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سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ

60. अल-मुम्तहिना

(मदीना में उतरी, आयतें 13)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 10 में आदेश दिया गया है कि ‘जो औरतें हिजरत करके आएँ और मुसलमान होने का दावा करें उनकी परीक्षा ली जाए।’ इसी संदर्भ में इसका नाम 'अल-मुस्तहिना' रखा गया है। इसका उच्चारण मुम्तहना भी किया जाता है और मुम्तहिना भी। पहले उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "वह औरत जिसकी परीक्षा ली जाए" और दूसरे उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "परीक्षा लेनेवाली सूरा।"

उतरने का समय

इसमें दो ऐसे मामलों पर वार्ता की गई है जिनका समय ऐतिहासिक रूप से मालूम है। पहला मामला हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तअह (रज़ि०) का है और दूसरा मामला उन मुसलमान औरतों का है जो हुदैबिया के समझौते के बाद मक्का से हिजरत करके मदीना आने लगी थीं। इन दो मामलों के उल्लेख से [जिनका विस्तृत विवरण आगे आ रहा है] यह बात बिलकुल निश्चित हो जाती है कि यह सूरा हुदैबिया के समझौते और मक्का-विजय के मध्य उतरी है।

विषय और वार्ता

इस सूरा के तीन भाग हैं : पहला भाग सूरा के आरंभ से आयत 9 तक चलता है और सूरा के अन्त पर आयत 13 भी इसी से ताल्लुक रखती है। इसमें हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ (रज़ि०) के इस कर्म पर कड़ी पकड़ की गई है कि उन्होंने केवल अपने परिवार के लोगों को बचाने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के एक अति महत्त्वपूर्ण युद्ध-सम्बन्धी रहस्य से शत्रुओं को अवगत कराने की कोशिश की थी, जिसे अगर समय रहते विफल नहीं कर दिया गया होता तो मक्का-विजय के अवसर पर बड़ा ख़ून-ख़राबा होता और वे तमाम फ़ायदे भी हासिल न हो सकते जो मक्का पर शान्तिमय ढंग से विजय प्राप्त करने के रूप में प्राप्त हो सकते थे। [हज़रत हातिब (रज़ि०) की] इस भयानक ग़लती पर सचेत करते हुए अल्लाह ने तमाम ईमानवालों को यह शिक्षा दी है कि किसी ईमानवाले को किसी हाल में और किसी उद्देश्य के लिए भी इस्लाम के दुश्मन के साथ प्रेम और मित्रता का सम्बन्ध न रखना चाहिए और कोई ऐसा काम न करना चाहिए जो कुफ़्र और इस्लाम के संघर्ष में शत्रुओं के लिए लाभप्रद हो। अलबत्ता जो काफ़िर इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध व्यावहारिक रूप से शत्रुता और पीड़ा पहुँचाने का काम न कर रहे हों, उनके साथ सद्व्यवहार की नीति अपनाने में कोई दोष नहीं है। दूसरा भाग आयत 10-11 पर आधारित है। इसमें एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या का समाधान किया गया है जो उस समय बड़ी पेचीदगी पैदा कर रही थी। मक्का में बहुत-सी मुसलमान औरतें ऐसी थीं, जिनके पति अधर्मी थे और वे किसी न किसी प्रकार हिजरत करके मदीना पहुँच जाती थीं। इसी तरह मदीना में बहुत-से मुसलमान मर्द ऐसे थे जिनकी पत्‍नियाँ अधर्मी थीं और वे मक्का ही में रह गई थीं। उनके बारे में यह प्रश्न पैदा होता था कि उनके बीच दाम्पत्य सम्बन्ध बाक़ी है या नहीं। अल्लाह ने इसका हमेशा के लिए यह निर्णय कर दिया कि मुसलमान औरत के लिए अधर्मी पति हलाल (वैध) नहीं है और मुसलमान मर्द के लिए यह वैध नहीं कि वह मुशरिक (बहुदाववादी) पत्‍नी के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध बनाए रखे। तीसरा भाग आयत 12 पर आधारित है, जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि जो औरतें इस्लाम अपना लें, उनसे आप बड़ी-बड़ी बुराइयों से बचने का और भलाई के तमाम तरीक़ों के अनुसरण का [वचन लें।]

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سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ
60. अल-मुम्तहिना
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمۡ أَوۡلِيَآءَ تُلۡقُونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَقَدۡ كَفَرُواْ بِمَا جَآءَكُم مِّنَ ٱلۡحَقِّ يُخۡرِجُونَ ٱلرَّسُولَ وَإِيَّاكُمۡ أَن تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ رَبِّكُمۡ إِن كُنتُمۡ خَرَجۡتُمۡ جِهَٰدٗا فِي سَبِيلِي وَٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِيۚ تُسِرُّونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَأَنَا۠ أَعۡلَمُ بِمَآ أَخۡفَيۡتُمۡ وَمَآ أَعۡلَنتُمۡۚ وَمَن يَفۡعَلۡهُ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 1
ऐ ईमान लानेवालो! यदि तुम मेरे मार्ग में जिहाद के लिए और मेरी प्रसन्‍नता की तलाश में निकले हो तो मेरे शत्रुओं और अपने शत्रुओं को मित्र न बनाओ कि उनके प्रति प्रेम दिखाओ, जबकि तुम्हारे पास जो सत्य आया है उसका वे इनकार कर चुके हैं। वे रसूल को और तुम्हें इसलिए निर्वासित करते हैं कि तुम अपने रब — अल्लाह पर ईमान लाए हो। तुम गुप्त रूप से उनसे मित्रता की बातें करते हो, हालाँकि मैं भली-भाँति जानता हूँ जो कुछ तुम छिपाते हो और व्यक्त करते हो। और जो कोई भी तुममें से ऐसा करेगा वह संमार्ग से भटक गया।॥1॥
إِن يَثۡقَفُوكُمۡ يَكُونُواْ لَكُمۡ أَعۡدَآءٗ وَيَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ وَأَلۡسِنَتَهُم بِٱلسُّوٓءِ وَوَدُّواْ لَوۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 2
यदि वे तुम्हें पा जाएँ तो तुम्हारे शत्रु हो जाएँ और कष्ट पहुँचाने के लिए तुमपर हाथ और ज़बान चलाएँ। वे तो चाहते हैं कि काश! तुम भी इनकार करनेवाले हो जाओ।॥2॥
لَن تَنفَعَكُمۡ أَرۡحَامُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُمۡۚ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَفۡصِلُ بَيۡنَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 3
क़ियामत के दिन तुम्हारी नातेदारियाँ कदापि तुम्हें लाभ न पहुँचाएँगी और न तुम्हारी सन्तान ही। उस दिन वह (अल्लाह) तुम्हारे बीच जुदाई डाल देगा। जो कुछ भी तुम करते हो, अल्लाह उसे देख रहा होता है।॥3॥
قَدۡ كَانَتۡ لَكُمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ إِذۡ قَالُواْ لِقَوۡمِهِمۡ إِنَّا بُرَءَٰٓؤُاْ مِنكُمۡ وَمِمَّا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ كَفَرۡنَا بِكُمۡ وَبَدَا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةُ وَٱلۡبَغۡضَآءُ أَبَدًا حَتَّىٰ تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَحۡدَهُۥٓ إِلَّا قَوۡلَ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ لَأَسۡتَغۡفِرَنَّ لَكَ وَمَآ أَمۡلِكُ لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۖ رَّبَّنَا عَلَيۡكَ تَوَكَّلۡنَا وَإِلَيۡكَ أَنَبۡنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 4
तुम लोगों के लिए इबराहीम में और उन लोगों में जो उसके साथ थे अच्छा आदर्श है, जबकि उन्होंने अपनी क़ौम के लोगों से कह दिया कि "हम तुमसे और अल्लाह से हटकर जिन्हें तुम पूजते हो उनसे विरक्‍त हैं। हमने तुम्हारा इनकार किया और हमारे और तुम्हारे बीच सदैव के लिए वैर और विद्वेष प्रकट हो चुका, जब तक अकेले अल्लाह पर तुम ईमान न लाओ।" इबराहीम का अपने बाप से यह कहना अपवाद है कि "मैं आपके लिए क्षमा की प्रार्थना अवश्य करूँगा, यद्यपि अल्लाह के मुक़ाबले में आपके लिए मैं किसी चीज़ पर अधिकार नहीं रखता।" "ऐ हमारे रब! हमने तुझी पर भरोसा किया और तेरी ही ओर रुजू हुए और तेरी ही ओर अन्त में लौटना है। — ॥4॥
رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ وَٱغۡفِرۡ لَنَا رَبَّنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 5
"ऐ हमारे रब! हमें इनकार करनेवालों के लिए फ़ितना न बना, और ऐ हमारे रब! हमें क्षमा कर दे। निश्‍चय ही तू प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।"॥5॥
لَقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِيهِمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَۚ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 6
निश्‍चय ही तुम्हारे लिए उनमें अच्छा आदर्श है और हर उस व्यक्ति के लिए जो अल्लाह और अंतिम दिन की आशा रखता हो। और जो कोई मुँह फेरे तो अल्लाह तो निस्पृह, अपने आप में स्वयं प्रशंसित है।॥6॥
۞عَسَى ٱللَّهُ أَن يَجۡعَلَ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَ ٱلَّذِينَ عَادَيۡتُم مِّنۡهُم مَّوَدَّةٗۚ وَٱللَّهُ قَدِيرٞۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 7
आशा है कि अल्लाह तुम्हारे और उनके बीच, जिनसे तुमने शत्रुता मोल ली है, प्रेम-भाव उत्पन्‍न कर दे। अल्लाह बड़ी सामर्थ्य रखता है और अल्लाह बहुत क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है।॥7॥
لَّا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَلَمۡ يُخۡرِجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ أَن تَبَرُّوهُمۡ وَتُقۡسِطُوٓاْ إِلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 8
अल्लाह तुम्हें इससे उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करने और उनके साथ न्याय करने से नहीं रोकता जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निस्सन्देह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है।॥8॥
إِنَّمَا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ قَٰتَلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَأَخۡرَجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ وَظَٰهَرُواْ عَلَىٰٓ إِخۡرَاجِكُمۡ أَن تَوَلَّوۡهُمۡۚ وَمَن يَتَوَلَّهُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 9
अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मेत्री सम्‍बन्‍ध स्‍थापित करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्‍हें बहिष्‍कृत करने के सिलसिले में दूसरो को उभारा और उनकी सहायता की। जो लोग उनसे मित्रता करें, वही ज़ालिम हैं।॥9॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا جَآءَكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ مُهَٰجِرَٰتٖ فَٱمۡتَحِنُوهُنَّۖ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِهِنَّۖ فَإِنۡ عَلِمۡتُمُوهُنَّ مُؤۡمِنَٰتٖ فَلَا تَرۡجِعُوهُنَّ إِلَى ٱلۡكُفَّارِۖ لَا هُنَّ حِلّٞ لَّهُمۡ وَلَا هُمۡ يَحِلُّونَ لَهُنَّۖ وَءَاتُوهُم مَّآ أَنفَقُواْۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ أَن تَنكِحُوهُنَّ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّۚ وَلَا تُمۡسِكُواْ بِعِصَمِ ٱلۡكَوَافِرِ وَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقۡتُمۡ وَلۡيَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقُواْۚ ذَٰلِكُمۡ حُكۡمُ ٱللَّهِ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡۖ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 10
ऐ ईमान लानेवालो! जब तुम्हारे पास ईमान की दावेदार स्त्रियाँ हिजरत करके आएँ तो तुम उन्हें जाँच लिया करो। यूँ तो अल्लाह उनके ईमान से भली-भाँति परिचित है, फिर यदि वे तुम्हें ईमानवाली मालूम हों तो उन्हें इनकार करनेवालों (विर्धर्मियों) की ओर न लौटाओ। न तो वे स्त्रियाँ उनके लिए वैद्य है और न वे उन स्त्रियों के लिए वैद्य है। और जो कुछ उन्होंने ख़र्च किया हो तुम उन्हें दे दो1 और इसमें तुम्हारे लिए कोई गुनाह नहीं कि तुम उनसे विवाह कर लो, जबकि तुम उन्हें मह्र अदा कर दो। और तुम स्वयं भी इनकार करनेवाली स्त्रियों के सतीत्व को अपने अधिकार में न रखो।2 और जो कुछ तुमने ख़र्च किया हो माँग लो और उन्हें भी चाहिए कि जो कुछ उन्होंने ख़र्च किया हो माँग लें। यह अल्लाह का आदेश है। वह तुम्हारे बीच फ़ैसला करता है। अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वदर्शी है।॥10॥ —————————— 1. अर्थात् उन स्त्रियों पर उनके अधर्मी पतियों ने जो ख़र्च किया हो तुम उन्हें लौटा दो। 2. अर्थात् उन्हें अपने विवाह-संबंध में रखो।
وَإِن فَاتَكُمۡ شَيۡءٞ مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُمۡ إِلَى ٱلۡكُفَّارِ فَعَاقَبۡتُمۡ فَـَٔاتُواْ ٱلَّذِينَ ذَهَبَتۡ أَزۡوَٰجُهُم مِّثۡلَ مَآ أَنفَقُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 11
और यदि तुम्हारी पत्नियों (के मह्‌रों ) में से कुछ तुम्हारे हाथ से निकल जाए और इनकार करनेवालों (विधर्मियों) की ओर रह जाए, फिर तुम्हारी नौबत आए,3 तो जिन लोगों की पत्‍नियाँ चली गई हैं, उन्हें जितना उन्होंने ख़र्च किया हो दे दो। और अल्लाह का डर रखो, जिसपर तुम ईमान रखते हो।॥11॥ ———————— 3. अर्थात् जब हमले के परिणाम स्वरूप तुम्हें उनपर प्रभुत्व प्राप्त हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ يُبَايِعۡنَكَ عَلَىٰٓ أَن لَّا يُشۡرِكۡنَ بِٱللَّهِ شَيۡـٔٗا وَلَا يَسۡرِقۡنَ وَلَا يَزۡنِينَ وَلَا يَقۡتُلۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ وَلَا يَأۡتِينَ بِبُهۡتَٰنٖ يَفۡتَرِينَهُۥ بَيۡنَ أَيۡدِيهِنَّ وَأَرۡجُلِهِنَّ وَلَا يَعۡصِينَكَ فِي مَعۡرُوفٖ فَبَايِعۡهُنَّ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُنَّ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 12
ऐ नबी! जब तुम्हारे पास ईमानवाली स्त्रियाँ आकर तुमसे इसपर 'बैअत' करें कि वे अल्लाह के साथ किसी चीज़ को साझी नहीं ठहराएँगी और न चोरी करेंगी और न व्यभिचार करेंगी और न अपनी औलाद को क़त्‍ल करेंगी और न अपने हाथों और पैरों के बीच कोई आरोप गढ़कर लाएँगी। और न किसी भले काम में तुम्हारी अवज्ञा करेंगी, तो उनसे 'बैअत' ले लो और उनके लिए अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करो। निश्‍यय ही अल्‍लाह बहुत क्षमाशील, अत्यन्त दयावान है।॥12॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَوَلَّوۡاْ قَوۡمًا غَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ قَدۡ يَئِسُواْ مِنَ ٱلۡأٓخِرَةِ كَمَا يَئِسَ ٱلۡكُفَّارُ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡقُبُورِ ۝ 13
ऐ ईमान लानेवालो! ऐसे लोगों से मित्रता न करो जिनपर अल्लाह का प्रकोप हुआ, वे आख़िरत से निराश हो चुके हैं, जिस प्रकार इनकार करनेवाले क़ब्रवालों से निराश हो चुके हैं।॥13॥