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سُورَةُ يسٓ

36. या-सीन

(मक्का में उतरी, आयतें 83)

 

परिचय

नाम

शुरू ही के दोनों अक्षरों को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

वर्णन-शैली पर विचार करने से महसूस होता है कि इस सूरा के उतरने का समय या तो मक्का के मध्यकाल का अंतिम समय है, या फिर यह [नबी (सल्ल.) के] मक्का निवासकाल के अन्तिम समय की सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

वार्ता का उद्देश्य क़ुरैश के इस्लाम-विरोधियों को मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत पर ईमान न लाने और अत्याचार और उपहास से उसका मुक़ाबला करने के अंजाम से डराना है। इसमें डरावे का पहलू बढ़ा हुआ और स्पष्ट है, किन्तु बार-बार डराने के साथ दलीलों से समझाया भी गया है। दलीलें तीन बातों की दी गई हैं-

तौहीद (एकेश्वरवाद) पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों और सामान्य बुद्धि से, आख़िरत पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों, सामान्य बुद्धि और स्वयं इंसान के अपने अस्तित्व से, और मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी की सत्यता पर इस बात से कि आप संदेश पहुँचाने में यह सारी मशक्कत केवल नि:स्वार्थ भाव से सहन कर रहे थे, और इस बात से कि जिन बातों की ओर आप लोगों को बुला रहे थे, वे सर्वथा उचित थीं। इन दलीलों के बल पर डाँट-फटकार, निन्दा और चेतावनी की वार्ताएँ बड़े ज़ोरदार तरीक़े से बार-बार प्रस्तुत हुई हैं, ताकि दिलों के ताले टूटें और जिनके भीतर सत्य स्वीकार करने की थोड़ी-सी क्षमता भी हो, वे प्रभावित हुए बिना न रह सकें। इमाम अहमद, अबू-दाऊद, नसाई, इब्ने-माजा और तबरानी (रह०) आदि ने माक़िल-बिन-यसार (रजि०) से रिवायत किया है कि नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि यह सूरा क़ुरआन का दिल है। यह उसी तरह की मिसाल है जिस तरह सूरा फ़ातिहा को 'उम्मुल-क़ुरआन' फ़रमाया गया है। फ़ातिहा को उम्मुल-क़ुरआन क़रार देने की वजह यह है कि उसमें क़ुरआन मजीद की सम्पूर्ण शिक्षा का सार आ गया है। सूरा या-सीन को कुरआन का धड़कता हुआ दिल इसलिए फ़रमाया गया है कि यह क़ुरआन की दावत को बड़े ज़ोरदार तरीक़े से पेश करती है, जिससे ठहराव टूटता और रूह में हरकत पैदा होती है। इन्हीं हज़रत माक़िल-बिन-यसार (रज़ि०) से इमाम अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा (रह०) ने यह रिवायत भी नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अपने मरनेवालों पर सूरा या-सीन पढ़ा करो।" इसका कारण यह है कि मरते समय मुसलमान के मन में न सिर्फ़ यह कि तमाम इस्लामी अक़ीदे ताज़ा हो जाएँ, बल्कि मुख्य रूप से उसके सामने आख़िरत का पूरा चित्र भी आ जाए और वह जान ले कि दुनिया की ज़िन्दगी से गुज़रकर अब आगे किन मंज़िलों से उसको वास्ता पेश आनेवाला है। इस निहितार्थ को पूरा करने के लिए उचित यह मालूम होता है कि अरबी न जाननेवाले आदमी को सूरा या-सीन सुनाने के साथ उसका अनुवाद भी सुना दिया जाए, ताकि याद दिलाने का हक़ पूरी तरह अदा हो जाए।

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سُورَةُ يسٓ
36. या० सीन०
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قِيلَ ٱدۡخُلِ ٱلۡجَنَّةَۖ قَالَ يَٰلَيۡتَ قَوۡمِي يَعۡلَمُونَ ۝ 1
(26) (आख़िरकार उन लोगों ने उसे क़त्ल कर दिया और) उस शख़्स से कह दिया गया कि “दाख़िल हो जा जन्नत में।” उसने कहा, “काश, मेरी क़ौम को यह मालूम होता
يسٓ
(1) या० सीन०।
بِمَا غَفَرَ لِي رَبِّي وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ ۝ 2
(27) कि मेरे रब ने किस चीज़ की बदौलत मेरी मग़फ़िरत फ़रमा दी और मुझे बाइज़्ज़त लोगों में दाख़िल फ़रमाया!”
وَٱلۡقُرۡءَانِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 3
(2) क़सम है क़ुरआने-हकीम की
۞وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِن جُندٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا كُنَّا مُنزِلِينَ ۝ 4
(28) उसके बाद उसकी क़ौम पर हमने आसमान से कोई लश्कर नहीं उतारा। हमें लश्कर भेजने की कोई हाजत न थी।
إِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 5
(3) कि तुम यक़ीनन रसूलों में से हो,
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ خَٰمِدُونَ ۝ 6
(29) बस एक धमाका हुआ और यकायक वे सब बुझकर रह गए।
عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 7
(4) सीधे रास्ते पर हो
يَٰحَسۡرَةً عَلَى ٱلۡعِبَادِۚ مَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 8
(30) अफ़सोस बन्दों के हाल पर! जो उनके पास आया उसका वे मज़ाक़ ही उड़ाते रहे।
تَنزِيلَ ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 9
(5) (और यह क़ुरआन) ग़ालिब और रहीम हस्ती का नाज़िल-करदा है
أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ أَنَّهُمۡ إِلَيۡهِمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 10
(31) क्या उन्होंने देखा नहीं कि उनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं और उसके बाद फिर कभी उनकी तरफ़ पलटकर न आए?
لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أُنذِرَ ءَابَآؤُهُمۡ فَهُمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 11
(6) ताकि तुम ख़बरदार करो एक ऐसी क़ौम को जिसके बाप-दादा ख़बरदार न किए गए थे और इस वजह से वे ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।
وَإِن كُلّٞ لَّمَّا جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 12
(32) उन सबको एक रोज़ हमारे सामने हाज़िर किया जाना है।
لَقَدۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَىٰٓ أَكۡثَرِهِمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 13
(7) उनमें से अकसर लोग फ़ैसला-ए-अज़ाब के मुस्तहिक़ हो चुके हैं, इसी लिए वे ईमान नहीं लाते।1
1. यह उन लोगों का ज़िक्र है जो नबी (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में ज़िद और हठधर्मी से काम ले रहे थे और जिन्होंने तय कर लिया था कि आप (सल्ल०) की बात बहरहाल मानकर नहीं देनी है। उनके मुताल्लिक़ फ़रमाया गया कि “ये लोग फ़ैसला-ए-अज़ाब के मुस्तहिक़ हो चुके हैं इसलिए ये ईमान नहीं लाते।”
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلۡأَرۡضُ ٱلۡمَيۡتَةُ أَحۡيَيۡنَٰهَا وَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهَا حَبّٗا فَمِنۡهُ يَأۡكُلُونَ ۝ 14
(33) इन लोगों के लिए बेजान ज़मीन एक निशानी है। हमने उसको ज़िन्दगी बख़्शी और उससे ग़ल्ला निकाला जिसे ये खाते हैं।
وَجَعَلۡنَا فِيهَا جَنَّٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ وَفَجَّرۡنَا فِيهَا مِنَ ٱلۡعُيُونِ ۝ 15
(34) हमने उसमें खजूरों और अंगूरों के बाग़ पैदा किए और उसके अन्दर से चश्मे फोड़ निकाले,
إِنَّا جَعَلۡنَا فِيٓ أَعۡنَٰقِهِمۡ أَغۡلَٰلٗا فَهِيَ إِلَى ٱلۡأَذۡقَانِ فَهُم مُّقۡمَحُونَ ۝ 16
(8) हमने उनकी गरदनों में तौक़ डाल दिए हैं। जिनसे वे ठोड़ियों तक जकड़े गए हैं, इसलिए वे सिर उठाए खड़े हैं।2
2. ‘तौक़’ से मुराद उनकी अपनी हठधर्मी है जो उनके लिए क़ुबूले-हक़ में माने हो रही थी। ‘ठोड़ियों तक जकड़ जाने’ और ‘सिर उठाए खड़े होने’ से मुराद वह गरदन की अकड़ है जो तकब्बुर और नख़वत का नतीजा होती है।
لِيَأۡكُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦ وَمَا عَمِلَتۡهُ أَيۡدِيهِمۡۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 17
(35) ताकि ये उसके फल खाएँ। ये सब कुछ उनके अपने हाथों का पैदा किया हुआ नहीं है। फिर क्या ये शुक्र अदा नहीं करते?
وَجَعَلۡنَا مِنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ سَدّٗا وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ سَدّٗا فَأَغۡشَيۡنَٰهُمۡ فَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 18
(9) हमने एक दीवार उनके आगे खड़ी कर दी है और एक दीवार उनके पीछे। हमने उन्हें ढाँक दिया है, उन्हें अब कुछ नहीं सूझता|3
3. एक दीवार आगे और एक पीछे खड़ी कर देने से मुराद यह है कि इसी हठधर्मी और ग़ुरूर का फ़ितरी नतीजा यह हुआ कि ये लोग न पिछली तारीख़ से कोई सबक़ लेते हैं और न मुस्तक़बिल के नताइज पर कभी ग़ौर करते हैं। इनके तास्सुबात ने इनको हर तरफ़ से इस तरह ढाँक लिया है और इनकी ग़लत-फ़हमियों ने इनकी आँखों पर ऐसे परदे डाल दिए हैं कि इन्हें वे खुले-खुले हताहत नज़र नहीं आते, जो हर सलीमुत्तबा और बेतास्सुब इनसान को नज़र आ रहे हैं।
سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ وَمِنۡ أَنفُسِهِمۡ وَمِمَّا لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 19
(36) पाक है वह ज़ात जिसने जुमला अक़साम के जोड़े पैदा किए ख़ाह वे ज़मीन की नबातात में से हों या ख़ुद उनकी अपनी जिंस (यानी नौए-इनसानी) में से या उन अशया में से जिनको ये जानते तक नहीं हैं।
وَسَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 20
(10) उनके लिए वकसाँ है, तुम उन्हें ख़बरदार करो या न करो, ये न मानेंगे।
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلَّيۡلُ نَسۡلَخُ مِنۡهُ ٱلنَّهَارَ فَإِذَا هُم مُّظۡلِمُونَ ۝ 21
(37) इनके लिए एक और निशानी रात है, हम उसके ऊपर से दिन हटा देते हैं तो इनपर अंधेरा छा जाता है।
إِنَّمَا تُنذِرُ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلذِّكۡرَ وَخَشِيَ ٱلرَّحۡمَٰنَ بِٱلۡغَيۡبِۖ فَبَشِّرۡهُ بِمَغۡفِرَةٖ وَأَجۡرٖ كَرِيمٍ ۝ 22
(11) तुम तो उसी शख़्स को ख़बरदार कर सकते हो जो नसीहत की पैरवी करे और बेदेखे ख़ुदा-ए-रहमान से डरे। उसे मग़फ़िरत और अज्रे-करीम की बशारत दे दो।
إِنَّا نَحۡنُ نُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَنَكۡتُبُ مَا قَدَّمُواْ وَءَاثَٰرَهُمۡۚ وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ فِيٓ إِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 23
(12) हम यक़ीनन एक रोज़ मुर्दों को ज़िन्दा करनेवाले हैं। जो कुछ अफ़आल उन्होंने किए हैं वे सब हम लिखते जा रहे हैं, और जो कुछ आसार उन्होंने पीछे छोड़े हैं वे भी हम सब्त कर रहे हैं। हर चीज़ को हमने एक खुली किताब में दर्ज कर रखा है।
وَٱلشَّمۡسُ تَجۡرِي لِمُسۡتَقَرّٖ لَّهَاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 24
(38) और सूरज, वह अपने ठिकाने की तरफ़ चला जा रहा है। यह ज़बरदस्त अलीम हस्ती का बाँधा हुआ हिसाब है।
وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلًا أَصۡحَٰبَ ٱلۡقَرۡيَةِ إِذۡ جَآءَهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 25
(13) इन्हें मिसाल के तौर पर उस बस्तीवालों का क़िस्सा सुनाओ जबकि उसमें रसूल आए थे।
وَٱلۡقَمَرَ قَدَّرۡنَٰهُ مَنَازِلَ حَتَّىٰ عَادَ كَٱلۡعُرۡجُونِ ٱلۡقَدِيمِ ۝ 26
(39) और चाँद, जिसके लिए हमने मंज़िलें मुक़र्रर कर दी हैं, यहाँ तक कि उनसे गुज़रता हुआ वह फिर खजूर की सूखी शाख़ के मानिन्द रह जाता है।
إِذۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱثۡنَيۡنِ فَكَذَّبُوهُمَا فَعَزَّزۡنَا بِثَالِثٖ فَقَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَيۡكُم مُّرۡسَلُونَ ۝ 27
(14) हमने उनकी तरफ़ दो रसूल भेजे और उन्होंने दोनों को झुठला दिया। फिर हमने तीसरा मदद के लिए भेजा और उन सबने कहा, “हम तुम्हारी तरफ़ रसूल की हैसियत से भेजे गए हैं।”
لَا ٱلشَّمۡسُ يَنۢبَغِي لَهَآ أَن تُدۡرِكَ ٱلۡقَمَرَ وَلَا ٱلَّيۡلُ سَابِقُ ٱلنَّهَارِۚ وَكُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 28
(40) न सूरज के बस में यह है कि वह चाँद को जा पकड़े और न रात दिन पर सबक़त ले जा सकती है। सब एक-एक फ़लक में तैर रहे हैं।
قَالُواْ مَآ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَمَآ أَنزَلَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مِن شَيۡءٍ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَكۡذِبُونَ ۝ 29
(15) बस्तीवालों ने कहा तुम कुछ नहीं हो मगर हम जैसे चंद इनसान, और ख़ुदा-ए-रहमान हरगिज़ कोई चीज़ नाज़िल नहीं की है, तुम मह्ज़ झूठ बोलते हो।”
فَٱلۡيَوۡمَ لَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗا وَلَا تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 30
(54) आज किसी पर ज़र्रा बराबर ज़ुल्म न किया जाएगा और तुम्हें वैसा ही बदला दिया जाएगा जैसे तुम अमल करते रहे थे।
وَءَايَةٞ لَّهُمۡ أَنَّا حَمَلۡنَا ذُرِّيَّتَهُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 31
(41) इनके लिए यह भी एक निशानी है कि हमने इनकी नस्ल को भरी हुई कश्ती4 में सवार कर दिया,
4. ‘कश्ती’ से मुराद है कश्ती-ए-नूह (अलैहि०)
قَالُواْ رَبُّنَا يَعۡلَمُ إِنَّآ إِلَيۡكُمۡ لَمُرۡسَلُونَ ۝ 32
(16) रसूलों ने कहा, “हमारा रब जानता है कि हम ज़रूर तुम्हारी तरफ़ रसूल बनाकर भेजे गए हैं,
إِنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ ٱلۡيَوۡمَ فِي شُغُلٖ فَٰكِهُونَ ۝ 33
(55) — आज जन्नती लोग मज़े करने में मशग़ूल हैं।
وَمَا عَلَيۡنَآ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 34
(17) और हमपर साफ़-साफ़ पैग़ाम पहुँचा देने के सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।”
هُمۡ وَأَزۡوَٰجُهُمۡ فِي ظِلَٰلٍ عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِ مُتَّكِـُٔونَ ۝ 35
(56) वे और उनकी बीवियाँ घने सायों में हैं, मसनदों पर तकिए लगाए हुए,
قَالُوٓاْ إِنَّا تَطَيَّرۡنَا بِكُمۡۖ لَئِن لَّمۡ تَنتَهُواْ لَنَرۡجُمَنَّكُمۡ وَلَيَمَسَّنَّكُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 36
(18) बस्तीवाले कहने लगे, “हम तो तुम्हें अपने लिए फ़ाले-बद समझते हैं। अगर तुम बाज़ न आए तो हम तुमको संगसार कर देंगे और हमसे तुम बड़ी दर्दनाक सज़ा पाओगे।”
لَهُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَلَهُم مَّا يَدَّعُونَ ۝ 37
(57) हर क़िस्म की लज़ीज़ चीज़ें खाने-पीने को उनके लिए वहाँ मौजूद हैं, जो कुछ वे तलब करें उनके लिए हाज़िर है।
قَالُواْ طَٰٓئِرُكُم مَّعَكُمۡ أَئِن ذُكِّرۡتُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ ۝ 38
(19) रसूलों ने जवाब दिया, “तुम्हारी फ़ाले-बद तो तुम्हारे अपने साथ लगी हुई है। क्या ये बातें तुम इसलिए करते हो कि तुम्हें नसीहत की गई? अस्ल बात यह है कि तुम हद से गुज़रे हुए लोग हो।”
وَخَلَقۡنَا لَهُم مِّن مِّثۡلِهِۦ مَا يَرۡكَبُونَ ۝ 39
(42) और फिर इनके लिए वैसी ही कश्तियाँ और पैदा कीं जिनपर ये सवार होते हैं।
سَلَٰمٞ قَوۡلٗا مِّن رَّبّٖ رَّحِيمٖ ۝ 40
(58) रब्बे-रहीम की तरफ़ से उनको सलाम कहा गया है।
وَإِن نَّشَأۡ نُغۡرِقۡهُمۡ فَلَا صَرِيخَ لَهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنقَذُونَ ۝ 41
(43) हम चाहें तो इनको ग़र्क़ कर दें, कोई इनकी फ़रयाद सुननेवाला न हो। और किसी तरह ये न बचाए जा सकें।
وَٱمۡتَٰزُواْ ٱلۡيَوۡمَ أَيُّهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 42
और ऐ मुजरिमो! आज तुम छँटकर अलग हो जाओ।
إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّنَّا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ ۝ 43
(44) बस हमारी रहमत ही है जो इन्हें पार लगाती और एक वक़्ते-ख़ास तक ज़िन्दगी से मुतमत्तेअ होने का मौक़ा देती है।
۞أَلَمۡ أَعۡهَدۡ إِلَيۡكُمۡ يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ أَن لَّا تَعۡبُدُواْ ٱلشَّيۡطَٰنَۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 44
(60) आदम के बच्चो! क्या मैंने तुमको हिदायत न की थी कि शैतान की बन्दगी न करो, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है,
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّقُواْ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيكُمۡ وَمَا خَلۡفَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 45
(45) इन लोगों से जब कहा जाता है कि बचो उस अंजाम से जो तुम्हारे आगे आ रहा है और तुम्हारे पीछे गुज़र चुका है, शायद कि तुमपर रहम किया जाए (तो ये सुनी-अनसुनी कर जाते हैं)।
وَجَآءَ مِنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ رَجُلٞ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱتَّبِعُواْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 46
(20) इतने में शहर के दूर-दराज़ गोशे से एक शख़्स दौड़ता हुआ आया और बोला, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! रसूलों की पैरवी इख़्तियार कर लो।
وَأَنِ ٱعۡبُدُونِيۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 47
(61) और मेरी ही बन्दगी करो, यह सीधा रास्ता है?
وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 48
(46) इनके सामने इनके रब की आयात में से जो आयत भी आती है, ये उसकी तरफ़ इलतिफ़ात नहीं करते।
ٱتَّبِعُواْ مَن لَّا يَسۡـَٔلُكُمۡ أَجۡرٗا وَهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 49
(21) पैरवी करो उन लोगों की जो तुमसे कोई अज्र नहीं चाहते और ठीक रास्ते पर हैं।
وَلَقَدۡ أَضَلَّ مِنكُمۡ جِبِلّٗا كَثِيرًاۖ أَفَلَمۡ تَكُونُواْ تَعۡقِلُونَ ۝ 50
(62) मगर इसके बावजूद उसने तुममें से एक गरोहे-कसीर को गुमराह कर दिया। क्या तुम अक़्ल नहीं रखते थे?
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنُطۡعِمُ مَن لَّوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ أَطۡعَمَهُۥٓ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 51
(47) और जब इनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो रिज़्क़ तुम्हें अता किया है उसमें से कुछ अल्लाह की राह में भी ख़र्च करो तो ये लोग जिन्होंने कुफ़ किया है ईमान लानेवालों को जवाब देते हैं, “क्या हम उनको खिलाएँ जिन्हें अगर अल्लाह चाहता तो ख़ुद खिला देता? तुम तो बिलकुल ही बहक गए हो।”
وَمَالِيَ لَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِي فَطَرَنِي وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 52
(22) आख़िर क्यों न मैं उस हस्ती की बन्दगी करूँ जिसने मुझे पैदा किया है और जिसकी तरफ़ तुम सबको पलटकर जाना है?
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 53
(63) यह वही जहन्नम है जिससे तुमको डराया जाता रहा था।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 54
(48) ये लोग कहते हैं कि “यह क़ियामत की धमकी आख़िर कब पूरी होगी? बताओ अगर तुम सच्चे हो।”
ءَأَتَّخِذُ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةً إِن يُرِدۡنِ ٱلرَّحۡمَٰنُ بِضُرّٖ لَّا تُغۡنِ عَنِّي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يُنقِذُونِ ۝ 55
(23) क्या मैं उसे छोड़कर दूसरे माबूद बना लूँ? हालाँकि अगर ख़ुदा-ए-रहमान मुझे कोई नुक़सान पहुँचाना चाहे तो न उनकी शफ़ाअत मेरे किसी काम आ सकती है और न वे मुझे छुड़ा ही सकते हैं।
ٱصۡلَوۡهَا ٱلۡيَوۡمَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 56
(64) जो कुफ़्र तुम दुनिया में करते रहे हो उसकी पादाश में अब इसका ईंधन बनो।
إِنِّيٓ إِذٗا لَّفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 57
(24) अगर मैं ऐसा करूँ तो मैं सरीह गुमराही में मुब्तला हो जाऊँगा।
مَا يَنظُرُونَ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ تَأۡخُذُهُمۡ وَهُمۡ يَخِصِّمُونَ ۝ 58
(49) दरअस्ल ये जिस चीज़ की राह तक रहे हैं वह बस एक धमाका है जो यकायक इन्हें इस हालत में धर लेगा जब वे (अपने दुनियवी मामलात में) झगड़ रहे होंगे,
ٱلۡيَوۡمَ نَخۡتِمُ عَلَىٰٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَتُكَلِّمُنَآ أَيۡدِيهِمۡ وَتَشۡهَدُ أَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 59
(65) आज हम इनके मुँह बंद किए देते हैं, इनके हाथ हमसे बोलेंगे और इनके पाँव गवाही देंगे की ये दुनिया में क्या कमाई करते रहें हैं।
إِنِّيٓ ءَامَنتُ بِرَبِّكُمۡ فَٱسۡمَعُونِ ۝ 60
(25) मैं तो तुम्हारे रब पर ईमान ले आया, तुम भी मेरी बात मान लो।”
فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ تَوۡصِيَةٗ وَلَآ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 61
(50) और उस वक़्त ये वसीयत तक न कर सकेंगे, न अपने घरों को पलट सकेंगे।
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَإِذَا هُم مِّنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يَنسِلُونَ ۝ 62
(51) फिर एक सूर फूँका जाएगा। और यकायक ये अपने रब के हुज़ूर पेश होने के लिए अपनी-अपनी कब्रों में निकल पड़ेंगे।
وَلَوۡ نَشَآءُ لَطَمَسۡنَا عَلَىٰٓ أَعۡيُنِهِمۡ فَٱسۡتَبَقُواْ ٱلصِّرَٰطَ فَأَنَّىٰ يُبۡصِرُونَ ۝ 63
(66) हम चाहें तो इनकी आँखें मूँद दें, फिर ये रास्ते की तरफ़ लपककर देखें, कहाँ से इन्हें रास्ता सुझाई देगा?
وَلَوۡ نَشَآءُ لَمَسَخۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ مَكَانَتِهِمۡ فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مُضِيّٗا وَلَا يَرۡجِعُونَ ۝ 64
(67) हम चाहें तो इन्हें इनकी जगह ही पर इस तरह मस्ख़ करके रख दें कि ये न आगे चल सकें न पीछे पलट सकें।
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَا مَنۢ بَعَثَنَا مِن مَّرۡقَدِنَاۜۗ هَٰذَا مَا وَعَدَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَصَدَقَ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 65
(52) घबराकर कहेंगे, “अरे! ये किसने हमें हमारी ख़ाबगाह से उठा खड़ा किया?” — “यह वही चीज़ है जिसका ख़ुदा-ए-रहमान ने वादा किया था और रसूलों की बात सच्ची थी।”5
5. हो सकता है कि यह जवाब उनको अहले-ईमान दें। हो सकता है कि वे लोग कुछ देर के बाद ख़ुद समझ लें कि यह तो वही दिन आ गया जिसकी ख़बर रसूल हमें देते थे। और यह भी हो सकता है कि फ़रिश्ते उनको यह जवाब दें, या क़ियामा का सारा माहौल उन्हें यह बात बताए।
وَمَن نُّعَمِّرۡهُ نُنَكِّسۡهُ فِي ٱلۡخَلۡقِۚ أَفَلَا يَعۡقِلُونَ ۝ 66
(68) जिस शख़्स को हम लम्बी उम्र देते हैं उसकी साख़्त को हम उलट ही देते हैं। क्या (ये हालात देखकर) इन्हें अक़्ल नहीं आती?
وَمَا عَلَّمۡنَٰهُ ٱلشِّعۡرَ وَمَا يَنۢبَغِي لَهُۥٓۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ وَقُرۡءَانٞ مُّبِينٞ ۝ 67
(69) हमने इस (नबी) को शेर नहीं सिखाया है और न शायरी इसको ज़ेब ही देती है। यह तो एक नसीहत है और साफ़ पढ़ी जानेवाली किताब,
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 68
(53) एक ही ज़ोर की आवाज़ होगी और सब-के-सब हमारे सामने हाज़िर कर दिए जाएँगे।
لِّيُنذِرَ مَن كَانَ حَيّٗا وَيَحِقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 69
(70) ताकि वह हर उस शख़्स को ख़बरदार कर दे जो ज़िन्दा हो और इनकार करनेवालों पर हुज्जत क़ायम हो जाए।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا خَلَقۡنَا لَهُم مِّمَّا عَمِلَتۡ أَيۡدِينَآ أَنۡعَٰمٗا فَهُمۡ لَهَا مَٰلِكُونَ ۝ 70
(71) क्या ये लोग देखते नहीं हैं कि हमने अपने हाथों की बनाई हुई चीज़ों में से इनके लिए मवेशी पैदा किए हैं और अब ये उनके मालिक हैं।
وَذَلَّلۡنَٰهَا لَهُمۡ فَمِنۡهَا رَكُوبُهُمۡ وَمِنۡهَا يَأۡكُلُونَ ۝ 71
(72) हमने उन्हें इस तरह इनके बस में कर दिया है कि उनमें से किसी पर ये सवार होते हैं, किसी का ये गोश्त खाते हैं,
وَلَهُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ وَمَشَارِبُۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 72
(73) और उनके अन्दर इनके लिए तरह-तरह के फ़वाइद और मशरूबात हैं। फिर क्या ये शुक्रगुज़ार नहीं होते?
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ ءَالِهَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 73
(74) ये सब कुछ होते हुए इन्होंने अल्लाह के सिवा दूसरे ख़ुदा बना लिए हैं और वे उम्मीद रखते है कि इनकी मदद की जाएगी।
لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَهُمۡ وَهُمۡ لَهُمۡ جُندٞ مُّحۡضَرُونَ ۝ 74
(75) वे इनकी कोई मदद नहीं कर सकते, बल्कि ये लोग उलटे उनके लिए हाज़िर-बाश लश्कर बने हुए हैं।
فَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّا نَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 75
(76) अच्छा, जो बातें ये बना रहे हैं वे तुम्हें रंजीदा न करें, इनकी छिपी और खुली सब बातों को हम जानते हैं।
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقۡنَٰهُ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ۝ 76
(77) क्या इनसान देखता नहीं है कि हमने उसे नुत्फ़े से पैदा किया फिर वह सरीह झगड़ालू बनकर खड़ा हो गया।
وَضَرَبَ لَنَا مَثَلٗا وَنَسِيَ خَلۡقَهُۥۖ قَالَ مَن يُحۡيِ ٱلۡعِظَٰمَ وَهِيَ رَمِيمٞ ۝ 77
(78) अब वह हमपर मिसालें चस्पाँ करता है और अपनी पैदाइश को भूल जाता है। कहता है, “कौन इन हड्डियों को ज़िन्दा करेगा जबकि ये बोसीदा हो चुकी हों?”
قُلۡ يُحۡيِيهَا ٱلَّذِيٓ أَنشَأَهَآ أَوَّلَ مَرَّةٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ خَلۡقٍ عَلِيمٌ ۝ 78
(79) इससे कहो, “इन्हें वही ज़िन्दा करेगा जिसने पहले इन्हें पैदा किया था, और वह तख़लीक़ का हर काम जानता है,
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلشَّجَرِ ٱلۡأَخۡضَرِ نَارٗا فَإِذَآ أَنتُم مِّنۡهُ تُوقِدُونَ ۝ 79
(80) वही जिसने तुम्हारे लिए हरे-भरे दरख़्त से आग पैदा कर दी और तुम उससे अपने चूल्हे रोशन करते हो।
أَوَلَيۡسَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۚ بَلَىٰ وَهُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 80
(81) क्या वह जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया इसपर क़ादिर नहीं है कि इन जैसों को पैदा कर सके? क्यों नहीं, जबकि वह माहिरे-ख़ल्लाक़ है।
إِنَّمَآ أَمۡرُهُۥٓ إِذَآ أَرَادَ شَيۡـًٔا أَن يَقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 81
(82) वह तो जब किसी चीज़ का इरादा करता है तो उसका काम बस यह है कि उसे हुक्म दे कि ‘हो जा’ और वह हो जाती है।
فَسُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيۡءٖ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 82
(83) पाक है वह जिसके हाथ में हर चीज़ का मुकम्मल इक़तिदार है, और उसी की तरफ़ तुम पलटाए जाने वाले हो।