سُورَةُ الفَتۡحِ

48. अल-फ़त्‌ह

(मदीना में उतरी, आयतें 29)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के वाक्यांश ‘इन्ना फ़तह्‌ना ल-क फ़तहम-मुबीना' (हमने तुमको स्पष्ट विजय प्रदान कर दी) से लिया गया है। यह केवल इस सूरा का नाम ही नहीं है, बल्कि विषय की दृष्टि से भी इसका शीर्षक है, क्योंकि इसमें उस महान विजय पर वार्ता की गई है जो हुदैबिया के समझौते के रूप में अल्लाह ने नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को प्रदान की थी।

उतरने का समय

उल्लेखों (हदीस के बहुत-से कथनों) में इसपर मतैक्य है कि यह ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० में उस समय उतरी थी, जब आप (सल्ल०), मक्का के इस्लाम-विरोधियों से हुदैबिया के समझौते के बाद, मदीना मुनव्वरा की ओर वापस जा रहे थे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

 जिन घटनाओं के सिलसिले में यह सूरा उतरी, उनकी शुरुआत इस तरह होती है कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वप्न में देखा कि आप (सल्ल०) अपने साथियों के साथ मक्का मुअज़्ज़मा गए हैं और वहाँ उमरा किया है। पैग़म्बर का सपना, विदित है कि मात्र सपना और ख़याल नहीं हो सकता था, वह कई प्रकार की प्रकाशनाओं में से एक प्रकाशना है। इसलिए वास्तव में यह [सपना] अल्लाह की ओर से एक संकेत था, जिसका अनुसरण करना नबी (सल्ल०) के लिए ज़रूरी था। [अतः आप (सल्ल०) ने] बे-झिझक अपना सपना सहाबा किराम (रज़ि०) को सुनाकर यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। 1400 सहाबी नबी (सल्ल०) के साथ इस अत्यन्त ख़तरनाक सफ़र पर जाने के लिए तैयार हो गए। ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० के आरंभ में यह मुबारक क़ाफ़िला [उमरा के लिए] मदीना से रवाना हुआ। क़ुरैश के लोगों को नबी (सल्ल०) के इस आगमन ने बड़ी उलझन में डाल दिया। ज़ी-क़ादा का महीना उन प्रतिष्ठित महीनों में से था जो सैकड़ों साल से अरब में हज और ज़ियारत (दर्शन) के लिए मुह्तरम (आदर करने योग्य) समझे जाते थे। इस महीने में जो क़ाफ़िला एहराम बाँधकर हज या उमरे के लिए जा रहा हो, उसे रोकने का किसी को अधिकार प्राप्त न था। क़ुरैश के लोग इस उलझन में पड़ गए कि अगर हम मदीना के इस क़ाफ़िले पर हमला करके इसे मक्का मुअज़्ज़मा में प्रवेश करने से रोकते हैं तो पूरे देश में इसपर शोर मच जाएगा, लेकिन अगर हम मुहम्मद (सल्ल०) को इतने बड़े क़ाफ़िले के साथ सकुशल अपने नगर में प्रवेश करने देते हैं, तो पूरे देश में हमारी हवा उखड़ जाएगी और लोग कहेंगे कि हम मुहम्मद से भयभीत हो गए। अन्तत: बड़े सोच-विचार के बाद उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात ही उनपर प्रभावी रहा और उन्होंने अपनी नाक की ख़ातिर यह फ़ैसला किया कि किसी क़ीमत पर भी इस क़ाफ़िले को अपने शहर में दाख़िल नहीं होने देना है। जब आप (सल्ल०) उसफ़ान के स्थान पर पहुंँचे तो [आप (सल्ल०) के मुख़बिर ने] आकर आप (सल्ल०) को ख़बर दी कि क़ुरैश के लोग पूरी तैयारी के साथ ज़ी-तुवा के स्थान पर पहुंँच गए हैं और ख़ालिद-बिन-वलीद को उन्होंने दो सौ सवारों के साथ कुराउल-ग़मीम की ओर भेज दिया है ताकि वे आप (सल्ल०) का रास्ता रोकें। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह ख़बर पाते ही तुरन्त रास्ता बदल दिया और एक बड़े ही दुर्गम रास्ते से बड़ी कठिनाइयों के साथ हुदैबिया के स्थान पर पहुंँच गए, जो ठीक हरम की सीमा पर पड़ता था। [अब कुरैश ने आप (सल्ल०) के पास दूत भेजकर इस बात की कोशिश की कि आप (सल्ल०) मक्का में प्रवेश करने के इरादे से बाज़ आ जाएँ, मगर वे अपने इस दूतीय प्रयास में विफल रहे।] अन्तत: नबी (सल्ल०) ने स्वयं अपनी ओर से हज़रत उसमान (रज़ि०) को दूत बनाकर मक्का भेजा और उनके ज़रिये से क़ुरैश के सरदारों को यह सन्देश दिया कि हम युद्ध के लिए नहीं, बल्कि ज़ियारत (दर्शन) के लिए हदी (क़ुर्बानी) के जानवर साथ लेकर आए हैं। तवाफ़ (काबा की परिक्रमा) और क़ुर्बानी करके वापस चले जाएंँगे। किन्तु वे लोग न माने और हज़रत उसमान (रज़ि०) को मक्का ही में रोक लिया। इस बीच यह ख़बर उड़ गई कि हज़रत उसमान (रज़ि०) क़त्ल कर दिए गए हैं और उनके वापस न आने से मुसलमानों को विश्वास हो गया कि यह ख़बर सच्ची है। अब और अधिक सहन करने का कोई अवसर नहीं था। अतएव अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने सभी साथियों को एकत्र किया और उनसे इस बात पर बैअत ली (अर्थात् प्रतिज्ञाबद्ध किया) कि अब यहाँ से हम मरते दम तक पीछे न हटेंगे। यही वह बैअत है जो ‘बैअते-रिज़वान' के नाम से इस्लामी इतिहास में प्रसिद्ध है। बाद में मालूम हुआ कि हज़रत उसमान (रज़ि०) के क़त्ल की ख़बर ग़लत थी। हज़रत उसमान (रज़ि०) स्वयं भी वापस आ गए और क़ुरैश की ओर से सुहैल-बिन-अम्र के नेतृत्त्व में एक प्रतिनिधि मंडल भी समझौते की बात-चीत करने के लिए नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गया। लम्बी बातचीत के बाद जिन शर्तों पर संधिपत्र लिखा गया, वे ये थीं—

(1) दस साल तक दोनों पक्षों के बीच युद्ध बन्द रहेगा और एक-दूसरे के विरुद्ध ख़ुफ़िया या खुल्लम-खुल्ला कोई कार्रवाई न की जाएगी।

(2) इस बीच क़ुरैश का जो आदमी अपने वली (अभिभावक) की अनुमति के बिना भागकर मुहम्मद के पास जाएगा, उसे आप (सल्ल०) वापस कर देंगे और आप (सल्ल०) के साथियों में से जो आदमी क़ुरैश के पास चला जाएगा, उसे वे वापस न करेंगे।

(3) अरब के क़बीलों में से जो क़बीला भी दोनों फ़रीक़ों में से किसी एक के साथ प्रतिज्ञाबद्ध होकर इस समझौते में शामिल होना चाहेगा, उसे इसका अधिकार प्राप्त होगा।

(4) मुहम्मद (सल्ल०) इस साल वापस जाएँगे और अगले साल वे उमरे के लिए आकर तीन दिन मक्का में ठहर सकते हैं, बशर्ते कि परतलों (यानी पट्टों) में सिर्फ़ एक-एक तलवार लेकर आएँ और युद्ध का कोई सामान साथ न लाएँ। इन तीन दिनों में मक्कावाले उनके लिए शहर ख़ाली कर देंगे, (ताकि किसी टकराव की नौबत न आए,) मगर वापस जाते हुए उन्हें यहाँ के किसी आदमी को अपने साथ ले जाने का अधिकार प्राप्त न होगा। जिस समय इस संधि की शर्ते तय हो रही थीं, मुसलमानों की पूरी सेना बहुत बेचैन थी। कोई आदमी भी उन निहित उद्देश्यों को नहीं समझ रहा था, जिन्हें दृष्टि में रखकर नबी (सल्ल०) ये शर्ते स्वीकार कर रहे थे। क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी इसे अपनी सफलता समझ रहे थे और मुसलमान इसपर बेचैन थे कि हम आख़िर दबकर ये अपमानजनक शर्तें क्यों स्वीकार कर लें। ठीक उस समय जब समझौता-नामा लिखा जा रहा था, सुहैल-बिन-अम्र के अपने (बेटे) अबू-जन्दल, जो मुसलमान हो चुके थे और मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने उनको क़ैद कर रखा था, किसी न किसी तरह भागकर नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गए। उनके पाँवों में बेड़ियाँ थीं और शरीर पर मार के निशान थे। उन्होंने नबी (सल्ल०) से फ़रियाद की कि मुझे इस अनुचित क़ैद से मुक्ति दिलाई जाए। सहाबा किराम (रज़ि०) के लिए यह हालत देखकर अपने को नियंत्रित रखना कठिन हो गया, मगर सुहैल-बिन-अम्र ने कहा कि समझौता-नामा चाहे पूरा लिखा न गया हो, शर्ते तो हमारे और आपके बीच तय हो चुकी हैं, इसलिए इस लड़के को हमारे हवाले किया जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसका तर्क मान लिया और अबू-जन्दल ज़ालिमों के हवाले कर दिए गए। [इस घटना ने मुसलमानों को और अधिक बेचैन और दुखी कर दिया।] समझौते से निवृत्त होकर नबी (सल्ल०) ने सहाबा से कहा कि अब यहीं क़ुर्बानी करके सर मुंडा लो और एहराम समाप्त कर दो, मगर कोई अपनी जगह से न हिला। नबी (सल्ल०) ने तीन बार हुक्म दिया, मगर सहाबा पर उस समय दुख और शोक और दिल के टूट जाने का एहसास ऐसा छा गया था कि वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। [फिर जब उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) के मश्‍वरे के अनुसार नबी (सल्ल०) ने स्वयं आगे बढ़कर अपना ऊँट ज़िब्ह किया और सिर मुंडा लिया, तब] आप (सल्ल०) को देखकर लोगों ने भी क़ुर्बानियाँ कर ली, सिर मुंडा लिए या बाल कटवा लिए और एहराम से निकल आए। इसके बाद जब यह क़ाफ़िला हुदैबिया के समझौते को अपनी पराजय और अपना अपमान समझता हुआ मदीना की ओर वापस जा रहा था, उस समय ज़जनान के स्थान पर (या कुछ लोगों के अनुसार कुराउल-ग़मीम के स्थान पर) यह सूरा उतरी। इसमें मुसलमानों को बताया गया कि यह समझौता जिसे वे पराजय समझ रहे हैं, वास्तव में महान विजय है। इसके उतरने के बाद नबी (सल्ल.) ने मुसलमानों को जमा किया और फ़रमाया, "आज मुहम्मद पर वह चीज़ उतरी है, जो मेरे लिए दुनिया और दुनिया की सब चीज़ों से अधिक मूल्यवान है।" फिर यह सूरा आप (सल्ल०) ने पढ़कर सुनाई और विशेष रूप से हज़रत उमर (रज़ि०) को बुलाकर इसे सुनाया, क्योंकि वे सबसे अधिक दुखी थे। यद्यपि ईमानवाले तो अल्लाह का यह कथन सुनकर हो सन्तुष्ट हो गए थे, मगर कुछ अधिक समय न बीता था कि इस सुलह के फ़ायदे एक-एक करके सामने आते गए, यहाँ तक कि किसी को भी इस बात में सन्देह न रहा कि वास्तव में यह समझौता एक शानदार विजय थी।

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سُورَةُ الفَتۡحِ
48. अल-फ़त्‌ह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
إِنَّا فَتَحۡنَا لَكَ فَتۡحٗا مُّبِينٗا
(1) (ऐ नबी!) हमने तुमको खुली फ़त्‌ह अता कर दी1
1. सुल्हे-हुदैबिया के बाद जब फ़त्‌ह का यह मुज़दा सुनाया गया तो लोग हैरान थे कि आख़िर इस सुलह को फ़त्‌ह कैसे कहा जा सकता है जिसमें बज़ाहिर हमने वे तमाम शराइत मान लीं जो कुफ़्फ़ार हमसे मनवाना चाहते थे। लेकिन थोड़ी ही मुद्दत के बाद यह मालूम हो गया कि यह सुलह दर-हक़ीक़त एक बड़ी फ़त्‌ह थी।
لِّيَغۡفِرَ لَكَ ٱللَّهُ مَا تَقَدَّمَ مِن ذَنۢبِكَ وَمَا تَأَخَّرَ وَيُتِمَّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكَ وَيَهۡدِيَكَ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 1
(2) ताकि अल्लाह तुम्हारी अगली-पिछली हर कोताही से दरगुज़र फ़रमाए2 और तुमपर अपनी नेमत की तकमील कर दे और तुम्हें सीधा रास्ता दिखाए3
2. जिस मौक़ा व महल पर यह फ़िक़रा इरशाद हुआ है उसे निगाह में रखा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि यहाँ जिन कोताहियों से दरगुज़र करने का ज़िक्र है उनसे मुराद वे ख़ामियाँ हैं जो इस्लाम की कामयाबी व सरबलन्दी के लिए काम करते हुए उस सई व जुह्द में रह गई थीं जो रसूलुल्लाह (सल्ल०) की क़ियादत में पिछले 19 साल से मुसलमान कर रहे थे। ये ख़ामियाँ किसी इनसान के इल्म में नहीं हैं, बल्कि इनसानी अक़्ल तो उस जिद्दो-जुह्द में कोई नक़्स तलाश करने से क़तई आजिज़ है। मगर अल्लाह तआला की निगाह में कमाल का जो बलन्दतरीन मेयार है उसके लिहाज़ से उसमें कुछ ऐसी ख़ामियाँ थीं जिनकी वजह से मुसलमानों को इतनी जल्दी मुशरिकीने-अरब पर फ़ैसलाकुन फ़त्‌ह हासिल न हो सकती थी। अल्लाह तआला के इरशाद का मतलब यह है कि उन ख़ामियों के साथ अगर तुम जिद्दो-जुह्द करते रहते तो अरब के मुसख़्ख़र होने में अभी अरसए-दराज़ दरकार था, मगर हमने उन सारी कमज़ोरियों और कोताहियों से दरगुज़र करके मह्ज़ अपने फ़ज़्ल से उनकी तलाफ़ी कर दी और हुदैबिया के मक़ाम पर तुम्हारे लिए उस फ़त्‌ह व ज़फ़र का दरवाज़ा खोल दिया जो मामूल के मुताबिक़ तुम्हारी अपनी कोशिशों से नसीब न हो सकती थी।
3. इस मक़ाम पर रसूलुल्लाह (सल्ल०) को सीधा रास्ता दिखाने का मतलब आप (सल्ल०) को फ़त्‌ह व कामरानी का रास्ता दिखाना है।
وَيَنصُرَكَ ٱللَّهُ نَصۡرًا عَزِيزًا ۝ 2
और तुमको ज़बरदस्त नुसरत बख़्शे।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ ٱلسَّكِينَةَ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لِيَزۡدَادُوٓاْ إِيمَٰنٗا مَّعَ إِيمَٰنِهِمۡۗ وَلِلَّهِ جُنُودُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 3
(4) वही है जिसने मोमिनों के दिलों में सकीनत नाज़िल फ़रमाई4 ताकि अपने ईमान के साथ वे एक ईमान और बढ़ा लें। ज़मीन और आसमानों के सब लश्कर अल्लाह के कब्ज़ा-ए-क़ुदरत में हैं और वह अलीम और हकीम है।
4. 'सकीनत' से मुराद सुकून और इत्मीनाने-क़ल्ब है। मतलब यह है कि सुलहे-हुदैबिया के मौक़े पर जितने इशतिआलअंगेज़ हालात पेश आए उन सबमें मुसलमानों का सब्र करना और रसूलुल्लाह (सल्ल०) की क़ियादत पर कामिल एतिमाद करते उनसे बख़ैरियत गुज़र जाना अल्लाह के फ़ज़्ल का नतीजा था वरना उस वक़्त एक ज़रा-सी ग़लती भी सारा काम ख़राब कर देती।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُبَايِعُونَكَ إِنَّمَا يُبَايِعُونَ ٱللَّهَ يَدُ ٱللَّهِ فَوۡقَ أَيۡدِيهِمۡۚ فَمَن نَّكَثَ فَإِنَّمَا يَنكُثُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِمَا عَٰهَدَ عَلَيۡهُ ٱللَّهَ فَسَيُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 4
(10) ऐ नबी, जो लोग तुमसे बैअत कर रहे थे6 वे दरअस्ल अल्लाह से बैअत कर रहे थे। उनके हाथ पर अल्लाह का हाथ था7। अब जो इस अह्द को तोड़ेगा उसकी अह्द-शिकनी का वबाल उसकी अपनी ही ज़ात पर होगा, और जो उस अह्द को वफ़ा करेगा जो उसने अल्लाह से किया है, अल्लाह अन-क़रीब उसको बड़ा अज्र अता फ़रमाएगा।
6. इशारा है उस 'बैअत' की तरफ़ जो मक्का में हज़रत उसमान (रज़ि०) के शहीद हो जाने की ख़बर सुनकर रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने सहाबा किराम से हुदैबिया के मक़ाम पर ली थी। यह 'बैअत' इस बात पर ली गई थी कि हज़रत उसमान (रज़ि०) की शहादत का मामला अगर सही साबित हुआ तो मुसलमान यहाँ और इसी वक़्त क़ुरैश से निमट लेंगे ख़ाह नतीजे में वे सब कट ही क्यों न मरें।
7. यानी जिस हाथ पर लोग उस वक़्त 'बैअत' कर रहे थे वह शख़्से-रसूल का हाथ नहीं, बल्कि अल्लाह के नुमाइन्दे का हाथ था और यह 'बैअत' रसूल के वास्ते से दर-हक़ीक़त अल्लाह तआला के साथ हो रही थी।
لِّيُدۡخِلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَيُكَفِّرَ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عِندَ ٱللَّهِ فَوۡزًا عَظِيمٗا ۝ 5
(5) (उसने यह काम इसलिए, किया है) ताकि मोमिन मर्दों और औरतों को हमेशा रहने के लिए ऐसी जन्नतों में दाख़िल फ़रमाए जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी और उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर दे। — अल्लाह के नज़दीक यह बड़ी कामयाबी है।
سَيَقُولُ لَكَ ٱلۡمُخَلَّفُونَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ شَغَلَتۡنَآ أَمۡوَٰلُنَا وَأَهۡلُونَا فَٱسۡتَغۡفِرۡ لَنَاۚ يَقُولُونَ بِأَلۡسِنَتِهِم مَّا لَيۡسَ فِي قُلُوبِهِمۡۚ قُلۡ فَمَن يَمۡلِكُ لَكُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔا إِنۡ أَرَادَ بِكُمۡ ضَرًّا أَوۡ أَرَادَ بِكُمۡ نَفۡعَۢاۚ بَلۡ كَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرَۢا ۝ 6
(11) ऐ नबी, बदवी अरबों में से जो लोग पीछे छोड़ दिए गए थे8 अब वे आकर ज़रूर तुमसे कहेंगे कि “हमें अपने अमवाल और बाल-बच्चों की फ़िक्र ने मशग़ूल कर रखा था, आप हमारे लिए माफ़ी की दुआ फ़रमाएँ।” ये लोग अपनी ज़बानों से वे बातें कहते हैं जो इनके दिलों में नहीं होतीं। इनसे कहना, “अच्छा, यही बात है तो कौन तुम्हारे मामले में अल्लाह के फ़ैसले को रोक देने का कुछ भी इख़्तियार रखता है अगर वह तुम्हें कोई नुक़सान पहुँचाना चाहे या नफ़ा बख़्शना चाहे? तुम्हारे आमाल से तो अल्लाह ही बाख़बर है।”
8. यह अतराफ़े-मदीना के उन लोगों का ज़िक्र है जिन्हें 'उमरे' की तैयारी करते समय रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने साथ चलने की दावत दी थी, मगर वे ईमान का दावा रखने के बावजूद सिर्फ़ इसलिए अपने घरों से न निकले थे कि उन्हें अपनी जान अज़ीज़ थी। वे समझ रहे थे कि इस मौक़े पर क़ुरैश के ऐन घर में 'उमरे' के लिए जाना मौत के मुँह में जाना है।
وَيُعَذِّبَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡمُشۡرِكِينَ وَٱلۡمُشۡرِكَٰتِ ٱلظَّآنِّينَ بِٱللَّهِ ظَنَّ ٱلسَّوۡءِۚ عَلَيۡهِمۡ دَآئِرَةُ ٱلسَّوۡءِۖ وَغَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَلَعَنَهُمۡ وَأَعَدَّ لَهُمۡ جَهَنَّمَۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرٗا ۝ 7
(6) और उन मुनाफ़िक़ (मिथ्याचारी) मर्दों और औरतों और बहुदेववादी मर्दों और औरतों को सज़ा दे जो अल्लाह के और उन मुनाफ़िक़ मर्दों और औरतों और मुशरिक मर्दों और औरतों को सज़ा दे जो अल्लाह के मुताल्लिक़ बुरे गुमान रखते हैं। बुराई के फेर में वे ख़ुद ही आ गए, अल्लाह का ग़ज़ब उनपर हुआ और उसने उनपर लानत की और उनके लिए जहन्नम मुहय्या कर दी जो बहुत ही बुरा ठिकाना है।
بَلۡ ظَنَنتُمۡ أَن لَّن يَنقَلِبَ ٱلرَّسُولُ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ إِلَىٰٓ أَهۡلِيهِمۡ أَبَدٗا وَزُيِّنَ ذَٰلِكَ فِي قُلُوبِكُمۡ وَظَنَنتُمۡ ظَنَّ ٱلسَّوۡءِ وَكُنتُمۡ قَوۡمَۢا بُورٗا ۝ 8
(12) (मगर अस्ल बात वह नहीं है जो तुम कह रहे हो) बल्कि तुमने यूँ समझा कि रसूल और मोमिनीन अपने घरवालों में हरगिज़ पलटकर न आ सकेंगे और यह ख़याल तुम्हारे दिलों को बहुत भला लगा और तुमने बहुत बुरे गुमान किए और तुम सख़्त बद-बातिन लोग हो।”
وَلِلَّهِ جُنُودُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمًا ۝ 9
(7) ज़मीन और आसमान के लश्कर अल्लाह ही के क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में हैं और वह अलीम और हकीम है।
وَمَن لَّمۡ يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ فَإِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ سَعِيرٗا ۝ 10
(13) अल्लाह और उसके रसूल पर जो लोग ईमान न रखते हों ऐसे काफ़िरों के लिए हमने भड़कती हुई आग मुहैया कर रखी है।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ شَٰهِدٗا وَمُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 11
(8) ऐ नबी, हमने तुमको शहादत देनेवाला5, बशारत देनेवाला और ख़बरदार कर देनेवाला बनाकर भेजा है।
5. शाह वलीयुल्लाह साहब ने ‘शाहिद’ तर्जमा “इज़हारे-हक़ कुनिन्दा” फ़रमाया है, यानी हक़ की शहादत देनेवाला।
وَعَدَكُمُ ٱللَّهُ مَغَانِمَ كَثِيرَةٗ تَأۡخُذُونَهَا فَعَجَّلَ لَكُمۡ هَٰذِهِۦ وَكَفَّ أَيۡدِيَ ٱلنَّاسِ عَنكُمۡ وَلِتَكُونَ ءَايَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ وَيَهۡدِيَكُمۡ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 12
(20) अल्लाह तुमसे बकसरत अमवाले-ग़नीमत का वादा करता है जिन्हें तुम हासिल करोगे।12 फ़ौरी तौर पर तो यह फ़त्‌ह उसने तुम्हें अता कर दी13 और लोगों के हाथ तुम्हारे ख़िलाफ़ उठने से रोक दिए,14 ताकि यह मोमिनों के लिए एक निशानी बन जाए और अल्लाह सीधे रास्ते की तरफ़ तुम्हें हिदायत बख़्शे।
12. इससे मुराद वे दूसरी फ़ुतूहात हैं जो ख़ैबर के बाद मुसलमानों को मुसलसल हासिल होती चली गईं।
13. इससे मुराद है सुलहे-हुदैबिया, जिसको सूरा के आग़ाज़ में फ़त्‌हे-मुबीन क़रार दिया गया है।
14. यानी कुफ़्फ़ारे-कुरैश को यह हिम्मत उसने न दी कि वे हुदैबिया के मक़ाम पर तुमसे लड़ जाते, हालाँकि तमाम ज़ाहिरी हालात के लिहाज़ से वे बहुत ज़्यादा बेहतर पोज़ीशन में थे, और जंगी नुक़्ता-ए-नज़र से तुम्हारा पल्ला उनके मुक़ाबले में बहुत कमज़ोर नज़र आता था।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 13
(14) आसमानों और ज़मीन की बादशाही का मालिक अल्लाह ही है, जिसे चाहे माफ़ करे और जिसे चाहे सज़ा दे, और वह ग़फ़ूर व रहीम है।
لِّتُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَتُعَزِّرُوهُ وَتُوَقِّرُوهُۚ وَتُسَبِّحُوهُ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلًا ۝ 14
(9) ताकि ऐ लोगो, तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसका (यानी रसूल का) साथ दो, उसकी ताज़ीम व तौक़ीर करो और सुबह व शाम अल्लाह की तसबीह करते रहो।
وَأُخۡرَىٰ لَمۡ تَقۡدِرُواْ عَلَيۡهَا قَدۡ أَحَاطَ ٱللَّهُ بِهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٗا ۝ 15
(21) इसके अलावा दूसरी और ग़नीमतों का भी वह तुमसे वादा करता है जिनपर तुम अभी क़ादिर नहीं हुए हो और अल्लाह ने उनको घेर रखा है,15 अल्लाह हर चीज पर क़ादिर है।
15. अग़लब यह है कि यह इशारा फ़त्‌हे-मक्का की तरफ़ है। यानी अभी तो मक्का तुम्हारे क़ाबू में नहीं आया है मगर अल्लाह ने उसे घेरे में ले लिया है और हुदैबिया की इस फ़त्‌ह के नतीजे में वह भी तुम्हारे क़ब्ज़े में आ जाएगा।
سَيَقُولُ ٱلۡمُخَلَّفُونَ إِذَا ٱنطَلَقۡتُمۡ إِلَىٰ مَغَانِمَ لِتَأۡخُذُوهَا ذَرُونَا نَتَّبِعۡكُمۡۖ يُرِيدُونَ أَن يُبَدِّلُواْ كَلَٰمَ ٱللَّهِۚ قُل لَّن تَتَّبِعُونَا كَذَٰلِكُمۡ قَالَ ٱللَّهُ مِن قَبۡلُۖ فَسَيَقُولُونَ بَلۡ تَحۡسُدُونَنَاۚ بَلۡ كَانُواْ لَا يَفۡقَهُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 16
(15) जब तुम माले-ग़नीमत हासिल करने के लिए जाने लगोगे तो ये पीछे छोड़े जानेवाले लोग तुमसे ज़रूर कहेंगे कि हमें भी अपने साथ चलने दो।9 ये चाहते हैं कि अल्लाह के फ़रमान को बदल दें। इनसे साफ़ कह देना कि “तुम हरगिज़ हमारे साथ नहीं चल सकते, अल्लाह पहले ही यह फ़रमा चुका है।” ये कहेंगे कि “नहीं, बल्कि तुम लोग हमसे हसद कर रहे हो।” (हालाँकि बात हसद की नहीं है) बल्कि ये लोग सही बात को कम ही समझते हैं।
9. यानी अन-क़रीब वह वक़्त आनेवाला है जब यही लोग, जो आज़ ख़तरे की मुहिम पर तुम्हारे साथ जाने से जी चुरा गए थे, तुम्हें एक ऐसी मुहिम पर जाते देखेंगे जिसमें उनको आसान फ़त्‌ह और बहुत-से अमवाले-ग़नीमत के हुसूल का इमकान नज़र आएगा। उस वक़्त ये ख़ुद दौड़े-दौड़े आएँगे और कहेंगे कि हमें भी अपने साथ ले चलो।
وَلَوۡ قَٰتَلَكُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوَلَّوُاْ ٱلۡأَدۡبَٰرَ ثُمَّ لَا يَجِدُونَ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 17
(22) ये काफ़िर लोग अगर इस वक़्त तुमसे लड़ गए होते तो यक़ीनन पीठ फेर जाते और कोई हामी व मददगार न पाते।
قُل لِّلۡمُخَلَّفِينَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ سَتُدۡعَوۡنَ إِلَىٰ قَوۡمٍ أُوْلِي بَأۡسٖ شَدِيدٖ تُقَٰتِلُونَهُمۡ أَوۡ يُسۡلِمُونَۖ فَإِن تُطِيعُواْ يُؤۡتِكُمُ ٱللَّهُ أَجۡرًا حَسَنٗاۖ وَإِن تَتَوَلَّوۡاْ كَمَا تَوَلَّيۡتُم مِّن قَبۡلُ يُعَذِّبۡكُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 18
(16) इन पीले छोड़े जानेवाले बदवी अरबों से कहना कि “अन-क़रीब तुम्हें ऐसे लोगों से लड़ने के लिए बुलाया जाएगा जो बड़े ज़ोरआवर हैं। तुमको उनसे जंग करनी होगी या वे मुतीअ हो जाएँगे। उस वक़्त अगर तुमने हुक्मे-जिहाद की इताअत की तो अल्लाह तुम्हें अच्छा अज्र देगा, और अगर तुम फिर उसी तरह मुँह मोड़ गए जिस तरह पहले मोड़ चुके हो तो अल्लाह तुमको दर्दनाक सज़ा देगा।
سُنَّةَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلُۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّةِ ٱللَّهِ تَبۡدِيلٗا ۝ 19
(23) यह अल्लाह की सुन्नत है जो पहले से चली आ रही है और तुम अल्लाह की सुन्नत में कोई तबदीली न पाओगे।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞۗ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَمَن يَتَوَلَّ يُعَذِّبۡهُ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 20
(17) हाँ, अगर अंधा और लंगड़ा और मरीज़ जिहाद के लिए न आए तो कोई हरज नहीं। जो कोई अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करेगा अल्लाह उसे उन जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, और जो मुँह फेरेगा उसे वह दर्दनाक अज़ाब देगा।”
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدٗا ۝ 21
(28) वह अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को हिदायत और दीने-हक़ के साथ भेजा है ताकि उसको पूरी जिंसे-दीन पर ग़ालिब कर दे और इस हक़ीक़त पर अल्लाह की गवाही काफ़ी है।20
20. इस मक़ाम पर यह बात इरशाद फ़रमाने की वजह यह है कि हुदैबिया में जब मुआहदए- सुलह लिखा जाने लगा था उस वक़्त कुफ़्फ़ारे-मक्का ने हुज़ूर (सल्ल०) के इस्मे-गिरामी के साथ रसूलुल्लाह (सल्ल०) का लफ़्ज़ लिखने पर एतिराज़ किया था। इसपर फ़रमाया गया कि रसूल का रसूल होना तो एक हक़ीक़त है जिसमें किसी के मानने या न मानने से कोई फ़र्क़ वाक़े नहीं होता। इसको अगर कुछ लोग नहीं मानते तो न मानें। इसके हक़ीक़त होने पर सिर्फ़ अल्लाह की शाहादत काफ़ी है।
وَهُوَ ٱلَّذِي كَفَّ أَيۡدِيَهُمۡ عَنكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ عَنۡهُم بِبَطۡنِ مَكَّةَ مِنۢ بَعۡدِ أَنۡ أَظۡفَرَكُمۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرًا ۝ 22
(24) वही है जिसने मक्का की वादी में उनके हाथ तुमसे और तुम्हारे हाथ उनसे रोक दिए, हालाँकि वह उनपर तुम्हें ग़लबा अता कर चुका था और जो कुछ तुम कर रहे थे अल्लाह उसे देख रहा था।
۞لَّقَدۡ رَضِيَ ٱللَّهُ عَنِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذۡ يُبَايِعُونَكَ تَحۡتَ ٱلشَّجَرَةِ فَعَلِمَ مَا فِي قُلُوبِهِمۡ فَأَنزَلَ ٱلسَّكِينَةَ عَلَيۡهِمۡ وَأَثَٰبَهُمۡ فَتۡحٗا قَرِيبٗا ۝ 23
(18) अल्लाह मोमिनों से ख़ुश हो गया जब वे दरख़्त के नीचे तुमसे बैअत कर रहे थे। उनके दिलों का हाल उसको मालूम था इसलिए उसने उनपर सकीनत नाज़िल फ़रमाई,10 उनको इनाम में क़रीबी फ़त्‌ह बख़्शी,
10. यहाँ ‘सकीनत’ से मुराद दिल की वह कैफ़ियत है जिसकी बिना पर एक शख़्स किसी मक़सदे-अज़ीम के लिए ठण्डे दिल से पूरे सुकून व इत्मीनान के साथ अपने-आपको ख़तरे के मुँह में झोंक देता है और किसी ख़ौफ़ या घबराहट के बग़ैर फ़ैसला कर लेता है कि यह काम बहरहाल करने का है ख़ाह नतीजा कुछ भी हो।
مُّحَمَّدٞ رَّسُولُ ٱللَّهِۚ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ أَشِدَّآءُ عَلَى ٱلۡكُفَّارِ رُحَمَآءُ بَيۡنَهُمۡۖ تَرَىٰهُمۡ رُكَّعٗا سُجَّدٗا يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٗاۖ سِيمَاهُمۡ فِي وُجُوهِهِم مِّنۡ أَثَرِ ٱلسُّجُودِۚ ذَٰلِكَ مَثَلُهُمۡ فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِۚ وَمَثَلُهُمۡ فِي ٱلۡإِنجِيلِ كَزَرۡعٍ أَخۡرَجَ شَطۡـَٔهُۥ فَـَٔازَرَهُۥ فَٱسۡتَغۡلَظَ فَٱسۡتَوَىٰ عَلَىٰ سُوقِهِۦ يُعۡجِبُ ٱلزُّرَّاعَ لِيَغِيظَ بِهِمُ ٱلۡكُفَّارَۗ وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِنۡهُم مَّغۡفِرَةٗ وَأَجۡرًا عَظِيمَۢا ۝ 24
(29) मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं, और जो लोग उनके साथ हैं वे कुफ्फ़ा़र पर सख़्त21 और आपस में रहीम हैं।22 तुम जब देखोगे उन्हें रुकूअ व सुजूद, और अल्लाह के फ़ज़्ल और उसकी ख़ुशनूदी की तलब में मशग़ूल पाओगे। सुजूद के असरात उनके चेहरों पर मौजूद हैं जिनसे वे अलग पहचाने जाते हैं।23 यह है उनकी सिफ़त। तौरात में और इंजील में उनकी मिसाल यूँ दी गई है कि गोया एक खेती है जिसने पहले कोंपल निकाली, फिर उसको तक़वियत दी, फिर वह गदराई, फिर अपने तने पर खड़ी हो गई। काश्त करनेवालों को वह ख़ुश करती है ताकि कुफ़्फ़ार उनके फलने-फूलने पर जलें। इस गरोह के लोग जो ईमान लाए हैं और जिन्होंने नेक अमल किए हैं अल्लाह ने उनसे मग़फ़िरत और बड़े अज्र का वादा फ़रमाया है।
21. अरबी ज़बान में कहते हैं “फ़ुलानुन शदीदुन अलैहि,” फ़ुलाँ शख़्स उसपर सख़्त है, यानी उसको दबाना या राम करना और अपने मतलब पर लाना उसके लिए मुशकिल है। सहाबा किराम (रज़ि०) के कुफ़्फ़ा़र पर सख़्त होने का मतलब यह है कि वे मोम की नाक नहीं हैं कि उन्हें काफ़िर जिधर चाहें मोड़ दें। वे नर्म चारा नहीं हैं कि काफ़िर उन्हें आसानी के साथ चबा जाएँ। उन्हें किसी ख़ौफ़ से दबाया नहीं जा सकता। उन्हें किसी तरग़ीब से ख़रीदा नहीं जा सकता। काफ़िरों में यह ताक़त नहीं है कि उन्हें उस मक़सदे-अज़ीम से हटा दें जिसके लिए वे सर-धड़ की बाज़ी लगाकर मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देने के लिए उठे हैं।
22. यानी उनकी सख़्ती जो कुछ भी है दुश्मनाने-दीन के लिए है। अहले-ईमान के लिए नहीं है। अहले-ईमान के मुक़ाबले में वे नर्म हैं, रहीम व शफ़ीक़ हैं, हमदर्द व ग़मगुसार हैं। उसूल और मक़सद के इत्तिहाद ने उनके अन्दर एक-दूसरे के लिए मुहब्बत और हमरंगी व साज़गारी पैदा कर दी है।
23. इससे मुराद पेशानी का वह गट्टा नहीं है जो सजदे करने की वजह से बाज़ नमाज़ियों के चेहरे पर पड़ जाता है, बल्कि इससे मुराद ख़ुदातरसी, करीमुन-नफ़्सी, शराफ़त और हुस्ने-अख़लाक़ के वे आसार हैं जो ख़ुदा के आगे झुकने की वजह से फ़ितरतन आदमी के चेहेरे पर नुमायाँ हो जाते हैं। अल्लाह तआला के इरशाद का मंशा यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) के ये साथी तो ऐसे हैं कि इनको देखते ही एक आदमी को बयक नज़र यह मालूम हो सकता है कि ये ख़ैरे-ख़लाइक़ हैं, क्योंकि ख़ुदा-परस्ती का नूर इनके चेहरों पर दमक रहा है।
هُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّوكُمۡ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَٱلۡهَدۡيَ مَعۡكُوفًا أَن يَبۡلُغَ مَحِلَّهُۥۚ وَلَوۡلَا رِجَالٞ مُّؤۡمِنُونَ وَنِسَآءٞ مُّؤۡمِنَٰتٞ لَّمۡ تَعۡلَمُوهُمۡ أَن تَطَـُٔوهُمۡ فَتُصِيبَكُم مِّنۡهُم مَّعَرَّةُۢ بِغَيۡرِ عِلۡمٖۖ لِّيُدۡخِلَ ٱللَّهُ فِي رَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۚ لَوۡ تَزَيَّلُواْ لَعَذَّبۡنَا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابًا أَلِيمًا ۝ 25
(25) वही लोग तो हैं जिन्होंने कुफ़्र किया और तुमको मस्जिदे-हराम से रोका और हदी के ऊँटों को उनकी क़ुरबानी की जगह न पहुँचने दिया। अगर (मक्का में) ऐसे मोमिन मर्द व औरत मौजूद न होते जिन्हें तुम नहीं जानते, और यह ख़तरा न होता कि नादानिस्तगी में तुम उन्हें पामाल कर दोगे और उससे तुमपर हर्फ़ आएगा (तो जंग न रोकी जाती, रोकी वह इसलिए गई) ताकि अल्लाह अपनी रहमत में जिसको चाहे दाख़िल कर ले। वे मोमिन अलग हो गए होते तो (अहले-मक्का में से) जो काफ़िर थे उनको हम ज़रूर सख़्त सज़ा देते।16
16. यह थी वह मस्लहत जिसकी बिना पर अल्लाह तआला ने हुदैबिया में जंग न होने दी। मक्का मुअज़्ज़मा में इस वक़्त बहुत-से मुसलमान मर्द व ज़न ऐसे मौजूद थे जिन्होंने या तो अपना ईमान छिपा रखा था, या जिनका ईमान मालूम था, मगर वे अपनी बेबसी की वजह से हिजरत न कर सकते थे और ज़ुल्म व सितम का शिकार हो रहे थे। इस हालत में अगर जंग होती और मुसलमान कुफ़्फ़ार को रगेदते हुए मक्का मुअज़्ज़मा में दाख़िल होते तो कुफ़्फ़ार के साथ-साथ ये मुसलमान भी नादानिस्तगी में मुसलमानों के हाथों से मारे जाते। दूसरा पहलू इस मस्लहत का यह था कि अल्लाह तआला क़ुरैश को एक ख़ूँरेज़ जंग में शिकस्त दिलवाकर मक्का फ़त्‌ह कराना न चाहता था, बल्कि उसके पेशे-नज़र यह था कि दो साल के अन्दर हर तरफ़ से घेरकर उन्हें इस तरह बेबस कर दे कि वे किसी मुज़ाहमत के बग़ैर मग़लूब हो जाएँ, और फिर पूरा-का-पूरा क़बीला इस्लाम क़ुबूल करके अल्लाह की रहमत में दाख़िल हो जाए, जैसा कि फ़तहे-मक्का के मौक़े पर हुआ।
وَمَغَانِمَ كَثِيرَةٗ يَأۡخُذُونَهَاۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 26
(19) और बहुत-सा माले-ग़नीमत उन्हें अता कर दिया जिसे वे (अन-क़रीब) हासिल करेंगे।11 अल्लाह ज़बरदस्त और हकीम है।
11. यह इशारा है ख़ैबर की फ़त्‌ह और उसके अमवाले-ग़नीमत की तरफ़।
إِذۡ جَعَلَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡحَمِيَّةَ حَمِيَّةَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ فَأَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَعَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَأَلۡزَمَهُمۡ كَلِمَةَ ٱلتَّقۡوَىٰ وَكَانُوٓاْ أَحَقَّ بِهَا وَأَهۡلَهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 27
(26) (यही वजह है कि) जब इन काफ़िरों ने अपने दिलों में जाहिलाना हमीयत बिठा ली तो अल्लाह ने अपने रसूल और मोमिनों पर सकीनत17 नाज़िल फ़रमाई और मोमिनों को तक़वा की बात का पाबन्द रखा कि वही उसके ज़्यादा हक़दार और उसके अह्ल थे। अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखता है।
17. यहाँ ‘सकीनत’ से मुराद है सब्र और वक़ार, जिसके साथ नबी (सल्ल०) और मुसलमानों ने कुफ़्फ़ार की इस जाहिलाना हमीयत का मुक़ाबला किया। वे उनकी इस हठधर्मी और सरीह ज़्यादती पर मुश्तइल होकर आपे से बाहर न हुए, और उनके जवाब में कोई बात उन्होंने ऐसी न की जो हक़ से मुतजाविज़ और रास्ती के ख़िलाफ़ होती या जिससे मामला बख़ैर व ख़ूबी सुलझने के बजाय और ज़्यादा बिगड़ जाता।
لَّقَدۡ صَدَقَ ٱللَّهُ رَسُولَهُ ٱلرُّءۡيَا بِٱلۡحَقِّۖ لَتَدۡخُلُنَّ ٱلۡمَسۡجِدَ ٱلۡحَرَامَ إِن شَآءَ ٱللَّهُ ءَامِنِينَ مُحَلِّقِينَ رُءُوسَكُمۡ وَمُقَصِّرِينَ لَا تَخَافُونَۖ فَعَلِمَ مَا لَمۡ تَعۡلَمُواْ فَجَعَلَ مِن دُونِ ذَٰلِكَ فَتۡحٗا قَرِيبًا ۝ 28
(27) फ़िल-वाक़े अल्लाह ने अपने रसूल को सच्चा ख़ाब दिखाया था जो ठीक-ठीक हक़ के मुताबिक़ था।18 इन-शाअल्लाह तुम ज़रूर मस्जिदे-हराम में पूरे अम्न के साथ दाख़िल होगे,19 अपने सिर मुंडवाओगे और बाल तरशवाओगे, और तुम्हें कोई ख़ौफ़ न होगा। वह उस बात को जानता था जिसे तुम न जानते थे इसलिए वह ख़ाब पूरा होने से पहले उसने यह क़रीबी फ़त्‌ह तुमको अता फ़रमा दी।
18. यह उस सवाल का जवाब है जो बार-बार मुसलमानों के दिलों में खटक रहा था। वे कहते थे कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने तो ख़ाब में यह देखा था कि आप (सल्ल०) मस्जिदे-हराम में दाख़िल हुए हैं और बैतुल्लाह का तवाफ़ किया है, फिर क्या हुआ कि हम उमरा किए बग़ैर वापस जा रहे हैं।
19. यह वादा अगले साल ज़ीक़ादा सन् 7 हि० में पूरा हुआ। तारीख़ में वह उमरा 'उम-रतुल-क़ज़ा’ के नाम से मशहूर है।