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سُورَةُ الرُّومِ

30. अर-रूम 

(मक्का में उतरी-आयतें 60)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द “ग़ुलि ब-तिर्रूम" (रूमी पराजित हो गए हैं) से लिया गया है।

उतरने का समय

आरंभ ही में कहा गया है कि "क़रीब के भू-भाग में रूमी (रोमवासी) पराजित हो गए हैं।” उस समय अरब से मिले हुए सभी अधिकृत क्षेत्रों पर ईरानियों का प्रभुत्व 615 ई० में पूरा हुआ था : इसलिए पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि यह सूरा उसी साल उतरी थी और यह वही साल था जिसमें हबशा की हिजरत हुई थी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जो भविष्यवाणी इस सूरा की आरंभिक आयतों में की गई है वह क़ुरआन मजीद के अल्लाह के कलाम होने और मुहम्मद (सल्ल०) के सच्चे रसूल होने की स्पष्ट और खुली गवाहियों में से एक है । इसे समझने के लिए ज़रूरी है कि उन ऐतिहासिक घटनाओं का विस्तृत विवेचन किया जाए जो इन आयतों से संबंध रखती हैं। नबी (सल्ल०) की नुबूवत से 8 साल पहले की घटना है कि क़ैसरे-रूम (रोम का शासक) मारीस (Maurice) के विरुद्ध विद्रोह हुआ और एक व्यक्ति फ़ोकास (Phocas) ने राजसिंहासन पर क़ब्ज़ा कर लिया [और क़ैसर को उसके बाल-बच्चों के साथ क़त्ल करा दिया]। इस घटना से ईरान के सम्राट ख़ुसरो परवेज़ को रोम पर हमलावर होने के लिए बड़ा ही अच्छा नैतिक बहाना मिल गया, क्योंकि क़ैसर मॉरीस उसका उपकारकर्ता था। चुनांँचे 603 ई० में उसने रोमी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ाई कर दी और कुछ साल के भीतर वह फ़ोकास की फ़ौज़ों को बराबर हराता हुआ [बहुत दूर तक अंदर घुस गया] रूम के दरबारियों ने यह देखकर कि फ़ोकास देश को नहीं बचा सकता, अफ़रीक़ा के गर्वनर से मदद मांँगी। उसने अपने बेटे हिरक़्ल (Heraclius) को एक शक्तिशाली बेड़े के साथ क़ुस्तनतीनिया भेज दिया। उसके पहुँचते ही फ़ोकास को पद से हटा दिया गया और उसकी जगह हिरक़्ल कै़सर बनाया गया। यह 610 ई० की घटना है और यह वही साल है जिसमें नबी (सल्ल०) अल्लाह की ओर से नबी बनाए गए।

ख़ुसरो परवेज़ ने फ़ोकास के हटाए और क़त्ल कर दिए जाने के बाद भी लड़ाई जारी रखी, और अब इस लड़ाई को उसने मजूसियों (अग्नि-पूजकों) और ईसाइयों के धर्मयुद्ध का रंग दे दिया [वह जीतता हुआ आगे बढ़ता रहा, यहाँ तक कि] 614 ई० में बैतुल-मक़दिस पर क़ब्ज़ा करके ईरानियों ने मसीही दुनिया पर क़ियामत ढा दी। इस जीत के बाद एक साल के अन्दर-अन्दर ईरानी फ़ौजें जार्डन, फ़िलस्तीन और सीना प्रायद्वीप के पूरे इलाके़ पर क़ब्ज़ा करके मिस्र की सीमाओं तक पहुँच गईं। यह वह समय था जब मक्का मुअज़्ज़मा में एक ओर उससे कई गुना अधिक ऐतिहासिक महत्त्ववाली लड़ाई [कुफ्र और इस्लाम की लड़ाई] छिड़ गई थी और नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि 615 ई० में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को अपना घर-बार छोड़कर हबशा के ईसाई राज्य में (जिससे रोम की शपथ-मित्रता थी) पनाह लेनी पड़ी। उस वक़्त ईसाई रोम पर [अग्निपूजक] ईरान के प्रभुत्व की चर्चा हर ज़बान पर थी। मक्का के मुशरिक इसपर खु़शी मना रहे थे और इसे मुसलमानों [के विरुद्ध उसकी सफलता की एक मिसाल और शगुन ठहरा रहे थे।] इन परिस्थतियों में कु़रआन मजीद की यह सूरा उतरी और इसमें वह भविष्यवाणी की गई [जो इसकी शुरू की आयतों में बयान की गई है।] इसमें एक के बजाय दो भविष्यवाणियाँ थीं- एक यह कि रूमियों को ग़लबा (प्रभुत्व) मिलेगा। दूसरी यह कि मुसलमानों को भी उसी समय में जीत मिलेगी। प्रत्यक्ष में तो दूर-दूर तक कहीं इसकी निशानियाँ मौजूद न थीं कि इनमें से कोई एक भविष्यवाणी भी कुछ वर्ष के भीतर पूरी हो जाएगी। चुनांँचे क़ुरआन की ये आयतें जब उतरीं तो मक्का के विधर्मियों ने इसकी खू़ब हँसी उड़ाई, [लेकिन सात-आठ वर्ष बाद ही परिस्थतियों ने पलटा खाया।] 622 ई० में इधर नबी (सल्ल०) हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए और उधर कै़सर हिरक़्ल [ईरान पर जवाबी हमला करने के लिए] ख़ामोशी के साथ कु़स्तनतीनिया से काला सागर के रास्ते से तराबजू़न की ओर रवाना हुआ और 623 ई० में आरमीनिया से [अपना हमला] शुरू करके दूसरे साल 624 ई० में उसने आज़र बाइजान में घुसकर ज़रतुश्त के जन्म स्थल अरमियाह (Clorumia) को नष्ट कर दिया और ईरानियों के सबसे बड़े अग्निकुंड की ईंट से ईट बजा दी। अल्लाह की कु़दरत का करिश्मा देखिए कि यही वह साल था जिसमें मुसलमानों को बद्र में पहली बार मुशरिकों के मुक़ाबले में निर्णायक विजय मिली। इस तरह वे दोनों भविष्यवाणियाँ जो सूरा रूम में की गई थी, दस साल की अवधि समाप्त होने में पहले एक साथ ही पूरी हो गईं।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में वार्ता का आरंभ इस बात से किया गया है कि आज रूमी (रोमवासी) परास्त हो गए हैं, मगर कुछ साल न बीतने पाएँगे कि पांँसा पलट जाएगा और जो परास्त है, वह विजयी हो जाएगा। इस भूमिका से यह बात मालूम हुई कि इंसान अपनी बाह्य दृष्टि के कारण वही कुछ देखता है जो बाह्य रूप से उसकी आँखों के सामने होता है, मगर इस बाह्य के परदे की पीछे जो कुछ है, उसकी उसे ख़बर नहीं होती। जब दुनिया के छोटे-छोटे मामलों में [आदमी अपनी ऊपरी नज़र के कारण] ग़लत अन्दाज़े लगा बैठता है, तो फिर समग्र जीवन के मामले में दुनिया को जिंदगी के प्रत्यक्ष पर भरोसा कर बैठना कितनी बड़ी ग़लती है। इस तरह रोम एवं ईरान के मामले से व्याख्यान का रुख़ आख़िरत के विषय की ओर फिर जाता है और लगातार 27 आयतों तक विविध ढंग से यह समझाने की कोशिश की जाती है कि आख़िरत सम्भव भी है, बुद्धिसंगत भी है और आवश्यक भी है। इस सिलसिले में आख़िरत पर प्रमाण जुटाते हुए सृष्टि की जिन निशानियों को गवाही के रूप में पेश किया गया है, वे ठीक वही निशानियाँ हैं जो तौहीद (एकेश्वरवाद) को प्रमाणित करती हैं। इस लिए आयत 41 के आरंभ में से व्याख्यान का रुख़ तौहीद को साबित करने और शिर्क (बहुदेववाद) को झुठलाने की ओर फिर जाता है और बताया जाता है कि शिर्क जगत् की प्रकृति और मानव की प्रकृति के विरुद्ध है। इसी लिए जहाँ भी इंसान ने इस गुमराही को अपनाया है, वहाँ बिगाड़ पैदा हुआ है। इस मौके़ पर फिर उस बड़े बिगाड़ की ओर, जो उस समय दुनिया के दो बड़े राज्यों के बीच लड़ाई की वजह से पैदा हो गया था, संकेत किया गया है और बताया गया है कि यह बिगाड़ भी शिर्क के नतीजों में से है। अन्त में मिसाल की शक्ल में लोगों को समझाया गया है कि जिस तरह मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन अल्लाह की भेजी हुई बारिश से सहसा जी उठती है, उसी तरह अल्लाह की भेजी हुई वह्य और नुबूवत भी मुर्दा पड़ी हुई मानवता के हक़ में रहमत (दयालुता) की बारिश है। इस मौके़ से फ़ायदा उठाओगे तो यही अरब की सूनी ज़मीन अल्लाह की रहमत से लहलहा उठेगी। लाभ न उठाओगे तो अपनी ही हानि करोगे।

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سُورَةُ الرُّومِ
30. अर-रूम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़० लाम० मीम०।
غُلِبَتِ ٱلرُّومُ ۝ 1
(2) रूमी क़रीब की ज़मीन में मग़लूब हो गए हैं
فِيٓ أَدۡنَى ٱلۡأَرۡضِ وَهُم مِّنۢ بَعۡدِ غَلَبِهِمۡ سَيَغۡلِبُونَ ۝ 2
(3) और अपनी इस मग़लूबियत के बाद कुछ साल के अन्दर वे ग़ालिब हो जाएँगे।1
1. यह इशारा उस लड़ाई की तरफ़ है जो उस ज़माने में रूम और ईरान की सल्तनतों के दरमियान हो रही थी। उस वक़्त रूमी बुरी तरह शिकस्त खा गए थे और कोई ख़याल नहीं कर सकता था कि अब ये फिर उठ सकेंगे। मगर अल्लाह तआला ने इस आयत में यह पेशीनगोई फ़रमा दी कि चंद साल में रूमी फिर ग़ालिब आ जाएँगे।
فِي بِضۡعِ سِنِينَۗ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡرُ مِن قَبۡلُ وَمِنۢ بَعۡدُۚ وَيَوۡمَئِذٖ يَفۡرَحُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 3
(4) अल्लाह ही का इख़्तियार है पहले भी और बाद में भी। और वह दिन वह होगा जबकि अल्लाह की बख़्शी हुई फ़तह पर मुसलमान ख़ुशियाँ मनाएँगे।2
2. यह एक दूसरी पेशीनगोई थी। इसके मानी लोगों की समझ में उस वक़्त आए जब जंगे-बद्र में इधर मुसलमानों को फ़तह हुई और रूम और ईरान की जंग में उधर रूमी ग़ालिब आए।
أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۗ مَّا خَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ بِلِقَآيِٕ رَبِّهِمۡ لَكَٰفِرُونَ ۝ 4
(8) क्या इन्होंने कभी अपने आपमें ग़ौर व फ़िक्र नहीं किया? अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों को और उन सारी चीज़ों को जो उनके दरमियान हैं बरहक़ और एक मुद्दते-मुक़र्रर ही के लिए पैदा किया है। मगर बहुत-से लोग अपने रब की मुलाक़ात के मुनकिर हैं।3
3. यानी अगर इनसान निज़ामे-कायनात को बनज़रे-ग़ौर देखे तो उसे दो हक़ीक़तें नुमायाँ नज़र आएँगी : एक यह कि यह किसी खिलंडरे का खिलौना नहीं है, बल्कि एक मब्नी बर हिकमत और बामक़सद निज़ाम है। दूसरे यह कि यह अज़ली व अब्दी निज़ाम नहीं है, बल्कि एक वक़्त लाज़िमन इसे ख़त्म होना है। ये दोनों बातें आख़िरत पर दलालत करती हैं, मगर लोग ये सब कुछ देखते हुए भी उसका इनकार करते हैं।
بِنَصۡرِ ٱللَّهِۚ يَنصُرُ مَن يَشَآءُۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 5
(5) अल्लाह नुसरत अता फ़रमाता है जिसकी चाहता है, और वह ज़बरदस्त और रहीम है।
أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗ وَأَثَارُواْ ٱلۡأَرۡضَ وَعَمَرُوهَآ أَكۡثَرَ مِمَّا عَمَرُوهَا وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ فَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 6
(9) और क्या ये लोग कभी ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इन्हें उन लोगों का अंजाम नज़र आता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं? वे इनसे ज़्यादा ताक़त रखते थे, उन्होंने ज़मीन को ख़ूब उधेड़ा था और उसे इतना आबाद किया था जितना इन्होंने नहीं किया है। उनके पास उनके रसूल रौशन निशानियाँ लेकर आए। फिर अल्लाह उनपर ज़ुल्म करनेवाला न था, मगर वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म कर रहे थे।
ثُمَّ كَانَ عَٰقِبَةَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ ٱلسُّوٓأَىٰٓ أَن كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَكَانُواْ بِهَا يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 7
(10) आख़िरकार जिन लोगों ने बुराइयाँ की थीं, उनका अंजाम बहुत बुरा हुआ, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह की आयात को झुठलाया था और वे उनका मज़ाक़ उड़ाते थे।
وَعۡدَ ٱللَّهِۖ لَا يُخۡلِفُ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 8
(6) यह वादा अल्लाह ने किया है, अल्लाह कभी अपने वादे की ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं करता, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।
ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 9
(11) अल्लाह ही ख़ल्क़ की इबतिदा करता है, फिर वही उसका इआदा करेगा, फिर उसी की तरफ़ तुम पलटाए जाओगे।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُبۡلِسُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 10
(12) और जब वह साअत बरपा होगी, उस दिन मुजरिम हक-दक रह जाएँगे,4
4. अस्ल में 'मुबलिसून' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। 'इबलास’ के मानी हैं मायूसी और सदमे की बिना पर किसी शख़्स का गुमसुम हो जाना, दम-बख़ुद रह जाना।
يَعۡلَمُونَ ظَٰهِرٗا مِّنَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُمۡ عَنِ ٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 11
(7) लोग दुनिया की ज़िन्दगी का बस ज़ाहिरी पहलू जानते हैं और आख़िरत से वे ख़ुद ही ग़ाफ़िल हैं।
وَلَمۡ يَكُن لَّهُم مِّن شُرَكَآئِهِمۡ شُفَعَٰٓؤُاْ وَكَانُواْ بِشُرَكَآئِهِمۡ كَٰفِرِينَ ۝ 12
(13) उनके ठहराए हुए शरीकों में कोई उनका सिफ़ारिशी न होगा16 और वे अपने शरीकों के मुनकिर हो जाएँगे।5
5. यानी उस वक़्त ये मुशरिकीन ख़ुद इस बात का इक़रार करेंगे कि हम उनको ख़ुदा का शरीक ठहराने में ग़लती पर थे।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يَوۡمَئِذٖ يَتَفَرَّقُونَ ۝ 13
(14) जिस रोज़ वह साअत बरपा होगी, उस दिन (सब इनसान) अलग गरोहों में बँट जाएँगे।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَهُمۡ فِي رَوۡضَةٖ يُحۡبَرُونَ ۝ 14
(15) जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने नेक अमल किए हैं वे एक बाग़ में शादाँ व फ़रहाँ रखे जाएँगे।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَلِقَآيِٕ ٱلۡأٓخِرَةِ فَأُوْلَٰٓئِكَ فِي ٱلۡعَذَابِ مُحۡضَرُونَ ۝ 15
(16) और जिन्होंने कुफ़्र किया है और हमारी आयात को और आख़िरत की मुलाक़ात को झुठलाया है वे अज़ाब में हाज़िर रखे जाएँगे।
فَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ حِينَ تُمۡسُونَ وَحِينَ تُصۡبِحُونَ ۝ 16
(17) पस तसबीह करो अल्लाह की जबकि तुम शाम करते हो और जब सुबह करते हो
وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَعَشِيّٗا وَحِينَ تُظۡهِرُونَ ۝ 17
(18) आसमानों और ज़मीन में उसी के लिए हम्द है। और (तसबीह करो उसकी) तीसरे पहर और जबकि तुमपर ज़ुह्‍र का वक़्त आता है।6
6. इस आयत में नमाज़ के चार औक़ात की तरफ़ साफ़ इशारा है, फ़ज्र, मग़रिब, अस्र, ज़ुह्‍र। इसके साथ सूरा-11 हूद, आयत-114; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-78 और सूरा-20 ता० हा०, आयत-130 को पढ़ा जाए तो नमाज़ के पाँचों औक़ात का हुक्म निकल आता है।
يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَيُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّ وَيُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ وَكَذَٰلِكَ تُخۡرَجُونَ ۝ 18
(19) वह ज़िन्दा में से मुर्दे को निकालता है और मुर्दे में से ज़िन्दा को निकाल लाता है और ज़मीन को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी बख़्शता है। इसी तरह तुम लोग भी (मौत की हालत से) निकाल लिए जाओगे।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ وَهُوَ أَهۡوَنُ عَلَيۡهِۚ وَلَهُ ٱلۡمَثَلُ ٱلۡأَعۡلَىٰ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 19
(27) वही है जो तख़लीक़ की इबतिदा करता है, फिर वही उसका इआदा करेगा और यह उसके लिए आसानतर है। आसमानों और ज़मीन में उसकी सिफ़त सबसे बरतर है, और वह ज़बरदस्त और हकीम है।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنۡ خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ إِذَآ أَنتُم بَشَرٞ تَنتَشِرُونَ ۝ 20
(20) उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुमको मिट्टी से पैदा किया। फिर यकायक तुम बशर हो कि (ज़मीन में) फैलते चले जा रहे हो।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنۡ خَلَقَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا لِّتَسۡكُنُوٓاْ إِلَيۡهَا وَجَعَلَ بَيۡنَكُم مَّوَدَّةٗ وَرَحۡمَةًۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 21
(21) और उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिंस में से बीवियाँ बनाईं ताकि तुम उनके पास सुकून हासिल करो और तुम्हारे बीच मुहब्बत और रहमत पैदा कर दी। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ग़ौर-फ़िक्र करते हैं।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ خَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفُ أَلۡسِنَتِكُمۡ وَأَلۡوَٰنِكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡعَٰلِمِينَ ۝ 22
(22) और उसकी निशानियों में से आसमानों और ज़मीन की पैदाइश, और तुम्हारी ज़बानों और तुम्हारे रंगों का इख़्तिलाफ़ है। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं दानिशमन्द लोगों के लिए।
ضَرَبَ لَكُم مَّثَلٗا مِّنۡ أَنفُسِكُمۡۖ هَل لَّكُم مِّن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن شُرَكَآءَ فِي مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ فَأَنتُمۡ فِيهِ سَوَآءٞ تَخَافُونَهُمۡ كَخِيفَتِكُمۡ أَنفُسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 23
(28) वह तुम्हें ख़ुद तुम्हारी अपनी ही ज़ात से एक मिसाल देता है। क्या तुम्हारे उन ग़ुलामों में से जो तुम्हारी मिल्कियत में हैं कुछ ग़ुलाम ऐसे भी हैं जो हमारे दिए हुए माल-दौलत में तुम्हारे साथ बराबर के हिस्सेदार हों और तुम उनसे उस तरह डरते हो जिस तरह आपस में अपने हमसरों से डरते हो?7 — इस तरह हम आयात खोल-खोलकर पेश करते हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
7. यह वही मज़मून है जिसका ज़िक्र क़ुरआन की सूरा-16 नह्ल, आयत-62 में किया जा चुका है। दोनों जगह इस्तिदलाल यह है कि जब तुम अपने माल में अपने ग़ुलामों को शरीक नहीं करते तो तुम्हारी समझ में कैसे यह बात आती है कि ख़ुदा अपनी ख़ुदाई में अपने बन्दों को शरीक करेगा?
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ مَنَامُكُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱبۡتِغَآؤُكُم مِّن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 24
(23) और उसकी निशानियों में से तुम्हारा रात और दिन का सोना और तुम्हारा उसके फ़ज़्ल को तलाश करना है। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो (ग़ौर से) सुनते हैं।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ يُرِيكُمُ ٱلۡبَرۡقَ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَيُنَزِّلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَيُحۡيِۦ بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 25
(24) और उसकी निशानियों में से यह है कि वह तुम्हें बिजली की चमक दिखाता है डर के साथ भी और लालच के साथ भी। और आसमान से पानी बरसाता है, फिर उसके ज़रिए से ज़मीन को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी बख़्शता है। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
بَلِ ٱتَّبَعَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَهۡوَآءَهُم بِغَيۡرِ عِلۡمٖۖ فَمَن يَهۡدِي مَنۡ أَضَلَّ ٱللَّهُۖ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 26
(29) मगर ये ज़ालिम बे-समझे-बूझे अपने तख़य्युलात के पीछे चल पड़े हैं। अब कौन उस शख़्स को रास्ता दिखा सकता है जिसे अल्लाह ने भटका दिया हो। ऐसे लोगों का तो कोई मददगार नहीं हो सकता।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَن تَقُومَ ٱلسَّمَآءُ وَٱلۡأَرۡضُ بِأَمۡرِهِۦۚ ثُمَّ إِذَا دَعَاكُمۡ دَعۡوَةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ إِذَآ أَنتُمۡ تَخۡرُجُونَ ۝ 27
(25) और उसकी निशानियों में से यह है कि आसमान और ज़मीन उसके हुक्म से क़ायम हैं। फिर जूँ ही कि उसने तुम्हें ज़मीन से पुकारा, बस एक ही पुकार में अचानक तुम निकल आओगे।
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗاۚ فِطۡرَتَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي فَطَرَ ٱلنَّاسَ عَلَيۡهَاۚ لَا تَبۡدِيلَ لِخَلۡقِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 28
(30) पस (ऐ नबी, और नबी के पैररुओ) यकसू होकर अपना रुख़ इस दीन की सम्त में जमा दो, क़ायम हो जाओ उस फ़ितरत पर जिसपर अल्लाह तआला ने इनसानों को पैदा किया है, अल्लाह की बनाई हुई साख़्त (बनावट) बदली नहीं जा सकती,8 यही बिलकुल रास्त और दुरुस्त दीन है, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।
8. यानी ख़ुदा ने इनसान को अपना बन्दा बनाया है और अपनी ही बन्दगी के लिए पैदा किया है। यह साख़्त किसी के बदले नहीं बदल सकती। न आदमी बन्दा से ग़ैर-बन्दा बन सकता है, न किसी ग़ैरुल्लाह को अल्लाह बना लेने से वह हक़ीक़त में उसका अल्लाह बन सकता है। इनसान ख़ाह अपने कितने ही माबूद बना बैठे, लेकिन यह अम्रे-वाक़िआ अपनी जगह अटल है कि वह एक ख़ुदा के सिवा किसी का बन्दा नहीं है। दूसरा तर्जमा इस आयत का यह भी हो सकता है कि “अल्लाह की बनाई हुई साख़्त में तब्दीली न की जाए।” यानी अल्लाह ने जिस फ़ितरत पर इनसान को पैदा किया है उसको बिगाड़ना और मस्ख़ करना दुरुस्त नहीं है।
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ كُلّٞ لَّهُۥ قَٰنِتُونَ ۝ 29
(26) आसमानों और ज़मीन में जो भी हैं उसके बन्दे हैं, सब-के-सब उसी के हुक्म के ताबे-फ़रमान हैं।
۞مُنِيبِينَ إِلَيۡهِ وَٱتَّقُوهُ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَلَا تَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 30
(31) (क़ायम हो जाओ इस बात पर) अल्लाह की तरफ़ रुजू करते हुए, और डरो उससे और नमाज़ क़ायम करो, और न हो जाओ उन मुशरिकीन में से
مِنَ ٱلَّذِينَ فَرَّقُواْ دِينَهُمۡ وَكَانُواْ شِيَعٗاۖ كُلُّ حِزۡبِۭ بِمَا لَدَيۡهِمۡ فَرِحُونَ ۝ 31
(32) जिन्होंने अपना-अपना दीन अलग बना लिया है और गरोहों में बँट गए हैं, हर एक गरोह के पास जो कुछ है उसी में वह मगन है।
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلُۚ كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّشۡرِكِينَ ۝ 32
(42) (ऐ नबी) इनसे कहो कि ज़मीन में चल-फिरकर देखो कि पहले गुज़रे हुए लोगों का क्या अंजाम हो चुका है, उनमें से अकसर मुशरिक ही थे।
وَإِذَا مَسَّ ٱلنَّاسَ ضُرّٞ دَعَوۡاْ رَبَّهُم مُّنِيبِينَ إِلَيۡهِ ثُمَّ إِذَآ أَذَاقَهُم مِّنۡهُ رَحۡمَةً إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُم بِرَبِّهِمۡ يُشۡرِكُونَ ۝ 33
(33) लोगों का हाल यह है कि जब उन्हें कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो अपने रब की तरफ़ रुजू करके उसे पुकारते हैं, फिर जब वह कुछ अपनी रहमत का मज़ा उन्हें चखा देता है तो यकायक उनमें से कुछ लोग शिर्क करने लगते हैं
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡۚ فَتَمَتَّعُواْ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 34
(34) ताकि हमारे किए हुए एहसान की नाशुक्री करें। अच्छा, मज़े कर लो, अन-क़रीब तुम्हें मालूम हो जाएगा।
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ ٱلۡقَيِّمِ مِن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا مَرَدَّ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۖ يَوۡمَئِذٖ يَصَّدَّعُونَ ۝ 35
(43) पस (ऐ नबी) अपना रुख़ मज़बूती के साथ जमा दो इस दीने-रास्त की सम्त में, इससे पहले कि वह दिन आए जिसके टल जाने की कोई सूरत अल्लाह की तरफ़ से नहीं है। उस दिन लोग फटकर एक-दूसरे से अलग हो जाएँगे
مَن كَفَرَ فَعَلَيۡهِ كُفۡرُهُۥۖ وَمَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا فَلِأَنفُسِهِمۡ يَمۡهَدُونَ ۝ 36
(44) जिसने कुफ़्र किया है उसके कुफ़्र का वबाल उसी पर है। और जिन लोगों ने नेक अमल किया है वे अपने ही लिए (फ़लाह का रास्ता) साफ़ कर रहे हैं,
لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 37
(45) ताकि अल्लाह ईमान लानेवालों और अमले-सॉलेह करनेवालों को अपने फ़ज़्ल से बदला दे। यक़ीनन वह काफ़िरों को पसन्द नहीं करता।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَن يُرۡسِلَ ٱلرِّيَاحَ مُبَشِّرَٰتٖ وَلِيُذِيقَكُم مِّن رَّحۡمَتِهِۦ وَلِتَجۡرِيَ ٱلۡفُلۡكُ بِأَمۡرِهِۦ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 38
(46) उसकी निशानियों में से यह है कि वह हवाएँ भेजता है बशारत देने के लिए और तुम्हें अपनी रहमत से बहरामन्द करने के लिए और इस ग़रज़ के लिए कि कश्तियाँ उसके हुक्म से चलें और तुम उसका फ़ज़्ल तलाश करो और उसके शुक्रगुज़ार बनो।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ رُسُلًا إِلَىٰ قَوۡمِهِمۡ فَجَآءُوهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَٱنتَقَمۡنَا مِنَ ٱلَّذِينَ أَجۡرَمُواْۖ وَكَانَ حَقًّا عَلَيۡنَا نَصۡرُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 39
(47) और हमने तुमसे पहले रसूलों को उनकी क़ौम की तरफ़ भेजा और वे उनके पास रौशन निशानियाँ लेकर आए, फिर जिन्होंने जुर्म किया उनसे हमने इन्तिक़ाम लिया, और हमपर यह हक़ था कि हम मोमिनों की मदद करें।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ فَتُثِيرُ سَحَابٗا فَيَبۡسُطُهُۥ فِي ٱلسَّمَآءِ كَيۡفَ يَشَآءُ وَيَجۡعَلُهُۥ كِسَفٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦۖ فَإِذَآ أَصَابَ بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ إِذَا هُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 40
(48) अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है और वे बादल उठाती हैं, फिर वह उन बादलों को आसमान में फैलाता है जिस तरह चाहता है और उन्हें टुकड़ियों में बाँटता है, फिर तू देखता है कि बारिश के क़तरे बादल में से टपके चले आते हैं। यह बारिश जब वह अपने बन्दों में से जिनपर चाहता है बरसाता है, तो यकायक वे ख़ुश हो जाते हैं।
وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلِ أَن يُنَزَّلَ عَلَيۡهِم مِّن قَبۡلِهِۦ لَمُبۡلِسِينَ ۝ 41
(49) हालाँकि उसके नुज़ूल से पहले वे मायूस हो रहे थे।
فَٱنظُرۡ إِلَىٰٓ ءَاثَٰرِ رَحۡمَتِ ٱللَّهِ كَيۡفَ يُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ ذَٰلِكَ لَمُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 42
(50) देखो अल्लाह की रहमत के असरात कि मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को वह किस तरह जिला उठाता है, यक़ीनन वह मुर्दों को ज़िन्दगी बख़्शनेवाला है और वह हर चीज़ पर क़ादिर है।
وَلَئِنۡ أَرۡسَلۡنَا رِيحٗا فَرَأَوۡهُ مُصۡفَرّٗا لَّظَلُّواْ مِنۢ بَعۡدِهِۦ يَكۡفُرُونَ ۝ 43
(51) और अगर हम एक ऐसी हवा भेज दें जिसके असर से वे अपनी खेती को ज़र्द पाएँ तो वे कुफ़्र करते रह जाते हैं।12
12. यानी फिर वे ख़ुदा को कोसने लगते हैं और उसपर इलज़ाम रखने लगते हैं कि उसने कैसी मुसीबतें हमपर डाल रखी हैं। हालाँकि जब ख़ुदा ने उनपर नेमत की बारिश की थी उस वक़्त उन्होंने शुक्र के बजाय उसकी नाक़द्री की थी।
فَإِنَّكَ لَا تُسۡمِعُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَلَا تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا وَلَّوۡاْ مُدۡبِرِينَ ۝ 44
(52) (ऐ नबी) तुम मुर्दों को नहीं सुना सकते,13 न उन बहरों को अपनी पुकार सुना सकते हो जो पीठ फेरे चले जा रहे हों,
13. यानी उन लोगों को जिनके ज़मीर मर चुके है।
وَمَآ أَنتَ بِهَٰدِ ٱلۡعُمۡيِ عَن ضَلَٰلَتِهِمۡۖ إِن تُسۡمِعُ إِلَّا مَن يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا فَهُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 45
(53) और न तुम अन्धों को उनकी गुमराही से निकालकर राहे-रास्त दिखा सकते हो। तुम तो सिर्फ़ उन्हीं को सुना सकते हो, जो हमारी आयात पर ईमान लाते और फ़रमाँबरदारी में सिर झुका देते हैं।
۞ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن ضَعۡفٖ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ ضَعۡفٖ قُوَّةٗ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٖ ضَعۡفٗا وَشَيۡبَةٗۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡقَدِيرُ ۝ 46
(54) अल्लाह ही तो है जिसने ज़ोफ़ की हालत से तुम्हारी पैदाइश की इबतिदा की, फिर उस ज़ोफ़ के बाद तुम्हें क़ुव्वत बख़्शी, फिर उस क़ुव्वत के बाद तुम्हें ज़ईफ़ और बूढ़ा कर दिया। वह जो कुछ चाहता है पैदा करता है। और वह सब कुछ जाननेवाला, हर चीज़ पर क़ुदरत रखनेवाला है।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُقۡسِمُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ مَا لَبِثُواْ غَيۡرَ سَاعَةٖۚ كَذَٰلِكَ كَانُواْ يُؤۡفَكُونَ ۝ 47
(55) और जब वह साअत बरपा होगी14 तो मुजरिम क़समें खा-खाकर कहेंगे कि हम एक घड़ी भर से ज़्यादा नहीं ठहरे हैं, इसी तरह वे दुनिया की ज़िन्दगी में धोखा खाया करते थे।
14. यानी क़ियामत जिसके आने की ख़बर दी जा रही है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ وَٱلۡإِيمَٰنَ لَقَدۡ لَبِثۡتُمۡ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡبَعۡثِۖ فَهَٰذَا يَوۡمُ ٱلۡبَعۡثِ وَلَٰكِنَّكُمۡ كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 48
(56) मगर जो इल्म और ईमान से बहरामन्द किए गए थे वे कहेंगे कि ख़ुदा के नविश्ते में तो तुम रोज़े-हश्र तक पड़े रहे हो, सो यह वही रोज़े-हश्र है, लेकिन तुम जानते न थे।
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يَنفَعُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَعۡذِرَتُهُمۡ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ ۝ 49
(57) पस वह दिन होगा जिसमें ज़ालिमों को उनकी माज़िरत कोई नफ़ा न देगी और न उनसे माफ़ी माँगने के लिए कहा जाएगा।15
15. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है—“न उनसे यह चाहा जाएगा कि अपने रब को राज़ी करो।"
وَلَقَدۡ ضَرَبۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖۚ وَلَئِن جِئۡتَهُم بِـَٔايَةٖ لَّيَقُولَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا مُبۡطِلُونَ ۝ 50
(58) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया है। तुम ख़ाह कोई निशानी ले आओ, जिन लोगों ने मानने से इनकार कर दिया है वे यही कहेंगे कि तुम बातिल पर हो।
كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 51
(59) इस तरह ठप्पा लगा देता है अल्लाह उन लोगों के दिलों पर जो बेइल्म हैं।
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ وَلَا يَسۡتَخِفَّنَّكَ ٱلَّذِينَ لَا يُوقِنُونَ ۝ 52
(60) पस (ऐ नबी) सब्र करो, यक़ीनन अल्लाह का वादा सच्चा है, और हरगिज़ हलका न पाएँ तुमको वे लोग जो यक़ीन नहीं लाते।16
16. यानी दुश्मन तुमको ऐसा कमज़ोर न पाएँ कि उनके शोरो-ग़ोग़ा से तुम दब जाओ, या उनकी बोहतान व इफ़्तिरा-परदाज़ियों की मुहिम से तुम मरऊब हो जाओ, या उनकी फबतियों और तानों और तज़हीक व इस्तिहज़ा से तुम हिम्मत हार जाओ, या उनकी धमकियों और ताक़त के मुज़ाहरों या ज़ुल्मो-सितम से तुम डर जाओ, या उनके दिए हुए लालचों से तुम फिसल जाओ।
أَمۡ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٗا فَهُوَ يَتَكَلَّمُ بِمَا كَانُواْ بِهِۦ يُشۡرِكُونَ ۝ 53
(35) क्या हमने कोई सनद और दलील उनपर उतारी है जो शहादत देती हो उस शिर्क की सदाक़त पर जो ये कर रहे हैं?
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ فَرِحُواْ بِهَاۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ إِذَا هُمۡ يَقۡنَطُونَ ۝ 54
(36) जब हम लोगों को रहमत का ज़ायक़ा चखाते हैं तो वे उसपर फूल जाते हैं, और जब उनके अपने किए करतूतों से उनपर कोई मुसीबत आती है तो यकायक वे मायूस होने लगते हैं।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 55
(37) क्या ये लोग देखते नहीं हैं कि अल्लाह ही रिज़्क़ कुशादा करता है जिसका चाहता है और तंग करता है (जिसका चाहता है)! यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
فَـَٔاتِ ذَا ٱلۡقُرۡبَىٰ حَقَّهُۥ وَٱلۡمِسۡكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 56
(38) पस (ऐ मोमिन) रिश्तेदार को उसका हक़ दे और मिसकीन और मुसाफ़िर को (उसका हक़)।9 यह तरीक़ा बेहतर है उन लोगों के लिए जो अल्लाह की ख़ुशनूदी चाहते हों, और वही फ़लाह पानेवाले हैं।
9. यह नहीं फ़रमाया कि रिश्तेदार, मिस्कीन और मुसाफ़िर को ख़ैरात दे। इरशाद यह हुआ है कि यह उसका हक़ है जो तुझे देना चाहिए, और हक़ ही समझकर तू उसे दे।
وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن رِّبٗا لِّيَرۡبُوَاْ فِيٓ أَمۡوَٰلِ ٱلنَّاسِ فَلَا يَرۡبُواْ عِندَ ٱللَّهِۖ وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن زَكَوٰةٖ تُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُضۡعِفُونَ ۝ 57
(39) जो सूद तुम देते हो ताकि लोगों के अमवाल में शामिल होकर वह बढ़ जाए, अल्लाह के नज़दीक वह नहीं बढ़ता,10 और जो ज़कात तुम अल्लाह की ख़ुशनूदी हासिल करने के इरादे से देते हो, उसी के देनेवाले हक़ीक़त में अपने माल बढ़ाते हैं।
10. क़ुरआन मजीद में यह पहली आयत है जो सूद की मज़म्मत में नाज़िल हुई। बाद के अहकाम के लिए मुलाहज़ा हो कुरआन की सूरा-3 आले-इमरान, आयत-130; सूरा-2 अल-बक़रा, आयात-275 से 281 तक।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ ثُمَّ رَزَقَكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡۖ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَفۡعَلُ مِن ذَٰلِكُم مِّن شَيۡءٖۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 58
(40) अल्लाह ही है जिसने तुमको पैदा किया, फिर तुम्हें रिज़्क़ दिया, फिर वह तुम्हें मौत देता है, फिर वह तुम्हें ज़िन्दा करेगा। क्या तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई ऐसा है जो इनमें से कोई काम भी करता हो? पाक है वह और बहुत बाला व बरतर है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
ظَهَرَ ٱلۡفَسَادُ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ بِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِي ٱلنَّاسِ لِيُذِيقَهُم بَعۡضَ ٱلَّذِي عَمِلُواْ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 59
(41) ख़ुश्की और तरी में फ़साद बरपा हो गया है लोगों के अपने हाथों की कमाई से11 ताकि मज़ा चखाए उनको उनके बाज़ आमाल का, शायद कि वे बाज़ आएँ।
11. यह इशारा उस जंग की तरफ़ है जो उस ज़माने में दुनिया की दो अज़ीम ताक़तों ईरान और रूस के दरमियान बरपा थी।