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سُورَةُ المَائـِدَةِ

  1. अल-माइदा

(मदीना में उतरी, आयतें 120)

परिचय

नाम:

इस सूरा का नाम पंद्रहवें रुकूअ की आयत-112 'हल यस्ततीउ रब्बु-क अंय्युनज़्ज़ि-ल अलैना माइदतम मिनस्समाइ' (क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने का एक ख़्वान (थाल) उतार सकता है?) के शब्द ‘माइदा' से लिया गया है।

उतरने का समय

सूरा के विषयों से स्पष्ट होता है और रिवायतों से इसकी पुष्टि होती है कि यह “हुदैबिया की संधि” के बाद सन् 06 हि० के आख़िर या सन् 07 हि० के शुरू में उतरी है। ज़ी-कादा सन् 06 हि० की घटना है कि नबी (सल्ल.) चौदह सौ मुसलमानों के साथ उमरा करने के लिए मक्का तशरीफ़ ले गए। परन्तु सत्य के विरोधी कुरैशियों ने दुश्मनी के जोश में अरब की प्राचीनतम धार्मिक परम्पराओं के विपरीत आपको उमरा न करने दिया और बड़े वाद-विवाद के बाद यह बात स्वीकार की कि अगले साल आप (सल्ल.) ज़ियारत (दर्शन) के लिए आ सकते हैं। इस अवसर पर ज़रूरत आ पड़ी कि मुसलमानों को एक ओर तो काबा की ज़ियारत के लिए सफ़र के आदाब (नियम) बताए जाएँ और दूसरी ओर उन्हें ताकीद की जाए कि विधर्मो दुश्मनों ने उन्हें उमरा से रोककर जो अन्याय किया है, उसके उत्तर में वे स्वयं कोई उत्पीड़न का पथ न अपनाएँ, इसलिए कि बहुत-से विरोधी क़बीलों के हज का मार्ग इस्लामी इलाक़ों से होकर जाता था और मुसलमानों के लिए यह संभव था कि जिस तरह इन्हें काबे की ज़ियारत से रोका गया है, उसी तरह वे भी उनको रोक दें।

उतरने का कारण

सूरा आले इमरान और सूरा निसा के उतरने के समय से इस सूरा के उतरने तक पहुँचते-पहुँचते परिस्थितियों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो चुका था। या तो वह समय था कि उहुद की लड़ाई के सदमे ने मुसलमानों के लिए मदीना के क़रीबी माहौल को भी ख़तरनाक बना दिया था या अब यह समय आ गया कि अरब में इस्लाम एक अजेय शक्ति दिखाई पड़ने लगा और इस्लामी राज्य एक ओर नज्द तक, दूसरी ओर शाम (सीरिया) की सीमाओं तक, तीसरी ओर लाल सागर के तट पर और चौथी ओर मक्का के क़रीब तक फैल गया। अब इस्लाम मात्र एक अक़ीदा और दृष्टिकोण ही न था जिसका शासन सिर्फ़ दिलों और दिमाग़ों तक सीमित हो, बल्कि वह एक स्टेट भी था जिसकी हुक्मरानी व्यावहारिक रूप से अपनी सीमाओं में रहनेवाले तमाम लोगों के जीवन पर छाई हुई थी।

फिर इन कुछ वर्षों में इस्लामी सिद्धान्तों एवं धारणाओं के अनुसार मुसलमानों की अपनी एक स्थायी सभ्यता बन चुकी थी जो जीवन के तमाम क्षेत्रों में दूसरों से अलग अपना एक विशिष्ट गौरव रखती थी। नैतिकता, रहन-सहन, संस्कृति, हर चीज़ में अब मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों से बिल्‍कुल अलग पहचाने जाते थे। इस्‍लामी जीवन का ऐसा पूर्ण स्‍वरूप बन जाने के बाद ग़ैर-मुस्लिम दुनिया इस ओर से पूरे तौर पर निराश हो चुकी थी कि ये लोग, जिनकी अपनी एक अलग संस्कृति बन चुकी है, फिर कभी उनमें आ मिलेंगे। हुदैबिया में समझौते से पहले तक मुसलमानों के रास्ते में एक बड़ी रुकावट यह थी कि वे करैशी विरोधियों के साथ एक लगातार संघर्ष में उलझे हुए थे और उन्हें अपने आह्वान का क्षेत्र विस्तृत करने की छूट न मिलती थी। इस रुकावट को हुदैबिया की बाह्य किन्तु वास्तविक जीत ने दूर कर दिया। इससे उनको न केवल यह कि अपने राज्य की सीमाओं में शान्ति मिल गई, बल्कि इतनी मोहलत भी मिल गई कि आस-पास के क्षेत्रों में इस्लाम की दावत को लेकर फैल जाएँ।

वार्ताएँ

ये परिस्थितियाँ थीं जब सूरा माइदा उतरी। यह सूरा नीचे लिखे तीन बड़े-बड़े विषयों पर सम्मिलित है-

  1. मुसलमानों के धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन के बारे में और अधिक आदेश और मार्गदर्शन- इस संबंध में हज के सफ़र के तरीक़े तय किए गए। अल्लाह की निशानियों के सम्मान का और काबे की ज़ियारत करनेवालों को न छेड़ने का आदेश दिया गया, खाने-पीने की चीज़ों में हराम और हलाल की स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित की गईं और अज्ञानकाल के मनगढ़ंत बन्धनों को तोड़ दिया गया, अहले-किताब (किताबवालों) के साथ खाने-पीने और उनकी औरतों से निकाह करने की इजाज़त दी गई, वुज़ू और तयम्मुम और ग़ुस्ल (स्‍नान) की विधियाँ निश्चित की गई, विद्रोह करने, बिगाड़ पैदा करने और चोरी करने की सज़ाएँ तय की गईं, शराब और जुए को पूर्ण रूप से हराम कर दिया गया, क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) मुक़र्रर किया गया और गवाही के क़ानून में कुछ और धाराओं को बढ़ाया गया।
  2. मुसलमानों को नसीहत : अब चूँकि मुसलमान एक शासक समुदाय बन चुके थे, इसलिए उनको सम्बोधित करते हुए बार-बार नसीहत की गई कि न्याय पर जमे रहें, अपने से पूर्व गुज़रे हुए किताबबालों के आचरण से बचें। अल्लाह के आज्ञापालन और उसके आदेशों की पैरवी का जो वचन उन्होंने दिया उसपर अटल रहें।
  3. यहूदियों और ईसाइयों को ताकीद : यहूदियों का ज़ोर अब टूट चुका था और उत्तरी अरब की लगभग समस्त यहूदी बस्तियाँ मुसलमानों के अधीन हो गई थीं। इस अवसर पर उनको एक बार फिर उनकी ग़लत नीति पर सचेत किया गया और सीधे रास्ते पर आने का आह्वान किया गया। साथ ही चूँकि हुदैबिया के समझौते के कारण अरब और पड़ोसी देशों की क़ौमों में इस्लाम के प्रचार-प्रसार का सुअवसर निकल आया था, इसलिए ईसाइयों को भी सविस्तार सम्बोधित करके उनके अक़ीदों (विश्वासों) की ग़लतियाँ बताई गई हैं और उन्हें अरबी नबी पर ईमान लाने का आह्वान किया गया है।

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سُورَةُ المَائـِدَةِ
5. सूरा अल-माइदा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةُ وَٱلدَّمُ وَلَحۡمُ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦ وَٱلۡمُنۡخَنِقَةُ وَٱلۡمَوۡقُوذَةُ وَٱلۡمُتَرَدِّيَةُ وَٱلنَّطِيحَةُ وَمَآ أَكَلَ ٱلسَّبُعُ إِلَّا مَا ذَكَّيۡتُمۡ وَمَا ذُبِحَ عَلَى ٱلنُّصُبِ وَأَن تَسۡتَقۡسِمُواْ بِٱلۡأَزۡلَٰمِۚ ذَٰلِكُمۡ فِسۡقٌۗ ٱلۡيَوۡمَ يَئِسَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن دِينِكُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِۚ ٱلۡيَوۡمَ أَكۡمَلۡتُ لَكُمۡ دِينَكُمۡ وَأَتۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلۡإِسۡلَٰمَ دِينٗاۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ فِي مَخۡمَصَةٍ غَيۡرَ مُتَجَانِفٖ لِّإِثۡمٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 1
(3) तुमपर हराम किया गया मुर्दार, ख़ून, सूअर का गोश्त, वह जानवर जो ख़ुदा के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो, वह जो गला घुटकर, या चोट खाकर, या बलन्दी से गिरकर, या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिंदे ने फाड़ा हो, – सिवाय उसके जिसे तुमने ज़िन्दा पाकर ज़ब्ह कर लिया, — और वह जो किसी आस्ताने पर ज़ब्ह किया गया हो। नीज़ यह भी तुम्हारे लिए नाजाइज़ है कि पांसों के ज़रिए से अपनी क़िस्मत मालूम करो। ये सब अफ़आले-फ़िस्क़ हैं। आज काफ़िरों को तुम्हारे दीन की तरफ़ से पूरी मायूसी हो चुकी है। लिहाज़ा तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो।6 आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए मुकम्मल कर दिया है, और अपनी नेमत तुमपर तमाम कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हारे दीन की हैसियत से क़ुबूल कर लिया है7 (लिहाज़ा हराम व हलाल की जो पाबन्दियाँ तुमपर आइद कर दी गई हैं उनकी पाबन्दी करो)। अलबत्ता जो शख़्स भूख से मजबूर होकर उनमें से कोई चीज़ खा ले, बग़ैर इसके कि गुनाह की तरफ़ उसका मैलान हो तो बेशक अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
5. अस्ल में लफ़्ज़ 'नुसुब' इस्तेमाल हुआ है। इससे मुराद वे सब मक़ामात हैं जिनको ग़ैरुल्लाह की नस्ल नियाज़ चढ़ाने के लिए लोगों ने मख़सूस कर रखा हो, ख़ाह वहाँ कोई पत्थर या लकड़ी की मूरत हो या न हो, हमारी ज़बान में उसका हममानी लफ़्ज़ आसताना या स्थान है जो किसी बुज़ुर्ग या देवता से, या किसी ख़ास मुशरिकाना एतिक़ाद से वाबस्ता हो। ऐसे किसी आसताने पर ज़ब्ह किया हुआ जानवर भी हराम है।
6. 'आज' से मुराद कोई ख़ास दिन और तारीख़ नहीं है, बल्कि वह दौर या ज़माना मुराद है जिसमें ये आयात नाज़िल हुई थीं। हमारी ज़बान में भी आज का लफ़्ज़ ज़माना-ए-हाल के लिए आम तौर पर बोला जाता है। ‘काफ़िरों को तुम्हारे दीन की तरफ़ से मायूसी हो चुकी है' यानी अब तुम्हारा दीन एक मुस्तक़िल निज़ाम बन चुका है और ख़ुद अपनी हाकिमाना ताक़त के साथ नाफ़िज़ व क़ायम है। कुफ़्फ़ार इस तरफ़ से मायूस हो चुके हैं कि वे उसे मिटा सकेंगे और तुम्हें फिर पिछली जाहिलियत की तरफ़ वापस ले जा सकेंगे। 'लिहाज़ा तुम उनसे न डरो बल्कि मुझसे डरो' यानी इस दीन के अहकाम और इसकी हिदायात पर अमल करने में किसी काफ़िर ताक़त के ग़लबे व क़हर और दरअंदाज़ी व मुज़ाहमत का ख़तरा तुम्हारे लिए बाक़ी नहीं रहा है। अब तुम्हें अल्लाह से डरना चाहिए कि उसके अहकाम की तामील में अगर कोई कोताही तुमने की तो तुम्हारे पास कोई ऐसा उज़्र न होगा जिसकी बिना पर तुम्हारे साथ कुछ भी नर्मी की जाए।
7. दीन को मुकम्मल कर देने से मुराद उसको एक मुस्तकिल निज़ामे-फ़िक्र व अमल और एक ऐसा मुकम्मल निज़ामे-तहज़ीब व तमद्दुन बना देना है जिसमें ज़िन्दगी के जुम्ला मसाइल का जवाब उसूलन या तफ़सीलन मौजूद हो और हिदायत व रहनुमाई हासिल करने के लिए किसी हाल में उससे बाहर जाने की ज़रूरत पेश न आए। नेमत तमाम करने से मुराद नेमते-हिदायत की तकमील कर देना है। और इस्लाम को दीन की हैसियत से क़ुबूल कर लेने का मतलब यह है कि तुमने मेरी इताअत व बन्दगी इख़्तियार करने का जो इक़रार किया था, उसको चूँकि तुम अपनी सई व अमल से सच्चा और मुख़लिसाना इक़रार साबित कर चुके हो, इसलिए मैंने उसे दरजा-ए-क़ुबूलियत अता फ़रमाया है। और तुम्हें अमलन उस हालत को पहुँचा दिया है कि अब फ़िल-वाक़े मेरे सिवा किसी की इताअत व बन्दगी का जुआ तुम्हारी गर्दनों पर बाक़ी नहीं रहा। अब जिस तरह एतिक़ाद में तुम मेरे मुस्लिम हो उसी तरह अमली ज़िन्दगी में भी मेरे सिवा किसी और के मुस्लिम बनकर रहने के लिए कोई मजबूरी तुम्हें लाहिक़ नहीं रही है।
8. तशरीह के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-2, बक़रा, हाशिया-52
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَوۡفُواْ بِٱلۡعُقُودِۚ أُحِلَّتۡ لَكُم بَهِيمَةُ ٱلۡأَنۡعَٰمِ إِلَّا مَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ غَيۡرَ مُحِلِّي ٱلصَّيۡدِ وَأَنتُمۡ حُرُمٌۗ إِنَّ ٱللَّهَ يَحۡكُمُ مَا يُرِيدُ
(1) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! बंदिशों की पूरी पाबन्दी करो।1 तुम्हारे लिए मवेशी की क़िस्म के सब जानवर हलाल किए गए2 सिवाय उनके जो आगे चलकर तुमको बताए जाएँगे। लेकिन इहराम की हालत में शिकार को अपने लिए हलाल न कर लो, बेशक अल्लाह जो चाहता है हुक्म देता है।
1. यानी उन हुदूद और क़ुयूद की पाबन्दी करो जो तुमपर आइद की गई हैं।
2. 'अनआम' (मवेशी) का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में ऊँट, गाय, भेड़ और बकरी पर बोला जाता है और 'बहीमा' का इतलाक़ हर चरनेवाले चौपाए पर होता है। “मवेशी की क़िस्म के चरिन्दा चौपाए तुमपर हलाल किए गए” का मतलब यह है कि वे सब चरिन्दा जानवर हलाल हैं जो मवेशी की नौईयत के हों यानी जो कुचलियाँ न रखते हों, हैवानी ग़िज़ा के बजाय नबाती ग़िज़ा खाते हों, और दूसरी हैवानी ख़ुसूसियात में मवेशियों से मुमासलत रखते हों। इसकी वज़ाहत नबी (सल्ल०) ने अपने उन अहकाम से फ़रमा दी है जिनमें आप (सल्ल०) दरिन्दों और शिकारी परिन्दों और मुर्दारख़ोरों को हराम क़रार दिया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُحِلُّواْ شَعَٰٓئِرَ ٱللَّهِ وَلَا ٱلشَّهۡرَ ٱلۡحَرَامَ وَلَا ٱلۡهَدۡيَ وَلَا ٱلۡقَلَٰٓئِدَ وَلَآ ءَآمِّينَ ٱلۡبَيۡتَ ٱلۡحَرَامَ يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّهِمۡ وَرِضۡوَٰنٗاۚ وَإِذَا حَلَلۡتُمۡ فَٱصۡطَادُواْۚ وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنَـَٔانُ قَوۡمٍ أَن صَدُّوكُمۡ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ أَن تَعۡتَدُواْۘ وَتَعَاوَنُواْ عَلَى ٱلۡبِرِّ وَٱلتَّقۡوَىٰۖ وَلَا تَعَاوَنُواْ عَلَى ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 2
(2) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! ख़ुदा-परस्ती की निशानियों को बेहुर्मत न करो।3— हराम महीनों में से किसी को हलाल न कर लो, क़ुरबानी के जानवरों पर दस्तदराज़ी न करो, उन जानवरों पर हाथ न डालो जिनकी गर्दन में नज़्रे-ख़ुदावन्दी की अलामत के तौर पर पट्टे पड़े हुए हों, न उन लोगों को छेड़ो जो अपने रब के फ़ज़्ल और उसकी ख़ुशनूदी की तलाश में मकाने-मुहतरम (काबा) की तरफ़ जा रहे हों। हाँ, जब इहराम की हालत ख़त्म हो जाए तो शिकार तुम कर सकते हो।— और देखो, एक गरोह ने जो तुम्हारे लिए मस्जिदे-हराम का रास्ता बन्द कर दिया है तो उसपर तुम्हारा ग़ुस्सा तुम्हें इतना मुश्तइल न कर दे कि तुम भी उनके मुक़ाबले में नारवा ज़्यादतियाँ करने लगो।4 नहीं, जो काम नेकी और ख़ुदातरसी के हैं उनमें सबसे तआवुन करो और जो गुनाह और ज़्यादती के काम हैं उनमें किसी से तआवुन न करो। अल्लाह से डरो, उसकी सज़ा बहुत सख़्त है।
3. हर वह चीज़ जो किसी मसलक या अक़ीदे या तर्ज़े-फ़िक्र व अमल या कि निज़ाम की नुमाइन्दगी करती हो वह उसका ‘शिआर' कहलाएगी, क्योंकि वह उसके लिए अलामत या निशानी का काम देती है। सरकारी झण्डे, फ़ौज और पुलिस वग़ैरा के यूनिफ़ार्म, सिक्के, नोट और स्टाम्प हुकूमतों के शआइर है। गिरजा, क़ुरबानगाह और सलीब मसीहियत के शआइर हैं। चोटी और और मन्दिर ब्रह्मनियत के शआइर हैं। केश और कड़ा और कृपाण वग़ैरा सिख मज़हब के शआइर हैं। हथौड़ा और दराँती इशतिराकियत का शिआर है। ये सब मसलक अपने-अपने पैरुओं से अपने इन शआइर के एहतिराम का मुतालबा करते हैं। अगर कोई शख़्स किसी निज़ाम के शआइर में से किसी शिआर की तौहीन करता है तो यह इस बात की अलामत है कि वह दरअस्ल उस निज़ाम के ख़िलाफ़ दुश्मनी रखता है, और अगर वह तौहीन करनेवाला ख़ुद उसी निज़ाम से ताल्लुक़ रखता हो तो उसका यह फ़ेल अपने निज़ाम से इरतिदाद और बग़ावत का हम-मानी है। 'शआइरुल्लाह' से मुराद वे तमाम अलामात या निशानियाँ हैं जो शिर्क व कुफ़्र और दहरियत के बिल-मुक़ाबिल ख़ालिस ख़ुदा-परस्ती के मसलक की नुमाइन्दगी करती हों।
4. चूँकि कुफ़्फ़ार ने उस वक़्त मुसलमानों को काबा की ज़ियारत से रोक दिया था और हज तक से मुसलमान महरूम कर दिए गए थे, इसलिए मुसलमानों में यह ख़याल पैदा हुआ कि जिन काफ़िर क़बीलों के रास्ते इस्लामी मक़बूज़ात के क़रीब से गुज़रते हैं, उनको हम भी हज से रोक दें और ज़माना-ए-हज में उनके क़ाफ़िलों पर छापे मारने शुरू कर दें। मगर अल्लाह तआला ने यह आयत नाज़िल फ़रमाकर उन्हें इस ख़याल से बाज़ रखा।
يَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَآ أُحِلَّ لَهُمۡۖ قُلۡ أُحِلَّ لَكُمُ ٱلطَّيِّبَٰتُ وَمَا عَلَّمۡتُم مِّنَ ٱلۡجَوَارِحِ مُكَلِّبِينَ تُعَلِّمُونَهُنَّ مِمَّا عَلَّمَكُمُ ٱللَّهُۖ فَكُلُواْ مِمَّآ أَمۡسَكۡنَ عَلَيۡكُمۡ وَٱذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهِۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 3
(4) लोग पूछते हैं कि उनके लिए क्या हलाल किया गया है? कहो, “तुम्हारे लिए सारी पाक चीज़ें हलाल कर दी गई हैं।9 और जिन शिकारी जानवरों को तुमने सधाया हो, — जिनको ख़ुदा के दिए हुए इल्म की बिना पर तुम शिकार की तालीम दिया करते हो — वे जिस जानवर को तुम्हारे लिए पकड़ रखें उसको भी तुम खा सकते हो,10अलबत्ता उसपर अल्लाह का नाम ले लो11 और अल्लाह का क़ानून तोड़ने से डरो, अल्लाह को हिसाब लेते देर नहीं लगती”।
9. पूछनेवालों का मकसद यह था कि उन्हें तमाम हलाल चीज़ों की तफ़सील बताई जाए ताकि उनके सिवा हर चीज़ को वे हराम समझें। जवाब में क़ुरआन ने हराम चीज़ों की तफ़सील बताई और उसके बाद यह आम हिदायत देकर छोड़ दिया कि सारी पाक चीज़ें हलाल हैं। इस तरह क़दीम मज़हबी नज़रिया बिलकुल उलट गया। क़दीम नज़रिया यह था कि सब कुछ हराम है बजुज़ उसके जिसे हलाल ठहराया जाए। क़ुरआन ने इसके बरअक्स यह उसूल मुक़र्रर किया कि सब कुछ हलाल है बजुज़ उसके जिसकी हुरमत की तसरीह कर दी जाए। हलाल के लिए 'पाक' की क़ैद इसलिए लगाई कि नापाक चीज़ों को हलाल ठहराने की कोशिश न की जाए। रहा यह सवाल कि अशया के 'पाक' होने का तअय्युन किस तरह होगा, तो उसका जवाब यह है कि जो चीज़ें उसूले-शरह में से किसी-नज़ाफ़त के क़ायदे के मातहत नापाक क़रार पाएँ या जिन चीज़ों से ज़ौके-सलीम कराहत करे या जिन्हें मुहज़्ज़ब इनसान ने बिल-उमूम अपने फ़ितरी एहसास के ख़िलाफ़ पाया हो, उनके मासिवा सब कुछ पाक है।
10. शिकारी जानवरों से मुराद कुत्ते, चीते, बाज़, शिकरे और तमाम वे दरिन्दे और परिन्दे हैं जिनसे इनसान शिकार की ख़िदमत लेता है। सधाए हुए जानवर की ख़ुसूसियत यह होती है कि वह जिसका शिकार करता है उसे आम दरिन्दों की तरह फाड़ नहीं खाता, बल्कि अपने मालिक के लिए पकड़ रखता है इसी वजह से आम दरिंदों का फाड़ा हुआ जानवर हराम है और सधाए हुए दरिंदों का शिकार हलाल।
11. यानी शिकारी जानवर को शिकार पर छोड़ते वक़्त बिसमिल्लाह कहो। इस आयत से यह मसला मालूम हुआ कि शिकारी जानवर को शिकार पर छोड़ते हुए अल्लाह का नाम लेना ज़रूरी है। इसके बाद अगर शिकार ज़िन्दा मिले तो फिर अल्लाह का नाम लेकर उसे ज़ब्ह कर लेना चाहिए और अगर ज़िन्दा न मिले तो उसके बग़ैर ही वह हलाल होगा, क्योंकि इबतिदाअन शिकारी जानवर को उसपर छोड़ते हुए अल्लाह तआला का नाम लिया जा चुका था। यही तीर का भी है।
ٱلۡيَوۡمَ أُحِلَّ لَكُمُ ٱلطَّيِّبَٰتُۖ وَطَعَامُ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ حِلّٞ لَّكُمۡ وَطَعَامُكُمۡ حِلّٞ لَّهُمۡۖ وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ مُحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَ وَلَا مُتَّخِذِيٓ أَخۡدَانٖۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱلۡإِيمَٰنِ فَقَدۡ حَبِطَ عَمَلُهُۥ وَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 4
(5) आज तुम्हारे लिए सारी पाक चीज़ें हलाल कर दी गई हैं। अहले-किताब का खाना तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा खाना उनके लिए।12 और महफ़ूज़ औरतें भी तुम्हारे लिए हलाल हैं ख़ाह वे अहले-ईमान के गरोह से हों या उन क़ौमों में से जिनको तुमसे पहले किताब दी गई थी,13 बशर्ते कि तुम उनके मह्‍र अदा करके निकाह में उनके मुहाफ़िज़ बनो, न यह कि आज़ाद शहवतरानी करने लगो या चोरी छिपे आशनाइयाँ करो। और जिस किसी ने ईमान की रविश पर चलने से इनकार किया तो उसका सारा कारनामए-ज़िन्दगी ज़ाया हो जाएगा और वह आख़िरत में दीवालिया होगा।
12. अहले-किताब के खाने में उनका ज़बीहा भी शामिल है। हमारे लिए उनका और उनके लिए हमारा खाना हलाल होने का मतलब यह है कि हमारे और उनके दरमियान खाने-पीने में कोई रुकावट और कोई छूत-छात नहीं है। हम उनके साथ खा सकते हैं और वे हमारे साथ। लेकिन यह आम इजाज़त देने से पहले इस फ़िक़रे का इआदा फ़रमा दिया गया है कि 'तुम्हारे लिए पाक चीज़ें हलाल कर दी गई हैं’। इससे मालूम हुआ कि अहले-किताब अगर पाकी व तहारत के उन क़वानीन की पाबन्दी न करें जो शरीअत के नुक़्ता-ए-नज़र से ज़रूरी हैं, या अगर उनके खाने में हराम चीज़ें शामिल हों तो उससे परहेज़ करना चाहिए। मसलन अगर वे अल्लाह का नाम लिए बग़ैर किसी जानवर को ज़ब्ह करें या उसपर ख़ुदा के सिवा किसी और का नाम लें, तो उसे खाना हमारे लिए जाइज़ नहीं।
13. इससे मुराद यहूद और नसारा हैं। निकाह की इजाज़त सिर्फ़ उन्हीं की औरतों से दी गई है और इसके साथ शर्त यह लगा दी गई है कि वे मोहसनात (महफ़ूज़ औरतें) हों यानी आवारा न हों। और बाद के फ़िक़रे में यह तम्बीह भी कर दी गई कि यहूदी या ईसाई बीवी की ख़ातिर ईमान न खो बैठना।
۞وَلَقَدۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَبَعَثۡنَا مِنۡهُمُ ٱثۡنَيۡ عَشَرَ نَقِيبٗاۖ وَقَالَ ٱللَّهُ إِنِّي مَعَكُمۡۖ لَئِنۡ أَقَمۡتُمُ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَيۡتُمُ ٱلزَّكَوٰةَ وَءَامَنتُم بِرُسُلِي وَعَزَّرۡتُمُوهُمۡ وَأَقۡرَضۡتُمُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا لَّأُكَفِّرَنَّ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَلَأُدۡخِلَنَّكُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ فَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 5
(12) अल्लाह ने बनी-इसराईल से पुख़्ता अह्द लिया था और उनमें बारह नक़ीब17 मुक़र्रर किए थे। और उनसे कहा था कि “मैं तुम्हारे साथ हूँ, अगर तुमने नमाज़ क़ायम रखी और ज़कात दी और मेरे रसूलों को माना और उनकी मदद की और अपने ख़ुदा को अच्छा क़र्ज़ देते रहे तो यक़ीन रखो कि मैं तुम्हारी बुराइयाँ तुमसे ज़ाइल कर दूँगा और तुमको ऐसे बाग़ों में दाख़िल करूँगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, मगर इसके बाद जिसने तुममें से कुफ़्र की रविश इख़्तियार की तो दर हक़ीक़त उसने सवाउस्सबील18 गुम कर दी।”
17. 'नक़ीब' के मानी निगरानी और तफ़तीश करनेवाले के हैं। बनी-इसराईल के बारह क़बीले थे और अल्लाह तआला ने उनमें से हर क़बीले पर एक-एक नक़ीब ख़ुद उसी क़बीले से मुक़र्रर करने का हुक्म दिया था ताकि वह उनके हालात पर नज़र रखे और उन्हें बेदीनी व बदअख़लाक़ी से बचाने की कोशिश करता रहे।
18. 'सवाउस्सबील' उस शाहराह को कहते हैं जो मंज़िले-मक़सूद तक पहुँचने लिए बाक़ायदा बना दी गई हो, उसे गुम कर देने का मतलब यह है कि आदमी शाहराह से हटकर पगडंडियों में भटक जाए।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ جَعَلَ فِيكُمۡ أَنۢبِيَآءَ وَجَعَلَكُم مُّلُوكٗا وَءَاتَىٰكُم مَّا لَمۡ يُؤۡتِ أَحَدٗا مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 6
(20) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा था कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की उस नेमत का ख़याल करो जो उसने तुम्हें अता की थी। उसने तुममें नबी पैदा किए, तुमको फ़रमाँरवा बनाया, और तुमको वह कुछ दिया जो दुनिया में किसी को न दिया था।
فَبِمَا نَقۡضِهِم مِّيثَٰقَهُمۡ لَعَنَّٰهُمۡ وَجَعَلۡنَا قُلُوبَهُمۡ قَٰسِيَةٗۖ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَنَسُواْ حَظّٗا مِّمَّا ذُكِّرُواْ بِهِۦۚ وَلَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلَىٰ خَآئِنَةٖ مِّنۡهُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۖ فَٱعۡفُ عَنۡهُمۡ وَٱصۡفَحۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 7
(13) फिर यह उनका अपने अह्द को तोड़ डालना था जिसकी वजह से हमने उनको अपनी रहमत से दूर फेंक दिया और उनके दिल सख़्त कर दिए। अब उनका हाल यह है कि अलफ़ाज़ का उलट-फेर करके बात को कहीं-से-कहीं ले जाते हैं, जो तालीम उन्हें दी गई थी उसका बड़ा हिस्सा भूल चुके हैं, और आए दिन तुम्हें उनकी किसी-न-किसी ख़ियानत का पता चलता रहता है। उनमें से बहुत कम लोग इस ऐब से बचे हैं। (पस जब ये इस हाल को पहुँच चुके हैं तो जो शरारतें भी ये करें वे इनसे ऐन मुतवक़्क़े हैं।) लिहाज़ा उन्हें माफ़ करो और उनकी हरकात से चश्मपोशी करते रहो, अल्लाह उन लोगों को पसन्द करता है जो एहसान की रविश रखते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا قُمۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ فَٱغۡسِلُواْ وُجُوهَكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ إِلَى ٱلۡمَرَافِقِ وَٱمۡسَحُواْ بِرُءُوسِكُمۡ وَأَرۡجُلَكُمۡ إِلَى ٱلۡكَعۡبَيۡنِۚ وَإِن كُنتُمۡ جُنُبٗا فَٱطَّهَّرُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُم مِّنۡهُۚ مَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيَجۡعَلَ عَلَيۡكُم مِّنۡ حَرَجٖ وَلَٰكِن يُرِيدُ لِيُطَهِّرَكُمۡ وَلِيُتِمَّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 8
(6) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब तुम नमाज़ के लिए उठो तो चाहिए कि अपने मुँह और हाथ कुहनियों तक धो लो, सरों पर हाथ फेर लो और पाँव टख़नों तक धो लिया करो।14 अगर जनाबत की हालत में हो तो नहाकर पाक हो जाओ। अगर बीमार हो या सफ़र की हालत में हो या तुममें से कोई रफ़ए-हाजत करके आए या तुमने औरतों को हाथ लगाया हो, और पानी न मिले, तो पाक मिट्टी से काम लो, बस उसपर हाथ मारकर अपने मुँह और हाथों पर फेर लिया करो।15 अल्लाह तुमपर ज़िन्दगी को तंग नहीं करना चाहता, मगर वह चाहता है कि तुम्हें पाक करे और अपनी नेमत तुमपर तमाम कर दे, शायद कि तुम शुक्रगुज़ार बनो।
14. नबी (सल्ल०) ने इस हुक्म की जो तशरीह फ़रमाई है उससे मालूम होता है मुँह धोने में कुल्ली करना और नाक साफ़ करना भी शामिल है। बग़ैर इसके मुँह के ग़ुस्ल की तकमील नहीं होती। और कान चूँकि सर का एक हिस्सा हैं इसलिए सर के मस्ह में कानों के अन्दरूनी और बैरूनी हिस्सों का मसह भी शामिल है। नीज़ वुज़ू शुरू करने से पहले हाथ धो लेने चाहिएँ ताकि जिन हाथों से आदमी वुज़ू कर रहा हो वे ख़ुद पहले पाक हो जाएँ।
15. तशरीह के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-4, निसा, हवाशी—41 व 43
يَٰقَوۡمِ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡأَرۡضَ ٱلۡمُقَدَّسَةَ ٱلَّتِي كَتَبَ ٱللَّهُ لَكُمۡ وَلَا تَرۡتَدُّواْ عَلَىٰٓ أَدۡبَارِكُمۡ فَتَنقَلِبُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 9
(21) ऐ बिरादराने-क़ौम! इस मुक़द्दस सरज़मीन में दाख़िल हो जाओ जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है,22 पीछे न हटो वरना नाकाम व नामुराद पलटोगे।”
22. मुराद है फ़िलस्तीन की सरज़मीन जो उस वक़्त सख़्त मुशरिक और बदकार क़ौमों से आबाद थी। बनी-इसराईल जब मिस्र से निकल आए तो इसी सरज़मीन को अल्लाह तआला ने उनके लिए नामज़द फ़रमाया और हुक्म दिया कि जाकर उसे फ़त्‌ह कर लो।
وَمِنَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّا نَصَٰرَىٰٓ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَهُمۡ فَنَسُواْ حَظّٗا مِّمَّا ذُكِّرُواْ بِهِۦ فَأَغۡرَيۡنَا بَيۡنَهُمُ ٱلۡعَدَاوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَسَوۡفَ يُنَبِّئُهُمُ ٱللَّهُ بِمَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 10
(14) तरह हमने उन लोगों से भी पुख़्ता अह्द लिया था जिन्होंने कहा था कि हम 'नसारा' हैं, मगर उनको भी जो सबक़ याद कराया गया था उसका एक बड़ा हिस्सा उन्होंने फ़रामोश कर दिया। आख़िरकार हमने उनके दरमियान क़ियामत तक के लिए दुश्मनी और आपस के बुग़्ज़ो-इनाद का बीज बो दिया, और ज़रूर एक वक़्त आएगा जब अल्लाह उन्हें बताएगा कि वे दुनिया में क्या बनाते रहे हैं।
وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَمِيثَٰقَهُ ٱلَّذِي وَاثَقَكُم بِهِۦٓ إِذۡ قُلۡتُمۡ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 11
(7) अल्लाह ने तुमको जो नेमत अता की है उसका ख़याल रखो और उस पुख़्ता अहदो-पैमान को न भूलो जो उसने तुमसे लिया है, यानी तुम्हारा यह क़ौल कि हमने सुना और इताअत क़ुबूल की।” अल्लाह से डरो, अल्लाह दिलों के राज़ तक जानता है।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّ فِيهَا قَوۡمٗا جَبَّارِينَ وَإِنَّا لَن نَّدۡخُلَهَا حَتَّىٰ يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا فَإِن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا فَإِنَّا دَٰخِلُونَ ۝ 12
(22) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ मूसा! वहाँ तो बड़े ज़बरदस्त लोग रहते हैं, हम वहाँ हरगिज़ न जाएँगे जब तक वे वहाँ से निकल न जाएँ। हाँ, अगर वे निकल गए तो हम दाख़िल होने के लिए तैयार हैं।”
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ قَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمۡ كَثِيرٗا مِّمَّا كُنتُمۡ تُخۡفُونَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَعۡفُواْ عَن كَثِيرٖۚ قَدۡ جَآءَكُم مِّنَ ٱللَّهِ نُورٞ وَكِتَٰبٞ مُّبِينٞ ۝ 13
(15) ऐ अहले-किताब! हमारा रसूल तुम्हारे पास आ गया है जो किताबे-इलाही की बहुत-सी उन बातों को तुम्हारे सामने खोल रहा है जिनपर तुम परदा डाला करते थे, और बहुत-सी बातों से दरगुज़र भी कर जाता है।19 तुम्हारे पास अल्लाह की तरफ़ से रौशनी आ गई है और एक ऐसी हक़नुमा किताब
19. यानी तुम्हारी बाज़ चोरियाँ और ख़ियानतें खोल देता है जिनका खोलना दीने-हक़ को क़ायम करने के लिए नागुज़ीर है और बाज़ से चश्म पोशी इख़्तियार कर लेता है जिनके खोलने की कोई हक़ीक़ी ज़रूरत नहीं है।
قَالَ رَجُلَانِ مِنَ ٱلَّذِينَ يَخَافُونَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمَا ٱدۡخُلُواْ عَلَيۡهِمُ ٱلۡبَابَ فَإِذَا دَخَلۡتُمُوهُ فَإِنَّكُمۡ غَٰلِبُونَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَتَوَكَّلُوٓاْ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 14
(23) उन डरनेवालों में दो शख़्स ऐसे भी थे जिनको अल्लाह ने अपनी नेमत से नवाज़ा था।23 उन्होंने कहा कि “इन जब्बारों के मुक़ाबले में दरवाज़े के अन्दर घुस जाओ, जब तुम अन्दर पहुँच जाओगे तो तुम ही ग़ालिब रहोगे। अल्लाह पर भरोसा रखो, अगर तुम मोमिन हो।
23. इन दोनों बुज़ुर्गों में से एक हज़रत यूशा-बिन-नून थे जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद उनके ख़लीफ़ा हुए। दूसरे हज़रत कालिब थे जो हज़रत यूशा के दस्ते-रास्त बने। चालीस बरस तक भटकने के बाद जब बनी-इसराईल फ़िलस्तीन में दाख़िल हुए उस वक़्त हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथियों में से सिर्फ़ यही दो बुज़ुर्ग ज़िन्दा थे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُواْ قَوَّٰمِينَ لِلَّهِ شُهَدَآءَ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنَـَٔانُ قَوۡمٍ عَلَىٰٓ أَلَّا تَعۡدِلُواْۚ ٱعۡدِلُواْ هُوَ أَقۡرَبُ لِلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 15
(8) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह की ख़ातिर रास्ती पर क़ायम रहनेवाले और इनसाफ़ की गवाही देनेवाले बनो। किसी गरोह की दुश्मनी तुमको इतना मुश्तइल न कर दे कि इनसाफ़ से फिर जाओ। अद्ल करो, यह ख़ुदातरसी से ज़्यादा मुनासबत रखता है। अल्लाह से डरकर काम करते रहो, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे पूरी तरह बाख़बर है।
يَهۡدِي بِهِ ٱللَّهُ مَنِ ٱتَّبَعَ رِضۡوَٰنَهُۥ سُبُلَ ٱلسَّلَٰمِ وَيُخۡرِجُهُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِهِۦ وَيَهۡدِيهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 16
(16) जिसके ज़रिए से अल्लाह तआला उन लोगों को जो उसकी रिज़ा के तालिब हैं सलामती के तरीक़े बताता है और अपने इज़्न से उनको अंधेरों से निकालकर उजाले की तरफ़ लाता है और राहे-रास्त की तरफ़ उनकी रहनुमाई करता है।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّا لَن نَّدۡخُلَهَآ أَبَدٗا مَّا دَامُواْ فِيهَا فَٱذۡهَبۡ أَنتَ وَرَبُّكَ فَقَٰتِلَآ إِنَّا هَٰهُنَا قَٰعِدُونَ ۝ 17
(24) लेकिन उन्होंने फिर यही कहा कि “ऐ मूसा! हम तो वहाँ कभी न जाएँगे जब तक वे वहाँ मौजूद हैं। बस तुम और तुम्हारा रब, दोनों जाओ और लड़ो, हम यहाँ बैठे हैं।”
لَّقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَۚ قُلۡ فَمَن يَمۡلِكُ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔا إِنۡ أَرَادَ أَن يُهۡلِكَ ٱلۡمَسِيحَ ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَأُمَّهُۥ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗاۗ وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 18
(17) कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि मसीह इब्ने-मरयम ही ख़ुदा है। (ऐ नबी!) उनसे कहो कि अगर ख़ुदा मसीह इब्ने-मरयम को और उसकी माँ और तमाम ज़मीनवालों को हलाक कर देना चाहे तो किसकी मजाल है कि उसको इस इरादे से बाज़ रख सके? अल्लाह तो ज़मीन और आसमानों का और उन सब चीज़ों का मालिक है जो ज़मीन और आसमानों के दरमियान पाई जाती हैं, जो कुछ चाहता है पैदा करता है20 और उसकी क़ुदरत हर चीज़ पर हावी है।
20. यानी मह्ज़ मसीह के बिन बाप पैदा होने की वजह से तुम लोगों ने उनको ख़ुदा बना डाला, हालाँकि अल्लाह जिसको जिस तरह चाहता है पैदा करता है। कोई बन्दा इस बिना पर ख़ुदा नहीं बन जाता कि अल्लाह ने उसे ग़ैर-मामूली तौर पर पैदा किया है।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 19
(9) जो लोग ईमान लाएँ और नेक अमल करें, अल्लाह ने उनसे वादा किया है कि उनकी ख़ताओं से दरगुज़र किया जाएगा और उन्हें बड़ा अज्र मिलेगा।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 20
(10) रहे वे लोग जो कुफ़्र करें और अल्लाह की आयात को झुठलाएँ, तो वे दोज़ख़ में जानेवाले हैं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ وَٱلنَّصَٰرَىٰ نَحۡنُ أَبۡنَٰٓؤُاْ ٱللَّهِ وَأَحِبَّٰٓؤُهُۥۚ قُلۡ فَلِمَ يُعَذِّبُكُم بِذُنُوبِكُمۖ بَلۡ أَنتُم بَشَرٞ مِّمَّنۡ خَلَقَۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 21
(18) यहूद और नसारा कहते हैं कि “हम अल्लाह के बेटे और उसके चहीते हैं।” उनसे पूछो, फिर वह तुम्हारे गुनाहों पर तुम्हें सज़ा क्यों देता है। दर-हक़ीक़त तुम भी वैसे ही इनसान हो जैसे और इनसान ख़ुदा ने पैदा किए हैं। वह जिसे चाहता है माफ़ करता है और जिसे चाहता है सज़ा देता है। ज़मीन और आसमान और उनकी सारी मौजूदात उसकी मिल्क हैं, और उसी की तरफ़ सबको जाना है।”
قَالَ رَبِّ إِنِّي لَآ أَمۡلِكُ إِلَّا نَفۡسِي وَأَخِيۖ فَٱفۡرُقۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 22
(25) इसपर मूसा ने कहा, “ऐ मेरे रब! मेरे इख़्तियार में कोई नहीं मगर मेरी अपनी ज़ात या मेरा भाई, पस तू हमें इन नाफ़रमान लोगों से अलग कर दे।”
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ قَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمۡ عَلَىٰ فَتۡرَةٖ مِّنَ ٱلرُّسُلِ أَن تَقُولُواْ مَا جَآءَنَا مِنۢ بَشِيرٖ وَلَا نَذِيرٖۖ فَقَدۡ جَآءَكُم بَشِيرٞ وَنَذِيرٞۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 23
(19) ऐ अहले-किताब! हमारा यह रसूल ऐसे वक़्त तुम्हारे पास आया है और दीन की वाज़ेह तालीम तुम्हें दे रहा है। जबकि रसूलों की आमद का सिलसिला एक मुद्दत से बन्द था, ताकि तुम यह न कह सको कि हमारे पास कोई बशारत देनेवाला और डरानेवाला नहीं आया। सो देखो, अब वह बशारत देने और डरानेवाला आ गया।— और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर21 है।
21. यानी अगर तुमने इस बशीर व नज़ीर की बात न मानी तो याद रखो कि अल्लाह क़ादिर व तवाना है, हर सज़ा जो वह तुम्हें देना चाहे बिला मुज़ाहमत दे सकता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ هَمَّ قَوۡمٌ أَن يَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ فَكَفَّ أَيۡدِيَهُمۡ عَنكُمۡۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 24
(11) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह के उस एहसान को याद करो जो उसने (अभी हाल में) तुमपर किया है, जब कि एक गरोह ने तुमपर दस्त-दराज़ी का इरादा कर लिया था मगर अल्लाह ने उनके हाथ तुमपर उठने से रोक दिये16 अल्लाह से डरकर काम करते रहो, ईमान रखनेवालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।
16. इशारा है उस वाक़िए की तरफ़ जिसे हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने रिवायत किया है कि यहूदियों में से एक गरोह ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप (सल्ल०) के ख़ास-ख़ास सहाबा (रज़ि०) को खाने की दावत पर बुलाया था और ख़ुफ़िया तौर पर यह साज़िश की थी कि अचानक उनपर टूट पड़ेंगे और इस तरह इस्लाम की जान निकाल देंगे। लेकिन ऐन वक़्त पर अल्लाह के फ़ज़्ल से नबी (सल्ल०) को इस साज़िश का हाल मालूम हो गया और आप दावत पर तशरीफ़ न ले गए।
قَالَ فَإِنَّهَا مُحَرَّمَةٌ عَلَيۡهِمۡۛ أَرۡبَعِينَ سَنَةٗۛ يَتِيهُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ فَلَا تَأۡسَ عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 25
(26) अल्लाह ने जवाब दिया, “अच्छा तो वह मुल्क चालीस साल तक इनपर हराम है, ये ज़मीन में मारे-मारे फिरेंगे, इन नाफ़रमानों की हालत पर हरगिज़ तरस न खाओ।24
24. यहाँ इस वाक़िए का हवाला देने से मक़सद दरअस्ल बनी-इसराईल को यह जताना है कि मूसा (अलैहि०) के ज़माने में नाफ़रमानी, इनहिराफ़ और पस्तहिम्मती से काम लेकर जो सज़ा तुमने पाई थी, अब उससे बहुत ज़्यादा सख़्त सज़ा मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में बाग़ियाना रविश इख़्तियार करके पाओगे।
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ ٱبۡنَيۡ ءَادَمَ بِٱلۡحَقِّ إِذۡ قَرَّبَا قُرۡبَانٗا فَتُقُبِّلَ مِنۡ أَحَدِهِمَا وَلَمۡ يُتَقَبَّلۡ مِنَ ٱلۡأٓخَرِ قَالَ لَأَقۡتُلَنَّكَۖ قَالَ إِنَّمَا يَتَقَبَّلُ ٱللَّهُ مِنَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 26
(27) और ज़रा उन्हें आदम के दो बेटों का क़िस्सा भी बे-कमो-कास्त सुना दो। जब उन दोनों ने क़ुरबानी की तो उनमें से एक की क़ुरबानी क़ुबूल की गई और दूसरे की न की गई। उसने कहा, “मैं तुझे मार डालूँगा।” उसने जवाब, “अल्लाह तो मुत्तक़ियों ही की ही नज़्रें क़ुबूल करता है।
إِنَّمَا جَزَٰٓؤُاْ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَسۡعَوۡنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوٓاْ أَوۡ يُصَلَّبُوٓاْ أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَٰفٍ أَوۡ يُنفَوۡاْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِۚ ذَٰلِكَ لَهُمۡ خِزۡيٞ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 27
(33) जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों से लड़ते हैं और ज़मीन में इसलिए तगो-दौ करते फिरते हैं कि फ़साद बरपा करें27 उनकी सज़ा यह है कि क़त्ल किए जाएँ, या सूली पर चढ़ाए जाएँ, या उनके हाथ और पाँव मुख़ालिफ़ ममतों से काट डाले जाएँ, या वे जलावतन कर दिए जाएँ। यह ज़िल्लत व रूस्वाई तो उनके लिए दुनिया में है और आख़िरत में उनके लिए इससे बड़ी सज़ा है।
27. ज़मीन से मुराद यहाँ वह मुल्क या वह इलाक़ा है जिसमें अम्नो-इन्तिज़ाम क़ायम करने की ज़िम्मेदारी इस्लामी हुकूमत ने ले रखी हो। और ख़ुदा और रसूल से लड़ने का मतलब उस निज़ामे-सॉलेह के ख़िलाफ़ जंग करना है जो इस्लाम की हुकूमत ने मुल्क में क़ायम कर रखा हो। फ़ुक़हाए-इस्लाम के नज़दीक इससे मुराद वे लोग हैं जो मुसल्लेह होकर और जत्थाबन्दी करके डाकाज़नी और ग़ारतगरी करें।
لَئِنۢ بَسَطتَ إِلَيَّ يَدَكَ لِتَقۡتُلَنِي مَآ أَنَا۠ بِبَاسِطٖ يَدِيَ إِلَيۡكَ لِأَقۡتُلَكَۖ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَ رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 28
(28) अगर तू मुझे क़त्ल करने के लिए हाथ उठाएगा तो मैं तुझे क़त्ल करने के लिए हाथ न उठाऊँगा,25 मैं अल्लाह रब्बुल-आलमीन से डरता हूँ।
25. इसका यह मतलब नहीं कि अगर तू मुझे क़त्ल करने के लिए आएगा तो मैं हाथ बाँधकर तेरे सामने क़त्ल होने के लिए बैठ जाऊँगा, बल्कि इसका मतलब यह है कि तू मेरे क़त्ल के दरपै होता है तो हो, मैं तेरे क़त्ल के दरपै न होऊँगा।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلرَّسُولُ لَا يَحۡزُنكَ ٱلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡكُفۡرِ مِنَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَلَمۡ تُؤۡمِن قُلُوبُهُمۡۛ وَمِنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْۛ سَمَّٰعُونَ لِلۡكَذِبِ سَمَّٰعُونَ لِقَوۡمٍ ءَاخَرِينَ لَمۡ يَأۡتُوكَۖ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ مِنۢ بَعۡدِ مَوَاضِعِهِۦۖ يَقُولُونَ إِنۡ أُوتِيتُمۡ هَٰذَا فَخُذُوهُ وَإِن لَّمۡ تُؤۡتَوۡهُ فَٱحۡذَرُواْۚ وَمَن يُرِدِ ٱللَّهُ فِتۡنَتَهُۥ فَلَن تَمۡلِكَ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُرِدِ ٱللَّهُ أَن يُطَهِّرَ قُلُوبَهُمۡۚ لَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 29
(41) ऐ पैग़म्बर! तुम्हारे लिए बाइसे-रंज न हों वे लोग जो कुफ़्र की राह में बड़ी तेज़गामी दिखा रहे हैं। ख़ाह वे उनमें से हों जो मुँह से कहते हैं हम ईमान लाए मगर दिल उनके ईमान नहीं लाए, या उनमें से हों जो यहूदी हैं, जिनका हाल यह है कि झूठ के लिए कान लगाते हैं, और दूसरे लोगों की ख़ातिर, जो तुम्हारे पास कभी नहीं आए, सुनगुन लेते फिरते हैं, किताबुल्लाह के अलफ़ाज़ को उनका सही महल मुतय्यन होने के बावजूद अस्ल मानी से फेरते हैं और लोगों से कहते हैं कि अगर तुम्हें यह हुक्म दिया जाए तो मानो, नहीं तो न मानो।32 जिसे अल्लाह ही ने फ़ितने में डालने का इरादा कर लिया हो, उसको अल्लाह की गिरिफ़्त से बचाने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते,33 ये वे लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने पाक करना न चाहा, उनके लिए दुनिया में रुसवाई है और आख़िरत में सख़्त सज़ा।
32. यानी जाहिल अवाम से कहते हैं कि जो हुक्म हम बता रहे हैं, अगर मुहम्मद (सल्ल०) भी यही हुक्म तुम्हें बताएँ तो उसे क़ुबूल करना वरना रद्द कर देना।
33. अल्लाह की तरफ़ से किसी के फ़ितने में डाले जाने का मतलब यह है कि जिस शख़्स के अन्दर अल्लाह तआला किसी क़िस्म के बुरे मैलानात परवरिश पाते देखता है उसके सामने पै-दर-पै ऐसे मवाक़े लाता है जिनमें उसकी सख़्त आज़माइश होती है। अगर वह शख़्स अभी बुराई की तरफ़ पूरी तरह नहीं झुका है तो इन आज़माइशों से संभल जाता है और उसके अन्दर बदी का मुक़ाबला करने के लिए नेकी की जो क़ुव्वतें मौजूद होती हैं वे उभर आती हैं। लेकिन अगर वह बुराई की तरफ़ पूरी तरह झुक चुका होता है और उसकी नेकी उसकी बदी से अन्दर-ही-अन्दर शिकस्त खा चुकी होती है, तो हर ऐसी आज़माइश के मौक़े पर वह और ज़्यादा बदी के फंदे में फंसता चला जाता है। यही अल्लाह तआला का वह फ़ितना है जिससे किसी बिगड़ते हुए इनसान को बचा लेना उसके किसी ख़ैरख़ाह के बस में नहीं होता।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِن قَبۡلِ أَن تَقۡدِرُواْ عَلَيۡهِمۡۖ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 30
(34) मगर जो लोग तौबा कर लें क़ब्ल इसके कि तुम उनपर काबू-पाओ — तुम्हें मालूम होना चाहिए कि अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।28
28. यानी अगर वे सई-ए-फ़साद से बाज़ आ गए हों, और सॉलेह निज़ाम को दरहम-बरहम करने या उलटने की कोशिश छोड़ चुके हों, और उनका बाद का तर्ज़े-अमल साबित कर रहा हो कि वे अम्न-पसन्द, मुती-ए-क़ानून और नेक चलन इनसान बन चुके हैं, और उसके बाद उनके साबिक़ जराइम का पता चले, तो उन सज़ाओं में से कोई सज़ा उनको न दी जाएगी जो ऊपर बयान हुई हैं, अलबत्ता आदमियों के हुकूक़ पर अगर कोई दस्तदराज़ी उन्होंने की थी तो उसकी ज़िम्मेदारी उनपर से साक़ित न होगी। मसलन अगर किसी इनसान को उन्होंने क़त्ल किया था या किसी का माल लिया था या कोई और जुर्म इनसानी जान व माल के ख़िलाफ़ किया था तो उसी जुर्म के बारे में फ़ौजदारी मुक़द्दमा उनपर क़ायम किया जाएगा लेकिन बग़ावत और ग़द्दारी और अल्लाह और रसूल के ख़िलाफ़ जंग का कोई मुक़द्दमा न चलाया जाएगा।
إِنِّيٓ أُرِيدُ أَن تَبُوٓأَ بِإِثۡمِي وَإِثۡمِكَ فَتَكُونَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِۚ وَذَٰلِكَ جَزَٰٓؤُاْ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 31
(29) चाहता हूँ कि मेरा और अपना गुनाह तू ही समेट ले और दोज़ख़ी बनकर रहे। ज़ालिमों के ज़ुल्म का यही ठीक बदला है।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱبۡتَغُوٓاْ إِلَيۡهِ ٱلۡوَسِيلَةَ وَجَٰهِدُواْ فِي سَبِيلِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 32
(35) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो और उसकी जनाब में बारयाबी का ज़रिआ तलाश करो29 और उसकी राह में जिद्दो-जुहद करो, शायद कि तुम्हें कामयाबी नसीब हो जाए।
29. यानी हर उस ज़रिए के तालिब और जोयाँ रहो जिससे तुम अल्लाह का तक़र्रुब हासिल कर सको और उसकी रिज़ा को पहुँच सको।
سَمَّٰعُونَ لِلۡكَذِبِ أَكَّٰلُونَ لِلسُّحۡتِۚ فَإِن جَآءُوكَ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُمۡ أَوۡ أَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡۖ وَإِن تُعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ فَلَن يَضُرُّوكَ شَيۡـٔٗاۖ وَإِنۡ حَكَمۡتَ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 33
(42) ये झूठ सुननेवाले और हराम के माल खानेवाले हैं, लिहाज़ा अगर ये तुम्हारे पास (अपने मुक़द्दमात लेकर) आएँ तो तुम्हें इख़्तियार दिया जाता है कि चाहो इनका फ़ैसला करो वरना इनकार कर दो। इनकार कर दो तो ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, और फ़ैसला करो तो फिर ठीक-ठीक इनसाफ़ के साथ करो कि अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।34
34. यहूदी उस वक़्त तक इस्लामी हुकूमत की बाक़ायदा रिआया नहीं बने थे, बल्कि इस्लामी हुकूमत के साथ उनके ताल्लुक़ात मुआहदात पर मबनी थे। इस वजह से उनका नबी (सल्ल०) की अदालत में आना ज़रूरी न था। लेकिन जिन मामलात में वे ख़ुद अपने मज़हबी क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करना न चाहते थे उनका फ़ैसला कराने के लिए हुज़ूर (सल्ल०) के पास इस उम्मीद पर आ जाते थे कि शायद आप (सल्ल०) की शरीअत में उनके लिए कोई दूसरा हुक्म हो और इस तरह वे अपने मज़हबी कानून की पैरवी से बच जाएँ।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ أَنَّ لَهُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا وَمِثۡلَهُۥ مَعَهُۥ لِيَفۡتَدُواْ بِهِۦ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا تُقُبِّلَ مِنۡهُمۡۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 34
(36) ख़ूब जान लो कि जिन लोगों ने कुफ़्र का रवैया इख़्तियार किया है, अगर उनके क़ब्ज़े में सारी ज़मीन की दौलत हो और उतनी ही और उसके साथ, और चाहें कि उसे फ़िदये में देकर रोज़े-क़ियामत के अज़ाब से बच जाएँ, तब भी वह उनसे क़ुबूल न की जाएगी और उन्हें दर्दनाक सज़ा मिलकर रहेगी।
يُرِيدُونَ أَن يَخۡرُجُواْ مِنَ ٱلنَّارِ وَمَا هُم بِخَٰرِجِينَ مِنۡهَاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّقِيمٞ ۝ 35
(37) वे चाहेंगे कि दोज़ख़ की आग से निकल भागें मगर न निकल सकेंगे और उन्हें क़ायम रहनेवाला अज़ाब दिया जाएगा।
وَكَيۡفَ يُحَكِّمُونَكَ وَعِندَهُمُ ٱلتَّوۡرَىٰةُ فِيهَا حُكۡمُ ٱللَّهِ ثُمَّ يَتَوَلَّوۡنَ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۚ وَمَآ أُوْلَٰٓئِكَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 36
(43) —और ये तुम्हें कैसे हकम बनाते हैं जबकि इनके पास तौरात मौजूद है जिसमें अल्लाह का हुक्म लिखा हुआ है और फिर ये उससे मुँह मोड़ रहे हैं? अस्ल बात यह है कि ये लोग ईमान ही नहीं रखते।
فَطَوَّعَتۡ لَهُۥ نَفۡسُهُۥ قَتۡلَ أَخِيهِ فَقَتَلَهُۥ فَأَصۡبَحَ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 37
(30) आख़िरकार उसके नफ़्स ने अपने भाई का क़त्ल उसके लिए आसान कर दिया और वह उसे मारकर उन लोगों में शामिल हो गया जो नुक़सान उठानेवाले हैं।
وَٱلسَّارِقُ وَٱلسَّارِقَةُ فَٱقۡطَعُوٓاْ أَيۡدِيَهُمَا جَزَآءَۢ بِمَا كَسَبَا نَكَٰلٗا مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 38
(38) और चोर, ख़ाह औरत हो या मर्द, दोनों के हाथ काट दो,30 यह उनकी कमाई का बदला है और अल्लाह की तरफ़ से इबरतनाक सज़ा। अल्लाह की क़ुदरत सबपर ग़ालिब है और वह दाना व बीना है।
30. दोनों हाथ नहीं, बल्कि एक हाथ। पहली चोरी पर सीधा हाथ काटा जाएगा। सरक़े का इतलाक़ सिर्फ़ इस फ़ेल पर होता है कि आदमी किसी के माल को उसकी हिफ़ाज़त से निकालकर अपने क़ब्ज़े में करे। एक ढाल की क़ीमत से कम की चोरी में हाथ न काटा जाएगा। और मोतबर रिवायात की रू से नबी (सल्ल०) के अहदे-मुबारक में ढाल की क़ीमत दस दिरहम होती थी और उस ज़माने के दिरहम में 3 माशा 1/5 रत्ती चाँदी हुआ करती थी। बहुत-सी चीज़ें ऐसी हैं जिनकी चोरी में हाथ काटने की सज़ा न दी जाएगी। मसलन फल और तरकारी की चोरी, खाने की चोरी, हक़ीर चीज़ों की चोरी, परिन्दे की चोरी, बैतुल-माल की चोरी। मतलब यह है कि इस तरह की चोरियों में हाथ न काटा जाएगा। यह मतलब नहीं है कि ये सब चोरियाँ माफ़ हैं।
إِنَّآ أَنزَلۡنَا ٱلتَّوۡرَىٰةَ فِيهَا هُدٗى وَنُورٞۚ يَحۡكُمُ بِهَا ٱلنَّبِيُّونَ ٱلَّذِينَ أَسۡلَمُواْ لِلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلرَّبَّٰنِيُّونَ وَٱلۡأَحۡبَارُ بِمَا ٱسۡتُحۡفِظُواْ مِن كِتَٰبِ ٱللَّهِ وَكَانُواْ عَلَيۡهِ شُهَدَآءَۚ فَلَا تَخۡشَوُاْ ٱلنَّاسَ وَٱخۡشَوۡنِ وَلَا تَشۡتَرُواْ بِـَٔايَٰتِي ثَمَنٗا قَلِيلٗاۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 39
(44) हमने तौरात नाज़िल की जिसमें हिदायत और रौशनी थी। सारे नबी, जो मुस्लिम थे, उसी के मुताबिक़ इन यहूदियों के मामलात का फ़ैसला करते थे, और इसी तरह रब्बानी और अहबार35 भी (उसी पर फ़ैसले का मदार रखते थे) क्योंकि उन्हें किताबुल्लाह की हिफ़ाज़त का ज़िम्मेदार बनाया गया था और वे इसपर गवाह थे। पस (ऐ गरोहे-यहूद) तुम लोगों से न डरो, बल्कि मुझसे डरो और मेरी आयात को ज़रा-जरा से मुआवज़े लेकर बेचना छोड़ दो। जो लोग अल्लाह के नाज़िल-करदा क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें वही काफ़िर हैं।
35. रब्बानी से मुराद उलमा हैं और अहबार से मुराद फ़ुक़हा।
فَبَعَثَ ٱللَّهُ غُرَابٗا يَبۡحَثُ فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيُرِيَهُۥ كَيۡفَ يُوَٰرِي سَوۡءَةَ أَخِيهِۚ قَالَ يَٰوَيۡلَتَىٰٓ أَعَجَزۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِثۡلَ هَٰذَا ٱلۡغُرَابِ فَأُوَٰرِيَ سَوۡءَةَ أَخِيۖ فَأَصۡبَحَ مِنَ ٱلنَّٰدِمِينَ ۝ 40
(31) फिर अल्लाह ने एक कौआ भेजा जो ज़मीन खोदने लगा ताकि उसे बताए कि अपने भाई की लाश कैसे छिपाए। यह देखकर वह बोला “अफ़सोस मुझपर! मैं इस कौए जैसा भी न हो सका कि अपने भाई की लाश छिपाने की तदबीर निकाल लेता।” इसके बाद वह अपने किए पर बहुत पछताया।26
26. यहाँ इस वाक़िए का ज़िक्र करने से मक़सद यहूदियों को उनकी उस साज़िश पर मलामत करना है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल) के जलीलुल-क़द्र सहाबा (रज़ि०) को क़त्ल करने के लिए की थी। दोनों वाक़िआत में मुमासलत बिलकुल वाज़ेह है। ये लोग भी हसद की बिना पर हुज़ूर (सल्ल०) को क़त्ल करना चाहते थे और आदम (अलैहि०) के उस बेटे ने भी हसद की बिना पर ही अपने भाई को क़त्ल किया था।
فَمَن تَابَ مِنۢ بَعۡدِ ظُلۡمِهِۦ وَأَصۡلَحَ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَتُوبُ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 41
(39) फिर जो ज़ुल्म करने के बाद तौबा करे और अपनी इसलाह कर ले तो अल्लाह की नज़रे-इनायत फिर उसपर माइल हो जाएगी,31 अल्लाह बहुत दरगुज़र करनेवाला और रम फ़रमानेवाला है।
31. इसका मतलब यह नहीं कि ऐसे चोर का हाथ न काटा जाए, बल्कि मतलब यह है कि हाथ कटने के बाद जो शख़्स तौबा कर ले और अपने नफ़्स को चोरी से पाक करके अल्लाह का सॉलेह बन्दा बन जाए, वह अल्लाह के ग़ज़ब से बच जाएगा और अल्लाह उसके दामन से इस दाग़ को धो देगा। लेकिन अगर किसी शख़्स ने हाथ कटवाने के बाद भी अपने-आपको बदनीयती से पाक न किया और वही गन्दे जज़्बात अपने अन्दर परवरिश किए जिनकी बिना पर उसने चोरी की और उसका हाथ काटा गया, तो इसके मानी यह हैं कि हाथ तो उसके बदन से जुदा हो गया मगर चोरी उसके नफ़्स में बदस्तूर मौजूद रही। इस वजह से वह ख़ुदा के ग़ज़ब का उसी तरह मुस्तहिक़ रहेगा जिस तरह हाथ कटने से पहले था। इसी लिए क़ुरआन मजीद चोर को हिदायत करता है कि वह अल्लाह से माफ़ी माँगे और अपने नफ़्स की इस्लाह करे क्योंकि नफ़्स की पाकी अदालती सज़ा से नहीं, सिर्फ़ तौबा और रुजू-ए-इलल्लाह से हासिल होती है।
وَكَتَبۡنَا عَلَيۡهِمۡ فِيهَآ أَنَّ ٱلنَّفۡسَ بِٱلنَّفۡسِ وَٱلۡعَيۡنَ بِٱلۡعَيۡنِ وَٱلۡأَنفَ بِٱلۡأَنفِ وَٱلۡأُذُنَ بِٱلۡأُذُنِ وَٱلسِّنَّ بِٱلسِّنِّ وَٱلۡجُرُوحَ قِصَاصٞۚ فَمَن تَصَدَّقَ بِهِۦ فَهُوَ كَفَّارَةٞ لَّهُۥۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 42
(45) तौरात में हमने यहूदियों पर यह हुक्म लिख दिया था कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और तमाम ज़ख़्मों के लिए बराबर का बदला। फिर जो क़िसास का सदक़ा कर दे तो वह उसके लिए कफ़्फ़ारा है। और जो लोग अल्लाह के नाज़िल-करदा क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें वही ज़ालिम हैं।
مِنۡ أَجۡلِ ذَٰلِكَ كَتَبۡنَا عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَنَّهُۥ مَن قَتَلَ نَفۡسَۢا بِغَيۡرِ نَفۡسٍ أَوۡ فَسَادٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ ٱلنَّاسَ جَمِيعٗا وَمَنۡ أَحۡيَاهَا فَكَأَنَّمَآ أَحۡيَا ٱلنَّاسَ جَمِيعٗاۚ وَلَقَدۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُنَا بِٱلۡبَيِّنَٰتِ ثُمَّ إِنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم بَعۡدَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡأَرۡضِ لَمُسۡرِفُونَ ۝ 43
(32) इसी वजह से बनी-इसराईल पर हमने यह फ़रमान लिख दिया था कि “जिसने किसी इनसान को ख़ून के बदले या ज़मीन में फ़साद फैलाने के सिवा किसी और वजह से क़त्ल किया उसने गोया तमाम इनसानों को क़त्ल कर दिया और जिसने किसी को ज़िन्दगी बख़्शी उसने गोया तमाम इनसानों को ज़िन्दगी बख़्श दी।” मगर उनका हाल यह है कि हमारे रसूल पै-दर-पै उनके पास खुली-खुली हिदायात लेकर आए फिर भी उनमें ब-कसरत लोग ज़मीन में ज़्यादतियाँ करनेवाले हैं।
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ يُعَذِّبُ مَن يَشَآءُ وَيَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 44
(40) क्या तुम जानते नहीं हो कि अल्लाह ज़मीन और आसमानों की सल्तनत का मालिक है? जिसे चाहे सज़ा दे और जिसे चाहे माफ़ कर दे, वह हर चीज़ का इख़्तियार रखता है।
وَقَفَّيۡنَا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم بِعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡإِنجِيلَ فِيهِ هُدٗى وَنُورٞ وَمُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَهُدٗى وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 45
(46) फिर हमने इन पैग़म्बरों के बाद मरयम के बेटे ईसा को भेजा। तौरात में से जो कुछ उसके सामने मौजूद था वह उसकी तसदीक़ करनेवाला था। और हमने उसको इंजील अता की जिसमें रहनुमाई और रौशनी थी और वह भी तौरात में से जो कुछ उस वक़्त मौजूद था उसकी तसदीक़ करनेवाली थी और ख़ुदा-तरस लोगों के लिए सरासर हिदायत और नसीहत थी।
وَلۡيَحۡكُمۡ أَهۡلُ ٱلۡإِنجِيلِ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فِيهِۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 46
(47) हमारा हुक्म था कि अहले-इंजील उस क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करें जो अल्लाह ने उसमें नाज़िल किया है, और जो लोग अल्लाह के नाज़िल-करदा क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें वही फ़ासिक़ हैं।36
36. यहाँ अल्लाह तआला ने उन लोगों के हक़ में जो ख़ुदा के नाज़िल-करदा क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें तीन हुक्म साबित किए हैं— एक यह कि वे काफ़िर हैं। दूसरे यह कि वे ज़ालिम हैं। तीसरे यह कि वे फ़ासिक़ हैं। जो शख़्स हुक्मे-इलाही के ख़िलाफ़ इस बिना पर फ़ैसला करता है कि वह अल्लाह हुक्म को ग़लत और अपने या किसी दूसरे इनसान के हुक्म को सही समझता है। वह मुकम्मल काफ़िर और ज़ालिम और फ़ासिक़ है, और जो एतिक़ादन हुक्मे-इलाही को बरहक़ समझता है मगर अमलन उसके ख़िलाफ़ फ़ैसला करता है वह अगरचे ख़ारिज-अज़-मिल्लत तो नहीं है मगर अपने ईमान को कुफ़्र और फ़िस्क़ से मख़लूत कर रहा है। इसी तरह जिसने तमाम मामलात में हुक्मे-इलाही से इनहिराफ़ इख़्तियार कर लिया है, वह तमाम मामलात में काफ़िर, ज़ालिम और फ़ासिक़ है। और जो बाज़ मामलात में मुतीअ और बाज़ में मुनहरिफ़ है उसकी ज़िन्दगी में ईमान व इस्लाम और कुफ़्र व ज़ुल्म और फ़िस्क़ की आमेज़िश ठीक-ठीक उसी तनासुब के साथ है जिस तनासुब के साथ उसने इताअत और इनहिराफ़ को मिला रखा है।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَهَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ إِنَّهُمۡ لَمَعَكُمۡۚ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فَأَصۡبَحُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 47
(53) और उस वक़्त अहले-ईमान कहेंगे, “क्या ये वही लोग हैं जो अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर यक़ीन दिलाते थे कि हम तुम्हारे साथ हैं?” उनके सब आमाल ज़ाया हो गए और आख़िरकार ये नाकाम व नामुराद होकर रहे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَن يَرۡتَدَّ مِنكُمۡ عَن دِينِهِۦ فَسَوۡفَ يَأۡتِي ٱللَّهُ بِقَوۡمٖ يُحِبُّهُمۡ وَيُحِبُّونَهُۥٓ أَذِلَّةٍ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَعِزَّةٍ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ يُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا يَخَافُونَ لَوۡمَةَ لَآئِمٖۚ ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٌ ۝ 48
(54) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अगर तुममें से कोई अपने दीन से फिरता है (तो फिर जाए) अल्लाह और बहुत-से लोग ऐसे पैदा कर देगा जो अल्लाह को महबूब होंगे और अल्लाह उनको महबूब होगा, जो मोमिनों पर नर्म और कुफ़्फ़ार पर सख़्त होंगे,39 जो अल्लाह की राह में जिद्दो-जुहद करेंगे और किसी मलामत करनेवाले की मलामत से न डरेंगे। यह अल्लाह का फ़ज़्ल है, जिसे चाहता है अता करता है। अल्लाह वसीअ ज़राए का मालिक है और सब कुछ जानता है।
39. 'मोमिनों पर नर्म' होने का मतलब यह है कि एक शख़्स अहले-ईमान के मुक़ाबले में अपनी ताक़त कभी इस्तेमाल न करे। उसकी ज़िहानत, उसकी होशियारी, उसकी क़ाबलियत, उसका रुसूख़ व असर, उसका माल, उसका जिस्मानी ज़ोर, कोई चीज़ भी मुसलमानों को दबाने और सताने और नुक़सान पहुँचाने के लिए न हो। मुसलमान अपने दरमियान उसको हमेशा नर्मख़ू, रहमदिल, हमदर्द और हलीम इनसान ही पाएँ। 'कुफ़्फ़ार पर सख़्त' होने का मतलब यह है कि एक मोमिन आदमी अपने ईमान की पुख़्तगी, दीनदारी के ख़ुलूस, उसूल की मज़बूती, सीरत की ताक़त और ईमान की फ़िरासत की वजह से मुख़ालिफ़ीने-इस्लाम के मुक़ाबले में पत्थर की चट्टान के मानिन्द हो कि किसी तरह अपने मक़ाम से हटाया न जा सके। वे उसे कभी मोम की नाक और नर्म चारा न पाएँ। उन्हें जब भी उससे साबिक़ा पेश आए उनपर यह साबित हो जाए कि यह अल्लाह का बन्दा मर सकता है मगर किसी क़ीमत पर बिक नहीं सकता और किसी दबाव से दब नहीं सकता।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ يَدُ ٱللَّهِ مَغۡلُولَةٌۚ غُلَّتۡ أَيۡدِيهِمۡ وَلُعِنُواْ بِمَا قَالُواْۘ بَلۡ يَدَاهُ مَبۡسُوطَتَانِ يُنفِقُ كَيۡفَ يَشَآءُۚ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم مَّآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗاۚ وَأَلۡقَيۡنَا بَيۡنَهُمُ ٱلۡعَدَٰوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ كُلَّمَآ أَوۡقَدُواْ نَارٗا لِّلۡحَرۡبِ أَطۡفَأَهَا ٱللَّهُۚ وَيَسۡعَوۡنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادٗاۚ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 49
(64) यहूदी कहते हैं, “अल्लाह के हाथ बँधे हुए हैं।'— बाँधे गए इनके हाथ,42 और लानत पड़ी इनपर उस बकवास की बदौलत जो ये करते हैं। — अल्लाह के हाथ तो कुशादा हैं, जिस तरह चाहता है ख़र्च करता है। हक़ीक़त यह है कि जो कलाम तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर नाज़िल हुआ है, वह उनमें से अकसर लोगों की सरकशी व बातिल-परस्ती में उलटे इज़ाफ़े का मूजिब बन गया है, और (उसकी पादाश में) हमने इनके दरमियान क़ियामत तक के लिए अदावत और दुश्मनी डाल दी है। जब कभी ये जंग की आग भड़काते हैं अल्लाह उसको ठण्डा कर देता है। ये ज़मीन में फ़साद फैलाने की सई कर रहे हैं, मगर अल्लाह फ़साद बरपा करनेवालों को हरगिज़ पसन्द नहीं करता।
41. अरबी मुहावरे के मुताबिक़ किसी के हाथ बँधे हुए होने का मतलब यह है कि वह बख़ील है, अता और बख़शिश से उसका हाथ रुका हुआ है।
42. यानी बुख़्ल में ये ख़ुद मुब्तला है। दुनिया में अपने बुख़्ल और तंगदिली के लिए ज़र्बुल-मसल बन चुके हैं।
إِنَّمَا وَلِيُّكُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُمۡ رَٰكِعُونَ ۝ 50
(55) तुम्हारे रफ़ीक़ तो हक़ीक़त में सिर्फ़ अल्लाह और अल्लाह का रसूल और वे अहले-ईमान हैं जो नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं और अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं।
وَلَوۡ أَنَّ أَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَكَفَّرۡنَا عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَأَدۡخَلۡنَٰهُمۡ جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 51
(65) अगर (इस सरकशी के बजाय) ये अहले-किताब ईमान ले आते और ख़ुदा-तरसी की रविश इख़्तियार करते तो हम इनकी बुराइयाँ इनसे दूर कर देते और इनको नेमत-भरी जन्नतों में पहुँचाते।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ أَقَامُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِم مِّن رَّبِّهِمۡ لَأَكَلُواْ مِن فَوۡقِهِمۡ وَمِن تَحۡتِ أَرۡجُلِهِمۚ مِّنۡهُمۡ أُمَّةٞ مُّقۡتَصِدَةٞۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ سَآءَ مَا يَعۡمَلُونَ ۝ 52
(66) काश इन्होंने तौरात और इंजील और उन दूसरी किताबों को क़ायम किया होता जो इनके रब की तरफ़ से इनके पास भेजी गई थीं! ऐसा करते तो इनके लिए ऊपर से रिज़्क़ बरसता और नीचे से उबलता। अगरचे उनमें कुछ लोग रास्तरौ भी हैं, लेकिन इनकी अक्सरियत सख़्त बद-अमल है।
وَمَن يَتَوَلَّ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَإِنَّ حِزۡبَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 53
(56) और जो अल्लाह और उसके रसूल और अहले-ईमान को अपना रफ़ीक़ बना ले उसे मालूम हो कि अल्लाह की जमाअत ही ग़ालिब रहनेवाली है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلرَّسُولُ بَلِّغۡ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ وَإِن لَّمۡ تَفۡعَلۡ فَمَا بَلَّغۡتَ رِسَالَتَهُۥۚ وَٱللَّهُ يَعۡصِمُكَ مِنَ ٱلنَّاسِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 54
(67) ऐ पैग़म्बर, जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर नाज़िल किया गया है वह लोगों तक पहुँचा दो। अगर तुमने ऐसा न किया तो उसकी पैग़म्बरी का हक़ अदा न किया। अल्लाह तुमको लोगों के शर से बचानेवाला है। यक़ीन रखो कि वह काफ़िरों को (तुम्हारे मुक़ाबले में) कामयाबी की राह हरगिज़ न दिखाएगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَكُمۡ هُزُوٗا وَلَعِبٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَٱلۡكُفَّارَ أَوۡلِيَآءَۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 55
(57) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! तुम्हारे पेशरौ अहले-किताब में से जिन लोगों ने तुम्हारे दीन को मज़ाक़ और तफ़रीह का सामान बना लिया है, उन्हें और दूसरे काफ़िरों को अपना दोस्त और रफ़ीक़ न बनाओ। अल्लाह से डरो अगर तुम मोमिन हो।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَسۡتُمۡ عَلَىٰ شَيۡءٍ حَتَّىٰ تُقِيمُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡۗ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم مَّآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗاۖ فَلَا تَأۡسَ عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 56
(68) साफ़ कह दो कि “ऐअहले-किताब! तुम हरगिज़ किसी अस्ल पर नहीं हो जब तक कि तौरात और इंजील और उन दूसरी किताबों को क़ायम न करो जो तुम्हारी तरफ़, तुम्हारे रब की तरफ़ से नाज़िल की गई हैं।” ज़रूर है कि यह फ़रमान जो तुमपर नाज़िल किया गया है इनमें से अकसर की सरकशी और इनकार को और ज़्यादा बढ़ा देगा। मगर इनकार करनेवालों के हाल पर कुछ अफ़सोस न करो।
وَإِذَا نَادَيۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ ٱتَّخَذُوهَا هُزُوٗا وَلَعِبٗاۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡقِلُونَ ۝ 57
(58) जब तुम नमाज़ के लिए मुनादी करते हो तो वे उसका मज़ाक उड़ाते और उससे खेलते हैं।40 उसकी वजह यह है कि वे अक़्ल नहीं रखते।
40. यानी अज़ान की आवाज़ सुनकर उसकी नक़लें उतारते हैं, तमस्ख़ुर के लिए उसके अलफ़ाज़ बदलते और मस्ख़ करते हैं और उसपर आवाज़े कसते हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلصَّٰبِـُٔونَ وَٱلنَّصَٰرَىٰ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 58
(69) (यक़ीन जानो कि यहाँ इजारा किसी का भी नहीं है) मुसलमान हों या यहूदी, साबी हों या ईसाई, जो भी अल्लाह और रोज़े-आख़िर पर ईमान लाएगा और नेक अमल करेगा बेशक उसके लिए न किसी ख़ौफ़ का मक़ाम है न रंज का।43
43. तशरीह के लिए मुलाहज़ा हो सूरा-2 बक़रा, आयत-62, हाशिया-26।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ هَلۡ تَنقِمُونَ مِنَّآ إِلَّآ أَنۡ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلُ وَأَنَّ أَكۡثَرَكُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 59
(59) उनसे कहो, “ऐ अहले-किताब! तुम जिस बात पर हमसे बिगड़े हो वह इसके सिवा और क्या है कि हम अल्लाह पर और दीन की उस तालीम पर ईमान ले आए हैं जो हमारी तरफ़ नाज़िल हुई है और हमसे पहले भी नाज़िल हुई थी, और तुममें से अकसर लोग फ़ासिक हैं?
لَقَدۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَأَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمۡ رُسُلٗاۖ كُلَّمَا جَآءَهُمۡ رَسُولُۢ بِمَا لَا تَهۡوَىٰٓ أَنفُسُهُمۡ فَرِيقٗا كَذَّبُواْ وَفَرِيقٗا يَقۡتُلُونَ ۝ 60
(70) हमने बनी-इसराईल से पुख़्ता अह्द लिया और उनकी तरफ़ बहुत-से रसूल भेजे। मगर जब कभी उनके पास कोई रसूल उनकी ख़ाहिशाते-नफ़्स के ख़िलाफ़ कुछ लेकर आया तो किसी को उन्होंने झुठलाया और किसी को क़त्ल कर दिया,
قُلۡ هَلۡ أُنَبِّئُكُم بِشَرّٖ مِّن ذَٰلِكَ مَثُوبَةً عِندَ ٱللَّهِۚ مَن لَّعَنَهُ ٱللَّهُ وَغَضِبَ عَلَيۡهِ وَجَعَلَ مِنۡهُمُ ٱلۡقِرَدَةَ وَٱلۡخَنَازِيرَ وَعَبَدَ ٱلطَّٰغُوتَۚ أُوْلَٰٓئِكَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضَلُّ عَن سَوَآءِ ٱلسَّبِيلِ ۝ 61
(60) “फिर कहो, “क्या मैं उन लोगों की निशानदेही करूँ जिनका अंजाम ख़ुदा के यहाँ फ़ासिक़ों के अंजाम से भी बदतर है? वे जिनपर ख़ुदा ने लानत की, जिनपर उसका ग़ज़ब टूटा, जिनमें से बन्दर और सूअर बनाए गए, जिन्होंने ताग़ूत की बन्दगी की। उनका दर्जा और भी ज़्यादा बुरा है और वे सवाउस्सबील से बहुत ज़्यादा भटके हुए हैं।”
وَإِذَا جَآءُوكُمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَقَد دَّخَلُواْ بِٱلۡكُفۡرِ وَهُمۡ قَدۡ خَرَجُواْ بِهِۦۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا كَانُواْ يَكۡتُمُونَ ۝ 62
(61) जब ये तुम लोगों के पास आते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए, हालाँकि कुफ़्र लिए हुए आए थे और कुफ़्र ही लिए हुए वापस गए, और अल्लाह ख़ूब जानता है जो कुछ ये दिलों में छिपाए हुए हैं।
وَحَسِبُوٓاْ أَلَّا تَكُونَ فِتۡنَةٞ فَعَمُواْ وَصَمُّواْ ثُمَّ تَابَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ ثُمَّ عَمُواْ وَصَمُّواْ كَثِيرٞ مِّنۡهُمۡۚ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 63
(71) और अपने नज़दीक यह समझे कि कोई फ़ितना रूनुमा न होगा, इसलिए अंधे और बहरे बन गए। फिर अल्लाह ने उन्हें माफ़ किया तो उनमें से अकसर लोग और ज़्यादा अंधे और बहरे बनते चले गए। अल्लाह उनकी ये सब हरकात देखता रहा है।
وَتَرَىٰ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَأَكۡلِهِمُ ٱلسُّحۡتَۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 64
(62) तुम देखते हो कि इनमें से ब-कसरत लोग गुनाह और ज़ुल्म व ज़्यादती के कामों में दौड़-धूप करते फिरते हैं और हराम के माल खाते हैं। बहुत बुरी हरकात हैं जो ये का रहे हैं।
لَقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَۖ وَقَالَ ٱلۡمَسِيحُ يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمۡۖ إِنَّهُۥ مَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدۡ حَرَّمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ ٱلۡجَنَّةَ وَمَأۡوَىٰهُ ٱلنَّارُۖ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٖ ۝ 65
(72) यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह मसीह इब्ने-मरयम ही है। हालाँकि मसीह ने कहा था कि “ऐ बनी-इसराईल! अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी।” जिसने अल्लाह के साथ किसी को शरीक ठहराया उसपर अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी और उसका ठिकाना जहन्नम है और ऐसे ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं।
لَوۡلَا يَنۡهَىٰهُمُ ٱلرَّبَّٰنِيُّونَ وَٱلۡأَحۡبَارُ عَن قَوۡلِهِمُ ٱلۡإِثۡمَ وَأَكۡلِهِمُ ٱلسُّحۡتَۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 66
(63) क्यों इनके उलमा और मशाइख़ इन्हें गुनाह पर ज़बान खोलने और हराम खाने से नहीं रोकते? यक़ीनन बहुत ही बुरा कारनामा-ए-ज़िन्दगी है जो वे तैयार कर रहे हैं।
لَّقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ ثَالِثُ ثَلَٰثَةٖۘ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّآ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۚ وَإِن لَّمۡ يَنتَهُواْ عَمَّا يَقُولُونَ لَيَمَسَّنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 67
(73) यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह तीन में का एक है, हालाँकि एक ख़ुदा के सिवा कोई ख़ुदा नहीं है। अगर ये लोग अपनी इन बातों से बाज़ न आए तो इनमें से जिस-जिस ने कुफ़्र किया है उसको दर्दनाक सज़ा दी जाएगी।
أَفَلَا يَتُوبُونَ إِلَى ٱللَّهِ وَيَسۡتَغۡفِرُونَهُۥۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 68
(74) फिर क्या ये अल्लाह से तौबा न करेंगे और उससे माफ़ी न माँगेगे? अल्लाह बहुत दरगुज़र फ़रमानेवाला और रहम करनेवाला है।
مَّا ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَ إِلَّا رَسُولٞ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِ ٱلرُّسُلُ وَأُمُّهُۥ صِدِّيقَةٞۖ كَانَا يَأۡكُلَانِ ٱلطَّعَامَۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُبَيِّنُ لَهُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ ثُمَّ ٱنظُرۡ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 69
(75) मसीह इब्ने-मरयम इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल था, उससे पहले और भी बहुत से रसूल गुज़र चुके थे, उसकी माँ एक रास्तबाज़ औरत थी और वे दोनों खाना खाते थे। देखो हम किस तरह उनके सामने हक़ीक़त की निशानियाँ वाज़ेह करते हैं, फिर देखो ये किधर उलटे फिरे जाते हैं।44
44. इन चंद लफ़्ज़ों में ईसाइयों के अक़ीदा-ए-उलूहियते-मसीह की ऐसी साफ़ तरदीद की गई है कि इससे ज़्यादा सफ़ाई मुमकिन नहीं है। मसीह के बारे में अगर कोई यह मालूम करना चाहे कि फ़िल-हक़ीक़त वह क्या था तो इन अलामात से बिलकुल ग़ैर मुश्तबह तौर पर मालूम कर सकता है कि वह मह्ज़ एक इनसान था। ज़ाहिर है कि जो एक औरत के पेट से पैदा हुआ, जिसका शजरए-नसब तक मौजूद है, जो इनसानी जिस्म रखता था, जो उन तमाम हुदूद से महदूद उन तमाम क़ुयूद से मुक़य्यद और उन तमाम सिफ़ात से मुत्तसिफ़ था जो इनसान के लिए मख़सूस हैं। जो सोता था, खाता था, गरमी और सर्दी महसूस करता था, हत्ता कि जिसे ईसाइयों के अपने बयान के मुताबिक़, शैतान के ज़रिए से आज़माइश में भी डाला गया, उसके मुताल्लिक़ कौन माक़ूल इंसान यह तसव्वुर कर सकता है कि वह ख़ुद ख़ुदा है या ख़ुदाई में ख़ुदा का शरीक और सहीम है।
قُلۡ أَتَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَمۡلِكُ لَكُمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗاۚ وَٱللَّهُ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 70
(76) इनसे कहो, “क्या तुम अल्लाह को छोड़कर उसकी परस्तिश करते हो जो न तुम्हारे लिए नुक़सान का इख़्तियार रखता है न नफ़े का? हालाँकि सबकी सुननेवाला और सब कुछ जाननेवाला तो अल्लाह ही है।”
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ وَلَا تَتَّبِعُوٓاْ أَهۡوَآءَ قَوۡمٖ قَدۡ ضَلُّواْ مِن قَبۡلُ وَأَضَلُّواْ كَثِيرٗا وَضَلُّواْ عَن سَوَآءِ ٱلسَّبِيلِ ۝ 71
(77) कहो, “ऐ अहले-किताब! अपने दीन में नाहक़ ग़ुलू न करो और उन लोगों के तख़ैय्युलात की पैरवी न करो जो तुमसे पहले ख़ुद गुमराह हुए और बहुतों को गुमराह किया और ‘सवाउस्सबील' से भटक गए।”
لُعِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَلَىٰ لِسَانِ دَاوُۥدَ وَعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 72
(78) बनी-इसराईल में से जिन लोगों ने कुफ़्र की राह इख़्तियार की उनपर दाऊद और ईसा इब्ने-मरयम की ज़बान से लानत की गई, क्योंकि वे सरकश हो गए थे और ज़्यादतियाँ करने लगे थे,
كَانُواْ لَا يَتَنَاهَوۡنَ عَن مُّنكَرٖ فَعَلُوهُۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 73
(79) उन्होंने एक-दूसरे को बुरे अफ़आल के इरतिकाब से रोकना छोड़ दिया था45, बुरा तर्ज़े-अमल था जो उन्होंने इख़्तियार किया।
45. हर क़ौम का बिगाड़ इबतिदाअन चंद अफ़राद से शुरू होता है। अगर क़ौम का इजतिमाई ज़मीर ज़िन्दा होता है तो राए आम उन बिगड़े हुए अफ़राद को दबाए रखती है और क़ौम बहैसियते-मजमूई बिगड़ने नहीं पाती। लेकिन अगर क़ौम इन अफ़राद के मामले में तसाहुल शुरू कर देती है और ग़लतकार लोगों को मलामत करने के बजाय उन्हें सोसायटी में ग़लतकारी के लिए आज़ाद छोड़ देती है, तो फिर रफ़्ता-रफ़्ता वही ख़राबी जो पहले चंद अफ़राद तक महदूद थी, पूरी क़ौम में फैलकर रहती है। यही चीज़ थी जो आख़िरकार बनी-इसराईल के बिगाड़ की मूजिब हुई।
تَرَىٰ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ يَتَوَلَّوۡنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ لَبِئۡسَ مَا قَدَّمَتۡ لَهُمۡ أَنفُسُهُمۡ أَن سَخِطَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَفِي ٱلۡعَذَابِ هُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 74
(80) आज तुम उनमें ब-कसरत ऐसे लोग देखते हो जो (अहले-ईमान के मुक़ाबले में) कुफ़्फ़ार की हिमायत व रफ़ाक़त करते हैं। यक़ीनन बहुत बुरा अंजाम है जिसकी तैयारी उनके नफ़्सों ने उनके लिए की है, अल्लाह उनपर ग़ज़बनाक हो गया है और वे दाइमी अज़ाब में मुब्तला होनेवाले हैं।
وَلَوۡ كَانُواْ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلنَّبِيِّ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مَا ٱتَّخَذُوهُمۡ أَوۡلِيَآءَ وَلَٰكِنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 75
(81) अगर फ़िल-वाक़े ये लोग अल्लाह और पैग़म्बर और उस चीज़ के माननेवाले होते जो पैग़म्बर पर नाज़िल हुई थी तो कभी (अहले-ईमान के मुक़ाबले में) काफ़िरों को अपना रफ़ीक़ न बनाते। मगर इनमें से तो बेशतर लोग ख़ुदा की इताअत से निकल चुके हैं।
۞لَتَجِدَنَّ أَشَدَّ ٱلنَّاسِ عَدَٰوَةٗ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلۡيَهُودَ وَٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْۖ وَلَتَجِدَنَّ أَقۡرَبَهُم مَّوَدَّةٗ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّا نَصَٰرَىٰۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّ مِنۡهُمۡ قِسِّيسِينَ وَرُهۡبَانٗا وَأَنَّهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 76
(82) तुम अहले-ईमान की अदावत में सबसे ज़्यादा सख़्त यहूद और मुशरिकीन को पाओगे, और ईमान लानेवालों के लिए दोस्ती में क़रीबतर उन लोगों को पाओगे जिन्होंने कहा था कि हम नसारा हैं। यह इस वजह से कि उनमें इबादतगुज़ार आलिम और तारिकुद-दुनिया फ़क़ीर पाए जाते हैं और उनमें ग़ुरूरे-नफ़्स नहीं है।
وَإِذَا سَمِعُواْ مَآ أُنزِلَ إِلَى ٱلرَّسُولِ تَرَىٰٓ أَعۡيُنَهُمۡ تَفِيضُ مِنَ ٱلدَّمۡعِ مِمَّا عَرَفُواْ مِنَ ٱلۡحَقِّۖ يَقُولُونَ رَبَّنَآ ءَامَنَّا فَٱكۡتُبۡنَا مَعَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 77
(83) जब वे इस कलाम को सुनते हैं जो रसूल पर उतरा है तो तुम देखते हो कि हक़-शनासी के असर से उनकी आँखें आँसुओं से तर हो जाती हैं। वे बोल उठते हैं कि “परवरदिगार! हम ईमान लाए, हमारा नाम गवाही देनेवालों में लिख ले।”
وَمَا لَنَا لَا نُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَمَا جَآءَنَا مِنَ ٱلۡحَقِّ وَنَطۡمَعُ أَن يُدۡخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 78
(84) और वे कहते हैं कि “आख़िर क्यों न हम अल्लाह पर ईमान लाएँ और जो हक़ हमारे पास आया है उसे क्यों न मान लें जबकि हम इस बात की ख़ाहिश रखते हैं कि हमारा रब हमें सॉलेह लोगों में शामिल करे?”
فَأَثَٰبَهُمُ ٱللَّهُ بِمَا قَالُواْ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 79
(85) उनके इस क़ौल की वजह से अल्लाह ने उनको ऐसी जन्नतें अता कीं जिनके नीचे नहरें बहती हैं और वे उनमें हमेशा रहेंगे। यह जज़ा है नेक रवैया इख़्तियार करनेवालों के लिए।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 80
(86) रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयात को मानने से इनकार किया और उन्हें झुठलाया, तो वे जहन्नम के मुस्तहिक़ हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُحَرِّمُواْ طَيِّبَٰتِ مَآ أَحَلَّ ٱللَّهُ لَكُمۡ وَلَا تَعۡتَدُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 81
(87) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जो पाक चीज़ें अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल की हैं उन्हें हराम न कर लो46, और हद से तजावुज़ न करो, अल्लाह को ज़्यादती करनेवाले सख़्त नापसन्द हैं।
46. इस आयत में दो बातें इरशाद हुई हैं। एक यह कि ख़ुद हलाल व हराम के मुख़्तार न बन जाओ। हलाल वही है जो अल्लाह ने हलाल किया और हराम वही है जो अल्लाह ने हराम किया। अपने इख़्तियार से किसी हलाल को हराम करोगे तो क़ानूने-इलाही के बजाय क़ानूने-नफ़्स के पैरौ क़रार पाओगे। दूसरी बात यह कि ईसाई राहिबों, हिन्दू जोगियों, बौद्ध मज़हब के भिक्षुओं और इशराक़ी मुतसव्विफ़ीन की तरह रहबानियत और क़तए-लज़्ज़ात का तरीक़ा इख़्तियार न करो।
وَكُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 82
(88) जो कुछ हलाल और तैयिब रिज़्क़ अल्लाह ने तुमको दिया है उसे खाओ-पियो और उस ख़ुदा की नाफ़रमानी से बचते रहो जिसपर तुम ईमान लाए हो।
لَا يُؤَاخِذُكُمُ ٱللَّهُ بِٱللَّغۡوِ فِيٓ أَيۡمَٰنِكُمۡ وَلَٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا عَقَّدتُّمُ ٱلۡأَيۡمَٰنَۖ فَكَفَّٰرَتُهُۥٓ إِطۡعَامُ عَشَرَةِ مَسَٰكِينَ مِنۡ أَوۡسَطِ مَا تُطۡعِمُونَ أَهۡلِيكُمۡ أَوۡ كِسۡوَتُهُمۡ أَوۡ تَحۡرِيرُ رَقَبَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖۚ ذَٰلِكَ كَفَّٰرَةُ أَيۡمَٰنِكُمۡ إِذَا حَلَفۡتُمۡۚ وَٱحۡفَظُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 83
(89) तुम लोग जो मुहमल क़समें खा लेते हो उनपर अल्लाह गिरिफ़्त नहीं करता, मगर जो क़समें तुम जान-बूझकर खाते हो उनपर वह ज़रूर तुमसे मुवाख़ज़ा करेगा (ऐसी क़सम तोड़ने का) कफ़्फ़ारा यह है कि दस मिसकीनों को वह औसत दर्जे का खाना खिलाओ जो तुम अपने बाल-बच्चों को खिलाते हो, या उन्हें कपड़े पहनाओ, या एक ग़ुलाम आज़ाद करो, और जो इसकी इसतिताअत न रखता हो वह तीन दिन के रोज़े रखे। यह तुम्हारी क़समों का कफ़्फ़ारा है जबकि तुम क़सम खाकर तोड़ दो। अपनी क़समों की हिफ़ाज़त किया करो। इस तरह अल्लाह अपने अहकाम तुम्हारे लिए वाज़ेह करता है शायद कि तुम शुक्र अदा करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡخَمۡرُ وَٱلۡمَيۡسِرُ وَٱلۡأَنصَابُ وَٱلۡأَزۡلَٰمُ رِجۡسٞ مِّنۡ عَمَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ فَٱجۡتَنِبُوهُ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 84
(90) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! यह शराब और जुआ और ये आस्ताने और पाँसे, ये सब गन्दे शैतानी काम है, इनसे परहेज़ करो, उम्मीद है कि तुम्हें फ़लाह नसीब होगी।47
47. शराब की हुरमत के सिलसिले में इससे पहले दो हुक्म आ चुके थे जो सूरा-2 बक़रा, आयत-219 और सूरा-4 निसा, आयत-43 में गुज़र चुके हैं। अब इस आख़िरी हुक्म के आने से पहले नबी (सल्ल०) ने एक ख़ुतबे में लोगों को मुतनब्बेह फ़रमा दिया कि अल्लाह तआला को शराब सख़्त नापसन्द है, बईद नहीं कि उसकी क़तई हुरमत का हुक्म आ जाए। लिहाज़ा जिन-जिन लोगों पास शराब मौजूद हो वे उसे फ़रोख़्त कर दें। इसके कुछ मुद्दत बाद यह आयत नाज़िल हुई और आपने एलान कराया कि अब जिनके पास शराब है वे न उसे पी सकते हैं, न बेच सकते हैं, बल्कि वे उसे ज़ाया कर दें। चुनाँचे उसी वक़्त मदीना की गलियों में शराब बहा दी गई।
إِنَّمَا يُرِيدُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَن يُوقِعَ بَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ فِي ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِ وَيَصُدَّكُمۡ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَعَنِ ٱلصَّلَوٰةِۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّنتَهُونَ ۝ 85
(91) शैतान तो यह चाहता है कि शराब और जुए के ज़रिए से तुम्हारे दरमियान अदावत और बुग़्ज़ डाल दे और तुम्हें ख़ुदा की याद से और नमाज़ से रोक दे। फिर क्या तुम इन चीज़ों से बाज़ रहोगे?
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَٱحۡذَرُواْۚ فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا عَلَىٰ رَسُولِنَا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 86
(92) अल्लाह और उसके रसूल की बात मानो और बाज़ आ जाओ, लेकिन अगर तुमने हुक्म-उदूली की तो जान लो कि हमारे रसूल पर बस साफ़-साफ़ हुक्म पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी थी।
لَيۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جُنَاحٞ فِيمَا طَعِمُوٓاْ إِذَا مَا ٱتَّقَواْ وَّءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ ثُمَّ ٱتَّقَواْ وَّءَامَنُواْ ثُمَّ ٱتَّقَواْ وَّأَحۡسَنُواْۚ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 87
(93) जो लोग ईमान ले आए और नेक अमल करने लगे, उन्होंने पहले जो कुछ खाया-पिया था उसपर कोई गिरिफ़्त न होगी बशर्ते कि वे आइन्दा उन चीज़ों से बचे रहें जो हराम की गई हैं और ईमान पर साबित-क़दम रहें और अच्छे काम करें, फिर जिस-जिस चीज़ से रोका जाए उससे रुकें और जो फ़रमाने-इलाही हो उसे मानें, फिर ख़ुदा-तरसी के साथ नेक रवैया रखें। अल्लाह नेक किरदार लोगों को पसन्द करता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَيَبۡلُوَنَّكُمُ ٱللَّهُ بِشَيۡءٖ مِّنَ ٱلصَّيۡدِ تَنَالُهُۥٓ أَيۡدِيكُمۡ وَرِمَاحُكُمۡ لِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ مَن يَخَافُهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 88
(94) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह तुम्हें उस शिकार के ज़रिए से सख़्त आज़माइश में डालेगा जो बिलकुल तुम्हारे हाथों और नेज़ों की ज़द में होगा, यह देखने के लिए कि तुममें से कौन उससे ग़ायबाना डरता है, फिर जिसने इस तम्बीह के बाद अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हद से तजावुज़ किया उसके लिए दर्दनाक सज़ा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡتُلُواْ ٱلصَّيۡدَ وَأَنتُمۡ حُرُمٞۚ وَمَن قَتَلَهُۥ مِنكُم مُّتَعَمِّدٗا فَجَزَآءٞ مِّثۡلُ مَا قَتَلَ مِنَ ٱلنَّعَمِ يَحۡكُمُ بِهِۦ ذَوَا عَدۡلٖ مِّنكُمۡ هَدۡيَۢا بَٰلِغَ ٱلۡكَعۡبَةِ أَوۡ كَفَّٰرَةٞ طَعَامُ مَسَٰكِينَ أَوۡ عَدۡلُ ذَٰلِكَ صِيَامٗا لِّيَذُوقَ وَبَالَ أَمۡرِهِۦۗ عَفَا ٱللَّهُ عَمَّا سَلَفَۚ وَمَنۡ عَادَ فَيَنتَقِمُ ٱللَّهُ مِنۡهُۚ وَٱللَّهُ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٍ ۝ 89
(95) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! इहराम की हालत में शिकार न मारो,48 और अगर तुममें से कोई जान-बूझकर ऐसा कर गुज़रे तो जो जानवर उसने मारा हो उसी के हमपल्ला एक जानवर उसे मवेशियों में से नज़्र देना होगा जिसका फ़ैसला तुममें से दो आदिल आदमी करेंगे, और यह नज़राना काबा पहुँचाया जाएगा, या नहीं तो इस गुनाह के कफ़्फ़ारे में चंद मिसकीनों को खाना खिलाना होगा, या उसके बक़द्र रोज़े रखने होंगे, ताकि वह अपने किए का मज़ा चखे। पहले जो कुछ हो चुका उसे अल्लाह ने माफ़ कर दिया, लेकिन अब अगर किसी ने इस हरकत का इआदा किया तो उससे अल्लाह बदला लेगा, अल्लाह सब पर ग़ालिब है और बदला लेने की ताक़त रखता है।
48. शिकार ख़ाह आदमी ख़ुद करे या किसी दूसरे को शिकार में किसी तौर पर मदद दे, दोनों बातें हालते-इहराम में मना हैं, नीज़ अगर मुहरिम की ख़ातिर शिकार मारा गया हो तब भी उसका खाना मुहरिम के लिए जाइज़ नहीं है। अलबत्ता अगर किसी शख़्स ने अपने लिए ख़ुद शिकार किया हो और फिर वह उसमें से मुहरिम को भी तोहफ़तन कुछ दे दे तो उसके खाने में कोई मुज़ायक़ा नहीं। इस हुक्मे-आम से मूज़ी जानवर मुस्तसना हैं। साँप, बिच्छू, बावला कुत्ता और ऐसे दूसरे जानवर, जो इनसान को नुक़सान पहुँचानेवाले हैं, हालते-इहराम में मारे जा सकते हैं।
أُحِلَّ لَكُمۡ صَيۡدُ ٱلۡبَحۡرِ وَطَعَامُهُۥ مَتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِلسَّيَّارَةِۖ وَحُرِّمَ عَلَيۡكُمۡ صَيۡدُ ٱلۡبَرِّ مَا دُمۡتُمۡ حُرُمٗاۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 90
(96) तुम्हारे लिए समुन्दर का शिकार और उसका खाना हलाल कर दिया। गया, जहाँ तुम ठहरो वहाँ भी उसे खा सकते हो और क़ाफ़िले के लिए ज़ादे-राह भी बना सकते हो। अलबत्ता ख़ुश्की का शिकार, जब तक तुम इहराम की हालत में हो, तुमपर हराम किया गया है। पस बचो उस ख़ुदा की नाफ़रमानी से जिसकी पेशी में तुम सबको घेरकर हाज़िर किया जाएगा।
۞جَعَلَ ٱللَّهُ ٱلۡكَعۡبَةَ ٱلۡبَيۡتَ ٱلۡحَرَامَ قِيَٰمٗا لِّلنَّاسِ وَٱلشَّهۡرَ ٱلۡحَرَامَ وَٱلۡهَدۡيَ وَٱلۡقَلَٰٓئِدَۚ ذَٰلِكَ لِتَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَأَنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 91
(97) अल्लाह ने मकाने-मोहतरम, काबा को लोगों के लिए (इजतिमाई ज़िन्दगी के) क़ियाम का ज़रिआ बनाया और माहे-हराम और क़ुरबानी के जानवरों और क़िलादों को भी (इस काम में मुआविन बना दिया) ताकि तुम्हें मालूम हो जाए कि अल्लाह आसमानों और ज़मीन के सब हालात से बाख़बर है और उसे हर चीज़ का इल्म है।
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ وَأَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 92
(98) ख़बरदार हो जाओ! अल्लाह सज़ा देने में भी सख़्त है और उसके साथ बहुत दरगुज़र और रहम भी करनेवाला है।
مَّا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا تَكۡتُمُونَ ۝ 93
(99) रसूल पर तो सिर्फ़ पैग़ाम पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है, आगे तुम्हारे खुले और छिपे सब हालात का जाननेवाला अल्लाह है।
قُل لَّا يَسۡتَوِي ٱلۡخَبِيثُ وَٱلطَّيِّبُ وَلَوۡ أَعۡجَبَكَ كَثۡرَةُ ٱلۡخَبِيثِۚ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 94
(100) (ऐ पैग़म्बर!) इनसे कह दो कि पाक और नापाक बहरहाल यकसाँ नहीं हैं ख़ाह नापाक की बुहतात तुम्हें कितना ही फ़रेफ़्ता करनेवाली हो।49 पस ऐ लोगो, जो अक़्ल रखते हो, अल्लाह की नाफ़रमानी से बचते रहो, उम्मीद है कि तुम्हें फ़लाह नसीब होगी।
49. यह आयत क़द्रो-क़ीमत का एक दूसरा ही मेयार पेश करती है जो ज़ाहिर बीं इनसान के मेयार से बिलकुल मुख़्तलिफ़ है, ज़ाहिर बीं की नज़र में सौ रुपए बमुक़ाबला पाँच रुपए के लाज़िमन ज़्यादा कीमती हैं क्योंकि वे सौ हैं और ये पाँच। लेकिन यह आयत कहती है कि सौ रुपए अगर ख़ुदा की नाफ़रमानी करके हासिल किए गए हों तो वे नापाक हैं, और पाँच रुपए अगर ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी करते हुए कमाए गए हो तो वे पाक हैं, और नापाक ख़ाह मिक़दार में कितना ही ज़्यादा हो, बहरहाल वह पाक के बराबर किसी तरह नहीं हो सकता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَسۡـَٔلُواْ عَنۡ أَشۡيَآءَ إِن تُبۡدَ لَكُمۡ تَسُؤۡكُمۡ وَإِن تَسۡـَٔلُواْ عَنۡهَا حِينَ يُنَزَّلُ ٱلۡقُرۡءَانُ تُبۡدَ لَكُمۡ عَفَا ٱللَّهُ عَنۡهَاۗ وَٱللَّهُ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 95
(101) ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, ऐसी बातें न पूछा करो जो तुमपर ज़ाहिर कर दी जाएँ तो तुम्हें नागवार हों,50 लेकिन अगर तुम उन्हें ऐसे वक़्त पूछोग जबकि क़ुरआन नाज़िल हो रहा हो तो वे तुमपर खोल दी जाएँगी। अब तक जो कुछ तुमने किया उसे अल्लाह ने माफ़ कर दिया, वह दरगुज़र करनेवाला बुर्दबार है।
50. नबी (सल्ल०) से बाज़ लोग अजीब-अजीब क़िस्म के फ़ुज़ूल सवालात किया करते थे जिनकी न दीन के किसी मामले में ज़रूरत होती थी न दुनिया ही के किसी मामले में। इसपर यह तम्बीह फ़रमाई गई है।
قَدۡ سَأَلَهَا قَوۡمٞ مِّن قَبۡلِكُمۡ ثُمَّ أَصۡبَحُواْ بِهَا كَٰفِرِينَ ۝ 96
(102) तुमसे पहले एक गरोह ने इसी क़िस्म के सवालात किए थे, फिर वे लोग उन्हीं बातों की वजह से कुफ़्र में मुब्तला हो गए।
مَا جَعَلَ ٱللَّهُ مِنۢ بَحِيرَةٖ وَلَا سَآئِبَةٖ وَلَا وَصِيلَةٖ وَلَا حَامٖ وَلَٰكِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۖ وَأَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 97
(103) अल्लाह ने न कोई 'बहीरा' मुक़र्रर किया है, न 'सायबा' और न 'वसीला' और न ‘हाम'।51 मगर ये काफ़िर अल्लाह पर झूठी तोहमत लगाते है, और उनमें से अकसर बेअक़्ल हैं (कि ऐसे वहमियात को मान रहे हैं)।
51. यह अहले-अरब के तवह्हुमात का ज़िक्र है। 'बहीरा' उस ऊँटनी को कहते थे जो पाँच दफ़ा बच्चे जन चुकी हो और आख़िरी बार उसके यहाँ नर बच्चा हुआ हो। जाहिलियत के ज़माने में अहले-अरब उसका कान चीरकर उसे आज़ाद छोड़ देते थे। फिर न कोई उसपर सवार होता, न उसका दूध पिया जाता, न उसका ऊन उतारा जाता। उसे हक़ था कि जिस खेत और जिस चरागाह में चाहे चरे और जिस घाट से चाहे पानी पिए। 'साइबा' उस ऊँट या ऊँटनी को कहते थे जिसे किसी मन्नत के पूरा होने या किसी बीमारी से शिफ़ा पाने या किसी ख़तरे से बच जाने पर बतौर शुकराने के पुण्य कर दिया गया हो। नीज़ जिस ऊँटनी ने दस मर्तबा बच्चे दिए हों और हर बार मादा ही जनी हो उसे भी आज़ाद छोड़ दिया जाता था। 'वसीला'— अगर बकरी का पहला बच्चा नर होता तो वह ख़ुदाओं के नाम पर ज़ब्ह कर दिया जाता, और अगर वह पहली बार मादा जनती तो उसे रख लिया जाता था। लेकिन अगर नर और मादा एक साथ पैदा होते तो नर को ज़ब्ह करने के बजाय यूँ ही ख़ुदाओं के नाम पर छोड़ दिया जाता था और इसका नाम ‘वसीला’ था। 'हाम' अगर किसी ऊँट का पोता सवारी देने के क़ाबिल हो जाता तो उस बूढ़े ऊँट को आज़ाद छोड़ दिया जाता था। नीज अगर किसी ऊँट के नुत्फे से दस बच्चे पैदा हो जाते तो उसे भी आज़ादी मिल जाती।
وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَمُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ عَمَّا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ لِكُلّٖ جَعَلۡنَا مِنكُمۡ شِرۡعَةٗ وَمِنۡهَاجٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن لِّيَبۡلُوَكُمۡ فِي مَآ ءَاتَىٰكُمۡۖ فَٱسۡتَبِقُواْ ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 98
(48) फिर (ऐ नबी!) हमने तुम्हारी तरफ़ यह किताब भेजी जो हक़ लेकर आई है और अल-किताब में से जो कुछ उसके आगे मौजूद है उसकी तसदीक़ करनेवाली और उसकी मुहाफ़िज़ व निगहबान है।37 लिहाज़ा तुम ख़ुदा के नाज़िल-करदा क़ानून के मुताबिक़ लोगों के मामलात का फ़ैसला करो और जो हक़ तुम्हारे पास आया है उससे मुँह मोड़कर उनकी ख़ाहिशात की पैरवी न करो। हमने तुम (इनसानों) में से हर एक के लिए एक शरीअत और एक राहे-अमल मुक़र्रर की। अगरचे तुम्हारा ख़ुदा चाहता तो तुम सबको एक उम्मत भी बना सकता था, लेकिन उसने यह इसलिए किया कि जो कुछ उसने तुम लोगों को दिया है, उसमें तुम्हारी आज़माइश करे। लिहाज़ा भलाइयों में एक-दूसरे से सबक़त ले जाने की कोशिश करो। आख़िरकार तुम सबको ख़ुदा की तरफ़ पलटकर जाना है, फिर वह तुम्हें अस्ल हक़ीक़त बता देगा जिसमें तुम इख़्तिलाफ़ करते रहे हो।
37. यहाँ एक अहम हक़ीक़त की तरफ़ इशारा फ़रमाया गया है। अगरचे इस मज़मून को यूँ भी अदा किया जा सकता था कि 'पिछली किताबों’ में से जो कुछ अपनी अस्ली और सही सूरत पर बाक़ी है, क़ुरआन उसकी तसदीक़ करता है, लेकिन अल्लाह तआला ने 'पिछली किताबों’ के बजाय 'अल-किताब' का लफ़्ज़ इस्तेमाल फ़रमाया। इससे यह राज़ मुन्कशिफ़ होता है कि क़ुरआन और तमाम वे किताबें जो मुख़्तलिफ़ ज़मानों और मुख़्तलिफ़ ज़बानों में अल्लाह तआला की तरफ़ से नाज़िल हुईं, सब-की-सब फ़िल-अस्ल एक ही किताब हैं। एक ही उनका मुसन्निफ़ है, एक ही उनका मुद्दआ और मक़सद है, एक ही उनकी तालीम है और एक ही इल्म है जो उनके ज़रिए से नौए-इनसानी को अता किया गया। फ़र्क़ अगर है तो इबारात का है जो एक ही मक़सद के लिए मुख़्तलिफ़ मुख़ातिबों के लिहाज़ से मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से इख़्तियार की गईं। क़ुरआन को अल-किताब का मुहाफ़िज़ और मुहैमिन कहने का मतलब यह है कि उसने तमाम बरहक़ तालीमात को जो पिछली कुतुबे-आसमानी में थीं अपने अन्दर लेकर महफ़ूज़ कर दिया है। अब इनकी तालीमाते-बरहक़ का कोई हिस्सा ज़ाया न होने पाएगा।
وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمۡ أَنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُصِيبَهُم بِبَعۡضِ ذُنُوبِهِمۡۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ لَفَٰسِقُونَ ۝ 99
(49) — पस (ऐ नबी!) तुम अल्लाह के नाज़िल-करदा क़ानून के मुताबिक़ इन लोगों के मामलात का फ़ैसला करो और इनकी ख़ाहिशात की पैरवी न करो। होशियार रहो कि ये लोग तुमको फ़ित्ने में डालकर उस हिदायत से ज़र्रा बराबर मुनहरिफ़ न करने पाएँ जो ख़ुदा ने तुम्हारी तरफ़ नाज़िल की है। फिर अगर ये उससे मुँह मोड़ें तो जान लो कि अल्लाह ने उनके बाज़ गुनाहों की पादाश में उनको मुब्तला-ए-मुसीबत करने का इरादा ही कर लिया है, और यह हक़ीक़त है कि उन लोगों में से अकसर) फ़ासिक़ हैं।
أَفَحُكۡمَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ يَبۡغُونَۚ وَمَنۡ أَحۡسَنُ مِنَ ٱللَّهِ حُكۡمٗا لِّقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 100
(50) (अगर ये ख़ुदा के क़ानून से मुँह मोड़ते हैं) तो क्या फिर जाहिलियत38 का फ़ैसला चाहते हैं? हालाँकि जो लोग अल्लाह पर यक़ीन रखते हैं उनके नज़दीक अल्लाह से बेहतर फ़ैसला करनेवाला और कौन हो सकता है?
38. जाहिलियत का लफ़्ज़ इस्लाम के मुक़ाबले में इस्तेमाल किया जाता है। इस्लाम का तरीक़ा सरासर इल्म है क्योंकि उसकी तरफ़ ख़ुदा ने रहनुमाई की है जो तमाम हक़ाइक़ का इल्म रखता है। और इसके बरअक्स हर वह तरीक़ा जो इस्लाम से मुख़्तलिफ़ है, जाहिलियत का तरीक़ा है। अरब के ज़माना-ए-क़ब्ले-इस्लाम को जाहिलियत का दौर इसी मानी में कहा गया है कि उस ज़माने में इल्म के बग़ैर मह्ज़ वह्म या क़ियास व गुमान या ख़ाहिशात की बिना पर इनसानों ने अपने लिए ज़िन्दगी के तरीक़े मुकर्रर कर लिए थे। यह तर्ज़े-अमल जहाँ जिस दौर में भी इख़्तियार किया जाए उसे बहरहाल जाहिलियत ही का तर्ज़े-अमल कहा जाएगा।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلۡيَهُودَ وَٱلنَّصَٰرَىٰٓ أَوۡلِيَآءَۘ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمۡ فَإِنَّهُۥ مِنۡهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 101
(51) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! यहूदियों और ईसाइयों को अपना रफ़ीक़ न बनाओ, ये आपस ही में एक-दूसरे के रफ़ीक़ हैं। और अगर तुममें से कोई उनको अपना रफ़ीक़ बनाता है तो उसका शुमार भी फिर उन्हीं में है, यक़ीनन अल्लाह ज़ालिमों को अपनी रहनुमाई से महरूम कर देता है।
فَتَرَى ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يُسَٰرِعُونَ فِيهِمۡ يَقُولُونَ نَخۡشَىٰٓ أَن تُصِيبَنَا دَآئِرَةٞۚ فَعَسَى ٱللَّهُ أَن يَأۡتِيَ بِٱلۡفَتۡحِ أَوۡ أَمۡرٖ مِّنۡ عِندِهِۦ فَيُصۡبِحُواْ عَلَىٰ مَآ أَسَرُّواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ نَٰدِمِينَ ۝ 102
(52) तुम देखते हो कि जिनके दिलों में निफ़ाक़ की बीमारी है वे उन्हीं में दौड़-धूप करते फिरते हैं। कहते हैं, “हमें डर लगता है कि कहीं हम किसी मुसीबत के चक्कर में न फँस जाएँ।” मगर बईद नहीं कि अल्लाह जब तुम्हें फ़ैसलाकुन फ़त्‌ह बखशेगा या अपनी तरफ़ से कोई और बात ज़ाहिर करेगा तो ये लोग अपने उस निफ़ाक़ पर, जिसे ये दिलों में छिपाए हुए हैं, नादिम होंगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ عَلَيۡكُمۡ أَنفُسَكُمۡۖ لَا يَضُرُّكُم مَّن ضَلَّ إِذَا ٱهۡتَدَيۡتُمۡۚ إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 103
(105) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अपनी फ़िक्र करो, किसी दूसरे की गुमराही से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता अगर तुम ख़ुद राहे-रास्त पर हो52 अल्लाह की तरफ़ तुम सबको पलटकर जाना है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो।
52. यानी बजाय इसके कि आदमी हर वक़्त यह देखता रहे कि फ़ुलाँ क्या कर रहा है और फ़ुलाँ के अक़ीदे में क्या ख़राबी है और फ़ुलाँ के आमाल में क्या बुराई है, उसे यह देखना चाहिए कि वह ख़ुद क्या कर रहा है। लेकिन इस आयत का यह मंशा हरगिज़ नहीं है कि आदमी बस अपनी नजात की फ़िक्र करे, दूसरों की इसलाह की फ़िक्र न करे। हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) इस ग़लत-फ़हमी की तरदीद करते हुए अपने एक ख़ुतबे में फ़रमाते हैं, “लोगो, तुम इस आयत को पढ़ते हो और इसकी ग़लत तावील करते हो। मैंने रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है कि जब लोगों का हाल यह हो जाए कि वे बुराई को देखें और उसे बदलने की कोशिश न करें, ज़ालिम को ज़ुल्म करते हुए पाएँ और उसका हाथ न पकड़ें, तो बईद नहीं कि अल्लाह अपने अज़ाब में सबको लपेट ले। ख़ुदा की क़सम! तुमको लाज़िम है कि भलाई का हुक्म दो और बुराई से रोको, वरना अल्लाह तुमपर ऐसे लोगों को मुसल्लत कर देगा जो तुममें सब से बदतर से ख़ुदा होंगे और वे तुमको सख़्त तकलीफें पहुँचाएँगे। फिर तुम्हारे नेक लोग दुआएँ माँगेंगे मगर वे क़ुबूल न होंगी।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ شَهَٰدَةُ بَيۡنِكُمۡ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ حِينَ ٱلۡوَصِيَّةِ ٱثۡنَانِ ذَوَا عَدۡلٖ مِّنكُمۡ أَوۡ ءَاخَرَانِ مِنۡ غَيۡرِكُمۡ إِنۡ أَنتُمۡ ضَرَبۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَأَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةُ ٱلۡمَوۡتِۚ تَحۡبِسُونَهُمَا مِنۢ بَعۡدِ ٱلصَّلَوٰةِ فَيُقۡسِمَانِ بِٱللَّهِ إِنِ ٱرۡتَبۡتُمۡ لَا نَشۡتَرِي بِهِۦ ثَمَنٗا وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰ وَلَا نَكۡتُمُ شَهَٰدَةَ ٱللَّهِ إِنَّآ إِذٗا لَّمِنَ ٱلۡأٓثِمِينَ ۝ 104
(106) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जब तुममें से किसी की मौत का वक़्त आ जाए और वह वसीयत कर रहा हो तो उसके लिए शहादत का निसाब यह है कि तुम्हारी जमाअत में से दो साहिबे-अदल53 आदमी गवाह बनाए जाएँ, या अगर सफ़र की हालत में हो और वहाँ मौत की मुसीबत पेश आ जाए तो ग़ैर लोगों ही में से दो गवाह ले लिए जाएँ। फिर अगर कोई शक पड़ जाए तो नमाज़ के बाद दोनों गवाहों को (मस्जिद में) रोक लिया जाए और वे ख़ुदा की क़सम खाकर कहें कि “हम किसी ज़ाती फ़ायदे के एवज़ शहादत बेचनेवाले नहीं हैं, और ख़ाह कोई हमारा रिश्तेदार ही क्यों न हो (हम उसकी रिआयत करनेवाले नहीं) और न ख़ुदा वास्ते की गवाही को हम छिपानेवाले हैं, अगर हमने ऐसा किया तो गुनहगारों में शुमार होगा।”
53. यानी दीनदार, रास्तबाज़ और क़ाबिले-एतिमाद मुसलमान।
فَإِنۡ عُثِرَ عَلَىٰٓ أَنَّهُمَا ٱسۡتَحَقَّآ إِثۡمٗا فَـَٔاخَرَانِ يَقُومَانِ مَقَامَهُمَا مِنَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَحَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَوۡلَيَٰنِ فَيُقۡسِمَانِ بِٱللَّهِ لَشَهَٰدَتُنَآ أَحَقُّ مِن شَهَٰدَتِهِمَا وَمَا ٱعۡتَدَيۡنَآ إِنَّآ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 105
(107) लेकिन अगर पता चल जाए कि इन दोनों ने अपने-आपको गुनाह में मुब्तला किया है तो फिर उनकी जगह दो और शख़्स जो उनकी बनिस्बत शहादत देने के लिए अहल-तर हों उन लोगों में से खड़े हों जिनकी हक़-तलफ़ी हुई हो, और वे ख़ुदा की क़सम खाकर कहें कि “हमारी शहादत उनकी शहादत से ज़्यादा बरहक़ है और हमने अपनी गवाही में कोई ज़्यादती नहीं की है, अगर हम ऐसा करें तो ज़ालिमों में से होंगे।”
ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يَأۡتُواْ بِٱلشَّهَٰدَةِ عَلَىٰ وَجۡهِهَآ أَوۡ يَخَافُوٓاْ أَن تُرَدَّ أَيۡمَٰنُۢ بَعۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱسۡمَعُواْۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 106
(108) इस तरीक़े से ज़्यादा तवक़्क़ो की जा सकती है कि लोग ठीक-ठीक शहादत देंगे, या कम-अज़-कम इस बात ही का ख़ौफ़ करेंगे कि उनकी क़समों के बाद दूसरी क़समों से कहीं उनकी तरदीद न हो जाए। अल्लाह से डरो और सुनो, अल्लाह नाफ़रमानी करनेवालों को अपनी रहनुमाई से महरूम कर देता है।
۞يَوۡمَ يَجۡمَعُ ٱللَّهُ ٱلرُّسُلَ فَيَقُولُ مَاذَآ أُجِبۡتُمۡۖ قَالُواْ لَا عِلۡمَ لَنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 107
(109) जिस रोज़ अल्लाह सब रसूलों को जमा करके पूछेगा कि तुम्हें क्या जवाब दिया गया, तो वे अर्ज़ करेंगे कि हमें कुछ इल्म नहीं, आप ही तमाम पोशीदा हक़ीक़तों को जानते हैं।
54. यानी क़ियामत के दिन रसूलों से पूछा जाएगा कि इस्लाम की तरफ़ जो दावत तुमने दुनिया को दी थी उसका क्या जवाब दुनिया ने तुम्हें दिया?
إِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱذۡكُرۡ نِعۡمَتِي عَلَيۡكَ وَعَلَىٰ وَٰلِدَتِكَ إِذۡ أَيَّدتُّكَ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِ تُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ فِي ٱلۡمَهۡدِ وَكَهۡلٗاۖ وَإِذۡ عَلَّمۡتُكَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَۖ وَإِذۡ تَخۡلُقُ مِنَ ٱلطِّينِ كَهَيۡـَٔةِ ٱلطَّيۡرِ بِإِذۡنِي فَتَنفُخُ فِيهَا فَتَكُونُ طَيۡرَۢا بِإِذۡنِيۖ وَتُبۡرِئُ ٱلۡأَكۡمَهَ وَٱلۡأَبۡرَصَ بِإِذۡنِيۖ وَإِذۡ تُخۡرِجُ ٱلۡمَوۡتَىٰ بِإِذۡنِيۖ وَإِذۡ كَفَفۡتُ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَنكَ إِذۡ جِئۡتَهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 108
(110 ) फिर तसव्वुर करो उस मौक़े का जब अल्लाह फ़रमाएगा कि “ऐ मरयम के बेटे ईसा! याद कर मेरी उसने मत को, जो मैंने तुझे और तेरी माँ को अता की थी। मैंने रूहे-पाक से तेरी मदद की, तू गहवारे में भी लोगों से बात करता था और बड़ी उम्र को पहुँचकर भी। मैंने तुझको किताब और हिकमत और तौरात और इंजील की तालीम दी, तू मेरे हक्म से मिट्टी का पुतला परिन्दे की शक्ल का बनाता और उसमें फूँकता था और वह मेरे हुक्म से परिन्दा बन जाता था, तू मादरज़ाद अन्धे और कोढ़ी को मेरे हुक्म से अच्छा करता था, तू मुर्दों को मेरे हुक्म से निकालता था।55 फिर जब तू बनी-इसराईल के पास सरीह निशानियाँ लेकर पहुँचा और जो लोग उनमें से मुनकिरे-हक़ थे, उन्होंने कहा कि ये निशानियाँ जादूगरी के सिवा कुछ नहीं हैं तो मैंने ही तुझे उनसे बचाया।
55. यानी हालते-मौत से निकालकर ज़िन्दगी की हालत में लाता था।
وَإِذۡ أَوۡحَيۡتُ إِلَى ٱلۡحَوَارِيِّـۧنَ أَنۡ ءَامِنُواْ بِي وَبِرَسُولِي قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَٱشۡهَدۡ بِأَنَّنَا مُسۡلِمُونَ ۝ 109
(111) और जब मैंने हवारियों को इशारा किया कि मुझपर और मेरे रसूल पर ईमान लाओ, तब उन्होंने कहा “हम ईमान लाए और गवाह रहो कि हम मुस्लिम हैं।”
إِذۡ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ هَلۡ يَسۡتَطِيعُ رَبُّكَ أَن يُنَزِّلَ عَلَيۡنَا مَآئِدَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِۖ قَالَ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 110
(112) — (हवारियों के सिलसिले में) यह वाक़िआ भी याद रहे कि जब हवारियों ने कहा, “ऐ ईसा इब्ने-मरयम! क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने का एक ख़्वान उतार सकता है?” तो ईसा ने कहा कि “अल्लाह से डरो अगर तुम मोमिन हो।”
56. चूँकि हवारियों का ज़िक्र आ गया था इसलिए इस सिलसिला-ए-कलाम को तोड़कर जुम्ला-ए-मोतरिज़ा के तौर पर यहाँ हवारियों ही के मुताल्लिक़ एक और वाक़िए की तरफ़ भी इशारा कर दिया गया, जिससे यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि मसीह से बराहे-रास्त जिन शागिर्दों ने तालीम पाई थी वे मसीह को एक इनसान और मह्ज़ एक बन्दा समझते थे और उनके वम व गुमान में भी अपने मुरशिद के ख़ुदा या शरीके-ख़ुदा या फ़रज़न्दे-ख़ुदा होने का तसव्वुर न था। नीज़ यह कि मसीह ने ख़ुद भी अपने-आपको उनके सामने एक बन्दा-ए-बेइख़्तियार की हैसियत से पेश किया था।
قَالُواْ نُرِيدُ أَن نَّأۡكُلَ مِنۡهَا وَتَطۡمَئِنَّ قُلُوبُنَا وَنَعۡلَمَ أَن قَدۡ صَدَقۡتَنَا وَنَكُونَ عَلَيۡهَا مِنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 111
(113) उन्होंने कहा, “हम बस यह चाहते हैं कि उस ख़्वान से खाना खाएँ और हमारे दिल मुत्मइन हों और हमें मालूम हो जाए कि आपने जो कुछ हमसे कहा है वह सच है और हम उसपर गवाह हों।”
قَالَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ ٱللَّهُمَّ رَبَّنَآ أَنزِلۡ عَلَيۡنَا مَآئِدَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ تَكُونُ لَنَا عِيدٗا لِّأَوَّلِنَا وَءَاخِرِنَا وَءَايَةٗ مِّنكَۖ وَٱرۡزُقۡنَا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 112
(114) इसपर ईसा इब्ने-मरयम ने दुआ की, “ख़ुदाया! हमारे रब! हमपर आसमान से एक ख़्वान नाज़िल कर जो हमारे लिए और हमारे अगलों-पिछलों के लिए ख़ुशी का मौक़ा क़रार पाए और तेरी तरफ़ से एक निशानी हो, हमको रिज़्क़ दे और तू बेहतरीन राज़िक़ है।”
قَالَ ٱللَّهُ إِنِّي مُنَزِّلُهَا عَلَيۡكُمۡۖ فَمَن يَكۡفُرۡ بَعۡدُ مِنكُمۡ فَإِنِّيٓ أُعَذِّبُهُۥ عَذَابٗا لَّآ أُعَذِّبُهُۥٓ أَحَدٗا مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 113
(115) अल्लाह ने जवाब दिया, “मैं उसको तुमपर नाज़िल करनेवाला हूँ, मगर उसके बाद जो तुममें से कुफ़्र करेगा, उसे मैं ऐसी सज़ा दूँगा जो मैंने किसी को दुनिया में न दी होगी।”
وَإِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ءَأَنتَ قُلۡتَ لِلنَّاسِ ٱتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَٰهَيۡنِ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالَ سُبۡحَٰنَكَ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أَقُولَ مَا لَيۡسَ لِي بِحَقٍّۚ إِن كُنتُ قُلۡتُهُۥ فَقَدۡ عَلِمۡتَهُۥۚ تَعۡلَمُ مَا فِي نَفۡسِي وَلَآ أَعۡلَمُ مَا فِي نَفۡسِكَۚ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 114
(116) — ग़रज़ जब (ये एहसानात याद दिलाकर) अल्लाह फ़रमाएगा कि “ऐ ईसा इब्ने-मरयम! क्या तूने लोगों से कहा था कि ख़ुदा के सिवा मुझे और मेरी माँ को भी ख़ुदा बना लो?57 तो वह जवाब में अर्ज़ करेगा कि “सुबहानल्लाह! मेरा यह काम न था कि वह बात कहता जिसके कहने का मुझे हक़ न था, अगर मैंने ऐसी बात कही होती तो आपको ज़रूर इल्म होता, आप जानते हैं जो कुछ मेरे दिल में है और मैं नहीं जानता जो कुछ आपके दिल में है, आप तो सारी पोशीदा हक़ीक़तों के आलिम हैं।
57. ईसाइयों ने अल्लाह के साथ सिर्फ़ मसीह और रूहुल-क़ुदुस ही को ख़ुदा बनाने पर इक्तिफ़ा नहीं किया, बल्कि मसीह की वालिदा-ए-माजिदा हज़रत मरयम को भी एक मुस्तक़िल माबूद बना डाला। मसीह के बाद इब्तिदाई तीन सौ बरस तक ईसाई दुनिया इस तख़ैयुल से बिलकुल नाआशना थी। तीसरी सदी ईसवी के आख़िरी दौर में सिकंदरिया के बाज़ उलमा-ए-दीनियात ने पहली मर्तबा हज़रत मरयम के लिए ‘उम्मुल्लाह’ या 'मादरे-ख़ुदा' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए और उसके बाद रफ़्ता-रफ़्ता मरयम-परस्ती कलीसा में फैलती चली गई।
مَا قُلۡتُ لَهُمۡ إِلَّا مَآ أَمَرۡتَنِي بِهِۦٓ أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمۡۚ وَكُنتُ عَلَيۡهِمۡ شَهِيدٗا مَّا دُمۡتُ فِيهِمۡۖ فَلَمَّا تَوَفَّيۡتَنِي كُنتَ أَنتَ ٱلرَّقِيبَ عَلَيۡهِمۡۚ وَأَنتَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 115
(117) मैंने उनसे इसके सिवा कुछ नहीं कहा जिसका आपने हुक्म दिया था, यह कि अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। मैं उसी वक़्त तक उनका निगराँ था जब तक कि मैं उनके दरमियान था। जब आपने मुझे वापस बुला लिया तो आप उनपर निगराँ थे, और आप तो सारी ही चीज़ों पर निगराँ हैं।
إِن تُعَذِّبۡهُمۡ فَإِنَّهُمۡ عِبَادُكَۖ وَإِن تَغۡفِرۡ لَهُمۡ فَإِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 116
(118) अब अगर आप उन्हें सज़ा दें तो वे आपके बन्दे है और अगर माफ़ कर दें तो आप ग़ालिब और दाना हैं।”
قَالَ ٱللَّهُ هَٰذَا يَوۡمُ يَنفَعُ ٱلصَّٰدِقِينَ صِدۡقُهُمۡۚ لَهُمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ رَّضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 117
(119) तब अल्लाह फ़रमाएगा, “यह वह दिन है जिसमें सच्चों को उनकी सच्चाई नफ़ा देती है, उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही हैं, यहाँ वे हमेशा रहेंगे, अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से, यही बड़ी कामयाबी है।”
لِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا فِيهِنَّۚ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرُۢ ۝ 118
(120) ज़मीन और आसमानों और तमाम मौजूदात की बादशाही अल्लाह ही के लिए है और वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ قَالُواْ حَسۡبُنَا مَا وَجَدۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَآۚ أَوَلَوۡ كَانَ ءَابَآؤُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَهۡتَدُونَ ۝ 119
(104) और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस क़ानून का तरफ़ जो अल्लाह ने नाज़िल किया है और आओ पैग़म्बर की तरफ़ तो वे जवाब देते है “कि हमारे लिए तो बस वही तरीक़ा काफ़ी है जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।” क्या ये बाप-दादा ही की तक़लीद किए चले जाएँगे ख़ाह वे कुछ न जानते हों और सही रास्ते की उन्हें ख़बर ही न हो?