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سُورَةُ الوَاقِعَةِ

56. अल-वाक़िआ

(मक्का में उतरी, आयतें 96)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-वाक़िआ' (वह होनेवाली घटना) को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने सूरतों के उतरने का जो क्रम बयान किया है, उसमें वे कहते हैं कि पहले सूरा-20 ता-हा उतरी, फिर अल-वाक़िआ और उसके बाद सूरा-26 शुअरा [अल-इतक़ान लिस-सुयूती] । यही क्रम इक्रिमा ने भी बयान किया है, (बैहक़ी, दलाइलुन्नुबुव्वत)। इसकी पुष्टि उस क़िस्से से भी होती है जो हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने के बारे में इब्‍ने-हिशाम ने इब्‍ने-इस्हाक़ से उद्धृत किया है। उसमें यह उल्लेख हुआ है कि जब हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी बहन के घर में दाख़िल हुए तो सूरा-20 ता-हा पढ़ी जा रही थी और जब उन्होंने कहा था कि अच्छा, मुझे वह सहीफ़ा (लिखित पृष्ठ) दिखाओ जिसे तुमने छिपा लिया है तो बहन ने कहा, "आप अपने शिर्क के कारण नापाक हैं और इस सहीफ़े को सिर्फ़ पाक व्यक्ति ही हाथ लगा सकता है।" अतएव हज़रत उमर (रज़ि०) ने उठकर स्‍नान किया और फिर उस सहीफ़े को लेकर पढ़ा। इससे मालूम हुआ कि उस समय सूरा-56 अल-वाक़िआ उतर चुकी थी, क्योंकि इसी में आयत "इसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता" (आयत-79) आई है। और यह ऐतिहासिक तौर पर सिद्ध है कि हज़रत उमर (रज़ि०) हबशा की हिजरत के बाद सन् 05 नबवी में ईमान लाए हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय आख़िरत (परलोक), तौहीद (एकेश्वरवाद) और क़ुरआन के सम्बन्ध में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सन्देहों का खंडन है। सबसे अधिक जिस चीज़ को वे अविश्वसनीय ठहराते थे, वह [क़ियामत और आख़िरत थी। उनका कहना] यह था कि ये सब काल्पनिक बातें हैं जिनका वास्तविक लोक में घटित होना असम्भव है। इसके जवाब में कहा गया कि जब वह घटना घटित होगी तो उस समय कोई यह झूठ बोलनेवाला न होगा कि वह घटित नहीं हुई है, न किसी में यह शक्ति होगी कि उसे आते-आते रोक दे या घटना को असत्य कर दिखाए। उस समय निश्चित रूप से तमाम इंसान तीन वर्गों में बँट जाएँगे। एक आगेवाले, दूसरे आम नेक लोग, तीसरे वे लोग जो आख़िरत के इंकारी रहे और मरते दम तक कुफ़्र (इंकार), शिर्क और बड़े-बड़े गुनाहों पर जमे रहे। इन तीनों वर्गों के लोगों के साथ जो व्यवहार होगा उसे आयत 7 से 56 तक में सविस्तार बयान किया गया है। इसके बाद आयत 57 से 74 तक इस्लाम के उन दोनों बुनियादी अक़ीदों (आधारभूत अवधारणाओं) की सत्यता पर निरन्तर प्रमाण दिए गए हैं, जिनको मानने से विरोधी इंकार कर रहे थे अर्थात् तौहीद और आख़िरत। फिर आयत 75 से 82 तक क़ुरआन के सम्बन्ध में उनके सन्देहों का खंडन किया गया है और क़ुरआन की सत्यता पर दो संक्षिप्त वाक्यों में यह अतुल्य प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि इसपर कोई विचार करे तो इसमें ठीक वैसी ही सुदृढ़ व्यवस्था पाएगा, जैसी जगत् के तारों और नक्षत्रों की व्यवस्था सुदृढ़ है और यही इस बात का प्रमाण है कि इसका रचयिता वही है जिसने सृष्टि की यह व्यवस्था बनाई है। फिर इस्लाम-विरोधियों से कहा गया है कि यह किताब उस नियति-पत्र में अंकित है जो मख़लूक (सृष्ट प्राणियों) की पहुँच से परे है। तुम समझते हो कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) के पास शैतान लाते हैं, हालाँकि 'लौहे-महफूज़' (सुरक्षित पट्टिका) से मुहम्मद (सल्ल०) तक जिस माध्यम से यह पहुँचती है, उसमें पवित्र आत्मा फ़रिश्तों के सिवा किसी को तनिक भी हस्तक्षेप करने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं है। अंत में इंसान को बताया गया है कि तू अपनी स्वच्छन्दता के घमंड में कितना ही आधारभूत तथ्यों की ओर से अंधा हो जाए, मगर मौत का समय तेरी आँखें खोल देने के लिए पर्याप्त है। [तेरे रिश्ते-नातेदार] तेरी आँखों के सामने मरते हैं और तू देखता रह जाता है। अगर कोई सर्वोच्च सत्ता तेरे ऊपर शासन नहीं कर रही है और तेरा यह दंभ उचित है कि संसार में बस तू ही तू है, कोई ख़ुदा नहीं है, तो किसी मरनेवाले की निकलती हुई जान को पलटा क्यों नहीं लाता? जिस तरह तू इस मामले में बेबस है, उसी तरह ख़ुदा की पूछ-गच्छ और उसके इनाम और सज़ा को भी रोक देना तेरे बस में नहीं है। तू चाहे माने या न माने, मौत के बाद हर मरनेवाला अपना अंजाम देखकर रहेगा।

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سُورَةُ الوَاقِعَةِ
56. अल-वाक़िआ
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
إِذَا وَقَعَتِ ٱلۡوَاقِعَةُ
(1) जब वह होनेवाला वाक़िआ पेश आ जाएगा
لَيۡسَ لِوَقۡعَتِهَا كَاذِبَةٌ ۝ 1
(2) तो कोई उसके वुक़ूअ को झुठलानेवाला न होगा।
وَظِلّٖ مِّن يَحۡمُومٖ ۝ 2
(43) और खौलते हुए पानी और काले धुएँ के साए में होंगे
خَافِضَةٞ رَّافِعَةٌ ۝ 3
(3) वह तहो-बाला कर देनेवाली आफ़त होगी,
لَّا بَارِدٖ وَلَا كَرِيمٍ ۝ 4
(44) जो न ठण्डा होगा न आरामदेह।
إِذَا رُجَّتِ ٱلۡأَرۡضُ رَجّٗا ۝ 5
(4) ज़मीन उस वक़्त यकबारगी हिला डाली जाएगी1
1. यानी वह कोई मक़ामी ज़लज़ला न होगा, बल्कि पूरी ज़मीन बयक-वक़्त हिला डाली जाएगी।
إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَبۡلَ ذَٰلِكَ مُتۡرَفِينَ ۝ 6
(45) ये वे लोग होंगे जो इस अंजाम को पहुँचने से पहले ख़ुशहाल थे
وَبُسَّتِ ٱلۡجِبَالُ بَسّٗا ۝ 7
(5) और पहाड़ इस तरह रेज़ा-रेज़ा कर दिए जाएँगे
وَكَانُواْ يُصِرُّونَ عَلَى ٱلۡحِنثِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 8
(46) और गुनाहे-अज़ीम पर इसरार करते थे।
فَكَانَتۡ هَبَآءٗ مُّنۢبَثّٗا ۝ 9
(6) कि परागन्दा ग़ुबार बनकर रह जाएँगे।
وَكَانُواْ يَقُولُونَ أَئِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 10
(47) कहते थे, “क्या जब हम मरकर ख़ाक हो जाएँगे और हड्डियों का पिंजर रह जाएँगे तो फिर उठा खड़े किए जाएँगे?
وَأَنتُمۡ حِينَئِذٖ تَنظُرُونَ ۝ 11
(84) और तुम आँखों देख रहे होते हो कि वह मर रहा है,
وَكُنتُمۡ أَزۡوَٰجٗا ثَلَٰثَةٗ ۝ 12
(7) तुम लोग उस वक़्त तीन गरोहों में तक़सीम हो जाओगे
أَوَءَابَآؤُنَا ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 13
(48) और क्या हमारे बाप-दादा भी उठाए जाएँगे जो पहले गुज़र चुके हैं?”
وَنَحۡنُ أَقۡرَبُ إِلَيۡهِ مِنكُمۡ وَلَٰكِن لَّا تُبۡصِرُونَ ۝ 14
(85) उस वक़्त उसकी निकलती हुई जान को वापस क्यों नहीं ले आते?
فَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ ۝ 15
(8) दाएँ बाज़ूवाले, सो दाएँ बाज़ूवालों (की ख़ुशनसीबी) का क्या कहना!
قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَوَّلِينَ وَٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 16
(49) (ऐ नबी!) इन लोगों से कहो, “यक़ीनन अगले और पिछले सब
فَلَوۡلَآ إِن كُنتُمۡ غَيۡرَ مَدِينِينَ ۝ 17
(86) उस वक़्त तुम्हारी बनिस्बत हम उसके ज़्यादा क़रीब होते हैं
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ ۝ 18
(9) और बाएँ बाज़ूवाले, तो बाएँ बाज़ूवालों (की बदनसीबी) का क्या ठिकाना!
لَمَجۡمُوعُونَ إِلَىٰ مِيقَٰتِ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 19
(50) एक दिन ज़रूर जमा किए जानेवाले हैं जिसका वक़्त मुकर्रर किया जा चुका है।”
تَرۡجِعُونَهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 20
(87) मगर तुमको नज़र नहीं आते।
وَٱلسَّٰبِقُونَ ٱلسَّٰبِقُونَ ۝ 21
(10) और आगेवाले तो फिर आगेवाले ही हैं।
ثُمَّ إِنَّكُمۡ أَيُّهَا ٱلضَّآلُّونَ ٱلۡمُكَذِّبُونَ ۝ 22
(51) फिर ऐ गुमराहो और झुठलानेवालो!
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡمُقَرَّبُونَ ۝ 23
(11) वहीं तो मुक़र्रब लोग हैं।
فَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 24
(88) फिर वह मरनेवाला अगर मुक़र्रबीन में से हो
لَأٓكِلُونَ مِن شَجَرٖ مِّن زَقُّومٖ ۝ 25
(52) तुम ज़क़्क़ूम के दरख़्त की ग़िज़ा खानेवाले हो।
فَرَوۡحٞ وَرَيۡحَانٞ وَجَنَّتُ نَعِيمٖ ۝ 26
(89) तो उसके लिए राहत और उम्दा रिज़्क़ और नेमतभरी जन्नत है।
فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 27
(12) नेमत भरी जन्नतों में रहेंगे।
فَمَالِـُٔونَ مِنۡهَا ٱلۡبُطُونَ ۝ 28
(53) उसी से तुम पेट भरोगे
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 29
(90) और अगर वह असहाबे-यमीन में से हो
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 30
(13) अगलों में से बहुत होंगे
فَشَٰرِبُونَ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 31
(54) और ऊपर से खौलता हुआ पानी
فَسَلَٰمٞ لَّكَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 32
(91) तो उसका इस्तिक़बाल यूँ होता है कि सलाम है तुझे! तू असहाबुल-यमीन में से है,
وَقَلِيلٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 33
(14) और पिछलों में से कम।
فَشَٰرِبُونَ شُرۡبَ ٱلۡهِيمِ ۝ 34
(55) तैंस लगे हुए ऊँट की तरह पिओगे।
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 35
(92) और अगर वह झुठलानेवाले गुमराह लोगों में से हो
هَٰذَا نُزُلُهُمۡ يَوۡمَ ٱلدِّينِ ۝ 36
(56) यह है (इन बाएँ बाज़ूवालों) की ज़ियाफ़त का सामान रोज़े-ज़ज़ा में।
عَلَىٰ سُرُرٖ مَّوۡضُونَةٖ ۝ 37
(15) मुरस्सा तख़्तों पर
فَنُزُلٞ مِّنۡ حَمِيمٖ ۝ 38
(93) तो उसकी तवाज़ो के लिए खोलता हुआ पानी है
نَحۡنُ خَلَقۡنَٰكُمۡ فَلَوۡلَا تُصَدِّقُونَ ۝ 39
(57) हमने तुम्हें पैदा किया है फिर क्यों तसदीक़ नहीं करते?4
4. यानी इस बात की तसदीक़ कि हम ही तुम्हारे रब और माबूद हैं और हम तुम्हें दोबारा भी पैदा कर सकते हैं।
مُّتَّكِـِٔينَ عَلَيۡهَا مُتَقَٰبِلِينَ ۝ 40
(16) तकिए लगाए आमने-सामने बैठेंगे।
وَتَصۡلِيَةُ جَحِيمٍ ۝ 41
(94) और जहन्नम में झोंका जाना।
يَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ وِلۡدَٰنٞ مُّخَلَّدُونَ ۝ 42
(17) उनकी मजलिसों में अबदी लड़के2
2. इससे मुराद हैं ऐसे लड़के जो हमेशा लड़के ही रहेंगे, उनकी उम्र हमेशा एक ही हालत पर ठहरी रहेगी।
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تُمۡنُونَ ۝ 43
(58) कभी तुमने ग़ौर किया, यह नुत्फ़ा जो तुम डालते हो,
ءَأَنتُمۡ تَخۡلُقُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡخَٰلِقُونَ ۝ 44
(59) इससे बच्चा तुम बनाते हो या उसके बनानेवाले हम हैं?
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ حَقُّ ٱلۡيَقِينِ ۝ 45
(95) ये सब कुछ क़तई हक़ है,
بِأَكۡوَابٖ وَأَبَارِيقَ وَكَأۡسٖ مِّن مَّعِينٖ ۝ 46
(18) शराबे-चश्मा-ए-जारी से लबरेज़ प्याले और कंटर और साग़र लिए दौड़ते फिरते होंगे
نَحۡنُ قَدَّرۡنَا بَيۡنَكُمُ ٱلۡمَوۡتَ وَمَا نَحۡنُ بِمَسۡبُوقِينَ ۝ 47
(60) हमने तुम्हारे दरमियान मौत को तक़सीम किया है, और हम इससे आजिज़ नहीं हैं
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 48
(96) पस (ऐ नबी!) अपने रब्बे-अज़ीम के नाम की तसबीह करो।10
10. इसी हिदायत के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि रुकूअ में ‘सुबहा-न रब्बियल-अज़ीम’ कहा जाए।
لَّا يُصَدَّعُونَ عَنۡهَا وَلَا يُنزِفُونَ ۝ 49
(19) जिसे पीकर न उनका सिर चकराएगा न उनकी अक़्ल में फ़ुतूर आएगा।
عَلَىٰٓ أَن نُّبَدِّلَ أَمۡثَٰلَكُمۡ وَنُنشِئَكُمۡ فِي مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 50
(61) कि तुम्हारी शक्लें बदल दें और किसी ऐसी शक़्ल में तुम्हें पैदा कर दें जिसको तुम नहीं जानते।
وَفَٰكِهَةٖ مِّمَّا يَتَخَيَّرُونَ ۝ 51
(20) और वे उनके सामने तरह-तरह के लज़ीज़ फल पेश करेंगे कि जिसे चाहें चुन लें,
وَلَقَدۡ عَلِمۡتُمُ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُولَىٰ فَلَوۡلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 52
(62) अपनी पहली पैदाइश को तो तुम जानते ही हो, फिर क्यों सबक़ नहीं लेते?
وَلَحۡمِ طَيۡرٖ مِّمَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 53
(21) और परिन्दों के गोश्त पेश करेंगे कि जिस परिन्दे का चाहें इस्तेमाल करें।
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تَحۡرُثُونَ ۝ 54
(63) कभी तुमने सोचा, यह बीज जो तुम बोते हो,
وَحُورٌ عِينٞ ۝ 55
(22) और उनके लिए ख़ूबसूरत आँखोंवाली हूरें होंगी,
ءَأَنتُمۡ تَزۡرَعُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلزَّٰرِعُونَ ۝ 56
(64) इनसे खेतियाँ तुम उगाते हो या उनके उगानेवाले हम हैं?
كَأَمۡثَٰلِ ٱللُّؤۡلُوِٕ ٱلۡمَكۡنُونِ ۝ 57
(23) ऐसी हसीन जैसे छिपाकर रखे हुए मोती।
لَوۡ نَشَآءُ لَجَعَلۡنَٰهُ حُطَٰمٗا فَظَلۡتُمۡ تَفَكَّهُونَ ۝ 58
(65) हम चाहें तो इन खेतियों को भुस बनाकर रख दें और तुम तरह-तरह की बातें बनाते रह जाओ
جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 59
(24) वे सब कुछ उन आमाल की जज़ा के तौर पर उन्हें मिलेगा जो वे दुनिया में करते रहे थे।
إِنَّا لَمُغۡرَمُونَ ۝ 60
(66) कि हमपर तो उलटी चट्टी पड़ गई,
لَا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوٗا وَلَا تَأۡثِيمًا ۝ 61
(25) वहाँ वे कोई बेहूदा कलाम या गुनाह की बात न सुनेंगे।
بَلۡ نَحۡنُ مَحۡرُومُونَ ۝ 62
(67) बल्कि हमारे तो नसीब ही फूटे हुए हैं।
إِلَّا قِيلٗا سَلَٰمٗا سَلَٰمٗا ۝ 63
(26) जो बात भी होगी ठीक-ठीक होगी।
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلۡمَآءَ ٱلَّذِي تَشۡرَبُونَ ۝ 64
(68) कभी तुमने आँखें खोलकर देखा, यह पानी जो तुम पीते हो,
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ ۝ 65
(27) और दाएँ बाज़ूवाले, दाएँ बाज़ूवालों (की ख़ुशनसीबी) का क्या कहना!
ءَأَنتُمۡ أَنزَلۡتُمُوهُ مِنَ ٱلۡمُزۡنِ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنزِلُونَ ۝ 66
(69) इसे तुमने बादल से बरसाया है या इसके बरसानेवाले हम है?
فِي سِدۡرٖ مَّخۡضُودٖ ۝ 67
(28) वह बे-ख़ार बेरियों,3
3. यानी ऐसी बेरियाँ जिनके दरख़्तों में काँटे न होंगे। बेर जितने आला दरजे के होते हैं, उनके दरख़्तों में काँटे उतने ही कम होते हैं। इसी लिए जन्नत के बेरों की वह तारीफ़ बयान की गई है कि उनके दरख़्त बिलकुल ही काँटों से ख़ाली होंगे, यानी ऐसी बेहतरीन क़िस्म के होंगे जो दुनिया में नहीं पाई जाती।
لَوۡ نَشَآءُ جَعَلۡنَٰهُ أُجَاجٗا فَلَوۡلَا تَشۡكُرُونَ ۝ 68
(70) हम चाहें तो इसे सख़्त खारी बनाकर रख दें, फिर क्यों तुम शुक्रगुज़ार नहीं होते?
وَطَلۡحٖ مَّنضُودٖ ۝ 69
(29) और ऊपर-तले चढ़े हुए केलों
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلنَّارَ ٱلَّتِي تُورُونَ ۝ 70
(71) कभी तुमने ख़याल किया, यह आग जो तुम सुलगाते हो,
ءَأَنتُمۡ أَنشَأۡتُمۡ شَجَرَتَهَآ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنشِـُٔونَ ۝ 71
(72) इसका दरख़्त तुमने पैदा किया है, या उसके पैदा करनेवाले हम हैं?5
5. यानी जिन दरख़्तों की लकड़ियों से तुम आग जलाते हो उनको तुमने पैदा किया है या हमने?
نَحۡنُ جَعَلۡنَٰهَا تَذۡكِرَةٗ وَمَتَٰعٗا لِّلۡمُقۡوِينَ ۝ 72
(73) हमने उसको याददिहानी का ज़रिआ और हाजतमंदों के लिए सामाने-ज़ीस्त बनाया है।
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 73
(74) पस (ऐ नबी!) अपने रब्बे-अज़ीम के नाम की तसबीह करो।6
6. यानी उसका मुबारक नाम लेकर यह इज़हार व एलान करो कि वह उन तमाम उयूब व नक़ाइस और कमज़ोरियों से पाक है जो कुफ़्फ़ारो-मुशरिकीन उसकी तरफ़ मंसूब करते हैं और जो कुफ़्र व शिर्क के हर अक़ीदे और मुनकिरीने-आख़िरत के हर इस्तिदलाल में मुज़मर है।
۞فَلَآ أُقۡسِمُ بِمَوَٰقِعِ ٱلنُّجُومِ ۝ 74
(75) पस नहीं,7 मैं क़सम खाता हूँ तारों के मवाक़े की!
7. यानी बात वह नहीं है जो तुम समझे बैठे हो। यहाँ क़ुरआन के मिनजानिबिल्लाह होने पर क़सम खाने से पहले लफ़्ज़ ‘ला’ का इस्तेमाल ख़ुद यह ज़ाहिर कर रहा है कि लोग इस किताबे-पाक के मुताल्लिक़ कुछ बातें बना रहे थे जिनकी तरदीद करने के लिए यह क़सम खाई जा रही है।
وَإِنَّهُۥ لَقَسَمٞ لَّوۡ تَعۡلَمُونَ عَظِيمٌ ۝ 75
(76) और अगर तुम समझो तो यह बहुत बड़ी क़सम है,
إِنَّهُۥ لَقُرۡءَانٞ كَرِيمٞ ۝ 76
(77) कि यह एक बलन्द पाया क़ुरआन है,8
8. ‘तारों और सैयारों के मवाक़े’ से मुराद उनके मक़ामात, उनकी मंजिलें और उनके मदार हैं। और क़ुरआन के बुलन्द पाया क़िताब होने पर उनकी क़सम खाने का मतलब यह है कि आलमे-बाला में अजरामे-फ़लकी का निज़ाम जैसा मुहकम और मज़बूत है वैसा ही मज़बूत और मुहकम यह कलाम भी है। जिस अल्लाह ने वह निज़ाम बनाया है उसी अल्लाह ने यह कलाम भी नाज़िल किया है।
فِي كِتَٰبٖ مَّكۡنُونٖ ۝ 77
(78) एक महफ़ूज़ किताब में सब्त,
لَّا يَمَسُّهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُطَهَّرُونَ ۝ 78
(79) जिसे मुतह्हरीन के सिवा कोई छू नहीं सकता।9
9. यानी यह पाक फ़रिश्तों के ज़रिए से आया है। शयातीन का इसमें कोई दख़्ल नहीं है।
وَظِلّٖ مَّمۡدُودٖ ۝ 79
(30) और दूर तक फैली हुई छाँव
تَنزِيلٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 80
(80) रब्बुल-आलमीन का नाज़िल-करदा है।
وَمَآءٖ مَّسۡكُوبٖ ۝ 81
(31) और हरदम रवाँ पानी,
أَفَبِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَنتُم مُّدۡهِنُونَ ۝ 82
(81) फिर क्या इस कलाम के साथ तुम बेएतिनाई बरतते हो,
وَفَٰكِهَةٖ كَثِيرَةٖ ۝ 83
(32) और कभी ख़त्म न होनेवाले
وَتَجۡعَلُونَ رِزۡقَكُمۡ أَنَّكُمۡ تُكَذِّبُونَ ۝ 84
(82) और इस नेमत में अपना हिस्सा तुमने यह रखा है कि इसे झुठलाते हो?
لَّا مَقۡطُوعَةٖ وَلَا مَمۡنُوعَةٖ ۝ 85
(33) और बेरोक-टोक मिलनेवाले बकसरत फलों
فَلَوۡلَآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلۡحُلۡقُومَ ۝ 86
(83) अब अगर तुम किसी के महकूम नहीं हो और अपने इस ख़याल में सच्चे हो, तो जब मरनेवाले की जान हल्क़ तक पहुँच चुकी होती है
وَفُرُشٖ مَّرۡفُوعَةٍ ۝ 87
(34) और ऊँची नशिस्तगाहों में होंगे।
إِنَّآ أَنشَأۡنَٰهُنَّ إِنشَآءٗ ۝ 88
(35) उनकी बीवियों को हम ख़ास तौर पर नए सिरे से पैदा करेंगे
فَجَعَلۡنَٰهُنَّ أَبۡكَارًا ۝ 89
(36) और उन्हें बाकिरा बना देंगे,
عُرُبًا أَتۡرَابٗا ۝ 90
(37) अपनेशौहरों की आशिक़ और उम्र में हमसिन।
لِّأَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 91
(38) ये कुछ दाएँ बाज़ूवालों के लिए है।
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 92
(39) वे अगलों में से भी बहुत-बहुत होंगे
وَثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 93
(40) और पिछलों में से भी बहुत।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ ۝ 94
(41) और बाएँ बाज़ूवाले, बाएँ बाज़ूवालों (की बदनसीबी) का क्या पूछना
فِي سَمُومٖ وَحَمِيمٖ ۝ 95
(42) वे लू की लपट