Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ الحَشۡرِ

59. अल-हश्र

(मक्का में उतरी, आयतें 24)

परिचय

नाम

दूसरी आयत के वाक्यांश 'अख़-र-जल्लज़ी-न क-फ़-रू मिन अहलिल किताबि मिन दियारिहिम लिअव्वलिल हश्र' अर्थात् 'अहले-किताब काफ़िरों को पहले ही हल्ले (हश्र) में उनके घरों से निकाल बाहर किया' से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अल- हश्र' शब्द आया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) [फ़रमाते हैं कि सूरा हश्र] बनी-नज़ीर के अभियान के बारे में उतरी थी जिस तरह सूरा-8 (अन्‌फ़ाल) बद्र के युद्ध के विषय में उतरी थी। [(हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) विश्वस्त उल्लेखों के अनुसार इस अभियान का समय रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० है।]

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इस सूरा की वार्ताओं को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि मदीना तय्यिबा और हिजाज़ के यहूदियों के इतिहास पर एक दृष्टि डाली जाए, क्योंकि इसके बिना आदमी ठीक-ठीक यह नहीं जान सकता कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अन्ततः उनके विभिन्न क़बीलों के साथ जो मामला किया, उसके वास्तविक कारण क्या थे। [यह इतिहास पहली सदी ईसवी के अन्त से शुरू होता है,] जब सन् 70 ई० में रूमियों (रोमवासियों) ने फ़िलस्तीन में यहूदियों का क़त्ले-आम किया और फिर सन् 132 ई० में उन्हें इस भू-भाग से बिल्कुल निकाल बाहर किया। उस समय बहुत-से यहूदी क़बीलों ने भागकर हिजाज़ में शरण ली थी, क्योंकि यह क्षेत्र फ़िलस्तीन के दक्षिण से बिल्कुल मिला हुआ था। यहाँ आकर उन्होंने जहाँ-जहाँ पानी के स्रोत और हरे-भरे स्थान देखे, वहाँ ठहर गए और फिर धीरे-धीरे अपने जोड़-तोड़ और सूदी (ब्याज के) कारोबारों के ज़रिए उनपर क़ब्ज़ा जमा लिया। ऐला, मक़ना, तबूक, तैमा, वादिउल-क़ुरा, फ़दक और ख़ैबर पर उनका क़ब्ज़ा उसी समय में क़ायम हुआ और बनी-क़ुरैज़ा, बनी-नज़ीर, बनी-बहदल और बनी-कैनुक़ाअ ने भी उसी समय आकर यसरिब (मदीना का पुराना नाम) पर क़ब्ज़ी जमाया। यसरिब में आबाद होनेवाले क़बीलों में से बनी-नज़ीर और बनी-क़ुरेज़ा अधिक प्रसिद्ध और प्रभुत्वशाली थे, क्योंकि उनका सम्बन्ध काहिनों के वर्ग से था। उन्हें यहदियों में उच्च वंश का माना जाता था और उनको अपने संप्रदाय में धार्मिक नेतृत्व प्राप्त था। ये लोग जब मदीना में आकर आबाद हुए उस समय कुछ दूसरे अरब क़बीले यहाँ रहते थे, जिनको उन्होंने दबा लिया और व्यावहारिक रूप से इस हरी-भरी जगह के मालिक बन बैठे। इसके लगभग तीन शताब्दी के बाद औस और ख़ज़रज यसरिब में जाकर आबाद हुए [और उन्होंने कुछ दिनों बाद यहूदियों का ज़ोर तोड़कर यसरिब पर पूरा आधिपत्य प्राप्त कर लिया।] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने से पहले, हिजरत के आरंभ तक, हिजाज़ में सामान्य रूप से और यसरिब में विशेष रूप से यहूदियों की स्थिति की स्पष्ट रूप-रेखाएँ ये थीं—

भाषा, पहनावा, संस्कृति एवं सभ्यता, हर दृष्टि से उन्होंने पूरी तरह से अरब-संस्कृति का रंग अपना लिया था। उनके और अरबों के बीच शादी-ब्याह तक के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, लेकिन इन सारी बातों के बावजूद वे अरबों में समाहित बिल्कुल न हुए थे और उन्होंने कठोरतापूर्वक अपने यहूदी पक्षपात को जीवित रखा था। उनमें अत्यन्त इसराईली पक्षपात और वंशगत गर्व और अहंकार पाया जाता था। अरबवालों को वे उम्मी (Gentiles) कहते थे जिसका अर्थ केवल अपढ़ ही नहीं बल्कि असभ्य और उज्जड होता था। उनकी धारणा यह थी कि इन 'उम्मियों' को वे मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इसराईलियों के लिए हैं और उनका माल हर वैध या अवैध तरीक़े से मार खाना इसराईलियों के लिए वैध और विशुद्ध है। आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति अरब क़बीलों की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ थी। वे बहुत-सी ऐसी कलाएँ जानते थे जो अरबों में नहीं पाई जाती थीं और बाहर की दुनिया से उनके व्यावसायिक संबंध भी थे। वे अपने व्यापार में ख़ूब लाभ बटोरते थे, लेकिन उनका सबसे बड़ा कारोबार ब्याज लेने का था, जिसके जाल में उन्होंने अपने आसपास की अरब आबादियों को फाँस रखा था। मगर इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी था कि अरबों में सामान्य रूप से उनके विरुद्ध एक गहरी घृणा पाई जाती थी। उनके व्यापारिक और आर्थिक हितों की अपेक्षा यह थी कि अरबों में किसी के मित्र बनकर किसी से न बिगाड़ें और न उनकी आपसी लड़ाइयों में भाग लें। इसके अलावा अपनी रक्षा के लिए उनके हर क़बीले ने किसी न किसी शक्तिशाली अरब क़बीले से प्रतिज्ञाबद्ध मैत्रीपूर्ण संबंध भी स्थापित [कर रखे थे।] यसरिब में बनी-क़ुरैज़ा और बनी-नज़ीर औस के प्रतिज्ञाबद्ध मित्र थे और बनी-क़ैनुक़ाअ ख़ज़रज के। ये परिस्थितियाँ थीं जब मदीना में इस्लाम पहुँचा और अन्ततः अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने के बाद वहाँ एक इस्लामी राज्य अस्तित्व में आया। आप (सल्ल०) ने इस राज्य को स्थापित करते ही सबसे पहले जो काम किए उनमें से एक यह था कि औस और ख़ज़रज और मुहाजिरों को मिलाकर एक बिरादरी बनाई, और दूसरा यह था कि इस मुस्लिम समाज और यहूदियों के मध्य स्पष्ट शर्तों पर एक समझौता तय किया, जिसमें इस बात की ज़मानत दी गई थी कि कोई किसी के अधिकारों पर हाथ न डालेगा और बाहरी शत्रुओं के मुक़ाबले में ये सब मिलकर बचाव करेंगे। इस समझौते के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश ये हैं—

''.....यह कि यहूदी अपना ख़र्च उठाएँगे और मुसलमान अपना ख़र्च, और यह कि इस समझौते में शरीक लोग हमलावर के मुक़ाबले में एक-दूसरे की मदद करने के पाबन्द होंगे, और यह कि वे शुद्ध हृदयता के साथ एक-दूसरे का हित चाहेंगे और उनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध यह होगा कि वे एक-दूसरे के साथ न्याय करेंगे। गुनाह और ज़्यादती नहीं करेंगे और यह कि कोई उसके साथ ज़्यादती न करेगा जिसके साथ उसकी प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री है, और यह कि उत्पीड़ित की मदद की जाएगी, और यह कि जब तक लड़ाई रहे, यहूदी मुसलमानों के साथ मिलकर उसका ख़र्च उठाएँगे, और यह कि उस समझौते में शरीक लोगों के लिए यसरिब में किसी भी प्रकार का उपद्रव और बिगाड़ का कार्य वर्जित है, और यह कि इस समझौते में शरीक होनेवालों के दरमियान अगर कोई ऐसा विवाद या मतभेद पैदा हो जिससे फ़साद का ख़तरा हो तो उसका फ़ैसला अल्लाह के क़ानून के अनुसार रसूल मुहम्मद (सल्ल०) करेंगे....... और यह कि क़ुरैश और उसका समर्थन करनेवालों को शरण नहीं दी जाएगी, और यह कि यसरिब पर जो हमलावर हो उसके मुक़ाबले में समझौते में शरीक लोग एक-दूसरे की सहायता करेंगे......... । हर पक्ष अपनी तरफ़ के क्षेत्र की सुरक्षा का ज़िम्मेदार होगा।" (इब्‍ने-हिशाम, भाग 2, पृष्ठ 147-150)

यह एक निश्चित और स्पष्ट समझौता था जिसकी शर्ते यहूदियों ने स्वयं स्वीकार की थीं, लेकिन बहुत जल्द उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०), इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण नीति का प्रदर्शन शुरू कर दिया और उनकी दुश्मनी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली गई। उन्होंने नबी (सल्ल०) के विरोध को अपना जातीय लक्ष्य बना लिया। आप (सल्ल०) को पराजित करने के लिए कोई चाल, कोई उपाय और कोई हथकंडा इस्तेमाल करने में उनको कणभर भी संकोच न था। समझौते के विरुद्ध खुली-खुली शत्रुतापूर्ण नीति तो बद्र की लड़ाई से पहले ही वे अपना चुके थे, मगर जब बद्र में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों को क़ुरैश पर खुली विजय प्राप्त हुई तो वे तिलमिला उठे और उनकी दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। बनी-नज़ीर का सरदार काब-बिन-अशरफ़ चीख़ उठा कि "ख़ुदा की क़सम ! अगर मुहम्मद (सल्ल०) ने अरब के इन सम्मानित व्यक्तियों को क़त्ल कर दिया है तो ज़मीन का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से अधिक अच्छा है।" फिर वह मक्का पहुँचा और बद्र में कुरैश के जो सरदार मारे गए थे, उनके बड़े भड़काऊ मर्सिये (शोक गीत) कहकर मक्कावालों को बदला लेने पर उकसाया। यहूदियों का पहला क़बीला जिसने सामूहिक रूप से बद्र की लड़ाई के बाद खुल्लम-खुल्ला अपना समझौता तोड़ दिया, बनी-क़ैनुक़ाअ था, जिसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने शव्वाल (और कुछ उल्लेखों के अनुसार ज़ी-क़ादा) सन् 02 हि० के अन्त में उनके महल्ले का घेराव कर दिया। केवल पन्द्रह दिन ही यह घेराव रहा कि उन्होंने हथियार डाल दिए [और अन्त में उन्हें] अपना सब माल-हथियार और उद्योग के उपकरण और यंत्र छोड़कर मदीना से निकल जाना पड़ा (इब्‍ने-साद, इब्‍ने-हिशाम, तारीख़े-तबरी)। इसके बाद जब शव्वाल 03 हि० में कुरैश के लोग बद्र की लड़ाई का बदला लेने के लिए बड़ी तैयारियों के साथ मदीना पर चढ़ आए तो इन यहूदियों ने समझौते का पहला और खुला विरोध इस तरह किया कि मदीना की प्रतिरक्षा में आप (सल्ल०) के साथ शरीक न हुए, हालाँकि वे इसके पाबन्द थे। फिर जब उहुद की लड़ाई में मुसलमानों को भारी क्षति पहुँची तो उनका सहास और बढ़ गया। यहाँ तक कि बनी-नज़ीर ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को क़त्ल करने के लिए व्यवस्थित रूप से एक षड्‍यंत्र रचा जो ठीक समय पर असफल हो गया। [इन घटनाओं के बाद] अब उनके साथ किसी प्रकार की नर्मी का सवाल बाक़ी ही न रहा। नबी (सल्ल०) ने उनको अविलम्ब यह चेतावनी भेज दी कि तुमने जो ग़द्दारी करनी चाही थी, वह मुझे मालूम हो गई है, इसलिए दस दिन के अन्दर मदीना से निकल जाओ। इसके बाद अगर तुम यहाँ ठहरे रहे तो जो व्यक्ति भी तुम्हारी आबादी में पाया जाएगा, उसकी गर्दन मार दी जाएगी। [अब्दुल्लाह-बिन-उबई के] झूठे भरोसे पर उन्होंने नबी (सल्ल०) की चेतावनी का यह उत्तर दिया कि "हम यहाँ से नहीं निकलेंगे, आपसे जो हो सके, कर लीजिए।" इसपर रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनका घेराव कर लिया और सिर्फ़ कुछ ही दिनों के घेराव के बाद वे इस शर्त पर मदीना छोड़ देने के लिए राज़ी हो गए कि हथियार के सिवा जो कुछ भी वे अपने ऊँटों पर लाद कर ले जा सकेंगे, ले जाएंँगे। इस तरह यहूदियों के इस दूसरे दुष्ट क़बीले से मदीना की धरती ख़ाली करा ली गई। उनमें से सिर्फ़ दो आदमी मुसलमान होकर यहाँ ठहर गए। शेष शाम (सीरिया) और ख़ैबर की ओर निकल गए। यही घटना है जिसकी इस सूरा में विवेचना की गई है।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय, जैसा कि ऊपर बयान हुआ, बनी-नज़ीर के अभियान (युद्ध) की समीक्षा है। इसमें सामूहिक रूप से चार विषय बयान किए गए हैं—

  1. पहली चार आयतों में दुनिया को उस अंजाम से शिक्षा दिलाई गई है जो अभी-अभी बनी-नज़ीर ने देखा था। अल्लाह ने बताया है कि [बनी नज़ीर का यह देश निकाला स्वीकार कर लेना] मुसलमानों को शक्ति का चमत्कार नहीं था, बल्कि इस बात का परिणाम था कि वे अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) से लड़ गए थे, और जो लोग अल्लाह की ताक़त से टकराने की दुस्साहस करें, वे ऐसे ही परिणामों से दोचार होते हैं।
  2. आयत 5 में युद्ध के क़ानून का यह नियम बताया गया है कि युद्ध-सम्बन्धी ज़रूरतों के लिए दुश्मन के क्षेत्रों में जो ध्वंसात्मक कार्रवाई की जाए उसे धरती में फ़साद फैलाने का नाम नहीं दिया जाता।
  3. आयत 6 से 10 तक यह बताया गया है कि उन देशों की ज़मीनों और जायदादों का बन्दोबस्त किस तरह किया जाए जो लड़ाई या समझौते के नतीजे में इस्लामी राज्य के अधीन हो जाएँ।
  4. आयत 11 से 17 तक मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के उस रवैये की समीक्षा की गई है जो उन्होंने बनी-नज़ीर की लड़ाई के मौक़े पर अपनाई थी।
  5. आयत 18 से सूरा के अन्त तक पूरे का पूरा एक उपदेश है जिसका सम्बोधन उन तमाम लोगों से है जो ईमान का दावा करके मुसलमानों के गरोह में सम्मिलित हो गए हों, मगर ईमान के वास्तविक भाव से वंचित रहें। इसमें उनको बताया गया है कि वास्तव में ईमान का तक़ाज़ा क्या है।

---------------------

سُورَةُ الحَشۡرِ
59. अल-हश्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 1
अल्लाह की तसबीह (महिमागान) की है हर उस चीज़ ने जो आकाशों और धरती में है, और वही प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।॥1॥
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَخۡرَجَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن دِيَٰرِهِمۡ لِأَوَّلِ ٱلۡحَشۡرِۚ مَا ظَنَنتُمۡ أَن يَخۡرُجُواْۖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مَّانِعَتُهُمۡ حُصُونُهُم مِّنَ ٱللَّهِ فَأَتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِنۡ حَيۡثُ لَمۡ يَحۡتَسِبُواْۖ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَۚ يُخۡرِبُونَ بُيُوتَهُم بِأَيۡدِيهِمۡ وَأَيۡدِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فَٱعۡتَبِرُواْ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 2
वही है जिसने किताबवालों में से उन लोगों को, जिन्होंने इनकार किया, उनके घरों से पहले ही जमावड़े में निकाल बाहर किया। तुम्हें गुमान न था कि वे निकलेंगे और वे समझते थे कि उनकी गढ़ियाँ अल्लाह से उन्हें बचा लेंगी। किन्तु अल्लाह उनपर वहाँ से आया जिसका उन्हें गुमान भी न था। और उसने उनके दिलों में रोब डाल दिया कि वे अपने घरों को स्वयं अपने हाथों और ईमानवालों के हाथों भी उजाड़ने लगे। अतः शिक्षा ग्रहण करो, ऐ दृष्टि रखनेवालो!॥2॥
وَلَوۡلَآ أَن كَتَبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡجَلَآءَ لَعَذَّبَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابُ ٱلنَّارِ ۝ 3
यदि अल्लाह ने उनके लिए देश-निकाला न लिख दिया होता तो दुनिया में ही वह उन्हें अवश्य यातना दे देता, और आख़िरत में तो उनके लिए आग की यातना है ही।॥3॥
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۖ وَمَن يُشَآقِّ ٱللَّهَ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 4
यह इसलिए कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करने की कोशिश की। और जो कोई अल्लाह का मुक़ाबला करता है तो निश्‍चय ही अल्लाह की यातना बहुत कठोर है।॥4॥
مَا قَطَعۡتُم مِّن لِّينَةٍ أَوۡ تَرَكۡتُمُوهَا قَآئِمَةً عَلَىٰٓ أُصُولِهَا فَبِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَلِيُخۡزِيَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 5
तुमने खजूर के जो वृक्ष काटे या उन्हें उनकी जड़ों पर खड़ा छोड़ दिया तो यह अल्लाह ही की अनुज्ञा से हुआ (ताकि ईमानवालों के लिए आसानी पैदा करे) और इसलिए कि वह अवज्ञाकारियों को रुसवा करे।॥5॥
وَمَآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡهُمۡ فَمَآ أَوۡجَفۡتُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ خَيۡلٖ وَلَا رِكَابٖ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُسَلِّطُ رُسُلَهُۥ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 6
और अल्लाह ने उनसे लेकर अपने रसूल की ओर जो कुछ पलटाया, उसके लिए न तो तुमने घोड़े दौड़ाए और न ऊँट।1 किन्तु अल्लाह अपने रसूलों को जिसपर चाहता है प्रभुत्व प्रदान कर देता है। अल्लाह को तो हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।॥6॥ —————— 1. अर्थात् उनका जो माल तुम्हारे हाथ लगा उसके लिए तुम्हें कोई युद्ध नहीं करना पड़ा।
مَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰ فَلِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ كَيۡ لَا يَكُونَ دُولَةَۢ بَيۡنَ ٱلۡأَغۡنِيَآءِ مِنكُمۡۚ وَمَآ ءَاتَىٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَىٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 7
जो कुछ अल्लाह ने अपने रसूल की ओर बस्तियोंवालों से लेकर पलटाया वह अल्लाह और रसूल और रसूल के नातेदारों और अनाथों और मुहताजों और मुसाफ़िरों के लिए है, ताकि वह (माल) तुम्हारे मालदारों ही के बीच चक्‍कर न लगाता रहे — रसूल जो कुछ तुम्हें दे उसे ले लो और जिस चीज़ से तुम्हें रोक दे उससे रुक जाओ, और अल्लाह का डर रखो। निश्‍चय ही अल्लाह की यातना बहुत कठोर है। —॥7॥
لِلۡفُقَرَآءِ ٱلۡمُهَٰجِرِينَ ٱلَّذِينَ أُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَأَمۡوَٰلِهِمۡ يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٗا وَيَنصُرُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصَّٰدِقُونَ ۝ 8
वह ग़रीब मुहाजिरों के लिए है जो अपने घरों और अपने मालों से इस हालत में निकाल-बाहर किए गए हैं कि वे अल्लाह का उदार अनुग्रह और उसकी प्रसन्‍नता की तलाश में हैं और अल्लाह और उसके रसूल की सहायता कर रहे हैं, और वही वास्तव में सच्‍चे हैं।॥8॥
وَٱلَّذِينَ تَبَوَّءُو ٱلدَّارَ وَٱلۡإِيمَٰنَ مِن قَبۡلِهِمۡ يُحِبُّونَ مَنۡ هَاجَرَ إِلَيۡهِمۡ وَلَا يَجِدُونَ فِي صُدُورِهِمۡ حَاجَةٗ مِّمَّآ أُوتُواْ وَيُؤۡثِرُونَ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ وَلَوۡ كَانَ بِهِمۡ خَصَاصَةٞۚ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفۡسِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 9
और उनके लिए जो उनसे पहले ही से हिजरत के घर (मदीना) में ठिकाना बनाए हुए हैं और ईमान पर जमे हुए हैं, वे उनसे प्रेम करते हैं जो हिजरत करके उनके यहाँ आए हैं, और जो कुछ भी उन्हें दिया गया उससे वे अपने सीनों में कोई खटक नहीं पाते और वे उन्हें अपने मुक़ाबले में प्राथमिकता देते हैं, यद्यपि अपनी जगह वे स्वयं मुहताज ही हों। और जो अपने मन के लोभ और कृपणता (कंजूसी) से बचा लिया जाए, ऐसे लोग ही सफल हैं।॥9॥
وَٱلَّذِينَ جَآءُو مِنۢ بَعۡدِهِمۡ يَقُولُونَ رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لَنَا وَلِإِخۡوَٰنِنَا ٱلَّذِينَ سَبَقُونَا بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَا تَجۡعَلۡ فِي قُلُوبِنَا غِلّٗا لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ رَبَّنَآ إِنَّكَ رَءُوفٞ رَّحِيمٌ ۝ 10
और (इस माल में उनका भी हिस्सा है) जो उनके बाद आए, वे कहते हैं, "ऐ हमारे रब! हमें क्षमा कर दे और हमारे उन भाइयों को भी जो ईमान लाने में हमसे अग्रसर रहे और हमारे दिलों में ईमानवालों के लिए कोई विद्वेष न रख। ऐ हमारे रब! तू निश्‍चय ही बड़ा करुणामय, अत्यन्त दयावान है।"॥10॥
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ نَافَقُواْ يَقُولُونَ لِإِخۡوَٰنِهِمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَئِنۡ أُخۡرِجۡتُمۡ لَنَخۡرُجَنَّ مَعَكُمۡ وَلَا نُطِيعُ فِيكُمۡ أَحَدًا أَبَدٗا وَإِن قُوتِلۡتُمۡ لَنَنصُرَنَّكُمۡ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 11
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्होंने कपटाचार की नीति अपनाई है, वे अपने किताबवाले उन भाइयों से, जो इनकार की नीति अपनाए हुए हैं, कहते हैं, "यदि तुम्हें निकाला गया तो हम भी अवश्य ही तुम्हारे साथ निकल जाएँगे और तुम्हारे मामले में किसी की बात कभी नहीं मानेंगे। और तुमसे युद्ध किया गया तो हम अवश्य तुम्हारी सहायता करेंगे।" किन्तु अल्लाह गवाही देता है कि वे बिलकुल झूठे है।॥11॥
لَئِنۡ أُخۡرِجُواْ لَا يَخۡرُجُونَ مَعَهُمۡ وَلَئِن قُوتِلُواْ لَا يَنصُرُونَهُمۡ وَلَئِن نَّصَرُوهُمۡ لَيُوَلُّنَّ ٱلۡأَدۡبَٰرَ ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ ۝ 12
यदि वे निकाले गए तो वे उनके साथ नहीं निकलेंगे, और यदि उनसे युद्ध हुआ तो वे उनकी सहायता कदापि न करेंगे, और यदि उनकी सहायता करें भी तो पीठ फेर जाएँगे। फिर उन्हें कोई सहायता प्राप्‍त न होगी।॥12॥
لَأَنتُمۡ أَشَدُّ رَهۡبَةٗ فِي صُدُورِهِم مِّنَ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 13
उनके दिलों में अल्लाह से बढ़कर तुम्हारा भय समाया हुआ है। यह इसलिए कि वे ऐसे लोग हैं जो समझते नहीं।॥13॥
لَا يُقَٰتِلُونَكُمۡ جَمِيعًا إِلَّا فِي قُرٗى مُّحَصَّنَةٍ أَوۡ مِن وَرَآءِ جُدُرِۭۚ بَأۡسُهُم بَيۡنَهُمۡ شَدِيدٞۚ تَحۡسَبُهُمۡ جَمِيعٗا وَقُلُوبُهُمۡ شَتَّىٰۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡقِلُونَ ۝ 14
वे इकट्ठे होकर भी तुमसे (खुले मैदान में) नहीं लड़ेंगे, क़िलाबन्द बस्तियों या दीवारों के पीछ हों तो यह और बात है। उनकी आपस में सख़्त लड़ाई है। तुम उन्हें इकट्ठे समझते हो! हालाँकि उनके दिल फटे हुए हैं। यह इसलिए कि वे ऐसे लोग हैं जो बुद्धि से काम नहीं लेते।॥14॥
كَمَثَلِ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ قَرِيبٗاۖ ذَاقُواْ وَبَالَ أَمۡرِهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 15
उनकी हालत उन्हीं लोगों जैसी है जो उनसे पहले निकट-काल में अपने किए के वबाल का मज़ा चख चुके हैं और उनके लिए दुखद यातना भी है।॥15॥
كَمَثَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ إِذۡ قَالَ لِلۡإِنسَٰنِ ٱكۡفُرۡ فَلَمَّا كَفَرَ قَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَ رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 16
इनकी मिसाल शैतान जैसी है कि जब उसने मनुष्य से कहा, "क़ुफ़्र कर!" फिर जब वह कुफ़्र कर बैठा तो कहने लगा, "मैं तुम्हारी ज़िम्मेदारी से बरी हूँ। मैं तो सारे संसार के रब अल्लाह से डरता हूँ।"॥16॥
فَكَانَ عَٰقِبَتَهُمَآ أَنَّهُمَا فِي ٱلنَّارِ خَٰلِدَيۡنِ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَٰٓؤُاْ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 17
फिर उन दोनों का परिणाम यह हुआ कि दोनों आग में गए, जहाँ सदैव रहेंगे। और ज़ालिमों का यही बदला है।॥17॥
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلۡتَنظُرۡ نَفۡسٞ مَّا قَدَّمَتۡ لِغَدٖۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 18
ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह का डर रखो, और प्रत्येक व्यक्ति को यह देखना चाहिए कि उसने कल के लिए क्या भेजा है। और अल्लाह का डर रखो। जो कुछ भी तुम करते हो निश्‍चय ही अल्लाह उसकी पूरी ख़बर रखता है।॥18॥
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ نَسُواْ ٱللَّهَ فَأَنسَىٰهُمۡ أَنفُسَهُمۡۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 19
और उन लोगों की तरह न हो जाना जिन्होंने अल्लाह को भुला दिया। तो उसने भी ऐसा किया कि वे स्वयं अपने आपको भूल बैठे। वही अवज्ञाकारी हैं।॥19॥
لَا يَسۡتَوِيٓ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۚ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 20
आगवाले और बाग़वाले (जहन्‍नमवाले और जन्‍नतवाले) कभी समान नहीं हो सकते। बाग़वाले ही सफ़ल हैं।॥20॥
لَوۡ أَنزَلۡنَا هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ عَلَىٰ جَبَلٖ لَّرَأَيۡتَهُۥ خَٰشِعٗا مُّتَصَدِّعٗا مِّنۡ خَشۡيَةِ ٱللَّهِۚ وَتِلۡكَ ٱلۡأَمۡثَٰلُ نَضۡرِبُهَا لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 21
यदि हमने इस क़ुरआन को किसी पर्वत पर भी उतार दिया होता तो तुम अवश्य देखते कि अल्लाह के भय से वह दबा और फटा जाता है। ये मिसालें लोगों के लिए हम इसलिए पेश करते हैं कि वे सोच-विचार करें।॥21॥
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۖ هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 22
वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं, परोक्ष और प्रत्यक्ष को जानता है। वह बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।॥22॥
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡقُدُّوسُ ٱلسَّلَٰمُ ٱلۡمُؤۡمِنُ ٱلۡمُهَيۡمِنُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡجَبَّارُ ٱلۡمُتَكَبِّرُۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 23
वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह बादशाह है, अत्यन्त पवित्र, सर्वथा सलामती, निश्चिन्तता प्रदान करनेवाला, संरक्षक, प्रभुत्वशाली, प्रभावशाली (टुटे हुए को जोड़नेवाला), अपनी बड़ाई प्रकट करनेवाला। महान और उच्‍च है अल्लाह उस शिर्क से जो वे करते हैं।॥23॥
هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡخَٰلِقُ ٱلۡبَارِئُ ٱلۡمُصَوِّرُۖ لَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 24
वही अल्लाह है जो संरचना का प्रारूपक है, अस्तित्व प्रदान करनेवाला, रूप देनेवाला है। उसी के लिए अच्छे नाम हैं। जो चीज़ भी आकाशों और धरती में है, उसी की तसबीह (महिमागान) कर रही है, और वह प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है।॥24॥