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سُورَةُ الأَنبِيَاءِ

21. अल-अंबिया

(मक्का में उतरी-आयतें 112)

परिचय

नाम

चूँकि इस सूरा में निरन्तर बहुत-से नबियों का उल्लेख हुआ है, इसलिए इसका नाम 'अल-अंबिया' रख दिया गया। यह विषय की दृष्टि से सूरा का शीर्षक नहीं है, बल्कि केवल पहचानने के लिए एक लक्षणमात्र है।

अवतरण काल

विषय और वर्णन-शैली, दोनों से यही मालूम होता है कि इसके उतरने का समय मक्का का मध्यवर्ती काल अर्थात् हमारे काल-विभाजन की दृष्टि से नबी (सल्ल०) की मक्की ज़िन्दगी का तीसरा काल है।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में उस संघर्ष पर वार्ता की गई है जो नबी (सल्ल०) और क़ुरैश के सरदारों के बीच चल रहा था। वे लोग प्यारे नबी (सल्ल०) की रिसालत के दावे और आपकी तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत और आख़िरत के अक़ीदे पर जो सन्देह और आक्षेप पेश करते थे, उनका उत्तर दिया गया है। उनकी ओर से आपके विरोध में जो चालें चली जा रही थीं, उनपर डॉट-फटकार की गई है और उन हरकतों के बुरे नतीजों से सावधान किया गया है और अन्त में उनको यह एहसास दिलाया गया है कि जिस व्यक्ति को तुम अपने लिए संकट और मुसीबत समझ रहे हो वह वास्तव में तुम्हारे लिए दयालुता बनकर आया है।

अभिभाषण करते समय मुख्य रूप से जिन बातों पर वार्ता की गई है, वे ये हैं-

  1. मक्का के विधर्मियों की यह कुधारणा कि इंसान कभी रसूल नहीं हो सकता और इस आधार पर उनका हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को रसूल मानने से इंकार करना- इस कुधारणा का सविस्तार खण्डन किया गया है।
  2. उनका नबी (सल्ल०) पर और क़ुरआन पर विभिन्न और विरोधाभासी आक्षेप करना और किसी एक बात पर न जमना- इसपर संक्षेप में मगर बहुत ही जोरदार और अर्थगर्भित ढंग से पकड़ की गई है।
  3. उनका यह विचार कि ज़िन्दगी बस एक खेल है जिसे कुछ दिन खेलकर यों ही समाप्त हो जाना है [इसका कोई हिसाब-किताब नहीं]- इसका बड़े ही प्रभावी ढंग से तोड़ किया गया है।
  4. शिर्क पर उनका आग्रह और तौहीद के विरुद्ध उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात - इसके सुधार के लिए संक्षेप में किन्तु महत्त्वपूर्ण और चित्ताकर्षक दलीलें भी दी गई है।
  5. उनका यह भ्रम कि नबी के बार-बार झुठालाने के बावजूद जब उनपर कोई अज़ाब नहीं आता तो अवश्य ही नबी झूठा है और अल्लाह के अज़ाब की धमकियाँ केवल धमकियाँ हैं- इसको दलीलों से और उपदेश देकर दोनों तरीक़ों से दूर करने की कोशिशें की गई हैं।

इसके बाद नबियों की जीवन-चर्याओं के महत्त्वपूर्ण घटनाओं से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं जिनसे यह समझाना अभीष्ट है कि वे तमाम पैग़म्बर जो मानव-इतिहास के दौरान ख़ुदा की ओर से आए थे, इंसान थे। ईश्वरत्व और प्रभुता का उनमें लेशमात्र तक न था। इसके साथ इन्हीं ऐतिहासिक उदाहरणों से दो बातें और भी स्पष्ट हो गई हैं-एक यह कि नबियों पर तरह-तरह की मुसीबतें आती रही हैं और उनके विरोधियों ने भी उनको बर्बाद करने की कोशिशें को हैं, मगर आख़िरकार अल्लाह की ओर से असाधारण रूप से उनकी मदद की गई है। दूसरे यह कि तमाम नबियों का दीन एक था और वह वही दीन था जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं। मानव-जाति का असल दीन यही है और बाक़ी जितने धर्म दुनिया में बने हैं, वे केवल गुमराह इंसानों द्वारा डाली हुई फूट और संभेद है। अन्त में यह बताया गया है कि इंसान की नजात (मुक्ति) का आश्रय इसी दीन की पैरवी अपनाने पर है और इसका उतरना तो साक्षात दयालुता है।

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سُورَةُ الأَنبِيَاءِ
21. अल-अंबिया
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान हैं।
ٱقۡتَرَبَ لِلنَّاسِ حِسَابُهُمۡ وَهُمۡ فِي غَفۡلَةٖ مُّعۡرِضُونَ ۝ 1
निकट आ गया लोगों का हिसाब और वे हैं कि असावधान कतराते जा रहे हैं॥1॥
مَا يَأۡتِيهِم مِّن ذِكۡرٖ مِّن رَّبِّهِم مُّحۡدَثٍ إِلَّا ٱسۡتَمَعُوهُ وَهُمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 2
उनके पास जो ताज़ा याददिहानी भी उनके रब की ओर से आती है उसे वे हँसी-खेल करते हुए ही सुनते हैं॥2॥
لَاهِيَةٗ قُلُوبُهُمۡۗ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّجۡوَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ هَلۡ هَٰذَآ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡۖ أَفَتَأۡتُونَ ٱلسِّحۡرَ وَأَنتُمۡ تُبۡصِرُونَ ۝ 3
उनके दिल दिलचस्पियों में खोए हुए होते हैं। उन्होंने चुपके-चुपके कानाफूसी की — अर्थात् अत्याचार की नीति अपनानेवालों ने — कि "यह तो तुम जैसा ही एक मनुष्य है। फिर क्या तुम देखते-बूझते जादू में फँस जाओगे?"॥3॥
قَالَ رَبِّي يَعۡلَمُ ٱلۡقَوۡلَ فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 4
उसने कहा, "मेरा रब जानता है उस बात को जो आकाश और धरती में है। और वह भली-भाँति सब कुछ सुनने, जाननेवाला है।"॥4॥
بَلۡ قَالُوٓاْ أَضۡغَٰثُ أَحۡلَٰمِۭ بَلِ ٱفۡتَرَىٰهُ بَلۡ هُوَ شَاعِرٞ فَلۡيَأۡتِنَا بِـَٔايَةٖ كَمَآ أُرۡسِلَ ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 5
नहीं, बल्कि वे कहते हैं, "यह तो संभ्रमित स्वप्न हैं, बल्कि उसने इसे स्वयं ही गढ़ लिया है, बल्कि वह एक कवि है! उसे तो हमारे पास कोई निशानी लानी चाहिए, जैसे कि (निशानियाँ लेकर) पहले के रसूल भेजे गए थे।"॥5॥
مَآ ءَامَنَتۡ قَبۡلَهُم مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَآۖ أَفَهُمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 6
इनसे पहले कोई बस्ती भी, जिसको हमने विनष्ट किया, ईमान न लाई। फिर क्या ये ईमान लाएँगे?॥6॥
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِمۡۖ فَسۡـَٔلُوٓاْ أَهۡلَ ٱلذِّكۡرِ إِن كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 7
और तुमसे पहले भी हमने पुरुषों ही को रसूल बनाकर भेजा, जिनकी ओर हम प्रकाशना करते थे। — यदि तुम्हें मालूम न हो तो ज़िक्रवालों (किताबवालों) से पूछ लो। —॥7॥
وَمَا جَعَلۡنَٰهُمۡ جَسَدٗا لَّا يَأۡكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَمَا كَانُواْ خَٰلِدِينَ ۝ 8
उनको हमने कोई ऐसा शरीर नहीं दिया था कि वे भोजन न करते हों और न वे सदैव रहनेवाले ही थे॥8॥
ثُمَّ صَدَقۡنَٰهُمُ ٱلۡوَعۡدَ فَأَنجَيۡنَٰهُمۡ وَمَن نَّشَآءُ وَأَهۡلَكۡنَا ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 9
फिर हमने उनके साथ वादे को सच्चा कर दिखाया और उन्हें हमने छुटकारा दिया, और जिसे हम चाहें उसे छुटकारा मिलता है। और मर्यादाहीनों को हमने विनष्ट कर दिया॥9॥
لَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ كِتَٰبٗا فِيهِ ذِكۡرُكُمۡۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 10
लो, हमने तुम्हारी ओर एक किताब अवतरित कर दी है, जिसमें तुम्हारे लिए याददिहानी है। तो क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते?॥10॥
وَكَمۡ قَصَمۡنَا مِن قَرۡيَةٖ كَانَتۡ ظَالِمَةٗ وَأَنشَأۡنَا بَعۡدَهَا قَوۡمًا ءَاخَرِينَ ۝ 11
कितनी ही बस्तियों को, जो ज़ालिम थीं, हमने तोड़कर रख दिया और उनके बाद हमने दूसरे लोगों को उठाया॥11॥
فَلَمَّآ أَحَسُّواْ بَأۡسَنَآ إِذَا هُم مِّنۡهَا يَرۡكُضُونَ ۝ 12
फिर जब उन्हें हमारी यातना का आभास हुआ तो लगे वहाँ से भागने॥12॥
لَا تَرۡكُضُواْ وَٱرۡجِعُوٓاْ إِلَىٰ مَآ أُتۡرِفۡتُمۡ فِيهِ وَمَسَٰكِنِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُسۡـَٔلُونَ ۝ 13
(कहा गया) "भागो नहीं! लौट चलो उसी भोग-विलास की ओर जो तुम्हें प्राप्त था और अपने घरों की ओर ताकि तुमसे पूछा जाए।"॥13॥
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 14
कहने लगे, "हाय हमारा दुर्भाग्य! निस्संदेह हम ज़ालिम थे।"॥14॥
فَمَا زَالَت تِّلۡكَ دَعۡوَىٰهُمۡ حَتَّىٰ جَعَلۡنَٰهُمۡ حَصِيدًا خَٰمِدِينَ ۝ 15
फिर उनकी निरन्तर यही पुकार रही, यहाँ तक कि हमने उन्हें ऐसा कर दिया जैसे कटी हुई खेती, बुझी हुई आग हो॥15॥
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَآءَ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا لَٰعِبِينَ ۝ 16
और हमने आकाश और धरती को और जो कुछ इनके मध्य है कुछ इस प्रकार नहीं बनाया कि हम कोई खेल करनेवाले हों॥16॥
لَوۡ أَرَدۡنَآ أَن نَّتَّخِذَ لَهۡوٗا لَّٱتَّخَذۡنَٰهُ مِن لَّدُنَّآ إِن كُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 17
यदि हम कोई खेल-तमाशा करना चाहते तो अपने ही पास से कर लेते। निस्संदेह हमें करने का सामर्थ्य प्राप्त है॥17॥
بَلۡ نَقۡذِفُ بِٱلۡحَقِّ عَلَى ٱلۡبَٰطِلِ فَيَدۡمَغُهُۥ فَإِذَا هُوَ زَاهِقٞۚ وَلَكُمُ ٱلۡوَيۡلُ مِمَّا تَصِفُونَ ۝ 18
नहीं, बल्कि हम तो असत्य पर सत्य की चोट लगाते हैं तो वह उसका सिर तोड़ देता है। फिर क्या देखते हैं कि वह मिटकर रह जाता है, और तुम्हारे लिए तबाही है उन बातों के कारण जो तुम बनाते हो!॥18॥
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَمَنۡ عِندَهُۥ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِهِۦ وَلَا يَسۡتَحۡسِرُونَ ۝ 19
और आकाशों और धरती में जो कोई है उसी का है। और जो (फ़रिश्ते) उसके पास हैं वे न तो अपने को बड़ा समझकर उसकी बन्दगी से मुँह मोड़ते हैं और न वे थकते हैं॥19॥
يُسَبِّحُونَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ لَا يَفۡتُرُونَ ۝ 20
रात और दिन तसबीह (महिमागान) करते रहते हैं, दम नहीं लेते॥20॥
أَمِ ٱتَّخَذُوٓاْ ءَالِهَةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ هُمۡ يُنشِرُونَ ۝ 21
(क्या उन्होंने आकाश से कुछ पूज्य बना लिए हैं) या उन्होंने धरती से ऐसे इष्ट-पूज्य बना लिए हैं जो पुनर्जीवित करते हों?॥21॥
لَوۡ كَانَ فِيهِمَآ ءَالِهَةٌ إِلَّا ٱللَّهُ لَفَسَدَتَاۚ فَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ رَبِّ ٱلۡعَرۡشِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 22
यदि इन दोनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा दूसरे इष्ट-पूज्य भी होते तो दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः महान और उच्च है अल्लाह, राजासन का स्वामी, उन बातों से जो ये बयान करते हैं॥22॥
لَا يُسۡـَٔلُ عَمَّا يَفۡعَلُ وَهُمۡ يُسۡـَٔلُونَ ۝ 23
जो कुछ वह करता है उससे उसकी कोई पूछ नहीं हो सकती, किन्तु इनसे पूछ होगी॥23॥
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗۖ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡۖ هَٰذَا ذِكۡرُ مَن مَّعِيَ وَذِكۡرُ مَن قَبۡلِيۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ٱلۡحَقَّۖ فَهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 24
(क्या इन्होंने अल्लाह के साथ कुछ पूज्य ठहरा लिए हैं) या उससे हटकर इन्होंने दूसरे इष्ट-पूज्य बना लिए हैं (जिसके लिए इनके पास कुछ प्रमाण हैं)? कह दो, "लाओ अपना प्रमाण! यह याददिहानी है उनकी जो मुझसे पहले हुए हैं, किन्तु बात यह है कि इनमें अधिकतर सत्य को जानते नहीं इसलिए कतरा रहे हैं।”॥24॥
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رَّسُولٍ إِلَّا نُوحِيٓ إِلَيۡهِ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 25
हमने तुमसे पहले जो रसूल भी भेजा उसकी ओर यही प्रकाशना की, "मेरे सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं। अतः तुम मेरी ही बन्दगी करो।"॥25॥
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۚ بَلۡ عِبَادٞ مُّكۡرَمُونَ ۝ 26
और वे कहते हैं कि "रहमान (करुणामय प्रभु) संतान रखता है।" महान है वह! बल्कि वे तो प्रतिष्ठित बन्दे हैं।1॥26॥ ———————— 1. अर्थात् ये लोग जिनको अल्लाहकी संतान ठहराते हैं, वे उसकी संतान नहीं, बल्कि उसे प्रतिष्ठित बन्दे हैं।
لَا يَسۡبِقُونَهُۥ بِٱلۡقَوۡلِ وَهُم بِأَمۡرِهِۦ يَعۡمَلُونَ ۝ 27
उससे आगे बढ़कर नहीं बोलते और उनके आदेश का पालन करते हैं॥27॥
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَلَا يَشۡفَعُونَ إِلَّا لِمَنِ ٱرۡتَضَىٰ وَهُم مِّنۡ خَشۡيَتِهِۦ مُشۡفِقُونَ ۝ 28
वह जानता है जो कुछ उनके आगे है और जो कुछ उनके पीछे है— और वे किसी की सिफ़ारिश नहीं करते सिवाय उसके जिसके लिए अल्लाह पसन्द करे। और वे उसके भय से डरते रहते हैं॥28॥
۞وَمَن يَقُلۡ مِنۡهُمۡ إِنِّيٓ إِلَٰهٞ مِّن دُونِهِۦ فَذَٰلِكَ نَجۡزِيهِ جَهَنَّمَۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 29
और जो उनमें से यह कहे कि "उसके सिवा मैं भी एक इष्ट-पूज्य हूँ।" तो हम उसे बदले में जहन्नम देंगे। ज़ालिमों को हम ऐसा ही बदला दिया करते हैं॥29॥
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ كَانَتَا رَتۡقٗا فَفَتَقۡنَٰهُمَاۖ وَجَعَلۡنَا مِنَ ٱلۡمَآءِ كُلَّ شَيۡءٍ حَيٍّۚ أَفَلَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 30
क्या उन लोगों ने, जिन्होंने इनकार किया, देखा नहीं कि ये आकाश और धरती बन्द थे। फिर हमने उन्हें खोल दिया। और हमने पानी से हर जीवित चीज़ बनाई, तो क्या वे मानते नहीं?॥30॥
وَجَعَلۡنَا فِي ٱلۡأَرۡضِ رَوَٰسِيَ أَن تَمِيدَ بِهِمۡ وَجَعَلۡنَا فِيهَا فِجَاجٗا سُبُلٗا لَّعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 31
और हमने धरती में अटल पहाड़ रख दिए, ताकि कहीं ऐसा न हो कि वह उन्हें लेकर ढुलक जाए, और हमने उसमें ऐसे दर्रे बनाए कि रास्तों का काम देते हैं, ताकि वे मार्ग पाएँ॥31॥
وَجَعَلۡنَا ٱلسَّمَآءَ سَقۡفٗا مَّحۡفُوظٗاۖ وَهُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِهَا مُعۡرِضُونَ ۝ 32
और हमने आकाश को एक सुरक्षित छत बनाया, किन्तु वे हैं कि उसकी निशानियों से कतरा जाते हैं॥32॥
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 33
वही है जिसने रात और दिन बनाए और सूर्य और चन्द्र भी। प्रत्येक अपने-अपने कक्ष में तैर रहा है॥33॥
وَمَا جَعَلۡنَا لِبَشَرٖ مِّن قَبۡلِكَ ٱلۡخُلۡدَۖ أَفَإِيْن مِّتَّ فَهُمُ ٱلۡخَٰلِدُونَ ۝ 34
हमने तुमसे पहले भी किसी आदमी के लिए अमरता नहीं रखी। फिर क्या यदि तुम मर गए तो वे सदैव रहनेवाले हैं?॥34॥
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۗ وَنَبۡلُوكُم بِٱلشَّرِّ وَٱلۡخَيۡرِ فِتۡنَةٗۖ وَإِلَيۡنَا تُرۡجَعُونَ ۝ 35
हर जीव को मौत का मज़ा चखना है और हम अच्छी और बुरी परिस्थितियों में डालकर तुम सबकी परीक्षा करते हैं। अन्ततः तुम्हें हमारी ही ओर पलटकर आना है॥35॥
وَإِذَا رَءَاكَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِن يَتَّخِذُونَكَ إِلَّا هُزُوًا أَهَٰذَا ٱلَّذِي يَذۡكُرُ ءَالِهَتَكُمۡ وَهُم بِذِكۡرِ ٱلرَّحۡمَٰنِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 36
जिन लोगों ने इनकार किया वे जब तुम्हें देखते हैं तो तुम्हारा उपहास ही करते हैं। (कहते हैं) "क्या यही वह व्यक्ति है जो तुम्हारे इष्ट -पूज्यों की बुराई के साथ चर्चा करता है?" और उनका अपना हाल यह है कि वे रहमान के ज़िक्र (स्मरण) से इनकार करते हैं॥36॥
خُلِقَ ٱلۡإِنسَٰنُ مِنۡ عَجَلٖۚ سَأُوْرِيكُمۡ ءَايَٰتِي فَلَا تَسۡتَعۡجِلُونِ ۝ 37
मनुष्य उतावला पैदा किया गया है। मैं तुम्हें शीघ्र ही अपनी निशानियाँ दिखाए देता हूँ। अतः तुम मुझसे जल्दी मत मचाओ॥37॥
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 38
वे कहते हैं कि "यह वादा कब पूरा होगा यदि तुम सच्चे हो?"॥38॥
لَوۡ يَعۡلَمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ حِينَ لَا يَكُفُّونَ عَن وُجُوهِهِمُ ٱلنَّارَ وَلَا عَن ظُهُورِهِمۡ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 39
अगर इनकार करनेवाले उस समय को जानते जबकि वे न तो अपने चहरों की ओर आग को रोक सकेंगे और न अपनी पीठों की ओर से और न उन्हें कोई सहायता ही पहुँच सकेगी (तो यातना की जल्दी न मचाते)॥39॥
بَلۡ تَأۡتِيهِم بَغۡتَةٗ فَتَبۡهَتُهُمۡ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ رَدَّهَا وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 40
बल्कि वह अचानक उनपर आएगी और उन्हें स्तब्ध कर देगी। फिर न उसे वे फेर सकेंगे और न उन्हें मुहलत ही मिलेगी॥40॥
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَحَاقَ بِٱلَّذِينَ سَخِرُواْ مِنۡهُم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 41
तुमसे पहले भी रसूलों की हँसी उड़ाई जा चुकी है, किन्तु उनमें से जिन लोगों ने उनकी हँसी उड़ाई थी उन्हें उसी चीज़ ने आ घेरा, जिसकी वे हँसी उड़ाते थे॥41॥
قُلۡ مَن يَكۡلَؤُكُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ مِنَ ٱلرَّحۡمَٰنِۚ بَلۡ هُمۡ عَن ذِكۡرِ رَبِّهِم مُّعۡرِضُونَ ۝ 42
कहो कि "कौन रहमान (करुणामय प्रभु) के मुक़ाबले में रात-दिन तुम्हारी रक्षा करेगा? बल्कि बात यह है कि वे अपने रब की याददिहानी से कतरा रहे हैं॥42॥
أَمۡ لَهُمۡ ءَالِهَةٞ تَمۡنَعُهُم مِّن دُونِنَاۚ لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَ أَنفُسِهِمۡ وَلَا هُم مِّنَّا يُصۡحَبُونَ ۝ 43
(क्या वे हमें नहीं जानते) या हमसे हटकर उनके और भी इष्ट-पूज्य हैं जो उन्हें बचा लें? वे तो स्वयं अपनी ही सहायता नहीं कर सकते हैं और न हमारे मुक़ाबले में उनका कोई साथ ही दे सकता है॥43॥
بَلۡ مَتَّعۡنَا هَٰٓؤُلَآءِ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ طَالَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡعُمُرُۗ أَفَلَا يَرَوۡنَ أَنَّا نَأۡتِي ٱلۡأَرۡضَ نَنقُصُهَا مِنۡ أَطۡرَافِهَآۚ أَفَهُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 44
बल्कि बात यह है कि हमने उन्हें और उनके बाप-दादा को सुख-सुविधा प्रदान की, यहाँ तक कि इसी दशा में एक लम्बी मुद्दत उनपर गुज़र गई। तो क्या वे देखते नहीं कि हम इस भू-भाग को उसके चतुर्दिक से घटाते हुए बढ़ रहे हैं? फिर क्या वे अभिमानी रहेंगे?॥44॥
قُلۡ إِنَّمَآ أُنذِرُكُم بِٱلۡوَحۡيِۚ وَلَا يَسۡمَعُ ٱلصُّمُّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا مَا يُنذَرُونَ ۝ 45
कह दो, "मैं तो बस प्रकाशना के आधार पर तुम्हें सावधान करता हूँ।" किन्तु बहरे पुकार को नहीं सुनते, जबकि उन्हें सावधान किया जाए॥45॥
وَلَئِن مَّسَّتۡهُمۡ نَفۡحَةٞ مِّنۡ عَذَابِ رَبِّكَ لَيَقُولُنَّ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 46
और यदि तुम्हारे रब की यातना का कोई झोंका भी उन्हें छू जाए तो वे कहने लगें, "हाय हमारा दुर्भाग्य! निस्संदेह हम ज़ालिम थे।"॥46॥
وَنَضَعُ ٱلۡمَوَٰزِينَ ٱلۡقِسۡطَ لِيَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَلَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗاۖ وَإِن كَانَ مِثۡقَالَ حَبَّةٖ مِّنۡ خَرۡدَلٍ أَتَيۡنَا بِهَاۗ وَكَفَىٰ بِنَا حَٰسِبِينَ ۝ 47
और हम वज़नी, अच्छे न्यायपूर्ण कामों को क़ियामत के दिन के लिए रख रहे हैं। फिर किसी व्यक्ति पर कुछ भी ज़ुल्म न होगा, यद्यपि वह (कर्म) राई के दाने के बराबर हो, हम उसे ला उपस्थित करेंगे। और हिसाब करने के लिए हम काफ़ी हैं॥47॥
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ٱلۡفُرۡقَانَ وَضِيَآءٗ وَذِكۡرٗا لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 48
और हम मूसा और हारून को कसौटी और रौशनी और याददिहानी प्रदान कर चुके हैं, उन डर रखनेवालों के लिए,॥48॥
ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُم بِٱلۡغَيۡبِ وَهُم مِّنَ ٱلسَّاعَةِ مُشۡفِقُونَ ۝ 49
जो देखे बिना अपने रब से डरते हैं और उन्हें क़ियामत की घड़ी का भय लगा रहता है॥49॥
وَهَٰذَا ذِكۡرٞ مُّبَارَكٌ أَنزَلۡنَٰهُۚ أَفَأَنتُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 50
और वह बरकतवाली याददिहानी है जिसको हमने अवतरित किया है। तो क्या तुम्हें इससे इनकार है॥50॥
۞وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَآ إِبۡرَٰهِيمَ رُشۡدَهُۥ مِن قَبۡلُ وَكُنَّا بِهِۦ عَٰلِمِينَ ۝ 51
और इससे पहले हमने इबराहीम को उसकी हिदायत और समझ दी थी — और हम उसे भली-भाँति जानते थे। —॥51॥
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَا هَٰذِهِ ٱلتَّمَاثِيلُ ٱلَّتِيٓ أَنتُمۡ لَهَا عَٰكِفُونَ ۝ 52
जब उसने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा, "ये मूर्तियाँ क्या हैं, जिनसे तुम लगे बैठे हो?"॥52॥
قَالُواْ وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا لَهَا عَٰبِدِينَ ۝ 53
वे बोले, "हमने अपने बाप-दादा को इन्हीं की पूजा करते पाया है।"॥53॥
قَالَ لَقَدۡ كُنتُمۡ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُمۡ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 54
उसने कहा, "तुम भी और तुम्हारे बाप-दादा भी खुली गुमराही में हो।"॥54॥
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا بِٱلۡحَقِّ أَمۡ أَنتَ مِنَ ٱللَّٰعِبِينَ ۝ 55
उन्होंने कहा, "क्या तू हमारे पास सत्य लेकर आया है या यूँ ही खेल कर रहा है?"॥55॥
قَالَ بَل رَّبُّكُمۡ رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ ٱلَّذِي فَطَرَهُنَّ وَأَنَا۠ عَلَىٰ ذَٰلِكُم مِّنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 56
उसने कहा, "नहीं, बल्कि बात यह है कि तुम्हारा रब आकाशों और धरती का रब है जिसने उनको पैदा किया है, और मैं इसपर तुम्हारे सामने गवाही देता हूँ॥56॥
وَتَٱللَّهِ لَأَكِيدَنَّ أَصۡنَٰمَكُم بَعۡدَ أَن تُوَلُّواْ مُدۡبِرِينَ ۝ 57
और अल्लाह की क़सम! इसके पश्चात् कि तुम पीठ फेरकर लौटो, मैं तुम्हारी मूर्तियों के साथ अवश्य एक चाल चलूँगा।"॥57॥
فَجَعَلَهُمۡ جُذَٰذًا إِلَّا كَبِيرٗا لَّهُمۡ لَعَلَّهُمۡ إِلَيۡهِ يَرۡجِعُونَ ۝ 58
अतएव उसने उन्हें खण्‍ड-खण्‍ड कर दिया सिवाय उनकी एक बड़ी के, कदाचित वे उसकी ओर रुजू करें॥58॥
قَالُواْ مَن فَعَلَ هَٰذَا بِـَٔالِهَتِنَآ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 59
वे कहने लगे, "किसने हमारे देवताओं के साथ यह हरकत की है? निश्चय ही वह कोई ज़ालिम है।"॥59॥
قَالُواْ سَمِعۡنَا فَتٗى يَذۡكُرُهُمۡ يُقَالُ لَهُۥٓ إِبۡرَٰهِيمُ ۝ 60
(कुछ लोग) बोले, "हमने एक नवयुवक को, जिसे इबराहीम कहते हैं, उनके विषय में कुछ कहते सुना है।"॥60॥
قَالُواْ فَأۡتُواْ بِهِۦ عَلَىٰٓ أَعۡيُنِ ٱلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَشۡهَدُونَ ۝ 61
उन्होंने कहा, "तो उसे ले आओ लोगों की आँखों के सामने कि वे भी गवाह रहें।"॥61॥
قَالُوٓاْ ءَأَنتَ فَعَلۡتَ هَٰذَا بِـَٔالِهَتِنَا يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ ۝ 62
उन्होंने कहा, "क्या तूने हमारे देवों के साथ यह हरकत की है, ऐ इबराहीम!"॥62॥
قَالَ بَلۡ فَعَلَهُۥ كَبِيرُهُمۡ هَٰذَا فَسۡـَٔلُوهُمۡ إِن كَانُواْ يَنطِقُونَ ۝ 63
उसने कहा, "नहीं, बल्कि उनके इस बड़े ने की होगी, उन्हीं से पूछ लो, यदि वे बोलते हों।"॥63॥
فَرَجَعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ فَقَالُوٓاْ إِنَّكُمۡ أَنتُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 64
तब वे उसकी ओर पलटे और कहने लगे, "वास्तव में, ज़ालिम तो तुम्हीं लोग हो।"॥64॥
ثُمَّ نُكِسُواْ عَلَىٰ رُءُوسِهِمۡ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَا هَٰٓؤُلَآءِ يَنطِقُونَ ۝ 65
किन्तु फिर वे बिल्कुल औंधे हो रहे। (फिर बोले,) "तुझे तो मालूम है कि ये बोलते नहीं।"॥65॥
قَالَ أَفَتَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يَضُرُّكُمۡ ۝ 66
उसने कहा, "फिर क्या तुम अल्लाह से हटकर उसे पूजते हो जो न तुम्हें कुछ लाभ पहुँचा सके और न तुम्हें कोई हानि पहुँचा सके?॥66॥
أُفّٖ لَّكُمۡ وَلِمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 67
धिक्कार है तुमपर, और उनपर भी जिनको तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो! तो क्या तुम बुद्धि से काम नहीं लेते?"॥67॥
قَالُواْ حَرِّقُوهُ وَٱنصُرُوٓاْ ءَالِهَتَكُمۡ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 68
उन्होंने कहा, "जला दो उसे, और सहायक हो अपने देवताओं के यदि तुम्हें कुछ करना है।"॥68॥
قُلۡنَا يَٰنَارُ كُونِي بَرۡدٗا وَسَلَٰمًا عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 69
हमने कहा, "ऐ आग! ठंड़ी हो जा और सलामती बन जा इबराहीम पर!"॥69॥
وَأَرَادُواْ بِهِۦ كَيۡدٗا فَجَعَلۡنَٰهُمُ ٱلۡأَخۡسَرِينَ ۝ 70
उन्होंने उसके साथ एक चाल चलनी चाही, किन्तु हमने उन्हीं को घाटे में डाल दिया॥70॥
وَنَجَّيۡنَٰهُ وَلُوطًا إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَا لِلۡعَٰلَمِينَ ۝ 71
और हम उसे और लूत को बचाकर उस भू-भाग की ओर निकाल ले गए, जिसमें हमने दुनियावालों के लिए बरकतें रखी थीं॥71॥
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ نَافِلَةٗۖ وَكُلّٗا جَعَلۡنَا صَٰلِحِينَ ۝ 72
और हमने उसे इसहाक़ प्रदान किया और तद्अधिक याक़ूब भी। और प्रत्येक को हमने नेक बनाया॥72॥
وَجَعَلۡنَٰهُمۡ أَئِمَّةٗ يَهۡدُونَ بِأَمۡرِنَا وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِمۡ فِعۡلَ ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَإِقَامَ ٱلصَّلَوٰةِ وَإِيتَآءَ ٱلزَّكَوٰةِۖ وَكَانُواْ لَنَا عَٰبِدِينَ ۝ 73
और हमने उन्हें नायक बनाया कि वे हमारे आदेश से मार्ग दिखाते थे, और हमने उनकी ओर नेक कामों के करने और नमाज़ की पाबन्दी करने और ज़कात देने की प्रकाशना की, और वे हमारी बन्दगी में लगे हुए थे॥73॥
وَلُوطًا ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗا وَنَجَّيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِي كَانَت تَّعۡمَلُ ٱلۡخَبَٰٓئِثَۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمَ سَوۡءٖ فَٰسِقِينَ ۝ 74
और रहा लूत, तो उसे हमने निर्णय-शक्ति और ज्ञान प्रदान किया और उसे उस बस्ती से छुटकारा दिया जो गन्दे कर्म करती थी। वास्तव में वह बहुत ही बुरी और अवज्ञाकारी क़ौम थी॥74॥
وَأَدۡخَلۡنَٰهُ فِي رَحۡمَتِنَآۖ إِنَّهُۥ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 75
और उसको हमने अपनी दयालुता में प्रवेश कराया। निस्संदेह वह अच्छे लोगों में से था॥75॥
وَنُوحًا إِذۡ نَادَىٰ مِن قَبۡلُ فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلۡكَرۡبِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 76
और नूह की भी चर्चा करो जबकि उसने इससे पहले हमें पुकारा था तो हमने उसकी सुन ली, और हमने उसे और उसके लोगों को बड़े क्लेश से छुटकारा दिया॥76॥
وَنَصَرۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمَ سَوۡءٖ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 77
औऱ उस क़ौम के मुक़ाबले में जिसने हमारी आयतों को झुठला दिया था, हमने उसकी सहायता की। वास्तव में वे बुरे लोग थे। अतः हमने उन सबको डुबो दिया॥77॥
وَدَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ إِذۡ يَحۡكُمَانِ فِي ٱلۡحَرۡثِ إِذۡ نَفَشَتۡ فِيهِ غَنَمُ ٱلۡقَوۡمِ وَكُنَّا لِحُكۡمِهِمۡ شَٰهِدِينَ ۝ 78
और दाऊद और सुलैमान पर भी हमने कृपा-दृष्टि की। याद करो जबकि वे दोनों खेती के एक झगड़े का निबटारा कर रहे थे, जब रात को कुछ लोगों की बकरियाँ उसे रौंद गई थीं। और उनका (क़ौम के लोगों का) फ़ैसला हमारे सामने था॥78॥
فَفَهَّمۡنَٰهَا سُلَيۡمَٰنَۚ وَكُلًّا ءَاتَيۡنَا حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَسَخَّرۡنَا مَعَ دَاوُۥدَ ٱلۡجِبَالَ يُسَبِّحۡنَ وَٱلطَّيۡرَۚ وَكُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 79
तब हमने उसे, सुलैमान को, समझा दिया और यूँ तो हरेक को हमने निर्णय-शक्ति और ज्ञान प्रदान किया था। और दाऊद के साथ हमने पहाड़ों को वशीभूत कर दिया था जो तसबीह (महिमागान) करते थे, और पक्षियों को भी। और ऐसा करनेवाले हम भी थे॥79॥
وَعَلَّمۡنَٰهُ صَنۡعَةَ لَبُوسٖ لَّكُمۡ لِتُحۡصِنَكُم مِّنۢ بَأۡسِكُمۡۖ فَهَلۡ أَنتُمۡ شَٰكِرُونَ ۝ 80
और हमने उसे तुम्हारे लिए एक परिधान (कवच) बनाने की कला भी सिखाई थी, ताकि युद्ध में वह तुम्हारी रक्षा करे। फिर क्या तुम आभार मानते हो?॥80॥
وَلِسُلَيۡمَٰنَ ٱلرِّيحَ عَاصِفَةٗ تَجۡرِي بِأَمۡرِهِۦٓ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلَّتِي بَٰرَكۡنَا فِيهَاۚ وَكُنَّا بِكُلِّ شَيۡءٍ عَٰلِمِينَ ۝ 81
और सुलैमान के लिए हमने तेज़ हवा को वशीभूत कर दिया था जो उसके आदेश से उस भू-भाग की ओर चलती थी जिसे हमने बरकत दी थी। हम तो हर चीज़ का ज्ञान रखते हैं॥81॥
وَمِنَ ٱلشَّيَٰطِينِ مَن يَغُوصُونَ لَهُۥ وَيَعۡمَلُونَ عَمَلٗا دُونَ ذَٰلِكَۖ وَكُنَّا لَهُمۡ حَٰفِظِينَ ۝ 82
और कितने ही शैतानों को भी अधीन किया था जो उसके लिए ग़ोते लगाते और इसके अतिरिक्त दूसरा काम भी करते थे। और हम ही उनको संभालनेवाले थे॥82॥
۞وَأَيُّوبَ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥٓ أَنِّي مَسَّنِيَ ٱلضُّرُّ وَأَنتَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 83
और अय्यूब पर भी दया दर्शाई। याद करो जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि "मुझे बहुत तकलीफ़ पहुँची है, और तू सबसे बढ़कर दयावान है।"॥83॥
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ فَكَشَفۡنَا مَا بِهِۦ مِن ضُرّٖۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ أَهۡلَهُۥ وَمِثۡلَهُم مَّعَهُمۡ رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِنَا وَذِكۡرَىٰ لِلۡعَٰبِدِينَ ۝ 84
अतः हमने उसकी सुन ली और जिस तकलीफ़ में वह पड़ा था उसको दूर कर दिया और हमने उसे उसके परिवार के लोग दिए और उनके साथ उनके जैसे और भी दिए अपने यहाँ से दयालुता के रूप में और एक याददिहानी के रूप में बन्दगी करनेवालों के लिए॥84॥
وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِدۡرِيسَ وَذَا ٱلۡكِفۡلِۖ كُلّٞ مِّنَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 85
और इसमाईल और इदरीस और ज़ुलकिफ़्ल पर भी कृपा-दृष्टि की। इनमें से प्रत्येक धैर्यवानों में से था॥85॥
وَأَدۡخَلۡنَٰهُمۡ فِي رَحۡمَتِنَآۖ إِنَّهُم مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 86
और उन्हें हमने अपनी दयालुता में प्रवेश कराया। निस्संदेह वे सब अच्छे और योग्‍य लोगों में से थे॥86॥
وَذَا ٱلنُّونِ إِذ ذَّهَبَ مُغَٰضِبٗا فَظَنَّ أَن لَّن نَّقۡدِرَ عَلَيۡهِ فَنَادَىٰ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ أَن لَّآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنتَ سُبۡحَٰنَكَ إِنِّي كُنتُ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 87
और ज़ुन्नून (मछलीवाले)1 पर भी दया दर्शाई। याद करो जबकि वह बेहद ग़ुस्‍सा हो कर चला गया और समझा कि हम उसे तंगी में न डालेंगे। अन्त में उसनें अँधेरों में पुकारा— "तेरे सिवा कोई इष्ट-पूज्य नहीं, महिमावान है तू! निस्संदेह मैं दोषी हूँ।"॥87॥ —————— 1. हज़रत यूनुस (अलैहि.) की ओर इशारा है।
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ وَنَجَّيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡغَمِّۚ وَكَذَٰلِكَ نُـۨجِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 88
तब हमने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और उसे ग़म से छुटकारा दिया। इसी प्रकार तो हम मोमिनों को छुटकारा दिया करते हैं॥88॥
وَزَكَرِيَّآ إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥ رَبِّ لَا تَذَرۡنِي فَرۡدٗا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلۡوَٰرِثِينَ ۝ 89
और ज़करीया पर भी कृपा की। याद करो जबकि उसने अपने रब को पुकारा, "ऐ मेरे रब! मुझे यूँ अकेला न छोड़, सबसे अच्छा वारिस तो तू ही है।"॥89॥
فَٱسۡتَجَبۡنَا لَهُۥ وَوَهَبۡنَا لَهُۥ يَحۡيَىٰ وَأَصۡلَحۡنَا لَهُۥ زَوۡجَهُۥٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِ وَيَدۡعُونَنَا رَغَبٗا وَرَهَبٗاۖ وَكَانُواْ لَنَا خَٰشِعِينَ ۝ 90
अतः हमने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसे यह्या प्रदान किया और उसके लिए उसकी पत्नी को स्वस्थ कर दिया। निश्चय ही वे नेकी के कामों में एक-दूसरे के मुक़ाबले में जल्दी करते थे। और हमें चाहत और भय के साथ पुकारते थे और हमारे आगे दबे रहते थे॥90॥
وَٱلَّتِيٓ أَحۡصَنَتۡ فَرۡجَهَا فَنَفَخۡنَا فِيهَا مِن رُّوحِنَا وَجَعَلۡنَٰهَا وَٱبۡنَهَآ ءَايَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 91
और वह औरत जिसने अपने सतीत्व की रक्षा की थी, हमने उसके भीतर अपनी रूह फूँकी और उसे और उसके बेटे को सारे संसार के लिए एक निशानी बना दिया॥91॥
إِنَّ هَٰذِهِۦٓ أُمَّتُكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَأَنَا۠ رَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُونِ ۝ 92
"निश्चय ही यह तुम्हारा समुदाय एक ही समुदाय है और मैं तुम्हारा रब हूँ। अतः तुम मेरी बन्दगी करो।"॥92॥
وَتَقَطَّعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡۖ كُلٌّ إِلَيۡنَا رَٰجِعُونَ ۝ 93
किन्तु उन्होंने आपस में अपने मामले को1 टुकड़े-टुकड़े कर डाला। — प्रत्येक को हमारी ओर पलटना है। —॥93॥ ————— 1. अर्थात् अपने दीन-धर्म को।
فَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَا كُفۡرَانَ لِسَعۡيِهِۦ وَإِنَّا لَهُۥ كَٰتِبُونَ ۝ 94
फिर जो अच्छे कर्म करेगा, शर्त या कि वह मोमिन हो, तो उसके प्रयास की उपेक्षा न होगी। हम तो उसके लिए उसे लिख रहे हैं॥94॥
وَحَرَٰمٌ عَلَىٰ قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَآ أَنَّهُمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 95
और वह बस्ती जिसे हमने विनष्‍ट कर दिया कि उसके लोगों की वापसी असम्‍भव है और उनके लिए ज़रूरी है कि वापस न हों॥95॥
حَتَّىٰٓ إِذَا فُتِحَتۡ يَأۡجُوجُ وَمَأۡجُوجُ وَهُم مِّن كُلِّ حَدَبٖ يَنسِلُونَ ۝ 96
यहाँ तक कि वह समय आ जाए जब याजूज और माजूज1 खोल दिए जाएँगे। और वे हर ऊँची जगह से निकल पड़ेंगे॥96॥ ————— 1. ये क़ौम के नाम हैं।
وَٱقۡتَرَبَ ٱلۡوَعۡدُ ٱلۡحَقُّ فَإِذَا هِيَ شَٰخِصَةٌ أَبۡصَٰرُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَٰوَيۡلَنَا قَدۡ كُنَّا فِي غَفۡلَةٖ مِّنۡ هَٰذَا بَلۡ كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 97
और सच्चा वादा निकट आ लगेगा तो क्या देखेंगे कि उन लोगों की आँखें फटी-की-फटी रह गई हैं जिन्होंने इनकार किया था, "हाय, हमारा दुर्भाग्य! हम इसकी ओर से असावधान रहे, बल्कि हम ही अत्याचारी थे।"॥97॥
إِنَّكُمۡ وَمَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ حَصَبُ جَهَنَّمَ أَنتُمۡ لَهَا وَٰرِدُونَ ۝ 98
"निश्चय ही तुम और वह कुछ जिनको तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो सब जहन्नम के ईंधन हो। तुम उसके घाट उतरोगे।"॥98॥
لَوۡ كَانَ هَٰٓؤُلَآءِ ءَالِهَةٗ مَّا وَرَدُوهَاۖ وَكُلّٞ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 99
यदि वे पूज्य होते तो उसमें न उतरते। और वे सब उसमें सदैव रहेंगे भी॥99॥
لَهُمۡ فِيهَا زَفِيرٞ وَهُمۡ فِيهَا لَا يَسۡمَعُونَ ۝ 100
उन्‍हें वहाँ चिल्लाना और साँस खींचना है और हालत यह होगी कि वे वहाँ कुछ भी नहीं सुन सकेंगे॥100॥
إِنَّ ٱلَّذِينَ سَبَقَتۡ لَهُم مِّنَّا ٱلۡحُسۡنَىٰٓ أُوْلَٰٓئِكَ عَنۡهَا مُبۡعَدُونَ ۝ 101
रहे वे लोग जिनके लिए हमारी ओर से पूर्ववत: भलाई अग्रसर हो चुकी है, वे उससे दूर रहेंगे॥101॥
لَا يَسۡمَعُونَ حَسِيسَهَاۖ وَهُمۡ فِي مَا ٱشۡتَهَتۡ أَنفُسُهُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 102
वे उसकी आहट भी नहीं सुनेंगे और अपनी मनचाही चीज़ों के मध्य सदैव रहेंगे॥102॥
لَا يَحۡزُنُهُمُ ٱلۡفَزَعُ ٱلۡأَكۡبَرُ وَتَتَلَقَّىٰهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ هَٰذَا يَوۡمُكُمُ ٱلَّذِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 103
वह सबसे बड़ी घबराहट उन्हें ग़म में न डालेगी। फ़रिश्ते उनका स्वागत करेगें— "यह तुम्हारा वही दिन है जिसका तुमसे वादा किया जाता रहा है।"॥103॥
يَوۡمَ نَطۡوِي ٱلسَّمَآءَ كَطَيِّ ٱلسِّجِلِّ لِلۡكُتُبِۚ كَمَا بَدَأۡنَآ أَوَّلَ خَلۡقٖ نُّعِيدُهُۥۚ وَعۡدًا عَلَيۡنَآۚ إِنَّا كُنَّا فَٰعِلِينَ ۝ 104
जिस दिन हम आकाश को लपेट लेंगे जैसे पंजी में पन्ने लपेटे जाते हैं। जिस प्रकार पहले हमने सृष्टि का आरंभ किया था उसी प्रकार हम उसकी पुनरावृत्ति करेंगे। यह हमारे ज़िम्मे एक वादा है। निश्चय ही हमें यह करना है॥104॥
وَلَقَدۡ كَتَبۡنَا فِي ٱلزَّبُورِ مِنۢ بَعۡدِ ٱلذِّكۡرِ أَنَّ ٱلۡأَرۡضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ ٱلصَّٰلِحُونَ ۝ 105
और हम ज़बूर में याददिहानी के बाद लिख चुके हैं कि "धरती के वारिस1 मेरे अच्छे बन्दें होंगे।"॥105॥ ————— 1. अर्थात् जन्नत की धरती के वारिस या उस भूमि के वारिस जहाँ सत्य और असत्य में संघर्ष हो।
إِنَّ فِي هَٰذَا لَبَلَٰغٗا لِّقَوۡمٍ عَٰبِدِينَ ۝ 106
इसमें बन्दगी करनेवालों लोगों के लिए एक संदेश है॥106॥
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا رَحۡمَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 107
हमने तुम्हें सारे संसार के लिए बस एक सर्वथा दयालुता बनाकर भेजा है॥107॥
قُلۡ إِنَّمَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 108
कहो, "मेरे पास को बस यह प्रकाशना की जाती है कि तुम्हारा पूज्य-प्रभु अकेला पूज्य-प्रभु है। फिर क्या तुम आज्ञाकारी होते हो?"॥108॥
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُلۡ ءَاذَنتُكُمۡ عَلَىٰ سَوَآءٖۖ وَإِنۡ أَدۡرِيٓ أَقَرِيبٌ أَم بَعِيدٞ مَّا تُوعَدُونَ ۝ 109
फिर यदि वे मुँह फेरें तो कह दो, "मैंने तुम्हें सामान्य रूप से सावधान कर दिया है। अब मैं यह नहीं जानता कि जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है वह निकट है या दूर।"॥109॥
إِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلۡجَهۡرَ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ وَيَعۡلَمُ مَا تَكۡتُمُونَ ۝ 110
निश्चय ही वह ऊँची आवाज़ में कही हुई बात को जानता है और उसे भी जानता है जो तुम छिपाते हो॥110॥
وَإِنۡ أَدۡرِي لَعَلَّهُۥ فِتۡنَةٞ لَّكُمۡ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 111
मुझे नहीं मालूम कि कदाचित यह तुम्हारे लिए एक परीक्षा हो और एक नियत समय तक के लिए जीवन-सुख॥111॥
قَٰلَ رَبِّ ٱحۡكُم بِٱلۡحَقِّۗ وَرَبُّنَا ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلۡمُسۡتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ ۝ 112
उसने कहा, "ऐ मेरे रब, सत्य का फ़ैसला कर दे! और हमारा रब रहमान (करुणामय) है। उसी से सहायता की प्रार्थना है उन बातों के मुक़ाबले में जो तुम लोग बयान करते हो।"॥112॥